Question : चर्चा कीजिए कि क्या गठबंधनी राजनीति ने भारत में संघवाद के एक भिन्न प्रारूप को जन्म दिया है।
(2006)
Answer : भारतीय राजनीति में 1990 का दशक काफी उतार-चढ़ाव का दशक रहा है। इस दशक में केंद्र सहित कई राज्यों में अनेक सरकारें बनीं व बिगड़ीं। दशक के प्रारंभ में आया ‘गठबंधन सरकार’ शब्द अब एक वास्तविक शब्द बन चुका है। कभी गठबंधन से दूर रहने वाली कांग्रेस आज गठबंधन के दम पर ही कई राज्यों सहित केंद्र की सत्ता पर काबिज है। गठबंधन की राजनीति और भारतीय संघवाद की नवीन प्रवृत्तियों पर विचार करने से पहले यह जरूरी है कि गठबंधन शब्द का अर्थ स्पष्ट कर लिया जाये। गठबंधन एक परिभाषिक शब्द है। रोजर स्क्रटन के अनुसार, विभिन्न दलों या राजनीतिक पहचान रखने वाले व्यक्तियों के बीच आपसी समझौता गठबंधन कहलाता है। सदन में बहुमत जुटाने के लिए दो या दो से अधिक दलों के बीच आपसी समझौते से गठबंधन सरकार का जन्म होता है, ऐसा समझौता चुनाव पूर्व या चुनाव पश्चात् हो सकता है।
1967 के पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का भारतीय राजनीति में एकाधिकार था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्वतंत्रता संग्राम में उसकी भूमिका तथा उसके नेताओं के आदर्शों का लाभ मिला, परंतु नेहरू का चमत्कारिक आभामंडल भी कांग्रेस के स्थायी अधिपत्य या एकाधिकार को सुनिश्चित नहीं कर सका। जैसे-जैसे भारत में सामाजिक तथा राजनीतिक चेतना जागृत हुई या विकसित होती गयी, भारत जैसा विशाल देश एक राजनीतिक दल के साये में सिमटा नहीं रह सका, क्योंकि देश में विविध असमानताएं विद्यमान थीं, फिर सत्तारूढ़ दल क्षेत्रीयता को समाप्त करने में विफल रहा, साथ ही क्षेत्रीय मुद्दों के प्रति भी उसने उपेक्षा का रुख अपनाया। इस कारण क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर क्षेत्रीय पार्टियां विभिन्न प्रदेशों में बनीं। चूंकि क्षेत्रीय मुद्दे सीधे तौर पर जनता से जुड़े रहते हैं, इस कारण क्षेत्रीय दलों ने चुनाव में सफलताएं भी प्राप्त कीं। कांग्रेस से लोगों का मोह भंग होने के कारण एक राजनीतिक निर्वात की उत्पत्ति हुई। चूंकि कोई विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी उस समय इतनी सशक्त नहीं थी, जो इस निर्वात को भर सके, फलतः उस निर्वात को क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा भर दिया गया। कई राज्यों में विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों ने अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन कर कई राज्यों की सत्ता पर कब्जा जमा लिया, किंतु गठबंधन की राजनीति का वास्तविक दौर तब शुरु होता है, जब 1990 के दशक से केंद्र में भी गठबंधन सरकारें काबिज होने लगीं।
एक तरफ जहां राज्यों में काफी पहले से ही गठबंधन की सरकारें काबिज थीं, वहीं केंद्र में भी गठबंधन सरकार बनने से केंद्र में एक भिन्न प्रकार का संघवाद विकसित होने लगा। जब तक पूरे देश में एक ही राजनीतिक दल कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था, तब तक राज्यों ने किसी प्रकार की स्वायत्तता या और अधिक अधिकारों की मांग नहीं की अर्थात् इस समय तक भारतीय संघवाद एकात्मकता की प्रवृत्ति पूरी तरह से धारण किए हुए था।
मतलब की शक्ति संतुलन में पूरी तरह से केंद्र का पलड़ा भारी था। ऐसी परिस्थितियों में अनेक राज्यों में अधिक अधिकारों व स्वायत्तता की मांग की। इस पर केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा के लिए कई समितियों, जैसे -सरकारिया आयोग, राजामन्नर समिति आदि का गठन किया गया, जिन्होंने अपनी विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की। केंद्र के बढ़ते हुए प्रभुत्व, जिसकी संविधान निर्माताओं ने कल्पना भी नहीं की थी और जिसके सहारे केंद्र ने समय-समय पर मनमाने तरीके से इस शक्ति का प्रयोग किया, इसके अनेक कारण थे।
जैसे राज्यों की केंद्र पर वित्तीय निर्भरता, अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं का स्वरूप व स्थापना, राज्यपालों की नियुक्ति, अनुच्छेद 356 का प्रयोग, योजना आयोग व राष्ट्रीय विकास परिषद् जैसी शीर्ष नियामक संस्थाओं का उदय आदि अनेक कारण थे। इस प्रकार भारतीय संघवाद एक ‘एकात्मक संघवाद’ या ‘अर्द्धसंघात्मक’ संघवाद बनकर रह गया था। किंतु वर्तमान की गठबंधन की राजनीति ने भारत में संघवाद को एक नया आयाम प्रदान किया है। 1989 के चुनावों के पूर्व राष्ट्रीय मोर्चे ने अपने 71 सूत्रीय कार्यक्रम में विकेंद्रीकरण व राज्यों की स्वायत्तता के प्रति निष्ठा प्रकट की। सत्ता में आने पर राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने अंतर्राज्यीय परिषद् का गठन और राष्ट्रीय विकास परिषद् का विस्तार किया। 1991 में नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर से केंद्र की स्थिति को मजबूत करने का प्रयास किया। 1996 के चुनाव में जब किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो एक बार पुनः क्षेत्रीय पार्टियों को केंद्र पर हावी होने का मौका मिल गया और वे राज्यों के पक्ष में अनेक रियायतें लाने में सफल हो गए। इस प्रकार भारत की संघीय पद्धति ने एक नए चरण में प्रवेश किया जिसे ‘सौदेबाजी वाला संघवाद’ की संज्ञा देना उचित होगा। यही प्रवृत्ति वर्तमान में कांग्रेस की केंद्रीय सरकार के प्रति भी देखने को मिल रही है। जहां मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। वहीं कम्युनिस्ट व अन्य पार्टियां अपनी मांगें मनवाने में काफी सफल रही हैं।