Question : ‘संपूर्ण क्रांति’ पर जय प्रकाश नारायण के विचार
(2005)
Answer : जय प्रकाश नारायण के अनुसार, जब तक मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है, उससे सांस्कृतिक सृजनात्मक की आशा करना व्यर्थ है। उन्होंने उत्पादन के साधनों का समाजीकरण की मांग की। वह समाज के समस्त वर्गों का समान रूप से कल्याण चाहते थे। हालांकि उन्होंने निर्बल वर्गों पर विशेष ध्यान देने की बात कही है। समाजवाद को व्यावहारिक रूप देने के लिए उन्होंने ग्राम पुनर्गठन का विस्तृत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। भूमि कानून को बदलने की बात कही जिससे भूमि, काश्तकार की अपनी हो जाए ताकि कोई उसका शोषण नहीं कर सके। सर्वोदय कार्यक्रम को कार्यान्वित करने के लिए उन्होंने ‘दल-विहीन लोकतंत्र’ का सुझाव दिया। इसमें हर दल के लोगों को आमंत्रित करना चाहते थे जो अपनी विचारधाराओं का मतभेद भूलाकर इस कार्यक्रम में सहयोग दें।
सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप और सीमा क्षेत्र को पारिभाषित करने के उद्देश्य से जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। उनके अनुसार लोकतंत्रीय समाजवाद को सार्थक करने के लिए आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण और स्थानांतरण सर्वथा आवश्यक है। संपूर्ण क्रांति ये दर्शाता है कि राजनीतिक सुदृढ़ीकरण और शासन-व्यवस्था को बदल देने से समाज का उद्धार नहीं होगा। इसके लिए संपूर्ण समाज को एक नयी दिशा देनी होगी। समाज में व्याप्त आर्थिक, सामाजिक विषमता को जड़ से मिटाना होगा। इस परिवर्तन को गति देने के लिए जय प्रकाश जी ने युवा-शक्ति का आह्नान् किया।
उन्होंने युवा वर्ग से जनशक्ति को अपने साथ लेकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सर्माप्त करने के लिए राज्य-शक्ति के विरूद्ध संघर्ष की अपील की। वे सर्वाधिकार को खत्म करना चाहते थे जो समाजवाद के नाम पर वर्षों से समाज को खोखला करता आ रहा था। उनका कहना था कि राजनीतिक शक्ति के भारी जमाव के साथ-साथ आर्थिक शक्ति भी एक जगह केंद्रित हो गयी है उसे समाप्त करना आवश्यक है। उसके पूर्ण समापन के बाद ही समाज और देश का कल्याण हो सकता है। चूंकि सामाजिक एवं राजनीतिक संरचनाओं का निर्माण आर्थिक संबंधों के अनुरूप होता है और आर्थिक बदलाव समाज और देश के प्रगति का रास्ता तैयार करता है, इसलिए राजनीतिक बदलाव के साथ-साथ आर्थिक बदलाव भी जरूरी है। राज्य की राजनीतिक एवं आर्थिक प्रक्रिया ही प्रगति का रास्ता तैयार कर नये समाज का निर्माण करती है, अतः ‘संपूर्ण क्रांति’ ही इसका माध्यम है।
संपूर्ण क्रांति की उपर्युक्त मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में ही जय प्रकाश नारायण ने 5 जून, 1974 के दिन पटना के गांधी मैदान में औपचारिक रूप से संपूर्ण क्रांति की घोषणा की। संपूर्ण क्रांति का चरम लक्ष्य जहां समस्त समाज का सामंजस्य पूर्ण तथा संतुलित विकास था, वहीं तत्कालीन उद्देश्य सरकार से अस्वीकार्य नीतियों तथा राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार का लोकतांत्रिक एवं आंदोलनात्मक तरीके से प्रतिकार करना था।
Question : 1998 से भारत में केंद्र में गठबंधन की सरकारें
(2005)
Answer : भारत में लंबे समय तक बहुदलीय व्यवस्था में एक राजनीतिक दल की प्रधानता थी तथा एक दल की ही सरकार बनती थी। लेकिन अब केंद्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर गठबंधन की सरकार एक सामान्य स्थिति बन गयी है।
12वीं लोकसभा चुनावों के बाद सबसे बड़े दल के रूप में उभरे भाजपा ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 19 दलों के गठबंधन की सरकार का गठन किया। भाजपा को 179 सीटें मिली थीं। ये गठबंधन चुनाव पूर्व था और गठबंधन ने श्री वाजपेयी को चुनाव पूर्व ही प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली ये गठबंधन की सरकार लोकसभा के अविश्वास प्रस्ताव में पराजित हो गया। लोकसभा भंग कर दी गयी और पुनः चुनाव के बिगुल बजे।
13वीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा की नेतृत्व वाली गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उभरा है। इसका लोकसभा के 543 सीटों में से 305 पर कब्जा हुआ था। 13 अक्टूबर, 1999 को पुनः श्री वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ। चूंकि ये गठबंधन चुनाव पूर्व थे इसलिए कहा जा सकता है इसे जनादेश मिला था। इस गठबंधन में पिछली गठबंधन से ज्यादा मजबूती थी, क्योंकि अगर इससे एक या दो दल अपना समर्थन वापस लेते तब पर भी सरकार के गिरने की संभावना नहीं थी। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने सभी दलों के नेताओं के साथ संचालन समिति बनायी तथा सामंजस्यता स्थापित करने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप कुछ उतार-चढ़ाव छोड़कर सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। कुछ विवाहित मुद्दों को छोड़कर भाजपा और सहयोगी दलों ने सरकार के लिए एक समान मुद्दों वाली एजेंडा पर राजी हुए।
14वीं लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आयी लेकिन किसी भी दल के पास पूर्ण बहुमत नहीं था। कुछ चुनावी गठबंधन चुनाव पूर्व बनाये गये और सामान्य मुद्दों पर चुनाव लड़े। लेकिन चुनावी गठबंधन वाली जादुई आंकड़ा नहीं मिला था। कांग्रेस के नेतृत्व में विभिन्न दलों के सहयोग से ‘संयुक्त प्रोग्रेसिव गठबंधन’ किया गया। कुछ समान मुद्दों पर सरकार का गठन किया। इस सरकार की विशेषता ये रही कि इसे कम्युनिस्ट पार्टी का मुद्दा पर आधारित समर्थन मिला। हालांकि वह इस गठबंधन का हिस्सा नहीं है।
1998 के बाद अभी तक तीन गठबंधन की सरकार का गठन किया गया। जिसमें दो बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन तथा एक बार संयुक्त प्रोग्रेसिव गठबंधन की सरकार बनी। दोनों गठबंधन की सरकारों में एक बड़े दल ने बाहर से समर्थन देने का फैसला किया। अब भारत की राजनीति में एक दलीय सरकार की संभावना कम हो गयी है। गठबंधन की सरकारों में क्षेत्रीय मुद्दे हावी होते हैं और क्षेत्रिय दलों का भी सरकार में हिस्सेदारी देखने को मिलती है।
Question : संविधान (73 संशोधन) अधिनियम, 1992 के अधीन ग्राम सभा की भूमिका
(2005)
Answer : संविधान संशोधन (73वां) अधिनियम 22 दिसंबर, 1992 को लगभग पूर्ण सहमति से पारित हो गया तथा 20 अप्रैल, 1993 को देश में संवैधानिक रूप से नई पंचायती राज व्यवस्था लागु हो गयी।
ग्राम स्तर पर पंचायती राज्य प्रणाली की दो संस्थायें होती हैं-ग्राम सभा एवं ग्राम पंचायत। ग्राम सभा स्थानीय नागरिकों की आम सभा होती है। गांव के सभी व्यस्क सदस्य इसके सदस्य एवं मतदाता होते हैं। ग्राम सभा बैठक वर्ष में कम से कम दो बार होती है और जरूरत पड़ने पर इसकी दो से ज्यादा बैठक बुलायी जा सकती है। ग्राम पंचायत, ग्राम सभा की कार्यकारिणी समिति के रूप में कार्यरत है। इसके कार्यों की समीक्षा ग्राम सभा करती है। ग्राम सभा के मुख्य कार्यों में (क) ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करना। इसके सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष व्यस्क मताधिकार के आधार पर होता है, जो ग्राम सभा की ओर कार्यकारिणी के रूप में काम करते हैं। (ख) ग्राम पंचायत के प्रशासनिक कार्यों को अनुमोदित करना (ग) पिछले वर्ष के बजट, लेखा और लेखा परीक्षण रिपोर्ट का अनुमोदन करना (घ) सामुदायिक सेवा जैसे विकास कार्यक्रमों के परियोजनाओं को स्वीकृति देना तथा ग्राम की उत्पादन योजना को अंगीकार करना तथा (ड.) कर संबंधी प्रस्तावों पर विचार करना और उसकी स्वीकृति देना।
ग्राम सभा द्वारा ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव 5 वर्ष के लिए होता है। इसके सदस्यों को पंच तथा अध्यक्ष को सरपंच कहा जाता है। ग्राम पंचायत, ग्राम सभा के कार्यकारणी के रूप में जिन कार्यों का संपादन करते हैं उनमें प्रमुख हैं- प्रशासनिक, कानून एवं व्यवस्था, वाणिज्यिक, नागरिक कार्य, सामुदायिक कल्याण एवं विकास, प्रशासनिक कार्यों में बजट, जन्म मृत्यु, पंजीकरण, भूमि प्रबंध, पशुओं से संबंधित आंकड़ें इत्यादि हैं। कानून व्यवस्था के अंतर्गत निगरानी, सुरक्षा सेवा एवं ग्रामीण स्वयं सेवक बल का रख-रखाव इत्यादि। वाणिज्यिक कार्यों में कुटीर उद्योगों, मत्स्य उद्योगों, पंचायती उद्यमों का पर्यवेक्षण करना है। इसके साथ-साथ ग्राम पंचायत नागरिक कार्यों में सड़कों और गलियों, नालियों, कुओं, तालाबों तथा जल आपूर्ति की व्यवस्था करता है। विकास और कल्याण कार्यो में सुखा एवं बाढ़ सहायता, विकलांगों, महिलाओं पिछड़े वर्गों के लिए कार्यक्रम तथा कृषि एवं सिचांई योजना के साथ-साथ सहकारी कुटीर तथा लघु इकाई उद्योगों के विकास में सहायता प्रदान करता है।पंचायती राज्य अब संवैधानिक रूप से स्थापित हैं तथा इसकी शक्तियां तथा कार्यकाल सुनिश्चित हैं।
Question : भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अधीन ‘संघीय योजना’ को स्पष्ट कीजिए। इस योजना को कार्यान्वित क्यों नहीं किया जा सका था?
(2005)
Answer : 1919 के अधिनियम पारित होने के बाद से इसका विरोध होने लगा था। तब सरकार में साइमन आयोग और नेहरू रिपोर्ट के आधार पर 1935 का अधिनियम पारित किया। 1935 के अधिनियम के अधीन संघ की स्थापना की गयी जिसमें इकाईयां थीं प्रांत एवं देशी रियासतें। देशी रियासतों के लिए परिसंघ में सम्मिलित होने का विकल्प था। देशी रियासतों के शासक ने अपनी सहमति इस अधिनियम के लिए नहीं दिया जिससे जिस परिसंघ की व्यवस्था थी वह कभी नहीं बन सकी।
1935 के अधिनियम के द्वारा विधायी शक्तियों को प्रांतीय और केंद्रीय विधानमंडलों के बीच विभाजित किया गया। प्रांत, प्रशासन की स्वतंत्र इकाइयों के रूप में थे। भारत सरकार प्रांतीय सरकारों के परिप्रेक्ष्य में संघ की भूमिका निभाने लगी। हालांकि देशी रियासतों के शामिल नहीं होने से परिसंघ का पूरा प्रावधान पूरा नहीं हो पाया। संधीय ढ़ांचे के सही निरूपण के लिए 50 प्रतिशत से अधिक देशी रियासतों का शामिल होना एक आवश्यक पूर्व शर्त थी। चूंकि उन लोगों ने शामिल होने का निर्णय नहीं लिया इसलिए गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के संघीय ढांचे वाले हिस्से को मूर्तरूप नहीं दिया जा सका।
1935 की संघीय संविधान की स्थापना से केंद्र में द्वैध शासन स्थापित हो गया। 1919 के अधिनियम के तहत यह प्रांतीय सरकारों की विशेषता थी। 1935 के अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय विधानमंडलों के बीच संविधान द्वारा ही शक्ति विभाजन कर दिया था। दोनों में से कोई भी निर्धारित शक्तियों का अतिक्रमण नहीं कर सकता था। इस अधिनियम में तीन सूचियां थीं-संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची।
संघीय सूची में विदेश विभाग, रक्षा, मुद्रा एवं सिक्के संबंधित विभाग, जनगणना आदि विषयों को रखा गया। राज्य सूची में शिक्षा, पुलिस आदि विषयों को रखा गया। तीसरी समवर्ती सूची में, कानून जैसे महत्वपूर्ण विषय थे, जिसमें संघ एवं प्रांत दोनों को विधानमंडल को कानून बनाने का अधिकार था। केवल आपातकाल की स्थिति में गर्वनर के निर्देश पर संघ को ही इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार था। कुछ विषय ऐसे थे जो कि गर्वनर-जनरल के विशेष उत्तरदायित्व थे जिन पर उसे मंत्रियों से मंत्रणा की आवश्यकता नहीं थी।
केंद्र में गर्वनर-जनरल ही समस्त संविधान का केंद्र बिंदु था। वह प्रायः मंत्रियों के सिफारिशों या मंत्रियों के परामर्श के बाद ही काम करता था। परंतु उसके कुछ व्यक्तिगत अधिकार थे जिसके तहत वह मंत्रियों के परामर्श को अस्वीकार कर सकता था तथा बिना परामर्श के ही कार्य कर सकता था। वह जिस विषयों पर व्यक्तिगत निर्णय ले सकता था वे थे देश की वित्तीय स्थिरता एवं साख की रक्षा, शांति व्यवस्था, अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा तथा अपने विवेकाधीन शक्तियों की रक्षा करना। कुछ विषयों में वह मंत्रियों के परामर्श बिना विवेकाधीन शक्ति का उपयोग कर सकता था। वे विषय थे- रक्षा, विदेश, धार्मिक, जनजाति क्षेत्र के मामले। इसके साथ-साथ मंत्रिपरिषद की नियुक्ति तथा भंग करना तथा अधिनियम के लिए अध्यादेश जारी करना इत्यादि। विशेष प्रकार के विधेयकों को केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानमंडलों में प्रस्तुत करने के पूर्व स्वीकृति प्रदान करना तथा गर्वनरों को आदेश उसके विवेकाधीन शक्तियों में शामिल था।
इस अधिनियम में संघीय विधान की व्यवस्था की गयी थी जो द्विसदनीय था- राज्य परिषद तथा संघीय सभा। राज्य परिषद उच्च सदन तथा स्थायी सदन था जिसके 1/3 सदस्य 3 वर्ष के लिए चुने जाते थे। 260 सदस्यों की व्यवस्था वाले सदन में 150 प्रांत से तथा 104 रियासतों के प्रतिनिधि की व्यवस्था होनी थी। संघीय सभा के लिए 250 सदस्य प्रांतों तथा 125 सदस्य रियासत से लेने की व्यवस्था बनायी गयी, जिसकी अवधि 5 वर्ष की थी।
संघीय विधानमंडल को प्रभुसत्ता संपन्न विधानमंडल बनाने का कोई विचार नहीं था। उसके कानून बनाने के अधिकार भी सीमित थे। यह निरंकुश और उत्तरदायी सरकार का मिला हुआ रूप भारतीयों के इच्छा के अनुरूप नहीं था। दूसरी ओर अधिनियम के अनुसार इसमें भारतीय प्रांतों तथा मुख्य आयुक्त के प्रांतों का शमिल होना अनिवार्य था परंतु भारतीय रियासतों का सम्मिलित होना वैकल्पिक था। संघ तब आस्तित्व में आ सकता था जब तक कि रियासतों से कम से कम आधे प्रतिनिधि तथा रियासतों की जनसंख्या पूरी करके रियासते सम्मिलित न हों। ये सभी चीजें सम्मिलित पत्र में लिखी जानी थीं। चूंकि ये शर्ते पूरी नहीं हो पायीं इसलिए संघ अस्तित्व में नहीं आया।
Question : क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि ‘मूल अधिकार’ और ‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’ भारत के संविधान के ‘क्रोड़ और अंतः करण’ में स्थित हैं? उनके अन्योन्य-संबंधों में उभरती हुई प्रवृत्तियों पर टिप्पणी कीजिए।
(2005)
Answer : संविधान के अंतरंग भाग के रूप में ‘मूल अधिकार’ और राज्य के नीति निदेशक तत्वों का बहुत अधिक महत्व है। ये प्रजातंत्र के आधार स्तम्भ हैं। इसमें हमारे संविधान का और इसमें सामाजिक न्याय दर्शन का वास्तविक तत्व निहित है। जहां मौलिक अधिकार के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के पूर्ण शारीरिक, मानसिक ओर नैतिक विकास की सुरक्षा प्रदान की जाती है, वहीं नीति निर्देशक तत्व का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है। संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्वों को ‘संविधान की आत्मा’ कहा गया है।
भारतीय संविधान के तृतीय भाग में मौलिक अधिकारों का विवेचन किया गया है। इसमें विश्व के अन्य किसी भी संविधान में दिये गये अधिकार पत्र से विस्तृत है। इसे भारतीय जनता की आवश्यक स्वतंत्रताओं का महान अधिकार पत्र कहा जाता है। अधिकार पत्र के इतने अधिक व्यापक होने का कारण है कि यहां प्रत्येक अधिकार के साथ प्रतिबंध की भी व्यवस्था है। भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिक को अब छः मौलिक अधिकार दिये हैं। जो हैं- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार।
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार कोरे सिद्धांतों की अपेक्षा वास्तविकता पर आधारित संपूर्ण समाज के लिए उपयोगी है। व्यक्तियों को समानता के अधिकार को स्वीकारते हुए पिछड़ों और दलितों के लिए संविधान में विशेष व्यवस्था की गयी है। अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि संस्कृति की रक्षा करने की छूट है। मौलिक अधिकारों का उद्देश्य व्यक्तियों को न केवल राज्य की निरंकुश कार्यवाही से रक्षा करना वरन् नागरिकों के निरंकुश व्यवहार से भी उनकी रक्षा करता है। इस प्रकार मौलिक अधिकार का उद्देश्य भारत में दबाव मुक्त समाज की स्थापना करना है, जहां प्रत्येक नागरिक राज्य और समाज दोनों ही दबावों से मुक्त हो।
नीति निर्देशक सिद्धांत का उल्लेख संविधान के चतुर्थ भाग में किया गया है। यह संविधान की संजीवनी व्यवस्थाएं हैं। यह संविधान की प्रतिज्ञाओं और आकांक्षाओं को वाणी प्रदान करते हैं। ये सामाजिक, आर्थिक, कानूनी शैक्षिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र के उन लक्ष्यों का निर्धारण करती है जिनका अनुसरण राज्य को करना होता है। ये राज्य की समस्त गतिविधियों के मार्गदर्शक हैं चाहे वे विधायिका संबंधी हों अथवा कार्यपालिका या विधायिका संबंधी हों इनका वर्गीकरण लोककल्याणकारी तथा समाजवादी राज्य की स्थापना करने वाले सिद्धांत, गांधी विचारधारा वाली सिद्धांत, अंतर्राष्ट्रीय शांति को बढ़ावा देने वाले सिद्धांत तथा कुछ अन्य सिद्धांतों के रूप कर सकते हैं। ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं के मन में ये बात साफ थी कि केवल स्वतंत्रता और समानता के अधिकारों से जनसाधारण को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मामलों में न्याय दिलाने के लिए काफी नही हैं। अतः संविधान ने राज्य को ये निर्देश दिया कि नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकार को सुनिश्चित करते हुए संपूर्ण समाज के लक्ष्यों की पूर्ति करने का प्रयास करें।
मौलिक अधिकार एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच संबंध परिस्थितियों एवं शासक वर्ग की मंशा के अनुसार बदलती रही है। धीरे-धीरे इस मान्यता का विकास हुआ है कि निदेशक सिद्धांत मौलिक अधिकारों के पूरक रूप में काम करते हैं। उच्चतम न्यायालय ने अपने विभिन्न फैसलों में कहा है कि मौलिक अधिकार से संबंधित अध्याय बहुत पवित्र हैं यह अन्य किसी भी विधि अथवा प्रशासनिक आज्ञा द्वारा बाधित नहीं किये जा सकते। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत को इनके पूरक के रूप में लागू करना होगा।
समय के अंतराल के साथ-साथ निर्देशक तत्वों के साथ मौलिक अधिकार के संबंधों के बारे में न्यायपालिका के दृष्टिकोण में भी व्यापक परिवर्तन हुआ। नीति निर्देशक तत्वों के ऊपर मौलिक अधिकारों के वर्चस्व के प्रचलित दृष्टिकोण में सुधार लाने के लिए संसद द्वारा 25वें संशोधन द्वारा नये अनुच्छेद 31(ग) से यह प्रावधान किया गया कि अनुच्छेद 39(ख) और (ग) में विनिर्दिष्ट नीति निदेशक तत्वों को प्रभावित करने वाले कानून या नियम को असंगत अथवा अनुच्छेद 14, 19 तथा 31 में वर्णित मौलिक अधिकारों में से किसी अधिकार को कम करने के आधार पर अमान्य नहीं घोषित किया जाएगा। न्यायालयों के अनेक निर्णय एवं संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकार एवं नीति निदेशक तत्वों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की गयी है।
मौलिक अधिकार और निदेशक तत्वों दोनों के एक ही लक्ष्य हैं-व्यक्तित्व का विकास एवं लोककल्याणकरी राज्य की स्थापना करना। संविधान का मूल उद्देश्य वैयक्तिक अधिकार और सामाजिक कल्याण में समन्वय स्थापित करना है। मौलिक अधिकार के स्वतंत्रता एवं समानता को सुनिश्चित करने के लिए बनाये गये हैं तो नागरिकों को न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को निर्देश दिये गये हैं। सामाजिक न्याय के बिना स्वतंत्रता एवं समानता बेईमानी है।
Question : स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष चुनाव कराने में भारत के चुनाव आयोग के संघटन, प्रकार्यण एवं भूमिका का एक आकलन कीजिए।
(2005)
Answer : भारत में निर्वाचन आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय है और संविधान इस बात को सुनिश्चित करता है कि यह उच्चतम और उच्च न्यायालयों की भांति कार्यपालिका के बिना किसी हस्तक्षेप के स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से अपने कार्यों को संपादित कर सके। संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत निर्वाचन का निरीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करने के लिए निर्वाचन आयोग की स्थापना की गयी है। इसके तहत निर्वाचन आयोग में एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्त की व्यवस्था है। इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। निर्वाचन आयोग से परामर्श के बाद राष्ट्रपति प्रादेशिक निर्वाचक आयोग की नियुक्ति करता है। मुख्य निर्वाचक आयुक्त को महाभियोग द्वारा ही हटाया जा सकता है जैसा कि किसी उच्चतम न्यायालय के न्यायधीश को हटाये जाने की प्रक्रिया है। महाभियोग की कार्यविधि निश्चित करने का अधिकार संसद को है। संसद की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से हटा सकता है।
सन् 1951 से लेकर आज तक चुनाव आयोग अपना कार्य करता आ रहा है। चुनाव से संबंधित समस्त व्यवस्था करना चुनाव आयोग का कार्य है। इसका कार्य प्रमुख रूप से चुनाव क्षेत्रों का परिसीमन करना, मतदान सूची तैयार करना, विभिन्न राजनीतिक दलों को मान्यता प्रदान करना, राजनीतिक दलों को आरक्षित चुनाव चिन्ह प्रदान करना, राजनीतिक दल के लिए आचार संहिता लगाना, उम्मीदवारों की व्यय राशि निश्चित करना, चुनाव याचिका को सुनना, चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए सरकार को सुझाव देना इत्यादि महत्वपूर्ण कार्य हैं।
निर्वाचन आयोग को निष्पक्ष चुनाव करवाने का एक अति महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व निभाना होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश है इसलिए इसको सबसे ज्यादा मतदाताओं से निपटना होता है। अतः निर्वाचन आयोग से उच्च कोटि के प्रबंध, कौशल तथा दक्षता अपेक्षित हैं। भारत में साफ-सुथरे चुनाव कराने की दिशा में चुनाव आयोग ने अमिट छाप छोड़ी है।
अभी तक भारत में लोकसभा के 14 आम चुनाव तथा विधान सभा के अनेक चुनाव हुए हैं। आयोग के चुनौती पूर्ण कार्य को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि निर्वाचन क्षेत्रों में परिसीमन से लेकर निर्वाचन अधिनिर्णय तक के कार्य को चुनाव आयोग ने सामान्यतया कार्यकुशलता, निष्पक्षता और ईमानदारी के साथ संपन्न किया है। हालांकि निर्वाचन आयोग पर शासक दल के साथ पक्षपात करने के आरोप लगाये जाते रहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं-निष्ठावान प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति, निर्वाचन संपन्न कराने के लिए राज्य सरकारों के कर्मचारियों पर निर्भरता, सरकारों का इशारे पर काम, चुनाव धांधलियों पर रोक लगाने में अक्षम इत्यादि।
श्री टी.एन. शेषन के कार्यकाल में आयोग की निष्पक्षता के बारे में कई प्रश्न चिन्ह खड़े हुए। आयोग ने इनके कार्यकाल में कुछ ऐसे संवैधानिक मापदंडों को उजागर किया जो पहले नहीं देखा गया और न सुना गया था। धनबल एवं बाहुबल पर रोक लगाया। चुनाव गतिविधियों पर नजर रखने के लिए व्यय पर्यवेक्षक और सामान्य पर्यवेक्षक नियुक्त किये गये।
अभी हाल ही में संपन्न बिहार विधानसभा चुनावों में आयोग ने अपनी कार्यकुशलता एवं निष्पक्षता का परिचय दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव में आयोग की भूमिका सराहनीय है। इसने बिहार के बेजान चुनाव में जान फूंक दी। आयोग के डर से कितने ही अपराधी प्रवृत्ति के लोगों ने अपने को चुनाव कार्य से अलग कर लिया या दल द्वारा करवा दिया। आयोग के सख्त कदम के कारण गैर जमानती वारंट वाले लोग चुनाव खुले आम नहीं लड़ सकेंगे। इसके साथ-साथ पीपुल्स यूनियन और सिविल लिवर्टीज द्वारा दायर जनजित याचिका का समर्थन चुनाव आयोग ने किया है। इसी याचिका द्वारा मांग की गयी है कि लोगों को नकारात्मक वोट देने का अधिकार मिले।
चुनाव आयोग ने कुछ चुनाव सुधार प्रस्ताव में आवश्यक संशोधन हेतु सुझाव प्रधानमंत्री को भेजा है। इन प्रस्तावों में प्रमुख हैं- प्रत्याशियों की सुरक्षा को दुगुनी करना, एक व्यक्ति दो सीटों से एक साथ चुनाव पर रोक, चुनावों में छद्म विज्ञापनों पर रोक इत्यादि। इसके साथ-साथ कोई भी व्यक्ति जो पांच वर्ष या उससे अधिक किसी भी दंडनीय मामलों में आरोपी हो उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया जाए।
Question : सूरत की फूट
(2004)
Answer : बंगाल विभाजन के बाद उत्पन्न परिस्थिति के परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादियों एवं राष्ट्रवादियों के बीच विरोध तीव्र हो गया और 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस के दो टुकड़े हो गये जो नौ साल 1916 तक अलग-अलग काम करते रहे।
बंगाल विभाजन के तुरंत बाद ही कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन गोखले की अध्यक्षता में बनारस में संपन्न हुआ। कांग्रेस के नरमदल के नेता बंगाल में शुरू हुए आंदोलन को पूरे देश में विस्तार को राजी नहीं थे। वे बायकाट तथा स्वदेशी आंदोलन को बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे। जिसके कारण उदारवादी व राष्ट्रवादियों के बीच विरोध बढ़ना शुरू हो गया। उदारवादी प्रिंस ऑफ वेल्स जिसे आगे चलकर जार्ज पंचम के नाम से जानते हैं, का स्वागत करते हुए एक प्रस्ताव करना चाहते थे। लाला लाजपत राय और तिलक ने इसका विरोध किया। प्रस्ताव तो पास हो गया परंतु कटुता और बढ़ गयी। इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने बंगाल के वायकाट आंदोलन पर प्रस्ताव पास किया। प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ लेकिन बायकाट के मुद्दे पर दोनों पक्षों में अंतर्विरोध झलकता रहा।
उदारवादियों एवं राष्ट्रवादियों में दिन प्रतिदिन दरारें बढ़ने लगी और ये दरार 1906 तक और बढ़ गई। उसी वर्ष अधिवेशन कुछ महीने पूर्व तिलक ने एक लेख के जरिये कांग्रेस के नीति में परिवर्तन पर जोर दिया। 1906 के कलकत्ता अधिवेशन के पूर्व ही अध्यक्षता के लिए दोनों खेमों में मन मुटाव रहा परंतु दादा भाई नैरोजी जैसे वृद्ध नेता के नाम पर वे चुप्पी साध गये, परंतु कुछ मुद्दों को लेकर दोनों खेमों के बीच गरम बहस हुई। हालांकि स्वदेशी के मसले पर प्रस्ताव स्वीकृत हो गया परंतु उदारवादियों को इसमें इस्तेमाल ‘कुछ बलिदान करके भी’ जैसे शब्दों पर ऐतराज था, क्योंकि उनके अनुसार इसका अर्थ वही था, जो बायकाट का था।
उदारवादी और राष्ट्रवादियों के दृष्टिकोण और उद्देश्यों का अंतर स्पष्ट था। राष्ट्रवादियों को ब्रिटिश सरकार के वादों में कोई विश्वास नहीं रह गया था किंतु उदारवादी अब भी उनमें विश्वास करते थे। राष्ट्रवादी ब्रिटिश शासन के विरूद्ध आंदोलन के रास्ते पर जाना चाहते थे, जबकि उदारवादी निवेदन की पद्धति अपना रहे थे। उदारवादी कांग्रेस पर अपना दबदबा बनाये रखना चाहते थे, जबकि राष्ट्रवादी कांग्रेस को नेतृत्व अपने हाथों में चाहते थे।
सूरत अधिवेशन में राष्ट्रवादियों को डर था कि उदारवादी खेमें के कांग्रेसी, स्वदेशी, बायकाट, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज्य के बारे में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के फैसले को बदल देना चाहते हैं। राष्ट्रवादी उसे पास करवाने पर डटे रहे और उदारवादी कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुए और अंततः कुछ और मुद्दों को लेकर मंच पर ही दोनों गुटों के बीच घमासान बहस हुई और दो भागों में बंट गये। उदारवादियों की यह नीति घातक सिद्ध हुई परंतु उन्हें फिर आठ साल बाद राष्ट्रवादियों को वापस बुलाना पड़ा और 1916 में अध्यक्ष तिलक को बनाया गया।
Question : भारत सरकार अधिनियम, 1919
(2004)
Answer : भारत सरकार अधिनियम, 1919 जिसे पूर्व में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन कहा जाता था। भारत के संवैधानिक विकास में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। राष्ट्रवादियों के स्वराज की मांग पर ब्रिटिश सरकार ने 20 अगस्त, 1917 को यह घोषणा की कि प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीय को अधिकाधिक सम्मिलित किया जाय और धीरे-धीरे स्वतंत्र संस्थाओं का विकास किया जाय जिससे उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो।
भारत शासन अधिनियम, 1919 द्वारा अपनाई गई प्रणाली के मुख्य लक्षणों में प्रमुख थे-प्रांतों में द्वैध शासन की स्थापना करना जिसके तहत प्रशासन के विषयों को केंद्रीय तथा प्रांतीय दो भागों में बांटा गया। साथ ही प्रांतीय विषयों को भी दो भागों में बांटा गया जिसमें ‘अंतरित विषयों’ का प्रशासन गर्वनर द्वारा विधान परिषद के उत्तरदायी मंत्रियों की सहायता से तथा ‘आरक्षित विषयों’ का प्रशासन गर्वनर एवं उसके कार्यकारी परिषद द्वारा किया गया था।
इस अधिनियम द्वारा अपनाई गई प्रणाली में प्रांतों पर केंद्रीय नियंत्रण को भी रोका गया। इसके तहत प्रशासन को भागों में बांटा गया। साथ ही साथ राजस्व के ड्डोतों का भी विभाजन किया गया। प्रांतीय बजट को भारत सरकार के बजट से अलग किया गया। प्रांतीय विधानमंडल को ये अधिकार था कि वह अपना अलग बजट प्रस्तुत कर सके। इस अधिनियम के द्वारा विधानमंडल द्विसदनीय किया गया। राज्य परिषद जो उच्चतर सदन था, में 34 निर्वाचित तथा 26 मनोनित सदस्य थे। विधान सभा में 104 निर्वाचित तथा 40 मनोनीत सदस्य थे। दोनों सदनों की शक्तियां समान थीं।
ये अधिनियम वस्तुतः राष्ट्रवादियों के संतुष्टी के लिए लाया गया परंतु वे इससे असंतुष्ट हुए, क्योंकि इस प्रणाली में बहुत-सी कमियां थीं जिनमें प्रमुख रूप से एकीकृत तथा केंद्रीकृत संरचना थी। प्रांतों को पर्याप्त शक्तियां प्रदान करने के बावजूद भी संरचना ऐकिक तथा केंद्रीकृत बन रही थी। गवर्नर के पास असीमित वित्तीय और दूसरी असीमित शक्तियां थी जिससे शासकीय मत उसके नियंत्रण में था। अंततः भारत सरकार अधिनियम, 1919 भारतीय जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सका।
भारत सरकार अधिनियम, 1919 में वर्जित द्वैध शासन भद्दा, भ्रमित एवं जटिल था और इसका असफल होना निश्चित था। परंतु इस प्रयोग को सर्वथा निस्फल नहीं कहा जा सकता है। लोकप्रिय मंत्रियों ने स्थानीय निकायों, शिक्षा, तथा समाज सुधार की ओर ध्यान दिया। अंग्रेजों के ये कथन कि भारतीय स्वशासन के योग्य नहीं हैं, असत्य सिद्ध हो गया था।
Question : भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्य
(2004)
Answer : संविधान ने न केवल नागरिकों के अधिकारों का ही वर्णन किया है वरन् उसके कर्तव्यों का भी उल्लेख किया है। संविधान ने नागरिकों को देश तथा समाज के प्रति कर्तव्य तथा देश के विकास में उसकी भूमिका का वर्णन मौलिक कर्तव्य में किया है। प्रेक्षकों का मानना है कि राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक है कि नागरिक कुछ समान्य मूल्यों के आधार पर देशप्रेम तथा राष्ट्रवाद का अनुकरण करें। संविधान में अनुच्छेद 51(क) तथा भाग IV-क में मौलिक कर्तव्यों को अंतर्निहित किया गया है।
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि-
भारत के संविधान में कर्तव्यों का उल्लेख कर इसके नागरिकों से आशा की जाती है कि उनमें कर्तव्यों का अधिक स्पष्ट रूप से बोध होगा तथा वे अच्छे रूप में इसका पालन कर सकेंगे।
मौलिक कर्तव्यों को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अध्याय में जोड़ने का अर्थ है कि निर्देशक तत्वों की तरह ये भी वाद योग्य नहीं हैं। संविधान में इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं है कि इन्हें लागू कैसे किया जाए और इसकी आवमानता पर दंड की व्यवस्था क्या होनी चाहिए। आलोचकों ने इसकी आलोचना कुछ कर्तव्यों की अस्पष्टता, कर्तव्यों को बार-बार दोहराया जाना तथा कर्तव्यों को लागू करने के लिए दंडात्मक व्यवस्था के आधार पर की है।
निस्संदेह इन कर्तव्यों की वैधानिक उपयोगिता नहीं के बराबर है परंतु जिस तरह निर्देशक तत्व राज्यों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है तथा उसके तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं, उसी तरह मूल कर्तव्य नागरिकों को देश तथा समाज के प्रति कर्तव्य बोध कराते हैं तथा देश के विकास में हर व्यक्ति की भूमिका को दर्शाता हैं।
Question : भारत में संसदीय समितियां
(2004)
Answer : संसद अपने बहुत से कार्य समितियों के माध्यम से करती है। वैसे तो भारत में समिति व्यवस्था काफी पुरानी है परंतु नये संविधान के लागू होने के बाद इनमें अधिक परिवर्तन आया है। एक नई समिति व्यवस्था का विधिवत उद्घाटन दसवीं लोकसभा (1991-96) में किया गया। इस समय भारतीय संसद की पुरानी समितियों के अतिरिक्त 17 नई स्थायी समितियां हैं। संसद में समितियों की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 118(1) के अंतर्गत दोनों सदनों द्वारा बनाये गये नियमों के उपबंधों द्वारा विनियमित होती है। प्रमुख स्थायी समितियो इस प्रकार हैं- लोक लेखा समिति, कार्य मंत्रणा समिति, विशेषाधिकार समिति, याचिका समिति, प्राक्कलन समिति इत्यादि।
सामान्यतः संसदीय समितियां दो प्रकार की होती हैं-स्थायी था तदर्थ। स्थायी समितियों का निर्वाचन प्रतिवर्ष या आवधिक रूप से की जाती है जबकि तदर्थ समितियों की नियुक्ति आवश्यकतानुसार तदर्थ आधार पर की जाती है। इन समितियों का गठन लोकसभा अध्यक्ष तथा राज्य सभा के स्पीकर के द्वारा किया जाता है। कोई मंत्री किसी समिति का सदस्य नहीं बन सकता है।प्रत्येक समिति संबंधित मंत्रलय की मांगों पर विचार करती है। वह इनमें मितव्ययिता, नीति
संबंधी संगठनात्मक सुधार व प्रशासनिक कुशलता के संबंध में सुझाव भी दे सकती है। समितियों का कार्य प्रत्येक वर्ष लोकसभा में बजट पेश हो जाने के तुरंत बाद प्रारंभ हो जाता है।
भारत में संसदीय समितियों ने सफलतापूर्वक कार्य करके संसदीय कार्य को सरल, दक्ष तथा सुगम बनाया है। संसदीय समितियों द्वारा की जाने वाले जांच और आलोचना के भय से अधिकारी अनुचित निर्णय लेने से घबराते हैं। संसदीय समिति को काफी प्रभावशाली माना जा रहा है। तथा विश्वास प्रकट किया जाता है कि यह कार्यपालिका पर नियंत्रण में बहुत हद तक सक्षम है।Question : भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गांधी की भूमिका उजागर कीजिए।
(2004)
Answer : भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में घटनायें जिस प्रकार गांधी के वृत्त में घूमती रहीं उसके आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास 1914 से 1947 तक गांधी का इतिहास है। 1916 से 1920 तक के वर्षों में ये बात साफ जाहिर होने लगी थी कि देश को जिस नेतृत्व की तलाश थी उसकी पूर्ति के लिए गांधी जी भारत आ गये हैं।
1917 और 1918 में चंपारण की भूमि में गांधी द्वारा नीलहे साहबो के खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन, 1919 और 1920 का असहयोग आंदोलन, खिलाफत आंदोलन, 1930 और 1932 का नमक सत्याग्रह, लगानबंदी आंदोलन, दांडी यात्र तथा 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस तथा भारतीय के क्रमिक संघर्ष का एक विकसित रूप था। गांधी ने करो या मरो का नारा देते हुए आजादी की अंतिम लड़ाई छेड़ दी थी। इसके बाद पूरा देश भारत छोड़ो आंदोलन का चक्रव्यूह बन गया। जनता की जागृति, उत्साह, कुछ कर गुजरने का संकल्प तथा तन, मन, धन अर्पित करने की गांधी की प्रेरणा, ब्रिटिश साम्राज्य को जड़-मूल से हिला देने की सक्षम हुई। जवाहर लाल नेहरू ने 1945 में लिखा था कि गांधी जी का प्रभाव उन लोगों तक सीमित नहीं है जो उन्हें राष्ट्र नेता मानते हैं बल्कि उनसे असहमत लोगों पर भी प्रभाव है। वे भारत के असंख्य लोगों के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने की इच्छा तथा उग्र राष्ट्रवाद के प्रतीक हैं। इसके साथ-साथ नेहरू जी ने लिखा है कि ''जब भी भारत की स्वतंत्रता की बात आती है तो वे सब उन्हीं के पास भागते हैं और उन्हें अपना अपरिहार्य नेता मानते हैं।'
गांधी जी ने देश में न केवल राष्ट्रीय जागृति की शुरूआत की वरन् ठोस कार्यक्रम के आधार पर जर्जर राष्ट्र को निर्भय बनाया तथा संगठित किया। देश में नई चेतना का उदय हुआ। आरंभिक काल के राष्ट्रीय नेताओं, जैसे रानाडे, दादा भाई नौरोजी, लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक आदि सभी ने अंग्रेजों द्वारा भारत के शोषण की बात तो कही परंतु किसी ने भी निर्धन जनता के लिए कुछ ठोस कार्यक्रम नहीं बनाये। गांधी जी निर्धन, मूक और भूखी जनता के सामाजिक एवं आर्थिक हितों के लिए कार्य किया। अस्पृश्यता को हटाना, हरिजनों के जीवन को उत्तम बनाना, ग्राम उद्योग संघ की स्थापना, गौ रक्षा संघ, खादी को पुनर्जीवित करना इत्यादि कार्यों को संपादित किया, जिससे ग्रामों में रहने वाले निर्धन व्यक्तियों की उन्नति हुई।
महात्मा गांधी उदार और उग्रवादी दल दोनों की राजनीतिक परंपराओं के उत्तराधिकारी थे। गांधी जी के अनुसार राजनीति को सामाजिक परिर्वतन का साधन बनाया जाना चाहिए। गांधी जी के राजनैतिक अभियानों का प्रभाव न केवल भारत पर पड़ा अपितु सम्राज्यवादी भी अनुभव करने लगे कि भारत पर अंग्रेजी अधिकार अन्यायपूर्ण और गलत है। गांधीजी ने 1942 में अंग्रेजों से मांग की कि भारत में अंग्रेजी राज्य तुरंत समाप्त होना चाहिए। यह केवल भारत के हित में नहीं वरन् इससे संसार की सुरक्षा होगी और संसार में नाजी भावना, सैनिकवाद तथा सम्राज्यवादी प्रवृत्तियां समाप्त होंगी।
गांधी एक अद्वितिय राष्ट्रीय मूर्ति थे। वह एक समाज सुधारक और राष्ट्रवादी व्यक्ति थे जो भारतीय स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे। यद्यपि गांधीजी मानवतावादी विचारक थे और उनका दृष्टिकोण ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का था किंतु वे राष्ट्र और राष्ट्रवाद के समर्थक थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्व में भी राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता की यह अन्योन्याश्रिता ही महात्मा गांधी जी का मार्ग दर्शक रही। इसके अतिरिक्त गांधीजी का प्रमुख आदर्श भारत के सभी संप्रदायों को एकता के सूत्र में आबद्ध करना था। उनका कहना था धर्म को राष्ट्रीयता का आधार नहीं माना जा सकता। भारतीय गणतंत्र ने धर्मनिरपेक्ष बने रहने का जो निश्चय किया उसका सबसे अधिक श्रेय उन्हीं को है।
Question : भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित मुख्य सिद्धांतों की व्याख्या कीजिए। उनका क्या महत्व है? क्या आप समझते हैं कि वे देश की राजनीतिक जन्मपत्री हैं? विवेचना कीजिए।
(2004)
Answer : भारतीय संविधान की अंतरात्मा, न्याय, समता, अधिकार और बंधुत्व के आसव से अभिसिंचित है। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है, फ्हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न लोकतंत्रत्मक समाजवादी गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने के लिए इस संविधान को अधिनियमित तथा आत्मसमर्पित करते हैं।य् संविधान का सार है। भारतीय संविधान की ये प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है किंतु व्यवहार में यही कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का मार्ग-निर्देशन करने वाला प्रकाश स्तंभ है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना पर विचार करते हुए कहा है कि ‘प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के आशय को स्पष्ट करने वाली कुंजी है। यह संविधान की कुंडली है तथा सर्वश्रेष्ठों का निचोड़ है।’ यह कहा जा सकता है कि संविधान की प्रस्तावना उन आधारभूत उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की व्याख्या करता है जिसे देश के उच्च या साधारण कानून द्वारा प्राप्त या प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाता है।
संविधान में समाहित प्रस्तावना को समूचित अभिमूल्यन के लिए इसमें प्रयुक्त विभिन्न अभिव्यक्तियों की व्याख्या करनी होगी।
संविधान का स्रोत जनताः ‘हम भारत के लोग’ की शब्दावली यह संकेत करती है कि अंतिम सत्ता जनता के पास है तथा जनता ने संविधान को अंगीकृत एवं अधिनियमित किया है। ये शब्द भारत के लोगों की सर्वोच्च प्रभुता की घोषणा करते हैं।
सर्वप्रभुता संपन्नः संविधान का मुख्य उद्देश्य भारत को संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न देश बनाना है। ये शब्द इस बात का द्योतक हैं कि भारत के आंतरिक तथा वैदेशिक मामलों में भारत सरकार सार्वभौम है।
लोक सत्तात्मक एवं धर्मनिरपेक्षः भारत को लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है। राजशक्ति जनता के हाथों में होगा तथा शासन का संचालन बहुमत के आधार पर होगा। राज्य किसी भी धर्म विशेष को प्रोत्साहन नहीं देगा तथा धार्मिक अल्पसंख्यक को कारगर संरक्षण प्रदान किया जाएगा।
गणराज्यः प्रस्तावना स्पष्ट शब्दों में घोषणा करता है कि भारत एक गणराज्य होगा जिसका अर्थ है जनता के द्वारा जनता के लिए बनाई गयी सरकार। भारतीय संविधान ये इंगित करता है कि राज्याध्यक्ष निर्वाचित होगा वह कोई वंशानुगत राजा नहीं होगा।
न्यायः संविधान निर्माता इस बात से अवगत थे कि सच्चे लोकतंत्र की स्थापना में न्याय अनिवार्य तत्व है। न्याय के द्वारा लोकहित की वृद्धि हो सकती है। प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समूचित अवसर सुलभ हों। राज्य का ये दायित्व होगा कि वह व्यक्ति के समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करें।
स्वतंत्रताः सच्चे लोकतंत्र की स्थापना तभी हो सकती है जब स्वतंत्र और सभ्य जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम अधिकार देश के प्रत्येक सदस्य को सुनिश्चित हो जाते हैं। प्रस्तावना में व्यक्ति के इन आवश्यक अधिकारों का विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का आश्वासन दिया गया।
समानताः समानता से अभिप्राय है कि अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए प्रत्येक मनुष्य को समान अवसर उपलब्ध होने चाहिए। संविधान में इस उद्देश्य को सुनिश्चित करने के लिए राज्य द्वारा दिये जाने वाले किसी भी विभेद का अवैध घोषित किया गया। इसी प्रावधान के तहत अस्पृश्यता की समाप्ति हुई। राज्य के अधीन सभी विषयों के लिए अवसर की समानता प्रदान की गयी।
बंधूताः बंधुता व्यक्ति की मर्यादा तथा राष्ट्र की एकता की प्रतिभूति करता है। संविधान निर्माताओं ने भारत की विभिन्नता में एकता परिलक्षित करने की कल्पना किया है ये एक ऐसा आदर्श है जो क्षेत्रवाद, प्रांतवाद, भाषावाद जैसे नकारात्मक शक्तियों को हतोत्साहित करता है तथा देश की एकता एवं अखंडता को अक्षुण्य रखने में सफलता पाता है।
समाजवाद की कल्पनाः संविधान का मूल ध्येय है लोक-कलयाणकारी एवं समाजवादी राज्य की स्थापना। संविधान संशोधन अधिनियम (42वां) द्वारा प्रस्तावना में समाजवादी शब्द स्थापित करके यह सुनिश्चित किया गया कि भारतीय राजव्यवस्था का ध्येय समाजवाद है।
राष्ट्रीय एकताः लोकतंत्र को सफल बनाने तथा देश की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए एकता पहली आवश्यकता है। संविधान संशोधन (42वां) द्वारा प्रस्तावना में ‘अखंडता’ शब्द जोड़कर इस ध्येय की प्राप्ति की ओर एक कदम है। इसमें राष्ट्रीय एकता पर बल दिया गया।
प्रस्तावना में भारत के संविधान की आत्मा विशेष रूप से मुखर हुई है। यह अत्यंत संक्षिप्त, आकर्षक एवं शब्द चयन की दृष्टि से प्रभावशाली है। यह विधान की कुंजी है राजनीतिक एवं नैतिक दृष्टि से शासनकर्ताओं को दायित्व का बोध कराती है। संक्षेप में, प्रस्तावना संविधान के आदर्शों एवं महत्वाकांक्षाओं को बताती है। भारतीय संविधान की सफलता का मुख्य कारण उसकी प्रस्तावना का व्यापक परिप्रेक्ष्य उदारवादी दर्शन तथा लचीला स्वरूप है। अंततः ये कहा जा सकता है, प्रस्तावना संविधान की कुंडली है तथा सर्वश्रेष्ठ तत्वों का निचोड़ है जिसे के.एम. मुंशी ने राजनीतिक जन्मपत्री का नाम दिया है।
Question : भारत की सर्वोच्च न्यायालय किस प्रकार ‘संविधान के अभिभावक तथा नागरिकों के अधिकारों के रक्षक’ के रूप में कार्य करती है?
(2004)
Answer : किसी भी संवैधानिक शासन व्यवस्था में न्यायपालिका की आवश्यकता नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा हेतु होती है चाहे वहां संसदीय शासन प्रणाली हो अथवा अध्यक्षात्मक। शुरू से ही न्यायपालिका के अधिकारों को मौलिक अधिकारों के विस्तार के रूप में देखा गया है, क्योंकि न्यायालय के माध्यम से ही अधिकार प्रभावकारी साबित हो सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय इसी संकल्प की पूर्ति करता है। इसका क्षेत्रधिकार अत्यंत व्यापक है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान के रक्षक एवं अधिकारिक व्याख्याता तथा नागरिकों के अधिकारों के रक्षक के रूप में कार्य करता आ रहा है। संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत यह न्यायालय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है।
भारत की सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। संविधान के अनुच्छेद 31(क) में यह प्रावधान है कि उच्चतम न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए समुचित कार्यवाही करें। इसके लिए वह बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण के लेख जारी कर सकता है। किसी व्यक्ति के अधिकारों पर आक्रमण होने पर वह सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के अब तक के कार्य के आधार पर निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के प्रति सजग रहा है तथा इस कार्य में यह सफल रहा है। मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए इसने अनेक महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं। अनेक निर्णयोंमें सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति को अपनाया कि निर्देशक तत्वों को मौलिक अधिकारों पर वरीयता की स्थिति प्रदान नहीं की जा सकती और मौलिक अधिकार से संबंधित प्रावधानों में ऐसा कोई संशोधन नहीं किया जा सकता, जिससे संविधान का ढांचा प्रभावित होता हो। गोलकनाथ केस के निणर्य से परेशान सरकार ने उच्चतम न्यायालय द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण तथा प्रिवी पर्स में दिये गये निर्णयों को भी गंभीरता से लिया। 1973 के केशवनंद भारती के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में संविधान संशोधन के संदर्भ में संसद की शक्ति को सीमित करने की बात कही।
भारत में सर्वोच्च सत्ता संसद में सन्निहित न होकर संविधान में सन्निहित है अर्थात् संसद अपनी शक्तियों का प्रयोग मनमाने ढंग से नहीं कर सकती है। संसद पर इस परिसीमन की व्यवस्था तथा संविधान के अभिरक्षण की जिम्मेदारी सर्वोच्च न्यायालय पर सौपी गयी है जिसके फलस्वरूप वह न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग करता है। मौलिक अधिकारों के प्रयोग पर संविधान ने जिस सीमाओं का उल्लेख किया है उन्हें सर्वोच्च न्यायालय समाप्त तो नहीं कर सकता लेकिन सरकार जब इन सीमाओं को लागू करती है तथा इनके आधार पर नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाती है तो सर्वोच्च न्यायालय उस कानून को अथवा प्रतिबंध को निरस्त कर सकता है। वह उसे असंवैधानिक घोषित कर सकता है। दूसरे शब्दों में, संविधान की व्याख्या का कार्य सर्वोच्च न्यायालय को सौंपा गया है। वह केंद्र या राज्य सरकार द्वारा बनाये गये किसी कानून को जो न्यायसंगत नहीं है अथवा संविधान के अनुरूप नहीं हैं, उसे गैर संवैधानिक घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के इसी अधिकार को न्यायायिक पुर्नाविलोकन का अधिकार कहा जाता है।
भारत में संसदीय संप्रभुता की बजाय संवैधानिक सर्वोच्चता के सिद्धांत को मान्यता दी गयी है। शासन के समस्त उपकरण संविधान के अधीन हैं और न्यायालय को इनके कार्यों की वैधता की जांच करने की शक्ति प्राप्त है। पिछले कुछ दशकों से सर्वोच्च न्यायालय के दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आ रहा है और वह एक उदारवादी तथा प्रगतिशील दृष्टिकोण वाले न्यायालय का रूप ग्रहण करता जा रहा है। वह वैयक्तिक हितों के संरक्षक के साथ-साथ सामाजिक हित के संरक्षक के रूप में सक्रिय भूमिका का निर्वाह करने लगा है। अब व्यक्ति केवल अपने हित के लिए ही न्यायालय की शरण में नहीं जाएगा वरन् सार्वजनिक हित के लिए भी न्यायालय से गुहार कर सकता है। ये ऐसे मामले होते हैं जिसमें समूह, शोषण और अत्याचार का शिकार होता है और जिसे संवैधानिक और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे कई मामलों का विचार कर निपटारा किया है। सर्वोच्च न्यायालय आम जनता के सामाजिक-आर्थिक उत्थान में बराबर का भागीदार बन रहा है।
Question : साइमन कमीशन
(2003)
Answer : 1919 के भारत सरकार अधिनियम के संवैधानिक सुधारों के प्रश्न पर विचार करने के लिए 1927 में गठित इंडियन स्टेट्यूटी कमीशन के अध्यक्ष सर जान साइमन की अध्यक्षता में साइमन कमीशन गठित किया गया। यह आयोग 1928 में भारत आया और इसने विरोध-प्रतिरोध के साथ भारत दौरा किया। इस कमीशन ने मई 1930 में अपनी रिर्पोट प्रस्तुत की, जिस पर लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में विचार किया गया। इस कमीशन के निम्न उद्देश्य थेः
साइमन कमीशन ने अपनी प्रकाशित रिपोर्ट में निम्न सिफारिशें कींः
गौरतलब है कि इस कमीशन की नियुक्ति की कड़ी आलोचना की गयी लेकिन इसके बावजूद इसने भारतीय राष्ट्रवाद को उभारने में नया पथ प्रस्तुत किया।
Question : भारतीय संविधान के अधीन शोषण के विरुद्ध अधिकार
(2003)
Answer : भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 32 तक नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया है। इसमें से अनुच्छेद 23 तथा 24 शोषण के विरुद्ध अधिकार का उपबंध करता है।
अनुच्छेद 23 में मानव के दुर्व्यापार और बालात श्रम का प्रतिषेध किया गया है। इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा। राज्य के लिए एक विशेष व्यवस्था के अंतर्गत अनुच्छेद 23 (11) की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
अनुच्छेद 24 में कारखानों में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध किया गया है। इस अनुच्छेद में चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जायेगा या किसी अन्य परिसंकट नियोजन में नहीं लगाया जायेगा।
भारत सरकार ने इस शोषण के अधिकार को दृष्टिगत रखते हुए बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 पारित किया है तथा बालकों के नियोजन तथा सुधार के लिए बाल श्रम (निषेध तथा नियमन) अधिनियम 1986 पारित किया है, जिसके तहत जोखिम वाले व्यवसायों में बच्चों के काम करने के मनाही के अलावा कुछ अन्य क्षेत्रों में भी उन्हें काम देने से संबंधित नियम बनाये गये हैं।
उच्चतम न्यायालय ने ‘पीपुल्स युनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स’ के मामले में अनुच्छेद 23 के अंतर्गत बालात श्रम को पारिभाषित किया है। यद्यपि इस अनुच्छेद में दास प्रथा का उल्लेख नहीं है किन्तु मानव दुर्व्यापार शब्दावली में यह निःसंदेह रूप से शामिल है।
अनुच्छेद 23 व्यक्ति को न केवल राज्य के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है वरन् प्राइवेट व्यक्तियों के विरुद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है। इसका संरक्षण नागरिकों तथा अनागरिकों दोनों को प्राप्त है।
Question : संघ लोक सेवा आयोग
(2003)
Answer : भारत में सर्वप्रथम 1919 के भारत शासन अधिनियम के अधीन 1924 की ली कमीशन की संतुतियों के आधार पर 1926 में लोक सेवा आयोग स्थापित किया गया, जिसे 1935 के अधिनियम द्वारा संघीय लोक सेवा आयोग का नाम दे दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 315 में यह व्यवस्था उपबंधित है कि संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग तथा प्रत्येक राज्य के लिए अपना एक राज्य लोक सेवा आयोग होगा। दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक संयुक्त लोक सेवा आयोग हो सकता है, किंतु इसके लिये आवश्यक है कि संबंधित विधान मंडल एक संकल्प पारित करके संसद से अनुरोध करे। वर्तमान में संघ लोक सेवा आयोग में एक अध्यक्ष के अलावा 10 अन्य सदस्य हैं।
संघ या संयुक्त लोक सेवा आयोग के सदस्य तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जबकि राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा होती है। अनुच्छेद 316 के अनुसार आयोग के यथा स्थिति आधे सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे, जिन्होंने भारत सरकार या किसी राज्य के सरकार के अधीन 10 वर्ष तक पद धारण किया हो।
संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवम् अन्य सदस्य 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु (जो भी पहले हो) पद धारण करेंगे जबकि राज्य लोक सेवा आयोग के लिए 6 वर्ष या 62 साल (जो भी पहले हो) तथा पदच्युति 317 में वर्णित है उन्हें कदाचार तथा असमर्थता के आधार पर हटाया जायेगा। संविधान के अनुच्छेद 322 के अनुसार संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवम् अन्य सदस्यों के वेतन भत्ते एवम् पेंशन भारत की संचित निधि पर भारित होंगे।
संघ लोक सेवा आयोग व राज्य लोक सेवा के निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य हैंः
(i)क्रमशः संघ एवं राज्यों की सरकारों में नियुक्ति या भर्ती परीक्षाओं का संचालन करना।
(ii)अनुच्छेद 320 के अनुसार राष्ट्रपति या राज्यपाल उसके द्वारा निर्देशित विषयों पर सलाह देगा।
(iii)अनुच्छेद 321 के अनुसार संसद या विधान मंडल अपने अधिनियम द्वारा आयोग को संघ की या राज्य की सेवाओं के संबंध में या किसी स्थानीय प्राधिकारी द्वारा गठित निर्मित निकाय तथा किसी लोक संस्था के लिये अतिरिक्त सेवा प्रदान करने का निर्देश दे सकेंगे आदि।
इसके अलावा कुछ विषय ऐसे हैं, जिनपर यथा स्थित संघ लोक सेवा आयोग या राज्य लोक सेवा आयोग से परामर्श लिया जायेगा जैसे- भर्ती से संबंधित सभी विषय, स्थानान्तरण तथा पदोन्नति अनुशासनात्मक मामले तथा कानूनी खर्च की प्रतिपूर्ति आदि।
Question : गांधीजी की सत्य और अहिंसा की अवधारणा। वे आधुनिक सभ्यता के विरोधी क्यों थे?
(2003)
Answer : ‘सत्य ही ईश्वर है’। गांधीजी के अनुसार सत्य शब्द का प्रार्दुभाव ‘सत्’ शब्द से हुआ जिसका आशय है- किसी वस्तु का वस्तु में होना। गांधीजी का विचार था कि संसार में सत्य के अलावा कुछ भी नहीं हैं। सत्य वहीं है जहां वास्तविक है। जहां ज्ञान का अभाव है, वहां सत्य ठहर ही नहीं सकता।
गांधीजी के अनुसार दैनिक जीवन में सत्य सापेक्ष (Relative) है, किंतु सापेक्ष सत्य के माध्यम से एक निरपेक्ष सत्य तक पहुंचा जा सकता है और यह निरपेक्ष सत्य ही जीवन का चरम लक्ष्य है। इसकी प्राप्ति ही मनुष्य का परम धर्म है। इसी कारण वे अपनी आत्मकथा का नाम भी शायद ‘सत्य के साथ मेरा प्रयोग’ (My Experiments with Truth) इसी लिए रखा।
इसी क्रम में गांधीजी के अनुसार अहिंसा का अर्थ है- साधारणतः किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचाना या किसी के प्राण न लेना। गांधीजी का यह दृष्टिकोण टाल्स्टाय के अधिक समीप है तथा वे मनु की अपेक्षा जैन मत के अधिक निकट लगते हैं। उनका मत था कि सच्ची अहिंसा केवल जीवन हिंसा की भावना का परित्याग करना ही होगा। ‘यंग इंडिया’ जून 1927 के अंक में उन्होंने लिखा है ‘अहिंसा का मेरा व्रत अत्यन्त सक्रिय और गतिशील है। इसमें कायरता तथा कमजोरी का कोई स्थान नहीं है। मैं पूर्णतः विश्वास के साथ कह सकता हूं कि जहां मुझे हिंसा और कायरता के बीच एक चीज को चुनना पड़ेगा तो मैं हिंसा को चुनूंगा।’
गांधीजी मानते थे कि आधुनिक सभ्यता पतन की राह पर जा रही है, जिसमें समूची राजनीतिक एवं औद्योगिक व्यवस्था राज्य के ईद-गिर्द दिखाई देती है। इसके आलावा आधुनिक सभ्यता अहिंसा से दूर हिंसा के करीब, सत्य से दूर, झूठ और फरेब के करीब, नैतिकता से दूर अनैतिकता के करीब तथा धर्म से दूर विलासिता एवं यंत्रीकरण जीवन का पर्याय है। इसी कारण गांधीजी आधुनिक सभ्यता को नैतिक पतन का परिणाम मानते थे। गांधीजी धर्म को राजनीति से अलग नहीं करना चाहते थे लेकिन आधुनिक सभ्यता इससे दूर हो गयी तथा औद्योगिक विकास गांधीजी के कुटीर उद्योग को छिन्न-भिन्न कर गया। राजनीति के धर्म से अलगाव के कारण राजनीतिज्ञ भ्रष्ट, दुराचारी तथा अनैतिक हो गया जिसके कारण गांधीजी आधुनिक सभ्यता के विरोधी हो गये।
विज्ञान की प्रगति ने मनुष्य को प्रगतिशील के साथ तर्कशील बनाया और इस तर्क ने धर्म को ध्वस्त कर दिया, जिससे पूरी मानवता कलंकित होने लगी और गांधी जी का आर्दशवादी समाज कपोल कल्पित हो गया।
Question : पंडित जवाहर लाल नेहरू हमारे सम्मुख एक महान राष्ट्रवादी, अंतर्राष्ट्रवादी और मानवतावादी के रूप में आते हैं। विवेचना कीजिये?
(2003)
Answer : प्रकृतितः अत्यन्त संवेदनशील होते हुए भी नेहरू का दृष्टिकोण वैज्ञानिक था। उनका संपूर्ण जीवन राजनैतिक सिद्धांतों के साथ-साथ व्यावहारिक पक्ष पर भी आश्रित था। वे पूर्णतः यर्थाथवादी तो नहीं थे क्योंकि उनमें आदर्शवाद भी था। नेहरू राष्ट्र के प्रति संपूर्ण रूप से समर्पित थे और स्वतंत्रता के लिए उन्होंने सब कुछ न्योछावर कर डाला।
नेहरू का दृष्टिकोण उद्योगवाद, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद, अंतर्राष्ट्रवाद के प्रति एक नयी सोच थी, जिसका आधार विवेकवाद था।
नेहरू एक महान राष्ट्रवादी के रूप में, ‘हिंदुस्तान की कहानी’ में पं. जवाहर लाल नेहरू ने लिखा है- ‘हिंदुस्तान मेरे खून में समाया हुआ है और उसमें बहुत-सी ऐसी बाते हैं जो मुझे स्वभावतः उकसाती हैं। नेहरू एक महान राष्ट्रवादी थे। इनका राष्ट्रवाद का विचार संकुचित नहीं अपितु मातृभूमि के प्रति प्यार के साथ पूरी मानवता के कल्याण के लिए वे विश्व बंधुत्व से प्रेरित थे। नेहरू जी का राष्ट्रवाद रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा प्रतिपादित समन्वयात्मक सार्वभौमवाद से प्रभावित था। धर्म में राष्ट्र के संबंध पर नेहरू ने बेबाक टिप्पणी की कि धर्म का राष्ट्र के साथ कोई संबंध नहीं। यदि राष्ट्रीयता का आधार धर्म है तो भारत में न केवल दो राष्ट्र विद्यमान हैं अपितु अनेक राष्ट्र हैं। उनका मानना था भारत की राष्ट्रीयता न तो हिंदू राष्ट्रीयता है और न ही मुस्लिम वरन् यह विशुद्ध भारतीय है। नेहरू ने राष्ट्रीय आत्म-निर्णय पर अत्यधिक बल दिया तथा राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के लिए संघर्षशील देश में राष्ट्रवाद एक स्वस्थ शक्ति होती है लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात यही राष्ट्रवाद प्रतिक्रियावादी तथा विर्कीण भी बन जाती है। अतः ऐसी संकीर्ण राष्ट्रीयता से सदैव बचना चाहिये। नेहरू ने राष्ट्रवाद में मानवता का समावेश कर लिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद के नाम पर धर्म, जाति, संस्कृति का सहारा नहीं लेना चाहिये। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि नेहरू ने राष्ट्रवाद के आर्दश रूप को स्वीकार किया और उग्र राष्ट्रवाद को ठुकरा दिया। गुलाम राष्ट्रों- मिस्र, मोरक्को, इंडोनेशिया, अल्जीरिया, कांगो आदि देशों की आजादी के वास्ते उन्होंने राष्ट्रवाद को जरूरी भी माना।
नेहरू एक अंतर्राष्ट्रवादी के रूप में: नेहरू अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रबल सर्मथक थे। डा. राधाकृष्णन के अनुसार - विश्व शांति और विश्व सम्प्रदाय के विचार में नेहरू का बड़ा विश्वास था। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य पत्र के प्रति जितनी आस्था दिखलायी उतनी शायद ही किसी और ने दिखाई हो।
भारत के लिए गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति उनका सबसे बड़ा योगदान है। गुटनिरपेक्षता तथा पंचशील के सिद्धांतों ने नेहरू को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने में मुख्य भूमिका निभायी। नेहरू गुटनिरपेक्षता के बारे में कहते थे कि हमें गुटों से पृथक रहना, शीत युद्ध में भाग न लेना आदि आदि प्रत्येक अंतर्राष्ट्रीय समस्या पर गुण-दोषों के आधार पर निर्णय लेना चाहिए।
शांतिप्रियता और नैतिकता से ओतप्रोत पंचशील का सिद्धांत नेहरू की इस धारणा को मजबूती प्रदान करती है कि उन्होंने भारतीय परंपरा की विदेश नीति ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ को आगे बढ़ाते हुए इन विदेश नीति का पालन कर अंतर्राष्ट्रीयवाद के रूप में ख्याति अर्जित की।
नेहरू का आदर्शवाद यद्यपि बहुत ऊंचा था लेकिन एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने अवसर पड़ने पर शत्रु का संपूर्ण शक्ति से मुकाबला करने में विश्वास किया। पाकिस्तानी आक्रमण हो या चीनी, सबका उन्होंने डटकर मुकाबला किया। लेकिन इन युद्धों ने जवाहर लाल नेहरू के अंतर्राष्ट्रवाद के सिद्धांतों को ठेस ही पहुंचाए और उनके सिद्धांत एक प्रकार से अप्रासंगिक कर गये।
नेहरू मानवतावादी के रूप में: नेहरू एक राजनीतिज्ञ थे लेकिन नैतिक आदर्शवाद में उनकी गहन आस्था थी। तभी तो डा. राधाकृष्णन कहते हैं। ‘एक मानव के रूप में उसके चिंतन में सुधारता, भावना की अद्वितीय कोमलता और महान एवं उदार प्रवृतियों का अदभुत सम्मिश्रण था।’
नेहरू शोषित पीडि़तों को अंतःस्थल में बसाये थे तथा उनसे वे प्यार करते थे। मानवतावादी के रूप में नेहरू मानवतावाद में अटूट विश्वास रखते थे, इसी विश्वास ने उन्हें लोकतांत्रिक समाजवादी बनाये रखा। 1960 में उन्होंने कहा था ‘मैं किसी धर्म अथवा मताग्रह से बंधा नहीं हूं, परंतु इसे कोई कहे या नहीं, मैं मनुष्यों की अन्तर्जात आध्यात्मिकता में विश्वास रखता हूं। मैं व्यक्ति की अन्तर्जात गरिमा में विश्वास करता हूं। मैं समझता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति को समान अवसर दिये जाने चाहिये। मैं ऐसे समानता पूर्ण समाज के आदर्श में विश्वास करता हूं मनुष्य और मनुष्य के बीच बहुत अंतर न हो - भले ही इस आदर्श को प्राप्त करना कठिन हो।’
जीवन के प्रति नेहरू का दृष्टिकोण एक किस्म का नैतिक दृष्टिकोण था- डा. राधाकृष्णन इनके मानवतावादी विचार को स्पष्ट करते हुए कहते है ‘एक मानव के रूप में उनके चिंतन में सुकुमारता भावना की अद्वितीय कोमलता और महान एवं उदार प्रवृत्तियों का अदभुत सम्मिश्रण था।’
नेहरू की संपूर्ण दिव्यदृष्टि मानवतावाद की सबल पृष्ठभूमि पर आधारित थी। वे समन्वयवादी थे उन्होंने गांधी और मार्क्स तथा भारतीय सभ्यता और पश्चिमी सभ्यता के श्रेष्ठ सिद्धांतों एवं मूल्यों को मिलाकर एक नवीन भारत का निर्माण करने का प्रयास किया। नेहरू नीति के आधार स्तंभ थे- राष्ट्रीय स्वतंत्रता, प्रजातंत्र, धर्मनिरपेक्षता, योजना विकास एवं समाजवाद विश्व शांति एवं गुटनिरपेक्षता।
विचारधारात्मक दृष्टि से नेहरू के सिद्धांत और व्यवहार में जो भी कमजोरियां रही हों, उन्होंने नयी पीढ़ी के मस्तिष्क को एक प्रगतिशील वैज्ञानिक दिशा प्रदान की।
भारत के आन्तरिक विकास और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में उनका मौलिक चिंतन दृष्टिगत होता है। नेहरू ने स्वदेश और विदेश में शान्ति के लिए प्रयत्न कर ईमानदारी और निष्ठा से काम किया। गुटनिरपेक्षता के नेहरू आद्य प्रतिपादक थे और गुटनिरपेक्षता हमारे देश की विदेश नीति का पर्याय हो गयी।
चेलपति राव के शब्दों में, उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण प्रदान की जैसा कि आगे चलकर उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को भारतीय आदर्शवाद से मंडित किया। भारत में ब्रिटेन से जुझते हुए भी वे हिटलर के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों के संघर्ष का समर्थन करने से नहीं हिचके। इस तरह उन्होंने भारत को संकुचित राष्ट्रीयता से बचा लिया। उन्होंने मिस्र की, इंडोनेशिया की और तमाम एशिया और अफ्रीका की आजादी में दिलचस्पी ली।
इस प्रकार नेहरू आदर्शवादी होते हुए भी यर्थाथवादी की तरह अपने सिद्धान्तों को क्रिया रूप देने में नहीं हिचकिचाये। जब भी उनके मन में मानव कल्याण की कोई भावना पैदा हुई, उसको उसी रूप में क्रियान्वयन करते थे, भले ही इस शक्ति राजनीति का विश्व उनके आदर्शों पर बार-बार प्रहार करता रहा। यह सितारा अपने को एक लोक कल्याणकारी मानवतावादी, राष्ट्रवादी, अंतर्राष्ट्रवादी सिद्ध करने में सफल रहा।
Question : ‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व पवित्र घोषणा मात्र नहीं हैं बल्कि राज्य की नीति के मार्गदर्शन के लिये सुस्पष्ट निर्देश हैं।’ व्याख्या कीजिये और बताइये कि वे व्यवहार में कहां तक लागू किये गये हैं?
(2003)
Answer : भारतीय संविधान में नागरिकों के कर्तव्यों की तरह राज्य को भी कर्त्तव्यों से जोड़ा गया और यह निर्धारित किया गया कि राज्य जब भी कोई कार्य करेगा तो इन कर्त्तव्यों का ध्यान रखेगा, जिसे हम नीति के निदेशक तत्व के नाम से जानते हैं। यह निदेशक सिद्धांत भारतीय संविधान में आयरलैंड के संविधान से लिया गया है, जो अनुच्छेद 36 से 51 में वर्णित हैं। नीति निदेशक तत्वों में वे उद्देश्य एवं लक्ष्य निहित है, जिनका पालन करना राज्य का कर्त्तव्य है। संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ एवं ‘समाजवादी राज्य समाज’ की स्थापना का आदर्श तभी प्राप्त किया जा सकता है जबकि सरकार नीति निदेशक सिद्धांतों को लागू करे।
नीति निदेशक तत्वों में वे आदर्श निहित हैं, जिनका प्रत्येक सरकार अपनी नीतियों के निर्धारण और कानून बनाने में सदैव ध्यान रखेगी। इसमें वे आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक सिद्धांत अंतर्निहित हैं जो भारत की विशिष्ठ परिस्थितियों के अनुकूल है।
डा. अम्बेडकर ने ठीक ही कहा है कि ‘ये भारतीय संविधान की ‘अनोखी विशेषताएं’ हैं। इनमें एक कल्याणकारी राज्य का लक्ष्य निहित है।’ डा. पायली ने इसे भारतीय प्रशासकों के लिए आचरण का सिद्धांत कहा है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि नीति निदेशक सिद्धान्तों का मुख्य उद्देश्यविधान मंडल और कार्यपालिका तथा क्षेत्रीय और अन्य प्राधिकारियों के समक्ष उपलब्धि का एक मानदंड रखना है, जिस पर उनकी सफलता और असफलता की जांच की जा सके। (ये नीति निदेशक सिद्धान्त वाद योग्य नहीं होते हैं। तात्पर्य यह कि कोई भी व्यक्ति निदेशक तत्व को प्राप्त करने हेतु न्यायालय की शरण में नहीं जा सकता)।
नीति निदेशक सिद्धान्तों का वर्गीकरण
निदेशक तत्वों का वर्गीकरण निम्नलिखित हैः
(i)सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत
(ii)प्रशासनिक सिद्धांत
(iii)अंतराष्ट्रीय सिद्धांत
(i) सामाजिक आर्थिक सिद्धांत: संविधान के अनुच्छेद 38, 39, 41, 42, 43, 46 और 47 में सामाजिक एवं आर्थिक सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है। इन सिद्धांतों का मुख्य लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक संबंधों में परिवर्तन लाना, तथा गरीब व पिछड़े लोगों की स्थिति को सुधारना है।
अनुच्छेद 39 के अंतर्गत स्त्री और पुरुषों को आजीविका के समुचित साधन उपलब्ध किये जाने पर बल दिया गया है। अनुच्छेद 39(ब) के द्वारा मौलिक सम्पत्ति के ऐसे प्रबंध पर जोर दिया गया है कि धन के केन्द्रीकरण को रोका जा सके, उत्पादन का समान बंटवारा हो तथा समानता की प्राप्ति की जा सके। अनुच्छेद 39 (अ) के अंतर्गत समान न्याय व मुफ्रत कानूनी सहायता की उपलब्धि पर बल दिया गया है। अनुच्छेद 43 के तहत समान कार्य के लिए समान वेतन की बात कही गयी है।
अनुच्छेद 41 के अंतर्गत काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने पर जोर दिया गया है। अनुच्छेद 45 बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करता है। अनुच्छेद 46 के अंतर्गत अनसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के शैक्षणिक एवं आर्थिक हितों को संरक्षण देना है। अनुच्छेद 47 लोगों के जीवन-स्तर को उपर उठाने एवं लोक स्वास्थ्य के सुधार के लिए समुचित कार्रवाई पर जोर दिया गया है। अनुच्छेद 48, वन्य जीवन, जंगलों की रक्षा व पर्यावरण संरक्षण पर राज्य का ध्यान आकर्षित करता है तथा अनुच्छेद 43 (अ) उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी के महत्व को औचित्य प्रदान करता है।
(ii) प्रशासनिक सिद्धांतः अनुच्छेद 40, 44 और 50 में राज्य की प्रशासनिक नीति परक सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है जिन्हें राज्यों को ध्यान में रखना चाहिये। इन सिद्धांतों पर गांधीवादी विचार परिलक्षित होता है। अनु- 40 में यह कहा गया है कि राज्य पंचायतों का गठन इस प्रकार करें कि वे स्वायतशासी ईकाईयों के रूप में कार्य करने के योग्य बन सके। अनु. 44 के अंतर्गत सभी नागरिकों के लिए ‘एकल नागरिक संहिता’ पर बल दिया गया है। अनु. 50 के अंतर्गत न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने का सुझाव दिया गया है। इसके आलावा अनु. 47 के अनुसार राज्य नशीली वस्तुओं के प्रयोग को, औषधियों के अतिरिक्त विशेष उद्देश्य के लिए रोकने का प्रयास करेगा।
(iii) अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतः भारतीय संविधान के अनु. 51 के अंतर्गत अंतराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा पर बल दिया गया है। इसमें यह कहा गया है कि राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा की उन्नति का प्रयास करेगा, अंतर्राष्ट्रीय संधियों व अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का आदर करेगा तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाये जाने के प्रयास को बढ़ावा देगा। फिर यह प्रश्न उठता है कि मूल अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों में अन्तर क्या है? अंतर निम्नलिखित हैं- मूल अधिकार राज्य को कुछ कार्य करने से रोकते हैं या वे निषेधात्मक हैं जबकि निदेशक तत्व राज्य को कुछ कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं। मूल अधिकार वाद योग्य हैं जबकि निदेशक तत्व वाद योग्य नहीं हैं। मूल अधिकारों का अतिक्रमण होने पर न्यायालय की शरण ली जा सकती है जबकि नीति निदेशक तत्वों में ऐसा नहीं है। मद्रास राज्य चंपकम 1951 के वाद में इस सिद्धांत की पुष्टि भी हुई।
मूल अधिकार व्यक्ति निष्ठ हैं जबकि नीति निदेशक तत्व राज्य द्वारा लागू किया जाता है। मौलिक अधिकार प्रतिबंध युक्त है जबकि निदेशक तत्व इससे मुक्त हैं।
जब मौलिक अधिकार और निदेशक सिद्धान्तों के बीच सर्वोच्चता का प्रश्न न्यायालय में गया, मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के द्वारा, तब न्यायालय ने निदेशक तत्वों को मूल अधिकारों पर प्राथमिकता देने वाले अनुच्छेद 31(2) के प्रयास को दो बार विफल कर दिया और सामंजस्य के सिद्धांत को अपनाते हुए न्यायालय ने इनको एक-दूसरे का पूरक माना तथा 39(ख)(ग) को मूल अधिकारों पर वरीयता प्रदान कर दी। 39 (ख)(ग) के अनुसार समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो, जिसमें सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो तथा आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो।
भारतीय संविधान के अंतर्गत इन नीति निदेशक तत्वों के आलावा 335, 350(क) 351 भी राज्य के लिए निर्देश है। अनुच्छेद 335 राज्य के अधीन सेवा में नियुक्ति के समय अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए प्रावधान करेगी। 350(क) बालकों की शिक्षा प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में तथा 351 संघ का कर्त्तव्य है कि वह हिन्दी भाषा के प्रसार को बढ़ाये तथा उसका विकास करे। ये नीति निदेशक तत्वों के भाग 4 में नहीं होने के बावजूद दलवी बनाम तमिलनाडु राज्य 1976 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे नीति निदेशक तत्व स्वीकार किया।
कार्यपालिका ने नीति निदेशक तत्वों के बहुत सारे प्रावधान जो निम्नलिखित हैं, स्वीकार कर लिए हैं। अनु- 30, 39, 39(क) 40, 43, 45, 46, 48, 49, 51 कार्यपालिका ने अंशतः या पूर्णत स्वीकार कर लिए है, लेकिन अभी भी 44 को प्राप्त नहीं किया जा सका है, उसे प्राप्त करने में आम सहमति तथा इच्छा की कमजोरी कार्यपालिका को विवश करती है।
राज्य के नीति निदेशक तत्व शुरू से ही आलोचना के शिकार रहे लोगों ने इसे अधिकार मानकर कार्यपालिका पर छोड़ना अच्छा नहीं माना। संविधान सभा के एक सदस्य के.टी. शाह ने कहा कि यह एक ऐसा चेक है जिसका भुगतान बैक की सुविधा पर छोड़ दिया गया है। प्रो. जेनिंग्स तर्कसंगत नहीं का आरोप लगाते हैं।
निष्कर्षतः लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना तथा राज्य के द्वारा नागरिकों के हितों में क्या नियम बनाएं जाये, लोगों के लिए किस प्रकार की संरचना हो, इन सारी बातों को नीति निदेशक तत्वों में शामिल कर संविधान एक आदर्श को परिणति करता है और यह अपेक्षा करता है कि कार्यपालिका में किसी भी प्रकार के लोगों का शासन हो, वे नियम बनाते समय इसका अवश्य पालन करेंगे। इसीलिए ये सिद्धांत राज्य के लिए निर्देश है कि सरकार या कार्यपालिका उनको उपेक्षित नहीं करेगी और लोक हित में काम करती रहेगी।
Question : भारतीय राजनीति में प्रमुख दबाव समूहों की पहचान कीजिये और भारत की राजनीति में उनकी भूमिका का परीक्षण कीजिए?
(2003)
Answer : मानव समाज विभिन्न समुदायों से निर्मित समाज है, जिसमें लोग अपने धार्मिक, नैतिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विकास आदि के लिए अलग-अलग समूहों का निर्माण करते हैं। समाज के समूह निर्माण और उनकी अनेकता के दो आधार होते हैं। हितों की एकता तथा हितों की विभिन्नता। एक ही प्रकार के हित रखने वाले व्यक्ति एक समूह में सम्मिलित तथा संगठित होते हैं ताकि सामूहिक प्रयास के द्वारा वे अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल हो सकें। चूंकि समाज में रहने वाले व्यक्तियों के हित एक से नहीं होते उनमें विभिन्नता पायी जाती है, इसलिये उन विभिन्न हितों को विकसित और सुरक्षित रखने के लिए अलग-अलग समूहों का निर्माण स्वभावतः किया जाता है। यदि सभी व्यक्तियों की समस्याएं और हित एक से होते तो समाज में अनेक समुदायों और संगठनों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
विश्वविद्यालय जैसी छोटी-सी संस्था में भी अलग-अलग समस्याएं और हित रखने वाले वर्ग पाये जाते हैं। इसी प्रकार एक ही धर्म को मानने वाले, एक भाषा बोलने वाले, एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले व्यक्ति अलग-अलग समूहों का निर्माण करते हैं। परिणामस्वरूप समाज में अनेक धार्मिक, आर्थिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक आदि प्रकार के संगठन पाये जाते हैं।
वे समूह जो सरकार से कुछ सुविधाएं प्राप्त करने के लिए जो हितों के विरुद्ध हो सरकार पर दबाव डालते हैं, दबाव गुट कहलाते हैं। अध्यापक संघ, श्रमिक संघ, व्यापारिक समूह, धार्मिक समुदाय, नैतिक विकास के लिए बनाये गये समूह इसके उदाहरण हैं। दबाव समूह को लोग अदृश्य सरकार, गुमनाम साम्राज्य आदि के नाम से भी जानते हैं। इन दबाव समूहों का निर्माण स्वतंत्र समाज में ही सर्वाधिक होता है।
भारत में दबाव समूहः भारत में दबाव समूहों का निर्माण स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले ही प्रारंभ हो चुका था। स्वयं कांग्रेस दल की स्थापना 1885 में एक ऐसी संस्था के रूप में हुई थी, जिनका उद्देश्य राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में ब्रिटिश सरकार से अधिकतम सुविधाएं प्राप्त करना था। कलकत्ता में इंडियन लीग तथा गांधीजी द्वारा श्रमिकों तथा कृषकों को संगठित कर उन्हें दबाव समूह का रूप दिया गया। प्रथम विश्व युद्ध के पहले 1890 में ‘द बाम्बे मिल हैंडस एसोसिएशन’ तथा 920 में ट्रेड यूनियन कांग्रेस तथा 1936 में आल इंडिया किसान एसोसिएशन की स्थापना हुई।
स्वतंत्रता के पश्चात भारत में दबाव समूहों की संख्या स्वाभाविक रूप से बढ़ी, जिसका कारण वयस्क मताधिकार, राजनीतिक समानता, सरकार के कार्य क्षेत्र का विस्तार और संविधान द्वारा वाक्, प्रेस तथा समुदाय बनाने की स्वतंत्रता के अधिकारों का दिया जाना था।
प्रायः दबाव समूह सामयिक समस्या के उपज का परिणाम होते हैं। समस्याओं के आधार पर इन्हें निम्नलिखित भागों में बांटा गया हैः
श्रमिक संगठनः गांधीजी के राजनीति में प्रवेश करने के बाद श्रमिक आंदोलन तेजी से आगे बढ़ा क्योंकि गांधीजी ने श्रमिकों को संगठित करके उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया। 31 अक्टूबर, 1920 को राष्ट्रीय स्तर पर एक श्रमिक संगठन ‘आल इंडिया ट्रेड यूनियनों का संघ था। इसके अध्यक्ष लाला लाजपत राय थे। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में यह साम्यवादी सदस्यों द्वारा अधिकार जमा लिए जाने पर कांग्रेस ने 1947 में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की। स्वतंत्रता के पश्चात् राजनीतिक दलों का अपना हक समूहों पर स्थापित करने के दौरान सभी पार्टियों ने अपना एक संगठन बनाया। 1948 में समाजवादी दलों ने हिंद मजदूर सभा, 1950 में यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस का निर्माण साम्यवादी वामपंथी दलों द्वारा किया गया। इसी तरह कम्युनिस्ट पाटी ‘सीटू’ के नाम से एक संगठन बनाया। भारतीय मजदूर संघ भारतीय जनता पार्टी ने स्थापित किया। श्रमिक संगठन अपने उद्देश्य श्रमिकों की स्थिति में सुधार लाना तथा उनके हितों का अधिकतम संरक्षण प्रदान करना घोषित किया। इन उद्देश्यों के साथ ही साथ श्रमिक संगठन अधिक मजदूरी देने के लिए, कार्य के समय को निश्चित तथा निर्धारित करने, परिस्थितियों में सुधार तथा छंटनी से संरक्षण प्राप्त करने आदि हेतु क्रियाशील रहते हैं।
इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु शिक्षा, विधि निर्माण, प्रचार पारस्परिक वार्त्ता, हड़ताल, तालाबंदी का प्रयोग करते हैं।
व्यापारिक हित समूहः भारत में व्यापारिक समूह भी 19 शताब्दी की देन हैं। 1833 के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी के वर्चस्व समाप्त होने के पश्चात ये प्रकाश में आये। 1885 में पहला चैम्बर ऑफ कॉमर्स, 1887 में बंगाल चेम्बर आफ कॉमर्स के नाम से व्यापारिक संगठन का प्रादुर्भाव हुआ। 1907 में बम्बई में इंडियन मर्चेन्ट चैम्बर और 1909 में दि सदर्न इंडियन चैम्बर बना। इस समय भारत में व्यापारिक वर्ग के तीन महत्वपूर्ण संगठन हैंः
(क) एसोसिएटेड चैम्बर्स आफ कामर्स
(ख) फेडेरेशन आफ इंडियन चैम्बर्स आफ कामर्स एण्ड इंडस्ट्री।
(ग) आल इंडिया मैन्युफैक्चर्स आरगेनाईजेशन
ये राजनीतिक दलों के पारस्परिक संबंद्धता से अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। ये राजनीतिक दलों को पैसे देकर (चंदे के रूप में) अपने हित में संसद के भीतर तथा बाहर कार्य करवाने का प्रयास करते हैं। भारत में व्यापारिक वर्ग अपनी मांगों को मनवाने के लिए जिस पद्धति का सर्वाधिक प्रयोग करते हैं, वह मंत्रियों, संसद सदस्यों तथा स्थायी कर्मचारियों से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करना तथा उनसे पत्र व्यवहार के द्वारा अपनी मांगों को सरकार तक पहुंचाना है।
व्यापारिक वर्ग की मांगों को सरकार तक पहुंचाने में प्रेस का कार्य भाग काफी महत्वपूर्ण रहा है, क्योंकि देश के अधिकांश समाचार पत्र बड़े पूंजीपतियों द्वारा चलाया जा रहे हैं।
किसान संगठनः भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और ग्रामीण जनता का 90 प्रतिशत भाग कृषि के द्वारा जीविकोपार्जन करता है। इस दृष्टि से कृषक वर्ग भारत के आर्थिक हितों में सबसे बड़ा वर्ग है, जो अपनी समस्याओं की दृष्टि से बिल्कुल भिन्न है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि इतना बड़ा वर्ग होते हुए भी कृषक वर्ग अब तक संगठित नहीं हो सका।
कृषकों को संगठित करने का प्रयास 19वीं शताब्दी में तब हुआ, जब बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब आदि में कृषक आन्दोलन हुए। 1917 में गांधीजी चंपारण में 1928 में पटेल बारदोली में कृषक लगान विरोध के लिए संगठित हुए लेकिन पहला संगठन 1936 में सहजानन्द के नेतृत्व में आल इंडिया किसान कांग्रेस प्रकाश में आया। लेकिन यह संगठन विभाजित होता रहा। किसान सभा के अतिरिक्त एक यूनाइटेड किसान सभा का भी गठन हुआ था। उत्तर प्रदेश में ‘भारतीय किसान यूनियन’ का गठन चौ- चरण सिंह के नेतृत्व में 1979 में किया गया, किसान संगठनों ने भी अपनी समस्याएं रखी उसमें बिजली बिल, लगान, सिंचाई सुविधा, कृषि भरण, शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी जैसे मूलभूत उद्देश्य प्राप्त करना निहित था। 1979-80 में महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी ने खाद्यान्नों में मूल्य वृद्धि को अपना उद्देश्य घोषित किया।
भारतीय राजनीति में इन दबाव समूहों का प्रभाव दृष्टव्य है। इन दबाव समूहों ने भारत की राजनीति को अपने स्तर पर प्रभावित किया है। श्रमिक संगठन, व्यापारिक संघ तथा किसान आन्दोलनों ने समय-समय पर अपना प्रभाव छोड़ा है।
इन संगठनों में भारत की राजनीति व्यापारिक संघों के द्वारा प्रभावित है क्योंकि इनका तरीका संसद सदस्यों को चुनाव लड़ने हेतु धन की उपलब्धता तथा सशक्त नेतृत्व और प्रेस का साथ होने से राजनीति प्रभावित हुई है। श्रमिक संगठन तो अपने हक प्राप्त हेतु संघर्षशील तो रहते हैं लेकिन एकता भाव की कमी के कारण ये व्यापारिक संघ जैसे रोल अदा नहीं कर पाते। भारतीय राजनीति कुछ दशकों से किसानों के संगठन से प्रभावित होना शुरू हुई है क्योंकि कुछ प्रमुख नेताओं के द्वारा इनकी समस्याओं को सही ढंग से रखना इसका कारण रहा है। इस संगठन में भी एकता की कमी है जिसके कारण यह अपनी मांगों को मनवाने में सरकार से समझौता करती दिखती है।
Question : भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (1947) के सत्ता हस्तांतरण संबंधी प्रमुख अभिलक्षणों का परीक्षण कीजिए। इस अधिनियम ने सर्वोपरिता समाप्त करने के लिए कौन से विशिष्ट प्रावधान किए थे?
(2002)
Answer : मार्च 1947 में लार्ड लुई माउंटबेटन को सत्ता के निर्बाध हस्तांतरण की व्यवस्था करने के लिए नये वायसराय के रूप में भेजा गया। तत्पश्चात माउंटबेटन भारत के विभिन्न परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष पर पहुंचे की कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के लिए न तो अंतरिम सरकार में और न ही संविधान सभा में एक साथ मिलकर काम करना संभव होगा। इसके साथ ही उन्होंने यह निर्णय लिया कि सांप्रदायिक हिंसा और अधिक भयंकर स्थिति में न आ जाये, इसके पहले ही जल्दी-से-जल्दी सत्ता भारतीयों के हाथों में सौंप दी जाये। यह बात पहले से ही स्पष्ट होती जा रही थी कि देश का विभाजन टाला नहीं जा सकता और जबरदस्त उथल-पुथल, अराजकता और गृहयुद्ध से बचने का यही एकमात्र विकल्प है। कांग्रेस भी धीरे-धीरे इस नतीजे पर पहुंचने लगी थी कि देश का विभाजन अवश्यंभावी है। इसके लिए 15 अगस्त, 1947 का दिन निश्चित किया गया।
माउंटबेटन ने विभाजन की योजना तैयार की और ब्रिटेन में विरोधी दलों के नेताओं से विचार-विमर्श करने के बाद 3 जून, 1947 को एक नया नीति विषयक बयान जारी किया गया। इस बयान के अंतर्गत देश के विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया। इसके अनुसार वर्तमान संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान को अनिच्छुक क्षेत्रों पर थोपा नहीं जा सकता था। अतः ऐसे क्षेत्रों की इच्छाओं को पता लगाने के लिए कि क्या वे पृथक संविधान सभा चाहते है, एक प्रक्रिया निर्धारित की गई। सम्पूर्ण योजना के तहत वास्तविक परिणाम के रूप में भारत का विभाजन भारत तथा पाकिस्तान के रूप में कर दिया गया। यह संपूर्ण योजना भारतीय स्वतंत्रता एक्ट, 1947 कहलाती है। इस अधिनियम की प्रमुख बातें इस प्रकार हैंः
अतः भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार, 14-15 अगस्त को भारत तथा पाकिस्तान की दो डोमिनियनों का गठन हो गया। पाकिस्तान ने 14 अगस्त, 1947 एवं भारत ने 15 अगस्त, 1947 को अपनी स्वतंत्रता घोषित की। जहां तक इस अधिनियम के द्वारा सर्वोपरिता समाप्त करने की बात है तो यह चर्चा भारत के अंतर्गत विभाजित रियासतों एवं प्रांतों के अधिकार क्षेत्र से संबंधित प्रमुख प्रावधान का है।
साथ ही, इस अधिनियम के द्वारा यह भी प्रावधान किया गया कि नये संविधान बनने और लागू होने तक यही संविधान सभाएं ही विधान सभाओं के रूप में कार्य करेंगी और 1935 के अधिनियम के अनुसार कार्य चलेगा। प्रत्येक प्रदेश को 31 मार्च, 1948 तक गवर्नर जनरल द्वारा पारित एक्ट से इस अधिनियम में परिवर्तन करने का अधिकार दिया गया और उसके उपरान्त वहां की संविधान सभा को यह अधिकार प्राप्त होगा। इस अधिनियम की सबसे प्रमुख बात यह है कि ब्रिटिश क्राउन का भारतीय रियासतों पर प्रभुत्व भी समाप्त हो गया और 15 अगस्त, 1947 को सभी संधियों और समझौते समाप्त माने जायेंगे, ऐसी घोषणा की गयी। परंतु जब तक कि इन नए प्रदेशों और रियासतों के बीच एक नए समझौते नहीं, होंगे उस समय तक तत्कालीन समझौते चलते रहेंगे। भारत राज्य सचिव का पद समाप्त हो गया और उसका कार्य राष्ट्र मण्डलीय मामलों के सचिव को दे दिया गया। शक्ति के हस्तांतरण की निशानी के रूप में अंग्रेज सम्राट के नाम के साथ संलग्न ‘भारत के सम्राट’ शब्द समाप्त कर दिया गया। दोनों राष्ट्रों को राष्ट्रमंडल को छोड़ने की भी अनुमति थी। यद्यपि इस अधिनियम से भारत में लगभग दो सौ साल पुराना अंग्रेजी राज्य समाप्त हो गया परंतु ब्रिटिश संसद ने इस विधेयक को भारत के लिए पारित सभी विधायकों में सबसे ‘महान और उत्तम’ कहा है।
Question : साधारणतया यह समझा जाता है कि केंद्रीकृत आयोजना की प्रणाली में संघवाद क्षींण हो जाता है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? क्या 1991 से प्रारंभ उदारीकरण के संदर्भ में आप भारत के लिए ‘विकेंद्रित शासन’ की पैरवी करेंगे।
(2002)
Answer : सरकार, केंद्र सरकार एवं उसके विभिन्न अवयवों के मध्य संबंधों के आधार एकात्मक एवं संघीय प्रकारों में विभाजित हैं। एकात्मक पद्धति के अंतर्गत सभी शक्तियां केंद्र के द्वारा नियंत्रित एवं निर्देशित होती हैं, परंतु भारत का संघ ‘राज्यों का समूह’ के रूप में परिभाषित किया जाता है। भारतीय संघ विभिन्न इकाइयों का एक समझौता नहीं है एवं इसके अवयवों को केंद्र से विभिन्न आयामों में स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। जैसे- भारत में केंद्र एवं राज्य के लिए एक ही संविधान है एवं यहां के व्यक्तियों को एकल नागरिकता प्राप्त है। फिर भी, केंद्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन स्पष्ट तौर पर किया गया है। संविधान के भाग 11 में शक्तियों के वितरण तथा संघ और राज्यों के बीच संबंधों का विस्तृत उपबंध हैं। संघीय सूची में 99, राज्य सूची में 61 तथा समवर्ती सूची में 52 विषय रखे गये हैं।
संघीय सूची पर विधान बनाने का अधिकार केन्द्रीय व्यवस्थापिका (संसद) को है, राज्य सूची पर विधान बनाने का अधिकार राज्य-विधान मंडल को है तथा समवर्ती सूची पर विधान बनाने का अधिकार केंद्र तथा राज्य दोनों को है। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन भारतीय संविधान में किसी अन्य संविधान की अपेक्षा अधिक सूक्ष्मता तथा विस्तार से किया है। संविधान के भाग 11 के प्रथम अध्याय में विधायी शक्तियों का विभाजन किया गया है द्वितीय अध्याय में प्रशासनिक शक्तियों का विभाजन किया गया है। तथा तृतीय अध्याय में वित्तीय शक्तियों का विभाजन किया गया है।
यद्यपि केंद्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है, परंतु भारत में संविधान संशोधन का अधिकार केवल संसद को प्रदान किया गया है जो संघ और राज्य पर समान रूप से लागू होता है। दूसरी बात यह है कि आपातकाल की स्थिति में राज्यों की शक्तियों का हनन कर एकात्मक शासन स्थापित किया जाता है। भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 352, 356 तथा अनुच्छेद 360 तथा कुछ हद तक अनुच्छेद 365 के प्रावधानों के तहत राष्ट्रपति को राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने का अधिकार है। तीसरी बात यह है कि आर्थिक क्षेत्र में भारतीय संविधान के तहत राज्यों को केंद्र सरकार के अधीन रहना पड़ता है। आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भरता के अभाव में ही राज्यों की स्वायत्तता औपाचारिक मात्र है। चौथी बात यह है कि शक्तियों के विभाजन में अधिकांश महत्वपूर्ण विषय केंद्रीय सूची में रखे गये हैं और दूसरे समवर्ती सूची पर भी कानून बनाने का प्रमुख अधिकार केंद्र के दिया गया हैं। पांचवीं, भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 248 (1) के उपबंध के तहत अवशिष्ट शक्तियां केंद्र को प्रदान की हैं। वास्तव में, यह अमरीकी संविधान के विपरीत है, क्योंकि अमरीका में अवशिष्ट शक्तियां राज्यों को प्रदान की गई हैं। अनुच्छेद 356 के प्रावधानों के तहत संसद को राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार सौंपा गया हैं। छठा तथ्य यह है कि राज्य विधान मंडलों को राज्य सूची पर कानून बनाने की शक्ति भी सीमित ही है। संविधान के अनुच्छेद 304 के उपखंड (ख) में यह प्रावधान है कि कुछ विधेयकों के सन्दर्भ में राष्ट्रपति की पूर्वानुमति आवश्यक है।
उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि केन्द्रीकृत आयोजन की प्रणाली में संघवाद क्षींण हो जाता है, परंतु इस तथ्य से यह पूर्णतः नहीं कहा जा सकता है कि भारत में संघवाद क्षींण हो गया है। अगर हम प्रशासकीय संबंधों के बारे में बात करें तो केंद्र और राज्य सरकारों के बीच प्रशासकीय शक्तियों का विभाजन ‘भारत शासन अधिनियम, 1935’ के आधार पर किया गया है। भारतीय संविधान ने कर निर्धारण और उसकी वसूली से प्राप्त आय के विभाजन का सूक्ष्म एवं विशद विवेचन किया है, जिसके अंतर्गत राज्यों के अधिकार क्षेत्र में 19 प्रकार के राजस्व स्रोत तथा संघ के अधिकार क्षेत्र में 12 प्रकार के राजस्व स्रोत रखे गये हैं। फिर भी इस सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता है कि केन्द्र का राज्य पर अधिकार सभी क्षेत्रों में रहता ही है। जैसे- बहुत सी परिस्थितियों में केंद्र सरकार के द्वारा भेदभाव किया जाता रहा है। अगर केन्द्र सरकार एवं राज्य में एक ही राजनीतिक पार्टी का शासन नहीं हो तो यह हमेशा से एक असामंजस्य एवं भेद-भाव पूर्ण रवैया से अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। हम विभिन्न समयों में यह देख चुके हैं कि राज्य की आपातकालीन स्थिति के लिए प्रावधान अनुच्छेद 356 का किस प्रकार से दुरुपयोग होता रहा है। साथ ही, विभिन्न प्रकार की समस्याओं की स्थिति में, जैसे- अकाल एवं बाढ़ तथा भूकंप की स्थिति में भी केंद्र सरकार द्वारा भेदभाव किया जाता है।
जहां तक 1991 से प्रारंभ उदारीकरण की बात है, तो विकेन्द्रित शासन पर विचार करना एवं लागू करना काफी महत्वपूर्ण एवं उपयोगी रहा है। वास्तव में, उदारीकरण की नीति भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक आर्थिक संकट उत्पन्न होने का परिणाम है। उदारीकरण के फलस्वरूप सभी राज्यों के लोग एक-दूसरे के साथ बिना किसी भेदभाव एवं रोक-टोक के अपनी कार्यप्रणाली को अंजाम दे सकते हैं। विकेंद्रित शासन के अंतर्गत हम वास्तव में पंचायती राज की बात करते हैं। पंचायती राज के अंतर्गत हम पंचायत, ब्लॉक एवं नगरपालिका की बात करते हैं और हम यह भी आशा करते हैं कि अगर भारत का विकास करना है तो हमें गांवों की ओर मुड़कर देखना होगा एवं इसका केंद्रीय शासन से स्वतंत्र होना आवश्यक है। इसके बारे में यह कहा जा सकता है कि किसी भी स्थान के बारे में वहां के स्थानीय लोग अच्छी तरह वाकिफ होते हैं और उन्हें इस विकास के क्षेत्र में स्वतंत्र होकर कार्य करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। आज की स्थिति में उदारीकरण की अवधारणा को वृहत परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्कता है, जिससे कि यहां के नागरिक बिना किसी भेद-भाव के एक-दूसरे राज्यों के प्रति अपना विकास का दृष्टिकोण स्पष्ट कर सकें और यह तभी हो सकता है, जब हम अपनी सामाजिक संरचना के विभिन्न आयामों को समझने की कोशिश करें। विकेन्द्रित शासन वास्तव में स्थानीय लोगों को एक वृहत क्षेत्र प्रदान करता है, जिसके द्वारा भारतीय उदारीकरण की अवधारणा की पुष्टि की जा सकती है, परंतु निजीकरण की बात हमारे लिए घातक सिद्ध हो सकती है। उदारीकरण के द्वारा हम गांव एवं कस्बों के लोगों के लिए विकेन्द्रित शासन के द्वारा एक वृहत प्लेटफार्म तैयार कर सकते हैं जिसमें प्रत्येक नागरिकों की समान रूप से भागीदारी है, अतः विभिन्न परिस्थितियों को समझकर सही समय में प्रावधानों का सही क्रियान्वयन करने की काफी आवश्यकता है।
Question : भारत के संविधान के तिहत्तरवें और चौहत्तरवें संशोधनों के साझे और अनन्य अभिलक्षणों को बतलाइए। क्या आप समझते हैं कि यह दोनों संशोधन तृणमूल-स्तर पर ‘स्त्री- पुरुष’ और ‘सामाजिक न्याय’ स्थापित करने में सहायक होंगे।
(2002)
Answer : स्वतंत्रता के बाद सरकार ने ग्राम पुनर्निर्माण योजना को प्राथमिकता देने के लिए उसे अपनी हाथों में ले लिया। वास्तव में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में पंचायती राज के उद्भव और विकास में अनेक कारकों की भूमिका महत्वपूर्ण थी, जिनमें प्रमुख हैं- गांधीजी की शिक्षाएं, राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत, पंचवर्षीय योजना के तहत जनभागीदारी पर बल और सामुदायिक विकास कार्यक्रम।
बलवंत राय मेहता समिति ने पंचायती राज के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था का सुझाव दिया, जो इस प्रकार है- ग्राम पंचायत, ग्राम स्तर पर पंचायत समिति, प्रखंड स्तर पर तथा जिला परिषद, जिला स्तर पर। बलवंत राय मेहता समिति की सिपफ़ारिशों के तहत राजस्थान के नागौर में 2 अक्टूबर, 1959 को जवाहरलाल नेहरू ने पंचायती राज का उद्घाटन किया। उसके बाद देश के अन्य राज्यों में भी पंचायती राज को लागू किया गया। पुनः पंचायती राज की असफलता के बाद 1977 में अशोक मेहता समिति गठित की गयी। अंततोगत्वा 1986 में एल-एम- सिंघवी समिति ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की एवं संविधान के अनुच्छेद 40 के रूप में एक निर्देश समाविष्ट किया गया ‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा, जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य योग्य के लिए आवश्यक हों।’ इस दृष्टि से पंचायत को अधिक सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। 25 अप्रैल, 1993 से 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1993 लागू किया गया है। साथ ही, 74वां संविधान संशोधन 1 जून, 1993 को लागू किया गया। इससे नगरीय क्षेत्र में स्थानीय स्वायत्त शासन की इकाइयों को संवैधानिक आधार प्रदान किया गया। ये संस्थाएं सम्पूर्ण देश में विद्यमान हैं। इस भाग में दो निकाय हैं-स्वायत्तशासन की संस्थाएं (अनुच्छेद 243 घ) और योजना संस्थाएं (अनुच्छेउ 243 य, भ और अनुच्छेद 243 य, ड.)।
भारत के संविधान के तिहत्तरवें और चौहत्तरवें संशोधनों के साझे और अनन्य अभिलक्षण निम्नलिखित हैं:
73वें संविधान संशोधन के अंतर्गत पंचायती राज के भाग 9 में तीन सोपान हैंः (क) ग्राम पंचायत, ग्राम स्तर पर, (ख) जिला स्तर पर जिला पंचायत और (ग) अंतर्वती पंचायत, जो ग्राम और जिला पंचायतों की बीच होगी। स्वायत्त शासन 74वें संविधान संशोधन के अंतर्गत संस्थाओं को ‘नगरपालिका’ कहा गया है, जो तीन हैं- (i) नगर पंचायत, ऐसे क्षेत्र के लिए जो ग्रामीण क्षेत्र से नगर क्षेत्र में परिवर्तित हो रहा है, (ii) नगर परिषद, छोटे नगर क्षेत्र के लिए और (iii) नगर निगम, बड़े नगर क्षेत्र के लिए।
पंचायतों का निर्माण प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या के आधार पर किया जाता है एवं पंचायतों के सदस्यों का चुनाव साधारणतः प्रत्यक्ष निर्वाचन के द्वारा होता है। अनुच्छेद 243 (ट) में पंचायतों के लिए राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का उपबंध है। नगरपालिकाओं के सदस्य साधारणतः प्रत्यक्ष निर्वाचन के द्वारा निर्वाचित होते हैं। अनुच्छेद 243 (घ) के अधीन गठित वार्ड, समितियों के अध्यक्ष का प्रावधान है एवं अध्यक्षों का निर्वाचन विधानमंडल द्वारा उपबंधित रीति से होता है। नगरपालिका का भी निर्माण जनसंख्या के आधार पर किया जाता है।
पंचायत में अनुच्छेद 243 (घ) में यह उपबंध है कि (क) अनुसूचित जातियों और (ख) अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण होगा। आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा। इस प्रकार के आरक्षित स्थानों में से 1/3 स्थान अनुसूचित जातियों और जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। राज्य, विधि द्वारा, ग्राम और अन्य स्तरों पर पंचायत के अध्यक्ष के पदों के लिए आरक्षण कर सकेगा।
पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा। किसी पंचायत के गठन के लिए निर्वाचन 5 वर्ष की अवधि के पूर्व और विघटन की तिथि से 6 माह की अवधि के अवसान से पूर्व करा लिया जायेगा। उसी प्रकार, नगरपालिका अपने पहले अधिवेशन की तारीख से 5 वर्ष तक विद्यमान रहेगी। अनुच्छेद 243 (थ) में यह विहित है कि विघटन के पहले नगरपालिका को सुनवाई का अवसर दिया जायेगा। राज्य के राज्यपाल 73वें संशोधन के प्रारम्भ से एक वर्ष के भीतर और उसके बाद प्रत्येक 5 वर्ष के अवसान पर पंचायतों की वित्तीय स्थिति का पुनर्निरीक्षण करने के लिए एक वित्त आयोग का गठन करेगा। अनुच्छेद 243 (फ) के अधीन नियुक्त वित्त आयोग नगरपालिकाओं की वित्तीय आयोग का पुनर्विलोकन करेगा।
11वीं अनुसूची में 29 विषय हैं जिन पर पंचायतें विधि बनाकर उन कार्यो को कर सकेंगी। ये हैं- कृषि तथा कृषि में विस्तार, भू-सुधार तथा भूसंरक्षण (मृदा-संरक्षण), लघु सिंचाई, जल-प्रबंध, पशुपालन, दुग्ध उद्योग, वन संबंधी, मत्स्य पालन उद्योग, लघु-उद्योग, ग्रामीण विकास, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा, तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा, वयस्क शिक्षा एवं अनौपचारिक शिक्षा, सांस्कृतिक कार्यकलाप, परिवार कल्याण, महिला एवं बाल विकास, समाज कल्याण, पिछड़े वर्गों का विकास एवं संरक्षण तथा जनवितरण प्रणाली इत्यादि।
पंचायती राज एवं नगरपालिका से संबंधित 73वें एवं 74वें संविधान संशोधनों के लागू होने पर वास्तव में विभिन्न क्षेत्रों में विकास एवं विकास कार्यों में भाग लेने वाले की चेतना में वृद्धि होगी, परंतु जहां तक ‘स्त्री-पुरुष’ और ‘सामाजिक-न्याय’ स्थापित करने की बात है, कुछ हद तक उनमें यह सहायक होगा। इन संविधान संशोधनों के अंतर्गत महिलाओं को आरक्षण मिला है, जिसके फलस्वरूप इस विकेन्द्रित शासन ‘प्रणाली में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगी और महिलाओं से संबंधित समस्याओं पर अधिक ध्यान देंगी। साथ ही इससे जिससे स्त्री-पुरूष की समान सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक संबंधों में बढ़ावा मिलेगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे एक बहिष्कृत वर्ग को मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास सफल होने की संभावना है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय सामाजिक संरचना के अंतर्गत स्त्रियों को हमेशा से ही मुख्यधारा से अलग-थलग रखा गया है, क्योंकि यहां की संरचना पैतृक प्रणाली के द्वारा नियंत्रित है। जहां तक सामाजिक न्याय की बात है तो हम जानते हैं कि इस संशोधन के अंतर्गत विभिन्न समाज के वर्गों को आरक्षण मिला है, चाहे वो अनुसूचित जाति हो या अनुसचित जनजाति या फिर अल्पसंख्यक एवं महिलायें। अतः भारतीय समाज के इन विभिन्न घटकों को इस अधिनियम के द्वारा स्वीकृत करने का प्रयास सफल होगा तथा सभी वर्गों के लोग परस्पर मिल जुलकर कार्य कर एक विकसित भारत का निर्माण करेंगे। हमारे देश में हमेशा से ही एक विशेष वर्ग, जाति, एवं धर्म का प्रभुत्व रहा है, परंतु इस अधिनियम के द्वारा सभी बहिष्कृत वर्गों को एक सुनहरा अवसर मिलेगा एवं वे लोग अपनी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर समूची व्यवस्था को एक जैसी बनाने की कोशिश करेंगे। इस प्रकार से भारत के संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन ‘स्त्री-पुरूष समानता’ एवं ‘सामाजिक न्याय’ स्थापित करने में काफी सहायक होंगे।
Question : मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के अन्तर्गत ‘द्वैध शासन’।
(2002)
Answer : 1919 के एक्ट से सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रांतीय प्रशासन में आया। प्रांतों में द्वैध प्रशासनिक आरंभ की गयी। इससे प्रान्तीय विषयों को दो भागों में बांट दिया गया- आरक्षित तथा हस्तांतरित विषय। आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर अपने उन पार्षदों की सहायता से करता था, जिन्हें वह मनोनीत करता था और वे विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन गवर्नर उन मंत्रियों की सहायता से करता था जिन्हें वह निर्वाचित सदस्यों में से नियुक्त करता था। ये लोग सदन के प्रति उत्तरदायी थे परंतु वे गर्वनर की इच्छा पर ही पदों पर बने रह सकते थे। सपरिषद राज्य सचिव तथा सपरिषद गवर्नर जनरल को इन विषयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार बहुत सीमित था। परंतु आरक्षित विषयों में यह अधिकार पूर्णरूपेण बना रहा।
आरिक्षत विषय के अंतर्गत वित्त, भूमिकर, अकाल सहायता, न्याय, पुलिस, पेंशन, आपराधिक जातियां, छापाखाने, समाचार-पत्र, सिंचाई तथा जलमार्ग, खानें, कारखाने, बिजली, गैस, ब्वायलर, श्रमिक कल्याण, औद्योगिक झगड़े, मोटरगाडि़यां, छोटे बंदरगाह, अपवर्जित क्षेत्र और सार्वजनिक सेवाएं थीं। हस्तान्तरित सूची में शिक्षा, पुस्तकालय, संग्रहालय, स्थानीय स्वायत्त शासन, चिकित्सा सहायता, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा स्वच्छता, कृषि, सहकारी समितियां, पशु चिकित्सा विभाग, मत्स्य पालन, सार्वजनिक निर्माण विभाग, आबकारी, उद्योग, तौल और माप, सार्वजनिक मनोरंजन पर नियंत्रण, धार्मिक तथा अग्रहार दान इत्यादि थे जिन पर मंत्री लोग गर्वनर को परामर्श देते थे।
द्वैध शासन प्रणाली के फलस्वरूप प्रान्तीय विधान मण्डलों में भी परिवर्तन हुए। प्रांतीय परिषदों का नाम विधान परिषदों में रूपान्तरित कर दिया गया तथा उसके अधिकार क्षेत्रों में भी वृद्धि की गयी जो कि सभी प्रान्तों में भिन्न-भिन्न था। इन प्रांतीय परिषदों में कम से कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित होते थे। प्रान्तीय विधान परिषदों का चुनाव सीधे होता था एवं इसके सदस्यों को बोलने का अधिकार तथा स्वतंत्रता थी, परंतु सदस्य बजट को अस्वीकार भी कर सकते थे। यद्यपि गवर्नर चाहे तो वे उनकी अनुमति के बिना भी पारित कर सकता था।
यह द्वैध शासन प्रणाली पहली अप्रैल 1921 को आरंभ की गयी जो पहली अप्रैल 1937 तक चलती रही।
Question : भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक
(2002)
Answer : प्रशासन का वित्तीय नियंत्रण संसदीय लोकतंत्र का कवच है और वित्तीय नियंत्रण के लिए एक स्वतंत्र लेखा परीक्षा विभाग है। भारतीय संविधान के अंतर्गत एक नियंत्रक महालेखा परीक्षक का प्रावधान है। इसकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। वर्तमान कार्यपालिका से इस पद की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया जा सके, इसके लिए उपबंध किया गया है कि नियंत्रक महालेखा परीक्षक को उसके पद से तभी हटाया जा सकेगा, जब सिद्ध कदाचार या असमर्थता के आधार पर संसद के प्रत्येक सदन द्वारा, उस सदन की कुल संख्या के बहुमत द्वारा तथा उस सदन के उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित समावेदन राष्ट्रपति के समक्ष उसी रीति से प्रस्तुत किया जाए जो अनुच्छेद 124 (4) के अधीन उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों पर लागू होती है। इसके अलावा, नियंत्रक महालेखा परीक्षक भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन किसी और पद का पात्र नहीं होगा। उसका वेतन संसद के विधि के द्वारा निर्धारित होता है। अनुच्छेद 148 के अनुसार नियंत्रक महालेखा परीक्षक के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय भारत की संचित निधि पर भारित होंगे।
संघ तथा राज्यों को किस रूप में रखा जाए, इसका निर्धारण राष्ट्रपति नियंत्रक महालेखा परीक्षक की सलाह से करता है। अनुच्छेद 149 तथा 150 के अंतर्गत संघ तथा राज्यों के लेखाओं के बारे में नियंत्रक महालेखा परीक्षक के कर्त्तव्यों तथा शक्तियों के निर्धारण का काम संसद पर आश्रित है। लेकिन अनुच्छेद 151 में विनिर्दिष्ट रूप से उपबंध किया गया है कि संघ के लेखाओं से संबंधित प्रतिवेदनों को नियंत्रक महालेखा परीक्षक राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करेगा और राष्ट्रपति उन्हें संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखवाएगा। इसी प्रकार राज्यों के लेखाओं से संबंधित प्रतिवेदनों को संबद्ध राज्यों के राज्यपालों के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।
Question : उत्तर-पूर्व में जनजातीय लोगों का आंदोलन
(2002)
Answer : स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार नागा क्षेत्र को असम राज्य के साथ एकीकृत करना चाहती थी, परंतु नागा जनजाति का एक भाग ए.जे. पीजो के नेतृत्व में भारत से अलग स्वतंत्र राज्य की मांग करने लगे, जिसे कुछ ब्रिटिश अधिकारियों एवं मिशनरियों ने भी उत्साहित किया। अंत में 1955 में नागा के एक अलगाववादी गुट ने हिंसात्मक कार्यवाही के पश्चात् स्वयं स्वतंत्र सरकार का निर्माण कर लिया। नेहरू ने बहुत से तरीकों जैसे बल प्रयोग इत्यादि का सहारा लेकर देखा। उन्होंने नागा जनजाति के लोगों से सहयोगात्मक एवं दोस्ताना संबंधों के साथ वहां की समस्या को हल करने का प्रयास किया। अंततोगत्वा डॉ. इंकोंगलिबा आओ के एक नागा नेता के नेतृत्व में 1957 में समझौते के तहत 1963 में नागालैंड उदय हुआ। इसके बाद भी नागालैण्ड में चीन, पाकिस्तान एवं बर्मा के द्वारा प्रशिक्षित नागाओं ने अभी भी हिंसात्मक आंदोलन जारी रखा है जिसे गोरिल्ला युद्ध कहा जाता है।
मिजोरम की स्थिति भी कुछ नागालैण्ड की तरह ही है। 1959 के मिजोरम में अकाल एवं 1961 में असमी को एक अधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकर करने से मिजोरम के जनजाति के लोगों में काफी असंतोष उभरा जिसके फलस्वरूप लाल डेंगा के नेतृत्व में मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) कागठन हुआ। पुनः MNF के लोगों द्वारा एक मिलिटरी विंग ने पाकिस्तान एवं चीन के सहयोग से प्रशिक्षण प्राप्त किया एवं मार्च 1966 में भारत से स्वतंत्र देश घोषित कर डाला। परंतु सरकार के द्वारा इसे नियंत्रित कर लिया गया एवं एक समझौते के तहत 1973 में मिजोरम एक केंद्रशासित राज्य बनकर सामने आया। अंततोगत्वा 1986 में चरमपंथियों लाल डेंगा के नेतृत्व में समर्पण कर दिया एवं भारत सरकार ने समझौता के तहत फरवरी 1987 को मिजोरम को एक संपूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया, जिसमें लाल डेंगा को मुख्य मंत्री बनाया गया। हालांकि अब इस क्षेत्र में शांति है परंतु नागालैंड का आंदोलन अब भी सक्रिय है।
Question : नवीन आर्थिक नीति (1991)
(2002)
Answer : 1990 का दशक अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय संकट के लिए जाना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की स्थिति में परिवर्तन होने के कारण खाड़ी से संबंधित देशों में आर्थिक संकट बढ़ गया था, जिसके फलस्वरूप हम खाड़ी देशों के साथ निर्यात की स्थिति खो चुके थे। साथ ही विदेशी मुद्रा के आवागमन में भी काफी गिरावटें आयी थीं, जिसके फलस्वरूप हमें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। वास्तव में इस प्रकार की संकट की स्थिति भारत के आर्थिक इतिहास में पहली बार हुई थी। अतः सरकार को बहुत सारे सूक्ष्म एवं वृहत आर्थिक स्थिरता के लिए उपाय करने पड़े थे। इसके अंतर्गत सारे आर्थिक क्षेत्र पर ध्यान दिया गया था। इसके अंतर्गत मौद्रिक नीति में परिवर्तन, मौद्रिक नीति, विनिमय दर नीति एवं आंतरिक तथा बाहरी तौर पर आर्थिक स्थिरता से संबंधित नीतियां बनायी गयीं।
इसके अतिरिक्त संरचनात्मक व्यवस्थितकार्यक्रम (Structural Adjustment Programme) के द्वारा व्यापार नीति, उद्योग नीति, पब्लिक सेक्टर नीति, प्रशासनिक मूल्य नीति, टेरिफ नीति तथा बाजार से संबंधित नीतियों का क्रियान्वयन किया गया। इन सारी बातों के अलावा 1991 में एक महत्वपूर्ण नीति उभरकर आयी एवं यह लाइसेन्स, कोटा एवं परमिट के स्थानांतरण का दिखाती है जिसे LPG रेजिम कहते हैं। अर्थात् Liberalization (उदारीकरण), Privatisation (निजीकरण) एवं Globiazation (भूमंडलीकरण)। LPG के आधार पर सूक्ष्म आर्थिक क्षेत्रों के सुधार के उपाय किये गये थे।
उदारीकरण के तहत भारत के तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जुलाई-अगस्त 1991 एवं बाद में 1993 में एक नयी औद्योगिक नीति का निर्माण किया, जिसके तहत कुछ तथ्य इस प्रकार थेः
Question : भारत के संविधान के निर्माण पर राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव का आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
(2001)
Answer : मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट पर आधारित शासन एक्ट के 1919 में इस बात का स्पष्ट कर देने का प्रयास किया गया था कि अंग्रेज शासक भारतीयों के जिम्मेदार सरकार के ध्येय की पूर्ति तक केवल धीरे-धीरे पहुंचने के आधार पर स्वशासी संस्थानों के क्रमिक विकास को मानने के लिए तैयार हैं। संवैधानिक प्रगति के प्रत्येक चरण के समय, ढंग तथा गति का निर्धारण केवल ब्रिटिश संसद करेगी और यह भारत की जनता के किसी आत्मनिर्णय पर आधारित नहीं होगा। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था और आम लोगों के मन में अनेक आशाएं थीं। किंतु उनके हाथ लगे दमनकारी विशेष विधायी प्रस्ताव जिन्हें रौलेट बिल कहा गया। भारतीय जनमत का व्यापक और जबरदस्त विरोध होने पर भी उन्हें पास कर दिया। इसके परिणामस्वरूप गांधी के नेतृत्व में स्वराज के लिए सत्याग्रह, असहयोग और खिलाफत आंदोलन शुरू किये गये।
सरकार ने संवैधानिक सुधारों पर विचार करने के लिए नवंबर, 1930 में लंदन में एक गोलमेज सम्मेलन बुलाने का निर्णय किया। इसके बाद ऐसे दो आंदोलन शुरू किये गये। 1993 में एक श्वेतपत्र प्रकाशित किया। उसमें एक नये संविधान की रूपरेखा दी गयी। ब्रिटिश संसद ने श्वेत पत्र में सम्मलित सरकार की योजना पर आगे विचार करने के लिए दोनों सदनों की एक संयुक्त समिति का गठन किया। लार्ड लिनलिथगो संयुक्त समिति के अध्यक्ष थे और इसमें कंजर्वेटिव सदस्यों की बहुमत थी। संयुक्त समिति ने नवंबर 1934 में अपना रिपोर्ट दिया। इसमें इस बात को दोहराया गया था कि फेडरेशन की स्थापना तभी की जायेगी यदि कम से कम 50 प्रतिशत ऐसी रियासयतें इसमें शामिल होने के लिए तैयार हो जाएं।
इस रिपोर्ट के आधार पर एक विधेयक तैयार किया गया और वह 19 दिसंबर, 1934 को ब्रिटिश संसद में पेश किया गया। जब दोनों सदनों ने इसे पेश कर दिया तथा 4 अगस्त, 1935 को उसे सम्राट ने अनुमति दी, तो वह भारत शासन एक्ट 1935 बन गया। 1935 के एक्ट में पहली बार ऐसी संघीय प्रणाली का उपबंध किया गया जिसमें न केवल ब्रिटिश भारत के गवर्नरों के प्रांत बल्कि, चीफ कमिश्नरों के प्रांत तथा देसी रियासत भी शामिल थे। 1919 के संविधान का सिद्धांत विकेंद्रीकरण का था, न कि फेडरेशन का। भारत शासन एक्ट 1935 के अधीन संवैधानिक योजना का संघीय भाग अत्यधिक अव्यवहारिक था। प्रांतों ने फेडरेशन की योजना को स्वीकार नहीं किया क्योंकि आधी रियासतों के फेडरेशन में सम्मिलित होने की शर्त को पूरा नहीं किया जा सकता। इसलिए 1935 के एक्ट में परिकल्पित ‘भारत संघ’ अस्तित्व में नहीं आ पाया और एक्ट के संघीय भाग को कार्यान्वित नहीं किया जा सका।
भारत के संवैधानिक इतिहास में शासन एक्ट 1935 का एक बहुत महत्वपूर्ण तथा स्थायी स्थान है। इस एक्ट के द्वारा देश को एक लिखित संविधान देने का प्रयास किया गया था। क्रिप्स मिशन जिस समय द्वितीय विश्व युद्ध एक निर्णायक दौर से गुजर रहा था उस समय यह अनुभव किया गया कि भारतीय जनमत का स्वेच्छा से दिया गया सहयोग अधिक मूल्यवान होगा। मार्च 1942 में कैबिनेट मंत्री सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को भारत भेजा गया। किंतु क्रिप्स मिशन अपने उद्देश्य में असफल रहा। उसके प्रस्तावों को सभी राजनीतिक दलों ने ठुकरा दिया। भले ही उनके आधार पर अलग-अलग थे। प्रस्तावों में मान लिया गया था कि भारत का दर्जा डोमिनियन का होगा और युद्ध के बाद भारतीयों को अधिकार होगा कि वे अपना संविधान बना सकेंगे।
जुलाई 1942 में वर्धा में कांग्रेस कार्यकारिणी ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें मांग की गयी थी कि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जायें। 8 अगस्त, 1942 को बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। कमेटी के समक्ष भाषण देते हुए गांधी जी ने घोषणा की कि यह ‘करो या मरो’ का निर्णय है। इसी दौरान लिनलिथगो के स्थान पर लार्ड वेवल वाइसराय बन गये। वेवेल योजना में कहा गया था कि जब तक भारतीय स्वंय अपना संविधान नहीं लेते तब तक अंतरिम व्यवस्थाके रूप में अधिशासी परिषद का भारतीयकरण कर दिया जायेगा।
पाकिस्तान को एक पृथक प्रभुत्वसंपन्न राज्य बनाये जाने की मांग को मिशन में अव्यवहार कहा और इसे अस्वीकार कर दिया। क्योंकि उसके अनुसार पाकिस्तान में काफी बड़ी तादात में गैर मुस्लिम होंगे और मुसलमानों को बहुत बड़ी आबादी पाकिस्तान से बाहर भारत में रह जायेगी।
कैबिनेट मिशन ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि इसका उद्देश्य किसी संविधान का विवरण निर्धारित करना नहीं बल्कि उस तंत्र को सक्रिय बनाना है। जिसके द्वारा भारतीयों के लिए संविधान तय किये जा सके। यह सिफारिश करना जरूरी हो गया क्योंकि कैबिनेट मिशन को विश्वास हो गया थाकि जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक दोनों प्रमुख समुदायों को संविधान निर्माण के तंत्र की स्थापना में शामिल करने की आशा नहीं की जा सकती थी।
प्रथम अंतरिम राष्ट्रीय सरकार की घोषणा 24 अगस्त, 1946 को ही की गयी। इसमें पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, आसफ अली, शरतचंद्र बोस, डॉ. जान मथाई, सर शफात, जगजीवन राम, सरदार बलदेव सिंह, सी. राजगोपालाचारी और डॉ. सी.एच. भाभा शामिल थे।
अक्टूबर के अंत तक वायसराय लीग को सरकार में लाने के प्रयास में किसी न किसी प्रकार सफल हो गये। 26 अक्टूबर को सरकार का पुनर्गठन किया गया। मार्च 1947 में लार्ड लुई माउंटबेटन को सत्ता के निर्बाध हस्तांतरण की व्यवस्था करने के लिए नये वाइसराय के रूप में भेजा गया। वे 22 मार्च, 1947 को भारत पहुंचे। जल्दी ही वे इस दृढ़ निष्कर्ष पर पहुंच गये कि कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के लिए न तो अंतरिम सरकार में और न ही संविधान सभा में एक साथ मिलकर काम करना संभव होगा और इसलिए इससे पहले सांप्रदायिक हिंसा और अधिक भयंकर रूप धारण कर ले। इस पागलपन से बचने का एकमात्र रास्ता यही है कि जल्दी से जल्दी सत्ता भारतीयों के हाथ में दे दी जाये।
माउंटबेटन ने विभाजन की योजना तैयार की और ब्रिटेन में विरोधी दलों के नेताओं से विचार-विमर्श करने के बाद 3 जून, 1947 को एक नयी बयान जारी किया। जिसमें मांउटबेटन योजना को स्पष्ट रूप से समझाया गया था। इस बयान में सम्मिलित योजना के अंतर्गत देश के विभाजन की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया था। इस बयान के अनुसार वर्तमान संविधान सभा द्वारा बनाये गये संविधान को अनिच्छुक क्षेत्रों पर थोपा नहीं जा सकता था।
Question : भारतीय जनतंत्र कुशल सिविल सेवा और एक सुसंगठित राजनीतिक दल की मौजूदगी के अनुपम लाभ के साथ शुरू हुआ था फिर इसका इकाई बहुत बहुत ही निराशाजनक है। ऐसे कार्य निष्पादन के कारण क्या है?
(2001)
Answer : विकासशील दंगों को लोक सेवाओं के क्षेत्र में अपने औपनिवेशिक अतीत से एक संपन्न विरासत मिली है। अधिकांश उपनिवेशों की भांति भारतवर्ष में भी कठोर प्रशासनतंत्र का ढांचा संगठित किया गया था कि वह उपनिवेश की शांति एवं व्यवस्था की समस्याओं को प्रशासित करने के लिए सुयोग्य अंग्रेज युवक (और बाद में भारतीय भी) भर्ती कर सके। नौकरशाही के गठन में एक विचार यह भी रहा है कि वह संसदीय संस्थाओं के असंतुलित विकास पर एक अंकुश लगा सके। प्राचीन भारतीय साहित्य में सरकार और शासन के साथ-साथ अच्छी संविधान व्यवस्था के लिए उपयोगी सुझाव प्रस्तुत किये गये हैं। प्राचीन भारतीय प्रशासन के संगठन तथा व्यवहार पर अर्थशास्त्र महाकाव्य एवं स्मृतियों के सुझावों तथा निर्देशों का काफी प्रभाव था। अर्थशास्त्र में सरकारी कर्मचारी की परीक्षा के तरीकों, उनके वेतन स्तर तथा अन्य से विवर्ग संबंधी विषयों का स्पष्ट उल्लेख किया है।
वारेन हेसि्ंटग्ज तथा लॉर्ड कार्नवालिस जैसे गवर्नर जनरलों ने भू-राजस्व की वसूली तथा शांति व्यवस्था की स्थापना के क्षेत्रों में लोक सेवाओं की आधारशिला रखकर अत्यंत स्पृहणीय आरंभिक कार्य किया। सन् 1781 की केंद्रीकरण योजना के अनुसार, राजस्व मंडल का गठन हुआ। छः वर्ष बाद सन् 1787 में एक अन्य योजना के अंतर्गत जिला कलेक्टर के पदों में जिलाधीश मजिस्ट्रेसी तथा न्याय प्रशासन का कार्य एकीकृत किया। लॉर्ड वैलेजली में लोक सेवकों के चयन तथा प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया। लॉर्ड क्लाइव ने प्रत्येक नौकरशाही को एक प्रतिज्ञापत्र भरने के लिए विवश किया, जिसमें उसकी सेवा की शर्तों का उल्लेख और निजी व्यापार न करने, घूस या उपहार न लेने आदि अनेक नियमों का उल्लेख था। प्रतिज्ञापत्र से बंधे होने वाले कंपनी के असैनिक कर्मचारियों को प्रतिज्ञाबद्ध सिविल सर्विस का नाम दिया गया।
क्लाइव के सुधारों के बावजूद भी स्थिति काफी समय तक सोचनीय बनी रही। इसे ठीक करने के लिए लॉर्ड कार्नवालिस ने भारत की प्रशासनिक सेवा में कुछ बड़े मौलिक परिवर्तन किये। लॉर्ड वैलेजली ने अपने प्रशासकों का बड़ी सावधानी से चयन कर उन्हें फोर्ट विलियम कॉलेज में प्रशिक्षणार्थ भेजा। कंपनी के डायरेक्टर वैलेजली इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। उन्होंने कलकत्ता के स्थान पर 1813 ई. में इंग्लैंड में हेलिवरी नामक स्थान पर कॉलेज की स्थापना की। उसमें पढ़ाई का स्तर इतना ऊंचा कर दिया था कि यह ऑक्सफोर्ड तथा कैंब्रिज विश्वविद्यालय के स्तर से भी उत्कृष्ट हो गया। सन् 1833 में संसद द्वारा कंपनी को स्वीकृत किये गये चार्टर में यह व्यवस्था की गयी कि उसके सभी कर्मचारियों की भर्ती सब व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुली प्रतियोगिता पद्धति के आधार पर की जायेगी। किंतु खुली प्रतियोगिता होने पर भी उसमें बहुत कम भारतीय भाग ले सकते थे। क्योंकि परीक्षा इंग्लैंड में होती थी और उसमें बैठने की आयु बहुत कम रखी गयी थी। फिर भी 1870 तक सिविल सर्विस में केवल चार भारतीय चुने गये। भारतीयों में इसमें कम चुने जाने का तीन बड़े कारण थे। पहला कारण प्रतियोगिता का इंग्लैंड में होना था। दूसरा कारण इसमें बहुत कम आयु का रखा जाना और तीसरा कारण परीक्षा के स्तर की उच्चता और विदेशी भाषा थी।
भारतीय लोक सेवाओं के इतिहास में सन् 1854 महत्वपूर्ण है। जबकि लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में ‘कमेटी आन इंडियन सिविल सर्विस’ का गठन हुआ। इस कमेटी ने आईसीएस के लिए जो सिफारिशें की थी वे न्यूनाधिक रूप में आज भी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के गठन और कार्यप्रणाली की आधार स्तंभ है। लॉर्ड मैकाले का सुझाव था कि ब्रिटेन के युवावर्ग में 18 और 23 वर्ष के बीच की उम्र वाले स्नातकों को यदि प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से सामान्य विषयों के आधार पर चुना जाये तो वे ऐसी मेरिट ओरियेंटेड कैरियर सर्विसेज बन सकेंगे। जिनमें उदारवाद और साम्राज्यवाद दोनों का समन्वय संभव हो सकेगा।
भारत में सिविल सर्विस में प्रवेश की आयु घटाने के विरुद्ध एक प्रबल आंदोलन सर सुरेंद्र नाथ बनर्जी के नेतृत्व में हुआ और भारतीयों को संतुष्ट करने के लिए 1879 में नौ वर्ष पुराने कानून के अनुसार भारतीयों के लिए नामजदगी द्वारा सिविल सर्विस में नियुक्त करने के नियम बनाये गये। इसके अनुसार उत्तम कुल और सामाजिक स्थिति वाले भारतीयों को गवर्नर जनरल इस सेवा में नियुक्त कर सकता था और इसकी संख्या प्रधानमंत्री द्वारा कुल नियुक्तियों के छठे हिस्से तक सीमित कर दी गयी।
भारतीयों को इस व्यवस्था से असंतोष हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने पहले अधिवेशन में इस बात के लिए प्रबल आंदोलन किया कि सिविल सर्विस की न्यूनतम आयु को बढ़ाया जाये तथा इसकी परीक्षा इंग्लैंड और भारत में एक साथ ली जाये। सन् 1906 में भारत के वायसराय लार्ड डफरिन ने इस विषय पर विचार करने के लिए सर चार्ल्स एचिसन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। 1923 ई. में लॉर्ड ली की अध्यक्षता में एक आयोग की स्थापना की गयी। पुनः फरवरी 1926 ई. में भारत सचिव द्वारा चार सदस्य तथा एक सभापित से मुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना की गयी। सर रोस बार्कर इसके प्रथम सभापित नियुक्त किये गये। उसने अक्टूबर 1929 से अपना कार्य प्रारंभ कर दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1950 में नया संविधान लागू हुआ। भारतीय सिविल सेवा का स्थान भारतीय प्रशासनिक सेवा में ग्रहण कर लिया। स्वतंत्र भारत ने अपना प्रशासनिक ढांचा उपयुक्त तीन प्रकार की अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई लोक सेवाओं के साथ प्रारंभ किया। डॉ. भीमराव अंबेडकर और सरदार बल्लभ भाई पटेल नौकरशाहों के लिए नये अभिभावक बने और देश की लोकतांत्रिक संघात्मक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने के उपरांत भी भारत के गणतंत्रवादी संविधान में यह निर्णय लिया गया कि आईएएस और आईपीएस नाम की अखिल भारतीय सेवाओं को जीवित रहने दिया जाये। भारतीय संविधान में संघ लोक सेवा आयोग के संगठन कार्य और प्रणाली की भी व्यवस्था दी गयी है। इस क्षेत्रों में प्रतिरक्षा सेवाएं, रेलवे सेवाएं तथा डाक-तार सेवाएं बहुत पहले से थी और उनका इतिहास तथा परंपरा काफी पुराना और गौरवपूर्ण रहा है।
इस प्रकार भारतीय लोक सेवाएं विकास के कार्यक्रम से गुजरकर अपने वर्तमान रूप में लायी गयी हैं। कार्यकुशलता, योग्यता, अनुशासन, प्रतिबद्धता, निष्ठा, तटस्थता नेतृत्व में सब गुण उन्होंने परंपराओं से विरासत में पाये हैं। भारत के संदर्भ में 54 वर्षों का यह अनुभव यह संकेत देता है कि यह भूमिका विकसित देशों की प्रशासन की भूमिका से भिन्न है। इंग्लैंड में संसदीय व्यवस्था ने जिस भूमिका का निर्धारण सेवाओं के लिए किया। उसमें संघवाद और विकास प्रशासन की जो भूमिका है। वहां की पूंजीवादी व्यवस्था और प्राविधिक विकास के संदर्भ में एक नयी स्थिति उत्पन्न करती है।
Question : महिला सक्रियतावादियों ने 1974 तक आरक्षण का समर्थन नहीं किया। बाद में उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन आने का क्या कारण है?
(2001)
Answer : भारत विश्व का एक बड़ा प्रजातांत्रिक देश है। प्रजातंत्र की सबसे छोटी इकाई ग्राम पंचायत है और स्थानीय स्वशासन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से हमारे देश में महिलाओं को समाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से विकास के समान अवसर प्राप्त हुए हैं तथा संविधान में कुछ विशेष व्यवस्थाएं की गयी हैं। भारतीय संविधान द्वारा महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष सभी सुविधाएं और अवसरों की गारंटी प्रदान की है। अप्रैल 1993 ई. में भारतीय संविधान संशोधन पारित करके महिलाओं को पंचायतों तथा नगर निकायों में एक-तिहाई स्थान आरक्षित करके मूल स्तर पर राजनीतिक सत्ता में उनकी भागीदारी सुनिश्चित कर दी गयी। परिणाम यह हुआ कि हमारे देश की 30 लाख महिलाओं ने भाग लिया और 14 लाख महिलाएं सफल हुई। भारतीय महिलाएं पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं खुलकर चुनाव में हिस्सा ले रही हैं और ग्राम प्रधान क्षेत्र, समिति प्रमुख, ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य, महापौर आदि महत्वपूर्ण पदों पर निर्वाचित होकर अत्यंत कुशलतापूर्वक कामकाज चला रही हैं।
महिलाओं को आरक्षण देने का मुद्दा सबसे पहले 1985-86 में उठा। इसी वर्ष केन्या के नौरोबी में आयोजित विश्व महिला कांग्रेस में एक राष्ट्रीय दस्तावेज प्रस्तुत किया गया। पेश किये गये दस्तावेज में कहा गया कि महिलाओं के विकास के समुचित प्रबंध किये जाये। राजनीति में उनकी भागीदारी को प्रमुखता दी जाये और सभी निर्वाचित स्थानों पर 35 फीसदी आरक्षण महिलाओं को दिया जाये। इस दस्तावेज को नेशनल परस्पेक्टिव प्लान के नाम से जाना जाता है। इस दस्तावेज के बनने के कई वर्ष बाद 73वां संविधान संसोधन अधिनियम सन् 1992 में पारित हुआ। जो मई 1993 से प्रभावी है। यह संविधान संशोधन बलवंत राय मेहता समिति (1957) और अशोक मेहता समिति (1978) की सिफारिशों के आधार पर किया गया। केरल में पंचायती राज व्यवस्था काफी हद तक सफल हुई। यह देश भर में ऐसा मॉडल जहां सबसे पहले पंचायती राज लागू हुआ।
आधुनिक भारत की महिलाएं स्वतंत्र हैं। सत्ता की कुर्सी हो अथवा खेल का मैदान वैज्ञानिक अनुसंधानों की प्रयोगशाला को या कला साहित्य का संसार या सिविल सर्विसेज जैसे प्रतियोगी परीक्षा आज महिलाओं के लिए प्रत्येक क्षेत्र का द्वार पूर्ण रूप से खुला है। पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों में उनकी बढ़ती लोकप्रियता और भागीदारी से जो नया मार्ग प्रशस्त हुआ है, वह अंततः संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत सुनिश्चित भागीदारी के साथ ही समाप्त होगा।
1992 ई. में देश में राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन भी किया गया। आशा है कि वर्ष 2001 को ‘महिला सशक्तिकरण वर्ष’ के रूप में मनाने के फलस्वरूप उन्हें उनके विधि सममत अधिकारों को प्राप्त कराने तथा हाल में ही केंद्र सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति-2001 को भली-भांति क्रियान्वित करके उनकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति सुदृढ़ करने की दिशा में उठाये जा रहे कदम और भी अधिक प्रतिबद्धता और सजगता के साथ उठाये जायेंगे तथा तुलनात्मक रूप से अधिक सार्थक भी होंगे।
पंचायती राज के शुरुआती दौर में पंचायतों के संचालन की बागडोर किसी न किसी तरह पुरुष के हाथ में थी लेकिन अब महिलाओं की स्थिति मनःस्थिति बदल रही है। महिलाएं अब अपना पक्ष निर्भीकतापूर्वक बैठकों में रखने का प्रयास कर रही हैं। इस प्रकार पंचायती राज व्यवस्था में जहां एक ओर महिलाओं की सक्रिय सहभागिता से समाज और राष्ट्र में उन्हें सम्मान मिला है, जिसने विकास के द्वार खोले हैं। वहीं दूसरी ओर पुरुष और स्त्री के मध्य समाज में जो सामाजिक विषमता थी उसमें काफी कमी आयी है।
नैतिक विषमता से पीडि़त भारतीय समाज को समरसता प्रदान करने में महिला आरक्षण मील का पत्थर साबित होगा। आरक्षण विधेयक एक ऐसा शस्त्र है, जिसमें महिलाएं अपनी स्वतंत्रता, समानता एवं भेदभाव रहित गरिमामय जीवन के लिए प्रखर राजनीतिक संघर्ष कर सकती है। आरक्षण विधेयक समानता के संघर्ष की दुंदभी है। उसके द्वारा महिलाएं सशक्त बनकर अपने विरुद्ध होने वाले उत्पीड़न एवं अमानुषिक अत्याचारों का कारगर ढंग से प्रतिकार कर सकेगी।
महिलाओं की अशक्तता के पीछे उनकी पुरुष पर आर्थिक निर्भरता को आर्थिक रूप से स्वावलंबी महिलाएं अधिक स्वतंत्र होती हैं एवं सार्वजनिक रूप से जीवन में एक सार्थक भूमिका निभाने को उत्प्रेरित होती हैं, जबकि पितृसत्तात्मक सोच की शिकार महिलाएं, चूल्हा-चौका संभालने और शिशुओं के पालन-पोषण में ही अपने जीवन की इतिश्री समझती हैं।
बदहाली और जलालत महिलाओं के जीवन का घृणित विदूप है। यह वस्तुनिष्ठ सामाजिक सत्य सार्वजनिक एवं सर्वकालिक है। वैज्ञानिक बुद्धिवाद एवं तर्कसंगत विवेकवाद की यह मांग है कि विडंबना को महिला जीवन को स्नेहिल एवं खुशहाल बनाने के लिए आरक्षण जैसे प्रश्न उनके हाथ में दिये जायें। जिससे बंदिशों एवं वर्जनाओं की बेडि़यों को काटकर वह स्वस्थ्य गरिमामय जीवन जी सके।
महिलाओं का सशक्तिकरण एक सामाजिक मुद्दा है। परंतु राजनैतिक स्वार्थों ने महिला आरक्षण विधेयक का राजनीतिकरण कर दिया है। इसलिए एक दशक से अधिक समय से यह संसद की स्वीकृति की बाट खोज रहा है।
वस्तुतः कोई भी समाज अपनी आधी आबादी को अधिकारों से वंचित कर सुखी एवं समृद्ध नहीं हो सकता। उसमें सामाजिक रिश्ते स्नेहपूर्ण एवं ममतामयी संवेदनशीलता पर आधारित नहीं हो सकते, जो आंतरिक प्रसन्नता और हार्दिक उल्लास की बुनियाद है, जिसके अभाव में आधुनिक सभ्यता की समस्त उपलब्धियां शून्य है। राष्ट्र निर्माण की महती प्रक्रिया तब तक सम्यक गति और दिशा नहीं पकड़ सकती, जब तक उसमें समस्त नागरिकों का पुरजोर योगदान नहीं सुनिश्चित किया जाता। स्पष्ट रूप से महिला आरक्षण समय ही ज्वलंत मांग है।
महिला आरक्षण विधेयक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन लाने का सशक्त उपकरण है। जिसका मूल ध्येय ऐसी सामाजिक सभ्यता की प्राप्ति है, जो लैंगिक भेदभाव एवं पूर्वाग्रहों से रहित लैंगिक भेदभाव एवं पूर्वाग्रहों से रहित लैंगिक समरसता पर आधारित हो। अतः महिला आरक्षण तब तक प्रासंगिक रहेगा। जब तक कुछ और ईसा का जन्म देने वाली जनन सामाजिक धरातल पर सहज मानवीय रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पाती।
Question : भारत में न्यायिक सक्रियतावाद विषयक बहस
(2001)
Answer : कल्याणकारी राज्य में न्यायपालिका की भूमिका एक अति सजग प्रहरी की होती है। उसे वह सुनिश्चित करना पड़ता है कि संविधान के कल्याणकारी आदर्श एवं अवधारणा क्रियान्वित हों। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही न्यायपालिका ने भारतीय लोकतंत्र की रक्षा और विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। परंतु हाल के वर्षों में तो न्यायालयों ने अपने निर्णय से संपूर्ण जनता का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। भारतीय संविधान ने अपनी प्रस्तावना में भारत को धर्म निरपेक्ष समाजवादी लोकतंत्रत्मक गणराज्य घोषित किया है। न्यायिक सक्रियता का विकास अचानक नहीं हुआ है। वस्तुतः यह न्यायिक पुनर्विलोकन का ही विस्तारित रूप है। न्यायालय ही सक्रियता का महत्वपूर्ण सोपान जनहितवाद रहा है।
हाल के वर्षों में न्यायिक काफी चर्चित विषय रहा है। भारतीय लोकतंत्र में उच्चतम न्यायालय की भूमिका को लेकर पुनः प्रायः दो विपरीत मतों का समर्थन किया जा रहा है। विधि विशेषज्ञ और न्यायविद् न्यायपालिका की सक्रियता को न्यायालय की तानाशाही की संज्ञा दे रहे हैं तो संविधान मर्मज्ञ इसे भारतीय लोकतंत्र का शुभ संकेत मान रहे हैं। न्यायिक सक्रियता के पक्षधर लोगों का कहना है कि न्यायालय ने अपनी भूमिका का सही निर्वहन करना प्रारंभ किया है। जबकि विरोधियों का कहना है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के कार्यों में हस्तक्षेप कर रही है। न्यायिक सक्रियता यदि विवाद का कारण बना है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि हाल के वर्षों में दिये गये न्यायालय द्वारा कुछ कठोर नियम। किंतु अगर उन निर्णयों पर यदि सही दृष्टि से विचार किया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि ये निर्णय न केवल न्यायसंगत थे, अपितु परिस्थितिवश आवश्यक और अनिवार्य भी थे। अपवादस्वरूप कुछ निर्णय अनावश्यक और अनुचित ठहराए जा सकते थे। परंतु केवल न्यायिक सक्रियता से प्रशासन की विसंगतियां समाप्त नहीं हो सकती। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि कार्यपालिका और विधायिका भी निष्पक्ष रूप से कार्य करे तथा न्यायपालिका को भी इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि उसके निर्णय पक्षपातरहित हों।
Question : भारत में आयोजन पर विनिवेश और निजीकरण का प्रभाव
(2001)
Answer : भारत में आयोजना पर विनिवेश और निजीकरण का व्यापक प्रभाव पड़ा है। विदेशी कंपनी ने भारत में जो अपना पूंजी निवेश किया है उससे इसकी स्थिति वास्तव में खराब ही हुआ न कि अच्छा। हाल में विदेशी मीडिया ने भारत में अपना पूंजीनिवेश करने के केंद्र सरकार से इजाजत ले लिया है। इससे यहां के मीडिया पर उसका प्रभाव पड़ेगा। सरकार की जो निजीकरण की प्रक्रिया है उससे, जैसे कि दिल्ली में बिजली का निजीकरण हुआ। सर्वेक्षण करने से पता चला कि 80 प्रतिशत लोगों का कहना है कि उससे बिजली की स्थिति और खराब हो गयी है जबकि 20 प्रतिशत लोगों का कहना है कि इससे बिजली की स्थिति में सुधार हुआ है। निजीकरण करने से कंपनी अपने मनमानी ढंग से पैसा लेती है। इसका प्रभाव आम जनता पर पड़ता है। सरकार अगर मूल दायित्व से मुड़ने लगे तो आम जनता का क्या होगा? उच्च शिक्षा के निजीकरण से यह आम जनता के लिए काफी महंगी हो जायेगी। जिस देश की आबादी का 70 प्रतिशत गांवों में निवास करती है उसका क्या होगा। निजीकरण से सरकार अपने दायित्व से मुक्त तो हो जायेगी लेकिन आम जनता का क्या होगा। जिसे सब्सिडी पर जीने की आदत हो गयी। सरकार निजीकरण की व्यवस्था तब लागू करे जब यहां की जनता उसके बोझ उठाने के काबिल हो जायेगी।
Question : वचनबद्ध अधिकारी तंत्र की संकल्पना
(2001)
Answer : हमारा प्रशासन वचनबद्ध अधिकारी तंत्र होना चाहिए। जब यह बात कही गयी तो उसके पक्ष और विपक्ष में बहुत विवाद हुआ। वचनबद्ध तंत्र को तो किसके प्रति। संसदीय ढंग के लोकतंत्र में जहां दलीय सरकार बनती है। वचनबद्धता की यह शर्त और भी कठिन होगी। वचनबद्धता तंत्र उस दल विशेष के प्रति प्रतिबद्ध होता है, जो आज सत्तारूढ़ है, तो उसके दल का शासन बदलने पर प्रशासन को भी नये शासन से असहयोग अथवा विद्रोह कर लेना चाहिए। विधान कहता है कि सारे नागरिक कानून की दृष्टि में बराबर होंगे और किसी के साथ धर्म, जाति, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा। विधान यह भी कहता है कि देश में छुआछूत को सहन नहीं किया जायेगा और इसे अपराध समझा जायेगा। नागरिकों को बोलने, एकजुट होने, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने, किसी भी प्रकार का पेशा इत्यादि की स्वतंत्रता होगी।
सिद्धांतों के प्रति वचनबद्धता की कमी केवल प्रशासन में ही हो, ऐसी बात नहीं है। शासन और सार्वजनिक संस्थाओं में अगणित लोग ऐसे भी मौजूद हैं जिनको अपने स्वार्थ के सामने संविधान का ध्यान नहीं रहता अैर जो संविधान के क्रियान्वयन की आड़ में शिकार खेलते हैं और उसका हनन करते हैं।
वचनबद्धता की मांग के विरुद्ध यह कहा जाता है कि आज शासन करने वाला दल बदल जाये। यह निश्चय है कि प्रशासन कल्याणकारी राज्य का समर्थ वाहक उसी समय हो सकता है जब देश के कल्याणकारी संविधान और उसकी उपलब्धि के लिए बनने वाली योजना में हमारा सक्रिय सहयोग हो। सहयोग के उसी भावना को वचनबद्धता समझा जाता है।
Question : भारत में क्षेत्रवाद के विकास के कारक
(2001)
Answer : भारत बहुत बड़ा देश है तथा इसके विभिन्न क्षेत्रों में अत्यधिक विविधताएं पायी जाती हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में राज्यों का पुनगर्ठन भाषा के आधार पर किया गया। किंतु देश और राज्य सदैव समरूप नहीं हो पाते। इसलिए हमें पूरे देश में क्षेत्रवाद की समस्याओं का सामना करना पड़ा रहा है। भाषा के आधार पर देश के पुनर्गठन के बाद देश में दंगे हुए वे किसी भी देश के लिए शर्म की बात हो सकती है। बंबई में गुजराती और मराठी दंगे हुए जिसमें सैकड़ों व्यक्ति मारे गये। मास्टर तारासिंह ने पंजाबी भाषा क्षेत्र के लिए उग्र आंदोलन किया। इससे स्पष्ट है कि भाषावाद की भावना राष्ट्रीय एकता में काफी बड़ा बाधा डाल रही है और डाल चुकी हैं। राष्ट्रभाषा को लेकर मद्रास में जो दंगे हुए उनसे यही स्पष्ट हुआ कि राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भाषावाद आदि शक्तियां जोर पकड़ रही हैं। भाषा का विवाद वस्तुतः आरंभ से ही भारतीय राजनीति का सिरदर्द रहा है। 1950 में संविधान परिषद ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया और निश्चित किया कि 15 वर्षों के अंदर स्कूलों में अंग्रेजी के बदले हिंदी माध्यम होगा।
क्षेत्रीय विषमता के विरुद्ध जन जागृति के कारण क्षेत्रीय स्वायत्ता अथवा नये राज्यों के निर्माण के लिए कई आंदोलन हुए। कभी-कभी लोग एक क्षेत्र विशेष के लिए अपेक्षाकृत आर्थिक अधिक तथा राजनीतिक स्वायत्ता की मांग करते हैं। इसी काल में ही छत्तीसगढ़, उत्तरांचल तथा झारखंड राज्यों का निर्माण इन्हीं आंदोलनों के कारण किया गया है। 1960 में असम भाषा विवाद को लेकर दंगे हुए तो पहाड़ी क्षेत्र के प्रतिनिधियों ने अलग पहाड़ी राज्य की मांग की। इस प्रकार यद्यपि क्षेत्रीय आकांक्षाएं स्वाभाविक हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिये। परंतु यदि क्षेत्रवाद इस धारणा पर आधारित हो कि अन्य क्षेत्रवासियों के प्रति घृणा किया जाये क्योंकि वे अन्य क्षेत्रों से संबंधित हों तो यह हानिकारक है। यह सभी भारतवासियों को एक राष्ट्र में आबद्ध होने की भावना के विपरीत हैं।
Question : भारत में संघीय पुनर्निर्माण से संबंधित, विशेषकर राज्यों की स्वायत्तता की मांग के संदर्भ में सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के प्रमुख लक्षण क्या हैं।
(2000)
Answer : राज्य के प्रशासन में राज्यपाल की वही स्थिति होती है जो केंद्र में राष्ट्रपति की होती है। भारत में संसदीय प्रणाली की सरकार है। जहां वास्तविक अधिकार मंत्रिमंडल के पास होता है। संविधान द्वारा राज्यपाल को अनेक अधिकार दिये गये हैं, लेकिन वो इन अधिकारों का प्रयोग केवल मुख्यमंत्री की सलाह पर ही कर सकता है। इसका अपवाद केवल वो क्षेत्र हैं जहां राज्यपाल को विवेकाधिकार प्राप्त है। सिद्धांततः अधिकारों की दृष्टि से राज्यपाल का पद बहुत ही महत्वपूर्ण है। लेकिन यथार्थतः इन अधिकारों का प्रयोग मंत्रियों द्वारा ही किया जाता है। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने राज्यपाल की स्थिति का वर्णन करते हुए संविधान सभा में कहा था कि राज्यपाल की शक्तियां बहुत सीमित हैं और नाममात्र की हैं तथा उसकी स्थिति दिखाने वाली होगी। संविधान निर्माताओं ने राज्यपाल की नियुक्ति जनता के चुनाव द्वारा विधानसभा द्वारा नियुक्त पैनल द्वारा कराने के सुझावों को रद्द कर कनाडा की प्रथा (कनाडा में राज्यपालों की नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा होती है।) को इसलिए ग्रहण किया था कि राज्यपाल संवैधानिक मुखिया के रूप में कार्य कर सके। राज्यपाल के संवैधानिक मुखिया होने का अर्थ यह नहीं है कि उसका पद सर्वथा महत्वपूर्ण है। राज्यपाल को संविधान द्वारा प्रदत्त विवेकाधिकार की शक्तियां राज्यपाल की वास्तविक स्थिति को बहुत अधिक शक्तिशाली बनाती हैं।
पिछले कुछ दशकों में राज्यपाल का पद काफी विवादास्पद हो गया है। खासकर 1967 के आम चुनावों के बाद जब विभिन्न राज्यों में केंद्र से पृथक पार्टी की सरकार बनी। उसी समय एक ऐसी राजनीतिक परिस्थितियों में भी राज्यपालों को भिन्न-भिन्न निर्णय लिए जाने के कारण केंद्र राज्यों संबंधों में तनाव शुरू हो गया। 1980 के दशक में यह पद इतना विवादित रहा कि कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों में इस पद को पूरी तरह से समाप्त करने की मांग कर डाली। हाल के वर्षों में किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति ने राज्यपालों को विवेकाधिकार के प्रयोग के प्रर्याप्त अवसर प्रदन किये हैं। इस कारण यह पद और भी चर्चा में रहा। कई मामलों में राज्यपाल की निंदा भी की गयी। इस प्रकार राज्यपाल के पद और गरिमा को काफी ठेस पहुंची। उस वार्ता को ध्यान में रखते हुए तमिलनाडु में राजामन्नार समिति की सिफारिशें 1970 में द्रमुक मंत्रिमंडल में गठित किया गया, जिसकी प्रमुख सिफारिशें निम्न हैंः
1.राज्यपाल की नियुक्ति अनिवार्यतः संबंधित राज्य सरकार से विचार विमर्श के बाद ही की जाये।
2.राष्ट्रपति, राज्यपालों को यह दिशा-निर्देश दें कि वे एक जैसी राजनीतिक परिस्थतियों में एक जैसा ही निर्णय लें। ताकि विशेष परिस्थितियों से संबंधित स्वस्थ परंपरा का विकास हो।
केंद्र राज्य संबंधों की गहन समीक्षा के उद्देश्य से केंद्र सरकार द्वारा 1983 में सरकारिया आयोग का गठन किया गया। इस आयोग को केंद्र-राज्य संबंध को अधिक सार्थक एवं रचनात्मक बनाने के लिए सुझाव देने का कार्य सौंपा गया। इस आयोग द्वारा राज्यपाल के पद से संबंध में दिये गये प्रमुख सुझाव निम्न हैंः
1.राज्यपाल की नियुक्ति संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से विचार-विमर्श के बाद की जाये।
2.केवल ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल नियुक्त किया जाये जो अपनी निष्ठा के लिए पहचाना जाता हो व स्थानीय राजनीति में बहुत सक्रिय न हो।
3.यदि किसी मंत्रिमंडल के बहुमत में न होने का संकेत हो तो उसे स्पष्ट करने के लिए राज्यपाल को तत्काल विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर मुख्यमंत्री को बहुमत साबित करने का निर्देश देना चाहिए।
अतः यदि सरकारिया आयोग द्वारा दिये गये सुझावों को कार्यान्वित कर लिया जाता है तो राज्यपाल के पद को लेकर पैदा हुआ विवाद काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। संविधान में परिवर्तन के बजाए विशेष परंपराएं कायम करने से स्थिति अधिक बेहतर हो सकेगी। केंद्र और राज्य दोनों को एक ही जैसा माहौल बनाकर रखना चाहिए, ताकि राज्यपाल बिना किसी समुचित दबाव के अपने पद और गरिमा के अनुसार स्वतंत्र रूप से कार्य कर सके।
Question : अधिकारी तंत्र पर वेबर के विचारों की समीक्षा कीजिए और भारत के दृष्टिकोण से उसके महत्व पर प्रकाश डालिए।
(2000)
Answer : अधिकारी तंत्र एक प्रकार का प्रशासकीय संगठन है। जिसमें विशेष योगयता, निष्पक्षता तथा मनुष्यता का अभाव आदि लक्षण पाये जाते हैं। ये तत्व लोक प्रशासन में नौकरशाही सत्ता अथवा निजी उद्योगों में नौकरशाही प्रबंध का निर्माण करते हैं। वेबर ने नौकरशाही के निम्न विशेषताएं बतायी हैंः
विकास प्रशासन, लोक प्रशासन की नवीन शाखा है। आधुनिक और नवीन लोकप्रशासन का यह महत्वपूर्ण अंग है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भारत के संदर्भ में भी लोक प्रशासन विकास प्रशासन बन गया, जिसका मुख्य लक्ष्य राष्ट्र का निर्माण तथा सामाजिक-आर्थिक प्रगति है। विकास के लिए भारत में आर्थिक नियोजन तथा सामुदायिक विकास कार्यक्रमों की शुरुआत की गयी। नियोजन के फलस्वरूप भारत में केंद्र और राज्य स्तरों पर प्रशासन की प्रकृति, क्षेत्र और विस्तार पर काफी प्रभाव पड़ा। जिसमें मुख्यतः तीन बातें सामने आयीः
भारतीय नौकरशाही के ढांचे और कार्य प्रक्रिया में अपेक्षित बदलाव महसूस किया गया। विकासशील देशों में वर्तमान प्रशासन आवश्यकता के अनुसार अपने को ढाल नहीं पाया है। कार्यों की अधिकता के कारण अधिक प्रशासकों की आवश्यकता है। किंतु शिक्षा, प्रशिक्षण आदि की कमी से इतनी संख्या में प्रशासक विकसित नहीं किये जा सके हैं। इसलिए भी स्तर में गिरावट आयी है। ऐसी स्थिति में विकास प्रशासन की स्थापना और भी जटिल समस्या है। जहां देश के समस्त कुलीन वर्ग के विचार रुढि़वादी और अवसरवादी हों, जो सुधार केवल रुढि़यों को बनाये रखने के हित में ही करना चाहें। वहां विकास प्रशासन की स्थापना को ही कैसे रोकती है। भारतीय विकास प्रशासन की निम्नलिखित समस्याएं हैंः
1.नियामकीय प्रशासन पर निर्भरता: लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के फलस्वरूप राज्य के दो प्रकार के कार्य हुए: नियामकीय कार्य तथा विकास कार्य। नियामकीय कार्यों को संपन्न करने का पूर्णतः राज्य प्रशासन पर छोड़ा गया तथा विकास कार्यों को संपन्न करने का भार पूर्णतः राज्य प्रशासनों पर छोड़ा गया तथा विकास कार्यों को संपन्न करने में पंचायती राज संस्थाओं का सहयोग प्राप्त किया गया। इस प्रकार पंचायती राज संस्थाएं विकास कार्यों के माध्यम के रूप में विकसित हुईं। इसका यह प्रभाव हुआ कि ये संस्थाएं विकास कार्यों को संपन्न करने में शक्तिहीनता के कारण नियामकीय प्रशासन पर आधारित की गयीं। फिर भारत जैसे विकासशील देशों में नियामकीय प्रशासन अभी सुदृढ़ता प्राप्त नहीं कर सका है तथा कानून एवं व्यवस्था की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में नियामकीय प्रशासन पर राज्य का नियंत्रण ढीला हो जाता है तथा वे अपनी मनमानी करने लगते हैं। फलस्वरूप पंचायती राज संस्थाएं विकास कार्य करने में असफल रही हैं।
2.ग्रामीण जनतंत्र की असमर्थता: पंचायती राज संस्थाएं ग्राम स्तर पर राज्य सरकार की प्रतिनिधि होती हैं। उनके कार्यक्षेत्र का निर्धारण राज्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है। राज्य सरकार की प्रतिनिधि की हैसियत से उनको समय-समय पर कार्य तथा उत्तरदायित्व सौंपे जाते हैं। सामान्यतः ये संस्थाएं राज्य सरकार की नीति तथा कार्यान्वयन का कार्य करती हैं।
3.भ्रष्टाचार: प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार के वातावरण में विकास प्रशासन दम तोड़ रहा है। प्रखंड स्तर पर क्रियान्वित विकास कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी चरम सीमा पर है। सरपंच, प्रधान और विकास पदाधिकारी योजनाओं की रकम का बहुत बड़ा भाग हड़प जाते हैं। सरकारी कर्मचारी विकास कार्यक्रमों को निजी स्वार्थ सिद्धि का साधन समझते हैं।
भारत में विकास प्रशासन में ऐसा उलझ गया है कि जनता के समक्ष अपनी तस्वीर बिगाड़ बैठा है। इसकी आधारभूत पंचायत राज संस्थाएं सजावट की वस्तु मात्र बनकर रह गयी है। प्रो. सी पर्वथाम्मा के अनुसार विकास प्रशासन समाज के कमजोर वर्गों को लाभ पहुंचाने में असफल रहा है। राज्य सरकार द्वारा पंचायतों तथा जिला परिषदों के एक लंबे समय तक चुनाव न करवाना विकास प्रशासन की गति को अवरुद्ध करना है। आज हमारा प्रशासनिक ढांचा औपनिवेशिक मान्यताओं पर खड़ा है। हमारी विकासोन्मुख व्यवस्था में विभिन्न प्रशासकों को कुशल और सजग प्रशासन का प्रतिरूप स्वीकार किया गया है। जबकि विकासशील राष्ट्र की समस्याओं का समाधान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है, न कि प्रशासनिक उपायों से। भारतीय विकास प्रशासन में लगी नौकरशाही में अनेक दोष हैं जिनके कारण विकास कार्यक्रमों से वांछित फलों की प्राप्ति नहीं हो सकी है। प्रखंड विकास अधिकारी नौकरशाही प्रवृत्तियों से ग्रस्त रहता है। उच्चाधिकारियों में अनुत्तरदायित्व, लालफीताशाही, अनुदारवादिता, रिश्वतखोरी आदि दुर्गुणों के चलते भारतीय विकास प्रशासन सफलता की वांछित रफ्रतार नहीं पकड़ सका है।
Question : संघीय तंत्र में भारत के प्रधानमंत्रियों की भूमिका हमेशा ही विवादास्पद रही है। क्या आप इस प्रकथन से सहमत हैं? उपयुक्त उदाहरण देते हुए अपने उत्तर के लिए कारण बताइये।
(2000)
Answer : वास्तव में संघीय तंत्र में भारत के प्रधानमंत्रियों की भूमिका विवादास्पद रहने का प्रमुख कारण आपातकालीन प्रावधान का सही ढंग से लागू नहीं करना है। आपातकालीन प्रावधान हमेशा से ही राजनीति से ओत-प्रोत होता है एवं संघीय तंत्र इसके प्रमुख आधार हैं। इस प्रावधान के अंतर्गत अनुच्छेद 352 (राष्ट्रीय आपात) एवं 356 (राज्य में आपात स्थिति) का वर्णन किया जा सकता है। इस संदर्भ में 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाये गये राष्ट्रीय आपात प्रमुख हैं।
ऐसी अनेक अभूतपूर्व राजनीतिक घटनाएं हुई जिनका अध्ययन उन घटनाओं की पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए जो 12 जून, 1975 को न्यायाधिपति श्री जगमोहन लाल सिन्हा द्वारा दिये गये इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस निर्णय के बाद घटी, जिसमें भ्रष्टाचार के आधार पर श्रीमती गांधी के निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया गया और उन्हें किसी निर्वाचक पद पर आसीन होने के लिए अगले छः वर्ष तक आयोग्य ठहरा दिया गया था। श्री राजनारायण ने मध्यावधि चुनाव में श्रीमती गांधी का मुकाबला किया और उन्हें मार्च 1971 के चुनाव में एक लाख मतों से पराजित किया। उसने रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से श्रीमती गांधी के निर्वाचन को भ्रष्टाचार के आधार पर चुनौती दी। 24 अप्रैल, 1971 को उच्च न्यायालय में दायर की गयी अपनी चुनाव याचिका में राजनारायण ने यह आरोप लगाया कि श्रीमती गांधी ने लागों में रजाइयां, कंबल, धोतियां बांटी। इस प्रकार के कार्यों से उनके हित में मतदान करने के लिए प्रेरित किया गया। अपने निर्वाचन पर 35,000 रु- की अधिकतम राशि की बजाय 150,000 रुपये खर्च किये। रक्षा सेनाओं के हवाई जहाज और हेलीकाप्टर इस्तेमाल किये। वायुसेना के अधिकारियों का इस्तेमाल किया और अपने निर्वाचन को सफल बनाने के लिए सरकारी कर्मचारी की सेवाएं ग्रहण कीं। न्यायाधीश ने श्रीमती गांधी को एक आरोप छोड़कर सभी आरोपों से मुक्त कर दिया और एक आरोप जो उनके खिलाफ सिद्ध हुआ वह था- एक सरकारी कर्मचारी की सेवाएं प्राप्त करना और चुनाव आंदोलन के दौरान चुनाव सभा के मंच तैयार कराने और अन्य व्यवस्था कराने के लिए जिला मैजिस्ट्रेटों, पुलिस अधीक्षकों और लोक-निर्माण विभाग के अधिशासी इंजीनियरों जैसे राज्य सरकार के कर्मचारियों की सहायता। सभी विरोधी दलों ने श्रीमती गांधी के त्यागपत्र की मांग की। श्रीमती गांधी के नेतृत्व में लोगों की पक्की आस्था व्यक्त करने के लिए विशाल रैलियां की गयीं। 18 जून को कांग्रेस संसदीय दल ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच एक प्रस्ताव पास किया जिसमें श्रीमती गांधी के नेतृत्व में पूर्ण आस्था और विश्वास व्यक्त किया गया और अपने इस विश्वास को आवाज दी कि प्रधानमंत्री के रूप में इसका सतत् नेतृत्व देश के लिए अपरिहार्य है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बारे में लोगों में इतनी उग्र प्रतिक्रिया हुई कि कानून और संवैधानिक विषय पृष्ठभूमि में धकेल दिये गये और कुछ आगे आया वह था ‘इंदिरा हटाओ’ की मांग जिसका आ“वान उन सभी राजनीतिक दलों ने किया। श्री जयप्रकाश नारायण ने भी इसमें अहम भूमिका दी थी।
अनुच्छेद 356 के तहत राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के फलस्वरूप उस राज्य के सरकार को बर्खास्त किया जाता है। अतः अनुच्छेद 356 भारतीय संविधान का सर्वाधिक आलोचित एवं विवादग्रस्त उपबंध रहा है जिसके फलस्वरूप 42वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा अनुच्छेद 356 के अधीन उद्घोषणा के लिए राष्ट्रपति के समाधान को न्यायिक पुनर्विलोकन से बाहर कर दिया गया था, किंतु 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 से यह अवरोध हटा दिया गया है।
वास्तव में इस उपबंध की प्रमुख भूमिका में प्रधानमंत्री को ले लिया जाता है और यह माना जाता है कि यह उपबंध हमेशा से राजनीति की घटना होती है। इस उपबंध का प्रयोग अब तक 110 बार किया जा चुका है। विरोध पक्ष के सदस्यों तथा आलोचकों का कहना है कि संघ स्तर पर सत्तारूढ़ दल ने बहुधा इस अनुच्छेद का प्रयोग राजनीतिक दल दलगत प्रयोजनों के लिए किया है और सामान्तया विरोध पक्ष के दलों की राज्य सरकारों को बर्खास्त किया है। संविधान सभा में इस प्रावधान के आलोचकों को उत्तर देते समय डॉ. भीमराव अंबेडकर ने आशा व्यक्त की थी कि हो सकता है कि कभी इसका प्रयोग ही न किया जाये, सिवाय अंतिम चार के रूप में जब हर उपाय विफल हो जाये।
Question : संघीय शक्ति साझेदारी की संभावना के स्पष्टीकरण में साझा शासन उतना ही महत्वपूर्ण होगा, जितना स्वशासन।
(2000)
Answer : भारतीय संविधान साझा सरकार या कार्यवाहक सरकार जैसी कोई अवधारणा प्रस्तुत नहीं करता और न ही संविधान में कहीं उल्लेख है। संविधान का अनुच्छेद 74 कार्यवाहक या गठबंधन सरकार या अन्य निर्वाचित सरकार के मध्य कोई स्पष्ट विभेद नहीं करता है। वास्तव में यह अनुच्छेद केवल एक मंत्रिपरिषद को ही मान्यता देता है। नब्बे का दशक भारतीय राजनीति में व्यापक उठा-पटक का वर्ष रहा है। यद्यपि गठबंधन सरकार का इतिहास पुराना है, किंतु नब्बे के दशक में केंद्र सहित कई राज्यों में साझा सरकार अस्तित्व में आयी। उसमें तो कुछ ने सफलतापूर्वक शासन किया जबकि अन्य को अनेक समस्याओं को झेलने के बाद त्यागपत्र देना पड़ा। अकेले केंद्र में इस दशक में कुल मिलाकर 8 सरकारें बनीं। बार-बार चुनाव होने पर भी किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त हो सका।
साझा सरकार का अस्तित्व मुख्यतः दो तरह से होता है। प्रथम जब चुनाव के पूर्व अलग-अलग राजनीति दलों द्वारा चुनावी संभावनाओं को आधार पर गठजोड़ बनाकर चुनाव लड़ा जाये और वह संयुक्त रूप से विजयी हो, जैसा 1977 की जनता पार्टी के साथ हुआ। द्वितीय जब चुनाव के बाद किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राजनीतिक दल सरकार बनाने के लिए मोर्चा या साझा करें, जैसा वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के गठन या उसके बाद देवगौड़ा, गुजराल आदि सरकारों के गठन के संदर्भ में हुआ। साझा सरकार में दो या दो से अधिक राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल हो सकते हैं। वर्तमान सरकार में 24 दल हैं। फिर वर्तमान सरकार इस बात का सूचक है कि साझा सरकार भी स्थायी सरकार भारतीय जनता को दे सकती है और चुनाव से बार-बार होने वाले आर्थिक संकट से भी बचा जा सकता है।
प्रायः साझा सरकार में शामिल राजनीतिक दल अपनी आकांक्षाओं और लाभ की संभावनाओं के मद्देनजर ही गठबंधन करने को प्रेरित होते हैं। सभी दल अपने-अपने उद्देश्य एवं हितों की पूर्ति में लगे रहते हैं। अतः साझा सरकार में अनिश्चिता, बिखराव, समन्वय का अभाव आदि देखी जा सकती है। परस्पर विरोधी दलों के मध्य गठबंधन की स्थिति में तो सरकार के प्राण हमेशा ही संकट में नजर आता है। ऐसे में सरकार काप्रशासन पर नियंत्रण शिथिल हो जाता है। जिससे मंत्री और नौकरशाह मनमानी करते हैं और भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ जाता है।
भारत में गठबंधन सरकार की शुरुआत 1967 के चौथे आम चुनाव से मानी जाती है। इस चुनाव में कांग्रेस आधिपत्य को पहली बार विभिन्न राज्यों में झटका लगा तथा उसे सत्ता से हाथ धोना पड़ा। ये राज्य थे- बंगाल, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, बिहार, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा और पंजाब। इन सभी राज्यों में साझा सरकार बनी। आपातकाल के बाद जनता पार्टी के नेतृत्व में कई दलों का गठबंधन बना जिसे 1977 के आम चुनावों में भारी विजय मिली और भारतीय राजनीतिक इतिहास में केंद्रीय स्तर पर प्रथम बार साझा सरकार बनी। 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार भाजपा बनाम वाम मोर्चा के बाहरी समर्थन पर बनी। 1996-98 में पहले देवगौड़ा फिर इंद्र कुमार गुजराल की सरकारें कई दलों के संयुक्त मोर्चे के गठन से बनी। जिसे कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया और पुनः 1998 में 13 दलों के गठबंधन से बनी वाजपेयी सरकार 13 महीने चली। पुनः 1999 में पुनः वाजपेयी के नेतृत्व में 24 दलों वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में आया।
वर्तमान परिस्थितियों में साझा सरकारें अपरिहार्य बन गयी हैं। भारत विविध संस्कृतियों, भाषाओं, धर्मों, क्षेत्रों, समूहों वाला देश है। यदि साझा सरकार में किसी बात की आवश्यकता है तो वह साझा के भागीदारों केमध्य बेहतर समन्वय की तथा राष्ट्रहित के मामलों में व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की। अतः अपेक्षा की जा सकती है कि गठबंधन की अनिश्चितता का दौर अब खत्म होने वाला तथा जल्द ही गठबंधन की राजनीति परिपक्वता हासिल कर लेगी।
Question : भारत में महिला शक्ति प्रदानन और लोकतंत्र पर उसका प्रभाव।
(2000)
Answer : इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की क्या स्थिति थी और अभी क्या स्थिति है। जबकि किसी समाज को सबल होने के लिए पुरुष के साथ महिलाओं का साथ-साथ चलना बहुत जरूरी है। तभी कोई भी समाज पूर्णतः विकसित हो सकता है। आज महिलाओं को संविधान के द्वारा बहुत सारे अधिकार दिये गये हैं, जिसके फलस्वरूप महिलाएं हरेक क्षेत्र में अपने आपको आगे लाने में सफल हो रही हैं और लोकतंत्र पर उसका व्यापक प्रभाव पड़ा है। लोकतंत्र को सफल बनाने में महिलाओं का साथ होना बहुत जरूरी है। लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब स्त्री और पुरुष समान रूप से अपनी भागीदारी को समझें। आज इसी का परिणाम है कि विश्व के बहुत सारे देशों में महिलाएं शासन चला रही हैं। लोकतंत्र, जनता का शासन है और अगर जनता का एक भाग निरक्षर हो तो वो लोकतंत्र को क्या समझ पायेगा। लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए दोनों पहलू का ठीक होना अत्यंत जरूरी है। आज हमारे देश में महिलाएं चुनाव प्रक्रिया में अपने आपको आगे बढ़ा रही हैं। खासकर 73वां और 74वां संविधान संशोधन के फलस्वरूप आज लाखों महिलाएं ग्रामस्तीय चुनाव अभियान में सफल हुई हैं। अगर महिलाएं उसी तरह अपने भागीदारी को समझे और पुरुषों के साथ कदम बढ़ाकर साथ चलें तो हमारा लोकतंत्र का सही सपना सफल हो सकता है। लोकतंत्र को सफल होने के लिए महिलाओं का सहयोग अत्यंत जरूरी है।
Question : भारत में प्रशासन में भ्रष्टाचार और सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण पर उसका प्रभाव।
(2000)
Answer : प्रशासन में भ्रष्टाचार एक या दूसरे रूप में विद्यमान रहा है। यद्यपि उसका स्वरूप, आकार, प्रकार और छवि समय-समय और स्थान-स्थान पर बदलते रहे हैं। एक समय था जब रिश्वत गलत कार्यों को रोकने के लिए दी जाती थी। अब सही कार्य को सही समय पर करने के लिए दी जाती है। प्रशासन में भ्रष्टाचार इस प्रकार व्याप्त है कि जनता को प्रशासन पर से विश्वास उठ गया है, खासकर पुलिस विभाग को अधिक भ्रष्ट विभाग कहा जाता है। जहां एक कांस्टेबिल से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारी तक रिश्वत लेते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि पुलिस अपराधी और शिकायतकर्ता दोनों से रिश्वत लेती है और पुलिस के अधिकार इतने विस्तृत हैं कि वे ईमानदार व्यक्ति को भी आरोप लगाकर गिरफ्रतार कर सकता है और परेशान कर सकती है।
भ्रष्टाचार प्रशासनिक कभी पनप सकता है। देखभाल व सर्तकता की कमी और प्रशासनिक कर्मचारियों को अधिक शक्ति देना, गैर जिम्मेदारी, त्रुटिपूर्ण सूचना व्यवस्था आदि, अधिकारियों को न केवल भ्रष्ट होने का अवसर प्रदान करते हैं बल्कि भ्रष्ट तरीके अपनाने के बाद भी वे अप्रभावित रहते हैं।
भ्रष्टाचार के कारणों को आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, वैधानिक और न्यायिक श्रेणी में भी रखा जा सकता है। आर्थिक कारणों में उच्च जीवन शैली के प्रति अत्यधिक मुद्रा प्रसार, लाइसेंस प्रणाली तथा ज्यादा लाभ लेने की प्रवृत्ति है। प्रशासन में भ्रष्टाचार और अधिक देखने को मिलती है। साधारण पुलिस कांस्टेबल से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारी इस कार्य में संलिप्त रहते हैं और इसका बुरा प्रभाव हमारे सामाजिक-आर्थिक पुनर्निर्माण पर पड़ता है।
Question : भारत की राजनीति में परवर्ती कारकों के रूप में जाति और धर्म।
(2000)
Answer : इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की राजनीति में परवर्ती कारकों के रूप में जाति और धर्म अहम भूमिका निभाती है। यह बात सिफ आधुनिक भारतीय राजनीति में ही नहीं बल्कि जाति और धर्म पुराने इतिहास में मिलता है और आज की राजनीति तो पूर्णतः जाति और धर्म के नाम पर होता है। चुनाव प्रक्रिया के आते ही जाति और धर्म का समीकरण बनना शुरू हो जाता है। यहां तक कि आज की राजनीति में जाति और धर्म का इस तरह समावेश हुआ है कि उसका निकलना बहुत मुश्किल दिखता है।
ज्यों ही चुनाव प्रक्रिया का दौर शुरू होता है। पार्टी के लोग जाति का समीकरण तैयार करते हैं। अगर किसी क्षेत्र में दलित वर्ग का बहुल्य है तो उस क्षेत्र में दलित वर्ग के नेता को उम्मीदवार बनाया जाता है और इस तरह जाति के नाम पर आज के नेता अपने को विधान सभा से लेकर लोकसभा और राज्यसभा संसद भवन तक अपने को पहुंचाने समर्थ बनाते हैं। आज जाति का स्वरूप बिल्कुल बदल चुका है। जनता अपने आपको इस अभिशाप से मुक्त नहीं कर सकती है। आज जाति ने अपना स्वरूप बिल्कुल बदल दिया है। खादी कपड़े के पीछे इन नेताओं ने अपने आपको नेता बनाने का ऐसा घिनौना कार्य किया है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। भारत की राजनीति जाति, का अखाड़ा बन चुकी है। जाति के नाम पर पुनः हमारा समाज खंडित हो गया है। पुनः इसका एकीकरण करना बहुत मुश्किल लगता है।
बिहार की सरकार लालू से लेकर राबड़ी, इन्होंने यादव जाति को अलग कर जाति समीकरण बनाया। रामविलास पासवान अपने को दलित कहकर राजनीति में अपना कदम मजबूत कर रहा है। आखिर कब तक हमारे देश की जनता इन बातों को समझेगी, कब अकल आयेगी, इनको अपना अधिकार, अपने सम्मान को समझने में न जाने क्यों अंधेरे में भटक रहे हैं। अगर हम धर्म को राजनीति में देखते हैं तो उसका भी बुरा प्रभाव पड़ा है। राजनीति को चलाने वाले इन धर्म को भी इस तरह घसीटा है कि इसने विध्वंसक रूप भी धारण कर लिया है। आज की भाजपा सरकार ने धर्म को अपना एजेंडा बनाकर ही तो केंद्र तक यह सफर पार किया है। उन्होंने लोगों को आश्वासन दिया कि भाजपा सरकार अयोध्या में राममंदिर का निर्माण करेगी। इसी एजेंडे को आगे यानी धर्म के परवर्ती कारकों के रूप में यह नेता अपने आपको एक सबल पार्टी का रूप देती है।
हाल में गोधरा कांड इस बात का सूचक है कि किस तरह धर्म को राजनीति के साथ जोड़ा गया है। राजनीति के आड़ में कभी प्रवीण तोगडि़या त्रिशूल बांटते है तो नरेंद्र मोदी तलवार बांटते है। आखिर कब तक यह चलता रहेगा। क्या हुआ गोधरा में हजारों बेगुनाह हिंदू, मुसमलान मारे गये। ऐसी घिनौनी राजनीति जिसमें हजारों की तादाद में निर्दोष व्यक्ति मारे जाते हैं क्या इसी का नाम राजनीति है।
जाति और धर्म को अगर इसी तरह घुमाया जाता रहा तो क्या होगा इस देश का जहां भाईचारे की बात की जाती, राम और अल्लाह को एक नजर से देखा जाता है। धर्म के नाम ऐसी राजनीति खेलने वालों को कभी नहीं माफ किया जा सकता है। उसे जनता की अदालत में पेश किया जाना चाहिए जो राजनीति को जाति और धर्म को जामा पहनाने की कोशिश करते हैं। इस तरह भारतीय राजनीति में धर्म और जाति परवर्ती कारकों के रूप में मौजूद हैं।
Question : जनता दल, कांग्रेस, भारतीय साम्यवादी दल और अकाली दल के विशेष संदर्भ में राजनीतिक दलों में ‘विभाजनवाद।’
(1999)
Answer : भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने स्थापना वर्ष 1885 से 1968 तक भारतीय मंच की सबसे बड़ी ताकत के रूप में रही। परंतु कांग्रेस के अंदर उस दौरान भी वामपंथी और दक्षिणपंथी विचारधारा को मानने वालों के बीच काफी अंतर था। इस अंतर ने आपस में सत्ता संघर्ष और इस उद्देश्य के लिए गुटबंदी को कांग्रेस में बढ़ाया। परिणामस्वरूप वर्ष 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया। सत्ता कांग्रेस और संगठन कांग्रेस में विभाजित होने के उपरांत सत्ता कांग्रेस का भारतीय राजनीति में वर्चस्व स्थापित हुआ लेकिन वर्ष 1977 में आपातकाल लगाने एवं अन्य गलत नीतियों के कारण कांग्रेस (इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली) को चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा। जिससे नेतृत्व संबंधी विवाद को लेकर गुटबंदी होने लगी, जिसके परिणामस्वरूप 1978 में कांग्रेस का पुनः दो दलों- रेड्डी कांग्रेस और इंदिरा कांग्रेस में विभाजित हो गयी। यह विभाजन व्यक्तित्व पर आधारित था। उस समय से लेकर अब तक क्षेत्रीय स्तर पर कांग्रेस को कई बार विभाजन का सामना करना पड़ा है। राष्ट्रीय स्तर पर दो बार वर्ष 1991-92 और 1998 में भी कांग्रेस को छोटे स्तर के विभाजन का सामना करना पड़ा। पहली बार नरसिंहराव के शासन काल में तिवारी कांग्रेस का गठन हुआ था और दूसरी बार सोनिया गांधी के नेतृत्व में शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का।
अक्टूबर 1998 में जनता दल का गठन जनता पार्टी, लोक दल और जनमोर्चा के विलय के परिणामस्वरूप हुआ। 1989 में जनता दल ने केंद्र में अन्य दलों के सहयोग के साथ सरकार का गठन किया, जो 11 माह में ही आंतरिक मतभेदों के कारण गिर गयी। 9वीं लोकसभा में जब किसी दल को बहुमत नहीं मिला तब जनता दल ने अन्य दलों के साथ मिलकर राष्ट्रीय मोर्चा बनाया जिसे सरकार बनाने में भाजपा एवं वामपंथ का समर्थन प्राप्त था। वर्ष 1995 तक राष्ट्रीय मोर्चा का अस्तित्व स्वयं समाप्त हो गया। पुनः मई 1996 में संयुक्त मोर्चा का गठन किया गया। यह भी असफल रहा। आज वास्तविक जनता दल का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है।
अकाली दल पंजाब का एक क्षेत्रीय दल है। वर्ष 1990-95 के दौरान अकाली दल कई गुटों में विभाजित था, लेकिन फरवरी, 1996 में अकाली गुटों की हुई बैठक में अकाली दलों के लगभग सभी प्रमुख गुटों में प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में एकता स्थापित हो गयी। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक दलों का विभाजन होना अब भी जारी है और संकीर्ण स्वार्थों के आधार पर विभाजित या अलग दल बनाने की प्रवृत्ति बढ़ी ही है। 52वें संविधान संशोधन (1985) के उपरांत दलबदल करने की प्रवृत्ति तो थमी है, लेकिन इस संशोधन द्वारा किसी भी दल के एक-तिहाई निर्वाचित सदस्यों के अलग होने पर एक दल के रूप में मान्यता देने के प्रावधान से दल विभाजन के अंदेशे को और भी तीव्र किया है। हाल ही में दल विभाजन की प्रवृत्ति में आई तीव्रता इसी के परिणामस्वरूप सामने आयी है।
Question : अफ्रीकी एशियाई देशों की राजनीतिक प्रक्रियाओं पर आधुनिकीकरण और नवीन संचार प्रौद्योगिकी का प्रभाव।
(1999)
Answer : अल्पविकसित एवं विकासशील अफ्रीकी एशियाई राष्ट्रों की सबसे बड़ी समस्या व चुनौती विकास की है। यह विकास सभी क्षेत्रों के लिए आवश्यक है। आर्थिक, प्रौद्योगिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में विकास का तात्कालिक उद्देश्य था, एक पिछड़ी हुई व्यवस्था को आधुनिक व्यवस्था का रूप प्रदान करना। यह आधुनिकीकरण राजनीतिक विकास को भी प्रोत्साहित करता है। आधुनिकीकरण ने जनता को राजनीतिक रूप से जागरुक बनाया है। अब इन देशों की जनता अपनी समस्याओं और सरकारी नीतियों का सही-सही आकलन करने में सक्षम हो रही है। जेम्स एस. कोलमैन आधुनिकीकरण और राजनीति को समवर्ती मानते हैं। आधुनिकीकरण में साक्षरता का विस्तार होता है, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है। अर्थव्यवस्था में वाणिज्य, व्यापार एवं उद्योगों को बढ़ावा दिया जाता है, जब संपर्क के साधनों से आम व्यक्तियों को जोड़ दिया जाता है, आधुनिक, सामाजिक एवं आर्थिक कार्यों में अधिक सहभागिता के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस हेतु विकासशील देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाएं मुक्त व्यापार और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए खुली रखनी पड़ रही हैं। उद्योगीकरण के लिए उन्हें विकसित राष्ट्रों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिसके लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है। फलस्वरूप वे ऋणों के जाल में फंसते जा रहे हैं। जिससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में विनिमय के स्तर पर शक्तिशाली राष्ट्रों का प्रभुत्व और अधिक मजबूत होता जा रहा है।
आधुनिकता को पश्चिमी सभ्यता, तकनीक, विचार, फैशन एवं रहन-सहन से जोड़ दिये जाने के कारण जहां पश्चिम के विकसित देशों का प्रभाव बठा है, वहीं अफ्रीकी एशियाई विकासशील देश इस आधुनिकता अर्थात् पश्चिमीकरण को प्राप्त करने के प्रयास में नव-उपनिवेशवाद के शिकार होते जा रहे हैं। जिसमें उसकी राजनीति सत्ता, अर्थव्यवस्था एवं अन्य क्षेत्रों पर पश्चिम के देशों का प्रभुत्व जमता जा रहा है। विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां आज इन अफ्रीकी एशियाई राष्ट्रों में से कई राष्ट्रों का राजनीतिक प्रक्रिया/निर्णय को भी प्रभावित कर रही है। साथ ही यह व्यवस्था अमीर-गरीब के बीच एक न खत्म होने वाली खाई बनती जा रही है। जहां तक भारत का संबंध है इसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा पूंजीवादी दोनों लाभों को प्राप्त करने के लिए व्यवस्थाओं को थोड़े बहुत रूप में अपनाया है। लेकिन यह भी एक ध्यान देने वाली बात है कि अब हमारे कदम पूंजीवादी व्यवस्था की तरफ थोड़ी तीव्रता से उठने लगी है। ऐसी स्थिति में स्थायी एवं मतबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही हम विकसित राष्ट्रों के चंगुल में आ जाने से बचे रह सकेंगे आने वाले दिनों में।
Question : जनहित मुकदमें एवं न्यायिक सक्रियतावाद।
(1999)
Answer : जनहित मुकदमें या जनहित याचिकाएं ऐसी याचिकाएं होती हैं, जिन्हें सामान्य हित में पीडि़त व्यक्ति उनके स्थान पर कोई भी व्यक्ति द्वारा दायर किया जा सकता है। वर्ष 1986 में पी.एन. भगवती ने मात्र पोस्टकार्ड पर जनहितकारी प्रार्थना मिलने पर भी सुनवाई की परंपरा आरंभ किये जाने के उपरांत इस याचिका का और भी महत्व बढ़ गया है। न्यायालय अपने सभी तकनीकी नियमों को एक तरफ कर इन पर तत्परता से विचार करता है। इस व्यवस्था के कारण जहां न्याय सर्वसाधारण को सुलभ हुआ है वहीं न्यायालय की शक्ति में भी वृद्धि हुई है। इन याचिकाओं के कारण ही न्यायालय ने पर्यावरण जैसे मुद्दे से लेकर राजनीतिक भ्रष्टाचार तक के मामलों पर अपना निर्णय सुनाया है। हवाला कांड, चुनावों में अत्यधिक खर्च से लेकर सड़कों को साफ रखने, पॉलिथीन बैग के उपयोग पर प्रतिबंध जैसे मामलों पर न्यायालय ने जन सामान्य के हित में निर्णय लेकर सरकार को आड़े हाथ लिया है। हमारे न्यायाधीशों की प्रखरता, निर्भीकता तथा कर्त्तव्यपरायणता भी इस स्थिति के लिए उत्तरदायी रही है। राष्ट्र के अस्थिर राजनीतिक परिदृश्य ने भी न्यायपालिका के महत्व में वृद्धि करने हेतु वातावरण के निर्माण में योगदान दिया है।
न्यायिक सक्रियतावाद का अर्थ है- जब कार्यपालिका और व्यवस्थापिका अपने नियम कार्य करने में असफल हो जाती है या नहीं तो शासन का तीसरा अंग न्यायपालिका जिसे संविधान ने नागरिकों के अधिकारों का संरक्षक बनाया है। अपने निर्णय द्वारा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका को अपने कर्तव्य निभाने का आदेश देती है या ऐसे मामलों को तत्परता से निपटारा करती है। वर्तमान दूषित राजनीतिक व्यवस्था कर्तव्यहीन नौकरशाही और अस्थिर राजनीतिक परिदृश्य ने न्यायालय के सामने सक्रिय भूमिका निभाने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं छोड़ा है। अपनी अक्षमता और राजनीतिक जटिलता के कारण आज कार्यपालिका कई मुद्दों को न्यायपालिका के निर्णय पर छोड़ देती है।
उदाहरणस्वरूप राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का मुद्दा, आरक्षण का मुद्दा आदि। राजनीति एवं नौकरशाही में बढ़ते अक्षमता एवं भ्रष्टाचार के कारण आज आम व्यक्ति का विश्वास कार्यपालिका से उठ चुका है एवं वह व्यवस्था सुधार हेतु न्यायपालिका की ओर देख रहा है। व्यवहार में न्यायपालिका ने भी अपने दायित्व को पहचाना है। इस प्रकार इन कारकों का सम्मिलन ही वर्तमान न्यायिक सक्रियता के रूप में प्रतिबिंतित होता है।
न्यायपालिका की इस सक्रियता ने जहां जनता में आशा और विश्वास का संचार किया है वहीं नेताओं एवं अधिकारियों में भय का। आज पहली-सी स्थिति नहीं रही जब अपने धन बल और प्रभाव के बल पर कोई भी नेता या अधिकारी न्याय के शिकंजे से बच जाता था और अपनी मनमानी करता था। आज न्यायालय किसी भी जनहित याचिका पर सुनवाई करते समय उस याचिका में जिस किसी पर आरोप लगाया गया है उसके विरुद्ध कदम उठाने के लिए सरकार को मजबूर कर सकती है। आज कोई नरसिंह राव, जयललिता या लालू प्रसाद यादव अपनी ताकत धन या प्रभाव से न्याय के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता। यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र को पुनः जीवित एवं सक्षम बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। संक्षेप में, जनहित याचिका और न्यायिक सक्रियता ने भारतीय जनमानस को पुनः अपने अस्तित्व पर विश्वास करने में मदद पहुंचा रही है।
Question : ‘भारतीय मतदाताओं का मतदान व्यवहार न्यूनाधिक जाति-प्रधान है। इसमें दलीय प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया भी शामिल है।’ इस कथन के संदर्भ में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जाति की सकारात्मक अथवा नकारात्मक भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(1999)
Answer : भारतीय चुनाव व्यवस्था में जातिवाद, मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख तत्व रहा है, वैसे तो इस तत्व का प्रभाव उत्तर भारत और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में सर्वाधिक है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि जब-जब कोई मुद्दा या समस्या उठ खड़ी होती है तब लोग जातिवादी भावनाओं से उठ कर मतदान करते हैं। वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव, 1972 के विधानसभा चुनाव, 1977 के लोकसभा चुनावों और दिसंबर 1984 व नवंबर 1989 के लोकसभा चुनावों में यह बात देखी गयी। भारतीय राजनीति में जाति के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए हेराल्ड गोलड कहते हैं कि ‘राजनीति का आधार होने के बजाय जाति उसको प्रभावित करने वाला एक तत्व है।’ लोकनायक जयप्रकाश नारायण का मानना है कि, ‘जाति भारत में अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है।’
स्वतंत्रता के साथ ही भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था की शुरुआत की गयी और वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचन प्रारंभ हुए और जातिगत संस्थाएं एकाएक महत्वपूर्ण बन गयीं क्योंकि उनके पास भारी संख्या में मत थे और लोकतंत्र में सत्ता प्राप्ति हेतु इन मतों का मूल्य था। जिन्हें सत्ता की आकांक्षा थी उन्हें सामान्य जनता तक पहुंचने और संपर्क स्थापित करने का सबसे सरल माध्यम जाति व्यवस्था नजर आया। जाति के आधार पर एकमुश्त मत मिल जाने की संभावना ने जाति के महत्व को राजनीति में स्थापित कर दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिमों, सिखों एवं दलितों को पहले ही अलग-अलग निर्वाचन व्यवस्था में बांध कर इस प्रवृत्ति को जन्म दे दिया था। लोगों का अपनी जाति और धर्म के आधार पर राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया स्वतंत्रता के उपरांत और भी तीव्रता से बढ़ी।
अध्ययन से यह स्पष्ट है कि भारत में जातियां संगठित होकर राजनीति और प्रशासनिक निर्णय की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। संविधान में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान रखे गये हैं, जिनके कारण ये जातियां संगठित होकर सरकार पर दबाव डालती हैं कि इनकी सुविधाओं को और अधिक वर्षों के लिए अर्थात जनवरी 2000 तक के लिए बढ़ा दी जाये। अपने लाभ को बनाये रखने के लिए यह जातियां संगठित रहने में ही अपना हित देखती हैं और राजनीति में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए एकमुश्म मत देने (अर्थात ‘बोट बैंक’ के रूप में बने रहने के लिए) की प्रवृत्ति बनाए रखती हैं। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू हो जाने के उपरांत यही स्थिति अन्य पिछडे़ वर्गों या जातियों में देखी जा रही है। कुछ जातियां अपने प्राप्त लाभ को बनाये रखने के लिए ‘वोट बैंक’ बन रही हैं या बन गयी हैं। जिन लोगों को किसी भी प्रकार के आरक्षण या संवैधानिक लाभ से वंचित रखा गया है, अर्थात् उच्च वर्ग या उच्च जातियों के लोग भी अब एक जातीय समूह गुट के रूप में अपने आप को संगठित कर रहे हैं या करने में लगे।
राजनीति में जाति के प्रभाव का यह आलम है कि भारत के सभी राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन करते समय जातिगत आधार पर निर्णय लेते हैं। प्रत्येक दल किसी भी चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशी मनोनीत करते समय उस क्षेत्र के जातिगत गणित का अवश्य विश्लेषण करते हैं। उदाहरणस्वरूप 1962 में गुजरात के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी की सफलता का राज उसका क्षत्रिय जाति के समर्थन में छिपा हुआ था। हरिजन, मुसलमान ब्राह्मण शक्तिपुंज बनाकर ही 1971 का आम चुनाव कांग्रेस ने जीता था। आज कांग्रेस की सफलता के पीछे इसी शक्तिपुंज के खत्म हो जाने का प्रमुख कारण माना जाता है। हाल में बिहार में हुए चुनावों में लालू यादव के राजद की सफलता मुस्लिम-यादव शक्तिपुंज के कारण ही संभव हो सकी। अब तो जाति विशेष के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन भी होने लगा है। बहुजन समाजवादी पार्टी जहां मात्र दलितों की पार्टी समझी जाती है, वहीं समाजवादी पार्टी यादवों एवं अन्य पिछड़े वर्गों की जाति के आधार पर या गणित के आधार पर प्रत्याशियों का चयन आज हर पार्टी के रणनीति का सर्वप्रमुख हिस्सा हो गया है। मंडल विवाद के कारण 1990-91 में समाज, जाति के आधार पर दो भागों में बंट गया और गांवों एवं शहरों में जाति युद्ध-सा छिड़ गया है।
राजनीतिक पार्टियां सिर्फ एक चुनावी मुद्दे पर बात करने लगी- ‘पिछड़े बनाम अगड़े का।’ भाजपा के अयोध्या आंदोलन की प्रतिक्रिया में देश के दो बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश और बिहार में, जहां लोकसभा की 139 सीटें हैं, एक अनूठे सामाजिक-राजनीतिक गठजोड़ से दोनों राज्यों के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा एकजुट हो गया और ‘थोकमत’ बन गया।
वर्तमान में जाति की भूमिका का निम्नलिखित महत्व हैः
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का मूल्यांकन करना अत्यंत कठिन कार्य है। जातिवाद के बढ़ते प्रभाव को कुछ विद्वान प्रगति में बाधक मानते हैं। जैसे डी.आर. गाडगिल, समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास आदि। जाति प्रथा को राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक माना जाता है, क्योंकि इससे व्यक्तियों में पृथकतवाद की भावना जागृत होती है। राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा अपने जातिगत हितों को अधिक महत्व देने लगते हैं। जाति निष्ठाओं का सृजन कर यह प्रथा लोकतंत्र के विकास मार्ग को अवरुद्ध कर देती है।
डी.आर. गाडगिल के अनुसार क्षेत्रीय दबावों से कहीं अधिक खतरनाक बात यह है कि वर्तमान काल में जाति, व्यक्तियों का एकता के सूत्र में बांधने में बाधक सिद्ध हुई है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास का स्पष्ट मत है कि ‘परंपरावादी जाति व्यवस्था को इस तरह प्रभावित किया है कि ये राजनीतिक संस्थाएं अपने मूलरूप में कार्य करने में समर्थ नहीं रही हैं।’ दूसरी तरफ कुछ विद्वान जाति को राजनीतिक प्रक्रिया को गतिशील करने के लिए उचित मानते हैं। जैसे आई. रुडॉल्फ तथा एस. हॉबर रुडॉल्फ आदि। यह दोनों अमेरिकी लेखक ‘दि मॉडर्निटी ऑफ टेªडीशन’ में लिखते हैं कि ‘जाति व्यवस्था ने भारत में भारतीयों की आपसी दूरी कम करके उन्हें अधिक समान बनाकर समानता के विकास में सहायता दी है।’
अंत में, चाहे जाति आधुनिकीकरण के मार्ग में बाधक न हो तथापि राजनति में जाति का हस्तक्षेप लोकतंत्र की धारणा के प्रतिकूल है। जातिवाद, देश, समाज और राजनीति के लिए बाधक है। विविधता की सीमाएं होती हैं। इस देश में इतनी जातियां, उपजातियां तथा सहजातियां पैदा हो गयी हैं कि वे एक-दूसरे से पृथक रहने में ही अपने-अपने अस्तित्व की रक्षा समझती हैं। यह पृथकतावादी दृष्टि राष्ट्रीय एकता के लिए अत्याधिक घातक है। विद्वान आंद्रे बैतें का मानना है कि जाति भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु है और जाति आधारित राजनीति की बढ़ती प्रवृत्ति ने आपसी विद्वेष को बढ़ाकर राष्ट्र निर्माण के लिए समस्याएं पैदा की हैं।
Question : राजनीतिक दल-दबाव समूह में भेद कीजिए। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में संघ परिवार की इकाइयों- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बजरंग दल की दबाव समूहों के रूप में भूमिका की व्याख्या कीजिए।
(1999)
Answer : राजनीतिक दल तथा दबाव समूह दोनों ही संविधानोत्तर तत्व हैं, लेकिन दोनों ही राजनीतिक व्यवस्था के मूलभूत आधार स्तंभ हैं। जो संविधान और शासन द्वारा स्थापित विभिन्न संस्थाओं के प्रेरक तत्व के रूप में कार्य करते हैं। राजनीतिक विचारकों ने इन तत्वों को राजनीतिक व्यवस्था की प्राण वायु कहा है। इनकी अनुपस्थिति या इनकी असक्रियता की स्थिति में शासन तंत्र व व्यवस्था निर्जीव सी हो जाती है। दोनों ही शासन की नीतियों को प्रभावित करने का प्रयास करतो हैं। आपस में परस्पर निर्भरता होने के बावजूद दोनों में पर्याप्त अंतर भी होता है। दबाव समूह व राजनीतिक दल दोनों ही वस्तुतः कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में परस्पर स्वतंत्र होकर तथा कभी-कभी पारस्परिक विरोध में भी कार्य करते हैं। कुछ परिस्थितियों में तो अनेक दबाव समूह किसी एक दल के बजाय दो या उससे अधिक देखे जा सकते हैं। अतः राजनीतिक दल व दबाव समूह में पारस्परिकता व समानताएं होते हुए भी बहुत अंतर है जो निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता हैः
1. उद्देश्य: दोनों में पहला अंतर उद्देश्यों से संबंधित है। राजनीतिक दल का सर्वप्रथम उद्देश्य शासन/सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करना होता है। अतः राजनीतिक दल राष्ट्र का राजनीतिक प्रक्रिया में खुले रूप में हिस्सा लड़ता है, चुनाव लड़ता है, प्रत्याशी मनोनीत करता है और यदि संभव हो तो शासन सत्ता प्राप्त कर सार्वजनिक नीतियों का स्वयं निर्धारण एवं कार्यान्वयन भी करता है। दूसरी तरफ दबाव समूह शासन सत्ता प्राप्त करने के प्रयास नहीं करना वह विधायकों, निर्वाचित पदाधिकारियों, प्रशासनिक अधिकारियों तथा कर्मचारियों पर दबाव डालकर सार्वजनिक नीति तथा शासन को अपने हितों के अनुरूप प्रभावित करने का प्रयास करता है। इस तरह दबाव समूह राजनीति के खेल में स्वयं हिस्सा न लेकर बाहर से तमाशा देखता है और इस खेल में जो जीतता है उससे अपना हित पूरा करवाने के लिए दबाव बनाता है। इसके अतिरिक्त दबाव समूह का उद्देश्य किसी एक या कुछ हितों की पूर्ति करना होता है जो उस समूह विशेष से संबंधित होता हैं। इसके विपरीत राजनीतिक दलों का उद्देश्य सामान्य और संपूर्ण समाज का हित (दिखावा में ही) साधन होता है।
2. कार्यक्षेत्र: दबाव समूह एक वर्ग विशेष के हितों का ही प्रतिनिधित्व करता है और उनके द्वारा वर्ग विशेष से संबंधित समस्याओं पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया जाता है। अतः दबाव समूह का कार्यक्षेत्र/कार्यक्रम अपेक्षाकृत विशिष्ट और संकीर्ण होता है जबकि राजनीतिक दलों का कार्यक्रम बहुरूपी व विस्तृत होता है क्योंकि इनका संबंध राष्ट्रीय हित की सभी समस्याओं और प्रश्नों से रहता है और उन्हें करोड़ों मतदाताओं का समर्थन प्राप्त करना होता है और एक जटिल तथा विशाल कार्यक्रम के आधार पर सामान्य समस्याओं को निपटाना होता है।
3. सदस्यता: दबाव समूहों की सदस्यता अनन्य या अपवर्जक नहीं होती, यह परस्पर व्यापी होती है। एक ही समय में एक व्यक्ति एक से अधिक दबाव समूहों की सदस्यता ले सकता है। उदाहरणस्वरूप एक व्यक्ति एक साथ जातिगत दबाव समूह, उपभोक्ता संघ, मोहल्ला संघ, श्रमिक संघ आदि की सदस्यता ग्रहण कर सकता है। दबाव समूह बहुत ढीले रूप में संगठित संघ होते हैं और इनमें सदस्यों की स्वतंत्रतापूर्वक बनी रहती है। इसके विपरीत एक व्यक्ति एक समय में एक ही राजनीतिक दल का सदस्य बन सकता है। साथ ही एक राजनीतिक दल की सदस्य संख्या दबाव समह की तुलना में कहीं अधिक होती है। भारत में कांग्रेस या भाजपा की सदस्य संख्या दो करोड़ के लगभग हैं। जबकि दबाव समूह की सदस्य संख्या कम होती है।
4. सजातीयता: विचारधारा और कार्यक्रम की दृष्टि से दबाव समूह राजनीतिक दलों की तुलना में अधिक संयुक्त व सजातीय समूह होता है। दबाव समूह उन्हीं व्यक्तियों का समूह होता है जिनके किसी विशेष मसले या विषय के संबंध में समान हित, समान विचार व समान रुचि होती है। विचारों की यह संगति ही दबाव समूह को राजनीतिक दृष्टि से प्रभावशाली बनाती है जबकि एक राजनीतिक दल में इस सजातीयता या संगति का अभाव होता है। व्यापक एवं राष्ट्रीय/क्षेत्रीय स्तर पर कार्य करने वाली एक राजनीतिक दल के सभी सदस्य या इकाइयां जरूरी नहीं हैं कि वे किसी विषय पर एकमत हों। उदाहरणस्वरूप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की देशभर में फैली इकाइयों के बीच एक तरह का वैचारिक सजातीयता मिल सकती है पर भाजपा के दो राज्यों के इकाइयों में हो सकता है कि किसी विषय पर अलग-अलग विचार हों।
5. साधन: राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल संवैधानिक साधनों को ही अपनायेंगे। इसलिए राजनीतिक दल संवैधानिक तथा उचित साधनों का ही प्रयोग करते हैं, लेकिन दबाव समूहों के द्वारा आवश्यकतानुसार संवैधानिक और संविधानिक सीमाओं के बाहर उचित-अनुचित सभी प्रकार के साधन अपनाये जाते हैं। साधनों की पवित्रता से कहीं अधिक जोर दबाव समूहों का जोर साध्य की प्राप्ति पर होता है।
6. संगठन: राजनीतिक दलों का अनिवार्य रूप से एक संगठन होता है जबकि यह तथ्य दबाव समूह के लिए कोई अनिवार्य नहीं है। कुछ दबाव समूहों का औपचारिक संगठन भी होता है। आज की परिस्थितियां अब धार्मिक एवं श्रमिक संगठनों के रूप में बनने वाले दबाव समूहों का न सिर्फ एक औपचारिक संगठन ही होता है बल्कि उनका कार्यक्षेत्र राष्ट्रव्यापी भी हो गये हैं। दूसरी तरफ अब कई राजनीतिक दल क्षेत्रीय एवं प्रादेशिक समस्याओं को लेकर प्रादेशिक या स्थानीय स्तर पर भी बनने लगे हैं।
अंतर होने के बावजूद राजनीतिक दलों एवं दबाव समूहों के बीच परस्पर संबंध भी रहता है। प्रायः यह कहा जाता है कि जब दबाव समूह अत्यधिक संगठित व प्रभावशाली रूप में समाज में व्याप्त रहते हैं तो राजनीतिक दल उनके प्रभाव में संगठन की तुलना में कमजोर पड़ते हैं और जहां राजनीतिक दल विशेष रूप से सबल तथा संगठित होते हैं, वहां दबाव समूह पिछड़ जाते हैं।
प्रश्नानुसार, जहां तक भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में संघ परिवार तथा इसकी इकाइयों का दबाव समूह के रूप में भूमिका का प्रश्न है तो अपनी स्थापना से लेकर आज तक संघ परिवार ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को विविध आयामों में प्रभावित किया है। अपने स्थापना काल के समय हेडगेवार तथा गोलवरकर के समय से संघ के मुस्लिम सांप्रदायिकता के विरुद्ध आवाज उठायी तथा हिंदुत्व का नारा बुलंद किया। यह नारा आज भी संघ का सर्वश्रेष्ठ उद्देश्य बना हुआ है। आपातकाल (1975) के दौरान संघ परिवार की गतिविधियों के कारण इसे प्रतिबंधित कर दिया गया था। वर्ष 1989 के उपरांत जब से भाजपा ने राममंदिर का मुद्दा उठाया।
संघ परिवार का महत्व भारतीय राजनीति में पुनः महत्वपूर्ण हो गया। इस स्थिति का फायदा उठाते हुए संघ परिवार के दो इकाई बजरंग दल तथा विश्व हिंदू परिषद ने 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस जैसी घटना में भी प्रमुख भूमिका निभायी। राजनीतिक विचारकों का मानना है कि चूंकि, भाजपा कहीं न कहीं संघ परिवार के समर्थन पर आश्रित हैं, इसलिए जबसे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आयी संसद में लिये गये हर निर्णयों और सरकार के अधिकांश कार्यों में आर.एस.एस./संघ परिवार का स्पष्ट हस्तक्षेप रहता है। गुजरात में केशूभाई पटेल सरकार पर संघ का इतना दबाव पड़ा कि उसने सरकारी कर्मचारियों को संघ में शामिल होने से संबंधित कानून ही पारित कर दिया। बाद में संपूर्ण देश में विरोध उठ जाने और संसद में विपक्ष के दबाव के कारण केंद्रीय सरकार को बचाने के लिए गुजरात सरकार को यह कानून वापस लेना पड़ा। समाचार पत्रों का यह आरोप है कि हाल में इसाई धर्म के खिलाफ आर.एस.एस. या संघ परिवार का समर्थन प्राप्त है। लेकिन सरकार संघ परिवार के दबाव के कारण कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जब से केंद्र में भाजपा सरकार आई है, तब से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा इसकी इकाइयां बजरंग दल व विश्व हिंदू परिषद राजनीतिक व्यवस्था को बहुत अधिक प्रभावित करने लगी हैं।
Question : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन संविधानिक उपचारों का अधिकार तथा ‘रेस जुडिकेटा’ का पालन।
(1999)
Answer : अनुच्छेद 32 भारतीय संविधान की आत्मा है। अनुच्छेद 32 (1) को नागरिकों को संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को समुचित कार्यवाहियों द्वारा प्रचलित करने का अधिकार की गारंटी देता है। अनुच्छेद 32(2) उच्चतम न्यायालय को इन अधिकारों के लिए समुचित निर्देश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण नामक रिट शामिल हैं, जारी करने की शक्ति प्रदान करता है। इन रिटों का वर्णन निम्न हैः
(i)बंदी प्रत्यक्षीकरण- लैटिन भाषा के शब्द ‘हैबियस कॉर्पस’ का हिंदी रूपांतर है- बंदी प्रत्यक्षीकरण। इसका शाब्दिक अर्थ ‘शरीर को प्राप्त करना है। इसका तात्पर्य है कि न्यायालय उस व्यक्ति को जिसने बंदी बनाया है, आदेश देता है कि वह बंदी बनाये गये व्यक्ति को सशरीर न्यायालय में उपस्थित करे, जिससे बंदी बनाये जाने के कारणों के औचित्य पर विचार किया जा सके। अगर उस व्यक्ति को गिरफ्रतार करने का औचित्य सिद्ध नहीं हो पाता है तो उसे मुक्त करने का आदेश दे सकता है, परंतु कुछ विशेष कानूनों तथा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत बंदी बनाये गये लोगों को यह अधिकार प्राप्त नहीं है।
(ii)परमादेश- यह लैटिन शब्द ‘मैनडमस’ का हिंदी रूपांतर है, इसका अर्थ है, हम आज्ञा देते हैं। परमादेश लेख द्वारा न्यायालय सार्वजनिक निकाय, सार्वजनिक कर्मचारी, निगम या संस्था को यह आदेश दे सकता है कि वह अपने कर्तव्य का पालन विधिनुसार करे।
(iii)प्रतिषेध- यह लेख उच्च न्यायालय अपने निम्न श्रेणी के न्यायालयों को उस समय जारी करता है, जब वे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रहे हो। यह लेख अधीनस्थ न्यायालयों को विवादपूर्ण विषयों पर विचार देने से रोकने के लिए प्रसारित किया जाता है। इसे केवल न्याययिक या अर्द्ध-न्यायायिक न्यायाधिकरणों के विरुद्ध जारी किया जाता है।
(iv)अधिकार पृच्छा- यह लैटिन शब्द ‘को-वारंटो’ से निकला है। इसका शाब्दिक अर्थ है, किसी अधिपत्र या प्राधिकार के द्वारा। अधिकार पृच्छा लेख द्वारा यदि कोई व्यक्ति गैर कानूनी ढंग से किसी पद या अधिकार का प्रयोग करता है, तो न्यायालय उसे ऐसा करने से रोक सकते हैं। इसका उद्देश्य किसी सरकारी पद या दावे की जांच करना है कि क्या यह व्यक्ति जिस पद या अधिकार का प्रयोग कर रहा है, वह उसके पास है।
(v)उत्प्रेषण- यह लैटिन शब्द ‘सरटोओरेरी’ से निकला है, इसका अर्थ प्रमाणित होना है। उत्प्रेषण उस लेख का नाम है, जो किसी उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालय को उस समय जारी किया जाता है, जब वह किसी मुकदमें की कार्यवाही से असंतुष्ट हो। इसके अंतर्गत उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय से सभी रिकार्ड अपने जांच पड़ताल के लिए मंगवा सकता है कि अधीनस्थ न्यायालय ने अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन तो नहीं किया है।
इन रिटों के तहत उच्चतम न्यायालय को इन मूल अधिकारों को लागू कराने के पर्याप्त अधिकार मिले हैं। इसके तहत आवेदन करने वाले की पात्रता यह थी कि वह व्यथित व्यक्ति हो, परंतु उच्चतम न्यायालय के एक फैसले के तहत अब तक कोई भी संस्था लोकहित में वाद दायर कर उपचार प्राप्त कर सकता है।
‘रेस जुडिकेटा’ के पालन का अर्थ है, यदि कोई वाद समान पक्षों द्वारा समान विषय पर उसी अदालत में दाखित किया जाता है, जिसमें उसी वाद को पूर्व में खारिज कर दिया है, तो ऐसा वाद स्वीकार्य नहीं होगा तथा निरस्त हो जायेगा। इसे पूर्व न्याय या प्राक् प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में दिया गया है। लेकिन अनुच्छेद 32 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका इसका अपवाद है और इसे अगर उच्चतम न्यायालय निरस्त कर देता है, तो भी वह नये आधारों पर उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है, लेकिन इसके अलावा अनुच्छेद 32 में वर्णित अन्य रिटों के मामले में यह व्यवस्था नहीं है।
Question : गोखले और तिलक के विचार तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर उनका प्रभाव।
(1999)
Answer : महाराष्ट्र के कोल्हापुर नामक स्थान में जन्में गोपालकृष्ण गोखले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आरंभिक दौर के एक महत्वपूर्ण नेता थे। कांग्रेस के उदारवादी दौर (1885-1905 ई.) के दौरान गोखले उदारवादियों के सिरमौर थे। गांधीजी इन्हें अपना राजनीतिक गुरू मानते थे। गोखले का भारतीय राजनीति में पदार्पण सर्वप्रथम 1889 में इलाहाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन में हुआ। गोखले 1897 में दक्षिणी शिक्षा समिति के सदस्य बने। बेल्बी आयोग के समक्ष गवाही दी,। बाद में 1902 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य चुने गये। 1905 में ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य उपनिवेशों का स्वशासन प्राप्त करना था। 1905 में बनारस में हुए कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता भी की। गोखले एक उदारवादी नेता थे, जिन्हें ब्रिटिश सत्ता पर आस्था थी और इसे वह भारत के लिए वरदान मानते थे, लेकिन गोखले कूट ढंग से किये गये बंगाल विभाजन के कटु आलोचक भी थे। वे भारतीय लोगों को शासन में अधिकाधिक स्थान देने की मांग करते थे, उन्हें संवैधानिक एवं क्रमिक विकास में गहरी आस्था थी। वे स्वशासन का लक्ष्य संवैधानिक तरीकों से प्राप्त करना चाहते थे। गोखले मानवीय नैतिकता, सार्वजनिक कार्यों के प्रति ईमानदारिता, राजनीति के आध्यात्मीकरण, हिंदू-मुस्लिम मैत्री, स्वदेशी आंदोलन एवं स्त्रियों की शोचनीय दशा में सुधार के प्रबल हिमायती थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए चलाये गये राजनीतिक आंदोलन के आरंभिक दौर में गोखले का काफी गहरा प्रभाव था। अपने बजट भाषणों में उन्होंने सरकार की दोषपूर्ण नीतियों की खुलकर आलोचना की थी और भारतीय जनमानस को आर्थिक दिक्कतों से अवगत कराया था। अंग्रेजी शासन के कारण भारत में पनपने वाली आर्थिक समस्याओं के ज्ञान ने ही आरंभ में राजनीतिक आंदोलन को आगे बढ़ाने में मदद किया था।
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भारतीय राष्ट्रवाद के भगीरथ ऋषि, असंतोष के वास्तविक जनक थे। तिलक ने भारतीय राजनीतिक चिंतन को एक नया आयाम देकर कांग्रेस को स्वाधीनता संघर्ष के लिए आमूल परिवर्तनवादी कार्यक्रम अपनाने के लिए विवश कर दिया। जहां उन्होंने केसरी और मराठा नामक साप्ताहिक पत्र प्रकाशित कर जनता को अंग्रेजी राज्य के दुष्परिणामों से अवगत कराया, वहीं 1893 में गणपति उतसव, 1895 में शिवाजी उत्सव एवं गोहत्या के विरोध में सभाओं की स्थापना कर जनमानस को एकजुट करने का भी प्रयास किया। 1899 के उपरांत उन्होंने विपिन चंद्र पाल एवं लाला लाजपत राय के साथ मिलकर कांग्रेस में उग्रवादी विचारधारा लाने का प्रयास किया। इन्हीं लोगों के प्रयत्न से बीसवीं शताब्दी के आरंभ में कांग्रेस को अंग्रेजी सत्ता का खुलकर विरोध करने को विवश होना पड़ा। वे बंगाल विभाजन (1905) के घोर विरोधी थे और इसके विरोध में स्वदेशी आंदोलन को पूरा-पूरा समर्थन दिया। तिलक स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर देते थे, भारतीयों की विदेश यात्र को उचित ठहराते थे, अस्पृश्यता एवं जाति पाति के घोर निंदक थे और भारतीय समाज में सुधार लाने के पक्ष में थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को तिलक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान संवैधानिक तरीके में आस्था को तिलांजलि देते हुए शांतिपूर्ण प्रतिरोध का समर्थन करना था। इसी के उपरांत कांग्रेस सही मायनों में राजनीतिक स्वतंत्रता के आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए आगे आ पायी।
Question : भारतीय संविधान के निर्माण में गांधी, नेहरू और अंबेडकर का प्रभाव।
(1999)
Answer : यद्यपि महात्मा गांधी ने संविधान सभा के निर्माण कार्यों में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लिया, लेकिन जो योगदान उनके विचार तथा कार्यक्रमों से मिला वह अविस्मरणीय है, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता है। गांधीजी के एक आर्दश लोकतांत्रिक शासन की कल्पना की थी, जिसमें सभी को मत देने तथा सक्रिय रूप से शासन संचालन में भाग लेने का अधिकार था। गांधीजी ने आर्थिक क्षेत्र में विकेंद्रीकरण को अपनाने का सुझाव दिया और उद्योगों को प्रोत्साहन की बात की। गांधीजी के समाज में सभी जाति, धर्म, भाषा, वर्ग और लिंग आदि भेदभाव के बिना सभी व्यक्तियों को समान सामाजिक तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे। गांधीजी अस्पृश्यता को भारतीय समाज के लिए कलंक मानते थे। गांधीजी एक धर्म निरपेक्ष राज्य चाहते थे, जिसमें सभी धर्म समान होंगे, सभी धर्मों के अनुयायियों को समान सुविधाएं प्राप्त होंगी। गांधीजी ने गांव-गांव में बुनियादी तालीम देने के स्वावलंबी पाठशालाओं की स्थापना करने तथा प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क प्रदान करने की वकालत की। सभ्य समाज बनाये रखने तथा समाज विरोधी
तत्वों का दमन करने के लिए पुलिस तथा देश की बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा के लिए सेना की वकालत की। ग्राम पंचायतों द्वारा न्याय किये जाने का समर्थन किया। यदि भारतीय संविधान पर दृष्टि डालें तो हम पायेंगे कि गांधीजी के इन विचारों तथा कार्यक्रमों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में आंशिक या पूर्ण रूप में अपनाया गया है या उनसे प्रेरणा ली गयी है। इस तथ्य के प्रथम झलक हमें संविधान के प्रस्तावना में ही मिल जाती है।
संविधान निर्माण में प्रत्यक्ष रूप से भाग लेते हुए नेहरू ने ही संविधान का उद्देश्य एवं प्रस्तावना प्रस्तुत किया था। संविधान में समाजवादी उद्देश्य नेहरू के ही प्रयत्न से जोड़ा गया था। समाजवादी विचारों को क्रियान्वित करने के लिए नियोजन का सहारा लिया। जिसके तहत भूमि सुधार संबंधी 9वीं अनुसूची का प्रावधान किया गया क्योंकि नेहरू का उद्देश्य सहकारी सेवा के उच्चतर आदर्श को स्थापित करना था। नेहरू ने देश के लिए मिश्रित आर्थिक व्यवस्था को प्रश्रय दिया तथा साथ ही रोजगार एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दिया, नेहरू ने लोकतंत्र को राजनीति के साथ-साथ आर्थिक तथा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में लाने का प्रयास किया, जिसके लिए अवसरों के समानता तथा आर्थिक विषमताओं के अंत की बात की। जिसे हम मौलिक अधिकारों तथा नीति निर्देशक तत्वों में झलक पा सकते हैं। नेहरू संसदीय प्रणाली के पक्षधर थे और इस व्यवस्था में अल्पसंख्यकों को महत्वपूर्ण भाग देने के समर्थक थे। नेहरू ने लोकतंत्र की सफलता के लिए वयस्क मताधिकार के महत्व को स्वीकार किया जिसे भारतीय संविधान में अपनाया गया है।
अंबेडकर को भारतीय संविधान के जनक के रूप में जाना जाता है। संविधान सभा के सदस्य अंबेडकर को 19 अगस्त 1947 को प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। अंबेडकर के प्रयासों से ही हरिजनों को संविधान में आरक्षण का प्रावधान 10 वर्षों तक (स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से लेकर) के लिए किया गया। अस्पृश्यता को अपराध घोषित कर दिया गया। अंबेडकर ने ऐसी शासन प्रणाली चाही, जिसमें बिना रक्तपात के जनसाधारण के सामाजिक और आर्थिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाये। यही सच्चे लोकतंत्र की कसौटी है। अंबेडकर ने देश की एकता अखंडता के लिए एकात्मक शासन प्रणाली का समर्थन किया। लोकतंत्र की सफलता के लिए सामाजिक-आर्थिक जीवन की घोर विषमताएं अभाव आवश्यक माना। उनके सुझावों के अनुरूप ही शक्तिशाली केंद्र और संवैधानिक उपचारों के अधिकारों को संविधान में शामिल करवाया।
Question : राजनीतिक दलों पर लेनिन, मिचेल्स और डुर्वजर के विचार।
(1999)
Answer : लेनिन, जो रूस की बोलशेविक क्रांति के कर्णधार के रूप में प्रसिद्ध हैं, वे मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार के लिए एक सुसंगठित, अनुशासनबद्ध तथा क्रांतिकारी दल को महत्वपूर्ण अस्त्र समझता था। उसके अनुसार मजदूरों में समाजवादी बनने के लिए क्रांतिकारी चेतना स्वतः नहीं आ सकती, वरन् इस प्रकार की चेतना के लिए बाहरी शक्ति की आवश्यकता रहती है, इसलिए एक सुसंगठित, शक्तिशाली और स्फूर्तिदायक दल आवश्यक है। लेनिन का मानना था कि पूंजीवाद के खिलाफ मजदूरों में संगठन बगैर एक दल के नहीं पैदा किया जा सकता है। लेनिन का मानना था कि क्रांति तथा सत्ता प्राप्ति के बाद साम्यवादी दल के लक्ष्यों में परिवर्तन आ जाता है। अब उसका लक्ष्य समाजवादी शक्तियों को सुदृढ़ करने के लिए सर्वहारा वर्ग का अधिनायकतंत्र स्थापित करना है, साथ ही साम्यवादी दल उत्पादन के सारे साधन स्वामित्व में रखकर उनके विकास तथा सामाजिक अवस्था को सुदृढ़ करने में करता है। इवन्सटीन का मानना है कि लेनिन का दल संबंधी सिद्धांत मार्क्सवादी विचारधारा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन है।’
राबर्ट मिचेल्स ने राजनीतिक दल संबंधित जो सिद्धांत दिया उसे ‘गुटतंत्र के लौह नियम’ के नाम से जाना जाता है। लौह नियम मिचेल्स के मतानुसार ऐसा नियम है जिसके पंजों से अधिक से अधिक प्रगतिशील राजनीतिक दल भी छूट कर नहीं निकल सकते हैं। मिचेल्स का मानना है कि मनुष्यों के प्रत्येक ऐसे संगठन में जो निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं, स्वल्पतांत्रिक प्रवृत्तियां मौजूद रहती हैं। इससे मनुष्यों के बहुमत के लिए गुलामी की शाश्वत मनोवृत्ति के कारण एक अल्पसंख्यक वर्ग के प्रभुत्व को मानना अपनी पूर्व नियति बन जाती है। सामाजिक जीवन के सभी रूपों में नेतृत्व की आवश्यकता है। सभी व्यवस्थाओं और सभ्यताओं में कुलीन तंत्र की विशेषताओं का प्रदर्शन होता है। एक बार जब नेता सत्ता में आ जाते हैं तो कोई शक्ति उन्हें शिखर से नहीं हटा सकती है। इतिहास गवाह है कि जब-जब क्रांतियां हुईं, क्रांति के बाद भी नेतृत्व की लगाम हमेशा थोड़े से व्यक्ति के हाथों में रही है।
अपनी पुस्तक ‘पॉलिटिकल पार्टीज’ में डुवरजर ने दल संबंधित
सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। उसने दलीय पद्धति को निर्वाचन पद्धति से संबद्ध किया है। उसकी मान्यता है कि निर्वाचन प्रणाली का दल पद्धति पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। सामान्य बहुमत प्रणाली दलों में स्वाभाविक दोहरापन लाने का कार्य करती है। डुवरजर के इस सिद्धांत में यह तथ्य निहित है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व हमेशा बहुदलीय पद्धति की सहभागी होती है। डुवारजर के अनुसार आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का बहुदलीय पद्धति के विकास व उसके स्थायित्व में महत्वपूर्ण योग रहता है। क्योंकि इस पद्धति को अपनाने से छोटे-छोटे दलों को भी विधानमंडल में उनकी शक्ति व समर्थन के अनुपात में बहुमत मिल जाता है। इस तरह आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली बहुदलीय प्रणाली को बढ़ावा देता है।
Question : सामाजिक सुधारक के रूप में राजा राम मोहन राय
(1998)
Answer : आधुनिक भारतीय समाज के अग्रदूत राजा राम मोहन राय ने भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। समाज सुधारक के रूप में उन्होंने मुख्य रूप से अपना ध्यान नारी उत्थान पर केन्द्रित रखा। उनके द्वारा सती-प्रथा के विरोध में तथा नारी को उत्तराधिकार का अधिकार दिलाने के लिए पुस्तिकाओं की रचना की गयी। बहु-विवाह का विरोध तथा विधवा विवाह का समर्थन राम मोहन राय ने किया। राम मोहन राय जाति-प्रथा के कटु आलोचक तथा अन्तर्जातीय विवाह के समर्थक थे। समाज सुधार के क्षेत्र में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि 1829 का कानून था जिसने स्त्री-प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। यह कानून राम मोहन राय की दस वर्षों की मेहनत का परिणाम था। उन्होंने अपना सती-प्रथा विरोधी आन्दोलन 1818 से ही आरम्भ कर दिया था। वे बाल-विवाह के भी विरोधी थे। भारतीय समाज में व्याप्त अशिक्षा को दूर करने के लिए उन्होंने डेविड हेयर के साथ मिलकर हिन्दू कॉलेज की स्थापना, 1817 में एक इंग्लिश स्कूल की कलकत्ता में स्थापना तथा 1825 में वेदांत कॉलेज की स्थापना की थी। राम मोहन राय स्त्री शिक्षा के भी पैरोकार थे। उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया था। उन्होंने पूर्व और पश्चिम के धर्मों को मानव-विवेक की कसौटी पर कसा तथा उनमें व्याप्त अंधविश्वासों और तर्कहीन मान्यताओं की कटु आलोचना की। उन्होंने हिन्दू धर्म के बहुदेववाद और मूर्ति पूज की आलोचना की थी। हिन्दू धर्म की कुरीतियों से संघर्ष करने के लिए उन्होंने 1814 में आत्मीय सभा की स्थापना की थी। 1828 में ब्रह्म समाज की नींव रखने के बाद राजा राम मोहन राय आजीवन सामाजिक सुधार के कार्य में लगे रहे।
Question : ‘‘हाल की न्यायिक सक्रियता की बाढ़ ने भारत में संसदीय प्रजातंत्र के संचालन में अनेक समस्याएं खड़ी कर दी हैं।’’ विवेचन कीजिए।
(1998)
Answer : हाल के वर्षों में न्यायपालिका द्वारा प्रशासन को कार्य करने के लिए मजबूर करने की प्रवृति में काफी तीव्रता आई है जिससे कई विवादों का जन्म हुआ है। न्यायिक सक्रियता अर्थात् न्यायपालिका द्वारा प्रशासन को कार्य करने के लिए मजबूर करने की बढ़ती प्रकृति को राजनीतिज्ञों द्वारा न्यायपालिका द्वारा विधायिका एवं कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण करने की प्रकृति की संज्ञा दी है। कुछ विद्वानों एवं राजनीतिज्ञों का यह मानना है कि हाल की न्यायिक सक्रियता की बाढ़ ने भारत में संसदीय प्रजातंत्र के संचालन में अनेक समस्याएं खड़ी कर दी हैं जिन्हें निम्नलिखित रूप से व्यक्त किया जा सकता है:
i.विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक को गैर-कानूनी बताकर या उसकी कमियों की तरफ ध्यान आकर्षित करने की प्रवृति के कारण न्यायपालिका ने जनमानस की नजर में विधायिका के सम्मान को क्षति पहुंचाई है जो संसदीय प्रजातंत्र के लिए अशुभ है।
ii.जनहित याचिका को बड़ी मात्र में स्वीकार करने के कारण न्यायपालिका ने कार्यपालिका के ऊंचे से नीचे तक के पदाधिकारियों के मन में डर का माहौल पैदा कर दिया है, इससे कोई भी पदाधिकारी कोई भी बड़ा कदम उठाने से बचने लगा है जो विकास के कार्यों को प्रभावित कर रही है।
iii.न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका और विधायिका के शक्तियों का अतिक्रमण करने से संसदीय प्रजातंत्र का आधार श्क्ति पृथक्करण का सिद्धांत ही खतरे में पड़ गया है।
iv.राजनीतिज्ञों एवं प्रशासनिक अधिकारियों के विरूद्ध मुकदमों एवं याचिकाओं को बड़ी मात्र में स्वीकार कर न्यायपालिका ने एक असमंजस की स्थिति खड़ी कर दी है। ऐसी स्थिति में जनमानस में राजनीतिज्ञों के प्रति घृणा का भाव तेजी से फैलता जा रहा है। चुनाव के प्रति बढ़ती नकारात्मक प्रवृति न्यायिक सक्रियता का ही परिणाम माना जा रहा है क्योंकि अब मतदाताओं में यह एक आम भावना बन चुकी है कि सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्ट होते हैं। इसलिए चुनाव की प्रक्रिया का कोई अर्थ नहीं है।
v.न्यायिक सक्रियता ने न्यायालय को ‘सुप्रीम कैबिनेट’ का दर्जा दे दिया है जो संसदीय प्रजातंत्र की धारणा पर एक कुठाराघात है।
उपर्युक्त वर्णित तर्कों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि न्यायिक सक्रियता में आई बाढ़ ने संसदीय प्रजातंत्र के लिए अनेकों समस्या पैदा कर दी है। लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या उपर्युक्त तथ्य सही है? न्यायपालिका ने पर्यावरण समस्या से संबंधित कई मामलों पर हाल में निर्णय दिये हैं। उदाहरणस्वरूप न्यायालय ने आगरा, दिल्ली एवं मद्रास की सीमाओं के भीतर स्थापित उद्योगों को बन्द करने या फिर स्थानांतरित करने का निर्णय दिया। अगर प्रशासन ने इस कार्य को चुस्ती से नहीं किया तो सामान्य जनता न्यायालय में जा सकती है और अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए। अगर जनमानस को स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध करने के लिए न्यायापालिका अपना निर्णय दे रही है तो वह सिर्फ अपना कार्य ही कर रही है जो कानून को लागू करवाने से संबंधित है।
सामाजिक विधेयन के मामले में भी न्यायालय ने हाल में अद्वितीय निर्णय दिये हैं जैसे कि दादा (पिता के पिता) की सम्पत्ति में उत्तराधिकारी हो सकना और एक हिन्दू द्वारा इस्लाम धर्म अपना लेने के बाद भी दूसरा विवाह करने को गैर कानूनी करार करना। उच्चतम न्यायालय ने सरकार का ध्यान ‘समान विधि’ (Uniform Civil Code) के लक्ष्य को जो संविधान में वर्णित है को प्राप्त करने की तरफ आकृष्ट करना। पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए पदों एवं नौकरियों में आरक्षण देने की राजनीति पर रोक लगाने संबंधी निर्णय भी उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया है और इस संबंध में कार्यपालिका एवं विधायिका को संवैधानिक प्रावधानों के भीतर रहने को कहा गया है।
देश की राजनीति को प्रभावित करने वाले निर्णयों के आधार पर न्यायालय के कार्यों के औचित्य पर प्रश्न चिह्न लगाना गलत ही होगा। उच्चतम न्यायालय ने सभी राजनीतिक दालों से निर्धारित समय सीमा के भीतर अपना-अपना आयकर जमा करने का निर्देश दिया। सी.बी.आई. को यह निर्देश दिया गया कि हवाला और सरकारी भवन घोटाला से संबंधित अपनी जांच प्रक्रिया को तेज करे और किसी भी पद पर बैठे हुए व्यक्ति के खिलाफ भी जांच करने से न चूके। न्यायालय द्वारा दिये गये इन निर्देशों ने राजनीतिज्ञों में असंतोष पैदा किया है। लेकिन सामान्य जन उत्साहित है कि देश में फैलते भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कुछ कदम तो उठाये जा रहे हैं। अगर न्यायालय किसी पूर्व प्रधानमंत्री या विधायक को किसी मामले में न्यायालय में हाजिर होने को कहता है, तो यह न्यायालय द्वारा कार्यपालिका या विधायिका के शक्तियों का अतिक्रमण नहीं है। अगर सरकारी अफसर जैसे कि कर्नाटक के जी. वासुदेवन को किसी केस में न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय को मानने में देर करने और इस तरह न्यायालय की अवमानना करने के आधार पर जेल दिया जाता है तो यह कोई गलत कार्य नहीं है क्योंकि इस निर्णय द्वारा उन अफसरों पर प्रभाव पड़ेगा जो राजनीतिज्ञों के दबाव में आकर अपना कार्य नहीं करते हैं और इससे एक स्वस्थ परम्परा की शुरूआत होगी। चूंकि देश में ‘विधि का शासन’ स्थापित है और ‘विधि की समानता’ हमारे न्याय का आदर्श है, इसलिए किसी बड़े नेता या प्रशासनिक अधिकारी को न्यायालय में बुलाना गलत बात नहीं है न ही गैर-कानूनी है। जिस तरह एक सामान्य व्यक्ति न्यायालय में आ सकता है, उसी तरह देश का कोई बड़ा या प्रभावी व्यक्ति भी। इस तरह न्यायालय द्वारा ऐसा करना कोई गलत बात नहीं है।
भारतीय संविधान कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के कार्यों को स्पष्ट रूप से उल्लेखित करता है। न्यायपालिका अपने अधिकार के तहत निम्नलिखित कार्य कर सकती है:
(1)विधायिका द्वारा पारित विधान की संवैधानिकता की जांच कर सकती है।
(2)अगर नागरीक न्यायालय के पास अपनी उचित समस्याओं को लेकर जाता है, तो न्यायालय यह देख सकती है कि कौन सा प्रशासनिक कार्य उचित ढंग से नहीं किया जा रहा है।
(3)सार्वजनिक कल्याणकारी कार्य प्रभावित न हो इसके लिए न्यायालय सरकारी मशीनरी को यह निर्देश दे सकती है कि वह भ्रष्टाचार को रोके। जैसा कि न्यायालय से एल-पी-जी- सिलेंडर और सरकारी आवासों को आवंटित करने में की गयी धांधली को रोकने के लिए किया है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि हाल की न्यायिक सक्रियता में आई बाढ़ संसदीय प्रजातंत्र के लिए समस्याएं पैदा नहीं करती बल्कि प्रजातंत्र को और अधिक प्रजातांत्रिक बनाने का प्रयास करती है। अगर विधायिका और कार्यपालिका अपनी भूमिका एवं कार्यों को ठीक ढंग से नहीं करेंगे तो यह न्यायपालिका ही है जो चीजों को ठीक करने और व्यवस्थित करने का कार्य करती है। देश के शासन का कोई अंग तो जनता की समस्याओं के निदान के लिए तैयार है। न्यायपालिका जनहित याचिका को स्वीकार कर और इसपर अपना निर्णय देकर किसी अंग के शक्ति का अतिक्रमण नहीं कर रही, बल्कि जनता की समस्याओं का निदान करने का प्रयास कर रही है। अपने इस शुभ कार्य में न्यायपालिका को बस इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी जनहित याचिकाएं या केसों को स्वीकार नहीं किया जाय जो किसी को बेवजह परेशान करने, प्रशासनिक कार्यों में रूकावट डालने, विकास के कार्य को बाधित करने और न्यायालय का समय बेवजह बर्बाद करने के लिए लाया गया हो।
Question : भारत में आतंकवाद की राजनीति
(1998)
Answer : आतंकवाद का अर्थ है किसी क्षेत्र या किसी विशेष जनसमूह के बीच किसी भी माध्यम से जैसे कि हत्याएं करके, डरा-धमका कर, अपहरण करके, दंगे आदि भड़का कर आदि डर का वातावरण पैदा कर देना। आधुनिक राजनीति में आतंकवाद की राजनीति एक प्रमुख भूमिका अख्तियार करती जा रही है। आज विश्व का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जो आतंकवाद की राजनीित के साये से बचा होगा ऐसी स्थिति में यह संभव नहीं था कि भारत आतंकवाद की राजनीति से बच पाता। भारत में आतंकवाद की राजनीति दो तरह से की जा रही है। यह दो तरह है बाह्य देशों द्वारा आतंकवाद की राजनीति और आंतरिक संगठनों एवं लोगों द्वारा आतंकवाद की राजनीति। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों द्वारा कश्मीर, पंजाब, मुंबई आदि क्षेत्रों में बम विस्फोट, हत्याएं या लूट-पाट की जो कार्यवाही चल रही है उसे बाह्य देश द्वारा आतंकवाद की राजनीति कहा जा सकता है। किसी देश द्वारा दूसरे देश में आतंकवाद की राजनीति करने के पीछे उद्देश्य यह होता है कि उस देश की राजनीतिक स्थिरता को छिन्न-भिन्न कर दिया जाये और विकास की गति को अवरूद्ध कर दिया जाये जिससे कि उस देश की सामरिक-राजनीतिक शक्ति कमजोर हो जाये। आंतरिक संगठनों एवं समूहों द्वारा आतंकवाद की राजनीति या तो बाह्य शक्ति के समर्थन द्वारा या अपने किसी राजनीतिक मांग पर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए या फिर जन मानस में आतंक फैलाकर अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किया जाता है। भारत के आसाम, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों में जो आतंकवादी प्रवृत्तियां बढ़ रही है, इसके पीछे उपरोक्त कारण ही हैं। आतंकवाद की राजनीति एक खतरनाक राजनीति है जो देश-समाज के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा कर रही है और विकास के मार्ग में अवरोधक का कार्य कर रही है।
Question : स्पष्ट कीजिए कि क्षेत्रीयता और सांप्रदायिकता की राजनीति ने भारत में राष्ट्र-निर्माण के कार्यों को कैसे प्रभावित किया है।
(1998)
Answer : भारतीय राजनीति का स्वरूप भारत की सामाजिक धार्मिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों ने निर्धारित किया है। भारतीय राजनीति में विशिष्ट तत्त्वों के समावेश से इसका जो स्वरूप विकसित हुआ है उसकी निम्नलिखित विशेषताएं हैंः
भारतीय राजनीति की उपर्युक्त विशेषताओं ने भारत में राष्ट्र-निर्माण के कार्य को बहुत ही बुरी तरह प्रभावित किया है और भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को गम्भीर खतरा पैदा किया है। रजनी कोठारी के अनुसार ‘‘राजनीति विकास की मूलभूत समस्या एकीकरण की है।’’ एम.एन. श्रीवास्तव के अनुसार ‘विभाजनकारी प्रवृत्तियां आज भी अस्तित्व में हैं और भविष्य में कई वर्षों तक बनी रहेंगी।’ भारत के राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को सबसे अधिक बाधित देश में फैलती क्षेत्रीयतावाद एवं सम्प्रदायिकता की राजनीति है। इन दोनों समस्याओं का अध्ययन अलग-अलग निम्नलिखित रूप से किया गया है:
(1) राष्ट्र-निर्माण को प्रभावित करने में क्षेत्रीयतावाद की भूमिका: क्षेत्रीयतावाद का अर्थ उस क्षेत्रीय भावना से है जो किसी क्षेत्र विशेष के प्रति उसमें रहने वालों की अत्यधिक भक्ति एवं निष्ठा को प्रदर्शित करती है। यह संकीर्ण विचारधारा इतनी बलवती हो जाती है कि राष्ट्रीय भावना का विरोध करने लगती है। परिणामस्वरूप राष्ट्र से अलगाव एवं विखण्डन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। भारत में क्षेत्रीयता की भावना पूरे देश में व्याप्त है। कहीं यह भाषा के आधार पर है तो कहीं किसी आदिवासी समाज, तो कहीं पर यह धर्म के आधार पर है। अपनी पृथक पहचान एवं पृथक् अस्तित्व के लिए सुनियोजित आंदोलन चलाए जा रहे हैं। कश्मीर, असम, लद्दाख, झारखण्ड, खालिस्तान, नागालैंड, मिजो आन्दोलन आदि इसके सशक्त उदाहरण हैं। क्षेत्रीयतावाद को बढ़ावा देने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
मॉरिस जोन्स के अनुसार, ''क्षेत्रवाद और भाषा के प्रश्न भारतीय राजनीति के इतने ज्वलंत प्रश्न रहे हैं और अभी के राजनीतिक इतिहास की घटनाओं के साथ इनका इतना गहरा संबंध रहा है कि प्रायः ऐसा लगता है कि यह राष्ट्रीय एकता की संपूर्ण समस्या है।'' स्पष्ट है कि इस क्षेत्रीयतावाद ने भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को गंभीर खतरा उत्पन्न किया है। वर्तमान में आवश्यकता है कि विभिन्न क्षेत्रीय ताकतों को राष्ट्रीय विचारधारा में समाहित करने की जिससे देश सुदृढ़ एवं उन्नत हो सके।
(2) राष्ट्र-निर्माण को प्रभावित करने में साम्प्रदायिकता की भूमिका: धार्मिक मतभेद उत्पन्न करना तथा भारत को धर्म के आधार पर विभाजित करने का कार्य अंग्रेजों ने किया। स्वतंत्र भारत में इस धार्मिक संकीर्णता को समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन यह और बढ़ती चली गयी। इसका कारण था कांग्रेस की मुसलमानों के वोट लेने के लिए तुष्टिकरण की नीति तथा मुसलमान नेताओं द्वारा मुसलमानों की एक पृथक पहचान बनाए रखकर सरकार पर दवाब बनाये रखने की नीति। इन दो नीतियों के कारण धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता का उदय हुआ।
धार्मिक तथा भाषायी आधार पर जब कोई समूह राजनीतिक तथा सामाजिक रूप से अपने आपको एक पृथक इकाई मानता है तथा अपने हित संवर्द्धन के लिए दूसरे समुदाय या समूह के हितों की परवाह नहीं करता, साम्प्रदायिक कहलाता है। अतः सांप्रदायिकता एक संकीर्ण विचारधारा है। साम्प्रदायिकता के निम्नलिखित मुख्य कारण हैंः
उपर्युक्त विवेचन से यह आसानी से समझा जा सकता है कि देश में बढ़ती क्षेत्रीयतावाद और साम्प्रदायिकता ने राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया को न सिर्फ क्षति पहुंचायी है, बल्कि पहुंचा भी रही हैं। जब तक इन समस्याओं का निदान नहीं किया जाता तब तक राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया सफल नहीं हो सकती है।
Question : आज संसार में प्रचलित, विधायिका-कार्यपालिका संबंधों के नमूने की विवेचना कीजिए। किन कारकों व शक्तियों के कारण अधिकांश देशों में कार्यपालिका, विधायिका पर हावी होने में सफल हो सकी है?
(1997)
Answer : राजनीतिक लेखक 18वीं शताब्दी और 19वीं शताब्दी के शुरुआत के दिनों में, जब अर्थव्यवस्था काफी सरल थी और आधुनिक राजनीतिक दलों का उदय नहीं हुआ था, सरकार के तीन अंगों के बीच समान संतुलन के बारे में सोच सकते थे ओर लिख सकते थे। लेकिन कुछ नये कारक, जो उन लेखकों के सामने उपस्थित नहीं हुए थे, वर्तमान शताब्दी में काफी प्रभावी हो गये हैं। इन कारकों ने सरकार के तीन अंगों- न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के बीच संतुलन के सिद्धान्त को काफी परिवर्तित कर दिया है। विविध कारकों के संयोग के कारण सरकारी अधिकार में बेहद वृद्धि और राष्ट्रीय पार्टियों का कठोर संगठनात्मक अनुशासन के साथ उदय ने कार्यपालिका के अधिकार का काफी बढ़ाया है। औद्योगिक क्रांति के कारण जन्मी एक जटिल राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, राष्ट्रीय सीमाओं की निरंतर सुरक्षा की आवश्यकता, मतदाताओं कि संख्या में विस्तार और सामाजिक सुधार के लिए लोकतांत्रिक दबाव ने सरकार के प्रकार्यों में अद्वितिय वृद्धि की है। सरकार का अंग, जिसके कार्यों में सर्वाधिक विस्तार हुआ है, वह है कार्यपालिका। लिप्सन के अनुसार, ''प्रत्येक नई शृंखला जो राज्यों से मतदाताओं की आशा बढ़ाती है, प्रत्येक अतिरिक्त शक्ति जो सरकार प्राप्त करती है, कार्यपालिका के शक्ति एवं प्रकार्यों में और विस्तार करती है।''
इसके अलावा, संगठित राजनीतिक दलों के उदय ने भी कार्यपालिका के अधिकार में वृद्धि की है। आधुनिक दल-व्यवस्था विधायकों को विधेयक के प्रस्ताव का अधिकार प्रदान करती है। उदाहरणस्वरूप, इंग्लैंड में संसद के औपचारिक सहमति से सभी विधेयक मंत्रिपरिषद द्वारा ही लाये जाते हैं। आधुनिक लोक-कल्याणकारी राज्यों में विधेयक प्रस्तुत करना एक उन्नत योग्यता और तकनीकी सूझबूझ का कार्य हो गया है। ऐसे में साधारण विधायक द्वारा विधेयक लाना और विधायिका द्वारा सामूहिक बहस द्वारा पारित कराना कठिन हो गया है। ऐसी स्थिति में कार्यपालिका ही अधिकांश विधेयक को विधायिका में लाती है क्योंकि उसके पास सभी योग्यताएं और तकनीकी सुविधा उपलब्ध होती है। साथ ही सामाजिक विधेयकों की संख्या वर्तमान राज्यों में काफी बढ़ गयी है और विधायिका के पास इतना समय नहीं होता है कि वह सभी पर समुचित समय दे पाये या बहस कर पाए। ऐसी स्थिति में मात्र खानापूर्ति करके कार्यपालिका पर ही सभी कार्य छोड़ दिये जाते हैं। इस स्थिति ने छद्म विधेयक की प्रथा को बढ़ाने के साथ-साथ कार्यपालिका की शक्ति में काफी वृद्धि की है।
अतः समकालीन प्रशासन में कार्यपालिका द्वारा किसी भी कार्य का आरंभ किया जाना एक प्राकृतिक विकास है। विधायिका के सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण और विभिन्न राजनीतिक विचारों तथा दलों से जुड़े रहने के कारण, यह आशा करना कि विधायिका सरकार का नेतृत्व करेगी, एक काल्पनिक सोच ही होगी। कार्यपालिका अपनी निगमित सोच और प्रकार्य के कारण ‘नेतृत्व की संकल्पना’ प्रदान करती है जिसके बगैर सरकारी मशीनरी का चक्का प्रभावी ढंग से नहीं चल सकता है।
कार्यपालिका के अधिकार में वृद्धि की आधुनिक प्रवृत्ति को नजरअंदाज करना या इससे डरना भी नहीं चाहिए। कुछ लोग यह मानते हैं कि कार्यपालिका की शक्ति में वृद्धि अंततः लोकतान्त्रिक व्यवस्था को खा जायेगी। लेकिन यह डर बेहद-ही अतिशयोक्तिपूर्ण है। आज लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में वैकल्पिक राजनीतिक दलों, जनमत संग्रह, कड़ी नजर रखने वाले समाचार पत्रों और स्वतंत्र न्यायपालिका के साथ-साथ, साधारण जन के राजनीतिक सोच-समझ में काफी वृद्धि हुई है और ये सभी कार्यपालिका को निरंकुश बनने से रोकने के लिए हर वक्त सजग हैं। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि आज विश्व के सभी देशों में कार्यपालिका- विधायिका के सम्बन्धों में काफी बदलाव आया है और अब विधायिका कार्यपालिका पर नजर रखने में उतनी प्रभावी नहीं रहती है जितना कि कभी सोचा गया था। वस्तुस्थिति यह है कि संगठित दल-व्यवस्था और बहुमत के कारण ही कार्यपालिका विधायिका के कार्यों एवं निर्णयों को प्रभावित करने में सफल हो रही है। कार्यपालिका विधायिका की तुलना में शक्तिशाली हुई है और हो रही है, पर जनमानस में बढ़ती राजनीतिक समझ उसे निरंकुश बनने नहीं देगी, सभी राजनीतिक लेखक इस तथ्य का समर्थन करते हैं।
Question : विकास प्रशासन के राजनीतिक आयाम
(1997)
Answer : आज विश्व में प्रचलित आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में विकास प्रशासन किसी भी सरकार का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू होता है। वर्तमान विश्व में अधिकांश सरकारें अपने लोगों के समर्थन के आधार पर बनती हैं। अतः सभी सरकारों का अपने लोगों या मतदाताओं के प्रति एक नैतिक और राजनीतिक उत्तरदायित्व होता है। सभी राजनीतिक दल जो सरकार में रहते हैं, यह प्रयत्न करते हैं कि विकास प्रशासन पर नियन्त्रण रखा जाये क्योंकि विकास प्रशासन पर उचित पकड़, जहां उन्हें राजनीतिक मान्यता प्रदान करती है, वहीं उनके लिए मतदाताओं की संख्या में भी वृद्धि करने में मददगार होती है। आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में विकास प्रशासन की सफलता किसी राजनीतिक दल को सरकार में रहने की गारंटी होती है, तो इसमें विफलता सरकार के पतन और नए सरकार की स्थापना का कारण भी बनती है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि अधिक-से-अधिक लोगों को, विशेषकर स्थानीय लोगों को, विकास प्रशासन की प्रक्रिया में शामिल करने के साथ विकास प्रशासन का विकेन्द्रीकरण किया जाये। साधारण जन में बढ़ती राजनीतिक चेतना ने विकास प्रशासन के राजनीतिक महत्व को और भी बढ़ा दिया है। अतः यह कहा जा सकता है कि विकास प्रशासन का राजनीतिक आयाम यह है कि यह किसी भी सरकार के भविष्य के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
Question : बोफोर्स दलाली और प्रतिभूति घोटालों के विशेष संदर्भ में राजनीतिक भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के संबंध में भारतीय संसद की भूमिका और उसकी सीमाओं की विवेचना कीजिए।
(1997)
Answer : सरकार में शामिल लोगों का बोफोर्स, प्रतिभूति, यूरिया, संचार जैसे घोटालों में लिप्त होने की बढ़ती घटनाओं ने उन लोगों के उत्साह को बढ़ाया है जो संसदीय शासन व्यवस्था को पूर्णतया गलत मानते हैं। उनकी मान्यता को इस तथ्य ने मजबूत किया है कि 1988-98 के बीच हुए लगभग सभी घोटालों में सरकारी मशीनरी और निर्णयों की प्रभावी भूमिका रही है। लेकिन यह एक-ध्यान देने वाला तथ्य है कि इन घोटालों में सरकार दोषी भले ही हो, संसदीय कमजोरी का प्रमाण नहीं मिलता है।
बर्लिन अवस्थित एक संगठन ‘Transparency International’ के अनुसार विश्व के व्यवसायी भारत को दुनिया का आठवां नंबर का भ्रष्ट देश मानते हैं। आज भ्रष्टाचार जीवन का एक ढंग बन गया है और राजनीतिज्ञों, अपराधियों तथा नौकरशाहों के बीच का गठबन्धन काफी मजबूत होता जा रहा है। वोहरा समिति के रिपोर्ट में भी इस तथ्य का उल्लेख भी किया गया है।
बोफोर्स दलाली का मामला, राजीव गांधी के शासनकाल में सुर्खियों में आया था। इस मामले में देश के कुछ राजनीतिज्ञों, व्यवसासियों एवं नौकरशाहों ने भारतीय सेना के लिए स्वीडिस कम्पनी से बोर्फोस तोप की खरीदारी करने में स्विडिस कम्पनी से करोड़ों रुपये की दलाली खायी थी। प्रतिभूति घोटाला, राव के शासन काल में जनता के सामने आया। इस कांड में शेयर मार्किट के कुछ बड़े शेयर दलालों ने राजनीतिज्ञों एवं बैंकों के अधिकारियों की मदद से, जाली प्रतिभूति जमा कर करोड़ों रुपये की बैंकों से गैरकानूनी ढंग से निकाला था और शेयर मार्केट को अपने फायदे के लिए उपयोग किया था।
अब प्रश्न उठता है कि उपर्युक्त राजनीतिक भ्रष्टाचारों को रोकने में भारतीय संसद की क्या भूमिका और सीमायें हो सकती हैं?
संसद हमारे देश में सर्वोच्च विधि निर्माण करने वाली संस्था है। हमारे संविधान ने इसे विविध विधिक एवं नियंत्रणकारी शक्तियां प्रदान की हैं। संविधान ने कार्यपालिका को संसद के प्रति उत्तरदायी बनाया है। सभी विषयों पर विस्तार से विचार-विमर्श करने, सरकार से सभी मामलों की विस्तृत जानकारी मांगने, प्रशासनिक पारदर्शिता के लिए विधि निर्माण करने, लोकपाल जैसी व्यवस्था की स्थापना के लिए कानून बनाने की शक्तियों के द्वारा भारतीय संसद, राजनीतिक भ्रष्टाचार को बहुत कम कर सकती है। भारतीय संसद, राजनीतिक भ्रष्टाचार रोकने के लिए न्यायिक सक्रियता एवं सी.बी.आई. जैसी जांच एजेन्सियों को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त रखने सम्बन्धि विधि बनाकर भी राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। अपने प्रत्येक सदस्य से सम्पत्ति का बराबर हिसाब लेते रहने, मंत्रियों के कार्यों पर कड़ी नजर रखने जैसे प्रावधानों द्वारा भी संसद राजनीतिक भ्रष्टाचार को काफी हद तक रोक सकती है।
लेकिन भारतीय संसद द्वारा राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकने की उसकी शक्ति की कुछ सीमाएं भी हैं जो निम्नलिखित हैंः
1.संसद को ऐसा कोई न्यायिक अधिकार नहीं है, जिसके द्वारा वह राजनीतिक रूप से भ्रष्ट व्यक्ति को सजा दे सके।
2.इसे जांच करने की शक्ति प्राप्त नहीं है। संसद द्वारा स्थापित जांच समितियां ऊपरी तौर पर जांच करती हैं और जांच समितियों पर भी कार्यपालिका का नियन्त्रण होता है।
3.संगठित राजनीतिक दलों और उनके अपने अनुशासन होने के कारण संसद, सरकार के विरुद्ध कोई कड़ा कदम उठाने में असमर्थ हो जाती है, क्योंकि जिस दल की सरकार होती है, उसे संसद में बहुमत भी प्राप्त होता है। बहुमत द्वारा सरकार, संसद के निर्णयों को अपने पक्ष में करने में समर्थ रहती है।
4.संसद सदस्यों में बढ़ती अनैतिकता के कारण आज संसद, कार्यपालिका पर बहुत अधिक नियंत्रण करने में असमर्थ-सी हो गयी है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि हमारे राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त दोष के कारण, हमारे राजनीतिज्ञों में अनैतिकता एवं भ्रष्टाचारिता की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। ऐसे में संसद द्वारा राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोक पाना, एक असंभव सा कार्य बनता जा रहा है। हमारी संसद अंततः इन्हीं राजनीतिज्ञों के बीच से चुने गये राजनीतिज्ञों से ही तो बनती है। आज स्थिति यह है कि जब तक संसद में गये राजनीतिज्ञ ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ नहीं होंगे, तब तक संसद, राजनीतिक भ्रष्टाचार को रोकने में कोई कारगर भूमिका निभा सकने में असमर्थ रहेगी।
Question : भारत के अनुभव के प्रकाश में वेबर द्वारा प्रतिपादित चमत्कारी नेतृत्व का परीक्षण कीजिए।
(1996)
Answer : करिश्मा (चमत्कार) शब्द का शब्दकोशीय अर्थ है ‘ईश्वरीय वरदान’। यह ईश्वर की कृपा से मिली योग्यता होती है। वेबर के अनुसार यह ''दूसरों पर लागू एक प्रकार की शक्ति है, जिसे लोग सत्ता के रूप में भी मानते हैं। जिस व्यक्ति के पास करिश्मे का गुण हैं, उसकी सत्ता दैविक ध्येय, अंतर्दृष्टि, नैतिक गुण आदि से संबंधित मिथक के रूप में देखी जा सकती है।'' करिश्मा अथवा चमत्कार का अर्थ है कुछ व्यक्तियों के असाधारण गुण। ऐसे गुणों से इन व्यक्तियों में सामान्य लोगों की निष्ठा तथा भावनाओं पर अधिकार कर लेने की क्षमता आ जाती है। करिश्माई सत्ता किसी व्यक्ति के प्रति असाधारण आस्था और उस व्यक्ति द्वारा बताई गयी जीवन-शैली पर आधारित होती है। ऐसी सत्ता की वैधता व्यक्ति की अलौकिक अथवा मायावी शक्ति में निहित होती है। ऐसे नेता चमत्कारों, सैनिक या अन्य प्रकार की विजयों अथवा अपने अनुयायियों की आकस्मिक समृद्धि के माध्यम से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। जब तक ये करिश्माई नेता अपने अनुयायियों अथवा समर्थकों की नजर में अपनी चमत्कारिक शक्तियों को सिद्ध करते रहते हैं, तब तक उनकी सत्ता बराबरा बनी रहती है। बेबर के अनुसार करिश्माई सत्ता से जो सामाजिक क्रिया जुड़ी है, वह भावात्मक क्रिया है। करिश्माई नेताओं के प्रवचनों तथा उपदेशों के प्रभाव से समर्थक अत्यन्त भावुक हो जाते हैं। यहां तक कि वे अपने नेता की पूजा तक करते हैं।
करिश्माई सत्ता परंपरागत विश्वासों अथवा लिखित नियमों पर आधारित नहीं होती। यह अपनी विशेष क्षमता के बल पर शासन करने वाले नेता के विशेष गुणों का ही परिणाम होती है। करिश्माई सत्ता संगठित नहीं होती, अतः इसमें कर्मचारियों अथवा प्रशासनिक तंत्र की आवश्यकता नहीं होती। नेता और उसके सहयोगियों का अपना कोई निश्चित यवसाय नहीं होता और वे प्रायः पारिवारिक दायित्वों से विमुख रहते हैं। ये गुण कभी-कभी व्यक्तियों को क्रांतिकारी भी बना देते हैं क्योंकि वे सभी परंपरागत सामाजिक प्रतिमानों तथा दायित्वों को अस्वीकार कर चुके होते हैं।
भारत में ऐसे करिश्माई नेतृत्व के उदाहरण के रूप में कबीर, दयानन्द सरस्वती एवं विवेकानन्द का नाम लिया जा सकता है। ये ऐसे करिश्माई नेता थे जिन्होंने किसी परंपरागत विश्वासों अथवा नियमों के आधार पर कार्य नहीं किया। इन्होंने अपनी विशेष क्षमता और विशेष गुणों के आधार पर पूरे समाज में अपने-अपने कालों में एक क्रांतियां-सी ला दीं। इन करिश्माई नेताओं ने अपने समय के सामाजिक व्यवस्था की कुरीतियों की आलोचना की और सामाजिक उद्धार का कार्य किया।
वेबर के अनुसार, व्यक्तिगत गुणों पर आधारित होने के कारण संबद्ध नेता की मृत्यु अथवा उसके लापता होने की स्थिति में उत्तराधिकार की समस्या पैदा होती है। जो व्यक्ति नेता का स्थान लेता है, संभव है उसमें वैसी चमत्कारिक शक्ति न हो। ऐसी स्थिति में नेता का मूल संदेश लोगों तक पहुंचाने के लिए जब किसी प्रकार का संगठन विकसित होता है। तब मूल करिश्माई सत्ता या तो पारंपरिक सत्ता या तर्क-विधिक सत्ता का रूप ग्रहण कर लेती है। वेबर के अनुसार यह करिश्मा अथवा चमत्कार का सामान्यीकरण है। कबीर की मृत्यु के बाद कबीरपंथ की स्थापना होने के बाद कबीर के करिश्मों अथवा चमत्कार का सामान्यीकरण हो गया है। ऐसा ही कुछ हमारे करिश्माई नेता गांधीजी और सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के बाद हुआ, आज उनके चमत्कारों का सामान्यीकरण हो गया है मगर अब भी इनमें जनता को दिशानिर्देशित करने की क्षमता है।
मैक्स वेबर के अनुसार, यदि चमत्कारिक नेता का पुत्र, पुत्री अथवा कोई निकट संबंधी उसका उत्तराधिकारी बनता है तब पारंपरिक सत्ता का अस्तित्व बना रहता है। उदाहरणास्वरूप स्वतंत्रता संग्राम में जनलोकप्रियता के कारण जवाहर लाल नेहरू अपने प्रधानमंत्रित्व काल में एक करिश्माई नेता बन गये थे। इनमें जहां जनता को प्रभावित करने की क्षमता थी वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी लोकप्रिय थे। उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी उनकी उत्तराधिकारी बनी और नेहरू परिवार के प्रभाव के कारण उनका प्रभाव भी धीरे-धीरे बढ़ता गया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में जीतने और बांग्लादेश का निर्माण करवाने के बाद श्रीमती गांधी स्वयंमेव एक करिश्माई नेता बन गयी थीं। उनका करिश्मा आपातकाल लगाने के बावजूद उनकी मृत्यु तक जनता के दिलोदिमाग पर छाया रहा। उनके उत्तराधिकारी बने राजीव गांधी और अब नेहरू परिवार की उत्तराधिकारी बनीं सोनिया गांधी उसी पारंपरिक चमत्कारिक सत्ता को ही बनाई हुई हैं।
वेबर आगे कहते हैं कि यदि चमत्कारिक गुणों का स्पष्ट उल्लेख होता है या वे लिखित रूप में मौजूद होते हैं- तो वह तर्क-विधिक सत्ता के रूप में बदल जाते हैं जिसके अंतर्गत इन गुणों से सम्पन्न कोई भी व्यक्ति नेता बन सकता है। दयानन्द द्वारा चलाये गये आर्य समाज के कार्यों को करते हुए ही स्वामी श्रंद्धानन्द, लाला हंसराज एवं लाला लाजपतराय आदि करिश्माई नेता के रूप में उदित हुए थे। इस प्रकार की करिश्माई सत्ता को अस्थिर एवं अस्थायी माना जा सकता है। उदाहरणस्वरूप श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद सहानुभूति लहर के बल पर अद्वितीय विजय प्राप्त करके प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी की जनप्रियता एवं करिश्मा उनके बोफोर्स मामले में संलग्न होने की खबर फैलने के साथ ही घटती गयी थी। दूसरी तरफ बोफोर्स मामले पर सरकार का विरोध करने के कारण विश्वनाथ प्रताप सिंह एक करिश्माई नेता बन कर उभरे थे, मगर मंडल आयोग के विवाद के बाद उनका करिश्मा भी लुप्त होता गया। हमारे समाज में करिश्माई नेताओं के उदाहरण समूचे इतिहास में मौजूद रहे हैं। सन्त, पैगम्बर तथा कुछ राजनेता ऐसी ही सत्ता के उदाहरण है।
अगर हम अपने देश के इतिहास को देखें, तो यह सरलता से जाना जा सकता है कि हमारे देश में विभिन्न चमत्कारिक गुणों एवं व्यक्तिगत विशेषताओं से युक्त बहुत से करिश्माई नेता या व्यक्ति हुए हैं। अलौकिक शक्तियों एवं विचारों के आधार पर महात्मा बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, कबीर, नानक, रामदास, दादू आदि करिश्माई नेता या संत थे, जिनके अनुयायियों कि संख्या लाखों में थी। मानवीय विचारों एवं सामाजिक सुधार की भावना के आधार पर राजाराम मोहन राय, विद्यासागर, केशवचन्द्र, दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, मदर टेरेसा, बाबा आम्टे जैसे लोग करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी रहे हैं। अपने सैनिक विजयों के आधार पर शिवाजी, हर्ष आदि शासक भी करिश्माई विशेषताओं से सम्पन्न रहे हैं। राजनीतिक शक्ति के आधार पर तिलक, गोखले, सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी आदि भी करिश्माई नेता के रूप में लोकप्रिय रहे हैं। क्षेत्रीय-जातीय राजनीति के आधार पर
मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, जयललिता, बाला साहब ठाकरे आदि भी करिश्माई व्यक्ति हैं, मगर इनके करिश्मा का प्रभाव एक सीमित क्षेत्र में ही रहा है। वास्तव में भारत में अगर किसी एक व्यक्ति को सम्पूर्ण भारत के सभी लोगों, सभी जातियों-धर्मों पर करिश्माई प्रभाव रखने वाला करिश्माई नेता माना जा सकता है, तो वह हैं महात्मा गांधी। उनकी करिश्माई व्यक्तित्व का प्रभाव अब तक महसूस किया जा सकता है।
Question : भारत के अनुभव के प्रकाश में वेबर द्वारा प्रतिपादित चमत्कारी नेतृत्व का परीक्षण कीजिए।
(1996)
Answer : करिश्मा (चमत्कार) शब्द का शब्दकोशीय अर्थ है ‘ईश्वरीय वरदान’। यह ईश्वर की कृपा से मिली योग्यता होती है। वेबर के अनुसार यह फ्दूसरों पर लागू एक प्रकार की शक्ति है, जिसे लोग सत्ता के रूप में भी मानते हैं। जिस व्यक्ति के पास करिश्मे का गुण हैं, उसकी सत्ता दैविक ध्येय, अंतर्दृष्टि, नैतिक गुण आदि से संबंधित मिथक के रूप में देखी जा सकती है।य् करिश्मा अथवा चमत्कार का अर्थ है कुछ व्यक्तियों के असाधारण गुण। ऐसे गुणों से इन व्यक्तियों में सामान्य लोगों की निष्ठा तथा भावनाओं पर अधिकार कर लेने की क्षमता आ जाती है। करिश्माई सत्ता किसी व्यक्ति के प्रति असाधारण आस्था और उस व्यक्ति द्वारा बताई गई जीवन-शैली पर आधारित होती है।
ऐसी सत्ता की वैधता व्यक्ति की अलौकिक अथवा मायावी शक्ति में निहित होती है। ऐसे नेता चमत्कारों, सैनिक या अन्य प्रकार की विजयों अथवा अपने अनुयायियों की आकस्मिक समृद्धि के माध्यम से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। जब तक ये करिश्माई नेता अपने अनुयायियों अथवा समर्थकों की नजर में अपनी चमत्कारिक शक्तियों को सिद्ध करते रहते हैं, तब तक उनकी सत्ता बराबरा बनी रहती है। बेबर के अनुसार करिश्माई सत्ता से जो सामाजिक क्रिया जुड़ी है, वह भावात्मक क्रिया है। करिश्माई नेताओं के प्रवचनों तथा उपदेशों के प्रभाव से समर्थक अत्यन्त भावुक हो जाते हैं। यहां तक कि वे अपने नेता की पूजा तक करते हैं।
करिश्माई सत्ता परंपरागत विश्वासों अथवा लिखित नियमों पर आधारित नहीं होती। यह अपनी विशेष क्षमता के बल पर शासन करने वाले नेता के विशेष गुणों का ही परिणाम होती है। करिश्माई सत्ता संगठित नहीं होती, अतः इसमें कर्मचारियों अथवा प्रशासनिक तंत्र की आवश्यकता नहीं होती। नेता और उसके सहयोगियों का अपना कोई निश्चित व्यवसाय नहीं होता और वे प्रायः पारिवारिक दायित्वों से विमुख रहते हैं। ये गुण कभी -कभी व्यक्तियों को क्रांतिकारी भी बना देते हैं क्योंकि वे सभी परंपरागत सामाजिक प्रतिमानों तथा दायित्वों को अस्वीकार कर चुके होते हैं।
भारत में ऐसे करिश्माई नेतृत्व के उदाहरण के रूप में कबीर, दयानन्द सरस्वती एवं विवेकानन्द का नाम लिया जा सकता है। ये ऐसे करिश्माई नेता थे जिन्होंने किसी परंपरागत विश्वासों अथवा नियमों के आधार पर कार्य नहीं किया। इन्होंने अपनी विशेष क्षमता और विशेष गुणों के आधार पर पूरे समाज में अपने-अपने कालों में एक क्रांतियां-सी ला दीं। इन करिश्माई नेताओं ने अपने समय के सामाजिक व्यवस्था की कुरितियों की आलोचना की और सामाजिक उद्धार का कार्य किया।
वेबर के अनुसार व्यक्तिगत गुणों पर आधारित होने के कारण संबद्ध नेता की मृत्यु अथवा उसके लापता होने की स्थिति में उत्तराधिकार की समस्या पैदा होती है। जो व्यक्ति नेता का स्थान लेता है, संभव है उसमें वैसी चमत्कारिक शक्ति न हो। ऐसी स्थिति में नेता का मूल संदेश लोगों तक पहुंचाने के लिए जब किसी प्रकार का संगठन विकसित होता है, तब मूल करिश्माई सत्ता या तो पारंपरिक सत्ता या तर्क-विधिक सत्ता का रूप ग्रहण कर लेती है। वेबर के अनुसार यह करिश्मा अथवा चमत्कार का सामान्यीकरण है। कबीर की मृत्यु के बाद कबीरपंथ की स्थापना होने के बाद कबीर के करिश्मों अथवा चमत्कार का सामान्यीकरण हो गया है। ऐसा ही कुछ हमारे करिश्माई नेता गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के बाद हुआ, आज उनके चमत्कारों का सामान्यीकरण हो गया है, मगर अब भी इनमें जनता को दिशा-निर्देशित करने की क्षमता है।
मैक्स वेबर के अनुसार, यदि चमत्कारिक नेता का पुत्र, पुत्री अथवा कोई निकट संबंधी उसका उत्तराधिकारी बनता है तब पारंपरिक सत्ता का अस्तित्व बना रहता है। उदाहरणास्वरूप स्वतंत्रता संग्राम के अपने जनलोकप्रियता के कारण जवाहर लाल नेहरू अपने प्रधानमंत्रित्व काल में एक करिश्माई नेता बन गये थे। इनमें जहां जनता को प्रभावित करने की क्षमता थी वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी लोकप्रिय थे। उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी उनकी उत्तराधिकारी बनी और नेहरू परिवार के प्रभाव के कारण उनका प्रभाव भी धीरे-धीरे बढ़ता गया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में जीतने और बांग्लादेश का निर्माण करवाने के बाद श्रीमती गांधी स्वयंमेव एक करिश्माई नेता बन गयी थीं। उनका करिश्मा आपातकाल लगाने के बावजूद उनकी मृत्यु तक जनता के दिलोदिमाग पर छाया रहा। उनके उत्तराधिकारी बने राजीव गांधी और अब नेहरू परिवार की उत्तराधिकारी बनीं सोनिया गांधी उसी पारंपरिक चमत्कारिक सत्ता को ही बनाई हुई हैं।
वेबर आगे कहते हैं कि यदि चमत्कारिक गुणों का स्पष्ट उल्लेख होता है या वे लिखित रूप में मौजूद होते हैं- तो वह तर्क-विधिक सत्ता के रूप में बदल जाते हैं जिसके अंतर्गत इन गुणों से संपन्न कोई भी व्यक्ति नेता बन सकता है। दयानन्द द्वारा चलाये गए आर्य समाज के कार्यों को करते हुए ही स्वामी श्रंद्धानन्द, लाला हंसराज एवं लाला लाजपतराय आदि करिश्माई नेता के रूप में उदित हुए थे। इस प्रकार की करिश्माई सत्ता को अस्थिर एवं अस्थायी माना जा सकता है। उदाहरणस्वरूप श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद सहानुभूति लहर के बल पर अद्वितीय विजय प्राप्त करके प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी की जनप्रियता एवं करिश्मा उनके बोफोर्स मामले में संलग्न होने की खबर फैलने के साथ ही घटती गई थी। दूसरी तरफ बोफोर्स मामले पर सरकार का विरोध करने के कारण विश्वनाथ प्रताप सिंह एक करिश्माई नेता बन कर उभरे थे, मगर मंडल आयोग के विवाद के बाद उनका करिश्मा भी लुप्त होता गया। हमारे समाज में करिश्माई नेताओं के उदाहरण समूचे इतिहास में मौजूद रहे हैं। सन्त, पैगम्बर तथा कुछ राजनेता ऐसी ही सत्ता के उदाहरण है।
अगर हम अपने देश के इतिहास को देखें, तो यह सरलता से जाना जा सकता है कि हमारे देश में विभिन्न चमत्कारिक गुणों एवं व्यक्तिगत विशेषताओं से युक्त बहुत से करिश्माई नेता या व्यक्ति हुए हैं। अलौकिक शक्तियों एवं विचारों के आधार पर महात्मा बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य, कबीर, नानक, रामदास, दादू आदि करिश्माई नेता या संत थे, जिनके अनुयायियों कि संख्या लाखों में थी। मानवीय विचारों एवं सामाजिक सुधार की भावना के आधार पर राजाराम मोहन राय, विद्यासागर, केशवचन्द्र, दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, मदर टेरेसा, बाबा आम्टे जैसे लोग करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी रहे हैं। अपने सैनिक विजयों के आधार पर शिवाजी, हर्ष आदि शासक भी करिश्माई विशेषताओं से सम्पन्न रहे हैं।
राजनीतिक शक्ति के आधार पर तिलक, गोखले, सुभाष चन्द्र बोस, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी आदि भी करिश्माई नेता के रूप में लोकप्रिय रहे हैं। क्षेत्रीय-जातीय राजनीति के आधार पर मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, जयललिता, बाला साहब ठाकरे आदि भी करिश्माई व्यक्ति हैं, मगर इनके करिश्मा का प्रभाव एक सीमित क्षेत्र में ही रहा है। वास्तव में भारत में अगर किसी एक व्यक्ति को सम्पूर्ण भारत के सभी लोगों, सभी जातियों-धर्मों पर करिश्माई प्रभाव रखने वाला करिश्माई नेता माना जा सकता है तो वह हैं महात्मा गांधी। उनकी करिश्माई व्यक्तित्व का प्रभाव अब तक महसूस किया जा सकता है।
Question : ''भारत की प्रशासनिक समस्याओं की जड़ें सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से राजनीति में अधिक हैं। अर्थात् वे देश के राजनीतिक ढांचे में स्थित हैं।'' विवेचन कीजए।
(1996)
Answer : आज भारतीय प्रशासन एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जिसमें संपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था बिखरी हुई तो नहीं मगर समस्याओं से ग्रसित जरूर दिख रही है। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, लालफीताशाही, कर्तव्यहीनता एवं कमिशनखोरी की बढ़ती प्रवृति ने सम्पूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था को असक्षम-सा बना डाला है। प्रख्यात राजनीतिक विश्लेषकों यथा, रजनी कोठारी से लेकर प्रो. सी.पी. भाम्मरी तक ने अपने लेखों में यह व्यक्त किया है कि भारत की प्रशासनिक समस्याओं की जड़ें हमारे खुद के राजनीतिक ढांचे में स्थित हैं। इन विश्लेषकों का मानना है कि देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था, जो पूरी तरह से जातिवाद, कट्टरवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, गरीबी, आवासहीनता और आर्थिक विषमता से ग्रसित है, ने भारत की प्रशासनिक व्यवस्था को जितना समस्याग्रस्त नहीं किया है उससे कहीं अधिक इन समस्याओं की जड़ें हमारे राजनीतिक ढांचे में दबी हुई हैं।
देश के राजनीतिक ढांचे की कुछ अपनी विशेषताएं है, जैसे- संसदीय शासन व्यवस्था, बहुमत का शासन और बहुमत प्राप्त करने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों व उम्मीदवारों का अस्तित्व। संसदीय शासन व्यवस्था, जिसे प्रजातन्त्र भी कहा जा सकता है, की खास विशेषता है जनता द्वारा कई उम्मीदवारों में से किसी एक को चुन कर संसद में भेजने की व्यवस्था। विजयी उम्मीदवारों को प्रजातांत्रिक व्यवस्था के तहत कई तरह के प्रशासनिक अधिकारों के मिलने की व्यवस्था ने बहुतों को राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया है, वहीं इन प्रशासनिक अधिकारों द्वारा अथाह दौलत कमा सकने की संभावना ने राजनीति को एक लाभदायक व्यवसाय का रूप दे दिया है।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था के तहत जनप्रतिनिधियों को ही मंत्रियों के रूप में प्रशासन के सभी अंगों का प्रमुख बनाने की व्यवस्था ने राजनीतिज्ञों द्वारा प्रशासनिक ढांचे को अपने राजनीतिक लाभ एवं अन्य स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने का अवसर प्रदान कर दिया है। बहुत-से राजनीतिज्ञों द्वारा अपने लाभ के लिए प्रशासन का इस्तेमाल करने की बढ़ती प्रवृत्ति ने इनके मातहत नौकरशाहों को भ्रष्टाचार के दलदल में खींचना शुरू कर दिया है। चाहे-अनचाहे अपने विभाग-प्रमुख मंत्रियों एवं अन्य नेताओं की बातों को मानने वाले नौकरशाह अब खुद भी अपने स्वार्थ के वशीभूत हो, प्रशासनिक शक्तियों का गलत इस्तेमाल करने में लिप्त होते जा रहे हैं।
‘बहुमत का शासन’ की व्यवस्था ने सत्ता प्राप्ति की होड़ में लगे नेताओं/राजनीतिक दलों द्वारा प्रशासनिक अधिकारों की ‘मलाई’ को समर्थन देने वाले नेताओं व राजनीतिक दलों को बांटने की प्रवृत्ति को जन्म दिया है। लेकिन इस प्रशासनिक अधिकारों की ‘मलाई’ को बांटने की प्रवृत्ति ने जहां प्रशासन को कर्तव्यहीनता एवं स्वार्थ की भावना से ग्रसित कर दिया है, वहीं संपूर्ण प्रशासन को पंगु भी बना डाला है।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में कोई भी व्यक्ति या दल मात्र चुनावों में जीतकर ही सत्ता पर काबिज हो सकता है। अतः आज नेताओं व राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिए किसी भी हथकंडे का अपनाया जाना एक आम बात हो गयी है। मतदान केन्द्र पर कब्जा करना, गुंडों द्वारा लोगों को डराना, बोगस वोटिंग करवाना, जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा-पेशे का इस्तेमाल लोगों को अपना समर्थक बनाने के लिए करना और सबसे महत्त्वपूर्ण है चुनाव प्रचार की प्रक्रिया से लेकर चुनाव जीतने तक अथाह दौलत को लुटाना इत्यादि जिनके कारण देश का राजनीतिक ढ़ांचा अपने बुनियाद पर ही भ्रष्टाचार से ग्रसित हो जाता है। जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा-पेशा या बंदूकों के जोर पर या दौलत के बल पर लोकसभा या विधानसभा में पहुंचे नेता और फिर इन्हीं में से प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्री बनने वाले लोग प्रशासन को किस तरह से चलाएंगे, यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है। कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि देश के केन्द्र और राज्यों की सरकारों के लगभग 50 से 60 प्रतिशत मंत्रियों पर किसी-न-किसी तरह का न्यायिक मुकदमा भारत के किसी-न-किसी न्यायालय में जरूर चल रहा है। मान लिया जाये कि इनमें से कुछ मंत्रिगण झुठे मुकदमों में फंसे होंगे मगर यह भी तो हो सकता है बहुत-से मंत्री जिन पर अभी कोई मुकदमा नहीं चल रहा है वे साक्ष्य उपलब्ध न होने के कारण बचे हुए हों।
चुनाव लड़ने के लिए अथाह दौलत चाहिए, एक राजनीतिक दल को चलाने के लिए दौलत चाहिए और निरंतर राजनीतिक प्रक्रिया में जमे रहने के लिए दौलत चाहिए- ये सब ऐसे कारण हैं जो एक मंत्री को अपने प्रशासनिक अधिकारों का गलत इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करते हैं। जब किसी विभाग का प्रमुख ही गलत कार्य कर रहा हो तो यह मानना कि उसके मातहत नौकरशाही वर्ग भ्रष्टाचार मुक्त रहेगी आश्चर्यजनक ही होगा। कोई भी प्रशासनिक व्यवस्था उस देश की राजनीतिक व्यवस्था की ही प्रतिबिंब होती है। जैसी राजनीतिक व्यवस्था होगी वैसा ही प्रशासनिक ढांचा भी होगा।
चुनाव जीतने के लिए जाति धर्म-क्षेत्र-भाषा आदि को एक मुद्दे और एक राजनीतिक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किये जाने की प्रवृत्ति इतनी बढ़ गयी है कि प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री और मंत्रियों के जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के आधार पर प्रशासनिक पद-क्रम पर अधिकारियों की नियुक्ति-प्रतिनियुक्ति की जाती है। देश की वर्तमान प्रशासनिक ढांचा भी जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के आधार पर बंटने लगा है। इस प्रवृत्ति ने प्रशासनिक व्यवस्था को जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा का अखाड़ा बना डाला है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव और देवगौड़ा के समय केन्द्रीय प्रशासन में ‘दक्षिण-उत्तर’ का विवाद काफी बढ़-सा गया था। इस तरह की कोई भी प्रवृत्ति हमारे देश के प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक अशुभ संकेत ही है।
अतः यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि भारत की प्रशासनिक- समस्याओं की जड़ें सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से राजनीति में अधिक हैं। अर्थात् वे देश के राजनीतिक ढांचे में स्थित हैं क्योंकि देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था खुद ही हमारे राजनीतिक व्यवस्था की उपज है। अगर राजनीतिज्ञों ने उचित प्रकार से अपना कर्तव्य निभाया होता तो देश में सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में जो समस्याएं है वे भी नहीं होतीं और हमारा प्रशासनिक व्यवस्था भी समस्याग्रस्त होने से बच जाता।
Question : भारत में राष्ट्र-निर्माण की समस्याओं की विवेचना कीजिए।
(1996)
Answer : प्रकृति द्वारा प्रदत्त विशेषताओं के कारण विविधता से भरे भारत देश में राष्ट्र-निर्माण की समस्याएं भी विविध हैं। क्षेत्र-जाति- धर्म-भाषा एवं सांस्कृतिक पहलुओं की विविधता के कारण भारत की राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया बराबर बाधित होती रही है। रजनी कोठारी ने भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन होने के बाद कहा था कि, ''नेताओं और भारत से सहानुभूति रखने वाले राजनीतिक पर्यवेक्षकों की आशंकाओं के बावजूद पुनर्गठन (भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन) से भारत का राजनीतिक नक्शा अधिक सुसंगत हो गया और राष्ट्र की एकता को भी खास नुकसान नहीं पहुंचा। इससे लाभ यह हुआ कि झगड़े का कारण दूर हुआ और राज्यों की कामकाज ऐसी भाषा में होना संभव हुआ जिसे जनसाधारण समझ सकें। बाद के अनुभव से तो यह कहा जा सकता है कि भाषा जोड़ने वाली शक्ति सिद्ध हुई। यदि इसमें कोई आशंका की बात है तो यही कि उप-भाषाओं और स्थानीय संस्कृतियों के आधार पर राज्यों के टुकड़े न हो जायं।''
विकासशील समाजों की एक महत्वपूर्ण समस्या राष्ट्र निर्माण की रही है। राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया इन देशों की राजनीतिक प्रक्रिया से जुड़ी हुई है। राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया के संदर्भ में ही विकासशील देशों के राजनीतिक विकास को समझा जा सकता है। राष्ट्र निर्माण के भावात्मक तत्त्वों की जब हम खोज करते हैं, तो हमारा ध्यान उन जातीय, भाषागत, धार्मिक, क्षेत्रीयता पर आधारित ‘परंपरागत निष्ठाओं’ की ओर जाता है जो आर्थिक समस्याओं एवं संकीर्ण राजनीतिक हथकंडों के साथ मिलकर राष्ट्र-निर्माण की समस्याओं का सृजन करती हैं। भारत में राष्ट्र-निर्माण में जो समस्याएं हैं, उन्हें निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता हैः
1. भारतीय राजनीति में जाति का महत्व: स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आरंभ होने से भारतीय समाज में स्थापित जातिप्रथा ने मतदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना प्रारंभ कर दिया। जाति की राजनीति में भूमिका से जाति एक महत्वपूर्ण व प्रभावकारी तत्त्व बनती चली गयी। वर्तमान में जाति की भूमिका का महत्व निम्न है-
(क)जातियां सरकार की निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। इसके उदाहरण हैं अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण, मंडल आयोग एवं उसका क्रियान्वयन आदि।
(ख)राजनीतिक दलों के कार्यक्रम तथा निर्णय जाति के आधार पर होते हैं। राजनीतिक दलों के पदाधिकारी भी जाति के आधार पर बनाए जाते हैं।
(ग)चुनाव में जाति का अत्यधिक प्रभाव सर्वाधिक देखा जा सकता है। चुनाव में प्रत्याशी खड़ा करने से पूर्व प्रत्येक राजनीतिक दल उस चुनाव क्षेत्र में जातियों के प्रतिशत का अध्ययन अवश्य कर लेता है। जाति के आधार पर मतदान भी होता है।
(घ)मंत्रिमंडल का निर्माण करते समय भी यह ध्यान रखा जाता है कि सभी जातियों का प्रतिनिधित्व हो जाये।
(घ)जाति, दबाव समूह के रूप में भी कार्य करती है तथा राजनीतिक सौदेबाजी भी करती है।
(च)प्रशासन में आरक्षण के माध्यम से जाति को महत्त्व प्रदान किया गया है।
(छ)राजनीतिक नेतृत्व का जनाधार केवल जातिगत आधार तक ही सीमित है।
‘जातिवाद के बढ़ते प्रभाव को कुछ विद्वान प्रगति में बाधक मानते हैं, जैसे डी.आर. गाडगिल, समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास आदि तथा कुछ विद्वान इसे राजनीतिक प्रक्रिया को गतिशील करने के लिए उचित मानते हैं जैसे आई. रूडॉल्फ तथा एस. हाबर रूडॉल्फ आदि। यह दोनों अमरीकी लेखक दि मांडर्निटी ऑफ ट्रेडीशन में लिखते हैं कि ''जाति व्यवस्था ने भारत में------- भारतीयों की आपसी दूरी कम करके उन्हें अधिक समान बनाकर समानता के विकास में सहायता दी है।'' विद्वान आंद्रे बैतें का मानना है कि जाति भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु है और जाति आधारित राजनीति की बढ़ती प्रवृत्ति ने आपसी विद्वेष को बढ़ाकर राष्ट्र-निर्माण के लिए समस्याएं पैदा की हैं।
2. भारतीय राजनीति में धर्म एवं सांप्रदायिकता: धार्मिक मतभेद उत्पन्न करना तथा भारत को धर्म के आधार पर विभाजित करने का कार्य अंग्रेजों ने किया। स्वतंत्र भारत में इस धार्मिक संकीर्णता को समाप्त हो जाना चाहिए था, लेकिन यह और बढ़ती चली गई। इसका कारण था कांग्रेस की मुसलमानों के वोट लेने के लिए तुष्टिकरण की नीति तथा मुसलमान नेताओं द्वारा मुसलमानों की एक पृथक पहचान बनाए रखकर सरकार पर दबाव बनाए रखने की नीति। इन दो नीतियों के कारण धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता का उदय हुआ।
धार्मिक तथा भाषायी आधार पर जब कोई समूह राजनीतिक तथा सामाजिक रूप से अपने आपको एक पृथक इकाई मानता है तथा अपने हित संवर्द्धन के लिए दूसरे समुदाय या समूह के हितों की परवाह नहीं करता, सांप्रदायिक कहलाता है। अतः सांप्रदायिकता एक संकीर्ण विचारधारा है। वैसे तो भारतीय समाज प्रमुख रूप से चार धर्मों-हिंदू, मुस्लिम, ईसाई एवं सिख धर्मों में बंटा हुआ है, पर इन प्रमुख धर्मों के भीतर भी कई उप-सम्प्रदाय हैं और सांप्रदायिकता की भावना अलग-अलग स्तर पर सभी पर अपना प्रभाव जमा चुकी है।
भारतीय मुसलमानों को वोट बैंक बनाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा किया गया प्रचार एवं उन्हें उकसाने के कार्य ने धार्मिक सद्भावना के स्थान पर धार्मिक वैमनस्यता को और बढ़ाया है। भारतीय जनता पार्टी द्वारा चलाये जा रहे मंदिर निर्माण आंदोलन ने भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। रघुवीर दयाल आयोग (1967), दत्ता आयोग (1970) तथा जोसेफ विथ्यायिस आयोग (1971) ने राजनीतिक दलों को सांप्रदायिक दंगों के लिए दोषी ठहराया। यह सांप्रदायिकता राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को रोकती है।
3. भारतीय राजनीति में क्षेत्रीयतावाद: क्षेत्रीयतावाद का अर्थ उस क्षेत्रीय भावना से है जो किसी क्षेत्र विशेष के प्रति उसमें रहने वालों की अत्यधिक भक्ति एवं निष्ठा को प्रदर्शित करती है। यह संकीर्ण विचारधारा इतनी बलवती हो जाती है कि राष्ट्रीय भावना का विरोध करने लगती है। परिणामस्वरूप राष्ट्र से अलगाव एवं विखंडन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। भारत में क्षेत्रीयता की भावना पूरे देश में व्याप्त है। कहीं यह भाषा के आधार पर है तो कहीं किसी आदिवासी समाज, तो कहीं पर यह धर्म के आधार पर है। अपनी पृथक पहचान एवं पृथक अस्तित्व के लिए सुनियोजित आंदोलन चलाये जा रहे हैं। कश्मीर, असम, लद्दाख, झारखंड, खालिस्तान, नागालैंड, बोडोलैंड, मिजो आंदोलन आदि इसके सशक्त उदाहरण हैं। क्षेत्रीयतावाद को बढ़ावा देने के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-
मॉरिस जोन्स के अनुसार, ‘क्षेत्रवाद और भाषा के प्रश्न भारतीय राजनीति के इतने ज्वलंत प्रश्न रहे हैं और अभी के राजनीतिक इतिहास की घटनाओं के साथ इनका इतना गहरा संबंध रहा है कि प्रायः ऐसा लगता है कि यह राष्ट्रीय एकता की सम्पूर्ण समस्या है।’ स्पष्ट है कि इस क्षेत्रीयतावाद ने भारत की राष्ट्रीयता, एकता एवं अखंडता के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न किया है। वर्तमान में आवश्यकता है विभिन्न क्षेत्रीय ताकतों को राष्ट्रीय विचारधारा में समाहित करने की जिससे देश सुदृढ़ एवं उन्नत हो सके।
4. भारतीय राजनीति में भाषावाद: भारत की भाषा समस्या, यहां पर बोली तथा लिखी जाने वाली अनेक भाषाओं के कारण है। मुसलमानों के शासन में यहां उर्दू का विकास हुआ। अंग्रेजों के समय में अंग्रेजी का विकास हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय भाषाओं का महत्त्व कम हो गया तथा उन्हें हीन एवं दुर्बल भाषाएं समझा जाने लगा। स्वतन्त्र भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखा गया तथा हिंदी को राष्ट्रभाषा एवं क्षेत्रीय भाषाओं को राज्यों तक सीमित रखा गया।
इस त्रिभाषा सूत्र ने भाषागत राजनीति को जन्म दिया। हिन्दी बोलने वाले क्षेत्रों में अंग्रेजी विरोधी आन्दोलन चलाये गये तथा दक्षिण भारत के राजनीतिक दलों द्वारा सुनियोजित ढंग से हिंदी विरोधी आंदोलन चलाये गये तथा यह कहा गया कि हिन्दी को जबर्दस्ती उन पर थोपा जा रहा है। मुसलमानों ने उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए राजनीतिक आंदोलन चलाया। अन्य भाषाएं भी अपने वर्चस्व एवं अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। राज्यों के पुनर्गठन भी भाषायी आधार पर किये गये। भाषा को लेकर की जा रही राजनीति ने देश को एक अनावश्यक विवाद में उलझाकर रख दिया है जिससे देश की एकता एवं अखंडता कमजोर हुई है। यह देश के प्रगति में भी बाधक है।
भारतीय राजनीति पर गहरी आलोचनात्मक दृष्टि रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार राष्ट्र निर्माण की समस्याओं जैसे कि जातिवाद, धार्मिक कट्टरतावाद, क्षेत्रीयतावाद और भाषावाद के बढ़ने के पीछे सामाजिक-सांस्कृतिक विभेदता एवं आर्थिक विषमता प्रमुख कारक हैं, लेकिन विभेदता एवं विषमता को एक राजनीतिक विवाद का शक्ल देने का कार्य राजनीतिज्ञों ने किया। अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने अपने-अपने स्वार्थों के लिए देश के लोगों में फूट के बीज को गहराई तक जमाने का कार्य बेहद ही चालाकी से किया है। कुछ लोगों का मानना है कि देश में यातायात एवं संचार साधनों का समुचित विकास न हो पाना, गरीबी-भूखमरी-बेरोजगारी- आवासहीनता जैसी समस्याओं का यथोचित निदान नहीं हो पाना एवं विदेशी शक्तियों द्वारा देश में अलगाववाद भड़काने का प्रयास करना आदि भी देश में राष्ट्र-निर्माण की समस्याऐ हैं। लेकिन विश्लेषकों का एकमत विचार है कि देश में राष्ट्र-निर्माण की समस्याओं की जड़ें हमारी खुद की भ्रष्ट एवं अवसरवादी होती राजनीतिक-ढांचा में ही हैं। इसे सुधारे बगैर राष्ट्र-निर्माण होना कठिन ही है।
Question : भारत के विशेष संदर्भ में राजनीतिक संस्कृति और नागरिक संस्कृति में क्या संबंध है?
(1995)
Answer : मानव इसलिए मानव है, क्योंकि उसके पास संस्कृति है। संस्कृति के अभाव में मानव को पशु से श्रेष्ठ नहीं माना जा सकता। संस्कृति ही मानव की श्रेष्ठतम धरोहर है जिसकी सहायता से मानव पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है, प्रगति की ओर उन्मुख होता है। डॉ. आर.सी. दुबे के अनुसार, ''सीखे हुए व्यवहार प्रकारों की उस समग्रता को, जो किसी समूह को वैशिष्ट्य प्रदान करती है, ‘संस्कृति’ की संज्ञा दी जा सकती है।'' अन्य शब्दों में, ''किसी समूह के ऐतिहासिक विकास में जीवनयापन के जो विशिष्ट स्वरूप विकसित हो जाते हैं, वे ही उस समूह की संस्कृति हैं।'' रॉबर्ट बीरस्टीड लिखते हैं, ''संस्कृति वह संपूर्ण जटिलता है जिसमें वे सभी वस्तुएं सम्मिलित हैं, जिन पर हम विचार करते हैं, कार्य करते हैं और समाज के सदस्य होने के नाते अपने पास रखते हैं। इसके अन्तर्गत हम जीवन जीने या कार्य करने एवं विचार करने के उन सभी तरीकों को सम्मिलित करते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती हैं और जो समाज के स्वीकृत अंग बन चुके हैं।''
उपर्युक्त वर्णित संस्कृति की परिभाषाएं एक तरह से नागरिक संस्कृति को ही व्यक्त करती हैं। संस्कृति वस्तुतः वही है, जो किसी जगह के नागरिकों में परम्परागत रूप से प्रचलित हो। नागरिकों के सोचने-विचारने, रीति-रिवाजों, धर्म-मतों, खान-पान एवं अन्य कार्यों को नागरिक संस्कृति कहा जा सकता है।
किसी समाज या देश में प्रचलित राजनीतिक व्यवस्था, राजनीतिक प्रक्रिया एवं राजनीतिक परंपरा को ‘रानीतिक संस्कृति’ कहा जाता है। एक समाज किस प्रकार के राजनीतिक व्यवस्था को अपनाये हुए है और किस प्रकार इस राजनीतिक व्यवस्था को निरंतर रखने के लिए कार्य कर रही है, यह उस समाज की राजनीतिक संस्कृति कही जाती है।
राजनीतिशास्त्रियों के अनुसार किसी भी देश या समाज के राजनीतिक संस्कृति और नागरिक संस्कृति में बड़ा ही अटूट संबंध होता है। राजनीतिशास्त्रियों का मानना है कि जैसी नागरिक संस्कृति होगी, वैसी ही किसी देश की राजनीतिक संस्कृति भी होगी। अगर किसी देश या समाज की नागरिक संस्कृति में उग्रता, विद्वेषता एवं लूटपाट की भावना बलवती होगी, तो वहां की राजनीतिक संस्कृति पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। अफ्रीका के कई छोटे-छोटे देशों में आंतरिक गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है। इसके पीछे उन देशों की नागरिक संस्कृति का प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। ऐसे देशों में प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की कल्पना करना एक कोरी बात ही होगी। स्विट्जरलैंड या स्वीडन जैसे देशों में या फिर एस्किमों जैसे शांत एवं सहयोगी भावना से परिपूर्ण नागरिक संस्कृति वाले देशों या समाजों में निरंकुश शासन की कल्पना करना कठिन ही है। इसलिए यह कहना शायद उचित ही होगा कि राजनीतिक संस्कृति और नागरिक संस्कृति के बीच बड़ा ही अटूट संबंध है।
वैसे कुछ राजनीतिक विद्वानों का मानना है कि राजनीतिक संस्कृति भी नागरिक संस्कृति को प्रभावित करती है। अमेरिका में दास प्रथा के विरुद्ध बनी राजनीतिक संस्कृति ने दास प्रथा को अनिवार्य समझने वाली अमेरिकी नागरिक संस्कृति को अपनी सोच में परिवर्तन लाने के लिए बाध्य किया।
जहां तक भारत के विशेष सन्दर्भ में राजनीतिक संस्कृति और नागरिक संस्कृति में सम्बन्धों का सवाल है, तो यह कहना शायद उचित ही होगा कि दोनों के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है या यो कहें कि परस्पर प्रभाव डालने वाला संबंध है। भारत में लोकतन्त्रीय राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत एक प्राचीन और विविधतापूर्ण समाज का आधुनिकीकरण किया जा रहा है। भारत में समाज के विखण्डित ढांचे में राजनीतिक संस्थाओं, मूल्यों और विचारों का प्रवेश हो रहा है। भारत जैसी अराजनीतिक समाज व्यवस्था में राजनीतिक केन्द्र की स्थापना हो रही है और समाज के विविध वर्गों को राजव्यवस्था में स्थान दिया जा रहा है। राजनीतिकरण की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के कारण अब तक जो गांव, समाज, वर्ग और सम्प्रदाय राजनीतिक व्यवस्था से दूर रहे हैं, वे भी इसके निकट आ रहे हैं।
भारत में स्थापित नयी राजनीतिक व्यवस्था ने जो राजनीतिक संस्कृति की शुरूआत की है, उसने वर्गों, वर्णों, जातियों, धर्मों क्षेत्रों तथा भाषाओं के आधार पर बंटी भारतीय समाज को या यों कहें कि विभिन्न नागरिक संस्कृतियों को, एक धागे में पिरोने का कार्य शुरू किया है। आज यह कहा जा सकता है कि भारत सही मायने में एक राजनीतिक अस्तित्व रखता है। लेकिन गुन्नार मिर्डल इसे सत्य नहीं मानते हैं। उनका कहना है कि ''भारतीय नेतृत्त्व को उस विरोधाभासी स्थिति ने दुर्बल कर दिया है, जिसमें वह अपने आपको पाता है -------- सामान्य और अनिश्चितता के स्तर पर वे (भारतीय नेतागण) खुले रूप में और अधिकांशतया उत्साह के साथ उग्र सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों की आवश्यकता पर बल देते हैं लेकिन अपनी नीतियों के निर्धारण में वे एक ऐसा मार्ग अपनाते हैं ताकि परम्परागत सामाजिक व्यवस्था भंग न हो। जब कभी वे उग्र संस्थात्मक सुधारों को कानून का रूप देते हैं, उदाहरण के लिए करारोपण या ग्रामों में सम्पत्ति अधिकार के सम्बंध में, तो वे कानूनों में सभी प्रकार की कमियां छोड़ देते हैं और उन्हें अक्रियान्वयन की स्थिति में रहने देते हैं।'' गुन्नार मिर्डल का कहने का अर्थ यही है कि अभी भारतीय राजनीतिक संस्कृति पूरी तरह से नागरिक संस्कृति में व्याप्त चंद बुराइयों से बच नहीं सकी है या अलग नहीं है।
जहां भारत में परिवर्तित एवं सुधरती राजनीतिक संस्कृति ने नागरिक संस्कृति को प्रभावित किया है, वहीं नागरिक संस्कृति ने भी राजनीतिक संस्कृति को प्रभावित किया है। भारतीय नागरिक संस्कृति के कुछ प्रमुख तत्त्वों ने भारतीय राजनीतिक संस्कृति को काफी प्रभावित किया है। भारतीय नागरिक संस्कृति में धर्मों के प्रति अत्यधिक लगाव होने के कारण ही नयी राज-व्यवस्था के स्वरूप को धर्मनिरपेक्ष घोषित करना अपरिहार्य था। आज भारतीय राजनीतिक संस्कृति में धर्मनिरपेक्षता का जो महत्त्व है, वह भारत के लोगों द्वारा विविध धर्मों को अपनाने एवं मानने की प्रवृत्ति का ही परिणाम है और इसका उद्देश्य सभी धर्मों को बराबर अधिकार देना है।
हेराल्ड गोल्ड के अनुसार, ''भारतीय राजनीति का आधार होने के बजाय, जाति उसको प्रभावित करने वाला एक तत्त्व है।'' भारतीय नागरिक संस्कृति में जाति के प्रति अत्यधिक लगाव का ही परिणाम है कि आज भारतीय राजनीतिक संस्कृति में जाति आधारित राजनीतिक सोच बलवती है, जाति के आधार पर राजनीतिक एवं प्रशासनिक आरक्षण ने इस सोच को और भी आगे बढ़ाया है। रजनी कोठारी लिखते हैं कि जाति के बन्धन को स्वीकार करने और राजनीतिक सौदेबाजी एवं गठबन्धन में उसका सहारा लेने के कारण उसको देश की राजनीतिक व्यवस्था में स्थान देना तथा उसे राजनीतिक संगठन का आधार बनाना आसान हो गया है। जातियां अपनी संख्या के बल पर चुनाव परिणामों, चुनाव के प्रत्याशियों एवं सरकार के गठन तथा मंत्रियों के चुनाव में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। भारतीय नागरिक संस्कृति में अपनी भाषा और क्षेत्र के प्रति एक अटूट लगाव होने के कारण भारतीय राजनीतिक संस्कृति में भाषावाद एवं क्षेत्रवाद की भावना भी काफी बलवती रही है। अतः यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक संस्कृति और नागरिक संस्कृति में सभी जगह एह अटूट सम्बन्ध होता है और भारत इससे अछूता नहीं है बल्कि, भारत में यह सम्बन्ध और भी घनिष्ठ एवं अटूट है।
Question : विधायिका का कार्य केवल कानून बनाना नहीं है। आधुनिक विधायिका से और किन कार्यों की उपेक्षा की जाती है?
(1995)
Answer : विधायिका का वास्तविक और वैध कार्य कानूनों को बनाना, उन्हें संशोधित करना और समाप्त करना है। समाज की बदलती जरूरतों के अनुकूल यह नये-नये कानूनों को बनाता है। पुराने कानून, जो वर्तमान परिस्थितियों में उपयोगी या अनुकूल नहीं रह गये हों, उनमें संशोधन करना या उन पुराने कानूनों को पूरी तरह समाप्त कर देना भी विधायिका के कार्य हैं। आधुनिक राज्य एक सकारात्मक या कल्याणकारी राज्य है।
परिणामस्वरूप विधायिका का कार्य बहुत अधिक बढ़ गया है। इसकी गतिविधियां अब काफी बड़े और विविध क्षेत्रों में फैल गयी हैं, जैसे- शिक्षा, सामाजिक कल्याण आर्थिक नियोजन एवं योजना। यह कहना शायद ज्यादा उचित होगा कि आज विधायिका मात्र कानून बनाने वाली संस्था ही नहीं रह गयी है, बल्कि एक ऐसी संस्था बनती जा रही है जो जनता की वास्तविक प्रतिनिधि के रूप में प्रशासन के सभी कार्यों पर तो नजर रखती ही है, साथ ही साथ समाज की अर्थव्यवस्था एवं सुरक्षा से सम्बन्धित मसलों पर भी पूरी दृष्टि रखती है।
आधुनिक विश्व में अधिकांश विधायिकाओं का राष्ट्रीय खजाने पर पूर्ण नियंत्रण होता है। प्रजातांत्रिक शासन की प्रमुख विशेषता वित्त पर संसद का नियंत्रण है। कार्यपालिका के द्वारा एक भी पैसा बगैर संसद की अनुमति के न तो खर्च किया जा सकता है और न ही प्राप्त किया जा सकता है। वस्तुतः बगैर संसद की अनुमति से देश की संचित निधि से एक भी पैसा नहीं निकाला जा सकता है। वार्षिक बजट पर विचार-विमर्श करने उसे संशोधित करने और पारित करने की शक्ति के कारण देश की आर्थिक स्थिति में विधायिका की भूमिका काफी प्रभावी होती जा रही है।
संसदीय शासन व्यवस्था में विधायिका की भूमिका और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है और कार्यपालिका का अस्तित्व तब तक ही बना रहता है, जब तक उसे विधायिका के बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है। विधायिका ‘अविश्वास प्रस्ताव’, प्रश्न पूछ कर और ‘काम रोको प्रस्ताव’ के द्वारा कार्यपालिका पर अपना नियंत्रण बनाये रखती है। कार्यपालिका द्वारा किये गये कार्यों को विधायिका ही अपनी मंजूरी देती है। कुछ विधायिकाएं कुछ प्रत्यक्ष कार्यपालिका कार्यों को भी करती हैं, जैसे- अमेरिका का सीनेट नियुक्तियों एवं सन्धियों को करने में काफी बड़ी भूमिका निभाता है।
विधायिका जन प्रशासन की संरचना और संगठन को निर्धारित करती है और इसके कार्यों के लिए धन उपलब्ध कराती है। यह विभिन्न राज्य सेवाओं का निर्माण करती है, सेवाओं के नियम एवं नियंत्रणों का आधार रखती है, प्रशासन के विभिन्न एजेन्सियों के बीच शक्तियों के वितरण को निर्धारित करती है और प्रशासनिक कर्मचारियों के प्रशिक्षण एवं नियुक्ति की व्यवस्था करती है। कर्मचारियों के वेतन एवं अन्य सुविधाओं का निर्धारण विधायिका ही करती है।
कई विधायिकाएं कुछ न्यायिक कार्यों को भी करती हैं। उदाहरण के लिए यूनाइटेड किंगडम में हाऊस ऑफ लार्ड्स अपील करने के लिए उच्चतम न्यायालय है। अमेरिका का सीनेट उच्च लोक अधिकारियों पर महाभियोग चलाने का उच्चतम न्यायालय है। भारत में राष्ट्रपति पर महाभियोग संसद द्वारा ही लगाया जाता है। विधायिका ही देश में न्यायिक संरचना को निर्धारित करती है और समय-समय पर परिवर्तन करती है।
लोगों की शिकायतों पर विचार-विमर्श विधायिका में ही होता है। विधायिका एक ऐसी जगह है, जहां सभी तरह के विचारों को रखा जाता है। विधायिका में होने वाला वाद-विवाद सार्वजनिक महत्त्व की बातों पर प्रकाश डालती है और लोगों को जागरूक बनाने के साथ-साथ सरकार को इस दिशा में कार्य करने के लिए विवश करती है। एक तरह से सभी विधायिका जनमत का ही प्रतिनिधित्व करती है। सभी विधायिका की अपनी एक याचिका समिति होती है जिसके द्वारा सामान्य लोग भी अपनी समस्याओं एवं शिकायतों के लिए सीधे संसद को याचिका दे सकते हैं। संसद महत्व के अनुसार सभी याचिका को अपनी कार्यसूची में शामिल करती है और जन-शिकायतों या समस्याओं के प्रति सरकार का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करती है। विधायिका के सदस्य फेडरल काउन्सिल, न्यायाधीशों, चांसलर और यहां तक कि सेना के जेनरलों को भी निर्वाचित करती है।
लगभग सभी देशों में, खासकर एशिया और अफ्रीका के देशों में, विधायिका ही आर्थिक विकास की योजना को स्वीकृत करती है। यह देश की सम्पूर्ण आर्थिक-नीति को निर्धारित करती हैं और नियंत्रित रखती है। विधायिका ही समाज सेवाओं को उपलब्ध कराने के लिए उत्तरदायी होती है।
विधायिका का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य है विशेष परिस्थितियों या समस्याओं की जांच के लिए समितियों और कमेटियों को नियुक्त करना। इन जांच समितियों द्वारा विधायिका देश के प्रशासन, सामाजिक कार्यों एवं आर्थिक व्यवस्था पर नजर रखती है। यह शोध संस्थानों आदि को भी स्थापित कर सकता है।
अतः आज विधायिका का कार्य सिर्फ कानून बनाना ही नहीं रह गया है। आज विधायिका उन सभी कार्यों को कर रही है या करने को प्रवृत्त हो रही है जो सामान्य कल्याण के लिए आवश्यक है। वैसे यह भी एक सत्य है कि कार्यपालिका की बढ़ती शक्ति के कारण विधायिका बहुमत के हाथों का खिलौना बनती जा रही है। फिर भी विधायिका के महत्व को पूरी तरह नकारा नहीं जासकता है, क्योंकि यह तो वह संस्था है जो जन भावना को व्यक्त करती है।
Question : ‘क्रीमी लेयर’ तथा सामाजिक न्याय
(1995)
Answer : ‘क्रीमी लेयर’ तथा सामाजिक न्याय की धारणा की चर्चा अन्य पिछड़े वर्गों को भारत सरकार द्वारा मंडल आयोग के तहत आरक्षण दिये जाने के समय उभरी। मंडल आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की अनुशंसा की थी। भारत सरकार जब मंडल आयोग को लागू कर रही थी, तब यह प्रश्न उभर कर सामने आया कि समाज के पिछड़े वर्गों के अमीर, समृद्ध और ऊंचे पदों पर पहुंच चुके लोगों को आरक्षण की सुविधाएं नहीं मिलनी चाहिए।
इन अमीर, समृद्ध और ऊंचे पदों पर पहुंच चुके लोगों की पहचान करने के लिए बनायी गयी प्रसाद समिति ने यह अनुशंसा की कि अन्य पिछड़े वर्गों के ऐसे लोग, जो एक लाख रूपये वार्षिक आय प्राप्त करते हों, जो सरकारी नौकरी के ‘ग्रुप ए’ वर्ग में हों, जिनके पास एक लाख रूपये से अधिक वार्षिक आय देने वाली जमीन हो, उन्हें ओर उनके बच्चों को आरक्षण की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। समिति ने ऐसे लोगों को ‘क्रीमी लेयर’ कहा और अनुशंसा की कि अन्य पिछड़े वर्गों के उन्हीं लोगों को आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए जो सही मायने में पिछड़े हुए हैं।
समिति द्वारा ‘क्रीमीलेयर’ के लोगों को अन्य पिछड़े वर्गों को प्राप्त होने वाली आरक्षण सुविधा से अलग रखना एक उचित कदम है। अगर इन क्रीमीलेयर के लोगों को आरक्षण की सुविधा मिलती रहती, तो अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों का उत्थान कभी भी नहीं हो सकता था, क्योंकि उन्हें उत्थान का अवसर ही नहीं मिलता। इसलिए सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए ‘क्रीमीलेयर’ के लोगों को आरक्षण सुविधा से वंचित करना एक उचित कदम है।
Question : आतंकवाद की राजनीति
(1995)
Answer : वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीति में आतंकवाद की राजनीति एक राजनीतिक हथकण्डे के रूप में काफी महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। दो देशों के बीच या आंतरिक राजनीति में आतंकवाद की राजनीति परोक्ष युद्ध के रूप में होती है। आतंकवाद का अर्थ है- एक ऐसी विचारधारा जो आतंक को अपना आधार बनाती है। आतंक फैलाने के जरिये अलग-अलग हो सकते हैं। कहीं कोई देश या समूह अपनी शक्ति को इतना बढ़ा ले कि विरोधी पक्ष आतंकित हो जाये, या इस तरह की कार्यवाही की जाये जिससे कि विरोधी पक्ष डर जाये या फिर विरोधी पक्ष या देश के लोगों की हत्याएं की जाये, बम विस्फोट किया जाये या किसी प्रकार का तोड़-फोड़ कर लोगों को आतंकित किया जाये। आतंक फैलाने के जरिये अलग-अलग हो सकते हैं, मगर लक्ष्य सभी का एक ही होता है-विरोधी पक्ष को आतंकित करना और कमजोर बनाना। किसी देश की आंतरिक राजनीति में आतंकवाद की राजनीति सत्ता पक्ष को कमजोर बनाने के लिए या अपनी मांगों के प्रति देश की सरकार को तुरंत ध्यान देने के लिए मजबूर करने के लिए अपनाया जाता है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि आतंकवाद की राजनीति को इतने छोटे परिदृश्य में नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि किसी भी देश में फैले आतंकवाद के धागे कहीं न कहीं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सूत्र से बंधे हुए देखे जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर भारत की सीमावर्ती क्षेत्रों में फैले हुए आतंकवाद के पीछे कौन-सी विदेशी ताकतें काम कर रही हैं, यह सभी लोग जानते हैं। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञों मानना है कि वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में प्रत्यक्ष युद्ध की संभावना के लगभग समाप्त हो जाने के कारण अक्सर एक देश अन्य देश को कमजोर बनाये रखने के लिए या मजबूत होने से रोकने के लिए आतंकवाद की राजनीति करती है।
Question : भारत के वर्तमान अनुभव से संभ्रांतजनों के परिचालन के दृष्टांत बताइये।
(1995)
Answer : डगलस बी. वर्ने का मानना है कि ‘कोई भी राज-व्यवस्था अपने आपको प्रजातान्त्रिक बतलाने की चाहे कितनी ही चेष्टा क्यों न करे, उसके संगठन में वर्गवादी तत्त्व विद्यमान होते ही हैं -------- व्यक्ति सोच सकते हैं कि वे राजनीतिक प्रक्रिया में भाग ले रहे हैं, लेकिन वास्तव में उनका प्रभाव चुनाव तक ही सीमित रहता है। सत्ता के केन्द्र में एक सामाजिक विशिष्ट वर्ग होता है, जो कि महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।’ ‘अभिजन’ (Elite) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 17वीं सदी में विशेष श्रेष्ठता वाली वस्तुओं का वर्णन करने के लिए किया गया और बाद में इस शब्द का प्रयोग उच्च सामाजिक समुदायों, जैसे- शक्तिशाली सैनिक इकाइयों या उच्च श्रेणी के सामन्त वर्ग के लिए किया जाने लगा।
‘अभिजन’ की धारणा विभिन्न व्यक्तियों की क्षमताओं में असमानता पर आधारित है और पैरेटो के अनुसार फ्वे व्यक्ति जो अपने कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत सबसे अधिक उच्च श्रेणी पर हैं, वे ही ‘अभिजन’ हैं। पैरेटो प्राकृतिक मानवीय असमानताओं के आधार पर मानव समाज को दो वर्गों में बांटता हैः (1) अभिजन, तथा (2) अभिजनेत्तर। अभिजन को उसने पुनः दो भागों में विभाजित किया हैः (1) शासक अभिजन, और (2) अशासक अभिजन। यह विभाजन उसने बुद्धि, संगीत, गणित आदि विषयों के प्रति अभिरुचि, चरित्र, सामाजिक एवं राजनीतिक प्रभाव की शक्ति आदि आधारों पर किया है। पैरेटो कट्टर अभिजनवादी था और वह अभिजन वर्ग का अस्तित्व सामाजिक सन्तुलन को बनाये रखने के लिए आवश्यक मानता था। पैरटो के समस्त विचार का केन्द्रबिन्दु ‘शासक अभिजन’ ही है।
अभिजन पर विचार करते हुए सभी विचारक (पैरेटो, मोस्का, सी. राइट मिल्स, टी.बी. बोटोमोर आदि) अभिजनों को एक ऐसा संगठित अल्पसंख्यक शासक वर्ग मानते हैं जो अंसगठित प्रजा वर्ग पर अपनी प्रभुता शक्ति का प्रयोग करता है। अभिजन की धारणा में एक प्रमुख विचार यह है कि अभिजन परिवर्तित होते रहते हैं। एस.ई. फाइनर द्वारा की गयी व्यवस्था में ‘अभिजन वर्ग में परिवर्तन’ (Circulation of Elites) का भाव निहित है। जिस प्रकार हवा आदि के कारण जल में तैरते सन्तरे की स्थिति परिवर्तित होती रहती है, उसी प्रकार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप समाज के अन्तर्गत अभिजन में परिवर्तन होते रहते हैं।
भारत में संभ्रान्त जनों (अभिजन) के परिचालन के दृष्टांतों पर आने से पहले यह जानना आवश्यक होगा कि अभिजन की धारणा भारत जैसे लोकतन्त्र एवं दूसरे लोकतंत्र के अनुकूल हैं अथवा नहीं। इस संबंध में दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं। प्रथम विचार के अनुसार, अभिजन की धारणा और लोकतन्त्र के विचार में विरोध है और यह विरोध दो रूपों में देखा जा सकता है। प्रथम, प्रजातान्त्रिक राजनीतिक विचार व्यक्तियों की मूलभूत समानता के सिद्धान्त में विश्वास करता है, लेकिन अभिजन वर्ग की धारणा व्यक्तियों की असमानता पर आधारित है। द्वितीय, प्रजातंत्रीय बहुमत के शासन के विचार पर आधारित है, लेकिन अभिजन वर्ग की धारणा में यह विचार निहित है कि शासन वर्ग अल्पसंख्यक समुदाय होता है।
इन्हीं आधारों पर अभिजन वर्ग की धारणा के प्रारम्भिक प्रतिपादक कार्लायत और नीत्शे प्रजातन्त्र की धारणा के विरोधी थे और मोस्का भी प्रारम्भ में प्रजातन्त्र का समर्थक नहीं था। बोटोमोर समानता का प्रबल समर्थक है और इसी आधार पर वह अभिजन वर्ग की धारणा को लोकतन्त्र के विरुद्ध मानता है।
द्वितीय धारणा के अनुसार प्रजातंत्र और अभिजन वर्ग की धारणा में परस्पर कोई विरोध नहीं है। वस्तुस्थिति भी यही है कि इसमें पारस्परिक विरोध उतना नहीं है, जितना की सतही तौर पर दिखायी देता है। प्रजातंत्र को सिद्धान्त रूप में भले ही ‘समस्त जनता का शासन’ या ‘बहुमत का शासन’ कहा जाये, लेकिन व्यवहार में बहुमत वर्ग के द्वारा प्रभावकारी शासन सम्भव नहीं होता। राजनीतिक प्रजातन्त्र का महत्त्व केवल इस बात में होता है कि समाज के अंतर्गत शक्ति के स्थान सिद्धान्त रूप में प्रत्येक के लिए खुले रहते हैं, शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता होती रहती है और शक्ति के धारक निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
भारत के वर्तमान अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि संभ्रान्तजनों के परिचालन में बहुत ही तेजी आ गयी है और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संभ्रान्तजनों के संयोग एवं आकार में काफी परिवर्तन हो रहा है। प्रो. सी.पी. भाम्भरी के अनुसार, वर्तमान अनुभव यह बताते हैं कि पुराने संभ्रान्तजनों की अपेक्षा नये-नये उभरे संभ्रान्तजन तेजी से शासक संभ्रान्त जन बनते जा रहे हैं। कल तक जो संभ्रान्तजन वाले वर्ग में थे, उनमें से अधिकांश अपनी प्रभाव क्षमता को खो चुके हैं और इनकी जगह नये संभ्रान्तजन सत्ता में आ रहे हैं। वर्तमान समय में संभ्रान्तजन वर्ग की संरचना में काफी तीव्रता से परिवर्तन आ रहा है। पिछड़े वर्गों, दलितों एवं जनजातियों में अपने सामाजिक एवं राजनीतिक उत्थान के प्रति बढ़ती चिन्ता ने जहां उन्हें गोलबंद होने के लिए प्रेरित किया है, वहीं सरकारी नीतियों, शिक्षा के प्रसार और सामाजिक संगठनों के प्रयास के कारण पिछड़े वर्गों ने अपनी सामाजिक एवं राजनीतिक महत्त्व को भी समझना शुरू कर दिया है। भारत जैसे देश में जहां प्रजातंत्र वास्तव में संख्याओं एवं जातियों का खेल होता जा रहा है, वहां संख्या और आपसी एकता के आधार पर पिछड़े वर्गों को एक राजनीतिक शक्ति बनने से रोका नहीं जा सकता है। आज पहले की तरह संभ्रान्तजनों में मात्र उच्च वर्गों के लोग, संभ्रान्त या समृद्ध लोग या पढ़े-लिखे लोग ही शामिल नहीं होते हैं, बल्कि उसमें अन्य पिछड़े वर्गों, दलितों एवं जनजातियों के नेताओं का वर्चस्व तेजी से बढ़ता जा रहा है। वर्तमान दृष्टांत यह दिखाते हैं कि शासन, प्रशासन, शिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में परम्परागत संभ्रान्तों की जगह नये-नये लोग आ रहे हैं और आवश्यक नहीं कि वे अमीर, पढ़े-लिखे, अनुभवी या उच्च प्रस्थिति प्राप्त व्यक्ति ही हों। एक और तथ्य उभर कर सामने आ रहा है कि नये-नये संभ्रान्तजन बने व्यक्ति अपने व्यक्तिगत आधार की बजाय अवैयक्तिक कारणों, जैसे-जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा या सहानुभूतिपूर्ण लहरों के आधार संभ्रान्तजन के वर्ग में शामिल हो रहे हैं।
यह तो सही है कि वर्तमान काल में भारतीय परिदृश्य में उभरते हुए नये-नये संभ्रांतजनों ने पुराने एवं परंपरागत संभ्रांतजनों की सत्ता पर पकड़ को कमजोर कर समाज के पिछड़े एवं दलित वर्ग को प्रतिनिधित्व दिलवाया है। लेकिन यह भी एक सत्य है कि नये उभरते संभ्रांतजन धीरे-धीरे परंपरागत संभ्रांतजनों की विशेषताओं को ही ग्रहण करते जा रहे हैं और निरंकुश बनते जा रहे हैं। संभ्रांतजन के परिचालन का सिद्धांत, राजनीतिक सिद्धांतों या समाजशास्त्र में भले ही काफी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है लेकिन संभ्रान्तजन का परिचालन जन-सामान्य के लिए ठीक नहीं है। क्योंकि ‘संभ्रांतजन’ की व्यवस्था सामान्यजन की भावना एवं अधिकार के साथ एक धोखा है।
Question : भारत की ‘आसियान’में रूची
(2005)
Answer : भारत की ‘आसियान’में रूचीः दक्षिण-पूर्व ‘एशियाई’राष्ट्रों के संगठन ‘आसियान’ की स्थापना 1967 में की गयी। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशिया में आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति तथा सांस्कृतिक गतिविधियों को तेज करने के लिए की गयी है। भारत की भौगोलिक एवं राजनीतिक परिदृश्य ने उसे इस संगठन के प्रति सकारात्मक खिंचाव लाया है। सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत ने इस पड़ोसी संगठन के साथ मित्रता का हाथ बढ़ाया। सन् 1991 के अंत में भारत को ‘आसियान’का प्रभागीय वार्ता का भागीदार बनाया गया। इस भागीदारी के तहत भारत को कुछ सीमित क्षेत्रों में सहयोग का अवसर दिया था। आसियान ने 1995 के शिखर सम्मेलन में भारत को पूर्ण वार्ता भागीदार बनाकर बहुआयामी तथा व्यापक सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया। 1996 में आसियान द्वारा भारत को क्षेत्रीय खतरों के निराकरण के लिए गठित आसियान क्षेत्रीय मंच का पूर्ण सदस्य बनाया गया। इस व्यवस्था के बाद ‘आसियान’देशों तथा इस फोरम के सभी सदस्य राष्ट्रों के साथ सामरिक एवं सुरक्षा मुद्दों पर भारत भी चर्चा कर सकता है।
आसियान एक कुशल क्षेत्रीय संगठन के रूप में दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के संगठित तथा समुचित आर्थिक विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पहली बार 2003 में भारत-आसियान शिखर वार्ता में विभिन्न क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आपसी सहयोग पर बल दिया गया। दसवें आसियान शिखर सम्मेलन में भारत और आसियान देशों ने शांति, प्रगति और साझा समृद्धि हेतु आसियान-भारत साझेदारी पर हस्ताक्षर किये। दोनों ओर से अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद तथा जनसंहारक हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए आपसी सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया। इसके साथ-साथ विश्व व्यापार संगठन में आपसी सहयोग को मजबूत करने तथा आर्थिक खाद्य जनसुरक्षा एवं उर्जा सुरक्षा जैसी चुनौतियों से निबटने की रणनीति पर काम करने की मंशा जाहिर की गयी। भारत तथा आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार क्षेत्र ने सहमति भरी है। 2016 तक आसियान सभी देशों के साथ भारत का मुक्त व्यापार क्षेत्र की योजना है। दोनों पक्षों ने एक दूसरे की सम्प्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने और एक दूसरे के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने पर बल देते हुए समानता तथा आपसी सम्मान पर आधारित दीर्घकालिक सहकारी साझेदारी को प्रोत्साहित करने की प्रतिबद्धता दोहराई है। फसलों में सुधार हेतु जैव तकनीक के क्षेत्र में सहयोग देने पर दोनों पक्षों में सहमति हुई।
आसियान देशों का झुकाव पश्चिम देशों की तरफ होने के बावजूद भी भारत का सकारात्मक रवैया और सहयोग उसे अपनी ओर जोड़ता है। भारत इस संगठन के सहयोग से दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ संबंधों में मजबूती लाया है।
Question : नाभिकीय शक्ति के रूप में स्वीकृति के लिए भारत का दावा
(2005)
Answer : नाभिकीय शक्ति के रूप में स्वीकृति के लिए भारत का दावाः भारत को दिन प्रितिदिन खराब होता जा रहा सुरक्षा महौल से सामना करना पड़ रहा है। इस असुरक्षा के मद्देनजर भारत की भौगोलिक अखंडता की रक्षा के लिए यह अपेक्षित है कि देश के पास दीर्घकालिक और आधुनिकतम रक्षा क्षमता होनी चाहिए। इसके साथ-साथ निषेधात्मक और भेदभाव पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाएं भी आवश्यक हैं। भारत ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि निषेधात्मक दबावों के अधीन अन्य परमाणु अस्त्रों की दृष्टि से सक्षम देश भी स्वयं परमाणु राष्ट्र बनकर इन दबावों से मुक्त हो रहे थे। भारत को इन दबावों का मुकाबला करने के लिए प्रत्यक्ष रूप में परमाणु अस्वीकरण कार्यक्रम अपनाना पड़ा। मई 1974 में भारत ने पहला परमाणु परीक्षण किया और उसके 24 साल बाद मई 1998 में पोखरण में तीन परमाणु परीक्षण कर परमाणु संपन्न ताकत के रूप में दर्जा पाने की घोषणा कर दी।
संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, चीन के पास हजारों की संख्या में परमाणु अस्त्र तथा हैं। संयुक्त राज्य तथा नाटो द्वारा परमाणु सुरक्षा की छत्रछाया की गारंटी देने के बाद भी ब्रिटेन तथा फ्रांस परमाणु शक्ति-संपन्न देश बने। उत्तर कोरिया तथा इजरायल परमाणु शक्ति संपन्न देश बने। परमाणु संपन्न पश्चिमी राष्ट्रों ने जिस प्रकार अवांछित देशों तथा गैर जिम्मेदार देशों की संकल्पना कर नये उभरते राष्ट्रों की अवेहलना करना चाहा है वह एक गैर-जिम्मेदराना विकल्प माना जा सकता है। जहां तक भारत का प्रश्न है वह स्वानुशासन तथा आत्मसंयम को ध्यान में रखते हुए विधिसम्मत अप्रसार की आलोचना करता है और नाभिकीय शक्ति के रूप स्वीकृति चाहता है।
भारत की परमाणु नीति यूं ही बिना किसी लक्ष्य के तैयार नहीं की गयी है। इसकी परमाणु नीति उन अंतर्राष्ट्रीय अप्रसार प्रवृत्तियों के प्रति जवाबी कार्यवाही है जिनसे भारत की दृष्टि में दीर्घकालिक हितों को खतरा है। रक्षा क्षमताओं की दृष्टि से परमाणु अस्त्रीकरण के लिए भारत द्वारा लिये गये निर्णय के बारे में अनेक प्रश्न उठाये गये हैं। जिनमें एक महत्वपूर्ण प्रश्न था कि भारत ने परमाणु नीति के बारे में अस्पष्ट होकर छोड़कर परीक्षण क्यों किये? इस प्रश्न का उत्तर पश्चिम में डियागो गार्शिया से लेकर पाकिस्तान, खाड़ी तथा हरमुज की पट्टी तक भारत के चारों ओर विद्यमान सुरक्षा संबंधी माहौल में छिपा है। पाकिस्तान की धमकी के साथ-साथ संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे शक्ति संपन्न देशों के साथ उसके संबंध को भारत उपेक्षा नहीं कर सकता।
भारत की परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में स्थिति के बारे में भले ही कानूनी तौर पर टालमटोल की जाय, परन्तु इस पर विश्व को राजी होना पड़ेगा। भारत की इस प्रौद्योगिकीय क्षमता से शांतिपूर्ण प्रयोजन की पूर्ति होगी तथा आर्थिक विकास से योगदान मिलेगा। भारत भूमंडलीय सुरक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय अनुमानों की अवहेलना नहीं कर सकता।
Question : गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता रूप में भारत
(2005)
Answer : गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता रूप में भारतः गुटनिरपेक्ष आंदोलन का औपचारिक उद्घाटन 1961 में बेलग्रेड में आयोजित एक शिखर सम्मेलन में किया गया। गुट-निरपेक्षता की जिस नीति का प्रतिपादन भारत ने किया था, उसे धीरे-धीरे तृतीय विश्व के अधिकांश देशों ने अपना लिया। एशिया तथा अफ्रीका के अनेक देशों ने भारत के द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलकर दोनों शक्ति गुटों से अलग रहने की नीति अपना लिया था। यह आंदोलन गांधीजी की अहिंसा के विश्वास पर आधारित नीति कहा जा सकता है। गुटनिरपेक्षता की अवधारणा का विकास नवोदित देशों के विदेश नीति निर्धारकों ने किया था। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत इस नीति को अपनाने वाला प्रथम देश था।
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की प्रतिबद्धता उदारवाद तथा लोकतंत्र की पाश्चात्य अवधारणाओं के प्रति थी, परन्तु उन्होंने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अमेरिका द्वारा स्थापित नाटो दक्षिण-पूर्वी एशि्ाया संधि संगठन (seato) जैसे सैनिक गठबंधन को स्वीकार नहीं किया। भारत ने शांति को प्रेरित करने वाली नीति के रूप में गुटनिरपेक्षता को प्रोत्साहन दिया तथा आत्मसमर्पित किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में गुटों की राजनीति का तीव्र आलोचक रहा है। नेहरूजी ने स्पष्ट किया था कि भारत एक शक्तिशाली देश है और इतिहास इसका गवाह है। इतिहास दर्शाता है कि भारत अन्य देशों के सांस्कृति पैटर्न को अस्त्र से नहीं बल्कि सभ्यता और संस्कृति की दृष्टि से प्रभावित किया है। उन्होंने स्पष्ट किया भारत को किसी का अंधानुकरण नहीं करना है तथा विश्व में चल रहे दांव-पेचों का हिस्सा नहीं बनना है।
भारत की ऐसी स्थिति बन गयी कि उपनिवेशों से गुलाम तथा विकास की ओर उन्मुख सभी राष्ट्र भारत को अपना आदर्श मान रहे थे तथा भारत में विद्यमान दशाओं को अपनाकर अपनी राजनीतिक व्यवस्था तय करने लगे। गुटनिरपेक्षता को नेतृत्व देकर भारत विश्व के विकासशील देशों के बीच एकता कायम रखने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाया। भारत द्वारा शीतयुद्ध का विरोध तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन में अग्रणी भूमिका से संयुक्त राज्य के नेतृत्व में पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों ने इसके प्रति शंकाएं तथा मतभेद जाहिर किया। परन्तु शीतयुद्ध में भाग न लेने तथा संवेदनशील अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों के प्रति सैद्धान्तिक दृष्टिकोण बनाये रखने की क्षमता से इसकी विश्व में स्पष्ट छवि बनी है।
कोरिया संकट के समय भारत की भूमिका सराहनीय थी। जापान शांति संधि में अमेरिका के शर्तों पर आपत्ति कर स्वतंत्र दृष्टिकोण का परिचय दिया। स्वेज नहर संकट पर भारत के रवैये ने गुटनिरपेक्ष देशों की एकता को मजबूत किया। अफ्रीकी देशों की स्वतंत्रता में इसकी भूमिका स्मरणीय है। इस आंदोलन के अध्यक्ष के रूप में इसने राजनीति के हर क्षेत्र में निर्भीक स्वतंत्र नीति को उजागर किया। इस दौरान इसने न केवल ईरान-इराक युद्ध विराम पर कार्य किया वरन् अनेक इस्लामिक देशों में सुलह कराने की जिम्मेदारी को बखूबी निभाया, जिसके कुछ परिणाम इसके हित में नहीं थे। इसके साथ-साथ कई अफ्रीकी देशों को आर्थिक-राजनीतिक सहायता प्रदान किया।
Question : भारत और जापान के बीच सहयोग के उभरते क्षेत्र
(2005)
Answer : भारत और जापान के बीच सहयोग के उभरते क्षेत्रः भारत तथा जापान एशिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियां हैं। वर्तमान में भारत जापान के साथ लागातार संबंधों को बढ़ाने के लिए प्रयासरत है। जापान का भी भारत की ओर सकारात्मक रूख है। जापान भारत में निवेश करने वाला चौथा सबसे बड़ा देश है। अभी हाल के दिनों में दोनों देशों के संबंधों में प्रगाढ़ता आयी है। हाल के ही दिनों में जापानी प्रधानमंत्री ने भारत की यात्रा की तथा दोनों देशों की रणनीति ये दर्शाते हैं कि ये सकारात्मक सहयोग के एक नये अध्याय की शुरूआत है। दोनों देशों के शिखर वार्ता में कई क्षेत्रों में परस्पर सहयोग को दिशा देने के लिए उच्चस्तरीय रणनीतिक वार्ताएं किये जाने, आर्थिक भागीदारी, सांस्कृतिक एवं उच्च शिक्षा तथा तकनीकी क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने जैसी बातों पर जोर दिया गया। दोनों देशों ने विश्व शांति, स्थिरता एवं समृद्धि की अपनी प्रतिबद्धता की बात दोहरायी। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जल्दी सुधार लाने के लिए मिलकर काम करने का संकल्प व्यक्त किया। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए द्विपक्षीय वार्ता के साथ-साथ दो और देशों ब्राजील एवं जर्मनी के साथ मिलकर बहुपक्षीय वार्ता की सहमति हुई है।
भारत तथा जापान ने आर्थिक सहयोग तेज करने पर बल दिया। दोनों देश व्यापार बढ़ाने तथा उदार आर्थिक व्यवस्था की संभावनाओं के नये रास्तों की खोज करेगा। भारत का ये प्रयास रहेगा कि जापानी सरकार की मदद से जापानी कंपनियां भारत में निवेश करें। जापान ने विशेष रियायती शर्तों पर भारत में आधारभूत संरचनाओं की अनेक परियोजनायें स्थापित करने में दिलचस्पी दिखायी है।
भारत के परमाणु परीक्षण के बाद दोनों देशों के सम्बन्धों में कुछ कड़वाहट थी परन्तु नाभिकीय मुददों को दरनिकार करते हुए परमाणु प्रसार के विरूद्ध साझेदार के रूप में कार्य करने को दोनों देश सहमत हुए हैं। भारत की हिंद महासागर में मजबूत स्थिति को जापान अपने रणनीतिक हितों के लिए लाभकारी मानता है। जापान भारत से अंतर्राष्ट्रीय समुद्री यातायात की सुरक्षा की उम्मीद रखता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए एक दूसरे का समर्थन ये दर्शाता है कि दोनों अब अपनी राजनीतिक संबंध को नया आयाम देने पक्ष में हैं।
भारत और जापान के परस्पर सहयोग के विभिन्न क्षेत्र चुने गये जिनमे प्रमुख हैं- उच्च प्रौद्योगिकी, सूचना एवं प्रसारण, वैकल्पिक उर्जा, पर्यावरण एवं स्वास्थ सेवा इत्यादि।
Question : भारत-पाक संबंधों में हाल के विश्वास निर्माण उपायों के महत्व और परिसीमाओं को स्पष्ट कीजिए।
(2005)
Answer : भारत के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती पड़ोसियों के बिगड़े तेवर सुधारने की है जिनमें प्रमुख पाकिस्तान है। भारत-पाक संबंधों को सामान्य बनाने के प्रयत्न हमेशा किये जाते रहे हैं। गुजराल सिद्धांत के पहले तथा इस सिद्धांत के तहत जिसमें बताया गया कि भारत के विशद आकार, संसाधनों तथा सामर्थ्य को देखते हुए भारत को किसी आदान-प्रदान की इच्छा रखे बिना अपने पड़ोसी देशों के प्रति एकतरफा सद्भाव रखते हुए सुनिश्चित नीति का अनुसरण करना चाहिए। भारत लगातार इस नीति पर कायम रहते हुए पाकिस्तान के साथ अपने अच्छे संबंध बनाने की चेष्टा करता रहा है। हाल ही के दिनों में दोनों देशों के बीच पारम्परिक सैन्य मामलों पर वार्ता नई दिल्ली के सम्पन्न हुई। सौहार्द्रपूर्ण माहौल में संपन्न इस वार्ता मे दोनों देशों के अधिकारियों ने आपसी विश्वास निर्माण करने वाले महत्वपूर्ण बातों पर गौर किया और इसे लागू करने की बात कही। दोनों देश जम्मू-कश्मीर में लागू संघर्ष विराम को जारी रखने का संकल्प किया। नियंत्रण रेखा पर कोई नई चौकी न बनाने पर दोनों देश राजी हुए। साथ ही साथ नियंत्रण रेखा को गलती से पार कर जाने पर निर्दोष लोगों को सही सलामत उसके देश पहुंचाने की जिम्मेदारी पर दोनों देशों में सहमती हुई।
भारत-पाकिस्तान के आपसी सम्बन्ध मजबूत करने की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये गये। भारत-पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध टालने तथा परमाणु हथियारों के अनाधिकृत तथा उसके दुर्घटनावश इस्तेमाल हो जाने के खतरे को कम करने के उपायों पर विचार किया गया। इसके लिए टेलिफोन पर सीधे संपर्क के लिए हॉटलाइन स्थापित करने का फैसला किया गया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति की भारत यात्रा सद्भाव एवं आर्थिक-सामाजिक सहयोग बढ़ाने वाली सिद्ध हुई। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के साथ बातचीत में दोनों देशों के कहा कि अब शांति प्रक्रिया में कोई विघ्न नहीं आ पायेगा तथा आतंकवाद को उसका अवरोधक नहीं बनने दिया जायगा। दोनों देशों ने जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा को सॉफ्ट बॉडर का रूप देने वाले विश्वास निर्माण के एक-दूसरे के प्रस्ताव को मान लिया है। इसके साथ-साथ श्रीनगर-मुजफ्रफराबाद बस सेवा को बढ़ाया जायगा, नियंत्रण रेखा पर आवगमन तेज करने तथा उद्देश्यपूर्ण वार्ता जारी रखने पर सहमति हुई। ईरान से गैस पाइपलाइन पर विचार के लिए दोनों देश सहमत हैं। भारत ने पाकिस्तान की इस बात को भी मान लिया कि ईरान से पाकिस्तान होकर आने वाली गैस पाइपलाइन से भारत गैस खरीदेगा।
भारत ने पाकिस्तान से विश्वास बढ़ाने के अनेक उपायों का सुझाव दिया। जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा के दोनों ओर साढ़े पांच दशक से बिछुड़े परिवारों के बीच मेल-जोल का उपाय करने पर जोर दिया। सिख, हिंदू, मुस्लिम धार्मिक स्थलों के लिए बस सेवा की शुरूआत तथा सांस्कृतिक सम्पर्क और सहयोग को बढ़ावा देने पर दोनों देशों के बीच सम्बन्ध अच्छे हो सकते हैं।
हाल में किये गये बातचीत तथा कुछ फैसले ये दर्शाते हैं कि भारत पाकिस्तान दोनों दृढ़ता से दोस्ती की नई दिशा में आगे बढ़ निकले हैं। दोनों देशों के नेताओं ने स्वीकार किया है कि शांति प्रक्रिया को किसी भी हाल में रोका नहीं सकता है। दोनों देशों के बीच भरोसा बढ़ाने वाले कई प्रकार के कार्यक्रमों से ये प्रतीत होता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों के नये समीकरण बन रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण पाकिस्तान के कश्मीर मसलों पर जो बदलाव आया है वह मित्रवत संबंधों को आगे बढ़ाने में सहायक है। पाकिस्तान ने स्वीकारा है कि ये समस्या युद्ध और हथियारों से नहीं सुलझाया जा सकता है।
पाकिस्तान के साथ अच्छे सम्बन्धों के लिए भारत हमेशा से प्रयासरत है परन्तु भारत के लिए पाकिस्तान पर अंधविश्वास संभव नहीं है। चाहे वह कारगिल की याद हो या संसद पर हमला और हाल ही में अयोध्या पर हुए हमले तथा जम्मू-कश्मीर में आये दिन आतंकवादियों के हमले कहीं न कहीं भारत के विश्वास को डगमगाता है। ये सारी घटनाएं सिद्ध करती हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद को समाप्त करने का वादा पूरा ही न कर सकता है बल्कि भूल गया है। पाकिस्तान की राजनीति एक ऐसे दुस्चक्र का शिकार है जिसके कारण वह भारत के प्रति मित्रता नीति पर विश्वास नहीं करता है। इसके निर्माण में अनेक तत्वों ने योगदान दिया है जिनमें प्रमुख रूप से साम्प्रदायिक चिन्तन, तानाशाही मूलक प्रवृत्ति, शस्त्रीकरण अलोकतांत्रिक व्यवस्था तथा कुछ विकसित देशों द्वारा इसके कृत्यों का समर्थन है।
जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों एवं आतंकवादी तत्वों को मिल रहे पाकिस्तानी समर्थन के कारण दोनों देशों के बीच बन रहे सम्बन्धों में रूकावट पैदा होती है। भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे सीमा विवाद भी दोनों देशों के संबंधों में कड़वाहट पैदा करता है। हालांकि पाकिस्तान द्वारा नियंत्रण रेखा का सम्मान नहीं किया जा रहा है। सियोचीन से सेना हटाने की दोनों देशों की सहमति के वावजूद वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर विवाद जारी है। भारत की मांग सियाचीन हिमनद की सीमा पर वास्तविक तैनाती रेखा का स्पष्ट निर्धारण करने के सम्बन्ध में है। इसके अतिरिक्त सर क्रीक विवादके कारण भी दोनों देशों के बीच सहयोग का वातावरण नहीं बन पा रहा है। पाकिस्तान सर क्रीक को विवादित मानकर कच्छ के रन को सम्पूर्ण सीमा विवाद के साथ जोड़ता है, जिसे भारत स्वीकार नहीं करता है। इस विवाद के कारण दोनों देश संयुक्त राष्ट्र समृद्धि विधि अभिसमय के प्रावधानों का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं।
अर्थव्यवस्था के इस युग में भारत और पाकिस्तान ने आपसी सहयोग का जो मार्ग अपनाया है वह ज्यादा से ज्यादा विवादों को हल करने का मार्ग खोलेगा। भारत ने जिस तरह इस तथ्य को स्वीकारा है कि युद्ध और हथियारों के माध्यम से कश्मीर सहित सभी मुददों को वातचीत द्वारा सुलझाया जा सकता है। पाकिस्तान को भी इस तथ्य को स्वीकारना होगा।
Question : संयुक्त राष्ट्र-शांति स्थापना कार्यकलापों और विश्वव्यापी निरस्त्रीकरण के उद्देश्य में भारत द्वारा निभायी गयी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
(2005)
Answer : आज भी भारत की विदेश नीति का प्रमुख मुद्दा शांति एवं निरस्त्रीकरण है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं स्थिरता के लिए निभाई जा रही भूमिका का दृढ़तापूर्वक समर्थन किया और भारत द्वारा निभाई गई भूमिका की सराहना भी की गई। संयुक्त राष्ट्र के कार्यकलापों में भारत की भागीदारी से जुड़ी अनेक प्रमुख घटनायें हैं। मूलतः भारत ने कोरिया में संयुक्त राष्ट्र की सैन्य कार्यवाही में असैनिक और प्रभावी भूमिका निभाई है। भारतीय सेनाओं को संयुक्त राष्ट्र के ‘न्यूट्रल नेशंस रिपेट्रिएशन कमीशन’के अंतर्गत उत्तर और दक्षिण कोरिया के कैदियों की स्वदेश वापसी का कार्य सौपा गया। निरपेक्ष देशों की अगुवाई कर रहे भारत की साख इतनी बढ़ गयी थी कि भारतीय सशस्त्र सेनाओं को निमंत्रण दिया गया कि कांगो, गाजा, लेबनान, साइप्रस, तथा मध्य-पूर्व क्षेत्रों में वे संयुक्त राष्ट्र के शांति ऑपरेशन में प्रमुख हिस्सा लें। इतना ही नहीं कंबोडिया, मोजांबिक, अंगोला, सोमालिया, रवांडा तथा बुरूंडी और हैती में भारतीय शांति सेना सक्रिय रही है। संयुक्त राष्ट्र ने भारतीय सेना की क्षमता तथा निस्पक्षता की भूरी-भूरी प्रशंसा किया है। यू.एन.सी.टी.ए.डी., जी-77 (G-77) ई.सी.ओ.ए.ओ.सी. (Ecoaoc), यू.एन.आई.डी.ओ. (unido) तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की अन्य विशेष एजेंसियों की स्थापना में भारत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत ने श्रीलंका में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना की अगुवाई की।
सन् 1991 से 1997 के बीच संयुक्त राष्ट्र के महत्वपूर्ण मुद्दे जिनमें प्रमुख थे-शांति कायम करने की भूमिका को बढ़ाना, मानवाधिकार, परमाणु अप्रसार, निरस्त्रीकरण। भारत ने संयुक्त राष्ट्र का एजेंडा तैयार करने उन महत्वपूर्ण परियोजना की नीतियां तैयार करने में सक्रिय भाग लिया।
भारत ने निष्पक्ष रवैया अपनाने में जनसंहारक अस्त्रों के अप्रसार में संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई पहल में आगे बढ़कर भाग लिया तथा पूर्ण रूप से निरस्त्रीकरण सुनिश्चित करने का भी समर्थन एवं प्रचार किया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में तुरन्त समयबद्ध रूप से निरस्त्रीकरण का सुझाव दिया। इस पूरे प्रकरण में भारत ने पूरा प्रयास किया कि संयुक्त राष्ट्र विश्व शांति को प्रभावित करने वाले इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर विचार करे तथा हल निकाले। विश्व की परमाणु संपन्न ताकतों के इरादों के कारण भारत को इस क्षेत्र में पूरी सफलता नहीं मिल पायी, परन्तु परमाणु अस्त्र संपन्न ताकतें सामरिक दृष्टि से निरस्त्रीकरण के प्रति भारत की प्रतिबद्धता तथा संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से निरस्त्रीकरण मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान केंद्रित करने में निभाई गई भूमिका को कम नहीं कर पायी। परमाणु अप्रसार संधि को अनिश्चित काल तक बढ़ाने के लिए होने वाले अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की प्रत्याशा में सन् 1992 के दशक के प्रारम्भ से भारत पर अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक कुटनीतिक और प्रौद्योगिकी दबाव चरम सीमा पर पहुंच गये।
भारत ने परमाणु अप्रसार, मिसाइल विकास और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी जैसे निर्णायक मुद्दों पर विशेष रूप से संयुक्त राज्य और सामान्य रूप से अन्य पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों के साथ रचनात्मक बातचीत किया। हालांकि भारत ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया, क्योंकि इसके प्रावधान भेद-भावपूर्ण और परमाणु अस्त्र शक्तियों के पक्ष में हैं तथा अन्य प्रावधान न केवल परमाणु अस्त्र सहित देशों के अस्त्र संबंधी मुद्दे पर विकल्पों की स्वतंत्रता को नकारते हैं बल्कि उन देशों के शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु प्रौद्योगिकी प्राप्त करने पर भी रोक लगाते हैं। भारत सरकार हमेशा से पुरजोर कोशिश करती रही है कि संयुक्त राष्ट्र के आम सदस्यों की सामूहिक इच्छा, न कि शक्तिशाली देशों के विचारों या हितों के आधार पर चार्टर या सुरक्षा परिषद की कार्यवाहियों का अर्थ लगाया जाना चाहिए।
निशस्त्रीकरण की दिशा में किये गये प्रयासों का इतिहास अनेक असफलताओं तथा सफलताओं की कहानी है।
Question : विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एम.) जैसी संस्थाओं ने भारत की राजनीतिक और आर्थिक सम्प्रभुता को किस सीमा तक प्रभावित किया है? इनके प्रति भारत की क्या अनुक्रिया रही है?
(2005)
Answer : विश्व व्यापार संगठन बहुपक्षीय प्रणाली के लिए संस्थागत तथा कानूनी आधार उपलब्ध कराता है। विश्व व्यापार संगठन गैट का उत्तरवर्त्ती संगठन है। विश्व व्यापार संगठन के आदेश पक्ष में वस्तुओं का व्यापार सेवाओं का व्यापार, निवेश उपाय, व्यापार से से संबंधित बौद्धिक सम्पदा अधिकार शामिल हैं। भारत इसके संस्थापक देशों में से एक है। वहीं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष नई अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक राष्ट्रवाद की रोकथाम तथा बढ़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय मेलजोल के संदर्भ व्यवस्था है। इस मौद्रिक व्यवस्था का उद्देश्य में मुक्त व्यापार को प्रोत्साहित करना था।
विश्व व्यापार संगठन एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का सहयोग भारत का लक्ष्य है- विकसित देशों के बाजारों पर अपनी पैठ बढ़ाना तथा तकनीकी रूप से आत्मनिर्भर होते हुए उत्तरोत्तर आर्थिक विकास करना। इसके साथ-साथ विकसित देशों के साथ प्रतिस्पर्धा में सामंजस्य स्थापित करना। भारत का बाजार प्रवेश मसला सबसे महत्वपूर्ण है। भविष्य के आवश्यक्ताओं के मद्देनजर संवेदनशील उत्पादों के शुल्कों को संरक्षण देने के लचीलेपन को बरकरार रखना और विकास संबंधी संवेदनशीलता के समाधान के लिए विकासशील देशों के हित में पर्याप्त लचीलापन हासिल करना भारत के उद्देश्यों में शामिल है।
विश्व व्यापार संगठन एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थाओं ने नई विश्व व्यवस्था की अभ्युदय की सम्भावनाओं को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया है। विश्व आर्थिक व्यवस्था को पहली बार एक औपचारिक सुसंगठित कानूनी सुरक्षा प्राप्त हुई। विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को जहां सदस्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार था, अब विश्व व्यापार संगठन को ये कानूनी रूप से प्राप्त हैं। विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत जिस अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का निर्माण हो रहा है। उसमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अधिकार और कार्यक्षेत्र मे असीमीत वृद्धि हो रही है। सिद्धांततः विश्व व्यापार संगठन की स्थापना बहुपक्षीय सिद्धांत के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए किया गया है लेकिन हकीकत में यह संगठन सामूहिक और अलग-अलग तौर पर विकासशील देशों के अर्थतंत्र समाज और राजनीति पर अपना वर्चस्व जमाने का माध्यम है। भारत इससे अछूता कैसे रह सकता है।
गौरतलब है विश्व व्यापार संगठन की भूमिका को देखते हुए विभिन्न सदस्य देश जिसमें सभी विकासशील देश हैं, ने अपनी संवैधानिक व्यवस्थाओं के प्रावधानों में धीरे-धीरे परिवर्तन लाने लगे हैं। भारत ने भी व्यापार समझौते के प्रावधानों के अनुरूप अपनी आर्थिक नीतियों को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। भारत के सीमा शुल्क कानून, पेटेण्ट कानून, तथा वीजा कानून इत्यादि अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप परिवर्तित किये जा रहे हैं। आने वाले दिनों में हर विकासशील देश जिसमें भारत की शामिल है। किसी भी विषय पर निर्णय लेने के पहले उन्हें विश्व व्यापार संगठन तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की ओर देखना होगा। आर्थिक सहायता और अनुदान की मात्र अंतर्राष्ट्रीय संगठन तय करेगी। अब भारत के समाजवादी मूल्यों का कहीं मतलब नहीं रह जायगा।
विश्व व्यापार संगठन तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संस्थाओं के प्रति भारत जैसे विकासशील देशों का उत्साह कम रहा है परन्तु उदारीकरण और विश्व की आर्थिक व्यवस्था में इसकी हिस्सेदारी अवश्य रही है। विकासशील देशों के समूहों ने जिसमें भारत भी शामिल था, समृद्ध देशों के आगे न झुकने का ऐलान किया। सिएटल सम्मेलन में भारत ने विकासशील देश का नेतृत्व करते हुए श्रम एवं पर्यावरण को विश्व व्यापार संगठन से दूर रखा। दोहा सम्मेलन में भारत के नेतृत्व में विकासशील राष्ट्रों को एक बड़ी सफलता जनस्वास्थ्य संबंधी औषधियों के उत्पादन एवं अधिग्रहण के मामले में मिली। विश्व व्यापार संगठन के आये संरचनात्मक बदलाव से भारत जैसे देशों के प्रमुख सेवा क्षेत्रों जैसे स्वास्थ जल आपूर्ति, शिक्षा आदि के दरवाजे खुलेंगे। सेवा क्षेत्र भारत के विकास का इंजन है।
विश्व व्यापार संगठन को उदार बनाने के लिए अभी हाल में हुए हांगकांग सम्मेलन में भारत तथा अन्य विकासशील देशों की मोर्चाबंदी को कामयाबी मिली है। विकसित देश कृषि पर दी जा रही सब्सिडी को समाप्त करने पर राजी हो गये हैं। उरूग्वे से लेकर हांगकांग के सफर तक समस्या का समाधान नहीं हो सका। समस्या है वर्चस्वता का, विकसित देशों का विकासशील देशों पर। उसी वजह से उत्तर दक्षिण पर आर्थिक-समाजिक एवं राजनीतिक वर्चस्व बनाये रखना चाहता है, जो संपूर्ण विश्व के लिए अच्छा नहीं है।
Question : भारतीय विदेश नीति के स्वतंत्र्य पूर्व उदगम।
(2004)
Answer : भारतीय विदेश नीति के स्वतंत्र्य पूर्व उद्गमः भारत की विदेश नीति का प्रारम्भ स्वतंत्र रूप से सन् 1946 तथा अगस्त 1947 में स्वाधीनता प्राप्ति से होता है परन्तु भारत का राष्ट्रीय नेतृत्व स्वतंत्रता के पूर्व ही विदेश नीति के प्रति जागरूक था। भारतीय विदेश नीति की जड़ें अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शती के पुनर्जागरण काल के बुद्धिजीवियों एवं नेताओं की विचार शक्ति तथा बीसवीं शती के पहले चार दशकों के दौरान राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में निहित है। उनका ये विचार था यदि भारत विश्व में अपनी पहचान बनाना चाहता है तो उसे पुनः अपनी भू-राजनीतिक तथा सांस्कृतिक पहचान बनानी होगी। राजा राम मोहन राय जैसे बुद्धिजीवियों ने व्यापक स्तर पर भारत को विश्व के साथ जोड़ने की आवश्यकता महसूस की और आधुनिकीकरण का समर्थन एवं प्रचार किया। इन बुद्धिजीवियों ने भारत का विश्व समुदाय के साथ संबंध स्थापित करने की दलील दी। उसे अंतर्राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत होने की दिशा में पहला कदम कहा जा सकता है।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तथा बीसवीं शताब्दी के पूवार्द्ध में भारतीय की पहचान बनाने, धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक मूल्यों के आधार पर ‘राष्ट्रीयता’को पारिभाषित करने की मांग जैसे नई चेतना का विकास हुआ। भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग पश्चिम के राजनीति साहित्य के संपर्क में आये तब व्यापार स्तर पर विश्व के प्रति भारत में उभर रही चेतना को एक नया आयाम मिला।
प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश भारतीय शिष्टमंडल का विश्व मंच पर अलग प्रतिनिधित्व तथा भारत को राष्ट्र संघ में संस्थापक सदस्य की भूमिका निभाने की अनुमति के कारण विदेश क्षेत्र में भारतीयों को नये अनुभव का अवसर मिला। द्वितीय विश्व युद्ध तक भारतीय विदेश नीति स्पष्ट होने लगी थी। यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध भारत की चिंताओं में ब्रिटिश सरकार को स्वायत्तता के लिए राजी करना, भारत से बाहर बंधक मजदूरों की दुर्दशा की चिंता तथा विश्व के अनेक भागों में ब्रिटिश सरकार के साम्राज्यवादी लक्ष्यों की पूर्ति के लिए भारतीय सैनिकों की उपादेयता थी।
अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने ही स्वतंत्र भारत की विदेश नीति के तत्वों की घोषणा करने लगी थी। 1925 में जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस समिति के विदेश विभाग का प्रमुख बनाया था। 1927 से ही कांग्रेस ने चीन, मेसोपोटामिया, तथा पर्शिया में भारतीय सेना के प्रयोग के प्रति खेद प्रकट किया था तथा उपनिवेश वाद के खिलाफ मिस्र, इराक, फिलस्तीन, सीरिया की जनता के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया था। सन 1939 में कांग्रेस ने उपनिवेशवाद के तथा फासीवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध में भारतीय जनता के भाग न लेने की घोषणा की।
Question : भारत-नेपाल संबंधों के सुभेदक लक्षण।
(2004)
Answer : भारत-नेपाल संबंधों के सुभेदक लक्षणः भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित नेपाल सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। भारत सरकार इस बात पर बल देती रही है कि नेपाल के भारत से विशिष्ट सम्बन्ध हैं। भारत के सभी राजनीतिक दल की सरकार ने नेपाल से मधुर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए पुरजोर प्रयत्न किये। नेपाल के विकास कार्यों में सबसे अधिक धन भारत का ही लगा हुआ है। विभिन्न नेपाली परियोजना के विकास का जिम्मा भारत ने अपने कन्धों पर लिया, जिनमें प्रमुख हैं- देवी घाट, त्रिशूल, करनाली, पंचेश्वर जल विद्युत योजनाएं, काठमांडू, रक्सौल टेलीफोन संयंत्र, हवाई अड्डा, रेल निर्माण, कोसी और गंडक परियोजनायें इत्यादि। पारगमन सन्धि के अंतर्गत भूवेष्टित नेपाल को बांग्लादेश तक समान लाने तथा ले जाने का सुविधा दिया तथा वे सुविधायें दी जो अफगानिस्तान एवं स्विट्जरलैण्ड जैसे भूवेष्टित देशों को भी प्राप्त नहीं है।
भारत ने नेपाल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाने करने में बड़ी सहायता दी। भारत ने बार-बार संयुक्त राष्ट्र संघ में नेपाल की सदस्यता की वकालत की। नेपाल की मांग पर भारत-नेपाल शांति और मैत्री सन्धि 1950 पर पुनः बातचीत की पेशकश भारत द्वारा किया गया। इस सन्धि के तहत भारत और नेपाल की सरकारें पड़ोसी देशों के साथ गंभीर विवाद या गलतफहमी के बारे में परस्पर अवगत कराती रहेगी। महाकाली नदी सम्बन्धी समझौते से दीर्घकालीन सहयोग की एक विशाल परियोजना का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
राजनीतिक प्रणाली के अंतर्गत हुए आम चुनावों के बाद नेपाली प्रधानमंत्री तथा भारत सरकार के प्रयास से विविध क्षेत्रों में पारस्परिक लाभदायक सहयोग की दिशा में अधिकतम विस्तार की नई शुरूआत हुई। इसका उद्देश्य भारत-नेपाल सहयोग की दिशा में एक नये युग की शुरूआत करना था। प्रधानमंत्री स्तर पर किये विचार-विमर्श के परिणाम स्वरूप नये व्यापार संधि, नयी पारगमन संधि अप्राधिकृत व्यापार पर नियंत्रण में सहयोग, ग्रामीण विकास और रोजगार जैसे मुद्दों पर विस्तापूर्वक विचार-विर्मश किया गया तथा इस पर अमल किया गया। पिछले कुछ वर्षों में अनेक संयुक्त उद्यमों का अनुमोदन किया गया। साथ ही नेपाल में निर्मित वस्तुएं बिना सीमा शुल्क के भारतीय बाजारों में उपलब्ध हैं। इन सारे समझौतों ने आपसी सहयोग के नये क्षितिजों को खोला है।
पिछले वर्ष ही कांग्रेस की सरकार ने घोषणा किया कि भारत बिना शर्त नेपाल को सैन्य सहायता देगा। नेपाल की सरकार ने भी इस घोषणा के बाद देश में आपात काल हटाने की घोषणा कर दी। इससे भारत-नेपाल के सम्बन्धों में आये गतिरोध की टूटने की दिशा में एक पहल माना जा रहा है। भारत, नेपाल में लोकतांत्रिक सरकार को भंग करने तथा आपातकाल की घोषणा का प्रतिकार करते हुए नेपाल को सैन्य सहायता पर रोक लगा दी थी।
भारत और नेपाल में सदियों से घनिष्ठ संबंध रहा है। भौगोलिक सीमाओं से परे दोनों देशों के पारस्परिक संबंधों का आधार सांस्कृतिक एकता रही है।
भारत नेपाल के किसी भी महत्वपूर्ण घटना क्रम से न तो अछूता रह सकता है और न ही चुप्पी साध सकता है। नेपाल के साथ सद्भाव और सहयोगपूर्ण संबंध भारत के राजनैतिक, आर्थिक और सामरिक हितों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
Question : भारत और विश्व व्यापार संगठन
(2004)
Answer : भारत और विश्व व्यापार संगठनः विश्व व्यापार संगठन गैट का उत्तरवर्ती संगठन है। भारत इसके संस्थापक सदस्यों में से एक है। विश्व व्यापार संगठन के आदेश पत्र में वस्तुओं का व्यापार, सेवाओं का व्यापार से संबंधित निवेश उपाय तथा व्यापार से संबंधित बौद्धिक सम्पदा अधिकार शामिल है। यह बहुपक्षीय प्रणाली के लिए संस्थागत तथा कानूनी आधार उपलब्ध कराता है। यह सभी सदस्य देशों की व्यापार व्यवस्थाओं पर लगातार निगाहें रखता है। भारत की चिंताएं विश्व व्यापार के ऐसे स्वरूप को लेकर है जो भारत जैसी विकासशील देशों की कृषि संकट तथा अनौद्योगीकरण को बढ़ावा दे रही है। आज 149 देश इस महत्वपूर्ण संगठन के सदस्य हैं।
विश्व व्यापार संगठन के सदस्य रूप में भारत के लक्ष्यों में विकसित देशों के बाजारों में अपनी पैठ बढ़ाना, भविष्य की आवश्यकताओं के मद्देनजर संवेदनशील उत्पादों के शुल्कों को संरक्षण देने के लचीलेपन को बरकरार रखना और विकास संबंधी संवेदनशीलता के समाधान के लिए विकासशील देशों के हित में पर्याप्त लचीलापन हासिल करना प्रमुखता से शामिल है। भारत का बाजार प्रवेश का मसला अन्य सभी मसलों से बड़ा है। इसके साथ-साथ भारत के लिए कृषि संबंधी वार्तायं न केवल बहुत महत्वपूर्ण हैं बल्कि बहुत कठिन भी, क्योंकि इसका सीधा प्रभाव विशाल कृषक समुदाय पर पड़ता है। भारत की कृषि क्षेत्र में औसत शुल्क दरें 40 प्रतिशत के करीब है, जबकि चरम दरें 15 प्रतिशत के करीब हैं। विकसित देशों द्वारा दी जा रही कृषि सब्सिडी के कारण उन देशों के कृषि उत्पादक मूल्यों में कमी आने से भारत के किसानों को कृषि उपज में कम लाभ मिल पाता है। 1990 तक भारत की कृषि प्रति स्पर्द्धात्मक थी परन्तु बाद के दिनों में ये अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा से दूर होती चली गयीं।
यह बात सही है कि विश्व व्यापार संगठन को लेकर भारत सहित कई विकासशील देशों का रूख बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है। परन्तु विश्व व्यापार संगठन में आये संरचनात्मक बदलाव के कारण भारत जैसे विकासशील देशों के प्रमुख सेवा क्षेत्रों जैसे- स्वास्थ, जल आपूर्ति, शिक्षा आदि के दरवाजे खोलने पर मजबूर कर दिया है। सेवा क्षेत्र भारत के लिए विकास का इंजन है इसलिए इस क्षेत्र में उदारीकरण से भारत को बहुत लाभ होगा।
विश्व व्यापार को उदार बनाने के लिए अभी हाल में हुए हांगकांग सम्मेलन में भारत तथा अन्य विकासशील देशों की मोर्चाबंदी को कामयाबी मिली है। विकसित देश कृषि पर दी जा रही सब्सिडी को समाप्त करने पर राजी हो गये हैं। इसके साथ-साथ भारत को गैर कृषि उत्पादों के संरक्षक की ओर ध्यान देने की भी जरूरत है।Question : भारत की गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति के प्रमुख निर्धारक क्या थे? 1990 के दशक से भारत की विदेश नीति में आए परिर्वतन के बारे में बताइये।
(2004)
Answer : गुटनिरपेक्षता की अवधारणा का विकास नवोदित देशों के विदेश नीति निर्धारकों ने किया था। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत इस नीति को अपनाने वाला प्रथम देश था। भारत ने ये स्पष्ट कर दिया था कि उसका किसी शक्ति गुट से स्थायी संबंध नहीं है। यही भारत की गुटनिरपेक्षता की विदेश नीति का आरम्भ था। भारत की गुटनिरपेक्षता का मुख्य लक्ष्य था- विदेश नीति की स्वतंत्रता। भारत नैतिक तथा समाजवादी विश्व व्यवस्था से संबंधित आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाकर तथा शक्ति पर आधारित राजनीति से दूर रहकर अन्य देशों के साथ निष्पक्ष एवं न्यायोचित व्यवहार करते हुए तथा राजनीतिक और आर्थिक संकट का सामना करते हुए तथा यर्थाथवाद की ओर अभिमुख हुआ। भारतीय विदेश नीति के सिद्धांत के रूप में यह किसी भी शक्ति गुट के साथ वचनबद्धता से स्वतंत्रता का समर्थन करती है तथा वाह्य मामलों में अपनी इच्छा तथा क्रियाशीलता की स्वतंत्रता पर बल देती है।
शीतयुद्ध की तीव्रता तथा इसके परिणामस्वरूप बनने वाले सैन्य गुटों से अलग रखना चाहता था। भारतीय गुटनिरपेक्षता ने प्रत्येक प्रकार की सैनिक, सुरक्षा संधियों से अपने को दूर रखने का समर्थन किया, क्योंकि ये संधियां शीत युद्ध के साधन थे। भारत ने गुटनिरपेक्षता द्वारा अपने आपको महाशक्तियों की राजनीति से अलग ही रखा। नेहरू के शब्दों में भारत को उन समूहों की शक्ति-राजनीति से दूर रहना चाहिए जो कि एक दूसरे के विरूद्ध पंक्तिबद्ध खड़े हैं, जिनके कारण पूर्व में दो विश्वयुद्ध हुए तथा जो पुनः इससे भी अधिक व्यापक स्तर पर तबाही की ओर ले जा सकती है। भारत गुटनिरपेक्षता के माध्यम से सभी देशों चाहे उनकी राजनीतिक व्यवस्थाओं की प्रकृति कुछ भी हो के साथ मित्रतापूर्ण तथा सहयोग पूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था। भारत गुटनिरपेक्षता के द्वारा महाशक्तियों तथा विकसित देशों के संभावित दबावों से अपनी विदेशी नीति को स्वतंत्र रखना चाहता था। पाकिस्तान और चीन के रणनीति विषयक रूख तथा भौगोलिक दावों से भारत की एकता तथा अखंडता को खतरा था। जिसके लिए एशियन-अफ्रीकन एकता को मजबूत करना भी आवश्यक था। इस अवधि में औपनिवेशिक दासता से स्वतंत्र हुए एशियाई एवं अफ्रीकी देश के विकास को भी सुनिश्चित करने के लिए भारत नें शांति को प्रेरित करने वाली विदेशी नीति के रूप में गुटनिरपेक्षता को प्रोत्साहन दिया।
शीत युद्ध की समाप्ति तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरा विश्व सैन्य दृष्टि से एक धुव्रीय बन गया। संयुक्त राज्य अमेरिका सत्ता का केन्द्र बन गया। 1990 के बाद राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कुटनीतिक समीकरणों में आमूल-चूल परिर्वतन हुआ। इसके साथ-साथ भारत में आंतरिक स्थिरता का महौल जिसमें पड़ोसी देशों द्वारा प्रायोजित आंतकवादी गतिविधियां शामिल हैं। भारत इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता महसूस की। भारत गुटनिरपेक्षता, पंचशील, निःशस्त्रीकरण, परमाणु निःशस्त्रीकरण का पूर्ण समर्थन करते हुए, चीन, पाकिस्तान, अच्छे पड़ोसी की नीति, संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन, शांतिपूर्ण परमाणु तकनीक का विकास, दक्षिण सहयोग को बढ़ावा, विभिन्न देशों के साथ उच्च-स्तरीय व्यापारिक, आर्थिक, राजनीतिक संबंधों की स्थापना तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी स्थायी सदस्यता का दावा करते हुए नये विश्व परिदृश्य में आर्थिक पहलू में सामंजस्यता स्थापित करने का प्रयास करता आ रहा है।
भारत अपूर्व सक्रियता एवं व्यवहारिकता दर्शाते हुए बदलते हुए परिदृश्य के अनूरूप अपने आपको ढालने का प्रयास किया। विश्व के बदलते परिदृश्य में भारत की विदेश नीति का लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उभरते हुए नये प्रभाव केन्द्रों के साथ अपना समीकरण स्थापित करना था। इस नये परिर्वतन में नैतिकता तथा मूल्यों पर आधारित नीति पर अधिक बल न देकर आर्थिक पहलू पर अधिक ध्यान दिया गया। भारत ने अब पश्चिम एशिया सम्बन्धी नीति में परिर्वतन लाया। भारत-अमेरिका सम्बन्धों में व्यापक सुधार हुआ। भारत की आणविक परीक्षणों ने अणुशक्ति पर पाश्चात्य देशों तथा चीन के एकाधिकार की समाप्ति की। राष्ट्रीय हित के अनुरूप अरब देशों के साथ भी सामंजस्यता लाने का प्रयास किया। दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ संबंधों के नये आयाम बने। विकासशील देशों की आवश्यकताओं तथा इच्छाओं को विश्व के विभिन्न मंचों पर प्रकट किया। गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता की वकालत की तथा परिवर्तित एकल ध्रुवीय शक्ति संरचना में भी इसकी महत्ता को दोहराया। तीसरी दुनिया के देशों के साथ अधिक आर्थिक-समाजिक संबंधों की स्थापना के लिए अधिक सक्रिय है।
Question : भारत-बांग्लादेश संबंधों में प्रमुख प्रतिरोधी मुद्दों का एक विवरण प्रस्तुत कीजिए। दोनों के बीच अपेक्षाकृत अधिक सहयोग की संभावानाओं का आकलन कीजिए।
(2004)
Answer : भारत के सहयोग से बांगलादेश का उद्भव हुआ। परन्तु समय के साथ-साथ दोनों के सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव आता रहा है। दोनों के पास एक दूसरे के लिए ढ़ेर सारी शिकायते हैं। दोनों देशों के प्रतिरोधी मुद्दों में प्रमुख है- जल बंटवारे की समस्या, शरणार्थियों की समस्या, सीमा विवाद, अवैध धुसपैठ तथा अवैध आब्रजन, आतंकवादी गतिविधियों को समर्थन, सीमा सुरक्षा बलों से मुठभेड़, न्यूमूरे द्वीप विवाद, समस्याओं का अंतर्राष्ट्रीयकरण।
जल बंटवारे की समस्या दोनों देशों के बीच संबंधों में एक दरार के रूप में विद्यमान है। बांग्लादेश में गंगा पानी के बंटवारे को अंतर्राष्ट्रीय रूप देने का प्रयत्न किया और इसे संयुक्त राष्ट्र तथा दूसरे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उछालने की कोशिश की। भारत की पहल पर फरक्का जल बंटवारा समझौता हुआ जो स्थायी समाधान नहीं साबित हुआ। पुनः 1996 में दोनों देशों के प्रधानमंत्री ने गंगाजल बंटवारे की ऐतिहासिक संधि पर हस्ताक्षर किये। दोनों देशों ने इस संधि को लागु करने के लिए संयुक्त समिति गठित करने का निर्णय लिया। न्यूमूर द्वीप पर भारत के अधिकार पर बांग्लादेश ने आपत्ति की। भारत द्वारा अपने अधिकार संबंधी आंकड़ों से बांग्लादेश संतुष्ट नहीं था।
बांग्लादेशी शरणार्थियों की समस्या ने दोनों देशों में उत्तेजना पैदा की है। भारत-बांग्लादेश सीमा 3200 किलोमीटर लम्बी है। इस सीमा से बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थी भारत में गैर-कानूनी तौर पर प्रवेश करते हैं। शरणार्थियों के भारत में गैर-कानूनी तौर पर प्रवेश को रोकने के लिए भारत ने सीमाओं पर कांटेदार तार लगाने का निर्णय किया। बांग्लादेश ने भारत के इस निर्णय का विरोध और इसे घेराबंदी की संज्ञा दी। चकमा शरणार्थियों की वापसी की मुद्दे पर देशों में तनाव बढ़ता रहा है। दोनों देशों के अर्द्धसैनिक बलों के बीच एैसे तनाव के महौल में कईबार मुठभेड़ हुई। अप्रैल, 2001 में बांग्लादेश की सेना भारतीय सीमा में घुसकर एक गांव पर कब्जा कर लिया तथा कुछ अर्द्धसैनिक बलों को बन्दी बनाकर इन्हें यातनाएं दी जिससे पूरा भारत क्षुब्ध हो गया। भारत ने इस पर कड़ा विरोध प्रकट किया। इधर हाल में बांग्लादेश राइफल्स के जवानों के हाथों भारतीय सीमा सुरक्षा बल के एक आफीसर की हत्या ने दोनों देश के बीच कटुता भर दी।
कई संयुक्त सीमा कार्य दल का गठन किया गया परन्तु भारत और बांग्लादेश का पूर्ण सीमांकन अभी तक नहीं हो पाया है। इस सीमा पर अवैध रूप से तस्करी तथा आतंकवादी गतिविधियां एवं घुसपैठ भी अपने चरम सीमा पर है। भारत ने कई ऐसे प्रशिक्षण शिविरों का पता लगाया है, जहां पूर्वोत्तर के सक्रिय विद्रोही गुटों को सैनिक प्रशिक्षण दिया जाता है। अवैध घुसपैठ आंतकवादी गतिविधियों को संरक्षण तथा अवैध व्यापार के कारण भारत बांग्लादेश में वैचारिक टकराहट जारी है।
भारत और बांग्लादेश के संबंधों में उतार-चढ़ाव के बावजूद कुल मिलाकर संबंध सामान्य और मधुर रहे हैं। ये अपेक्षाकृत अच्छे सम्बन्ध इस बात के द्योतक हैं कि भारत पड़ोसियों को हर संभव अपनी कीमत पर मदद देना चाहता है। द्विपक्षीय वार्ता में भारत और बांग्लादेश अवैध आव्रजन और हथियारों, विस्फोटक एवं नशीली दवाओं एवं जाली मुद्राओं के तस्करी पर रोक लगाने के लिए भारत एवं बांग्लादेश सीमा पर साझा गश्त तेज करने पर राजी हुए हैं। इसके साथ-साथ सीमा पर गश्त लगा रहे हैं। सुरक्षा बलों के बीच भी विश्वास बढ़ाने के उपाय होने चाहिए। बांग्लादेश अवैध आव्रजन पर भारत की जो चिताएं हैं उसे दूर करने की कोशिश करे।
भारत को इस ओर सहयोगात्मक रवैया अपनाना चाहिए। बांग्लादेश भारत में चलाये जा रहे पूर्वोत्तर के उग्रवादी गतिविधियों को कारगर रूप से रोक लगाये और उस गतिविधियों के खिलाफ अपने धरती पर कुछ सख्त कदम उठाये। बांग्लादेश से लगी सीमा पर बाड़ लगाने और नदियों को जोड़ने की योजना के संबंध में बांग्लादेश की चिंताओं को दूर करने का प्रयास करते हुए भारत उससे अपेक्षा रखता है कि वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसकी सदस्यता के दावे का समर्थनकरेगा। ये दोनों देशों के हित में होगा और दोनों का एक दूसरे के प्रति विश्वास का जन्म होगा।
भारत-बांग्लादेश के अच्छे संबंधों के लिए सतत् संवाद की आवश्यकता है। दोनों पक्षों को संयम बरतने की आवश्यकता है। भारत आर्थिक रूप से बांग्लादेश से संपन्न देश है तथा भारत बहुत बड़ा निवेशक साबित हो सकता है। तकनीकी क्षेत्र में ये बांग्लादेश की मदद कर सकता है। भारत द्वारा दिया गया मुक्त व्यापार क्षेत्र का प्रस्ताव बांग्लादेश को सहर्ष मान लेना चाहिए इससे व्यापार में हों रहे उसे घाटे को सहन नहीं करना पड़ सकता है। दोनों देशों के सरकारों को घोषित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए निरंतर कार्य करना होगा जिससे दोनों को सकारात्मक दिशा मिलने में सहायता मिले बांग्लादेश कम से कम तीन बड़े मामले अवैध घुसपैठ, आतंकवाद तथा अवैध व्यापार पर रोक लगाये।
Question : लैटिन अमेरिका के साथ भारत के संबंधों का वर्णन कीजिए उनको स्पष्ट कीजिए और स्थिति में सुधार के सुझाव दीजीए।
(2004)
Answer : लैटिन अमेरिका शब्द व्यापक रूप से अमेरिका के दक्षिण की ओर सारे पश्चिमी गोलार्द्ध में स्थित उस भू-भाग का प्रयोग किया जाता है जो मध्य तथा दक्षिण अमेरिका तथा केरीबियन क्षेत्र में आता है। लैटिन अमेरिका में 24 गणराज्य हैं। इस सभी देशों में भौगोलिक एवं राजनीतिक असमानताएं हैं। लैटिन अमेरिकन देशों ने उदारवादी, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष राज्य पद्धति को अपनाकर विकास की पूंजीवादी व्यवस्था को अपनाया था- परन्तु कुछ देशों को छोड़कर राजनीतिक अस्थिरता का महौल बना रहता है।
भारत एवं लैटिन अमेरिका का सम्बन्ध सदियों पुराना है। भारत का जुड़ाव ऐतिहासिक है। भारत से ब्रिटिश उपनिवेश कालों में हजारों की संख्या में भारतीयों को लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों में बंधक मजदूर के रूप में भेजा गया। अब वे वहां के नागरिक हैं तथा सरकार में भूमिका निभा रहे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सांस्कृतिक समरूपता के कारण दोनों जगहों के संस्कृति में आदान-प्रदान होता है। लैटिन अमेरिका के कुछ ऐसे देश हैं जहां भारतीय मूल के लोगों का वर्चस्व है। वें सरकार के उच्च पदों पर आसीन हैं और कुछ देशों में तो भारतीय मूल के राष्ट्र के प्रधान के रूप में कार्य किया है। इन व्यवस्थाओं के कारण भी भारत लैटिन अमेरिका सम्बन्धों में सकारात्मक रवैया रहा। हालांकि सम्बन्धों में बहुत गहराई नहीं रहा परन्तु कटुता कभी नहीं रही है। लैटिन अमेरिकन देशों ने हमेशा भारतीय अगुवाई का साथ दिया है।
भारत तथा तीसरे विश्व के देशों के बीच जिसके लैटिन अमेरिका शामिल है, साम्राज्य विरोधी तथा उपनिवेशवाद विरोधी साझे लक्षणों के कारण परस्पर सहयोग द्वारा सामाजिक, आर्थिक विकास की सांझी आवश्यकता के कारण, भारत ने हमेशा अपने आपको इन देशों के साथ जुड़ा समझा है। भारत की विदेश नीति तीसरे विश्व की एकता के हितों की एकता समर्थक है। भारत तीसरे विश्व की एकता के प्रति, विशेषतया विकसित तथा विकासशील देशों के बीच विश्व के साधनों के बंटवारे पर आधारित एक नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का पक्षधर है तथा वचनबद्ध है। दक्षिण दक्षिण वार्ता, जी-77 की सम्मेलनों में भारत की भूमिका इस बात का प्रमाण है। भारत ने संदा ही संयुक्त राष्ट्र, जी-15, जी-24, जी-77 तथा अन्य सभाओं में तीसरी दुनिया के देशों जिसमें लैटिन अमेरिका देश भी है, के देशों के अधिकारों की रक्षा के लिए दक्षिण सहयोग बढ़ाने की नीति का पूर्ण समर्थन किया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यता तथा भारत का स्थायी सदस्य के रूप मांगों को लैटिन अमेरिकन देशों ने समर्थन किया है। 1991 में भारत, बाजील, के मेक्सिको वेनजुएला तथा अन्य देशों ने सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मांग की।
भारत ने हमेशा लैटिन अमेरिकन देशों के हित के रक्षा के लिए आगे रहा है चाहे वो क्यूबाई मिसाइल संकट हो तथा फिदेल कास्तो के समर्थन की बात या निकारगुआ में सेडनिस्ता सरकार को समर्थन। इन्ही कारणों से संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने 1985 से 1986 तक भारत को प्रत्यक्ष सहायता देनी बन्द कर दी थी।
लैटिन अमेरिकी देशों के साथ संबंध को और बढ़ाने के ख्याल से भारत के प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति समय-समय पर उन देशों की यात्रा करते रहे हैं। जिसने उन देशों के साथ भारत की औद्योगिक एवं आर्थिक सम्बन्धों में नजदीकियां आयी हैं। भारत लैटिन अमेरिकन देशों से बहुत से सामानों का आयात और निर्यात करता है। इससे इन क्षेत्रों में भारत की रूचि प्रदर्शित होती है। सामूहिक रूप सें आर्थिक वृद्धि तथा गरीब देशों में आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहन देने में भारत की गहरी रूचि के परिणामस्वरूप यू.ए.सी.टी.ए.डी., ई.सी.ओ.ए.ओ.सी. तथा संयुक्त राष्ट्र की अन्य एजेन्सियों की स्थापना में भारत ने अग्रणी भूमिका निभायी है।
भारत और लैटिन अमेरिकन देशों में दिन प्रति दिन सम्बन्धों में बढ़ोतरी हो रही है। अन्य देशों की तुलना में कुछ देशों के साथ भारत के सामान्य संबंध तथा आर्थिक और व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ रहे हैं। अभी हाल में भारत तथा कोलंबिया के बीच वानिकी तथा जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में वैज्ञानिक सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए एक समझौता किया गया। वेनजुएला के राष्ट्रपति ने भारत की चार दिन की राजकीय यात्रा पर आये। इस यात्रा का उद्देश्य भारत के साथ आर्थिक सम्बन्धों को मजबूत बनाना था। हांगकांग में संपन्न विश्व व्यापार संगठन में विकासशील देशों ने चार देशों की समिति बनाई जिसमें भारत और ब्राजील शामिल थे। सुरीनाम त्रिनिदाद और टोवागो जैसे देश जहां भारतीय मूल के लोगों की सरकार है तथा भारत के अच्छे संबंध हैं।
भारत और लैटिन अमेरिकन देशों तथा तीसरी दुनिया के देशों के सामने महत्वपूर्ण चुनौतियों में जनसंख्या विस्फोट, प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की होड़, अवैध व्यापार तथा अंतर्राष्ट्रीय आंतकवाद की समस्या जैसी चुनौतियां हैं। इस चुनौतियों के आलावा जातिगत तथा धार्मिक उपराष्ट्रीयतावाद से विद्यमान राष्ट्रीय संरचना चूंकि भारत तीसरे विश्व के देशों में आर्थिक रूप, राजनीति रूप से स्थिर एवं संपन्न है, अतः इसे अग्रणी भूमिका निभाने की आवश्यकता है। दोनों ओर से राष्ट्र राज्यों के बीच परस्पर विश्वास बढ़ाने के लिए संगठित प्रयास करनी चाहिए। ऐसी विश्व व्यवस्था का निर्माण करने का प्रयास करना चाहिए जिसमें सभी राष्ट्र के लिए आर्थिक न्याय और समान अवसर मिले।
सांस्कृतिक, कलात्मक एवं शैक्षणिक संभावनाओं की दृष्टि से लैटिन अमेरिका और भारत की सामंजस्यता संभव है। अतः दोनों ओर से विश्वास पर आधारित मैत्री सम्बन्धों की तलाश करनी होगी, जिनसे उपरोक्त क्षेत्रों में काम किया जा सके और आर्थिक समृद्धि हो।
Question : 1962 के भारत-चीन द्वंद्व का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव
(2003)
Answer : 1962 के भारत-चीन द्वंद्व का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभावः हिंदी चीनी भाई-भाई के नारा के बाद हुआ, 1962 का विश्वासघात और लड़ाई। अतीत के इस कड़वे कारनामें ने चीन के प्रति भारतीयों को संशय और सवालों ने घेर लिया। 1962 के चीनी आक्रमण के पश्चात चीन ने हर संभव प्रयास किया कि भारत को घेरा जाय और उसे उप महाद्वीप में ही उलझाये रखा जाय। इस आक्रमण ने विश्व राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया।
इस युद्ध के पश्चात चीन साम्यवादी झंडे को लहराने में सफल हो गया और एशिया में अपनी ताकत का इस्तेमाल कर यह उत्तर छोड़ गया कि यदि कोई एशिया का सुपर पावर है तो वह है चीन। इस मानसिकता के कारण शीत युद्ध की लहर तो तेज हुई, ही भारत जैसे गुटनिरपेक्ष देश को इसका बड़ा धक्का लगा और ये गुट को अपनाने पर विवश दिखने लगे, क्योंकि इस युद्ध में नासिर और टीटो जैसे नेता भी इसका विरोध का साहस नहीं कर सके। इस युद्ध ने शक्ति राजनीति को द. एशिया में जन्म दिया और ये देश अपनी भुखमरी, अज्ञानता और कुपोषण को छोड़कर हथियार खरीदने और बनाने में लग गये।
भारत जैसा देश अपनी संप्रभुता और राष्ट्रीय हित के प्रति सचेत हो गया और अपनी नीति में गुटों की राजनीति से परे रहते सुरक्षा व्यवस्था को पुष्ट किया।
युद्धोत्तर की अवस्था में साम्यवादी विचारधारा मजबूती के साथ उभरी और विचारात्मक लड़ाई तेज हो गयी। इस प्रकार चीन रूपी दानव पूरे विश्व राजनीति में अपनी छाप छोड़ गया।
Question : बांग्लादेश की स्वतंत्रता में भारत की भूमिका
(2003)
Answer : 1971 में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक दूरगामी परिवर्तन हुआ, यह परिवर्तन था बांग्लादेश का उदय। इस उदय से पहले भारत को विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा, जब लगभग एक करोड़ लोग यातना-पीडि़त बांग्लादेशी शरणार्थी भारत आ गये और वापस जाने से इंकार कर दिया, तब भारत सरकार को पाकिस्तान से बात करनी पड़ी। पाकिस्तान ने यह आरोप लगाया कि भारत उसके आंतरिक मामले में हस्तक्षेप कर रहा है। शेख मुजीबुरर्हमान को आजाद कराने तथा उठ रहे मुक्ति संगठनों को भारत ने सहायता प्रदान की तब उसका परिणाम भारत-पाक युद्ध के रूप में सामने आया।
नवंबर 1971 में मुक्तिवाहिनी को बांग्लादेश में मुक्ति संघर्ष में भारी सफलताएं प्राप्त हुईं। इससे विचलित होकर पाकिस्तान के सैनिक शासक याह्या खां ने अपने अंतर्राष्ट्रीय मित्रों की हस्तक्षेप की आशा में 3 दिसंबर को भारत पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण पाकिस्तान की एक भयंकर भूल सिद्ध हुआ। केवल 14 दिन के युद्ध के बाद भारत ने पूरे बांग्लादेश को मुक्त करा लिया और पश्चिमी र्मोचे पर भी अनेक पाकिस्तानी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। 16 दिसंबर को पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार मार्च 1971 में उठे विवाद नौ महीने के निरंतर अग्नि परीक्षा के बाद ‘सोनार बांग्ला’को एक नया जीवन प्राप्त हुआ। 28 मार्च, 1971 को जन्मे इस देश के मुक्ति संग्राम ने भारत-पाक युद्ध के संदर्भ में सफलता प्राप्त की। 6 दिसंबर को भारत और भूटान ने इसको मान्यता प्रदान कर दी।
Question : भारत-रूस के बीच सहयोग
(2003)
Answer : अपने पराभव तथा विघटन के बावजूद रूस अब भी हमारे लिए उतना ही विश्वसनीय और महत्वपूर्ण देश है जितना पहले था, क्योंकि उसके (रूस) और हमारे रिश्ते समय की कसौटी पर परखे हुए और स्थायी हैं। रूस की नाभिकीय क्षमता, वैज्ञानिक सम्भावनाएं, प्राकृतिक संसाधन और भू-सामरिक स्थिति अब भी यूरेशिया के स्थायित्व के आधार स्तम्भ हैं। चीन, रूस और भारत यूरेशिया के स्थायित्व के आधार स्तम्भ हैं, इसलिए आवश्यक है कि रूस के साथ जो भी नये संबंध स्थापित हो, वह सहयोग की पिछली परम्परा को न भूले। भारत तथा रूस के बीच सहयोग के मौके पर तथा कठिन परिस्थितियों में रूस ने, काश्मीर का मामला हो या गोवा का मामला रहा हो या फिर 1971 का भारत-पाक युद्ध, सभी जगह रूस हमारे साथ खड़ा मिलता है। भारत के औद्योगिक तंत्र के विकास में आधारभूत ढांचे के निर्माण में सोवियत संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
अन्य सहयोग के क्षेत्रों में नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन परमाणु अनुसंधान, सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, एकीकृत प्रौद्योगिकी सहयोग कार्यक्रम, क्रिटिकल हाईटेक आदि कई क्षेत्रों के अलावा अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद तथा आपसी व्यापार को और अधिक बढ़ाने जैसे विषयों पर समझौते हुए हैं। पुतिन के भारत आगमन ने सामरिक सहयोग 2000 को सामरिक सहयोग 2010 तक कर दिया गया।
रूस को भारतीय बाजार तथा भारत प्रौद्योगिकी अनुसंधान में सहयोग करके भारत रूस संयुक्त रूप से दुनिया की अभूतपूर्व महाशक्ति बन सकते हैं।
Question : अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और भारत
(2003)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना 1944 में ब्रैटनवुड्स नामक वित्तीयअधिवेशन में हुई। इसमें संपन्न समझौते के अनुसार 1945 को ये संस्था संगठित हुई। 1947 में यह संयुक्त राष्ट्र का विशेष अभिकरण बना। अन्तर्राष्ट्रीय धन कोष की प्रतिज्ञा के अनुच्छेद 1 के अनुसार इसके मुख्य उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग को प्रोत्साहन देना, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के विदेशी विनियम प्रतिबंधों को हटाना, सदस्यों को धन उपलब्ध कराकर इसमें विश्वास उत्पन्न करना तथा सदस्यों के मध्य भुगतान से अंतर्राष्ट्रीय संतुलन में असमानताओं को न्यून आदि करना है। मौलिक सदस्यों के अतिरिक्त अन्य राज्य, गर्वनरों की परिषद् के साधारण बहुमत से सदस्य बनाये जा सकते हैं। प्रत्येक सदस्य को उसके द्वारा कोष में धन दिये जाने के अनुसार मत देने का अधिकार होता है। प्रत्येक सदस्य को 250 मत के अतिरिक्त तथा प्रत्येक 1 लाख SDR पर अतिरिक्त मत देने का अधिकारहै। इसके चार मुख्य अंग होते हैं (1) गर्वनरों की परिषद् (2) कार्यकारी संचालक (3) एक प्रबंध संचालन (4) कर्मचारी। कोष की सभी शक्तियां परिषद् में केंद्रित होती है। परिषद अपना एक चेयरमैन नियुक्त करती है तथा इसका अधिवेशन प्रतिवर्षहोता है। कार्यकारी संचालकों की संख्या 18 होती है तथा यह कोष सामान्य कार्य सम्पादित करती है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष अपने कार्य के अनुरूप (भारत जो नींव धारी सदस्य है) भारत को भुगतान संतुलन की गड़बड़ी और अर्थव्यवस्था की गति धीमी होने पर सहायता मुहैया करता है। भारत का भुगतान संतुलन स्वतन्त्रता के बाद सिर्फ एक बार पक्ष में रहा है। (1965-74) वाले पंचवर्षीय योजना में, इसके बाद कभी भी भारत का भुगतान संतुलन भारत के पक्ष में नहीं रहा है। इसलिए भारत को अपनी धनराशि की उपलब्धता में IMF राशि उपलब्ध कराता है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था को गति प्रदान कर IMF भारत को नया जीवन प्रदान करता है।
Question : व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर करने के विरूद्ध भारत के पक्षवाद के गुणागुण का आकलन कीजिए।
(2003)
Answer : निरस्त्रीकरण की प्रक्रिया की गुणात्मक कटौती के तहत परमाणु शस्त्रों से संबंधित व्यापक आणविक परीक्षण प्रतिबन्ध संधि (Comprehensive Test Ban Treaty) विश्व भर में किये जाने वाले परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाने के उद्देश्य से लायी गयी संधि या समझौता है, जिसका 1993 में भारत, अन्य देशों के अलावा अमेरिका के साथ सह-प्रस्तावक था लेकिन 1995 में उसने यह कहते हुए कि यह संधि सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण के समयबद्ध कार्यक्रम के साथ जुड़ी हुई नहीं है, सह-प्रस्तावक बनने से इंकार कर दिया।
मई 1995 में NPT की कार्य अवधि को अनिश्चित समय के लिए बढ़ा लेने से परमाणु शस्त्रधारक देशों ने अपने परमाणु श्रेष्ठता को बनाए रखने में सफलता प्राप्त की। ऐसा कर लेने के बाद उन्होंने इसे और ठोस करने के लिए यह प्रस्ताव रखा कि एक व्यापक परीक्षण निषेध संधि की जानी चाहिए, जिसके द्वारा भविष्य में परमाणु शस्त्र निरीक्षण के पक्ष में एक ठोस कदम माना गया तथा इसकी पूर्ण वकालत की गयी। ऐसी संधि के पक्ष में जनमत तैयार करना तथा परमाणु शस्त्र विहीन देशों को ऐसी साझी संधि के लिए दबाव डालने में संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक अग्रणी भूमिका निभाई। इसके साथ ही परमाणु शक्ति संपन्न देश चाहते थे कि दक्षिण एशिया परमाणु मुक्त रहे और उनमें किसी प्रकार की परमाणु प्रतिद्वंद्विता न उत्पन्न हो। इसी के तहत वे भारत तथा पाकिस्तान पर लगातार दबाव बना रहे थे कि ये देश इस संधि पर समझौता कर दें तथा परमाणु विस्फोट तकनीकी से मुक्त हो जाय। लेकिन भारत 1947 में भाभा परमाणु केन्द्र की स्थापना के साथ 1998 तक परमाणु शक्ति और ऊर्जा तकनीक में शांतिपूर्वक प्रयोग कर रहा था। मई 1974 में भारत ने एक नियंत्रित भूमिगत परमाणु परीक्षण करके परमाणु तकनीकी विकास करने के क्षेत्र में अपनी योग्यता का प्रमाण दिया था। परंतु उसके बाद उसने 1974 से 98 तक कोई परीक्षण नहीं किया और न ही परमाणु शस्त्र धारक देश बनने में कोई प्रयास किया। भारत के विपरीत पाकिस्तान जगह-जगह कहता रहा कि उसके पास कम से कम एक परमाणु बम है। भारत केवल दक्षिण एशिया को परमाणु विहीन क्षेत्र घोषित करने का पक्षपाती नहीं था क्योंकि उसे चीन की परमाणु शक्ति तथा सम्भावित परमाणु अस्त्रों की होड़ का खतरा था।
लेकिन परमाणु शस्त्रधारक देशों (P-5) ने अपने पक्ष में एक व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) तैयार कर ली और इसे 10 दिसंबर, 1996 को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्वीकार कर लिया गया और इस पर सबसे पहले क्लिंटन ने हस्ताक्षर किये। कहने का तात्पर्य है कि यह सोची समझी रणनीति थी। अमेरिका की (P-5) को छोड़कर सभी देशों को इस अस्त्र से पंगु बना दे।
इस संधि की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैंः
इस प्रकार के उद्देश्य घोषित करने के पीछे सिर्फ यही प्रयास था कि (P-5) को छोड़कर कोई भी इस क्षेत्र में आगे न बढ़ पाये। इसी कारण भारत जैसे कुछ देश इसका घोर विरोध करते हैं तथा इसे एक पक्षपात पूर्ण अधूरी तथा युग संधि कहा जो (P-5) देशों द्वारा अपने परमाणु साम्राज्यवाद तथा एकाधिकार की रक्षा के लिए अपनायी जा रही थी।
भारत ने इस संधि का विरोध करते हुए अपने पक्ष में निम्नलिखित तर्क दियाः
इन अकाट्य तर्कों के आधार पर भारत ने CTBT पर हस्ताक्षर न करने की नीति बनाई। मई 1998 में पहले भारत ने पांच परमाणु विस्फोट करके अपने आप को परमाणु शस्त्रधारक देश घोषित कर दिया तथा इसके कुछ दिनों के पश्चात् पाकिस्तान ने भी इकट्ठे छः परमाणु विस्फोट करके अपने आपको परमाणु शस्त्रधारक राज्य घोषित कर दिया। लेकिन (P-5) परमाणु सम्पन्न देशों ने इन्हें मान्यता नहीं दी है। भारत और पाकिस्तान पर इन लोगों (P-5) ने प्रतिबंध लगाये लेकिन इराक युद्ध-2 के पहले इस प्रकार के प्रतिबंध लादेन द्वारा आतंक से समाप्त करा दिया और तो और अमेरिका सीनेट ने भी 1999 में इसे अस्वीकार करके इसकी प्रासंगिकता को समाप्त कर दिया है तथा अब यह बर्फ के समान ठंडा होकर पिघल रहा है।
Question : इस दृष्टिकोण का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए कि शीत-युद्धोत्तर काल में गुटनिरपेक्षता की भारत की नीति विसंगत हो गयी है।
(2003)
Answer : गुटनिरपेक्ष आंदोलन शीतयुद्ध एवं द्विध्रुवीय विश्व प्रणाली के विरुद्ध नवोदित देशों का एक ऐसा अभियान था, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय शान्ति, सद्भावना एवं आर्थिक विकास के साथ उनके राष्ट्रीय हितों एवं महत्वाकांक्षाओं का अद्भुत सामंजस्य विद्यमान था।
गुटनिरपेक्षता द्वितीय विश्व युद्ध के अवसान के साथ नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के रूप में विश्व पटल पर उभरा। इस आन्दोलन की सैद्धान्तिक व्याख्या पंचशील को माना गया, जिसमें गुटों से अलग रहते हुए विश्व शान्ति के लिए सक्रिय कार्य करना एवं गुटबंदी की प्रक्रिया को रोकना अपना मुख्य उद्देश्य घोषित किया।
नेहरू, टीटो और नासिर का सपना, विकासशील एवं नवोदित देशों को विश्व राजनीति में अपना महत्व सिद्ध करने के लिए एक मंच का कार्य किया और शीतयुद्ध से उत्पन्न स्थिति को विश्व राजनीति में तनाव को कम करने का प्रयास किया। वास्तव में यदि गुटनिरपेक्षता का अर्थ पता किया जाय तो पता चलता है कि यह अन्य राज्यों के सैनिक समझौते में भाग न लेना है।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन को 1961 में भारत की पहल पर शुरू किया गया और औपचारिक रूप से गुटनिरपेक्ष आंदोलन का शुभारंभ प्रधानमंत्री नेहरू नासिर टीटो द्वारा किया गया और इसकी अवधारणा इतनी मूल्यवान हो गयी कि जो भी देश स्वतंत्र होते गये उन्होंने अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा और आर्थिक विकास के लिए सरलता से गुटनिरपेक्षता का ही मार्ग चुना। गुटनिरपेक्षता की अवधारणा पर टिप्पणी करते हुए के. सुब्रमण्यम ने कहा है कि ‘गुटनिरपेक्षता का यह सिद्धांत एक ऐसे महान राष्ट्र का प्रत्युत्तर था जो उपनिवेशवाद से बाहर निकल कर शीतयुद्ध के दबाव को रोकना चाहता था। यह उपनिवेशवाद के उन्मूलन के लिए वचनबद्धता थी जिनमें न कोई शोषण होगा, न जातिवाद होगा और जहां सभी स्वाधीन हुए लोगों को एक समान अवसर मिलेंगे।
इस आंदोलन के औपचारिक उद्घाटन के पश्चात 1961 में बेलग्रेड शिखर सम्मेलन में 25 देशों ने मिलकर इसमें अपना विश्वास जताया।
जिस परिस्थितियों और समस्याओं से गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरुआत की गयी, 1991 में वह समाप्त हो गयी, जब सोवियत संघ बिखर गया और दो ध्रुवीय राजनीति सिमटकर एक ध्रुवीय हो गयी। अब प्रश्न यह उठता है कि शीतयुद्ध के पश्चात गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता क्या है? क्या NAM अपनी महत्ता को बरकरार रखने हेतु अपने उद्देश्यों में समझौता कर सकता है, क्या वह अपनी भूमिका को बनाये रखने के लिए कौन-से पहलुओं पर वर्तमान समय में ध्यान दे रहा है?
गुटनिरपेक्षता विश्व राजनीति में राष्ट्रों के लिए एक नये विकल्प के रूप में निश्चय ही स्थायी रूप धारण कर चुकी है। इसने विशेषतः राष्ट्रीय समाज के छोटे-छोटे अपेक्षाकृत कमजोर सदस्यों के सन्दर्भ में राष्ट्रों की स्वतन्त्रता बनाये रखने में योग दिया है। इसने विश्व के पूर्ण ध्रुवीकरण को रोककर विचारधारागत शिविरों के विस्तार और प्रभाव को संयत करके तथा गुटों के अंदर भी स्वतन्त्रता की शक्तियों को प्रोत्साहन देकर अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने तथा उसे बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
अतः गुटनिरपेक्षता की सार्थकता द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शीतयुद्ध के वातावरण में तो थी, किंतु 19-20 वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं। शीतयुद्ध का अंत हो चुका है, सोवियत संघ का विघटन हो चुका है, पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवाद को कब्र में दफनाया जा चुका है, वारसा पैक्ट भंग कर दिया गया है, नाटो (NATO) की भूमिका में बदलाव आ रहा है, जर्मनी का एकीकरण हो चुका है। गुटनिरपेक्षता का उदय शीतयुद्ध के संदर्भ में हुआ था और शीतयुद्ध के अन्त हो जाने के कारण गुटनिरपेक्ष आंदोलन अप्रासांगिक हो चुका है।
लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों की पुनर्संरचना के लिए प्रतिबद्ध है ताकि विकसित तथा विकासशील देशों, दोनों के लिए न्याय और समानता स्थापित हो। इस लक्ष्य को पूर्णतः प्राप्त किया जाना है, लेकिन छ।ड के सदस्य अपनी भूमिका को लेकर सतर्क दिखते हैं, तब विश्व राजनीतिक मंच पर विकासशील देशों की कठिनाईयों से विकसित देशों पर दबाव बनाते नजर आते हैं। विश्व शांति, सुरक्षा तथा विकास के मार्ग में खतरा अभी भी है।
नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) के विषय में उत्तर-दक्षिण वार्तालाप की वास्तविकता को मूल रूप देना शेष है। विश्व राजनीति में दक्षिण-दक्षिण को सहयोग देना बाकी है। इन सब बातों के लिए गुटनिरपेक्षता सर्वाधिक विश्वसनीय मंच तथा आंदोलन है।
इसके अतिरिक्त प्रजाति पार्थक्य, शस्त्र दौड़ परमाणु हथियार तथा सर्वसत्तावाद, विश्व राजनीति में सत्तावाद के विरुद्ध भी गुटनिरपेक्ष आन्दोलन रहा है। वास्तव में INF, START-I तथा START-II संधियों के पश्चात् और रासायनिक हथियारों को नष्ट करने के निर्णय से निःशस्त्रीकरण तथा शस्त्र-नियंत्रण के प्रयत्नों को उनकी ठीक मंजिल तक ले जाना पहले से भी अधिक आवश्यक हो गया है। अतः गुटनिरपेक्ष आंदोलन में समय की आवश्यकता बनी हुई है।
वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन सबसे बड़ा मंच है। इस दृष्टि से यदि वह वास्तव में चाहे तो सामूहिक रूप में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सभी जनक देश अपनी आन्तरिक राजनैतिक चुनौतियों से जुड़ने में या आर्थिक विकास की गति बनाए रखने में इतने व्यस्त हैं कि गुटनिरपेक्ष विदेश नीति की अवधारणा के अवमूल्यन के बारे में सोचने की कोई फुर्सत उन्हें नहीं है। यह बात भारत पर तो लागू होती ही है, इंडोनेशिया, कंबोडिया और स्वयं मिस्र भी इसके अपवाद नहीं हैं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की उपयोगिता आज भी एक ऐसे मंच के रूप में बची हुई है, जहां विकासशील राष्ट्र अपने राजनय में एकता की शक्ति झलका सकते हैं पर वास्तविकता यह है कि ऐसी कोई एकता विकासशील बिरादरी में नहीं है। कोरिया हो या सिंगापुर, अरब राष्ट्र हो या भारत और बांग्लादेश समृद्धि, आकार या धर्म के प्रति विशेष लगाव के कारण इन सबके सोचने का तरीका बिल्कुल अलग है। सोवियत संघ का विघटन हो या यूरोपीय एकीकरण, इन देशों का मानना है कि नारेबाजी, मुहावरे बाजी कुछ भी हो, राष्ट्रीय हित साधन को बेहतर तरीका सामूहिक नहीं।
Question : भारत की ‘पूर्व की ओर देखो’नीति
(2002)
Answer : ‘पूर्व की ओर देखो’नीति के अंतर्गत भारत के विभिन्न आयामों में काफी परिवर्तन हुआ। वास्तव में भारत के संबंध दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ ऐतिहासिक रूप से घनिष्ठ रहे हैं, किंतु आसियान के प्रारंभिक वर्षों में भारत ने इसमें सम्मिलित होने का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था। परिवर्तित अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में भारत ने इस नीति के तहत पुनः दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ अपने संबंध को मजबूत करने का किया है। इससे पूर्व भारत सिर्फ विकसित देश अर्थात अमेरिका, रूस तथा ब्रिटेन जैसे महाशक्तियों के साथ ही अपना संबंध मजबूत करना चाहता था। परंतु भारत को अपनी क्षेत्रीय संतुलन को बनाये रखने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह आसियान देशों के साथ भी मजबूत संबंध करने की कोशिश करे। इस नीति के तहत भारत तथा आसियान के संबंध मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर थाः
अतः इन सारी बातों के अतिरिक्त इस नीति के अंतर्गत भारत, चीन, म्यांमार तथा जापान जैसे देशों के साथ भी अपना संबंध बनाने की कोशिश की। जापान से इस नीति के कारण भारत का काफी सहयोग मिला, इसमें भारत को काफी आर्थिक तथा तकनीकी से संबंधित सहयोग मिला।
पिछले कुछ वर्षों में भारत ने आसियान देशों जैसे वियतनाम, सिंगापुर तथा मलेशिया के साथ अनेक व्यापारिक समझौते किये हैं। आसियान देशों के साथ भारत का द्विपक्षीय व्यापार हाल के कुछ वर्षों में काफी बढ़ोतरी हुई है तथा भारत के पूर्ण वार्ताकार सहयोगी बन जाने के बाद इसमें और अधिक वृद्धि होने की संभावना है। भारत तथा अन्य आसियान देशों के मुकाबले एक बड़ा और शक्तिशाली देश है तथा हिंद महासागर में उसकी नौसेना की उपस्थिति आसियान देशों के लिए सुरक्षा की भावना उत्पन्न करती है।
अतः उपरोक्त सारी बातें यह स्पष्ट करती है कि भारत की अपनी राजनैतिक, आर्थिक एवं तकनीकी सहायता के लिए दक्षिण पूर्व देशों के साथ आसियान के माध्यम से अपना संबंध बनाने का प्रयास किया है। इसका प्रमुख कारण है कि विकसित देशों वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के तहत हमेशा शोषण की प्रवृत्ति रखते हैं। दूसरी बात यह है कि भारत को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी दक्षिण पूर्व देशों के साथ अच्छा संबंध बनाना पड़ेगा।
Question : श्रीलंका में भारतीय शांति सेना (आई.जी.के.एफ.) की भूमिका तथा परिणाम
(2002)
Answer : श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की भूमिका एवं परिणाम: श्रीलंका में भारतीय शांति सेना भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी एवं श्रीलंका के राष्ट्रपति जयवर्द्धने के बीच कोलंबो में 29 जुलाई, 1987 को एक 18 सूत्री समझौते के अंतर्गत व्यवस्था की गयी। इसके अंतर्गत भारतीय शांति सेना श्रीलंका भेजी गयी। भारतीय सेना के चौथे और 54वें डिवीजन के 20 हजार जवान जाफना में फैल गये। इस शांति सेना का उद्देश्य तमिल मुक्ति चीतों के गढ़, जाफना को घेरकर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए बाध्य करना था। मुक्ति चीतों ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया। जाफना को मुक्त कराने में आयी तमाम मुश्किलों के बावजूद इस उपलब्धि को शांति सेना के एक अधिकारी ने एक वाहियात लड़ाई और वह भी दूसरों के लिए लड़ी गयी बतायी। भाजपा नेता जसवंत सिंह के अनुसार पहली बार भारतीय फौजों को एक ऐसी कार्यवाही में लगा दिया गया जहां उन्हें पता नहीं चल रहा था कि वे अपनी जान जोखिम में क्यों उठा रही है। लगभग 1,100 जवान और अधिकारी मारे गये और 3,000 घायल हुए। वास्तव में, श्रीलंका में अपनी सेनाएं भेजकर भारत ने बहुत बड़ा कदम उठाया। एक तरह से यह जरूरी भी था क्योंकि भारत पहल न करता तो भारत विरोधी ताकतें जयवर्द्धने की मदद के लिए तैयार बैठी थीं। अतः भारतीय शांति सेनाओं का मुख्य उद्देश्य श्रीलंका में शांति का माहौल बनाने एवं तनाव दूर करने में सहायता करना था। प्रेमदासा ने राष्ट्रपति बनने के साथ ही भारत से शांति सेना की वापसी का अनुरोध किया और मार्च 1990 तक शांति सेना की लगभग सभी टुकडि़यां भारत लौट आयीं।
जहां तक इसके परिणाम का सवाल है ये भारतीय शांति सेना तमिलों में आम सहमति का निर्माण करने में असफल रहीं। सर्वप्रथम भारत ने एल.टी.टी.ई. के विरुद्ध अन्य तमिल आतंकवादी संगठनों को हथियारों की आपूर्ति की। इस प्रकार तमिल समस्या का निराकरण करने के स्थान पर भारत ने तमिलों के विभिन्न वर्गों में मतभेदों को और उभार दिया। साथ ही, तमिल क्षेत्रों के बाहर भारतीय शांति सेना की गतिविधियों ने सिंहली-बौद्ध राष्ट्रवाद को उभारने में अहम भूमिका निभायी। अंततः इसका परिणाम यह हुआ कि 1990 में श्रीलंका ने भारतीय शांति सेना की वापसी के तुरंत बाद लिट्टे और श्रीलंका की सेना के बीच पुनः लड़ाई आरंभ हो गयी, जिसके फलस्वरूप बड़ी संख्या में शरणार्थी तमिलनाडु में घुस आये। इसके बावजूद भारतीय सेना को श्रीलंका की आंतरिक समस्याओं पर काबू पाने के लिए जाना चाहिए था या नहीं, इस पर दो मत हो सकते हैं लेकिन इतना तो हुआ ही है कि श्रीलंका में लोकतांत्रिक प्रक्रिया हुई और उसमें भारतीय सेना का योगदान भी रहा।
Question : भारत तथा यूरोपीय संघ
(2002)
Answer : भारत तथा यूरोपीय संघ: भारत का संबंध यूरोपीय संघ के साथ बहुत पुराना रहा है। यूरोपीय संघ पहले यूरोपीय आर्थिक समुदाय के नाम से जाना जाता था। 1962 में भारत ने यूरोपीय संघ के साथ एक कूटनीतिक प्रयास के अंतर्गत अपनी वस्तुओं के निर्यात के लिए एक समझौता किया था। परंतु जब 1 जनवरी, 1973 में यूरोपीय आर्थिक संघ में प्रवेश किया तो भारत को बहुत बढ़ा झटका लगा। पर इसके तुरंत बाद भारत के प्रयासों से एक इंडो.ई.ई.सी. संयुक्त कमीशन का गठन हुआ जिससे आयात और निर्यात को काफी बल मिला। जिसमें भारतीय सामान, कीमती पत्थर एवं टेक्सटाइल की वस्तुएं प्रमुख हैं। 1982 में भारतीय निर्यात यूरोपीय संघ को बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया एवं साथ ही यह वृद्धि यूरोपीय संघ से भारत की निर्यात पर भी हुआ। वास्तव में 80 के दशक में भारतीय आयात और निर्यात बढ़कर पांच गुना हो गया एवं अभी की स्थिति भारत की यूरोपीय संघ में 0.4-0.5 प्रतिशत के बीच का है।
भारत में वैश्वीकरण एवं उदारीकण के बाद दोनों देश एक-दूसरे के काफी नजदीक आ गये। मार्च 1992 में एक इंडो-ईसी व्यापार फॉरम की स्थापना की गयी जिसके अंतर्गत नयी तकनीकी एवं वित्त संबंधी आवश्यकताओं के आयात-निर्यात की नीति को काफी मजबूत बनाया गया। 1993 में भारत एवं ई.यू. एक बहुत ही गुणात्मक प्रोग्राम का गठन किया गया, जिसमें ई.यू. ने भारत को गुणात्मक वस्तुओं के निर्माण के लिए भारतीय खाद्य उद्योग को काफी मदद की। डब्ल्यू.टी.ओ. के समय दोनों के बीच कुछ दरारें उपस्थित हुई थी, परंतु 1998 में यूरोपीय संघ भारत के साथ करीब 25.26 प्रतिशत निर्यात तथा आयात ट्रेडिंग के क्षेत्र बनकर उभरा।
जहां तक राजनैतिक संबंध का सवाल है, भारत का यूरोपयी संघ के साथ काफी सहयोगात्मक रहा है। दोनों देशों के नेता विभिन्न स्थितियों को बातचीत के द्वारा अपना संबंध मजबूत करने के इच्छुक हैं। कश्मीर समस्या पर मार्च 1995 में ई.यू. के उपाध्यक्ष मेनुएल मार्टिन ने इसे दोनों देशों का आपसी मामला करार देते हुए इसे राजनीतिक बातचीत द्वारा समाधान कराने को बल दिया। परंतु सी.टी.बी.टी. एवं एन.पी.टी. के मामले पर ई.यू. ने भारत को हस्ताक्षर करने के लिए जोर डाला है। अतः इस मामले में दोनों विपरीत दिशा में खड़े हैं। हाल ही में, जून 2000 को ई.यू. एवं भारत के बीच पुर्तगाल में प्रधानमंत्री वाजपेयी की उपस्थिति में बातचीत संपन्न हुई, जिसके अंतर्गत ब्लू प्रिंट, आण्विक उपकरण एवं भारत का विचार आतंकवाद पर तथा दोनों देशों के बीच आई.टी. एवं तकनीकी तथा संचार के कई क्षेत्रों में योगदान बढ़ाने पर हस्ताक्षर हुए हैं। इस प्रकार भारत एवं यूरोपीय संघ के बीच द्विपक्षीय बातचीत 32 मिलियन यूरो उड्डयन सहयोग एग्रीमेंट के साथ संपन्न हो गया। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि भारत एवं यूरोपीय संघ का संबंध आर्थिक, राजनैतिक एवं अन्य सभी क्षेत्रों में व्यापक एवं प्रगतिशील हैं।
Question : संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का भारत का दावा।
(2002)
Answer : संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का दावाः संयुक्त राष्ट्र की शांति स्थापना की गतिविधियों में भारत की महत्वपूर्ण एवं सराहनीय भूमिका को देखते हुए हम इसकी सदस्यता का दावेदारी से इंकार नहीं किया जा सकता है। वास्तव में पिछले पांच दशकों में हुए ज्यादातर महत्वपूर्ण शांति स्थापना के कार्यक्रमों में भारत की भागीदारी मिलती है। भारत ने पिछले 1950 के दशक में कोरिया, कंबोडिया, वियतनाम, सिवाई व लेबनान आदि देशों में हुई कार्यवाही में हिस्सा लिया है। वर्तमान संदर्भ में प्रमुख कार्यवाहियों जैसे, इराक-ईरान, अंगोला, नामीबिया, ईराक-कुवैत, यूगोस्लाविया, कंबोडिया, सोमालिया, रवांडा, आंगोला आदि में भी सशक्त भूमिकांए निभायी है। भारत ने विभिन्न अवसरों में प्रमुख जिम्मेदारियों को निभाया है।
इसके अतिरिक्त 50 वर्षों में भारत ने संयुक्त राष्ट्र की 23 शांति स्थापना की गतिविधियों में भाग लिया है। साथ ही, भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ शांति स्थापना हेतु एक वैकल्पिक बिग्रेड हमेशा तैयार रखती है। भारत का योगदान विभिन्न संयुक्त राष्ट्र संघ के आयोजनों को आयोजित करने में रहा है। अतः इस प्रकार अपनी शांति स्थापना की गतिविधियों को भारत ने अपनी विभिन्न समस्याओं के बावजूद संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने हेतु एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में आंका जाना चाहिए। भारत शांति सेना की सही क्रियान्वयन की भूमिका को देखते हुए इसकी विश्वभर में सराहना हुई है।
इसके अतिरिक्त, भारत ने संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न गतिविधियों में अपना योगदान देकर अपनी सदस्यता का मार्ग प्रशस्त किया है। प्रथम, भारत ने संयुक्त राष्ट्र की स्थापना में भागीदारी, उसके आदर्शों एवं उद्देश्यों के प्रति वचनबद्धता, शांतिपूर्ण ढंग से विवादों का हल करने, राष्ट्रों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देकर, तथा विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में शान्ति स्थापना पर बल देकर इसके संस्थागत ढांचे के निर्धारण, कार्यान्वयन तथा विकास की प्रक्रिया को बढ़ाया है। द्वितीय, भारत ने एशिया व अफ्रीका के राष्ट्रों को उपनिवेशवाद के चंगुल से स्वतंत्र कराया। तृतीय, भारत ने यहां पर प्रचलित रंगभेद, गरीबी, बेरोजगारी तथा अशिक्षा को दूर करके इन राष्ट्रों को शांति प्रक्रिया के महत्व को समझाने तथा उस पर अमल करने योग्य बनाया। चतुर्थ, सर्वप्रथम भारत ने निरस्त्रीकरण व शस्त्र नियंत्रण की प्रक्रिया में सर्वदा सक्रिय भूमिका निभायी, तथा हथियारों से मुक्त विश्व की कल्पना को साकार बनाया। पंचम, राजनैतिक के साथ आर्थिक समृद्धि, समानता एवं न्याय हेतु नयी आर्थिक विश्व व्यवस्था के निर्माण में भी सक्रिय योगदान दिया। छठा, वर्तमान संघर्षों से निपटने हेतु संयुक्त राष्ट्र की शान्ति व्यवस्था की गतिविधियों में व्यापक स्तर पर सहयोग के माध्यम से राज्यों के बीच तनाव वाले क्षेत्रों में शांति स्थापित करने का प्रयास किये। अतः उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र परिषद की सदस्यता मिलनी ही चाहिए।
Question : सी.टी.बी.टी. तथा एन.पी.टी. पर भारत की आपत्तियों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2002)
Answer : भारत की परमाणु नीति का अंतर्राष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संबंधित संस्थाओं से गहन संबंध रहा है। परमाणु शस्त्रों पर निषेध का भारत हमेशा पक्षधर रहा है, इसीलिए अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ पर परमाणु प्रसार को रोकने के लिए किये प्रत्येक प्रयासों में भारत ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। नेहरू के 2 अप्रैल 1954 के ‘स्टैंडस्टील एग्रीमैंट’से लेकर 18 देशों के निरस्त्रीकरण समिति, निरस्त्रीकरण समिति सम्मेलन (1978 तक), तथा बाद में निरस्त्रीकरण सम्मेलन के माध्यम से भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के माध्यम से हमेशा एक प्रमाणु शस्त्रों से मुक्त विश्व बनाने के प्रयत्नों का समर्थन किया है। इन सम्मेलनों के माध्यम से भारत एक व्यापक व सार्वभौमिक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि बनाने हेतु प्रयासरत रहा है। भारत के इस योगदान का तथा इस दौरान उत्पन्न मतभेदों का सही स्वरूप जानने हेतु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर परमाणु प्रसार को रोकने हेतु गठित तीन प्रमुख विश्व संगठनों के गठन व उनके प्रति भारत के दृष्टिकोण से लगाया जाता है। इसके द्वारा अपनायी गयी नीतियां भारत की समग्र परमाणु नीति का अभिन्न अंग है। ये तीन परमाणु अप्रसार संगठन हैं (1) आंशिक/ मास्को परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (पी.टी.वी.टी.) (1963), (2) परमाणु अप्रसार संधि (एन.पी.टी.) (1968), तथा (3) व्यापक परमाणु परीक्षण निषेध सन्धि (सी.टी.बी.टी.) (1996)।
वास्तव में, परमाणु अप्रसार संधि का मुख्य उद्देश्य नाभिकीय अस्त्रों के प्रसार को रोकना है। इस प्रयास में सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ-साथ अन्य ऐसे देश भी सम्मिलित थे जिनके पास नाभिकीय अस्त्र अथवा उन्हें बनाने की क्षमता नहीं थी। इन देशों ने अपनी नाभिकीय अस्त्र बनाने की आकांक्षाओं का त्याग सिर्फ इस उद्देश्य से किया था कि वे शान्ति से अपना विकास करने की आशा करते थे। किन्तु इन सभी देशों ने नाभिकीय शक्ति का शान्तिपूर्ण तरीकों से विकास कार्यों हेतु प्रयोग करने के लिए अपने अधिकार का त्याग नहीं किया था। धारा नं. 6 के अन्तर्गत नाभिकीय अस्त्रों की दौड़ को रोकना तथा नाभिकीय अस्त्रों का परिसीमन करना इस सन्धि के मुख्य उद्देश्य थे। इसके अतिरिक्त इसी धारा के अन्तर्गत नाभिकीय अस्त्र सम्पन्न देशों की इस अस्त्रों पर निर्भरता कम करना भी इस धारा का उद्देश्य था। इस संधि पर 1 जुलाई, 1968 को तीन नाभिकीय अस्त्र सम्पन्न देशों, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन तथा तत्कालीन सोवियत संघ सहित कुल 62 देशों ने हस्ताक्षर किये। परंतु अन्य नाभिकीय सम्पन्न देश फ्रांस और चीन इस सन्धि में सम्मिलित नहीं हुए। जहां तक भारत का सवाल है वह इस सन्धि को भेदभावपूर्ण मानते हुए समस्त अन्तर्राष्ट्रीय दबाओं का सामना करते हुए भी, इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार करता है। यद्यपि भारत अपने निर्णय में जो भी तर्क देता रहा है, वे काफी हद तक विश्वसनीय भी है, तथापि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि नाभिकीय अस्त्रों के परिसीमन की दिशा में यह पहला सार्थक प्रयास था। गत वर्ष इस सन्धि के नवीनीकरण के प्रश्न पर जितनी चर्चाएं हुईं उनसे, और कुछ नहीं तो विश्व जनमत कम से कम एक बार फिर अपना पूरा ध्यान नाभिकीय अस्त्रों के प्रसार व परिसीमन के ज्वलन्त विषय पर केन्द्रित करने हेतु अवश्य बाध्य हुआ।
व्यापक अणु परीक्षण प्रतिषेध सन्धि (सीटीबीटी) 1993-96 के दौरान काफी प्रगति हुई एवं 24 सितंबर, 1996 को अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिन्टन ने सबसे पहले इस संधि पर हस्ताक्षर किये। परंतु इस संधि के प्रति भारत के दृष्टिकोण ने इस सन्धि को अत्यधिक विवादास्पद बना दिया है। संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी प्रतिनिधि अरूंधति घोष ने स्पष्ट रूप से भारत के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए घोषणा की कि भारत इस संधि पर इसके वर्तमान रूप में हस्ताक्षर नहीं करेगा। भारत के इस दृष्टिकोण को भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री गुजराल ने भी 15 जुलाई को दिये गये अपने संसदीय भाषण में एक बार पुनः समर्थन प्रदान किया। इस भाषण के दौरान उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘इस संधि को उसके वर्तमान रूप में स्वीकार नहीं कर सकते। यद्यपि हम उत्तरदायित्व पूर्ण रूप से कार्य करेंगे तथापि हमें अपने राष्ट्रीय हितों की भी रक्षा करनी है तथा हम आशा करते हैं कि अन्य सभी देश हमारे इस सम्प्रभु निर्णय का समर्थन करेंगे।’इस सन्धि के प्रति भारत सरकार द्वारा अपनाये गये दृष्टिकोण को भारतीय जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त है। भारत के द्वारा इस सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किये जाने के मुख्य कारण हैंः
अतः अगर भारत की सहमति के बिना सन्धि को अन्तिम रूप से तैयार कर लिया जाता है तो निःशस्त्रीकरण सम्मेलन के अध्यक्ष अपना प्रस्ताव प्रस्तुत कर सकते हैं तथा यह कर सकते हैं कि इसे आम सहमति से स्वीकार कर लिया जाये। इसके पश्चात संधि के प्रारूप को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को यह कहते हुए प्रस्तुत किया जा सकता है कि इस पर हस्ताक्षर करने के लिए सम्मेलन बुलाया जाये। अगर ऐसा होता है तो भारत के बिल्कुल अलग-थलग पड़ जाने की सम्भावना है क्योंकि भारत इस प्रक्रिया को रोकने में सफल नहीं हो सकेगा। अगर ऐसा हो जाता है तो इसके दो अवांछित परिणाम हो सकते हैं-
क. भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अन्य देशों का सहयोग तथा समर्थन खो दे, तथा
ख. ऐसे देश के रूप में भारत की प्रतिष्ठा समाप्त हो सकती है जो कि अपने अन्तर्राष्ट्रीय दायित्वों का पालन करता हो। फिर भी, भारत को इस नीति के प्रति एक वैज्ञानिक एवं वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में एक वस्तुनिष्ठ दिशा तैयार करे जिससे भारत को आने वाले समय में किसी कठिनाई का सामना न करना पड़े।
Question : चीन भारत संबंधों में हाल में हुए विकासों का परीक्षण कीजिए।
(2002)
Answer : भारत-चीन के संबंधों के हाल के विकासों के अंतर्गत हम मुख्यतः 1988-1999 तथा उसके बाद वर्षों का परीक्षण कर सकते हैं। वास्तव में यह युग सहयोगात्मक संबंधों का वर्ष कहा जाता है। इसकी विवेचना हम इस प्रकार कर सकते हैं-
इस काल में दोनों देशों के संबंधों में सुधार विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम, आन्तरिक परिस्थितियां तथा दोनों के परस्पर दृष्टिकोण में आये परिवर्तन के कारण हुआ। इनके प्रमुख कारण निम्न थेः
उपरोक्त कारणों से दोनों देशों में मित्रतापूर्ण संबंधों का विकास हुआ। इन संबंधों को सही दिशा निर्देश देने हेतु दोनों देशों के प्रमुख राजनेताओं ने परस्पर एक दूसरे देशों की यात्राएं की। इन यात्राओं से कुछ ठोस परिणाम प्राप्त हुए। सर्वप्रथम, राजीव गांधी की 1988 की चीन यात्रा दोनों देशों के बीच एक नया अध्याय जोड़ा। सबसे महत्वपूर्ण यात्राओं में भारत की ओर से राजीव गांधी व नरसिम्हा राव की यात्राएं तथा चीन की ओर से ली पेंग एवं जियांग जेमिन की यात्राएं थी। 1988 से 1991 तक के समय में सद्भावना यात्राएं काफी सहयोगपूर्ण रहा एवं इन्हीं यात्राओं के दौरान जहां चीन ने पंचशील के सिद्धांतों पर पुनः विश्वास किया वहीं उसने कश्मीर के संदर्भ में भी अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन किया। दूसरी ओर भारत ने चीन द्वारा व्यक्त गैट (जी.ए.टी.टी.) की सदस्यता की इच्छा का समर्थन किया।
1993 में भारतीय प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव की यात्रा को एक मील के पत्थर की संज्ञा दी गयी। इस यात्रा के दौरान ‘नियंत्रण रेखा’संबंधी एक व सूत्री समझौता हुआ जिसके फलस्वरूप सीमा रेखा के पास काफी हद तक शान्ति स्थापित करने की प्रक्रिया को बल मिला। इसके बाद 28-30 नवम्बर 1996 को चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन ने अपने व्यापार मंत्री सूची के साथ भारत भारत की यात्रा की। इस यात्रा के फलस्वरूप मुख्यतः नियंत्रण रेखा क्षेत्र से संबंधित पूंजी निवेश को नियंत्रण जहाजरानी हेतु एवं अपने संबंधों को विभिन्नीकरण करने हेतु प्रयास करने पर समझौते हुए। इस प्रकार इस यात्रा से विश्वास बढ़ाने वाले कदमों के साथ-साथ व्यापारिक एवं राजनैतिक संबंधों में भी सुधार हुए।
1988 से 1998 तक की उपरोक्त सद्भावना यात्राओं एवं इस दौरान हुए विभिन्न समझौतों के माध्यम से तीनों स्तरों (1) सामरिक (2) आदान-प्रदान एवं संस्थागत तथा (3) व्यापारिक पर संबंधों में सुधार हुए। परंतु भारत द्वारा 11 व 13 मई 1998 में पांच परमाणु परीक्षण करने के बाद चीन ने भी भारत को इस प्रकार के परीक्षणों को स्थगित करने वा सी.टी.बी.टी. पर हस्ताक्षर की बात पर बल दिया। परन्तु भारत द्वारा उठाये गये कदमों के कारण दोनों देशों के संबंधों में गतिरोध उत्पन्न हो गया। सर्वप्रथम, भारत के तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नानडीज ने परीक्षणों से पूर्व चीन को भारत का सबसे बड़ा शत्रु कहा। द्वितीय परमाणु परीक्षणों के बाद प्रधानमंत्री ने अमेरिका के राष्ट्रपति क्लिंटन को लिखे पत्र में अपने परीक्षणों की औचित्यतता ठहराते हुए चीन से सर्वाधिक सुरक्षा के खतरे के बारे में कहा। तृतीय, भारत ने अमेरिका व यूरोप की राजधानियों में भी अपने राजनयिक प्रयासों द्वारा चीन के संदर्भ में इसी धारणा को बार-बार दोहराया। अन्ततः शायद अपने आंकलन की प्रमाणिकता बनाये रखने हेतु भारत ने परीक्षणों के उपरांत सभी परमाणु सम्पन्न राष्ट्रों के पास अपने विशेष दूत भेजे, परन्तु चीन में किसी भी दूत को नहीं भेजा। परंतु विभिन्न कारणवश दोनों ही देशों ने इस गतिरोध को ‘अस्थायी’बताया क्योंकि दोनों ही देश अत्यधिक दूरियां नहीं बढ़ाना चाहते। इसलिए इसके दूरगामी नकारात्मक निष्कर्ष निकलने की कम संभावनाएं हैं। शायद उपरोक्त कारणों से दोनों देश आपस में फिर बातचीत आगे बढ़ा रहे हैं। 10 माह के उपरान्त फरवरी 1999 में भारत और चीन के अधिकारियों के बीच बीजिंग में वार्ताएं प्रारंभ हो गयी है। दोनों ही देश ‘संयुक्त कार्यदल’वार्ताओं को पुनः आरम्भ करने के पक्ष में है। दोनों ही कई अन्य छोटे-छोटे मुद्दों पर भी सहमति चाहते हैं, लेकिन दोनों के बीच दूरगामी मधुर संबंधों का विकास विभिन्न समस्याओं के समाधान पर निर्भर करेगा। अब इस कड़ी में दोनों की परमाणु शस्त्र वाले राष्ट्र की भूमिका के बारे में एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझना भी अनिवार्य हो गया है।
Question : निर्गुट आंदोलन के उदय तथा विकास में भारत के योगदान की विवेचना कीजिए।
(2002)
Answer : गुटनिरपेक्षता की नीति भारत की विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू व केन्द्र बिन्दु है। भारत द्वारा इस सिद्धान्त को अपनाने के दो प्रमुख स्रोत हैं- भौतिक और गैर भौतिक। भौतिक तत्वों में भारत की भू-राजनैतिक स्थिति तथा आर्थिक स्थिति महत्वपूर्ण रहे हैं। गैर-भौतिक तत्वों में प्रमुख हैं- भारत की ऐतिहासिक विरासत एवं भारतीय दर्शन तथा परंपराओं का प्रभाव। अप्पादोराय व राजन के अनुसार भारत ने इस सिद्धांत को निम्न तीन प्रमुख कारणों से अपनाया- प्रथम, यह भारत की परंपरा, सहनशीलता व बाहुल्य विचारधारा की परिणति है। द्वितीय, भारत की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप है। तृतीय, नव-स्वतंत्र राष्ट्र द्वारा अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए।
गुटनिरपेक्षता की नीति के कई पहलू है, परंतु सामान्य रूप से इसे शीतयुद्ध व उससे संबंद्ध गुटबंदियों से अलग रहने की नीति माना गया है व इसे दूसरे शब्दों में शीतयुद्ध से संबद्ध सैन्य गठबंधनों में भागीदारी न करने वाला सिद्धांत भी माना गया है। इसके अतिरिक्त, इसे भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाने वाला सिद्धांत भी माना जाता है। इस प्रकार इस सिद्धांत द्वारा अपने विकल्पों की स्वतंत्रता के साथ भारत अपने सिद्धांत राष्ट्रीय हितों की पूर्ति तथा मुद्दों की योग्यता के आधार पर समर्थन करना चाहता था।
इस प्रकार गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत एक गत्यात्मक विदेशनीति है जिसमें सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही पहलू विद्यमान है। इसके नकारात्मक पहलू है- (1) शक्ति गुटों या शीतयुद्ध गुटबन्दियों से अलग रहना, तथा (2) सैन्य गठबंधनों में शामिल नहीं होना, इसके सकारात्मक पहलू हैं- (i) विश्वशांति हेतु कार्य करना, (ii) विश्व में स्वतंत्रता के प्रसार को बढ़ाना, (iii) उपनिवेशवाद की समाप्ति करके स्वतंत्र राष्ट्रों के उदय का समर्थन, तथा (iv) राष्ट्रों के मध्य सहयोग के दायरों का विकास करना।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारत का गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के पीछे क्या कारण था। परंतु इसके सही अर्थ को लेकर विशेषज्ञों में मतभेद है। शायद इसलिए कई राजनीति विशेषज्ञों ने इसे अलगाववाद, गैर संबद्धता, तटस्थता, तटस्थीकरण, एकलवाद तथा अहिस्सेदारी आदि धारणाओं से जोड़ते हैं। परंतु जवाहरलाल नेहरू ने इन धारणाओं को गुटनिरपेक्षता की नीति के समकक्ष मानने को गलत ठहराया है। जहां तक तटस्थता या ‘तटस्थीकरण’का प्रश्न है नेहरू का मानना था कि ये धारणायें सीमित हैं तथा आज के संदर्भ में विश्वयुद्धों से तटस्थ रहना संभव नहीं है। इसके विपरीत गुटनिरपेक्ष देश को तो युद्ध में भी हिस्सा लेना पड़ सकता है यदि यह उसके राष्ट्रीय हितों के अनुरूप है। इसलिए जहां स्वतंत्रता, न्याय अथवा युद्ध होंगे वहां भारत तटस्थ नहीं रह सकता। एक अन्य साक्षात्कार में नेहरू ने कहा था कि साधारण रूप से भारत की गुटनिरपेक्षता से अर्थ है कि हम प्रत्येक विषय को उस समय की परिस्थितियों के संदर्भ में योग्यतानुसार आंकते हैं तथा विश्व शांति व अन्य उद्देश्यों के संदर्भ में जो उचित हो वह निर्णय लेते हैं।
नेहरू इस नीति को व्यापक संदर्भ में शांति की नीति मानते थे जो न केवल भारत बल्कि एशिया और अंततः विश्व शांति के लिए सहायक है। परंतु नेहरू का यह शांति दृष्टिकोण क्षेत्रीय आधार पर था अर्थात एशिया का शांति दृष्टिकोण। इस नीति के अंतर्गत वह शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद शांति क्षेत्र की स्थापना करना चाहते थे। सर्वप्रथम यह शांतिक्षेत्र दक्षिणपूर्वी एशिया से प्रारंभ होकर संपूर्ण विश्व तक विस्तार कर सकता है। नेहरू का मानना था कि शांति क्षेत्र को बढ़ाकर अर्थात वे देश जो किसी भी गुट के साथ संयुक्त संलग्न न हों तथा दोनों समूहों से भिन्नता रखते हों, युद्ध के अवसरों को कम करते हैं। इसलिए हम कह सकते है कि भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति भारत की सुरक्षा व शांति के लिए मॉडल ही नहीं, अपितु विश्व शांति की भी पक्षधर है। शायद इसीलिए इसकी नैतिक अपील सार्वभौमिक स्तर पर मान्य है।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि भारत का सैद्धान्तिक रूप से गुटनिरपेक्ष आंदोलन में किस प्रकार योगदान रहा है परंतु जहां तक इसके उदय एवं विकास का प्रश्न है, यह भी इसके साथ ही स्पष्ट होता है। वास्तव में यह 20वीं शताब्दी का सर्वप्रमुख आंदोलनों में से एक था, जो विभिन्न विश्वयुद्धों का परिणाम था। इस आंदोलन के उदय के पीछे सर्वप्रमुख कारण राष्ट्रवाद, उपनिवेशवाद का विरोध, प्रजातिगत तथा सांस्कृतिक कारण, आर्थिक कारण, विश्व शान्ति, संयुक्त राष्ट्र संघ के अस्तित्व एवं महान नेताओं का योगदान था। सबसे प्रमुख बात यह है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन के लिए प्रोत्साहन संयुक्त राष्ट्र संघ के अस्तित्व से काफी मिला। द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में गुट निरपेक्ष देशों को विश्व स्तर के नेताओं का नेतृत्व प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। इसमें प्रमुख थे, जवाहरलाल नेहरू, जोसिफ ब्रोज टीटो, अब्दुल गामेल नासिर, सुकर्ण, एन्क्रूमा और उ नू ये सभी विश्व स्तर के महान नेता थे और इनके नेतृत्व में गुट निरपेक्ष आंदोलन तीव्र गति से आगे बढ़ा।
1961 में यह आंदोलन औपचारिक रूप से प्रारम्भ हुआ परंतु इसकी नींव 1947 तथा 1949 के दो एशियाई देशों के सम्मेलन तथा 1953 के बांडुग सम्मेलन में रखी गयी थी जब भारत के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए सभी अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान, बल प्रयोग पर रोक, आणविक शस्त्रों पर नियंत्रण तथा संयुक्त राष्ट्र को सशक्त बनाने का समर्थन किया गया। साथ ही, 1954 में नेहरू तथा चाऊ एन लाई ने पंचशील सिद्धांत का प्रतिपादन किया था, जो इस आंदोलन का प्रमुख आधार बने। अभी तक इसके बहुत सारे सम्मेलन हो चुके हैं। इसका पहला शिखर सम्मेलन 1961 में बेलग्रेड में हुआ था, उसके बाद दूसरा कटिहार (1964), तृतीय, लुसाका (1970), चतुर्थ, अल्जीयर्स (1973), पांचवा कोलंबो (1976), छठां हवाना (1979), सातवां, नई दिल्ली (1983), आठवां, हरारे (1986), नवां, बेलग्रेड (1989), दसवां, जकार्ता (1992), ग्यारहवां, कार्टागेना (1995), बारहवां, डरबन, (1998) में हो चुके हैं। इसमें हम सातवां सम्मेलन नई दिल्ली में जो हुआ था, उसके बारे में कुछ विचार रखने की आवश्यकता है।
7 से 12 मार्च 1983 को भारत ने सातवां गुट निरपेक्ष देशों का शिखर सम्मेलन आयोजित किया, इसमें कुल 99 देशों ने भाग लिया एवं सम्मेलन के अंत में ‘नयी दिल्ली घोषणा’प्रस्तुत की गयी। इस घोषणा में महाशक्तियों से ‘हथियारों की होड़’रोकने तथा परमाणु युद्ध न होने देने हेतु प्रयास करने की अपील की गयी। सम्मेलन ने अनेक राजनीतिक, आर्थिक तथा अन्य घोषणाएं भी स्वीकार की, जिसमें गुटनिरपेक्ष देशों के मध्य सामूहिक आत्मनिर्भरता तथा दक्षिण-दक्षिण संवाद को अधिक महत्व दिया गया।
वास्तव में, भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही आन्दोलन को अपना पूर्ण सहयोग तथा समर्थन प्रदान किया है तथा आन्दोलन के अध्यक्ष के रूप में 1983 से 1986 तक इसे औपचारिक रूप से अपना नेतृत्व भी प्रदान किया है। आन्दोलन के प्रारम्भ में जहां भारत ने उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, रंगभेद तथा प्रजातिवाद का विरोध करके आंदोलन को बल प्रदान किया तो वहीं समय के साथ-साथ निःशस्त्रीकरण, नयी अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग, दक्षिण के देशों के मध्य अधिक पारस्परिक सहयोग तथा समाजिक आर्थिक समानता और न्याय पर आधारित विश्व व्यवस्था की मांगों का समर्थन करते हुए आंदोलन को परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल अपनी प्रकृति में परिवर्तन लाने में भी सहायता दी है। अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि निर्गुट आंदोलन के उदय एवं विकास में भारत का एक अभूतपूर्व योगदान रहा है।
Question : भारत एवं बाडुंग सम्मेलन: आशा एवं यर्थाथता
(2001)
Answer : भारत मानव मात्र की समानता में विश्वास करता है तथा रंग, जाति आदि पर आधारित किसी तरह के भेदभाव का विरोध करता है। भारत पहला देश था जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दक्षिण अफ्रीका द्वारा अपनायी जा रही भेदभाव की नीति का विरोध किया तथा 1952 में इस प्रश्न को संयुक्त राष्ट्र संघ में भी उठाया। अपनी इस नीति के अनुरूप भारत ने दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार से 1949 में अपनी कूटनीतिक संबंध तोड़ लिये तथा वहां की अल्पमत प्रजातिवादी सरकार के विरुद्ध व्यापक प्रतिबंध लगाने में अपने प्रभाव का प्रयोग किया। दक्षिण अफ्रीका के अलावा भी भारत सदैव अमेरिका में नीग्रो लोगों को तथा रोडेशिया की अफ्रीकी जनता का समर्थन किया। क्योंकि भारत समानता पर आधारित विश्व व्यवस्था स्थापित करने में विश्वास करता है तथा उसका मानना है कि प्रजातिवाद से विश्व में संघर्ष उत्पन्न होते हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है। उसके पश्चात 1955 में बांडुग सम्मेलन में भी इन सिद्धांतों को स्वीकार किया गया तथा यह सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार कर लिये गये।
इन उपरोक्त सारी बातों का खुलासा वस्तुतः 18 अप्रैल से 23 अप्रैल, 1955 तक इंडोनेशिया के नगर बांडुंग में एशिया और अफ्रीका के लगभग 29 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के सम्मेलन से होता है जिसमें भारत ने सभी बातों का विरोध किया। इसके अतिरिक्त भारत इस बात से भी सहमत था कि शांति, स्वतंत्रता, मानवीय अधिकारों के प्रति आदर प्रदर्शन द्वारा सहिष्णुता, सभी राज्यों की एकता और संप्रभुता, प्रत्येक राज्य और जाति की समानता, अहस्तक्षेप, संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के सिद्धांतों के अनुसार व्यक्तिगत अथवा सामूहिक सुरक्षा के अधिकार, शक्ति, राजनीति और आक्रमणकारी प्रपंचों से पृथकता तथा झगड़ों के शांतिपूर्ण हल आदि का समर्थन किया गया।
Question : भारत एवं संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना के बल
(2001)
Answer : भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापना के प्रयासों में सदैव की भांति अपना योगदान दिया तथा कंबोडिया, सोमालिया और मोजांबिक में संयुक्त राष्ट्र की कार्यक्रमों में भारत ने अपने सैनिक भेजकर योगदान किया।
भारत ने इस अवधि में संयुक्त राष्ट्र के अधिक लोकतंत्रीकरण की मांग तथा सुरक्षा परिषद की सदस्य संख्या में वृद्धि करने का प्रस्ताव रखा, जिससे यह संस्था विश्व जनमत की अधिक प्रतिनिधि संस्था बन सके। इसके लिए भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 47वें साधारण अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा। अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों में परिवर्तन आने के कारण तथा भारत की स्वयं की परिस्थितियों में पूर्व की अपेक्षा अधिक परिवर्तन आ जाने के कारण इस समय भारत की विदेश नीति में अनेक परिवर्तन आये तथा नयी प्रवृत्तियों का समावेश हुआ। किंतु फिर भी भारत की विदेश नीति में निरंतरता बनी रही। इसके मूल आधारों में परिवर्तन नहीं आया। भारत ने परमाणु अप्रसार संधि पर समस्त दबावों के उपरांत भी उसे भेदभावपूर्ण मानते हुए हस्ताक्षर नहीं किये तथा दक्षिण एशिया को परमाणु रहित क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव का भी सफलतापूर्वक विरोध किया। अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर, जिनमें रियो में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन भी सम्मिलित है, भारत ने अपनी शांतिपूर्ण नीति का सफल प्रदर्शन किया।
Question : अप्रसार संधि के विरुद्ध भारत एक यर्थाथ प्रतिमान
(2001)
Answer : भारत ने 1970 में भी इस संधि का विरोध किया था और आज भी उसे आगे जारी रखने के विरुद्ध है। भारत की बहुदलीय प्रणाली में संभवतः यही एक मुद्दा है जिस पर कभी विवाद नहीं उठा और केंद्र सरकारें बदलने के बावजूद उस मुद्दे पर सदा मतैक्य बना रहा। न केवल संधि की अपनी विसंगतियों के कारण बल्कि अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखकर भी भारत उस संधि की अवधारणा का समर्थन नहीं कर सका।
बांग्लादेश में सैनिक पराजय और 1972 में शिमला समझौता पर हस्ताक्षर करने के तुरंत बाद पाकिस्तान के तत्कालीन शासक जुल्फिकार अली भुट्टो ने इस्लामी बम की खोज शुरू कर दी। भुट्टो की बेटी बेनजीर भी बम के दम पर भारत को धमकाने से बाज नहीं आयी। इसलिए भारत ने 1974 में पोखरण में आणविक विस्फोट कर अपनी आणविक क्षमता का प्रदर्शन किया। इससे पूर्व 1970 में आणविक अप्रसार संधि हो चुकी थी और भारत विरोध कर रहा था।
इस अप्रसार संधि के बाद निरस्त्रीकरण की दिशा में केवल इतनी प्रगति हुई कि अणु शक्ति देशों में एक ऐसे समझौते का विचार उठने लगा है कि कोई देश इन अस्त्रों का सबसे पहले उपयोग न करे। अभी तक किसी भी अणु शक्ति देश के किसी अधिकृत क्षेत्र से यह प्रतिबद्धता नहीं मिली है कि वह इस शक्ति के होते हुए भी इसका उपयोग नहीं करेगा। अमेरिकी रक्षामंत्री ने तो यहां तक संकेत दिया कि अगर अमेरिका पर आणविक हमले की आशंका हुई तो भी वह अपनी सुरक्षा के लिए अणु अस्त्रों का प्रयोग करने में संकोच नहीं करेगा। भारत और मिस्र के अलावा तीसरी दुनिया के अन्य कई देश भी इस संधि के प्रति आशंका व्यक्त कर रहे हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि हम शस्त्र नियंत्रण या उसके परिसीमन पर नहीं, शस्त्रों के उन्मूलन को अपना लक्ष्य बनायें। लेकिन पिछले अनेक दशकों से निहित स्वार्थों वाले देश किसी न किसी प्रकार से पूर्ण निरस्त्रीकरण के मामले सहते आ रहे हैं। शस्त्रों को सीमित रखना एक साधन हो सकता है, साक्ष्य नहीं। किंतु कुछ देशों को निरंकुश अधिकार देकर दूसरे को दंडनीय अपराधी बताना न न्याय के हित में होगा और न अंतर्राष्ट्रीय शांति प्रयासों में सहायक होगा।
Question : सार्क - समस्या एवं सभावन
(2001)
Answer : सार्क की स्थापना 1985 में ढाका में हुई। उसमें कुल सात देश- भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका तथा मालदीव हैं। सार्क के पास एशिया के तीन फीसदी भूभाग हैं। सार्क प्रदेश की चालीस प्रतिशत गरीबी की रेखा के नीचे रहती है। सार्क की 75 प्रतिशत गांवों में निवास करती है। सार्क देशों के पास पर्याप्त संसाधन हैं। सार्क कृषि योग्य भूमि, जल संसाधन, वन संपदा, सागर संपदा और खनिज की दृष्टि से एक समृद्ध क्षेत्र है। दुनिया के प्राचीनतम पठार गोंडवानालैंड का हिस्सा होने के कारण विश्व के कुल जीवाश्म और ऊर्जा भंडार का 22 प्रतिशत उसी क्षेत्र में पाया जाता है। सार्क देशों में कोई आठ करोड़ 60 लाख हेक्टेयर वन, 25 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि और 460 घन किमी. जल संसाधन क्षेत्र है।
परंतु उस संपन्नता के बावजूद उनकी कुछ आपसी कमजोरियां हैं। सार्क के प्रायः सभी देश औपनिवेशिक शासन और शोषण के शिकार रहे हैं। उसमें न केवल वहां ढांचागत बुनियादी सुविधाएं और सहज विकास पनपने से रोका गया, बल्कि आपस में घृणा और संदेह का विष बो दिया गया है। यही वजह है कि सार्क देशों में आपसी व्यापार और आर्थिक सहयोग नाममात्र का ही है।
यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि सार्क की धीमी प्रगति के लिए पड़ोसियों पर दोषारोण का कोई अभिप्राय हमारा नहीं। स्वयं भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद आंतरिक राजनीति इतनी उथल-पुथल वाली है कि शांति?
Question : क्या गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने वर्तमान दौर में अपनी प्रासंगिता खो दी है? बदलते अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में भारत ने अपनी विदेश नीति के लक्ष्य को किस प्रकार विकसित किया है?
(2001)
Answer : एक तरफ गुटनिरपेक्ष आंदोलन 1961 से लगातार विस्तृत तथा सशक्त होता रहा है तथा अनेक क्षेत्रों में उसके योगदान तथा उपलब्धियों को सराहा गया है तो दूसरी तरफ अनेक आधारों पर उसकी आलोचना की गयी है।
सर्वमान्य परिभाषा का अभाव: इस आंदोलन की सबसे बड़ी कमी है कि 1961 से लेकर आज तक इसकी कोई सुस्पष्ट तथा सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो पायी है। अतः हर व्यक्ति तथा देश अपने दृष्टिकोण तथा विचारधारा के अनुरूप इसका अलग अर्थ निकालता है। अतः आंदोलन के संबंध में अनेक भ्रांतियां पायी जाती हैं।
सिद्धांत तथा व्यवहार में अंतर: गुट निरपेक्ष आंदोलन के सिद्धांत तथा उसके सदस्य देशों के व्यवहार में अत्यधिक अंतर है। सिद्धांतः ये देश परंपरागत शक्ति मॉडल को अस्वीकार करते हैं, किंतु अनेक गुटनिरपेक्ष देश आपसी व्यवहार में भी परंपरागत शक्ति संतुलन के आधार पर निर्णय लेते हैं। परिणामस्वरूप अनेक सदस्य राष्ट्रों में ही समय-समय पर शक्ति संघर्ष हुए हैं। जिनके कारण आंदोलन की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचता है।
सदस्य देशों की आपसी संघर्ष: अनेक परस्पर विरोधी विचारधाराओं के कारण आपसी राष्ट्रीय हितों में टकराव के कारण सदस्य देशों में आपस में ही अनेक सशस्त्र संघर्ष तक हुए हैं। प्रारंभ में इन संघर्षों को यह कहकर टाल दिया गया कि यह एक स्वतंत्र देशों का आंदोलन है जो अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं तथा यह देश किसी तरह के तीसरे गुट का निर्माण नहीं करना चाहते, किंतु समय के साथ यह स्पष्ट हो गया कि आपसी तनाव तथा संघर्ष तो उस आंदोलन में सैद्धांतिक रूप से ही विद्यमान है। क्योंकि यह आंदोलन हर प्रश्न तथा समस्या पर स्वतंत्र रूप से विचार कर उससे संबंधित निर्णय का पक्षधर है।
सदस्य राष्ट्रों में एकता का अभाव: समय के साथ-साथ यह स्पष्ट हो गया कि आंदोलन के सदस्य देशों में कुछ देश औपचारिक रूप से गुटनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं किंतु यथार्थ में स्वयं को किसी न किसी गुट के साथ घनिष्ठ रूप से संबंधित किये हुए हैं। यही नहीं, इन देशों ने आंदोलन पर भी अपना प्रभाव डालने का प्रयास किया है। इससे जन-सामान्य में आंदोलन की विश्वसनीयता कम हुई है।
विचारधारात्मक मतभेद: सदस्य देशों की स्वयं की परस्पर विरोधी विचारधारा होने के कारण कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि आंदोलन दो भागों में बंट गया है। पश्चिम समर्थक देश तथा साम्यवाद देश।
यहां तक कि क्यूबा ने तो आंदोलन में यह प्रस्ताव रखा कि आंदोलन का समर्थन करता आ रहा है। रवाना शिखर सम्मेलन में सोमालिया तथा वियतनाम ने आंदोलन में सम्मिलित अपने शत्रुओं की आलोचना तथा निंदा की तो ईरान-इराक जैसे द्विपक्षी युद्धों ने आंदोलन की एकता को आघात पहुंचाया।
यह नीति सदस्य राष्ट्रों को सुरक्षा प्रदान नहीं करती: गुटनिरपेक्ष आंदोलन प्रकृति से अत्यंत आदर्शवादी तथा अपनी गुटनिरपेक्षता की नीति को ही अपनी सुरक्षा व्यवस्था के लिए पर्याप्त मानता था। इन देशों ने अपनी सैद्धांतिक शुद्धता बनाए रखने के लिए न तो स्वयं की रक्षा सेनाओं का विस्तार किया, न ही विदेशों से सैनिक सहायता प्राप्त की। किंतु उसकी नीति का खोखलापन भारत पर 1962 में हुए चीन के आक्रमण के समय स्पष्ट हो गया। अब आंदोलन के अनेक सदस्यों ने संकट के समय भारत के साथ सहानुभूति भी व्यक्त नहीं की तथा अनेक देशों ने भारत की सहायता की जिन्हें स्पष्ट तथा निर्विवाद रूप से पश्चिम का समर्थक माना जाता रहा।
अवसरवादी नीति: गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आलोचक इस आधार पर अवसरवादिता का आरोप लगाते हैं। यह नीति सिद्धांतहीन है तथा साम्यवादी और पूंजीवादी दोनों गुटों से अधिक से अधिक सहायता प्राप्त के लिए अपनायी गयी है।
यह आंदोलन मात्र एक नैतिक आंदोलन बन कर रह गया है। यह मानवता तथा विश्व शांति की रक्षा हेतु अपील तो कर सकता है, किंतु इस दिशा में कोई सशक्त कदम उठाने में असफल रहता है। न तो यह सदस्य देशों के आपसी युद्धों उदाहरणार्थ ईरान-इराक युद्ध का ही कोई समाधान कर पायाऔर न ही अपने एक सदस्य राष्ट्र के विरुद्ध किसी एक महाशक्ति (पूर्व सोवियत संघ) के विरोध में खड़ा हो सका।
7 से 12 मार्च, 1983 को भारत ने सातवां गुटनिरपेक्ष देशों का शिखर सम्मेलन आयोजित किया। सम्मेलन के अंत में ‘नयी दिल्ली घोषणा’ प्रसारित की गयी। इस घोषणा में महाशक्तियों से हथियारों की होड़ रोकने तथा परमाणु युद्ध न होने देने हेतु प्रयास करने की अपील की गयी। श्रीमती इंदिरा गांधी ने अध्यक्ष के रूप में ईरान-इराक से युद्ध बंद करने की अपील की। भारत ने आतंकवाद के खिलाफ गुटनिरपेक्ष आंदोलन से उसकी समाधान पर जोर दिया।
श्री वाजपेयी ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत को गुटनिरपेक्ष आंदोलन में जम्मू-कश्मीर का प्रश्न उठाया जाना बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है तथा ऐसा पहले कभी भी नहीं किया गया है। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को समाप्त करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग को आवश्यक माना तथा संयुक्त राष्ट्र संघ से इस दिशा में प्रयास करने की अपील की गयी। भारत के प्रतिनिधियों के लिए यह संतोष का विषय था कि दक्षिण एशिया में अणु परीक्षणों के प्रश्न पर कोई कठोर रुख नहीं अपनाया गया तथा भारत की स्थिति को अन्य देश ने भी समझने का प्रयास किया।
भारत के प्रधानमंत्री के उपयुक्त शब्द कारगिल संकट के समय सत्य प्रमाणित हो गये तथा भारत द्वारा बनायी गयी अणु परीक्षणों की आवश्यकता भी आज सिद्ध हो गयी है। जम्मू-कश्मीर के स्वामित्व के प्रश्न को लेकर चल रहे भारत तथा पाकिस्तान के मध्य अघोषित युद्ध का परिणाम अभी आना शेष है। किंतु उस संकट ने भारत के निर्णय को सही अवश्य कर दिया।
Question : शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान एक कारक के रूप में भारत-अमेरिका के संबंधों का परीक्षण करें।
(2001)
Answer : द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद संसार में दो महाशक्तियों ने शीतयुद्ध को जन्म दिया और विश्व को दो शक्ति गुटों में विभाजित कर दिया। ये महाशक्तियां थीं- संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ।
भारत और अमेरिका संबंधों में अमेरिका सरकार ने भारत को कभी भी उच्च प्राथमिकता नहीं दी। चीन द्वारा भारत पर 1962 में किये गये आक्रमण ने अमेरिका की नीतियों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। अमेरिका ने भारत की गुटनिरपेक्षता को सोवियत समर्थक नीति नहीं समझा। अमेरिका और भारत के संबंधों में अनेक बार उतार-चढ़ाव आते रहे। भारत अमेरिका संबंधों में पाकिस्तान सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक तत्व रहा है। स्वतंत्रता के पश्चात कुछ समय तक भारत ने अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंध का विकास किया। भारत के नेताओं ने अमेरिका द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों पर डाले गये दबाव और उसके प्रभाव की कृतज्ञतापूर्वक सराहना की थी। अमेरिका की लोकतांत्रिक प्रणाली और विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से भारतवासी बहुत प्रभावित हुए। परंतु भारत की गुट निरपेक्षता की नीति से अमेरिका खुश नहीं था। भारत ने अमेरिका द्वारा अपनायी गयी साम्यवाद को सीमित करने की नीति का तथा उस उद्देश्य के लिए किये गये सैनिक गठबंधनों का कभी समर्थन नहीं किया। सितंबर 1951 में अमेरिका ने जापान के साथ शांति संधि करने के लिए सैन फ्रांसिस्को में जो सम्मेलन बुलाया भारत ने उसमें भाग नहीं लिया तथा अमेरिका द्वारा संपादित संधि को एक तरफा कहकर उसका विरोध किया। उससे भारत- अमेरिका संबंधों पर विपरीत प्रभाव पड़ा। भारत और अमेरिका के संबंधों में कई बार उतार-चढ़ाव आने का मुख्य कारण इसका पड़ोसी देश पाकिस्तान भी एक मुख्य कारक के रूप में रहा। जो उसके दोनों के संबंध को तनावपूर्ण माहौल का समीकरण बनाने में सक्रिय योगदान देता रहा है और आज तक यह बात जीवंत रूप में है।
साम्यवाद के प्रसार को रोकने की अमेरिका की नीति के अधीन संयुक्त राज्य ने कई सैनिक संबंध स्थापित किये। इसीशृंखला में 1954 में अमेरिका ने पाकिस्तान को दक्षिण पूर्व एशिया संधि संगठन (सीटो) का सदस्य बना। इससे पूर्व भारत ने उस संधि का सदस्य बनना अस्वीकार कर दिया था। प्रधानमंत्री नेहरू का कहना था कि प्रादेशिक सैन्य संगठनों की स्थापना संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य के विरुद्ध थी। इसी बीच 1954 में अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ एक सैनिक समझौता करके उसे बड़े स्तर पर सैनिक सामग्री की आपूर्ति करनी आरंभ कर दी।
भारत-अमेरिका संबंध 1959 में उस समय बहुत बिगड़ गये। अब अमेरिका पाकिस्तान सैन्य संबंध स्थापित हुए। पाकिस्तान को अति आधुनिक शस्त्रस्त्र देने में अमेरिका के दो उद्देश्य पूरे होते थे। एक यह कि उसने भारत को अमेरिकी संधि व्यवस्था में शासित होने से मना करने पर दंड दे दिया। दूसरा यह कि पाकिस्तान के शत्रु भारत की शक्ति को सीमित करके पाकिस्तान को प्रसन्न कर दिया गया। अमेरिका-पाकिस्तान द्विपक्षीय रक्षा समझौते 1959 को भारत अमेरिका संबंधों को और अधिक कटु बना दिया। यह समझौता पाकिस्तान को इराक के स्थान पर, मध्य पूर्व में अमेरिकी गठबंधन में शामिल कर आइजनहावर सिद्धांत को बल प्रदान करने का प्रयास किया। उससे पूर्व 1958 में इराक ने बगदाद समझौता त्याग दिया था। भारत ने अमेरिका को स्पष्ट कर दिया कि मध्य पूर्व आइजनहावर सिद्धांत को भारत के द्वार पर लाकर उसने भारत के हितों को क्षति पहुंचायी थी।
भारत-पाकिस्तान संबंध पहले से ही सौहार्द्रपूर्ण नहीं थे। इस संबंध से भारत और अमेरिका के संबंध में कटुता आयी। पाकिस्तान को दी जाने वाली अमेरिकी सहायता का भारत द्वारा विरोध किये जाने पर भारत को यह आश्वासन दिया गया कि अमेरिकी शस्त्रस्त्रों का प्रयोग केवल साम्यवाद के प्रसार के विरुद्ध किया जायेगा, भारत के विरुद्ध नहीं। परंतु व्यवहार में पाकिस्तान ने उन शस्त्रस्त्रों का प्रयोग 1965 और 1971 के युद्धों में केवल भारत के विरुद्ध ही किया।
अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को अपने गुट में शामिल करने का एक अन्य उद्देश्य दक्षिण एशिया में अपनी एक चौकी स्थापित करना था। राष्ट्रपति आइजनहावर की पाकिस्तान नीति का विरोध करते हुए अमेरिकी सीनेट फुललाइट ने कहा था कि मैं भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की जनता का आदर करता हूं। दोनों देशों में परस्पर जो तनाव है उसके कारण कई बार संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई है। हम पाकिस्तान को शस्त्र सहायता देकर इस संघर्ष को तीव्र कर रहे हैं।
Question : नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था
(2000)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का आर्थिक आयाम द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उद्घाटित हुआ, जब अमेरिका ने मार्शल योजना के तहत युद्ध से ध्वस्त यूरोपीय देशों के पुर्ननिर्माण के लिए सहायता कार्यक्रम आरंभ किया। 1960 के दशक के आरंभ में यह बात भलीभांति स्पष्ट हो चुकी थी कि यहां एक और गुटनिरपेक्ष राजनीति और पंचशील वाले समाधान ने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को प्राेत्साहित किया। वहीं अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में विषमता निरंतर बढ़ती जा रही थी। अधिकतर विकासशील देश जिस प्रमुख समस्या से पीडि़त हैं, वह है निर्यात संवर्धन की समस्या- जैसे निर्यात बढ़ाकर आवश्यक उपभोक्ता सामग्री, संयंत्रों, सैनिक साज-सामान की खरीद के लिए दुर्लभ विदेशी मुद्रा अर्जित की जाये। अधिकांश नवोदित राष्ट्रों के लिए यही विकट चुनौती है।
अंकटाड सम्मेलन: (1) 1964 में पहला अंकटाड सम्मेलन आयोजित किया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य सं. रा. संघ के तत्वाधान में समस्या का समाधान ढूंढना था।
(2) गैट का सूत्रपात: लगभग इसी समय गैट का सूत्रपात हुआ भले ही आज तक उस दिशा में सीमित प्रगति हो सकी है, किन्तु उस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि उस यंत्र के माध्यम से नई विश्व अर्थव्यवस्था की तलाश सार्थक ढंग से जारी रखी जा सकी है।
(3) घोषण पत्र: सं. रा. संघ की महासभा ने 1974 में अपने अर्थव्यवस्था हेतु एक घोषणा पत्र जारी किया और एक कार्यक्रम अंगीकार किया, समाजवादी देशों ने उसका समर्थन किया।
(4) तेल उत्पादक देशों का उपेक्षापूर्ण रवैया: उसके अतिरिक्त कुछ और अपवाद हैं- जैसे तेल उत्पादक अरब राष्ट्र। यह कहना कठिन है कि उनके हित नयी विश्व अर्थव्यवस्था के मायने में बाकी तीसरी दुनिया के लोगों से मिलते हैं।Question : शांतिपूर्ण नाभिकीय विस्फोट (पी.एन.ई.)
(2000)
Answer : 11 और 13 मई, 1998 को क्रमशः 3 और 2 परमाणु परीक्षण करके भारत ने विश्व जनमत को अपनी शक्ति का परिचय दिया। इन परीक्षणों के बारे में विश्व की बड़ी शक्तियां पड़ने से कोई अनुमान नहीं लगा पायी और यह पहली बार भारत ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि यह परमाणु परीक्षण मात्र शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए नहीं किये गये थे। इस तरह 1974 के 24 वर्षों बाद पहली बार भारत की अणु नीति में परिवर्तन आया और इन परीक्षणों के बाद भी भारत की विदेश नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया क्योंकि भारत अपने अनवरत शांति प्रयासों के रूप में अणु अस्त्र संपन्न देश के रूप में पुनः एक बार व्यापक परमाणु निषेध सन्धि पर पुनः चर्चा तथा हस्ताक्षर करने का प्रस्ताव रखा।
उस एक ही निर्णय से पुनः एक बार विश्व रंगमंच पर एक शक्तिशाली देश के रूप में उभरा। उसकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई तथा विश्व की बड़ी शक्तियां भारत के बड़े बाजारों की उपेक्षा नहीं कर पाने के कारण तथा आपसी मतभेदों के कारण भारत पर संयुक्त रूप से व्यापक प्रतिबंध लगाने में समर्थ नहीं हो सकीं। भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन परीक्षणों से प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय महत्व का सही उपयोग करना भारत के लिए महत्वपूर्ण है।
Question : गैर-पारंपरिक ऊर्जा की संभावना।
(2000)
Answer : विश्व की बढ़ती हुई आबादी और उसकी बढ़ती हुई मांगों को देखते हुए ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ गयी है। इसलिए वैज्ञानिक गैर-पारंपरिक ऊर्जा की संभावना को साकार करना चाहते हैं, क्योंकि पारंपरिक ऊर्जा का स्रोत सीमित हैं। अगर कोयला ले तो उसे बनने में हजारों साल लग जाते हैं। लेकिन हमारी मांग कम नहींहोती हैं। इसलिए गैर-पारंपरिक ऊर्जा की संभावना को साकार रूप देना अत्यंत जरूरी सा हो गया है। आज सूर्य की रोशनी से बहुत सारा कार्य संभव हो गया है। विश्व की तीन तिहाई भाग पानी से भरा हुआ है। अतः पानी से विद्युत उत्पन्न किया जा रहा है। उससे खर्च भी कम है। और हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो जाती है। हम किसी भी दृष्टिकोण से देखते हैं तो लगता है कि गैर-पारंपरिक ऊर्जा की खोज उसका कार्यान्वित अत्यन्त जरूरी है। हमारी बढ़ती हुई आबादी भी राक्षस की तरह मुंह बनाए खड़ी है। आज हमें और हमारी विश्व समाज को जरूरी है गैर-पारंपरिक ऊर्जा की खोज की संभावना। इसलिए बहुत सारे वैज्ञानिक उस दिशा में खोज की प्रक्रिया में बहुत वर्षों से कार्यरत हैं। हमें उनके खोज की सफलता की सख्त जरूरत है, ताकि हम अपनी आवश्कताओं की मांग को पूरी कर सकें। गैर-पारंपरिक ऊर्जा असीमित मात्र में उपलब्ध होने के कारण उसकी खोज की संभावना अत्यंत आवश्यक हो गया है और ये हमारे आने वाले पीढि़यों तक के लिए असीमित मात्र में उपलब्ध हैं।
Question : शिखर राजनय
(2000)
Answer : पर्यावरण को मानव जाति की विरासत समझा जाये, खासकर आदिम जंगलों को ताकि उनमें उपलब्ध जातियों-प्रजातियों के बारे में वैज्ञानिक शोध में कोई रुकावट न आये। दो बातें बिल्कुल साफ है। एक तो यह कि किसी भी प्राणरक्षक औषधि के आविष्कार के बाद या उपजाऊ पौधे के आविष्कार के बाद उसकी मनमानी कीमत व्यावसायिक ढंग से वसूली जा सकती है और दूसरे यह कि पर्यावरण की रक्षा के बहाने विदेशी कंपनियों और राष्ट्र, मानव जाति की विरासत के बहाने उन वनस्पतियों या वन्य-प्रजातियों की जातियों-प्रजातियों की स्वभाविक आस्था में हस्तक्षेप कर सकते हैं, जो हमारी संपदा की तहत है। 1994 में एक भारतीय वैज्ञानिक ने उस क्षेत्र में अमेरिका में एक भारतीय वैज्ञानिक ने उस क्षेत्र में अमेरिका में एक पेटेंट का दावा पेश किया पर राजनय की दृष्टि से इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि पेटेंट अधिकारों को वही भोग सकता है, जो समर्थ और शक्तिशाली हो।
राष्ट्रहित की जो परिभाषा सिंगापुर, ताईवान, कोरिया की है वह हमारी नहीं। यदि एक दूसरे दर्ज के राष्ट्रों में भी प्रथम पंक्ति में रहना चाहते हैं तो हमें टेक्नोलॉजी और विज्ञान प्रथम के श्रेणी में रहना होगा। अपनी सांस्कृतिक अस्पिता हो या राजनैतिक स्वामनता, इसे अक्षत रखने के लिए तमाम टेक्नोलॉजी के दबाव झेलते हुए अपने पैरों पर खड़ा रहना होगा। हमारे राजनय का यही प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। यदि हम इस मामले में सजग रहते हैं तो मानवाधिकारों के बढ़ाने या अलगाववादी आतंकवादी धमकी दें, हमें अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करना पड़ेगा। टेक्नोलाजी की प्रगति तेज है जो साल-ढेड़ साल में राष्ट्र एक-दूसरे से पीछे और आगे निकल रहे हैं। आज पहली श्रेणी का राज्य अमेरिका है। बाकि फ्रांस, जर्मनी, जापान, दूसरी पंक्ति है। रूस, चीन, दक्षिण एवं कुछ अन्य राज्य उस बिरादरी में शामिल होना चाहते हैं।
एक और इस वर्ग संघर्ष और जनजातीय सांप्रदायिकता से मुक्ति नहीं, दूसरी और हमारी वैज्ञानिक टेक्नोलॉजी की तुलना इंडोनेशिया ताईवान या सिंगापुर, मलेशिया ये नहींही जा सकती। यदि हम टेक्नोलॉजी और राजनम का समीकरण बिठा सकें तो इक्कीसवीं सदी में फिर से अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहले के दर्ज की राजनयिक शक्ति बनाने की बात सोच सकते हैं।
Question : इजराइल-अरब का संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच हित संघर्ष के रूप में परीक्षण कीजिए।
(2000)
Answer : पश्चिम एशिया में अरब-इजराइल संघर्ष इस संपूर्ण शताब्दी की एक बहुत बड़ी समस्या रही है। यह समस्या पश्चिम एशिया की महत्वपूर्ण स्थिति के कारण अधिक उग्र रही है। क्योंकि इसकी अनोखी भोगौलिक स्थिति के कारण महाशक्तियों को भी इस क्षेत्र में अत्यधिक रुचि रही है। वर्तमान में समुद्रों के बढ़ते हुए आर्थिक तथा सामरिक महत्व देखते हुए इस क्षेत्र का महत्व और अधिक बढ़ने की संभावना है। यह क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय संचार के केन्द्र का भी कार्य करता है, क्योंकि तीनों महाद्वीपों के मध्य इसी क्षेत्र से होकर सबसे छोटे सामुद्रिक तथा हवाई मार्ग जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में विश्व के संपूर्ण खनिज तेल का लगभग 60 प्रतिशत तेल स्थित है। उस कारण एक तरफ तो सोवियत संघ उस क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास कर रहा है तथा दूसरी ओर अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देश उस क्षेत्र में साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए उस क्षेत्र के देशों को बड़ी मात्र में आर्थिक सहायता प्रदान करते रहे हैं।
अरब-इजराइल संघर्ष का मूल कारण इस क्षेत्र में प्रचलित धर्म पर आधारित दो विचारधाराएं, जिन्हें अरबवाद तथा यहूदीवाद कहा जाता है। अरब तथा यहूदी दोनों ही अब्राहम को अपना पूर्वज मानते हैं। तथा शताब्दी पुराने इतिहास के समय से ही अरबों तथा यहूदियों में फिलिस्तीन के प्रति भावनात्मक लगाव उत्पन्न हो चुका था। इस विवाद की मुख्य जड़ है, अरबों तथा यहूदियों के गठन फिलिस्तीन पर अधिकार के प्रश्न को लेकर विवाद। फिलिस्तीन मुख्यतः एक अरब देश है तथा वहां नब्बे प्रतिशत अरब जनसंख्या है। 14 मई 1948 को बिट्रेन ने फिलिस्तीन पर अपना मेंडेट समाप्त कर दिया तथा उसी दिन इजराइल ने यहूदी राज्य की घोषणा की। फिलीस्तीन में इजराइल की स्थापना पश्चिमी राष्ट्रों के समर्थन से हुई थी। अतः अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ उसे मान्यता प्रदान की।
15 मई, 1948 को सीरिया, लेबनान, इराक, मिस्र, सउदी अरब तथा जार्डन आदि ने मिलकर इजराइल पर आक्रमण कर दिया। अरब सेनाओं ने यहूदियों के नियंत्रण से बाहर दक्षिणी तथा पूर्वी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। उस युद्ध में अरबों की सैनिक शक्ति अधिक थी। परंतु अमेरिका और सोवियत संघ के सैनिक और आर्थिक सहायता के कारण इजराइल की विजय हुई।
26 अक्टूबर, 1956 को इजराइल ने ब्रिटेन तथा फ्रांस के समर्थन से मिस्र की सीमाओं पर आक्रमण कर दिया। 5 दिनों के अंदर इजराइल नेगाजा पट्टी तथा स्वेज नहर से पूर्व में स्थित सिनाई प्रायद्वीप के अधिकांश भाग पर अधिकार कर लिया तथा अकाबा की ओर बढ़ने लगा। 30 अक्टूबर, 1956 को ब्रिटेन और मिस्र को चेतावनी दी कि वह 12 घंटे के अंदर युद्ध बंद कर दे। मिस्र ने उस चुनौती को अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप 31 अक्टूबर को ब्रिटेन और फ्रांस ने मिस्र पर आक्रमण प्रारंभ कर दिया तथा पोर्ट सईद पर अधिकार कर दिया। मिस्र आक्रमणकारियों को रोकने में असफल रहा था, किन्तु नहर पर उसका प्रभावी नियंत्रण बना रहा। इस युद्ध की विशेष बात यह रही कि ब्रिटेन और फ्रांस के विरुद्ध अमेरिका तथा तत्कालीन सोवियत संघ ने, जिसमें उस शीत युद्ध का चरम सीमा पर चल रहा था, सहयोग किया तथा उस युद्ध को बन्द करवाने के प्रयास किये। अमेरिका और सोवियत संघ ने सुरक्षा परिषद् में एक प्रस्ताव रखा जिसमें इजराइल की सीमाओं की वापसी तथा क्षेत्र में शक्ति प्रयोग नहीं करने के लिए कहा गया था।
30 मई 1967 को नासिर ने अपने एक भाषण में खुले रूप से इजराइल को चुनौती दी थी। ब्रिटेन और अमेरिका ने भी अकाबा की खाड़ी की नाकेबंदी को अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन माना। 5 जून 1967 को 6दिन चलने वाला तीसरा युद्ध आरंभ हो गया। नासिर ने भी उसी दिन इजराइल के साथ युद्ध की घोषणा की तथा अकाबा की खाड़ी को पूर्णतः बंद कर दिया। नासिर के उस कार्य को सोवियत संघ ने अपना समर्थन प्रदान किया। जबकि अमेरिका और ब्रिटेन ने उसका विरोध। 8 जून 1967 तक इजराइल ने संपूर्ण सिनाई क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। 6 जून को इजराइल और मिस्र के साथ युद्ध बंद हो गया। 10 जून को सीरिया के साथ युद्ध विराम की सन्धि हो गयी। अमेरिका के राष्ट्रपति कार्टर, मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात तथा इजराइल के प्रधानमंत्री बेगिन के मध्य कैम्प डेविड में 6 से 18 सितंबर, 1978 तक शिखर वार्ताएं हुई। इस सन्धि को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर तथा सितम्बर 1978 के समझौते पर आधारित किया गया था।
दिसम्बर 1981 में इजराइल ने गोलन पहाडि़यों को अधिकृत कर एक बार पुनः क्षेत्र में तनाव उत्पन्न कर दिया। सीरिया, इजराइल के कार्य का तीव्र विरोध नहीं कर सका तथा उसने आशा के साथ तत्कालीन सोवियत संघ के साथ मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर किया कि वह उसकी सहायता करेगा। अपने एक विशेष अधिवेशन में महासभा ने एक प्रस्ताव पारित करके इजराइल से मांग की कि वह अधिकृत अधिग्रहित फिलिस्तीन क्षेत्र से हट जाये। उस सम्मेलन ने अमेरिका के वीरों का इस्तेमाल करने के लिए अमेरिका की निन्दा की। तथा 6 फरवरी, 1982 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने सभी देशों से अपील की कि वे इजराइल के साथ किसी तरह का सहयोग नहीं करें क्योंकि इजराइल शांति प्रिय राष्ट्र नहीं है।
खाड़ी युद्ध में इराक की पराजय तथा कुवैत की मुक्ति के बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने 6 मार्च, 1991 को घोषणा की थी कि अमेरिका पश्चिमी एशिया की समस्या के समाधान के लिए पहल करेगा। उन शांति वार्ता में सीरिया, मिस्र, लेबनान, इजराइल तो सम्मिलित थे लेकिन फिलिस्तीनीयों का मान्यता प्राप्त संगठन पी.एल.ओ. इस सम्मेलन में अनुपस्थित था। अमेरिका ने उस सम्मेलन को अंतर्राष्ट्रीय रूप देने का प्रयास किया किन्तु संयुक्त राष्ट्र का उसमें कोई योगदान नहीं था। तथा यह सम्मेलन अपने लक्ष्य प्राप्त किये बिना समाप्त हो गया।
पुनः 11 अप्रैल से 27 अप्रैल, 1996 तक लेबनान के दक्षिण भाग में हिजबुल्ला उग्रवादी छापामारों के मध्य 17 दिनों तक भयंकर लड़ाई तथा उस लड़ाई का अन्त अमेरिका के प्रयासों के द्वारा ही संभव हो सका।
एक अस्तित्व के सिद्धांत को स्वीकार करने के परिणामस्वरूप यासिर अराफात ने मई 1996 में अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मुलाकात की। यह मुलाकात उस दृष्टि से महत्वपूर्ण थी कि अराफात, जो अभी तक अमेरिका को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते चले आ रहे थे। काहिरा सम्मेलन में पी.एल.ओ. के अध्यक्ष यासिर अराफात ने संयुक्त राष्ट्र से भी अपील की कि वह पश्चिमी एशिया की शान्ति प्रक्रिया में अधिक सक्रिय भूमिका निभाये। जैसे- शांति प्रक्रियाएं आगे बढ़ती गयी, वैसे-वैसे संयुक्त राष्ट्र संघ की अपेक्षा अमेरिका इन प्रक्रियाओं में अधिक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करता गया। अमेरिका निषेधाधिकार के कारण अब सुरक्षा परिषद कोई निर्णय नहीं ले सकी तो अरब लीग ने अरब राष्ट्रों से अपील की कि वहइजराइल से अपना सम्बंध तोड़ ले।
Question : संयुक्त राष्ट्र के सुधारों में सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता भारत का दावा प्राकृतिक और समान रूप से न्यायोचित है। सविस्तार चर्चा कीजिए।
(2000)
Answer : संयुक्त राष्ट्र संघ को 50 वर्ष हो गए हैं, जैसे भी उसका काम चला है। शीतयुद्ध के बाद में संयुक्त राष्ट्र का महत्व बहुत बढ़ गया है। पूर्व और पश्चिम की दूरी भी कम हुई है। परन्तु उत्तर व दक्षिण का संघर्ष कम नहीं हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के दो बड़े अवयव हैंः (1) महासभा (2) सुरक्षा परिषद्।
महासभा 51 देशों की सदस्यता से शुरू हुई जबकि अब उसकी सदस्य संख्या 191 है। जिसमें छोटे और विकासशील देश ज्यादा हैं। महासभा का दुर्भाग्य यह है कि यदि संख्या से जो बात तय की जाए उसे अल्पसंख्यक वाले राष्ट्र राजनीतिक रूप से अव्यावहारिक कह देते हैं।
सुरक्षा परिषद् महासभा के प्रति उत्तरदायी नहीं है। प्रत्येक वर्ष उसे अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट महासभा को भेजनी होती है। बीच-बीच में विशेष रिपोर्ट भेजी जाती है। आरंभ में सुरक्षा परिषद में 11 सदस्य रखे गये थे, परन्तु 1965 में चार्टर में बदलाव करके यह संख्या बढ़ाकर 15 कर दी गई। इन 15 सदस्यों में 5 तो स्थाई सदस्य- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन हैं। तो प्रत्येक वर्ष 10 सदस्य महासभा से चुनकर आते हैं। जहां तक भारत का सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य होने का प्रश्न है, उसके लिए चार्टर में संशोधन करना होगा और यह संशोधन तब तक नहीं हो सकता जब तक सुरक्षा परिषद में पांचों स्थाई सदस्य उसको न मानें, दूसरे सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य की एक सीट बढ़ाने के महासभा से भी प्रस्ताव स्वीकृत होना चाहिए और दो तिहाई बहुमत उसके साथ होना चाहिए। विकासशील देश, जो महासभा में बहुमत में हैं। किसी भी फैसले को रोक सकते हैं।
आम तौर यह राष्ट्र समझते हैं कि सुरक्षा परिषद में 23-25 तक सदस्य होने चाहिए। परन्तु उस बारे में अमेरिका की सोच यह है कि 1 या 2 सीट से ज्यादा नहीं बढ़नी चाहिए। उधर महासभा के अन्य सदस्य उस विचार के हो गये हैं कि निषेधाधिकार (VETO) समाप्त होना चाहिए और सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता भी समाप्त होनी चाहिए और दो तिहाई बहुमत उसके साथ होना चाहिए। विकासशील देश में जो महासभा में बहुमत में हैं। किसी भी ऐसे फैसले पर रोक लगा सकते हैं।
सुरक्षा परिषद में लाने के लिए जिन देशों के नाम लिए जा रहे हैं, इसमें ब्राजील, जर्मनी, भारत, जापान, नाइजीरिया तथा मिस्र शामिल हैं। अमेरिका बराबर जर्मनी और जापान को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनवाना चाहता है। विशेष कारण यह है कि जापान और जापान जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद शत्रु देशों में समझे जाने लगे थे। अब 50 वर्ष बाद ऐसा नहीं है। भारत उन देशों ने यहां दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी है। संयुक्त राष्ट्र को अब कभी भी शान्ति सैनिकों की आवश्यकता पड़ी भारत सहायता करने में कभी पीछे नहीं रहा। विकासशील देशों में भारत का अग्रणी स्थान है। यदि संयुक्त राष्ट्र का जनतंत्रीकरण होना है। ताकि वह अधिक प्रभावी बन सके तो जरूरी है कि सिर्फ सुरक्षा परिषद की सदस्य संख्या में ही वृद्धि न हो बल्कि महासभा का पुनर्निर्माण किया जाएगा।
अमेरिका खासतौर से भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने में अपना हित नहीं देखता। वह नहीं चाहता कि किसी भी मसले पर सुरक्षा परिषद में खुलकर बहस हो। भारत हमेशा संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों के साथ रहा है और शायद जितने आदमी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के शांति संधानों में भरे हैं, उनमें भारतीय सबसे ज्यादा हैं तो भारत के इस दावे को क्यों नहीं माना जा रहा है?
Question : भारत-पाक संबंध कश्मीर मुद्दे के शांतिपूर्ण समझौते के ईर्द-गिर्द घूमते हैं। इसके हल के लिए विभिन्न विकल्पों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
(2000)
Answer : 15 अगस्त, 1947 को भारत की स्वतंत्रता के साथ धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ तथा पाकिस्तान नाम के नये राज्य का जन्म हुआ। तब से लेकर आज तक भारत और पाक के संबंध तनावपूर्ण रहे हैं। इस तनावपूर्ण स्थिति का मूल कारण कश्मीर समस्या है। जो आजादी से लेकर आज तक का विवाद बना हुआ है। बहुत सारे समझौते हुए उसमें सब का परिणाम निराशापूर्ण रहा है। आज तक कश्मीर समस्या संयुक्त राष्ट्र संघ में ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत और पाकिस्तान के मध्य जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर की देशी रियासत के प्रश्न पर विवाद हुआ। कश्मीर पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए पाकिस्तान ने कबाइलियों के रूप में अपने घुसपैठिये कश्मीर में भेज दिये। परन्तु कश्मीर के महाराजा ने भारत सरकार से सन्धि करके कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित कर दिया, किंतु पूरे कश्मीर को घुसपैठियों से मुक्त करवाने के पहले ही भारत कश्मीर की समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ ले गया तथा तुरंत युद्ध विराम की घोषणा कर दी गयी। जिससे कश्मीर का कुछ भाग पाकिस्तान के नियंत्रण में रह गया। तब से लेकर आज तक कश्मीर का प्रश्न भारत तथा पाकिस्तान के मध्य विवाद का एक मुख्य प्रश्न बना हुआ है। पुनः 1968 ई. दोनों देशों के मध्य हजरत-बल घटना को लेकर तनाव उत्पन्न हुआ। 28 दिसम्बर 1963 को श्रीनगर की हजरत बल मस्जिद से मोहम्मद साहब का पवित्र बाल चोरी हो गया। इस घटना से सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गये।
इस घटना से दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया। समस्या के समाधान के लिए नई दिल्ली तथा रावलपिंडी में दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने सम्मेलन आयोजित किये। पुनः भारत और पाकिस्तान के मध्य संघर्ष प्रारंभ हो गया। जो कि अप्रैल से लेकर जून तक चलता रहा। ब्रिटिश प्रधानमंत्री की मध्यस्थता से 30 जून को युद्ध विराम हो सका।
पुनः पाकिस्तान ने चीन की सहायता से कश्मीर की सीमा पर आक्रमण कर दिया। परिणामतः भारत तथा पाकिस्तान की सेनाओं में अनेक जगह पर प्रत्यक्ष मुठभेड़ हुई। पुनः ताशकंद समझौता हुआ। ताशकंद समझौते के द्वारा उस समस्या का समाधान हुआ तथा दोनों देशों की सेना अपनी 5 अगस्त, 1965 की स्थिति पर लौट गई। कश्मीर की समस्या इतनी जटिल रूप में आ गया कि यह प्रक्रिया रुकी नहीं और पुनः पाकिस्तान ने 1971 में भारत पर आक्रमण कर दिया। भारत ने पाकिस्तान के आक्रमण के बाद 6 दिसंबर, 1971 को बांग्लादेश को मान्यता प्रदान कर दी। उस युद्ध में पाकिस्तान की पराजय हुई तथा 16 दिसम्बर को ढाका में पाकिस्तान ने के जनरल नियाजी ने भारत के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के सामने 93,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। भारत तथा पाकिस्तान के मध्य शिखर सम्मेलन आयोजित करने पर सहमति हुई तथा 28 जून, 1972 को भारत के प्रधानमंत्री तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति के मध्य शिमला शिखर सम्मेलन प्रारंभ हुआ तथा 3 जुलाई को शिमला समझौता पर हस्ताक्षर कर दिये गये। 17 दिसंबर, 1985 को एक मौखिक समझौता हुआ जब जिया उल हक तथा राजीव गांधी द्वारा जारी संयुक्त घोषणा में यह वादा किया कि दोनों देश एक दूसरे के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमले नहीं करेंगे। लेकिन उन सब के बावजूद पाकिस्तान के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और कोई न कोई षडयंत्र चलता रहा है।
1998 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार आयी, भारत के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान से संबंध सुधारने का प्रयास किया और पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने हेतु दिल्ली-लाहौर बस सेवा प्रारंभ की। इस बस की पहली यात्रा में भारत के प्रधानमंत्री स्वयं पाकिस्तान गये तथा दोनों देशों के निवासियों में इस यात्रा को लेकर उत्साह उत्पन्न हुआ किन्तु पाकिस्तान ने एक बार फिर अपनी भारत विरोधी गतिविधयों को दिखाते हुए कारगिल में अपने घुसपैठियों को भेजकर तथा नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करके अघोषित युद्ध की स्थिति उत्पन्न कर दी। पुनः भारतीय सेना का ‘ऑपरेशन विजय’ कारगिल में चल पड़ा, और पुनः भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान को करारी मात दी। उसके बावजूद परवेज मुशर्रफ ने ‘आगरा शिखर सम्मेलन’ में भाग लिया लेकिन इसमें कश्मीर समस्या को लेकर कोई सही हल नहीं निकल पाया।
उपर्युक्त कथनों से कश्मीर समस्या पाकिस्तान और भारत के बीच अहम मुद्दा बनकर खड़ा है और यह समस्या काफी जटिल हो गयी है। अब भी भारत और पाकिस्तान के बीच कोई शांतिपूर्ण समझौता हुआ तो ये शांति समझौता में कश्मीर समस्या बाधा बनकर आयी। जिससे आज तक दोनों देशों के बीच आज तक तनावपूर्ण स्थिति बनी हुई है।
Question : परमाण्विक अप्रसार संधि
(1999)
Answer : परमाणु नीति के मुद्दे पर भारत का परमाणु शक्ति संपन्न देशों के साथ जो भारी मतभेद बना हुआ है, उसके मूल में परमाणु अप्रसार संधि है। भारत इस संधि को भेदभावमूलक मानते हुए उसे स्वीकारने से इंकार करता रहा है। जबकि अमेरिका आदि देश उस पर उसमें शामिल होने के लिए लगातार दबाव बनाए जा रहे हैं। लेकिन अगर हम इसके अविर्भाव तथा क्रियान्वयनों के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो यह स्पष्ट होते देर नहीं लगेगी कि इसको लाने के मूल में अमेरिका तथा तत्कालीन सोवियत संघ का इरादा अन्य देशों को परमाणु अस्त्र संपन्न बनने से रोकना तथा इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व बनाए रखना था।
1945 में हिरोशिमा एवं नागासाकी के विध्वंस के बाद से ही परमाणु अस्त्रों के विकास के समानान्तर उसके प्रसार को रोकने की मांग की जाने लगी थी। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस बात पर विचार होने लगा था कि आखिर वह कौन-सी व्यवस्था हो सकती है, जो इस विध्वंसकारी अस्त्रों के विस्तार को रोके रखे। इस कदम में सबसे पहला ठोस कदम था, परमाणु परीक्षणों पर आंशिक प्रतिबंध समझौता। अमेरिका, सोवियत संघ एवं इंग्लैंड द्वारा किये गये इस समझौते में अंतरिक्ष, समुद्रतल एवं जल के अंदर परमाणु अस्त्रों के परीक्षणों पर रोक लगायी गयी थी। किंतु अनेक देशों ने इसे मानने से इंकार कर दिया। चीन ने तो अगले वर्ष 1964 में अपने परमाणु बम का विस्फोट किया।
जून, 1965 में संयुक्त राष्ट्र के निरस्त्रीकरण आयोग के समक्ष यह मांग उठी कि अमेरिका एवं सोवियत संघ सहित अन्य परमाणु शस्त्र संपन्न देश परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में एक समय नीति अपनायें। निरस्त्रीकरण सम्मेलन में हुए विचार-विमर्श के बाद अमेरिका ने 17 अगस्त, 1965 को तथा सोवियत संघ ने 24 दिसंबर, 1965 को संयुक्त राष्ट्र की आमसभा के समक्ष परमाणु अप्रसार संधि का मसविदा प्रस्तुत किया। लेकिन स्वयं इन दोनों देशों को एक-दूसरे का प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं हुआ। इसके बाद 24 अगस्त, 1967 को दोनों ने निरस्त्रीकरण सम्मेलन के समय अपना मसविदा प्रस्तुत किया।
इस संधि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कि 24 अगस्त, 1967 के पूर्व तक जो परमाणु विस्फोट की दहलीज पार कर गये केवल वे परमाणु शस्त्र संपन्न देश माने जायेंगे। जाहिर है भारत इसे स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि सन् 1967 की अवस्था में लौटते ही उसका विकल्प खुला रखने का अवसर समाप्त हो जायेगा। वास्तव में यह परमाणु अस्त्र संपन्न देशों के पास व्याप्त परमाणु अस्त्रों को ही वैधानिकता का जामा पहनाता ही हे और अन्य देशों की इसके सुविधा से वंचित करता है।
Question : वर्तमान समय में चीन की विदेश नीति पाकिस्तान की ओर
(1999)
Answer : चीन और पाकिस्तान के संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं। पाकिस्तान के कोरिया युद्ध में समर्थन ने भी चीनी नेताओं को निराश किया लेकिन पाकिस्तानी नेताओं ने हमेशा साम्यवादी चीन को उस बात का खुलासा करते रहे कि वे चीन के विरुद्ध नहीं है। बांडुंग सम्मेलन में बढ़ाने वाली नीति का खुलकर आलोचना किया। इससे चीनी नेताओं का पाकिस्तान के संबंध में मधुरता बन आयी लेकिन भारत और पाक संबंधों में अधिक शत्रुता बढ़ गयी। इस प्रक्रिया से चीनी-पाकिस्तान के रिश्तों में काफी मधुरता आयी। भारत और पाकिस्तान के संबंध में कश्मीर मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है, जो उसके संबंधों को कटुता प्रदान करते आये हैं। चीन ने खुलकर कहा कि कश्मीर मुद्दा को कश्मीर के लोगों के द्वारा सुलह करना चाहिए।
पाकिस्तान और चीन के संबंध 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध से और अधिक गहरे हुए। चीन पाकिस्तान को हथियार उपलब्ध कराता है। हम कह सकते हैं कि 1960 के बाद चीन और पाकिस्तान के संबंध में सुधार हुआ है।
चीन भी चाहता है कि भारत और पाक के बीच जो कश्मीर मुद्दा है, उसे द्विपक्षीय समझौतों के द्वारा सुलह कर लेना चाहिए। चीन, पाकिस्तान को सैनिक साम्रगी तकनीकी में उनका मदद करते आ रहा है। इन सबको देखते हुए चीन पाकिस्तान के संबंध को अधिक महत्व देता है।
Question : खाड़ी संकट 1991-92
(1999)
Answer : 16 जनवरी, 1991 को खाड़ी युद्ध प्रारंभ हुआ। अमेरिका ने घोषणा की कि उसका उद्देश्य इराक को जीतना नहीं बल्कि कुवैत को आजाद कराना है। इराक के विरुद्ध अमेरिका के अभियान को ऑपरेशन डेजर्ट स्टोर्म का नाम दिया गया तथा 17 जनवरी, 1991 को बहुराष्ट्रीय सेनाओं ने बगदाद पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में पी.एन.ओ. ने इराक का साथ दिया तथा अन्य देशों ने बहुराष्ट्रीय सेना का साथ दिया। तुर्की ने यद्यपि युद्ध में भाग नहीं लिया किंतु उसने अमेरिका को अनुमति दी कि वह तुर्कों के अड्डों का युद्ध के लिए प्रयोग कर सकता है। इराक ने इजरायल पर आक्रमण प्रारंभ कर सकता है। इराक ने मांग की कि इजरायल, फिलिस्तीन सहित सभी अरब देशों से हट जाये। इराक चाहता था कि इजरायल उस युद्ध में सम्मिलित हो जाये जिससे मिस्र, सीरिया, मोरक्को तथा सऊदी अरब जैसे देश बहुराष्ट्रीय सेना का समर्थन करना बंद कर दे। क्योंकि इन देशों ने यह घोषणा कर रखी थी कि अगर इजरायल इराक पर आक्रमण करता है तो वह अपनी नीति में परिवर्तन कर सकते हैं। अतः अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस तथा सोवियत संघ ने इजरायलसे अपील की कि वह संयम से काम लेकर इस युद्ध को विस्तृत होने से बचाये।
युद्ध प्रारंभ होने के उपरांत भी शांति स्थापना के प्रयास जारी रहे तथा युगोस्लाविया, मोरक्को और जार्डन के मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा किंतु 21 जनवरी, 1991 तक सुरक्षा परिषद की मीटिंग बुलाने का प्रस्ताव किसी ने भी नहीं रखा। इस तरह का प्रस्ताव सबसे पहले पी.एल.ओ. के अध्यक्ष यासिर अराफात ने यूरोपीय समुदाय के देशों के भूमि पर लड़ा जाने लगा। अमेरिका पर दबाव बढ़ने लगा। वह इस समस्या का राजनीतिक समाधान निकालने का प्रयास करे तथा युद्ध विराम के लिए प्रयास प्रारंभ करे। अमेरिका ने इस विषय में अपनी सैनिक श्रेष्ठता सिद्ध कर दी तथा इराक की हवाई सेना को पूरी तरह नष्ट कर दिया।
Question : अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में तृतीय विश्व की भूमिका पर एक आलोचनात्मक निबंध लिखें। प्रमुख रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ में।
(1999)
Answer : संयुक्त राष्ट्र संघ का निर्माण अंतर्राष्ट्रीय शांति, आर्थिक विकास, सामाजिक एवं मानव अधिकारों की रक्षा तथा राष्ट्रों में पारस्परिक आर्थिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी सहयोग के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया गया था। उसके प्रारंभिक सदस्य राष्ट्रों की संख्या 51 थी। उत्तरोत्तर समय में एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के अनेक देश औपनिवेशिक दासता से मुक्त हो गये और इन्होंने उसकी सदस्यता ग्रहण की। आज इसके सदस्य राष्ट्रों की संख्या 191 है। जिनमें से करीब 110 तीसरी दुनिया के विकासशील देश हैं। अर्थात संख्यात्मक शक्ति के हिसाब से तीसरी दुनिया के देश दो-तिहाई से अधिक हैं। जहां पहले सं.रा. संघ में यूरोपीय देश अपना वर्चस्व बनाये हुए थे। वहां अब विकासशील देशों ने उनके दबदबे को अपनी संख्यात्मक शक्ति के बलबूते पर काफी कमजोर कर दिया है। जैसा कि भारतीय विद्वान टी.एस. रामाराव ने लिखा है कि सं.रा. संघ एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जिस पर विकासशील राष्ट्रों की बड़ी आस्था है। इसकी महासभा में उनको बहुमत है और उन्हें लगता है कि वे इसका प्रयोग अपने हित-संवर्द्धन के लिए कर सकते हैं।
रंगभेद तथा जातिभेद मिटाने के लिए सं.रा. संघ की महासभा में अनेक प्रकार के प्रस्ताव पारित किये गये। सं.रा. संघ द्वारा समय-समय पर इस संबंध में की गयी घोषणाएं मानव समाज में समानता और न्याय पर बल देती हैं। दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार द्वारा वहां के बहुसंख्यक काले पर थोपे गये बर्बर नस्लवाद की विश्व संगठन ने अनेक बार कड़ी भर्त्सना की तथा सदस्य राष्ट्रों से इस गोरी सरकार के साथ कूटनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक बहिष्कार की अपील की। उसका कई राष्ट्रों ने अनुसरण किया।
अनेक नये राष्ट्रों के उदय ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उथल-पुथल मचा दी। महाशक्तियों के बहकावे में आकर या किसी अन्य कारण से आपस में लड़ने लगे थे। इस लड़ाई में सीमा विवाद प्रमुख रहे हैं। वैसे भी अमेरिका और रूस के बीच शीतयुद्ध के तनाव के कारण स्थिति संकटपूर्ण थी। इस सिलसिले में अंतर्राष्ट्रीय शांति की स्थापना तथा विकासशील राष्ट्रों में आपसी विवादों के शांतिपूर्ण हल में सं.रा. संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। स्वयं बर्लिन, कांगो, कोरिया, तथा लेबनान के विवादों में उसका योगदान इतना सराहनीय रहा कि उसने विश्व को तीसरे महायुद्ध के विनाश के कगार पर जाने से रोका।
सं.रा. संघ ने गैर राजनीतिक कार्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहे हैं। इसके विशिष्ट संगठनों जैसे- यूनेस्को, अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतर्राष्ट्रीय डाक संघ, दूरसंचार संघ, खाद्य एवं कृषि संगठन आदि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और कृषि क्षेत्रों में ऐसे अनेक कार्य किये हैं, जो तीसरी दुनिया के अन्य विकसित राष्ट्रों के लिए कल्याणकारी साबित हुए हैं। आज सं.रा. संघ की 30 प्रतिशत गतिविधियां सामाजिक और आर्थिक समस्याओं से संबद्ध हैं। इस प्रकार इसका ध्यान अब मानव समाज में चहुंमुखी विकास और कल्याण की ओर बढ़ा है।
इतना होते हुए भी संयुक्त राष्ट्र संघ को निरस्त्रीकरण, हिंद महासागर को शांत क्षेत्र बनाने तथा दक्षिण अफ्रीका में बहुसंख्यक अश्वेत के शासन स्थापित करवाने विकसित एवं विकासशील देशों के बीच आर्थिक दूरी कम करने, विकसित एवं अविकसित देशों द्वारा समुद्री संपदा के उचित दोहन, गरीब राष्ट्रों को उनके कच्चे माल की वाजिब कीमत दिलाने आदि मामले में आंशिक सफलता मिली है। विकसित देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ को एक ऐसा मंच बना रखा है, जहां से वे तीसरी दुनिया के विकासमान राष्ट्रों में गरीबी मिटाने की बात तो करते हैं किंतु उन्होंने अपने कथनी को करनी में बदलने के लिए कभी दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रयोग नहीं किया।
उत्तरदायित्व संघर्ष को सुलझाने के लिए कुछ वर्षों पूर्व मनीला में आयोजित अंकटाड सम्मेलन का यहां उल्लेख करना वांछनीय होगा। वहां विकासशील देशों में एकता के साथ विकसित देशों से व्यापार में कुछ रियायतों के लिए परामर्श किया। लेकिन समृद्ध देश के हठधर्मिता के कारण उसके परिणाम उत्साहजनक नहीं रहे।
उसके बावजूद यह मानना होगा कि सं.रा. संघ का विश्व शांति सुरक्षा कायम रखने में काफी योगदान रहा है। तीसरी दुनिया के अविकसित राष्ट्रों में भी उसके द्वारा विभिन्न प्रकार के जन कल्याण संपन्न हुए हैं। अब तक अंतर्राष्ट्रीय पंचायत समृद्ध या विकसित राष्ट्रों की बपौती नहीं रह गयी है।
Question : अमेरिका की विदेश नीति दक्षिण एशिया के प्रति वर्तमान समय में परिवर्तित परिप्रेक्ष्य में एवं इस क्षेत्र में शांति के लिए किये गये कार्यों का परीक्षण कीजिए।
(1999)
Answer : द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात अमेरिका ने दक्षिण एशिया में भी अपनी रुचि दर्शायी। दक्षिण एशिया में उसे पाकिस्तान ही एकमात्र ऐसा देश मिला जिसने उसके साथ सैनिक संधि संगठनों में सम्मिलित होना स्वीकार किया। भारत ने प्रारंभ से ही गुटों तथा गठबंधनों से दूर रहने की अपनी नीति की घोषणा करते हुए गुट निरपेक्षता की नीति अपनाने का इरादा व्यक्त किया।
पाकिस्तान 1954 में सीटो तथा 1955 में सैन्टो का सदस्य बना और अमेरिका का समर्थन पाकर पाकिस्तान ने कश्मीर की समस्या को 1947 से आज तक उलझाए रखा है। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के साथ ही कश्मीर की समस्या प्रारंभ हुई। 1948 में भारत ने इस विवाद को सुरक्षा परिषद् के समक्ष रखा, किंतु अमेरिका फिर भी पाकिस्तान का समर्थन करता रहा। 1949 में साम्यवादी चीन के प्रश्न पर दोनों देशों में मतभेद हुए जब अमेरिका की इच्छा के विरुद्ध भारत ने चीन को 1949 से ही अपनी मान्यता प्रदान कर दी। 1950 में कोरिया के विवाद में भारत ने अमेरिका की नीति से असंतुष्ट होकर संयुक्त राष्ट्र की सेना में पूरी तरह भाग नहीं लिया और 1951 में अमेरिका द्वारा रखे गये शांति के लिए एकता प्रस्ताव का भी विरोध किया।
1951 में भारत ने अमेरिका से खाद्यान्न की सहायता मांगी। अमेरिका भारत की तटस्थता की नीति से खुश नहीं था। अतः भारत को गेहूं ऋण के रूप में दिया गया। जिसे भारत ने पसंद नहीं किया। किंतु बाद में अमेरिका द्वारा आर्थिक सहायता प्रदान किये जाने के कारण दोनों देशों के संबंधों में सुधार आया। आइजनहावर के राष्ट्रपतित्व काल में अमेरिका द्वारा स्थापित सैनिक संगठनों में सम्मिलित होने से भारत ने स्पष्ट इंकार कर दिया। पाकिस्तान इन सैनिक संगठनों में सम्मिलित हुआ और अमेरिका से सैनिक सहायता प्राप्त कर उसने शीतयुद्ध को दक्षिणी एशिया तक फैला दिया।
तिब्बत तथा चीन के प्रश्न को लेकर दोनों देशों में पुनः विवाद हुआ। भारत-चीन समझौते तथा चाऊ-एन-लाई की भारत यात्रा से अमेरिका भी अप्रसन्न हुआ।
1956 से भारत तथा अमेरिका के संबंधों में सुधार आना प्रारंभ हुआ। एक समझौते के अंतर्गत अमेरिका ने भारत को खाद्यान्न देना स्वीकार किया। 1957-58 में उसने भारत को पुनः आर्थिक सहायता दी तथा पी.एल. 420 नियम के अंतर्गत अमेरिका ने भारत को गेहूं का निर्यात अत्यंत आसान शर्तों पर किया।
1961 में गोवा को सशस्त्र कार्यवाही द्वारा स्वतंत्र कराने पर भारत और अमेरिका के संबंध बिगड़े तो 1962 में चीन तथा भारत पर आक्रमण किये जाने के समय अमेरिका द्वारा भारत की सहायता किये जाने से दोनों देशों के संबंध में सुधार आया। लंबे विचार-विमर्श के बाद दिसंबर 1962 में ब्रिटेन तथा अमेरिका ने संयुक्त रूप से भारत की सैनिक सहायता करने का निश्चय किया। इसके बाद 1971 तक लगातार सहायता तथा दबाव की नीति अमेरिका भारत के प्रति अपनाता रहा। इस नीति का मुख्य उद्देश्य था भारत को साम्यवाद के प्रभाव में लाने से रोकना।
1971 में पुनः यह स्थिति बदल गयी जब पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान ने अलग होने का निश्चय किया और भारत ने उसका साथ दिया। अमेरिका ने न केवल भारत को सब तरह से सहायता बंद कर दी वरन् हिंद महासागर में अपना सातवां बेड़ा भेजकर भारत पर दबाव डालने का भी प्रयास किया। इसी समय भारत पर रूस के साथ मैत्री संधि करने के कारण गुटनिरपेक्षता की नीति का परित्याग कर देने का आरोप भी लगाया गया और दोनों देशों के संबंध में अत्यधिक कड़वाहट भी आ गयी।
1974 में फिर दोनों देशों के मध्य आर्थिक तथा व्यापारिक समझौता हुआ। तो भारत में आपात काल लागू किये जाने की अमेरिका ने आलोचना भी की। 1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आने से दोनों देशों के संबंध सुधरे तथा राष्ट्रपति कार्टर ने भारत की यात्रा की। पुनः 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत संघ द्वारा सैनिक हस्तक्षेप की आलोचना नहीं करने पर अमेरिका ने भारत के प्रति अपनी नाराजगी प्रकट की।
1985 में श्री राजीव गांधी की अमेरिका यात्रा के दौरान पहली बार भारत को संवेदनशील सैनिक तकनीकी देने का निर्णय किया गया। इसी दौरान भारत ने पाकिस्तान द्वारा पंजाब में उग्रवादियों को सहायता देने का विरोध किया जिस पर अमेरिका ने भारत से सहमति प्रकट की। 1987 में भारत पर इजरायल को समर्थन और भारत ने अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी (सीआईए) पर भारत में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न करने का आरोप लगाया।
1957 में अमेरिका ने भारत को सुपर कंप्यूटर देना स्वीकार किया और धीरे-धीरे दोनों देशों का व्यापार बढ़ता गया। सार्क देशों का व्यापार बढ़ता गया। सार्क की स्थापना को अमेरिका ने अपना समर्थन दिया तो बांग्लादेश से भी संबंध सुधारने का प्रयास आरंभ किये। पाकिस्तान को बार-बार आर्थिक सहायता मिलते रहने तथा उसके द्वारा अणु बम के परीक्षण से पूर्व भी भारत तथा अमेरिका के संबंध में तनाव आया तो दूसरी तरफ भारत द्वारा परमाणु अप्रसार संधि तथा सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने से इंकार तनाव के कारण रहे।
Question : भारत-नेपाल एवं भूटान के बीच संघर्ष एवं सहयोग से संबंधित कुछ प्रमुख मुद्दों की विवेचना कीजिए।
(1999)
Answer : विश्व का एकमात्र हिंदू राज्य नेपाल चारों तरफ भूमि से घिरा हुआ है। उसके उत्तर में तिब्बत तथा दक्षिण भारत स्थित है। भारत के लिए नेपाल की सामरिक स्थिति का महत्व 17 मार्च, 1950 को जवाहर लाल नेहरू द्वारा कहे गये इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है। जहां तक एशियाई गतिविधियों का संबंध है, भारत तथा नेपाल के मध्य किसी तरह का कोई सामरिक समझौता नहीं है, किंतु भारत, नेपाल पर किये गये किसी भी आक्रमण को सहन नहीं कर सकता क्योंकि नेपाल पर किया जाने वाला कोई भी संभावित आक्रमण भारत की सुरक्षा के लिए एक निश्चित खतरा होगा।
नेपाल ने 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण के समय तटस्थता का रुख अपनाया था किंतु इस आक्रमण के बाद ही उसे चीन के इरादे के बारे में वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से सोचने का अवसर मिला तथा दोनों देश एक-दूसरे के अधिक निकट आये, यद्यपि भारत 1947 से ही नेपाल के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने का प्रयास कर रहा था। सन् 1947 में नेपाल के प्रधानमंत्री की मांग पर भारत ने नेपाल की सरकार को नया संविधान बनाने में सहायता देने के लिए विशिष्ट राजनीतिज्ञ श्री प्रकाश के साथ कई नयी संधि करने का प्रस्ताव रखा। इस संधि के बारे में लंबे समय तक विचार-विमर्श होता रहा। इसे भारत 1949-50 में सिक्किम तथा भूटान के साथ नयी संधियां कर चुका था। किंतु नेपाल के साथ संधि करने के लिए महत्वपूर्ण था कि वहां लोकतंत्रत्मक व्यवस्था स्थापित हो।
भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही नेपाल के साथ एक नयी संधि करना चाहता था। यह संधि अंततः जुलाई 1950 में हो गयी। इस संधि में स्पष्ट रूप से व्यवस्था की गयी थी कि दोनों देशों की सरकारें किसी भी विदेशी आक्रमणकारी के द्वारा दूसरे देश की सुरक्षा को उत्पन्न खतरे को सहन नहीं करेगी तथा दोनों ही देशों ने वादा किया कि किसी तीसरे देश द्वारा खतरा उत्पन्न किये जाने पर दोनों देश एक-दूसरे से परामर्श करेंगे तथा आक्रमण का सामना करने के लिए प्रभावशाली उपाय अपनाने का प्रयास करेंगे। नेपाल सामान्यतः अपने सैनिक उपकरण भारत से ही खरीदेगा तथा किसी अहम देश से युद्ध सामग्री खरीदने से पहले नेपाल, भारत से परामर्श करेगा। 31 जुलाई, 1950 को दोनों देशों के मध्य एक व्यापार तथा वाणिज्य संबंधी संधि पर हस्ताक्षर किये गये। भारत ने नेपाल को उसकी अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक अनेक पदार्थों की आपूर्ति का आश्वासन दिया। क्योंकि नेपाल चारों तरफ से भूमि से घिरा हुआ देश है। अतः इस संधि के द्वारा भारत ने नेपाल को अपने क्षेत्रों से होकर सभी वस्तुओं तथा उत्पादन को ले जाने के पूर्ण तथा अबाधित अधिकार प्रदान किये। इस संधि के द्वारा दोनों के मध्य आर्थिक सहयोग में विस्तार हुआ तथा भारत ने नेपाल को बड़ी मात्र में आर्थिक सहायता प्रदान की। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की विजय से भारत नेपाल संबंधों पर सकारात्मक प्रभाव हुआ। 1970 में नेपाल के राजा महेंद्र की मृत्यु के उपरांत महाराजा वीरेंद्र नेपाल के राजा बने तथा उन्होंने विकास में भारत की सहायता की प्रशंसा की।
भारत-भूटान संधि अगस्त 1949 में की गयी। जिनमें 1910 की पुनरवा संधि की अनेक धाराओं का उल्लेख किया गया था। भारत ने पहले की भांति एक बार फिर भूटान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। भारत ने यह भी स्वीकार किया कि वह भूटान को प्रतिवर्ष 5 लाख रुपये की सहायता करेगा।
पुनः 1947 से 1977 के मध्य भारत-भूटान संबंध प्रारंभ से ही भारत ने भूटान के विकास में अपनी रुचि प्रदर्शित की तथा उसे आर्थिक सहायता प्रदान की। भारत ने 30 करोड़ की लागत से भूटान में एक हजार किलोमीटर लंबी सड़क का निर्माण किया। 1977 में भारत ने भूटान में अपने राजदूत का दर्जा बढ़ा दिया।
1972 के व्यापार समझौते की उस धारा के संबंध में समझौता किया गया जिसके अंतर्गत भूटानियों पर भी विदेश व्यापार के संबंध में भारतीयों के समान ही नियम लागू होते थे। नवंबर 1977 में एक और समझौता किया गया जिसके अंतर्गत पर्यटकों के लिए आंतरिक वर्क परमिट व्यवस्था प्रारंभ की गयी। क्योंकि भूटान मानता था कि विदेशी पर्यटकों को भूटान में आने के लिए परमिट न मिलने से उसे राजस्व की हानि होती है।
1979 में आयोजित गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भारत ने कम्पूचिया की सीट को खाली करने का समर्थन किया। जबकि भूटान ने यह स्थान पोलपोट समूह को देने का समर्थन किया। भारत परमाणु अप्रसार संधि को पक्षपातपूर्ण मानता है। किंतु भूटान ने संधि का समर्थन किया।
जून 1981 में भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री ने भूटान की सद्भावना यात्रा की। इस यात्रा के दौरान भारत ने भूटान को 139 करोड़ रुपये की सहायता देने का प्रस्ताव किया। भूटान को उसके शहर पारो से कलकत्ता तक अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवा प्रारंभ करने की अनुमति दी गयी। सीमा निर्धारण के लिए असम तथा पश्चिमी बंगाल पर मिलने वाली सीमा पर खंभे लगाये गये तथा भारत ने भूटान में रह रहे 1500 तिब्बती शरणार्थियों को लेना स्वीकार किया, किंतु फिर भी भूटान के विदेश मंत्री ने जून 1981 में वहां की राष्ट्रीय असेंबली में घोषणा की कि भूटान, चीन के साथ सीधे द्विपक्षीय वार्ता करना चाहता है तथा भूटान चीन सीमा को चिह्नित करना चाहता है। भारत ने स्वाभाविक रूप से भूटान के इस कार्य को पसंद नहीं किया, किंतु भूटान यह कहता रहा कि वह चीन के साथ वार्ताएं इसलिए कर रहा है कि तिब्बती चरवाहों को भूटान में आने-जाने से रोका जा सके।
दिसंबर 1983 में दोनों देशों के मध्य पुनः एक व्यापारिक समझौता हुआ। इस समझौते के अंतर्गत भारत ने भूटान से वादा किया कि वह अन्य देशों के साथ व्यापार बढ़ाने में मदद करेगा। 1994 में भारत तथा भूटान के मध्य दूरसंचार तथा माइक्रोवेव की व्यवस्था की गयी। भारत ने भूटान को सीमेंट फैक्टरी के लिए 1275 करोड़ रुपये की सहायता दिया।
अगस्त 1996 में भारत के तत्कालीन विदेशमंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने भूटान की यात्रा की तथा यह आश्वासन दिया कि भारत उसकी आठवीं पंचवर्षीय योजना के लिए सहायता प्रदान करेगा। दोनों देशों के मध्य अन्य क्षेत्रों में सहयोग के विस्तार पर विमर्श किया तथा भूटान ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि वह भारत के सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के दावे को समर्थन प्रदान करता है।
Question : शीत युद्धकाल के उपरान्त हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाने में हिंद महासागर के तटवर्ती देशों की भूमिका का आकलन कीजिये।
(1998)
Answer : विश्व का तीसरा सबसे विशाल महासागर के रूप में जाना जाने वाला हिन्द महासागर और इसका तटीय क्षेत्र अथाह खनिज सम्पदा, विश्व की कुल जनसंख्या का दो-तिहाई हिस्सा रखने, अकूत प्राकृतिक सम्पदा और विश्व के सामुद्रिक व्यापार में 50 प्रतिशत हिस्सा रखने के कारण विश्व महाशक्तियों की नजर में हमेशा महत्त्वपूर्ण रहा है। साम्राज्यवादी युग में यूरोप के साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच परतन्त्र राष्ट्र के रूप में बंटा यह क्षेत्र शीतयुद्ध में महाशक्तियों की जोर आजमाइश एवं प्रभाव के विस्तार का क्षेत्र हो गया था। किसी भी संभावित सोवियत आक्रमण एवं प्रभाव से बचाव के लिए तथा मध्य एशिया के तेल समृद्ध राष्ट्रों पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए अमेरिका ने ब्रिटेन द्वारा अधिकृत की गयी मॉरीशस के एक द्वीप- डिएगो गार्सिया पर अपना अत्याधुनिक अड्डा बना कर एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के सुबिक खाड़ी में अपना सैनिक अड्डा बना कर इस क्षेत्र को महाशक्तियों के सैनिक प्रभाव में लाने की परम्परा का आरंभ किया था। अमेरिका के बढ़ते प्रभाव को हिन्द महासागर क्षेत्र से कम करने के लिए सोवियत संघ ने भी भारत, बर्मा, मिड्ड, सोमालिया, सीरिया आदि मित्र राष्ट्रों की मदद से अपनी शक्ति की उपस्थिति इस क्षेत्र में दर्ज करवायी। हिन्द महासागर के री यूनियन द्वीप पर कब्जा जमाये बैठे फ्रांस की उपस्थिति भी इस क्षेत्र के लिए खतरनाक थी। ब्रिटेन तो खैर अमेरिका के सहयोगी राष्ट्र के रूप में इस क्षेत्र में उपस्थित था ही।
शीतयुद्ध काल में महाशक्तियों के बीच चल रही सैनिक होड़ के कारण इस क्षेत्र की शांति भंग होने की संभावना को देखते हुए हिन्द महासागर के तटीय देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ में इस क्षेत्र को ‘शांति क्षेत्र’घोषित करने की मांग रखी। काफी वाद-विवाद के बाद 16 दिसंबर, 1971 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने हिंद महासागर को एक शांति क्षेत्र घोषित किया और सभी शक्तियों से इस क्षेत्र में अपने सैनिक शक्ति के विस्तार को रोकने की अपील की। वैसे उस समय दोनों गुट- अमेरिका और सोवियत संघ इस प्रस्ताव के विरोधी थे। 15 दिसंबर, 1972 को महासभा ने एक एड-हॉक (कार्यकारी) समिति 15 राष्ट्रों को शामिल करते हुए स्थापित किया, जो इस घोषणा के कार्यान्वयन की जांच पड़ताल करती। वर्ष 1990 तक, जब तक शीतयुद्ध समाप्त नहीं हो गया, यह समिति महाशक्तियों को अपने सैनिक विस्तार को कम करने के लिए मनाने में सफल नहीं हो सकी।
जब 1989-90 में सोवियत गणराज्य का बिखराव हुआ, तो यह आशा की गयी कि अब हिन्द महासागर भी शीत युद्धकालीन तनाव से मुक्त हो जायेगा। लेकिन अमेरिका के अडि़यल रुख के कारण हिंद महासागर के तटीय देशों के प्रयत्न से इस क्षेत्र को शांति क्षेत्र घोषित करने के सम्बन्ध में कार्यकारी समिति की जो बैठक कोलम्बो में 1988 में होनी थी, वह 1991 में ही सम्पन्न हो पायी। अमेरिका, फ्रांस एवं ब्रिटेन ने अपने आपको इस बैठक से अलग कर लिया था। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद यह आशा की जा रही थी कि अब अमेरिका अपना सैनिक प्रभाव इस क्षेत्र से कम करेगा, मगर ऐसा होता नहीं दिख रहा है। 1993 में उसने अपने सातवें बेडे़ को फिलिपीन्स से हटा कर सिंगापुर में स्थापित कर लिया तथा डिएगो गार्सिया में और भी आधुनिक हथियारों को स्थापित किया।
भारत, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, मॉरीशस तथ्य अन्य सभी हिंद महासागर तटीय देशों ने बराबर यह मांग दुहरायी है कि अमेरिका अपने सैनिक अड्डों को हिन्द महासागर से हटाये और इस क्षेत्र को शांति क्षेत्र माने, मगर अमेरिका ने इस पर अभी तक ध्यान नहीं दिया है।
वर्ष 1993 में दक्षिण अफ्रीका द्वारा एक अलग तरह का प्रस्ताव रखा गया, जिसमें यह कहा गया था कि अभी तक हिन्द महासागर के तटीय देशों का कोई अपना क्षेत्रीय संगठन नहीं है, अगर एक क्षेत्रीय आर्थिक संगठन बन जाये, तो इस क्षेत्र के आर्थिक विकास की प्रक्रिया को गति मिलेगी। साथ ही, इस क्षेत्र के देशों के बीच बढ़ते आपसी सहयोग से इस क्षेत्र में शांति स्थापना की प्रक्रिया को भी काफी मदद मिलेगी। मॉरीशस में कई दौर की बातचीत के बाद हिन्द महासागर के 14 तटीय देशों- भारत, श्रीलंका, मॉरीशस, मोजाम्बिक, केन्या, तंजानिया, ओमान, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया एवं यमन ने हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन (हिमतक्षेस) का गठन 7 मार्च, 1997 को मॉरीशस की राजधानी पोर्टलुई में किया। इस संगठन का उद्देश्य जहां इस क्षेत्र के आर्थिक-सामाजिक विकास के लिए आपसी सहयोग बढ़ाना है, वहीं सहयोग के वातावरण को और भी मजबूत बनाना है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों का मानना है कि इस तरह के क्षेत्रीय सहयोग संगठन बनाने से हिन्द महासागर के तटीय देशों के बीच सहयोग का वातावरण पैदा होगा और ये सहयोग आने वाले दिनों में इस क्षेत्र को शांति क्षेत्र बनाने के प्रयास में एकजुटता प्रदर्शित करने के समय काम आयेगा।
हिन्द महासागर क्षेत्र को शांति क्षेत्र बनाने के लिए इसके तटीय देशों ने आपस में यह बात पहले ही स्वीकार कर ली है कि वे इस क्षेत्र की शांति को भंग करने वाला कोई भी कार्य नहीं करेंगे। इस परिप्रेक्ष्य में यह आशा करनी चाहिए कि आने वाले दिनों में अमेरिका जैसी महाशक्तियां भी इस क्षेत्र के देशों की मांग को समझते हुए इस क्षेत्र से अपने सैनिक प्रभाव को हटा लेगी।
Question : आज के संदर्भ में फिलीस्तीन-इजरायली संघर्ष
(1998)
Answer : 23 अक्टूबर, 1998 को संयुक्त राज्य अमेरिका में इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, फिलीस्तीनी नेता यासर अराफत तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते ने पश्चिमी एशिया में शान्ति की प्रक्रिया को नष्ट होने से बचा लिया तथा उसमें नवजीवन का संचार किया। समझौते तक पहुंचने के लिए जो वार्ता चली, उसमें अनेक उतार-चढ़ाव आये।
शान्ति के बदले जमीन (land for peace) के नाम से जाना जाने वाले इस समझौते ने पश्चिम तट की क्षेत्रीय व्यवस्था में परिवर्तन किया है। अभी तक पश्चिमी तट के भू-भाग का 3 प्रतिशत फिलीस्तीनियों के पूर्ण अधिकार में है तथा 24 प्रतिशत भू-भाग में वह प्रशासन तथा पुलिस कार्य का अधिकार रखते हैं, किन्तु पूरी सुरक्षा की देखभाल इजरायल के हाथ में है। नयी व्यवस्था के अनुसार, इजरायल अपने पूर्ण नियंत्रण वाले 73 प्रतिशत क्षेत्र में से 1 प्रतिशत क्षेत्र फिलीस्तीनियों के पूर्ण अधिकार में हस्तान्तरित कर देगा। साथ ही, आंशिक नियंत्रण वाले 24 प्रतिशत क्षेत्र का 14.2 प्रतिशत भी पूर्ण अधिकार के क्षेत्र में बदल जायेगा। इस तरह अब फिलीस्तीन राज्य में 18.2 प्रतिशत भाग उनके पूर्ण आधिपत्य का क्षेत्र होगा। पश्चिम तट पर इजरायल के पूर्ण नियंत्रण वाले क्षेत्र का 12 प्रतिशत भाग आरंभिक नियंत्रण के क्षेत्र में चला जायेगा। इस तरह यह क्षेत्र 21.8 प्रतिशत हो जायेगा।
क्षेत्र के हस्तांतरण की यह प्रक्रिया 12 सप्ताह में पूर्ण होगी। इस प्रक्रिया को बनाये रखने के लिए फिलीस्तीनी शासन को आतंकवाद को रोकने के लिए चरणबद्ध रूप में ठोस कार्यवाही करनी होगी। फिलीस्तीन को इजरायल के विरुद्ध शत्रु की भावना त्यागनी होगी। दिसंबर 1998 में पारित एक संशोधन द्वारा फिलीस्तीन संविधान से यह बात हटा दिया गया कि इजरायल को मिटा देना उनका राष्ट्रीय लक्ष्य है। समझौते द्वारा इजरायल अपने यहां कैद 3000 फिलीस्तीनी बन्दियों में से 750 को छोड़ने के लिए तैयार हो गया है। यह समझौता द्विपक्षीय न होकर त्रिपक्षीय है, जिसमें इजरायल, फिलीस्तीनी और संयुक्त राज्य अमेरिका पक्षकार हैं। इसलिए अमेरिका की यह जिम्मेदारी है कि वह इस समझौते का पालन करवाये।
Question : सार्क (SAARC) की रचना के प्रेरक तत्वों को बताइए। क्या वह क्षेत्रीय एकीकरण हेतु प्रभावशाली भूमिका सम्पन्न करने में समर्थ है? अपने उत्तर की पुष्टि सार्क द्वारा अब तक की गयी पहल के संदर्भ में कीजिये।
(1998)
Answer : अनेक बातों ने दक्षिण एशिया के देशों को सहकारिता की वांछनीयता के संदर्भ में आश्वस्त किया है। पहली बात तो यह है कि दक्षिण एशिया के देशों के बीच बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा ने विदेशी शक्तियों को दक्षिण एशिया के मामलों में हस्तक्षेप करने को प्रोत्साहित किया है। उदाहरण के लिए अमेरिका का मामला लें, जो कि भारत और अफगानिस्तान के साथ अपनी शत्रुता के कारण, पाकिस्तान में हस्तक्षेप कर सका है। इसी प्रकार सोवियत संघ और चीन विभिन्न देशों के बीच झगड़ों के कारण इस क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सके हैं। दूसरी बात यह है कि इस क्षेत्र के देश, आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं और वे यह मानते हैं कि विकसित देशों की तुलना में वे अपनी सौदाकारी शक्तियों में तभी सुधार ला सकते हैं, जब वे परस्पर सहयोग के जरिये आत्मनिर्भर बन जायें।
तीसरी बात यह है कि पारिस्थितिक कारणों से देशों के बीच अपेक्षतया अधिक सहयोग की आवश्यकता है। अनेक ऐसी समस्याएं हैं, जिन्हें इस क्षेत्र का कोई भी देश, अपने ही बलबूते पर हल नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश में बहने वाले ज्वारीय जल के कारण वहां की मिट्टी के खारेपन की समस्या तभी हल हो सकती है जब भारत गंगा नदी की जल आपूर्ति में वृद्धि करने पर सहमत हो जाये। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश और बिहार की बाढ़ तथा भूक्षरण की समस्या, वनोन्मूलन तथा पूर्व की ओर बहने वाली नदियों को काम में लाने की समस्या के साथ, गहरे रूप से जुड़ी हुई है।
अन्तिम बात यह है कि संभवतः, संसार में दक्षिण एशिया ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जहां क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए कोई तंत्र मौजूद नहीं है। क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने की दिशा में दक्षिण अमेरिका के अमेरिकी राज्य संगठन, अफ्रीकी एकता संगठन, अरब लीग तथा आसियान ने प्रशंसनीय कार्य किया है। तथापि कई मुद्दों पर दृष्टिकोण में एकरूपता रखते हुए और उपनिवेशवाद के दौरान ऐतिहासिक शोषण के बराबर के हिस्सेदार होने के बावजूद दक्षिण एशिया के देश समान समस्याओं से जूझने के लिए अभी तक संगठित नहीं हो सके हैं।
किसी भी क्षेत्रीय संगठन की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके सदस्य राज्यों के बीच कितनी राजनैतिक सूझबूझ है। इसके अतिरिक्त सदस्य राज्यों के बीच काफी निचले स्तर पर राजनैतिक विरोध कदापि नहीं होना चाहिये। ऐसे राजनैतिक विरोध से क्षेत्रीय सहयोग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। तथापि दक्षिण एशिया में राजनैतिक विरोध उच्च स्तर पर है। उदाहरण के लिए, श्रीलंका की तमिल समस्या ने भारत-श्रीलंका संबंधों पर काफी प्रभाव डाला हुआ है। इसी प्रकार पंजाब में आतंकवाद, परमाणु समस्या तथा सियाचीन मुद्दे पर पाकिस्तान के असहयोगी रुख से भारत-पाकिस्तान संबंधों को गहरी क्षति पहुंची है। इतने ऊंचे स्तर पर राजनैतिक विरोध का परिणाम यह है कि सार्क संगठन के भीतर क्षेत्रीय सहयोग केवल बाह्य क्षेत्रों में ही हो सकता है।
तकनीकी तथा आधारभूत सुविधाओं जैसे तत्वों ने भी सार्क की प्रभावोत्पादकता को बाधित किया है। दक्षिण एशियाई देशों के औपनिवेशिक नियंत्रण की परंपरा तथा विकसित पश्चिमी देशों के साथ उनके सतत संबंधों के कारण, संदेह तथा विद्वेष उत्पन्न हुआ है। इन संबंधों से मुक्ति पाना आसान नहीं है, क्योंकि संबंधित विकसित देश यह नहीं चाहेंगे कि इस प्रकार के संबंधों से अर्जित लाभ समाप्त हो जाये, क्योंकि इन लाभों की समाप्ति का परिणाम यह होगा कि उक्त देश आर्थिक रूप से कमजोर पड़ जायेंगे।
इस क्षेत्र में भारत तथा अन्य देशों के बीच शक्ति संबंधी असमानता ने इस क्षेत्र के देशों के बीच सहयोग की दिशा में हुई प्रगति पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव डाला है। भारत के विशाल आकार, उसके प्राकृतिक संसाधनों के वैविध्य, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अधिक उन्नति और उसके फलस्वरूप भारत के अपेक्षतया अधिक वैविध्यपूर्ण औद्योगिक आधार तथा उन्नत रक्षात्मक क्षमता आदि के कारण उसके निकटवर्ती देश आशंकित हो गये हैं कि कहीं भारत उन पर हावी हो जाये।
उपर्युक्त बाधक तत्वों का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिये कि सार्क का कोई भविष्य ही नहीं है। जैसा कि श्री पी.एन. हक्सर ने आग्रहपूर्वक कहा है, ‘हमें अवश्य ही दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग की संभावनाओं का पता लगाना चाहिये और उसे बढ़ावा देना चाहिये। यह जरूरी है कि इस पर गुप्त सिद्धांतों का आधिपत्य न हो। यह जरुरी है कि सहयोग की यह भावना प्रत्येक सरकार के इस अहसास के साथ उत्पन्न और विकसित हो कि सहयोग की आवश्यकता इस समूचे क्षेत्र की शांति, सुरक्षा और विकास जैसे महान हितों की पूर्ति के लिए है। यह जरुरी है कि इसके प्रति संबंधित लोगों में उत्साह हो।’
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यद्यपि फिलहाल यूरोपीय (आर्थिक) संघ तथा आसियान की तुलना में दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग बहुत पिछड़ा हुआ है। फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सार्क की स्थापना से इस दिशा में एक छोटी सी शुरुआत तो हो ही गयी है। दक्षिण एशिया के देश अपने यहां के लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के बहुत इच्छुक हैं। गहराते हुए विश्व आर्थिक संकट से भी दक्षिण एशिया के देशों में सहयोग की भावना को बल मिलने की संभावना है। दक्षिण एशिया के देश यह स्वीकार करने लगे हैं कि अपने ज्ञान और अनुभव का एकत्रीकरण उनके परस्पर हित में है।
Question : भारत तथा बांग्लादेश के बीच विवादग्रस्त विषय
(1998)
Answer : भारत और बांग्लादेश के बीच बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद से बराबर अच्छे संबंध रहे हैं, क्योंकि बांग्लादेश के एक राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने के पीछे भारत की बहुत बड़ी भूमिका थी। दोनों के बीच आर्थिक, सांस्कश्तिक, सामाजिक एवं वैज्ञानिक क्षेत्र में काफी प्रगाढ़ सम्बन्ध रहे हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि कुछ मामलों पर उत्पन्न हुए विवाद के कारण दोनों राष्ट्रों के सम्बन्धों में खटास भी बने रहे हैं। ऐसे विवादग्रस्त विषय हैं- सीमा पर झगड़े, फरक्का बैराज पर विवाद, मूर द्वीप पर विवाद, बांग्लादेश से अल्पसंख्यकों और लोगों की बड़ी संख्या में भारत आना तथा आर्थिक क्षेत्र में विवाद। सीमा पर झगड़े की घटना गारो पर्वत क्षेत्र में होती थी। इसको काफी पहले ही सीमा निर्धारण कर हल कर लिया गया। तीन बीघा जमीन भारत के अधिकार क्षेत्र में था, लेकिन बांग्लादेश के हिस्सों के बीच में पड़ता था बांग्लादेश बराबर इस जमीन को भारत से मांगता रहा। अंततः 1997 में भारत सरकार ने इस जमीन को बांग्लादेश को लीज पर देने का निर्णय लेकर, इस समस्या का हल कर दिया।
फरक्का बैराज अर्थात् गंगा जल बंटवारे से संबंधित विवाद को भी दोनों देशों ने 12 दिसम्बर, 1996 को हुए ऐतिहासिक समझौता द्वारा हल कर दिया है। इसके अनुसार, 1 मार्च से 10 मई के बीच की अवधि में, जबकि गंगा में सबसे कम पानी होता है दोनों देश दस-दस दिन के अंतराल पर बारी-बारी से 35 हजार क्यूसेक पानी गारंटी के साथ हासिल करेंगे। समझौते के अनुसार, यदि गंगा में पानी की मात्र 70 हजार क्यूसेक या इससे कम रहती है, तो दोनों, देश पानी का आधा-आधा बंटवारा करेंगे। समझौते की बराबर समीक्षा किये जाने की भी व्यवस्था की गयी है।
बांग्लादेश की चटगांव पहाडि़यों से जबरन मार कर भगाये गये चकमा जाति के लोगों का भारत से पुनः बांग्लादेश वापस जाने से संबंधित ऐतिहासिक समझौते पर 9 मार्च, 1997 को अगरतला में हस्ताक्षर किये गये। चकमा जाति के लोगों का पहला जत्था 28 मार्च, 1997 को स्वदेश रवाना हुआ। इस तरह इस विवाद का हल भी तलाश लिया गया।
आर्थिक क्षेत्र के विवाद को भारत द्वारा बांग्लादेश को कलकत्ता एवं भारत के पश्चिमी क्षेत्र बंदरगाहों के इस्तेमाल की छूट देकर, बांग्लादेश द्वारा भारत को चटगांव बंदरगाह के इस्तेमाल की छूट देकर तथा दक्षेस वरीयता व्यापार संधि के तहत एक दूसरे को वरीयता देने का निर्णय कर हल कर लिया गया।
अब दोनों देश बांग्लादेश से भारत आकर बसे लोगों को पुनः वापस बांग्लादेश जाने से संबंधित समझौता करने के प्रयास में भी लगे हैं। साथ ही, मूर द्वीप से संबंधित विवाद को भी हल करने का प्रयास किया जा रहा है।
Question : आज के परिप्रेक्ष्य में भारत की विदेश नीति का पाकिस्तान तथा चीन के विशेष संदर्भ में मूल्यांकन कीजिये।
(1998)
Answer : गुटनिरपेक्षता, साम्राज्यवाद का विरोध, अनाक्रमण, पंचशील आधारित विदेशी नीति, रंगभेद का विरोध आदि ऐसे तथ्य हैं, जो भारतीय विदेश नीति हमेशा ही मजबूत आधार रहे हैं और अभी भी हैं। लेकिन समय और परिस्थितियों की मांग के अनुसार भारतीय विदेश नीति में भी बदलाव आता रहा है और यह बदलाव आज के परिप्रेक्ष्य में तो और भी स्पष्ट रूप ग्रहण कर चुका है। सर्वप्रथम, यह जानना होगा कि आज ऐसी कौन-सी परिस्थितियां हैं, जो भारत की विदेश नीति को प्रभावित कर रही हैं। इन परिस्थितियों को निम्नलिखित रूप से रखा जा सकता हैः
उपर्युक्त वर्णित वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि आज भारतीय विदेश नीति एक ऐसे चौराहे पर खड़ी है, जहां उसे ऐसी नीति अपनाने की जरूरत है, जो सही मायने में विदेश नीति होती है। आज ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत का साथ देने वाला महाशक्ति, सोवियत संघ खुद बिखर चुका है और इसका उत्तराधिकारी, रूस खुद अमेरिका के रहमोकरम पर चल रहा है। एसी स्थिति में, उससे यह आशा रखना कि वह अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की मदद कर पायेगा, गलत होगा। वैसे भारत द्वारा परमाणु विस्फोट के वक्त या कश्मीर मामले पर या फिर व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर भारत द्वारा हस्ताक्षर न करने पर रूस द्वारा किया गया प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सम्बन्ध इस तथ्य को दर्शाता है कि रूस अब भी भारत का एक घनिष्ठ मित्र है। आज अमेरिका एक अकेला महाशक्ति है, यह एक अकाट्य सत्य है, इसलिए भारतीय विदेश नीति में बदलाव के लक्षण साफ दिखायी दे रहे हैं। सीटीबीटी, एनपीटी, कश्मीर एवं भारत द्वारा परमाणु विस्फोट के बाद अमेरिका द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों के बावजूद भारत अमेरिका से अपने सम्बन्धों को प्रगाढ़ बनाने के लिए प्रयत्न कर रहा है। अमेरिका भी भारत की आर्थिक शक्ति को समझते हुए भारत से अपना सम्बन्ध सुधारने का प्रयास कर रहा है। लेकिन अमेरिका ने एक दोहरी नीति अपना ली है। उसकी चाल यह है कि एक तरफ तो भारत से सम्बन्ध सुधारा जाये, साथ ही पाकिस्तान एवं चीन से भी सम्बन्ध बेहतर रखकर भारत पर एक दबाव बनाये रखा जाये। इस बात के प्रमाणस्वरूप यह कहा जा सकता है कि अमेरिका को इस बात की जानकारी है कि चीन पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम में मदद कर रहा है, मगर उसने चीन से न सिर्फ अपने संबंध ही मधुर बनाये रखे हैं, बल्कि चीन को दक्षिण एशिया के मामले में तरजीह देकर दक्षिण एशिया के शक्ति संतुलन को प्रभावित करने का प्रयास किया है, जो दक्षिण एशिया की शांति के लिए अशुभ संकेत है। अमेरिका, पाकिस्तान का इस्तेमाल भारत पर दबाव बनाये रखने और मध्य एशिया में अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए करना चाहता है।
भारत के लिए पाकिस्तान एवं चीन का बड़ा ही महत्त्व है, क्योंकि दोनों राष्ट्र भारत के प्रति विरोधी रवैया अपनाये हुए हैं तथा दोनों ही राष्ट्र अब परमाणु क्षमता प्राप्त राष्ट्र बन चुके हैं। अपना पक्ष रखने के लिए सभी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जहां भारत को सजग रहना पड़ रहा है, वहीं विश्व के अधिक से अधिक देशों से अपना सम्बन्ध सुधारने का प्रयास तेज करना पड़ा है। हाल के दिनों में भारत के प्रमुख नेताओं द्वारा विश्व के कई देशों का दौरा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया।
भारत के लिए पाकिस्तान द्वारा खड़े किये जा रहे समस्याओं की गहनता तब और भी बढ़ जाती है, जब यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान को उसके भारत विरोधी कार्यों में चीन के साथ-साथ अन्य इस्लामिक राष्ट्रों का समर्थन भी प्राप्त है। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद भारत की विदेशी नीति का एक उद्देश्य यह भी था कि चीन से अपने संबंधों को हर क्षेत्र में प्रगाढ़ किया जाये। भारत ने चीन और अमेरिका के बीच के तनाव का फायदा उठा कर रूस और चीन के साथ एक राजनीतिक गठबंधन बनाने तक का प्रयास किया था। इस प्रयास को अपने तरफ से चीन और रूस ने भी शुरू किया था, मगर चीन का लक्ष्य इस प्रस्तावित गठबंधन का डर दिखा कर अमेरिका से अधिक से अधिक सहूलियत प्राप्त करने की थी और ऐसा चीन ने किया भी। चीन, अमेरिका से अपने संबंध को और भी मजबूत बनाता गया और दूसरी तरफ पाकिस्तान को भी भारत विरोध के लिए उकसाता गया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चीन कभी भी भारत का अच्छा दोस्त नहीं हो सकता, क्योंकि चीन कभी भी नहीं चाहेगा कि भारत आने वाले दिनों में एक महाशक्ति बन कर उभरे। चीन, भारत को आने वाले दिनों में अपने विरोधी राष्ट्र के रूप में देखता है, क्योंकि भारत की जनसंख्या शक्ति, स्थिति, आर्थिक, सामरिक एवं वैज्ञानिक प्रगति चीन के बराबर तो नहीं है, मगर आने वाले दिनों में वह बराबर हो जाने की क्षमता रखती है। इसलिए चीन यह कभी भी नहीं चाहेगा कि उसके पड़ोस में ही एक और महाशक्ति उत्पन्न हो।
चीन और पाकिस्तान के विरोधी रवैये और अमेरिका की दोहरी नीति का सामना करते हुए भारत को अपने आर्थिक विकास हेतु तथा संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् में स्थान बनाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। ऐसी स्थिति में भारत अपने पड़ोसी देशों- बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव, म्यांमार आदि एवं हिन्द महासागर के तटीय देशों, विशेषकर दक्षिण अफ्रीका एवं अन्य अफ्रीकी देशों, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों तथा ऑस्ट्रेलिया आदि से अपने सम्बन्ध को हर क्षेत्र में मजबूत बनाने के प्रयास में लगा है। दक्षेस को अधिक क्रियाशील बनाने का प्रयास करना; बांग्लादेश, नेपाल एवं भूटान के साथ उप-दक्षेस व्यवस्था शुरू करना; बांग्लादेश, श्रीलंका, थाईलैंड एवं म्यांमार के साथ बिमस्टेक संगठन (1997 में) स्थापित करना; हिन्द महासागर के तटीय देशों के साथ मिलकर 7 मार्च, 1997 को ‘हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन’(हिमतक्षेस) को स्थापित करना; दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन ‘आसियान’एवं ‘आसियान क्षेत्रीय फोरम’का पूर्ण वार्ता भागीदार बनकर भारत ने मित्र राष्ट्रों का दायरा बढ़ाने का प्रयास किया है। भारत, जापान, दक्षिण कोरिया एवं यूरोप के विकसित राष्ट्रों के साथ अपने आर्थिक सम्बन्धों को एक नयी दिशा प्रदान करने के लिए अथक प्रयास में लगा हुआ है। भारतीय विदेश मंत्रालय का मानना है कि भारत के आर्थिक विकास, सुरक्षा परिषद् में स्थान प्राप्ति एवं कश्मीर के मुद्दे पर मदद प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि भारत विकासशील एवं गुटनिरपेक्ष देशों के साथ अपने सम्बन्धों पर विशेष रूप से ध्यान दे। भारत इस दिशा में अपने कदम उठाते हुए अधिकांश विकासशील एवं गुटनिरपेक्ष देशों से आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक एवं अन्य संबंधों को मजबूत बनाने की दिशा में प्रयत्नशील है।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यक्रमों में अपना पूरा सहयोग देकर, विश्व व्यापार संगठन के नियमों को स्वीकार करके, समूह-15 एवं राष्ट्रमंडल जैसे संगठनों में पूरे उत्साह से भाग लेकर अपने आपको विश्वधारा में स्थापित करने का पूरा प्रयास किया है। सोमालिया, युगोस्लाविया, रवांडा आदि में चल रहे गृहयुद्ध को रोकने में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किये जा रहे प्रयासों को अपना पूरा सहयोग देकर भारतीय विदेश नीति ने शांति स्थापना के अपने आदर्श को पूरा करने का प्रयास किया है। इराक पर अमेरिकी आक्रमण का विरोध कर, सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने के मुद्दे पर किसी भी दबाव के आगे न झुक कर परमाणु बमों का विस्फोट कर तथा अमेरिकी प्रतिबंधों से बगैर घबराये हुए भारत ने यह प्रदर्शित कर दिया है कि वह अपने राष्ट्रीय हित के लिए किसी के भी आगे नहीं झुकेगी। परमाणु बम विस्फोट करने एवं सीटीबीटी पर हस्ताक्षर नहीं करने के पीछे निहितार्थ का खुलासा कर भारत ने अपनी विदेश नीति को पुख्ता करने का भरसक प्रयास किया है।
Question : प्रभावी सरकार: राष्ट्र शक्ति का एक स्रोत
(1997)
Answer : सिर्फ खनिज एवं मानव संसाधनों की उपस्थिति से राष्ट्र शक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती, जब तक कि ऐसी कोई सत्ता या संस्था न हो, जो मानव प्रयत्नों को सही दिशा में संचालित एवं समन्वय करे। ऐसी संस्था किसी देश की सरकार होती है। अगर सरकार उचित प्रकार से संगठित, कार्यकुशल और प्रभावी न हो, तो राष्ट्र शक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यह सरकार का कार्य होता है कि वह व्यक्तियों और खनिज संसाधनों में समन्वय स्थापित करे और शक्ति की प्राप्ति कर राष्ट्रीय हित की पूर्ति करे।
राष्ट्र शक्ति में इस कारक के महत्त्व को प्रमाणित करने वाले कई उदाहरण हैं। कई दशकों तक अन्य कारकों के साथ-साथ केन्द्रीय सत्ता के अप्रभावी होने तथा कई क्षेत्रों पर केन्द्रीय सत्ता के प्रभावी नियन्त्रण के अभाव के कारण, चीन एक कमजोर राष्ट्र बना रहा। समान स्थिति फ्रांस के साथ भी रही। 1958 में फ्रांस में दी गुले द्वारा शासन सम्हालने से पहले तक फ्रांस, कई दशकों तक कई राजनीतिक दलों में विभाजित देश था। इसने न सिर्फ केन्द्रीय सत्ता को दुर्बल ही बनाया था, बल्कि फ्रांस को राजनीतिक रूप से एक कमजोर राष्ट्र भी बना दिया था।
यह एक विवाद का विषय है कि राष्ट्र शक्ति की प्राप्ति में प्रजातन्त्र अधिक प्रभावी होता है या अधिनायक तंत्र। कई बार प्रजातान्त्रिक सरकार, अधिनायक तंत्र से अधिक प्रभावी ढंग से कार्य करती है और कई बार अधिनायक तंत्र अधिक प्रभावी होता है। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के समय सिर्फ सोवियत संघ को छोड़कर लगभग सभी प्रजातांत्रिक देशों ने अच्छा कार्य किया था। आज भी यह कहना काफी कठिन है कि किस तरह की शासन व्यवस्था अधिक प्रभावी होती है। पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि एक प्रभावी, कार्यकुशल और संगठित सरकार राष्ट्र शक्ति का एक अति महत्त्वपूर्ण कारक है।
Question : 1991 का मैड्रिड में संपन्न पश्चिम एशिया शांति सम्मेलन
(1997)
Answer : विश्व भर के कई लोग 1991 के मैड्रिड सम्मेलन को अलाभकारी और यहां तक कि समय की बर्बादी की संज्ञा देते हैं। लेकिन इस सम्मेलन की इसके कुछ कार्यों के कारण प्रशंसा की जानी चाहिए। अमेरिकी सचिव श्री जेम्स बेकर जिस धीरज और कूटनीति से कार्य किये वे बेकार नहीं गये। उन्होंने दोनों विरोधी पक्षों, इजरायल और अरब देशों के समूह को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि पश्चिम एशिया में शांति के लिए एक सम्मेलन बुलाया जाये। तथ्य यह है कि ऐसा सम्मेलन हुआ था और पश्चिम एशिया की शांति के लिए इजरायल और अरब देशों ने इसमें हिस्सा भी लिया था, जिसे आलोचक इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। दोनों पक्ष मैड्रिड सम्मेलन के द्वितीय स्तर के रूप में वाशिंगटन में मिलने को राजी हो गये था, यह इस सम्मेलन की दूसरी बड़ी उपलब्धि थी। कई हफ्रतों तक दोनों पक्ष दूसरे सम्मेलन के लिए स्थल के चुनाव पर एक मत नहीं हो सके थे, अंततः आपसी सहमति से वाशिंगटन को सम्मेलन स्थल के रूप में चुना गया था।
अरब देशों ने मैड्रिड सम्मेलन में इजरायल द्वारा 1948 और 1967 के युद्ध में हड़पी गयी भूमि की वापसी की मांग के साथ हिस्सा लिया था। इजरायल की मांग शांति की स्थापना थी और फिलिस्तीन, अपनी वर्षों पुरानी मांग, फिलिस्तीनियों के लिए एक अपना राज्य, के साथ सम्मेलन में शरीक हुआ था। वैसे इनमें से कोई भी मांग इस सम्मेलन में पूरी नहीं हो सकी, मगर इस बात की सम्भावना बनी की पश्चिम एशिया में शांति जरूर स्थापित होगी, भले ही धीरे-धीरे और एक लम्बे समय में। यह मैड्रिड सम्मेलन की बहुत बड़ी उपलब्धि थी।Question : ‘रूसी-चीनी संबंधों के विच्छेद का मूल कारण उनका राष्ट्रीय हित-साधन था, वैचारिक मतभेद नहीं।’इस वक्तव्य की मीमांसा करते हुए भारत पर उसके प्रभाव को दिग्दर्शित कीजिये।
(1997)
Answer : आरंभिक वर्षों के दौरान साम्यवादी चीन का सोवियत संघ के साथ बहुत ही मधुर सम्बन्ध था। फरवरी 1950 में दोनों देशों ने ‘सहयोग एवं पारस्परिक अनुदान’से संबंधित संधि पर हस्ताक्षर किया था। इस संधि के अनुसार दोनों देश, जापान या जापान द्वारा सहायताप्राप्त किसी देश के आक्रमण के समय, एक दूसरे की सहायता करने को राजी हुए थे। इस संधि ने दोनों देशों के बीच आर्थिक एवं सांस्कृतिक बन्धन की शुरुआत की नींव भी रखी थी। सोवियत संघ ने सुदूर-पूर्व में चीन को बहुत-सी छूटें प्रदान करने के साथ-साथ 300 मिलियन डॉलर का ऋण भी दिया था।
इस तरह आरंभिक वर्षों में सोवियत संघ ने चीन के उद्योगों और सेना के आधुनिकीकरण में काफी मदद की थी। लेकिन चूंकि चीन, दक्षिण-पूर्वी एशियाई क्षेत्र में अपनी प्रभुता स्थापित करना चाहता था और अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपनाना चाहता था। इससे सोवियत संघ और चीन के बीच मतभेद की शुरुआत हुई। हालांकि, चीन ने इस मतभेद को वैचारिक मतभेद का रूप देने का प्रयास किया। चीन ने सोवियत संघ पर यह आरोप लगाया कि वह मार्क्स और लेनिन की नीतियों से हट गया है और सिर्फ चीन ही की नीतियों का पालन कर रहा है। अतः दोनों देशों के बीच अन्य साम्यवादी देशों को अपनी तरफ करने की होड़ आरंभ हो गयी। उसके बाद चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया एवं अफ्रीका से सोवियत संघ के प्रभाव को कम करने में सफल रहा।
चीन-सोवियत संबंधों में नये तनाव की शुरुआत, चीन द्वारा अमेरिका से संबंध सुधारने के प्रयास के कारण हुई। सोवियत नेतृत्व ने चीन के इस प्रयास को सोवियत संघ के प्रभाव को कम करने के प्रयास के रूप में देखा। इसके अलावा दोनों देशों के बीच निरंतर चलने वाले सीमा विवादों ने उनके बीच के सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये रखा। लेकिन दोनों देशों के नेता इस बात का प्रयास करते रहे कि उनके बीच संबंध सुधर सकें और सीमा विवाद का कोई उचित हल निकल सके। हालांकि वे अपने इस प्रयास में 1995 के पहले तक सफल नहीं हो सके थे।
वर्ष 1958, रूस (सोवियत संघ) और चीन के बीच के तनाव का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वर्ष था। इस दिशा में पहला कदम, रूस के निर्देशों की अवहेलना कर चीन द्वारा तीव्र समाजवादी विकास के लिए नयी आर्थिक नीति को अपना कर उठाया गया। लेकिन यह विवाद अधिक नहीं बढ़ पाया और 1958 के फारमोसा विवाद के समय रूस ने चीन की सहायता की। लेकिन अगले तीन वर्षों में कई अन्य कारकों ने दोनों देशों के बीच के तनाव को बढ़ाने में काफी योगदान किया। ये कारण थे, चीन द्वारा अपनाई गयी आर्थिक नीति की असफलता, सोवियत रूस द्वारा अन्य अ-साम्यवादी देशों को अनुदान देना और वह भी चीन के मूल्य पर। इसके अलावा रूस द्वारा तिब्बत मामले पर दलाई लामा से सहानुभूति प्रदर्शित करना भी तनाव का एक अन्य कारण था। वर्ष 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अपनी आर्थिक समस्याओं के कारण रूस, अमेरिका से सहयोग बढ़ाने के लिए मजबूर था। रूस और अमेरिका के बीच बढ़ते इस निकटता को चीन ने अपने लिए एक खतरे के रूप में देखा। साथ ही इस शीतयुद्ध के बाद के काल में चीन, सोवियत संघ द्वारा खाली किये गये स्थान को एक महाशक्ति बन कर भरना चाहता था, जिसके कारण भी दोनों के बीच तनाव बढ़ा।
लेकिन वर्ष 1996-97 में चीन और रूस के बीच शक के युग का अंत हुआ। 1996-97 में रूस और चीन ने सीमा विवाद, परमाणु प्रौद्योगिकी विकास, सांस्कृतिक और आर्थिक सहयोग से सम्बन्धित कई समझौते किये हैं, जिसे उन्होंने ‘रणनीतिक सहयोग’का नाम दिया है, जो इस नयी विश्व व्यवस्था को एक बहुध्रुवीय विश्व बनाने की दिशा में उठाया गया एक कदम है।
रूस-चीन के बीच के तनाव, भारत के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। तनाव के दौर के दौरान रूस, भारत के अधिक निकट आ गया था और दोनों देशों ने परस्पर सहयोग के लिए कई समझौते किये थे। इस दौरान भारत का चीन से सम्बन्ध एक हद तक तनावपूर्ण रहा था। चीन, भारत को सोवियत-गुट के एक सदस्य के रूप में देखता था। चीन के इसी सोच ने जहां, उसे भारत पर 1962 में आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया, वहीं भारत के विरुद्ध पाकिस्तान की मदद करने को भी प्रोत्साहित किया। आज चीन, पाकिस्तान को उसके परमाणु कार्यक्रमों से लेकर प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रमों तक में मदद कर रहा है। रूस-चीन के बीच के विवाद ने भारतीय विदेश नीति की दिशा को भी प्रभावित किया था। भारत की सोवियत संघ की तरफ झुकाव वाली विदेश नीति शायद इसी का प्रतिफल थी।
Question : एन.आई.ई.ओ. के संवर्धन में तीसरी दुनिया के देशों की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
(1997)
Answer : 1970 के आरंभ से अंतर्राष्ट्रीय संबधों में आर्थिक विषयों ने प्रमुख स्थान ग्रहण करना आरंभ किया। इसी समय अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक नयी सोच और व्यवस्था की भी शुरुआत हुई। इसने शीतयुद्ध के वैचारिक मतभेदों को पीछे हटाकर अंतर्राष्ट्रीय पटल पर विकास और अविकास के आर्थिक विषयों को प्रमुख बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जहां एक तरफ सम्पूर्ण विश्व में आर्थिक चेतना की वृद्धि हुई, वहीं विकसित और अविकसित देशों के बीच उत्तर-दक्षिण के विवादों के युग की भी शुरुआत हुई। इसे नये अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के दायरे में आसानी से देखा जा सकता है। एन.आई.ई.ओ. की धारणा, इस उद्देश्य के साथ आरंभ हुई थी कि विश्व के देशों के बीच व्याप्त आर्थिक असमानता एवं शोषण को समाप्त किया जायेगा और अविकसित देशों पर विकसित देशों द्वारा नव-साम्राज्यवाद के तहत बढ़ाए जा रहे प्रभावों को कम किया जायेगा। यह अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को इस तरह बनाना चाहता कि विश्व के सभी देश आपसी सहयोग द्वारा विकास के लक्ष्य को जल्दी-से-जल्दी प्राप्त कर सकें। विश्व के सभी देशों के बीच आय और संसाधन का बराबर बंटवारा भी इसका एक उद्देश्य था।
एन.आई.ई.ओ. का आरंभ 1 मई, 1974 से माना जा सकता है, क्योंकि इसी दिन संयुक्त राष्ट्र महासभा के छठे विशेष बैठक में ‘नये अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था’की घोषणा को स्वीकार किया गया था। इसके बाद इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कई कदम उठाये गये। 1974 से पहले एन.आई.ई.ओ. मात्र एक सैद्धान्तिक धारणा थी, लेकिन अब यह एक कार्यशील रूप में सामने था। ‘घोषणा’ने ब्रेटनबुड के प्रस्ताव के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था से सभी तरह की असमानता एवं शोषण को समाप्त करने की घोषणा की।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस ‘घोषणा’को स्वीकार करने के पीछे तश्तीय विश्व के देशों द्वारा निरंतर पड़ने वाला दबाव था। एफ्रो-एशियन सम्मेलन, बानडुंग (1955) तथा बेलग्रेड (1961), कैरो (1964), लासेन (1970) और अल्जीरिया (1973) में सम्पन्न गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सम्मेलनों ने एन.आई.ई.ओ. के पक्ष में अंतर्राष्ट्रीय जनमत बनाने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तश्तीय विश्व के देशों के द्वारा लगातार की जा रही मांगों के परिणामस्वरूप ही संयुक्त राष्ट्र ने 9 अप्रैल से 2 मई, 1974 तक चले अपने छठे विशेष बैठक में एन.आई.ई.ओ. को स्वीकार किया। इसी समय पहली बार कच्चे संसाधन एवं विकास पर अंतर्राष्ट्रीय सहमति बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक बैठक आयोजित की, जिसमें अविकसित एवं कच्चे संसाधनों की आपूर्ति करने वाले तश्तीय विश्व के देशों ने पहली बार अपनी समस्याओं को पूरी मजबूती के साथ विश्व के सामने रखा और अपने हक की रक्षा की मांग की।
सितम्बर 1975 में सम्पन्न संयुक्त राष्ट्र महासभा की 7वीं विशेष बैठक बेहद ही उल्लेखनीय रही, क्योंकि इसमें पहली बार उत्तर के विकसित देश, दक्षिण के विकासशील देशों की समस्याओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाने को तैयार हुए। इसी समय विकासशील देशों के संगठन ‘समूह-77’ और विकसित देशों के बीच जो समझौता हुआ था, अगर उसे लागू कर दिया जाये, तो तृतीय विश्व के देशों को काफी लाभ हो सकता है।
तृतीय विश्व के देशों की मांग पर 25 अगस्त, 1980 को संयुक्त राष्ट्र की विशेष बैठक, विकसित देशों एवं तश्तीय विश्व के देशों के बीच सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य के साथ आहूत की गयी थी। इस बैठक में तश्तीय विश्व के देशों ने अधिक अनुदान, उनके 360 बिलियन डॉलर के कर्ज को माफ करने, अधिक स्वतंत्र व्यापार और कच्चे-पदार्थों के लिए निश्चित मूल्यों की मांग की। हालांकि, उनकी मांग, विकसित देशों पर कम ही प्रभाव डाल पाई और यह सम्मेलन बगैर किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंचे संपन्न हो गया। हां, यह बैठक 9 माह के वैश्विक वार्ता को आरंभ करने में जरूर सफल रही थी, जो जनवरी 1981 में शुरू हुई थी। इस वार्ता में वैश्विक स्तर पर अधिक स्वतंत्र एवं बराबर-स्तर के व्यापार और तश्तीय विश्व के देशों की सहायता करने के मसले को प्रमुख बनाया गया था।
1980 एवं 1990 के दशक में तश्तीय विश्व के देशों ने संयुक्त राष्ट्र एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए एन.आई.ई.ओ. को मजबूत बनाने का प्रयास किया है और उरूग्वे दौर की वार्ता के सफल समापन तथा विश्व व्यापार संगठन की स्थापना से, तश्तीय विश्व के देशों द्वारा आरंभ किये गये अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बहुकोणीय बनाने के सिद्धान्त को वैश्विक मान्यता मिल गयी है। यह आने वाले दिनों में तश्तीय विश्व के देशों द्वारा असमानता रहित एवं शोषण रहित एन.आई.ई.ओ. की स्थापना में काफी मददगार सिद्ध हो सकती है।
Question : भारत की अफ्रीका नीति का विश्लेषण प्रस्तुत कीजिये।
(1997)
Answer : भारत और अफ्रीका, दो ऐसे पड़ोसी हैं, जिन्हें मात्र सागर की लहरों ने दूर कर दिया है। यह भौगोलिक समीपता का ही परिणाम है कि भारत और अफ्रीका के लोग शताब्दियों से एक-दूसरे के बारे में जानते हैं और इसके प्रमाण उपलब्ध हैं कि 2000 वर्षों से दोनों पक्ष के लोग आपस में व्यापार की प्रक्रिया द्वारा काफी निकटता से जुड़े रहे हैं। प्रमाण इस बात के भी उपलब्ध हैं कि लगभग 7वीं शताब्दी में भारतीय व्यापारियों ने अफ्रीका के पूर्वी तट पर अपनी बस्ती स्थापित की थी और अफ्रीका से आये गुलामों ने बहादुर सैनिकों के रूप में सल्तनत एवं मुगल काल में भारतीय इतिहास में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
पुराने, ऐतिहासिक और मित्रवत् सम्बन्धों के कारण, भारत और अफ्रीका हमेशा एक-दूसरे के काफी करीब रहे हैं और आज भी दोनों पक्षों में काफी निकटता बनी हुई है। अफ्रीका के देशों में उपलब्ध अथाह संसाधन एवं अवसर, भारत को इन देशों के साथ तकनीकी सहयोग का सुनहरा अवसर उपलब्ध कराते हैं। साथ ही, अफ्रीकी देशों की संख्या किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संगठन में हमारे पक्ष को मजबूती प्रदान करने में काफी महत्त्वपूर्ण हो सकती है, विशेषकर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के विस्तार के समय।
भारत की अफ्रीका नीति के दो रूख हैं। प्रथम, उपनिवेशवाद एवं प्रजातीवाद के विरुद्ध निरंतर लड़ने में भारत की भूमिका और दूसरा, अफ्रीका के गुटनिरपेक्ष देशों से आर्थिक सहयोग द्वारा उसके खुद के कई समस्याओं का हल है।
हमारे द्वारा संयुक्त राष्ट्र, राष्ट्रमण्डल और गुटनिरपेक्ष मंच पर उपनिवेशवाद एवं प्रजातीवाद से त्रस्त लोगों की समस्याओं के हल के लिए निभायी गयी भूमिका का यहां उल्लेख करना जरूरी नहीं है। अब जबकि उपनिवेशवाद अतीत की बात बन गयी और दक्षिण अफ्रीका में स्थापित उपनिवेशवाद एवं प्रजातीवाद का अंतिम किला भी ढह गया है, ऐसी स्थिति में भारत सभी अफ्रीकी देशों को गैर-नृजातीय, गैर-प्रजातीय और अहिंसक आर्थिक एवं सामाजिक-विकास के लिए अपना पूरा समर्थन दे रहा है। भारत द्वारा रंगभेद नीति के विरुद्ध किये गये संघर्ष से सारी दुनिया वाकिफ है। हमने अपने सीमित संसाधनों से रंगभेद समाप्ति के लिए जो कार्य किया, वह अंतर्राष्ट्रीय प्रशंसा प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु अफ्रीकी लोगों के प्रति हमारी हार्दिक सहानुभूति का प्रतिफल था। आज भारत सभी अफ्रीकी देशों के समुचित आर्थिक विकास में अपना पूरा सहयोग दे रहा है।
साधारण शब्दों में, भारत अफ्रीकी देशों के साथ अपने व्यापारिक एवं आर्थिक सम्बन्धों को तीन स्तरों पर नियोजित करने का प्रयत्न कर रहा है। ये तीन स्तर हैं- संतुलित व्यापार, तकनीकी सहायता और संयुक्त उपक्रम। फलदायक सहयोग का आधार वस्तुओं और उत्पादों के विनिमय द्वारा स्थापित किया जा रहा है। दोनों पक्षों के बीच बढ़ते व्यापार एवं आर्थिक सहयोग भारत के प्रयासों का समर्थन करते हैं।
अफ्रीकी देशों से भारत का द्विपक्षीय व्यापार निरंतर बढ़ रहा है। भारत, अफ्रीकी देशों को अभियांत्रिकी वस्तुओं, रसायन एवं पेट्रोकैमिकल्स, खनिज जैसे- तांबा, कोबाल्ट, टीन और मैंगनीज तथा कपास, कोका, फ़ास्फेट एवं खाद्य तेल का बड़ी मात्र में निर्यात करता है। वैसे व्यापार संतुलन हमेशा भारत के पक्ष में रहा है। भारत, अफ्रीकी देशों को उनके आयात जरूरतों की पूर्ति के लिए लम्बे समय का ऋण हमेशा उपलब्ध कराता रहा है।
भारत विश्वास करता है कि विकासशील देश अपने आर्थिक विकास के लिए हर क्षेत्र में परस्पर सहयोग बढ़ायें, मात्र व्यापारिक संबंध ही नहीं। भारत द्वारा अफ्रीकी देशों के सामाजिक विकास के लिए प्रदान की गयी तकनीकी सहायता का अफ्रीकी देशों ने दिल से स्वागत किया गया है।
ऐसे चार कार्यक्रम हैं, जिनके अन्तर्गत भारत द्वारा अफ्रीकी देशों को तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। ये हैं- कोलम्बो योजना, विशेष राष्ट्रमण्डल अफ्रीकी सहायता योजना (SCAP), भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग कार्यक्रम (IICE) और एकपक्षीय योजनाएं, जिनके अंतर्गत भारत के मेडिकल, इंजिनियरिंग और अन्य तकनीकी संस्थानों में अफ्रीकी छात्रों के लिए स्थान आरक्षित किये गये हैं। आर्थिक सहयोग का एक अन्य रूप जो अफ्रीकी लोगों को बेहद आकर्षित कर रहा है, वह है भारत द्वारा उपलब्ध करायी गयी तकनीकी सर्वेक्षण एवं परामर्श सेवाएं। भारत का प्रस्ताव संसाधनों की खोज, हाइड्रो-इलेक्ट्रिक संयंत्रों, रेलवे का आधुनिकीकरण एवं विस्तार, पेट्रोकैमिकल्स और इस्पात उद्योगों के सर्वेक्षण से सम्बन्धित है। लघु स्तरीय उद्योगों से लेकर विशिष्ट तकनीक तक भारत, अफ्रीकी देशों को उपलब्ध करा रहा है।
उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि भारत की इच्छा मित्र अफ्रीकी राष्ट्रों के विकास में सहयोगी दोस्त बनने की है। हमारा उद्देश्य यह है कि हमारे अनुभवों, जिसे सारी विश्व में मान्यता प्राप्त है, का फायदा अफ्रीकी देशों को हो सके। हमारे पास साधन कम हैं, लेकिन आर्थिक सहयोग और परस्पर निर्भरता भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के मौलिक आधार रहे हैं। ऐसा परस्पर सम्बन्ध न सिर्फ किसी भी तनाव को कम करने में मदद करता है, बल्कि यह सहयोग के वश्त को और भी विस्तश्त बनाने में काफी योगदान करता है।
सोच, हितों और मनोवश्त्तियों की समानता, भारत का अफ्रीकी देशों के साथ सम्बन्ध का मूल तत्त्व है। भारत द्वारा निस्वार्थ भाव से अफ्रीकी एकता के संगठन (OAU) को पूर्ण समर्थन का सभी ने स्वीकार ही नहीं किया है, प्रशंसा भी की है। दक्षिण-दक्षिण सहयोग की आवश्यकता इस बात की जरूरत पेश करती है कि भारत और अफ्रीकी देशों के बीच आर्थिक-सामाजिक- तकनीकी सहयोग और भी मजबूत हों। इन देशों में चल रही आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की प्रक्रिया भारत-अफ्रीकी सहयोग के और भी अवसर उपलब्ध कराती है। भारत, दक्षिण अफ्रीका, तंजानिया, केन्या और मॉरीशस हाल ही में स्थापित ‘हिन्द महासागर तटीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन’(हिमतक्षेस) के सदस्य के रूप में परस्पर आर्थिक एवं तकनीकी सहयोग को और भी मजबूत बनाने की दिशा में अग्रसर हैं।
उपर्युक्त बातों से भी महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है कि मानव जाति की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन त्याग देने वाले हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपना जुझारू व्यक्तित्व अफ्रीका में ही प्राप्त किया था। अधिकांश अफ्रीकी देश उन्हीं समस्याओं को झेल रहे हैं, जिनसे भारत को गुजरना पड़ा है, इसलिए दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में काफी समानता है। अफ्रीका में अकूत क्षमता का अभी भी पूरी तरह से दोहन होना शेष है और भारत-अफ्रीका सम्बन्ध भविष्य में आर्थिक क्षेत्र में और भी अधिक विस्तश्त होगा, ऐसी आशा की जानी चाहिए। अंत में, भारत की अफ्रीकी नीति का आधार सिर्फ अफ्रीकी देशों से आर्थिक एवं राजनीतिक सहयोग बढ़ाना ही नहीं है, बल्कि अफ्रीका के विकासशील देशों के विकास के इस दौर में उनका मित्रवत सहयोगी बनने की आकांक्षा भी है।
Question : हम्मास एवं पश्चिम एशिया में शान्ति
(1996)
Answer : ‘हम्मास’कट्टरवादी मुस्लिम फिलिस्तीनियों का एक उग्रवादी संगठन है। इसके उद्देश्य है- इजरायल से फिलिस्तीनियों की भूमि को वापस प्राप्त करना, इजरायल से होने वाले किसी भी सहयोग संधि का विरोध करना और फिलिस्तीन राज्य को कट्टरवादी विचारधारा के आधार पर स्थापित करना है। हम्मास अपने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विरोधी पक्षों के लोगों की हत्या करने या लोगों को आंतकित करने से भी नहीं हिचकता हैं। हम्मास वर्ष 1993 में इजरायल और फिलिस्तीनियों के नेता यासर अराफात के बीच हुए ओस्लो संधि का, अर्थात् पश्चिम एशिया शांति प्रक्रिया का विरोध करता है। हम्मास के अनुसार यासर अराफात ने इजरायल से समझौता कर फिलिस्तीनियों के आत्म-सम्मान को चोट पहुंचायी है। हम्मास इजरायली लोगों को अपना कट्टर दुश्मन मानता है और उन्हें समाप्त करना ही अपना लक्ष्य मानता है। हम्मास, ओस्लो संधि के अनुसार पश्चिमी तट और गाजा से इजरायलियों के क्रमबद्ध ढंग से हटने का विरोध करता है और मांग करता है कि इजरायली सेना यहां से तुरंत और एक बार में चली जाये। हम्मास, जेरूसलम को फिलिस्तीन राज्य का अंग मानता है और इजरायल को कोई दावा उसे बर्दास्त नहीं है। वस्तुतः यह कहा जा सकता है कि हम्मास, इजरायल से शांति नहीं युद्ध चाहता है और इसी कारण वह पश्चिम एशिया शांति प्रक्रिया के विरोध में इस क्षेत्र में निरंतर हत्या, बम विस्फोट एवं लूटपाट करता रहा है। हम्मास ने अपने आतंकवादी कार्यों के कारण पश्चिम एशिया शांति स्थापना की संभावना को छिन्न-भिन्न सा कर दिया है।
Question : रूस की विदेश नीति को ‘दुर्बल की निरंकुशता’कहा जाता है। रूस ने अपनी दुर्बला का संयुक्त राष्ट्र अमेरिका एवं पश्चिम राज्यों की तुलना में कितनी विवेकपूर्णता से प्रयोग किया है, इसका स्पष्टीकरण कीजिये।
(1996)
Answer : 1989-90 में सोवियत संघ के विघटन के बाद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में रूस को सोवियत संघ का उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया गया। अपने आर्थिक बदहालियों एवं राजनीतिक अस्थिरता तथा अलगाववादी प्रवृत्तियों के तेज हो जाने के कारण रूस 1990 के बाद से ही बेहद बदहाल स्थिति में रहा। लेकिन उल्लेखनीय तथ्य यह है कि रूस ने अपनी दुर्बलता को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया और पूर्व सोवियत संघ को प्राप्त महाशक्ति की पदस्थिति को भी कायम रखा।
अपनी दुर्बलता को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के कारण रूस की विदेश नीति को ‘दुर्बल की निरंकुशता’कहा गया है। ‘दुर्बल की निरंकुशता’का अर्थ है, जिसने दुर्बल एवं कमजोर रहने पर भी दुनिया को अपने आगे झुकने के लिए मजबूर कर दिया हो। रूस ने अपनी दुर्बलता का बखूबी इस्तेमाल कर विश्व समुदाय, विशेषकर अमेरिका एवं पश्चिमी देशों से काफी सहूलियतें हासिल की है और अब भी कर रहा है।
रूस विश्व समुदाय, विशेषकर अमेरिका एवं पश्चिम राज्यों को यह समझाने में सफल रहा कि उसकी दुर्बलता सम्पूर्ण विश्व के लिए खतरा बन सकती है। रूस ने विश्व को यह दिखाया कि उसकी आर्थिक कमजोरी के कारण परमाणु आयुधों एवं अन्य खतरनाक अस्कों के अपने भंडारों की सुरक्षा करने की उसकी क्षमता कमजोर हो गयी है। अगर विश्व समुदाय ने उसकी आर्थिक मदद नहीं कि तो इन खतरनाक हथियारों को अन्य देशों को तस्करी और गलत हाथों में जाने से नहीं रोका जा सकेगा। दूसरी तरफ, आर्थिक कमजोरी ने रूस के परमाणु एवं अन्य खतरनाक अस्त्रों के वैज्ञानिकों का अन्य देशों को पलायन का खतरा भी पैदा कर दिया है। आर्थिक कमजोरी के कारण भविष्य में रूस को इन खतरनाक हथियारों को और इनकी तकनीक को अन्य देशों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। आर्थिक कमजोरी के कारण रूस इन खतरनाक हथियारों का रख-रखाव भी ठीक से नहीं कर सकेगा, जिसके कारण कभी भी कोई विध्वंसक घटना हो सकती है।
रूस ने अपनी आर्थिक कमजोरी से उत्पन्न होने वाले उपर्युक्त खतरों का डर दिखा कर अमेरिका और पश्चिमी राज्यों को न सिर्फ आर्थिक सहायता देने के लिए मजबूर किया, बल्कि आर्थिक रूप से बदहाल रूस को समूह-7 जैसे विकसित देशों के समूह में भी लिए जाने के लिए मजबूर कर दिया।
दुर्बल होने के बावजूद रूस ने अमेरिका एवं पश्चिमी देशों को मजबूर किया कि वे उसके अंतरिक्ष कार्यक्रमों को आगे जारी रखने में सहायता देते रहें। इस क्षेत्र में विकसित देशों की यह मजबूरी थी कि अगर वे रूस की सहायता नहीं करेगें, तो रूस के अंतरिक्ष ज्ञान एवं वैज्ञानिकों का अन्य देशों को जाना निश्चित है, जो विकसित देश नहीं चाहते हैं। विकसित देश यह नहीं चाहते हैं कि अंतरिक्ष ज्ञान विकासशील देशों को प्राप्त हो सके, क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो उनका वर्चस्व इस क्षेत्र से खत्म हो जायेगा और उनकी बहुत बड़ी कमाई मारी जायेगी।
रूस ने अपनी आर्थिक दुर्बलता के साथ-साथ अपनी राजनीतिक दुर्बलता का इस्तेमाल भी बेहद चालाकी से किया है। रूस विकसित देशों को यह दिखाने में सफल रहा कि उसकी राजनीतिक दुर्बलता के कारण रूस का विघटन हो सकता है, जिससे इस क्षेत्र के साथ-साथ विश्व में भी शांति को खतरा उत्पन्न हो सकता है। विकसित देशों द्वारा रूसी राष्ट्रपति येल्तसिन का समर्थन करना, विशेषकर चेचन्या के मामले में, इसका स्पष्ट उदाहरण है।
रूस ने अपनी सैनिक दुर्बलता का इस्तेमाल भी विकसित देशों से सहायता प्राप्त करने में खूबी से किया है। अमेरिका सहित सभी देश जानते हैं कि आज रूस पहले-सा शक्तिशाली नहीं है इसलिए उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) का पूर्व दिशा की ओर विस्तार कर रूस को चारों तरफ से घेरने का प्रयास आरंभ किया गया। रूस ने अपनी वास्तविकता को समझते हुए चीन, भारत एवं अपने पड़ोसी अन्य पूर्व सोवियत संघ के गणराज्यों से ‘रणनीतिक समझौता’करना आरंभ कर दिया। विकसित देश रूस की इस चाल से डर गये, क्योंकि उन्हें लगा कि अगर रूस चीन और भारत के साथ सैनिक दृष्टि से मिल गया, तो पश्चिम यूरोप के लिए एक खतरा पैदा हो सकता है। रूस को चीन और भारत की तरफ बढ़ने से रोकने के लिए नाटो के सदस्य देशों ने 1996 में रूस से ‘फाउंडिंग एक्ट’के तहत एक समझौता कर जहां रूस को नाटो का वार्ता सहयोगी स्वीकार कर लिया, वहीं इस बात पर भी राजी हो गये कि भविष्य में जब कभी नाटो का विस्तार पूर्व दिशा की तरफ किया गया, तो पूर्व के देशों में नाटो सैनिकों एवं परमाणु अस्त्रों को स्थापित नहीं किया जायेगा।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि रूस ने अपनी दुर्बलता को अमेरिका एवं पश्चिमी राज्यों की तुलना में बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल ही नहीं किया है, बल्कि कई मामलों में उन देशों को झुकने के लिए भी मजबूर कर दिया है। इसे ही रूस की ‘दुर्बल की निरंकुशता’कहा जा सकता है।
Question : 1990 के दशक में चीन की भारत संबंधी विदेश नीति में हुए परिवर्तनों का वर्णन कीजिये। आप इन परिवर्तनों का श्रेय किसको देंगे परिवर्तित विश्व वातावरण को अथवा घरेलू तत्वों को?
(1996)
Answer : हाल में भारत द्वारा परमाणु विस्फोट और पाकिस्तान द्वारा चीन की मदद से परमाणु विस्फोट करने के बाद भारत-चीन सम्बन्धों में काफी खटास आयी है। इधर भारतीय रक्षामंत्री द्वारा यह घोषित करना कि ‘पाकिस्तान नहीं चीन हमारा सबसे बड़ा दुश्मन है’ने भारत-चीन के बीच शक की दीवार को काफी ऊंचा कर दिया है। विगत कुछ माहों से भारत-चीन के बीच चले वाक्युद्धों, पाकिस्तान के हथियार निर्माण कार्य में चीन की खुली मदद एवं अमेरिका द्वारा दक्षिण एशियाई मामलों में चीन को तरजीह देने के कारण भारत-चीन रिश्ते काफी कमजोर होते दिखे हैं। वैसे भारत की वर्तमान सरकार ने 7 अगस्त, 1998 को यह घोषणा करके कि, प्रधानमंत्री के विशेष दूत जसवंत सिंह भारत-चीन सम्बन्धों को सुधारने के लिए जल्दी-ही चीन की यात्रा करेगें, एक शुभ संकेत दिया है।
वैसे भारत-चीन सम्बन्ध सीमा विवाद, चीन द्वारा पाकिस्तान को प्रक्षेपास्त्र एवं परमाणु अस्त्रों के निर्माण में सहयोग करने एवं भारतीय सीमा पर सैनिक क्षमता बढ़ाने तथा भारत की जमीन पर तिब्बतों द्वारा चीन से मुक्ति के कार्यक्रमों को चलाने के सवाल पर बराबर तनावग्रस्त ही रहा है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से 1988 तक दोनों देशों के बीच सम्बन्ध खटासपूर्ण ही रहे।
दिसम्बर 1988 में भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चीन यात्रा के बाद दोनों देशों के अच्छे सम्बन्धों के एक नये युग की शुरुआत हुई। इस यात्रा के दौरेान दोनों देशों ने सीमा विवाद के हल के लिए एक संयुक्त कार्य समूह की स्थापना एवं आर्थिक सम्बन्धों, व्यापार, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सहयोग की वृद्धि के लिए एक अन्य कार्य समूह की स्थापना से सम्बन्धित समझौते किये। इस यात्रा ने चीन की विदेश नीति में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाया, अब चीन पुनः ‘पंचशील’ की धारणा को स्वीकार करने लगा और कश्मीर को द्विपक्षीय मामला घोषित कर इस पर ‘शांतिपूर्ण आपसी वार्ता’करने का समर्थन किया। 31 वर्ष बाद चीन के प्रधानमंत्री ने दिसम्बर 1991 में भारत की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान दोनों देश आपसी सहयोग, शांति एवं आर्थिक व वैज्ञानिक सहयोग को बढ़ाने के लिए कई समझौते किये। फरवरी 1992 में दोनों देशों ने किसी भी आकस्मिक परिस्थिति के लिए दोनों देशों की राजधानियों के बीच हॉटलाइन स्थापित करने का निर्णय लिया। नवम्बर 1992 में भारतीय राष्ट्रपति वेंकटरमण चीन गये। इस यात्रा में दोनों देशों ने सीमा पर सैनिकों को कम करने और विवादों के जल्दी हल के लिए प्रयास करने का समझौता किया। सितम्बर 1993 में भारतीय प्रधानमंत्री नरसिंह राव चीन गये और सीमा विवाद, आपसी शांति और एक-दूसरे को अपने-अपने सैनिक अभ्यासों की जानकारी देने से सम्बन्धित समझौता किया। जून 1994 में दोनों देशों ने प्रत्यक्ष व्यापार से सम्बन्धित अनुबंध पर हस्ताक्षर किया। जुलाई 1994 में भारत और चीन ने तेल क्षेत्र में तकनीकी, उपकरण और अन्य जानकारी के आदान-प्रदान से सम्बन्धित समझौता किया। अक्टूबर 1994 में भारतीय उप-राष्ट्रपति के.आर. नारायणन की चीन यात्रा के दौरान दोनों देशों ने बैंकिंग क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए समझौता किया। नवंबर-दिसंबर 1996 को चीन के किसी राष्ट्रपति द्वारा प्रथम भारत यात्रा का रूप में चीन के राष्ट्रपति जियांग जेमिन भारत आये। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों ने आपसी विश्वास, आर्थिक विकास, नशीले पदार्थों की तस्करी रोकने और समुद्री यातायात से सम्बन्धित समझौते किये।
उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि चीन की भारत संबंधी विदेश नीति में काफी परिवर्तन आया है। 1990 के दशक की शुरुआत ने यह संकेत देना आरम्भ कर दिया था कि अब चीन-भारत को एक अलग दृष्टि से देख रहा है। कश्मीर को भारत-पाक के बीच का मामला मानना, भारत से सीमा विवाद को हल करने का प्रयास करना, भारत से राजनीतिक आर्थिक-वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक सहयोग बढ़ाने का प्रयास करना, भारत से शांति एवं सैनिक संख्या में कमी (सीमा पर) करने का समझौता करना, आपस में हॉटलाईन स्थापित करना, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में भारत की सहायता करना आदि ऐसे कई उदाहरण हैं जो यह संकेत देते हैं कि 1990 के दशक में चीन की भारत संबंधी विदेश नीति में काफी परिवर्तन आया है।
ऐसा क्यों हुआ? इस परिवर्तन का श्रेय किसको दिया जाये- परिवर्तित विश्व वातावरण का अथवा घरेलू तत्वों को? कुछ अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इधर हाल के वर्षों में चीन की घरेलू राजनीति में साम्यवादी कट्टरता में कमी आने, वहां के राजनीतिज्ञों एवं जनता में भारत के प्रति बदली मानसिकता तथा सोच, भारत की आर्थिक क्षमता का लाभ उठाने की इच्छा और पड़ोसी देशों से शांति बनाने के प्रयास की इच्छा ने भारत के प्रति चीन की विदेश नीति में परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
दूसरी तरफ, अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि विश्व वातावरण में आये हाल के परिवर्तनों ने चीन के घरेलू तत्वों से अधिक, भारत के प्रति चीन की विदेश नीति में परिवर्तन होने में योगदान दिया है। विश्व वातावरण में आये हाल के परिवर्तनों जैसे कि सोवियत संघ का विघटन और इसके उत्तराधिकारी रूस का दुर्बल होना, अमेरिका का इस नये विश्व वातावरण को एकध्रुवीय बनाने का प्रयास, संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का कमजोर होते जाना, विश्व व्यापार संगठन की स्थापना और आर्थिक वैश्वीकरण के युग का आरंभ, विश्व में अपने-अपने आर्थिक विकास के लिए पड़ोसियों से अच्छे आर्थिक संबंध बनाने जरूरत एवं आर्थिक क्षेत्रवाद की धारणा का तीव्र गति से विकास तथा इस नये विश्व वातावरण में चीन का एक आर्थिक महाशक्ति बन के उभरने की संभावना ने भारत के प्रति चीन की विदेश नीति को परिवर्तित करने में काफी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
परिवर्तित विश्व वातावरण में चीन, भारत जैसे विशाल एवं वृहत् आर्थिक क्षमता वाले देश से निकटता बढ़ाने को अपने हित में देख रहा है। चीन रूस की दुर्बलता के कारण खुद महाशक्ति बनने के प्रयास में लगा हुआ है। इसी के तहत वह अपने सभी पड़ोसी देशों से मधुर सम्बन्ध बनाने का प्रयास कर रहा है। चीन यह अच्छी तरह जानता है कि वह भारत और रूस जैसे देशों से अपने सम्बन्ध सुधार कर जहां अमेरिका का मुकाबला सकता है, वहीं अमेरिका से अच्छी मोल-भाव करने की स्थिति को भी प्राप्त कर सकता है। आज चीन विश्व में सर्वाधिक तेज आर्थिक विकास दर प्राप्त करने वाला देश है और आशा है कि आने वाले दिनों में चीन एक आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। ऐसी स्थिति में भारत जैसे विशाल आर्थिक क्षमता वाले देश से सम्बन्ध सुधारना चीन के अपने आर्थिक हित में ही है। इस तरह यह कहा जा सकता है 1990 के दशक में चीन की भारत संबंधी विदेश नीति में हुए परिवर्तनों का श्रेय घरेलू तत्वों से अधिक परिवर्तित विश्व वातावरण को है।
Question : भारत का सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता का दावा।
(1996)
Answer : वर्ष 1999 में संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्य-व्यवस्था एवं सरंचना में सुधार किये जाने की संभावना है। इसी क्रम में विश्व के अधिकांश देश संयुक्त राष्ट्र के सर्वाधिक प्रभावी अंग, सुरक्षा परिषद् के सुधार एवं विस्तार की भी मांग कर रहे हैं। सुरक्षा परिषद् के सुधार एवं विस्तार की मांग करने वाले, इस अंग को सही मायने में विश्व के सभी देशों का प्रतिनिधि बनाना चाहते हैं। विश्व के कुछ देश सुरक्षा परिषद् के विस्तार की मांग साथ-साथ इस परिषद् की सदस्यता के लिए अपना दावा प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे देशों में भारत भी एक है। भारत ने सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए दावा करने के क्रम में निम्नलिखित तर्क दिये हैंः
उपरोक्त तर्कों के आधार पर सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए भारत का दावा पुख्ता है।
Question : भारत-पाक संबंधों में इस्लामी घटक
(1996)
Answer : भारत-पाक सम्बन्धों में धर्म उस वक्त से एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है जब से भारत उपमहाद्वीप का धर्म के आधार पर विभाजन कर भारत और पाकिस्तान नामक दो राष्ट्रों का निर्माण किया गया था। विभाजन के बाद भारत ने तो धर्मनिरपेक्षता की धारणा को अपना लिया, मगर पाकिस्तान ने अपने आपको एक इस्लामी राष्ट्र बना लिया। एक इस्लामी राष्ट्र होने के कारण पाकिस्तान विश्व भर के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करना अपना स्वाभाविक कर्तव्य समझता है और भारतीय मुसलमानों के बारे में तो उसकी खास कृपा दृष्टि रही है। पाकिस्तान भारतीय सरकार को हिन्दुओं की सरकार के रूप में देखता है, इसलिए उसकी सोच भारतीय सरकार के प्रति हमेशा शंकाग्रस्त रहती है। भारत में मुसलमानों को जितनी सहूलियत प्राप्त है, शायद उतनी उन्हें पाकिस्तान में भी प्राप्त न हो (पाकिस्तान गये भारतीय मुसलमानों, मुहाजिरों के साथ आज भी दूसरे स्तर के नागरिकों-सा व्यवहार किया जाता है), लेकिन पाकिस्तान सरकार हमेशा इस बात की दुहाई देती रहती है कि भारत में मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। कश्मीर समस्या को पाकिस्तान ने इस्लाम के साथ जोड़कर भारत-पाक सम्बन्धों में इस्लामिक घटक को एक नया आयाम दे दिया है। भारत में होने वाले किसी भी साम्प्रदायिक दंगे या ‘बाबरी मस्जिद-राम मंदिर’ के विवाद पर पाकिस्तान का मुसलमानों के पक्ष में बोलना भारतीय सरकार को हर दम अपने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप लगा है। इस तरह भारत-पाक सम्बन्धों में इस्लामिक घटक ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए, दोनों देशों के बीच दूरी बनाये रखने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
Question : भारत एवं संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के सीटीबीटी प्रश्न पर आपसी मतभेदों का वर्णन कीजिये। भारत ने क्यों सीटीबीटी को अणु अस्त्रों के विलोपन के साथ जोड़ने का निर्णय किया है?
(1996)
Answer : 24 सितम्बर, 1996 को संयुक्त राष्ट्र संघ के सचिव-प्रमुख बुतरस घाली द्वारा व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) को हस्ताक्षर के लिए रखा गया था। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन पहले राष्ट्रपति थे जिन्होंने इस पर हस्ताक्षर किया। सितम्बर 1996 के अंत तक लगभग 79 देशों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिया था। इस संधि को ‘प्रयोग में प्रवेश’के लिए परमाणु रिएक्टरों को रखने वाले 44 देशों, जिसमें भारत, पाकिस्तान एवं इजरायल भी शामिल हैं, के हस्ताक्षर आवश्यक है।
पाकिस्तान इस संधि पर भारत द्वारा हस्ताक्षर किये जाने के बाद हस्ताक्षर करने को तैयार है। इजरायल भी अपने क्षेत्रीय सैनिक-समीकरणों से बचाव की सुरक्षा के वायदे के बाद संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार है। पूरे विश्व में एकमात्र भारत ही ऐसा देश है, जिसने न सिर्फ सीटीबीटी पर हस्ताक्षर ही नहीं किया। बल्कि सीटीबीटी एवं परमाणु शक्ति सम्पन्न पांच देशों-अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस एवं ब्रिटेन की मंशा पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया है।
भारत ने सीटीबीटी का विरोध करते हुए जो प्रश्न चिह्न लगाये हैं, वे निम्नलिखित हैंः
अमेरिका, जो सीटीबीटी का सबसे प्रमुख समर्थक है, ने भारत के सवालों को बेबुनियाद और वैश्विक जनमत के विरुद्ध बताया है। अमेरिका का मानना है कि भारत ऐसा करके विश्व शांति को नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रहा है। इससे भारत के अकेले रह जाने की संभावना है। अमेरिका, भारत द्वारा निर्धारित समय-सीमा को परमाणु अस्त्रों की समाप्ति के लिए अपर्याप्त और निरर्थक बताता है। उसका मानना है कि हम कोई आदर्श विश्व में नहीं जी रहे हैं, हमें तो इसी विश्व को आदर्श बनाना है और सीटीबीटी इस कार्य को करने में सक्षम है। अमेरिका का मानना है कि अगर भारत इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं करता है, तो जिस दिन अन्य 43 परमाणु रिएक्टर सम्पन्न देश इस संधि पर हस्ताक्षर कर देंगे उस दिन भारत विश्व समुदाय से अलग-थलग पड़ सकता है।
मई 1998 में भारत द्वारा परमाणु विस्फोट कर लेने के बाद अमेरिका ने भारत पर प्रतिबन्ध लगा दिया है और इस बात का दबाव डालना शुरू किया है कि भारत को सीटीबीटी पर हस्ताक्षर कर देना चाहिए। भारतीय सरकार सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने को तो तैयार है, मगर वह अणु-अस्त्रों के विलोपन की समय सीमा निर्धारित किये जाने की मांग पर अड़ी हुई है।
अब प्रश्न यह उठता है कि भारत ने अणु अस्त्रों के विलोपन को सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने के साथ क्यों जोड़ा है? प्रथम, ऐसा करके भारत परमाणु अस्त्र सम्पन्न देशों एवं विश्व समुदाय द्वारा डाले जा रहे दबाव को कुछ कम करने का प्रयास कर रहा है। इस मांग द्वारा भारत विश्व समुदाय को यह बताने का प्रयास कर रहा है कि वह विश्व शांति का विरोधी नहीं है, बल्कि वह पूर्ण विश्व शांति चाहता है एवं अणु-अस्त्रों के आधार पर भेदभाव को समाप्त करना चाहता है। भारत अणु-अस्त्रों के विलोपन की मांग कर परमाणु-अस्त्र सम्पन्न देशों पर दबाव डालकर अपनी मोलभाव की स्थिति को पुख्ता करना चाहता है, क्योंकि यह तो निश्चित है कि अणु-अस्त्र सम्पन्न देश अपने अणु-अस्त्रों के कीमती जखीरे को इतनी आसानी से समाप्त करने को तैयार नहीं होगें। इस तरह भारत इन देशों से कुछ सहूलियत और छूट प्राप्त कर सकेगा।
हाल में भारत द्वारा परमाणु विस्फोट कर लेने के बाद भारत की उपर्युक्त मांग ने एक अलग शक्ल अख्तियार कर लिया है। अब जबकि भारत ने, जैसा कि भारतीय वैज्ञानिकों व सरकार का दावा है, कम्प्यूटर द्वारा परमाणु-परीक्षण करने की क्षमता प्राप्त कर ली है, भारत अणु अस्त्रों के विलोपन की मांग कर अणु-अस्त्र सम्पन्न देशों पर दबाव डालने का प्रयास कर रहा है। इस मांग द्वारा भारत ‘चित्त भी मेरा और पट भी मेरा’वाले कहावत के अनुसार यह प्रयास कर रहा है कि या तो परमाणु-अस्त्र सम्पन्न देश अणु-अस्त्रों के पूर्ण विलोपन की समय-सीमा निर्धारित करें और या फिर भारत को परमाणु अस्त्र सम्पन्न देशों की सूची में रखा जाये और परमाणु-अस्त्र सम्पन्न की सुविधा, अर्थात् कम्प्यूटर परीक्षण की सुविधा उसे भी दी जाये। इस तरह भारत द्वारा अणु-अस्त्रों के विलोपन को सीटीबीटी के साथ जोड़ने के पीछे भारत की अपनी सोची-समझी रणनीतिक योजना है।
Question : रूस एवं उत्तरी एटलांटिक संधि संगठन
(1995)
Answer : उत्तरी एटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ के नेतृत्व वाली साम्यवादी गुट के देशों के संगठन (वारसा संधि) के विरुद्ध में हुई थी। लेकिन वर्ष 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद शीतयुद्ध कालीन इन संधियों का कोई महत्त्व नहीं रह गया था और बार्सवा संधि तो खत्म ही हो गयी। लेकिन अमेरिका और उसके सहयोगी यूरोपीय देशों ने अपने कूटनीतिक लाभों के लिए नाटो को जीवित रखा। सोवियत संघ के उत्तराधिकारी के रूप में विश्व राजनीति में स्वीकृत रूस, अपने आर्थिक समस्याओं के कारण अमेरिका और अन्य विकसित देशों पर निर्भर होता गया, इसलिए इसने पहले तो नाटो का विरोध नहीं किया।
मगर नाटो द्वारा पूर्व दिशा की ओर विस्तार के क्रम में पोलैण्ड, हंगरी और चेक गणराज्य को अपना सदस्य बनाने और उसके बाद पूर्व सोवियत संघ के टूटे हुए गणराज्यों को भी नाटो के दायरे में लाने के प्रयास को, रूस ने अपनी घेराबन्दी के रूप में देखा और इसका विरोध किया। जब अमेरिका आदि देशों ने नाटो के पूर्व दिशा में विस्तार को रोकने से इंकार कर दिया, तो रूस ने चीन और अपने अन्य पड़ोसी देशों से सैनिक एवं सुरक्षा सम्बन्ध बढ़ाने का प्रयास शुरू किया और इस क्रम में उसने चीन एवं अन्य पड़ोसी देशों से कई समझौते भी किये। अंततः रूस और नाटो के सदस्य देशों के बीच एक समझौते के बाद, रूस का विरोध कुछ कम हुआ है। 27 मई, 1997 को पेरिस (फ्रांस) में रूस और नाटो के 16 सदस्य देशों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये, जिसे फाउन्डिंग एक्ट (Founding Act) कहा जाता है। इस समझौते के अनुसार, रूस ने नाटो के विस्तार को स्वीकार कर लिया है और नाटो के सदस्य देशों ने सुरक्षा से सम्बन्धित मामलों में रूस को नाटो का स्थायी वार्ता सहयोगी मान लिया है। नाटो ने यह भी मान लिया है कि भविष्य में जब पूर्व सोवियत संघ के गणराज्यों को नाटो में शामिल किया जायेगा, तो उन देशों में सैनिकों और परमाणु अस्त्रों को स्थापित नहीं किया जायेगा।
Question : चीन की विदेश नीति के आर्थिक अवधारक
(1995)
Answer : एक समाजवादी विचारधारा को मानने वाले राष्ट्र के रूप में स्थापित चीन की विदेश नीति में 1940 के दशक के बाद आर्थिक अवधारक की कोई प्रमुख भूमिका नहीं थी। लेकिन वर्ष 1974 के बाद चीन की समाजवादी सरकार ने देश के आर्थिक विकास के लिए ‘बाजार-समाजवाद’ की एक नयी नीति अपनायी, जिसके अनुसार विदेशी निवेशकों को चीन में निवेश करने की छूट दी गयी और चीन के विदेश व्यापार को बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन इन सारे प्रावधानों को चीन की समाजवादी सोच के दायरे में ही रखने का प्रयास किया गया। इसी के बाद चीन की विदेश नीति में आर्थिक अवधारकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती गयी। सर्वप्रथम, चीन ने अमेरिका से चले आ रहे अपने वैचारिक मतभेदों को अलग रख कर आर्थिक सम्बन्धों को अधिक महत्त्व देना शुरू किया। इसी तरह चीन ने दक्षिण-पूर्वी एशियई देशों के साथ दक्षिणी चीन सागर के द्वीपों पर अधिकार के प्रश्न एवं वैचारिक मतभेदों को दरकिनार कर, आर्थिक सम्बन्धों को और भी मजबूत बनाने का प्रयास किया। ताईवान और वियतनाम को अपना कट्टर दुश्मन मानने वाला चीन, न सिर्फ इन देशों से आने वाले अप्रत्यक्ष निवेशों को ही मंजूरी दे रहा है, बल्कि इनसे व्यापार भी बढ़ा रहा है। यह आर्थिक अवधारकों का ही दबाव है कि आज चीन, रूस, जापान, भारत, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, मध्य-पूर्व के देशों और यूरोपीय देशों से अपना रिश्ता मजबूत बनाने के प्रयास में लगा है। आज चीन की विदेश नीति उसके वैचारिक सोच के अनुसार नहीं, बल्कि उसकी आर्थिक संभावनाओं से बहुत अधिक प्रभावित हो रही है। पाकिस्तान, ईरान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार आदि देशों को सैन्य-अस्त्रों को बेचने के पीछे, चीन की कूटनीतिक चाल के साथ-साथ आर्थिक लाभ की संभावना का भी बहुत बड़ा हाथ है। आज चीन आने वाले समय में एक आर्थिक महाशक्ति बन कर उभरने के प्रयास में लगा है।
Question : आपके विचार में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति का उद्देश्य क्या है- यथापूर्व स्थिति अथवा शांतिपूर्ण परिवर्तन? वाशिंगटन द्वारा इस सम्बन्ध में अपनायी गयी रणनीतियों की जांच कीजिये।
(1995)
Answer : (प्रस्तुत प्रश्न को वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार वर्ष 1998 की मुख्य परीक्षा में इस तरह के प्रश्नों के आने की संभावना को ध्यान में रखकर हल किया जा रहा है।)
अप्रैल-मार्च 1998 को भारत और पाकिस्तान द्वारा परमाणु विस्फोट कर लेने के बाद वाशिंगटन की दक्षिण एशियाई नीति में आमूल-चूल परिवर्तन आया है। विस्फोट से पहले तक अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति का आधार भारत-विरुद्ध अन्य दक्षिण एशियाई देश थे, लेकिन विस्फोट के बाद वाशिंगटन ने दक्षिण एशियाई मामलों में चीन को भी महत्त्वपूर्ण स्थान देने का प्रयास आरंभ किया है। हाल ही में चीन की यात्रा पर आये अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन के वक्तव्य इस बात के प्रमाण हैं कि अमेरिका, दक्षिण एशिया की यथास्थिति में चीन को शामिल कर एक शांतिपूर्ण नहीं, बल्कि क्रांतिकारी परिवर्तन करने का प्रयास कर रहा है। कश्मीर मसले पर अमेरिका द्वारा भारत-पाकिस्तान के साथ-साथ चीन को भी महत्त्व देना, दक्षिण एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव का द्योतक है। लेकिन प्रश्नानुसार हमें यहां दक्षिण एशिया के प्रति अमेरिका की रणनीतियों की जांच करनी है और यह देखना है कि अमेिरका, दक्षिण एशियाई नीति किस प्रकार का चाहता है यथास्थिति या शांतिपूर्ण परिवर्तन।
यहां दक्षिण एशिया से अर्थ है भारत, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव। इन सात देशों में अमेरिका के लिए भूटान, मालदीव और नेपाल का बहुत अधिक महत्व नहीं है, इसलिए अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति प्रमुख रूप से भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका से सम्बन्धित है। इस क्षेत्र के अधिकांश देश 1940 के दशक में स्वतन्त्र हुए और इनमें सबसे विशाल और क्षमतावाहन होने के कारण भारत का अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व काफी अधिक था, इसलिए आरंभ में अमेरिका की नीति भारत के प्रति अधिक सहानुभूतिपूर्ण थी। लेकिन भारतीय राजनीति को अपनी आवश्यकता और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्षता की विचारधारा का नेतृत्व करने के कारण और इसी क्रम में धीरे-धीरे सोवियत संघ के प्रति बढ़ते झुकाव ने अमेरिका को अपनी दक्षिण एशियाई नीति में शीतयुद्ध काल (1947-1990) के दौरान ‘भारत-विरुद्ध अन्य दक्षिण एशियाई देशों की नीति’अपनाने के लिए प्रेरित किया। इस कारण पाकिस्तान जो, एक ऐसी जगह स्थित था, जहां से एक साथ सोवियत संघ, चीन और भारत पर नजर रखी जा सकती थी, का महत्त्व अमेरिकी दक्षिण एशियाई नीति में लगातार बढ़ता गया। शीतयुद्ध काल के दौरान पाकिस्तान, अमेरिका का न सिर्फ सैनिक सहयोगी बन गया था, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के हर पहलू में अंधभक्त अमेरिकी समर्थक भी बना रहा और अमेरिका से हर तरह के लाभ प्राप्त करता रहा। इसी दौरान अमेरिकी दक्षिण एशियाई नीति में, भारत को चारों तरफ से घेरने के क्रम में, बांग्लादेश और श्रीलंका का भी महत्त्व बढ़ता गया।
इस तरह शीतयुद्ध काल के दौरान अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति एक तरह से भारत पर अंकुश लगाए रखने की भावना से प्रेरित रही। वर्ष 1990 में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सोवियत संघ के विघटन और इसके नेतृत्व वाले साम्यवादी गुट के लुप्त हो जाने के कारण पूंजीवादी गुट एवं साम्यवादी गुट के बीच चलते रहे शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ बड़ा भूचाल आया और 1990 के बाद बनी विश्व व्यवस्था कई नये लक्षणों के साथ सामने आई। ये लक्षण निम्नलिखित थेः
नयी विश्व व्यवस्था का भारत पर प्रभाव
नयी विश्व व्यवस्था का भारत को छोड़कर अन्य दक्षिण एशियाई देशों पर प्रभाव
उपर्युक्त बढ़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में ही अमेरिका की बदली हुई वर्तमान दक्षिण एशियाई नीति को देखना चाहिए। आज वाशिंगटन की दक्षिण एशियाई नीति को एक-सूत्र में बांध कर देखा जाये, तो यह आसानी से समझा जा सकता है कि उसकी दृष्टि में जहां पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका का महत्त्व कुछ कम हुआ है और भारत का बढ़ा है, वहीं यह भी सही है कि अमेरिका पूरी तरह से भारत का समर्थक भी नहीं बन बैठा है। वाशिंगटन की दक्षिण एशियाई नीति में धीरे-धीरे परिवर्तन तो आ रहा है, मगर यह परिवर्तन उतना क्रांतिकारी नहीं है कि इसे यथास्थिति को क्रांतिकारी ढंग से परिवर्तित कर देने वाला कहा जा सके। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान परमाणु कार्यक्रम और इसमें चीन के सहयोग की जानकारी होने तथा पाकिस्तान द्वारा भारत और अन्य देशों में आतंकवादी गतिविधियों को चलाने की पूरी जानकारी होने के बावजूद, पाकिस्तान को किसी-न-किसी रूप में सहायता देना, अमेरिका की दोहरी नीति का ही परिचायक है।
अमेरिका के लिए भारत का आर्थिक महत्व बढ़ता जा रहा है, लेकिन अमेरिका इस बात पर भी पैनी निगाह रखे हुए है कि भारत किसी भी हालत में एक शक्तिशाली देश बन कर नहीं उभर सके। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के लिए भारतीय दावे का विरोध करना, एन.पी.टी. और सीटीबीटी के मार्फत भारतीय परमाणु कार्यक्रमों पर रोक लगाना एवं भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों के विकास के मार्ग में रूकावटें खड़ा करने के प्रयास आदि अमेरिका के इसी नीति के प्रमाण हैं।
वर्तमान में भारत और फिर पाकिस्तान द्वारा परमाणु विस्फोट कर लेने तथा अमेरिका द्वारा इन दोनों देशों पर प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा ने अमेरिकी दक्षिण एशियाई नीति में असमंजस की स्थिति उत्पन्न कर दी है। इसी असमंजस की स्थिति में अमेरिका दक्षिण एशियाई मामलों में चीन को भी महत्त्वपूर्ण स्थान देने के प्रयास में लगा हुआ है। विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका की यह रणनीति, दक्षिण एशिया में और भी तनाव पैदा करेगी, क्योंकि चीन कभी भी भारत के प्रति सामान्य नहीं हो सकता है। उसकी नीति पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, बर्मा, श्रीलंका आदि देशों को सैनिक एवं अन्य सहायता दे कर भारत को घेरने की है, जो भारत शायद ही कभी स्वीकार कर पाये। अमेरिका द्वारा इस क्षेत्र में चीन के महत्त्व में वृद्धि करने और इस क्षेत्र के देशों (भारत के अलावा) द्वारा चीन से अधिक सैनिक सहयोग बढ़ाने से, यह आशंका है कि इस क्षेत्र में आने वाले दिनों में और भी तेज हथियार होड़ आरंभ होगी, जो इस क्षेत्र की शांति के लिए एक बहुत बड़ा खतरा सिद्ध होगा।
Question : ‘एशिया-प्रशान्त में सुरक्षा सहयोग परिषद्’पर लगभग 200 शब्दों में टिप्पणी लिखिये।
(1995)
Answer : एशिया-प्रशान्त में सुरक्षा सहयोग परिषद् की स्थापना की पहल मलेशिया ने की थी, बाद में इस विचार को ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड का समर्थन भी प्राप्त हुआ था। एशिया-प्रशान्त क्षेत्र को, अमेरिका के ‘सुरक्षा छाते’के हट जाने के बाद, किसी भी असंभावित खतरों से बचाए रखने के उद्देश्य से ही, इस क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग परिषद् की स्थापना के बारे में सोचा गया था। वर्ष 1993 से 1995 के बीच दक्षिण कोरिया और उत्तरी कोरिया के बीच बढ़ते तनाव, उत्तरी कोरिया द्वारा परमाणु बम बनाने का प्रयास, दक्षिण चीन सागर में अवस्थित कुछ द्वीपों पर अधिकार के लिए चीन और अन्य दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के बीच बढ़ते तनाव, चीन द्वारा इस क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयास, जापान द्वारा अपनी सैनिक क्षमता को बढ़ाने का प्रयास और दक्षिणी प्रशांत सागर के द्वीपों में फ्रांस द्वारा परमाणु बमों का परीक्षण करना आदि ऐसे कई कारण थे, जिन्होंने एशिया-प्रशान्त क्षेत्र के देशों को एक सुरक्षा सहयोग परिषद् की स्थापना के लिए सोचने के लिए प्रेरित किया था। इस परिषद् का उद्देश्य इस क्षेत्र के सभी देशों को सुरक्षा के मसले पर एक मंच पर लाना और आपसी सहयोग बढ़ाना था। लेकिन बाद में आसियान क्षेत्रीय फोरम द्वारा ही इन कार्यों को करने के कारण, सुरक्षा सहयोग परिषद् का महत्त्व नहीं रहा।
Question : भारत एवं विश्व व्यापार संगठन
(1995)
Answer : विश्व व्यापार संगठन की स्थापना ‘प्रशुल्क एवं व्यापार पर सामान्य समझौता’ (गैट) के उत्तराधिकारी के रूप में 1 जनवरी, 1995 को हुई। एक संस्थापक सदस्य के रूप में भारत विश्व संगठन से आरम्भ से ही जुड़ा हुआ है। विश्व व्यापार संगठन प्रमुख रूप से प्रशुल्क-विहीन आयात-निर्यात नीति पर बल देता है। इसका अर्थ है कि विश्व के सभी सदस्य देशों को अपने निर्यातों और आयातों पर लगने वाले प्रशुल्कों को कम करना होगा। इस नियम से भारत से होने वाले निर्यातों का 54 प्रतिशत हिस्सा प्रभावित होगा, जिसमें वस्त्र, चमड़े से बनी वस्तुएं और कृषि उत्पाद शामिल हैं। विश्व व्यापार संगठन द्वारा बनाये गये नियमों के अनुरूप भारत को एक निश्चित अवधि के भीतर, अपने यहां लगाये जाने वाले आयात प्रशुल्कों की दर जनवरी 2001 तक 54 प्रतिशत से घटा कर 32 प्रतिशत तक लानी होगी। विश्व के कुल व्यापार में भारत का हिस्सा 0-60 प्रतिशत है। इसी के आधार पर विश्व व्यापार संगठन में भारत को मत देने की शक्ति प्राप्त है। सेवा क्षेत्रों यथा- बैंक, पर्यटन, कम्प्यूटर सेवाओं आदि के मामलों में भी भारत को विश्व व्यापार संगठन के नियमों को मानना होगा। बौद्धिक सम्पदा अधिकार पर विश्व व्यापार संगठन द्वारा निर्धारित किये गये नियमों के अनुरूप अब भारत को 2005 ई. तक अपने बौद्धिक सम्पदा कानूनों में परिवर्तन लाते हुए ‘उत्पाद’को पेटेन्ट करने की व्यवस्था करनी होगी और वह भी सात साल की बजाय बीस साल के लिए। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के बाद से लेकर अब तक भारत कई बार विश्व व्यापार संगठन में अन्य देशों द्वारा उसके साथ किये जा रहे भेदभाव की शिकायत लेकर गया है। अमेरिका द्वारा भारतीय वस्त्रों पर प्रतिबन्ध लगाने, हल्दी, बासमती चावल और नीम को पेटेन्ट कराने की कोशिशों की शिकायत भारत ने विश्व व्यापार संगठन में की है और अधिकांश में भारत की जीत हुई है।
Question : ऐसा कहा जाता है कि हमारे पड़ोसी राज्यों में भारत-प्रहरी-प्रवृत्ति प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके आन्तरिक सामाजिक संघर्ष के साथ जुड़ी हुई है। भारत-पाकिस्तान और भारत-श्रीलंका संबंधों में घटनाक्रम की दृष्टि में इस कथन को स्पष्ट कीजिये।
(1995)
Answer : भारत के पड़ोसी देशों में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, चीन, बर्मा, श्रीलंका और बांग्लादेश आते हैं। इन देशों से भारत के काफी घनिष्ठ ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्ध रहे हैं। जहां भारतीय विदेश नीति पर इन देशों की विदेश नीति की दिशा का स्पष्ट प्रभाव रहा है, वहीं भारतीय विदेश नीति भी इन देशों की विदेश नीति को काफी प्रभावित करती रही है। अपनी तरफ से भारत अपने पड़ोसी देशों से बराबर अच्छा और सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयास करता रहा है, लेकिन अपनी-अपनी कूटनीतिक स्वार्थ और अन्य आंतरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के दबाव के कारण हमारे कई पड़ोसी देशों ने हमेशा भारत-प्रहरी (भारत पर आरोप लगाना) की नीति अपनायी है। इन कारणों के अलावा भारत के आकार, ताकत और जनसंख्या ने भी हमारे पड़ोसी देशों के मन-मस्तिष्क में भारत से डर और शक पैदा कर रखा है, जो उन्हें भारत से सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध बनाने से रोकते हैं।
हमारे पड़ोसी देशों में व्याप्त भारत-प्रहरी प्रवृत्ति प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके आन्तरिक संघर्ष से जुड़ी हुई है, इसके प्रमाण हमारे पड़ोसी देशों की आन्तरिक राजनीति से प्राप्त किया जा सकता है। सबसे पहले अफगानिस्तान का उदाहरण लें। वर्ष 1979 के बाद अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना के प्रवेश करने के बाद, अफगानिस्तानी राजनीति में सोवियत संघ के प्रति विरोध बढ़ा था, लेकिन तत्कालीन नजीबुल्ला की सरकार सोवियत संघ की समर्थक थी। इस कारण उस समय, जैसा कि भारत को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सोवियत संघ का सहयोगी समझने के कारण जहां नजीबुल्ला की सरकार से सहयोग प्राप्त था, वहीं अफगानिस्तान के विरोधी दलों में भारत के प्रति विरोध व्याप्त था। हिकमतयार और रब्बानी के शासनकाल में अफगानिस्तान में पाकिस्तान समर्थित कट्टरवादी दल तालिबान का उदय हुआ, तो इस आन्तरिक संघर्ष ने रब्बानी सरकार को भारत समर्थक बना दिया।
इसी तरह नेपाल की आन्तरिक सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का प्रभाव भारत के प्रति नेपाल की विदेश नीति में भी देखने को मिला है। नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में जहां भारत-समर्थन की भावना है, वहीं तराई के लोगों में भारत विरोधी भावना व्याप्त है। इस आन्तरिक संघर्ष का प्रभाव नेपाली राजनीति पर भी पड़ा है। पहाड़ के लोग, जहां नेपाली कांग्रेस के समर्थक है, वहीं तराई के लोग नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के। इस कारण जब नेपाली कांग्रेस सत्ता में आती है, तो नेपाल की विदेश नीति भारत के पक्ष में होती है और जब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आती है, तो भारत विरोध की भावना अधिक तीव्र रहती है।
जहां तक चीन से हमारे सम्बन्धों का सवाल है, तो यह सम्बन्ध चीन के आन्तरिक सामाजिक संघर्षों से अधिक क्षेत्रीय राजनीति में वर्चस्व के प्रयास, विश्व राजनीतिक परिदृश्य में प्रभाव वृद्धि की मंशा, तिब्बत की समस्या और एक-दूसरे के आकार, ताकत और जनसंख्या से स्वाभाविक भय के कारण निर्धारित होती है।
वैसे भूटान की विदेश नीति हमेशा से भारत-समर्थन की रही है और भारत भी भूटान के प्रति सौहार्द्रपूर्ण रवैया बनाये रखते हुए उसके वार्षिक खर्च में 60 प्रतिशत तक मदद करता रहा है। लेकिन हाल के दिनों में भूटान में भूटानी मूल के लोगों और नेपाली मूल के लोगों के बीच बढ़ते विवादों और भूटान के शासन के प्रति बढ़ते विरोध ने भूटान सरकार के मन में भारत के प्रति थोड़ी खिन्नता पैदा कर दी है। वैसे दोनों पक्ष, आपसी संबंधों को सौहार्द्रपूर्ण बनाये रखने के प्रयास में लगे हुए हैं।
बर्मा (म्यांमार) के साथ हमारा सम्बन्ध हमेशा तनावपूर्ण रहा है। चाहे वह ऐतिहासिक काल हो, चाहे वह अंग्रेजी शासन का काल। 1940 के बाद बर्मा में बौद्ध बर्मावासियों और मंगोल-उत्पत्ति के बर्मावासियों के बीच बढ़ते विवाद के कारण भारत के प्रति समर्थन और विरोध की भावना भी बढ़ती गयी। बौद्ध बर्मावासियों में भारत-समर्थन और मंगोल मूल के बर्मावासियों में भारत के प्रति विरोध की भावना बराबर बनी रही है। बर्मा की आंतरिक राजनीति में ‘आंग सान सू’की के नेतृत्व में बढ़ते प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की स्थापना की मांग के कारण उत्पन्न विवाद और भारत द्वारा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सू की का समर्थन करना, बर्मा के सैनिक शासन को भारत का विरोधी बना दिया है।
बांग्लादेश में 1971 के बाद से हमेशा दो विरोधी धाराओं का प्रभाव रहा है। एक धारा भारत समर्थन की, जिसे बांग्लादेश की अवामी लीग पार्टी समर्थन करती है और दूसरी धारा है भारत विरोध की, जिसे बांग्लादेश मुस्लिम लीग और बांग्लादेश जातीय पार्टी का समर्थन प्राप्त है। इसलिए जब जो पार्टी सत्ता में आती है, उसकी नीति भारत के प्रति वैसी ही होती है। बांग्लादेश में मुस्लिमों, बंगाली मुस्लिमों एवं बौद्ध मुस्लिमों के बीच के आपसी सामाजिक संघर्ष का प्रभाव भी भारत के प्रति बांग्लादेश के विदेश नीति पर पड़ता रहा है।
भारत-प्रहरी-प्रवृत्ति, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान और श्रीलंका के आन्तरिक सामाजिक संघर्ष के साथ जुड़ी हुई है। जहां तक पाकिस्तान का प्रश्न है, तो वर्तमान पाकिस्तान कभी भारत का ही अंग था। इसलिए दोनों की अधिकांश बातें एक-सी हैं, लेकिन कूटनीति और आपसी रंजिश की वजह से दोनों के बीच हमेशा तनावपूर्ण सम्बन्ध ही रहे हैं। पाकिस्तान में मुहाजिर (भारत से पाकिस्तान जा कर बसे मुस्लिम लोग) आंदोलन और कराची में मुहाजिरों और पाकिस्तानी मुसलमानों के बीच के संघर्षों या पंजाबियों (पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मुसलमानों) के विरुद्ध सिन्ध एवं बलूचिस्तान के लोगों में बढ़ता विरोधों ने पाकिस्तान को हमेशा भारत के प्रति शंकालु बनाये रखा है। पाकिस्तानी सरकार का मानना है कि भारत, मुहाजिरों और बलूचिस्तान तथा सिन्ध के लोगों को पाकिस्तानी सरकार के विरुद्ध भड़काता रहा है। पाकिस्तान की राजनीति में जब-जब सिन्ध प्रांत में प्रभावी पार्टी का वर्चस्व होता है, तब-तब पाकिस्तान की भारत-प्रहरी-प्रवृत्ति थोड़ी कम होती है और जब पाकिस्तान की राजनीति में पंजाब में प्रभावी पार्टी का वर्चस्व होता है, तब भारत-प्रहरी प्रवृत्ति अधिक उग्र होती है। इसे पाकिस्तान की राजनीति में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तानी मुस्लिम लीग के वर्चस्व की लड़ाई के रूप में देखा जा सकता है।
इसी तरह श्रीलंका की भारत-प्रहरी-प्रवृत्ति भी उसकी अपनी आंतरिक सामाजिक संघर्षों के प्रभाव द्वारा निर्धारित होती है। श्रीलंका में दशकों से भारतीय तमिलों और सिंहलियों के बीच चल रहे सामाजिक संघर्ष ने, जहां श्रीलंका को कभी-न-खत्म होने वाले नृजातीय संघर्ष की आग में झोंक रखा है, वहीं इस संघर्ष ने सिंहलियों के हृदय में भारत के प्रति एक शंका को भी जन्म दे दिया है। सिंहलियों और इनके वर्चस्व वाली श्रीलंका सरकार की धारणा, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में यही रही है कि भारत, श्रीलंका के तमिलों को हर तरह से सहायता करता रहा है। भारत के प्रति यह धारणा बराबर श्रीलंका की विदेश नीति में भारत-प्रहरी-प्रवृत्ति के रूप में परिलक्षित होती रही है।
उपर्युक्त विवरणों से यह सरलता से समझा जा सकता है कि हमारे पड़ोसी देशों की भारत-प्रहरी-प्रवृत्ति प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उनके अपने आन्तरिक सामाजिक संघर्षों से प्रभावित रही है और हमारे पड़ोसी देशों ने भारत का इस्तेमाल अधिकांशतः अपने आंतरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक स्वार्थों के लिए किया है। भारत के आकार, ताकत और क्षमता तथा जनसंख्या का डर दिखाकर, हमारे अधिकांश पड़ोसी देशों ने जहां अपने लोगों को डरा कर भारत विरोधी बनाने का प्रयास किया है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भारत को आगे बढ़ने देने से रोकने की इच्छा रखने वाले देशों से तरह-तरह की सहायता और अनुदानों को प्राप्त किया है।