Question : नीति निर्माण के प्रक्रमों का आंकलन प्रस्तुत कीजिए और नीति क्रियान्वयन की समस्याओं पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : नीति निर्माण की प्रक्रिया शासन की प्रधान क्रियाओं में से एक है। नीतियां एक प्रकार की नियोजन हैं एवं नीति का सम्बन्ध निर्णय करने से है। नियोजक नीतियों के द्वारा वांछित उद्देश्यों की पूर्ति करता है। सरकारी वर्ग का अपने आस-पास की चीजों से सम्बन्ध लोक नीति कहलाता है। सरकार जो कुछ भी करना चाहे या न करना चाहे लोक नीति कहलाती है। लोकनीति निश्चित परिवेश के अन्तर्गत एक व्यक्ति, समूह अपनी सरकार की क्रियाविधि का प्रस्तावित क्रिया है जो अवसर एवं रूकावटें प्रदान करती हैं जिसे नीति एक उद्देश्य की पूर्ति अथवा लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न के उपयोग में लाती है। लोकनीतियां सरकारी निर्णय हैं जो कि वास्तव में कुछ लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा अपनायी गई गतिविधियों का परिणाम होती हैं।
वस्तुतः लोक नीतियां सरकारी निर्णय है जो कुछ निश्चित् उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा अपनायी गयी गतिविधियों का परिणाम होती है नीति निर्धारण का कार्य उच्चतम प्रबन्ध के महत्वपूर्ण दायित्वों में से एक है। नीतियां प्रबन्धकों को योजना बनानें, कानूनी आवश्यकताओं के अनुकूल कार्य करने तथा वांछित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता देती हैं। अतः सुस्पष्ट एवं सुनिश्चित नीतियों का होना प्रभावी प्रबन्ध की प्रथम आवश्यकता है।
लोक नीति निर्माण में सरकारी गैर सरकारी संरचनाएं भाग लेती है। सरकारी संरचनाओं में राजनीतिक कार्यपालिका, विधायिका प्रशासन तन्त्र, न्यायपालिका सम्मिलित हैं।
साथ ही गैर सरकारी संरचनाओं के हित समूहों एवं दबाव समूहों की भूमिका, राजनीतिक दलों की भूमिका, जनसंचार की भूमिका, सामाजिक आंदोलन की भूमिका एवं अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसियों की भूमिका महत्वपूर्ण है।
नीति निर्माण में कुछ चरण सम्मिलित होते हैं-जैसे मूल समस्याओं का निर्धारण करना, विकल्पों का विकास एवं विकल्पों के प्रभाव का मूल्यांकन, नीति व्याख्या, नीति ज्ञान। नीति निर्माण के साथ ही नीति क्रियान्वयन में कुछ समस्याएं भी दृष्टिगत होती है। नीति क्रियान्वयन एक स्वतन्त्र क्रिया नहीं है। कुछ ऐसे कारक है जो नीति क्रियान्वयन को प्रभावित करते हैं।
संसाधनों को दृष्टि में रखकर नीति निर्माता नीति निर्माण का कार्य सम्पन्न करते हैं। फिर भी कभी-कभी संसाधनों की कमी समस्या का कारण बनती है। पर्याप्त संसाधनों के अभाव में उपयुक्त नीति का निर्माण भी संभव नही पाता है। बहुत सी नीतियों का उपयुक्त कार्यान्वयन स्टाफ की कमी के कारण नामुमकिन हो जाता है। स्टाफ की कमी कारण उन्हें उचित प्रशिक्षण पर नहीं भेजा जा सकता है। यह कार्य निष्पादन को बहुत सीमा तक प्रभावित करता है, क्योंकि उचित प्रशिक्षण के अभाव में कार्मिक मुद्दों को उचित और प्रभावपूर्ण ढंग से नहीं सुलझा पाते हैं। नीतियों का कार्यान्वयन वित्तीय संसाधनों एवं बुनियादी संसाधनों पर पूर्ण रूप से निर्भर होता है।
नीति तब तक भी पूर्ण नहीं होती है, जब तक उनका सफल क्रियान्वयन नहीं होता है। अन्य तत्वों के साथ-साथ यह प्राथमिक आवश्यकता है कि नीतियां जिनके लिए बनायी गयी है तथा जिनके द्वारा कार्यान्वित की जाती है, उन तक सम्प्रेषित की जाए। श्रेष्ठ एवं पर्याप्त संचार साधनों का अभाव इसमें बाधक बनता है। विकासशील देशों में यह एक विकट समस्या है।
नीति कार्यान्वयन कर्त्ताओं को निजी हित समूहों से मूलभूत समस्याओं एवं चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वर्तमान समय में समाज का प्रत्येक उपवर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए आवाज उठा रहा है। इसके लिए सामूहिक रूप से लाभ बन्द जनता अपने हितों की पूर्ति के लिए किसी सीमा तक जा सकती है। इस कारण क्रियान्वयन पूर्ण रूप से प्रभावित होते हैं। निजी स्वार्थ अधिकारियों को भी प्रभावित करते हैं। इसके अलावा नीति क्रियान्वयन में नौकरशाही में दृढ़ निश्चय का अभाव व जनता का पर्याप्त सहयोग न मिल पाना भी समस्याएं पैदा करता है।
Question : लोक नीति एक स्वतन्त्र चर नहीं है और मानव का इतिहास नीति अनुभव से व्यवस्थित अधिगम का न के बराबर साक्ष्य दर्शाता है। चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : दुनिया के अधिकांश देश अपनी अर्थव्यवस्था, अपना सामाजिक प्रणाली में वृद्धि तथा राष्ट्रीय विकास को अधिकाधिक तीव्र गति प्रदान करने की दृष्टि से अपनी राजनीतिक क्षमता में वृद्धि हेतु प्रयासरत हैं। लोकनीति का अध्ययन इस ओर एक शक्तिशाली उपागम प्रस्तुत करता है।
वास्तव में लोकनीति एक स्वतन्त्र चर नहीं है। जिस वातावरण में नीति का जन्म होता है, उनसे अलग करके उनके सम्बन्ध में उचित जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है। नीति कार्यवाही की मांगें वातावरण में उत्पन्न होती हैं और ये राजनीतिक पद्धति में संचालित हो जाती हैं। निर्माता भी जो कुछ कर सकते हैं उस पर सीमा का निर्धारण करके वातावरण बाधाएं उत्पन्न करता है। वातावरण में प्राकृतिक संसाधन, जलवायु और स्थलाकृति जैसी भौगोलिक विशेषताएं, जनसंख्या का आकार, आयु और लिंग अनुपात वितरण और स्थानिक अवस्थिति जैसे जनांकिकीय चर, राजनीतिक, संस्कृति, सामाजिक संरचना और आर्थिक पद्धति भी शामिल हैं।
विभिन्न देशों में लोक नीति एवं निर्माण के विभेदों को कम से कम आंशिक रूप में राजनीतिक चरों के संदर्भ में स्पष्ट किया जा सकता है। लोक नीतियों को विभिन्न समूहों के मध्य घटित होने वाले संघर्षों के मध्य उद्भूत होते हुए देखा जा सकता है। इन समूहों में अक्सर परस्पर विरोधी हित एवं अभिवृत्तियां होती हैं। आधुनिक समाजों में संघर्षों का प्रमुख स्रोत आर्थिक क्रिया कलाप हैं। विभिन्न संघर्षरत समूह अपनी स्थिति में सुधार हेतु सरकारी हस्तक्षेप प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। इससे लोक नीति प्रभावित होती है, अतः लोक नीति एक स्वतन्त्र चर नही हैं इस पर विभिन्न कारकों का प्रभाव पड़ता है। परन्तु आमतौर पर नीति निर्माण के समय इसके विभिन्न पक्षों को ध्यान में नहीं रखा जाता है एवं अधिकांशतः एकांगी प्रयास किया जाता है। लोकनीति के माध्यम से क्षणिक लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है एवं अतीत से अनुभव प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया जाता है, फलतः आकर्षक किन्तु व्यावहारिक नीतियों के निर्माण में देर लग जाती है, जिससे उनका उचित क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। इस कारण नीतियां अधिकांशतः अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाती हैं।
Question : नीति अनुसंधान उपयोग का एक निर्णय चालित मॉडल होती है। स्पष्ट कीजिए।
(2004)
Answer : लोकनीति निश्चित परिवेश के अन्तर्गत एक व्यक्ति, समूह अथवा सरकार की क्रिया विधि की प्रस्तावित प्रक्रिया है, जो अवसर एवं रूकावटें प्रदान करती है, जिसे नीति एक उद्देश्य की पूर्ति अथवा लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न के उपयोग में लाती है। लोक नीतियां सरकारी निर्णय हैं, जो कि वास्तव में कुछ लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा अपनायी गई गतिविधियों का परिणाम होती हैं।
नीति को आमतौर पर प्रस्तुत परिवेश के भीतर किसी विशिष्ट लक्ष्य या उद्देश्य प्राप्त करने के लिए किसी व्यक्ति, समूह संस्था या सरकार की प्रस्तावित क्रियाविधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। सभी प्रकार के संगठनों में चाहे वे सरकारी हों अथवा गैर सरकारी प्रत्येक क्रिया का पूर्ण निर्धारण आवश्यक होता है। सभी प्रकार के प्रबन्धकीय गतिविधियों के लिए यह एक अनिवार्य पूर्वापेक्षा होती है। नीति ही एक ऐसे ढांचे का निर्धारण करती है, जिसके भीतर संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है। किसी संगठन के उद्देश्य प्रायः अस्पष्ट एवं सामान्य होते हैं।
उन्हें नीति लक्ष्यों के रूप में सुनिश्चित किया जाता है वही प्रशासन में गतिशीलता उत्पन्न करते हैं। नीति निर्धारण सरकार का एक महत्वपूर्ण कार्य है। लोक प्रशासन का सार नीति निर्माण है।
वस्तुतः नीति अनुसंधान उपयोग का एक निर्णय चालित मॉडल होती है। किसी भी नीति को अन्तिम रूप देने से पहले इसके सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान होता है। एक नीति के पीछे अनेक निर्णयों की श्रृंखला होती है। नीति निर्माण के प्रत्येक चरण पर किये गये निर्णयों की व्यापक समीक्षा होती है एवं आवश्यक संशोधन भी यदि आवश्यक हो तो प्रस्तुत किया जाता है। सरकार अब भी किसी नीति का निर्माण करती है तो उससे सम्बंधित क्षेत्रें के बारे में विभिन्न स्रोतों से विभिन्न तथ्यों को एकत्रित करती है। विभिन्न संस्थाएं उन तथ्यों का सूक्ष्म विश्लेषण करती हैं एवं तुलनात्मक अध्ययन भी करती हैं। इसके पश्चात् वे समस्या की प्रकृति का वर्णन करते हुए उसके समाधान हेतु उचित उपाय सुझाती हैं। इसके बाद सरकार जन आकांक्षाओं एवं संसाधनों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित करती हैं एवं नीति का निर्माण करती है। इस नीति का अन्तिम अनुमोदन जनप्रतिनिधि संस्था के निर्णय द्वारा होता है। नीति निर्माण के पश्चात् इसके क्रिया चयन के समय भी विभिन्न प्रशासनिक स्तर पर इसके संचालन से सम्बन्धित निर्णय लिए जाते है।
Question : नीति निर्माण एवं उसके क्रियान्वयन में लोक प्रशासन की भूमिका पर टिप्पणी कीजिए। नीति प्रक्रम पर प्रभाव डालने वाले कौन से अन्य कारक हैं?
(2003)
Answer : प्रशासन तन्त्र का मुख्य कार्य नीतियों का क्रियान्वयन है। प्रशासन तन्त्र न केवल नीतियों का क्रियान्वयन करता है, अपितु नीति निर्माण में भी प्रभावी भूमिका का निर्वाह करता है। यह कार्य पालिका के वृहद् नीति क्षेत्र को पहचानने, बड़े प्रस्तावों को तैयार करने, सामाजिक समस्याओं जिस पर ध्यान रखना आवश्यक है उनका विभिन्न विकल्पों तथा समाधानों का विश्लेषण, मुख्य नीतियों को उपनीतियों में बदलना, कार्य की योजना निर्धारित करना, वर्तमान नीतियों इसके अनुभव के आधार पर निष्पादन के स्तर पर संशोधन का सुझाव देने में सहायता प्रदान करता है। नीति निर्माण में प्रशासन तन्त्र की भूमिका मुख्य होती है।
नीति निर्माण की तैयारी का मुख्य कार्य प्रशासन तन्त्र के द्वारा किया जाता है। नीतिगत मुद्दों को पहचानने तथा नीतिगत प्रस्तावों को आकार देने के लिए वर्तमान समस्याओं के व्यवस्थित विश्लेषण की आवश्यकता होती है। किसी भी समस्या के स्तर को पहचानने के लिए उपयुक्त आंकड़ें तथा सूचना एकत्रित करने का कार्य प्रशासन तन्त्र का होता है। नीति निर्माण में प्रशासन तन्त्र की सूचना सम्बन्धी भूमिका नीति प्रस्तावों की व्यवस्थित रचना के लिए वस्तुगत आधार तैयार करने तथा प्रस्तावों को प्रभावित करने के लिए आवश्यक आंकड़े प्रदान करने से सम्बन्धित है। प्रशासन तन्त्र को विशेष रूप से सचिवालय स्तर पर सरकार के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है। यह सदैव विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं पर ध्यान देते हैं। इसी कारण यह नीति निर्माण हेतु परामर्श देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह राजनीतिक कार्यपालिका को समस्याओं के स्वरूप के बारे में तथा विचार के लिए कुछ मुद्दों को लेने के बारे में परामर्श देकर नीति मुद्दों को पहचानने में सहायता प्रदान करता है।
लोक नीति निर्माण बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। अतः प्रशासन तन्त्र ही ऐसे मसलों पर ध्यान देता है। वह नीतिगत प्रस्तावों से सम्बन्धित मुद्दों के गुणों व दोषों का विश्लेषण करता है। प्रशासन नीति प्रस्तावों को संविधान के उपबन्धों संसदीय विधियों तथा प्रचलित नियमों तथा उपनियमों को विश्लेषित करता है।
लोक प्रशासन के अतिरिक्त राजनैतिक कार्यपालिका विधानमण्डल, न्यायपालिका, हित समूह, राजनीतिक दल जन-संचार माध्यम, अंतर्राष्ट्रीय एजेन्सियां, आदि अन्य कारण नीति प्रक्रम को प्रभावित करते हैं।
राजनैतिक कार्यपालिका का प्रमुख कार्य लोक नीति निर्माण है। मंत्रिमण्डल, मंत्रिमण्डल सचिवालय, मंत्रिमण्डल समितियां, प्रधानमंत्री कार्यालय आदि नीति प्रक्रम में महत्वपूर्ण कारक की भूमिका निभाते हैं साथ ही विधान मण्डल नीति प्रक्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं।
अधिकारों का निश्चय तथा निर्णय करने, अपराधों पर दण्ड देने, कानून के प्रशासन तथा मासूम लोगों को उत्पीड़न से बचाने के लिए न्यायपालिका भी नीति प्रक्रम में महत्वपूर्ण कारक की भूमिका निभाती है।
समाज में व्यक्ति अपने समान हितों की पूर्ति के लिए आसानी से एकजुट हो जाते हैं एवं हित समूह का निर्माण करते हैं। सामान्यतः एक व्यक्ति नीति प्रक्रम में अपने हित में निर्णय करने के लिए हित समूह के माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था को अर्थपूर्ण ढंग से प्रभावित करने का प्रयास करता है।
विभिन्न राजनीतिक दल भी नीति-प्रक्रम को अपनी-अपनी विचार धाराओं, मान्यताओं, सिद्धान्तों आदि के अनुसार प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। वर्तमान समय में जीवन के प्रत्येक पहलू में जन-संचार माध्यमों की प्रभावशाली भूमिका में उत्तरोत्तर वृद्धि ही हो रही है।
वर्तमान उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्डलीकरण के युग में संगठन आदि अंतर्राष्ट्रीय एजेन्सियां नीति-प्रक्रम में अत्यंत महत्वपूर्ण कारक के रूप में भूमिका निभा रही हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न कारण नीति प्रक्रम पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल रहे हैं जिसमें लोक प्रशासन एक महत्वपूर्ण कारक है।
Question : लोक नीति वही है, जिसके लिए राजनीति होती है। प्रमाणित कीजिए।
(2002)
Answer : नीति निर्माण लोक प्रशासन का सार है। नीति निर्माण की प्रक्रिया शासन की प्रधान क्रियाओं में से एक है। सरकारी वर्ग का अपने आस-पास की चीजों से सम्बन्ध लोक नीति कहलाता है। लोक नीति का उद्देश्य लोक हित व लोक कल्याण होता है। लोकहित की अवधारणा लोक नीति को प्रभावित करती है। नीति निर्माण की प्रक्रिया समाज में निरन्तर चलती रहती है। परिवर्तित परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में नीतियों को बदलना भी पड़ता है।
लोकनीति और राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लोकनीति का मूल आधार संविधान और विधि है, लोकनीति का निर्माण संविधान की उद्देशिका के अनुरूप होता है। संविधान की उद्देशिका में देश की एकता, अखण्डता, लोकतन्त्रत्मक गणराज्य, आर्थिक-सामाजिक राजनैतिक न्याय, मूल अधिकारों की रक्षा जैसे उद्देश्य बताए गए हैं। सरकार की रीतियां उसी उद्देश्य के अनुसार निर्मित की जाती हैं। लोकनीति सरकार के द्वारा निर्मित की जाती है व निर्मित नीति राजनीति का आधार स्तम्भ निर्मित करने वाली सरकार के लिए होती है। लोकनीति के निर्माण में गैर सरकारी संस्थाओं और व्यक्तियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है परन्तु अधिकांशतः लोक नीति के निर्माण में सरकारी संस्थाओं और सरकार में कार्यरत पदाधिकारियों की भूमिका प्रमुख होती है। लोकनीति निर्माण में विषय पर नजर रखती है। लोक नीति के निर्माण में समाचार-पत्र, बुद्धिजीवी लेखक, विधायक प्रशासक, राजनीतिक दल, हित समूह, न्यायविद् आदि सम्मिलित रहते हैं। लोकनीति अपने सुधारात्मक नियमों पर आधारित होती है और इसलिए यह प्राधिकारिक होती है। इसके पीछे कानूनी स्वीकृति होती है और नागरिकों पर बाध्यकारी होती है। लोकनीति वह है, जो सरकार वास्तव में निर्धारित करती है।
Question : ‘समस्त नीति-निर्माण निर्णयन है, परन्तु समस्त निर्णयन नीति-निर्माण नहीं है।‘ विस्तारपूर्वक समझाइए। नीति का उद्भव कैसे होता है और सरकार में नीति कौन-सा मार्ग अपनाता है?
(1998)
Answer : भारत निर्माण लोक प्रशासन का सार है। नीति निर्माण की प्रक्रिया शासन की प्रधान क्रियाओं में से एक है। किसी संगठन के उद्देश्य प्रायः अस्पष्ट और सामान्य होते हैं, जिन्हें नीति लक्ष्यों के रूप में सुनिश्चित किया जाता है और प्रशासन में गतिशीलता उत्पन्न करते हैं। वस्तुतः नीतियां उद्देश्यों को निश्चित अर्थ प्रदान करती हैं और प्रशासन में समस्त नियोजन नीतियों पर अवलम्बित है। प्रत्येक प्रकार के संगठन में, चाहे वह सरकारी हो या गैर सरकारी हर एकक्रिया से पूर्व नीति निर्धारण आवश्यक होता है। नीति संचेतन रूप से स्वीकृत आचरण की संहिता है, जो प्रशासनिक निर्णयों का दिशानिर्देश करती है। जन प्रशासन का सारा नीति निर्माण है। नीति प्रत्येक कार्य करने से पहले आती है। प्रबन्ध की यह पहली शर्त है। नीति वस्तुतः कार्य की योजना है।
विद्वानों ने इस बात को सर्वसम्मत रूप में माना कि सार्वजनिक नीतियां सरकार द्वारा किये गये निर्णयों का परिणाम हैं और सरकार द्वारा कुछ भी न करने का निर्णय उसी प्रकार नीति है, जिस प्रकार कुछ करने का निर्णय नीति है।
नीति निर्माण सरकार के कार्य तथा समस्या होने की अनूभूति जिसमें कार्य करना आवश्यक है, के बीच सम्बन्ध की आवश्यकता को दर्शाता है।
समस्या के समाधान हेतु नीति का निर्माण होता है व निर्णय इसी नीति के अन्तर्गत किए जाते हैं, अतः समस्त नीति निर्माण निर्णयन है। किसी प्रशासन के लक्ष्य जो प्रायः अस्पष्ट एवं सामान्य होते हैं, को नीति के मुद्दों से स्पष्ट किया जाता है। नीति निर्धारण में सरकार के प्रत्येक अंग की सम्बद्ध भूमिका होती है।
नीति का कार्यान्वयन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि उनका निर्माण। नीति निष्पादन एक प्रक्रिया है प्रायः भ्रमवश नीति- निर्माण एवं निर्णय प्रक्रिया को एक समझ लिया जाता है। यद्यपि इन दोनों के मध्य निकट का सम्बध है, किन्तु वास्तव में ये एक नहीं है।प्रत्येक नीति निर्माण में निर्णय की प्रक्रिया होती है। किन्तु प्रत्येक निर्णय नीति निर्माण नहीं होता है। निर्णय मुख्यतः नीति के क्षेत्र के अंतर्गत ही लिया जाता है, प्रायः यह होता है कि किसी नीति के कारण लगातार कई प्रकार के निर्णय लेने पड़ जाएं। नीति अपेक्षाकृत विस्तृत होती है और बहुत समस्याओं को प्रभावित करती है और प्रयोग बार-बार किया जाता है। इसके विपरीत निर्णय किसी विशेष समस्या पर लागू होता है और निरन्तर न होने वाला व्यवहार है। अतः यह कहा जा सकता है कि नीति सम्बधी निर्णय प्रशासनिक कार्यों के मार्गों को निर्देशन की भावना प्रदान करते हैं।
नीति का उद्भव शून्य में नहीं होता और वही मनमाने ढंग से नीतियों बनाई जा सकती हैं। नीति बनाते समय कई बातों का ध्यान रखा जाता है। नीति निर्माण की प्रक्रिया की विवेचन करते हुए कहा है कि इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पांच तत्व महत्वपूर्ण होते हैं-
नीति निर्माण के सहारे ही मानवता के सम्मुख आने वाली समस्याओं का समाधान किया जाता है।
किसी भी समस्या के सामाधान या नीति के निर्धारण के लिए यह ज्ञात होना आवश्यक है कि व्यक्ति का उद्देश्य क्या है? जब तक उद्देश्य स्पष्ट नहीं होगा, तब तक उसे प्राप्त करने के लिए हम सही नीति नहीं बना पायेगा।
समस्या निर्धारण के बाद उद्देश्य स्पष्ट हो जाता हैं तो सरकार उद्देश्यों के प्राप्ति की ओर ध्यान देती है, तब प्रशासकों द्वारा वैकल्पिक रणनीतियों का निर्माण किया जाता है। चूंकि समस्या के समाधान को प्राप्त करने के लिए कई प्रकार की रणनीतियां हो सकती हैं, अतएव विवेक रूप से रणनीति का चयन तब ही किया जा सकता है, जब हम प्रत्येक रणनीति पर लागत और उससे होने वाले लाभ का अनुमान कर सकें। नीति निर्माण की प्रक्रिया का अन्तिम चरण पुन-निर्वेशन पुर्नमूल्याकंन और पुनः सूत्रीकरण है।
किसी भी देश में नीति निर्माण के मुख्यतः दो मार्ग होते हैं- प्रथम जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से, जो विधानमंडल और मंत्री मण्डल में होते हैं एवं दूसरा प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा अपने श्रेष्ठों के माध्यम से। अधिकांश राष्ट्रों ने संसदीय प्रणाली को अपनाया है, अतः नीति निर्माण में पहले शक्ति विधान मण्डल के हाथ से निकलकर कार्यकारी के हाथों में चली गई है। विधान मण्डल द्वारा नीति निर्माण शक्ति केवल संवैधानिक दृष्टि से सत्य है, न कि व्यवहारिक राजनीतिक दृष्टि से। संसदीय शासन व्यवस्था में कार्यकरिणी नाममात्र का कार्यकारी, जो राष्ट्रपति अथवा राजा होता है। मंत्रीमण्डल का प्रमुख कृत्य एक कार्य नीति को निर्मित करना होता है। मन्त्रीमण्डल ही इन कार्यनीतियों पर निर्णय करता है एवं इसके पश्चात इसे विधान मण्डल के सम्मुख स्वीकृति हेतु प्रस्तुत किया जाता है।
उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि समस्त नीति निर्माण निर्णयन हो सकते हैं क्योंकि निर्णयन नीति निर्माण प्रक्रिया का एक अणु मात्र है परन्तु सभी निर्णयन नीति निर्माण हो सकते, क्योंकि निर्णय प्रायः नीति के क्षेत्र के अन्तर्गत ही किये जाते हैं।
नीतियां प्रशासन तन्त्र द्वारा ही लागू की जाती हैं जो कि पुनः नीतिगत विधानों को आकार देने के साथ अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ जाती हैं।
Question : कम विकसित देशों में नीति कार्यान्वयन का प्रभावी होना जरूरी है।
(1998)
Answer : अल्पविकसित या विकासशील देशों में नीतियों के वास्तविक क्रियान्वयन अप्रभावी रहता है। इसके पीछे विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा प्रशासनिक कारण होते हैं। केन्द्रीय स्तर पर किसी भी प्रकार के नीति या योजना का निर्माण होता है तथा अपेक्षा की जाती है कि इसका प्रभाव सबसे निचले स्तर तक समान रूप से पड़े।
इन नवोदित राष्ट्रों का औपनिवेशक शासन के दौरान इतना ज्यादा शोषण किया गया कि ये देश अपना सामाजिक एवं आर्थिक गठन का विकास करने में असफल रहे, इसलिए लोक प्रशासन अपर्याप्त था, लेकिन देश का एक प्रमुख प्रतिष्ठान तो था ही, जिसमें विभिन्न स्तरों की मर्मभेदी सामर्थ्य थी। राजनीतिक आजादी के साथ इन देशों को एक प्रशासनिक प्रणाली उत्तराधिकार में प्राप्त हुई, जो नियामक क्रिया-कलापों में काफी मजबूत थी, किन्तु स्वतन्त्रता के ऊषाकाल में जो कार्य प्रशासन को करने थे, उसके बारे में उनका ज्ञान शून्य था। अधिकांशतः नीति के रूप में अंशतः इस कारण कि शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ, समाज कल्याण एवं अन्य विकास के एवं सांस्कृतिक क्षेत्रें मे कार्य करके कार्य का शुभारम्भ करना पड़ा।
विकासशील राष्ट्रों के समक्ष रूप से गम्भीर आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक समस्याएं विद्यमान हैं। आर्थिक समस्याओं के रूप में प्रति व्यक्ति आय का बहुत कम होना बेरोजगारी की समस्या तथा आर्थिक विकास का अभाव आदि प्रमुख हैं। सामाजिक समस्याओं के रूप में जनसंख्या में वृद्धि, जनसंख्या का निम्नगुण स्तर होना सामाजिक तथा संख्यागत बाधायें तथा रूढि़यां, कुशल व्यक्तियों का अभाव आदि प्रमुख हैं। प्रमुख राजनैतिक समस्याओं में राजनीतिकअस्थिरता, नियोजन के प्रति उदासीनता, श्रमिकों का शोषण व बन्धन आदि हैं। राजनीतिक अस्थिरता के कारण आर्थिक सामाजिक विकास के लिए दृढ़ और स्थाई नीतियां अवरूद्ध हो जाती हैं। राजनीतिक अस्थिरता के कारण ही राष्ट्रीय प्रतिरक्षा भी निर्बल होती है। विकासशील राष्ट्र प्रशासनिक दृष्टि से प्रायः अकुशल अवैज्ञानिक एवं पिछड़े हुए होते हैं।
इन समस्याओं के सन्दर्भ में कम विकसित राष्ट्रों में लोक प्रशासन का महत्व और दायित्व स्वयं ही स्पष्ट होता है। लोक प्रशासन का प्रमुख कार्य नीतियों का क्रियान्वयन है। सरकार नीति निधार्रण का कार्य करती है, लेकिन इन नीतियों का क्रियान्वयन लोक प्रशासन द्वारा ही होता है। कम विकसित अथवा विकासशील समाजों में समृद्धि और प्रगति की कुन्जी लोक प्रशासन के हाथ में होती है।
अल्प विकसित राष्ट्रों में आर्थिक पक्ष पर ही विशेष बल दिया जाता है, अतः आर्थिक जीवन को नियमित एवं नियंत्रित किया जाता है। विकासशील देशों में आर्थिक नियोजन का महत्व सर्वोपरि है, जिसका मूल उद्देश्य लोकतांत्रिक कार्य विधियों द्वारा तीव्र गति से प्रगति करना है। इन चुनौतियों का सामना लोक प्रशासन को करना पड़ता है। इसके लिए प्रायः योजना आयोग का गठन किया जाता है, जो लोक प्रशासन का ही एक भाग है।
अल्प विकसित देशों में लोक प्रशासन को अपनी औपनिवेशिक कार्य प्रकृतियों से बाहर निकलकर जनतन्त्रत्मक चुनौतियों के मध्य में कार्य करना पड़ता है। इसके लिए बदलते समाज की बदलती आकांक्षाओं के साथ सामन्जस्य स्थापित करना पड़ता है। चुने हुए प्रतिनिधियों, उदासीन जनसाधारण, राजनीतिक विरोधियों के बीच रहते हुए उसे ऐसी भूमिका निभानी होगी कि वह सभी वर्गों को सन्तुष्ट रख सके। साथ ही, व्यवस्था प्रशासन में भी प्रभावी तालमेल बैठा सके।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि नीति कार्यान्वयन के प्रभावी होने से ही अल्प विकसित देशों का तीव्र आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विकास सम्भव है।
Question : ‘‘निर्णय ले लेने के बाद भी नीति-निर्माण का अंत नहीं होता है। निर्णय के क्रियान्वयन का लोक नीति पर उतना ही बड़ा प्रभाव पड़ सकता है, जितना स्वयं निर्णय का।’’ चर्चा कीजिये।
(1997)
Answer : जब प्रशासन में विधिक प्रश्न उठते हैं और उनका उत्तर न्यायालय द्वारा न होकर प्रशासन स्वयं न्यायिक निर्णय प्रस्तुत करता है, तो उसे प्रशासकीय निर्णय कहा जाता है। वस्तुतः प्रशासकीय निर्णय को प्रशासकीय अभिकरण के द्वारा विधि एवं तथ्य के आधार पर गैर शासकीय पक्ष से सम्बन्धित विवाद को हल करने से लिया जा सकता है। निर्णय उपलब्ध विकल्पों में श्रेष्ठ विकल्प चयन की प्रक्रिया है। नीतियों द्वारा प्रकाशित प्रकाश को संज्ञान में रखते हुये ही निर्णय लिये जाते हैं। निर्णय किसी समस्या विशेष के संदर्भ में ही लिये जाते हैं तथा यह निरन्तर नहीं लिये जाते हैं। नीति निर्धारण प्रक्रिया का वह अप्रतिम क्षण है, जिसमें नीति स्वयं किसी निर्णय का प्रतिफल होती है, निर्णय कहलाता है। निर्णय कार्यक्रम के अनुसार एवं बिना कार्यक्रम के हो सकते हैं। कार्यक्रम के अनुसार निर्णय आवृत्तीय होता है, इसके निमित्त किसी विचार-विमर्श की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है, यह दैनिक घटनाक्रम से सम्बन्धित होता है। इसमें एक निश्चित प्रक्रिया का पालन करने के पश्चात् निर्णय पक्ष में होना स्वभाविक होता है। इसे औपचारिक निर्णय भी कह सकते हैं। दूसरी ओर बिना कार्यक्रम के निर्णय में नवीनता होती है, इसका कोई स्वरूप निर्धारित नहीं होता है। इसके निमित्त कोई नियम एवं पद्धति नहीं होती है। इस तरह के निर्णय में प्रशासक अपने ज्ञान, कौशल, चातुर्य एवं विवेक से कार्य करता है।
किसी नीति की सफलता नीति के समस्त कारकों पर अवलम्बित होती है। इसके अंतर्गत नीति-निर्धारण, नीति क्रियान्वयन तथा नीति विश्लेषण को सम्मिलित किया जाता है। इसमें प्रत्येक कारक अपने पूर्ववर्ती कारक पर आश्रित है। नीति निर्धारण के अंतर्गत उद्देश्यों एवं लक्ष्यों तथा रणनीति तथा क्रियान्वयन की विधि को चयनित किया जाता है। इसमें नीतिगत रूपरेखा की आवश्यकता पड़ती है। नीति की रूपरेखा का निर्धारण नीति निर्धारण से पक्षता एवं सामर्थ्य की अपेक्षा रखता है। नीति का निष्पादन नीति-निर्माता की प्रेरणा से अनुप्राणित होता है। किसी नीति का निर्धारण करते समय नीति निर्माता की अपनी विचारधारा, जाति तथा वर्गीय हितों, क्षेत्रीय तथा जातीय प्रतिबद्धताओं से नीति प्रभावित होती है। कदाचित कोई नीतिगत रूपरेखा वा“य कारकों से भी आती है और उसे सामाजिक दशा के अनुरूप करके अंगीकृत किया जा सकता है। शासकीय न्यायिक निर्णय का विकास विशेष परिस्थितियों की छाया में हुआ है। औद्योगिक क्रांति ने प्रशासन के स्वरूप में सार्थक परिवर्तन किये। राज्य का स्वरूप लोकतांत्रिक मूल्यों पर आश्रित हो जाने के कारण पुलिस राज की संकल्पना विलुप्त हो गई। पुलिस का कार्य मात्र जनरक्षा तक सीमित हो गया। लोककल्याणकारी राज्य की संकल्पना के कारण आज प्रशासन द्वारा राज्य के हितार्थ रचनात्मक कार्य भी किये जा रहे हैं अतः प्रशासन के स्वरूप में भी सकारात्मक परिवर्तन की आवश्यकता अनुभूत की गई। यह महसूस किया गया कि प्रशासन ‘चर’ सरकार के अन्य संगठनों पर न्यूनतम निर्भर रहे। प्रशासकीय न्यायिक निर्णय शीघ्रता से तथा व्यय साध्य है। प्रशासन में तकनीकी उपागमों के प्रविष्ट हो जाने के कारण उसके ज्ञान में जटिलता आ गई है। इस जटिलता का संज्ञान प्रशासकों को होना चाहिये। यह कटु सत्य है, कि तकनीकी बातों के सम्बन्ध में न्यायालय निर्णय देने में असमर्थता महसूस करता है क्योंकि तकनीकी बातें व्यावहारिक कार्यानुभव से सम्बद्ध होती हैं।
व्यक्ति और प्रशासन के मतभेद में विधिक प्राथमिकता के साथ ही साथ प्रशासनिक प्राथमिकता भी होती है। निर्णय द्वारा ही प्रशासकों को प्रशासन के सिद्धान्त में परिवर्तन का अवसर प्राप्त होता है तथा निर्णय प्रक्रिया ही प्रशासकीय आदर्शों को व्यावहारिकता से जोड़ने का प्रयास करती है। वर्तमान काल में विकास की तीव्र गति के कारण प्रशासकीय न्यायिक निर्णय उपादेय प्रतीत होते हैं, विकास के आंचल में ही प्रशासकीय विधि भी खेल रही है। प्रशासकीय अभिकरणों द्वारा निर्णीत निर्णय स्थायित्व प्राप्त कर रहे हैं क्योंकि प्रशासकीय न्यायालय द्वारा लम्बित वादों पर निर्णयन में शीघ्रता आ रही है। इस न्यायिक निर्णय के दायित्व ने लोक प्रशासकों को स्वविवेकीय भावना का संचार करते हुए स्वायत्तता प्रदान की है, जो प्रशासकीय दक्षता के लिए औषधि का कार्य कर रही है।
नवीन समस्याओं को निर्णयित करते समय प्रशासकीय न्यायालय जन अनुकूल नम्यता को प्रश्रय दे रहे हैं, जो स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है। इस न्यायिक निर्णय की यह न्यूनता है कि इसमें स्वतंत्र पुनर्विलोकन की क्षमता का अभाव है। किन्तु नागरिकों के हितार्थ को सुरक्षित रखने के लिये यह आवश्यक है। भारत में न्यायिक निर्णय के तंत्र के रूप में प्रशासकीय न्यायालय का निर्माण गत कुछ वर्षों पूर्व ही हुआ। हमारे देश में प्रशासकीय न्यायालयों की संख्या अभी न्यून है। वस्तुतः स्वतंत्रता प्राप्ति के 61 वर्षों बाद भी हमारी प्रशासनिक व्यवस्था अभी शैशवावस्था में ही रमण कर रही है। भारत में विभिन्न न्यायालयोंको ही प्रशासकीय न्यायिक निर्णय का भी अधिकार प्रदान किया गया है। मूलतः एक बार निर्णय हो जाने के पश्चात् नीति निर्माण का अंत हो जाना चाहिये। लेकिन हमारे देश में नीति-निर्धारण ही दोषपूर्ण होता है। नीति निर्धारण में आने वाली समस्यायें ही निर्णय हो जाने के बाद भी नीति निर्माण का अंत नहीं होने देती। लोक कल्याणकारी राज्य होने के कारण नीतियों अपने में हमेशा समस्याओं से समझौता करके निर्मित होती हैं। दूसरे अर्थों में नीतियां अपने अन्दर समस्याओं को समाहित किये हुये रहती हैं। इन समस्याओं से सम्बन्धित तथ्य जब प्रकाश में आता है, तो नीति निर्णय की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। फिर उस समस्या के आलोक में नीति में परिवर्तन किये जाते हैं, जिससे नीति के मौलिक स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है। नीति निर्माण में वित्त की अपर्याप्तता नीति प्रक्रिया के सुगम संचालक को बंधित करती है। कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में विलम्ब नीति प्रक्रिया को समस्याग्रस्त बना देता है। नीति-निर्धारक अधिकारियों में समुचित प्रशिक्षण के अभाव में अपर्याप्त कार्य दक्षता पाई जाती है, जिससे नीति निर्धारण सम्बन्धी प्रक्रिया विलम्बित होती है। नीति के ध्येयों को प्रायः निर्धारकों द्वारा सुस्पष्ट नहीं किया जाता है।
नीति निर्धारक प्रायः नीति के निर्धारण में दीर्घकालिक लाभों को नहीं भांप पाते, वे अपना सम्पूर्ण ध्यान तात्कालिक लाभों पर देकर ही नीति की इतिश्री कर देते हैं। जिससे नीति व्यावहारिक रूप में प्रायः असफल हो जाती है। राजनैतिक लाभों को नीति में स्थान देने के कारण नीति में राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़ जाता है। ऐसे में नीति को सार्थक स्वरूप दे पाना एक समस्या हो जाता है। पर्याप्त जन समर्थन नीति को उपलब्ध नहीं हो पाता है। ऐसा नीति में विसंगतियों के कारण एवं विसंगतियों को नीति में स्पष्ट न करने के कारण होता है। गैर सरकारी समूहों को नीति निर्धारण के समय विश्वास में नहीं लिया जाता है। गैर सरकारी समूह जनकल्याण के कार्यों में संलग्न रहते हैं, ऐसे समूहों से विचार विमर्श नीति निर्धारक आवश्यक नहीं समझते। सामाजिक संगठनों को नीति निर्धारण में शामिल न किये जाने से नीति की यथार्थता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है।
उपरोक्त वर्णित विसंगतियों के कारण ही निर्णय ले लेने के पश्चात भी नीति निर्माण की प्रक्रिया चलती रहती है, ऐसा नीति में उपस्थित व्यावहारिक विसंगतियों के कारण होता है। संविधान मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण की दशा में नागरिकों को संरक्षण प्रदान करता है। प्रशासकीय निर्णय विधि के शासन की वैधानिकता को स्वीकार करते हैं। उचित सुरक्षा के साथ प्रशासकीय न्यायिक निर्णय प्रणाली से समुचित लाभ उठाकर समाज को सकारात्मक दिशा प्रदान की जा सकती है।
Question : "लोक नीति की क्रियान्वित, क्या कारगर है और क्या नहीं है, इस बात को खोज लेने का प्रक्रम है।" परीक्षण कीजिये।
(2007)
Answer : नीतियों के निर्माण की विशिष्ट प्रासंगिकता है। जननीति का परिचालन उसके गुण व दोषों को प्रकट करता है।
नीति निष्पादन के द्वारा एक नीति में निर्धारित उद्देश्यों को पूर्ण करने का यत्न किया जाता है। नीति निष्पादन के अन्यानेक सोपान होते हैं। प्रथम सोपान नीति के विषयों की समझने से संदर्भित है। निष्पादन एवं परिचालन करने वाली संस्थायें नीति के विषयों का वृहद अध्ययन करती हैं तथा संदेहास्पद बिन्दुओं पर प्रायः स्पष्टीकरण की मांग करती हैं इसके पश्चात द्वितीय चरण में नीति को विभिन्न खण्डों में बांटने का प्रयास होता है।
ऐसा करने के लिए लक्षित क्षेत्र समूह, आवश्यक साधनों, उपलब्ध साधनों इत्यादि का सही विश्लेषण एवं निर्धारण आवश्यक है। साधनों का फैलाव नीति के विभिन्न विभाजित खण्डों के आधार पर किया जाता है। तृतीय चरण नीति के कार्यान्वयन से प्रभावित होने वाले व्यक्तियों के समूह तथा क्षेत्र से आवश्यक सूचनाएं एवं आंकड़े इकट्ठा करने का है। कभी-कभी एक नीति का समाज के तत्वों पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है। ऐसे प्रभावित तत्वों के नीति कार्यान्वयन एजेन्सियों सुधार के प्रति उपाय कदम और कार्यनीति पहले ही अपना सकती है। अंत में नीति के क्रियान्वयन के लिए संबंधित एजेंसियों मानकों तथा मानदण्डों का निर्धारण करती है।
नीति निर्माण के लिए विधायिका अधिकारिक एजेंसी है तो नीतियों के निष्पादन के लिए कार्यपालिका अधिकारिक अंग है। नीतियों के कार्यान्वयन का कार्य व्यवहार में प्रशासन तन्त्र करता है। प्रशासन विधायिका द्वारा निर्मित नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए अपने अनुभव एवं विशेषज्ञता का इस्तेमाल करता तथापि विधायिका का नीति निष्पादन में भी प्रशासन तन्त्र के साथ अप्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता है। जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि नीतियों के कार्यान्वयन के प्रति काफी सचेते होते हैं। विधायिकों के पास ऐसे कई साधन होते हैं जिसके द्वारा वह प्रशासन तन्त्र का नीतियों को प्रभावी ढंग से एवं तीव्रता के साथ कार्यान्वित करने के लिए बाध्य कर सकती है। नीति निष्पादन में भी न्यायपालिका को मुख्य भूमिका रहती है।
नीति के उद्देश्यों को अस्पष्टता की स्थिति में न्यायापालिका ही नीति की स्पष्टता की व्याख्या करती है और भ्रांतियों को दूर करती है। वैसे तो नीति निष्पादन सरकार का प्रमुख दायित्व है फिर भी गैर सरकारी एजेंसियों जैसे स्वैच्छिक संगठन, दबाब समूह एवं नागरिक भी नीति निष्पादन प्रक्रिया में योगदान देते है किसी नीति की प्रासंगिकता उनके सहज क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। यदि नीति का निष्पादन जटिल है तो उसका क्रियान्वयन भी कठिन होता है। नीति का मूल्यांकन या प्रासंगिकता का ज्ञान उसकी प्रभावशीलता आर्थिक उपयुक्तता के साथ-साथ उसके क्रियान्वयन पर भी निर्भर करता है। अतः लोक नीति का क्रियान्वयन क्या कारगर है और कारगर नहीं है इस बात को खोज लेने का प्रक्रम है।
Question : "नीति कार्यान्वयन के संबंध में अनाड़ीपन से ज्यादा तीव्रता से कुछ भी नहीं उभर कर आता है।" चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : राज्य के संचालन के लिए सरकार नीति का निर्माण करती है, इन्हें लोक नीतियां कहते हैं। नीति का निष्पादन उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि उसका निर्माण। नीति निष्पादन में प्रभावशीलता नीति निर्माण के संपूर्ण उद्योग को सफल बनाती है अतः इनके कार्यान्वयन में अत्यंत सावधानी अपेक्षित है।
क्रियान्वयन संस्था अर्थात प्रशासन में स्थायित्व पहली शर्त है क्योंकि प्रशासन में बार-बार स्थानांतरण क्रियान्वयन में बाधा पहुंचाता है। नीतियों को पूरी तरह प्रशासन के सामने स्पष्ट करना चाहिए। लक्ष्य तथा प्रत्येक चरण का विस्तृत विवेचन होना आवश्यक है।
नीतियां जिन तथ्यों और आंकडों पर बनायी जाती है, उनमें भी सटीकता आवश्यक है। नीति के कार्यान्वयन में जनता की भागीदारी भी सही प्रकार से जानकारी उपलब्ध कराने पर ही निर्भर करती है।
विकेंद्रीकरण भी एक महत्वपूर्ण पहलू है, क्योंकि केंद्रीयकरण एक तरफ अनावश्यक कार्यबोझ से ग्रसित होता है। तो दूसरी तरफ इसमें पारदर्शिता का भी अभाव होता है। सूचनाओं का विनियम भी उतना सुगम नहीं होता। विशेष रूप से टेक्नोक्रेट या ब्यूरोक्रेट के मध्य सूचनाओं का विनिमय नहीं होता है। विकेंद्रीकरण असल समस्याओं को सामने लाता है।
एक ही कार्य के लिए कई विभाग भी समस्या का कारण बनते हैं, परिणामतः कार्यान्वयन का दायित्व सुनिश्चित नहीं होता है, अतः अनावश्यक विभागों को बंद किया जाना चाहिए।
अत्यधिक कर्मचारी भी कार्य की गुणवत्ता में कमी लाते हैं। संसाधनों का अपर्याप्त प्रवाह भी कार्यान्वयन में बाधा बनता हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक उठा-पटक में नीतियां, राजनीतिक दुर्भावनाओं का शिकार हो जाती हैं। गठबंधन सरकार में नीतियां सरकार बचाने के लिए एक उपकरण के रूप में प्रयोग की जाती हैं, अतः नीति कार्यान्वयन में सभी समीकरणों को बिठाना नीति की सफलता के लिये अत्यंत आवश्यक हैं।
Question : ‘नागरिक समाज’ की परिभाषा दीजिये। नागरिक समाज लोकनीति को किस प्रकार प्रभावित करता है?
(2006)
Answer : नागरिक समाज जैसा कि Centre For Civil Society London School Of Economicsके द्वारा कहा गया है कि यह उन स्वैच्छिक संगठनों को दर्शाता है, जिनके हित जुड़े होते हैं। यह राज्य और बाजार से अलग है और परिवार से ऊपर है, लेकिन राज्य, नागरिक समाज और बाजार को पूरी तरह से अलग कर पाना संभव नहीं है। नागरिक समाज में कई तरह के संगठन सम्मिलित हैं जैसे कि स्वयं सेवी संस्थायें, मजदूर संघ, व्यापार और वाणिज्य संघ, व्यावसायिक संघ, मीडिया, नागरिक समूह, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन, उपभोक्ता संगठन, गैर राज्य पर्यावरणीय समूह, गैर राज्य, खेल संगठन या सामूहिक हित या लोक हित से जुड़े अन्य संगठन हैं।
यह गैर राज्य के गैर लाभकारी होते हैं, जबकि बाजार गैर राज्य के लिए लाभकारी होते हैं। इनके संगठन लचीले और भागीदारीपूर्ण होते हैं। इनको चलाने के लिए अपने नियम रखे जाते हैं। यह सीधे राज्य के नियंत्रण में कार्यरत नहीं होते हैं। इनमें स्वैच्छिक भागीदारी आती है। इनमें संसाधनों के स्रोत विभिन्न तरह के होते हैं और यह अनुदानों से भी संसाधन जुटाते हैं।
इनसे राज्य और गैर राज्य भागीदारी बढ़ती है। विकास और कल्याण के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ा सकते हैं। इनकी सामाजिक पूंजी के निर्माण में भूमिका होती है। लोक अभिकरणों की लोक जवाबदेही को बढ़ाने में सहायता मिलती है।
सक्रिय नागरिक और सक्रिय समाज एक-दूसरे के पूरक हैं। विकास और कल्याण कार्यक्रमों में इनका प्रयोग करने से इस कार्यक्रमों की लागत कम होती है। नीतियों और कार्यक्रमों तथा विधेयकों को तैयार करने में जब नागरिक समाज की भागीदारी बढ़ती है तो समाज में उन्मुख प्रयास बढ़ते हैं। राज्य और गैर राज्य भागीदारी को बढ़ा करके एकीकृत शासन को बढ़ा सकते हैं। यह तृतीय सेक्टर या स्वतंत्र सेक्टर आज विकास के अतिरिक्त आपदा प्रबंधन में भी उपयोगी है। इससे स्व विकास के अवसर उत्पन्न होते हैं।
इससे लोक सेवाओं में सामुदायिक नैतिकता बढ़ाने के लिये एक नया आधार उत्पन्न होता है। इससे लोकतांत्रिक मूल्यों का और विकास होता है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सकते हैं और सतत् विकास में सतत् उपयोगी साबित होता है।
वैश्विक रणनीतियां विकास और आर्थिक विषयों में नागरिक समाज से प्रभावित हैं। जैसे कि सतत् विकास के मुद्दों में नागरिक समाज ने प्रभाव डाला हो। भारतीय राष्ट्रीय सलाकारी परिषद नीतियों और कार्यक्रमों को प्रभावित कर रही है और वह गैर-सरकारी संगठनों से जुड़ी हुई है। प्राथमिक शिक्षा के प्रबंधन में भी स्वायत्ता के दृष्टिकोण को अपनाया गया है। नीतियों और कार्यक्रमों की स्थानीय सरकारें और नागरिक समाज की संस्थायें एक दूसरे की पूरक हैं। UNDPव विश्व बैंक जैसी संस्थाओं में सलाहकारी पैनल लाये गये हैं। नागरिक उन्मुख नीतियों, कार्यक्रमों में IInd ARC ने सामाजिक लेखा परीक्षण पर बल दिया है।
जनहित याचिकाओं के माध्यम से लोकनीतियों को न्यायपालिका ने प्रभावित किया और उससे गैर-सरकारी संगठन जुड़े हुये हैं। वैश्वीकरण के साथ-साथ बहु राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों का भी विकास हुआ है। नई अर्थव्यवस्था में भी नागरिक समाज ने आर्थिक नीतियों व कार्यक्रमों को प्रभावित किया है। जवाबदेही व पारदर्शिता के कार्यक्रमों में मीडिया का एक महत्वपूर्ण असर है तथा व्यावसायिक समूह ने संबंधित क्षेत्र की नीतियों व कार्यक्रमों पर असर डाला है।
लोकनीतियों के नेटवर्कों में नागरिक समाज की संस्थायें जुड़ रही हैं। वैसे भी भारत में नियोजन आयोग ने एक ओर बहुल स्तरीय नियोजन पर बल दिया है तो दूसरी ओर ग्राम स्तरीय नियोजन पर बल दिया है और इसके लिये सूचना व्यवस्था विकसित करने के प्रयास किये हैं। ब्राजील व फ्रांस में श्रमिक संगठनों ने नीतियों व कार्यक्रमों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। जैसे-जैसे सूचना का अधिकार सशक्त हो रहा है, नागरिक समाज की सक्रियता बढ़ रही है।
भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नागरिक समाज की भागीदारी बढ़ाई जा रही है। सामाजिक लेखा परीक्षण में भी नागरिकों के अतिरिक्त नागरिक समाज की भागीदारी बढ़ाई गई है। जैसे कि Public Affairs Centre के द्वारा Rating Card व्यवस्था का प्रयोग किया गया था। राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम में सूचना के अधिकार को भागीदारीपूर्ण बनाने पर बल है।
ग्रामीण रोजगार गारंटी स्कीम में गैर सरकारी संगठनों की भागदारी, इसी तरह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून- 2005 व गुजरात आपदा प्रबंधन अधिनियम 2000 में भी नागरिक समाज की भागीदारी को लिया गया है, क्योंकि लोकनीति प्रक्रिया में सूचना तकनीकी आधारित नेटवर्कों का प्रयोग है, इसलिये इसमें भी भागीदारी बढ़ रही है। वैसे IInd ARC ने नागरिक केद्रित प्रयासों पर बल दिया है। चीन जैसे देशों में गोम्बोज (GOMBOS- Government Organised NGO's) को लाया गया है। ब्राजील व फ्रांस में श्रमिक हितों के लिये श्रमिक संघ सक्रिय है। इराक में वर्तमान व्यवस्था के दौर में नागरिक समाज की भागीदारी शांति और सहायता देने के लिये बढ़ी है।
नागरिक समाज के समक्ष चुनौतियां लोकनीति में इसके योगदान को बाधित कर रहा है। नागरिक समाज की संस्थायें बिखरी हुई हैं। भागीदारी बढ़ाने के लिये और बेहतर सक्षमता उत्पन्न करने के संबंध में ज्यादा समय लगता है। कभी-कभी विकसित देशों के द्वारा विकासशील देशों पर दबाव डालने के संदर्भ में इनके प्रयोग की स्थितियां उभरी हैं। जब समस्याओं से इनके द्वारा धन प्राप्त किया जाता है, तो प्राथमिकताओं के उचित निर्धारण में भी अंतर देखे जाते हैं। जिन देशों में लोकतंत्रीकरण में कमियां हैं, वहां इसे ठीक से प्रोत्साहन देना मुश्किल होता है। स्थानीय सरकारों व गैर सरकारी संगठनों के बीच समन्वय को प्राप्त करने की समस्यायें होती हैं। आतंकवाद की समस्या में राज्य की संस्थाओं को कई स्थितियों में नागरिक समाज की संस्थाओं के प्रति संदेह उत्पन्न होता है जब राज्य के पास इन संस्थाओं के संदर्भ में उचित जानकारी या तथ्य, आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही दूरस्थ क्षेत्रें में इनकी उचित व्यवस्था के संदर्भ में कमियां बनी हुई हैं।
बोलिविया में Law of popular participation लाया गया क्योंकि नागरिकों में नागरिक शिक्षा ज्यादा देने की जरूरत है। न्यायमूर्ति J.S. Verma समिति ने मौलिक कर्तव्यों को बेहतर रूप से लागू करने का सुझाव दिया था। उनके अनुसार कानूनी प्रावधानों के द्वारा ही गैर सरकारी संगठनों की भागीदारी के संदर्भ में उचित प्रावधान रखे जाने चाहिये। P.C. Hota समिति ने सिफारिश की है कि प्रत्येक 5 से 7 वर्ष अधिकारियों को शैक्षाणिक संस्थाओं या गैर-सरकारी संगठनों में 2 माह के लिए भेजा जाये। ऐसे गैर सरकारी संगठन जो राज्य से महत्वपूर्ण सहायता ले रहे हैं, उनको भ्रष्टाचार निवारक कानूनों के दायरे में लाया जाये। संसाधनों के जुटाने के लिए गैर सरकारी संगठनों व नागरिकों और राज्य की परिपूरकता बढ़े। विकास और कल्याण कार्यक्रमों में स्थानीय सरकारी और गैर सरकारी संगठनों की परिपूरकता बढ़ाने की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र महासभा के साथ Global Civil Society Assembly को लाने के प्रयास हो। लोक सेवाओं, जन संपर्क और नैतिकता प्रशिक्षण को बढ़ाये, ताकि बाहर की भागीदारी के लिये इनमें बेहतर प्रयास किये जायें।
उपरोक्त विश्लेषण स्पष्टतः नागरिक समाज की लोकनीति निर्माण में भूमिका और इसके प्रभाव को और अधिक सशक्त बनाने के लिए सुदृढ़ आधार प्रदान करता है।