Question : राजनीतिक चिंतन के इतिहास में मौकियावली के महत्त्व पर चर्चा कीजिए। क्या यह कहना सही होगा कि मैकियावली की थियोरी ‘संकीर्णतः स्थानीय और संकीर्णतः कालबद्ध’ है?
(2007)
Answer : सेबाइन का यह कथन कि ‘मैकियावली का राजनीतिक दर्शन संकीर्ण रूप से स्थान विशेष और समय विशेष के लिये था’ उसके राजनीतिक विचारों का केन्द्र-बिंदु कहा जा सकता है। उसके विचारों में अपने युग के विचारों तथा संदभों का प्रतिबिम्बि अत्यधिक स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मैकियावली का युग पुनर्जागरण का युग था और इसी कारण इसे पुनर्जागरण का प्रतिनिधि भी कहा जाता है। मैकियावली अपने युग से जितना प्रभावित हुआ, उतना बहुत ही कम लेखक अपने युग से प्रभावित होते हैं। वह अपने युग का ऐसा व्यक्ति, दार्शनिक तथा पर्यवेक्षक है, जिसने समकालीन परिस्थितियों को सही और यथार्थ रूप में देखा।
उस समय की सामाजिक और राजनीतिक बुराइयों को अनुभव किया और अपनी रचनाओं में उसके समाधान प्रस्तुत किये। मैकियावली का जन्म ज्ञान और बुद्धि के पुनरोदय के काल में हुआ था और उसकी रचनाओं में पुनर्जागरण की आत्मा स्पष्ट रूप से झलकती है। पुनर्जागरण के काल में साहित्य, कला, दर्शन, राजनीति एवं विज्ञान के क्षेत्र में मध्य युग के आदर्शों का अंत हो रहा था एवं यूनान तथा रोम के प्राचीन आदर्शों में लोगों की आस्था बढ़ रही थी। राजनीतिक क्षेत्र में सामंतवाद का अंत होकर राष्ट्रीय राज्य की स्थापना हो रही थी तथा राजनीतिक क्षेत्र में धर्म और नैतिकता, चर्च और बाइबिलवाद के प्रभाव को समाप्त किया जा रहा था। पोप की मध्यकालीन निरकुंश धार्मिक सत्ता तथा नैतिकता में लोगों का विश्वास उठ गया था और उसका स्थान बुद्धि, विवेक तथा तार्किकता ने ग्रहण कर लिया था। इस काल में व्यापार और छापाखाने की कला तथा यातायात के साधनों के विकास ने नये जीवन, नयी चेतना, नये दृष्टिकोण, स्वतंत्रता की नयी भावना और जीवन के नवीन मूल्यों को जन्म दिया था। सभी सीमाओं और प्रतिबंधों से मुक्त स्वछन्द बौद्धिक भ्रमण इस युग की विशेषता थी। फलोरेंस इस नवीन संस्कृति का केन्द्र था, और मैकियावली पूर्ण रूप से एक फलोरेंस वासी था।
अतः उसने अपने चिंतन में सामंतवाद के स्थान पर राष्ट्रवाद राजनीति को धर्म और नैतिकता से अलग करके और राज्य के सिद्धांतों के स्थान पर शासन कला का प्रतिपादन किया। पुनर्जागरण की यह अवधारणा मैकियावली में घर कर गयी थी कि ‘मानव स्वयं ही अपने जीवन का निर्माता है’ यह विश्व विकासशील है और इसमें उन्हीं का अस्तित्व रहता है जो अस्तित्व के लिये संघर्ष करते हैं। मैकियावली ने राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने के लिये जो सुझाव दिये, उनमें पुनर्जागरण की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। मैकियावली ने तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार राजा को सलाह दी है कि राज्य के अस्तित्व के लिए और उसे बनाये रखने के लिए आचार तथा धर्म के सिद्धांतों की चिंता नहीं करनी चाहिए और लोककल्याण के लिये इन सिद्धांतों की अवहेलना करने को तत्पर रहना चाहिए।
मैकियावली ने नरेश को छल-बल से राज्य तथा अपने शासन की रक्षा करने की खुलकर सलाह दी है। धर्म और नैतिकता विरोधी मैकियावली की यह विचारधारा अपने युग के नितान्त अनुरूप थी क्योंकि यूरोप के राष्ट्रीय राज्य- फ्रांस, इंग्लैंड और स्पेन धर्म और नैतिकता से उदासीन होकर अपने स्वार्थों की सिद्धि कर रहे थे। अतः मैकियावली भी इटली को पोप के प्रभाव तथा नैतिक बंधनों से मुक्त कर एक राज्य के रूप में देखना चाहता था। मैकियावली की नैतिकता, धर्म और राजनीति की पारस्परिक संबंध विषयक धारणाएं और शासन के स्वरूप का उसका समस्त ढांचा, मानव स्वभाव संबंधी विचार पर ही आधारित है। इस प्रकार मानव स्वभाव संबंधी उसकी धारणा उसके समस्त राजनीतिक दर्शन का केन्द्र बिंदु है। मानव समाज संबंधी उसके विचार तत्कालीन इटली के स्वभाव चरित्र और कार्यों पर ही आधारित है।
मैकियावली के अनुसार, मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी, घोर दानवी प्रवृत्तियों वाला और दुष्ट होता है। उसके मतानुसार, मनुष्य की सभी सामाजिक और राजनीतिक क्रियाओं का मूल स्रोत उसका घोर स्वार्थवाद ही होता है। प्रिंस में उसने लिखा है कि सामान्य रूप से मनुष्यों के बारे में यह कहा जा सकता है कि वे कृतध्न, चंचल, झूठे, कायर और लोभी होते हैं। जब तक आपको सफलता मिलती है, वे पूर्ण रूप से आपके बने रहेंगे।
वे आपके लिए उस समय तक अपने जीवन, रक्त, संपत्ति और बच्चों का बलिदान करने के लिये तैयार रहेंगे, लेकिन जैसे ही उनके लिये आपकी आवश्यकता समाप्त हो जाती है, तो ये आपके विरूद्ध हो जाते हैं, मनुष्य किसी से तभी तक प्रेम करते हैं, जब तक कि उनका स्वार्थ सिद्ध होता है। वह लिखता है कि व्यक्ति अपने व्यवहार में दो तत्त्वों से परिचालित होता है, प्रेम और भय। इन दोषों के अतिरिक्त धनोपार्जन की प्रवृत्ति तीसरी प्रमुख शक्ति है। मैकियावली के अनुसार, मानव जीवन में धनोपार्जन की प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है।
उसका कहना था कि ‘अपनी संपत्ति छीनने वाले की अपेक्षा एक व्यक्ति अपने पिता के हत्यारे को अधिक सुगमता से क्षमा कर देता है। मैकियावली का विचार है कि मानव जीवन को भय, प्रेम से अधिक प्रभावित करता है। अतः राजा को प्रजावत्सल भी नहीं, वरन् ऐसा होना चाहिए कि लोग उससे डरते रहें। जब तक वे राजा से डरेंगे, तभी तक वे उससे प्रेम करेंगे और उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करेंगे।
मैकियावली के अनुसार, मानव स्वभाव से दुष्ट और धोखेबाज होता है, इसलिए उसका साथ निभाने के लिये सरकार को उतनी ही निरकुंश और शक्तिशाली होनी चाहिए। वह राजा को सलाह देता है कि एक कुशल शासक मानवीय प्रकृति की दुर्बलताओं को दृष्टि में रखकर, छल-बल का प्रयोग करके, एक अच्छे शासक की प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के स्वभाव में संपत्ति के अर्जन की प्रबल इच्छा को दृष्टि में रखते हुये वह कहता है कि- बुद्धिमान शासक व्यक्ति की हत्या भले कर दें, पर उसकी संपत्ति को लूटे। मानवीय स्वभाव की दुर्बलताओं को दृष्टि में रखते हुये ही वह इस बात का प्रतिपादन करता है कि राजा में शेर का साहस और लोमड़ी की चालाकी दोनों ही होने चाहिए। शासन के विरूद्ध किये जा रहे विभिन्न प्रकार के षड्यंत्रों और उपद्रवों को जानने और उनसे बचने के लिये उसमें लोमड़ी की चालाकी और मक्कारी एवं भेडि़यों अर्थात् विदेशी आक्रमणकारियों को डराने के लिये उसमें सिंह जैसी शक्ति होनी चाहिए।
मैकियावली के अनुसार, मनुष्य मानवीयता और पशुता के विरोधी तत्त्वों से मिलकर बना है। अतः राजा को इन दोनों तत्त्वों के साथ व्यवहार करने के उपायों का ज्ञान होना चाहिए।
यद्यपि मैकियावली कोई राजनीतिक सिद्धांतवादी नहीं था। उसकी रूचि प्रमुख तथा व्यवहारिक बातों में थी और उसने राज्य सिद्धांत की अपेक्षा शासन तंत्र के विषय में ही अधिक लिखा है तथापि आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत का जनक होने के कारण राजनीतिक विचारों के इतिहास में वह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। राजनीतिक विचार को मैकियावली की महत्त्वपूर्ण देन यह है कि उसने इस बात को अस्वीकार किया कि मानव जीवन का कोई प्राकृतिक लक्ष्य होता है और उसका जीवन दैवी या प्राकृतिक कानून से नियमित होता है। ऐसा करके उसने राज्य के प्रगतिशील सिद्धांत को संभव बनाया। मैकियावली का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य राजनीति को धर्म के बंधनों से मुक्त करना है। मैकियावली ने जिन सिद्धांतो का प्रतिपादन किया, उनका समकालीन रानीतिज्ञों ने बड़ा विरोध किया। पोप संत पायस पंचम ने ईसाइयों के अध्ययन के लिये निषिद्ध पुस्तकों की सूची में सर्वोच्च स्थान मैकियावली की कृत्तियों को दिया है, और जर्मनी के शासक फ्रेडरिक महान ने तो मैकियावली की नीतियो का विरोध करते हुये एक पुस्तक ही लिख डाली थी। किंतु आश्चर्य की बात यह है कि मैकियावली की जिन नीतियों का उसने विरोध किया, उन्हीं का व्यावहारिक राजनीति में अनुसरण कर उसने सफलता प्राप्त की। समकालीन इटली ने भले ही मैकियावली की बात न मानी हो, किंतु 350 वर्ष के बाद जब इटली का राष्ट्रीय आधार पर एकीकरण हो गया, तो इटालियन काउण्ट कैवूर ने लक्ष्य सिद्धि के साधनों की चर्चा करते हुये एक बार कहा था ‘हमने इटली के लिये जो कुछ किया, यदि वह अपने लिये करते, तो हम बहुत बड़े दुष्ट होते। इटली में राष्ट्रीयता की भावना मैकियावली के विचारो द्वारा ही जाग्रत हुई। उसे इटली का प्रथम राष्ट्रवादी और प्रथम देशभक्त कहा जा सकता है। राजनीति विज्ञान में मैकियावली को उसके अनैतिक सिद्धांतों के कारण धूर्तता, मक्कारी और छलकपट का प्रतीक माना जाता रहा है, किंतु वास्तव में उसने अपनी पुस्तक में वे ही बातें लिखी हैं, जो शासक लोग हमेशा करते रहे हैं, उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसने तत्कालीन राजनीतिक जीवन का यथार्थवादी दृष्टिकोण से सूक्ष्म विश्लेषण करते हुये शासकों के उन कृत्यों को खोलकर रख दिया, जिन पर अब तक पर्दा पड़ा था।
Question : वैश्वीकरण का राज्य संप्रभुता पर प्रभाव।
(2006)
Answer : प्रभुसत्ता या संप्रभुता राज्य का अनिवार्य लक्षण है। प्रभुसत्ता राज्य की ऐसी विशेषता है, जिसके कारण वह कानून की दृष्टि से केवल अपनी इच्छा से बंधा होता है। अन्य किसी की इच्छा से नहीं, कोई अन्य शक्ति उसकी अपनी शक्ति को सीमित नहीं कर सकती। वर्तमान युग में जहां संचार के अति उन्नत्र यंत्रों का विकास हो चुका है तथा पूरी दुनिया को एक छोटे से गांव में बदल दिया है, यातायात के तीव्र साधन मौजूद हैं, जहां कुछ ही घंटों में व्यक्ति दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में पहुंच सकता है, ऐसी स्थिति में संप्रभुता की अवधारणा वर्तमान राष्ट्र-राज्यों पर कहां तक प्रभावी है? आज प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था उस विश्व वातावरण में काम कर रही है, जिस पर किसी राष्ट्र का नियंत्रण नहीं है, परंतु जो उसके नीति निर्माण व अर्थव्यवस्था को अत्यधिक प्रभावित करता है।
बहुत से आर्थिक व व्यापारिक निर्णय राष्ट्र राज्यों के हाथों से निकलते जा रहे हैं। इन नए परिवर्तनों ने राष्ट्र-राज्यों की प्रभुसत्ता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है। आज यूं तो औपचारिक रूप से कर लगाना, आयात-निर्यात नीति, पूंजी निवेश, विनिमय दरें, सीमा शुल्क अधिनियम आदि पर प्रत्येक राष्ट्र अपनी मर्जी से निर्णय लेने का अधिकार रखता है, परंतु इस शक्ति का कहां, कैसे और किस सीमा तक प्रयोग किया जाएगा? यह उस राज्य की सौदेबाजी की शक्ति पर निर्भर करता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जहां छोटे-बड़े, कमजोर-बलवान, विकसित-अविकसित राज्य साथ-साथ रहते हैं, इनमें प्रभुसत्ता की धारणा थोड़ी भ्रमपूर्ण दिखाई पड़ती है। यह भ्रम इसलिए पैदा होता है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का सदस्य बनने के लिए एक राष्ट्र को आंतरिक व बाह्य दृष्टिकोण से स्वतंत्र होना आवश्यक है, परंतु प्रभुसत्ता के इस सिद्धांत के अधिकार का उल्लंघन किया गया है।
तथापि इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रभुसत्ता राज्य का अंग नहीं रहा या राज्य समाज में लोगों से आज्ञाओं का पालन करवाने वाली संस्था या कानून बनाने की अंतिम शक्ति नहीं रही। फर्क केवल इतना है कि आज सिद्धांत व व्यवहार में काफी अंतर आ चुका है।