Question : न्यायिक सक्रियतावाद की संकल्पना को स्पष्ट कीजिए और भारत में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंध पर उनके प्रभाव का परीक्षण कीजिए।
(2007)
Answer : किसी भी लोकतंत्र या ‘कानून के शासन’ का मूल आधार स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं प्रभावी न्याय व्यवस्था होती है। ऐसी न्याय व्यवस्था अल्पव्ययी, सरल, बोधगम्य तथा शीघ्रगामी भी होनी चाहिए। बिलम्बकारी न्याय व्यवस्था अन्यायकारी तथा अव्यवस्था उत्पन्न करने वाली होती है। दुर्भाग्य से भारत को ऐसी ही दोषपूर्ण न्याय प्रणाली विरासत में मिली है। बहुत चाहने पर भी संविधान निर्माता इस व्यवस्था से छुटकारा नहीं पा सके।
उन्होंने वर्तमान सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के रूप में स्वतंत्र, निष्पक्ष और सक्षम न्याय व्यवस्था की स्थापना तो कर ली, किंतु उसका औपनिवेशिक अथवा सामंतशाही स्वरूप बना रहा। प्रसन्नता की बात है कि पिछले दशक में सर्वोच्च न्यायालय ने समय की मांग को पहचाना तथा भारतीय जनता की आवश्यकता को समझा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना है कि ‘न्याय’ या ‘जस्टिस’ का स्वरूप केवल कानून न होकर सामाजिक एवं आर्थिक भी है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार कर लिया है कि न्याय व्यवस्था को आम जनता की जीवन दशा को सुधारने तथा उसे मूलभूत मानवीय अधिकार दिलाने के लिए सक्रिय भागीदार बन जाना चाहिए। इस सक्रिय या क्रिया प्रधान दृष्टिकोण न्यायिक सक्रियता को अपनाने के कारण भारतीय न्याय व्यवस्था का स्वरूप बदलता जा रहा है और यह निषेधात्मक के स्थान पर विधेयात्मक अथवा रचनात्मक बन गयी है।
अब उसकी यह मान्यता है कि कानून अतीत से चिपकी हुई रूढि़वादी स्थायी व्यवस्था मात्र नहीं है तथा गरीबों को इस न्याय व्यवस्था में भिखारी की बजाय सम्मानजनक भागीदार बनाया जाना चाहिए। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक क्षेत्रों में अभूतपूर्व कार्य किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने जनहितवादी विवादों को मान्यता दी है। इसके अनुसार, कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानूनी या सांविधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि गरीब, अपंग या सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से दलित वंचित लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष वाद ला सकता है। न्यायालय अपने सारी तकनीकी तथा कार्य-विधि संबंधी नियमों की परवाह किये बिना उसे लिखित रूप में देने मात्र से ही कार्यवाही करेगा। जनहित में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया है कि बिना कारण किसी को जेल में बंदी न रखा जाये।
यदि उस पर मुकदमा चलाने में 18 माह से अधिक समय लग रहा है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाये। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने गरीब और असहाय लोगों की ओर से जनहित में चलाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मुकदमा लड़ने का अधिकार दे दिया है।
इसी तरह अनुच्छेद-21 की नवीन व्याख्या की गई है। इसके अंतर्गत आम आदमी के जीवन और सुरक्षा को वास्तविक बनाने का प्रयास किया गया है। इस अनुच्छेद में यह कहा गया है कि ‘विधि द्वारा स्थापित कार्य विधि के अतिरिक्त किसी व्यक्ति को उसके जीवन तथा निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा।’ पहले यह माना जाता था कि कार्यपालिका या सरकार कोई न कोई कार्यविधि अपनाकर व्यक्ति की स्वतंत्रता या जीवन को छीन सकता है, किंतु मेनका गांधी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि कार्यविधि भी विवेक सम्मत, उत्तम तथा न्यायपूर्ण तरीके से संपन्न होनी चाहिए। इस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यविधि का विवेकसंगत, उत्तम तथा न्यायपूर्ण होना अनिवार्य बना दिया है।
इस निर्णय के अनुसार, अब यह आवश्यक हो गया है कि न्यायालय के समक्ष पक्ष या विपक्ष दोनों को ठीक ढंग से प्रस्तुत किया जाये। अब यह सरकार का दायित्व बना दिया गया है कि वह निर्धन पक्षकार को कानूनी सहायता प्रदान करे, अन्यथा अदालती कार्यवाही विलम्ब एवं व्ययकारी होने के कारण न्याय के स्थान पर अन्याय प्रदान करने लग जाती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक व्यक्ति की इस अधिकारिता को स्वीकार किया है कि वह निर्धन, असमर्थ अथवा समाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़े व्यक्ति, समूह या वर्ग के लिये न्यायालय के समक्ष वाद प्रस्तुत कर सकता है। यह वाद राज्य सरकार, सरकारी अधिकारी या प्राधिकरण के विरूद्ध लाया जा सकता है। अपने न्यायिक निर्णयों में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अनु. 21 में जीवन का अर्थ, केवल भौतिक अस्तित्व की सुरक्षा मात्र न होकर उन सभी नैसर्गिक शक्तियों से है, जिनके द्वारा जीवन का उपभोग किया जाता है तथा मनुष्य की आत्मा बाह्य जगत में संरचन करती है।
इसमें मानव प्रतिष्ठा के साथ जीवनयापन के अधिकार को उक्त मौलिक अधिकार के अंतर्गत शामिल किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने पूर्णतः स्पष्ट कर दिया है कि कार्यपालिका के ‘स्वविवेक’ पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।
उसके लिये विवेक तथा ‘अ-स्वेच्छाचारिता’ को आधार समझना चाहिए। ‘राज्य’ अथवा ‘कार्यपालिका’ का अर्थ प्रत्येक प्रकार की सार्वजनिक सत्ता है। कस्तूरीमल रेड्डी के विवाद में सुप्रीम कोर्ट का यह दृष्टिकोण रहा है कि राज्य के स्वविवेक का आधार संविधान के चतुर्थ अध्याय में वर्णित राज्य-नीति के निदेशक सिद्धांत होना चाहिए। जिसमें सार्वजनिक हित के मानदण्ड को प्रस्तुत किया गया है।
इस तरह सर्वोच्च न्यायालय की यह मान्यता बन गयी है कि यद्यपि न्यायालय का काम कानून बनाना या निर्माण करना नहीं है, लेकिन वह कानून की रूपरेखाओं में रंग अवश्य भरता है अथवा विधि की सूखी हड्यिों में रक्त मांस अवश्यमेव चढ़ाता है। इस तरह वह कानून के निर्माण में भी भाग ले रहा है।
न्यायधीश एक ऐसा सृजनात्मक कलाकार है जिसमें न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती के अनुसार, अरस्तू व प्लेटो दोनों के गुण पाये जाते हैं। एक ओर वह ‘विधि के शासन’ का संस्थापक है तो दूसरी ओर, प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार न्याय प्रदान करने वाला दार्शनिक राजा भी है।
गणतंत्र का पहला उद्देश्य नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय उपलब्ध कराना है किंतु पिछले वर्षों में हुआ यह है कि विभिन्न निहित स्वार्थ और हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि और प्रशासक हम नागरिकों के हितों और गरिमा की रक्षा करने और हमें न्याय दिलाने के बजाय, अपने निजी स्वार्थों के पोषक, सत्ता के सौदागार, जनता के शोषक और जनहित के शत्रु बन बैठे हैं। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका ने जनहित में विधि और न्याय का शासन सुरक्षित करने के लिये अपने क्षेत्राधिकार में अधिक सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभाने का बीड़ा उठाया। ऐसी चार स्थितियां समझ में आती हैं, जिनमें न्यायालय अपने निर्दिष्ट विशेष क्षेत्र का अतिक्रमण कर अन्य क्षेत्रें में विशेषकर कार्यपालिका के क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने लगते हैं:
जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायिक सक्रियता के जिस दौर की शुरुआत हुई है उससे पलड़ा न्यायपालिका के पक्ष में झुका दिखाई देता है। इसको लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका में जबरदस्त हलचल मची है। किन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि तथाकथित न्यायिक सक्रियता आज की विभिन्न समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं दे सकती। वह तो केवल घोर आपातकालीन दवा का काम ही कर सकती है। अन्ततः कार्यपालिका एवं विधायिका को अपना-अपना काम ईमानदारी के साथ करना सीखना होगा। न्यायपालिका न तो विधायिका का स्थान हो सकती है और न ही कार्यपालिका का। साथ ही आज की विशेष परिस्थितियों में न्यायिक अधिनायकवाद के हौवे का भय दिखाना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि न्यायपालिका भी तभी तक सक्रिय रह सकती है और प्रभावी हो सकती है जब तक दूसरी दो संस्थायें उसका आदर करे। और उसके आदेशों का पालन करे। इस तरह से यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय का स्वरूप सक्रिय या विधेयात्मक बन गया है, और आम जनता के सामाजिक-आर्थिक उत्थान में बराबर का भागीदार बन रहा है। एक ओर, उसने संविधान की निषेधात्मक एवं उच्च वर्गोंन्मुख धाराओं को रचनात्मक तथा जनोन्मुख बनाया है, तो दूसरी ओर जनहितकारी विवादों में प्रत्येक व्यक्ति को भाग लेने का अधिकार देकर औचित्यपूर्ण कार्यविधि के सिद्धांत की स्थापना करके मानव प्रतिष्ठा के विस्तृत अर्थ ग्रहण करके तथा वाद संबंधी, विशेषतः निर्धन एवं दुर्बल पक्षकारों को समान धरातल पर लाकर आम जनता की काया पलट करने में भारी योगदान किया है।
Question : राज्य की नीति के निदेशक तत्व केवल पुनीत घोषणाएं नहीं हैं, वरन् वे राज्य नीति के मार्गदर्शन के लिए सुस्पष्ट निदेश हैं।
(2007)
Answer : संविधान के भाग प्ट में अनुच्छेद 36 से 51 तक निदेशक सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है। राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत देश की विभिन्न सरकारों और सरकारी अभिकरणों के नाम जारी किये गये निर्देश हैं, जो देश की शासन व्यवस्था में मौलिक तत्त्व हैं। दूसरे शब्दों में, ये सिद्धांत ऊंचे-ऊंचे आदर्शों की घोषणायें हैं, जो कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को दिये गये निदेश हैं। अक्सर इनकी यह कहकर आलोचना की जाती है कि निदेशक सिद्धांत बिल्कुल व्यर्थ व महत्त्वहीन हैं। वास्तव में, सांविधानिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण से नीति निदेशक सिद्धांतों का बहुत अधिक महत्व है।
डा. पायली के अनुसार, इन निदेशक सिद्धांतों का महत्व इस बात में है कि ये नागरिकों के प्रति राज्य के सकारात्मक कर्त्तव्य हैं। यद्यपि इन निदेशक सिद्वांतों को न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पीछे जनमत की सत्ता होती है, जो प्रजातंत्र का सबसे बड़ा न्यायालय है। अतः जनता के प्रति उत्तरदायी कोई भी सरकार इनकी अवहेलना का साहस नहीं कर सकती।
संविधान के अनुसार निदेशक सिद्धांत शासन में मूलभूत हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि देश के प्रशासन के लिये उत्तरदायी सभी सत्ताएं उनके द्वारा निर्देशित होगी। प्रो. एलेकजेण्ड्रोविच का मत है कि चूंकि निदेशक सिद्धांतों में संविधान सभा की आर्थिक और सामाजिक नीति बोल रही है और क्योंकि उसमें हमारे संविधान-निर्माताओं की इच्छा की अभिव्यक्ति है, इसलिए हमारे न्यायालयों का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वे मौलिक अधिकारों संबंधी उपबंधों की व्याख्या करते समय राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धांतों का पूरा-पूरा ध्यान दें। न्यायिक निर्णयों में भी बार-बार यह दुहराया गया है कि सीतलवाड़ के शब्दों में ‘राज्य नीति के इन मूलभूत सिद्वांतों को वैधानिक प्रभाव न होते हुये भी इनके द्वारा न्यायालय के लिये उपयोगी प्रकाश-स्तंभ का कार्य किया जाता है। निदेशक सिद्धांतों के बारे में यह बात कही जाती है कि यद्यपि विधानसभा के सदस्यों तथा कुछ संविधान वेताओं ने यह भय प्रकट किया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल इस आधार पर किसी विधेयक पर अपनी सम्मति देने से इंकार कर सकते हैं कि वह निर्देशक सिद्धांतों के प्रतिकूल है।
पर ऐसी संभावना कम है क्योंकि संसदात्मक शासन प्रणाली में नाममात्र का कार्यपालिका प्रधान लोक प्रिय मत्रिपरिषद् की अवहेलना नहीं कर सकता। राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत संविधान में शामिल है, इसलिए वे बहुमत दल के अस्थाई आदेश मात्र नहीं है, बस इनमें राष्ट्र की बुद्धिमत्तापूर्ण स्वीकृति बोल रही है, जो संविधान सभा के माध्यम से व्यक्त हुई थी।
Question : न्यायिक सक्रियतावाद (200 शब्द)
(2006)
Answer : एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और निर्भय न्यायपालिका किसी भी लोकतंत्र के लिए गौरव का विषय होती है। इसलिए जब जनता को विधायिका तथा कार्यपालिका से अधिक निराशा हो जाती है, तब वह विवश होकर न्यायपालिका की ओर देखने लगती है। जब न्यायपालिका संवैधानिक परिधि के अंतर्गत ही जनता की पीड़ा और निराशा का निवारण करने का प्रयास करती है तो इसे न्यायिक सक्रियता की संज्ञा दी जाती है।
‘न्यायिक सक्रियता’ की कोई वैधानिक परिभाषा (Statutory definition) उपलब्ध नहीं है। न्यायिक सक्रियता को निम्न प्रकार से निरुपित किया जा सकता है-
‘यह एक सक्रिय, सजग एवं कर्तव्यपरायण न्यायपालिका द्वारा कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक दायित्व के निर्वहन का एक व्यावहारिक, किंतु अपरम्परागत ढंग है।’
न्यायिक सक्रियता की उत्पत्ति संयुक्त राज्य अमेरिका में हुई। अमेरिकी संघीय न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जान मार्शल को न्यायिक सक्रियता का पिता कहा जाता है, जिन्होंने सन् 1803 में ‘मरकरी बनाम मेडि़सोन’ के मामले में ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा था कि न्यायालयों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री ए. एम. अहमदी के अनुसार न्यायिक सक्रियता जैसे शब्द को मान्यता नहीं दी जा सकती। ‘न्यायिक सक्रियता’ पद का सृजन प्रेस द्वारा किया गया है और यह एक भ्रामक शब्द है।
भारत में न्यायपालिका द्वारा दिखाई जा रही सक्रियता किसी एक कारण का परिणाम नहीं है, बल्कि यह कई कारणों का संयुक्त परिणाम है। भारत में जनहित मुकदमों में वृद्धि एवं राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक समस्याओं के समाधान में कार्यपालिका एवं विधानपालिका की उदासीनता न्यायिक सक्रियता का कारण रही है। वस्तुतः आज जो कार्य न्यायपालिका द्वारा किया जा रहा है, उसे सामान्यतः कार्यपालिका व विधायिका को करना चाहिए। इसका एक विशेष कारण विधानपालिका तथा कार्यपालिका द्वारा कठोर और अप्रिय निर्णय लेने में आना कानी है। इनकी निष्क्रियता के कारण राष्ट्रीय संसाधनों का अपेक्षित प्रयोग नहीं हो पा रहा है। न्यायिक सक्रियता को अब अधिकार के रूप में देखा जा रहा है। नीतियां प्रवर्तनीय नहीं होतीं, किंतु अधिकार प्रवर्तनीय होते हैं, फलतः न्यायिक सक्रियता बढ़ी है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक अधिकारियों पर राजनैतिक दबाव भी न्यायिक सक्रियता में योगदायी रहे हैं। सिविल सेवक अपने मंत्रियों का प्रतिरोधों नहीं कर सकते। वे प्रतिरोध करने के बजाय अनुकूलन में लगे हुए हैं। कहीं-कहीं उनके बीच ‘अपवित्र गठबंधन’ भी है। ऐसे में पीडि़त व्यक्ति का उपचार हेतु न्यायपालिका की ओर भागना स्वाभाविक है। लोग सामाजिक समस्याओं का समाधान भी न्यायपालिका की सहायता से ढूंढ़ रहे हैं। इससे लोकहितवाद में वृद्धि हुई है।