Question : प्रशासन में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार के कारण बताइए। प्रशासनिक भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए उपाय सुझाइए।
(2003)
Answer : भ्रष्टाचार का अर्थ है कि किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा सार्वजनिक पद अथवा स्थिति का दुरूपयोग करना है, अपने विस्तृत अर्थ में पद या सत्ता का आर्थिक एवं अनार्थिक दोनों रूप में अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिए, दुरूपयोग सम्मिलित है।
प्रशासन में दिनोदिन भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इसका प्रमुख कारण प्रशासन में स्वतन्त्रता के पश्चात् आयोग्य व्यक्तियों की भर्ती हुई जिससे भ्रष्टाचार पनपा। शहरीकरण एवं औद्योगीकरण का महत्व बढ़ जाने से भौतिकवाद को आश्रय मिला है, जिससे सामाजिक मूल्यों का अभाव पैदा हुआ तथा भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला।
लालफीताशाही की प्रक्रिया से उत्पन्न विलख सम्बन्धों के लिए लोग शीघ्र कार्य कराने की आशा में घूूस देने की प्रक्रिया का सहारा लेते है। औद्योगिक एवं व्यापारी वर्ग शासकीय कर्मचारियों के अपने निकृष्ट उदेश्यों की पूर्ति में सफलता प्रदान करने के लिए धन या अन्य लाभ देते हैं। भारत में चुनावों के मंहगे हो जाने के कारण तथा चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों को काले धन की आवश्यकता होती है। चुनावों में बढ़ती हुई धन की भूमिका के कारण काला धन और भ्रष्ट राजनीतिज्ञ एक दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं। इन सब कारणों से भारतीय लोक प्रशासन में भ्रष्टाचार का प्रसार हुआ है।
हमारे राष्ट्रीय जीवन में सम्भवतः अब ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जो भ्रष्टाचार से ग्रस्त न हो। भारत में यद्यपि जागरूक लोकमत, स्वतन्त्र प्रेस, विरोधी दल, हित समूह तथा सामाजिक संस्थाएं आदि भ्रष्ट लोक सेवकों और राजनीतिज्ञों पर कुछ आवश्यक प्रतिबंध से हैं, किन्तु ऐसे साधन प्रायः असन्तोषजनक ही सिद्ध हुए हैं।
प्रशासन में सच्चरित्रता स्थापित करने या भ्र्रष्टाचार का नियंन्त्रित करने के लिए, सुधार के दो सुझाव है- प्रथम क्रांतिकारी अर्थात् व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन करना, क्रांतिकारी सुधार कहलाता है। दूसरा सुधारवादी अर्थात् व्यवस्था को समग्र रूप से उखाड़ने की अपेक्षा उसमें अच्छाइयों का समावेश किया जाए। इन सुधारों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार की समस्या पर लागू करते समय व्यावहारिक समस्याएं आती हैं। क्रांतिकारी सुधार से सम्पूर्ण सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था के समक्ष संकट उत्पन्न हो सकता है जबकि सुधारवादी प्रयास इसलिए असफल हो सकते हैं क्योंकि पहले से ही संकट अत्यधिक है, ऐसे में उपाय यही बचता है कि कुछ कडे़ उपाय द्वारा सुधार किया जाय।
भ्रष्टाचार के विरोध में जनमत उत्पन्न किया जाना चाहिए, ताकि भ्रष्टाचार के दुष्कर्मों को रोका जा सके। चुनाव सुधार किये जाने चाहिए, ताकि चुनाव लड़ने में बहुत बड़ी राशि व्यय न करनी पडे़। भ्रष्टाचार के मामले में कार्यपालिका से सर्वथा मुक्त ओम्बुड्समैन जैसी स्वतन्त्र संस्था का निर्माण हो तथा मन्त्रियों एवं सरकारी प्रशासकों के लिए निश्चित आचार संहिता का निर्माण और उसका पूरे कड़ाई से पालन हो एवं सरकारी कर्मचारियों को काम के अनुसार पर्याप्त वेतन तथा योग्यता के आधार पर चयनित किया जाना चाहिए। सतर्कता आयोग का गठन आवश्यक है।
इसके अतिरिक्त प्रेस तथा स्वयं सेवी संस्थाओं जैसी संस्थाओं को भी सहायता करनी चाहिए जिससे भ्रष्टाचार को रोका जा सके।
Question : इक्कीसवीं शताब्दी के तेजी से बदलते हुए परिदृश्य में प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकताओं एवं पक्षों का परीक्षण कीजिए। प्रशासनिक सुधारों के रास्ते में कौन सी रूकावटें हैं? उन पर काबू पाने के लिए सुझाव दीजिए।
(2003)
Answer : प्रशासनिक सुधार का अर्थ है प्रशासन में इस प्रकार सुनियोजित परिवर्तन लाना, जिनसे वह अपनी क्षमताएं बढ़ा सके और सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हो सके। वास्तविक स्वरूप में प्रशासनिक सुधार प्रशासनिक विकास की एक ऐसी प्रक्रिया है, जो सुनियोजित एवं संगठित होने के साथ-साथ निरन्तरता एवं सृजनशीलता की अपेक्षा करती है। प्रशासनिक सुधार का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिससे प्रशासनिक व्यवस्था की कार्यकुशलता एवं गुणवत्ता में वृद्धि करने के लिए सुनियोजित ढंग से जानबूझ कर परिवर्तन किये जाते हैं।
भारत में प्रशासनिक सुधारों की महती आवश्यकता शुरू से ही है। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत का प्रशासनिक ढांचा औपनिवेशिक राज्य के निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए निर्मित किया गया था। ब्रिटिश काल में सरकारी शासन पद्धति का श्रेय कानून तथा शासन की व्यवस्था बनाए रखना था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों ने शासन पद्धति में भी परिवर्तन आवश्यक बना दिया, अतः प्रशासनिक सुधार की आवश्यकता महसूस की गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सार्वजनिक क्षेत्रें में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा अन्य बुराइयों में अत्यधिक वृद्धि हुई है। प्रशासनिक सुधार इन पर अंकुश लगाने में भी सहायक हो सकता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा भारत के आर्थिक, सामाजिक ढांचे में क्रान्तिकारी मौलिक परिवर्तन करने का निश्चय किया। इन योजनाओं को सफल बनाने के लिए प्रशासन में सुधार की आवश्यकता महसूस की गई।
सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, तकनीकी एवं राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप प्रशासन तन्त्र को ढालने तथा प्रशासनिक कुशलता एवं कार्य निष्पादन के उच्च स्तर का प्राप्त करने के लिए प्रशासनिक सुधार की आवश्यकता होती है। प्रशासन में शिथिलता, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए भी प्रशासन में सुधार की आवश्यकता होती है।
भारत में प्रशासनिक सुधारों के लिए अनेक आयोग तथा कमेटियां समय-समय पर गठित की गईं तथा उनकी अनुशंसाओं के आधार पर सुधार भी किये गये। किन्तु भारतीय प्रशासनिक तन्त्र में किसी प्रकार का उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं दिखाई देता है। वस्तुतः भारत में प्रशासनिक सुधारों के कार्य में कई बाधाएं आती हैं। प्रायः यह दृष्टिगत होता है कि प्रशासनिक कार्यों में देरी होती है, जिस कारण छोटी सी कार्यवाही में भी महीनों व वर्षों लग जाते हैं।
विगत वर्षों के प्रशासनिक सुधारों का अनुभव दर्शाता है कि भारत में प्रक्रियात्मक सुधार बहुत कम तथा संगठनात्मक परिवर्तन एवं परिवर्द्धन अधिक हुए हैं। देश का विशाल आकार तथा प्रशासनिक जटिलताएं भी सुधारों में बाधक है। नौकरशाही की कठोर कार्य प्रणाली तथा नियमबद्धता भी प्रशासनिक सुधारों के मार्ग में एक विकट समस्या है। प्रशासन में भ्रष्टाचार के कारण भी प्रशासनिक सुधारों में अवरोध उत्पन्न हो रहा है। भारत में प्रशासनिक सुधारों में आने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण तरीके अपनाये जाने जरूरी हैं। जैसे- प्रथम बातों को प्राथमिकता देना और श्रेष्ठ व्यक्तियों का उचित प्रयोग करना, सत्य निष्ठा के मापदण्डों पर बल देना, वास्तविकता पर ही नहीं, उसके बाह्य रूप पर भी सरकार व प्रशासन के मध्य सम्बन्धों को पारस्परिक साझेदारी और मानवीय आधार पर प्रोत्साहित करना प्रशासन तन्त्र को पुनर्गठित करना, जिससे उसमें अधिक गतिशीलता, प्रभाव व उत्तरदायित्व की भावना आ जाए। अल्पकालीन तथा दीर्घ कालीन आधारों पर उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था करना।
पाल एपलबी ने अपनी रिपोर्ट में प्रशासनिक सुधार के लिए कार्यात्मक पहलुओं पर अत्यधिक जोर दिया है। एच. एम. पटेल के अनुसार, प्रशासनिक सुधार के लिए निम्न कदम उठाए जाने चाहिए।
Question : प्रशासन की अतियों एवं कुसंक्रियाओं के विरोध में नागरिकों की शिकायतों की निवारण के लिए उपलब्ध विभिन्न संस्थागत साधन कौन से हैं? वे कितने सफल रहे हैं।
(2003)
Answer : प्रशासन की अतियों एवं कुसंक्रियाओं के विरोध में नागरिकों की शिकायत के निवारण हेतु, विभागीय नियन्त्रण, कानूनी प्रावधान, लेखा परीक्षा, केन्द्रीय सतर्कता आयोग, केन्द्रीय अन्वेषण विभाग, राज्य सतर्कता आयोग भ्रष्टाचार निरोधक विभाग, लोकायुक्त, लोकपाल, नागरिक अधिकार तंत्र, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, उपभोक्ता फोरम एवं फास्ट ट्रैक कोर्ट जैसी संस्थाएं कार्यरत है।
नागरिकों द्वारा प्राप्त शिकायत जनप्रतिनिधियों द्वारा संसद में प्रश्न काल के दौरान उठायी जाती है, जिस पर सम्बन्धित मन्त्री स्पष्टीकरण देता है, साथ ही शिकायत को दूर करने के उपाय करता है एवं सम्बन्धित मन्त्री स्पष्टीकरण, प्रगति रिपोर्ट देता है। सन्तुष्ट न होने पर प्रधानमन्त्री से भी स्पष्टीकरण मांगा जाता है।
कानून और व्यवस्था की शिकायतें थाने से शुरू होती है और उच्च स्तर तक बढ़ती जाती है।
शासनिक अतियों एवं कुसंक्रियाओं के निवारण हेतु 1964 में संथानम समीति की अनुशंसा पर केन्द्रीय सतर्कता आयोग को एक वैधानिक तथा बहुसदस्यीय संस्था बना दी गई। आयोग को स्वतन्त्र तथा वैधानिक आधार प्रदान करने की अनुशंसा विधि आयोग (1998) द्वारा की जा चुकी थी।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग किसी भी शिकायत को, जो उसेव्यक्तिगत डाक, समाचार पत्रें, संसद के भाषणों पर अंकेक्षण रिपोर्ट इत्यादी ड्डोतों से प्राप्त होती है, जो सम्बन्धित विभाग, मंत्रलय अथवा केन्दीय जांच ब्यूरों को जांच हेतु भेज सकता है। मंत्रलयों में मुख्य सतर्कता अधिकारियों की नियुक्ति होती है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो अथवा विभाग के मुख्य सतर्कता अधिकारी सम्बन्धित भ्रष्टाचार के मामले की जांच करके रिपोर्ट आयोग को भेजते हैं।
केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो की स्थापना डी. पी. कोहली की संरचनात्मक कल्पना द्वारा 1 अप्रैल, 1963 को स्थापित की गई तथा श्री कोहली इसके प्रथम संस्थापक निर्देशक भी बने। सीबीआई का प्रमुख कार्य सतर्कता तथा भ्रष्टाचार निरोधी कार्यक्रमों का संचालन करना है। पुलिस की तरह विशेष तथा गम्भीर प्रकरणों की सीबीआई जांच करती है तथा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती है।
मुख्य रूप से सीबीआई का प्रशासनिक कार्य तीन संभागों में विभक्त है- भ्रष्टाचार विरोधी संभाग, विशेष अपराध संभाग, आर्थिक अपराध संभाग। सीबीआई का क्षेत्रीय कार्यालय राज्यों में भी स्थित है। सामान्यतः सीबीआई का विशेष पुलिस संगठन कानून के अन्तर्गत अनेक विशेषधिकार प्राप्त है तथा इसकी जांच प्रणाली बहुत गम्भीर, व्यापक, गहन तथा विश्वसनीय मानी जाती है।
कुप्रशासन से नागरिकों की रक्षा हेतु लोकपाल/लोकायुक्त जैसी संस्था की संकल्पना भारत में भी की गई जो कि स्कैन्डिनेवियन देशों से ली गई संकल्पना पर आधारित है। इसमें निष्पक्षता एवं कार्यकुशलता पूर्वक जांच की परिधि में सर्वोच्च से सर्वोच्च संस्था आ जाती है।
Question : सार्वजनिक निगम स्वयं में एक उद्देश्य नहीं होते हैं, बल्कि लोक कल्याण की प्रोन्नति के लिए अभिकल्पित सरकारी कार्य कलापों का एक विस्तार होते हैं। इसको प्रमाणित कीजिए।
(2002)
Answer : सार्वजनिक निगम का आशय ऐसे निगम से है, जिसकी स्थापना संसद द्वारा विशेष अधिनियम के अधीनकी जाती है और यह अधिनियम ही उसके अधिकारों, दायित्वों एवं कार्यक्षेत्र की सीमाओं का निर्धारण करता है। सार्वजनिक निगम सार्वजनिक स्वामित्व वाला एक ऐसा उपक्रम है, जिसकी स्थापना किसी विशेष व्यवसाय को चलाने उसका वित्तीय उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किसी संघीय राज्य अथवा स्थानीय अधिनियम के अन्तर्गत की गई है।
सार्वजनिक निगम विधान बनाने वाली सभा द्वारा निर्मित वह निगमित संस्था है, जिसके निश्चित अधिकार तथा कार्य होते हैं, जो वित्तीय मामलों में स्वतन्त्र होता है और जिसका कार्य क्षेत्र किसी निश्चित स्थान पर विशेष प्रकार की वाणिज्यिक क्रिया तक विस्तृत होता है। अतः सार्वजनिक निगम एक समामेकित संस्था है जिसकी स्थापना संसद द्वारा विशेष अधिनियम पारित किए जाने से होती है और इसका प्रबन्ध तथा संचालन इसी अधिनियमद्वारा होता है। इस प्रकार सार्वजनिक निगम राज विधि द्वारा गठित एक न्यायिक व्यक्ति के रूप में तथा स्वयं के नाम से व्यवसाय करने वाली संस्था है।
सार्वजनिक निगम एक निगमित संस्था है जिसका निर्माण संसद के विशेष अधिनियम द्वारा किया जाता है। इसमें कोई अंशधारी नहीं होता है और इसका लाभ उद्देश्य के स्थान पर सेवा-उद्देश्य होता है। इसके अंश राष्ट्रीय सरकार द्वारा क्रय किये जाते हैं। निगम लाभार्जन को प्राथमिकता नहीं देता बल्कि लोक-हित को महत्वपूर्ण स्थान देता है। सार्वजनिक निगम लोक-हित की पूर्ति एवं अभिवृद्धि के लिए बनाई गई सार्वजनिक संस्था मानी जाती है।
सार्वजनिक निगम से प्राप्त लाभों के कारण पश्चिम के अनेक देशों में निर्माणकारी तथा अन्य राष्ट्रीयकृत उद्योगों को प्रबन्ध का स्वायत्तशासी प्रतिरूप प्रदान करने के लिए सार्वजनिक निगम के रूप में स्थापित किया गया है।
वर्तमान दौर में निगम बैंक आदि अपने शेयरों को बेचकर अपने कोषों की भरपाई करते हैं। निगमों के नेतृत्वपर सरकार का स्वामित्व आंशिक होता है, लेकिन अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति, वेतन, भत्तों का निर्धारण निगमों द्वारा किया जाता है, जिससे कि लोक कल्याण, नियोजन, बेरोजगारी की समस्यायें में कमी तथा निगमों के लाभों का एक हिस्सा जनता के स्वास्थ्य, शिक्षा तथा सफाई पर खर्च किया जा सके।
उदारीकरण के दौर में सरकार ने निगमों की संचालन समिति के गठन को ढ़ीला किया है, जिसपर निजी भागीदारों द्वारा पेशेवर लोगों की नियुक्ति की जाने लगी है। सार्वजनिक निगमों की स्थापना के पीछे जो उद्देश्य रहे हैं वो उन क्षेत्रें में विकास, पिछड़ों को रोजगार देने के कारण अपने उद्देश्यों में विफल हो गये।
Question : यू. के. के (संसदीय आयुक्त) पार्लियामेन्टरी कमिश्नर, की तुलना में, भारतीय संसद में पुनः स्थापित विधेयक में प्रस्तावित लोकपाल संस्था की शक्तियां, किन बातों में इस संस्था को अधिक सशक्त बनाएगी?
(2001)
Answer : ब्रिटेन में सर जान व्हाइट समिति का मुख्य प्रस्ताव था कि कुप्रशासन की शिकायतों के विरुद्ध जांच के लिए स्केन्डेनोवियन देशों जैसी संस्था ओम्बुडसमैन स्थापित की जाए। इसे संसदीय आयुक्त का नाम प्रदान किया गया। इस समिति ने ट्रिव्यूनल व्यवस्था के प्रसार का भी सुझाव दिया। वस्तुतः जन साधारण की शिकायतों का निवारण करने तथा लोक प्रशासन की कुशलता एवं निष्पक्षता को सुनिश्चित करने के लिए ब्रिटेन ने सन् 1967 में संसदीय आयुक्त की नियुक्ति की।
ब्रिटेन में संसदीय आयुक्त की नियुक्ति मंत्रिमंडल की सिफारिश पर ब्रिटिश ताज द्वारा की जाती है। इस पद के लिए सेवानिवृत्ति उच्चस्तरीय लोक सेवक अथवा सार्वजनिक जीवन का कोई प्रसिद्ध व्यक्ति पात्र होता है। संसदीय आयुक्त के कार्यालय के अधिकांश कार्मिक विभिन्न सरकारी विभागों में 3 वर्ष के लिए प्रति नियुक्ति पर लिए जाते हैं।
ब्रिटिश संसदीय आयुक्त प्रणाली की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं- संसदीय आयुक्त की नियुक्ति मन्त्रिमण्डल की सिफारिश पर ब्रिटिश ताज द्वारा की जाती है। यह लोकसेवकों के द्वारा की गई अनियमितताओं, भ्रष्टाचार तथा लापरवाही की जांच करता है। ब्रिटिश संसदीय आयुक्त की सिफारिशें सरकार के लिए पारमर्शी-स्वरूप की है। संसदीय आयुक्त के कार्यालय के अधिकारी तथा कर्मचारी स्वयं लोक सेवक होते हैं।
ब्रिटेन में संसदीय आयुक्त के समक्ष मुख्यतः राजस्व कर तथा सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित शिकायतें अधिक आती हैं।
अधिकांश शिकायतों में प्रशासनिक लापरवाही तो दिखाई देती है, किन्तु भारत की तरह घोटालों की संस्कृति ब्रिटेन में नहीं है।
विभिन्न देशों में नागरिकों की शिकायतों को दूर करने के लिए भिन्न प्रकार के तन्त्र स्थापित किये गये हैं। इंग्लैंड में विभिन्न अभिकरण है वही स्केडेनोविया के देशों में ओम्बुडसमैन संस्था का गठन किया गया है। इसी प्रकार भारत में भी ओम्बुडसमैन संस्था अर्थात लोकपाल तथा राज्यों में लोक आयुक्त के गठन की व्यवस्था की गई है।
जिस प्रकार स्वीडन में नागरिकों की शिकायतों को दूर करने के लिए ओम्बुडसमैन की स्थापना की गई, उसी प्रकार भारत में 5 जनवरी, 1996 में प्रशासनिक सुधार ने अपने प्रतिवेदन लोक आयुक्त तथा लोकपाल संस्थाओं की स्थापना का विचार पुष्ट किया।
भारत में सरकार ने जुलाई 1997 में लोक सभा में इस आशय का एक विधेयक प्रस्तुत किया कि देश में लोकपाल की नियुक्ति होनी चाहिए। संसद द्वारा विधेयक पर विचार करने से पूर्व ही लोक सभा का विघटन हो गया और विधेयक पारित नहीं हो सका। तत्पश्चात आठवीं लोक सभा में 26 अगस्त, 1985 को लोकपाल विधेयक पुनः रखा गया। 14 अगस्त, 2001 को एक नया लोकपाल विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। लोकपाल संस्था स्थापित करने की मंशा से इस प्रकार का प्रस्तुत किए जाने वाला यह आठवां विधेयक था। लोकपाल के गठन को त्रिसदस्यीय रखा गया, जिसमें अध्यक्ष के अतिरिक्त दो अन्य सदस्य सम्मिलित किए गए। उच्चतम न्यायालय के सेवारत या पूर्व मुख्य न्यायाधीश या उसके किसी न्यायाधीश को ही लोकपाल का अध्यक्ष बनाया जाए। ऐसा प्रस्ताव रखा गया, जब कि इसके सदस्य के रूप में उच्चतम न्यायालय के सेवारत या पूर्व न्यायाधीश नियुक्त किया जाएगा।
विधेयक के अनुसार, लोकपाल की नियुक्ति सात सदस्यीय चयन समिति की संस्तुति के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, जिसके अध्यक्ष उपराष्ट्रपति होंगे। इस समिति के सदस्यों में प्रधानमंत्री, लोक सभा के अध्यक्ष, गृहमन्त्री, संसद के उस सदन के नेता जिसके प्रधानमन्त्री सदस्य नहीं तथा लोक सभा एवं राज्य सभा में विपक्ष के नेता शामिल होंगे। लोकपाल अध्यक्ष एवं सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष प्रस्तावित किया गया है तथा वे 70 वर्ष की आयु तक ही इस पर रहेंगे। दुर्व्यवहार या अक्षमता सिद्ध होने पर लोकपाल के अध्यक्ष या किसी सदस्य को राष्ट्रपति द्वारा ही उसके पद से हटाया जा सकेगा।
मन्त्रिपरिषद के सभी सदस्यों, सांसदों व सरकारी कर्मचारियों के साथ-साथ प्रधानमन्त्री को भी लोकपाल की जांच के दायरे में रखा गया है। विधेयक में यह सुनिश्चित किया गया है कि लोकपाल स्वतन्त्र रूप से कार्य कर सके और अपने दायित्वों का निर्वाह बिना किसी भय और पक्षपात से करने में समर्थ हो सके। इस तरह से लोकपाल संस्था की शक्तियां अधिक विकसित हुई एवं यह संस्था अधिक सशक्त हुई है।
Question : कैरियर विकास में अखिल भारतीय सेवाओं और राज्य सेवाओं को क्या अवसर उपलब्ध है? आप सहमत हैं कि आधुनिक प्रशासनिक राज्य में सामान्यज्ञो के दिन गिनती के हैं?
(2000)
Answer : लोक सेवा की दृष्टि से अखिल भारतीय सेवाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। अखिल भारतीय सेवाओं के कर्मचारी पूर्णतः केन्द्रीय अथवा राज्यों की सेवा में नहीं होते, अपितु उनकी अदला-बदली कतिपय मान्य नियमों के अधीन दोनों ही स्तरों पर की जा सकती है, जबकि उनकी भर्ती और नियंत्रण मोटे रूप से संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से केन्द्रीय सरकार ही करती है। भारतीय संविधान के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार तथा घटक राज्यों के प्रशासन के लिए पृथक-पृथक लोक सेवाओं के प्रावधान किये गये हैं। केन्द्रीय सेवाओं के कर्मचारी प्रतिरक्षा, आय-कर, सीमा शुल्क, डाकतार, रेलवे आदि संघीय विषयों के प्रशासन का कार्य करते हैं। इसी प्रकार राज्यों की अपनी पृथक सेवाएं हैं, जो भू-राजस्व, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, वन इत्यादि राज्य सूची सम्बन्धी विषयों का प्रशासन करती हैं। अखिल भारतीय सेवाएं संघ तथा राज्य दोनों के लिए सामान्य रूप से संगठित की जाती है।
अखिल भारतीय सेवाएं गठित करने का प्रमुख उद्देश्य देश भर के प्रशासन स्तर में एकरूपता लाने तथा उच्चस्तरीय पदों पर काम करने के वास्ते अनुभवी तथा प्रशिक्षित अधिकारियों का एक संवर्ग गठित करने के लिए संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से अखिल भारतीय के आधार पर सीधी भर्ती करना था। संविधान के भीतर अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान किया गया है।
सम्पूर्ण देश के प्रशासन में क्षमता और एकरूपता उत्पन्न करने और सामान्य मापदण्डों की स्थापना करने की दृष्टि से निश्चित रूप से अखिल भारतीय सेवा का महत्व है।
राज्य सेवा का अभिप्राय उन सेवाओं से है जिनकी सेवा शर्ते राज्य विधान सभा के अधिनियम द्वारा जब तक ऐसी विधि पारित न हो, राज्यपाल द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार की जाती है। राज्य सेवाओं और अधीनस्थ सेवाओं में नियुक्ति प्रणाली, संख्या और पद रूप द्वारा सेवा-शर्तों के सम्बन्ध में नियम-निर्माण की शक्ति अन्तिम रूप में राज्यों के हाथ में है। सेवाओं से सम्बन्धित यह अन्तिम सत्ता है। राज्य सेवाएं उन सेवाओं से मिलकर बनी है, जिन्हें राज्य शासन समय-समय पर अधिकृत राजपत्र में अधिसूचित करता है। राज्य सेवाओं में राज्य प्रशासनिक सेवा, राज्य पुलिस सेवा राज्य, चिकित्सा-सेवा, न्यायिक-सेवा, वन-सेवा, जन स्वास्थ्य-सेवा, सुरक्षा सेवा, पशुचिकित्सा-सेवा, सहकारिता-सेवा, यान्त्रिक-सेवा, कृषि-सेवा सम्मिलित है।
प्रशासन में सामान्यज्ञों से अभिप्राय है, प्रशासनिक कार्य का पेशेवर प्रशिक्षण और पूर्व-तकनीकी ज्ञान ग्रहण किये बिना ही सामान्य जानकारी और मात्र प्रशासनिक क्षमता के आधार पर सम्पादन करना। उदार शिक्षा प्राप्त अधिकारियों का एक विशिष्ट वर्ग ही समचे शासन में प्रशासनिक पदों को ग्रहण करता है। ऐसे विविध प्रशासक कभी वित्त विभाग के उच्च पदों पर नियुक्ति किए जाते हैं तो कभी सिंचाई, बिजली, यातायात आदि अन्य विभागों की देख भाल करते हैं। यदि आज वे जिला कलेक्टर के रूप में कार्य करते हैं, तो कल उन्हें शिक्षा संचालन के सचिव के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। ऐसे विविधज्ञ प्रशासक किसी विशिष्ट विषय के विशेषज्ञ नहीं होते हैं और यह मान्यता प्रचालित है कि उनका कार्य प्रशासन करना है, क्योंकि ये प्रशासनिक कला में प्रशिक्षित होते हैं। वे जहां कहीं भी कार्य करेंगे, वहीं प्रशासनिक योग्यता और कुशलता का परिचय देंगें।
किन्तु दूसरी तरफ इस मान्यता का विकास हुआ है कि प्रशासन में विशेषज्ञों की दक्षता और ज्ञान गुरूता का समुचित सदुपयोग किया जाना चाहिए और आधुनिक प्रशासक अपने क्षेत्र में ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ ही होने चाहिए। अतः यह निश्चित रूप से सत्य है कि आधुनिक प्रशासनिक राज्य में सामान्यज्ञ के दिन गिनती के रह गये हैं।
Question : ‘स्वेच्छिकवाद राज्य केन्द्रिकता का प्रतिपक्ष नहीं है’
(1999)
Answer : भारत एक संघ राज्य वाला देश है। संविधान द्वारा स्वीकृति देश मे संसदीय लोकतंत्रत्मक प्रणाली अपनाई गई है। जिसमें राज्यों के भी इकाइयों के रूप में स्वतन्त्र बनाया जा रहा है। इसी कारण से केन्द्र तथा राज्यों के मध्य शक्ति विभाजन संघ शासक की एक अनिवार्य विशेषता बन गया है। राज्य व केन्द्र दोनों ही एक दूसरे के कार्य क्षेत्र पर अतिक्रमण करते हैं। किन्तु कतिपय ऐसी परिस्थितियों राज्य एवं केन्द्र के मध्य उत्पन्न हो जाती है कि केन्द्र की कभी-कभी राज्य की शक्तियों का संविधान के अनुसार हाथों में लेना ही पड़ता है। इससे स्पष्ट है कि केन्द्रीय शासन प्रणाली सबल है।
भारतीय समाज में विशेष शक्तियां केन्द्र को प्रदान की गई हैं। इसी क्रम में राष्ट्र हित के लिए आवश्यक हो जाने पर संघ सरकार राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बना सकती है। राज्य में अराजकता का स्थिति प्रमाणित होने पर भी राष्ट्रपति उद्घोषणा के द्वारा राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार भारतीय संविधान में संसद को प्रदान किया गया है। वर्तमान काल में यह देखा गया है कि राज्य अपनी स्वायत्त को लेकर अधिक परेशान दिखता है। प्रायः इसी के कारण स्वायत्तता राज्यों की मांग हो रही है। जबकि स्वैच्छिकवाद राज्य केन्द्रिता का प्रतिफल नहीं है। चूंकि राज्यों के ऊपर हमारे भारतीय संविधान में केन्द्र का वर्चस्व स्थापित किया गया है। इसी क्रम में केन्द्र राज्य सम्बन्धों को बेहतर बनाने के लिए सरकारिया आयोग का गठन किया गया है। जो केन्द्र एवं राज्य के मध्य बेहतर सम्बन्ध बनाने के लिए प्रयासरत है।
Question : लोक हित मुकदमेबाजी सामाजिक न्याय प्राप्त करने की दिशा में एक प्रभाव नवप्रवर्तन है।
(1999)
Answer : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत यह प्रावधान है कि इस अनुच्छेद के अधीन न्याय पाने का हक उसी व्यक्ति को है, जिसके मूलाधिकारों का हनन हुआ है, परन्तु उच्चतम न्यायालय ने अब संशोधन कर के अनुच्छेद 32 के अधिकार को अत्यन्त विस्तृत कर दिया है। उच्चतम न्यायालय ने यह निर्धारित किया है कि अनुच्छेद 32 के अधीन कोई संस्था या लोकहित से प्रेरित कोई नागरिक किसी ऐसे व्यक्ति के संवैधानिक या विधिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट फाइल कर सकता है जो निर्धनता अथवा किसी अन्य कारण से न्यायालय में रिट फाइल करने में सक्षम नहीं है। इसके अन्तर्गत एक अपंजीकृत संघ भी अनुच्छेद 32 के अधीन रिट के लिए आवेदन कर सकता है, यदि वह किसी सार्वजनिक हित के संरक्षण के लिए ऐसा करना चाहता है। मुख्य न्यायमूर्ति ने कहा कि वाद-कारण और पीडि़त व्यक्ति को संकुचित अवधारणा का स्थान ‘वर्ग कार्यवाही’ लोकहित में कार्यवाहीप्रतिनिधिवाद लाने की विस्तृत धारणा ने ले लिया है।
न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले मे अधिवक्ता संघ को अनुच्छेद 32 के अधीन रिट अधिकारिता के द्वारा उनके स्थानान्तरण को चुनौती देने का हक है क्योंकि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता में उनको पर्याप्त रिट है। मुख्य न्यायमूर्ति श्री पी. एन. भगवती ने लोक हितवाद के सिद्धांत का निम्नलिखित शब्दों मे उल्लेख किया है। यदि कोई व्यक्ति या समाज का वर्ग जिसको विधिक क्षति पहुंचाई गई है या विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है। अपनी निर्धनता अथवा किसी अन्य कारण से अपने संवैधानिक या विधिक अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय में जाने में असमर्थ है तो समाज का कोई अन्य व्यक्ति या संघ न्यायालय पहुंच विधिक क्षति के निवारण के लिए अनुच्छेद 32 के अधीन आवेदन दे सकता है। उक्त परिस्थितियों में कोई भी व्यक्ति पत्र लिखकर उच्चतम न्यायालय से उपचार मांग सकता है और उसे रिट पटिशन की तकनीकी बारीकियों का पालन करना आवश्यक नहीं होगा।
न्यायाधीश भगवती ने कहा है कि प्रक्रियात्मक तकनीकियां न्यायालय को ऐसे पीडि़त व्यक्ति को न्याय प्रदान करने के मार्ग में अवरोध नहीं बन सकती हैं। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कोई भी व्यक्ति न्यायालय की इस उदारता का अनुचित लाभ उठाये। प्रत्येक मामले पर न्यायालयउपचार देगा जब उसे यह संज्ञान हो जाए कि उसके समक्ष आने वाले व्यक्ति का पर्याप्त हित है। और वह दुर्भावना से अथवा राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित होकर रिट अधिकारिता का प्रयोग नहीं कर रहा है। इस प्रकार लोक हित वाद समाज के कमजोर एवं निर्धन वर्गों को न्याय प्राप्त कराने की दिशा में एक प्रभावी नव-प्रवर्तन है, अब इसके द्वारा अल्प आय वर्ग भी अपने संवैधानिक एवं विधिक संरक्षण के लिए न्यायालय जा सकेंगे। यह सामाजिक न्याय की दिशा में न्याय पालिका द्वारा उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है।