Question : चर्चा कीजिए कि 74वें सांविधानिक संशोधन के पश्चात्, ग्रामीण विकास के प्रक्रम को त्वरित करने में तृणमूल लोकतांत्रिक संस्थाएं किस सीमा तक सफल बना रही हैं?
(2007)
Answer : 73वें तथा 74वें संशोधन के द्वारा संविधान में ग्यारहवीं व बारहवीं अनुसूची तथा भाग-9 व भाग-9 (क) के जोड़े जाने से पंचायती व्यवस्था को सांविधानिक दर्जा प्राप्त हुआ है। इस संशोधन से ग्रामीण स्तर पर त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था तथा शहरों में आठ प्रकार की नगरपालिकाओं की क्रमशः स्थापना की गई है। इन संस्थाओं के वास्तविक रूप से प्रतिनिधित्मक बनाने के लिये निम्नतम स्तर पर भागीदारी मूलक व्यवस्था के अंतर्गत 18 वर्ष से ऊपर के सभी व्यस्कों को सभा का सदस्य बनाया गया है। 73वें तथा 74वें संशोधन के द्वारा पूरे देश में पंचायती संस्थाओं में समान संरचना के अंतर्गत त्रिस्तरीय व्यवस्था स्थापित की गई है, हालांकि उन राज्यों में (20 लाख से कम की जनसंख्या वाले राज्यों में) मध्यवर्ती स्तर के स्थापित न किये जाने का भी सुझाव है। इन संशोधनों के द्वारा विकेन्द्रीकरण की इन संस्थाओं के कार्यकाल में पांच वर्षों के लिये दृढ़ बनाया गया है। वैसे विशेष परिस्थितियों में पांच वर्ष से पूर्व भी विघटन संभव है, तथा विघटन की वैसी स्थिति को छोड़कर जब मूल सभा का कार्यकाल 6 माह का रह गया हो, तो उप चुनाव उसी अवधि के लिये कराये जाने का प्रावधान है, जितनी अवधि मूल सभा की शेष रह गयी हो।
राज्य विधानसभाओं को इन संस्थाओं की सदस्यता अर्हता व निर्हरता संबंधी विधि बनाने का अधिकार है। इन संस्थाओं के प्रतिनिधियों की न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई है। इन संस्थाओं में अनुसूचित जाति/जनजाति को सभी स्तरों पर जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण दिया गया है। इसके अतिरिक्त इन संस्थाओं में 1/3 भाग महिलाओं के लिये आरक्षित है। परंतु महिलाओं के आरक्षण में अनुसूचित जाति/जनजाति के लिये आरक्षित सीटों में महिलाओं के 1/3 भाग का आरक्षण भी सम्मिलित है। निर्वाचन के पर्यवेक्षण के लिये राज्य स्तर पर निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई है जबकि इन संस्थाओं के राजस्व प्राप्ति के लिये राज्यपाल द्वारा नियुक्त वित्त आयोग का भी प्रावधान है। वित्त आयोग का मुख्य कार्य राज्य व पंचायतों के मध्य करों के आनुपातिक वितरण के प्रतिशत की अनुशंसा करना है। संविधान की 11वीं अनुसूची में 29 विषयों पर तथा 12 वीं अनुसूची में 18 विषयों पर क्रमशः पंचायतों व नगरीय प्रशासन को विधायन व कार्यपालन का अधिकार है।
पंचायती राजव्यवस्था को सांविधानिक दर्जा दिये जाने से लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के एक नये अध्याय की शुरूआत हुई है, परंतु पंचायती व्यवस्था के लगभग एक दशक के क्रियान्वयन से इसकी कुछ सीमाएं भी उजागर हुई हैं। यह सच है कि नियमित निर्वाचन से इन संस्थाओं के लोकतांत्रिक वैधानिकता में बढ़ोतरी हुई है। लेकिन इन निर्वाचनों के माध्यम से ग्रामीण स्तर पर हिंसात्मक गतिविधियों में भी तीव्रता आई है।
संभवतः शैक्षणिक अवसरों के अभाव तथा इन संस्थाओं को रोजगार के अवसरों के रूप में देखे जाने के कारण इस प्रकार की समस्यायें स्थापित हुई हैं तथा इनसे जातिवादी विचारों का पोषण हुआ है। जातिवादी राजनीति के प्रभाव के कारण ही सरकार द्वारा मुहैया कराये गये धन का प्रयोग अनुचित कार्यों के लिये किया जाता है, तथा अपनी जाति व बिरादरी के सदस्यों की स्वार्थ पूर्ति के लिये ही सत्ता का प्रयोग किया जाता है। संभवतः भारतीय ग्राम्य व्यवस्था के अंतर्गत एक जातीय प्रभावों के कारण भी यह सफलतापूर्वक स्थापित हुआ है। संरचनात्मक तौर से देखें जाने पर भी इस व्यवस्था की कमियां उजागर होती हैं। एक ओर इन संस्थाओं में विकेन्द्रीकृत भावनाओं का समर्थन है तो दूसरी ओर संसद सदस्यों व विधायकों का इन संस्थाओं में सदस्यता, विकेन्द्रीकरण का माखौल ही उड़ाती है। महिलाओं के लिये आरक्षण का प्रावधान अवश्य है परंतु यह देखा गया है कि पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं के नाम पर पुरूष ही इन शक्तियों व दशाओं का उपयोग करते हैं। वैश्वीकृत आर्थिक व्यवस्था में मिलीजुली सरकारों के संदर्भ में क्षेत्रीय दलों की प्रधानता स्थापित हुई है तथा क्षेत्रीय दल चूंकि अपने जनता से प्रत्यक्ष संपर्क में रहते हैं, इसलिए विकेन्द्रीकरण के औपचारिक संस्थाओं की भूमिका में स्वतः कमी आई है।
समकालीन प्रशासकीय व्यवस्था के द्वारा उदारीकरण को बढ़ावा दिये जाने के उद्देश्य से शहरों के संरचनात्मक विकास पर विशेष बल दिया जाता है तथा इससे ग्राम्य श्हर विभेद भी गहराते हैं तथा गांव से शहरों की ओर पलायन की प्रक्रिया शुरू होती है, जो विकेन्द्रीकरण के लक्ष्यों से बिल्कुल भिन्न है।
1999 में केंद्र सरकार के द्वारा पंचायती संस्थाओं को विकासात्मक कार्यक्रमों के संचालन की जिम्मेदारी दिये जाने के कारण जिला ग्रामीण विकास एजेंसी की स्थापना हुई है। इससे भी इन संस्थाओं की स्वायत्तता सीमित होती है। इसी प्रकार केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के द्वारा जिला बोर्ड को जिला सतर्कता आयोग के अधीन लाये जाने के निर्णय के कारण भी इन संस्थाओं की स्वायत्तता सीमित हुई है। चूंकि इन सर्तकता आयोगों में संसद के सदस्य होते हैं, जिनका राजनीतिक दृष्टिकोण होता है इसलिए इससे प्रशासकीय दक्षता के बदले सस्ती लोकप्रियतावादी राजनीतिक निर्णयों की ही स्थापना होती है।
केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रायोजित तथा राज्य सरकार द्वारा प्रायोजित योजनाओं के आच्छादन को रोकने के लिये भी कोई विशेष प्रयत्न नहीं किये गये हैं। कई राज्यों में जैसे- आंध्र प्रदेश में जन्म भूमि तथा मध्यप्रदेश में लोकसंपर्क अभियानों की शुरूआत के कारण भी इन संस्थाओं के औपचारिक शक्तियों को दनकिनार किया जा सका है। पंचायती संस्थाओं को विकासात्मक कार्यक्रमों की जिम्मेवारी तो दी गई है परंतु ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं तथा शैक्षणिक अवसरों की अनुपस्थिति में विकासात्मक योजनायें मात्र कागजी स्तर पर ही स्थापित हो पाती है। इन आलोचनाओं के बावजूद यह कहा जा सकता है कि भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के विचारों को नित प्रतिदिन सघनता प्राप्त हो रही है, तथा इन संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने के लिये नये प्रयास भी किये जा रहे हैं। सरकार द्वारा एक ओर पंचायत के प्रतिनिधियों व कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर पंचायतों को कल्याणकारी योजनाओं की जिम्मेवारी देकर उन्हें वित्त प्रदान कर उनकी आर्थिक कठिनाइयों को भी दूर किया जा रहा है।
ग्राम पंचायतों में सरकारी हस्तक्षेप को कम करने के लिये उन्हें अब सामुदायिक विकास खण्डों के अधीन कर दिया गया है। वही ई-प्रशासन तथा ई-चौपाल जैसी योजनाओं से राज्य व देश के अन्य भागों से उन्हें जोड़ने की कोशिश की जा रही है। सूचना के अधिकार तथा नागरिक आलेखों के द्वारा भी प्रशासनिक केन्द्रीयता में कमी आने से विकेन्द्रीकरण के विचार प्रबल हुये हैं। इन प्रयत्नों के बावजूद यह कहा जा सकता है कि पंचायती व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण के लिये आवश्यक है कि ग्रामीण स्तर पर मानवीय विकास के मूलभूत मानकों की स्थापना हो। स्वास्थ्य, सफाई व शिक्षा इसकी आवश्यक शर्त है, तथा इनकी स्थापना से ही राजनीतिक दलबंदी की समाप्ति हो सकेगी। इसके अतिरिक्त राजनीतिक दलों में इन संस्थाओं के प्रति सहमति मूलक विचारों की स्थापना आवश्यक है। पंचायती व्यवस्था के अंतर्गत जन सहभागिता की स्थापना के लिये आकर्षक योजनाओं की आवश्यकता है, तथा ग्रामीण विकास के लिये नागरिक पर्यवेक्षकों की नियुक्ति एक सकारात्मक योजना हो सकती है। जन उत्तरदायित्व की स्थापना के लिये कई राज्यों में प्रतिनिधियों को वापस बुलाने की व्यवस्था लागू की गई है, तथा यह एक सकारात्मक कदम है परंतु अन्य राज्यों द्वारा इसे अपनाये जाने से पहले सामाजिक संकीर्णताओं को दूर किया जाना आवश्यक है। पंचायती व्यवस्था का उद्देश्य ग्रामीण जीवन के पुननिर्माण तथा ग्रामीणों में आत्मनिर्भरता की स्थापना है। गांधीजी के विचार कि ‘ग्राम राज्य से ही स्वराज संभव है को मूर्त रूप व साकार रूप देने के लिेय प्रशासकीय प्रतिबद्धता व जन सक्रियता दोनों आवश्यक हैं।Question : सु-शासन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, पंचायती राज संस्थाओं और जिला प्रशासन को एक नए संबंध का विकास कर लेना चाहिए।
(2007)
Answer : भारत में पंचायतें बहुत पुराने जमाने में भी विद्यमान थीं, मगर वर्तमान पंचायती संस्थायें इस मायने में नयी हैं कि उनको काफी अधिकार, साधन और जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं। इसकी महत्त्व और उपयोगिता निम्न बातों से स्पष्ट हैः
पंचायतों का मूल उद्देश्य ग्रामीण विकास के प्रयासों और जनता के बीच तारतम्य स्थापित करना है। पंचवर्षीय योजनाओं और विकास कार्यक्रमों को सुलझाने के लिये भी पंचायतों को बहुत महत्त्व प्रदान किया गया है।
Question : भारत में पंचायती राज संस्थाओं के कार्यण पर संविधान के 73वें संशोधन के प्रभाव को आलोकित कीजिए।
(2006)
Answer : किसी भी लोकतांत्रिक शासन पद्धति वाले देश में स्थानीय स्वशासन की व्यवस्था अनिवार्य रूप में की जाती है। स्थानीय स्वशासन एक स्वतंत्र, सुसंगठित तथा शक्तिशाली देश के लिए नितांत आवश्यक है। स्थानीय स्वशासन (संस्थाएं) लोकतंत्र की आत्मा है। स्थानीय संस्थाओं के माध्यम से जनता अपने शासन का प्रबंधन स्वयं करती है। इसलिए यह जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से चलाया जाता है। पंचायती राज अर्थात् पंचों के माध्यम से राज। यह ऐसी व्यवस्था की ओर इंगित करता है, जो भारतीय जीवन पद्धति और चिंतन के सर्वथा अनुरूप है। गांधीजी तो भारत का विकास और कल्याण पंचायतों के माध्यम से ही देखते थे। स्वतंत्रता के पश्चात् राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद 40 के माध्यम से राज्य से यह अपेक्षा की गयी कि वह एक सुदृढ़ व्यवस्थित और प्रभावी पंचायती राज की स्थापना करेगा। सन् 1959 में राजस्थान के नागौर से पंचायती राज की उत्साहजनक शुरुआत की गयी। इसके बाद पंचायती राज व्यवस्था आंध्र प्रदेश में लागू हुई और धीरे-धीरे अन्य राज्यों ने भी अपने यहां इस अवधारणा को कार्य रूप दिया।
पंचायती राज अपने शैशव काल के थोड़े दिनों के स्वस्थ जीवन के बाद लगातार समस्याओं और राजनीतिज्ञों की उपेक्षा के अपने पूर्ण विकास के पहले ही बीमारी-महामारी की चपेट में आ गया। पंचायती राज को नया जीवन 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के माध्यम से मिला। इसके माध्यम से पंचायतों को संवैधानिक स्वरूप प्रदान किया गया। पंचायतों के कार्य निर्धारण के लिए 29 कार्य क्षेत्रों के साथ 11वीं अनुसूची संविधान में जोड़ी गयी। यह सुनिश्चित किया गया कि पंचायतों के चुनाव नियमित रूप से हर पांच वर्ष में कराये जाएं, उनके लिए निश्चित वित्तीय सहायता के लिए राज्य वित्त आयोग गठित हों, चुनाव राज्य निर्वाचन से कराए जाएं, एससी तथा एसटी को उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण मिले, महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की जाये। पंचायतों को सबसे पहले संवैधानिक दर्जा देने की मांग एल. एम. सिंघवी ने की थी।
73वें संविधान संशोधन के पहले भारत में पंचायती राज संस्थाओं की हालत अत्यंत दयनीय थी। पंचायतों को अधिकार देने की बात तो बहुत दूर थी। अधिकांशतः राज्य पंचायतों के चुनावों को ही संपर्क नहीं करवाते थे। 73वें संविधान संशोधन के तहत अब जहां प्रत्येक 5 वर्ष पर पंचायतों के चुनाव कराना अनिवार्य बना दिया गया है। वहीं पंचायतों को अनेक कार्यों का उत्तरदायित्व भी सौंपा गया है। पंचायतों को व्यापक प्रशासनिक व वित्तीय अधिकार मिलने के बाद दो तरह की स्थितियां सामने आयी हैं। प्रथम सकारात्मक द्वितीय नकारात्मक। मध्य प्रदेश में जिला सरकार योजना लागू कर पंचायतों को सामाजिक, आर्थिक विकास का सूत्रधार बनाया गया है। इस योजना की व्यापक प्रशंसा हुई है। आंध्र प्रदेश के एक पिछड़े गांव की पर्दानशीन फातिमा बीबी ने मुखिया चुने जाने के बाद जन-सहभागिता का अनूठा कौशल दिखाया, जिसके लिए उसे संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान ने अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। केरल की पंचायतों ने एक पुल के निर्माण को अत्यंत कम समय में मात्र 4 करोड़ में पूरा कर दिया, जबकि लोक निर्माण विभाग इसके लिए 30 करोड़ रुपए चाहता था। दूसरी ओर पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत आ रहे धन के भारी दुरुपयोग की संभावनाएं भी कम नहीं है। यह आम तौर पर सुनने में आता है कि पंचायत सरपंच का चुनाव अब इतना महत्वपूर्ण इसलिए हो गया है, क्योंकि अब पंचायतों को बड़ी धनराशि सीधे मिल रही है।
73वें संविधान संशोधन के पश्चात् पंचायतें अनेक कार्यों को संपर्क कर रही हैं। पंचायतें लोगों में सामुदायिक चिंतन, सहयोग व सहकारिता को बढ़ावा दे रही हैं। इनसे स्थानीय संसाधनों का व्यवस्थित उपयोग संभव होता है। जन समस्याओं का निपटारा आसान हो गया है। पंचायती राज संस्थाएं लोकतंत्र में जागरुक व जिम्मेदार नागरिक बनाने में पाठशाला के समान कार्य कर रही हैं। अब पंचायतें स्थानीय सूचना केंद्रों का कार्य भी करती हैं। ये संस्कृति व सभ्यता का पोषण तथा सामाजिक सुधारों को गति प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो रही हैं। इनके द्वारा सरकारी मशीनरी को अधिक जवाबदेह बनाना संभव हुआ है तथा यह लोगों को विभिन्न विकास व प्रशासनिक गतिविधियों में सहभागिता का अवसर प्रदान कर रही हैं।