Question : "चूंकि समाज परिसंघीय होता है, प्राधिकार का भी परिसंघीय होना आवश्यक है।" (लास्की)
(2007)
Answer : बीसवीं सदी में लास्की के लेखन में बहुलवादी मान्यताओं को विशेष समर्थन मिला। बहुलवाद वह मत व सिद्धांत है, जिसके अंतर्गत समाज में शक्ति तथा प्रभुत्त्वसंपन्न राज्य के समकक्ष अन्य समूहों व उनकी स्वायत्तता का समर्थन किया जाता है। बहुलवादी सिद्धांत की यह मान्यता है कि विधि व संस्था व्यक्तियों के विकास के साधन हैं। इसलिये उन्हें व्यक्तियों से उच्चतर नहीं समझा जा सकता। बहुलवाद मनुष्य की सामाजिक प्रवृत्ति का समर्थक है तथा उसका यह अदम्य विश्वास है कि मनुष्य अपने समूहों के प्रति उतना ही निष्ठावान व वफादार होता है, जितना कि वह राज्य के प्रति। बहुलवाद विक्रेन्द्रीकरण सत्ता का समर्थन करता है। इन विचारकों में लास्की का स्थान विशिष्ट है।
लास्की के अनुसार, राजनीतिक गतिविधियों को समूहों के रूप में ही समझा जा सकता है तथा समूहों की स्थापना हितों के आधार पर ही देखी जा सकती है। नेतृत्व, लोकमत इत्यादि का निर्धारण समूहों के मध्य स्थापित प्रतिस्पर्धा से ही होता है तथा सरकार समूहों के विरोधी हितों में सामंजस्य स्थापित करने का कार्य करती है। इस तरह से राजनीतिक शक्ति समूहों के संग्रहित हितों की प्राप्ति की इच्छा का ही प्रतिफल है। संतुलन के लिये शक्ति की आवश्यकता होती है तथा सरकार समूहों की आवश्यकता की ही उपज है।
लास्की के अनुसार, राज्य की विधिक सप्रंभुता न तो स्वेच्छाचारी है न ही एकपक्षीय। मनुष्य के सामाजिक, व्यवहारिक व राजनीतिक लक्ष्यों के अनुसरण की प्रक्रिया में अनेक संगठनों व समूहों की स्थापना स्वाभाविक है। चूंकि संगठनों व समूहों के माध्यम से ही पारिभाषित लक्ष्यों की प्राप्ति होती है, इसलिये मानवीय जीवन में इसकी/इनकी विशिष्ट भूमिका होती है। लास्की के अनुसार, इन समूहों को राज्य नियंत्रण से मुक्त रखा जाना चाहिए तथा इनकी प्रवृत्ति स्वायत्त होने के कारण इन पर औपचारिक शक्ति व सत्ता का प्रयोग भी वर्जित है। इन समूहों के महत्त्व के आधार पर लास्की ने यह माना है कि चूंकि समाज की प्रवृत्ति ही संघीय है, इसलिए सत्ता का स्वरूप भी विकेंद्रित होना चाहिए। लास्की ने राज्य को अन्य अपेक्षाओं की तुलना में अधिक महत्त्व दिया है, परंतु वे उनके अंनतिम सत्ता का समर्थन नहीं करते।
Question : "राज्य वर्ग-प्रतिद्वंदिता की असमाधानीयता का परिणाम है।" (लेनिन)
(2007)
Answer : मार्क्स के अनुसार ‘विचारधारा’ उन विचारों का समुच्चय है, जिन्हें प्रभुत्वशाली वर्ग अपने शासन की वैधता स्थापित करने के उद्देश्य से सारे समाज के लिये मान्य बना देता है। अतः इतिहास के प्रत्येक दौर में जब धनीवर्ग सत्तारूढ़ होता है, तब वह कानून, धर्म और नैतिक शिक्षा इत्यादि के माध्यम से ऐसे विचारों को स्थापित कर देता है, जिनके सहारे निजी संपत्ति की रक्षा की जा सके।
ये विचार तर्क या विवेक पर आधारित नहीं होते बल्कि धनवान वर्ग की स्वार्थपूर्ति के उद्देश्य से तर्कसंगत विचारों के रूप में जनसाधारण में मन पर अंकित कर दिये जाते हैं। परिणाम यह होता है कि जनसाधारण इस झूठ को सच मानने लगते हैं। अतः मार्क्स ने विचारधारा को मिथ्या चेतना की संज्ञा दी है। मार्क्स का कहना था कि विचारधारा तभी तक आवश्यक होती है, जब तक धनवान वर्ग समाज को वर्गों में विभाजित करके अपनी सत्ता को कायम रखना चाहता है। इसके विपरीत, कामगार या सर्वहारा वर्ग को केवल उपयुक्त वर्ग चेतना की आवश्यकता होती है, मिथ्या चेतना की आवश्यकता नहीं होती। फिर, जब सर्वहारा वर्ग सत्तारूढ़ होता है, तब वह समाज को वर्गों में विभाजित रखना ही नहीं चाहता। इसलिये अपनी सत्ता को कायम रखने के लिये सर्वहारा वर्ग को विचारधारा की कोई आवश्यकता नहीं होती।
लेनिन ने 1902 में प्रकाशित अपनी मुख्य सैद्धांतिक कृति what is to be done? के अंतर्गत यह तर्क दिया कि सर्वहारा वर्ग को भी विचारधारा की जरूरत है। लेनिन ने यह मत व्यक्त किया कि किसी भी वर्ग को अपने लक्ष्य की ओर प्रेरित करने और उपयुक्त नीतियां एवं कार्यक्रम सुझाने के लिये विचारधारा की जरूरत होती है। अतः सर्वहारा वर्ग के लिये साम्यवादी विचारधारा उतनी ही जरूरी है, जितनी पूंजीपति वर्ग के लिये पूंजीवादी विचारधारा जरूरी है। यदि सर्वहारा वर्ग के पास अपनी सुदृढ़ विचारधारा नहीं होगी तो वह पूंजीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर अपना रास्ता भूल जायेगा। दूसरे शब्दों में, पूंजीवादी विचारधारा से टक्कर लेने के लिये साम्यवादी विचारधारा का विकास और प्रचार सर्वथा आवश्यक है।
Question : "प्लेटो का साम्यवाद उस मनोवृति को अमल में लाने और प्रबलित करने की एक अनुपूरक यंत्रवली है, जिस मनोवृति को शिक्षा को उत्पन्न करना होता है।" (नैटलशिप)
(2007)
Answer : प्लेटो पर तत्कालीन व्यवस्था का प्रभाव अर्थात् प्लेटो तत्कालीन एथेंस के हस्तक्षेपवादी व स्वार्थपरक व्यवस्था से दुखी था। इस कुव्यवस्था के कारण ही सुकरात को विषपान करना पड़ा था, व स्पार्टा के हाथों पराजित हुआ था। एथेंस के गौरवशालीअतीत की पुनर्स्थापना के उद्देश्य से प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ नामक ग्रंथ की रचना की। प्लेटो के अनुसार अज्ञानता व स्वार्थ को ज्ञान की प्राप्ति से ही दूर किया जा सकता है। इसी विश्वास से प्लेटो ने एक अमूर्त विश्व की परिकल्पना की, जिसे उसने स्थिर व पूर्ण माना। प्लेटो के अनुसार, इस अमूर्त विश्व को समझने के लिए पदार्थ की भावनाओं की आवश्यकता थी अर्थात् निज की भावना से उन्मुक्त व्यक्ति ही अपने विवेक तथा ज्ञान के आधार पर अमूर्त विचारों को मूर्त करने की कोशिश कर सकता था और तभी एक न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना की जा सकती थी।
प्लेटो ने अच्छे समाज के लिये दार्शनिक राजा के शासन का अनुमोदन किया है। दार्शनिक राजा की स्थापना या प्राप्ति शिक्षा के द्वारा ही संभव है। बार्कर के अनुसार, प्लेटो की शिक्षा का उद्देश्य मानसिक विकृतियों को दूर करना है। प्लेटो के अनुसार यह शिक्षा-प्रणाली राज्य द्वारा उपलब्ध कराई जायेगी। इस प्रणाली के अंतर्गत प्रारंभिक बीस वर्षों तक राज्य के सभी नागरिकों को समान शिक्षा के अवसर मुहैया कराये जायेंगे। इसके अंतर्गत मुख्य बल शारीरिक शिक्षा तथा संगीत पर दिया जायेगा, जिसका उद्देश्य क्रमशः शारीरिक दृढ़ता तथा मानसिक मृदुलता का विकास करना होगा। इसके बाद एक विशाल परीक्षा का आयोजन किया जायेगा। इसमें उत्तीर्ण छात्र/छात्रओं को अगले पंद्रह वर्षों तक शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक प्रशिक्षण दिया जायेगा, फिर एक परीक्षा का आयोजन किया जायेगा। इसमें उत्तीर्ण व्यक्तियों को अगले पंद्रह वर्षों तक दर्शनशास्त्र, तर्कशास्त्र, द्वन्द्व आदि की शिक्षा दी जायेगी। इस तरह दार्शनिक राजा की प्राप्ति हो सकेगी जो सच्चे अर्थों में ज्ञान, विवेक, बुद्धि का धारक होगा तथा व्यक्तियों में उनके आधिक्य गुणों की पहचान कर समाज को तीन वर्गों में विभाजित करने में सक्षम होगा। इस तरह राज्य के हस्तक्षेपवादी व स्वार्थपरक व्यवस्था का अंत होगा तथा राज्य न्यायपूर्ण रूप में स्थापित हो सकेगा।
Question : ‘‘ --------- कि इस सिविल समाज की रचना को फिर भी इसकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था में ही ढूंढना पड़ेगा।’ (मार्क्स)
(2006)
Answer : मार्क्स का कहना है कि किसी भी युग में सामाजिक संबंध उस युग में प्रचलित अर्थव्यवस्था के आधार पर निर्धारित होते हैं। इन आर्थिक संबंधों के आधार पर ही इतिहास एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है। इस प्रकार समाज के, आर्थिक संबंध समाज की प्रगति का रास्ता तैयार करते हैं और वे राजनीतिक, कानूनी, सामाजिक, बौद्धिक और नैतिक संबंधों का स्वरूप निर्धारित करने में सबसे बढ़कर प्रभाव डालते हैं। समाज के आर्थिक संबंधों से तात्पर्य है- ऐसे बंधन जिनसे बंधकर स्त्री-पुरुष अपने जीवन निर्वाह के साधन जुटाते हैं अर्थात् किसी राष्ट्र या समाज के विकास की प्रक्रिया में आर्थिक तत्व अर्थात् वस्तुओं के उत्पादन, विनिमय व वितरण प्रणाली की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अन्य तत्व कानून, धर्म, साहित्य, विज्ञान, कला, संस्कृति आदि समाज की प्रगति में कोई भूमिका नहीं निभाते, मतलब यह है कि अन्य सब तत्वों की भूमिका आर्थिक तत्व के साथ जुड़ी रहती है।
इस प्रकार मार्क्स उत्पादन प्रणाली या समाज की आर्थिक संरचना को समाज का आधार या नींव मानते हैं। समाज के राजनीतिक, कानूनी ढ़ांचे तथा सामाजिक चेतना की विविध अभिव्यक्तियों को ‘अधिरचना’ की श्रेणी में रखते हैं। आधार के आधार पर ही अधिरचना में परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए उत्पादन प्रणाली में जैसे-जैसे परिवर्तन होता है, वैसे-वैसे सिविल समाज की रचना भी बदल जाती है। जब उत्पादन हाथ की चक्की से होता है, तब सामंत अस्तित्व में आता है, जब उत्पादन भाप की चक्की से होने लगता है, तब पूंजीपति उद्योगपति का आर्विभाव होता है।
उत्पादन संबंधों से यह संकेत मिलता है कि उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य किन संबंधों से बंध जाते हैं? ये संबंध इस बात पर निर्भर हैं कि कौन-सा वर्ग उत्पादन के साधनों का स्वामी है और कौन-सा वर्ग इन साधनों से वंचित है। इस प्रकार मार्क्स नागरिक समाज की रचना को उसकी अर्थव्यवस्था में खोजता है।Question : राज्य व्यक्ति का ही वृहत् रूप है। (प्लेटो)
(2006)
Answer : प्लेटो के समकालीन यूनानी विचारधारा में राज्य और व्यक्ति में सामंजस्य स्थापित किया जाता था। व्यक्ति को राज्य का अभिन्न अंग माना जाता था। यह धारणा सर्वमान्य थी कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, अतः उसे उत्तम जीवन व्यतीत करना चाहिए। उत्तम जीवन की प्राप्ति का साधन सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन है। इस दृष्टि में मानव को राजनीतिक प्राणी मानने तथा राजनीतिक जीवन की अपरिहार्यता को मानना यूनानी चिंतन की विशेषता थी। राज्य तथा मनुष्य के हितों को परस्पर विरुद्ध होने की कोई धारणा मान्य नहीं थी। राज्य को एक जीवित व्यक्ति के रूप में माना जाता था। इस यूनानी विचार परंपरा का प्रभाव प्लेटो पर भी पड़ा। प्लेटो ने अपने राजनीतिक चिंतन में, विशेष रूप से राज्य और व्यक्ति के संबंधों की विवेचना करते समय, इस यूनानी परंपरा को जीवित रखा।
राज्य व व्यक्ति के बीच संबंध की प्लेटो की विवेचना का प्रारंभिक बिंदु उनका मानव प्रकृति संबंधी विचार है। उन्होंने मानव आत्मा के तीन तत्वों विवेक शौर्य या साहस तथा तृष्णा की परिकल्पना की है। प्लेटो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में केवल एक तत्व की प्रधानता होती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्राकृतिक गुणों के अनुसार आचरण करना चाहिए। प्लेटो ने इसी आधार पर तीन सामाजिक वर्गों की भी संकल्पना की है। इनमें से विवेक साहस वर्ग का, शौर्य सैनिक वर्ग का और तृष्णा उत्पादक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। प्रत्येक व्यक्ति को सदैव उसके प्राकृतिक गुणों के अनुसार कार्य दिया जाए, तब प्रत्येक व्यक्ति अपना-अपना कार्य करेगा और इस प्रकार वह एक होगा, अनेक नहीं और इसलिए राज्य भी एक होगा, अनेक नहीं।
Question : दासता के विषय पर अरस्तू के विचारों पर एक समालोचनात्मक निबंध लिखिए।
(2006)
Answer : दास प्रथा यूनानी सभ्यता की बुनियाद थी। उसके विकास की विभिन्न अवस्थाओं में दासों के श्रम का महत्वपूर्ण भाग था। नगर राज्यों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन का सारा कार्य दासों के द्वारा किया जाता था। अरस्तू अपनी रूढि़वादिता के कारण इसका समर्थन करता है।
उसकी यह मान्यता थी कि प्राकृतिक दृष्टि से कुछ लोगों के लिए दासत्व अच्छी व न्यायपूर्ण स्थिति है। अतः वह दास प्रथा का समर्थन करते हुए उसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करता है-
1. स्वाभाविक दासता एवं 2. वैधानिक दासता। जो व्यक्ति प्राकृतिक दृष्टि से मन्दबुद्धि, विवेकहीन और अकुशल होते हैं, वे स्वाभाविक रूप से दास होते हैं। जो युद्ध में पराजित होने के कारण दास बना लिए जाते हैं, वे वैधानिक दास होते हैं, किंतु अरस्तू वैधानिक दासता के सिद्धांत को यूनानियों पर लागू नहीं करता। वह कहता है कि यूनान निवासी युद्ध में पराजित हो जाने के बाद भी दास नहीं बनाये जा सकते, क्योंकि प्रकृति ने उन्हें दास बनने के लिए नहीं, बल्कि स्वामी बनने के लिए जन्म दिया है। इसलिए उसने वैधानिक दासता के सिद्धांत को अमान्य ठहरा दिया है। उसका कहना है कि युद्ध में ऐसे व्यक्ति भी पकड़े जा सकते हैं, जो नैतिक व बौद्धिक दृष्टि से काफी उच्च कोटि के हों। अतः ऐसे व्यक्तियों को सिर्फ युद्ध में पराजय के कारण ही दास नहीं बनाया जाना चाहिए।
इसलिए दासता प्राकृतिक आधार पर ही निर्धारित की जानी चाहिए, वैधानिक आधार पर नहीं। दास प्रथा का समर्थक होते हुए भी अरस्तू उसके क्रूर स्वरूप का समर्थक नहीं है। वह दास प्रथा को कुछ ऐसे मानवीय आधारों पर आधारित करना चाहता है, ताकि उसे अधिकाधिक मानवीय बनाया जा सके। अतः वह निम्न आधार निश्चित करता है-
लेकिन अरस्तू द्वारा प्रतिपादित दास प्रथा का स्वतंत्रता व समानता के आधुनिक युग में किसी भी स्वरूप में समर्थन नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह सिद्धांत अनुचित ही नहीं अनैतिक भी है। अतः इसकी निम्न प्रकार से आलोचना की जा सकती है-