Question : सूचना के अधिकार के विधिक और राजनीतिक निहितार्थो पर चर्चा कीजिए। क्या विकासशील देशों में यह एक साध्य संकल्पना है?
(2004)
Answer : आधुनिक सूचना क्रांति के युग में सूचना के अधिकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने हेतु अनिवार्य माना जाता है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकारी कामकाज को पारदर्शी बनाने के लिए जनता को सूचना का अधिकार देने का व्यापक महत्व है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा जारी विश्व घोषणा में विभिन्न शीषकों के अंतर्गत सौ से अधिक की मानवाधिकारों की सूची दी गई। इस सूची में नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों के अंतर्गत सूचनाओं के अधिकार का भी उल्लेख किया गया है।
विश्व के अनेक राष्ट्रों में सूचना के अधिकार को मान्यता मिली हुई है। भारत के कुछ राज्यों ने भी अपने स्तर पर सूचना अधिकार के लिए कानून पारित किया है।
भारत में विभिन्न स्तरों पर सूचना के अधिकार को प्रदान करने हेतु प्रयत्न किए जा रहे हैं। आम जनता के लिए सूचना के अधिकार का विशेष महत्व हैं क्योंकि यह प्रशासन को जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाता है प्रशासन की गतिविधियों के संबंध में सूचना के अधिकार के द्वारा ही जानकारी प्राप्त होती है। सूचना का अधिकार प्रशासन एवं आम जनता के मध्य की दूरी को कम करता है। इससे प्रशासन में जनसहभागिता बढ़ती है, फलतः नागरिक एवं प्रशासन एक-दूसरे के पास आते हैं। सूचना अधिकार के ही द्वारा आम जनता को प्रशासनिक निर्णयनों का पता चलता है, जिसके कारण सिविल सेवकों द्वारा लोगों को वस्तुओं एवं सेवाओं की बेहतर आपूर्ति के लिए प्रयासरत रहना पड़ता है।
सूचना के अधिकार से लोक प्रशासन में भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है। यह प्रशासन में खुलापन एवं पारदर्शिता को लाने का प्रयास करता है। जिससे लोकतांत्रिक विचारधारा को बढ़ावा मिलता है। इसके कारण सत्ता का दुरूपयोग कुछ हद तक कम होता है। इन करणों से सिद्ध होता है कि आम जनता के लिए सूचना के अधिकार का विशेष महत्व है। वर्तमान समय में प्रशासनिक कुशलता बढ़ाने के लिए एवं आम जनता के अधिकारों के दायरे को विस्तार देने के लिए सूचना का अधिकार परम आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों के कारण मानवाधिकारवादी संगठनों ने इसे मौलिक अधिकार में सम्मिलित करने की बात कही है।
परन्तु विकासशील देशों में सूचना के अधिकार को सुनिश्चित कर पाना बहुत कठिन काम है क्योंकि इन देशों में भ्रष्टाचार एक सिस्टम का रूप धारण कर गया है। इन देशों में नौकरशाही में लाल फीताशाही विद्यमान है, नौकरशाह अहंकारी एवं अहम् से परिपूर्ण है, जिस कारण वे अपने आपको जनता का अधिकारी समझने लगते हैं। साथ ही साथ विकासशील देशों की जनता भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है। साक्षरता के अभाव में जनता अपने अधिकारों को लेकर उदासीन है, जिस कारण विकासशील देशों में सूचना के अधिकार को सुनिश्चित करने हेतु दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूरत है। तभी विकासशील देशों में यह एक साध्य संकल्पना बन पाएगा।
Question : ‘नागरिकों का चार्टर’ प्रशासन के ग्राहकोन्मुखन की प्रोन्नति के संदर्भ में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण नवाचार है। चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : सरकार द्वारा नागरिक चार्टर की शुरुआत 1996-97 में आरंभ हुई। नागरिक चार्टर के प्रावधानों में प्रशासन को पारदर्शी, कुशल, ईमानदार तथा नैतिक, स्पष्ट, लिखित, निरंतर सूचना उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है, जिससे प्रशासन को स्वच्छ और पारदर्शी बनाया जा सके। इन चार्टरों में जनता को दी जाने वाली सेवाओं के साथ-साथ संगठन की वचन बद्धता, सेवा डिलीवरी के प्रत्याशित मानकों, समय सीमाओं, शिकायत-निवारण तंत्र आदि की व्याख्या की जाती है। ये जनता की जांच-पड़ताल के लिए उपलब्ध रहते हैं एवं इनके द्वारा जवाबदेही सुनिश्चित होती है। संगठन के उद्देश्य का निर्धारण होने पर नागरिक अधिकार का निर्धारण कर लक्ष्य की पूर्ति की जाए तथा विचलन की दशा में विचलन के कारणों को स्पष्ट, स्वच्छ और पारदर्शी रूप में व्यक्त किया जाती है। यदि आम जनता सुधार की अपेक्षा करता है, तो प्रशासन में मांग के अनुरूप सुधार का समावेश करना चाहिए यदि कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका सुधारात्मक नियंत्रण द्वारा स्वयं को नहीं सुधारती है तो लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च नियंत्रक की भूमिका भी बहुत कुशलता से निभाती है। वह अपने जन प्रतिनिधियों का परिवर्तन और नये प्रतिनिधि द्वारा सत्ता के ड्डोत के आकांक्षा पूर्ति करेगी। अभी तक 25 मंत्रलयों द्वारा 97 नागरिक चार्टर तैयार किए गए हैं। राज्य सरकारों के 24 संगठनों द्वारा भी 616 नागरिक चार्टर तैयार किए गए हैं।
नागरिक चार्टरों का प्रमुख उद्देश्य जनता के विभिन्न समस्याओं का समाधान तलाशना है। सभी कार्यालयों एवं विभागों में किसी सेवा में लगने वाले समय, कार्यक्रम योजनाओं तथा पूछताछ केंद्रों जैसी सुविधाओं से कम समय में कार्य की पूर्ति करने के लिए हुआ है। किंतु जिस प्रकार से नागरिक चार्टर का क्रियान्वयन हो रहा है एवं विभाग जिस प्रकार से लापारवाही का परिचय दे रहा है, उससे आशा के अनुरूप आपूर्ति नहीं हो पा रही है। फिर भी जनोन्मुख, ग्राहकोन्मुख, कर्त्तव्यनिष्ठ व पारदर्शी प्रशासन की दिशा में यह एक अग्रणी पहल है।
Question : सभ्य समाज यह सुनिश्चित करने के लिए विद्यमान है कि सरकार अच्छा शासन प्रदान करे। चर्चा कीजिए।
(2002)
Answer : सभ्य समाज या नागरिक समाज विभिन्न प्रकार से सरकार पर नियंत्रणकारक की भूमिका निभाता है। किसी भी प्रकार से राजव्यवस्था में नागरिक समाज की उपस्थिति उस व्यवस्था को जीवन्तता प्रदान करती है तथा उसे विकास के विभिन्न कार्यों को पूरा करने को प्रेरित करती है। सभ्य समाज से तात्पर्य है कि राज्य और उसकी शक्ति के बिना नागरिक परस्पर संगठित होकर स्वप्रेरणा और सौहार्द्र से उन विकासात्मक कार्यों को पूरा करें जिन्हें आमतौर से राज्य और उसका अभिकर्ता प्रशासन करता है। सभ्य समाज का केंद्र बिंदु राज्य, राजनीति, प्रशासन न होकर नागरिक समुदाय, स्वयंसेवी संस्थाएं एवं स्वयंसेवक होते हैं। सभ्य समाज के अंतर्गत सभी प्रकार के स्वयंसेवी संगठन शामिल रहते हैं तथा सामुदायिक अंतः क्रियाओं को भी सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें राज्य द्वारा नियंत्रण नहीं किया जाता है।
सभ्य समाज से यह तात्पर्य है कि यह स्वयंसेवी संस्थाओं का सुदृढ़ आधार है जो राज्य एवं अर्थव्यवस्था के बाहर विकसित होता है। सिविल समाज सामाजिक समाज है, जिसे पूंजी निर्माण एवं बाजार से अलग समझा जाता है। निजी क्षेत्र की स्वतंत्रता के साथ यह भागीदार होता है। इनका स्वरूप एवं व्यवहार स्वैच्छिक और बिना किसी स्वार्थ के काम करने वाला होता है। सभ्य समाज का काम नागरिकों के अधिकार की सुरक्षा करना है। सभ्य समाज के लोग राज्य एवं प्रशासन से सहयोग तो अवश्य लेते हैं किन्तु उन पर निर्भर नहीं रहते। वे सत्ता सहमति और आदेश के बजाय आत्मनियंत्रण से कार्य करते हैं वे सार्वजनिक भलाई आम सहमति, सामूहिकता पर अधिक बल देते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सभ्य समाज का यह कार्य है कि सरकार जनता को अच्छा शासन प्रदान करे।
Question : भारत के प्रशासनिक तंत्र की सबसे कमजोर पक्ष जवाबदेही की परम अवहेलना है। जवाबदेही लागू करने के वर्तमान यांत्रिकत्व की परीक्षा कीजिए। इसको अधिक प्रभावी बनाने के लिए कौन से कदम आवश्यक हैं।
(2000)
Answer : यद्यपि किसी भी सरकार का प्रारूप राज्य की राजनीति के प्रकार से उसी सीमा तक प्रभावित होते हुए तैयार होती हैं, जिस सीमा तक उसकी अभिव्यक्ति की विधि की रूपरेखा। फिर भी जवाबदेही प्रत्येक सरकार के केन्द्र में हुआ करती है, वस्तुतः जवाबदेही के राजनीतिक और प्रशासनिक दो पक्ष हैं।
भारत की संसदात्मक प्रणाली व्यवस्था कार्यपालिका का उस संसद के प्रति जवाबदेह है, जिसके सदस्यों का चुनाव सार्वजनिक मताधिकार के आधार पर किया जाता है। भारत के राष्ट्रपति का यह दृढ़ संवैधानिक उत्तरदायित्व है कि वह प्रधानमंत्री द्वारा अध्यक्षता में मन्त्रिमण्डल के द्वारा प्रदान की गई सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करें। इस प्रकार राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह से बंधे रहते हैं और मन्त्रिमण्डल संसद के प्रति जवाबदेही रखता है। जवाबदेही के प्रशासनिक पक्ष के सन्दर्भ में राजनैतिक कार्यकारी सिविल सेवकों को इस बात के लिए जवाबदेही बनाते हैं कि वे अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन किस प्रकार से करे। अधिकारी तन्त्र एक सामाजिक संस्था है और इसके सदस्य अन्य मनुष्यों की भांति उस शक्ति को अपने निजी हित के लिए इस्तेमाल करने में और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन रहने में जरा भी संकोच नहीं करते। सिविल सेवा को सही परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़े रखने के लिए यह आवश्यक है कि समाज के हाथ में लोक सेवकों को जनसामान्य के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए कोई साधन उपलब्ध हो। वर्तमान में राजनीति व सिविल सेवा, भ्रष्टाचार, अपराधी तत्वों से सांठ-गांठ, नागरिकों की आवश्यकताओं के प्रति अनुक्रियाशील हैं, अतः जवाबदेही को किस प्रकार लागू किया जाए यह एक प्रमुख समस्या बनी हुई है। जवाबदेही को लागू करने के लिए समवर्ती साधन, जैसे विप्रश्न कार्यस्थगन प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, अनुदान मांगों पर बहस, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, आधा घन्टा बहस आदि शून्यकाल बहस, लागू करने चाहिए। जवाबदेही का यह प्रकार नियन्त्रण की प्रकृति का है। समवर्ती साधन के अतिरिक्त कार्योत्तर प्रकृति जवाबदेही भी लागू की जा सकती है।
भारत में मंत्रीय उत्तरदायित्व की संकल्पना लागू की गई है। मन्त्री अपने स्वयं के और साथ ही साथ अपने कार्यभार में मंत्रलय में कार्य कर रहे हैं। सभी सिविल सेवकों के द्वारा किए गए कार्यों के लिए संसद के प्रति जवाबदेही होती है। सिविल सेवक अनायता के सिद्धांत के द्वारा सुरक्षित रहता है। मन्त्रलय में कुछ भी बिगड़ने पर संसद मंत्री को ही उत्तरदायी ठहराती है। चाहे मन्त्री को इस बात का ज्ञान न हो या उसके द्वारा अनुमोदन भी न हुआ हो।
प्रशासन-तन्त्र को जवाबदेही बनाने के चिर समस्त प्रयास अपर्याप्त दिखाई दे रहे हैं, अतः जवाबदेही को अधिक विशिष्ट बनाया जाना चाहिए तथा इसे संगठनात्मक और कार्य विधिक समिश्रण के द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इस हेतु कुछ प्रयास किए जाने चाहिए। जैसे- कार्यपालिका पर संसद का नियन्त्रण, जितना होना चाहिए उससे कम है। उस पर वृद्धि आवश्यक हैं। सजग न्यायपालिका, सर्तक संसद, निर्भिक चौकस प्रेस और शक्तिशाली निगरानी संगठनों की आवश्यकता है अतः यह अत्यावश्यक है कि इन संस्थाओं को प्रभावी बनाया जाए।
Question : ‘प्रशासन पर कार्यपालिका का नियन्त्रण कहीं अधिक वास्तविक है।‘
(1998)
Answer : किसी भी देश की कार्यपालिका का रूप वहां की संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप निर्धारित होता है। कार्यपालिका विधायिका द्वारा बनाये गये कानून को क्रियान्वित करती है। सरकारी अधिकारी जब नागरिकों के संवैधानिक या मौलिक अधिकारों पर अतिक्रमण करते हैं तो न्यायपलिका उनकी रक्षा करती है। कार्यपालिका के हाथों में प्रशासनिक सत्ता होती है। प्रजातंत्रीय समाज में शक्ति पर नियंत्रण आवश्यक है, शक्ति जितनी अधिक है, नियंत्रण की भी उतनी आवश्यकता होगी। विभिन्न प्रशासनिक विभागों एवं घटकों में समन्वय एवं एकता बनाए रखने के लिए भी कार्यपालिका को शक्तियां प्रदान करना आवश्यक है। कार्यपालिका प्रशासन की विभिन्न इकाइयों में सहयोग, सामंजस्य एवं तालमेल बनाए रखती है और आपस में संघर्ष नहीं होने देती है। इससे प्रशासन के एकीकरण के सिद्धांत में सहायता मिलती है।
उत्तरदायी सरकार में प्रशासन पर कार्यपालिका का नियंत्रण विद्यार्थी नियंत्रण के बाद इसका प्रमुख साधन है। वर्तमान शासन तन्त्र में नीतियों का निर्धारण मुख्य कार्यपालिका द्वारा ही होता है। और कार्यरत सरकारी कर्मचारी मुख्य पालिका के विपरीत एक निश्चित स्थायी अवधि के लिए नियुक्त किये जाते है। इन पर राजनीतिक दलों के उत्थान पतन का कोई असर नहीं पड़ता। सरकारी कर्मचारी ही नीतियों का क्रियान्वयन करते हैं, अतएव ये नीति निर्माताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इस प्रकार यदि लोक सेवाओं पर कार्यपालिकाओं का नियंत्रण न रखा जाय तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में जब ‘न्यू डील’ कार्यक्रम की शीघ्र कार्यान्वयन की बात कही गयी तो लोक सेवा ही इसमें बाधकतत्व के रूप में सामने उभर कर आयी। ब्रिटेन में लोकसेवा ने मजदूर सरकार के समाजवादी कार्य्र्र्रक्रमों में बाधा पहुंचायी थी। प्रशासकीय यन्त्र के विभिन्न भागों में एक-दूसरे से मतभेद उत्पन्न होते हैं और वे साम्राज्य निर्माण में लगे रहते हैं। अधिक से अधिक शक्तियां प्राप्त करने के लिए सक्रिय रहते हैं, ये नौकरशाह अपनी स्थिति को सुरक्षात्मक बनाने हेतु विधान मण्डलों एवं दलों से समझौता करते हैं एवं आम जनता से अपने कार्यों के लिए पर्याप्त समर्थन प्राप्त करने हेतु प्रचार भी करते हैं। नवीन कार्यक्रमों तथा नवीन प्रणालियों द्वारा जो परिवर्तन किये जाते हैं, वे इसका विरोध करते हैं।
कार्यपालिका प्रशासन पर निम्न लिखित उपकरणों के माध्यम से नियंत्रण करती है (1) नियुक्ति तथा निष्कासन का अधिकार (2) लोक सेवा संहिता (3) नियम निर्माण एवं अध्यादेश आदि के अधिकार (4) कर्मचारी वर्ग के समुदाय का अभिकरण (5) बजट (6) लोक मत से अपील।
इस प्रकार कार्यपालिका का नियन्त्रण अपने प्रशासनिक अधिकारियों पर संसदीय प्रणाली में प्रधानमंत्री एवं मन्त्रियों द्वारा होता है। विभाग के प्रत्येक कार्य का उत्तरदायित्व मंत्री पर आता, भले ही उसको इसकी ज्ञान हो अथवा न हो। व्यवहार में प्रत्येक निर्णय के पीछे समूचे संगठन की शक्ति होती है और उसके लिए एक प्रकार से समूचा संगठन उत्तरदायी भी होता है। कार्यपालिका का प्रशासन पर नियन्त्रण आन्तरिक रूप से निरन्तर चलता रहा है और यह अति आवश्यक भी है।
Question : ‘विधानमण्डल द्वारा प्रशासन पर लगाए जाने वाले नियन्त्रण संक्षेप में, व्यवहारिक प्रभाविता की अपेक्षा सैद्धान्तिक प्रभाविता के अघिकार हैं।
(1997)
Answer : संसदीय व्यवस्था में सर्वसम्मति से अंगीकार कर लिया गया है, कि संसद का एक महत्वपूर्ण कार्य प्रशासन पर नियन्त्रण रखना है अर्थात सरकार के कार्यों पर, चाहे वह संभावित हो या सम्पादित, संसद को अपनी राय एवं सहमति व्यक्त करने का अधिकार है।
लोक प्रशासन में नियंत्रण की समस्या का अध्ययन विधायी नियंत्रण, कार्यपालिका नियंत्रण, न्यायिक नियंत्रण, जन नियंत्रण, आन्तरिक नियंत्रण शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है।
संसद द्वारा अनुमोदित सरकार की नीतियों को कार्यरूप प्रदान करने का साधन प्रशासन है, अतः मंत्रिपरिषद और प्रशासन में घनिष्ट सम्बन्ध होता हैं। मंत्रिपरिषद प्रशासन के माध्यम से नीतियों के क्रियान्वयन के लिये संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। प्रशासन की अनियमितता, असफलता, त्रुटि, भ्रष्टाचार के लिये अंतिम रूप से मंत्रिपरिषद ही उत्तरदायी होती है। अतएव मंत्रिपरिषद पर प्रशासन की गतिविधि पर दृष्टि रखने तथा संसद के प्रति सत्यनिष्ठा दर्शित करने का महत् भार होता है क्योंकि प्रशासन की त्रुटि या असफलता के पश्चात् संसद द्वारा इनके कार्यों को विश्लेषित किया जा सकता है।
विधायिका विधि निर्मित करती है। कार्यपालिका विधियों को कार्यरूप देती है और न्यायपलिका प्रशासनिक कार्य की वैधानिकता को देखती है। नागरिकों के संवैधानिक या मौलिक अधिकारों की संरक्षा न्यायपालिका करती है। वस्तुतः प्रजातंत्रीय व्यवस्था में शक्ति पर नियंत्रण परमावश्यक है। प्रशासनिक अधिकारों की वृद्धि के साथ ही साथ सुरक्षा व्यवस्था भी बढ़ाया जाना नितांत आवश्यक है, जिससे इन अधिकारों के दुरूपयोग से बचा जा सके। उत्तरदायी सरकार में प्रशासन पर कार्यपालिका का नियंत्रण विधायी नियंत्रण के पश्चात् द्वितीय प्रमुख साधन है। कार्यपालिका का प्रमुख उत्तरदायित्व शासन की नीतियों के निर्माण से है और कार्यरत सरकारी कर्मचारी इन नीतियों को क्रियान्वित करते हैं। कार्यपालिका प्रशासन पर अग्रांकित उपकरणों के माध्यम से नियंत्रण करती है।
संसदीय नियंत्रण के अभाव में प्रशासनिक क्रियाओं में समन्वय की कल्पना नहीं की जा सकती। एक ही कार्य के
भिन्न-भिन्न रूपों से जब विभाग संदर्भित हो जाते हैं, तब नौकरशाही का वीभत्स स्वरूप सामने आता है, जिसके कारण सामान्य जन असंगत रूप से परेशान होते हैं। संसद का प्रशासन पर नियंत्रण होता है। यह नियंत्रण राजनैतिक होता है। संसद की भिन्न-भिन्न समितियां भी इसमें योगदान देती हैं। सामान्य प्रतिनिधि के स्वरूप में संसद का यह दायित्व है कि वह प्रशासन को सामान्य जनहित में संचारित करे। इस निमित्त संसद के पास निषेधात्मक एवं विधेयात्मक अधिकार होते हैं। संसद निर्धारित नीति का विधायन कर विधि निर्मित कर लोकसेवकों को उनकी शक्तियों के सदुपयोग हेतु अभिप्रेरित कर सकती है। निषेधात्मक संसदीय नियंत्रण के अन्तर्गत प्रश्न पूछना, प्रस्ताव पेश करना, काम रोको प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव, कटौती प्रस्ताव एवं संसदीय समितियां आती हैं।
प्रशासन पर नियंत्रण हेतु संसद मुख्यतः राष्ट्रपति का अभिभाषण, प्रश्नकाल, वाद-विवाद, बहस, बजट पर बहस, स्थगन प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, आदि साधन अपनाती है। स्थगन प्रस्ताव संसद सदस्यों को ऐसा अवसर देता है जिसमें वह सार्वजनिक महत्व के किसी भी महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर प्रशासनिक विभाग द्वारा कार्य संचालन पर विवाद कर सकते हैं। इस प्रस्ताव द्वारा संसद के निर्धारित कार्यक्रम को रोक कर किसी लोकहित के महत्वपूर्ण विषय पर विचार-विनिमय आरम्भ हो जाता है और सदन की कार्यवाही कुछ समय के लिये स्थगित कर दी जाती है। किसी भी लोक सेवा विभाग के अधिकारियों के भ्रष्टाचार, असंगतताओं के विरूद्ध इस प्रकार के प्रस्ताव रखे जा सकते हैं।
भारत में जहां संसदीय परम्परायें और प्रक्रियायें शैशवावस्था में हैं, यह एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है कि संसदीय नियंत्रण अपनी गौरवपूर्ण स्थिति को प्राप्त कर सके। संसद में मंत्री के माध्यम से प्रशासनिक सूचना प्राप्त की जाती है और प्रशासन में नियंत्रण की सीमा तक ही हस्तक्षेप अनुमान्य है। संसदीय परम्परानुसार मंत्रीगण संसद की आलोचना से अपने विभाग के अधिकारियों का बचाव करते हैं। संबधित विभाग के मंत्रियों को श्लाघनीय प्रयास करने चाहिए जिनके आधार पर लोक प्रशासकों के निर्णयों को रक्षित किया जा सके।
संसदीय समितियाँ भी प्रशासन पर अपरोक्ष रूप से नियंत्रण रखती हैं। वे प्रशासन के कार्य व्यवहार का विश्लेषण कर असंगतता के बिन्दुओं को प्रकाश में लाने का कार्य करती हैं। प्रशासन में राजनीति के समाविष्ट हो जाने के कारण संसदीय नियंत्रण मात्र औपचारिकता ही प्रतीत होता है क्योंकि संसद नीति-निर्माण करती है एवं उनका परिचालन प्रशासन द्वारा होता है। अतः यह कहना समीचीन है कि विधानमण्डल द्वारा प्रशासन पर लगाये जाने वाले नियंत्रण, संक्षेप मे व्यावहारिक प्रभाविता की अपेक्षा सैद्धान्तिक प्रभाविकता से अधिक है।