Question : "अपनी प्रजा की सुख-शांति में ही राजा की सुख-शांति का वास है; उनके कल्याण में ही उसका अपना कल्याण है।" (कौटिल्य)
(2007)
Answer : राज्य के सात अंगों में कौटिल्य ने राजा को ही राज्य का सर्वोच्च एवं प्रधान अंग माना है। राजा शासन तंत्र की धुरी है, और वह शासन के संचालन में सक्रिय रूप से भाग लेने तथा शासन को गति प्रदान करने का कार्य करता है। राजा के कर्तव्यों का वर्णन करते हुये कौटिल्य ने लिखा है कि राजा और प्रजा में पिता और पुत्र का संबंध होना चाहिये, उसे पिता के जैसे प्रजा का ध्यान रखना चाहिये। कौटिल्य के अनुसार, प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में राजा का हित है। राजा के लिये प्रजा के सुख से भिन्न अपना कोई सुख नहीं है। प्रजा के सुख में ही उसका सुख है। राजा का प्रमुख कर्त्तव्य वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था को बनाये रखना है। कौटिल्य ने राजा को नष्ट होने वाले धर्मों का चलाने वाला अर्थात् धर्म प्रवर्त्तक बतलाया है। जिस राजा की प्रजा आर्य मर्यादा के आधार पर व्यवस्थित होती है, जो वर्ण और आश्रम के नियमों का पालन करती है और जो त्रयी (तीन वेद) द्वारा निहित विधान से रक्षित रहती है, वह प्रजा सदैव प्रसन्न रहती है और उसका कभी नाश नहीं होता। राजा को चाहिये कि वह बालकों, वृद्धों, रोगियों, अनाथों और स्त्रियों के हितों की देखभाल स्वयं करें तथा अधिकारियों पर न छोडे़।
वह प्रजा की रक्षा और शत्रु के आक्रमण से देश की रक्षा के लिये मंदिरों, मुनियों के आश्रमों, पाखंडियों के मठों, वेदशालाओं गौशालाओं और धर्मशालाओं आदि का समय-समय पर निरीक्षण करे। साथ में जो किसान खेती न करके जमीन परती छोड़ देते हों, उसके पास से जमीन लेकर दूसरे किसानों को देना, कृषि के लिये बांध बनाना, जलमार्ग, स्थलमार्ग, बाजार और जलाशय बनाना, दुर्भिक्ष के समय जनता की सहायता करना और उन्हें बीज प्रदान करना।
इस तरह से राजा प्रजा का स्वामी नहीं, अपितु सेवक है। राजा प्रजा का रक्षण एवं पालन करने के कारण ही प्रजा से करों के रूप में अपना हिस्सा लेता है। इस प्रकार राजा कर्त्तव्यपालन के लिये बाध्य है और राजकोष से निश्चित वेतन ही ले सकता था। इस प्रकार राजा को मनमाने ढंग से राज्य की संपत्ति से भोग विलास के साधन प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। कौटिल्य ने लिखा है कि यदि राजा प्रजा को अत्याचारों से पीडि़त करता है, दण्ड न पाने योग्य व्यक्तियों को दण्डित करता है, तो उसे प्रायश्चित रूप में तीस गुनी राशि वरूण देवता को देनी चाहिये। इस तरह कौटिल्य का शासक प्रजा की सुख शांति में ही स्वयं की सुख शांति देखता है तथा उनके कल्याण में ही अपना कल्याण मानता है।