Question : हर्बर्ट ए. साइमन की ‘निर्णय-निर्धारण योजना’ तथा संतोषजनक मॉडल’ प्रशासनिक सिद्धांतों के प्रमुख घटक हैं। टिप्पणी कीजिए।
(2001)
Answer : हर्बर्ट ए- साइमन प्रशासन के निर्णयन के बराबर ही मानते हैं। प्रशासन के वैध सिद्धांत और उन्हें लागू करने का उपाय तभी संभव है, जब शोध पूरा हो जाए। कई बौद्धिकों के संतोष के बुनियादी शब्दकोष में वृद्धि हो जाए, निर्णयन और अमल करने का विश्लेषण हो और अवरोध क्षमताओं, आदतों, मूल्यों और ज्ञान की विवेक शक्ति की सीमाओं की पूरी तरह से छानबीन कर ली जाए। परंपरावादी सिद्धांतगत के विकास के तौर पर निर्णयन की क्रिया पर विशेष जोर देने के अतिरिक्त साइमन ने प्रशासन के अध्ययन पर प्रयोग सिद्ध मत का पक्ष लिया। साइमन निर्णय आकलन पर केंद्रित तार्किक स्थिरवाद के सिद्धांत और प्रतिनिधियों की नवीन अवधारणा प्रस्तुत करते हैं। ये पारंपरिक सिद्धांतों को अस्वीकार करते हैं। साइमन संगठन की निर्णयकर्ताओं का ढांचा मानते हैं। उनका मानना है कि संगठन के सभी स्तरों पर निर्णय लिय जाते हैं।
निर्णयन की प्रक्रिया तीन चरणों में विभाजित है- बौद्धिक गतिविधि, प्रारूप गतिविधि तथा विकल्प गतिविधि। प्रथम चरण में निर्णय के अवसरों की खोज की जाती है। दूसरे चरण में सभी संभव वैकल्पिक कार्यविधियों की पहचान, विकास, एवं विश्लेषण शामिल हैं। तीसरे चरण में कार्यकारी किसी एक उपलब्ध कार्यविधि को चुनता है। निर्णयन में बुनियादी रूप से वैकल्पिक कार्यविधियों के विकल्प शामिल हैं और इन विकल्प में तथ्य और मूल्य सम्मिलित हैं। कोई भी निर्णय तभी औचित्य पूर्ण एवं तार्किक होता है, जबकि इसके लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उपयुक्त साधनों का चयन किया जाए। साइमन ने पूर्ण तार्किकता की अवधारणा को नहीं स्वीकारा है, क्योंकि यह अतार्किक मान्यताओं पर आधारित है।
साइमन का मानना है कि संगठन को पूर्ण तार्किकता की अवधारणा के साथ नहीं चलना चाहिए बल्कि उसे सीमित तार्किकता के आधार पर कार्य करना चाहिए। साइमन के अनुसार व्यक्ति केवल मर्यादित विवेकशीलता के आधार पर ही कार्य करता है। साइमन प्रशासनिक व्यवहार में पूर्ण विवेकशीलता के विचार को नकारता है। उसके अनुसार मानवीय व्यवहार न तो पूर्ण विवेकशील (तार्किक) होता है और न ही पूर्ण गैर-विवेकशील (अतार्किक) होता है, वरन् वह ‘मर्यादित विवेकशील’ होता है। इसी सीमित तार्किकता के कारण साइमन तुष्टिकरण की अवधारणा विकसित करते हैं। साइमन की यह भी मान्यता है कि सभी विकल्पों और उनके परिणाम को जानने में लोगों की योग्यता सीमित है और यह सीमा बंधन पूर्णतः तर्कसंगत निर्णय को गलत व असंभव कर देते हैं। प्रबंधन हमेशा अनुकूलतम समाधानों की खोज करते हैं, परन्तु पर्याप्त रूप से ठीक समाधानों से ही संतुष्ट हो जाता है। विभिन्न प्रकार की सीमाओं के कारण प्रबंधकों का व्यवहार उच्चतम न होकर केवल संतोषप्रद ही हो जाता है।
साइमन के अनुसार निर्णय कार्यों का विशिष्टीकरण मुख्य निर्णयन केंद्रों से तथा निर्णयन केंद्रों की ओर पर्याप्त संचार मार्गों के विकास पर निर्भर करता है, अतः संगठन में औपचारिक एवं अनौपचारिक संचार सूत्र होने चाहिए। उचित निर्णय एक ऐसी स्थिति है जिसमें कुछ विकल्प और उनके कुछ परिणाम ज्ञात होते हैं और उनमें से चयन किया जाता है। साइमन निर्णय लेते समय व्यक्ति के आचरण के परीक्षण पर जोर देते हैं। आमतौर पर निर्णय तीन रूप से स्वीकृत किए जाते हैं, शक्ति से, सहानुभूति एवं सम्मोहन से, सहयोगी के निर्णय के प्रति सम्मान से। साइमन के मॉडल में बड़ा ही उपयोगी एवं यथार्थवादी दृष्टिकोण है जिसमें निर्णयकरण प्रक्रिया में व्यवहारपरक पहलुओं पर ध्यान देने पर विशेष जोर दिया गया है।
साइमन का मांडल संगठनात्मक जीवन की कठोर वास्तविकता को निकट से समझाता है। नवीन संगठनात्मक संरचना मानव मनोविज्ञान पर आधारित है। साइमन ने अध्ययन माडलों ने प्रशासनिक निर्णय की नवीन खोज की है, जिसके परिणामस्वरूप प्रशासनिक निर्णय आसान हो गए है। अतः यह सत्य है कि साइमन की निर्णय-निर्धारण योजना तथा संतोषजनक मांडल प्रशासनिक सिद्धांतों के महत्वपूर्ण घटक है।
Question : ‘किसी मामले पर कार्य किये जाने से पूर्व, उसके आवश्यक रूप से गुजरने के संगठनात्मक स्तरों की संख्या को कम से कम बनाए रखने के द्वारा ही प्रशासनिक दक्षता में वृद्धि होती है।‘
(2000)
Answer : संगठन में सोपानों की संख्या नियन्त्रण से निर्धारित होती है। नियंत्रण का विस्तार क्षेत्र उन अधीनस्थ या संगठन की इकाइयों की संख्या है, जिनका निदेशन प्रशासन स्वयं करता है। मानवीय क्षमता की भी सीमाएं होती हैं। यदि निरीक्षण का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत होगा तो उसके परिणाम असंतोषजनक होंगे, अतः किसी भी क्षेत्र के उचित विकास के लिए नियंत्रण आवश्यक है। नियंत्रण के क्षेत्र की समस्या सोपान क्रम वाले संगठनों में पायी जाती है। किसी संगठन की गुणवत्ता उसके कारगर नियंत्रण और निरीक्षण पर निर्भर करती है। नियंत्रण की सीमा को निर्धारित करने वाले तत्व हैं, कार्य, समय, स्थान एवं व्यक्तित्व।
मुख्य कार्यकारी ऐसे व्यक्तियों का नियंत्रण कर रहा है, जिनके कार्यों की प्रकृति उसके अपने कार्य की प्रकृति के ही समान है तो नियंत्रण का क्षेत्र विस्तृत हो सकता है। यदि अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्यालय भौगोलिक दृष्टि से दूर-दूर तक फैले हैं तो नियंत्रण क्षेत्र छोटा हो जाएगा। इसके विपरीत यदि वह एक ही भवन के नीचे कार्य कर रहे हैं तो नियंत्रण क्षेत्र विस्तृत किया जा सकता है।
नियंत्रण क्षेत्र को चार तत्व भी प्रभावित करते हैं- वैयक्तिक पृष्ठभूमि, मानवीय पृष्ठभूमि, प्राविधिक पृष्ठभूमि और संगठनात्मक पृष्ठभूमि। नियंत्रण का क्षेत्रफल जितना छोटा होगा, उतना ही लाभप्रद भी होगा। इससे प्रधान कार्यकारी पर भार कम होगा, भ्रम कम होंगे, सक्रिय नियंत्रण क्षेत्र का विस्तार होगा एवं कार्यकुशलता बढ़ेगी जिससे प्रशासनिक मनोबल में वृद्धि होगी परंतु आधुनिक युग में नियंत्रण के विस्तार की समूची धारणा में ही परिवर्तन हो गया है। कंप्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक मशीनों द्वारा प्रशासन को अत्यधिक तीव्र गति से बड़ी मात्र में उचित एवं शुद्ध तथ्य और सूचनाएं प्राप्त होती हैं। लोक सेवा में विशेषज्ञों की संख्या में वृद्धि हो रही है। ये विशेषज्ञ संगठन के उच्चाधिकारी तथा अधीनस्थ के पद सोपानीय या ऊर्ध्वाकार संबंध पसंद नहीं करते हैं, अतः संगठन की परंपरावादी धारणा, अधिकारी-अधीनस्थ की अवधारणा को चुनौती दी जाने लगी है।
मुख्य कार्यकारी का कार्य नियंत्रण की अपेक्षा समन्वय हो गया है परन्तु यदि नियंत्रण का विस्तार क्षेत्र कम होता है तो कठिनाई यह है कि निर्णय के स्तरों में वृद्धि होगी और यदि निर्णय के स्तरों में वृद्धि होगी तो नियंत्रण का क्षेत्र विस्तृत हो जाएगा जिससे प्रशासनिक दक्षता में वृद्धि होगी।
Question : मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त के आधारित अभ्युपगमों की परीक्षा कीजिये और बताइये कि यह किस सीमा तक संगठनों के क्लासिकी सिद्धान्त से भिन्न है।
(1997)
Answer : रुढि़वादी प्रबन्ध विद्वानों ने व्यवस्था, विवेकपूर्णता, कार्य विभाजन, विशिष्टीकरण और प्राधिकार सम्बन्धों पर आश्रित औपचारिक ढांचे पर विशेष बल दिया। इन्होंने श्रमिकों की व्यवस्था आर्थिकता के दृष्टिकोण से की। मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त के समर्थक विद्वानों ने इस आर्थिकता से परिपूर्ण व्यवस्था को स्वीकार न करते हुये चुनौती दी। उन्होंने निर्धारित नियमों, निर्धारित व्यवस्था, विवेकपूर्णता और अधिकारी तंत्र पर अवलम्बित संगठन को औपचारिक बताते हुये इसका प्रतिवाद किया और गैर औपचारिक लोकतांत्रिक तथा सहभागी संगठन के ढांचे की वकालत करते हुये श्रमिकों के मनोबल, सृजनात्मकता तथा संतोषवृत्ति पर ध्यान आकर्षित किया।
मानवीय संबंध सिद्धान्त को वैद्यकीय विधि भी कहा जा सकता है। इसे अनौपचारिक प्राणिशास्त्रीय या सामाजिक- आर्थिक उपागम कहना असंगत नहीं होगा। इसमें प्रजातांत्रिक मूल्यों पर अवलम्बित नेतृत्व को अनौपचारिक माना गया है। लोकतंत्र में नेतृत्व का कार्य प्रायः राजनीतिज्ञ ही करते है। वे सिद्धान्त रूप में नीतियों के दिशा-निर्देश प्रदान करते है और लोकसेवकों द्वारा राजनीतिज्ञों द्वारा प्राप्त दिशा-निर्देशों के प्रकाश में नीति से सम्बन्धित तथ्यों का
विधिकरण करके उन्हें जनता के मध्य परिचालित करना सुनिश्चित करते हैं। इस तरह औपचारिक रूप से लोकतंत्र ही नीति के निर्माण एवं परिचालन के लिये उत्तरदायी होते हैं। ऐसी परिस्थितियों में सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों का दिशा निर्देश नेतृत्व का तो कार्य करता है लेकिन ये नेतृत्व अनौपचारिक ही होता है। संगठन ही सामाजिक व्यवस्था है, जो कि संगठन के नियमों के सामाजिक परिप्रक्ष्य में निर्मित होता है। इसका सीधा सम्बन्ध इसके अधिकारियों एवं कर्मचारियों से होता है। इस तरह संगठन के अनौपचारिक सम्बन्ध लोकतंत्र में जनता से होते हैं। ये अनौपचारिक समूह स्वयं तो अनौपचारिक होते हैं लेकिन मूल रूप में औपचारिक संगठन के ही भाग होते हैं।
मानव सम्बन्ध सिद्धान्त के विकसित होने से मानव संबधी उपागम को सार्थकता प्राप्त हुई। यह सिद्धान्त समुचित दृष्टि से कर्मचारियों का विश्लेषण कर सकने में समर्थ हुए। इन्होंने कुछ नये अभ्युपगमों को भी जन्म दिया। जो अग्रकिंत हैं- व्यक्ति के महत्व का सिद्धान्त, पारस्परिक मान्यताओं का सिद्धान्त, सामान्य हित कासिद्धान्त, संचार का सिद्धान्त, कार्मिक सहभागिता का सिद्धान्त, सकारात्मक प्रवृत्तियों का सिद्धान्त, अभिप्रेरण का सिद्धान्त, सामूहिक कार्य का सिद्धान्त, सामूहिक प्रयत्न का सिद्धान्त, सामूहिक प्रयत्न प्रोत्साहन का सिद्धान्त, लोकतांत्रिक पर्यावरण का सिद्धान्त, स्वविवेक का सिद्धान्त, स्वनियंत्रण का सिद्धान्त आदि। ये सभी सिद्धान्त अनौपचारिक रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुये हैं तथा इन सिद्धान्तों को अपनाकर किसी शासकीय या निजी संगठन में स्वस्थ मानव सम्बन्ध विकसित किये जा सकते हैं। मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त मनोवैज्ञानिक, सामाजिक मान्यताओं के आधार पर ही विकसित हुआ है। अतः इसमें वैज्ञानिकता का समावेश प्रतिबिम्बित होता है।
मानव सम्बन्ध सिद्धान्त पूर्व में जितना प्रासंगिक था उतना आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। लोककल्याणकारी राज्य के लक्ष्यों को दृष्टिगत रखते हुये मानव सम्बन्ध सिद्धान्त का प्रशासन में प्रयोग अपरिहार्य हो गया है क्योंकि प्रशासन एक सामाजिक विज्ञान है, अतः मानव सम्बन्ध सिद्धान्त भी परिस्थिति की भिन्नता से न्यून मात्र में प्रवाहित हो सकते हैं, लेकिन उनकी मूल भावना कमोवेश वही बनी रहेगी।
मानव सम्बन्ध सिद्धान्त के आलोचक भी इसकी महत्ता को स्वीकारते हैं। इस सिद्धान्त ने वस्तुतः मानव सम्बन्धों की पर्याप्त व्याख्या तर्क के प्रकाश में की है। यह सिद्धान्त मात्र औद्योगिक प्रतिष्ठानों में ही नहीं अपितु लोक सेवा के संगठनों, नौकरशाही एवं सामाजिक संगठनों में भी महत्वपूर्ण रहे हैं। समूह व्यवहार तथा अनौपचारिक संगठनों की उपादेयता के बारे में प्रथमतः इसी सिद्धान्त के अन्तर्गत विचारण किया गया। प्रशासनिक चिंतन, सामाजिक कौशल तथा लोककल्याण के क्षेत्र में यह सिद्धान्त रामबाण के समान हैं।
एल्टन मेयो हावर्ड विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्राचार्य थे। उन्होंने बेस्टर्न इलेक्ट्रिक कंपनी के हार्थोन कारखाने में विभिन्न प्रयोग, यथा- प्रकाश व्यवस्था, मानवीय प्रवृतियां तथा भावनायें, बैंक वायरिंग, प्रथम शोध तथा अनुपस्थितवाद द्वारा मानवीय संबंध विचारों का प्रतिपादन रुढि़वादी विचारधारा के विरुद्ध किया। यही मानवीय सम्बन्ध विचार, मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त का आधार बना।
वस्तुतः मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त का बल अनौपचारिक नेतृत्व, अभिप्रेरण, संदेश वाहन, कार्मिक विकास तथा संगठन के सामाजिक व्यवस्था के तत्वों पर विशेष रूप से था, जिसका व्यवहारी विश्लेषकों ने अव्यक्तिगत एवं निरपेक्ष रूप से संग्रहीत पुष्टिकारक प्रमाणों के प्रकाश में मानवीय व्यवहार का सामान्यीकरण किया। व्यवहारवादी विश्लेषक मानवीय व्यवहार का तकनीकी दृष्टि से पुनर्रीक्षण करते हैं, जो वैज्ञानिक दृष्टि से परिपूर्ण होता है।
मानवीय सम्बन्ध पर आधारित वैज्ञानिक अध्ययन का सरलीकरण करके अभिप्रेरण व नेतृत्व के सिद्धान्तों, यथा- मैस्लो का आवश्यकता सिद्धान्त, हर्जबर्ग का द्विघटक सिद्धान्त आदि का विकास किया गया। सम्बन्धों के मनोविज्ञान पर विहंगम दृष्टि से देखने पर प्रबन्ध में ‘मेलजोल’ एवं समूह चिंतन तथा प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों एवं मूल्यों का महत्व ज्ञात होता है। उद्योगों को मशीन के पुंज की जगह मनुष्यों के समुदाय तथा मानवीयता को मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त में स्थान मिला है। इसी सिद्धान्त में वैज्ञानिक प्रबन्ध को सामाजिक व्यवहार के साथ संयुक्त करने का प्रयास भी किया गया है। यह सिद्धान्त कर्मचारियों को एक सामाजिक प्राणी प्रथमतः मानता है, अतः मनुष्य जैसे सामाजिक प्राणी के प्रति मानवीय व्यवहार की अपेक्षा यह सिद्धान्त रखता है। मानवीयता की यही भावना कर्मचारियों में मानसिक संतुष्टि, आत्मविकास एवं कार्य के अतिसमर्पण को लाने में सक्षम हो सकेगी। यह सिद्धान्त मानता है कि प्रसन्न श्रमिक अधिक उत्पादक होते हैं। श्रमिक प्रसन्न तभी हो सकते हैं, जब उनके साथ मानवीयतापूर्वक सम्बन्ध प्रशासन स्थापित करे। मानवीय व्यवहार ही लक्ष्यों एवं कुशलता की प्राप्ति का साधन हैं।
मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त रुढि़वादी सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत हैं। रुढि़वादी संगठन के प्रबन्धकर्ताओं ने औपचारिक संगठनों पर जोर दिया जबकि मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त अनौपचारिक संगठन पर बल देता है। रुढि़वादी प्रबन्ध में औपचारिक संगठन का ढांचा विवेकपूर्णता, श्रम विभाजन, विशिष्टीकरण जैसी परम्परागत बातों पर ही निर्भर करता था जबकि मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त में सामाजिक-आर्थिक उपागमों को संगठन का आधार माना गया है। रुढि़वादी संगठन श्रमिको को आर्थिक उपागम से संदर्भित करते हैं, जबकि मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त के संगठन का दृष्टिकोण मानवीयता एवं सामाजिकता से परिपूर्ण है। वस्तुतः मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त ने अनौपचारिक प्रजातांत्रिक तथा सहगामी संगठन के स्वरूप का समर्थन किया और श्रमिकों के मनोबल, सृजनात्मकता तथा संतोषवृद्धि पर विशेष ध्यान दिया।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त की भावना मानवीय सम्बन्धों पर आश्रित है, जबकि रुढि़वादी संगठन की भावना आर्थिकता से ओतप्रोत है। प्रजातंत्र में मानवीय सम्बन्धों को संगठन में पर्याप्त स्थान दिया जाना चाहिये।
Question : ‘‘अर्थात् सफल प्रशासक होने के लिये व्यक्ति में उदार जिज्ञासा का होना आवश्यक है’’
(1997)
Answer : सफल प्रशासक होने के लिये प्रथमतः यह आवश्यक है कि प्रशासक को संगठन के नियमों, तथ्यों, नीतियों इत्यादि के बारे में पूर्ण ज्ञान हो। भारत एक संघ राज्य है, अतः यहां पर लोक सेवकों का दायित्व वृहद्ता रखते हैं। लोकतंत्र में नियंत्रण की अधिकारिक शक्ति लोक प्रशासकों के पास रहती है। लोकतंत्र में संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये नौकरशाही आवश्यक है। नौकरशाही की सत्ता का आधार विधिक होता है। संगठन के कार्य को नौकरशाहों में इस प्रकार विभक्त किया जाता है कि प्रत्येक नौकरशाह को कार्य विशेष का कोई विशेष भाग पूरित करना होता है। नौकरशाही तंत्र में प्रशासन की एकशृंखला या पदसोपान की व्यवस्था है, जिससे अधीनस्थ कर्मचारी उच्चस्तरीय कर्मचारियों के मार्गदर्शन के अंतर्गत कार्यरत रहते हैं। वर्तमान में आधुनिक कार्यालयों की प्रबन्ध व्यवस्था लिखित होती है। इस प्रशासनिक तंत्र में प्रबन्ध व्यवस्था द्वारा निर्धारित कुछ नियम होते हैं, जिसका संज्ञान प्रत्येक कर्मचारी को होना अनिवार्य है। कर्मचारियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे व्यक्तिगत विचारों से बाधित हुये बिना अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगें।
आधुनिक संगठनों में उसके कार्यों को लक्ष्य प्राप्ति के लिये श्रम विभाजन के सिद्धान्तानुसार विभाजित एवं वितरित कर दिया जाता है, इससे उच्च मात्र में विशेषीकरण संभव हो जाता है। पदों की सोपानबद्ध व्यवस्था संरचना में एकरूपता लाती है, उसका आकार पिरामिडीय होता है। प्रत्येक वरिष्ठ अधिकारी अपने अधीनस्थ के निर्णयों एवं कार्यों को अधिशासित करता है, इससे उनमें तथा सत्ता सरंचना में एकात्मता आ जाती है एवं प्रशासन की विभिन्न गतिविधियों में समन्वय स्थापित हो जाता है। इन नियमों से कार्मिक वर्ग के सदस्यों के परिवर्तित होते रहने पर भी उनके संचालन में निरंतरता एवं स्थायित्व निर्मित रहता है। एक विशेष प्रशासनिक वर्ग संगठन में संचार मार्ग को प्रवाही बनाये रखता है। वह संगठन की पत्रवलियों तथा लिखित अभिलेखों, जिसमें शासकीय निर्णय एवं कार्यों का उल्लेख होता है, के लिये उत्तरदायी होता है।
उपरोक्त वर्णित सभी विशेषतायें मिलकर संगठन का उच्चतम मात्र में कुशलता प्राप्त करने में सक्षम बना देती हैं, वस्तुतः यह आदर्श प्रकार विभिन्न क्षेत्रें में सभी प्रकार के संगठनों के लिये लागू होता है, चाहे वह शासकीय हो या निजी। नौकरशाही सत्ता अपने विशुद्ध रूप में वहां लागू होती है जहां प्रशासन में अधिकाधिक बौद्धिकता को प्रश्रय दिया जाता है। यह सत्य है कि बिना प्रशासकीय अधिकारों के प्रशासकीय कार्यों को सम्पादित नहीं कराया जा सकता। लोक प्रशासन का मौलिक अधिकार ही ज्ञान पर आश्रित नियंत्रण का प्रयोग है। यही विशिष्टता उसे बौद्धिकता प्रदान करती है। इसी बौद्धिकता के कारण उसे असीमित शक्ति प्राप्त हो जाती है।
आधुनिक राज्य में अधिकारी तंत्र का विकास शीघ्रता से हो रहा है, अतः अधिकारी वर्ग के दायित्वों व अधिकारों में भी वृद्धि हुई है। मूलतः लोकतांत्रिक प्रशासन जनमत को सम्मान प्रदान करते हुये उसके राजनीतिक व नागरिक अधिकारों की रक्षा करता है। यह विधायिका के प्रति उत्तरदायी मंत्रियों के अधीन कार्य करता है। भारतीय लोक प्रशासन का स्वरूप तटस्थता, अनम्यता एवं योग्यता पर अवलम्बित् है। मंत्री अपने विभाग का प्रमुख होने के नाते प्रशासनिक नीति का निर्माण करता है तथा अपने विभाग के अधिकारियों की नियुक्ति, सेवा स्थिति तथा अनुशासन की समस्यायें सुलझाना दैनिक समस्याओं को सुलझान उसका प्राथमिक कार्य होता है। कुछ ऐसी स्थितियां जहां कि राजनीतिक हितों के लिये सत्ताधारी राजनीतिज्ञ और लोकसेवकों के लोकनीति क्रियान्वयन में अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं और उसका प्रभाव पारस्परिक सम्बन्धों, ऐसी स्थिति में कर्मचारी की सत्यनिष्ठा एवं कर्तव्य निष्ठा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा कुछ ऐसी स्थितियां भी आती हैं जहां लोकनीति निर्धारण और कार्यान्वयन में क्रियात्मक अन्तर आता है और जहां पर प्रशासकीय कर्मचारियों व सत्ताधारी राजनीतिज्ञों के मध्य टकराहट उत्पन्न हो जाती है।
प्रशासन में लोकहित के कार्यों को दृष्टिगत रखते हुये सफल प्रशासक हेतु यह आवश्यक है कि वह लोकनीति के सम्बन्ध में जिज्ञासु हो। वर्तमान में प्रशासन-राजनीति सम्बन्ध पर उसकी सोच सकारात्मक होनी चाहिये। आधुनिकता ने लोक प्रशासन के क्षेत्र को वृहद्ता प्रदान करते हुये वैज्ञानिकता के आवरण में आवरणित कर दिया है। इन वैज्ञानिक जटिलताओं एवं कार्यनीति को व्यावहारिकता की दृष्टि से सम्पादित करने के लिये प्रशासक को उदारचित्त होने के साथ-साथ जिज्ञासु होना भी आवश्यक है, यही कार्यों के प्रति उदार जिज्ञासा, प्रशासक को सामानज्ञ से विशेषज्ञ बनने की ओर प्रेरित करेगी तथा यही विशेषज्ञता प्रशासक को सफलता पूर्वक प्रशासनिक कार्यों को सम्पादित करने का अवसर देगी।