Question : "टेलर के वैज्ञानिक प्रबन्धन ने सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक कारकों को नजर अन्दाज किया था। टिप्पणी कीजिए"।
(2007)
Answer : एफ डब्लू टेलर वैज्ञानिक प्रबन्ध के जनक हैं। उनका कहना है कि-"वैज्ञानिक प्रबन्ध किसी विशिष्ट संगठन या उद्योग में कार्य करने वाले कार्मिक की दृष्टि में एक मानसिक क्रांति है।" मुख्यतः टेलर का यह मानना था कि उद्योगों के मालिकों, श्रमिकों तथा उपभोक्ताओं के हितों में कोई निहित मतभेद नहीं होते हैं बल्कि इनके हित परस्पर जुड़े होते हैं। चूंकि प्रबन्ध का मुख्य लक्ष्य अधिकतम कार्य कुशलता तथा सम्पन्नता का स्तर प्राप्त करना होता है, अतः वैज्ञानिक विधियों, उपकरणों तथा सिद्धांतों को अपनाना चाहिए जो प्रबन्ध के लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रभावी योगदान कर सकें। वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ, कार्य का संगठित अध्ययन, कार्य का सरलतम भागों में विश्लेषण तथा प्रत्येक भाग का श्रमिकों द्वारा निष्पादन करने हेतु व्यवस्थित सुधार करने से है। टेलर की दृष्टि में वैज्ञानिक प्रबन्धवाद से मालिकों और श्रमिकों को अधिकतम लाभ मिलता है। वैज्ञानिक नियमों, सिद्धान्तों प्रक्रियाओं तथा सुस्थापित परिणामों पर आधारित वैज्ञानिक प्रबन्ध की विचारधारा मूलतः न्यूनतम व्यय पर अधिकतम लाभ प्राप्त करने पर बल देती है।
एक सिद्धान्त के रूप में वैज्ञानिक प्रबन्धन में कई विशेषताएं हैं। जैसे- प्रत्येक कार्य का नियोजन किया जाए, वैज्ञानिक विधियों तथा कार्य प्रक्रियाओं पर बल, मानव हितों के प्रति उदारता, संसाधनों का समुचित सदुपयोग तथा उनके वैज्ञानिक आवंटन पर ध्यान, संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण शक्ति तथा कौशल का प्रयोग करना चाहिए सहकारिता पर बल, श्रम विभाजन तथा विशिष्टीकरण, कार्मिकों को प्रेरणात्मक मजदूरी, कार्य का मानकीकरण या प्रमापीकरण।
एफ. डब्लू. टेलर के सिद्धान्तों की समीक्षा की गई। उसके पश्चात यह दृष्टिगत हुआ कि टेलर ने कार्य का मानकीकरण कार्य विभाजन, श्रमिकों का चयन, प्रेरणात्मक मजदूरी, फौरमैनशिप की व्यवस्था पर बल दिया है। टेलर सबसे आगे कार्य को रखता है, वह अपनी व्यवस्था में श्रमिकों को एक मशीन के समान समझता था, वह व्यक्ति की सामाजिक व मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को नहीं मानता था। टेलर की नजर में काम ही सबकुछ था, उसकी नजर में कार्य की प्रेरणा केवल पैसा है, पर यह सत्य नहीं है। टेलर के पश्चात मेयो ने यह सिद्ध किया कि प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक व मनोवैज्ञानिक स्थिति होती है अतः स्पष्ट है कि टेलर ने अपने सिद्धान्त में सामाजिक मनोवैज्ञानिक कारकों को नजर अंदाज किया लेकिन इसके अतिरिक्त उसने मानसिक क्रांति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
Question : "मैकग्रेगर की थियोरी X और थियोरी Y का विश्लेषण कीजिये। क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि हर गुजरते हुए वर्ष के साथ मैक्ग्रेगर का संदेश अधिक प्रासंगिक एवं अधिक महत्वपूर्ण होता रहा है।" अपने उत्तर को सिद्ध कीजिए?
(2007)
Answer : डगलस मैक्ग्रेगर ने मानव के सम्बन्ध में दो परस्पर विपरीत विचारों को प्रकट किया- प्रथम तो मूल रूप से नकारात्मक अैर निराशावादी है और द्वितीय आधार रूप से सकारात्मक एवं आशावादी है। इन्हें ‘X’ एवं ‘Y’ सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। सिद्धांत X मूलतः प्रबन्ध का शास्त्रीय सिद्धान्त ही है।
यह इस विचारधारा पर आश्रित है कि स्वभावतः प्रत्येक मानव की प्रकृति कार्य से बचने की होती है, अस्तु उसे कार्य सम्पादन हेतु नकारात्मक अभिप्रेरणा की आवश्यकता होती है। इसी नकारात्मक अभिप्रेरणा के अनुरूप उसे भय दिखाकर कार्य संपादित कराया जा सकता है। X सिद्धांत की मान्यताएं अग्राकिंत हैं:
समग्र रूप से कहा जा सकता है कि ‘X’ सिद्धांत मनुष्य को किंकर्तव्यविभूढ़ आलसी, निरूद्देश्य, नवीनता का विरोधी और अरचनात्मक मानता है। इस स्थिति में प्रबन्ध दो नीतियों का वरण कर सकता है- सख्त एवं ऋजु। सख्त नीति में गहन पर्यवेक्षण सख्त नियंत्रण दबाव एंव दंड जैसी तकनीकी समाहित है। प्रबन्ध को कार्य पर अधिक बल देने वाली नीति अपनानी चाहिए और व्यवहार को सख्त उपक्रमों द्वारा सीमित करने यत्न करना चाहिए।
दूसरी ओर ऋजु नीति मांगों की पूर्ति करती है तथा संगठन में समन्वय की भावना स्थापित करने का यत्न करती है। परंतु दोनों नीतियों की अपनी सीमाएं भी हैं। यदि प्रबन्ध सख्त है तो उसका परिणाम विध्वंसकारी एवं हिंसात्मक प्रक्रियाओं से प्रेरित भी हो सकता है। यदि प्रबन्ध ऋजु है, तो कर्मचारियों की अतिरेक मांगो संभवतः संगठन को ही लुप्त कर सकती है। मैक्ग्रेगर के अनुसार वर्तमान परिवेश में सख्त एवं उदार दोनों ही प्रणाली प्रासंगिक नहीं रह गई हैं।
क्योंकि परिवेश किसी एक परिस्थिति के लिये वर्तमान संयुक्त नहीं है। मैक्ग्रेगर के अनुसार ‘X’ सिद्धांत की मान्यताएं मानव की हित कार्यक्षमताओं को उनकी सम्पूर्णता के सम्यक् सन्दर्भ में नहीं विश्लेषित करती। कर्मचारी मूलतः नकारात्मक वृत्ति के नहीं है। वे संगठन को अपने से गुम्फित् मानते हैं।
X सिद्धांत के आलोचक इसे मानव व्यवहार ही युक्तिसंगत् अवधारणाओं पर खरा नहीं मानते हैं। इस सिद्धांत के अंतर्गत कर्मचारियों को आर्थिक कीट माना जाता है, जो मात्र भोजन को लालच में विपरीत माहौल में भी कार्यरत रहते हैं। वस्तुतः मैक्ग्रेगर यह मानते हें कि प्रबंधकों को ऐसी युक्तिया अपनानी चाहिए जो मानव को प्रोत्साहित करने के साथ ही साथ यथार्थवादी धरातल की सम्प्राप्ति करा सकें। ‘X’ सिद्धांत शास्त्रीय प्रशासनिक सिद्धांत को ही विम्बित करता है। अतः मैक्ग्रेगर ने कालान्तर में एक नवीन सिद्धांत कि अवधारणा प्रस्तुत की जिसे वाई सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
‘Y’ सिद्धांत को प्रतिपादन मैकग्रेगर ने ही ‘X’ सिद्धांत की न्यूनताओं के निवारणार्थ किया। यह अभिप्रेरणा की नवीनतम विचारधारा है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति स्वभाव से ही निष्क्रिय एवं अविश्वसनीय नहीं होता है। यदि उसे ठीक से अभिप्रेरित किया जाये जो वह स्वयं के कार्य के प्रति जागरूक होकर श्रेष्ठतर कार्य निष्पादन कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति में संगठनात्मक विषमताओं के निराकरण की अपार क्षमता उपलब्ध होती है।
प्रबंधकों को सृजनात्मक क्षमताओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सच्चे अर्थों में एक प्रभावशाली संगठन वह है, जिसमें निर्देशन एवं नियंत्रण के स्थान पर सृजनात्मकता को व्यापक महत्व दिया जाये और जिसमें प्रत्येक निर्णय में प्रभावित होने वालों की प्रति ध्वनि को पर्याप्त महत्व दिया जाये। इस सिद्धान्त का उद्देश्य व्यक्तिगत धारणाओं और संगठन की धारणाओं में समन्वय लाना है, जिससे प्रत्येक कर्मचारी अपने कार्य की महत्ता को समझ सके।
इसमें व्यक्तिगत प्रगति को प्रोत्साहित किया जाता है, जो अन्ततः संगठन की प्रगति में माध्यम होता है। यह सिद्धांत कर्मचारियों को व्यापक कार्य हेतु प्रेरित करने के निमित्त उन्हें संस्था के प्रत्येक कार्य में भागीदार बनाने हेतु प्रबंधकों को आदेशित करता प्रतीत होता है। इस सिद्धान्त में अधिक अवसर पैदा करने, विषमतायें निवारित करने और विकास को नवीनता के माध्यम से प्रोत्साहित करने पर जोर दिया गया है। यह सिद्धान्त स्वतंत्रत्मक मूल्यों पर अवलम्बित है।
यह ऐसे संगठन की प्रत्याशा करता है, जिसमें लोग आत्मविश्वासी एवं अभिप्रेरित अनुभव करें। यह सभी की संतुष्टिी पर बल देता है। इस सिद्धांत को समन्वय तथा आत्म अनुशासन के द्वारा प्रबन्ध के रूप में भी जाना जाता है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है मैक्ग्रेगर के ‘X’ तथा ‘Y’ सिद्धांत मानव स्वभाव के विषय में परस्पर विपरीत विचारधाराओं पर ही आश्रित हैं। ‘X’ सिद्धांत जहां मानव विकास की नकारात्मक विचारधारा को प्रश्रय देता है, वहीं 'Y’ सिद्धांत मानव विकास की निर्हित क्षमताओं वाला है तथा सकारात्मकता को ही प्रोत्साहित करता है। ‘X’ तथा ‘Y’ सिद्धांतों को मानव संबन्धों समग्रता के रूप में नहीं लिया जा सकता वरन् ये ऐसे विशिष्टीकृत यंत्र हैं, जिनके द्वारा मानव व्यवहार का आकलन किया जाता है।
मैक्ग्रेगर ने अपने सिद्धांतों को प्रतिपादित तो किया लेकिन उनके परिचालन की स्थितियों एवं समय के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट संकेत नहीं किया, अतः परिस्थिति एवं समय की मांग के अनुरूप मैक्ग्रेगर के किसी भी सिद्धांत को परिचालित किया जा सकता है। मैक्ग्रेगर के दोनों ही सिद्धान्त प्रासंगिक हैं और वर्तमान परिवेश में भी अपनी उपादेयता सिद्ध कर सकने में समर्थ हैं, मैक्ग्रेगर के ये सिद्धांत वास्तविक अर्थों में प्रबंध के लिए अमृत समान हैं।
Question : मेरी पार्कर फोलैट के कार्य की मुख्य समस्या यह है कि उसका आदर्शवाद (Idealism) छुपा नहीं रहता है] स्पष्ट कीजिये।
(2006)
Answer : मौलिक विचारों को सहजता और सरलता से प्रस्तुत करने के मामले में फोलेट दुर्लभ क्षमता वाली प्रतिभाशाली लेखिका थीं। उनका लेखन व्यावहारिक बुद्धिमानी, गहरी आत्मदृष्टि, समग्र सोंच और बहुआयामी लोकतांत्रिक चेतना से परिपूर्ण है।
उनकी स्थापनायें- प्रतिवादी सामूहिक मनोविज्ञान व सामाजिक मनोविज्ञान के द्वारा व्यक्ति और समाज के बीच दूरी को हटाने का विचार, कोई हमें लोकतंत्र दे नहीं सकता बल्कि हमें सीखना है कि लोकतंत्र क्या है और इसके लिए सामूहिक मनोविज्ञान की जरूरत, सामूहिक प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य सृजनात्मकता है।
समाज का मनोविज्ञान अध्ययन करें और सामाजिक अनुभवों के आधार पर राज्य संरचना को तैयार करें इत्यादि। अपने आदर्शों और व्यावहारिकता ज्ञान दोनों में समान रूप से आस्था के कारण ही वे शास्त्रीय और वैज्ञानिक प्रबंधकारों की चहेती थी।
डेनियल ए. रेन के शब्दों में- ऐतिहासिक अनुक्रम में फोलैट, वैज्ञानिक प्रबंध के दौर का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि दार्शनिक दृष्टि से वे ‘सामाजिक मनुष्य’ युग का प्रतिनिधित्व करती है।
मेलजोल तथा समूह चिंतन की अग्रदूत फोलैट के प्रमुख विचार इस प्रकार हैं- संगठन में टकराव या मतभेद होना, व्यक्तिगत् मतवैभिन्नयों के कारण अपरिहार्य है।
यह एक सामान्य प्रक्रिया है, जिसमें सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मतभेद अपने आपसे संबद्ध सभी लोगों की ज्ञान-परिधि को व्यापक बनाने की दिशा में तत्पर होते हैं। इसलिए उन्हें बुरा कहकर उनकी उपेक्षा करने के बजाये लाभ उठाने की कोशिश की जानी चाहिए। कुछ बेहतर बनाने के लिए उनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। मतभेदों को रचनात्मक कैसे बनाया जाये इसके वे तीन तरीके सुझाती हैं-
इन तीनों तरीकों में से फोलैट एकीकरण को ही चुनती हैं, क्योंकि उनके अनुसार, यह तरीका समस्या की बिल्कुल जड़ तक जाता है। फोलैट ने शक्ति को कार्य करवा पाने की सक्षमता से जोड़ा है। दबावपूर्ण शक्ति के ऊपर सहशक्ति की वरीयता दी है। स्थितिपरक प्राधिकरण और कार्यात्मक प्राधिकार पर बल दिया है और व्यक्ति के व्यक्ति के ऊपर नियंत्रण पर अंकुश रखने के लिए कहा है।
अतः उनकी उपरोक्त स्थापनायें निश्चित रूप से आदर्शवाद और व्यवहार में समन्वय लाकर मानव संगठन के प्रभावी संचालन का अच्छा प्रयास है, परंतु यह भी सत्य है कि वे अपने इस प्रयास में पूर्ण सफल नहीं हो पायी हैं और एक संत की आदर्शवादी के रूप में ज्यादा लक्षित होता है।
वस्तुतः उन्होंने सभी वास्तविक, सामाजिक और वर्गीय संघर्ष को ताक पर रखकर सिर्फ उन मनौविज्ञानिक मतभेदों पर विचार किया है जो आमतौर पर व्यापक समझदारी के अभाव, गलत-फहमियों और कार्मिक गुणों के अंतर से उत्पन्न होते हैं। इसी तरह से उनके एकीकरण संबंधी सिद्धांत को भी भ्रामक कहकर आलोचना की जाती है।
एक तरह फोलैट शास्त्रीय विचारधारा की आलोचना करती है, वहीं दूसरी ओर कई मुद्दों में उनके इस तरह के विचार उभरते हैं। अतः उनके आदर्शवादी विचारों को पारस्परिक रूप से जोड़ने व आदर्श उद्देश्यों के संदर्भ में उचित सक्षमता उपयोग किये जाने में कमियां हैं।
एक ओर सामाजिक और मनोविज्ञान विषयों पर अत्याधिक प्रभाव डाला गया है, तो दूसरी और कई ऐसे प्रयोजन हैं, जो काफी कुछ वैज्ञानिक हैं। प्रश्न यही उठता है कि दोनों तरह के विचारों को साथ-साथ कैसे लागू किया जाये।
एक ओर कार्यात्मक प्राधिकार के मुद्दे हैं तो दूसरी ओर बहुत से स्थितिपरक प्राधिकार के मुद्दे हैं। उनके विचारों की इसी बेतरतीबी के कारण उनमें पारस्परिक सामंजस्य स्थापित कर पाना मुश्किल है और उनका अनुसरण कर पाना तो और भी ज्यादा मुश्किल है।
Question : प्रशासन के क्लासिकीय विज्ञान (Classical Science) का, ड्वाइट वाल्डों और राबर्ट डहल के द्वारा उसकी आलोचना के विशेष हवाले के साथ समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2006)
Answer : संगठन की क्लासिकी विचारधारा के अनुसार संगठन किसी योजना की औपचारिक संरचना है, जो सुस्पष्ट सिद्धांतों के अनुरूप बहुत कुछ इमारत की योजना के अनुरूप है। जिस प्रकार मकान की योजना कुछ सिद्धांतों के आधार पर वास्तुकार के द्वारा बनायी जाती है, उसकी प्रकार संगठन का निर्माण भी कुछ सिद्धांतों के अनुरूप किया जाता है।
यह अवधारणा दो विश्वासों पर आधारित है। यथा-सिद्धांतों का एक समूह होता है, जिसके अनुसार निश्चित उद्देश्य तथा कार्य के अनुरूप संगठन की योजना का निर्माण किया जा सकता है और इस पूर्व विचारित योजना के लिये आवश्यक कर्मचारियों की व्यवस्था होनी चाहिए। स्पष्ट है कि यह सिद्धांत संगठन को एक यंत्र मानता है और मनुष्य को उस यंत्र को संचालित करने वाला पुर्जा।
इस विचारधारा में संरचना के विभिन्न संबंधों की समस्याओं पर विशेष बल दिया जाता है अर्थात् प्रभावशाली और सक्षम संगठन की दृष्टि से निर्धारित क्रियायें और कार्य। इसमें मानव-तत्व पर बल नहीं दिया जाता अपितु उसकी भूमिका, जो संगठन के संदर्भ में उसके द्वारा निभाई जाती है, पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। इस विचारधारा की प्रमुख विशेषतायें हैं-
अतः शास्त्रीय विचारधारा यह मानती है कि एक संगठन अपने बाह्य वातावरण से सर्वथा पृथक और अप्रभावित होता है। इसका संबंध ‘क्या है’ से न होकर ‘क्या होना चाहिये’ से है। इस विचारधारा में संगठन के वास्तविक व्यवहार पर बल नहीं दिया जाता है। इसके द्वारा मानव तत्वों को कम महत्व दिया जाता है और मानव प्रयत्नों का अति सरलीकरण कर दिया गया है।
आलोचकों का मत है कि शास्त्रीय विचारधारा के द्वारा जिन सिद्धांतों की चर्चा की गई है, वे कहावतें मात्र हैं और विद्वानों और लोक प्रशासकों के मार्गदर्शन की दृष्टि से उनका कोई महत्व नहीं है।
अपनी पुस्तक । Administrative State में वाल्डो ने स्पष्ट किया है कि प्रशासनिक प्रक्रिया को राजनीतिक प्रक्रिया के ऊपर वरीयता दे पाना मुश्किल है। राजनीतिक प्रक्रिया में मूल्य है, जबकि सिद्धांतों में मूल्यों को नकारा गया है। प्रशासनिक सिद्धांतों में तकनीकी विशेषज्ञता पर ही विशेष बल है, जबकि कार्यक्रमों की प्रभावशीलता के लिए व्यापक विषयों को ध्यान में रखने की जरूरतें हैं। वाल्डो ने सिद्धांतों को अत्यधिक सरलीकृत दिशानिर्देश (Over Symplited Doctrives) माना है। वाल्डो ने नवीन लोक प्रशासन, विकास प्रशासन जैसी संकल्पनाओं का समर्थन किया है, जो कि पूर्ण सिद्धांतों की पक्षधर नहीं हैं। वाल्डो ने प्रत्यक्षवादी दृष्टिकोण न कि पूर्ण विधान को वरीयता दी है। वाल्डो ने 'The Enterprise Of Public Administration' में कहा है कि आधुनिक लोक प्रशासन को सामाजिक सभ्यता के विकास पर आधारित होना चाहिये। वाल्डो ने The Study Of Public Administration में कहा कि एक पूर्ण विज्ञान की बजाय लोक प्रशासन में विभिन्न तरह के विचारों या जानकारी को जोड़ने की जरूरत है।
सिद्धांतों के आधार पर केंद्रीयकरण की बजाय भागीदारी उन्मुख विकेंद्रीकरण को वरीयता दी है। वाल्डो ने लोक प्रशासन के अध्ययन में परिस्थितिकी के व्यापक आधार को लेने का पक्ष रखा है, जबकि सिद्धांतों में इस संदर्भ में कमियां हैं।
नौकरशाही को एक सामाजिक संगठन के रूप में लेने के लिये कहा है, जबकि सिद्धांतों में इसे एक यांत्रिकी संगठन के रूप में लिया जाता है, इसी प्रकार Robert Dahl के अनुसार लोक प्रशासनिक संस्थायें विभिन्न सांस्कृतिक परिवेश में कार्य करती हैं, तो इनमें अंतर आना स्वाभाविक ही है, जबकि प्रशासनिक सिद्धांतों में इन विषयों को नहीं समझा जा सका है। लोक प्रशासन में नागरिक और समाज के नियंत्रण और भागीदारी की विशेष जरूरत है, जबकि सिद्धांतों के आधार पर पदसोपानिक संस्थायें ज्यादा अव्यक्तिक है। A preface of Democratic theory में कहा है कि लोकतंत्र की राजनीतिक समता, जन संप्रभुता की जरूरतों को ध्यान में रखें। इनके संदर्भ में प्रशासनिक विज्ञान में कमियां हैं।
Ployarchy: Participation & Appositionमें कहा है कि सहमति और राजनीतिक गतिविधि को ध्यान मं रखने की जरूरत होती है।
Un Democracy में कहा गया है कि अच्छे कार्य निर्वाह के लिये आर्थिक और सामाजिक दोनों तरह के विषयों को ध्यान में रखने की जरूरत है, जबकि प्रशासनिक सिद्धांतों में आर्थिक विषयों पर ही बल दिया गया है। The Science Of Public Administration : Three Problems में कहा गया है कि लोक प्रशासन में मूल्यों व्यक्तियों में अंतर और सामाजिक विषयों के प्रभाव को देखते हुये एक पूर्ण विज्ञान को विकसित करने के लिये तुलनात्मक अध्ययनों को अत्यंत जरूरी माना है। लोकतांत्रिक मुद्दों और दक्षता संबंधी मुद्दों में संतुलन रखने का पक्ष रखा है। राज्यों के द्वारा नागरिक समाज की सक्रिय भागीदारी को लेने के लिए कहा है, जबकि दृढ़ पदसोपानिक संस्थाओं में समस्यायें आती हैं।
उपरोक्त विवेचन, प्रशासन के क्लासिकीय सिद्धांत का ड्वाइट वाल्डो और राबर्ट ड्हल के द्वारा उसकी आलोचना को, स्पष्ट रूप में निर्धारित करता है।
Question : "लोक प्रशासन को अध्ययन के लिए और लोक प्रशासन संव्यावसायिकता के अमल के लिए साइमन के कार्य के प्रमुख निहितार्थ थे।" टिप्पणी कीजिये।
(2006)
Answer : जेम्स डी. कैरोल का कथन है- सूचना ज्ञान है, ज्ञान शक्ति है, प्रशासन शक्ति है। साइमन ‘प्रशासन’ को निर्णय लेने की प्रक्रिया में इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटरों के मानवी चिंतन की अनुकरणीय भूमिका पर शोध विश्लेषण, सिद्धांत और तार्किक निश्चयात्मकता की प्रणाली पर आधारित प्रशासन की एक नई अवधारणा; पारंपरिक सिद्धांतों और व्यवहार के बीच अंतर का प्रतिपादन; कृत्रिम इंटेलीजेन्स, सीमित तार्किकता से रूबरू कराना; निर्णयों को संतुष्टि की परिभाषा से जोड़ना, स्टाफ के कार्यों की परीक्षा, साधन-साध्य का प्रतिपादन, स्वीकृति के क्षेत्र का अनुमोदन, प्रोग्राम्ड और नॉन प्रोग्राम्ड निर्णय ये सभी साइमन के अंतहीन योगदान और लोक प्रशासन को लोक विज्ञान के रूप में पुष्ट करने के निहितार्थ के रूप में हमारे सामने आते हैं।
अर्थव्यवस्था और मनोविज्ञान जैसे विषयों के प्रयोग को सुनिश्चित करना; इलेक्ट्रॉनिक डाटा प्रोसेसिंग का संस्थागत कार्यों में अधिक-से-अधिक प्रयोग प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की तरफ ध्यान आकर्षित करना; संगठन में वैज्ञानिक संकल्पनाओं का प्रयोग; संगठनात्मक निष्ठा और सामूहिक प्रयासों का महत्व; विभिन्न परिस्थितियों में सूचना और सलाह का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल; मानव और मशीन का संगठन में पूरक प्रयोग तथा सिद्धांतों से व्यवहार की तरफ संगठन की कार्यप्रणाली को ले जाना। उनकी स्थापनायें जैसे- प्रशासनिक कुशलता की कसौटी उस विकल्प के चयन का ‘आदेश’ देती है जो उपलब्ध संसाधनों के उपयोग से व्यापक परिणाम दे, तथा जैसे- निर्णय लेने की प्रक्रिया में कंप्यूटरों और ‘सिम्युलेशन माडलों का इस्तेमाल बढ़ता है, वैसे-वैसे ज्यादा से ज्यादा निर्णय नियोजित होते जाते हैं, जिससे निर्णय प्रक्रिया तथा व्यवहार में तार्किकता बढ़ती है। फलस्वरूप संगठनात्मक तार्किकता का भी विस्तार होता है। उनकी ये सभी स्थापनायें व अवधारणात्मक पहल निश्चित रूप से लोक प्रशासन के अध्ययन के लिए व उसके व्यवसाय के रूप में प्रयोग के लिए एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती हैं। परंतु कुछ सीमायें जिनके कारण साइमन के योगदान को आलोचना का सामना करना पड़ा वे हैं- साइमन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक घटकों को पृष्ठभूमि में डाल देते हैं,हालांकि प्रशासनिक व्यवहार के विश्लेषण में इनकी कोई कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती। साइमन इसी तरह नैतिक मूल्यों को भी जो कि नीति निर्धारण के अनिवार्य अंग होते हैं- को इस प्रक्रिया में शामिल नहीं करते। उनका ऐसा करना लोक प्रशासन के अध्ययन को यांत्रिक तथा रोजमर्रा के जीवन में उसकी भूमिका को कम महत्वपूर्ण बनाता है, तब साइमन के तथ्य आधारित प्रशासनिक सिद्धांत का विचार लोक प्रशासन के बजाये व्यापार प्रशासन के लिये ज्यादा उपयुक्त है।
मगर उपयुक्त सभी कमजोरियों के बावजूद प्रशासनिक सिद्धांत के विकास के मामले में साइमन के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। उनका ध्यान प्रशासनिक व्यवहार पर ही अधिक रहा, साथ ही वे आर्थिक और व्यापारिक व्यवस्थाओं पर ही अधिक केंद्रित रहे। परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि बाद में जो प्रशासनिक सिद्धांत प्रकाश में आये, वे भी संगठनों में निर्णय लेने की प्रक्रिया के बारे में साइमन द्वारा प्रतिपादित विचारों को अधिक महत्व देते प्रतीत नहीं होते।
Question : "लोक उद्यमों में स्वायतत्ता और जवाबदेही साथ-साथ नहीं चल सकते हैं।" स्पष्ट कीजिए।
(2006)
Answer : लोक उपक्रमों की परंपरागत प्रशासनिक संगठनों की नौकरशाही प्रणाली से दूर रखकर पृथक् अस्तित्व प्रदान किया जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से इनको अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी संगठन अपने दैनन्दिन आंतरिक प्रशासन को इच्छानुसार संचालित कर सकते हैं। लेकिन यह प्रश्न बार-बार उठाया जाता रहा है कि स्वायत्ता की आड़ में लोक उपक्रम उस धन का दुरूपयोग करते हैं, जो जनता के कठोर परिश्रम के द्वारा एकत्र किया जाता है। स्वायत्ता का आशय उत्तरदायित्वों से मुक्त होना नहीं है। यदि लोक उपक्रमों को कार्यपालिका तथा विधायिका के प्रति जवाबदेह बनाया जाता है तो इसे स्वायत्ता का हनन माना जाता है। स्वायत्ता बनाम जवाबदेहता की इस निरर्थक बहस में लोक उपक्रमों की कार्यप्रणाली प्रभावित हो रही है। वस्तुतः नियंत्रण का अभाव किसी भी संगठन को दिशाहीन तथा उत्तरदायित्व बनाता है, लेकिन यह भी सही है कि अत्यधिक कठोर नियंत्रण व्यापारिक प्रकृति के संगठनों की राह में एक बाधा होता है। परंतु वर्तमान रूख निष्पादन आधारित स्वायत्तता और उत्तरदायित्व का रहा है, जैसा कि यू. के. की इब्बस् रिपोर्ट के आधार पर अस्तित्व में आयी नेक्सत् स्टेप एजेन्सी (Next Step Agency) हो या भारतीय परिप्रेक्ष्य में नवरत्न और मिनीरत्न जैसे दर्जे प्रदान कर स्वायत्तता और उत्तरदायित्व को निष्पादन के आधार पर पारिभाषित करना।
इस संतुलन को स्थापित करने में जो चुनौतियां सामने आती हैं, वे लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व और विशेषीकृत निष्पादन में अंतर के कारण; लोक उद्यमों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के नियंत्रण के कारण; बाजार और राज्य के उत्तरदायित्व के बीच की खाई; वैज्ञानिक आधार पर निष्पादन मूल्यांकन भी व्यक्तिनिष्ठ होता है; गैर-बराबर भागीदारों में एम. ओ. यू. (MOU); नौकरशाही संस्कृति के अंतर; लेखापरीक्षण और निष्पादन के अंतर; राजनीति और प्रशासन में स्पष्ट विभाजन की असंभाव्यता; सामाजिक और उद्यमीय उद्देश्यों में परस्पर भिन्नता; राजनीतिक प्राथमिकतायें और प्रतिस्पर्धी आर्थिक आवश्यकताओं में भिन्नता; लोक उद्यमों और निजी उद्यमों में अंतर; संस्था केंद्रित सुधार और नागरिक केंद्रित सुधारों में मतभेद; बाजार की असफलता के समय के हस्तक्षेप की आवश्यकता इत्यादि।
अतः इसका समाधान यही है कि स्पष्ट निष्पादन आधारित लक्ष्य; परिणामों को आधार बनाकर बजट बनाना; सेवा निष्पादन का अच्छा प्रबंधन, स्पष्ट मानदंड; निष्पादन का वैज्ञानिक मूल्यांकन; प्रबंधकीय लेखा परीक्षण; तुलनात्मक रेटिंग इत्यादि।
इन तकनीकों का प्रयोग स्वायत्ता और उत्तरदायित्व को एक दूसरे का पूरक बना सकेगा और तब ही लोक उपक्रमों में विनियोजित जनता के पैसे का सही इस्तेमाल और लोक उपक्रमों को निजी उपक्रमों से प्रतिस्पर्धा करने तथा औद्योगिक वातावरण के अनुरूप संचालन के लिए मिलने वाली छूट, दोनों ही उद्देश्यों में सही संतुलन और समन्वय स्थापित हो सकेगा।