Question : राज्य की ‘सप्त प्रकृति’, जैसी कि कौटिल्य ने उसकी परिकल्पना की थी, का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2007)
Answer : कौटिल्य के अनुसार राज्य सात अंगों से मिलकर बना होता है, इसलिए उन्होंने राज्य को ‘सप्त प्रकृति’ कहा है। कौटिल्य का राज्य संबंधी यह सिद्धांत साप्तांग सिद्धांत कहा जाता है। आधुनिक युग में राज्य की कल्पना चार तत्त्वों के सामूहिक स्वरूप का प्रतिनिधित्व करती है। इन चारों में से कोई भी अंग यदि नहीं होता है तो वह राज्य के रूप में पारिभाषित नहीं किया जाता है। उसी प्रकार इन सात अंगों से विहीन राज्य भी अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल नहीं हो पाता है। वह जनता की आंतरिक व्यवस्था और बाह्य आक्रमण से रक्षा करने में असमर्थ रहता है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के ये सात अंग निम्नलिखित हैं:
(i) राजा/स्वामीः कौटिल्य ने स्वामी अर्थात् राजा में अनेक गुणों का होना आवश्यक बतलाया है। उन्होंने राजा को एक आदर्श पुरूष माना है, जिसमें हर प्रकार के गुण हो और अवगुण नहीं हो। स्वामी के गुणों की गणना करते हुये उन्होंने बताया है कि वह उच्च कुल में उत्पन्न, धर्म में रूचि रखने वाला, दूरदर्शी, सत्य बोलने वाला, महत्वाकांक्षी, अथक परिश्रमी, गुणियों की पहचान और आदर करने वाला, शिक्षा प्रेमी, योग्य मंत्रियों से युक्त, सामंतगणों को वश में रखने वाला होना चाहिये। उसकी योग्यता और विद्वता उसे आत्मसम्पन्न बनाती है। उसमें सेवा करने की भावना, शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा, प्रत्येक बात को समझने की शक्ति होनी चाहिए। उसकी स्मृति तीव्र गुणों से युक्त होनी चाहिए। उसे विधान तथा तर्कशक्ति से संपन्न होना चाहिए। उसमें शौर्य, अपराध क्षमा करने की शक्ति होनी चाहिए। वह शक्ति-संपन्न, आत्म संयमी, विविध प्रकार के अश्व एवं हस्ति, अस्त्र-शास्त्रों के संचालन में निपुण हो। शत्रु को विपत्ति में दबाने और अपनी विपत्ति में दृढ़ सैन्य संगठन करने वाला हो। शास्त्रनुसार अपकार-उपकार कर्त्ता के साथ व्यवहार करने की क्षमता अकाल आदि सभी समयों में अंत का ठीक प्रबंध करने तथा विधियों के अनुसार राजकोष की वृद्धि करने वाला होना चाहिए। उसे सैन्य संचालन, सेना को युद्ध की शिक्षा, उसके उत्साहवर्धन, युद्ध आदि संधि-विग्रह, शत्रु की कमजोरी को जानने की कुशलता, दूर की सोचने की शक्ति आदि होनी चाहिए। प्लेटो के अनुरूप कौटिल्य भी राजा की शिक्षा पर बल देते हुए यह मानते हैं कि अशिक्षित राजकुल उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे घुन लगी लकड़ी।
(ii) अमात्यः ये राज्य संचालन के वास्तविक अंग होते हैं। अकेला राजा कितना भी गुण संपन्न क्यों न हो, लेकिन जब तक उसके अमात्य गुणवान और योग्य नहीं होगे, शासन सफल नहीं हो सकता। राजा को अमात्यों की नियुक्ति बहुत ही सोच-समझकर करनी चाहिए।
(iii) जनपदः कौटिल्य ने जनपद प्रकृति में आधुनिक युग के राज्य के दो तत्त्वों को सम्मिश्रण कर दिया है। जनपद से उनका अभिप्राय किसी प्रदेश की भूमि और जनता से है। जनपद के गुणों के संबंध में कौटिल्य के विचार ग्रीक विचारकों प्लेटो तथा अरस्तू से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। उनमें जो अंतर पाया जाता है वह देश काल एवं परिस्थितियों के कारण ही हैं। जनपद में पहला गुण यह होना चाहिए कि उनकी सीमा पर तथा मध्य में दुर्ग होने चाहिए। उसकी भूमि इतनी उपजाऊ होनी चाहिए कि थोड़े से परिश्रम से ही अधिक अन्न उत्पन्न हो सके और वह अन्न देश के निवासियों एवं आने वाले विदेशियों की आवश्यकता को पूरा करने में समर्थ हो। जनपद की पर्वतमालायें, सरिता एवं वन ऐसे होने चाहिए जो संकट काल में सहायक हो सकें। कृषि धन के अतिरिक्त देश में खनिज पदार्थ पर्याप्त मात्रा में सुलभ हों। लकड़ी, हाथी तथा गायें (पशुधन) और उनके चारागाह आदि के लिए भूमि हो। जनपद के आसपास दुर्बल शासक हों, उनकी भूमि में कीचड़, कंकड़, पत्थर, उपजाऊ भूमि, हिंसक पशु, सघन वन, चोर आदि तथा छोटे-छोटे शत्रु न हो। जनपद की जलवायु स्वास्थ्य प्रद हो। सरितायें, झीलें आदि उसे रमणीक बनाते हों, वहां क्रय-विक्रय सुलभ हो और बहुमूल्य वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता हो। प्रजा में दंड सहने तथा करों को सहन करने की सामर्थ्य हो। यहां किसान उद्यमी हों, राजा के शत्रुओं के विरोधियों की संख्या अधिक हो। प्रजा में अधिकांश नीच वर्ण के आज्ञापालक नागरिक हो।
(iv) दुर्गः कौटिल्य का कहना है कि राजा को जनपद की रक्षा के लिए अपने सीमान्त प्रदेशों पर चारों ओर दुर्ग बनवाने चाहिए। यह दुर्ग युद्ध आदि के लिए उपयुक्त होने चाहिए और दुर्गम तथा बीहड़ प्रदेशों में बनवाये जाने चाहिए। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्ग बतलाये हैं:
(क) औषक दुर्गः इसके चारों ओर जल होता है और दुर्ग जल के बीच में टापू के समान होता है।
(ख) पर्वत दुर्गः यह पर्वत श्रेणियों, चटनों आदि से घिरा हुआ होता है। यह अंधेरी गुफाओं के रूप में भी होता है।
(ग) धान्वन दुर्गः यह दुर्ग ठीक मरूस्थल में बना होता है। उसके आसपास जल, घास, वृक्ष आदि का नामोनिशान तक नहीं होता है।
(घ) वन दुर्गः इस दुर्ग की विशेषता यह होती है कि इसके चारों ओर दलदल या कांटेदार झाडि़यां होती हैं।
(v) कोषः प्रजा के हित के लिए आवश्यक कार्यों को पूरा करने के लिए, उसकी रक्षा के लिए, सेना रखने के लिए तथा नगर आदि की व्यवस्था करने के लिए राज्य कोष की आवश्यकता होती है। राजा को एक उत्तम कोष पर ध्यान देना चाहिए उसमें पहले शासकों एवं अपने धर्म से कमाये हुए मूल्यवान रत्न एवं सोना आदि होना चाहिए। प्रजा से कर के रूप में धन एवं धान्य एकत्रित करने चाहिए। प्रजा राजा को अन्न का छठवां, व्यापार का दसवां और पशुओं का 50वां भाग तथा सोना राजा को दिया करेगी। यह कोष संकट काल में तथा शांतिकाल में राजा के काम आयेगा।
(vi) दण्डः राजा राज्य की रक्षा के लिए एक सुसंगठित शक्तिशाली सेना रखेगा। वह सेना पूर्वजों की सैन्य परंपरा से चले आने वाले सैनिकों से मिलकर बनी होगी। परंपरा से चले आ रहे सैनिक कुल वीर और उत्साही होते हैं। इन्हें सैन्य अनुशासन एवं युद्ध की शिक्षा में पारंगत किया जायेगा। इनके परिवार, स्त्री और बच्चों की देखभाल राज्य द्वारा की जायेगी, जिससे वे परिवार की दुराव्यवस्था देखकर विचलित या चिंतित न हो। रणक्षेत्र में गए हुए सैनिकों के परिवारों के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व राजा का है। सैनिक आज्ञाकारी, सहनशील हो। उन्हें युद्ध का अनुभव हो और तरह-तरह के हथियार आदि चलाने आते हों, स्वामिभक्ति उनकी नसो में भरी हो। राजा के ऐश्वर्य और पतन दोनों में ही उसकी सेवा करने की भावना उनमें हो। वे क्षत्रिय कुलोत्पन्न, हानि-लाभ की चिंता न करने वाले उत्साही वीर हों।
(vii) मित्रः कौटिल्य में सप्त प्रकृति के अंतर्गत राजा की प्रकृति का अंतिम गुण मित्र बताये हैं, यह वंश परंपरा से चले आने वाले राजा के हितैषी हों। यह राज्य की शांति काल और संकटकाल दोनों में ही सहायता करते हैं। उनका स्वभाव स्थिर हो, राजा के सच्चे सहायक हो तथा हृदय से उसका साथ निभाते हों।
इस तरह से कौटिल्य ने साप्तांग राज्य के गुणों का वर्णन किया है। इन प्रकृतियों को ‘राज सम्मत’ कहा जाता है। इनमें वर्तमान राज्य के चार तत्वों के अतिरिक्त तीन तत्त्वों का उल्लेख किया गया है। आधुनिक युग में राज्य के चार तत्व बताये जाते हैं। जनता, प्रदेश, सरकार एवं संप्रभुता। कौटिल्य ने इन चारों के अतिरिक्त दंड, कोष एवं मित्र को सम्मिलित किया है।
जहां तक आलोचना का प्रश्न है, यह कहा जा सकता है कि राज्य का शरीर के रूप में व्याख्यायित किया जाना उचित नहीं है। इस संबंध में आंगिक सिद्धांत आंशिक रूप से ही सत्य सिद्ध हो सकता है। दूसरी बात कौटिल्य सार्वभौमिकता, सरकार, जनसंख्या तथा निश्चित भू-भाग, जो राज्य के आधुनिक तत्त्व माने जाते हैं, उनका कहीं पर भी वर्णन नहीं करते हैं। कौटिल्य का साप्तांग सिद्धांत प्रजातंत्र की उपेक्षा करता है। यह सिद्धांत प्रजातंत्र की अपेक्षा, राजतंत्र के अधिक निकट है। यह बात सत्य है कि सेना, कोष एवं दुर्ग राज्य के विकास के लिए आवश्यक तत्त्व हैं, परंतु इन्हें अधारभूत तत्त्वों की संज्ञा नहीं दी जा सकती।