पिछली सरकारों के द्वारा बजटीय आवंटन का औसत 7.8% ग्रामीण विकास के लिए आवंटित किया जाता रहा है। यह ग्रामीण विकास के महत्व और प्राथमिकताओं को दर्शाता है।
केंद्रीय बजट 2019 का 8% ग्रामीण विकास को आवंटित किया गया है। इसमें मनरेगा के तहत काम का अधिकार सुनिश्चित करने से लेकर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और रुर्बन मिशन आदि को शामिल किया जाता है।
भारत में ग्रामीण विकास अत्यावश्यक है, क्योंकि अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती है और ऐतिहासिक रूप से गाँव विकास में बहुत पीछे है। इसलिए, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से सरकार की प्राथमिकताओं में आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्राचीन मॉडल को पुनर्जीवित करना रहा है।
समुचित विकास सुनिश्चित करने के लिए, सामुदायिक विकास कार्यक्रम (सीडीपी) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा (एनईएस) जैसे विभिन्न कार्यक्रम शुरू किए गए, लेकिन वे आंशिक रूप से सफल हुए। परंतु इसने गांवों में अर्थात् पंचायतों में प्रशासन के तीसरे स्तर की प्राचीन धारणा को पुनर्जीवित करने की संकल्पना को मजबूत किया।
सामुदायिक विकास कार्यक्रम का अध्ययन करने के लिए बलवंत राय मेहता समिति (1957) की स्थापना की गयी। तबसे विभिन्न समितियों और उनकी सिफारिशों ने स्थानीय स्तर पर पंचायती संस्थानों के गठन की सिफारिश की। इन्हीं समितियों के आधार पर 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के परिणामस्वरूप पंचायती राज संस्थाओं का गठन किया गया।
1987 के बाद स्थानीय शासन की संस्थाओं के गठन पुनरावलोकन की शुरूआत हुई तथा 1989 में पी-के- भुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की।
भारत के अनेक प्रदेशों के आदिवासी जनसंख्या वाले क्षेत्रों को 73वें संशोधन के प्रावधानों से दूर रखा गया था। परंतु 1996 में एक अधिनियम बनाकर पंचायती व्यवस्था के प्रावधानों के दायरे में इन क्षेत्रों को शामिल कर लिया गया।
संवैधानिक मान्यता प्राप्त होने के 25 वर्ष पश्चात भी गरीबी, भुखमरी, ग्रामीण संकट आदि मुद्दे अभी भी व्यापक रूप से अस्तित्व में हैं। यह पंचायती राज और जिला प्रशासन की अक्षमता दर्शाते हैं।