Question : ‘किसी भी देश में राजनीतिक प्रक्रम, केवल उस देश की राजनीतिक संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है।’ प्रकाश डालिए।
(2007)
Answer : राजनीति संस्कृति का अर्थ है, किसी समाज की संस्कृति के वे पक्ष, जो उसकी राजनीति को प्रभावित करते हैं। यह संकल्पना किसी समाज की राजनीति और संस्कृति के परस्पर संबंध को आधार बनाकर उस समाज के अध्ययन में सहायता देती है। राजनीतिक संस्कृति में मुख्यतः ऐसे मूल्य, मान्यताएं और मानक आ जाते हैं, जो शासक-वर्ग, शासन-प्रणाली और शासन-प्रक्रिया को वैधता प्रदान करते हैं।
उनका मुख्य ध्येय राजनीति के विश्लेषण के लिये संस्कृति के ज्ञान का सहारा लेना है। राजनीति संस्कृति इस तरह, उन प्रतीकों की व्यवस्थित प्रणाली के अध्ययन और विश्लेषण का साधन है जो मनुष्यों की क्रियाओं और परस्पर-क्रियाओं को सार्थक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतः किसी समुदाय की राजनीतिक संस्कृति को उसके सदस्यों को अपनी राजनीतिक प्रणालियों और प्रक्रियाओं की ओर मोड़ती है, उन्हें विशेष दिशा प्रदान करती है। दूसरे शब्दों में, इससे उन्हें यह ज्ञान होता है कि अपने सामाजिक परिवेश में उनकी स्थिति क्या है? उनके अधिकार और कर्तव्य क्या हैं? जिस राज्य में सार्वजनिक उद्देश्यों, आदर्शों और विभिन्न वर्गो की स्थितियों के बारे में सहमति पाई जाती है, वहां किसी संघर्ष, मतभेद और विवाद को सुलझाने में विशेष कठिनाई नहीं होती, क्योंकि सभी वर्ग प्रस्तुत समस्या के समाधान के तरीके पर सहमत होते हैं। इसके विपरीत यदि किसी समुदाय में ऐसी सहमति का नितांत अभाव हो तो उसकी राजनीतिक संस्कृति में अविश्वास और मतभेद का बोलबाला रहता है। चूंकि संस्कृति का संबंध मनुष्य के विचारों और भावनाओं से है, इसलिए उसकी संस्कृति किसी भी राज्य या राष्ट्र की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
राजनीतिक संस्कृति का सबसे सटीक विवरण गेब्रियल आमंड और सिडनी वर्षा ने अपनी प्रसिद्ध कृति The Civic Culture: Political Attitudes and Democracy in Five Nations प्रस्तुत किया। इसमें पांच देशों-ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, अमेरिका और मेक्सिको के अंतर्गत लोकतंत्र की स्थिरता या अस्थिरता पर राजनीतिक संस्कृति के प्रभाव की समीक्षा की गई। आल्मड एंड वर्षा के अनुसार, राजनीतिक संस्कृति का अर्थ है-राजनीतिक विषयों के प्रति जैसे कि राजनीतिक दलों, न्यायालयों, संविधान और राज्य के इतिहास के प्रति-अभिविन्यासों का प्रतिमान अर्थात् समाज का कोई भी सदस्य इस संस्थाओं कें संदर्भ में या अपने नीतिक पर्यावरण के संदर्भ में अपने-आपको कही रखता है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति अपने देश की सरकार से क्या आशा रखता है और उसके काम में अपनी क्या भूमिका समझता है। व्यक्ति का अभिविन्यास राजनीतिक कार्यवाही के प्रति उसके झुकाव का संकेत देता है। यह अभिविन्यास तीन प्रकार का होता है।
(क) ज्ञानात्मक अभिविन्यास (Cognitive Orientation) अर्थात् राजनीतिक विषयों का ज्ञान और उनके अस्तित्व के प्रति सजगता
(ख) भावात्मक अभिविन्यास (Affective Orientation) अर्थात् राजनीतिक विषयों का ज्ञान और उनके अस्तित्व के प्रति सजगता
(ग) मूल्यपरक अभिविन्यास (Evaluative Orientation) अर्थात् उन विषयों के बारे में व्यक्ति का मूल्यनिर्णय उचित-अनुचित या शुभ-अशुभ का किया जाने वाला मूल्यांकन।
ये सभी अभिविन्यास अनेक तत्त्वों से निर्धारित होते हैं। जैसे कि समाज की प्रचलित परंपराओं, ऐतिहासिक स्मृतियों, प्रेरणाओं, मानकों, भावावेगों और प्रतीकों के आधार पर व्यक्ति अपने मन में उचित-अनुचित के बारे में कोई राय बनाता है। प्रत्येक सांस्कृतिक समूह के अपने अपने मूल्य मान्यतायें और मानक हो सकते हैं और जब वे मिल-जुलकर रहते हैं तो राजनीति उनके परस्पर-विरोधी दावों के समाधान का रास्ता बन जाती है। इस तरह से राजनीतिक संस्कृति के भीतर अनेक उपसंस्कृतियों के सह-अस्तित्व और सहयोग के लिये अनुकूल वातावरण तैयार हो जाता है। परंतु इनमें से कोई उप-संस्कृति दूसरी पर हावी होने की कोशिश करती है तो समुदाय की राजनीतिक एकता के लिये खतरा पैदा हो जाता है।
आल्मंड और सिडनी वर्षा के अनुसार, राजनीतिक संस्कृति तीन प्रकार की हो सकती हैः
यह बात ध्यान देने की है कि राजनीतिक संस्कृति के ये तीनों रूप इसके विभिन्न स्तरों का संकेत देते हैं। इनमें से कोई भी शुद्ध रूप में कहीं नहीं पाई जाती। अनुभवमूलक अध्ययनों से पता चलता है कि भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्कृति की प्रधानता तो हो सकती है, परंतु उनमें अनेक प्रकार की राजनीतिक संस्कृतियां मिले-जुले रूपों में पाई जाती हैं।
इस विश्लेषण के आधार पर आल्मंड और वर्षा ने ऐसी राजनीतिक संस्कृति की पहचान का प्रयत्न किया है जो उदार लोकतंत्र को संभालने में सबसे उपयुक्त सिद्ध होगी। इसे उन्होंने ‘नागरिक संस्कृति’ या ‘शालीन संस्कृति’ की संज्ञा दी है। नागरिक संस्कृति के अंतर्गत संकीर्ण संस्कृति, अधीन संस्कृति और सहभागी संस्कृति के मिले-जुले लक्षण एक विशेष प्रतिमान के अनुरूप पाए जाते हैं।
आदर्श ‘नागरिक संस्कृति’ ऐसी राजनीतिक संस्कृति होगी, जिसमें नागरिक समुदाय के राजनीतिक विचार और मूल्य, राजनीतिक समानता और सहभागिता के सिद्धांतों के अनुकूल होंगे और जहां सरकार को विश्वास पात्र मानते हुये लोगों की यह धारणा बनेगी कि वह जनहित में कार्य करती है। ऐसी संस्कृति एक ओर सरकार की शासन क्षमता और दूसरी ओर राजनीतिक प्रक्रिया में नागरिकों की सहभागिता के बीच सामंजस्य स्थापित करेगी।
यह नागरिकों की सक्रियता और निष्क्रियता के बीच संतुलन स्थापित करेगी अर्थात् वे केवल उन्हीं मुद्दों के लिये सक्रिय होंगे, जो उनके लिये महत्त्वपूर्ण हों ताकि उनके नेता अपनी शक्ति का प्रयोग भी कर सकें और उनकी मांगों का प्रत्युत्तर भी दे सकें। अधिकांश नागरिक शासन में सहभागिता का दायित्व तो स्वीकार करेंगे परंतु केवल चुनिंदा कार्यों में ही भाग लेंगें। अंततः वहां मतैक्य और मतभेद के बीच संतुलन की स्थिति होगी क्योंकि लोकतंत्रीय व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न समूहों के परस्पर विरोध या संघर्ष पैदा होना तो स्वाभाविक है, परंतु राष्ट्रीय निष्ठा और राजनीतिक प्रणाली के प्रति समर्थन की भावना के कारण यह संघर्ष कभी उग्र रूप धारण नहीं कर पायेगा।
राजनीतिक संस्कृति के अनुभव मूलक अध्ययन की परंपरा में एस. ई. फाइनर ने यह पता लगाने का प्रयत्न किया है कि तीसरी दुनिया के कई नवोदित देशों में किन कारणों से सांविधानिक शासन-प्रणाली स्थिर नहीं रह पाती और उसकी जगह सैन्य शासन स्थापित हो जाता है। अपनी चर्चित कृति 'Man on the horseback' के अंतर्गत फाइनर महोदय इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि सांविधानिक प्रणाली की स्थिरता दो बातों पर निर्भर करती है-
Question : गांधीजी के राज्य के संबंध में विचारों को स्पष्ट कीजिए और उन विचारों के आधुनिक लोकतंत्र एवंअराजकतावाद के सिद्धांतों के साथ संबंध को आलोकित कीजिए।
(2006)
Answer : समाज में राज्य के स्थान के संबंध में विभिन राजनीतिक विचारधाराओं में अत्यधिक मतभेद रहा है। आदर्शवाद जैसी कुछ विचारधाराओं के द्वारा तो व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक संबंधों में राज्य को एक साध्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है, किंतु गांधीजी राज्य को इतना अधिक महत्व देने के लिये तैयार नहीं हैं और उनके अनुसार व्यक्ति साध्य तथा राज्य एक साधन मात्र है। राज्य की उत्पत्ति मनुष्य के लिए हुई है न कि मनुष्य की उत्पति राज्य के लिए।
गांधीजी राज्य को सामाजिक उत्थान और जनकल्याण का एक साधन मात्र मानते थे। राज्य को एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करते हुए गांधीजी ने राज्य के प्रभाव और शक्ति को अधिक से अधिक कम करने का प्रयत्न किया है, जिससे राज्य सत्ता के होते हुए भी व्यक्ति वास्तविक रूप में स्वतंत्रता प्राप्त कर सके। मार्क्सवादियों तथा अराजकतावादियों के समान गांधीजी एक राज्यविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे दार्शनिक, नैतिक, ऐतिहासिक व आर्थिक कारणों के आधार पर राज्य का विरोध करते थे, अतः उनके सिद्धांत को दार्शनिक अराजकतावाद भी कहा जाता है।
दार्शनिक आधार पर राज्य का विरोध करते हुए गांधीजी का विचार है कि राज्य व्यक्ति के नैतिक विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। व्यक्ति का नैतिक विकास उसकी आंतरिक इच्छाओं एवं कामनाओं पर निर्भर है, लेकिन राज्य संगठन शक्ति पर आधारित होने के कारण व्यक्ति के केवल बाहरी कार्यों को ही प्रभावित कर सकता है। राज्य अनैतिक इसलिए है कि वह हमें सब कार्य अपनी इच्छा से नहीं वरन् दण्ड के भय और कानून की शक्ति से बाधित कर कराना चाहता है।
गांधीजी द्वारा राज्य के विरोध का एक कारण यह भी है कि वह हिंसा और पाशविक शक्ति पर आधारित है। राज्य कितना भी अधिक लोकतंत्रत्मक क्यों न हो, उसका आधार सेना व पुलिस का पाशविक बल है। गांधीजी अहिंसा के पुजारी हैं, वे राज्य का विरोध इसलिए करते हैं कि यह हिंसा मूलक है। राज्य के विरोध का एक अन्य कारण इसके अधिकारों में निरंतर वृद्धि होना है, जो व्यक्ति में स्वावलंबन और आत्म विकास के गुणों को विकसित नहीं होने देता, जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाता है। राज्य के प्रति अपने इन्हीं दृष्टिकोणों के कारण गांधीजी राज्य के कार्य क्षेत्र को कम से कम करने के पक्ष में थे।
गांधीजी के लोकतंत्र संबंधी विचार काफी हद तक आधुनिक लोकतांत्रिक विवेदीकरण के सिद्धांतों से मेल खाते हैं, जिनकी झलक हमें पंचायती राज संस्थाओं व स्थानीय ग्रामीण स्वशासन जैसी इकाइयों में देखने को मिलती है। गांधीजी के आदर्श समाज में शासन का रूप पूर्णतया लोकतांत्रिक होगा। जनता को न केवल मत देने का अधिकार प्राप्त होगा, वरन् जनता सक्रिय रूप से शासन के संचालन में भी भाग लेगी। शासन सत्ता सीमित होगी और सभी संभव रूपों में जनता के प्रति उत्तरदायी होगी। भारत के संविधान का अनुच्छेद 40 (ग्राम पंचायतों का गठन) गांधीजी की विचारधारा से प्रेरित होकर ही संविधान के नीति निदेशक तत्वों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सका है। गांधीजी के लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के स्वप्न को साकार करते हुए पी.वी. नरसिंह राव सरकार ने संविधान का 73वां संविधान संशोधन सन् 1993 में पारित किया, जिसके तहत सभी राज्यों में ग्राम पंचायतों के गठन को अनिवार्य कर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में राजनीतिक जागरुकता का प्रसार हुआ है। गांधीजी एक ऐसे लोकतांत्रिक राज्य की कल्पना करते हैं जो ग्राम समाज के शासन पर आधारित होगा जहां प्रत्येक गांव अपने आप में एक पूर्ण स्वतंत्र व स्वावलंबी इकाई होगा तथा ग्राम समाज के लोग अपने शासन का संचालन स्वयं कर सकेंगे।
राज्य के संबंध में गांधीजी की विचारधारा अराजकतावादी दार्शनिक क्रोपाटकिन और विशेष रूप से दार्शनिक अराजकतावादी टालस्टाय के विचारों से प्रभावित है। अराजकतावादियों के समान गांधी राज्य की शक्तियों में अत्यधिक वृद्धि को आशंका की दृष्टि से देखते थे और व्यक्ति की अधिक से अधिक स्वतंत्रता में उनकी आस्था थी, परंतु व्यक्ति के संबंध में गांधी का दृष्टिकोण अराजकतावादी दृष्टिकोण से बिल्कुल भिन था। गांधी व्यक्ति को मूलतः ऐसा सामाजिक प्राणी मानते थे, जिसके संबंध राज्य के साथ न सही, समाज के साथ अविछिन्न व अटूट हैं। इसके विपरीत अराजकतावादी यह मानते हैं कि समाज से पृथक् व्यक्ति का अपना अस्तित्व है और वह केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समय-समय पर समाज के संपर्क में आता है। अराजकतावादियों की दृष्टि में व्यक्ति के अधिकार ही सब कुछ थे। अराजकतावादियों ने राज्य के द्वारा की जाने वाली हिंसा को गलत माना है, परंतु राज्य को नष्ट करने के लिए हिंसा के प्रयोग में अपनी आस्था प्रकट की है। गांधी की दृष्टि में सभी प्रकार की हिंसा, चाहे वह राज्य के द्वारा काम में लायी गयी हो अथवा व्यक्ति द्वारा अनुचित थी। गांधीजी के राज्य विहीन समाज में सभी व्यक्ति पूर्णतः अहिंसक होंगे। सभी की आवश्यकताएं पूरी होंगी। अपराध नहीं होंगे। अतः पुलिस की आवश्यकता नहीं होगी। छोटे-छोटे विवादों का निपटारा ग्राम पंचायतें कर लिया करेंगी। ऐसे समाज में सभी अपने शासक होंगे। ये अपने ऊपर इस प्रकार शासन करेंगे कि दूसरों के मार्ग में बाधक न बनें।