भारतीय अर्थव्यवस्था कई सामयिक मुद्दों जैसे कोविड-19, पर्यावरण, समाज, प्रौद्योगिकी, अंतरराष्ट्रीय संबंधों तथा अन्य क्षेत्रों में सामना कर रहा है, जिसका समय पर और विश्वसनीय समाधान नहीं किया गया, तो भविष्य में राष्ट्र के आर्थिक विकास के साथ-साथ अन्य विकास संबंधी कार्य भी प्रभावित होंगे। वैश्विक विनिर्माण, व्यापार और मांग के लिए कमजोर परिवेश के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर वर्ष 2018-19 की द्वितीय छमाही की 6.2 प्रतिशत से घटकर 2019-20 की प्रथम छमाही में 4.8 प्रतिशत हो गया, जो कोविड-19 के प्रभाव के कारण वित्त वर्ष 2020-21 में -3.2 प्रतिशत (विश्व बैंक के वैश्विक आर्थिक संभावना रिपोर्ट के अनुसार) होने का अनुमान है।
वर्तमान में, भारत कोविड-19 महामारी के प्रभाव से निपटने का प्रयास कर रहा है, ताकि आर्थिक वृद्धि को पूर्व की भांति सुनिश्चित किया जा सके। भारत ने न केवल कोविड-19 महामारी के दौरान बल्कि पूर्व में भी घरेलू और वैश्विक स्तर पर न केवल सामाजिक बल्कि आर्थिक समस्याओं को हल करने का प्रयास किया है। भारत कृत्रिम बुद्धिमता (मानव रहित विश्व); पर्यावरणीय सक्रियता; सामाजिक अखण्डता व सामंजस्य; वैश्विक स्तर पर वैज्ञानिक विकास; सक्रिय विदेश नीति इत्यादि के क्षेत्र में तीव्र गति से अपनी भागिदारी सुनीश्चित कर रहा है।
जुलाई, 2019 में, केंद्रीय बजट 2019-20 में माननीय प्रधानमंत्री के 2024-25 तक भारतीय अर्थव्यवस्था को 350 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था बनाए जाने संबंधित दृष्टिकोण पर स्पष्ट बल दिया गया है। हालांकि, वैश्विक निर्गम में ह्रास तथा कोविड-19 के प्रभाव के कारण, इस वर्ष के लिए भारत के सकल घरेलू उत्पाद में अपेक्षित वृद्धि की अपेक्षा कम वृद्धि होना, इस उपलब्धि के लिए चुनौती बना हुआ है।
राष्ट्रीय जल मिशन के अंतर्गत भू-जल के अनुवीक्षण, जलभर की मैपिग, क्षमता सृजन, जल गुणवत्ता अनुवीक्षण और अन्य बेसलाइन अध्ययनों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। संघ राज्य क्षेत्रों सहित देश के सभी लक्षित क्षेत्रों के लिए, केन्द्रीय भूजल प्राधिकरण द्वारा ‘‘पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986’’ की धारा 5 के अंतर्गत अनिवार्य वर्षा जल संचयन/छत पर वर्षा जल संचयन हेतु निर्देश जारी किए गए हैं।
भारत प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक उन्नत किस्म के मशीनों तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के विकास में वैश्विक स्तर पर अग्रणी भूमिका निभा रहा है। औद्योगिक नीति और संवर्द्धन विभाग के अंतर्गत अगस्त 2017 में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) पर गठित टास्क फोर्स ने वर्ष 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी, जिसके अनुसार एआई वस्तुतः कुशल मशीनों, विशेष रूप से कुशल कंप्यूटर प्रोग्राम बनाने का विज्ञान और अभियांत्रिकी है। वर्ष 2018 में नीति आयोग ने अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों में मशीन लर्निग को अपनाने के तरीकों पर सुझाव देने के लिए आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस हेतु राष्ट्रीय रणनीति जारी की थी।
तकनीकी विकास एक तटस्थ प्रक्रिया है तथा विश्वसनीय वितरण के अभाव में विकास, संवृद्धि तथा समावेशी विकास के आधार पर कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव नहीं है। परन्तु अधिकार आधारित विकास को ध्यान में रखकर परिवर्तन करना संभव है। इसके पीछे मूल सिद्धांत यह है कि सभी लोगों के पास जन्मजात अमिट अधिकारों के साथ गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार होता है, जिसका वर्णन संविधान के अनुच्छेद 21 में विर्णत है। इसके अलावा, विकास के परिणामों (फलों) के सामंजस्यपूर्ण बंटवारे को सुनिश्चित करने के लिए, एक मजबूत संस्थान की आवश्यकता है, जो समाज के कमजोर और निम्न तबके वाले लोगों के अधिकारों की रक्षा कर सके।
इस समय, भारत में पर्यावरणीय गिरावट के कारण पर्यावरणीय आपदाओं से भी सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। सतत विकास की शुरुआत करने के लिए, पर्यावरण सक्रियता को हाल के दिनों में बल मिला है। लेकिन उपर्युक्त सभी आदर्श विकास को सुनिश्चित करने तथा विश्वसनीय कार्यान्वयन के लिए स्थायी वित्त की अत्याधिक आवश्यकता होती है। परंतु वर्तमान में भारत 2024-25 तक 350 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था बनने पर बल दिया है। हालांकि वैश्विक निर्गम में ह्रास तथा कोविड-19 महामारी के कारण इस वर्ष के लिए भारत के सकल घरेलू उत्पाद में अपेक्षित वृद्धि की अपेक्षा कम वृद्धि होना इस उपलब्धि के लिए चुनौती बना हुआ है।
कोविड-19: वैश्विक महामारी व्यवधान, प्रावधान व प्रभाव
कोविड-19 वायरस के पहले मामले की पहचान दिसंबर 2019 में चीन के हुबेई प्रांत के वुहान शहर में हुई थी। इसकी प्रसार को देखते हुए डब्ल्यूएचओ ने 2019-20 के कोरोनावायरस प्रकोप की घोषणा की, इसके बाद उसने 30 जनवरी 2020 को अंतरराष्ट्रीय चिंता की सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति (पीएचईआईसी) और 11 मार्च 2020 को इसे एक महामारी घोषित कर दिया। इसने अंटाक्रटिका महाद्वीप को छोड़कर सभी महाद्वीप को प्रभावित किया है। भारत सरकार द्वारा कोविड-19 महामारी को जैविक आपदा के रूप में अधिसूचित किया गया है। इसके प्रसार और संक्रमण को सीमित करने के लिए, भारत ने मार्च 2020 में एक सख्त लॉकडाउन अपनाया, जो जून 2020 की शुरुआत तक चला और वर्तमान में एक क्रमिक अनलॉकिंग प्रक्रिया चल रही है। यह महामारी पर्यावरणीय, राजनीतिक, आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी प्रभाव के साथ-साथ व्यक्तियों के मनोवैज्ञानिक कल्याण के लिए एक गंभीर खतरा है और इसके परिणामस्वरूप व्यवहार में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि इस विषम परिस्थिति में कोविड-19 महामारी के कारण महिलाओं, ग्रामीण लोगों और गरीब प्रवासियों जैसे समाज के वंचित वर्ग सर्वाधिक प्रभावित हुए है। इसलिए इसका मुकाबला करने के लिए दुनिया भर की सरकारें विभिन्न विचारों, कार्यक्रमों और नीतियों पर विचार कर रही है।
एआईः मानव रहित विश्व
एआई बनाने में सफलता मानव इतिहास की सबसे बड़ी घटना होगी। दुर्भाग्य से, यह अंतिम भी हो सकती है, जब तक कि हम यह नहीं सीखते कि जोखिमों से कैसे बचा जाए। - स्टीफन हॉकिंग, प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिकीविद्, ब्रह्माण्ड विज्ञानी और लेखक।
जॉन मैकार्थी द्वारा 1956 में पहली बार कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence - AI) का उल्लेख किया गया था।
एआई प्रौद्योगिकी में इतनी संभावनाएं हैं कि यह एक ही समय में भय और आशा दोनों प्रकट करता है। यह प्रसिद्ध सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिन्स के उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है।
एआई वैज्ञानिक समुदाय के लिए चर्चा का विषय रहा है, लेकिन इस विषय के बारे में काफी अस्पष्टता भी है। हर कोई एआई को अपने तरह से परिभाषा करता है, इसके साथ ही तकनीकी संभावनाओं और प्रौद्योगिकी के प्रतिघात के विषय में हर किसी का अपना मत है।
सभी संस्करणों का विश्लेषण करके, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एआई बुद्धिमत्ता का एक रूप है; एक प्रकार की प्रौद्योगिकी और अध्ययन का एक क्षेत्र है।
इस आलोक में हम एआई की मूल बातें पर चर्चा करेंगे, अर्थात इसके ऐतिहासिक विकास पर, इसके विश्व अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर विघटनकारी प्रभाव पर और एआई के लिए भारतीय दृष्टिकोण यानी ‘एआई फॉर ऑल’ विषय पर।
पर्यावरण सक्रियता
पर्यावरणीय सक्रियता का तात्पर्य पर्यावरणीय क्षरण को रोकने और संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए व्यक्तियों और संगठनों के साथ मिलकर काम करने से है। भूजल संसाधनों की कमी, जल निकायों के प्रदूषण, पेयजल की अनुपलब्धता, वायु प्रदूषण में वृद्धि और संसाधनों की बर्बादी जैसी समस्याओं ने भारत सरकार को जल, वायु और संसाधन उपयोग के संबंध में पर्यावरण अनुकूल नीतियों को अपनाने के लिए प्रेरित किया है, ताकि पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण शमन सुनिश्चित करने में सफलता हासिल हो।
जल शक्ति मंत्रालय, जल जीवन मिशन, समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (CWMI), जल शक्ति अभियान (JSA), जल संरक्षण शुल्क (WCF), राष्ट्रीय वायु कार्यक्रम, जीवन योजना, मसौदा राष्ट्रीय संसाधन दक्षता नीति, ई-कचरा क्लीनिक की स्थापना, स्टील स्क्रैप नीति और रीसाइक्लिंग ऑफ शिप एक्ट 2019 अब तक अपनाए गए कुछ प्रमुख उपाय हैं।
भारतीय नीति ढांचे में पर्यावरणीय सक्रियता का पता मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (जिसे स्टॉकहोम सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है) 1972 से लगाया जा सकता है। भारत ने सम्मेलन में भाग लिया और तद्नुसार जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981, वायु प्रदूषण की रोकथाम (नियंत्रण और नियंत्रण) अधिनियम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 लागू किया। पर्यावरण संरक्षण को संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम 1976 द्वारा संविधान में शामिल किया गया था।
अनुच्छेद 48ए को राज्य नीति के निर्देश सिद्धांतों में जोड़ा गया। इसमें कहा गया है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा तथा सुधार और देश के वनों एवं वन्यजीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। इसी तरह, अनुच्छेद 51ए(G) को एक
मौलिक कर्त्तव्य के रूप में जोड़ा गया, जिसके अनुसार, “भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य होगा कि वह जंगलों, झीलों, नदियों एवं वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा तथा सुधार करे और जीवित प्राणियों के प्रति दया भाव रखे।”
सामाजिक एकीकरण एवं समरसता
भारतीय समाज में विभिन्न संस्कृतियों एवं धर्मों के लोग एक साथ शांतिपूर्वक रहते हैं। विविधताओं को भारतीय समाज आत्मसात किए हुए हैं। ‘विविधता में एकता’भारतीय समाज की मौलिक विशेषता है। यह भारतीय संस्कृति और सभ्यता की आधारशिला है। परन्तु, बहुसांस्कृतिक समाज में कुछ अंतर्निहित मुद्दे भी होते हैं, जैसे अल्पसंख्यक अधिकारों की सुरक्षा और राष्ट्रीय एकीकरण से सम्बंधित समस्याएँ आदि। भारतीय समाज में निहित सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ‘फॉल्ट लाइन’समय-समय पर उभर कर सामने आ जाता है; क्योंकि विभिन्न राजनीतिक एवं गैर-राजनीतिक तत्व अपने निहित स्वार्थ के लिए इनका दुरुपयोग करते हैं। भारत की नैतिकता और समग्र संस्कृति को बनाए रखना महत्वपूर्ण है, ताकि सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकीकरण के मध्य संतुलन स्थापित किया जा सके।
भारतीय समाज में सांप्रदायिक सद्भाव और सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए संविधान में कई सुरक्षा उपाय किए गए है, जैसे मौलिक अधिकार, राज्य के निदेशक तत्व और मौलिक कर्त्तव्य आदि। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा कई कदम उठाए गए हैं, उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन (1960) करना, राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव फाउंडेशन की स्थापना (1992) करना, धार्मिक संस्था (दुरुपयोग से बचाव) अधिनियम, 1988 और उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 पारित करना आदि। सांप्रदायिक सौहार्द्र को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा दिशा-निर्देशों को जारी किया गया हैं। आतंकवाद एवं सांप्रदायिक हिंसा से पीडि़त परिवारों को एक मुश्त 3 लाख रुपए की आर्थिक सहायता दी जाती है।
सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 (अनुच्छेद के खंड 1 को छोड़कर) एवं अनुच्छेद 35A निरस्त करने, तीन तलाक अधिनियम को लागू करने, अयोध्या न्याय-निर्णय के पश्चात सामाजिक समरसता का अनुरक्षण करने, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण और नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 आदि जैसे कदम उठाए गए हैं।
सामाजिक न्याय के लिए अधिकार आधारित दृष्टिकोण
विकास को आर्थिक संवृद्धि से हमेशा अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है एवं बदलते समय के अनुसार, विशेषज्ञ इसे पुनः परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। हाल के वर्षों में ‘अधिकार-आधारित दृष्टिकोण’को अपनाने से विकास की परिभाषा में काफी बदलाव आया है। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय विकास एजेंसियां इसको ध्यान में रखते हुए, अपना कार्य सम्पादित कर रही हैं। उदाहरण के लिएः जीवन का अधिकार, काम करने का अधिकार, भोजन का अधिकार, बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार आदि। विकास जैसी गतिशील प्रक्रिया में मानवाधिकार मूल्यवान मार्गदर्शक है।
350 लाख करोड़ अर्थव्यवस्था की पहल
भारत सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। मध्यम अवधि में विकास के अनुमान भारत के लिए उत्साहजनक और आशावादी हैं। भारतीय अर्थव्यस्था की अंतर्निहित क्षमता को सौम्य मुद्रास्फीति, अनुकूल चालू खाता घाटा (सीएडी), प्रबंधनीय राजकोषीय घाटा जैसे मजबूत व्यापक आर्थिक ढांचा (Macroeconomic Framework) दर्शाते हैं। इसके साथ ही 2025 तक भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार को 350 लाख करोड़ अर्थव्यवस्था होने का संकेत भी देते हैं।
इसके आलोक में सरकार ने भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए कई सुधार किए हैं। वर्तमान में कॉर्पोरेट टैक्स अब तक के सबसे कम स्तर पर है और इससे आर्थिक संवृद्धि को बढ़ावा मिलेगा। बैंकिंग क्षेत्र में व्यापक सुधार पेश किए गए हैं; ताकि इसे और अधिक पारदर्शी और लाभदायक बनाया जा सके। नई खनिज नीति, इलेक्ट्रॉनिक्स नीति और ड्रॉफ्ट लॉजिस्टिक नीति का लक्ष्य क्रमशः कोर सेक्टर, सेवा क्षेत्र और परिवहन बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देना है।
भारत की कूटनीतिक आयाम
हाल के वर्षों में भारत की कूटनीति ने नए नेतृत्व में कई नए आयामों को ग्रहण कर इसे शक्ति संतुलन स्थापित करने वाले देश के स्थान पर एक वैश्विक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर किया है।
इस महत्वपूर्ण कूटनीतिक बदलाव को 2020 के रायसीना संवाद में भारत के विदेश सचिव एस- जयशंकर ने रेखांकित करते हुए कहा कि भारत अब अपने पुराने गुटनिरपेक्षता की नीति से आगे बढ़ चुका है तथा अब भारत मुद्दों पर आधारित सहलग्नता की नीति की ओर उन्मुख है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारत अब नियम-आधारित व्यवस्था का अंग बन चुका है। इस बहुपक्षीय नियम आधारित व्यवस्था में भारत की स्थिति एक मजबूत राष्ट्र की बन चुकी है।
भारत की जी20 और इंडो-पैसिफिक या हिन्द प्रशांत क्षेत्र में बढ़ती महत्वपूर्ण भूमिका इसकी बदलते विदेश नीति की ओर इशारा कर रहा है। भारत गुटनिरपेक्षता की नीति से आगे बढ़ते हुए अब बहुपक्षीय नीति की ओर अग्रसर है, जो मुद्दे पर आधारित एवं रणनीतिक रूप से स्वायत्त अन्तरराष्ट्रीय नीति को प्रदर्शित करता है।
नीचे कुछ प्रमुख मुद्दे हैं जहाँ भारत की विदेश नीति ने कुछ नए आयामों को ग्रहण किया है।
भारत में वैज्ञानिक विकास
21वीं सदी में ज्ञान ने पूंजी और श्रम का स्थान ले लिया है, जिसे उत्पादन संसाधन माना जाता है। ज्ञान का प्रयोग कर प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग किया जाता है, जिससे धन का सृजन होता है और बेहतर स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, बुनियादी ढांचा आदि की उपलब्धता बढ़ती है। ज्ञान आधारित समाज की खुशहाली के लिए ज्ञान का बुनियादी ढांचा (Knowledge Infrastructure), ज्ञान कार्यकर्ता (Knowledge Workers) और उनकी उत्पादकता में वृद्धि के लिए नए ज्ञान का सृजन आवश्यक है। जैसे-जैसे समाज प्रगति करता है, वह अपने अतीत के साथ निरंतरता बनाए रखता है तथा सृजित ज्ञान के आधार पर समाज निर्माण होते जाता है।
इस आलोक में भारत ज्ञान सृजन के पथ पर आगे बढ़ रहा है, जो अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के विकास से स्पष्ट है, यथा- रीसैट-2बी, कार्टोसैट-3, मंगलयान, चंद्रयान-2, गगनयान आदि का विकास और इंडोनेशिया के साथ अंतरिक्ष सहयोग। इसके अतिरिक्त आईसीएमआर का स्वास्थ्य नवाचार (विशेष रूप से कैंसर के लिए), मेरा इंडिया (MERA India) जैसे अंतरराष्ट्रीय गठबंधन, नई तकनीकों को अपनाना (जैसे ब्लॉकचेन का कॉफी मार्केटप्लेस में उपयोग), डीडी साइंस जैसे चैनलों का शुभारंभ और इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट निषेध अधिनियम, 2019 जैसे इस दिशा में विधायी उपाय उठाये गए कदम हैं।
भारत के निर्माण में मजबूत संस्थान
दिवंगत राजनीतिक वैज्ञानिक और इतिहासकार बेनेडिक्ट एंडरसन ने राष्ट्र को एक काल्पनिक समुदाय कहा था, जो लोगों को सामान्य कारण के आधार पर एक साथ लाता है एवं एक नई पहचान देता है। राष्ट्र अपने संस्थानों की सहायता से काम करता है। मनुष्य अपने मामलों को संचालित करने के लिए संस्थाओं का निर्माण करता है तथा संस्थाओं के विकास के साथ सभ्यता आगे बढ़ती है। यू.के., फ्रांस और यू.एस. में उल्लेखनीय नवाचारों के साथ चुनावी लोकतंत्र की संस्थाएं सदियों में विकसित हुई हैं, जो हर जगह चुनावी लोकतंत्र के लिए मॉडल प्रदान करती हैं। ये संस्थान केवल ईंट और गारा से नहीं बने हैं। ये सार्थक तब बनते हैं, जब लोगों की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह सामूहिक इच्छा उन मूल्यों को रेखांकित करता है, जो राष्ट्र के उस विचार (सामान्य कारण) को सहारा देता है। भौतिक संरचनाएं, जैसे संसद और अदालतें, कैसे कार्य करते हैं, सबसे अधिक मायने रखता है।
विधायिका, सेना, न्यायपालिका और मीडिया राष्ट्र की महत्वपूर्ण संरचनाएँ हैं। पहला, नियम निर्धारित करता है, दूसरा राज्य का बचाव करता है, तीसरा यह निर्धारित करता है कि क्या सही है और क्या गलत है तथा चौथा जब चीजें गलत होती हैं तो हमें आगाह करता है। उनकी अपनी भूमिकाएँ और सीमाएँ हैं। संस्थानों का मजबूत या कमजोर होना इस पर निर्भर करता है कि इनके अस्थायी प्रभारी कैसे कार्य करते हैं। इन मापदंडों के आधार पर भारत में लोकतंत्र बेहतर स्थिति में है। केंद्र में एक मजबूत सरकार है और संसद ने हाल ही में चिकित्सा शिक्षा, परिवहन, रक्षा, मानवाधिकार और उपभोक्ता संरक्षण के क्षेत्र में बड़े कानूनों को पारित किया है।
सामाजिक विकास
सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) 2011 के अनुसार, भारत में 2 करोड़ 60 लाख व्यक्ति दिव्यांग (PWD) हैं। यह समुदाय विशेष रूप से सुभेद्य है; अतः इनके लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। सामाजिक न्याय एक क्रांतिकारी अवधारणा है, जो जीवन को अर्थ और महत्व प्रदान कर कानून के शासन को गतिशील बनाती है। इसका उद्देश्य कमजोर वर्गों को सशक्त बनाना और न्याय प्रदान करना है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय इस समुदाय की विशेष आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समावेशी भारत पहल, सुगम्य भारत अभियान, राष्ट्रीय वयोश्री योजना आदि जैसी विभिन्न योजनाओं को प्रारंभ किया है।
अल्पसंख्यक
भारत में मुस्लिम, जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और ईसाई अल्पसंख्यक माने जाते हैं। भारत का जन्म ‘द्विराष्ट्र राष्ट्र के सिद्धान्त’के आधार पर न हो धर्म निरपेक्षता के आधार पर हुआ। धर्म-निरपेक्षता का पालन करते हुए अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा एवं विकास सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न पहलें चल रही हैं। प्रधानमंत्री जन विकास कार्यक्रम, जियो पारसी, यूएसएसटीएडी जैसी योजनाएं न केवल अल्पसंख्यकों का सशक्तिकरण; बल्कि उनकी संस्कृति और विरासत के संरक्षण को भी सुनिश्चित करती है। मुसलमानों की तुलनात्मक रूप से शैक्षिक पिछड़ापन, पारसियों की घटती जनसंख्या, सांप्रदायिक हिंसा जैसे मुद्दे भारतीय धर्म-निरपेक्षता पर आक्षेप हैं।
कानून और न्याय
प्राचीन काल से मानव सभ्यता सिद्धांतों/नियमों/विनियमों के समूह द्वारा शासित है। कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ हो या मैकियावेली का ‘प्रिंस’, समाज को नियंत्रित करने वाले इन सिद्धांतों का महत्व निर्विवाद रहा है। समाज को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए विधिक तंत्र को उचित कार्य करने की आवश्यकता होती है, इस उचित कार्य का अर्थ है, सभी को समय पर न्याय सुनिश्चित कराना। कानूनों की जटिलता, महंगे और विलंबित न्याय, न्यायपालिका में मामलों की उच्च विचाराधीनता, अप्रचलित कानूनों को जारी रखना आदि जैसी समस्याओं ने भारतीय कानून और न्याय प्रणाली को बाधित कर रखा है। भारतीय प्रशासन ई-कोर्ट, न्याय मित्र आदि जैसी नीतियों एवं प्रतिक्रिया आंशिक रूप से सफल हुई हैं।
महिला बाल विकास
आजादी के 72 साल बाद भी भारत अपर्याप्त महिला सुरक्षा, उच्च शिशु मृत्यु दर और पितृसत्तात्मक समाज जैसी विकृतियों से ग्रस्त है। भारत सरकार महिला सशक्तिकरण और बाल अधिकारों पर ध्यान केंद्रित कर रही है, लेकिन इसका इष्टतम परिणाम नहीं मिल रहा है। इसका कारण खराब प्रशासनिक प्रणाली या गहरी पितृसत्तात्मक मानसिकता (जो आधुनिक मानदंड को अपनाने के प्रति अनिच्छुक हैं) को माना जा सकता है। मिशन मोड में संचालित लक्षित नीतियां, कल्याणकारी योजनाओं का सामाजिक अंकेक्षण, नीति निर्माण में लैंगिक संवेदनशीलता, निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी आदि कुछ महत्वपूर्ण उपाय हैं, जिसे अपना कर राज्य उचित महिला और बाल विकास सुनिश्चित कर सकते हैं।
आदिवासी मामले
जनगणना-2011 (SECC, 2011) के अनुसार भारतीय जनसंख्या में 8.63% अनुसूचित जनजाति (STs) शामिल हैं। भारत में जनजातीय समुदाय अत्यंत विविध एवं विजातीय है। भाषाओं, जनसंख्या का आकार, रहन-सहन के ढंग को लेकर इनमें अनेकों विविधताएँ हैं। अनादि काल से ये जनजातियां भूमि, जंगल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बिना रोक-टोक के करते आ रहे हैं, लेकिन अंग्रेजों के आगमन, भूमि अधिग्रहण अधिनियम (1894), भारतीय वन अधिनियम (1927) जैसी विभिन्न प्रतिगामी नीतियों के पारित होने के साथ ये जनजातियाँ भूमि, जंगल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर अपने पारंपरिक अधिकारों से वंचित हो गए। स्वतंत्रता के बाद सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी सिर्फ इन अधिकारों की बहाली सुनिश्चित करना ही नहीं, बल्कि जंगल के संरक्षण और देश के विकास के लिए इसे कुशलता से उपयोग करना भी रहा है। विभिन्न नीतियों की सहायता से आदिवासियों से सम्बंधित मुद्दों का समाधान किया जा रहा है।
भारत का संविधान एक जड़ दस्तावेज न होकर देश का सर्वोच्च विधान है, जिसे समय-समय पर संविधान के मूल ढांचा को प्रभावित किए बिना संशोधन किया जाता रहा है। दिसंबर 2019 में 126वां संविधान संशोधन विधेयक (126th Constitutional Amendment Bill) संसद द्वारा पारित किया गया, जिसके माध्यम से अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए लोकसभा एवं विधायी निकायों में आरक्षण की समयावधि में विस्तार करते हुए, इसे 10 वर्ष बढाने का प्रावधान किया गया। दिसंबर 2019 में ही संसद द्वारा नागरिकता संशोधन अधिनियम, (Citizenship Amendment Act) 2019 अधिनियमित किया गया, जिसके माध्यम से नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन किया गया। राज्य तथा संघ शासित प्रदेशों में सुशासन की स्थिति तथा उनके द्वारा किए गए विभिन्न हस्तक्षेपों के प्रभावों का आकलन करने के लिए 25 दिसंबर 2019 को कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय ने सुशासन दिवस (25 दिसंबर) के अवसर पर ‘सुशासन सूचकांक’ (Good Governance Index) की शुरुआत की। इस सूचकांक में तमिलनाडु प्रथम स्थान पर, उसके पश्चात् महाराष्ट्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश का स्थान है। संघ शासित प्रदेशों में पुडुचेरी प्रथम स्थान पर, उसके पश्चात् चंडीगढ़ और दिल्ली का स्थान है। GGI शासन को बेहतर बनाने और परिणामोन्मुखी दृष्टिकोण एवं प्रशासन की ओर अभिमुख होने हेतु उपयुक्त रणनीति तैयार करने तथा उसे लागू करने में सहायता प्रदान करता है।
भारत में संविधान निर्माण हेतु अनेक चरणों से गुजरना पड़ा। भारत में संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन योजना के प्रस्तावों के अनुसार किया गया। संविधान सभा के गठन के लिए नवम्बर 1946 में चुनाव हुआ। दस लाख लोगों के पीछे एक सदस्य चुने जाने का प्रावधान किया गया। संविधान सभा में कुल 389 सदस्य थे, जिनमें 292 प्रान्तों से, 93 देशी रियासतों से व 4 कमिशनरी क्षेत्रों से थे। प्रत्येक प्रान्त और देशी रियासत को अपनी जनसंख्या के अनुपात में स्थान आवंटित किए गए थे।
3 जून, 1947 की योजना के अधीन पाकिस्तान के लिए पृथक् संविधान सभा गठित की गई। विभाजन के परिणामस्वरूप जो संविधान सभा पूर्व में अविभाजित भारत के लिए संगठित की गई थी, उसमें से कुछ सदस्य कम हो गए। 3 जून, 1947 की योजना के अधीन विभाजन के परिणामस्वरूप पाकिस्तान के लिए पृथक् संविधान सभा गठित की गई। बंगाल, पंजाब, सिन्ध, परिचमोत्तर सीमा प्रान्त और असम के सिलहट जिले (जो जनमत संग्रह द्वारा पाकिस्तान में सम्मिलित हुए थे) के प्रतिनिधि भारत की संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे। पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब के प्रान्तों में नए निर्वाचन किए गए। 31 अक्टूबर, 1947 को सभा की सदस्यता घटकर 299 रह गई। इन सदस्यों में से 26 नवम्बर, 1949 को कुल 284 सदस्य उपस्थित थे; जिन्होंने संविधान पर हस्ताक्षर किए। कुल महिला सदस्य संख्या 8 थी।
संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर, 1946 को हुई और इस बैठक में डा. सच्चिदानन्द सिन्हा को संविधान सभा की अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार के पद पर बी. एन. राव को नियुक्त किया गया। 3 जून, 1947 के भारत संविधान की योजना की घोषणा के बाद संविधान सभा का पुनर्गठन किया गया। 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। संविधान निर्माण का कार्य 13 दिसम्बर, 1946 को शुरू हुआ, जब जवाहर लाल नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत किया। यह प्रस्ताव संविधान सभा द्वारा 22 जनवरी, 1947 को पारित कर दिया।संविधान सभा के प्रथम वक्ता डॉ. राधा कृष्णन थे।
संविधान सभा की बैठक तृतीय वाचन (अन्तिम वाचन) के लिए 14 नवम्बर, 1949 को हुई। यह बैठक 26 नवम्बर, 1949 को समाप्त हुई। 26 नवम्बर, 1949 को ही अन्तिम पारित संविधान पर सभापति तथा उपस्थित सदस्यों के हस्ताक्षर हुए। इसी दिन संविधान सभा ने भारत के संविधान को अंगीकार कर लिया। नागरिकता, निर्वाचन और अन्तरिम संसद से सम्बन्धित उपबन्धों को तथा अस्थायी एवं संक्रमण उपबंधों को 26 नवम्बर, 1949 से ही तुरन्त प्रभावी किया गया। सम्पूर्ण संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया।
26 जनवरी, 1950 को भारत को गणतन्त्र घोषित किया गया; इसलिए यही दिन प्रथम गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया गया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति नियुक्त किया गया, संविधान सभा को ही आगामी संसद के चुनाव तक भारतीय संसद के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई। जिस दिन संविधान को अन्तिम रूप से पारित किया गया, उस दिन इसमें कुल 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं। वर्तमान समय में संविधान में 444 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं। संविधान निर्माण में 2 वर्ष 11 माह तथा 18 दिन लगे।
नागरिकता
संविधान के भाग-2 में अनुच्छेद 5 से 11 के बीच नागरिकता के संबंध में विभिन्न मानदण्ड निर्धारित किये गये हैं। नागरिकता प्राप्त करने योग्य वे लोग हैं, जो भारत में रहते आ रहे हों, पाकिस्तान से शरणार्थी के रूप में आये हों तथा वे भारतीय जो अन्य देशों में रह रहे हों। भारत में निवास कर रहे व्यक्तियों में वे हैं, जिनके यहां स्थायी आवास हों, जिनके माता या पिता भारत में जन्म से हों और जो संविधान लागू होने के पांच वर्ष पूर्व से भारत में रह रहे हों। अनुच्छेद 11 संसद को इस बात का अधिकार देता है कि वह नागरिकता से संबंधित मामलों की व्यावस्था करने के लिए कानून बनाए। संसद ने नागरिकता अधिनियम 1955 लागू किया, जिसे 1957, 1960, 1985, 1986, 1992, 2003, 2005, 2015 तथा 2019 में संशोधन किया गया। भारत में एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है। परंतु 2000 में एल- एम- सिंघवी की अध्यक्षता में गठित एक उच्च स्तरीय समिति ने नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन की सिफारिश की; ताकि भारतीय मूल के व्यक्तियों दोहरी नागरिकता प्रदान की जा सके।
मूल अधिकार
संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक माना गया है तथा न्यायपालिका द्वारा उनके प्रवर्तन की व्यवस्था की गयी है। प्रारंभ में इनकी संख्या सात थी, पर चवालीसवें संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा संपत्ति के अधिकार (अब केवल कानूनी अधिकार) को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा कर कानूनी अधिकार बना देने से इनकी संख्या घटकर अब छः रह गयी है।
भारतीय संविधान के भाग 3 को भारत का मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी गई है। डॉ. अम्बेडकर ने मूल अधिकारों से संबंधित संविधान के भाग-3 को ‘सर्वाधिक अलौकिक भाग’ कहा तथा अनुच्छेद 32 को संविधान की आत्मा और हृदय कहा। इन अधिकारों का निर्धारण संविधान सभा द्वारा गठित एक समिति द्वारा किया गया, जिसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल थे।
मूल अधिकारों का तात्पर्य राजनीतिक लोकतंत्र के आदर्शों की उन्नति से है। ये अधिकार देश में व्यावस्था बनाए रखने एवं राज्य के कठोर नियमों के खिलाफ नागरिकों की आजादी की सुरक्षा करने के साथ-साथ विधानमंडल के कानून के क्रियान्वयन पर तानाशाही को मर्यादित करते हैं। मूल अधिकारों के संबंध में 19 सितंबर, 2019 को केरल उच्च न्यायालय द्वारा फहीमा शिरिन बनाम केरल राज्य वाद में इंटरनेट तक पहुंच के अधिकार को मूल अधिकार घोषित किया गया।अंतराज्यीय संबंध
भारतीय संघीय व्यवस्था केंद्र तथा राज्यों के सौहाद्रपूर्ण संबंधों तथा घनिष्ठ सहभागिता के साथ-साथ राज्यों के अंतर्संबंधों पर भी निर्भर करती है। अतः संविधान ने अंतराज्यीय सौहार्द्र के संबंध में अंतराज्यीय जल विवादों के न्यायनिर्णयन, अंतराज्यीय परिषद द्वारा समन्वयता, सार्वजनिक कानूनों, दस्तावेजों तथा न्यायिक प्रक्रियाओं को पारस्परिक मान्यता तथा अंतराज्यीय व्यापार, वाणिज्य एवं समागम की स्वतंत्रता का प्रावधान के अतिरिक्त संसद द्वारा अंतराज्यीय सहभागिता तथा समन्वयता को बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय परिषदों का गठन किया गया है।
अंतर्राज्यीय परिषदें
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 राज्यों के मध्य तथा केंद्र-राज्यों के मध्य समन्वय के लिए अंतर्राज्यीय परिषद के गठन की प्रावधान करता है। इसका गठन राष्ट्रपति के विवेकानुसार समय-समय पर की जाती है। राष्ट्रपति ऐसी परिषद के कर्त्तव्यों, इसके संगठन और प्रक्रिया को परिभाषित (निर्धारित) कर सकता है।
अनुच्छेद 263 के अनुसार अंतराज्यीय परिषद के कर्त्तव्यों का निर्धारण किया गया है, जिसके तहत परिषद को राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों की जांच करना तथा ऐसे विवादों पर सलाह देना; उन विषयों पर, जिनमें राज्यों अथवा केंद्र तथा राज्यों का समान हित हो, अन्वेषण तथा विचार-विमर्श करना तथा नीति और इसके क्रियान्वयन में बेहतर समन्वय के लिए संस्तुति करना।
पूर्वोत्तर परिषद का गठन संसदीय अधिनियम-पूर्वोंत्तर परिषद अधिनियम 1971 द्वारा 1972 में किया गया एक सांविधिक निकाय है। इसके सदस्यों में असम, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा तथा सिक्किम सम्मिलित हैं।
यह पूर्वोत्तर क्षेत्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास हेतु नोडल एजेंसी है। यह एक एकीकृत तथा समन्वित क्षेत्रीय योजना बनाती है, जिसमें साझे महत्व के विषय सम्मिलित हों। इसे समय-समय पर सदस्य राज्यों द्वारा क्षेत्र में सुरक्षा तथा सार्वजनिक व्यवस्था के रख-रखाव के लिए उठाए गए कदमों की समीक्षा करनी होती है।
कार्यपालिका
भारत की संघीय व्यवस्थापिका संसद है, जिसके अंतर्गत राष्ट्रपति, लोकसभा एवं राज्यसभा आते हैं। लोकसभा प्रत्यक्षतः चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा निर्मित है।
इसकी अधिकतम संख्या 552 निर्धारित की गयी है, जिसमें राज्यों से 530 प्रतिनिधि एवं केन्द्रशासित प्रदेशों के 20 प्रतिनिधि होते हैं तथा राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इंडियन समुदाय से दो प्रतिनिधि मनोनीत किये जा सकते हैं। वर्तमान में लोक सभा में 545 सदस्य ही हैं, जिनमें से 543 का निर्वाचन 2 का मनोनयन होता था, जिसे दिसंबर 2019 में 126वां संविधान संशोधन विधेयक द्वारा आंग्ल-भारतीयों (एंग्लो-इंडियन) को लोकसभा एवं विधायी निकायों में नामित (नाम निर्देशित) पदों को समाप्त कर दिया गया।
लोकसभा सदस्यों द्वारा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष निर्वाचित किया जाता है, जो लोकसभा के कार्यों का संचालन करता है तथा इसकी अध्यक्षता करता है।
न्यायपालिका
भारत में इंग्लैंड की संसदीय प्रणाली को आधार बनाकर संसदीय सरकार की स्थापना की गयी है, परंतु इंग्लैंड के संसदीय सर्वोच्चता के सिद्धान्त के बजाय भारत में संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है। भारतीय संविधान के अधीन संघ एवं राज्य दोनों के लिए न्याय की एक ही प्रणाली है, जिसके शीर्ष पर भारत का उच्चतम न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय है। उच्चतम न्यायालय के नीचे विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय हैं और प्रत्येक उच्च न्यायालय के नीचे अधीनस्थ न्यायालय है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 29 अक्टूबर, 2019 को ‘जस्टिस शरद अरविंद बोबडे’ (Justice Sharad Arvind Bobde) को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के रूप में नियुक्त किया। जस्टिस एसए बोबडे भारत के 47वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने पद की शपथ ली।
भारतीय लोकतंत्र ‘विधि के शासन’ के सिद्धांत के अनुसार संचालित होता है, जिसका तात्पर्य है कि ‘कोई भी कानून से ऊपर नहीं है’। भारत का संविधान भारतीय न्यायपालिका को भारतीय लोकतंत्र के अभिभावक और संरक्षक की भूमिका प्रदान करता है। न्यायपालिका एक प्रहरी की भूमिका का निष्पादन करती है, जो किसी भी प्रकार के स्वैच्छिक/मनमाने उल्लंघनों के विरुद्ध मूल और विधायी अधिकारों का परीक्षण एवं प्रवर्तन करती है; परंतु अनेक ऐसे कार्यक्षेत्र रहे हैं, जिनमें स्वयं न्यायपालिका की कार्यवाहियां ही इससे असंगत होने के कारण संदेहास्पद हो गई हैं और इस प्रकार न्यायपालिका की जवाबदेहिता पर सवाल उठाया है।
अप्रैल 2019 में उच्चतम न्यायालय की एक पूर्व कर्मचारी द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था। ज्ञातव्य है कि इस वाद ने न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक जवाबदेहिता के मध्य एक वाद-विवाद को पुनः प्रारंभ किया है।
निर्वाचन आयोग
संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया का पर्यवेक्षण, चुनाव न्यायाधिकरणों की स्थापना एवंतत्संबंधी अन्य मामलों की देखभाल के लिए एक स्वतंत्र निकाय के रूप में निर्वाचन आयोग की स्थापना की गयी है। निर्वाचन आयोग को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निर्वाचनों के लिए मतदाता सूची तैयार कराने और चुनाव के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण’का अधिकार प्राप्त है; परंतु वर्ष 2019 में संपन्न हुए 17वीं लोकसभा चुनाव में भारतीय निर्वाचन आयोग (ECI) की भूमिका विभिन्न कार्यों के कारण विवाद में रहा।
17वीं लोकसभा चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता (MCC) के उल्लंघन की अनेक घटनाएं घटी। आदर्श आचार संहिता संविधान के अनुच्छेद 324 के अनुरूप है, जिसे भारत संघ बनाम हरबंस सिंह जलाल एवं अन्य से संबंधित वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया था। निर्वाचन आयोग MCC को विधिक रूप से बाध्यकारी बनाए जाने के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करता रहा है; लेकिन कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय संबंधी स्थायी समिति ने वर्ष 2013 में MCC को विधिक रूप से बाध्यकारी बनाए जाने तथा इसे जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 का एक अनिवार्य भाग बनाए जाने के संदर्भ में अनुशंसा की थी।
सूचना आयोग
केंद्रीय तथा राज्य सूचना आयोग की स्थापना वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम (2005) के अंतर्गत शासकीय राजपत्र अधिसूचना के माध्यम से की गयी थी। इस प्रकार यह एक संवैधानिक निकाय नहीं है। केंद्रीय तथा राज्य सूचना आयोग एक उच्च प्राधिकारयुक्त स्वतंत्र निकाय है, जो इसमें दर्ज शिकायतों की जांच एवं उनका निराकरण करता है। यह केंद्र सरकार, राज्य सरकार एवं केंद्र शासित प्रदेशों के अधीन कार्यरत कार्यालयों, वित्तीय संस्थानों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों आदि के बारे में शिकायतों एवं अपीलों की सुनवाई करता है। मुख्य सूचना आयुक्त एवं अन्य आयुक्त पांच वर्ष या पैंसठ वर्ष की आयु, दोनों में से जो भी पहले हो, तक पद पर बने रह सकते हैं। जुलाई 2019 में संसद द्वारा सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 पारित किया गया, जिसके तहत मुख्य सूचना आयुक्त (CIC) तथा सूचना आयुक्तों (ICs) के निश्चित कार्यकाल की समाप्ति का प्रावधान किया गया।
आयोग वार्षिक प्रतिवेदन तैयार करने के साथ-साथ सूचना आवेदन दाखिल करने में असमर्थता आदि तथ्यों पर आधारित शिकायत को प्राप्त करना और उनकी जांच करना, सूचना प्रदान करने के लिए द्वितीय अपील का न्यायनिर्णयन, अभिलेखों के रख-रखाव के लिए निर्देश, स्वप्रेरणा से प्रकटन, आर.टी.आई. दाखिल करने की असमर्थता पर शिकायतों की प्राप्ति और जांच आदि, अर्थदण्ड का अधिरोपण और अनुश्रवन तथा प्रतिवेदन आदि से संबंधित कार्य करता हैं आयोग का निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होते हैं।
राष्ट्रपति (केंद्र के संदर्भ में)/राज्यपाल (राज्य के संदर्भ में) मुख्य सूचना आयुक्त एवं अन्य आयुक्तों को उनके पद से हटा सकते हैं। यदि वे दिवालिया हो गये हों; उन्हें नैतिक चरित्रहीनता के किसी अपराध के संबंध में दोषी करार दिया गया हो (राष्ट्रपति की नजर में); वे अपने कार्यकाल के दौरान किसी अन्य लाभ के पद पर कार्य कर रहे हों; वे (राष्ट्रपति की नजर में) वे शारीरिक या मानसिक रूप से अपने दायित्वों का निर्वहन करने में अक्षम हों या वे किसी ऐसे लाभ को प्राप्त करते हुए पाये जाते हैं, जिससे उनका कार्य या निष्पक्षता प्रभावित होती हो।
इसके अलावा, राष्ट्रपति/राज्यपाल आयोग के अध्यक्ष एवं अन्य सदस्यों को सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर भी पद से हटा सकते हैं। हालांकि, इन मामलों में, राष्ट्रपति मामले को जांच के लिये उच्चतम न्यायालय के पास भेजते हैं तथा यदि उच्चतम न्यायालय जांच के उपरांत मामले को सही पाता है तो वह राष्ट्रपति को इस बारे में सलाह देता है, उसके उपरांत राष्ट्रपति अध्यक्ष एवं अन्य सदस्यों को पद को हटा देते हैं।
वर्तमान में भारत की 68.9 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है। अतः गांव और अर्द्ध-शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए प्रशासन अनिवार्य हो जाता है। प्राचीन काल से ही गांव आत्मनिर्भर इकाइयां रही हैं। ग्राम स्वराज (ग्राम स्वशासन) की अवधारणा पर, गांधी जी ने कहा था, "ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि ग्राम पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम् जरूरतों के लिए अपने पड़ोसियों पर निर्भर नहीं करेगा; परंतु अन्य दूसरी जरूरतों के लिए, जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा, परस्पर सहयोग से काम लेगा"। ग्राम सशक्तिकरण की गांधीवादी धारणा को साकार करने की दिशा में एक कदम 1992-93 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों के पारित होने के साथ उठाया गया।
एक राष्ट्र की राष्ट्रीय सुरक्षा उसकी भौगोलिक विशेषताओं, ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के साथ-साथ क्षेत्रीय और वैश्विक विकास से निर्धारित होती है। दुनिया में बढ़ती सामाजिक अशांति और उथल-पुथल, सशस्त्र संघर्ष के कारण दुनिया के सभी राष्ट्र अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं। पाकिस्तान और चीन भारत की सुरक्षा के समक्ष चुनौती उपस्थित करते हैं। ‘अहिंसा’ और पंचशील (शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व) के सिद्धांत में विश्वास करने वाले देश को अपने पड़ोसियों के साथ पांच युद्धों का अनुभव रहा है, जिसमें पाकिस्तान के साथ चार युद्ध 1948, 1965, 1971 और 1999 (कारगिल संघर्ष) और 1962 में चीन के साथ युद्ध शामिल हैं। बढ़ती हुई सीमावर्ती झड़पों के कारण सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की शांति एवं स्थिरता भंग होती है; वहीं दूसरी तरफ महत्वपूर्ण संसाधनों का आर्थिक विकास पर खर्च न कर रक्षा उपकरणों की खरीद पर करना पड़ता है।
पाकिस्तान ‘ब्लीड इंडिया विथ हजार कट्स’ की नीति पर चलकर भारतीय उपमहाद्वीप में शांति की स्थापना एवं प्रगति में बाधा डालता है। उसकी इस नीति के कारण सार्क जैसे क्षेत्रीय संगठन अप्रभावी होने के कगार पर हैं। इस बाधा ने भारत के सुरक्षा वातावरण को गंभीर रूप से प्रभावित करने के साथ आर्थिक स्वतंत्रता को प्रभावित किया है। साइबर सुरक्षा में ड्रोन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आदि को शामिल कर सुरक्षा खतरों एवं आतंकवाद के पारंपरिक रूपों को दूर किया जा रहा है।
आंतरिक भागों में नक्सलवाद की विचारधारा का प्रसार और ‘लाल गलियारा’ की उपस्थति चुनौती बनी हुई है। यह परिघटना विशेष रूप से पिछड़े क्षेत्रों में देखने को मिलती है, जो असमान क्षेत्रीय विकास को दर्शाता है। इन क्षेत्रों का विकास भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में अलग रहा है। भारत सरकार को स्थिर विकास सुनिश्चित करने के लिए इन मुद्दों का समाधान करना आवश्यक है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी समकालीन दुनिया में आर्थिक एवं सामाजिक विकास के महत्वपूर्ण चालक हैं। यह देश को निरंतर और तेजी से विकास हासिल करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। किसी भी देश का विकास वहाँ के लोगों के विकास के साथ जुड़ा हुआ होता है। इसके मद्देनजर यह जरूरी हो जाता है कि जीवन के हर पहलू में विज्ञान-तकनीक और शोध कार्य अहम भूमिका निभाएं। विकास के पथ पर कोई देश तभी आगे बढ़ सकता है, जब उसकी आने वाली पीढ़ी के लिये सूचना और ज्ञान आधारित वातावरण बने और उच्च शिक्षा के स्तर पर शोध तथा अनुसंधान के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हों।
आधुनिक समाज और जीवन शैली
नयी प्रौद्योगिकी ने संचार के विभिन्न स्वरूपों को गति प्रदान की हैै। शिक्षा की नई प्रणाली में आधुनिक और उदारवादी प्रवृत्ति थी। यूरोप में हुए पुनर्जागरण, धर्म-सुधारक आंदोलन और प्रबोधन आंदोलन से उत्पन्न साहित्य को सामाजिक विज्ञान और भाषा-साहित्य में सम्मिलित किया गया। इस नए प्रकार के ज्ञान में मानवतावादी, पंथनिरपेक्ष और उदारवादी प्रवृत्तियां थी, जो आधुनिक समाज की ओर अग्रसर किया। आधुनिकता के कारण न केवल नए विचारों को राह मिली बल्कि परंपरा पर भी पुनर्विचार हुआ और उसकी पुनर्विवेचना भी हुई। संस्कृति और परंपरा दानों का ही अस्तित्व सजीव है और मानव उन दोनों को ही सीखने के साथ-साथ उसमें बदलाव लाता है।
अंतरिक्ष विज्ञान
भारतीय अंतरिक्ष संगठन (ISRO) अंतरिक्ष यात्रियों को मानव मिशन प्रशिक्षण से सम्बंधित गतिविधियों का संचालन के लिए 6 जनवरी, 2020 को मानव अन्तरिक्ष अवसंरचना केंद्र (Human Space Flight Infrsatructure Centre- HSFIC) के निर्माण का प्रस्ताव रखा है, विदित है कि भारत द्वारा 2022 की गगन मिशन के तहत अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में भेजा जाना प्रस्तावित है। अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी देश की विविध सामाजिक, आर्थिक विकासात्मक जरूरतों की क्षमता से युक्त एक स्वदेशी प्रयास है; जो प्रसारण, संचार, मौसम विज्ञान,अंतरिक्ष अन्वेषण, आपदा प्रबंधन, प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में सहयोग करता है।
सार्वभौमिक स्वास्थ्य सुरक्षा
सभी नागरिकों को सार्वभौमिक स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के उद्देश्य से सरकार ने विभिन्न स्वास्थ्य योजनाओं एवं कार्यक्रमों की शुरुआत की एवं उसे लागू किया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 47 में स्वास्थ्य से संबंधित विषयों का प्रावधान किया गया है। अच्छे स्वास्थ्य एवं पोषण-स्तर के लिए उत्तम स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं, समय पर उचित जांच तथा सबके लिए समुचित पोषण अत्यंत महत्वपूर्ण है। अतः ‘गुड हैल्थ एवं न्यूट्रिशन फॉर ऑल’ का नारा को सर्वव्यापी मिशन बनना चाहिए।
पोषण और आहार
पोषण आहार-तत्व सम्बन्धी विज्ञान है। यह एक नई विचारधारा है, जिसका जन्म मूलतः शरीर विज्ञान तथा रसायन विज्ञान से हुआ है। आहार तत्वों द्वारा मनुष्य के शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन एवं विश्लेषण इसका मुख्य विषय है। दूसरे शब्दों में शरीर आहार सम्बन्धी सभी प्रक्रियाओं का नाम ही पोषण है।
संचारी और गैर-संचारी रोग
सामाजिक पर्यावरण हमारे व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए अधिक महत्वपूर्ण है तथा भौतिक पर्यावरण का निर्धारण सामाजिक पर्यावरण द्वारा ही होता है। इन सामाजिक पर्यावरण में रोगों का संचार होता है, जिसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न हो सकती है और कई कारकों पर निर्भर करती है। बहुत से सूक्ष्मजीवीय कारक रोगी से अन्य स्वस्थ मनुष्य तक विभिन्न तरीकों से फैलते हैं इन्हें संचारी रोग कहते हैं। ऐसे रोगों के सूक्ष्म जीव हवा द्वारा फैलते हैं। ऐसा तब होता है जब रोगी मनुष्य छींकता अथवा खांसता है। हाल ही में विश्व के विभिन्न देशों में फैला कोरोना वायरस एक संचारी वायरस है, जिससे विश्व में हजारों लोगों की मृत्यु हुई।
जैव प्रौद्योगिकी
जैव प्रौद्योगिकी जीवित जीवों एवं उनकी जैविक प्रक्रियाओं के औद्योगिक उपयोग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसमें जैव-रसायन, सूक्ष्म-जैविकी, अनुवंशिकी, अभियंत्रिकी आदि, जिन्हें मानव कल्याण में उपयोग किया जा सकता है। सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी की तरह भारत को जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व की अग्रणी ताकत बनाना है और साल 2025 तक इस उद्योग को 100 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। इसके तहत नए जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के निर्माण, अनुसंधान एवं विकास के लिये सृदृढ ढांचा तैयार करने, व्यावसायीकरण तथा मानव संसाधनों को वैज्ञानिक एवं तकनीकी तौर पर सशक्त बनाने की दिशा में मिशन के रूप में काम करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
रक्षा प्रौद्योगिकी
रक्षा प्रौद्योगिकी देश को सामरिक रूप से सम्पन्न बनाने के साथ-साथ सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी सशक्त बनाता है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) देश का एक महत्वपूर्ण संगठन है, जो रक्षा प्रौद्योगिकी के विकास में लगा हुआ है। इसका मिशन आधुनिक किस्म की रक्षा प्रणालियां और प्रौद्योगिकियों का विकास करना और देश की रक्षा सेवाओं के लिए प्रौद्योगिकी समाधान प्रदान करना है। हाल के वर्षों में डीआरडीओ ने आत्मनिर्भरता पर ध्यान दिया है, जिससे रक्षा सेवाओं के लिए आधुनिक प्रणालियां और महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियां विकसित हुई है और आत्मनिर्भरता का सूचकांक 30 प्रतिशत से बढकर 50 प्रतिशत हो गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन
यह स्वास्थ्य के लिए संयुक्त राष्ट्र की विªशेषज्ञ अंतर-सरकारी संगठन है, जो आमतौर पर सदस्य देशों के स्वास्थ्य मंत्रालयों के जरिए उनके साथ मिलकर काम करता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन विश्व में स्वास्थ्य संबंधी मामलों में नेतृत्व प्रदान करने, स्वास्थ्य अनुसंधान एजेंडा को आकार देने, नियम और मानक तय करने, प्रमाण आधारित नीतिगत विकल्प पेश करने, देशों को तकनीकी समर्थन प्रदान करने तथा स्वास्थ्य संबंधी रुझानों की निगरानी और आकलन करने के लिए जिम्मेदार है।यह मातृ, नवजात, बाल एवं किशोर स्वास्थ्य, संचारी रोग नियंत्रण; गैर-संचारी रोग एवं स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक; सार्वभौम स्वास्थ्य सेवा प्रसार; सतत् विकास और स्वस्थ पर्यावरण; स्वास्थ्य तंत्रों का विकास, स्वास्थ्य सुरक्षा और आपातस्थितियां के क्षेत्र में कार्य करता है।
सूचना एवं प्रौद्योगिकी
सुचना एवं प्रौद्योगिकी मानव जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी होता जा रहा है, जिसे और सरल बनाने के लिए सरकार प्रयासरत है। सूचना के बढते मांग को देखते हुए, भारत के दूरसंचार मंत्रालय ने मोबाइल ऑपरेटरों को जून 2019 से 5G परीक्षण प्रारंभ करने की अनुमित देने का निर्णय लिया। 5G एक वायरलेस संचार तकनीक है, जो डेटा को प्रसारित करने और प्राप्त करने के लिए रेडियो तरंगों या रेडियो फ्रीक्वेंसी ऊर्जा का उपयोग करती है। यह 4G LTE नेटवर्क के बाद अगली पीढ़ी की मोबाइल नेटवर्क तकनीक है। हाल ही में संपन्न हुए वैश्विक नवाचार सूचकांक 2019 में भारत का 52वां स्थान प्राप्त हुआ।
दिसंबर 2019 में भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में भारत में 2017 की तुलना में देश के हरित क्षेत्र में 5,188 वर्ग किमी की बढ़ोत्तरी हुई है, जिसमें वन क्षेत्र और वन से इतर वृक्षों से आच्छादित हरित क्षेत्र भी शामिल है, जोपर्यावरणीय प्रदूषण को कम करने की दिशा में एक सकारात्मक संकेत है, वहीं आमेजन और ऑस्ट्रेलिया के वनों में लगीभीषण आग ने पूरे विश्व के पर्यावरण को प्रभावित कर दिया है। केंद्र सरकार द्वारा पर्यावरण को प्रभावित करने वाले प्लास्टिक के सिंगल यूज को खत्म करने के लिए 2 अक्टूबर, 2019 से एक पहल आरंभ की गई। इसका उद्देश्य वर्ष 2022 तक देश से प्लास्टिक के इस्तेमाल को पूरी तरह से खत्म करना है।
सतत विकास
वर्ष 2020 में जारी ‘एसडीजी भारत सूचकांक’ रिपोर्ट में केरल प्रथम स्थान पर रहा। नीति आयोग ने संयुक्त राष्ट्र की मदद से ‘एसडीजी भारत सूचकांक’ पहली बार वर्ष 2018 में जारी किया था। आर्थिक समीक्षा 2019-20 के अनुसार, ‘‘भारत का सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करना पूरी तरह से मानव संसाधन में निवेश और समावेशी विकास पर निर्भर है। सतत विकास को हासिल करने के लिये वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र में महत्त्वाकांक्षी ‘सतत विकास लक्ष्य’ प्रस्तुत किये गए, जो वर्ष 2016-2030 तक के लिये लक्षित है।
सतत विकास, विकास की एक ऐसी अवधारणा है, जो आर्थिक रूप से व्यवहार्य, सामाजिक रूप से स्वीकार्य और पर्यावरण की दृस्टि से संतुलित हो। गरीबी में कमी, सामाजिक समानता और पर्यावरण सुरक्षा पारस्परिक रूप से एक-दूसरे से सम्बद्ध है। अतः सतत विकास के लिए स्थानीय संसाधनों का विकास, स्थानीय उत्पाद में वृद्धि, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, गरीबी में कमी, सामाजिक समानता और पर्यावरण सुरक्षा अपेक्षित है। सतत विकास को प्राप्त करने के लिए निर्णय निर्माण में व्यापक जन-भागीदारी और सामाजिक उत्तरदायित्व को मूलभूत आधार माना गया है।
जलवायु परिवर्तन
भारत पहली बार वर्ष 2019 के जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (सीसीपीआई) में शीर्ष दस देशों की सूची में 9वें स्थान पर है। वैज्ञानिकों के अनुसार हाल के वर्षों में जिस तेजी से भारत में जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उतनी तेजी से पिछले 100 वर्षों में कभी नहीं हुआ। यहाँ के वर्तमान कार्बन उत्सर्जन की दर को देखते हुए वैज्ञानिकों ने अंदेशा जताया है कि वर्ष 2030 तक भारत का औसत तापमान लगभग 1°C बढ़ जायेगा।
जलवायु परिवर्तन कृषि, जल संसाधन, वन और जैव विविधता, स्वास्थ्य, तटीय प्रबंधन और तापमान में वृद्धि पर कई प्रतिकूल प्रभावों से जुड़ा है।
कृषि उत्पादकता में गिरावट भारतीय जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य प्रभाव है। जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव अब भारत में विकास की निरंतर बढ़ रही गति के लिये भी एक बड़ा खतरा हो गया है।
जैव विविधता
वर्ष 2019 में आयोजित अंतरराष्ट्रीय जैव-विविधता दिवस का लक्ष्यजैव विविधता और स्वास्थ्य पारिस्थितिकी प्रणालियों पर हमारी खाद्य प्रणालियों, पोषण और स्वास्थ्य की निर्भरता के संबंध में जागरुकता फैलाना है। भारत सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों से जहाँ एक ओर लुप्तप्राय बाघों की संख्या वर्ष 2018 में बढ़कर 2,967 हो गई, जो वर्ष 2014 में 2,226 थी, वहीं सरकार कई अन्य मत्वपूर्ण जीवों जैसे गिध, मगरमच्छ, कछुआ आदि के संरक्षण के लिये भी निरंतर प्रयास कर रही है। विभिन्न प्रकार के जीवों की अपनी अलग-अलग भूमिका होती है, जो प्रकृति को संतुलित रखने तथा हमारे जीवन की मूलभूत अवश्यकताओं को पूर्ण करने, सतत विकास के लिये संसाधन प्रदान करने में अपना योगदान करते हैं।
प्रदूषण
देश में निरंतर दूषित हो रहे वायु को स्वच्छ बनाने हेतु सरकार ने वर्ष 2019 में नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (एनसीएपी) की घोषणा की। वर्तमान में देश के 122 शहरों को इसमें शामिल किया गया है। एनसीएपी के तहत इन शहरों को साल 2024 तक अपने वायु प्रदूषण को मौजूदा स्तर से 20.30% कम करना है। डब्ल्यूएचओ के मानदंडों के अनुसार हवा में पीएम 2.5 की अधिकतम सीमा सालाना 10 माइक्रोग्राम ही हो सकती है। भारत की 90% से अधिक आबादी ऐसी हवा में सांस ले रही है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानदंडों के मुताबिक असुरक्षित है। हवा को जहरीला बनाने में सल्फर और नाइट्रोजन की बड़ी भूमिका है।
मौसम, चक्रवात और मानसून
जनवरी, 2020 में भारतीय मौसम विभाग ने भारत जलवायु रिपोर्ट, 2019 जारी किया, जिसमें इस बात का उल्लेख किया गया है कि किस प्रकार भारत में आने वाली चक्रवातों जैसे फैनी, वायु आदि ने भारत में तबाही मचाई है। इसमें अरब सागर से उठने वाले चक्रवातों ने विशेष रूप से प्रभावित किया। मौसम विभाग के अनुसार वर्ष 2019 में उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से आने वाली गर्म हवाओं के कारण तापमान में 4 से 5 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई, जो न सिर्फमनुष्यों; बल्कि कृषि, पशुओं व पृथ्वी पर पाई जाने वाली अन्य जीव जन्तुओं के लिए भी काफी हानिकारक है।
मौसम किसी भी स्थान की औसत जलवायु होती है, जिसे कुछसमयावधि के लिए वहां अनुभव किया जाता है। इस मौसम को तय करने वाले मानकों में वर्षा, सूर्य का प्रकाश, हवा, नमी व तापमान प्रमुख है।
मौसम में बदलाव काफी जल्दी होता है, लेकिन जलवायु में बदलाव आने में काफी समय लगता है और इसीलिए ये कम दिखाई देते हैं।
वन विकास
भारतीय वन अधिनियम (Indian Forest Act), 2019 की परिकल्पना भारतीय वन अधिनियम, 1927 में संशोधन के रूप में की गई है। यह भारत के वनों की समकालीन चुनौतियों का समाधान करने का एक प्रयास है। इसमें वन अपराध को रोकने के लिये हथियारों आदि का उपयोग करते हुए वन-अधिकारी को क्षतिपूर्ति प्रदान करने का प्रस्ताव दिया गया है। संशोधन में वनों की एक नई श्रेणी भी शामिल की गई, जिसे उत्पादक वन कहा गया है। इनमें वे वन शामिल हैं, जो एक निर्दिष्ट अवधि के लिए देश में उत्पादन बढ़ाने के लिए लकड़ी, लुगदी, जलाऊ लकड़ी, गैर-लकड़ी वन उपज, औषधीय पौधों या देश में उत्पादन बढ़ाने के विशिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होंगे।
नदी विकास व पर्यावरण
नदियों को स्वच्छ बनानेकी अपनी योजना के तहत केंद्रसरकार ने जून 2019 में इनकी सफाई का कार्य केंद्रीय वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से लेकर केंद्रीयजलशक्ति मंत्रालय को सौंप दिया। अब तक जलशक्ति मंत्रालय के पास सिर्फ गंगा और उसकी सहायक नदियों की सफाई का ही जिम्मा था, लेकिन अब वह शेष नदियों के प्रदूषण को दूर करने का काम करेगी। कैबिनेट सचिवालय ने सरकार (कार्य आबंटन) नियम, 1961 में संशोधन करते हुए केंद्रीय जल संसाधन नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय का नाम बदलकर जलशक्ति मंत्रालय करने की अधिसूचना जारी कर दी है। इसके साथ ही पेयजल व स्वच्छता मंत्रालय का विलय भी जलशक्ति मंत्रालय में कर दिया गया है।
जल संरक्षण
सरकार ने वित्त वर्ष 2020-2021 के बजट में जल जीवन मिशन के लिए 11,500 करोड़ रुपये की राशि आवंटित की है। इसका लक्ष्य सभी घरों तक पाइप से स्वच्छ पानी पहुँचाना है। वर्तमान में स्वच्छ, ताजा पानी इस धरती पर एक सीमित संसाधन है। विश्व के विभिन हिस्सों में पड़ने वाले गंभीर सूखे के समय, मीठे पानी की सीमित आपूर्ति हमारे सबसे कीमती संसाधनों में से एक है। पृथ्वी पर प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए पानी की आवश्यकता होती है। इसके बिना, विभिन प्रकार की बीमारियों के होने का खतरा रहता है, यहां तक कि इससे मृत्यु भी हो जाती। पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये जल का संरक्षण और बचाव बहुत जरूरी होता है, क्योंकि बिना जल के जीवन संभव नहीं है। जीवन चक्र को बनाये रखने में जल मदद करता है, क्योंकि वर्तमान में पृथ्वी इकलौता अकेला ऐसा ग्रह है, जहाँ पानी और जीवन मौजूद है।
सफ़ाई एवं अपशिष्ट प्रबंधन
सितंबर 2019 में विश्व बैंक द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, तीव्र नगरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण 2025 तक भारत में प्रतिदिन का अपशिष्ट उत्पादन 3,77,000 टन तक पहुँच जायेगा। स्वच्छ भारत मिशन के तहत सरकार ने ‘मिशन जीरो वेस्ट’ को अपनाया है, जिसका उद्देश्य देश में उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थों का प्रभावी ढंग से प्रबंधन करना है। इसके तहत मुख्य बल रिडड्ढूस, रियूज, रिसाइकल, यानी 3त् पर दिया जा रहा है। अपशिष्ट प्रबंधन परिवहन, संसाधन, पुनर्चक्रण या अपशिष्ट के काम में प्रयोग की जाने वाली सामग्री का संग्रह है।
आपदा एवं आपदा प्रबंधन
सितम्बर 2019 में आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना को अमेरिका में आरंभ किया गया। आपदा प्रतिरोधी अवसंरचना का उद्देश्य बुनियादी सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुंच का विस्तार करना तथा सतत विकास लक्ष्यों को सक्षम बनाना है। इसके अलावा आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंडाई फ्रेमवर्क तथा पेरिस समझौते के अंतर्गत निर्धारित लक्ष्यों को भी समन्वित किया जाएगा।
एक प्राकृतिक या मानव जनित विनाशकारी परिघटना, जिसमें व्यापक मानव क्षति होती है तथा प्रभावी क्षेत्र में संपत्ति तथा आजीविका की भी व्यापक हानि होती है, आपदा कहलाती है। संयुक्त राष्ट्र के द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार, जब विनाशकारी परिघटना से हुई क्षति प्रभावित समुदाय के सहन तथा प्रबंधन क्षमता से परे होती है, तब उसे आपदा कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में समुदाय बाहरी सहायता पर आश्रित हो जाता है।
भारत में कृषि के प्राचीनतम साक्ष्य दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों और सिंधु घाटी सभ्यता से प्राप्त हुए हैं। कृषि अपने संबद्ध क्षेत्रों के साथ देश में सबसे बड़ी आजीविका का साधन है, आर्थिक समीक्षा 2019-20 के अनुसार 70 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण भारतीय अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। इसमें 82% किसान लघु एवं सीमांत है। ग्रामीण विकास के लिए धारणीय कृषि को बढ़ावा देना आवश्यक है, जिससे खाद्य सुरक्षा, मिट्टी संरक्षण, सतत प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन और जैव विविधता का संरक्षण हो सके।
स्वतंत्रता के बाद भारत में खाद्य और नकदी फसलों की आपूर्ति में सुधार के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए गए। ‘ग्रो मोर फूड’ अभियान (1940 के दशक में) और एकीकृत उत्पादन कार्यक्रम (1950 के दशक में) क्रमशः खाद्य और नकदी फसलों की आपूर्ति पर केंद्रित थे। इसके बाद भारत में पंचवर्षीय योजनाएँ प्रारंभ की गई, जो मुख्य रूप से कृषि विकास पर केन्द्रित थीं। भूमि विकास, मशीनीकरण, विद्युतीकरण, रसायनों का उपयोग (विशेष रूप से उर्वरक) आदि कार्यक्रमों को अपनाया गया।
भारत में 1960 के दशक से ‘उत्पादन क्रांति’ शुरू की गई, जिसमें हरित क्रांति, पीली क्रांति (1986-1990), ऑपरेशन फ्लड (डेयरीः 1970-1996), नीली क्रांति (मछली पकड़नाः 1973-2002) आदि शामिल हैं। 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की गई, जिसका श्रेय कृषि सुधारों, कृषि-प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना और जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नवाचारों को दिया जाता है। वर्तमान में, भारत विभिन्न कार्य योजनाओं के माध्यम से 2022 तक कृषि-आय को दोगुना करने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है। इनमें से कुछ योजनाएं निम्नलिखित हैं:
भारत की कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कृषि मंत्रालय द्वारा कई कृषि योजनाओं की शुरुआत की गई है। इन योजनाओं का मुख्य उद्देश्य पानी और भूमि की कमी, मिट्टी की गुणवत्ता में गिरावट और जलवायु परिवर्तन से प्रेरित तापमान में वृद्धि और वर्षा परिवर्तनशीलता जैसे मुद्दों से निपटना है। इन योजनाओं के सफल कार्यान्वयन से कृषिगत वस्तुओं की मूल्य अस्थिरता आने के साथ ही आय असमानता को कम किया जा सकेगा।
सरकार खेती को एक व्यवहार्य गतिविधियों में बदलना चाहती हैं, जिससे किसानों के कल्याण पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। खेत की व्यवहार्यता तभी संभव है, जब खेती की लागत कम हो जाये। इससे खेत की प्रति इकाई उपज बढ़ेगी और किसानों को उनकी उपज का उचित पारिश्रमिक मूल्य मिलेगा।
सेवा क्षेत्र भारत के सकल घरेलू उत्पाद का प्रमुख घटक है, जो सकल संवर्द्धन मूल्य और संवर्द्धन मूल्य वृद्धि में इसका योगदान (हिस्सा) 55 प्रतिशत है। सेवा निर्यात भारत के कुल अंतर्प्रवाह का दो-तिहाई कुल निर्यात का 38 प्रतिशत है। सेवा क्षेत्र में व्यापार, होटल और रेस्तरां, परिवहन, भंडारण और संचार, बीमा सेवा जैसी विविध गतिविधियों को शामिल किया जाता है। सेवा क्षेत्र के संवर्द्धन के लिए सरकार द्वारा विभिन्न पहल प्रारंभ की गई हैं। अधिसूचित सेवाओं (जैसे लेखा, वास्तुकला, इंजीनियरिंग, अस्पताल, होटल आदि) के लिए भारत से सेवा निर्यात (एसईआईएस) प्रोत्साहन में 2% की वृद्धि, डड्ढूटी क्रेडिट स्क्रिप की वैधता अवधि को 18 महीने से बढ़ाकर 24 महीने करना, स्क्रिप के स्थानांतरण/बिक्री पर जीएसटी की दर को शून्य करना आदि जैसे पहल आरम्भ की गई है।
सांख्यिकी और योजना एवं कार्यान्वयन मंत्रालय के सकल मूल्य संवर्द्धन (जीवीए) के प्रथम अग्रिम अनुमानों के अनुसार वृद्धि दर 2018-19 में 7.5 प्रतिशत से घटकर 2019-20 में 6.9 प्रतिशत पर पहुंच गई। वित्तीय सेवाओं, रियल एस्टेट और पेशेवर सेवाओं की वृद्धि दर में 2019-20 के दौरान कमी दर्ज की गई है तथा व्यापार, होटल, परिवहन, संचार और प्रसारण सेवाओं की वृद्धि दर में 2019-20 में कमी हुई है जिससे इसकी वृद्धि दर 5.9 प्रतिशत रही।
"शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसका उपयोग आप दुनिया को बदलने के लिए कर सकते हैं" नेल्सन मंडेला।
उपर्युक्त प्रसिद्ध उद्धरण शिक्षा के मूल महत्व को बताता है और यह भारत के संबंध में अधिक प्रासंगिक है। भारत एक ऐसे चर" से गुजर रहा है, जहाँ इसकी उत्पादक जनसंख्या (15 से 64 वर्ष आयु वर्ग) उच्चतम (65%) है। जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाने के लिएशिक्षा और कौशल दो सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं, जिन पर भारत को ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत 73.0% साक्षरता के साथ अपनी शैक्षिक नीति के संबंध में सही दिशा में प्रगति कर रहा है। शिक्षा की पहुंच ने ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में सभी स्तरों पर शिक्षा प्रणाली में भागीदारी को बेहतर बनाया है। महिलाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए आाईटीआई के व्यापक नेटवर्क के माध्यम से आवश्कय कौशल प्रदान करने के प्रयासों को बढ़ाते हुए कौशल विकास को आगे बढ़ाया गया है। अर्थव्यवस्था में कुल औपचारिक रोजगार में वर्ष 2011-12 के 8 प्रतिशत की तुलना में 2017-18 में 9.98 प्रतिशत की वृद्धि हुई। भारत में शिक्षा और कौशल को बढ़ाने के उद्देश्य से केन्द्र सरकार ने वित्त वर्ष 2020-21 में शिक्षा क्षेत्र के लिए 99,300 करोड़ रुपये तथा कौशल विकास के लिए 3000 करोड़ रुपये प्रदान करने का प्रस्ताव पारित किया है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम, सर्वशिक्षा अभियान और मिड-डे मील योजना जैसी पहल ने प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमिकरण सुनिश्चित किया है, जबकि IMPRESS, GIAN और IMPRINT जैसी पहलें उच्च शिक्षा को सुलभ और आकर्षक बना रही हैं। प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता, शैक्षिक परिणाम और उच्च शिक्षा में नौकरी उन्मुख कौशल की कमी अभी भी बनी हुई है। जब तक इन विकृतियों को दूर नहीं किया जाता है, तब तक भारत में जनसांख्यिकीय लाभांश का सपना सीमित रहेगा।
स्कूली शिक्षा और साक्षरता
मानव विकास की गति को बनाए रखने तथा इसको और अधिक तेज गति प्रदान करने के लिए सामाजिक सेवा में शिक्षा की भूमिका अति महत्वपूर्ण है। सतत विकास लक्ष्य-4 के तहत वर्ष 2030 तक समस्त लोगों को समावेशी एवं समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराने का प्रयास किया गया है और साथ ही सभी के लिए आजीवन सीखने के अवसरों को बढावा दिया गया है।
भारत में बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 के अंतर्गत 6-14 वर्ष तक के आयु के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाती है।
भारतीय संविधान में निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा अनुच्छेद 21क को जोडकर की गई।
वर्ष 1993 में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत स्वयं जीवन के अधिकार में प्राथमिक शिक्षा को मूल अधिकार में जोड़ा और व्यवस्था की कि भारत के किसी भी बच्चे को 14 वर्ष की आयु तक निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाए।
स्कूली बच्चों के विकास के लिए सरकार की दूरदर्शिता जय विज्ञान, जय अनुसंधान के तर्ज पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने मार्च 2019 में युवा वैज्ञानिक कार्यक्रम (युविका) नामक एक विशेष कार्यक्रम की शुरूआत की, जिसका उद्देश्य युवाओं को अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष विज्ञान तथा अंतरिक्ष अनुप्रयोगों पर मौलिक ज्ञान देना है ताकि अंतरिक्ष गतिविधियों के बढ़ते क्षेत्र में उनकी रूचि विकसित की जा सके।
14 जनवरी, 2020 को 14वीं शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (ASER) 2019 प्रकाशित की गई। यह रिपोर्ट 4 से 8 वर्ष की आयु के बच्चों के स्कूलों में नामांकन और उपस्थिति पर आधारित है।
यह रिपोर्ट 24 राज्यों में 26 जिलों के 1,514 गांव में सर्वेक्षण कर तैयार किया गया है।
इस रिपोर्ट के अनुसार 4 से 8 आयु वर्ग के 90 प्रतिशत (4 वर्ष के 91.3 प्रतिशत तथा 8 वर्ष के 99.5 प्रतिशत) से अधिक बच्चे किसी न किसी प्रकार के शैक्षणिक संस्थान में नामांकित हैं। नामांकन में बच्चों की उम्र के साथ बढ़ोत्तरी हुई है। इस तरह की विकृति को दूर करने के लिए विभिन्न सरकारी योजनाएं जैसे शाला अस्मिता योजना, समागम शिक्षा योजना, यूडीएएन इत्यादि को प्रारम्भ किया गया है।
उच्च शिक्षा
उच्च शिक्षा देश के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह 21वीं सदी के ज्ञान आधारित समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है। एआईएसएचई (All India Survey on Higher Education - AISHE) 2018-19 के अनुसार, केवल 2.5% कॉलेज पीएचडी और 34.9% कॉलेज स्नातकोत्तर स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं। 16.3% कॉलेजों में 100 से कम नामांकन और केवल 4% कॉलेजों में 3000 से अधिक नामांकन होते हैं। भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) 26.3% है, जो चिंताजनक हैं। भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने की आवश्यकता है। सरकार ने कमजोर वित्त, गुणवत्ता शिक्षा और गुणात्मक परिणाम के मुद्दों को दूर करने के लिए विभिन्न योजनाओं जैसे राष्ट्रीय उत्थान शिक्षा अभियान (आरयूएसए), माध्यमिक और उच्चतर कोष (एमयूएसके), टीईक्यूआईपी, इम्प्लिट आदि की योजना चलाई है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय में उच्च शिक्षा विभाग ने शिक्षा गुणवत्ता उन्नयन और समावेशन कार्यक्रम नामक एक पंचवर्षीय विजन प्लान को अंतिम रूप देते हुए जारी किया, जिसका उद्देश्य रणनीतिक हस्तक्षेपों के जरिए अगले पांच वर्षों (2019-2024) में भारत के उच्चतर शिक्षा प्रणाली के क्षेत्र में परिवर्तन की शुरुआत करना है।
विनिर्माण क्षेत्र किसी राष्ट्र के आर्थिक विकास का प्रमुख संकेतक है। यह अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में कार्य करता है। नीति निर्माताओं ने एक औद्योगिक राष्ट्र के रुप में भारत को आगे बढ़ाने के लिए एक अच्छी तरह से विकसित विनिर्माण क्षेत्र की आवश्यकता महसूस की। इसके कारण योजना आयोग द्वारा केंद्रीकृत पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात हुआ, जिसने विनिर्माण क्षेत्र का योगदान 8.98% (1950-51) से बढ़कर भारत के GDP में 14.23% 1965-66) कर दिया।
1951 से 1965 के बीच की अवधि में औद्योगिक उत्पादन में 2-8 गुना की वृद्धि देखी गई, जो मोटे तौर पर सार्वजनिक और निजी निवेश के कारण थी। इस अवधि में भी उत्पादों की कीमतें स्थिर थीं। हालांकि, 1980 के बाद के युग में विनिर्माण क्षेत्र को विकसित करने की रणनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया। केंद्रीकृत योजना के माध्यम से बड़े और भारी उद्योगों को विकसित करने की ओर ध्यान केंद्रित किया गया। इस रणनीति में लाइसेंसिंग के माध्यम से निजी क्षेत्र पर आयात प्रतिस्थापन, मूल्य नियंत्रण और प्रतिबंध शामिल किये गए थे।
विदेशी निवेश पर राज्य नियंत्रण ने सीमित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के कारण संसाधन उपयोग में व्यापक अक्षमता पैदा की (विनिर्माण क्षेत्र का योगदान 1990 तक भारतीय अर्थव्यवस्था के 16% पर स्थिर रहा)।
1990 के दशक तक आते-आते विनिर्माण क्षेत्र की उत्पादकता में अपर्याप्त वृद्धि, प्रौद्योगिकी उन्नयन की कमी, अनुसंधान और विकास (R&D) की कमी और मानव विकास के लिए अपर्याप्त ध्यान देने के कारण पूंजी निवेश पर बहुत कम लाभ मिला।
सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों और एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम (MRTP) के लिए एक नई औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति, 1991 को बाजार में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ाने के उद्देश्य से पेश किया गया। उद्योगों के लाइसेंस को समाप्त कर अंतरराष्ट्रीय पूंजी के निवेश हेतु उदार बनाया गया और उच्च प्राथमिकता वाले उद्योगों में विदेशी निवेश तथा प्रौद्योगिकी समझौते के स्वतः अनुमोदन को सक्षम किया गया।
मूल और पूंजीगत वस्तु उद्योग से उपभोक्ता उन्मुखीकरण जैसे पेट्रोलियम उत्पादों आदि पर ध्यान केंद्रित किया गया है, इससे भारतीय उत्पादों के बीच प्रतिस्पर्धात्मक दबाव बढ़ गया, जिसने विशेष रूप से चीन से वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा को संबोधित करने के लिए नवाचार और उत्पाद विकास को बढ़ावा दिया है।
वर्तमान में, नई विनिर्माण नीति और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश नीति स्वचालित मार्ग के तहत 100% तक के विदेशी निवेश की अधिकांश क्षेत्रों में अनुमति देती है। सार्वजनिक क्षेत्र की नीति में परिवर्तन से लौह और इस्पात, बिजली, वायु परिवहन, जहाज निर्माण, भारी मशीनरी, दूरसंचार आदि क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है।
प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम 2002 द्वारा केंद्र और राज्य में सभी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों एवं विभागों के तहत संप्रभु कार्य करने वाले कुछ उद्यमों छोड़कर, सार्वजनिक व निजी उद्यमों के बीच के अंतर को समाप्त कर बाजार में स्तर प्रदान किया गया है।
वस्तु और सेवा कर (जीएसटी), प्रत्यक्ष कर संहिता, दिवाला एवं दिवालियापन संहिता, श्रम संहिता में एकल खिड़की मंजूरी तथा विधायी सुधार जैसे हालिया सुधार विनिर्माण के योगदान को बढ़ाने एवं मेक इन इंडिया पहल के लिए सही दिशा में उठाए गये कदम हैं, जिसने भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र का योगदान 25% तक बढ़ाया है।
विश्व में पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने से लेकर आर्थिक मंदी का सामना करने तक, वित्तीय वर्ष 2019-20 भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अशांत रहा है। आर्थिक मंदी के बावजूद जो सबसे अधिक चौंकाने वाला विषय रहा, वह यह है कि भारत सबसे तेजी से अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हो रहा है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत 2025 तक जापान की बराबरी करने के साथ ही यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। मेक इन इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसी विभिन्न सरकारी पहलों के कारण कई विदेशी कंपनियां भारत में अपनी शाखाएं स्थापित कर रही हैं। भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भी वित्त वर्ष 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचने और डिजिटलीकरण, वैश्वीकरण, अनुकूल जनसांख्यिकी और सुधारों के आधार पर ऊपरी-मध्य आय की स्थिति प्राप्त करने की उम्मीद है।
वित्तीय क्षेत्र का अवलोकन
वित्त वर्ष 2019-20 के द्वितीय तिमाहीं के लिए जीडीपी विकास दर 4.5% (26 तिमाहियों में सबसे कम) रही है, बेरोजगारी दर 6.1% (45 वर्षों में सबसे अधिक), उपभोक्ता खर्च सबसे कम है और इससे निवेशकों का भी विश्वास कमजोर हुआ है। विदित हो कि 2019 वित्तीय क्षेत्र के लिए चिंताजनक रहा है। सरकारी हस्तक्षेप जैसे बैंक विलय, बैंकों को वित्तीय पैकेज, कॉरपोरेट टैक्स कम करना, उदार मौद्रिक नीति आदि केवल कुछ हिस्सों में ही महत्वपूर्ण साबित हुआ है। एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग) को कम करना, कोर सेक्टर के प्रदर्शन में सुधार करना एक वित्तीय क्षेत्र को सुदृढ़ करने का संकेत देता है।
भारतीय बैंकिंग प्रणाली
समय बीतने के साथ, बैंकिंग प्रणाली ने अपने राष्ट्रीयकरण (1969 और 1980) को देखा और फिर से भारतीय वित्तीय प्रणाली के सबसे भरोसेमंद खंड के रूप में उभरने के लिए निजी क्षेत्र में प्रवेश (1993-94) किया। वर्तमान में भारतीय बैंकिंग प्रणाली में सहकारी ऋण संस्थानों के अलावा 12 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, 26 निजी क्षेत्र के बैंक, 46 विदेशी बैंक, 56 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, 1,574 शहरी सहकारी बैंक और 93,913 ग्रामीण सहकारी बैंक शामिल हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक 70 प्रतिशत से अधिक बैंकिंग प्रणाली की संपत्ति को नियंत्रित करते हैं, जिससे इसके निजी साथियों के लिए तुलनात्मक रूप से कम हिस्सेदारी होती है।
भारतीय आर्थिक योजना
आर्थिक नियोजन प्रमुख आर्थिक निर्णयों का निर्धारक है-किसी निर्धारित प्राधिकरण के सचेत निर्णय द्वारा, किसी देश के मौजूदा और संभावित संसाधनों के व्यापक सर्वेक्षण और लोगों की आवश्यकताओं के सावधानीपूर्वक अध्ययन के आधार पर। भारत में आधारभूत सामाजिक आर्थिक समस्याएँ जैसे गरीबी, बेरोजगारी, कृषि और औद्योगिक उत्पादन में ठहराव एवं आय तथा धन के वितरण में असमानता को उचित आर्थिक नियोजन से हल किया जा सकता है।
मुद्रास्फ़ीति
समय की अवधि में अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में मुद्रास्फीति बढ़ जाती है। मॉडरेट मुद्रास्फीति को वांछित किया गया है क्योंकि यह मजदूरी दर को संशोधित करने, अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने आदि में मदद करता है। भारत में मुद्रास्फीति को 2011-12 के आधार वर्ष के साथ उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (संयुक्त) के रूप में मापा जाता है। यह 7-35% (दिसंबर, 2019) तक रहा।
मौद्रिक नीति
भारत की मौद्रिक नीति विशिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बनाई और क्रियान्वित की जाती है। यह उस नीति को संदर्भित करता है, जिसके द्वारा देश का केंद्रीय बैंक (i) पैसे की आपूर्ति और (ii) विशेष उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पैसे या ब्याज की दर को नियंत्रित करता है। मौद्रिक नीति के मुख्य उद्देश्य मूल्य स्थिरता, वित्तीय स्थिरता और विकास के लिए ऋण की पर्याप्त उपलब्धता को सुनिश्चित करना है।
मुद्रा प्रबंधान
भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 से भारतीय रिजर्व बैंक को मुद्रा प्रबंधन में अपनी भूमिका प्राप्त होती है। भारतीय रिजर्व बैंक की सहायता-सलाह पर भारत सरकार बैंकनोट जारी करने के विभिन्न मूल्यवर्गों पर निर्णय लेती है। रिजर्व बैंक विभिन्न सुरक्षा सुविधाओं सहित बैंकनोटों के डिजाइन में सरकार के साथ समन्वय भी करता है।
भारतीय वित्तीय बाजार
भारत का वित्तीय बाजार दुनिया में सबसे पुराना है और इसे उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेजी से बढ़ता तथा सबसे अच्छा माना जाता है। भारतीय पूंजी बाजारों का इतिहास 200 साल पहले का है; जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य के शासन में था। आज केंद्रीकृत NSE (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज) और OTCEI (ओवर द काउंटर एक्सचेंज ऑफ इंडिया) के अलावा भारत में 21 क्षेत्रीय प्रतिभूतियों का आदान-प्रदान होता है।
विनिवेश
जुलाई 1991 में शुरू की गई नई आर्थिक नीति ने स्पष्ट रूप से संकेत दिया है कि सार्वजनिक उपक्रमों को, जिसे विकास के स्तंभों के रूप में स्थापित किया गया था, ने बदलते आर्थिक परिदृश्य के अनुसार पूंजी पर प्रतिलाभ की नकारात्मक दर को दर्शाया है। विनिवेश के लिए प्रदान किए गए नए आर्थिक सुधार में सरकार गैर-निष्पादित सार्वजनिक उपक्रमों से सामान्य/विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने के लिए धन जुटाएगी। इस दिशा में, सरकार ने ‘विनिवेश नीति’ को अपनाया है।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) किसी देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह उत्पादकता बढ़ाने के साथ वित्तीय संसाधनों, प्रौद्योगिकी, नवीन और बेहतर प्रबंधन तकनीकों के हस्तांतरण में मदद करता है। 1991 में अर्थव्यवस्था को बाहरी दुनिया के लिए उदार और वैश्विक बनाने के बाद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाह में भारी वृद्धि हुई है।
भारतीय जनसांख्यिकी
इस ग्रह पर हर 6 लोगों में से लगभग 1 व्यक्ति भारत में रहता है, इसलिए निवासियों के जीवन की गुणवत्ता के नियोजन, विकास और सुधार के उद्देश्यों के लिए उसके निवासियों के बारे में जानकारी एकत्र करना अनिवार्य है। भारत ने अपनी अंतिम जनगणना 2011 में की थी और 2021 में इसे फिर से आयोजित किया जाएगा, ऐसा इसलिए क्योंकि यह हर 10 साल के अंतराल में होता है और 2001 और 2011 की जनगणना के बीच, हमारे देश में 17.7% की वृद्धि हुई, जिसमें 181.5 मिलियन लोग शामिल हुए हैं।
कर-निर्धारण
सार्वजनिक वित्त का प्राथमिक उद्देश्य अर्थव्यवस्था की प्राथमिकताओं के अनुरूप संसाधनों के तर्कसंगत आवंटन को सुनिश्चित करके, समाज के कल्याण को अधिकतम करना है। एक राष्ट्र का विकास काफी हद तक राजस्व जुटाने और उसके खर्च पर निर्भर करता है। किसी देश की कराधान प्रणाली संसाधन जुटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
सरकारी बजट
केंद्र में सरकार बनाने वाली किसी भी राजनीतिक पार्टी की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जिम्मेदारियां होती हैं। भारत जैसे गहरी सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक विविधता वाले देशों में संसाधन की कमी के कारण, सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह संसाधनों को बुद्धिमानी से आवंटित करे। समाज के वंचित वर्गों के उत्थान, वित्तीय समावेशन को सुविधाजनक बनाने, क्षेत्रीय विषमता को कम करने, रक्षा क्षमताओं को उन्नत करने, उचित शैक्षिक सुविधाएं प्रदान करने आदि जैसे विभिन्न कारकों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इस प्रकार संसाधनों का बजट बनाना सरकारी कामकाज का एक महत्वपूर्ण पहलू है।
वार्षिक वित्तीय विवरण
संविधान के अनुच्छेद 112 के तहत, प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में भारत सरकार के अनुमानित प्राप्तियों और व्यय का एक लेखा-जोखा संसद के समक्ष रखा जाना होता है। ‘वार्षिक वित्तीय विवरण’ शीर्षक वाला यह बयान मुख्य बजट दस्तावेज है।
महत्वपूर्ण शर्तें
अनुदानों की माँगः संवैधानिक वित्तीय विवरण में सम्मिलित समेकित निधि से व्यय का अनुमान और लोकसभा द्वारा मतदान की आवश्यकता संविधान के अनुच्छेद 113 के अनुसरण में अनुदान की माँग के रूप में प्रस्तुत की जाती है।
आर्थिक विकास और मानव विकास के लिए आवश्यक सबसे महत्वपूर्ण आदानों में से एक ऊर्जा को माना जाता है। आर्थिक विकास और ऊर्जा की खपत के बीच मजबूत दो-तरफा संबंध है। एक तरफ, वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता के साथ अर्थव्यवस्था का विकास, लागत प्रभावी और पर्यावरणीय रूप से सौम्य ऊर्जा स्रोतों की उपलब्धता पर टिका है। वहीं दूसरी ओर, आर्थिक विकास के स्तर को ऊर्जा की मांग के आधार पर मापा जाता है। भारत, दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी का घर है, लेकिन दुनिया की प्राथमिक ऊर्जा का केवल 6% उपयोग करता है। हालांकि, भारत का ऊर्जा परिदृश्य तेजी से बदल रहा है।
भारत की ऊर्जा गहनता परिपक्व अर्थव्यवस्थाओं (mature economies) से दोगुनी है, जो ओईसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) सदस्य देशों द्वारा परिलक्षित होता है। भारत की ऊर्जा गहनता उभरती अर्थव्यवस्थाओं, जिसमें एशियाई देश (आसियान देशों के साथ-साथ चीन) भी शामिल है, की तुलना में बहुत अधिक है।
खनन और खनिज
नन क्षेत्र तेजी से बढ़ते अन्य क्षेत्रों को कच्चा माल प्रदान करता है। भारत में 1,531 खानें हैं, जिनसे 95 खनिजों का उत्पादन किया जाता है- 4 ईंधन से संबंधित खनिज, 10 धातु खनिज, 23 गैर-धातु खनिज, 3 परमाणु खनिज और 55 लघु खनिज। भारत दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा कच्चा इस्पात उत्पादक व चौथा सबसे बड़ा लौह अयस्क उत्पादक है। भारत में 300 मीट्रिक टन घरेलू इस्पात उत्पादन क्षमता है। भारत दुनिया में अभ्रक शीट का सबसे बड़ा उत्पादक है, वहीं भारत में बॉक्साइट का 7वां सबसे बड़ा भंडार है (2017-18)।
नन आधारित उद्योग का विकास संबद्ध उद्योगों को बढ़ावा देने के साथ क्षेत्र के समग्र विकास में योगदान करता है। यह एक श्रम प्रधान क्षेत्र है, जो अकुशल श्रम और कुशल श्रम दोनों को रोजगार प्रदान करता है। प्राथमिक क्षेत्र का हिस्सा होने के नाते, यह काफी हद तक अकुशल रोजगार प्रदान करता है।
कोयला
कोयला भारत में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला जीवाश्म ईंधन है, जो घरेलू ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने का महत्वपूर्ण स्रोत है। भारत में बिजली उत्पादन के लिए कोयले को ऊर्जा का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है। भारत में लगभग 75% कोयले की खपत बिजली क्षेत्र में की जाती है।
भारत में कोयला का व्यावसायिक उत्खनन ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दामोदर नदी के पश्चिमी तट के साथ रानीगंज कोलफील्ड में 1774 में शुरू किया गया था। भारत ने 1900 तक प्रतिवर्ष 6.12 मिलियन मीट्रिक टन कोयले का उत्पादन किया।
भारत कोयले का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। वर्तमान में जीडीपी में खनन क्षेत्र का योगदान 2.3-2.5% है। भारत में कोयला संसाधन प्रायद्वीपीय भारत के गोंडवाना और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की तृतीय कल्प की चट्टानों में पाया जाता है।
विधुत
बिजली बुनियादी ढांचे के सबसे महत्वपूर्ण घटकों में से एक है; जो राष्ट्र के आर्थिक विकास और कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है। भारत दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा बिजली उत्पादक और उपभोक्ता है। कलकत्ता (अब कोलकाता) में विद्युत प्रकाश का पहला प्रदर्शन 24 जुलाई, 1879 को पी डब्ल्यू फ्लेरी एंड कंपनी द्वारा किया गया था। दिसंबर 2019 तक भारत में राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक ग्रिड की स्थापित क्षमता 367.28 GW थी। देश में बिजली की मांग तेजी से बढ़ी है और आने वाले वर्षों में और बढ़ने की उम्मीद है।
नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा
भारत नवीकरणीय स्रोतों से ऊर्जा उत्पादन करने वाले बड़े देशों में से एक है। 2019 में भारत को दुनिया के चौथे सबसे आकर्षक नवीकरणीय ऊर्जा बाजार के रूप में स्थान दिया गया। 2019 तक भारत की स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का 35% नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त होता है। भारत का विश्व में अक्षय ऊर्जा की स्थापित क्षमता में पांचवां, पवन ऊर्जा में चौथा और सौर ऊर्जा में पांचवां स्थान है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की क्षमता के वास्तविक और पूर्ण विकास के लिए उचित एवं दक्ष आधारिक सेवाएंआवश्यक हैं। देश की सतत आर्थिक संवृद्धि में बेहतर ढंग से संबद्ध परिवहन तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारतीय परिवहन तंत्र में भी उपरोक्त उद्देश्यों से युक्त है।