Question : ‘प्रशासनिक प्रश्न राजनीतिक प्रश्न नहीं हुआ करते हैं’ चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : राजनीति एवं प्रशासन में घनिष्ठ संबंध है। राजनीति प्रशासन के लिए कार्य निर्धारित करती है। प्रशासन उन्हें नीति निर्धारित करने के लिए आवश्यक सामग्री एवं परामर्श देता है। नीति को कार्यान्वित करता है परंतु इतना घनिष्ठ संबंध होने के साथ-साथ प्रशासन राजनीति के विषय क्षेत्र से बाहर है। प्रशासनिक समस्याएं नहीं होतीं यद्यपि राजनीति प्रशासन के कार्यों का स्वरूप निर्धारित करती है, तथापि उसको यह अधिकार नहीं दिया जाता है कि वह प्रशासनिक पक्षों के बारे में हेर-फेर कर सके।
राजनीति एवं प्रशासन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि प्रशासनिक प्रश्न व राजनीतिक प्रश्न पूर्णतः एक जैसे होते हैं। राजनीति का संबंध नीति निर्धारण से होता है जबकि प्रशासन लोकनीति के कार्यान्वयन एवं कानूनों के प्रवर्तन से संबंद्ध है। राजनीतिक प्रश्न मूल्यों से संबंधित होते हैं जबकि प्रशासन तथ्यों पर बल देता है।
जनसाधारण की आवश्यकताओं एवं समस्याओं को पहचानना, जनमत को प्रभावित करना, चुनावी वायदों को सरकारी कार्यक्रमों में परिवर्तित करना, नीति एवं कानून बनाना तथा जनसाधारण को प्रेरित करने का कार्य राजनीतिज्ञ करते हैं, जबकि जनसमस्याओं को दूर करना, सरकारी कार्यक्रमों को लागू करना, नीति-निर्माण एवं कार्यक्रम निर्माण में राजनीतिज्ञों को परामर्श देना तथा जनता को सहयोगी बनाने का प्रयास करना प्रशासक का कार्य है, जिनका समाधान तथ्यों के आधार पर किया जाता है।
किंतु प्रशासनिक विकास राजनीतिक शून्य में नहीं हो सकता। बहुत से ऐसे कारण हैं जिनसे कहा जा सकता है कि दोनों के मध्य बहुत कम अंतर है, जैसे- प्रशासन का नीति निर्धारण में सक्रिय हाथ होता है। प्रदत्त व्यवस्थापन के कारण बहुत से नियम-उपनियम प्रशासन द्वारा बना लिए जाते हैं। जैसे- स्थानीय प्रशासन में राजनीति एवं प्रशासन का गहरा संबंध आदि।
Question : लोक प्रशासन का विज्ञान तब तक संभव नहीं है जब तक कि तुलनात्मक अध्ययनों का एक ऐसा पुंज न हो जाए, जिसके द्वारा राष्ट्रीय सीमाओं को और विचित्र ऐतिहासिक अनुभवों को लांघने वाले सिद्धांतों और सामान्यीकरणों की खोज करना संभव हो सके। चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : लोक प्रशासन में तत्संबंधी सिद्धांतों के समूह का अस्तित्व उसे विज्ञान की संज्ञा तथा स्थान प्राप्त करने के योग्य बना देता है। सर्वकालिकता, सार्वभौमिकता, सुस्पष्टता, सृजनशीलता तथा विश्वसनीयता विज्ञान की विशेषताएं हैं। विज्ञान ज्ञान की वह शाखा है जो तथ्यों को संजोती है और सामान्य नियमों को खोज निकालने का प्रयत्न करती है। विज्ञान की अपनी विशेषताएं हैं, विज्ञान के सारे नियम निश्चित होते हैं, अधिकांशतः सारे सिद्धांत सार्वभौमिक होते हैं। विज्ञान में आदर्श व मूल्यों का कोई स्थान नहीं होता है, विज्ञान की भावी क्रिया का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है, ये सारे लक्षण लोक प्रशासन में पूर्णरूप से विद्यमान ही हैं। मूलतः लोक प्रशासन राजनीति है क्योंकि इसमें नैतिक मूल्यों को पूरी तरह से त्यागा नहीं जा सकता है। लोक प्रशासन मानव व्यवहार के कुछ पहलूओं का अध्ययन करता है। शासकीय संगठनों द्वारा किए गए कार्यों के क्षेत्र में मानवीय व्यवहार से इसका संबंध पूरा संबंध नहीं है। लोक प्रशासन की उत्पति पश्चिमी देशों के सांस्कृतिक परिवेश से हुई है।
लोक प्रशासन का सामाजिक पर्यावरण के साथ पारंपरिक, क्रियात्मक एवं संजीव संबंध होता है लोक प्रशासन संस्कृतिबद्ध है। वस्तुतः लोक प्रशासन की समस्याओं से मानवीय रूझानों को पृथक रख पाना असंभव है। हर हालत में मूल्य प्रशासन को प्रभावित करते हैं और विज्ञान मूल्य मुक्त होता है। प्रशासन के अध्ययन में मानव व्यवहार का अध्ययन अपरिहार्य है जबकि मानव व्यवहार अनिश्चित होता है। लोक प्रशासन तब तक विज्ञान नहीं बन सकता है, जब तक कि उसके आदर्शों के महत्व तथा मूल्य स्पष्ट नहीं होते, मानवीय व्यवहार का समुचित अध्ययन नहीं होता है तथा विभिन्न संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन व विश्लेषण नहीं होता है क्योंकि विकसित व विकासशील देशों के समाज, संस्कृति, राजनीतिक व्यवस्था तथा मूल्य अलग-अलग होते हैं। एक प्रकार का प्रशासन दूसरे पर तब तक लागू नहीं किया जा सकता है जब तक कि उनकी आवश्यकता एवं प्रशासनिक परिवेश समान न हो।
Question : लोकतंत्र और सुशासन का अपने शाब्दिक अर्थों में ही परस्पर विरोध है। उदाहरण देते हुए इस पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : लोकतंत्र एवं सुशासन का अपने शाब्दिक अर्थ में परस्पर विरोध आधुनिक युग की अवधारणाओं के कारण है। लोकतंत्र शासन की एक महत्वपूर्ण एवं चर्चित प्रणाली है। वर्तमान युग में लोकतंत्र पर विशेष बल दिया जाता रहा है। विश्व के प्रत्येक राष्ट्र लोकतांत्रिक बनने का प्रयास कर रहे हैं। जनता का, जनता के लिए एवं जनता के द्वारा शासन लोकतंत्र है। लोकतांत्रिक शासन में आम जनता की सहभागिता होती है। यह मनुष्य की बढ़ती राजनीतिक चेतना एवं मानवाधिकारों की स्थापना का पर्याय है। लोकतंत्र में सरकारें समानता के सिद्धांत पर बल देती हैं, समानता के सिद्धांत को मानते हुए सरकारें समाज से वंचित, पिछड़े एवं निम्न जाति में लोगों के उत्थान हेतु संरक्षात्मक भेदभाव भी नीति के अनुसार उन्हें विशेष सुविधा एवं अवसर भी प्रदान करती है। लोकतंत्र का मुख्य लक्ष्य समतामूलक विकास को सुनिश्चित करना है।
लोक प्रशासन के क्षेत्र में सुशासन का नाम नया हैं। लोकतंत्र की तुलना में सुशासन शब्द नया है। विश्व बैंक ने ‘सुशासन’ की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें विश्व स्तर पर जाति नवीन आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को प्रस्तुत किया गया। सुशासन के लिए विश्व बैंक ने कहा कि सुशासन वह है जिसमें राजनीतिक जवाबदेयता, स्वतंत्रता की उपलब्धता, कानूनों का पालन, नौकरशाही की जवाबदेयता, नौकरशाही पारदर्शिता पूर्वक सूचनाओं की उपलब्धता प्रभावी एवं कुशल प्रशासन एवं लोगों के बीच सहयोग की भावना परिलक्षित होती है। सुशासन के बारे में विश्व बेंक ने कहा कि ऐसा शासन, जिसमें राजनीतिक जवाबदेयता हो, जिसमें राजनीतिक व्यवस्था को लोगों द्वारा स्वीकारा जाए तथा नियमित चुनाव हो।
न्याय की प्रक्रियाओं में विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा पेशेवर समूहों की सहभागिता हो तथा संघ बनाने की स्वतंत्रता जनता को प्राप्त हो तथा मानवाधिकारों की रक्षा, सामाजिक न्याय की सुनिश्चितता, शोषण से बचाव एवं शक्तियों के दुरूपयोग को रोकने हेतु स्वतंत्र न्यायपालिका, विधि का शासन एवं सुव्यवस्थित वैधानिक तंत्र हो। सेवाओं की गुणवत्ता, अकार्यकुशलता तथा विवेकाधीन शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण हेतु सरकारी
अधिकारियों एवं प्रशासनिक संगठनों के लिए नौकरशाही की जवाबदेयता एवं नियंत्रण की व्यवस्था सुनिश्चित किया जाए, इसमें प्रशासनिक पारदर्शिता एवं खुलापन सम्मिलित हो। सरकारी नीतियों के निर्माण, निर्णयन, प्रबोधन एवं सरकारी निष्पादन के मूल्यांकन के संबंध में सूचना की स्वतंत्रता हो। इसमें सभ्य समाज में कार्यरत, विश्वविद्यालयों पेशेवर निकायों एवं अन्य संगठनों द्वारा किया जाने वाला स्वतंत्र विश्लेषण शामिल है यह दक्षता एवं प्रभावशीलता को जानने के लिए आवश्यक है। प्रभावशीलता का दायरा वैश्विक हो तथा प्रशासन स्वयं ही सुधारात्मक कदम उठाने में सक्षम हो। सभ्य समाज के संगठनों एवं सरकार के मध्य सहयोग हो वस्तुतः सुशासन की अवधारणा ई-गवर्नेस के साथ घुली-मिली है।
सुशासन का मुख्य बल इस तथ्य पर है कि सरकार विभिन्न आर्थिक क्षेत्रें में अपनी हस्तक्षेप को कम करे एवं निजी संगठनों को बढ़ावा दे। यह जनता को उपभोक्ता के नजरिये से देखने पर जोर देती है जबकि लोकतंत्र जनता को नागरिक के रूप में देखता है। स्पष्ट है कि लोकतंत्र एवं सुशासन में अंतर है। सरकार अब विभिन्न क्षेत्रें में लोक उपक्रमों की स्थापना करती है तो इसके पीछे मूलभावना लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना सुनिश्चित करना है मगर सुशासन की अवधारणा विनिवेशीकरण एवं निजीकरण तथा विनियंत्रण की नीति पर जोर देती है।
आज संपूर्ण विश्व में सुशासन एवं लोकतंत्र को लेकर व्यापक बहस फैली हुई है। एक तरफ विश्व बैंक, अंतरर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन आदि संस्थाएं सुशासन पर जोर देती हैं। वहीं अनेक गैर सरकारी संगठन सुशासन को लेाकतांत्रिक मूल्यों के प्रतिकूल मानते हुए इसका विरोध कर रहे हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि सुशासन के नाम पर अर्थशास्त्रियों ने पूरे सार्वजनिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों की क्षति होती है, अतः अर्थव्यवस्था सुचारू दम से चले एवं सही नीतियां बनाई जा सकें, इसके लिए लोकतंत्र की आवश्यकता है।
Question : उन्नीस सौ अस्सी के दशक से ‘राज्य के पश्च बेल्लन’ की संकल्पना का आगमन मानव समाज में लोक प्रशासन की भूमिका में परिवर्तन लाता रहा है, लेकिन निश्चित रूप से उसके केंद्रीय स्थान में कोई कमी नहीं लाता रहा है। चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : प्राचीन काल से ही लोक प्रशासन को अनेक प्रकार के कार्यों को संपन्न करना पड़ता रहा है क्योंकि कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में सरकार के क्षेत्र में निरंतर विस्तार हो रहा था।
लोक प्रशासन की भूमिका कल्याणकारी राज्य की स्थान के पहले लघु थी, इसका दायरा अत्यधिक सीमित था। प्राचीन समय में लोक प्रशासन राजस्व वसूली एवं कानून व्यवस्था तक ही सीमित था, लेकिन धीरे-धीरे लोक प्रशासन के क्षेत्र का विस्तार हुआ। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के लिए अनेक संस्थाओं का राष्ट्रीकरण किया गया। इसमें बैकिंग बीमा एवं नये-नये क्षेत्रें संस्थाओं की स्थापना हुई। समाजवादी ढांचे पर आधारित विकास को निश्चित करने के लिए कोटा परमिट-लाइसेंस प्रणाली का प्रारंभ हुआ, परंतु सरकार की वित्त व्यवस्था इस कारण बिगड़ गई क्योंकि लगातार खर्च बढ़ रहे थे।
ऐसी ही स्थिति में 1980 के दशक में कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में आर्थिक सुधारों की बाढ़ सी आई जो धीरे-धीरे संपूर्ण विश्व में छा सी गई। भारत में भी 1980 के दशक में ही आर्थिक सुधारों के संदर्भ में विचार होने लगे और 1990 तक आते-आते नवीन सुधारों को औपचारिक रूप से लागू भी कर दिया गया। नवीन सुधारों के अंतर्गत प्रशासन के विशाल दायरे को सीमित किया गया राज्य एवं सरकार की भूमिका में कटौती की गई। कोटा, परमिट, लाइसेंस राज का अंत हुआ, नौकरशाही को सकारात्मक, रचनात्मक, सहयोगात्मक और मददगार मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाह करना पड़ा, प्रशासनिक सुधार की ओर विशेष ध्यान दिया गया, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में निजी क्षेत्र की सहभागिता को बढ़ाया गया ताकि सार्वजनिक उपक्रमों में व्याप्त कमियों एवं असफलताओं की दूर किया जा सके। उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण की नीति को अधिकाधिक महत्व दिया गया, किंतु निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है इसलिए सार्वजनिक या लोक प्रशासन की आवश्यकता हर समय बनी ही रहती है, क्योंकि उसका उद्देश्य भी अर्जित करना होता है, जनता को शोषण से बचाने दंड विधान की स्थापना करने एवं निजी क्षेत्र पर नियंत्रण करने के लिए लोक प्रशासन की आवश्यकता बनी होने से उसके केंद्रीय मूल्य में कोई कमी नहीं आई है।
Question : ‘यद्यपि लोक और निजी प्रशासन के बीच समानता के कुछ बिंदु हैं, तथापि कोई भी निजी संगठन कभी-भी लोक संगठन के नितांत समान नहीं हो सकता है।‘
(2002)
Answer : प्रशासन का अस्तित्व अविभाज्य है एवं इसके मूल सिद्धांत हर संगठन पर चाहे वह लोक हो या निजी समान रूप से लागू होते हैं। यह मत लोक एवं निजी प्रशासन की स्पष्ट देखी जाने वाली योग्य समानताओं पर आश्रित है। लोक प्रशासन एवं निजी प्रशासन के क्रिया-कलापों को स्पष्ट रूप से अलग करना कठिन कार्य है, हालांकि सरकारी तंत्र द्वारा संपन्न क्रिया-कलाप को लोक प्रशासन कहा जाता है, किंतु कुछ निजी एजेंसियां भी इस तरह से कार्य करती हैं जो ठीक तरह से लोक सेवा या कल्याण अभिमुख कार्य होते हैं। उसी प्रकार सरकारी अधिकारी तंत्र द्वारा ऐसे कुछ काम किए जाते है जो एकदम निजी प्रकृति के हो सकते हैं। लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासनों में पद्धतियों और कार्य-प्रक्रियाएं लगभग समान होती हैं। लेखा, सांख्यिकी, कार्यालय और प्रक्रियाएं तथा स्टाक की जांच आदि ऐसी प्रशासन प्रबंध की समस्याएं हैं, जो लोक प्रशासन और निजी प्रशासन दोनों में समान होती हैं परंतु इन दोनों प्रशासनों में जितनी भी समानता है, पर लोक प्रशासन एवं निजी प्रशासन में बुनियादी अंतर है। अंतर का प्रमुख कारण एकरूपता एवं पक्षहीनता उत्तरदायित्व और सेवा क्षमता के क्षेत्र हैं।
लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन में पूर्ण तथा भिन्नता नहीं है परंतु कुछ मात्रत्मक भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। लोक प्रशासन एवं निजी प्रशासन स्थूल रूप से समान हैं, लोक प्रशासन एवं निजी प्रशासन में नियोजन, संगठन, स्टाफिंग , निर्देशन, समन्वय, नियंत्रण, रिर्पोटिंग और बजटिंग की क्रिया अपनाई जाती है। लोक प्रशासन की क्रिया सरकार की नीति या लक्ष्य के अनुसार होती है। यह राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित या जनकल्याण आर्थिक राष्ट्रीय या अंतरर्राष्ट्रीय नीति के परिप्रेक्ष्य में होती है। लक्ष्यों को ध्यान में रखकर सरकार नियोजन करती है, नियोजन के अनुसार मानवीय संगठन और भौतिक संगठन का सृजन किया जाता है व लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के अनुरूप निर्देशन, प्रेरणा, समन्वय रिपोर्टिंग और सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है, साथ ही लक्ष्य के अनुरूप बजट तैयार किया जाता है।
निजी प्रशासन में लक्ष्य एवं उद्देश्य सामान्यतः आर्थिक ही होता है। लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन में समन्वय होने के साथ असमानताएं भी होती हैं, जो कि नियोजन स्तर से लेकर बजट के स्तर तक दिखाई देती है। जहां लोक प्रशासन में नियोजन का उद्देश्य व्यापक होती है, वहीं निजी प्रशासन का उद्देश्य आर्थिक होता है। लोक प्रशासन में निर्देशन विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। वित्त का ड्डोत जनता होती है, जबकि निजी प्रशासन में निर्देशन का कार्य संचालन मंडल के द्वारा होता है। वित्त का ड्डोत स्वयं के साधन होते है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि दोनों प्रशासन निरपेक्ष रूप से समान नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों के उद्देश्यों का स्रोत, क्षेत्र, प्रकृति, स्वरूप, आकार, स्थिति दायित्व, कार्यकरण, कुशलता, वित्त प्रशासन, जवाबदेयता से भिन्न होती है, इसलिए लोक व निजी प्रशासन नितांत समान नहीं हो सकते।
Question : ‘शासन का विज्ञान मापनीय वस्तुओं इकाइयों का तत्वों के बीच निश्चर संबंधों का वर्णन करने वाले औपचारिक कथनों का एक समूह होगा। निर्विवाद रूप से, प्रशासनिक अनुसंधान ने मूर्त स्थितियों पर लागू होने वाले निश्चित प्रत्यक्षों और परिकल्पनाओं का सृजन किया है।‘ (फ्रटस मौर्सटाइन मार्क्स)
(2000)
Answer : आज के वैज्ञानिक युग में इस बात पर होड़ सी लगी है कि हर विषय को वैज्ञानिक तरीकों द्वारा सिद्ध किया जाए क्योंकि विज्ञान का दर्जा प्राप्त कर लेने पर संबंधित विषय अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है। इसी संदर्भ में किसी शास्त्र में तत्संबंधी सिद्धांतों के समूह का अस्तित्व उसे विज्ञान की संज्ञा प्राप्त करने का अधिकारी बना देता है।
विज्ञान किसी विषय से संबंधित उस ज्ञान राशि को कहते हैं जो विधिवत् पर्यवेक्षण, अनुभव एवं अध्ययन के आधार पर प्राप्त की गई है एवं जिसके तथ्य परस्पर क्रमबद्ध और वर्गीकृत किए गए हों। विज्ञान अनुसंधान की एक पद्धति है, इस विषय के अध्ययन के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक है- (1) पर्यवेक्षण (2) वर्गीकरण (3) सारणीकरण (4) अनुसंधान (5) प्राक्कल्पना (6) सहसंबंध (7) यथार्थता (8) पूर्वानुमान तथा (9) निष्कर्ष।
उपरोक्त लक्षणों में से कई लक्षण लोक प्रशासन में होते हैं परंतु अभी इन लक्षणों का पूर्णविकास नहीं हो पाया है। विज्ञान में नैतिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं है जबकि लोक प्रशासन में नैतिक मूल्यों को पूरी तरह से नहीं त्यागा जा सकता है। लोक प्रशासन का संबंध मानव व्यवहार से है और मानव व्यवहार में एकरूपता नहीं पाई जाती है, जबकि वैज्ञानिकों के प्रयोगी और तथ्यों के परिणाम एक समान होते हैं। लोक प्रशासन के सिद्धांत भौतिक तथा रासायन विज्ञान के समान अटल नहीं होते हैं। लोक प्रशासन में कोई भी ऐसा सिद्धांत नहीं है, जिसके विरूद्ध कोई दूसरा सिद्धांत न हो। पर्यवेक्षण एवं परीक्षण दोनों ही विज्ञान के आधारभूत सिद्धांत माने जाते हैं। लोक प्रशासन इन शर्तों को पूरा नहीं करता है। लोक प्रशासन ऐसा विज्ञान है, जो भौतिक एवं रसायन विज्ञान की तरह न होकर एक सामाजिक विज्ञान है। लोक प्रशासन एक विकासशील विषय है और इसमें अभी भी बहुत संभावनाएं विद्यमान हैं। आज के संदर्भ में प्रशासन के कई कार्य कंप्यूटर, गतिहीन पद्धति, सांख्यिकीय आदि पर आधारित है। अतः एफ.ए. मार्क्स का यह कथन निर्विवाद रूप से, प्रशासनिक अनुसंधान ने मूर्त स्थितियों पर लागू होने वाले निश्चित प्रत्यक्षों और परिकल्पनाओं द्वारा सृजन किया गया है, सत्य है।
Question : अपने स्वयं के मूल्यों और आवश्कताओं में अन्दर झांकने के बजाय, एशियाई देशों ने बाहर को ओर देखा।
(1999)
Answer : अधिकांश एशियाई देश औपनिवेशिक दासता के शिकार रहे। जब इन देशों को आजादी प्राप्त हुई तब उन्होंने अपने ऊपर आरोपित व्यवस्था को तथा विकसित देशों में चले आ रहे नियमों, कानूनों तथा परंपराओं को अपना लिया। हालांकि इनमें से अधिकांश की जरूरतें तथा आवश्यकताएं भिन्न थीं। इन देशों ने अपने परंपराओं कानूनों, रीतिरिवाजों तथा प्रशासनिक परिस्थिति की पूर्ण अवहेलना की।
तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में, जिसमें वे देश भी शामिल हैं जो कि पश्चिम उपनिवेशवाद से बच गए थे, उन्होंने भी जान बूझकर ही आधुनिक पश्चिम नौकरशाही प्रशासन को अपनाया है। जबकि लोक प्रशासन का उत्तरदायित्व उन देशों में और भी अधिक है जिनका आर्थिक, राजनीतिक एवं शैक्षणिक स्तर निम्न एवं पिछड़ा हुआ है। विकासशील देशों में प्रशासन का कार्य नकारात्मक नहीं है, वरन् वह सृजनात्मक भी है। यदि प्रशासन आम नागरिकों के लिए अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने में असफल रहा तो इन देशों में जनजीवन सुरक्षित नहीं रह सकता।
विदेशी शासन के समय यहां कुछ राजनैतिक संस्थाओं का श्रीगणेश किया गया। फलतः स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ये देश सामान्तवादी देशों जैसा प्रशासन अपनाने लगे जबकि जबकि किसी प्रशासनिक कार्यालय का संगठन, नागरिक सेवकों को स्थिति और समग्र प्रशासनिक रूप रचना के समय अपनिवेशवादी शक्ति व्यवहार के रूप में आदर्श माना जाता है। पराधीनता के समय ब्रिटिश उपनिवेशों में कार्यरत प्रशासन अधिक विशिष्ट व्यक्तियों का सत्तावादी, पैतृक तथा जनता से दूर था। वह सम्बन्धित देश के हित में न होकर उपनिवेशवादी सरकार के अनुकूल था। स्वतन्त्रता के बाद इन देशों की नई सरकारों ने इसी प्रशासन को आवश्यक समझा। अतीतकालीन प्रशासन को नवीन परिस्थितियों में विकास के लक्ष्य पूरे करने का दायित्व सौंप दिया गया।
लोक प्रशासन का उत्तरदायित्व उन देशों में और भी अधिक है जिनका आर्थिक, राजननीतिक एवं शैक्षिक स्तर निम्न एवं पिछड़ा हुआ है। वस्तुतः इन देशों में लोक प्रशासन का स्वरूप इनके सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश के अनुकूल होना चाहिए था परन्तु यथार्थ में ऐसा नहीं हुआ। कोई भी योजना, नीति, कानून आदि का क्रियान्वयन तभी सफल हो सकता है एवं अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है, जबकि वे पूरी तरह सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेश के अनुसार हो। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि परिस्थितियोंवश एशियाई देशों में विकसित देशों की प्रशासनिक संस्कृति का अनुकरण किया।
Question : प्रशासन का विषय क्षेत्र सरकार के प्रकार्यों के विषय क्षेत्र से निर्धारित होता है, जो कि राजनीति के द्वारा निर्णीत होता है।
(1998)
Answer : प्रशासन का विषय क्षेत्र सरकार के प्रकार्यों के विषय क्षेत्र से निर्धारित होता है, जो कि राजनीति के द्वारा निर्धारित होता है इस कथन के परिप्रेक्ष्य में राजनीति एवं प्रशासन का अंतर एवं इसमें परस्पर संबंध का संज्ञान आवश्यक है। वुडरो विल्सन और फ्रैंक जे- गुडनो के मतानुसार राजनीति एवं प्रशासन अलग-अलग हैं। यदि इसमें परस्पर संबंध रखा जाएगा तो सरकार के कार्य पर राजनीति का प्रभाव पड़ने के विध्वंसकारी परिणाम उत्पन्न होंगे। इन विद्वानों के मतानुसार राजनीति का संपर्क नैतिक मूल्यों पर आश्रित था और प्रशासन का सरकारी कार्य करने की पद्धति और तकनीकों पर आश्रित था।
तथ्यों का संग्रह एवं विश्लेषण करना, निष्कर्ष निकालना, नीतियों का निरूपण करना एवं इन्हें विधान मंडल के लिए प्रस्तुत करना प्रशासन का प्रमुख कार्य है। जनता की इच्छाओं का पता लगाकर उनकी ओर निर्णय करना विधान मंडल का कार्य होता है। प्रशासन के प्रथम भाग के कार्यों की समाप्ति के बाद विधान मंडल का क्षेत्रधिकार आरंभ होता है। जब जनता की सर्वोच्च परिषद प्रशासन द्वारा निरूपित नीति का अनुमोदन कर देती है, तब राजनैतिक एवं वित्तीय उत्तरदायित्वों का निष्पादन करना प्रशासन का मूलभूत कर्त्तव्य होता है। एक सीमा तक सरकार के इन दोनों अंगों का परस्पर संबंद्ध होना अत्यावश्यक भी है। परस्पर संबंद्धता का विस्तार राजनीति एवं प्रशासन के परस्पर संबंधों को आलोकित करता है, परस्पर संबद्धता का विस्तार प्रत्येक व्यक्ति को परिषद् तथा प्रबंधक के क्रमिक कृत्यों एवं उत्तरदायित्वों के बोध का संज्ञान और राजनीति एवं प्रशासन की अंतरंग एवं बाह्य दबावों को निष्क्रिय करने की सापेक्षता पर निर्भर है। अतः नीति निरूपण को नीति नियंत्रण से अलग परिप्रेक्ष्य में देखना संभव नहीं है।
मूलतः लोक प्रशासन का उद्देश्य एवं प्रकृति राजनीतिक है। अतः इसके लिये लोकहित की उपेक्षा नहीं की जा सकती। समस्त प्रशासकीय इकाई राजनीतिक जीवाणु के रूप में सक्रिय रहते हैं। प्रशासन राजनीति की ही प्रतिकृति प्रतीत होती है। वस्तुतः राजनीति एवं प्रशासन एक दूसरे से संगुम्फित हैं।
प्रशासन देश की राजनीति का एक सबल अंग होता है। प्रशासकीय संगठन राजनैतिक परिस्थितियों की परिवर्तनशीलता पर अवलम्बित होता है। लोककल्याणकारी राज्य में लोक प्रशासन का उद्देश्य जनसेवा ही होता है, इसीलिए भारत जैसे लोककल्याणकारी राज्य में लोकसेवा के कार्यों में अत्यधिक वृद्धि देखी गई है। लोक प्रशासन का मूल चरित्र राजनीति में इसलिए संलिप्त होता है, क्योंकि उसको कार्यादेश राजनैतिक कार्यपालिका से ही प्राप्त होता है और प्रशासन राजनैतिक आदेश को व्यावहारिक रूप प्रदान करता है।
वस्तुतः राजनीति एवं प्रशासन की पृथकता अकल्पनीय है प्रशासन विधि द्वारा निर्मित नीति को क्रियान्वित करने का माध्यम है, अतः प्रशासन व राजनीति की अन्योन्याश्रियता हो ही नहीं सकती। लोक प्रशासन नीति का निर्माण करके उसे परिचालित करने का यत्न करता है। प्रदत्त व्यवस्थापन के कारण प्रशासन और राजनीति में निकटता आने लगी है। जिससे प्रशासन एवं राजनीति का पृथक्करण अतीत की बात हो चुकी है। अतः यह कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन और राजनीति एक नदी और उसके तट के समान हैं। तट और नदी की भांति दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। राजनीतिक विचार एवं संस्थाओं की पृष्ठभूमि में ही लोक प्रशासन कार्यरत रहता है, अतः राजनीतिक सत्ता ही प्रशासन की चालक शक्ति है और प्रशासकों का कार्यक्षेत्र नीतियों के निर्माण के लिये तथ्य एवं सूचनाएं जुटाने, सुझाव देने, आलोचनाएं करने तथा उनके निर्माण के पश्चात् उन्हें क्रियात्मक रूप प्रदान करना ही चाहिए। प्रशासनिक विकास को राजनीतिक शून्य के परिप्रेक्ष्य में देखना असंभव है। योजना का निर्माण सरकार द्वारा प्राथमिकता के आधार पर जनता के कल्याणार्थ किया जाता है। प्रशासन इन योजनाओं को कार्यरूप प्रदान करता है। मूलतः लोक प्रशासन का अर्थ सरकार द्वारा स्थापित लोकहित के कार्यों को करना होता है।
उपयुक्त विवेचन से यह सुस्पष्ट है कि प्रशासन का विषय क्षेत्र सरकार के निर्णयों पर अवलम्बित होता है, जो कि राजनीति द्वारा निर्णीत किया जाता है। सरकार के कार्यों के विषय क्षेत्र का परिवर्तन प्रशासन को भी परिवर्तित कर देता है। अतः स्पष्ट है कि प्रशासन को भी परिवर्तित कर देता है, अतः स्पष्ट है कि प्रशासन का विषय क्षेत्र का सीधा संबंध सरकार के प्रकार्यों के विषय क्षेत्र से ही निर्धारित होता है और राजनीति और प्रशासन का विषय क्षेत्र एक दूसरे से गुंथा हुआ है। प्रशासनिक कार्यों को राजनीतिक साधनों द्वारा बनाई गई नीतियां के कार्यान्वयन के स्वरूप में ही देखना सम्यक है।
Question : ‘1968 मिन्नोब्रूक सम्मेलन (पहले सम्मेलन के 20 वर्ष बाद) में विकसित विषयों के अधिकतर दृष्टि केंद्र लोक प्रशासन के क्षेत्र में वर्तमान और भावी संदृष्टियां रहे हैं।‘ समझाइये।
(1998)
Answer : सन् 1968 के बाद लोक प्रशासन के अध्ययन-क्षेत्र में नए विचारों का सूत्रपात हुआ। इन विचारों को नवीन लोक प्रशासन को संज्ञा दी गयी।
लोक प्रशासन के परंपरागत सिद्धांत में ‘मितव्ययिता और कार्य कुशलता’ अपर्याप्त प्रतीत होने लगे थे। समाज में सामाजिक समस्याओं का व्यापक स्तर पर जन्म हो रहा था, अतः लोक प्रशासन जगत को नए सिद्धांतों व विचारों की आवश्यकता महसूस होने लगी, अतः नये विचारकों की इस क्षेत्र में अपना विचार व्यक्त करने हेतु बुलाया गया। जिसके फलस्वरूप नवीन लोक प्रशासन पुराने एवं नये विचारों के मध्य समन्वय स्थापित करने का युवा प्रयास है। युवा विचारों के द्वारा नवीन लोक प्रशासन के क्षेत्र को व्यापक बनाया गया। संपूर्ण शासकीय प्रक्रिया कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायांग को लोक प्रशासन के अंतर्गत सम्मिलित किया गया। लोक सेवा शिक्षा संबंधी राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की गई।
लोक प्रशासन के इस नवीन रूप को कुछ विद्वानों ने वही माना तथा कुछ ने इसे प्रशासन व कुछ ने इसे समाज का अंग माना। कुछ विद्वानों ने लोक प्रशासन को महज बौद्धिक चिंतन का केंद्र माना तो कतिपय विद्वानों ने उसे मात्र प्रक्रिया माना। परंतु गेट घोटाले के तुरंत बाद लोक प्रशासन के विचारकों में एक नयी जागृति आई, जिसे नवीन लोक प्रशासन आंदोलन का नाम दिया गया।
सन् 1971 में मेरीनी की रचना ‘टूवार्ड ए न्यू पब्लिक- ऐडमिनिस्ट्रेशनः मिन्नोब्रुक पर्सपेक्टिव’ के प्रकाशन के बाद ही नवीन लोक प्रशासन को मान्यता दी गई। यह पुस्तक 1968 में आयोजित मिन्नोब्रुक सम्मेलन के निष्कर्षों पर आधारित है। मिन्नोब्रुक का सम्मेलन (1968) लोक प्रशासन की युवा पीढ़ी का सम्मेलन था, जिसके उपरांत ही नवीन लोक प्रशासन की नींव पड़ी। यह सत्य है कि नवीन लोक प्रशासन के वास्तविक जनक का श्रेय 1968 के मिन्नोब्रुक सम्मेलन को जाता है परंतु यह मानना ही पड़ेगा की नवीन लोक प्रशासन का बीजारोपण बहुत पहले हो गया था। नवीन लोक प्रशासन के उदय और विकास में निम्नलिखित घटनाएं मील का पत्थर साबित हुईं-
(1)1967 का हनी प्रतिवेदन जो की सार्वजनिक सेवाओं संबंधी उच्च शिक्षा का प्रतिवेदन था।
(2)1967 में जे. सी. चार्ल्सबर्थ की अध्यक्षता में सिद्धांत एवं व्यवहार सम्मेलन आयोजित हुआ। इसमें लोक प्रशासन के दर्शन पर लंबी बहस हुई।
(3)1968 में मिन्नोब्रुक सम्मेलन के आयोजन में युवा विचारों को महत्व दिया गया।
(4)मिन्नोब्रुक सम्मेलन द्वारा प्रस्तुत नव लोक प्रशासन संबंधी विचारों को संयोजित कर मेरीनी एवं वाल्डो ने नवीन लोक प्रशासन पर पुस्तक की रचना की। ये दोनों रचनाएं लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र में नए क्षितिज का उद्घाटन करने में मील का पत्थर साबित हुईं। मिन्नोब्रुक सम्मेलन में ही नवीन लोक प्रशासन का जन्म हुआ। 1967 में फिलाडोल्फिया (यू.एस.ए.) में लोक प्रशासन के सिद्धांत एवं व्यवहार संबंधी विषय पर सम्मेलन निष्कर्षों का 1968 के मिन्नोब्रुक सम्मेलन का पथ प्रदर्शक माना जाता है क्योंकि इसमें भाग लेने वाले अधिकांश युवा थे। मिन्नोब्रुक सम्मेलन के परिणामों ने ‘नवीन लोक प्रशासन’ को जन्म दिया, क्योंकि लोक प्रशासन क्षेत्र में जो अभिनव मत और विचार प्रस्तुत किए गए थे उन पर खुलकर वाद-विवाद हुआ।
नवीन लोक प्रशासन के समर्थक लोक प्रशासन की प्रचलित अवस्था से संतुष्ट नहीं थे। वे उथल-पुथल के काल में लोक प्रशासन से यह अपेक्षा करते थे कि वह सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक हो। नए लोक प्रशासन के समर्थक मूल्यों के निरपेक्ष शोध प्रयासों के परित्याग पर अधिक बल दिया गया। इन प्रयासों के द्वारा निम्न निष्कर्ष सामने आए।
नव लोक प्रशासन की सर्वोपरि विशेषता इस बात में है कि वह सामाजिक समस्याओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो।
समाज में प्रशासन की क्या भूमिका होनी चाहिए, यह पूरी तरह से मूल्य परिपेक्ष हो अथवा नीतियां एवं विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हो।
इस प्रश्न पर भी विचार किया गया कि यदि प्रशासक किसी नीति, विचार या मूल्य से प्रतिबद्ध है, तो वह क्या करता है अथवा क्या करेगा?
इसी सम्मेलन में नवीन लोक प्रशासन के प्रमुख तत्वों को बताया गया, जैसे - संदर्भ, सदाचार, नीति शास्त्र एवं मूल्य, नवीनता तथा मौलिकता, सामाजिक एकता तथा संबंधित व्यकितयों की चिंता आदि।
नवीन लोक प्रशासन को सामाजिक समस्याओं के प्रति जागरूक एवं चिंतनशील होना चाहिए।
समाज के कमजोर वर्गों तथा पिछड़े वर्गों के प्रति नवीन लोक प्रशासन को उदासीन नहीं रहना चाहिए, यह सामाजिक न्याय की मांग है।
लोक प्रशासकों को परंपरागत लीक से हटकर परिवर्तन के सक्रिय ऐजेंट के रूप में सामने आना चाहिए।
नवीन लोक प्रशासन मूल्यहीन और मूल्यनिरपेक्ष शोध प्रयासों के पक्ष में नहीं है।
आज के तेजी से बदलते वातावरण के अनुरूप संगठन के नए रूपों का विकास किया जाना चाहिए।
नवीन लोक प्रशासन को जन-कल्याण कार्यक्रमों के प्रति निष्ठा होनी चाहिए।
मिन्नोब्रुक सम्मेलन 1968 ने परंपरागत विचारों की कमजोरियों को सामने ला कर लोक प्रशासन का व्यवस्थित व्याकरण प्रस्तुत किया और लोक प्रशासन की वर्तमान शोचनीय अवस्था पर स्पष्ट रूप से प्रकाश डाला। इस सम्मेलन ने लोक प्रशासन को एक नई दिशा दी और उसे सुधारवादी प्रवृत्ति की ओर मोड़ा। इसीलिए यह सम्मेलन लोक प्रशासन के विकास की दृष्टि से मुख्य सीमा चिह्न कहा जा सकता है।
मिन्नोब्रुक सम्मेलन 1968 ने लोक प्रशासन को एक दिशा की ओर अग्रसर किया था, लेकिन मिन्नोब्रुक सम्मेलन 1968 में निकाले गए निष्कर्ष आज के तेजी से बदलते वातावरण के अनुरूप पूर्णतया प्रासंगिक नही थे, अतएव 1988 में मिन्नोब्रुक में एक ओर सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में वर्तमान एवं भावी संदृष्टियों पर विचार किया गया। इस सम्मेलन के विचारकों को मत था कि परंपरागत प्रशासनिक व्यवस्था को बनाए रखने वाला यथास्थितिवादी पूंजीवाद का रक्षक है, अतः सुधारवादी संगठनात्मक सिद्धांत की आवश्यकता है। आज लोक प्रशासन में आधुनिकता की लहर दौड़ रही है और इसका नौकरशाही जुल्मों से मुक्त करने तथा स्वतंत्र-बाजार के पक्ष में करने की है। यह सोपान व्यवस्था कर्मचारियों के व्यक्तियों को समाप्त कर देती है ताकि उनके विकास अवरूद्ध हो जाए। यह नई विचारधारा पद सोपान की लड़ाई से कर्मचारियों को मुक्त करना चाहती है।
मिन्नोब्रुक सम्मेलन ने लोक प्रशासन की एक नई छवि प्रदान की एवं सुधारवादी प्रवृत्ति की तरफ अग्रसर किया। प्रशासकों को परिवर्तन के सक्रिय एजेंट के रूप में कार्य करने का उद्बोधन दिया गया। मिन्नोब्रुक सम्मेलन इसी सुधारवादी प्रवृत्ति का विस्तार था। वर्तमान समय में नौकरशाही की बढ़ती प्रवृत्ति से सभी परेशान है, लालफीताशाही का प्रचलन बढ़ा है। इस कारण आधुनिक समय में इसे परिवर्तित करने की जरूरत है ताकि भविष्य में नौकरशाही के जुल्मों से बचा जा सके। पुर्निवेषण सरकार द्वारा उठाया गया साहसिक कदम है।