Question : प्रशासन में दक्षता सुधार के लिए, भारत में अपनाए जाने वाले संगठन एवं विधि (ओ एण्ड एम) के बीच विभिन्न तकनीकों पर प्रकाश डालिए।
(2007)
Answer : लोक प्रशासन का सम्बन्ध उन गतिशील संगठनों से है जो सरकार के दायित्वों की पूर्ति हेतु जनसाधारण के लिए सेवाएं संचालित करते हैं। प्रशासनिक संगठन अनेक प्रकार से कानूनों नियमों तथा प्रक्रियाओं का पालन करते हैं तथा इन संगठनों की संरचना भी तदानुसार निर्धारित होती है। प्रशासनिक संस्थाएं प्रत्येक युग में किसी न किसी रूप में राज्य के साथ अवश्य संलग्न रही है तथा समय की मांग के साथ इन संस्थाओं में यथोचित संशोधन भी किए गए हैं। स्वाभाविक रूप से प्रशासनिक कुशलता तथा मितव्यमिता सदैव से ही प्रशासनिक सुधारों तथा उभयन के मुख्य चिंतन स्थल रहे हैं। प्रशासनिक सुधारों का अर्थ प्रक्रिया से है, जिनमें प्रशासनिक व्यवस्था की कार्यकुशलता (दक्षता) तथा गुणवत्ता में वृद्धि करने के लिए कृत्रिम (सुनियोजित) ढंग अर्थात जानबूझकर परिवर्तन किए जाते हैं। यह सुधार प्रायः बडे़ परिवर्तनों तथा उठापटक से प्रतीत होते हैं, जिनमें वैधानिकता का पुट समाहित होता है, लेकिन यहां वर्णित विवरण में प्रशासनिक सुधार का तात्पर्य उन विधियों या तकनीकों से ही है जो प्रशासनिक उन्नयन या विकास से संबंधित हैं। Improvement की यह तकनीकें निसंदेह शनैः शनैः विकसित हुई हैं तथा विज्ञान की प्रगति ने प्रशासनिक कार्यकुशलता की तकनीकों को सर्वाधिक प्रभावित किया है।
प्रशासनिक सुधारों या उन्नयन को पॉल एच एपलबी ने दो रूपों यथा-निरन्तर एवं प्रासंगिक रूप में विभक्त किया है। विकास के लिए निरन्तर उन्नयन करना या बदल हुए हालातों के साथ अनुकूल न करना स्वतः समायोजन की स्थिति है, जबकि प्रासंगिक बदलाव में व्यापक फेरबदल तथा सुधार सम्मिलित है। एपलबी ने इसे पुनर्गठन का नाम दिया है। केडन ने प्रशासनिक सुधार हेतु चार चरण बताए हैं-
प्रशासनिक उन्नयन इसलिए भी आवश्यक है कि सामान्यतः संगठनों में यह क्षमता नहीं होती है कि ग्राहकों की मांग को पूरा कर सकें भविष्य की मांगों का पूर्वानुमान लगा सके। इसलिए प्रशासनिक सुधार किए जाते हैं। यह सुधार राजनीतिक क्रांति के द्वारा रोपे हुए, संगठन के पुनर्गठन (कठोरता हटाने हेतु) न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से या विचारों में परिवर्तन करके किए जा सकते हैं।
ऐतिहासिक विकासः प्रशासनिक कुशलता या संगठनात्मक प्रभावशीलता में वृद्धि से सम्बन्धित प्राचीनकाल से जारी है किंतु इन प्रयासों को औद्योगिक क्रांति तथा पुनर्जागरण की घटनाओं से सर्वाधिक बल मिला है। 18वीं सदी में उद्योग के प्रसार के साथ ही कर्मचारी, मानव तथा मशीन के सम्बन्धों के विषय में चिन्तन, वैज्ञानिक प्रबन्ध, उन्नत प्राविधियों तथा नवाचारों पर था। समस्त तथा गति के प्रामाणिक अध्ययनों के साथ ही टेलर ने कार्य विभाजन या विशिष्टीकरण की महत्ता सिद्ध करते हुए उद्योग जगत में एक क्रांति सी पैदा कर दी थी। आज से कुछ दशक पहले टेलर की मान्यताएं एक क्रांति ही प्रतीत होती थी क्योंकि टेलर ने कार्य तथा मशीनों में सुधार बताकर पूंजीपति वर्ग को चौंका दिया था। इसके पश्चात् आई मानव सम्बन्ध विचारधारा, जो की हाथोर्न प्रयोगों का परिणाम थी। इसने यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य केवल आर्थिक मानव नहीं है बल्कि संगठन के अन्दर बनने वाले अनौपचारिक समूह सम्पूर्ण कार्य प्रणाली तथा उत्पादकता को प्रभावित करते हैं। प्रशासनिक कुशलता तथा संगठनात्मक प्रभावशीलता में वृद्धि हेतु यह आवश्यक हो गया है कि केवल सैद्धान्तिक, वैज्ञानिक एवं मशीनी तकनीकों के प्रयोग के स्थान पर मानव संसाधन के मानसिक एवं व्यवहारिक स्वरूप पर भी ध्यान दिया जाए।
संगठन तथा पद्धतियां: संगठन तथा पद्धतियां (प्रणाली) को लघु रूप में प्रायः O & M कहा जाता है। प्रशासन में कुशलता लाने के लिए इस प्रणाली का प्रयोग अधिकांश देशों में किया जाता है। स्थूल रूप में संगठन तथा पद्धतियां नामक इस प्रणाली में किसी प्रशासनिक अभिकरण के आन्तरिक संगठन और कार्य प्रणालियों का पुनरीक्षण करना आवश्यक सुधार करना है ताकि कार्य कुशलता में वृद्धि हों। ओ. एण्ड एम. की तकनीकें एवं कार्य प्रणाली- O & M प्रणाली के प्रकार की तकनीकों का प्रयोग होता है, जैसे-
प्रबन्ध या संगठन O & M की सर्व प्रमुख तकनीके हैं। कोई भी ओ. एण्ड एम. विश्लेषक इस तकनीक का प्रयेाग किसी न किसी मात्रा में अवश्य करता है। प्रबन्ध सर्वेक्षण पर एक या अधिक सम्बन्धित संगठनों, कार्यों या कार्य विधियों का क्रमबद्ध परीक्षण तथा विश्लेषण है। प्रारम्भ में संगठन की समस्याओं को समझने उनके कारण जानने तथा समाधान निकालने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। यह सर्वेक्षण एक विभाग या एक इकाई या एक-एक पृथक कार्य विधि का हो सकता है। प्रबन्ध सर्वेक्षण कई प्रकार के छोटे होते हैं, जैसे- गवेषणा, सर्वेक्षण, सम्पूर्ण सर्वेक्षण, निष्पादन सर्वेक्षण संगठन सर्वेक्षण आयोजित करते समय एक सम्पूर्ण येाजना बनाई जाती है। जिसमें पूछताछ, अवलोकन तथा संचालन प्रमुख कदम है। अन्त में संगठन की सत्ता, सत्ता-स्तर, नियन्त्रण-विस्तार, कार्य विभाजन कार्य स्थिति, भंडार एवं कार्मिक स्थिति, कार्मिक प्रशासन तथा कार्य प्रणालियों इत्यादि के क्रम में निदान सहित विवरण तैयार करना पड़ता है। इस रिपोर्ट में निष्कर्ष एवं सुझाव भी समाहित किए जाते हैं तथा अन्त में प्राप्त परिणामों का अनुवर्तन भी किया जाता है।
निरीक्षण एक व्यापक रूप से अपनाई जाने वाली तकनीक है। मुख्यतः निरीक्षण दो प्रकार के होते हैं:
आन्तरिक निरीक्षणः स्वयं विभाग के द्वारा एवं बाहरी निरीक्षण ओ एण्ड एम- द्वारा किए जाते हैं। निरीक्षण तकनीक के द्वारा निम्न सुझाव दिए जा सकते हैं।
प्रथम निरीक्षण में आधुनिक प्रशासनिक संस्थाएं कागजी कार्यवाहियों में चलती है। प्रत्येक विभाग में उसके उद्देश्यों, कार्यों तथा कार्य-विधियों में के अनुसार बहुत से प्रपत्र प्रकाशित कराये जाते हैं। यह प्रपत्र विभाग के द्वारा तथा आम जनता द्वारा भरे जाते हैं। इन प्रपत्रें में लिफाफे नोट शीट, फाइल तथा लैटर पैड सम्मिलित नहीं है। O & M इकाई प्रपत्रों को सरल बनाने में सहायता करती है। भीतर में अब आयकर विवरणी सहित अनेक सरकारी प्रपत्र सरल बनाए जा सके हैं।
नयस्तीकरण नौकरशाही के कार्य प्रणाली तथा वैधता प्राप्त सत्ता की मुख्य आवश्यकता है। आवश्यकता निर्देश तथा मितव्ययिता पूर्ण सुरक्षा तथा निर्देश के लिए कागजातों को व्यवस्थित करना तथा भविष्य में भी उन्हें वैसा ही बनाए रखना ही तो परिचालन कहलाता है। नयस्तीकरण का मुख्य लाभ यह है कि इससे भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर फाइल या कागजात तुरन्त मिल जाते हैं। लेकिन फाइलों का वर्गीकरण, सुरक्षा, रख रखाव कोडिंग, निपटारा तथा प्रेषण सरल कार्य नहीं है। सुधार की आवश्यकता है। O & M की तकनीकों से प्रशासन में सुधार किए जा सकते हैं। संक्षेप में O & M तकनीकें निम्न प्रकार हैं- सर्वेक्षण, निरीक्षण, फार्म नियन्त्रण, कार्यमाप, कार्य-सरलीकरण, स्वचालन, नयस्तीकरण, प्रणाली इत्यादि हैं। संक्षेप में O & M के निम्नलिखित लाभ हैं प्रशासनिक सुधार का महत्वपूर्ण साधन, क्रियाविधि को आधुनिकतम बनाना अनुभव का भण्डार है।
Question : "सूचना का अधिकार प्रत्येक लोक प्राधिकरण के कार्यचालन में पारदर्शिता एवं जबावदेही को बढ़ावा देता है।" स्पष्ट कीजिए।
(2007)
Answer : वीरप्पा मोइली समिति ने अपनी प्राथमिक दृष्टि में ही सुशासन के निमित्त सूचना के अधिकार की प्रासंगिकता को उपादेय माना था। प्रशासन में पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व की भावना के संचरण के निमित्त सूचना के अधिकार को ब्रह्मास्त्र माना गया। सूचना का अधिकार मौलिक अधिकार की तरह ही व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार माना जा सकता है। इसके माध्यम से प्रशासन में विसंगतियों एवं लालफीताशाही पर नकेल डाली जा सकती है।
बिना सूचना का अधिकार दिये हुए सुशासन की कल्पना करना एक भ्रांति ही है। अतः लोक प्रशासन में पारदर्शिता को वास्तविक अर्थों में विकसित करने एवं विसंगतियों को न्यून करने के निमित्त सूचना का अधिकार पारित किया गया है। इसके माध्यम से संस्थाओं को जबाबदेह बनाया गया है। जनतांत्रिक समाज के निवासियों को यह जानने का पूर्ण अधिकार है कि उनके द्वारा निर्वाचित सरकार का कार्य व्यवहार कैसा है? वस्तुतः सूचना का अधिकार दिया जाना ही सच्चे अर्थों में लोकतंत्र को प्रमाणित भी करता है।
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अस्तित्व में आने के परिणामस्वरूप भारतीय जनतंत्र अब वास्तविक अर्थों में विश्व का उत्कृष्ट लोकतंत्र हो गया है। यदि इस प्रावधान को देश के लोकतांत्रिक इतिहास में मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी जाये तो इसमें कोई असंगतता नहीं होगी।
इसके माध्यम से जनता अपने सामान्य जीवन को प्रभावित करने वाली लगभग सभी शासकीय नीतियों, निर्णयों, कार्यक्रमों एवं योजनाओं आदि के बारे में कोई भी जानकारी अब सरलतापूर्वक बिना किसी हिचकिचाहट के एक प्रारंभिक अधिकार के रूप में प्राप्त कर सकते हैं। निश्चय ही हमारी संसद ने इसे विधान को निर्मित करके मानव के अधिकारों की जनतांत्रिक वृहदता को नवीन आधार प्रदान किया है। भ्रष्टाचार एवं प्राधिकार के दुरूपयोग की विसंगतियों को सीमित इसी अधिकार ने किया है एवं साथ ही साथ न्याय एवं उत्तरदायित्व की नई सुबह को भी प्रोत्साहित किया है।
विश्व के अनेक लोकतांत्रिक देशों ने अपने नागरिकों को सूचना का अधिकार प्रदान किया है। दक्षिण अफ्रिकी संविधान ने इसे अपने नागरिकों का मूल अधिकार स्वीकृति किया है।
अन्यानेक जनतांत्रिक देश इसे मूल अधिकार के तुल्य ही महत्व प्रदान करते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) (क) व अनुच्छेद 21 में सूचना का अधिकार समाहित है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 तथा खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम 1954 में सूचना के अधिकार का प्रकाश दृष्टिगत होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात कभी गोपनीयता, तो कभी राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता, अखण्डता, जनहित आदि को छदम आवरण बनाकर जनता को कई शासकीय निर्णयों एवं कार्यवाहियों से अनभिज्ञ बनाए रखा गया, जिससे शासन को मनमानी करने का मौका मिलता रहा एवं भ्रष्टाचार जैसे विषवृक्ष की जडे़ं गहरी होती चली गई। शासन द्वारा निर्मित अन्यानेक योजनाओं का लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच पा रहा था। तमाम शासकीय योजनाओं का प्राणान्त जनता के सहयोग के बिना हो जाता है, जिसे लेकर देश के निवासियों में अविश्वास संदेह एवं आक्रोश की विकृति आने लगी। ज्यादातर योजनाओं का प्राणान्त सम्यक् सूचना के अभाव में हो जाता था। ऐसे में संसद को यह अनुभूत होने लगा कि जनतांत्रिक प्रक्रिया में लोक सहभागिता प्राप्त करने के निमित्त सूचना के अधिकार का दिया जाना अत्यावश्यक है।
सूचना का अधिकार से अभिप्राय कोई व्यक्ति अभिलेख ई-मेल, सलाह, विचार, प्रेस विज्ञप्ति, आदेश, दस्तावेज, प्रतिवेदन व इलेक्ट्रानिक आंकडों के रूप में अंकित या व्यक्तिगत संस्थाओं से जुड़ी प्रत्येक सूचना ट्टजुतापूर्वक प्राप्त कर सकता है, जिस तक किसी लोक अधिकारी का अधिकार विधिक है। वर्तमान परिवेश में सूचना के अधिकार ने व्यापकता धारित कर ली है। सूचना की सम्प्राप्ति के लिए केंद्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोग जैसी संस्थाओं का गठन किया गया है। अगर किसी के सूचना के अधिकार का हनन किया जाता है, तो वह सम्बन्धित राज्य या केन्द्रीय सूचना आयोग में सूचना की प्रकृति को लेकर अपील कर सकता है।
सूचना की सम्प्राप्ति के निमित्त आवश्यक शुल्क जमा करके सूचना अधिकारी के पास आवेदन किया जाता है। एक महीने के भीतर के सूचना की सम्प्राप्ति अत्यावश्यक है। यदि सूचना का संदर्भ किसी व्यक्ति के जीवन-मरण से है तो 48 घंटे में सूचना देना अनिवार्य है। सूचना के अधिकार पर युक्तिसंगत प्रतिबन्ध भी आरोपित किये जा सकते हैं। राष्ट्र की सुरक्षा, एकता, अखण्डता जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर सूचना देने से मना किया जा सकता है। यद्यपि सूचना का अधिकार व्यक्ति के लिए अति महत्वपूर्ण हैं तथापि अशिक्षा, सम्प्रदायवाद, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद जैसी संवेदनशील समस्याओं के कारण भारतवर्ष में सूचना का अधिकार व्यापक रूप से लागू नहीं हो सका है।
वर्तमान परिवेश में सूचना के अधिकार को मूल अधिकार बनाने की आवश्कता अनुभूत की जा रही है। इसे व्यापक रूप में व्यवहार में लाने हेतु चरणबद्ध की आवश्यकता अनुभूत की गई है। इस निमित्त शासकीय प्रयास के साथ ही साथ स्वैच्छिक संस्थाएं जन आंदोलन व जनसंचार माध्यम इत्यादि भी अग्रण्य भूमिका निभा सकते हैं। सूचना के अधिकार के व्यापक प्रचार व प्रसार की आवश्यकता है। अधिकारी गण को भी सूचना के अधिकार की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए, ताकि सूचना के अधिकार के क्रियान्वयन में बाधा उपस्थित न हो सके। निजी क्षेत्र को भी सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाया जाना चाहिए। इससे स्पष्ट है कि सूचना का अधिकार व्यापक रूप में होने वाले शासकीय मनमानेपन को सीमित करने में उपयोगी है। स्वच्छ एवं पारदर्शी शासन के निमित्त सूचना का अधिकार रामबाण सदृश है।Question : "सूचना प्रौद्योगिकी का उदय ऐतिहासिक अशक्तताओं पर काबू पाने का एक अवसर है।" स्पष्ट कीजिए।
(2006)
Answer : औद्योगिक क्रांति का मुख्य आधार मशीनीकरण ही रहा है, जिसमें मानव श्रम के स्थान पर मशीनों को बढ़ावा मिला। प्रबंध तथा लोक प्रशासन के क्षेत्र में भी स्वचालित मशीनों तथा उपकरणों का महत्व निरंतर बढ़ा है। इससे न केवल सूचनाओं का आदान-प्रदान तेज होता है, बल्कि संगठनों में पारदर्शिता को बढ़ावा मिला है। निर्णय और लोकनीतियां भागीदारीपूर्ण होती हैं। E-governance के बहुत से नये अवसर उत्पन्न होते हैं। संगठन सेवाओं के संदर्भ में बेहतर गुणवत्ता या मानदण्डों को रख पाते हैं। जानकारी स्थानांतरण या आदान-प्रदान की प्रक्रिया तेज होती है, क्योंकि नागरिक या श्रमिक बेहतर सूचित होता है। वह सक्रिय बनता है और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से सूचनाओं और सेवाओं के संदर्भ में जुड़ेगा। कार्यक्रमों और नीतियों में नागरिक की एक नयी तरह की भूमिका भागीदारी आयेगी। सामुदायिक सक्षमता के नये तरह के प्रयास होते हैं और राज्य तथा गैर राज्य संस्थाओं की पारस्परिक भागीदारी को ज्यादा अच्छे से निभा सकते हैं।
लोक प्रशासन समस्त सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था की उपव्यवस्था है। ऐसे में सूचना प्रौद्योगिकी सहित अन्य सभी पक्षों का प्रभाव भी लोक प्रशासन पर उसी रूप एवं मात्रा में पड़ता है, जिस प्रकार अन्य सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, तकनीकी तथा मानवीय पक्षों पर पड़ता है।
इसलिये मार्शल मैकलुहान कहते हैं- नई इलेक्ट्रॉनिक स्वतंत्रता विश्व को एक वैश्विक गांव की छवि प्रदान करती है। एक 'Virtual Institute'के रूप में कंप्यूटर बहुत सारे विषयों पर ज्ञान प्रदान करता है। कंप्यूटर वर्तमान प्रशासन की निम्न आवश्यकताओें को पूर्ण कर रहा है-
भारत में आज लगभग प्रत्येक मंत्रलय, विभाग या प्रशासनिक संगठन की वेबसाइट विकसित हो चुकी है अतः यह स्पष्ट है कि सूचना प्रौद्योगिकी का उदय ऐतिहासिक अशक्तताओं पर विजय पाने का एक अवसर है और जिस पर वर्तमान ई. प्रशासन ने हर मायने में अपना महत्व और प्रभाव कायम किया है।
Question : उत्तम शासन के सन्दर्भ में, प्रभावी सरकार-नागरिक अन्योन्यक्रिया में, सूचना प्रौद्योगिकी किन तरीकों से और किस प्रकार एक निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है?
(2005)
Answer : किसी राष्ट्र एवं राज्य के लोगों को शान्तिपूर्वक व्यवस्थित, तार्किक, समूह तथा सहभागी जीवन प्रदान करने के लिए शासन की कार्य प्रणाली ही सुशासन है।
सुशासित राज्य वह है, जिसके नियम भले ही कम हो, लेकिन उन पर अमल कठोरता से किया जाता है व इसमें राजनीतिक जवाबदेयता, पारदर्शिता पूर्वक सूचनाएं प्रभावी एवं कुशल प्रशासन और सरकार एवं लोगों के मध्य सहयोगी की भावना परिलक्षित होती है।
उत्तम शासन में जन साधारण के हितों की उचित समय पर तथा प्रभावशाली ढंग से रक्षा सरकार करती है। साथ ही जनता के प्रति उत्तरदायी रहते हुए कुशल नागरिक सेवाएं जनता को प्रदान करती है। सूचना प्रौद्योगिकी सुशासन करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रही है। ई-शासन, सुशासन की पद्धति है। उत्तम शासन की अवधारणा मूलतः ई-शासन के साथ घुली-मिली है। जिसे आजकल स्मार्ट शासन कहा जाता है। जिसका अर्थ है नौकरशाही का आकार कम करना, प्रशासन में नैतिकता स्थापित करना लोक सेवाओं में जवाबदेयता लाना, जनता में प्रशासन के प्रतिविश्वास पैदा करना एवं सरकारी नीतियों, निर्णयों, कार्यों तथा सेवाओं में पारदर्शिता लाना है।
इलेक्ट्रानिक प्रशासन को तात्पर्य सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में संस्थानों कार्यालयों, विभागों आदि के विषय में सूचना एवं उनकी सेवाओं की सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से जनता तक पहुंचाना। साथ ही, अपनी दर्ज शिकायतों, जमा फार्मों आदि पर स्थिति रिपोर्ट भी प्राप्त करना है।
ई-गवर्नेस एक शासन पद्धति है, जो वर्तमान शासन व्यवस्था से बिल्कुल पृथक है। वर्तमान शासन सरकारी कर्मचारियेां एवं फाइलों पर निर्भर है, जबकि ई-गवर्नेंस सूचना प्रौद्योगिकी एवं कम्प्यूटरीकृत डेटा पर आधारित है। ई-गवर्नेंस में सरकारी कर्मचारियों का कार्य सरल हो जाता है। नागरिेकों को भी इस सुविधा से अधिक जानकारी प्राप्त होती है।
ई-गवर्नेंस सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से सरकार सेवाओं को जन-मानस तक पहुंचाना नहीं है, अपितु सम्पूर्ण ढांचे एवं उसकी कार्य प्रणाली की काया पलटना है। इससे सरकार कार्यपालक एवं नागरिकों के अधिकारों एवं दायित्वों के स्वरूप में भी परिवर्तन आएगा। ई-गवर्नेंस की दिशा में किए जाने वाले प्रयास सामाजिक सुधार के लक्ष्य पर आधारित होते हैं, अतः इसे बहुत ही बुद्धिमता एवं योजनाबद्ध तरीके से कार्यान्वित किया जाता है।
ई-गवर्नेस का उद्देश्य है, सरकार द्वारा दी जा रही सेवाओं एवं सुविधाओं को आम नागरिक एवं इलेक्ट्रानिक माध्यम से पहुंचाना है। ई-गवर्नेस सरकारी सुविधाओं और योजनाओं की उपयोगिता के बारे में जनसाधारण को अवगत कराती है। वह सरकारी कामकाज को पारदर्शी बनाती है। सरकारी सुविधाओं को सुव्यवस्थित रूप से दक्षता के साथ आम नागरिक तक पहुंचाती है। दूरवर्ती क्षेत्रें में रहने वाले नागरिकों से इलेक्ट्रानिक माध्यमों से जोड़ती है। साथ ही सरकारी पद्धतियों एवं कामकाज में व्याप्तभ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी को समूल से नष्ट करने का प्रयास करती है।
इस नवीन इलेक्ट्रानिक पद्धति को अपनाने से सरकारी सेवाएं अधिककार्य सक्षम बन रही हैं। सूचना प्रौद्योगिकी से सरकारी कामकाज में उपयोगी में उपयोग से तकनीकी रूप में उसकी सेवाएं और अधिक सुदृढ़ बनकर आम जनता तक पहुंच रही है। इलेक्ट्रानिक माध्यमों के जरिए सरकारी कार्य योजनाओं के सूचना प्रौद्योगिकी की मदद से आम नागरिक तक पहुंचाने का प्रयास हो रहा है।
इस तरह स्पष्ट है कि सूचना प्रौद्योगिकी के समुचित व प्रभावशाली उपयोग से सुशासन की स्थापना की जा सकती है।
Question : सूचना प्रौद्योगिकी किसको कहते हैं? लोक प्रशासन पर उसके प्रभाव का वर्णन कीजिए।
(2004)
Answer : मानव के सामाजिक प्राणी बनने में सूचना ने स्नायु तन्त्र की भूमिका अदा की है। सूचनाओं के ही द्वारा मानव ने अपने जीवन को सुरक्षित व उद्देश्यपूर्ण बनाया है। सूचना के क्षेत्र में नई क्रान्ति का सूत्रपात 19वीं शताब्दी में टेलीग्र्राफ के अविष्कार के साथ हो गया था। सूचना प्रौद्योगिकी से तात्पर्य है कि ऐसी वस्तुएं, जिनका उपयोग निर्णय लेने की प्रक्रिया को अधिक अर्थपूर्ण बनाने या इसकी मदद से तथ्यों को रूप एवं आकार देने के लिए किया जाता है। सूचनाओं के कुशल प्रबंधक के लिए साफ्रटवेयर और हार्डवेयर के इस्तेमाल सूचना प्रौद्योगिकी को पारिभाषित किया जाता है।
सूचना प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकीय, इंजीनियर के अलावा सूचनाओं के आदान-प्रदान व प्रसंस्करण में काम आने वाली प्रबंधनतकनीक, उनका अनुप्रयोग कम्प्यूटर तथा मनुष्यों और मशीनों से उनका तालमेल तथा इससे सम्बद्ध सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक मुद्दे आते हैं। 21वीं शताब्दी के ज्ञान आधारित समाज के रूप में मानने के पीछे प्रमुख कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी का बढ़ना है। आज समाज को प्रत्येक पक्ष न्यूनाधिक मात्र में सूचना प्रौद्योगिकी से प्रभावित हो रहा है। समाज का एक भाग होने के कारण लोक प्रशासन भी सूचना प्रौद्योगिकी के प्रभाव से अछूता नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी का लोक प्रशासन पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है।
वर्तमान समय में पूरे विश्व में ‘ई-गवर्नेंस’ की अवधारणा लोक प्रिय होती जा रही है और ‘ई-गवर्नेंस’ और कुछ नहीं, वरन् लोक प्रशासन में सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न तत्वों का अधिकाधिक प्रयोग ही है।
सूचना प्रौद्योगिकी कम्प्यूटर, इन्टरनेट तथा ई-मेल जैसे माध्यमों से नागरिक और प्रशासन को एक दूसरे के सामने कर दिया है। प्रशासन न केवल त्वरित, कुशल होगा अपितु पारदर्शी भी बनता जा रहा है। नागरिकों को उससे कामकाज सम्बन्धी सूचनाएं एवं प्रक्रियाओं की जानकारी आन लाइन मिलने लगी है। इससे समय में बचत होती है तथा व्यय भी कम होता है।
आई. टी के बढ़ते उपयोग से सरकारी कार्यालय तथा कागजी प्रशासन बिना कागज के कार्यालयों में बदलते जा रहे हैं। अब सरकारी कार्यालयों में लाल फीतों से बंधी फाइल देखने को नहीं मिलेंगे। बिना फाइल के प्रशासन के परिणामस्वरूप लालफीताशाही में कमी आई है।
लोक प्रशासन में आई. टी के अधिक-से-अधिक उपयोग से धीरे-धीरे नौकरशाही की संख्या एवं पद कम करना आसान हो जाएगा।
प्रशासन में नौकरशाही के पद सोपान की सीढि़यों में कमी आ रही है और प्रशासनिक संगठन समतल तथा पद सोपान रहित बनते जाएंगे। कम्पयूटर आधारित फाइलिंग व्यवस्था होने से फाइलों को धक्का लगाने वाले बिचौलियों से लोक प्रशासन को छुटकारा मिलेगा। लोक प्रशासन में नीति-निर्माण एवं निर्णय लेने के लिए सही आंकड़े और सूचनाओं की हर स्तर पर जरूरत होती है। आई. टी. से सही आंकडे़ और सूचनाएं उपलब्ध कराना आसान हो गया है अतः बिना किसी पूर्वाग्रह के तथ्यों पर आधारित निर्णय लेना सुलभ हो गया है। उत्तम अभिशासन के लिए सूचना का निर्वाह प्रवाह एवं पारदर्शिता आवश्यक शर्ते हैं, जो शासन जनता का, जनता के लिए है। रूढिवादी सामन्ती प्रकृति के भारतीय प्रशासन को लोकतान्त्रिक प्रशासनिक परिवेश में परिवर्तित करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के विभिन्न उपकरण अत्यधिक मदद करते हैं। इंटरनेट के माध्यम से सरकारी आंकड़ों और सूचनाओं तक आम नागरिक को पहुंचना सुगम हो गया है, अतः अब नौकरशाही पर जन नियन्त्रण अधिक प्रभावी होता जा रहा है।
सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये भारत के रूढि़वादी औपनिवेशिक प्रकृति वाले प्रशासन को सहभागी संस्कृति वाले लोक प्रशासन में परिवर्तित करना आसान हो रहा है। जिसके जरिये आम आदमी प्रशासन में सक्रिय भागीदारी अदा करने के अधिकतम अवसर हासिल कर रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी ने लोक प्रशासन में बहुत बदलाव किये हैं। सूचना प्रौद्योगिकी ई-गवर्नेंस की आधारशिला है। ई-गवर्नेंस सुशासन की ओर ले जाने वाला ठोस कदम है। इस तरह स्पष्ट है कि सूचना प्रौद्योगिकी का लोक प्रशासन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है।
Question : केन्द्रीय और राज्य प्रशासनिक अधिकरणों की प्रभावित और उपयोगिता।
(2000)
Answer : प्रशासनिक न्यायाधिकरण साधारण न्यायिक प्रणाली के बाहर स्थित एक ऐसी सत्ता है, जो उस समय विधियों की व्याख्या करते हैं और उन्हें लागू करते हैं। जब लोक प्रशासन के कार्यों पर औपचारिक मुकदमों या अन्य स्थापित रीतियों द्वारा आक्रमण होता है। प्रशासनिक न्यायाधिकरणों के गठन का उद्देश्य यह है कि वादकारियों को त्वरित न्याय प्राप्त हो। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण अनेक बाधाओं के बावजूद यह कार्य काफी हद तक पूरा कर सका है। मामलों को निपटाने में केन्द्रीय प्रशासकीय न्यायाधिकरण द्वारा लिया गया औसत समय पारम्परिक न्यायालयों द्वारा लिए गए समय की अपेक्षा सामान्यतः कम होता है।
सामाजिक कल्याण के लिए सरकार के क्रिया-कलाप तथा उत्तरदायित्वों के लिए निरन्तर प्रसार के कारण ऐसे अनेक अवसरों की सम्भावना उत्पन्न हो गई हैं, जिनके फलस्वरूप अधिकारों को लेकर किसी व्यक्ति का संघर्ष प्रशासन अन्य नागरिक या निकाय के साथ प्रारम्भ हो जाता है।
प्रशासकीय न्यायाधिकरणों से ऐसे लाभ प्राप्त होते हैं, जो साधारण विधि न्यायालयों से प्राप्त नही होते हैं। प्रशासनिक न्याय अधिक सस्ता है, बहुत से प्रशासनिक मामलों में वकील नहीं किये जाते और न ही फीस देना जरूरी होता है। इस प्रकार बहुत से प्रशासकीय न्यायाधिकरणों में किसी प्रकार का कोई व्यय नहीं होता है।
प्रशासकीय न्यायाधिकरण अपने कार्य अधिक नमनीयता व लचीलेपन से सम्पन्न करते हैं वे अपने पिछले निर्णयों या अन्य प्राधिकरणों के निर्णयों से बंधे नहीं होते और न ही उनके कार्यों में न्यायिक दृष्टान्त तथा विधि के शासन की धारणा बाधक होती है।
प्रशासकीय न्यायाधिकरण सामान्य न्यायालयों की अपेक्षा जल्दी कार्य करते हैं। प्रशासकीय अधिनिर्णय का अन्य लाभ इसकी संक्षिप्त प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया सम्बन्धी द्वन्द्व की शिकार नहीं है, जो अदालतों में सर्वत्र दिखाई पड़ता है। प्रशासकीय न्यायाधिकरणों का मुख्य विशेषता सस्तापन, बोधगम्यता, तकनीक से मुक्त, शीघ्रता तथा विशेष विषयों का वैशिष्ट्य है।
Question : प्रशासनिक सुधार को मशीनरी में, यथार्थ और वांछनीयता के बीच की खाई को पाटने के लिये किये जाने वाले प्रेरित परिवर्तन हैं।
(1997)
Answer : प्रशासनिक सुधारों का तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसमें प्रशासनिक व्यवस्था की कार्यकुशलता एवं गुणवत्ता में उत्तमता लाने का प्रयास होता है। यद्यपि प्रशासनिक सुधार सार्वजनिक एवं निजी दोनों क्षेत्रें में किये जाते हैं तथापि यहां प्रशासनिक सुधार का आशय शासकीय तंत्र में संरचनात्मक, कार्यात्मक, प्रक्रियात्मक, व्यावहारिक, संगठनात्मक एवं विधिक सुधारों से है। प्रशासनिक सुधारों का उद्देश्य प्रशासन को लोकमित्र बनाना एवं उत्तरदायी बनाना, पारदर्शिता सुनिश्चित करना, सूचना के अधिकार को सुनिश्चित करना तथा शासन को स्वच्छ बनाने के उपायों की खोज करना एवं लोक सेवकों को सकारात्मक रूप में प्रेरित करना है। वस्तुतः प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से सरकारी कर्मचारियों से अलग जनता द्वारा चयनित स्वायत्तशासी संस्थाओं को प्रशासन में भागीदारी दी जानी चाहिये। जनता के विकास व शक्ति नियमन हेतु नागरिक चार्टरों की व्यवस्था को व्यावहारिक रूप में मजबूत बनाया जाना चाहिये। प्रशासन को मजबूत बनाने के लिये यह आवश्यक है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को इसमें स्थान न दिया जाये।
औपनिवेशिक काल में भारत का प्रशासनिक ढ़ांचा राज्य के निहित स्वार्थों की प्रतिपूर्ति तक ही सीमित था। ब्रिटिश काल में शासकीय शासन पद्धति का प्रमुख उद्देश्य मात्र विधि तथा शासन की व्यवस्था बनाये रखना था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद होने वाली राजनैतिक प्रतिध्वनियों ने शासन व्यवस्था मे परिवर्तन लाने को अपरिहार्य बना दिया। अतएव प्रशासनिक सुधार की आवश्यकता अनुभूत की गयी।
भारत में प्रशासनिक सुधारों के लिये की गई अनुशंसाएं प्रायः सैद्धान्तिक ही रही, जिससे सिद्धान्त एवं यथार्थ के मध्य अंतर्विरोध उत्पन्न हुआ। भारत में प्रक्रियात्मक सुधार अत्यल्प तथा संगठनात्मक परिवर्तन अधिक मात्र में हुये। किसी एक संगठन की अक्षमता को दूर करने के निमित्त उस पर एक और सत्ता स्थापित कर देना व्यावहारिक समाधान नहीं कहा जा सकता। समाधान उस प्रक्रिया विधि या कार्यप्रक्रिया का होना चाहिए जिसके कारण संगठन में विसंगतियां बढ़ती हैं। भारतीय प्रशासन में अवस्थित संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार, लालफीताशाही आदि समस्याओं पर लगाम न लग पाने का वास्तविक कारण न जानकर मात्र आवरण से ढंक देने की प्रवृति है। प्रशासनिक स्तरों पर उदासीनता की मनोवृत्ति ने प्रशासनिक सुधारों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किये हैं। प्रशासनिक तंत्र की कार्यप्रणाली को केन्द्रीकृत कार्यप्रणाली का ग्रहण सहन करना पड़ा है। केन्द्र सरकार राज्यों को एवं राज्य सरकारें अपने अधीनस्थ संगठनों को पर्याप्त अधिकार संपन्न नहीं बनाना चाहते हैं। इसके कारण प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर केन्द्रीयकरण पाया जाता है। अधिकार तथा सत्तालोलुपता के साथ उत्तरदायित्व एवं जवाबदेही के अभाव के कारण प्रशासनिक सुधारों का प्राणान्त हो जाता है। प्रशासन के विकेन्द्रीकरण के अभाव में दक्षता की अपेक्षा करना कल्पनामात्र है।
नीति निर्माण की सर्वोच्च संस्था मंत्रिपरिषद है, अतः राजनैतिक कारकों से निर्मित नीति को प्रशासक सहजता से अंगीकृत करने में हिचकते हैं। जनहित तथा विकास के लिए निर्मित अन्यानेक नीतियां प्रशासनिक असहयोग के कारण व्यावहारिकता को प्राप्त नहीं कर सकी हैं। प्रशासनिक सुधारों को उन्हीं संगठनों द्वारा लागू कराया जाता है, जिनके संदर्भ में ये सुधार होते हैं, प्रशासनिक सुधार की इस स्वचिकित्सा से विसंगतियां अपना अस्तित्व बनायें रखती हैं। राष्ट्रीय मूल्यों को प्रायः प्रशासक एवं राजनेता निम्न प्राथमिकताओें में स्थान देते हैं। भारत के संपूर्ण प्रशासन तंत्र में एक समान व्यवहारिक सुधार वृहदता के कारण लागू कर पाना असंभव है।
संगठन में परिर्वतन संगठन का विश्वास लेकर किया जाये तो यह विरोध शून्य होगा। मूलतः प्र्रक्रिया में सुधार की महती आवश्यकता अनुभूत की गई है, न कि संगठन में। प्रशासनिक कार्यों में संविधान के प्रति बाध्यकारी प्रतिबद्धता होनी चाहिये। संगठन के कर्मचारियों में विश्वास, सहयोग तथा सद्भाव होना चाहिये। नौकरशाहों को निर्णयन का पूर्ण अधिकार प्रदान किया जाना चाहिये। विकेन्द्रीकरण को प्रशासन में प्रभावी स्थान दिया जाना चाहिये। संगठनात्मक आकार व संरचना में ट्टजुता होनी चाहिये। एक-दूसरे के मध्य मधुर संबंध होने पर ही प्रशासनिक सुधार को लागू करके उसके सुपरिणाम की आशा की जा सकती है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है प्रशासनिक सुधार की भावना सरकार की लोक सेवा में सिद्धान्त एवं व्यवहार के मध्य की दूरी को कम करने का प्रयास करती है। यह प्रशासन में यथार्थ और वाछंनीयता के दो तटों के मध्य सेतु का कार्य भी करती है।
Question : संगठन और विधि (ओ. और एम.) के महत्व पर प्रकाश डालिये। क्या आप समझते हैं कि अलग से ओ- और एम- संगठन होना चाहिये।
(1997)
Answer : ‘संगठन और प्रबन्ध’ या ओ. तथा एम. का प्रशासन में वही महत्व है जो धर्म में परमेश्वर का होता है। प्रायः इसे दो अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है- संगठन तथा प्रबन्ध एवं संगठन तथा पद्धतियां। इसके अंतर्गत प्रबन्ध की समस्त क्रियाएं यथा-योजना निर्माण, संगठन समन्वय, उत्प्रेरणा, संचालन आदि समाहित हेाती हैं। अपने सीमित अर्थ में इसको संगठन एवं पद्धतियां कहा जाता है, जिसके अन्तर्गत मात्र लोक निकायों तथा निजी संस्थानों के संगठन तथा उनकी कार्यालयी क्रिया विधियां सम्मिलित होती हैं। इसका मिश्रित उद्देश्य प्रशासकीय संस्थाओं की आन्तरिक गठन के ढांचे में सुधार तथा उनकी कार्यविधि की समीक्षा है। इसका मौलिक उद्देश्य सुधार के ऐसे सुझाव देना है, जिससे उनकी कार्यकुशलता बढ़े। संगठन तथा पद्धति के संदर्भ में यह निराकरण के साधनों को निर्देशन भी करती है। वस्तुतः ओ. और एम. ऐसी प्रशसनिक इकाई है, जो भिन्न-भिन्न विभागों की कार्यप्रणालियोंका निरीक्षण कर अधिकारियों एवं कर्मचारियों को उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि के निमित्तार्थ सुझाव देती है, जिससे लागत और समय को न्यूनतम स्तर तक पहुंचाया जा सके।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में प्रशासन ने वृहद् रूप ले लिया। प्रशासन से यह अपेक्षा की गई कि वह कल्याणकारी राज्य की विषमताओं से जूझे, साथ ही यह अनुभूत किया जाने लगा कि संगठन का ढांचा और क्रियाविधि जर्जरावस्था में है, जो राज्य के दायित्वों का बोझ उठाने में अक्षम है। प्रशासन की कार्यविधि पर पैनी निगाह रखने के लिये एक स्थायी संगठन के निर्माण की महत्ता का सुझाव अनेक समितियों ने समय-समय पर दिये। प्रथम पंचवर्षीय योजना में यह विदित किया गया कि ओ. और एम. निम्नांकित समस्याओं से अपना संबंध रखेगा। यह कार्यालयी कार्यविधियों का अध्ययन करके उनके ट्टजुता के कारणों की खोज करेगा तथा उनका निदान करने हेतु सुझाव देगा। वह अभिलेखों के संरक्षित रखने की प्रणाली में सुधार के लिये भी सुझाव देगा। यह फाइलों के आवागमन की रीति का भी अध्ययन करेगा। 1954 में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल का सचिवालय में एक ‘संगठन एवं प्रणाली’ सम्भाग का गठन किया गया। इसे कालान्तर में मंत्रलय के आधीन प्रशासनिक सुधार विभाग के रूप में पुर्नव्यवस्थित कर स्थानान्तरित कर दिया गया।
‘संगठन तथा प्रणाली’ का कार्य सेवा के रूप में परिपूर्ण है। यह यूनिट सरकार के विभिन्न मंत्रलयों, विभागों तथा कार्यालयों की कार्यकुशलता में वृद्धि से संदर्भित सलाह देकर उनकी सहायता करने का कार्य करता है। इसका कार्य स्टाफ सम्बन्धी है, न कि सूत्र सम्बन्धी। यह मात्र सलाह देने का कार्य करता है, नीति निर्धारण में इसका कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। इनका कार्य सकारात्मक है। यदि कोई विभाग उचित कारण के अभव में इनसे विचार-विमर्श नहीं करता है तो सलाह रूप में शीर्ष स्तर पर किसी कार्यवाही की व्यवस्था होनी चाहिये। यह निरीक्षण तथा परीक्षण से भिन्न प्रस्थिति रखता है। ‘ओ. और एम.’ यूनिट तो कार्य सुधार हेतु कृत सरकार के प्रयत्नों का एक लघु अंश मात्र है। इसके सुझावों को अत्यधिक तकनीकी का आवरण पहनाकर जटिल बनाया जाना उचित नहीं है। उसे सरल एवं सीधी सिफारिशें ही करनी चाहिये, जिससे उसके कार्यों को जनसामान्य समझ सकें। ‘ओ. और एम.’ द्वारा कार्यालयी कार्यप्रणाली का मंथन करने से यह तथ्य उभरकर सामने आया कि भारतीय प्रशासन में संगठनात्मक दोष नहीं हैं, वरन् प्रणाली दोषपूर्ण है। ‘ओ. और एम.’ अनियमितताओं की तरफ सम्बन्धित विभागों को ध्यानाकर्षित करता है और वे उपलब्ध समुचित साधनों का प्रयोग कर उनके निवारण का यत्न करते हैं। संगठन तथा प्रणाली सम्भाग किसी सम्पादित कार्य पर या व्यक्तियों तथा मामलों का अध्ययन करके विभिन्न विभागों या मंत्रलयों के निरीक्षण की व्यवस्था हेतु उपयुक्त सुझाव प्रस्तुत करता है। संगठन एवं प्रणाली ने भारत में सार्वजनिक विभागों की कार्यदक्षता में स्तुत्यपूर्ण योगदान दिया है।
ओ. एम. के अग्रांकित उद्देश्य हैं- मूल्य कम करने में योगदान देना, समय की बचत, पदार्थों की बचत, मानक शक्ति की बचत, प्रक्रिया का ट्टजुकरण, कार्य संचालन की गति, संगठन में प्रगति एवं सुधार।
ओ. व एम. अपने उद्देश्यों की पूर्ति अग्रांकित तरीकों से पूरित करता है- शोध तथा विकास, प्रशिक्षण, अन्वेषण, प्रबन्धकीय सुधार, समन्वय सूचना तथा प्रकाशन।
ओ. एम. के माध्यम से अग्रांकित लाभ प्राप्त होते हैं
इस व्यवस्था के दोषों का भी संज्ञान आवश्यक है। इस व्यवस्था के मुख्य दोष निम्नांकित हैं-
यह एक ज्वलन्त प्रश्न है कि ओ- तथा एम- के कार्यों के लिये एक अलग विभाग बनाया जाये या यह कार्य विभागीय कर्मचारियों द्वारा ही सम्पादित कराया जाये। यह सत्य है कि यदि विभाग के कर्मचारी ओ. तथा एम. के कार्यों को करें, तो विभाग की कार्यप्रणाली का पूर्णज्ञान होने के कारण सार्थक सुझाव प्रदान कर सकने में समर्थ होगें, किन्तु अनेक विभाग के वरिष्ठ कर्मचारियों के पास कार्याधिक्य होने के कारण समय का प्रायः अभाव रहता है अतः वे ओ. तथा एम. के संदर्भ में पूर्ण क्षमता से कार्य कर सकने मे सक्षम नहीं होगें। इसके विपरीत ओ. तथा एम. के अलग विभाग या संभाग के रूप मे कार्यरत होने से इसके कर्मचारी अपना पूर्ण समय दे सकते हैं तथा विभाग के विषय में वस्तुपरक दृष्टिकोण भी अंगीकृत कर सकते हैं।
एक पृथक विभाग के रूप में कार्यरत ओ. तथा एम. के कर्मचारी संगठन सम्बन्धी आवश्यकताओं पर खुले मस्तिष्क से विचार कर सकते हैं, क्योंकि वे विभाग के क्रियाकलाप से सम्बन्धित नहीं होंगे, अस्तु उनसे हम सार्थक निष्कर्षों की उम्मीद भी कर सकते हैं। वे सम्बन्धित विभाग के कर्मचारियों को अपने अनुभव के आधार पर नवीनतम एवं मितव्ययी विधियों पर व्यावहारिक ज्ञान प्रदान कर सकते हैं। इस यूनिट में कार्यरत अधिकारियों में विशिष्ट येाग्यता एवं गुण अपेक्षित हैं। जिससे वह जनसामान्य की भावनाओं एवं लोगों से घुल मिल जाने की योग्यता रख सकें। लेखन तथा मौखिक रूप से अपने मत की अभिव्यक्ति की योग्यता रखने के साथ ही साथ कुशल श्रोता भी हों। ओ. तथा एम. इकाई में युवा प्रतिभाओं को स्थान दिया जाना चाहिये, क्योंकि उनमें उत्साह, नवीन विचार तथा तकनीकी को आत्मसात् करने की क्षमता प्रौढ़ों से अधिक होती है।
भारत में ओ. तथा एम. विभाग का कार्य अभी अपनी प्रारम्भावस्था में है यद्यपि भूतकाल में जो सफलता मिली है उससे भविष्य में कहीं अधिक सफलता की उम्मीद है। भारत में ओ. तथा एम. एक अलग विभाग के रूप में होना चाहिये, क्योंकि नई उम्मीदें व नवविकास उसी स्थिति में दिखाई देता है।