Question : ‘संगठन दो या अधिक व्यक्तियों के सचेतन रूप से समन्वित क्रियाकलापों या बलों का एक तन्त्र होता है। टिप्पणी कीजिए।
(2005)
Answer : प्रबन्ध प्रक्रिया का अत्यन्त महत्वपूर्ण चरण एवं कार्य संगठन है, क्योंकि संगठन ही व्यक्तियों अथवा समूहों के द्वारा किए जाने वाले कार्यों की एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा उपलब्ध साधनों के प्रयोग के लिए सुव्यवस्थित, रचनात्मक और समन्वयपूर्ण क्रियाक्षेत्र तैयार करने का प्रयत्न किया जाता है। किसी भी कार्य को सुचारू रूप से करने के लिए संगठन नितान्त आवश्यक है। कार्य सफलता अथवा असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि संगठन कितना सुव्यवस्थित है। समस्याएं संगठन का निर्माण करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति किन्हीं ऐसे ध्येयों की पूर्ति करना चाहता है कि जिन्हें वह अकेला नहीं कर सकता, जिसके फलस्वरूप संगठन का उद्भव होता है। संगठन समस्त प्रशासन की पूर्व क्रिया है। संगठन के बिना किसी प्रकार के प्रशासन कर अस्तित्व सम्भव नहीं है। संगठन का अर्थ है- कर्मचारियों की व्यवस्था करना, ताकि कार्यों और उत्तरदायित्वों के उचित विभाजन द्वारा निर्धारित उद्देश्य को सरलतापूर्वक पूरा किया जा सके। दो या दो से अधिक मनुश्यों के समवेत एवं समन्वित क्रिया की व्यवस्था या पद्धति ही संगठन है। यह कर्मचारियों का ऐसा समूह है, जो सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करता है। संगठन में सहकारिता के तत्व अनिवार्य होती हैं। सहकारिता का अर्थ विभिन्न क्षमता वाले सामूहिक प्रयास से है। वह सामूहिक प्रयास संगठन के सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया जाता है, संगठन में व्यक्ति की क्रिया-प्रतिक्रिया पर भी बल दिया जाता है। संगठन मूलतः व्यक्तियों का वह समूह है जो कि सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति हेतु एक नेता के निर्देशन में कार्य करता है। यह वह ढांचा है जो शासक के प्रमुख कार्यवाहक तथा उसके सहायकों को सौंपे गए कार्यों को पूरा करने के लिए बनाया जाता है। संगठन एक प्रकार का सम्प्रेषण जाल है, जिसमें निरन्तर सन्देश का आदान प्रदान किया जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि संगठन दो या दो से अधिक व्यक्तियों के सचेतन रूप से समन्वित क्रिया-कलापों या बलों का एक तन्त्र है जो समूह के उत्तरदायित्वों को परिभाषित करता है।
Question : ‘सोपानिक नियंत्रण’ जिसमें अनुदेश सीढ़ी दर सीढ़ी नीचे पहुंचते हैं, नियंत्रण का मात्र आयाम नहीं है।
(2005)
Answer : अधिकारी तंत्र में कार्य संबंधी क्रियाएं विशेषीकरण के आधार पर विशिष्ट पदों को प्रत्यापिर्त कर दी जाती हैं। उच्चता से प्रारंभ होकर शक्ति व शासन का हस्तांतरण निम्नता की ओर प्रत्येक निरीक्षक से उसके अधीनस्थ कर्मचारियों को सौंप दी जाती है। प्रत्येक पद का एक अपना विशिष्ट सीमांकन होता है। यहां कार्य, योग्यता, सत्ता, उत्तरदायित्व तथा पद के अन्य भागों का स्पष्ट सीमांकन होता है। न्यूनस्तर के पदों को एक समूह में लाकर के एक उच्च कार्यालय के अधीन कर दिया जाता है। प्रत्येक निरीक्षक का पद एक शीर्षाधिकारी के नियंत्रणाधीन होता है। प्रत्येक कर्मचारी अपने तथा अपने अधीनस्थ कार्य करने वालों के पदसंबंधी कार्यों और निर्णय के लिए अपने वरिष्ठ अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होता है। सभी पिरामिड जैसे संगठन के शिखर पर उच्चतम अधिकारी के प्रति उत्तरदायी होते हैं, अतः समस्त कार्य एक निरंतर व्यवस्थित तथा स्पष्टतया समुचित पदसोपान के रूप में संगठित किया गया होता है।
प्रशासनिक अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के मध्य कार्यों का बंटवारा कर देते हैं। पदाधिकारियेां को अपने प्रशासकीय अधिकार अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को सौंपने पड़ते हैं। ऐसे कृत्य से ही अधीनस्थ कर्मचारी दिये हुए कार्यों के संबंध में अपने उत्तरदायित्व निभा सकते हैं। इस प्रकार शक्तियों को सौंपने के बावजूद शीर्ष अधिकारी अपने कार्यों की जबानदेही से मुक्त नहीं हो पाता है, क्योंकि अंतिम उत्तरदायित्व के निर्वहन के लिए उसे नियंत्रण, निर्देश एवं निरीक्षण की शक्ति अपने हाथों में सुरक्षित रखनी पड़ती है। इसी नियंत्रण तथा निरीक्षण की शक्ति अपने हाथों में सुरक्षित रखने का नाम ही प्रत्याधिकरण है। इससे सोपानित नियंत्रण सीढ़ी दर सीढ़ी न्यूनता की ओर अग्रसरित होते हैं।
लोकतंत्र में अधिकारीतंत्र कभी भी एक स्वतंत्र सामाजिक जीवाणु नहीं माना गया, यह वस्तुतः एक सामाजिक व्यवस्था है। अतः अधिकारी तंत्र पर नियंत्रण का प्रश्न ऋजु हो जाता है। मूलतः अधिकारीतंत्र अपने को ऐसे विधिक एवं आर्थिक तकनीकों के अंतर्गत नियंत्रित पाता है, जो इसे भली प्रकार कार्य निष्पादन में सहायता करते हैं। वास्तविक अर्थों में अधिकारीतंत्र एक यंत्र है यह किसी कार्य विशेष के लिए चयनित होता है। ये लोककार्य भी
अधिकारी तंत्र पर नियंत्रण का ही एक आयाम है। अधिकारी तंत्र पर नियंत्रण के अन्य आयाम भी है यथा खुलापन शासकीय भेदों को दूर करना तथा प्रभावकारी संसदीय नियंत्रण आदि।
अधिकारी तंत्र पर नियंत्रण की क्रियाविधियों को सहयोजन शक्तियों की पृथकता, अव्यवसायिक प्रशासन, प्रत्यक्ष लोकतंत्र और प्रतिनिधित्व में वर्गीकृत किया जा सकता है। सहयोजना के अंतर्गत प्रशासकीय पदसोपान के प्रत्येक स्तर पर सिद्धांत के तौर पर निर्णय की प्रक्रिया में एक से ज्यादा व्यक्ति को सम्मिलित किया जाना चाहिए। ऐसा करने से भिन्न-भिन्न विचारों की प्राप्ति है, जो उपयुक्त निर्यायन हेतु आवश्यक माने गये हैं। शक्तियों की पृथकता के अंतर्गत एक ही कार्य के लिए दो या अधिक संस्थाओं में दायित्वों का परस्परावंटन कर देना। यह व्यवस्था प्राकृतिक तौर पर अस्थिर होती है।
अव्यवसायिक प्रशासन व्यवस्था विशेषज्ञता की मांगों पर खरी नहीं उतरती है, यह अत्याधुनिक समाजों में पाई जाती है। इसके अलावा जहां अव्यवसायों की सहायता व्यवसायी या निपुण लोग करते हैं, वास्तविक निर्णय तो व्यवसायी लोगों के परितः ही अवस्थित होते हैं। प्रत्यक्ष लोकतंत्र मात्र स्थानीय प्रशासन में ही व्यावहारिक है, और विशेषज्ञता की आवश्यकता इसके विरुद्ध विपरीत तर्क का कार्य संपादित करती है। प्रतिनिधित्व निर्वाचित प्रतिनिधि सभाओं या सांसदेां के द्वारा जनता का सीधा प्रतिनिधित्व है। इस माध्यम के द्वारा ही अधिकारी तंत्र पर नियंत्रण की सर्वाधिक संभावना दृष्टव्य होती है।
उपरोक्त विवेचन से सुस्पष्ट है कि सोपानिक नियंत्रण में अनुदेशन सीढ़ी दर सीढ़ी नीचे ओर प्रवाहित होते हैं और नियंत्रण के अलावा भी इसके अन्यानेक आयाम है।
Question : फ्प्रतीत होता है कि आज संगठन सूचना एवं तन्त्रें में निवेश कर रहे हैं, लेकिन अक्सर उनके निवेश समझदारी पूर्ण नहीं प्रतीत होते हैं। टिप्पणी कीजिए।
(2003)
Answer : वर्तमान युग में प्रशासनिक संगठन में सूचना के महत्व में वृद्धि हो रही है क्योंकि सूचनाओं के अभाव में संगठन प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाएगा। यदि किसी संगठन के लोग एक दूसरे की भावनाओं को जान समझ लें तो निस्संदेह उत्पादन बढ़ाने में मदद मिलेगी। संगठन में आपसी विचार-विमर्श बहुत अधिक महत्व रखता है।
आज सूचना क्रांति के विविध रूपों, जैसे फैक्स, ई-मेल, इंटरनेट आदि किसी संगठन में अधिकाधिक उपयोग किए जाते हैं, आज कम्प्यूटरीकरण को संगठन की कई समस्याओं का एक महत्वपूर्ण समाधान माना जा रहा है। भारत जैसे राष्ट्र में भी इस क्षेत्र में कुछ सालों से महत्वपूर्ण प्रयास किया जा रहा है। प्रशासन में प्रयोग के बावजूद कुछ कमियां रह गई हैं। सूचना एवं सूचना तन्त्रें में निवेश तब तक समझदारीपूर्ण नहीं कहा जा सकता है, जब तक कि संगठन के कार्मिकों की नवीन तकनीकों का उचित ज्ञान देकर उसकी मनोवृत्ति में बदलाव न किया जाए। सूचना एवं सूचना तन्त्र में निवेश तभी ज्यादा उपयोगी हो सकता हैं जब आम जनता इसके प्रति उत्साहित हो। परन्तु आम जनता में उनके प्रति जागरूकता विकसित नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि आम जनता संगठन एवं सूचनातन्त्रें में निवेश कर रहे हैं, लेकिन उनके निवेश समझदारीपूर्ण प्रतीत होते हैं।
प्रशासन का प्रमुख कार्य संगठन है। अधिकार एवं दायित्वों का निर्धारण एवं प्रत्यायोजन करना और कर्मचारियों को उनसे अवगत कराना संगठन के क्षेत्र में आते हैं। परन्तु संगठन का यह कार्य बिना सूचना एवं सूचना तन्त्र के सम्भव नहीं है। समस्त विवेकशील प्रबन्धकों का लक्ष्य अधिकतम श्रेष्ठतम व सस्ता उत्पादन करना होता है। पुराने जमाने में छोटे पैमाने पर उत्पादन करना होता है, किन्तु आज बडे़ पैमाने पर उत्पादन करने वाले
आधुनिक संगठनों में काम करने वालों तथा काम लेने वालों के मध्य घनिष्ठता नहीं है। श्रमिकों, स्वामियों तथा प्रबन्धकों के बीच आजकल गहरी खाई है। जिसके लिए संदेश वाहन बहुत सहायक सिद्ध हुआ। संगठन का कोई भी स्वरूप हो आजकल सूचनाएं व आदेश विभिन्न कर्मचारियों द्वारा होकर श्रमिकों तक पहुचते हैं, अतः प्रत्येक स्तर पर यह समस्या रहती है कि कहीं सूचनाओं को समझने में भ्रम न हो जाए। इसलिए संगठन में सही सूचना तन्त्र का होना आवश्यक है। इस कारण अधिकांश राज्यों ने अपने प्रशासनिक मशीनरी में सूचना प्रौद्योेगिकी का व्यापक इस्तेमाल किया है।
Question : सभी प्रशासनिक संगठन ‘पदसोपान’ को एक महिमा मंडित ‘तकनीक’ क्यों मानते हैं? विवेचना कीजिए।
(2001)
Answer : प्रशासन के ढांचे का निर्माण पदसोपान प्रणाली के आधार पर होता है। वस्तुतः इस संगठन में कार्यरत कर्मचारियों के मध्य संगठन के कार्य एवं सत्ता का विभाजन है। इस विभाजन के फलस्वरूप सत्ता पर आधारित एक ऐसे प्रशासनिक ढांचे का निर्माण होता है, जिसमें उच्च अधिकारियों और निम्न अधिकारियों के बीच सम्बन्धों को दिखाया जाता है। पदसोपान उच्च एवं अधीनस्थ कर्मचारियों के मध्य स्पष्ट विभेद है।
पदसोपान का अर्थ श्रेणीबद्ध प्रशासन से ही है। इससे तात्पर्य है- निम्नतर पर उच्चतर का शासन अथवा नियत्रंण। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक उच्च अधिकारी अपने नेता तात्कालिक अधीनस्थ कर्मचारियों को आज्ञा देता है। अधीनस्थ अधिकारी उन आज्ञाओं का पालन करता है। पदसोपान एक ऐसे संगठन का परिचायक होता है जो पदों के एक उत्तरोत्तर क्रम के अनुसार सोपान की भांति संगठित किया जाए। पदसोपान एक क्रमिक संगठन है, जिसमें निम्न स्तरीय व्यक्ति उच्च स्तरीय व्यक्ति अथवा पदाधिकारी के प्रति उत्तरदायी रहता है। यही क्रम ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की ओर चलता है। पदसोपान संगठन के ढांचे में ऊपर से लेकर नीचे तक उत्तरदायित्व के अनेक सोपानों द्वारा उच्च तथा अधीनस्थ सम्बधों का सार्वभौमिक प्रयोग ही है।
पदसोपान का विशिष्ट लक्षण यह है कि इसमें संगठन अनेक क्रमिक स्तरों से युक्त होता है। इसमें प्रत्येक अधीन व्यक्ति अपने से एकदम ऊपर के अधिकारियों से आदेश एवं निर्देश प्राप्त करता है और उसके प्रति उत्तरदायी होता है। कोई संगठन पदसोपान का सबसे अधिक महत्वपूर्ण सिद्धांत यह भी है कि ऊपर के पदाधिकारी कभी भी नीचे के साथ सम्पर्क स्थापित करते समय मध्यस्थ पदाधिकारी की उपेक्षा नहीं कर सकता है।
पदसोपान शासन के प्रत्येक विभाग में पाया जाता है जो कि एक लिपिक प्रधान लिपिक के अधीन है। प्रधान लिपिक एक कार्यालय अधीक्षक के अधीन है तथा कार्यालय अधीक्षक अनुभाग अधिकारी के अधीन है, इत्यादि।
यदि लिपिक को कोई बात कहना होता है तो वह प्रधान लिपिक के माध्यम से कार्यालय अधीक्षक तक पहुंचाता है। पदसोपान में अनेक विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं। पदसोपान पिरैमिडाकार होता है। इसके शीर्ष पर एक विभागाध्यक्ष या शीर्ष पदाधिकारी होता है। पूरे प्रशासनिक क्रियाकलाप को इकाइयों एवं उप-इकाइयों में विभाजित कर दिया जाता है। इसके अनुसार बनाए गए संगठन में सत्ता, आदेश एवं नियंत्रण क्रमशः ऊपर नीचे की ओर आ जाता है। इसमें आदेश की एकता के नियम का पालन होता है। इसमें सम्पूर्ण आदेश शिखरस्थ उच्च अधिकारी द्वारा दिये जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने से उच्च अधिकारी के सम्पूर्ण आदेश को ग्रहण करता है, उसकी आज्ञा का पालन करता है एवं उसके प्रति उत्तरदायी रहता है। ऐसे संगठनों की विभिन्न इकाइयां एक दूसरे से अधिक अच्छी तरह से सम्बद्ध एवं जुड़ी हुई और एकीकृत होती हैं। ये एक-दूसरे के साथ जंजीर की कडि़यों के समान बंधी रहती हैं।
प्रायः पदसोपान सुविधाजनक होता है, उद्देश्यों को कार्य विभाजन द्वारा करवाता है तथा मतभेदों को दूर करके संगठन में सांमजस्य करता है। इस सिद्धांत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण यह है कि इसमें आदेश की एकता के सिद्धान्त को अपनाया जाता है कि उसका तत्कालीन उच्च अधिकारी कौन है? जिसकी आज्ञा का उसे पालन करना है। प्रत्येक कर्मचारी केवल एक ही व्यक्ति के अधीन रहकर कार्य करता है और उसी के प्रति उत्तरदायी रहता है।इससे संगठन का कार्य सुचारू रूप से चलता है। पदसोपान से संगठन की इकाइयां परस्पर एकीकृत एवं सुसंबद्ध रहती हैं। वह सिद्धांत समूचे विभाग की कार्यवाहियों में समन्वय स्थापित करने में सफल रहता है। चूंकि सत्ता के अन्तिम सूत्र शिखर के अधिकारी के पास रहते हैं। इसलिए यह विभाग की विभिन्न शाखाओं की गतिविधियों में तालमेल बैठाता है। पदसोपान एक ऐसी पद्धति है, जिसमें यह सुनिश्चित एवं स्पष्ट हो जाता है कि कौन किसके
अधीन है? इससे संगठन के उद्देश्य की पूर्ति में सहायता मिलती है। इसी कारण प्रत्येक संगठन पदसोपान को एक महिमा मण्डित तकनीक मानते हैं।
Question : सरकार के प्रशासनिक संगठन का समुचित विश्लेषण तभी संभव है जब हम ‘अधिकार तंत्र’ को ढांचा और प्रशासन को ‘कार्य संपादन’ मान लें। चर्चा कीजिए।
(2001)
Answer : सरकार के प्रशासनिक संगठन का विश्लेषण प्रशासनिक तंत्र के ढांचे तथा उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में विभाजित करके समझा जा सकता है, क्योंकि बिना किसी संरचना तथा कार्य विशेषीकरण के संगठन का अस्तिव संभव नहीं है। प्राचीन काल से ही समाज में संगठन विद्यमान हैं। समस्याएं संगठन का निर्माण करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति किन्हीं ऐसे ध्ययों की पूर्ति करना चाहता है जिन्हें वह अकेले पूरा नहीं कर सकता। इस कारण समाज में संगठन का उदय होता है। संगठन समस्त प्रशासन की पूर्व क्रिया है। संगठन के बिना किसी प्रकार के प्रशासन का अस्तित्व नहीं है। प्रशासन एक सहकारी प्रक्रिया है जिसके दायित्वों का पालन कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता बल्कि अनेक व्यक्तियों के पूर्व विचारित योजना के अनुसार मिलकर कार्य करते हैं। योजनाबद्ध तरीका संगठन की विशेषता है। कुशल संगठन के अभाव में हमारा जीवन स्तर, हमारी संस्कृति और हमारा प्रजातांत्रिक जीवन कायम नहीं रहेगा। संगठन हमारे लिए बहुत उपयोगी है।
संगठन व्यक्तियों और समूहों में कार्यों और कर्त्तव्यों को विभाजित करने की प्रक्रिया है, जिसके द्वारा सभी के प्रयत्नों में समन्वय, एक सूत्रता, सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। फलतः संगठन के द्वारा ही लक्ष्यों की प्रगति की दिशा में सामूहिक क्रियाओं के प्रवाह को शक्ति एवं वेग प्रदान करता है।
नवीन समय में संगठन प्रबंध एक महत्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि नियोजन द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संगठन का निर्माण करना अत्यावश्यक है। प्रबंध की सफलता इस बात पर निर्भर है कि कार्यरत व्यक्ति मिल-जुलकर उद्देश्य प्राप्ति हेतु कार्य करें। संगठन का अर्थ है कि कर्मचारियों की व्यवस्था करना ताकि कार्यों और उत्तरदायित्वों के उचित विभाजन द्वारा निर्धारित उद्देश्य को सरलतापूर्वक पूरा किया जा सके।
संगठन सत्ता का औपचारिक ढांचा है, जिसके द्वारा किसी निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्यों को विभाजित तथा निर्धारित किया जाता है एवं उसका समन्वय किया जाता है। संगठन में प्रायः उसका ढांचा, उसमें कार्यरत व्यक्तियों के मध्य की कार्यशील व्यवस्था एवं उसके परस्पर संबंध शामिल होते हैं। आधुनिक युग में व्यक्ति के जीवन व संगठनों के मध्य अटूट संबंध होता है। संगठन की अपनी विशेषताएं हैं, यह विभिन्न व्यक्तियों का समूह है चाहे वह छोटा हो अथवा बड़ा हो। यह समूह कार्यकारी नेतृत्व के निर्देशन के अधीन कार्य करता है। यह समूह के उत्तरदायित्वों को पारिभाषित करता है। यह प्रबंध का यंत्र है। यह इसके अभाव में प्रबंध अपना कार्य व्यवस्थित ढंग से नहीं कर सकता है।
समूहों के प्रयासों को निदेशन के द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह एक क्रियात्मक अवधारणा है, जहां विविध लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं और क्रियान्वित किये जाते हैं। यह संरचनात्मक संबंधों को स्थापित करता है। यह कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के स्वरूप को स्थापित करता है। संगठन के माध्यम से व्यक्तियों के बीच औपचारिक संबंधों का निर्माण होता है, जिनमें औपचारिक संबंध विकसित होते हैं तथा औपचारिक संबंधों के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने मे सहायक होते हैं। संगठन एक प्रकार का संप्रेषण जाल है, जिसमें निरंतर संदेश का आदान-प्रदान होता रहता है। अधिकारी तंत्र को एक संरचनात्मक अवधारणा तथा प्रशासन को कार्य सम्पादन मानने से ही सरकार के प्रशासनिक संगठन का विश्लेषण किया जा सकता है, क्योंकि दोनों परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं।
Question : ‘उदारवादी और निजीकरण के परिणाम स्वरूप लोक उद्यमों को उचित व्यवहार नहीं प्राप्त हुआ’।
(1999)
Answer : लोक उद्यमों ने स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण में विशेष योगदान दिया। देश में बहुत से लघु एवं सहायक उद्योगों की स्थापना सार्वजनिक उपक्रमों के निर्देशन एक सहायता से की गई है। इनकी स्थापना होने से देश में रोजगार अवसरों में वृद्धि हुई एवं बेरोजगारी की समस्या पर कुछ हद तक नियंत्रण रहा, चूंकि इन उपक्रमों को मुख्यतः अविकसित एवं पिछड़े क्षेत्रें में स्थापित किया गया इसलिए विकास की किरण से दूर प्रदेशों में फैला। इनकी एक महत्वपूर्ण भूमिका आधारभूत एवं पूंजीगत उद्योगों के विकास में रही। लोहा एवं इस्पात उद्योग भारी इंजीनियरिंग उद्योग, रसायन, उर्वरक, भारी मशीन आदि उद्योग के विकास में भी इनका योगदान महत्वपूर्ण है। वस्तुतः लोक उद्यमों ने अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्रक को विकसित एवं सुदृढ़ करने में भरपूर योगदान दिया। साथ ही देश को आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में सहयोग प्र्रदान किया, किन्तु जून 1991 में सरकार का लोक उद्यमों की नीति के प्रति बदलाव देखने को मिला है।
जुलाई 1991 में तात्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने लोक उद्यम नीति के सम्बंध में एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया था। उनके अनुसार लोक उद्यम विभाग पर होने वाले निवेश का पुनरीक्षण उसके उच्च तकनीकी, सामारिक और आवश्यक आधारित संरचना को ध्यान में रखकर किया जाएगा। जो लोक उपक्रम लम्बे समय से बीमार हैं उन्हें औद्योगिक और वित्तीय पुर्ननिर्माण बोर्ड को भेजा जाएगा। एक सामाजिक सुरक्षा अवयव की स्थापना की जाएगी, जिसका उद्देश्य यह होगा कि कर्मचारियों के हितों की सुरक्षा की जा सके इसमें विनिवेश की गति अपनाई जाएगी, जिससे लोक उपक्रमों में वित्तीय संस्थाएं और सामान्य जनता को शेयर धारी बनाया जा सके। लोक उद्यम कम्पनियों के मण्डलों को अधिक व्यावसायिक बनाया जायेगा। सुधार एवं निष्पादन को अधिक प्रधानता दी जाएगी।
तात्कालीन सरकार और दल ने इसे निरन्तरता के साथ परिवर्तन कहा, किन्तु यह नवीन नीति नेहरू के समाजवादी नीति से हटकर है तथा सरकार को अति आर्थिक दबाव के फलस्वरूप विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के समक्षउन्हीं के शर्तों पर बडी मात्र में ट्टण के लिए जाना पड़ा, नवीन नीति अब नियंत्रणों और नियमों में उदारीकरण को महत्व दे रही है। सरकार उदासीकरण व अनुकरण करते हुए कठिन रास्ते पर धीरे-धीरे चल रही है।
विकासशील देशों में लोक उद्यमों की भूमिका वित्तीय एवं सेवा की दृष्टि से उत्साहवर्धक नहीं रही है, क्योंकि उदारीकरण एवं निजीकरण का कार्य बाह्य वित्तीय एजेन्सियों के इशारे पर हो रहा है, अतएव जितनी कार्यकुशलता अपेक्षित थी, उतनी सम्भवतः न हो सकी। विकास की गति को बनाये रखने के लिए लोक उद्यमों संगठनात्मक परिवर्तन और कुशलता पर निर्भर हैं, अतः लोक उद्यम क्षेत्र में सामायिक परिवर्तन करक उसे अधिक महत्वपूर्ण बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए जिससे लोक उद्यम पहले की अपेक्षा राष्ट्रीय आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकें।
Question : राजनीतिक और स्थायी कार्यकारियों के बीच सम्बन्ध में बुनियादी प्रश्न प्रकार्योत्मक स्तर पर तथ्यों और मूल्यों का पृथ्क्करण है।
(1999)
Answer : किसी शासन प्रणाली में मुख्यतः कार्यकारिणी शाखा के दो भाग होते हैं- राजनीतिक किन्तु अस्थाई व प्रशासनिक किन्तु स्थाई। अगर संसदीय शासन प्रणाली का उदाहरण लें तो प्रधानमंत्री, मंत्रीमंडल के सदस्य मंत्री, राज्यमंत्री तथा उपमंत्री आदि राजनीतिक कार्यपालिका के अन्तर्गत आते हैं। इनको मंत्री पद इसलिए प्राप्त होता है क्योंकि ये चुनावों में चुने गए हैं और उनकी पार्टी ने संसद में बहुमत प्राप्त किया है। इनकी पदावधि तब तक है जब तक इनको संसद में बहुमत हासिल है। मंत्री बनने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि इनके पास पूर्व प्रशासनिक अनुभव हो, अर्थात् मन्त्री एक साधारण व्यक्ति होता है, जिसे अपनी नीतियों को बनाने और लागू करने के लिए लोक अधिकारियों के परामर्श और सहायता पर आश्रित होना पड़ता है।
कार्यकारिणी शाखा का दूसरा भाग लोक अधिकारी होते हैं, ये स्थाई एवं अराजनीतिक होते हैं। स्थायी सचिव जो कि विभाग का प्रशासनिक अध्यक्ष होता, से लेकर विभाग के छोटे से छोटे अधिकारी तक के बीच में पदसोपान के कई स्तर होतें हैं। इनकी भर्ती युवावस्था में ही किसी विशेष परीक्षा के पास होने के उपरान्त ही होती है। ये सेवानिवृत्त होने तक अपने पद पर बने रहते हैं। राजनीतिक और स्थायी कार्यकारियों के बीच सम्बन्ध में बुनियादी प्रश्न प्रकार्यात्मक स्तर पर तथ्यों एवं मूल्यों पर पृथ्ककरण हैं, ये अधिकारीगण किसी भी राजनीतिक गतिविधि में भाग नहीं लेतें और इस कारण विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकार के अधीन कार्य करते हैं, जबकि राजनीतिक अध्यक्ष अपने पार्टी के प्रति समर्पित होते हैं, चूंकि ये अधिकारी स्थायी तौर पर एक ही विभाग अथवा एक ही सेवा में कार्य करते चले जाते हैं, अतः वे उसका विशेष ज्ञान व कौशल प्राप्त कर लेतें हैं और विशेषज्ञ बन जाते हैं, जबकि राजनीतिक सरकार बदलने के साथ बदल जाते हैं व उनका ज्ञान अधूरा रहता है। इन अधिकारियों का कर्त्तव्य है कि वे अपने मंत्री को परामर्श एवं सहायता दें। विधि निर्माण में ये लोग ही मंत्री की सहायता करते हैं एवं मंत्री द्वारा चुनावों में किए गए वायदों को पूरा करने में उसकी सहायता करते हैं। तथा सरकार में अचानक परिवर्तन पर यही लोग नियंत्रण रखते हैं।
इन तथ्यों से स्पष्ट है कि राजनीतिक और स्थायी कार्यकारियों के बीच सम्बन्ध में मूल प्रश्न प्रकार्यात्मक स्तर तथ्य एवं मूल्यों का पृथक्करण है।
Question : संगठन के आयोग रूप में सरकार की ‘शीर्षहीन चतुर्थ शाखा’ होने की प्रवृत्ति रहेगी।
(1999)
Answer : लोक प्रशासन की दृष्टि में विश्व में कोई भी प्रशासनिक प्रणाली पूर्णतः एकीकृत नहीं होती है और न तो पूर्णतः विशंखलित वास्तव में राज्य की कुछ एकीकृत की उदाहरण होती हैं एवं कुछ सेवाएं वि शृंखलित प्रणाली का भी उदाहरण होती हैं। अमेरिका में ऐसे अनेक सम्बधित विभाग ब्यूरो मंडल, आयोग तथा निकाय आदि हैं, जो राष्ट्रपति के सम्पूर्ण कार्यपालिका शक्ति से स्वचछन्द होते हैं। ये वि शृंखलन के उदाहरण हैं, इसके विपरीत भारत में विभाग या निगम या ब्यूरो आदि एकीकरण के उदाहरण हैं, चूंकि ये सभी सम्पूर्ण कार्यपालिका सत्ता या निकाय स्वतंत्र होती है। जैसे संघ लोक सेवा आयोग, राज्य लोक सेवा आयोग, चुनाव आयोग आदि।
संगठन को आयोग रूप की आलोचना इसलिए की जाती है कि इन्होनें देश का प्रशासनिक पद्धति को विघटित कर दिया है एवं राष्ट्रीय नीति के प्रभावशाली समन्वय में बाधा पैदा की है। इन आयोग के हाथों में विधायी, कार्यकारी तथा न्यायधीश के कार्य मिश्रित कर देने से नागरिकों की स्वतंत्रता संकट में पड़ जाती है। स्वतन्त्र नियामक आयोग तथा नियमित प्रशासनिक विभागों के अधिकार क्षेत्रें में कभी-कभी टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दो संगठनों के अधिकार क्षेत्र कभी-कभी आपस में टकरा जाते हैं। जिससे शासन में अव्यवस्था फैलती है। प्रशासन में समन्वय का अभाव इन आयोगों की स्वतन्त्रता की एक भारी कीमत चुकाने के लिए प्रशासन को तैयार रहना होता है। स्वतन्त्र नियामकीय आयोग अपने व्यक्तिगत हितों के कारण राष्ट्रहित को भूल जाता है। ये सामाजिक हितों को भूलकर दलगत हितों में पड़ जाता है। ये सरकार की शीर्षविहीन चतुर्थ शाखा का निर्माण करते हैं जो अनुत्तरदायी अभिकरणों तथा तालमेल विहीन शक्तियों के असम्बद्ध समूह जैसे होते हैं। इन आयोगों का संगठन प्रायः दुर्बल होता है।
नियामक आयोग किसी भी वैधानिक सत्ता के प्रति प्रभावशाली रीति से उत्तरदायी नहीं होते हैं। ये राष्ट्रपति से स्वतंत्र होते हैं। राष्ट्रपति को यह सत्ता नहीं दी गयी है कि वह उनके सदस्यों को उनके पद से हटा सके। इस असमर्थता के कारण राष्ट्रपति इन आयोग पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं रख सकता। प्रशासन के क्षेत्र में आयोग किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं होते। यही कारण है कि उन्हें शीर्षविहीन, अनुत्तरदायी आयोग व सरकार की चौथी शाखा आदि नामों से पुकारा जाता है।
Question : संचार संगठन को बांधे रखता है।
(1998)
Answer : संचार शब्द में विचारों का आदान-प्रदान, विचारों की साझेदारी तथा भाग लेने की भावना सम्मिलित है। न्यूमैन एवं समर के अनुसार संचार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के तथ्यों विचारों, सम्मतियों अथवा भावनाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान है।
संचार को प्रशासन का प्रथम सिद्धांत माना जाता है। संगठन के उद्देश्यों की सफलता के लिए एक प्रभावशाली संचार व्यवस्था आवश्यक होती है। प्रशासन द्विमार्गीय यातायात के सामान है व प्रभावी संचार को आवश्यकता का अनुभव करता है। प्रशासन में संचार के महत्व को स्वीकारते हुए एल्विन डाड ने कहा है कि संचार प्रबंध की मुख्य समस्या है। थियो हेमेन का कहना है कि प्रबंधकीय कार्यों की सफलता कुशल संचार पर निर्भर करती है। किसी संगठन में कार्य करने वाले लोग यदि संगठन के उद्देश्योंनीतियों तथा परिस्थितियों को समझते हैं तो उनका संगठन के प्रति सहज ही लगाव होगा और कार्यों में रूचि लेगें तथा संगठन के उद्देश्यों के साथ एकरूपता स्थापित करेंगे। किसी व्यक्ति के उत्साहपूर्ण तथा क्रियात्मक सहयोग हो प्राप्त करने का यही मार्ग है कि वह उस संगठन का विश्वास प्राप्त करे।
हैण्डसन के अनुसार फ् अच्छा संचार प्रबंध के एकीकृत दृष्टिकोण हेतु बहुत महत्वपूर्ण हैं, संचार संगठन को बांधे रखता है। संचार के अभाव में कोई संगठन नहीं हो सकता।
बर्नार्ड ने इस बात पर विशेष जोर दिया है कि सामान्य प्रयोजन की वास्तविक उपस्थिति के बारे में विश्वास उत्पन्न करना कार्यकारी का एक आवश्यक कार्य है। यह सम्प्रेषण द्वारा सम्पन्न किया जाता है, जिसका महत्वपूर्ण स्वरूप परिस्थिति एवं अभिप्राय को समझने की योग्य है।
संगठन में संचार का महत्व अत्यधिक है। संगठन की प्रभावशीलता के लिए संचार के निम्नलिखित तत्वों को होना आवश्यक है-
नियोजन प्रशासन का महत्वपूर्ण एवं प्राथमिक कार्य है। प्रशासन की सफलता कुशल नियोजन के प्रभावी क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। संचार योजना के निर्माण एवं उसके क्रियान्वयन दोनों के लिए अनिवार्य है।
प्रशासन का दूसरा कार्य संगठन है। अधिकार एवं दायित्वों का
निर्धारण एवं प्रत्यायोजन करना और कर्मचारियों को उनसे अवगत कराना संगठन के क्षेत्र में आता है।
प्रबंधकों द्वारा कर्मचारियों को अभिप्रेरित किया जाता है। प्रबंध व्यक्तियों को हांकने का कार्य नहीं करता है, वरन् वह उनको अभिप्रेरित, निर्देशित और संगठित करता है।
समन्वय एक समूह द्वारा किये जाने वाले प्रयासों को एक निश्चित दिशा प्रदान करने हेतु आवश्यक है।
नियन्त्रण द्वारा प्रबंधक यह जानने का प्रयास करता है कि कार्य पूर्ण-निश्चित योजनानुसार हो रहा है।
सही निर्णय लेने हेतु प्रबंधकों को सही समय पर सही एवं पर्याप्त सूचनाओं तथ्यों एवं आंकड़ों का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य होता है।
प्रभावी सेवाएं उपलब्ध करने के लिए जरूरी है कि स्टाफ के सदस्यों के बीच विचारों का मुक्त आदान-प्रदान बना रहे।
समस्त विवेकशील प्रबंधकों का लक्ष्य अधिकतम, श्रेष्ठतम व सस्ता उत्पादन करना होता है।
बर्नार्ड का मत था कि अधिकार रेखा नीचे से ऊपर की ओर जाती है। अधिकार समादेश पर निर्भर नहीं होता है बल्कि पारस्परिक संबंधों पर निर्भर करता है। कोई भी संचार योगदान कर्त्ता की स्वीकृति के फलस्वरूप अधिकारिक बन जाता है इसलिए अधिकार संप्रेषण (संचार) को अधिकारिक स्वीकार करेगा। संगठन में संचार की महत्ता को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि संचार संगठन को बांधे रखता है।
Question : समन्वय के प्रबंधकीय और प्रकार्यात्मक पक्षों के बीच विभेदन कीजिए। समन्वय कैसे प्राप्त किया जाता है?
(1998)
Answer : समन्वय संगठन का निर्धारक सिद्धांत है। यह वह रूप है, जो अन्य अनेक सिद्धांतों को समाहित करता है एवं सभी संगठित प्रयासों का आरंभ तथा अंत करता है। समन्वय को प्रबंधक का एक कार्य भी माना गया है। समन्वय करने का प्रमुख अर्थ है कि एक संगठन की क्रियाओं में समरूपता लाना जिससे की उनका कार्य सरल हो जाए और वह सफलता प्राप्त कर सके। समन्वय स्वयं में साध्य नहीं है, बल्कि संगठन को लक्ष्यों की प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है। समन्वय कोई पृथक क्रिया नहीं है, अपतिु एक ऐसी व्यवस्था है जो प्रशासन के प्रत्येक चरणों में रम जाती है। समन्वय में संगठन के विभिन्न अंग एक साथ मिलकर प्रभावकारी रूप में कार्य करते हैं और काम, संघर्ष अतिच्छादन या पुनरावृत्ति के बिना चलता है। यह कार्य के विभिन्न हिस्सों को परस्पर-संबंद्ध करने का सर्वत्र महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है। समन्वय विभिन्न भागों का एक-दूसरे के साथ सामंजस्य है तथा उसकी गतिविधि एवं व्यवहार का समय के साथ ऐसा सामंजस्य है, जिसमें प्रत्येक हिस्सा समग्र में उत्पादन के लिए अपना अधिक से अधिक योगदान कर सकें। समन्वय का अर्थ ऐसी व्यवस्था करने से है कि किसी संगठन के सभी हिस्से कार्य की पुनरावृत्ति किए बिना निर्धारित लक्ष्यों की ओर कदम मिलाते हुए आगे बढ़ें।
निषेधात्मक अर्थ में समन्वय का लक्ष्य प्रशासन में अतिच्छादन तथा संघर्ष को हटाना होता है तथा यह किसी संगठन के कर्मचारियों में सामूहिक कार्य तथा सहयोग की भावना के संचार का प्रयत्न करता है ताकि संगठन में संघर्षों का जन्म न हो तथा संगठन प्रभावशाली ढंग से अपने कार्यों का निर्वाह कर सके।
समन्वय का प्रशासन के कार्यों विशेष महत्व है। किसी भी संगठन के विभिन्न भागों व अधिकारियों में सहयोग आवश्यक है यदि उनमें सहयोग की भावना नहीं है तो संगठन की गति रूक जाएगी एवं वह अपने लक्ष्य से भटक जाएंगे। समन्वय के द्वारा व्यक्तियों में समूह कि भावना आ जाएंगे। समन्वय के द्वारा व्यक्तियों में समूह का भावना एवं समन्वय उद्देश्य की अनुभूति उत्पन्न होती है। समन्वय के अभाव से संगठन में दोहराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जब संगठन के विभिन्न सदस्यों को यह ज्ञात नहीं रहता कि दूसरे सदस्य किसी कार्य को कर चुके हैं, तो वह स्वयं ऐसे कार्य करने में लग जाते हैं, जो दूसरे अधिकारी संपन्न कर चुके होते हैं। समन्वय द्वारा ही संगठन के सभी हिस्से काम की पुनरावृत्ति किए बिना, या टकराए बिना निर्धारित लक्ष्यों की ओर कदम मिलाते हुए आगे बढ़ते हैं। संगठन की क्रियाओं में एक क्रम होता है। प्राथमिक क्रियाओं को संपन्न किए बिना यदि आगे की क्रियाओं को पहले ही संपन्न कर दिया जाए तो वे अनुपयोगी बन जाती हैं। अतः संगठन के कार्यों में क्रमबद्धता लाने के लिए समन्वय बहुत आवश्यक है। किसी भी संगठन के दो तत्व होते हैं- आंतरिक एवं बाह्य अथवा कार्यात्मक तथा संरचनात्मक बाह्य तत्वों के अंतर्गत प्रबंधकीय कार्य आते हैं। प्रबंधकीय कार्य के द्वारा संगठन की नीतियां एवं लक्ष्य को निर्धारित किया जाता है। आंतरिक तत्व संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति में क्रियात्मक रूप से योगदान देता है। आंतरिक समन्वय संगठन द्वारा उसकी विभिन्न इकाइयों के बीच किया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक संगठन अनेक बाहरी तत्वों, जैसे लोकमत, दबाव समूह, हित समूह इत्यादि से भी प्रभावित होता है। इसके बीच जो समन्वय स्थापित किया जाता है, उसे बाह्य समन्वय कहते हैं।
एपल्वी का मत है कि यह पद परंपरा लम्बवत् तथा क्षैतिज दोनों ही प्रकार से कार्य करती है। क्षैतिज संबंध इकाइयों तथा अभिकरणों के बीच होता है, समन्वय एवं प्रशासन के बीच भेद करने के लिए हम इसे समन्वय कहेंगे। जो समन्वय एक ही निष्पादक के प्रति उत्तरदायी इकाइयों के मध्य होता है, उसे इकाइयों के स्तर का समन्वय कहा जाता है। यदि समन्वय इस निष्पादन के स्तर पर जिसके प्रति वे इकाइयां उत्तरदायी होती हैं। प्रशासन बन जाता है, जबकि निष्पादन स्वयं अपने-अपने स्तर पर अन्य अभिकरणों के साथ भाग लेता है।
किसी भी संगठन में पद परंपरा एक समन्वयकारी अभिकरण है क्योंकि इसका मुख्य प्रयोजन अभिकरण में मतैक्य स्थापित करना है। संगठन स्वयं ही समन्वय का एक प्रमुख साधन है। संगठन प्रबंधकीय एवं प्रकार्यात्मक पक्षों के बीच संबंध स्थापित करता है। भारत में अनेक समन्वयकारी अभिकरण हैं- केंद्रीय सचिवालय, मंत्रीमंडल, मंत्रीमंडलीय समितियां, योजना आयोग क्षेत्रीय परिषदें, राष्ट्रीय विकास परिषद् तथा प्रधानमंत्री तो उसी प्रक्रिया में संलग्न हैं।
समन्वय के प्रकार्यात्मक पक्ष के अंतर्गत कार्य विभाजन आता है। संगठन के भिन्न-भिन्न सदस्य अनेकों-अनेक कार्य करते हैं। यह संगठन का आंतरिक तत्व होता है। इसके अंतर्गत संगठन के अंदर कार्य करने वाले सदस्यों के कार्य-कलापों में समन्वय स्थापित किया जाता है। समन्वय कार्य के विभिन्न भागों को अन्तः संबंधित करने का महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है।
समन्वय द्वारा संगठन में वही कार्य किया जाता है जो फूलों के हार में एक धागे द्वारा किया जाता है। धागे के न रहने पर हार के पुष्पों के मध्य कोई संबंध नहीं रहता है। धागे के अभाव में हार भी नहीं बन पाता है। यही प्रमुख कारण है कि संगठन के प्रत्येक प्रबंधक का यह प्रमुख उद्देश्य माना जाता है कि प्रत्येक संगठन में समन्वय स्थापित किया जाए। अधिकांश परिस्थितियों में समन्वय का गुण, संगठन के अस्तित्व का एक महत्वपूर्ण तत्व होता है।
किसी भी संगठन में समन्वय स्थापित करना एक महत्वपूर्ण समस्या होती है। सामान्यतया समन्वय दो प्रकार के होते हैं- ऐच्छिक एवं बाह्यकारी। ऐच्छिक समन्वय के अंतर्गत सम्मेलन, निर्देश तथा परामर्श, संस्थात्मक तथा संगठनात्मक विधियां, विधियों तथा प्रणालियों का स्तरीकरण, कार्यकलापों का विकेंद्रीकरण, विचार तथा नेतृत्व, मौखिक तथा लिखित संचार केंद्रित निकाय, अनौपचारिक माध्यम, जिसके अंतर्गत व्यक्तिगत संपर्क, भावुकताभरी अपीलें व राजनीतिक दल सम्मिलित अनौपचारिक माध्यम भी समन्वय स्थापित करने के लिए उतने ही महत्वपूर्ण है, जितने की औपचारिक साधन A बाध्यकारी समन्वय के अंतर्गत संगठनात्मक ढांचा एवं आदेश व अनुदेश आते हैं।
ऐच्छिक समन्वय ही कुशल समन्वय होता है। ऐच्छिक समन्वय ही अत्यन्त प्रभावशाली भी होता है। बाह्यकारी समन्वय कुशल प्रशासन को जन्म नहीं देता क्योंकि इसमें पद सोपान परंपरा का पालन नियम से किया जाता है। इसके अतिरिक्त ऐच्छिक समन्वय अधीनस्थों को सहयोगी बनाता है और अधीनस्थ स्वयं उद्देश्यों के प्रति सहयोगी रूख अपनाने को तैयार हो जाते हैं तथा बाधाओं को दूर करने में अपना योगदान देते हैं।
Question : ‘सिद्धांत रूप से, बोर्ड प्रशासन, सरकार और राजनीति के बीच के भेद को नष्ट कर देता है, क्योंकि इसके द्वारा राजनीति प्रशासन में प्रवेश कर जाती है।‘
(1997)
Answer : मण्डल अथवा बोर्ड प्रणाली में विभाग ने निर्देशन एवं पर्यवेक्षण को दायित्व का व्यतिकरण कर दिया जाता है। भारत में इसके उदाहरण रेलवे बोर्ड, केंद्रीय उत्पाद शुल्क तथा सीमा शुल्क बोर्ड एवं केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड है। रेलों के प्रशासन, परिचालन-प्रबंध और संचालन हेतु मात्र रेलमंत्री द्वारा सम्पादित न होकर उनके नीचे बहुसदस्यों वाले रेलवे बोर्ड द्वारा किया जाता है। यही स्थिति अन्य विभागों के बोर्डों में भी होती है।
राज्यों में इसी प्रकार राजस्व, बिजली, शिक्षा आदि के बोर्ड निर्मित हैं, जो संबंधित विभागों के ज्यादातर कार्यों का नियंत्रण एवं अधीक्षण करते हैं। बोर्ड बहुल पद्वति का एक अपर रूप आयोग भी है। भारत में अन्यानेक आयोग यथा योजना आयोग, वित्त आयोग आदि कार्यरत हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्य सरकारों तथा स्वशासन में बोर्ड पद्धति कार्यरत है। ब्रिटेन में व्यापार, उद्योग, यातायात विभागों का अधीक्षण एवं निर्देशन बोर्डों द्वारा क्रियांवित किया जाता है।
बोर्ड तथा आयोग दोनों शब्द समान अर्थों में प्रयुक्त किए जाते हैं। बोर्ड व्यक्तियों का समूह है, जो अपने अधीन विषयों पर सामूहिक कार्यवाही करते हैं। संभव है कि आंकड़ों के एकत्रीकरण तथा सुनवाई में वे व्यक्तिगत रूप से कार्य करें, किंतु अंतिम कार्यवाही वे सामूहिक रूप में ही संपादित करते हैं। आयोग भी सदस्यों का वह समूह है जो बोर्ड की भांति ही सामूहिक रूप से कार्यरत् होते हैं। कहीं-कहीं ये आवश्यकतानुसार कार्य हेतु इकाईयों के अध्यक्ष के रूप में व्यक्तिगत रूप में भी कार्यरत् होते हैं। फिर भी प्रशासनिक संगठन में आयोग व बोर्ड का अर्थ एक ही तरह लिया जाता है। कुछ बोर्ड प्रशासनिक होते हैं, जिनका अधीक्षण व नियंत्रण विभाग के अध्यक्ष में ही निहित होता है। यथा- रेलवे बोर्ड, सीमा शुल्क बोर्ड, केन्द्रीय-उत्पादन शुल्क बोर्ड आदि कुछ बोर्डों की प्रकृति सलाहकारी होती है। इनकी सलाह बाध्यकारी नहीं होती है, इनकी सलाह को परिचालित करना विभाग के विवेकाधीन होता है। इसमें समान्यतः तकनीकी विषय विशेषज्ञ सम्मिलित किए जाते हैं। ये विभाग के पदसोपान से इतर होते हैं तथा नीति निर्माण में उनका कोई योगदान नहीं होता। इस तरह के बोर्ड हैं- रक्षा
अनुसंधान बोर्ड, केंद्रीय जल बोर्ड, लोक सेवा आयोग आदि। कुछ बोर्ड मध्यवर्ती स्तर पर विशिष्ट दायित्वों के साथ कार्यरत होते हैं। इन बोर्डों को विभाग के विशिष्ट क्षेत्र में अर्द्ध विधायी एवं अर्द्धन्यायिक शक्तियां प्रदान की जाती हैं। यथाः- स्कूल बोर्ड, बिजली बोर्ड, वन निगम।
कुछ बोर्ड नियामकीय प्रकृति के होते हैं, जो अर्द्धविधायी तथा अर्द्धन्यायिक कार्यों का संपादन करते हैं यथा- मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग आदि।
भारत में संविधान के अंतर्गत कुछ बोर्डों या आयोगों को निर्मित किया गया है, जैसे- वित्त आयोग (अनुच्छेद 280), संघ लोक सेवा आयोग (अनुच्छेद 315), निर्वाचन आयोग (अनुच्छेद 324), पिछडे वर्गों से संबंधित आयोग (अनुच्छेद 340), राजभाषा आयोग (अनुच्छेद 348) इनके पीछे संवैधानिक शक्तियां होती हैं। संसद के अर्द्धनियमों का पालन करके भी कुछ बोर्डों का सृजन किया जाता है यथा- रेलवे बोर्ड, तेल तथा प्राकृतिक गैस आयोग, अणु शक्ति आयोग इत्यादि। सरकार या विभाग कुछ बोडरों का निर्माण कार्यवाही प्रस्ताव द्वारा करती है। इस तरह के बोर्ड हैं- केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड, हथकरघा बोर्ड, हस्तशिल्प बोर्ड आदि।
यह सत्य है कि बोर्डों को निर्मित करने के उद्देश्य शुद्ध एवं कार्य सुनिश्चित होते हैं। परंतु बोर्डों को स्वायत्तता का मात्र छद्म आवरण ही धारित कराया जाता है। ज्यादातर बोर्डों में अध्यक्ष या सदस्य की नियुक्ति राजनैतिक होती है, जिससे बोर्डों के प्रशासन में सरकार की नीतियों की गंध होती है। कई बार तो बोर्डों के अध्यक्ष या सदस्य की नियुक्ति भी राजनैतिक क्षेत्रें से ही की जाती है। ऐसी स्थिति में बोर्ड इसी तरह की राजनीति से त्रस्त होते हैं। विभागीय बोर्ड़रों तो राजनैतिक नीतियों के मार्गदर्शन में कार्य करते ही हैं, किंतु आश्चर्य तो तब होता है जब सलाहकारी एवं नियामक बोर्ड भी राजनैतिक हस्तक्षेप को स्वीकार करते हुए दबाव में कार्य करते हैं। सलाहकारी एवं नियामक बोर्ड के गठन में राजनीति ही हावी रहती हैं। इसी तरह इन बोर्डों के गठन में योग्यता को राजनीति के मनोनुकूल परिवर्तित करके राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाती है। इन बोर्डों को राजनेता अपने निहित स्वार्थों की प्रतिपूर्ति हेतु करते रहते हैं। बोर्डों के उद्देश्य ऊपर से देखने में भले ही राजनैतिक न लगें, लेकिन इसके मूल में राजनैतिक भावना ही कार्यरत होती है। बोर्ड़रों में सरकार अपने हाथ की कठपुतलियों को मनोनीत करके उनके प्रशासन को राजनैतिक रंग में रंगती है एवं अपने स्वार्थों को बोर्डों के माध्यम से साधती है। अतः यह सत्य है कि सिद्धांत रूप से बोर्ड प्रशासन सरकार और राजनीति के बीच के भेद को नष्ट कर देता है, क्योंकि बोर्ड़रों के माध्यम से प्रशासन में राजनीति का प्रवेश होता है।
Question : ‘फ्रेडरिक हर्जबर्ग का द्विकारक सिद्धांत कमोवेश रूप से अब्राहम मैस्लो के अभिप्रेरण सिद्धांत का विस्तार है।‘ समझाइए
(1997)
Answer : सन् 1943 में प्रकाशित अपने निबंध फ्मानव अभिप्रेरण का एक सिद्धांतय् में अब्राहम मैस्लो ने आवश्यकता सोपान सिद्धांत की प्रथमतः प्रस्तुति की। यह अभिप्रेरणा का लोकप्रिय सिद्धांत बना। मैस्लो ने मानवीय आवश्यकताओं को दृष्टिगत् रखते हुए संगठन तथा व्यक्तियों के संबंध का अवलोकन कर विश्लेषण किया। संगठन का सदस्य बनने के लिए व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति की भावना केंद्र में होती है। ये व्यक्ति की आवश्यकताएं भिन्न-भिन्न क्षेत्रें से संदर्भित होती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति उन्हें कार्य निष्पादन के शीर्ष की ओर अभिमुख करती है।
व्यक्ति की अभिप्रेरणात्मक आवश्यकताएं चरणात्मक रूप में अवस्थित होती हैं। उनके अनुसार मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएं, सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएं, सामाजिक आवश्यकताएं, मान-सम्मान की आवश्यकताएं एवं स्व-पहचान की आवश्यकताएं होती हैं। इसमें स्व-पहचान की आवश्कताएं आवश्यकताओं का चरम बिन्दु है। यदि किसी व्यक्ति की कोई मूल आवश्यकता पूर्ण नहीं होती है, तो वह सारी शक्तियां सी मूल आवश्यकता की प्रतिपूर्ति करने में व्यय कर देता है। इस प्रकार एक आवश्यकता की पूर्ति उसे दूसरी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अभिप्रेरित कर देती है। एक आवश्यकता क्षेत्र में किसी विशिष्ट लक्ष्य को पूर्ण न कर पाना व्यक्ति को उसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। इस सिद्धांत में क्रमिक प्रक्रिया प्राथमिक से उच्च प्राथमिकता वाली आवश्यकताओं की ओर अभिप्रेरणा को समझने में मदद करता है।
अब्राहम मैस्लो के लेख से प्रभावित होकर फ्रेडरिक हर्जबर्ग ने कार्य के मध्य मानसिक स्वास्थ्य और सार्थक अनुभव के बीच सम्बन्धों का विश्लषण किया। उनके अनुसार मानव की आवश्यकताओं के दो तत्व है- व्यथा से दूरी एवं मनःस्थिति का विकास है। उनका अध्ययन उन घटनाओं का सत्यापन, जो व्यक्ति की कार्य संतुष्टि में स्पष्ट सुधार लाने में सफल होती हैं एवं ऐसी घटनाएं जो कार्य संतुष्टि में ” ह्रास लाती हैं, पर अवलम्बित था। उन्होंने स्थितियों का अध्ययन किया और ऐसे तथ्य एकत्र करने के लिए आपातकालीन घटना विधि को संज्ञान में लिया। हर्जबर्ग के सिद्धांत ने समस्त प्रेरणाकारक कारकों पर निकट दृष्टि रखी।
हर्जबर्ग के द्विकारक सिद्धांत को आरोग्य विचारधारा के नाम से भी स्मरण किया जाता है। यह सिद्धांत संतुष्टि और असंतुष्टि के पांच-पांच सार्थक कारकों की पहचान करने में समर्थ रहा है। इसमें कर्मचारियों की प्रतिक्रियाओं के कार्यानुभव के संबंध में मनोवृत्तियों का द्वितीयक मानदण्ड पाया गया। इसके विलग प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाले तत्वों को असुविधा के बचाव से संदर्भित पाया गया। कार्य विषय से जुड़े घटकों को संतुष्टिप्रदायक और कार्य में व्यथा से बचाव से जुड़े कारकों को असंतुष्टि का द्योतक माना गया। व्यक्तिगत संतुष्टी को स्वतंत्ररूपेण समस्याओं का निदान करने, कार्य पूर्ण करने और स्वयं के प्रयासों से उत्पन्न फल के रूप में माना गया। दूसरों के कार्यों के लिए संपूर्ण उत्तरदायित्व का विश्वास के साथ सौंपा जाना और कार्यों के क्रियान्वयन के विषय में नियंत्रण होना। उच्च स्तर के कार्यों को करने की ओर अग्रसर होना, विकास और बढ़ोत्तरी के लिए संभावना की अनुभूति के साथ-साथ नवीन ज्ञान अर्जन एवं नई बातों को कर लेने से वास्तविक संतुष्टी हो। साथ ही संभावित उत्पन्न असंतुष्टि का कारण वेतन, कंपनी के क्रियाकलाप और प्रशासन के अवलोकन एवं निरीक्षण, औपचारिक सम्बन्ध हैं। एक कर्मचारी स्वास्थ्य संबंधी कारकों से संतुष्ट या असंतुष्ट तो होते ही हैं।
वस्तुतः प्रेरणा और स्वास्थ्य संबंधी घटक एक दूसरे से स्वतंत्र और सुस्पष्ट हैं। एक-दूसरे के विरूद्ध नहीं है। ये दोनों ही एक मार्गी गुणों से निर्मित हैं, जिसमें प्रत्येक दूसरे को अल्प योगदान प्रदान करते हैं। द्विकारक सिद्धांत के सर्वांगीण प्रयोग एवं जनप्रियता के बाद भी हर्जबर्ग का यह कार्य प्रेरणा पर योगदान सार्थक नहीं है। उन्होंने प्रेरणा में कार्यवस्तु की महत्ता को प्रकाश में लाने का कार्य किया, जो पहले उपेक्षित थी। वस्तुतः आरोग्य घटकों से उत्पादन में वृद्धि संभव नहीं होती है। घटक के अंतर्गत पर्यवेक्षण नीतियां एवं प्रशासन कार्य दशाएं, पारस्परिक-वैयक्तिक सम्बन्ध, स्थिति या परिस्थिति मजदूरी तथा सुरक्षा आते हैं। इन घटकों का संदर्भ वातावरण या परिस्थितियों से होता है।
उत्प्रेरणात्मक घटकों का संबंध कृत्य की विषय वस्तु से है। ये व्यक्ति के अनुभव हैं, जो संतुष्टी प्रदान करते हैं। इन कृत्यों का संबंध आंतरिक वातावरण से होता है। उत्प्रेरणात्मक घटक के अंतर्गत उपलब्धि, मान्यता, उन्नति, उत्तरदायित्व, विकास कार्य एवं चुनौतीपूर्ण कार्य आते हैं।
मैस्लो के अनुसार क्रमिकता एक जड़ क्रम है, पर वास्तव में यह दृढ़ नहीं थी जितनी हमें अपेक्षा थी। यह सत्य है कि अधिकतर लोग इन बुनियादी आवश्यकताओं को क्रमिक मानते हैं, ऐसा बुनियादी संतुष्टी के अभाव में होता है। अतः यह कहना सम्यक् है कि हर्जबर्ग का द्विकारक सिद्धांत कमोबेश रूप से मास्लो के अभिप्रेरणा का विस्तार है।
Question : केंद्रीयकरण का झुकाव शक्ति और प्रभुत्व की ओर रहता है। इसके दूसरी ओर, विकेंद्रीयकरण का झुकाव स्पर्धा और आत्म-निर्णय की ओर होता है। चर्चा कीजिए।
(1997)
Answer : प्रशासकीय संगठन को विकेन्द्रीकृत रखा जाए या केन्द्रित यह विवाद का विषय है। इस विवाद का सम्बन्ध इस तथ्य से है कि संगठन के अंतर्गत अधिकारी वर्ग का अपने अधीनस्थों तथा केंद्रीय कार्यालयों का क्षेत्रीय कार्यालयों के साथ कैसा सम्बन्ध हो, इन दोनों के मध्य विकेन्द्रीकृत आधार पर सम्बन्ध हो या केन्द्रीकृत आधार पर। केन्द्रीय संगठन में समस्त महत्वपूर्ण मामलों का निर्णय करने वाली सत्ता, केन्द्रीय कार्यालय के नियंत्रणाधीन होती है। इस व्यवस्था में क्रमिक सोपान पर अवलंबन होता है यानि कि तात्कालिक अधिकारी के निर्णय के अधीन अधीनस्थ कर्मचारियों को रहना पड़ता है। क्षेत्रीय कार्यालय सभी कार्यों में मुख्य कार्यालय के अधीन रहते हैं। इसे केन्द्रीयकरण व्यवस्था कहते हैं। केंद्रीयकरण के विपरीत स्थिति को विकेंद्रीयकरण कहते हैं। इस व्यवस्था में क्षेत्रीय कार्यालयों को तमाम समस्याओं में निर्णय का अधिकार होता है। जिससे स्थानीय कर्मचारी बहुत सी समस्याओं पर निर्णय ले सकता है। इस व्यवस्था में शक्ति को अत्याधिक मात्र में वितरित कर दिया जाता है।
विकेन्द्रीयकरण व्यवस्था में क्षेत्रीय कार्यालय के कर्मचारी को यथोचित मात्र में शक्ति एवं उन्मुक्तता प्राप्त होती है, जिससे वह प्रधान कार्यालय के आदेश के बिना भी अनेक निर्णय ले सकता है। विकेन्द्रीयकरण और केन्द्रीयकरण में किया जाने वाला अन्तर सम्पूर्ण एवं निरपेक्ष नहीं है। प्रशासन में केन्द्रीयकरण और विकेन्द्रीयकरण दोनों के तत्व पाये जाते हैं। दोनों की मात्र में अवश्यमेव ही अन्तर है। जब मुख्य कार्यालय को शक्तियों का आधिक्य प्राप्त होता है, तो उसे केंन्द्रीयकरण कहा जाता है और इसके विपरीत जब स्थानीय कार्यालयों को शक्ति का आधिक्य प्राप्त नहीं होता है तो उसे विकेन्द्रीयकरण कहा जाता है।
परिस्थितियों के आधार पर प्रशासन में केंन्द्रीयकरण और विकेन्द्रीकरण के गुण और दोष प्रतिम्बित होते हैं। प्रशासन की ये दोनों व्यवस्थाओं में लाभ और हानि की संभावना बनी रहती है। आधुनिक युग में संचार के साधनों में वृद्धि, यातायात के साधनों की सुगमता के कारण केंद्रीयकरण व्यवस्था की ओर आकर्षण बढ़ा है। इस व्यवस्था में प्रशासन के समस्त भागों पर प्रभावी और सक्रिय नियंत्रण रखा जाता है। प्रशासन में एकरूपता एवं सतता इस व्यवस्था का मौलिक लक्षण है। इस व्यवस्था में दक्षता एवं मितव्ययिता से कार्य करने को प्राथमिकता दी जाती है। इस व्यवस्था में कार्यकुशलता भी पाई जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रशासन में विकेन्द्रीयकरण के सिद्धांत को प्रोत्साहित किया गया है। लोकतंत्र में इसका महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसमें अधिकारों का व्यक्तिकरण हो जाता है। प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीयकरण को हमारे देश में स्थानीय संस्थाओं के पुनर्जीवन हेतु उठाया गया। जिसके अधिकारों के विवर्तन के कारण लाभ-पद परिणाम रहे। लोकतंत्र को वास्तविक अर्थों में विकेंद्रीयकरण व्यवस्था ही सफलता प्रदान कर सकती है। यह व्यवस्था सहिष्णुता, परिवर्तनशीलता तथा नम्यता के वातावरण में कार्यरत होती है तथा स्थानीय समस्याओं का सटीक ढंग से निराकरण कर सकने में दक्ष होती है। इससे प्रशासन के कई दोषों को समाप्त किया जा सकता है। इस व्यवस्था में अधिकारी के पास कार्याधिक्य नहीं रहता, जिससे वह स्वतंत्रतापूर्वक कार्यों को संपादित कर सकता है। इस व्यवस्था में क्षेत्रीय अधिकारियों को भी उत्तरदायित्वों का निर्वहन अपनी योग्यता दिखाते हुए करना पड़ता है। क्षेत्रीय अधिकारी स्वविवेक से कार्य करने हेतु स्वतंत्र होते हैं। इस व्यवस्था में नागरिकों को व्यक्तिगत औचित्य का भी बोध होता है। इस व्यवस्था में राष्ट्रीय नीति के स्थान पर परिस्थितिजन्य क्षेत्रीय नीति निर्मित करनी पड़ सकती है। संगठन में विकेन्द्रीयकरण कर देने से सत्ता में समन्वय स्थापित नहीं हो पाता है। क्षेत्रीय कार्यालय परिस्थिति एवं स्थानीय राजनीति के दुष्प्रभाव से संक्रमित हो जाते हैं। जिससे भ्रष्टाचार और अयोग्यता को प्रश्रय मिलता है।
निष्कर्ष: दोनों ही व्यवस्थाएं उत्तम नहीं हैं। दोनों ही व्यवस्थाओं में गुण-अवगुण हैं। आजकल दोनों ही सिद्धांतों को प्रशासन में अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। वस्तुतः प्रशासन का निर्माण दोनों ही व्यवस्थाओं के गुण एवं अवगुणों पर विचार करके समझौते द्वारा होना चाहिए। केंद्र को नीतियों के निर्माण का संपादन करना चाहिए, वहीं इन नीतियों का क्रियान्वयन विकेन्द्रीयकरण व्यवस्था के अंतर्गत किया जाना चाहिए। इन व्यवस्थाओं को परिस्थिति के अनुरूप ही अपनाया जाना चाहिए। विकेन्द्रीयकरण के सिद्धांतों को लागू करने में अत्यन्त सावधानी से कार्य किया जाना चाहिए।
इन दोनों सिद्धांतों को साधन समझा जाना चाहिए, उद्देश्य को नहीं वरन् कुशल प्रशासन की सम्प्राप्ति होना चाहिए। कुशल प्रशासन को ध्यातव्य रखकर ही दोनों सिद्धांतों का क्रियान्वयन किया जाना चाहिए। इन दोनों सिद्धांतों को प्रशासन में उसी अनुपात में समाविष्ट किया जाना चाहिए, जिससे कि प्रशासन में न्यून मात्र में ही अकुशलता व्याप्त रहे। देानों व्यवस्थाओं का परिस्थितिजन्य मध्य मार्ग निश्चय ही सर्वोत्तम प्रशासन के उद्देश्य की सम्प्राप्ति में सफल हो सकता है। इन व्यवस्थाओं के दोषों को अलग करके लाभप्रद कारकों को प्रशासन में समाविष्ट करने से प्रशासन की कुशलता उत्कृष्टता के स्तर को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेगी।
Question : यह कहना कहां तक सही होगा कि प्रत्यायोजित विधि निर्माण आज की आवश्यकता बन गई है और यह आगे भी ऐसा ही चलने वाला है, यह अपरिहार्य भी है और अनिवार्य भी?
(1997)
Answer : विधि निर्माण विधान मण्डल का अग्रगण्य कार्य है। कार्याधिक्य होने के कारण विधान मण्डल के लिये सभी विषयों पर विधि निर्माण कल्पना कुसुम मात्र है। विधानमण्डल जब विधि निर्माण की अपनी शक्ति प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में स्थानान्तरित कर देता है, तो उसे ही प्रदत्त विधायन या प्रतिनिहित विधान की संज्ञा दी जाती है। इसका महत्व विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि के सदृश ही होता है। विधायिका द्वारा प्रदत्त विधिक सत्ता के अनुरूप अधीनस्थ पदाधिकारियों एवं निकायों द्वारा लघु विधायी शक्तियों के क्रियान्वयन को ही प्रदत्त विधायन कहा जाता है। इसके अंतर्गत संसदीय नियमों की एक सारांशिका निर्मित कर ली जाती है तथा इसी सारांशिका को प्रशासकीय आदेशों या विभागीय आदेशों द्वारा सिंचितकिया जाता है। प्रत्यायोजित
विधान की आवश्यकता अग्रांकित कारणों से होती है-
संसद एवं उसके सदस्यों के पास विशेषज्ञता की न्यूनता, विधियों की सूक्ष्मेत्तर एवं वृहद रूपरेखा की तैयारी को सम्भव करना, नियमों में परिस्थितिजन्य परिवर्तन, नम्यता, संसदीय सत्रें में निरन्तरता का अभाव, संसद के पास समयाभाव, आपातकालीन परिस्थितियों का सामना असम्भव।
प्रदत्त विधायान में वृद्धि के लिये राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक पर्यावरण की परिवर्तित परिस्थितियां उत्तरदायी हैं। राज्य के लोक कल्याणकारी दायित्वों में वृहदता के कारण विधानमण्डल समस्त लेकोपकारी कार्यों के सम्पादन में परेशानी अनुभूत कर रहा था। ऐसी परिस्थिति में अपनी विधि निर्माण की सत्ता को हस्तान्तरित करने के अलावा और कोई विकल्प राज्य के पास नहीं था।
विधानमण्डल के साधारण सदस्यों की विधि की प्राविधिक प्रकृति को समझने की अयोग्यता ने भी प्रत्यायोजित विधान को सम्बल दिया है।
वस्तुतः वर्तमान में प्रदत्त विधायन ने सफलता के सोपानों का आचमन भी किया है। संसद के विधायी कार्यों को दक्षतापूर्वक सम्पन्न करने में इस व्यवस्था ने ही सहयोग किया है। इससे सबसे बड़ा दोष प्रशासनिक शक्तियों के निरंकुश हो जाने की संभावना रहती है क्योंकि प्रशासनिक अधिकारी मात्र संगठन का हित ही दृष्टिगत रखते हुये लोक हितों की उपेक्षा कर देते हैं, जिससे समाज में दुरव्यवस्था की संभावना बनी रहती है। लोकहित के दृष्टिकोण से यह सम्यक नहीं है कि विधानमण्डल अपने को कार्यभार मुक्त करने के निमित्त प्रशासनिक कार्यों में आवश्यकता से अधिक वृद्धि करते हुए उनके अधिकारों को स्वच्छन्दता के स्तर तक पहुंचा दे।
समग्र दृष्टीकोण से देखा जाये, तो प्रदत्त विधायन की व्यवस्था संसदीय प्रणाली के लिये विषतुल्य है। उससे उत्पन्न विसंगतियों का सामना करने के लिये सुरक्षा के कुछ मौलिक प्रयास राज्य द्वारा किये जाने चाहिए। प्रदत्त विधायन एक तरह से नवीन निरंकुशता की तरह ही है। बेहतर होगा कि प्रदत्त विधायन को संसदीय परीक्षण के अर्न्तगत लोकहित के लिये लाया जाये। यद्यपि राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये अध्यादेशों पर संसद की स्वीकृति आवश्यक है, तथापि भारत में प्रदत्त विधायन के संदर्भ में संसदीय समीक्षा की व्यवस्था सार्थकता से परे ही है। आज आवश्यकता है प्रदत्त विधायन के प्रचार-प्रसार द्वारा जनता के समीप लाया जाये। प्रदत्त विधायन को न्याय के विपरीत घोषित करने का अधिकार विधानमण्डल के पास भी होना चाहिये। प्रदत्त विधायन से होने वाली हानियां अग्रांकित हैं-
व्यक्तिगत स्वतन्त्रओं में न्यूनता, कार्यपालिका के निरंकुश हो जाने की सम्भावना, अत्यधिक प्रत्यायोजन, लोकहित की उपेक्षा, न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण, नियमों की अज्ञानता, नम्यता का ” सोपानों ह्रास, नौकरशाही में स्वच्छन्दता, वित्तीय शक्तियों का प्रत्यायोजन।
इन हानियों से बचने के लिये प्रत्यायोजित विधान में अग्रांकित सुधार करके उन्हें जनता के लिये सार्थक स्वरूप दिया जा सकता है। ये सुधार हैं- कार्यपालिका को प्रदान की गई शक्तियों की सीमाओं को प्रदत्त विधायन में स्पष्टतः उल्लिखित किया जाना चाहिए, प्रत्यक्ष व स्पष्ट नियमन व्यवस्था न्यायालय के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, कुशल एवं प्रभावी समन्वय, युक्तिसंगत निर्णयन, प्रभावी क्रियान्वयन, संसदीय नियंत्रण एवं नियमन इत्यादि।
सारांशतः यह कहना सम्य्क है कि प्रदत्त विधायन के विरूद्ध जो भी आक्षेप लगाये जाते हैं, वे पूर्वाग्रह से संपीडि़त हैं व असत्य हैं, संसद के उचित नियंत्रण एवं न्यायपलिका की सुरक्षा के आलोक में प्रदत्त विधायन द्वारा प्रदत्त शक्तियां स्वेच्छाचारिता को प्राप्त कर ही नहीं सकतीं। स्पष्ट है कि प्रदत्त विधायन की पद्धति राज्य के लिये उपयुक्त है और आगे भविष्य में भी इसकी उपादेयता बनी रहेगी, क्योंकि इस प्रक्रिया से संसद के अमूल्य समय में बचत होती है। संसद इस बचे अमूल्य समय को अन्य जन उपयोगी महत्वपूर्ण विषय पर विचार के लिये कर सकती है। प्रदत्त विधायन की पद्धति राज्य के लिये सम्य्क है और भविष्य में भी सम्यक बनी रहेगी।