Question : "प्रशिक्षण न केवल कर्मचारियों की दक्षता और प्रभाविता के लिए अत्यावश्यक होता है, बल्कि उनकी अंतर्दृष्टि को विस्तार प्रदान करने के लिये भी अत्यावश्यक होता है।" इसको तर्कों द्वारा सिद्ध कीजिये।
(2007)
Answer : किसी भी कार्य की सफलता उसके कर्मचारियों की योग्यता पर ही अवलम्बित होती है। कर्मचारी ही संगठन के लक्ष्यों को भलीभांति समझते हैं एवं उसके लक्ष्यों को पूरित का प्रयास भी करता है, अतः संगठन में योग्य कर्मचारियों का होना अत्यावश्यक है। संगठन के कार्यों में भिन्नता होती है, अतः यह परमावश्यक है कि संगठन के कार्मिकों की अंतदृष्टि भी व्यापकता ग्रहण करे। आधुनिक तकनीकी युग में नित नवीन तकनीकों को परिचालित किया जा रहा है, अस्तु प्रशिक्षण की उपादेयता आज भी प्रासंगिक है।
सामान्यतः किसी भी सेवा हेतु चयनित प्रत्याशियों को परिवीक्षाधीन परिस्थितियों में कार्यरत रहना पड़ता है। इस परिवीक्षाधीन काल में चयनित अभ्यर्थी एक निश्चित अवधि के लिए प्रशिक्षण पाठयक्रम ग्रहण करना अनिवार्य होता है। अतः परिवीक्षाकाल में सामान्यतः चयनित प्रत्याशियों को चयन के क्षेत्र से संदर्भित विषयों का सामान्य ज्ञान प्रदान किया जाता है और प्रशिक्षण उपरान्त अधिगम का स्तर जानने के लिए परीक्षा होती है। कई सेवाओं में चयनित प्रत्याशियों के लिए चरणबद्ध प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। जिसके प्रथम चरण में सैद्धांतिक एवं द्वितीय चरण में कार्य व्यवहार से सम्बन्धित क्षेत्रें के संदर्भ में बताया जाता है। प्रत्याशी को चयनित सेवा के कार्य से संदर्भित सभी गहन बातों से परिचित कराया जाता है।
कार्य व्यवहार की प्रणाली व उसके क्षेत्रों को भी द्वितीय चरण में ही बताया जाता है। कार्यक्षेत्र की सामान्य भाषा का ज्ञान भी इसी चरण में प्रदान किया जाता है।
इसके बाद कुछ समय के लिए चयनित प्रत्याशियों को किसी अधिकारी जो कि कार्य क्षेत्र से सम्बन्धित हो, के साथ सम्बद्ध कर दिया जाता है। क्रियात्मक प्रशिक्षण के दौरान चयनित प्रत्याशी को मूल प्रशिक्षण संस्थान से सम्पर्क बनाये रखना होता है और निरन्तर उसकी प्रगति रिपोर्ट प्रशिक्षण संस्थान को सक्षम अधिकारी द्वारा भेजी जाती है। इस क्रियात्मक प्रशिक्षण के बाद चयनित प्रत्याशी पुनः प्रशिक्षण संस्थान पहुंचता है और उसे फीड बैक प्रशिक्षण एक निश्चित अवधि के लिए प्रदान किया जाता है। इस फीड बैक प्रशिक्षण में क्रियात्मक प्रशिक्षण में आई समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जाता है और उनका समाधान ढूंढा जाता है। सम्पूर्ण प्रशिक्षण के उपरान्त चयनित प्रत्याशियों को एक परीक्षा देनी होती है, जिसका संचालन संदर्भित विभाग/संस्था या नियुक्ति प्राधिकारी द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त सेवाकालीन प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाता है। सेवाकालीन प्रशीक्षण के समय उन्हें सार्वजनिक महत्व के विषयों यथा पर्यावरण प्रबन्ध, प्रबन्ध नियंत्रण, उन्नत कम्प्यूटर आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है।
उपरोक्त विवरण से यह सुस्पष्ट है कि प्रशिक्षण न केवल कार्मिको की दक्षता और प्रभाविता के लिए आवश्यक है वरन् उनकी अंतर्दृष्टि को विस्तार प्रदान करने के लिए भी अत्यावश्यक है।
Question : मानव संबंध आंदोलन ने कार्मिक प्रकाशन (Personnal Administration) के क्षेत्र में किस सीमा तक ज्ञान एवं रीति में योगदान दिया है।
(2006)
Answer : 1920-29 ई. के अंतिम वर्षों एवं 1930-39 ई. के प्रारंभिक वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका में हाथोर्न प्रयोग हुये थे। इन प्रयोगों के फलस्वरूप संगठन की स्थानीय या यांत्रिक विचारधारा को धक्का लगा ओर उसकी लोकप्रियता कम हो गयी। इन प्रयोगों के निष्कर्ष अत्यंत मौलिक थे। हॉथोर्न प्रयोगों ने यह सिद्ध किया कि मनुष्य एकाकी प्राणी नहीं है, अपितु वे अपने ढंग से पर्यावरण के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, प्रथम प्रयोग में उचित रोशनी के अतिरिक्त अन्य प्रेरक चरों के प्रति उचित प्रतिक्रिया व्यकत की गयी थी। इन अध्ययनों ने यह सिद्ध किया कि संगठन एक सामाजिक प्रणाली है। हॉथोर्न प्रयोगों के परिणामस्वरूप कर्मचारियों के काम और निरीक्षण के प्रति आश्चर्यजनक निष्कर्ष प्रकाश में आये थे। यह भी पता चला कि कर्मचारियों में अपने सामाजिक स्तर, व्यावहारिक आचरण, विश्वासों और उद्देश्यों के आधार पर जो एक-दूसरे से भिन्न और परस्पर विरोधी हो सकते हैं, उनमें लघु सामाजिक समूहों के संगठन की प्रवृत्ति पायी जाती है। ये निष्कर्ष सर्वथा मौलिक थे और इसके परिणामस्वरूप संगठन में मुख्यतः कार्मिक प्रशासन के संबंध में नर्वस मानव विचारधारा का उदय हुआ।
स्मरणीय है कि शास्त्रीय विचारधारा औपचारिक संगठन का समर्थन करती है। इसके विपरीत मानव संबंध विचारधारा अनौपचारिक संगठन पर बल देती है। रॉथलिसबर्जर के शब्दों में, "हम अधिकांशतः मानवीय समस्याओं का समाधान गैर-मानवीय उपकरणों द्वारा गैर-मानवीय तथ्यों और आंकड़ों के संदर्भ में करते हैं। यह सामान्य मत है कि मानवीय समस्याओं का मानवीय समाधान होना चाहिए।
प्रथम, हमें देखते ही मानवीय समस्या को समझ जाना चाहिये ओर द्वितीय उसे समझने के बाद उसे उसी रूप से हल करना सीखना चाहिये, न कि अन्य प्रकार से। मानवीय समस्या के मानवीय समाधान के लिये मानवीय तथ्य या आंकड़े तथा मानवीय उपकरणों की आवश्यकता होती है। मानव संबंध विचारा का सार इसमें है कि इसके द्वारा मनुष्यों, मानवीय प्रेरणाओं और शास्त्रीय विचारधारा के अनुरूप सिद्धांतों की अपेक्षा अनौपचारिक समूह कार्य-पद्धति पर विशेष बल दिया जाता है। यह विचारधारा औपचारिक संस्थागत स्वरूप को अस्वीकार करती है और इसके स्थान पर संगठन की दिन-प्रतिदिन की अनौपचारिक कार्य प्रणाली को महत्व देते हैं। इस विचारधारा की मान्यता है कि संगठनात्मक व्यवहार काफी जटिल होता है और उसमें कार्यरत व्यक्तियों पर विभिन्न दिशाओं से व्यापक प्रभाव पड़ता है। अतः संगठनात्मक समस्याओं के विश्लेषण और समाधान के लिये मनुष्य की बहुपक्षीय प्रकृति का ज्ञान परमावश्यक है।
अतः मानव संबंध उपागम कार्मिक प्रशासन को प्रभावी बनाने के लिये कई उपाय सुझाता है, इसके अनुसार किसी उद्योग या व्यवसाय में मानवीय संबंधों को सुधारने हेतु उसकी विचारधारा को आधारभूत दर्शन के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये।
मानवीय संबंधों का प्रत्यक्ष संबंध आवश्कताओं की संतुष्टि से है। इसके लिये केवल शारीरिक आवश्यकताओं की संतुष्टि ही यथेष्ट नहीं हैं वरन् सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं का उपलब्ध होना मानवीय संबंधों के लिये नितांत आवश्यक है, अतः मानवीय संबंधों के लिय उचित वातावरण उसी स्थिति में निर्मित हो सकता है जबकि कार्य का वातावरण उपयुक्त हो तथा वित्तीय एवं अवित्तीय उत्प्रेरणायें प्रत्येक व्यक्ति को मिलती रहे।
मानवीय संबंधों को बनाये रखने के लिये पुरानी मान्यताओं और मूल्यों को समाप्त करके कार्य तथा व्यक्तियों के अंतर्सबंधों के प्रति नये दृष्टिकोण को अपनाना चाहिये। मशीन के स्थान पर व्यक्ति को महत्व देने पर, उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति करने पर, उसकी अहम् भावना को मान्यता देने पर कर्मचारी अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को निभाने के लिये तत्पर होंगे। यह नयी विचारधारा प्रत्येक प्रबंध को स्वीकार कर लेनी चाहिये। उन्हें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि श्रम संघ तथा उनके अन्य समूह मानवीय संबंधों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
किसी भी संस्था में उचित मानवीय संबंधों का निर्माण उसी समय किया जा सकता है, जबकि उसमें श्रमिकों की शिकायतों एवं परिवेदना के निवारण की उचित व्यवस्था हो। अतः उचित मानवीय संबंधों के लिये इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिये। ऐसी व्यवस्था होने पर कर्मचारियों की शिकायतें एवं उनकी कठिनाइयां समय पर दूर की जायेंगी।
बिना संप्रेषण के मानवीय संबंध असंभव है अतएव संस्था में उचित संप्रेषण व्यवस्था होने पर ही प्रबंधक और कर्मचारियों के मध्य विचारों का आदान-प्रदान संभव हो सकता है।
संस्था के कर्मचारियों में आत्मसंतोष की भावना जागृत करने के लिए उस भावना को बल प्रदान करने के लिये कि वे संस्था के अंग हैं, यह आवश्यक है कि उनसे कार्य को अधिक कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिये अथवा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के संबंध में सुझाव देने की व्यवस्था की जानी चाहिए। इससे न केवल कर्मचारियों को यह संतोष प्राप्त होगा कि वे संस्था की क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं बल्कि संस्था का भी उन सुझावों के माध्यम से कर्मचारियों के विचारों की जानकारी प्राप्त होती रहेगी।
अच्छे मानवीय संबंधों के निर्माण के लिये प्रबंध में कर्मचारियों को भागीदार बनाना भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है। औद्योगिक लोकतंत्र की विचारधारा में कर्मचारियों की प्रबंध में सहभागिता पर अधिक बल दिया गया है। इससे कर्मचारी प्रबंध को अपना प्रबंध समझते हैं और उनमें संस्था के प्रति अपनेपन की भावना का विकास होता है। कर्मचारियों को संस्था में विकास के अवसर उपलब्ध होने चाहिये। जब संस्था में कर्मचारी को पदोन्नति प्रशिक्षण आदि की उचित अवसर उपलब्ध होते हैं, तो उसकी कुछ मानसिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है। वह अधिक संतोष प्राप्त करता है और संस्था के मानवीय संबंध सुदृढ़ होते हैं।
अतः यह सत्य है कि अच्छे मानवीय संबंध किसी भी संगठन को सुचारू रूप से संचालित होने के लिये अत्यंत आवश्यक हैं। यह आदर्श यदि संगठन में पालित किया जाये तो लक्ष्यों की समय पर प्राप्ति होना तय है, इसलिये यह आवश्यक है कि संगठन की संरचना, रेखीय तथा स्टाफ व्यवस्था, उचित नेतृत्व का विकास, कार्य सम्पन्नता स्वास्थ्य संबंधी घटकों तथा उत्प्रेरकों को दृष्टिगत् रखना, पारितोषक व्यवस्था आदि कुछ ऐसी व्यवस्थायें हैं, जिनमें कर्मचारियों में संस्था के प्रति अपनत्व की भावना जागृत की जा हो सकें साथ ही उनके मनोबल को बढ़ाया जा सकता है तथा उन्हें संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति में ही अपने हितों की सुरक्षा होने की आशा में वृद्धि की जा सकती हैं।
इन व्यवस्थाओं के होने पर ही कर्मचारियों में यह विश्वास उत्पन्न किया जा सकता है कि वे संस्था के अभिन्न अंग हैं, इससे संस्था में अच्छे मानवीय संबंधों की नींव सुदृढ़ होगी।
Question : यदि पद वर्गीकरण के कच्चे माल है, तो वर्ग प्रचालित इकाई है। चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : वर्गीकरण का अर्थ कर्त्तव्यों एवं अपेक्षित योग्यताओं की समानता के आधार पर पदों को समूहबद्ध करना है। पद वर्गीकरण उन सभी पदों को कहते हैं, जिनके कर्त्तव्य तथा उत्तरदायित्व बहुत कुछ मिलते-जुलते तथा एक से होते हैं। भर्ती, प्रतिफल, अन्य कर्मचारी सम्बन्धी मामलों की दृष्टि से एक साथ वर्गीकृत दिये जाते हैं। वर्गीकरण श्रेणीबद्ध क्रिया को कहते हैं, यह दैनिक जीवन के अनुभव पर आधारित है और वस्तुओं के प्रबन्ध एवं उन्हें व्यवस्थित करने में अति सहायक है। पद वर्गीकरण आधुनिक कर्मचारी वर्ग प्रशासन के लिए अति आवश्यक है।
स्थिति वर्गीकरण की प्रणाली भारत, पाकिस्तान, ब्रिटेन, फ्रांस जर्मनी आदि देशों में प्रचलित है। इस वर्गीकरण का आधार कर्मचारी का दर्जा या उसकी व्यक्तिगत स्थिति होती है, न कि पद सम्बन्धी उसका दायित्व या कर्त्तव्य पद वर्गीकरण की प्रणाली। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, फिलीपीन्स आदि देशों में प्रचलित है। पद वर्गीकरण का उद्देश्य सम्पादित कार्य के लिए उचित वेतन निर्धारित करना है।
पद वर्गीकरण में आरम्भ बिन्दु व्यक्तिगत पद होता है। पद संगठनात्मक प्रणाली की मूल इकाई है। प्रत्येक पद कुछ सुनिश्चित कर्त्तव्यों एवं दायित्वों का प्रतिनिधित्व करता है। कर्त्तव्य एवं दायित्व उन कार्यों को कहते हैं, जिसके लिए कर्मचारी उत्तरदायी होता है। पद उसको धारण करने वाले से पृथक होता है। पद वर्गीकरण की दृष्टि से यह महत्वहीन है कि पद रिक्त है। पुनरावृत्ति रूप में पद कुछ दायित्वों एक कर्त्तव्यों का समूह है। वर्गीकरण की दीवार ईटों के समान होती है। एक समान पदों को श्रेणी या वर्ग में वर्गीकृत किया गया है, अतः श्रेणी या वर्ग ऐसे कर्तव्यों से मुक्त पदों को कहते हैं, जो स्तर एवं प्रकार की दृष्टि से समान होते हैं। अतः यह सत्य है कि यदि पद वर्गीकरण के लिए कच्चे माल हैं तो श्रेणी या वर्ग उसकी क्रियाशील इकाई है।
Question : लोक संगठन कर्मचारियों के निष्पादन का मूल्यांकन क्यों करते हैं, निष्पादन, मूल्यांकन प्रणालियां कर्मचारियों के व्यवहार को किस प्रकार प्रभावित कर सकती है? प्रशासन प्रभावी रूप से किस प्रकार कर्मचारियों का मूल्यांकन कर सकता है?
(2005)
Answer : किसी संगठन में कर्मचारियों एक व्यवस्थित एवं उचित मूल्यांकन केवल उनकी भर्ती चयन एवं पदस्थापन के साथ ही आवश्यक नहीं होता है, वरन् ऐसा मूल्यांकन निरन्तर उसके संपूर्ण कार्यकाल के दौरान न केवल उपयोगी होता है वरन् वांछनीय भी होता है। निष्पादन मूल्यांकन में कार्यरत् कर्मचारी की प्रकट एवं छिपी हुई योग्यताओं एवं संभावनाओं का मूल्यांकन किया जाता है, ताकि उसे योग्यता, रूचि एवं प्रवृत्ति के अनुसार कार्य सौंपा जा सके। निष्पादन मूल्यांकन कर्मचारी विकास के निर्णयों को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करता है।
निष्पादन मूल्यांकन के अनेकों उद्देश्य एवं महत्व हैं। निष्पादन निष्पक्ष मूल्यांकन का आधार है। इसकी सहायता से उच्चधिकारियों द्वारा संस्था में कार्यरत् कार्मिकों के व्यवस्थित आवधिक तथा निष्पक्ष मूल्यांकन का विकास किया जाता है। संस्था में नवनियुक्त तथा प्रशिक्षित कार्मिकों ने कितनी प्रगति की है, इसका अभिलेख निष्पादन मूल्यांकन के माध्यम से तैयार किया जाता है। इसके माध्यम से कर्मचारियों की प्रकट, अप्रकट क्षमताओं की जानकारी हो जाती है। निष्पादन मूल्यांकन के द्वारा कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण आवश्यकताओं का निर्धारण किया जाता है। यह कर्मचारी निर्णय का ठोस आधार होता है। इसका उद्देश्य कर्मचारियों को अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं से परिचित कराना है, ताकि वे अपने आपको तैयार कर सके। निष्पादन मूल्यांकन के द्वारा कर्मचारियों के संतुष्टि में वृद्धि होती है एवं अच्छे श्रम सम्बन्धों का विकास होता है। निष्पादन मूल्यांकन के द्वारा मूल्यांकन प्रणाली में एकरूपता आती है। निष्पादन मूल्यांकन की अनेकों विधियां हैं, क्योंकि इन्हीं के आधार पर कर्मचारियों को पदोन्नति एवं पुरस्कृत किया जाता है। निष्पादन मूल्यांकन की दो मुख्य विधियां हैं- परंपरागत विधियां एवं आधुनिक विधियां। परंपरागत विधियों में अंकसोपान विधि, कर्मचारी तुलना विधि, जांच सूची विधि, बलात चयन विधि, विवरणात्मक विधि आदि सम्मिलित हैं।
आधुनिक विधियों में परिणामों द्वारा मूल्यांकन प्रबंध व मानवीय सम्पत्ति लेखा विधि, मूल्यांकन केन्द्र विधि सम्मिलित है। वर्तमान समय में आधुनिक विधियों का प्रयोग निष्पादन मूल्यांकन हेतु किया जा रहा है। इस विधि के अन्तर्गत कर्मचारी तथा उसका पर्यवेक्षक आपस में मिलकर एक निश्चित कार्यकाल के अन्तर्गत कर्मचारी द्वारा जिन उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है, उनको निश्चित करते हैं। इस विधि में पर्यवेक्षक कर्मचारी के लिए सहयोग प्रदान करने वाल, यंत्रणा करने वाला तथा कार्य सीखने वाले की भूमिका का निर्वाह करता है। इस विधि का सर्वाधिक प्रयोग तकनीकी पेशेवर, पर्यवेक्षणीय सेवावर्गियों के निष्पादन मूल्यांकन हेतु किया जाता है।
प्रभावी रूप से कर्मचारियों का मूल्यांकन करने के लिए कुछ आवश्यक बातों का ध्यान देना आवश्यक है। साथ ही, निष्पादन मूल्यांकन में कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। निष्पादन मूल्यांकन कार्यक्रम सरल होना चाहिए, ताकि उसे कर्मचारी आसानी से समझ लें। निष्पादन मूल्यांकन कार्यक्रम की पूर्व जानकारी उन व्यक्तियों को प्रदान की जानी चाहिए, जिनके सम्बन्ध में उसे लागू किया जाना है। मूल्यांकन के लिए कार्य निष्पादन के मापदण्ड अनेक स्रोतों से प्राप्त हो सकते हैं। प्रभावी मूल्यांकन के लिए उन समस्त मापदण्डों का उपयोग होना चाहिए। मूल्यांकन निष्कर्षों में प्रभावित पक्षों के साथ विचार-विमर्श की व्यवस्था होनी चाहिए। निष्पादन मूल्यांकन कार्यक्रम का समय-समय पर पुनरावलोकन किया जाना चाहिए।
Question : भर्ती लोक प्रशासन की रीढ़ की हड्डी है। स्पष्ट कीजिए।
(2004)
Answer : लोक प्रशासन में कर्मचारियों की भर्ती अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, क्योंकि प्रशासन की स्थिरता तथा कार्यकुशलता इन्हीं कर्मचारियों की योग्यता, ईमानदारी व लगन पर निर्भर करती है। शासन की सफलता और असफलता इन कर्मचारियों पर ही निर्भर करती है। भर्ती शक्तिशाली लोक सेवा की कुंजी है। यह लोक कर्मचारियों के संपूर्ण ढांचे की आधारशिला है। भर्ती के अतिरिक्त लोक प्रशासन का कोई भी भाग अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। भर्ती का अर्थ सही व्यक्ति को एक विशेष कार्य पर लगाना है। भर्ती के समय इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि योग्य व्यक्ति को ही पद सौंपा जाए। सार्वजनिक भर्ती एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा लोक सेवाओं के लिए उम्मीदवारों को स्पर्धात्मक रूप से आकर्षित किया जाता है। यह एक व्यापक प्रक्रिया है, जिसमें परीक्षा एवं प्रमाण सम्बन्धी प्रक्रियाएं भी सम्मिलित रहती हैं। भर्ती करते समय लक्ष्य यही रहता है कि पद पर उचित व्यक्ति ही आसीन हो।
सही ढंग एवं उचित प्रक्रिया द्वारा भर्ती किया जाना किसी भी कुशल प्रशासन की अनिवार्य एवं प्राथमिक शर्त है। भर्ती के अतिरिक्त लोक प्रशासन का कोई भी भाग महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि जब तक आधारभूत समाग्री ही उपर्युक्त नहीं होगी, तब तक प्रशिक्षण, निरीक्षण, सेवायापन वर्गीकरण, खोज आदि के व्यापक होते हुए भी सार्वजनिक कर्मचारियों की उचित आपूर्ति सम्भव नहीं हो सकेगी। लोक सेवाओं में योग्यतम व्यक्तियों की भर्ती करके ही लोक कल्याण के आदर्श को प्राप्त किया जा सकता है। भर्ती लोक प्रशासन का महत्वपूर्ण भाग है। प्रशासन में धूर्तों को बाहर रखने पर इतना बल नहीं दिया गया है जितना इन बातों पर कि सेवा करने के लिए सर्वोत्तम व्यक्तियों को कैसे प्रोत्साहित किया जाए कैसे उनकी योग्यता को इस ढंग से निर्धारित किया जाए कि यह निश्चय हो सके कि प्रत्येक व्यक्ति उस स्थान को प्राप्त कर सकेगा, जिसके वह योग्य है। भर्ती के ही द्वारा पदाधिकारियों की नियुक्ति विभिन्न पदों पर होती है। लोक प्रशासन में भर्ती के द्वारा योग्य लोक सेवक प्रशासन को प्राप्त होते हैं। यदि भर्ती प्रक्रिया ठीक नहीं रहती है तो प्रशासन भी अच्छे से नहीं चलता है। अतः स्पष्ट है कि भर्ती लोक प्रशासन की रीढ़ की हड्डी है।
Question : ‘प्रशिक्षण किसी भी संव्यवसाय में व्यवहारिक शिक्षा है, न केवल कौशलों को परिमार्जित करने के लिए, बल्कि प्रभावी निष्पादन के लिए आवश्यक अभिवृत्तियों एवं मूल्य योजना के विकास के लिए भीय्। इसकी विशद विवेचना कीजिए।
(2003)
Answer : प्रशिक्षण को ‘स्टाफ की कार्य कुशलता की कुंजी’ कहा जाता है। कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता इस कारण है, ताकि उनका दृष्टिकोण व्यापक बन सके। प्रशिक्षण द्वारा कर्मचारियों में दक्षता, कुशलता, प्रवीणता, स्वतन्त्र निर्णय लेने और विशिष्टीकरण आदि गुण उत्पन्न होते हैं। प्रशिक्षण द्वारा कर्मचारियों में सामाजिक समस्याओं को मनोवैज्ञानिक तरीकों से हल करने की दक्षता उत्पन्न होती है। प्रशिक्षण द्वारा कर्मचारियों में आत्मनिर्भरता की भावना उत्पन्न होती है। समाज में चारों ओर जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनसे कर्मचारियों के लिए आवश्यक कौशल में भी बार-बार बदलाव की जरुरत महसूस होती है। प्रशिक्षण कर्मचारियों की कुशलता, आदतें, ज्ञान तथा दृष्टिकोण विकसित करने की एक प्रक्रिया है, जिससे कर्मचारियों की वर्तमान सरकारी स्थितियों में प्रभावशीलता बढ़ायी जा सके और साथ ही उन्हें भावी सरकारी स्थितियों के लिए तैयार किया जा सके। प्रशिक्षण के द्वारा सामान्य कर्मचारी कुशल कर्मचारी बन जाता है, साथ ही कर्मचारी अपने कार्यों को अधिक सुचारूता से पूरा करने लगता है। प्रशिक्षण के द्वारा ही कर्मचारियों में चतुरता, आदतें, ज्ञान तथा दृष्टिकोण विकसित होता है, जिससे कर्मचारियों की वर्तमान शासकीय स्थिति प्रभावशाली हो जाती है। प्रशिक्षण के माध्यम से नये काम के लिए किसी को उन्मुख किया जाता है। वर्तमान कार्य का ज्ञान तथा कौशल का विकास प्रशिक्षण द्वारा ही होता है।
प्रशिक्षण का कार्य किसी संगठन में कार्यरत कर्मिकों के वर्तमान ज्ञान एवं कौशल को बढ़ाना है, ताकि वे कार्य या व्यवसाय को कुशलता पूर्वक कर सके तथा भविष्य में उच्च उत्तरदायित्वों के प्रति तैयार भी रह सके। प्रशिक्षण के माध्यम से कर्मिकों के व्यवहार एवं मानसिकता में भी परिवर्तन लाया जा सकता है।
Question : नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्धों के सांविधानिक, राजनीतिक और संक्रियात्मक आयाम का विश्लेषण कीजिए। उनके बीच सन्तोषजनक सम्बन्ध पैदा करने के लिए आपके पास क्या सुझाव है?
(2002)
Answer : विकसित देशों के जन तन्त्र में प्रशासन तन्त्र नियोक्ता एवं कर्मचारी सम्बन्धों पर आधारित है। जहां एक ओर ब्रिटेन में तटस्थ, अनाम्यता, योग्यता पर आधारित है, वही अमेरिका में अर्द्ध राजनीतिक विशेषतया योजना आधारित तथा उच्चस्तरीय अनुबन्धों द्वारा संचालित होती है। भारत में नियोक्ता कर्मचारी सम्बन्ध मिले-जुले रूप में होते हैं। नियोक्ता एवं कर्मचारी के सम्बन्ध बनाए रखने के लिए कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। प्रभावशाली नेतृत्व किसी भी कर्मचारी के सम्बन्धों को प्रभावित करता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे कितनी मान्यता प्राप्त है। यदि किसी मंत्रलय का मंत्री प्रभावशाली, विभागीय जानकर होगा तो वह विभागीय कर्मचारियों पर प्रभावी रहेगा।
नियोक्ता एवं लोकसेवकों के सम्बन्ध विभागीय नीति या निर्माण के स्तरों पर निर्भर करते हैं। सामान्यतया यह नीति निर्माण, सहयोग का अनुपालन करता है। भारत में मंत्रियों का पहला प्रयास होता है कि ज्ञानी प्रशासकों को अपने साथ रखे, ताकि उन पर भरोसा किया जा सके। स्वयं लोकसेवकों के अपने उद्देश्य उसको प्रेरित कर सकें और पदोन्नति भी मिलती रहे। नियोक्ता कर्मचारी सम्बन्ध बहुत कुछ निर्माता के विशेषज्ञ होने पर निर्भर करता है। नियोक्ता द्वारा राजनीतिक स्थायित्व का परिणाम भी सम्बन्धों को प्रभावित करता है। नियोक्ता एवं कर्मचारियों के बीच सम्बन्ध कुछ कारणों से प्रभावित होते हैं। नियोक्ता एवं कर्मचारियों के मध्य शैक्षणिक पृष्ठभूमि के अन्तर के कारण उनके साथ विश्लेषण, लोकनीति कार्यान्वयन में प्रभाव पड़ता है और इसका प्रभाव उनके मध्य की अनबन का कारण भी बनता है।
कुछ ऐसी स्थितियां, जहां कि राजनीतिक हितों के लिए सत्ताधारी राजनीतिज्ञ और लोकसेवकों की लोकनीति कार्यान्वयन में अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं और उसका प्रभाव अन्तःसम्बन्धों पर पड़ता है। विशेषकर ऐसी स्थिति में, जबकि कर्मचारी सत्यनिष्ठा एवं कर्त्तव्य निष्ठा वाले होते हैं साथ ही कुछ ऐसी स्थितियां जहां कि लोगो को नीति निर्धारण और कार्यन्वयन में स्पष्ट अन्तर मानना पड़ता है। इस कारण दोनों में टकराहट उत्पन्न होता है।
जहां किसी संगठन विशेष का सम्बन्धी नेता के मध्य अन्तःसम्बन्ध ज्ञात नहीं होते हैं, वहां पर कार्यरत लोक सेवकों और सम्बन्धित मन्त्री के सम्बन्धों में कुछ स्पष्टताएं होती हैं। जहां कर्मचारी कुछ अर्द्धन्यायिक कार्य कर रहे होते हैं, वहां पर थोड़ा मन्त्री का अनावश्यक हस्तक्षेप उभरता है, तो भी समस्याएं सामने आ जाती हैं।
नियोक्ता-कर्मचारी सम्बन्धों को सन्तोषजनक बनाने के लिए आवश्यक है कि लोक सेवाओं के प्रबन्धन के सम्बन्ध में नियुक्तियों एवं स्थानांतरण को बहुत अधिक निष्पक्ष व प्रभावी बनाया जाए। सीडीएस को सुनिश्चित और स्पष्ट बनाने की आवश्यकता है और साथ में कार्य निष्पादन, मापन समीक्षा मूल्यांकन इत्यादि को बेहतर बनाकर किया जा सकता है।
शासन एवं प्रशासन में पारदर्शिता के द्वारा सुधार लाया जा सकता है। नियोक्ता एवं कर्मचारी दोनों के ही भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जाए। अतः आवश्यक है कि नियोक्ता एवं कर्मचारियों के मध्य सम्बन्धों को स्पष्ट बनाने के लिए लोक सेवकों के साथ-साथ राजनीतिज्ञों को भी उचित आचार संहिता अपनानी चाहिए।
Question : भारत सरकार ने वरिष्ठ स्तर के कर्मचारियों अर्थात् श्रेणी I और II के कर्मचारियों के कार्य निष्पादन के मूल्यांकन के लिए क्या पद्धति अपनायी है? क्या आप इन पद्धतियों से संतुष्ट हैं?
(2001)
Answer : अखिल भारतीय सेवाएं, राज्य तथा केन्द्र दोनों के लिए संयुक्त रूप से कार्य करती हैं तथा इनका कार्य क्षेत्र राज्य एवं केन्द्र में कही भी हो सकता है, जबकि केन्द्रीय सेवाएं मात्र केन्द्र के विषयों तक सीमित होती है।
भारत सरकार केन्द्रीय सेवाएं श्रेणी-I के अधिकारियों को अपने-अपने विभाग के वरिष्ठ पदों पर रखती है। भारत सरकार के अधीन केन्द्रीय सेवा ग्रुप-I के पदाधिकारियों को अपने-अपने विभाग के ऊंचे पदों पर रखा जाता है। भारत सरकार के अधीन केन्द्रीय सचिवालय तथा अन्य प्रशासकीय पदों पर उन्हें नियुक्त किया जाता है। इनकी अभी भर्ती एक ऐसी संयुक्त सिविल सर्विस परीक्षा के परिणाम के आधार पर की जाती है, जिसे संघ लोक सेवा आयोग, अखिल भारतीय सेवा श्रेणी-I एवं श्रेणी-II प्रत्याशियों का चयन करने हेतु आयोजित करता है। श्रेणी-I के अर्न्तगत अखिल भारतीय सेवाएं तथा केन्द्रीय सेवाएं आती हैं। संविधान में अखिल भारतीय सेवाओं का प्रावधान किया गया है।
केन्द्रीय सेवाओं के सदस्य भारत सरकार के विभिन्न विभागों में कार्यरत हैं, जैसे- विदेश विभाग, रेलवे, डाक एवं तार, इनकम-टैक्स, कस्टम, एक्साइज आदि।
केन्द्रीय सेवा समूह ‘ख’ के अन्तर्गत केन्द्रीय सचिवालय सेवा श्रम-अधिकारी सेवा, केन्द्रीय-स्वास्थ्य सेवा, भारतीय-जलवायु सेवा, डाक-निरीक्षण सेवा, पोस्ट-मास्टर सेवा, तार यांत्रिक एवं बेतार सेवा, रेलवे-मंडल सचिवालय सेवा, भारतीय विदेश सेवा, सशस्त्र बल मुख्यालय, नागरिक सेवा, सीमा शुल्क मूल्यांकन सेवा, दिल्ली और अण्डमान निकोबार द्वीप समूह पुलिस सेवा, पाण्डिचेरी पुलिस सेवा, केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल में सहायक कमाण्डेण्ट पद आदि है।
भारत में सेवाओं का वर्गीकरण उन नियमों के अन्तर्गत किया जाता है, जो मूलतः सन् 1930 में बनाये गये थे तथा जिनका संशोधन समय-समय पर किया जाता रहा है।
प्रत्येक कर्मचारी के सेवा में एक पद प्राप्त होता है। व्यक्ति की सेवा में कुछ ऐसे कर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए नियुक्त किया जाता है, जो कि उपयुक्त अधिकारी के द्वारा उनको सौंपे जाते हैं। पदों को उन कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के आधार पर जो कि विभिन्न पदों से संलग्न होते हैं, श्रेणियों में वर्गाकृत कर लिया जाता है। भर्ती की कुशलता एक विवेकपूर्ण-पदोन्नति व्यवस्था के निर्माण की सम्भावना तथा विभिन्न विभागों में कार्य करने वाले व्यक्तियों के न्यायपूर्ण व्यवहार की आशा समुचित वर्गीकरण पर ही निर्भर रहती है।
प्रथम श्रेणी की प्रत्येक केन्द्रीय सेवा के समवर्ती एक-एक द्वितीय श्रेणी की सेवा भी होती है। प्रथम श्रेणी की सेवाओं की प्रथम नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। प्रथम श्रेणी के सभी पद और द्वितीय श्रेणी के कुछ पद राजपत्रित होते हैं। प्रथम श्रेणी के पदाधिकारियों की भर्ती उच्चतर पदों को सम्भालने के लिए की जाती है और इसी श्रेणी के कनिष्ठ वेतन क्रम वाले पदों का उद्देश्य केवल यह होता है कि वे पदाधिकारियों के लिए प्रशिक्षण के आधार के रूप में कार्य करे और उनको उच्चतर उत्तरदायित्वों को वहन करने के योग्य बना दे। द्वितीय श्रेणी के पदाधिकारियों की भर्ती चाहे वह पदोन्नति द्वारा की जाए अथवा सीधे ही उस पद क्रम के कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए की जाती है।
विभिन्न आयोगों एवं समितियों में समय-समय पर श्रेणी-I व श्रेणी-II अधिकारियों के कार्यकलापों के मूल्यांकन की विभिन्न रीतियां सुझाई। परन्तु उन पर राजनैतिक इच्छा शक्ति कमी के कारण ठीक तरह से अमल नहीं किया गया। इस कारण प्रचलित पद्धतियों में उपयुक्त संशोधन नहीं किया जा सका है। आवश्यकता इस बात की है कि अभी तक के सभी आयोगों के निष्कर्षों एवं सुझावों को एकीकृत कर एक व्यापक अवधारणा के तहत नयी मूल्यांकन विधि को प्रारम्भ किया जाए, जो कर्मचारियों की कार्य क्षमता, दक्षता तथा मनोबल में वास्तविक रूप में वृद्धि करने में सहायक हो।
Question : ‘सामान्यज्ञ सदैव ही विशेषज्ञ के मुकाबले लाभकारी स्थिति में रहेगा’ इस विचार के पक्ष में तर्क दीजिए।
(1999)
Answer : अधिकांश औपनिवेशिक राष्ट्रों में लोक सेवाओं का गठन परम्परागत रूप से ब्रिटिश पद्धति के आधार पर किया गया है। सामान्यज्ञ विवाद लोक प्रशासन की एक महत्वपूर्ण समस्या है। उच्च प्रशासकीय वर्ग एवं अन्य अधीनस्थ प्राविधिक सेवाओं में विभाजित है। जिसका मूल कारण स्थायी लोक सेवा के संगठन से सम्बन्धित प्रसिद्ध नार्थकोट ट्रेवेलियन प्रतिवेदन 1853 है, उस प्रतिवेदन में यह प्रस्ताव किया गया था कि उच्च पदों पर देश की सर्वश्रेष्ठ शिक्षा समतुल्य सर्वोच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं द्वारा चुने गऐ देश के योग्यतम एवं होनहार नवयुवकों की नियुक्ति की जानी चाहिए। इस तरह ब्रिटेन में शैक्षणिक उपलब्धियों के आधार प्रशासकीय शाखा के एक कुलीन समूह का जन्म हुआ, जिसे शब्दावली के अभाव में सामान्यवादी शब्द से पहचाना जाने लगा। सामान्यवादी से आशय ऐसे लोक सेवक से है जिसका कोई विशेष आधार नहीं होती और जो सरलता से शासन के एक विभाग से दूसरे में स्थानान्तरित किये जा सकते हैं। वह ऐसा लोक प्रशासन है जो प्रबधकीय वर्ग का सदस्य है तथा नियमों, उपनियमों एवं पद्धति सम्बन्धी व्यवस्था में पूर्ण परंपरागत होता है। इसके विपरीत विशेषज्ञ से तात्पर्य उस शक्ति से है, जिसे किसी क्षेत्र जैसे- कृषि, चिकित्सा, यान्त्रिकी शिक्षा आदि में विशेष योग्यता प्राप्त हो। भारतीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने इन विशेषज्ञ सेवाओं को कार्यात्मक सेवाओं की संज्ञा दी है।
लोक सेवा में सामान्यवादी कर्मचारी की स्थिति वरिष्ठ होती है। नीति निर्धारण एवं विचार तथा निर्णय सम्बंधी पदों पर इन्हीं सामान्यवादी प्रशासकों की नियुक्ति होती है यद्यपि प्राविधिक सेवाओं में प्रथम श्रेणी के अधिकारियों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक है, लेकिन उन्हें सचिवालय में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता। सामान्य तौर पर क्षेत्रीय पदों पर विशेषज्ञों की नियुक्ति कीजाती है और कार्यपालक अभिकरणों के प्रमुखों के रूपमें प्रशासकीय श्रेणी के सदस्यों को नियुक्त किया जाता है, यही विवाद का बिन्दु है।
सामान्यज्ञ की श्रेष्ठता की धारणा एक अन्ध विश्वास का स्वरूप धारण कर चुकी है। सामान्यज्ञों का मत है कि वे गुण सम्पन्न एवं योग्य होते हैं और विभिन्न पदों पर कार्य कर चुकने के कारण उन्हें व्यापक अनुभव होता है। अतएव उनमें उच्च प्रबन्धकीय पदों को धारण करने की अपेक्षित योग्यता होती है। सामान्यज्ञ प्रशासकों की प्रमुखता का द्वितीय भार यह है कि इनकी प्रणाली प्रशासन को जनता के साथ सीधा सम्बन्ध बनाने का अवसर प्रदान करती है जिसका अर्थ है कि सामान्यज्ञ को राजस्व एवं न्याय सम्बन्धी अनुभव प्राप्त होते हैं। भारत ने भी ब्रिटिश प्रशासनिक नमूने को अपनाया है, अतः यहां भी स्वतन्त्रता के समय से ही यह समस्या बनी हुई है। पूर्व प्रधानमंत्री ने इस समस्या पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि यदि हम अपने वैज्ञानिक जो अति उत्तम हो, उनके हाथ में प्रशासन दे दें, तो हम एक वैज्ञानिक तो खो ही देते हैं और साथ ही प्रशासन में इससे कोई लाभ भी नहीं होता है, अतः यह सिद्ध है कि सामान्यज्ञ सदैव विशेषज्ञ के मुकाबले लाभकारी स्थिति में रहते हैं।
Question : फ्लोकतन्त्र में कमजोर अधिकारी तन्त्र नहीं, बल्कि मजबूत अधिकारी तन्त्र चिन्ता पैदा करता है।य् टिप्पणी कीजिए।
(1999)
Answer : लोकतन्त्र से तात्पर्य उस शासन प्रणाली से है, जिसमें प्रत्यक्ष रूप से व अप्रत्यक्ष रूप से जनता अपने प्रतिनिधियों के द्वारा सम्पूर्ण जनता के हित को दृष्टि में रखकर शासन करती है।
लोकतन्त्र में प्रशासक जनता का सेवक है न कि जनता पर शासन करने वाला। लोकतन्त्र के प्रशासन में यह आवश्यक है कि प्रशासन जन इच्छा का सम्मान करे। लोकतन्त्र में प्रशासन लोकमत के प्रति उत्तरदायी होता है। लोकतन्त्र के प्रशासनिक निर्णय गुप्त नहीं रखे जाते हैं। प्रशासन पारदर्शी होता है। सरकार की नीतियां जनता की आलोचना के लिए खुली रहती है। जनता को सूचना प्राप्त करने का अधिकार होता है। लोकतन्त्र में जनता प्रशासन में सक्रिय भागीदार होती है। प्रशासन जनता के दृष्टिकोण को समझने का इच्छुक रहता है परन्तु यदि नौकरशाही स्वेच्छाधारी एवं निरंकुश होगी तो वह जनता के प्रति अपने कर्तव्यों का उचित निर्वहन नहीं कर सकेगी।
नौकरशाही जब मजबूत होती है तो उसमें कई प्रकार की विकृतियां जन्म लेने लगती हैं यथा गोपनीयता, भ्रष्टाचार, जनता के ऊपर शासन न कि सेवा, पारदर्शिता का अभाव, अपने को स्वामी समझना, विकास कार्यों के प्रति लापरवाही क्योंकि तब उसे अनुशासन एवं नियत्रंण की परवाह नहीं रहती है। साथ ही राजनीतिज्ञों से टकराव होने लगता है तथा विभिन्न प्र्रकार के संघर्ष उत्पन्न होते हैं। जिससे वह अपने मूल उद्देश्य से भटककर व्यर्थ के क्रियाकलापों में लिप्त हो जाती है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र पर एक आघात होती है। वस्तुतः नौकरशाही की मूल प्रकृति अपने आप को सुरक्षित रखते हुए विभिन्न कार्यों को संचालित करना होता है, इसलिए नौकरशाही के ऊपर विभिन्न प्रकार के नियंत्रक उपाय लागू कर एवं पारदर्शी कार्य प्रणाली द्वारा दबाव बनाकर उससे जनहित के कार्य करवाए जा सकते हैं न कि उसे पूरी छूट दे करजिससे वह लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाए।
Question : ‘‘लोक कार्मिक प्रशासन संबंध अनेक प्रकार्यों से है।’’ विस्तार से बताइए। ‘प्रापण और विकास प्रकार्य क्या क्यों महत्वपूर्ण हैं?
(1998)
Answer : लोक कार्मिक प्रशासन का सबसे महत्वपूर्ण प्रकार्य भर्ती है। लोक सेवा में कर्मचारियों की भर्ती की समस्या इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि प्रशासन की स्थिरता, कार्यकुशलता इन्हीं कर्मचारियों की योग्यता, ईमानदारी और लगन पर निर्भर है साथ ही शासन की सफलता व असफलता इन कर्मचारियों पर ही निर्भर है। प्रत्येक जनतंत्र में अत्यंत कुशल, योग्य व ईमानदार कर्मचारी प्राप्त करना एक कठिन कार्य है वस्तुतः भर्ती शक्तिशाली लोक सेवा की कुंजी है। लोक कार्मिक प्रशासन के अंतर्गत भर्ती के कई तरीके एवं विधियां अपनाई जाती है यथा- संगठन के भीतर से कर्मचारी चुनने की रीति तथा संगठन के बाहर से भर्ती। इसमें भर्ती के उद्देश्य से दो प्रकार की परीक्षाएं ली जाती हैं। प्रतियोगिता परीक्षण और प्रतियोगिता रहित परीक्षण। उम्मीदवारों की योग्यता व उपयुक्तता की जांच करने के लिए मेल परीक्षण काम में लाए जाते हैं। यथालिखित परीक्षा, मौखिक परीक्षा अथवा साक्षात्कार, कार्यकुशलता का प्रत्यक्ष प्रदर्शन, शिक्षा एवं अनुभव का मूल्यांकन, बुद्धि परीक्षण का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन। इसके लिए अर्हता तय करने वाला प्रशासनिक तंत्र जैसे लोक सेवा आयोग आदि होता है।
लोक कार्मिक प्रशासन में दूसरा महत्वपूर्ण प्रकार्य प्रशिक्षण है। लोक कर्मचारी को उस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करना होता है जिसके लिए उसकी भर्ती की गई होती है। उसे कार्य की प्रवीणता तथा विधि के संबंध से परिचित करायी जाता है। कर्मचारियों के समुचित प्रशिक्षण के बिना कार्य को कुशलता के साथ संपन्न नहीं किया जा सकता है। लोक प्रशासन में उच्चस्तरीय प्रशासनिक स्टापफ़ को नीति का निर्धारण करना होता है तथा यह ध्यान रखना होता है कि वह नीति कार्य स्वतः हो और उसका कल्याणकारी प्रभाव हो इसके लिए उसमेंऐसी दृष्टि होनी चाहिए, जिससे संम्पूर्ण प्रशासन तंत्र उसकी कल्पना व भावना में रहे। प्रशिक्षण ही प्रशासकों में ऊंची दृष्टि उत्पन्न करने का माध्यम है। लोक सेवकों में उत्तरदायित्व की भावना विकसित करने के लिए भी प्रशिक्षण जरूरी है। यदि उन्हें उचित प्रशिक्षण न दिया जाए तो वे अपने आपको नई परिस्थितियों के अनुसार ढालने में असमर्थ होंगे।
कोई भी कार्मिक व्यवस्था तब तक कुशल नहीं रह सकती जब तक कि वह कर्मचारियों को ऊंचा उठाने का यथेष्ट अवसर न प्रदान करे। कर्मचारियों को कुशल बनाए रखने के लिए कुछ प्रेरणाओें की जरूरत होती है और कर्मचारी के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा एक पद से दूसरे उच्च पद पर उसकी पदोन्नति है, इसलिए कार्मिक प्रशासन का एक अन्य कार्य लोक सेवा में पदोन्नति है। पदोन्नति भर्ती का ही एक रूप है। पदोन्नति में चयन की प्रक्रिया केवल उन्हीं तक सीमित रहती है जो पहले से ही संगठन की सेवा में है। लोक कार्मिक प्रशासन का एक महत्वपूर्ण कार्य पद वर्गीकरण एवं वेतन क्रम निर्धारित करना भी है। कार्यों की विभिन्नता के कारण और भिन्न-भिन्न प्रकार अथवा पदक्रमों के लिए भिन्न-भिन्न किस्म की साज-सज्जा की आवश्यकता होने के कारण सेवाओं का वर्गीकरण करना पड़ता है चॅूकि श्रम विभाग किसी भी सहकारी प्रयत्न का आधार बन जाता है, यह वर्गीकरण किसी भी सहकारी कार्मिक व्यवस्था का आधार होता है।
इसके अतिरिक्त प्रशासन में अनुशासन कायम करने के लिए विभिन्न नीति संहिताओं का विकास, नियमों व कानूनों का निर्माण आदि भी लोक कार्मिक प्रशासन के महत्वपूर्ण प्रकार्य हैं।
लोक कार्मिक प्रशासन में विकास प्रकार्य इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि कोई भी विधि, नियम, संहिता परिस्थिति तथा समय के अनुसार उचित या अनुचित होती है। इसलिए पुरानी विधियों के स्थान पर नई विधियों की खोज करना, नए नियमों व संहिताओं का विकास करना अत्यंत जरूरी होता है। इससे प्रशासन को कार्यकुशल कल्याणकारी, क्षमताशील तथा अनुप्रेरित बनाना संभव हो पाता है।
Question : ‘अधिकारी तंत्र उन सामाजिक संरचनाओं में से एक है, जिनको एक बार पूर्णतया स्थापित हो जाने के बाद नष्ट करना सबसे ज्यादा कठिन है।‘
(1997)
Answer : आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के जन्म के साथ ही साथ नौकरशाही का भी आविर्भाव हुआ। राज्यों या राष्ट्रों के उदय के साथ राज्य की गतिविधियों में भी तीव्रता आई। पूर्व में राजनैतिक जीवन परंपराओं से नियंत्रित एवं निर्धारित होता था। उसका स्थान अधिकारी तंत्र ने ले लिया। परिवार का मुखिया ही परिवार का सर्वोच्च राजनैतिक नियंत्रक था, परिवार के अन्य सदस्यों का राजनैतिक चरित्र वहीं निर्धारित करता था। पूर्व में किंचित् गांवों में बूढ़े व्यक्तियों की एक समिति भी होती थी, जो गांव के स्थानीय जनसामान्य हेतु विधियों का निर्धारण एवं नियमन करती थी। आरम्भिक सामान्य राजनैतिक जीवन का ध्येय समाज में एकता एवं व्यवस्था के महत्व को बनाए रखना था। सामान्य जन व्यक्तिगत स्तर पर ज्यादातर गतिविधियों को पूर्ण करके अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे।
कुछ काल बाद राष्ट्रों की उत्पत्ति ने क्षेत्रफलीय दृष्टि को विशालता प्रदान की। औद्योगिकीकरण ने संगठन को विकसित किया। पारिवारिक स्तर के कार्यों का स्थान यान्त्रिक मशीन ने ले लिया। जटिल श्रम विभाजन की उत्पत्ति हुई, अनेक वृहद संगठनों की संरचना की गई। शहरीकरण तीव्र गति से हुआ। रोजगार के अवसर शहरों में होने के कारण शहरों की जनसंख्या बढ़ी। बड़े-बड़े संगठनों में कार्यरत व्यक्तियों पर समन्वय एवं नियंत्रण हेतु एक तंत्र की स्थापना अनुभूत की गई। लोक कल्याणकारी राज्य का स्वरूप होने के कारण जीवन की अन्यानेक गतिविधियों में राज्य ने हस्तक्षेप किया। राज्य के क्रियाकलाप व्यापकता को प्राप्त हुए। ऐसी आवश्यकताओं की परिधि में ही अधिकारीतंत्र का उदय हुआ।
अधिकारीतंत्र के उदय ने परंपराओं के महत्व को आहत किया।
अधिकारीतंत्र में व्यक्तियों का योग्यता के आधार पर प्रश्रय दिये गयी जिससे उसके आकार में वृद्धि हुई।
कार्यक्षेत्र के सिद्धांत निश्चित और औपचारिक होते हैं, जो सामान्यतः विधियों की परिधि में ही उत्पन्न होते हैं, जिसके निमित्त प्रशासनिक विधियों की सरंचना हो सकती है। प्रत्येक कर्मचारी को अपना कार्य और कार्यक्षेत्र का संज्ञान होता है तथा वह अपने कार्यों के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है।
संगठन के कार्यों को पूरित करने के लिए नियम पूर्व निर्धारित होते हैं। इन नियमों से विलग कोई कर्मचारी कार्यरत नहीं हो सकता। अधिकारी तंत्र पदसोपान पर संरचित होता है। इसमें कर्मचारियों का संबंध उच्च और अधीनस्थ का होता है। लघु कर्मचारी अपने से शीर्ष अधिकारी के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत कार्य करता है, जो उसके कार्यों का निरीक्षण एवं सर्वेक्षण भी करता है। अधिकारीतंत्र में कर्मचारियों के वेतन और प्रशासन की व्यवस्था संगठन की आय पर निर्धारित नहीं होती है, वरन् पद दायित्व, पदस्तर, पदसोपान के अनुरूप दिया जाता है। अधिकारीतंत्र में एक तरह के अधिकार भाव का अहं देखा जाता है, जो उन्हें सामान्य नागरिकों से अलग करता है। उन्हें विशिष्ट शक्तियां तथा उच्च सामाजिक स्तर प्रदान करती है।
अधिकारी तंत्र कठोर तथा सुव्यवस्थित अनुशासन की भावना से आप्लावित होेते हैं। समस्त कार्य विधि द्वारा शासित होते हैं तथा वे प्रत्यक्ष होते हैं। इन विधियों को अधिगमित किया जा सकता है। इस तंत्र में निष्पक्ष विशेषज्ञ होते हैं, यह तकनकी दृष्टि से समृद्ध होता है। इस तंत्र में संघर्ष की न्यूनता दृष्टव्य होती है। ऐसा स्पष्ट कार्य एवं दायित्व के विभाजन के कारण होता है। इसमें स्थूलता का गुण पाया जाता है एवं सूक्ष्मता का प्रायः अभाव होता है। इसमें कार्य प्रक्रिया सुनिश्चित होती है। इस तंत्र के संबंध औपचारिक होते हैं। अधिकारीतंत्र की कार्यपद्धति अभिलेखीय होती है। अधिकारी तंत्र का न्यून पक्ष इसके कार्य की मंथर गति है। इसमें योग्यता को प्रश्रय दिया जाता है।
उपरोक्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में हम मंथन करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकारी तंत्र सामाजिक संरचना हैं जिसमें स्पष्ट श्रम विभाजन, निश्चित कार्य प्रक्रिया, विधिपूर्ण कार्य व्यवस्थापन पदसोपान, योग्यता आधारित उपलब्धियां, सत्ता का केंद्र इत्यादि गुण अवस्थित होते हैं।
जिस प्रकार समाज में जो व्यवस्था आत्मसात् कर ली जाती है, उसको नष्ट करना एक दुष्कर कार्य है। उसी प्रकार अधिकारी तंत्र भी एक सामाजिक संरचना की भावना से निर्मित होता है, जिसके निर्माण की प्रक्रिया भी जटिल सोपानों से गुजरी होती है, इसे नष्ट करना निश्चय ही दुरूह कार्य है।