Question : ''राज्य बृहत् स्वरूप में व्यक्ति ही है।'' (प्लेटो)
(2005)
Answer : अपने आदर्श राज्य का चित्रण करते हुए प्लेटो व्यक्ति तथा राज्य के बीच एक स्पष्ट साध्श्यता खड़ा कर देता है। उनका कथन था कि राज्य मानव मानस का प्रतिरूप है और जिस प्रकार एक आदर्श मानव में सत्, रज तथा तम गुणों का मेल होना चाहिए, उसी प्रकार एक आदर्श राज्य में, इन तीनों गुणों का सामंजस्य और सतोगुण की अन्य गुणों पर प्रधानता होनी चाहिए यह एक शाश्वत सत्य है।
प्लेटो न्याय के दो रूपों का वर्णन करता है- व्यक्तिगत, समाजिक एवं राज्य से संबंधित। प्लेटो की ये धारणा है कि मानवीय आत्मा में तीन तत्वों का अंश विद्यमान है। वे हैं- तृष्णा, विवेक एवं शौर्य। मानव आत्मा का सबसे निम्न तत्व भूख और उच्चतम तत्व युक्ति है। क्षुधा तो चिड़चिड़ाहट पैदा करने वाला तत्व है। विवेक (Reason) मानव आत्मा का युक्तिसंगत तत्व है। यह मानव आत्मा के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इन दोनों के बीच के तत्व शौर्य का परिचय देता है। इसका मुख्य कार्य मनुष्य को युद्ध करने तथा राज्य की रक्षा करने के लिए प्रेरित करना है। ये तीनों गुण जब उचित अनुपात में मानव मस्तिष्क में विद्यमान रहते हैं तभी व्यक्ति न्याय का पालन करता है।
राज्य के संबंध में प्लेटो का विचार है कि ''राज्य मानव मस्तिष्क का ही व्यापक रूप है। राज्य बलूत के वृक्ष अथवा चट्टानों से नहीं आते बल्कि उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों से ही आते हैं।'' अतः मानव जीवन के इन गुणों के अनुरूप ही प्लेटो राज्य के चार गुण बतलाता है। यह हैं-बुद्धिमत्ता, साहस, संयम और न्याय। ये तीनों गुणों के प्रतिनिधि के रूप राज्य के तीन गुण होते हैं-शासक वर्ग, सैनिक या रक्षक वर्ग और उत्पादक या सेवक वर्ग कहा जाता है। इस त्रिवर्गीय विभाजन के आधार पर प्लेटो एक के बाद एक कर तीन चरणों में अपने आदर्श राज्य का विकास करते हैं। प्रथम, व्यक्तियों की भौतिक जरूरतों से राज्य की उत्पत्ति होती है। द्वितीय, बाहरी हमलों तथा आंतरिक कलहों के लिए राज्य के अंदर सैनिक तत्व की आवश्यकता है। तृतीय, इसमें शासक वर्ग होते हैं जो युक्तिगत ज्ञान के साथ शासन करते हैं। यही प्लेटो का आदर्श राज्य हैं।
Question : ''उनके (अधिकारियों के) गबन के तरीके चालीस हैं।'' (कौटिल्य)
(2005)
Answer : कौटिल्य का राज्य बहुत सीमा तक एक कल्याणकारी राज्य है और उसने प्रशासनिक व्यवस्था का विषद विवेचना किया है। कौटिल्य के अनुसार प्रशासनिक कार्य अत्यंत योग्य अधिकारियों द्वारा किया जाना चाहिए और राजा द्वारा इन अधिकारियों के कार्यों तथा चरित्र पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए, जिससे वे अपने पद तथा अधिकारों को भ्रष्ट तरीके अपनाकर दुरूपयोग न करें और राज्य की आय तथा प्रजा के कल्याण को आघात पहुंचाकर स्वयं अपनी स्वार्थसिद्धि में न लग सकें।
इन कर्मचारियों पर केवल उच्चस्तरीय अधिकारी वर्ग का ही नियंत्रण नहीं है, बल्कि उनके कार्यों तथा आचरण का निरंतर परीक्षण करने के लिए व्यापक गुप्तचर व्यवस्था का विधान कौटिल्य के द्वारा किया गया है। कौटिल्य के अनुसार अधिकारियों के पास बहुत सारे हथकंडे हैं राज्य की आय को दुरूपयोग करने के लिए।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार की संभावना को व्यक्त करने के लिए उन्होंने जो दृष्टांत दिये हैं, उनमें इनकी अनोखी सुझ-बूझ झलकती है। उन्होंने लिखा है कि कोई व्यक्ति अपनी जिह्ना पर रखे मधु या विष के स्वाद के प्रति उदासीन, रहे-ऐसा संभव नहीं है। साथ ही साथ उन्होंने आग्रह किया है कि जैसे यह पता लगाना कि पानी में चलने-फिरने वाली मछली कब, कैसे और कितना पी जाती है, यह पता लगाना बहुत मुश्किल है, ठीक उसी प्रकार प्रशासनिक अधिकारियों के शक्ति का दुरूपयोग जानना बहुत मुश्किल है। अतः राजा को इनकी गतिविधियों पर लगातार निगरानी रखनी चाहिए।
Question : '' संघीय राज्य में संप्रभु की खोज एक असंभव साहसिक कार्य है।'' (लास्की)
(2005)
Answer : लास्की का विचार है कि राज्य वस्तुतः वर्ग शक्ति, वर्ग-प्रभुत्व या वर्ग शोषण का साधन नहीं है। यदि यथार्थ जगत में ऐसा कोई राज्य विद्यमान है तो वह राज्य का विकृत रूप है। एक सच्चे उदारवादी होने के नाते लास्की स्वयं राज्य को सर्वगुण संपन्न संस्था नहीं मान लेता है, जैसा कि हीगेल के आदर्शवादी सिद्धांत के अंतर्गत माना गया था। ‘द स्टेट इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस’ के अंतर्गत लास्की ने राज्य के मूल्यांकन के लिए एक निश्चित मापदंड प्रस्तावित किये हैं। लास्की के अनुसार ''राज्य की ओर आज्ञा पालन का दावा इस आधार पर किया जा सकता है कि वह अपने नागरिकों की इच्छा पूर्ति के लिए कितना अग्रसर तथा समर्थ है।'' इसलिए उसने राज्य और समाज में विभेद स्थापित करते हुए राज्य की तुलना में समाज की सत्ता को सर्वोच्च माना है। वह राज्य को सर्वशक्तिमान तथा प्रभुसत्तासंपन्न एवं समाज का सर्वोपरि न मानकर परिवार, चर्च और मजदूर संघ आदि समूह की भांति एक सामान्य समूह मानता है।
लास्की ऑस्टिन के संप्रभुता सिद्धांत को खंडित करते हुए बहुलवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। लॉस्की के अनुसार इतिहास और वर्तमान व्यवहार के आधार पर प्रभुसत्ता का सिद्धांत असत्य, अवास्तविक और अयुक्तिपूर्ण है। लॉस्की ने अनेको उदाहरण दिये, जिसमें राज्य को शक्तिशाली, धार्मिक, आर्थिक समुदायों के इच्छा के सम्मुख झुकना पड़ा, इसलिए असीमित सत्ता विद्यमान नहीं है। लास्की का विचार कानून संप्रभुता की आज्ञा मात्र नहीं है, वरन् परंपराओं, रीति-रिवाजों एवं धार्मिक नियमों द्वारा निर्मित होता है और उसका पालन स्वयं के औचित्य के कारण होता है। इस आधार पर ये निष्कर्ष निकलता है कि संप्रभुता कहीं विद्यमान नहीं है।
लॉस्की के अनुसार व्यक्ति का सर्वोच्च नैतिक कर्तव्य अपने व्यक्तित्व का विकास करना है। परंतु इस तरह राज्य के संप्रभु होने से व्यक्ति केवल साधन मात्र रह जाता है और इस अवस्था में वह अपने व्यक्तित्व का विकास नहीं कर पाता है। प्रभुतासंपन्न राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार में भी मनमाना आचरण करते हैं। अतः लॉस्की का कहना है फ्निश्चय ही निरपेक्ष और स्वतंत्र प्रभुतासंपन्न राज्य की अवधारणा की मानवता के हितों से संगति नहीं बैठती।
Question : ''किसी मानव की कार्य-स्वतंत्रता में, व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से, हस्तक्षेप करने में मानव जाति के जिस एकमात्र उद्देश्य को औचित्यपूर्ण ठहराया जा सकता है, वह है आत्मरक्षा'' (जे.एस. मिल)
(2005)
Answer : जे.एस. मिल व्यक्तिवाद एवं स्वतंत्रता का महान प्रवर्तक माना जाता है। उसने समय के अनुरूप स्वतंत्रता की संकल्पना को नया रूप दिया। मिल का विश्वास था कि सामाजिक एवं राजनीतिक प्रगति बहुत हद तक व्यक्ति की मौलिकता और ऊर्जा पर आश्रित है। साथ ही मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वथा आवश्यक है।
मिल ने व्यक्ति स्वातंत्र्य के दो पहलुओं पर बल दिया है-विचार स्वातंत्र्य और कार्य स्वातंत्र्य। मिल के द्वारा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पूरक रूप में कार्य स्वतंत्रता का प्रतिपादन किया गया है। मिल के अनुसार कार्य स्वातंत्र्य में व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रकट होता है और यह उसकी आत्मोन्नति का मार्ग है। लेकिन कार्य की स्वतंत्रता उस सीमा तक ही प्राप्त हो सकती है जहां तक यह स्वतंत्रता अन्य व्यक्तियों की इसी प्रकार की स्वतंत्रता में बाधक नहीं बनती हो अर्थात् व्यक्ति के कार्यों का प्रभाव अन्य व्यक्तियों पर पड़ता है। इसलिए समाज या अन्य व्यक्ति अपनी आत्मरक्षा के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता पर आपत्ति कर सकता है।
मिल ने व्यक्ति के कार्यों को दो भागों में बांटा है- स्व-विषयक एवं पर-विषयक। मिल स्व-विषयक क्षेत्र में व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने के पक्ष में है, जिसमें व्यक्ति के अति व्यक्तिगत कार्य आते हैं, जैसे-सोना, खाना, पहनना, आचार-विचार इत्यादि। यदि व्यक्ति रहन के तरीकों या समाज की प्रचलित व्यवस्थाओं की चिंता किए बिना ही अपने निजी तरीकों से रहता है तो इसमें राज्य या समाज के अन्य व्यक्तियों द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए। परंतु पर-विषयक कार्यों के क्षेत्र व्यक्तियों की स्वतंत्रता सीमित है और खासकर तब, जबकि उसके कार्यों से अन्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता में बाधा पहुंचती है। इस संबंध में मिल ने लिखा है कि ''एक मात्र उद्देश्य जिसके लिए व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से मानव जाति को अधिकार प्राप्त है कि वह अपने किसी सदस्य की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप कर सके, आत्मरक्षा ही है।''
Question : क्या आप इस विचार से सहमत हैं कि उदारवादी थियोरियां ‘परमाणुवाद’ पर आधारित हैं, जबकि समुदायवादियों की एक ‘सामाजिक स्थापना’ होती है? अपनी तर्क-रेखा प्रस्तुत कीजिए।
(2005)
Answer : उदारवाद राजनीति का ऐसा सिद्धांत है जो व्यक्ति को यथासंभव अधिकतम स्वतंत्रता प्रदान करके सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देना चाहता है। इस सिद्धांत के शुरूआती दौर में इसके प्रतिपादक व्यक्ति को राजनीति का केंद्र बताते हुए व्यक्तिवाद को अपनाया परंतु धीरे-धीरे इसने राजनीति समूहों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए बहुलवाद को अपना लिया। ये बदलती हुई परिस्थितियों में नई चुनौतियों को सामना करने हेतु नये-नये विचारों को अपनाता चला गया। इसने मुक्त बाजार व्यवस्था को जनहित का उपयुक्त साधन मानते हुए राज्य के लिए अहस्तक्षेप की नीति का समर्थन कर शुरूआत किया और बाद में बाजार व्यवस्था को जनहित के अनुरूप नियमित करने की आवश्यकता स्वीकार करते हुए कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत को सही ठहराया।
उदारवाद की उत्पत्ति में विभिन्न परिस्थितियों का काफी योगदान रहा है, जिनमें प्रमुख हैं-पुर्नजागरण, धर्म सुधार आंदोलन, वैज्ञानिक क्रांति, औद्योगिक क्रांति और ज्ञानोदय। बदलती हुई परिस्थितियों के साथ उदारवाद की व्याख्या भी बदलती गयी। उदारवाद के ऐतिहासिक विकास के तीन स्तर हैं- जो दर्शाते हैं कि किस तरह उदारवाद व्यक्ति से शुरू होकर समाज तक पहुंचाता है। इनके तीन स्तर हैं- चिरसम्मत उदारवाद या नकारात्मक उदारवाद, आधुनिक उदारवाद या सकारात्मक उदारवाद तथा समकालीन उदारवाद।
चिरसम्मत उदारवाद या नकारात्मक उदारवाद वैयक्तिक अधिकारों की सांविधानिक सुरक्षा की मांग तक सीमित था। ये धार्मिक स्वतंत्रता, सहिष्णुता, संविधानवाद तथा राजनीतिक अधिकारों की मांग के रूप में सामने आया। इसका ध्येय व्यक्तियों को सर्वोच्च सत्ता से मुक्ति दिलाना था। इसके विकास में जॉन लॉक, एडम स्मिथ, जेरेमी बेंथम तथा हर्बट स्पेंसर का नाम उल्लेखनीय है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में उदारवादी चितंक अपना ध्यान स्वतंत्रता के नकारात्मक पक्ष से हटाकर सकारात्मक पक्ष पर बल देने लगे। इसने व्यक्ति के औपचारिक स्वतंत्रता के साथ-साथ तात्विक स्वतंत्रता पर बल दिया। आधुनिक उदारवाद व्यक्ति के कल्याण को उसकी स्वतंत्रता का आवश्यक शर्त माना। कल्याणकारी राज्य को सकारात्मक उदारवाद की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है। इस सकारात्मक पक्ष के प्रतिनिधि के रूप जॉन स्टुआर्ट मिल, टी.एच. ग्रीन, एल,टी, हॉबहाऊस, एच.जे. लॉस्की, और आर.एम. मैकाइवर का नाम उल्लेखनीय हैं। समकालीन उदारवादी सिद्धांत को दो श्रेणी से विमुक्त किया गया। पहला स्वेच्छातंत्रवाद और दूसरा समतावाद। स्वेच्छातंत्रवाद व्यक्ति को अपनी उन्नति और समृद्धि का पूर्ण अवसर प्रदान कर उसकी आर्थिक गतिविधियों को प्रतिबंधों से मुक्ति की वकालत करता है। यहां तक कि निर्धन वर्ग को लाभ पहुंचाने के लिए धनवान पर कर को अनुचित बताता है, जबकि समतावाद उस व्यवस्था को समर्थन करता है जिसमें समर्थ एवं संपन्न वर्गों के साथ-साथ निर्बल, निर्धन, और वंचित वर्गों को भी अपनी स्वतंत्रता के प्रयोग के लिए अनुकूल परिस्थितियां और पर्याप्त अवसर प्राप्त हो। उदारवादी इस आयाम पर मनुष्य को विवेकशील मानते हैं जो अपनी विवेकशीलता एवं परिश्रम के आधार पर नई समाजिक संरचना का निर्माण कर सकता है।
उदारवाद के राजनीतिक दर्शन में एक गतिशीलता है जहां हमेशा उत्तरोत्तर विकास होता रहा है। इसका आरंभ सामंतवाद के पतन से होता है। विकास के क्रम में इसने न केवल लोकतंत्र के सिद्धांत बल्कि लोककल्याणकारी राज्य के विचार को भी अपना लिया। समकालीन उदारवाद ने लोकतंत्र के सिद्धांत को अपनाकर यह दावा प्रस्तुत किया है कि उदार लोकतंत्र सभी व्यक्तियों या समूहों के हितों में सामंजस्यता लाता है। व्यक्ति अपने समान हित वाले व्यक्ति से मिलकर ‘हित समूह’ की रचना करते हैं जहां ये सर्वोच्च सत्ता से सौदेबाजी कर सार्वजनिक हित में काम करते हैं।
उदारवाद का सबसे बड़ा योगदान है कि इसने आधुनिक, गतिशील और तर्कसंगत व्यवस्था की स्थापना की पुरजोर कोशिश किया है। हालांकि उदारवाद के प्रवर्तक पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि एवं हितैषी थे परंतु उन्होंने स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व का नारा बुलंद करके एक नई विचार प्रक्रिया का आरंभ किया। ये विवेक के आधार पर सामाजिक संबंधों की नई परिभाषा देने की प्रक्रिया का विकास करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्तिवाद, पूंजीवाद, लोकतंत्र, संविधानवाद से लेकर समाजवाद से गले मिला।
Question : ''लोकतांत्रिक थियोरी आत्म-निर्धारण, मानव अधिकार और समाजिक न्याय की पूर्वमान्यताओं को लेकर चलती है।'' मो.क. गांधी का विशेष हवाला देते हुए इस पर चर्चा करें।
(2005)
Answer : प्रत्येक सामाजिक तथा राजनीतिक दर्शन मानव स्वभाव एवं सामाजिक संगठन के कुछ तथ्यों को आधार तत्व मानकर चलता है। लोकतंत्रवाद की दृष्टि में ऐसा एक तथ्य यह है कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है जो अपनी उन्नति करने और समस्या सुलझाने में बुद्धि से काम लेता है। लोकतंत्रवादियों का विश्वास है कि मनुष्य व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से बराबर संपूर्णता की ओर बढ़ रहा है। यदि मनुष्य प्रगतिशील है तो वह अवश्य ही अपने आपको और अपनी राजनीतिक संस्थाओं को बेहतर बनाने के लिए बुद्धि से काम लेगा। लोकतंत्र केवल शासन का प्रकार नहीं बल्कि राज्य और समाज का भी प्रकार है। जिस राज्य में वयस्क मताधिकार एवं भाषण और संगठन की स्वतंत्रता तो है किन्तु साथ ही वर्ग भेद और एक वर्ग द्वारा अन्य का शोषण भी है, उसका लोकतंत्रीय नहीं माना जा सकता है। एक वर्गविहीन एवं शोषण-मुक्त राज्य ही वास्तव में लोकतंत्र हो सकता है। जैसा कि डायसी ने कहा है फ्लोकतंत्र वह समाज है जिसमें अधिकारों की साधारण समता तथा अवसर की भावनाओं तथा आदर्श की एकता पायी जाती है।य्
लोकतंत्र की आधुनिक अवधारणा ऐसी परिस्थिति में जन्म लिया जब विश्व के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन में बदलाव आ चुका था, जिसमें सामंती प्रवृत्ति का ह्रास हुआ और व्यक्ति को नये रूप में प्रतिष्ठित किया। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और फ्रांसीसी क्रांति ने प्रतिष्ठित वर्गों के विशेषाधिकारों को चुनौती देते हुए यह सिद्धांत प्रस्तुत किया सब मनुष्य जन्म से स्वतंत्र एवं समान हैं। जॉन लॉक जैसे कुछ विचारकों ने ये विचार प्रस्तुत किया कि मनुष्य के कुछ प्राकृतिक अधिकार होते हैं, जिन्हें उनसे नहीं छीन सकता, इन्ही अधिकारों की रक्षा के लिए कानून, राज्य और शासन की संस्थाएं स्थापित की जाती हैं। मनुष्य परस्पर सहमति से राज्य का निर्माण करते हैं और शासन व्यवस्था स्थापित होने के बाद भी सरकार के कार्यों की निगरानी करते हैं।
गांधीजी लोकतांत्रिक प्रणाली के समर्थक थे। उनका विचार था कि लोकतंत्रत्मक शासन के उचित संचालन के लिए बहुसंख्यक की भांति अल्पसंख्यकों का भी सहयोग नितांत आवश्यक है। उनका ये विचार है कि बहुमत के शासन का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति की राय यदि वह सही है तो बहुमत की राय से अधिक महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए उसके विचारों को कुचला नहीं जाना चाहिए। यही वास्तविक अर्थ में प्रजातंत्र है। उनकी दृष्टि में ‘स्वराज’ सच्चे लोकतंत्र का पर्याय था। उनका कहना था कि इने-गिने लोगों को सत्ता प्राप्त हो जाने से सच्चा स्वराज नहीं आएगा। सच्चा स्वराज तब आएगा जब सत्ता का दुरूपयोग नहीं होगा और अगर सत्ता दुरूपयोग होता है तो निर्बल या सबल सभी उसका विरोध करना सीख जायेंगे।
गांधीजी ने लोकतांत्रिक समाज की जो कल्पना की थी, उसमें वह समाज स्वतंत्रता, समानता तथा अन्य नागरिक अधिकारों पर आधारित था। इस समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने और समुदायों के निर्माण की स्वतंत्रता थी। इस समाज के अंतर्गत जाति, धर्म भाषा, वर्ण और लिंग आदि भेद-भाव के बिना सभी व्यक्तियों को समान सामाजिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे। गांधी जी ग्राम स्तर पर लोकतंत्रीकरण की बात कही। उन्होंने लिखा है कि उनके ग्राम स्वराज का आदर्श यह है कि प्रत्येक ग्राम पूर्ण गणराज्य हो। अपनी आवश्यकताओं के लिए अपने पड़ोसियों पर निर्भर न रहे। वह स्वावलंबी हो।
Question : ''मार्क्स के अनुसार, राजनीति का मूल, राज्य में निहित नहीं है; वह तो संस्था की तह में स्थित समाजिक दशाओं में निहित है, अर्थात् जीवन की भौतिक दशाओं में, जैसी कि वे उत्पादन की रीतियों में प्रतिबंधित होती है।'' टिप्पणी कीजिए।
(2005)
Answer : राजनीति का संबंध मनुष्यों के सार्वजनिक जीवन से है। यह एक ऐसा विषय है जिसका सरोकार संपूर्ण समुदाय से है। राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण के अंतर्गत इसे एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। आधुनिक युग में विभिन्न समूहों को भी राजनीति का अंग माना जाता है केवल राज्य ही इसके विषय नहीं हैं। सार्वजनिक निर्णयों में संपूर्ण समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों की अपनी भूमिका होती है।
मार्क्स के अनुसार राजनीतिक संस्थाएं और गतिविधियां प्रचलित उत्पादन प्रणाली की नींव पर खड़ी की जाती हैं। सामाजिक एवं राजनीतिक संरचनाओं का निर्माण आर्थिक संबंधों के अनुरूप होता है। इतिहास के किसी भी युग में समाज के आर्थिक संबंध समाज के प्रगति का रास्ता तैयार करते हैं और वे राजनीति, कानूनी, सामाजिक बौद्धिक और नैतिक संबंधों का स्वरूप निर्धारित करने में सबसे बढ़कर प्रभाव डालते हैं। भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली मानव जीवन की सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के सामान्य स्वरूप को निर्धारित करती है। मनुष्य सामाजिक स्तर पर जो उत्पादन करते हैं उसमे वे एक-दूसरे के साथ निश्चित संबंधों के सूत्र में बंध जाते हैं। इन उत्पादन संबंधों का स्वरूप उनकी भौतिक उत्पादन शक्ति के विकास की निश्चित अवस्था के अनुरूप ढ़ल जाता है।
उत्पादन प्रणाली में जैसे-जैसे परिवर्तन होता है, वैसे-वैसेमनुष्यों के सारे समाजिक संबंध भी बदल जाते हैं। जब उत्पादन हाथ की चक्की से होता है तब सांमत आस्तित्व में आता है और जब उत्पादन भाप की चक्की से होने लगता है तब पूंजीपति उद्योग का अविर्भाव होता है। मार्क्स के अनुसार जब भौतिक उत्पादन प्रणाली के अनुरूप सामाजिक संबंध स्थापित हो जाते हैं, तब इन संबंधों केअनुरूप कायदे-कानूनों, सिद्धांतों, विचारों और आदर्शों की उद्भावना की जाती है। सामाजिक इतिहास को ध्यान में रखते हुए मार्क्स ने लिखा है कि तकनीकि विकास के फलस्वरूप सबसे पहले उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होता है और फिर सामाजिक संबंधों में भी उसके अनुरूप परिवर्ततन आवश्यक हो जाता है।
उत्पादन प्रणाली से दो बातों का पता चलता है कि उत्पाद के तरीके का तकनीकी स्वरूप क्या है तथा उत्पादन किस प्रकार के समाज व्यवस्था के अंतर्गत आता है। उत्पादन की शक्यिां एवं उत्पादन संबंध मिलकर उत्पादन प्रणाली का निर्माण करते हैं। उत्पादन प्रणाली की प्रक्रिया में नये-नये उत्पादनों संबंधों जैसे- प्रभुत्वशाली वर्ग तथा पराधीन वर्ग, स्वामी और दास, जमींदार और किसान, पूंजीपति और कामगार के परस्पर संबंधों का प्रादुर्भाव होता है। ये उत्पादन प्रणाली भिन्न-भिन्न प्रकार के सामाजिक विन्यास को जन्म देते हैं जिनमें प्रमुख हैं- दास-प्रथा समाज, पूंजीवादी समाज, सामंतवादी समाज इत्यादि।
मार्क्स कि ये मान्यता है कि उत्पाद के साधन एवं श्रम शक्ति जिसे उत्पादन की शक्तियां कहते हैं उनका विकास धीमी गति से होता है, परंतु एक समय में उनके पूर्ण स्वरूप में बदलाव आ जाता है। उनका अपना वर्चस्व होता है उस स्थिति में उत्पादन संबंध और उनके बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस संघर्ष में उत्पादन शक्तियां नये उत्पादन संबंधों को जन्म देती हैं। मार्क्स का मत है कि इन्हीं कारणों से ऐतिहासिक विकास के क्रम में प्रत्येक सामाजिक परिवर्तन के लिए क्रांति अनिवार्य है। उनके शब्दों में ''क्रांति सामाजिक परिवर्तन का अनिवार्य माध्यम है।''
Question : भारतीय परंपरा के चार पुरूषार्थ
(2004)
Answer : प्राचीन भारतीय राजनीति चितंन को हिंदू राजनीति चिंतन की संज्ञा दी जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्राचीन भारत के संपूर्ण चिंतन एवं दर्शन में आत्मा और परमात्मा जैसे अधिभौतिक विषयों में गहरी अभिरूचि का परिचय मिलता है। हिंदू धर्म के अंतर्गत मानव जीवन के चार पुरूषार्थ माने गये जो मानव जीवन के चार साध्य भी हैं। ये हैं- धर्म (virtue) अर्थ (wealth), काम (Pleasure) और मोक्ष (Emancipation)।
धर्म का विवेचन धर्मशास्त्र में किया गया है। अर्थ की विवेचना अर्थशास्त्र में की गयी है। काम जो भौतिकता का परिचायक है इसकी विवेचना कामशास्त्र में किया गया है तथा मोक्ष जो जीवन का अंतिम लक्ष्य है कि विवेचना धर्मशास्त्र एवं दर्शन शास्त्र में किया गया है।
हिंदू चिंतन के अनुसार जड़ जगत तो प्रकृति के निर्विकार नियमों से संचालित होता है, परंतु मनुष्य, इच्छा और विचार की क्षमता से संपन्न है। धर्म मानव समाज की अमूल्य निधि है। मानव समाज को संचालित करने वाले कुछ नियम और कर्तव्य हैं और इनका समुच्चय ही धर्म है, जो सत्य एवं न्यायोचितता का पर्याय है। मनुकालीन भारत में ‘धर्म’ ही संपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक, न्यायिक, एवं नैतिक व्यवस्था का सूत्र था। मनु के अनुसार धर्म उन सभी गुणों, तत्वों, नियमों और व्यवस्थाओं से है जिन्हें मानव मात्र के द्वारा धारण किया जाना चाहिए।
‘अर्थ मानव द्वारा अपनी जीविका एवं समृद्धि का एक साधन है। अर्थ या धन संपदा और समुद्धि का सर्वोत्तम रूप है। इसके द्वारा साधक अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। कौटिल्य ने राज्य में अर्थ’ को सर्वाच्च स्थान दिया है। अर्थशास्त्र के अंतर्गत अर्थ या धन-संपदा के उपार्जन के उपायों का विवरण मिलता है। राज्य स्थापित करने उसका प्रबंध चलाने और उसकी अभिवृद्धि करने की विधा को अर्थशास्त्र कहा गया। कौटिल्य ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि मनुष्य की जीविका अर्थ है, मनुष्य से युक्त भूमि का नाम भी अर्थ है तथा इस पृथ्वी को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने के उपायों की विवेचना ही अर्थशास्त्र है।
भारतीय चिंतन के अनुसार मानव जीवन के तीन तत्व हैं- धर्म, अर्थ एवं काम जिसको हर मानव उपयुक्त नियमों को पालन करते हुए पूरा करें। मनुष्य इच्छा और विचार की क्रिया से संपन्न है। ‘काम’ उपभोग का सूचक है। काम के प्रति आसक्ति मनुष्य के प्राकृतिक लक्षण हैं। इसकी विवेचना काम शास्त्र में की गयी है।
हिंदू चिंतन में मोक्ष का महत्व सबसे बढ़कर है। मानव जीवन के तीन पुरूषार्थ-धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि के बाद ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह धर्मशास्त्र एवं दर्शनशास्त्र के विषय है। भारतीय चिंतन में इसकी बहुत महत्ता है।
Question : ''हाॅब्स एक व्यक्तिवादी की तरह आरंभ करता है लेकिन एक निरंकुशतावादी की तरह अंत करता है।''
(2004)
Answer : हॉब्स ने जहां एक ओर निरंकुश तथा असीमित संप्रभुता का प्रतिपादन किया है, वहीं दूसरी ओर उसकी विचारधारा में व्यक्तिवाद के स्पष्ट और प्रबल दर्शन होते हैं। डर्निग ने इस संबंध में लिखा है कि हॉब्स के सिद्धांत में राज्य की शक्ति का उत्कर्ष होते हुए भी उसका मूल आधार पूर्ण रूप से व्यक्तिवादी है। वह सब व्यक्ति की प्राकृतिक समानता पर उतना ही बल देता है जितना कि मिल्टन या अन्य किसी क्रांतिकारी विचारक ने बल दिया है। एक ओर प्रभुसत्ता का सिद्धांत है जहां संप्रभु को सभी विषयों में निरंकुश बना दिया है परंतु उसकी संप्रभु की निरंकुशता का सिद्धांत उसके ही व्यक्तिवाद से लिया गया है। निरंकुशता वास्तव में व्यक्तिवाद का समवर्ती है।
व्यक्ति की इच्छा से राज्य का निर्माण होता है। व्यक्ति को रक्षा प्रदान करने के लिए ही प्रभुसत्ताधारी ‘पूर्ण सत्ता’ का प्रयोग करता है। व्यक्तिवाद की मूल धारणा यह है कि जितने भी संघ, समुदाय, अन्य संस्थाएं या राज्य हैं, वे व्यक्तियों द्वारा निर्मित हैं। इस तरह व्यक्ति साध्य और सत्ता साधन मात्र है। सेवाइन (Sabine) इस संबंध में लिखते हैं कि फ्संप्रभु की निरंकुश शक्ति का सिद्धांत जिसके साथ हॉब्स का नाम समान्यतया जोड़ा जाता है, वास्तव में उनके व्यक्तिवाद का एक अनिवार्य पूरक है।य् निरंकुशता के विचार को प्रकाश व्यक्तिवाद से ही मिलता है। हॉब्स के निरंकुश संप्रभु के स्थापना के बाद भी सार्वजनिक इच्छा का आविर्भाव नहीं होता है इसके बाद भी व्यक्तिगत मानव अपने निजी स्वार्थों से प्ररित रहता है। हॉब्स का व्यक्ति समझौते के बाद भी अपना व्यक्तित्व नहीं खोता है। व्यक्ति अपने सभी प्राकृतिक अधिकारों को हस्तांतरित नहीं करता है। अगर हॉब्स में एक समूहवादी विचारधारा की प्रवृत्ति होती तो वह व्यक्ति के सभी अधिकारों के साथ जीवन का अधिकार को भी परित्याग करवाता। अतः समाज के राजनीतिकरण के पहले या बाद भी हॉब्स समाज से ज्यादा व्यक्ति को महत्व देता है।
Question : ''मिल खोखली स्वतंत्रता तथा अमूर्त व्यक्ति का मसीहा था'' (बार्कर)
(2004)
Answer : मिल ने अपने स्वतंत्रता संबंधी सिद्धांत का प्रतिपादन और समर्थन दो प्रकार के दार्शनिक आधारों पर किया है। प्रथम व्यक्ति की दृष्टि से और दूसरा समस्त समाज की दृष्टि से। मिल का मानना है कि सामाजिक एवं राजनीतिक प्रगति बहुत हद तक व्यक्ति की मौलिकता एवं ऊर्जा पर आधारित है। इसलिए उसने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की वकालत की। मिल का ये विचार है कि बहुमत के दृष्टिकोण को किसी व्यक्ति पर थोपा नहीं जा सकता है। आत्म-परक कार्यों के क्षेत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता परम आवश्यक है। परंतु यदि उस कार्य से अव्यवस्था फैलती है तो वह अन्य-परक कार्य की श्रेणी में जाता है और तब राज्य को व्यक्ति की स्वतंत्रता पर हस्तक्षेप करने का अधिकार है।
मिल के लिए स्वतंत्रता कोई अमूर्त या प्राकृतिक अधिकार नहीं है, जिसका दावा किया जाना आवश्यक हो अपितु वह एक मूर्त अधिकार है जिसको व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की कसौटी पर निर्धारित किया जाना चाहिए। वैयक्तिक विशिष्टता सामाज का पूरक है। परंतु मिल का ये दृढ़ मत है कि समाज व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण कभी नहीं हो सकता। सामाजिक शांति के मुकाबले में मिल अनिवार्य रूप से स्वतंत्रता को ही महत्व देते हैं इसलिए वे हमेशा से व्यक्तिवादी माने जाते हैं।
यद्यपि राजनीतिक चिंतन के इतिहास मिल द्वारा दी गयी स्वतंत्रता की परिभाषा बहुत महत्वपूर्ण है, पर वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक समरसता में संतोषजनक सामंजस्य नहीं ला पाये। वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बेदी पर सामाजिक कल्याण की बलि चढ़ा देते हैं। बार्कर के अनुसार मिल ने अपने व्यक्तियों को जो कुछ दिया वह सच्चे अर्थ में स्वतंत्रता नहीं थी।
स्वतंत्रता को अधिकतर एक नकारात्मक अर्थ देते हैं, जबकि स्वतंत्रता सकारात्मक होता है। कुछ आदर्शवादियों ने स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता तभी प्राप्त हो सकती है जब व्यक्ति समाजिक संपूर्णता का सदस्य बन जाता है और स्वेच्छा से सामाजिक नियंत्रण को स्वीकार करता है। अतः यह कहना सही होगा कि मिल खोखली स्वतंत्रता का पैगम्बर है, क्योंकि मिल ने किसी अधिकार पत्र की आवश्यकता की ओर ध्यान नहीं दिया तथा कुछ अपूर्ण तरीके से अधिकारों का समर्थन किया।
मिल ने जिस प्रकार के व्यक्तियों की कल्पना की है, उनका वास्तव में कोई अस्तित्व नहीं है तथा मिल का ये सोचना उचित नहीं है कि व्यक्ति समाज से अलग हटकर स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए आत्मपरक कार्य कर सकता है। वे व्यक्ति की खोखली स्वतंत्रता की बात करते हैं।
Question : ''समाज संघात्मक है, सत्ता भी संघात्मक होनी चाहिए'' (लास्की)
(2004)
Answer : लॉस्की का राजनीतिक चिंतन बहुलवाद तथा श्रेणी समाजवाद से मार्क्सवाद और मार्क्सवाद से प्रजातांत्रिक समाजवाद की दिशा में एक प्रयास है। उसने राज्य और समाज में विभेद स्थापित करते हुए राज्य की तुलना में समाज की सत्ता का सर्वोच्च माना है। लॉस्की के अनुसार व्यक्ति का सर्वोच्च नैतिक कर्तव्य अपने व्यक्तित्व का विकास करना है लेकिन संप्रभुता की परंपरागत धारणा राज्य को चरम साध्य और व्यक्ति को साधन आज बना देती है और यह स्थिति व्यक्तित्व के विकास में निश्चित रूप में बाधक है। लॉस्की का ये मत है कि कानून संप्रभुता की आज्ञामात्र नहीं है, वरन् परंपराओं रीति-रिवाजों एवं धार्मिक नियमों द्वारा निर्मित होता है। अकेला राज्य मानवीय जीवन की विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ है। व्यक्ति अपनी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के सामाजिक समुदाय बनाता है। लॉस्की के शब्दों में आवश्यकताओं की दृष्टि से पूर्ण होने के लिए समाजिक संगठन के ढांचे का स्वरूप संघीय होना चाहिए।
आधुनिक राज्य अपने नागरिकों को जितने अधिकार प्रदान करता है उतना ही उच्च स्तर का होता है। लॉस्की ने कहा है कि सत्ता का विकेंद्रीकरण ही जिससे जनता राज्य के मामलों में अधिकाधिक रूचि ले और सत्ता के स्थानीय केंद्र पर पर्याप्त नियंत्रण रख सके। वह यह मांग करता है कि राज्य और समाज के अंतर को समझना चाहिए और समाज की संपूर्ण सत्ता राज्यों के हाथों में नहीं देनी चाहिए, क्योंकि वह समाज का एक अभिकरण मात्र है।
लॉस्की का ये मत है कि राज्य समाज रूपी मेहराब की बुनियाद है। इसे जिन असंख्य मनुष्यों की नियति के निर्माण का काम सौंपा गया है यह उनके जीवन को आकार देता है और उसमें सार तत्व भरता है। यदि राज्य व्यक्ति को अधिकार प्रदान नहीं करता है तो वह व्यक्ति से निष्ठा की मांग नहीं कर सकता है।
Question : ''प्लेटो का ‘शिक्षा सिद्धांत’ उसके न्याय सिद्धांत का तार्किक परिणाम है।'' विवेचना कीजिए।
(2004)
Answer : प्लेटो तत्कालीन यूनानी नगर राज्यों, मुख्यतया एथेन्स एवं स्पार्टा में प्रचलित शिक्षा प्रणाली से प्रभावित था। उसने दोनों राज्यों में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के तत्वों को लेकर जिस शिक्षा व्यवस्था की योजना निर्मित की है उसके व्यक्तिक एवं समाजिक दोनों रूप हैं। शिक्षा के ये दोनों रूप प्लेटो के न्याय सिद्धांत से संगति रखते हैं।
प्लेटो के न्याय सिद्वांत के अनुसार मानवीय जीवन के तीन नैसर्गिक तत्व, विवेक, साहस, और तृष्णा है। इन तीनों नैसर्गिक तत्वों के अनुसार ही लोगों को तीन वर्गों में क्रमशः शासक, सैनिक एवं उत्पादक वर्ग में विभाजित किया गया है। प्लूटो मानव आत्मा के तत्वों को पूर्ण करके उसे सत्य का ज्ञान कराना व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य मानता है। राज्य का नागरिक होकर तथा राज्य में अपने निर्दिष्ट कार्य-भाग को संपन्न करके की वह पूर्णत्व को प्राप्त हो सकता है। अपने कार्य को करना तथा दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप न करना ही न्याय है। व्यक्ति में ऐसी क्षमता लाने के लिए शिक्षा का स्वरूप समाजिक होना आवश्यक है। अतः प्लेटो के अनुसार राज्य को स्वयं शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। वास्तव में, प्लेटो ने न्याय की प्राप्ति के लिए अनूरूप वातावरण की सृष्टि पर बहुत अधिक बल देता है इसकी प्राप्ति के लिए राज्य द्वारा नियंत्रित सुनियोजित शिक्षा प्रणाली पर बल देता है। साथ ही साथ ये घोषणा करता है कि राज्य प्रथमतः एक शिक्षा की संस्था है।
यद्यपि प्लेटो ने अपनी विशाल शिक्षा योजना को केवल संरक्षक वर्ग के लिए ही निर्धारित किया है परंतु उसकी शिक्षा योजना अत्यंत व्यापक है। प्लेटो ने अपने ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में संरक्षक वर्ग की शिक्षा पर इतने विस्तार से और ध्यानपूर्वक विचार किया है कि रूसो ने इसे शिक्षा पर कभी भी लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ कहा है। प्लेटो ने शिक्षा को कई स्तरों में बांटकर प्रत्येक स्तर के लिए व्यापक पाठ्यक्रम का निर्धारण किया है शिक्षा को प्रांरभिक और उच्च दो भागों में बांटकर वैज्ञानिक तरीका अपनाया है। उसकी शिक्षा योजना स्त्री-पुरूष दोनों के लिए है। प्लेटोवादी शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास करना है। इस अवस्था में शारीरिक शिक्षा के लिए व्यायाम की तथा मानसिक एवं आत्मिक शिक्षा के लिए संगीत की शिक्षा निर्धारित की गयी। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में गणित, प्राकृतिक विज्ञान, रेखा गणित, नक्षत्र विद्या, तर्कशास्त्र, द्वंद्ववाद आदि का समावेश है। साथ ही सैनिक शिक्षा तथा प्रशासकीय प्रशिक्षण की व्यवस्था है। प्लेटो ने शिक्षण को जीवन का अल्पकालीन कार्य न मानकर उसे आजीवन चलाने वाली प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया। इसके अंतर्गत धर्म और नैतिकता को उचित स्थान प्रदान किया गया। प्लेटो का अंतिम उद्देश्य न्याय के आधार पर एक आदर्श राज्य की स्थापना करना है और इस कारण उसकी शिक्षा योजना में न्याय के तत्व को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है।
प्लेटो की शिक्षा योजना का आधार उसका न्याय सिद्धांत है जिसकी अभिव्यक्ति शिक्षा के द्वारा हो सकती है। वह मनुष्य में सद्गुणों का विकास करती है जिसके द्वारा वह अपना पूर्ण वैयक्तिक विकास करते हुए समाज का उत्तम सदस्य उसकी समुचित सेवा करने में समर्थ हो सकता है। इसका दार्शनिक आधार ये है कि मानव आत्मा समस्त ज्ञान का भंडार है और शिक्षा के द्वारा ही उस ज्ञान रूपी भंडार को प्रकाश में लाया जा सकता है। बार्कर के अनुसार प्लेटो शिक्षा को ''एक जैसी समाजिक प्रक्रिया समझता है जो मनुष्य के हृदय में समाजिक कर्तव्यों को पूरा करने की भावना उत्पन्न करती है।''
अतः शिक्षा उसके न्याय सिद्धांत का तार्किक परिणाम है। प्लेटो का अंतिम उद्देश्य न्याय के आधार पर एक आदर्श राज्य की स्थापना करना है। न्याय का यही सार है कि समाज का प्रत्येक वर्ग भली-भांति अपना कर्तव्य निभाये। परंतु यदि विविध वर्गाें को अपना-अपना कर्तव्य तत्परता से पूरा करने का प्रशिक्षण अगर नहीं मिलता तो न्याय का साक्षात्कार करना असंभव हो जाता है। जब तक शासकों को उचित प्रशिक्षण न मिले तब तक वे उचित रीति से अपने कर्तव्य का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं। यही अन्य वर्गों के भी संबंध में भी सत्य होगा। अतः यह कहना बिल्कुल ठीक होगा कि तीनों वर्गों तथा दार्शनिक राजा से युक्त प्लेटो का आदर्श राज्य उनके शिक्षा सिद्धांत का ही परिणाम है।
Question : हीगेल के द्वंद्वात्मक आदर्शवाद के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
(2004)
Answer : हीगेल का विचार है कि सभी समाजिक परिवर्तन और विकास परस्पर विरोधी तत्वों के संघर्ष का परिणाम है। अर्थात् परस्पर विरोधी विचारों या विचारों में अंर्तविरोध या द्वंद्व ही संपूर्ण समाज की प्रगति की कुंजी है। इस वैचारिक पद्धति को द्वंद्वात्मक पद्धति कहा जाता है।
हीगेल के द्वंद्व सिद्धांत को वास्तव में एक क्रांतिकारी सिद्धांत कहा जा सकता है। इस द्वंद्वात्मक सिद्धांत पर आधारित आदर्शवादी दर्शन ने हीगेल को राजनीतिक चिंतन में महत्वपूर्ण स्थान दिलवाया। द्वंद्वात्मक पद्धति प्रगति के व्यवस्थित विचार से संबंधित है। यह स्वतः प्रेरित और स्वतः संचालित होते हुए निरंतर प्रगतिशील है। हीगेल का मत है कि मानव प्रगति को निर्धारण करने वाला तत्व विश्वात्मा का विवेक है। यह विवेकपूर्ण विश्वात्मा अपने विकास के लिएविभिन्न अवस्थाओं को धारण करता हुआ अंततः लक्ष्य सिद्ध करता है। यह व्यवस्थित मानवीय प्रगति द्वंद्वात्मक पद्धति से ही संभव है। दो परस्पर विरोधी शक्तियों में संघर्ष का परिणाम विकास है। अतः संघर्ष ही विकास का माध्यम है। चिंतकों का मानना है कि हीगेल ने दर्शन के इतिहास में सबसे बड़ा सूत्र खोज निकाला था।
द्वंद्ववाद (Dilectic) शब्द यूनानी भाषा के डायलोगों (Dialogo) शब्द से बना है, जिसका अर्थ है - वाद-विवाद। इस प्रक्रिया के अंतर्गत बौद्धिक वाद-विवाद के उपरांत नये विचारों का निर्माण एवं स्पष्टीकरण होता है। हीगेल से पहले प्लेटो और सुकरात ने इस पद्धति का प्रयोग किया था। हीगेल ने प्राचीन यूनानी विचारों को अपने सिद्धांत में आधार मानकर उन्हें एक भिन्न अर्थ दिया।
हीगेल ने इस सिद्धांत को विकास की प्रक्रिया में लागू किया। इस सिद्धांत के अनुसार विश्व सदैव समान रूप से स्थिर नहीं रहता अपितु उसमें निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रचंड तूफान के थपेड़े खाता हुआ एक जहाज अपना मार्ग बनाता है, उसी प्रकार मानव सभ्यता भी अनेके टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होती हुई आगे बढ़ती है। हीगेल के अनुसार राज्य एक जड़ वस्तु न होकर विकसित संस्था है, अतः इसका अध्ययन विकासवादी दृष्टिकोण के आधार पर किया जाना चाहिए।
हीगेल द्वंद्व की इस प्रणाली को विचारों के क्षेत्र में लागू करते हुए कहता है कि सर्वप्रथम प्रत्येक वस्तु का एक मौलिक रूप ‘वाद’ होता है। विकासवाद के फलस्वरूप वह इसका विपरीत ‘प्रतिवाद’ बन जाता है। कालांतर में वे मौलिक और विपरीत रूप मिलकर ‘समवाद’ बन जाते हैं। यह समन्वित रूप कुछ दिनों में पुनः अपने मौलिक रूप में आ जाता है और ये प्रक्रिया चलती रहती है। इसी द्वंद्वात्मक प्रणाली के आधार पर हीगेल समाज तथा राज्य के विकास का अध्ययन करता है। उसके अनुसार द्वंद्व की इस पद्धति से ही विश्व के सभी विचार विकसित होते हैं।
हीगेल द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक पद्धति प्रगति के व्यवस्थित विचार से संबंधित हैं। यह स्वतः प्रेरित और स्वतः संचालित स्थिति है और इसी आधार पर वह निरंतर प्रगतिगामी है। हीगेल के अनुसार प्रगति दो परस्पर विरोधी वस्तुओं या शक्तियों में द्वंद या परिणाम है और संघर्ष की इस प्रक्रिया में विचार को प्रमुख स्थिति प्राप्त होती है।
हीगेल का द्वंद्वात्मक पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है, परंतु इसकी विभिन्न दृष्टिकोण से आलोचना की गयी है। हीगेल ने इस पद्धति को मनमाने ढंग से अपनाया है। इतिहास की दृष्टि से यह स्थिति सत्य से परे है। हीगेल ने विभिन्न वस्तुओं के बीच विरोध की निराधार और अनावश्यक कल्पना किया है। इस पद्धति में वैज्ञानिकता का नितांत अभाव है। वेपर ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि यह नाममात्र के लिए वैज्ञानिक है।
यद्यपि इस पद्धति में कुछ दोष हैं परंतु यह बहुत उपयोगी है। यह वस्तुओं के स्वरूप को स्पष्ट करने में बड़ी सहायक है। विरोधी तत्वों को जाने बिना हम सत्य को ठीक ढंग से नहीं पहचान पाते हैं। हीगेल का द्वंद्ववाद इसी सत्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
Question : क्या ग्राम्शी उपरी संरचनाओं का सिद्धांत-वेत्ता है? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
(2004)
Answer : एंटोनियो ग्राम्शी चिरसम्मत मार्क्सवाद की अनेक मान्यताओं को अस्वीकार करते हुए बुर्जुआ राज्य का नया विश्लेषण प्रस्तुत किया है। यह मार्क्सवादी चिंतन में नये मोड़ का संकेत देता है। यह मार्क्सवाद की कुछ पुरानी मान्यताओं से अलग दूसरी दिशा में सोचने का ढंग है। चिरसम्मत मार्क्सवाद यह मानता है कि जब उत्पादन की शक्तियां इतनी विकसित हो जाती हैं तो प्रचलित उत्पादन संबंध उन्हें संभाल नहीं पाते हैं तथा क्रांति हो जाती है इसके फलस्वरूप सारी संस्थाएं लुप्त हो जाती हैं या संस्थाओं का वर्चस्व खत्म हो जाता है। ग्राम्शी का दावा है कि उन्नत पूंजीवादी समाज में ऐसा नहीं होता है। वह नहीं मानता है कि केवल आर्थिक मुद्दों पर पूंजीपति या बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग का सीधा टकराव होता है। वह समकालीन समाज में आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक स्तरों पर व्याप्त संघर्ष के गूढ़ तरीकों का विश्लेषण करता है। इस स्थिति की व्याख्या के लिए ग्राम्शी ने प्रधान्य (Hegemony) का सिद्धांत प्रस्तुत किया है।
ग्राम्शी के ‘प्रधान्य’ सिद्धांत के अनुसार आधुनिक बुर्जुआ समाज की प्रभुता का मुख्य स्रोत शासक वर्गों का नेतृत्व या प्रधान्य है जो उस समाज की आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक सर्वोच्चता में व्यक्त होता है। ये वर्ग अपनी नागरिक समाज की संस्थओं द्वारा पूरी वर्ग जनसंख्या पर अपना प्रभुत्व स्थापित करा लेते हैं। ग्राम्शी ने विशेष रूप से पूंजीवादी समाजिक व्यवस्था में प्रभुत्व की संरचना का पता लगाया है।
ग्राम्शी ने मार्क्स के विपरीत पूंजीवादी समाज के दो स्तरों में अंतर किया है। मार्क्स ने समाज के आधार को दो स्तरों में बांटा है। ग्राम्शी पूंजीवादी समाज की अधिरचना को राजनीतिक समाज और नागरिक समाज में बांटा है। ग्राम्शी के अनुसार राजनीतिक समाज या राज्य अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बल प्रयोग करता है। सरकार भी राजनीतिक समाज का हिस्सा है। इसकी जुड़ी हुई संरचना को ‘बल-प्रयोग मूलक’ संरचना का नाम दिया गया। दूसरी ओर नागरिक समाज अपना प्रभुत्व स्थापना के लिए नागरिक की सहमति का सहारा लेता है। ग्राम्शी के अनुसार नागरिक समाज की संस्थाओं में -परिवार स्कूल और धार्मिक संस्थाएं हैं, जो नागरिकों को समाज में व्यवहारों के नियमों से परिचित करवाती हैं। यह आधार के करीब है तथा स्वायत्त है। इस पर किसी की प्रभुता नहीं होती है। इससे जुड़ी हुई संरचनाओं को वैधता स्थापक संरचनाएं कहा जाता है। यह संरचनाएं बुर्जवा समाज के नियमों को वैधता प्रदान करती हैं चाहे वह नियम अवैध ही क्यों न हों। ये संरचनायें बुर्जुवा समाज की प्रभुता बनाये रखने में सहायक हैं। जब नागरिक समाज समस्त जनसंख्या पर या जनसंख्या पर दमन करने में या उस पर नियंत्रण करने में असफल हो जाता है तब राज्य को इस पर बल प्रयोग करने की जरूरत पड़ती है। अतः ग्राम्शी का मानना है कि केवल पूंजीवादी राज्य को छिन्न-भिन्न करने से पराधीनता खत्म नहीं होगी। इसके साथ-साथ बुर्जुवा तत्व के प्रधान्य का अंत भी जरूरी है।
ग्राम्शी का मानना है कि पूंजीवाद का अंत कर समाजवाद की की कल्पना निरर्थक है। इसके अनुसार पूंजीवाद को खत्म करने का कोई फायदा नहीं होगा। पूंजीवादी विचारधारा को समाप्त करना चाहिए। उसने समझाने की कोशिश किया कि सबसे समाज में व्याप्त जन चेतना को बदलना होगा ताकि इन संस्थाओं को भीतर से कमजोर करके क्रांति के प्रवाह को नीचे से ऊपर की ओर बढ़ने का रास्ता दिया जा सके।
Question : प्लेटो के साम्यवाद की व्याख्या कीजिए तथा आधुनिक साम्यवाद से उसकी तुलना कीजिए।
(2004)
Answer : प्लेटो ने न्याय की खोज करते-करते जहां एक ओर दार्शनिक राजाओं के शासन के विलक्षण सिद्धांत का प्रतिपादन किया, वहां दूसरी ओर उसने उससे कहीं अधिक विलक्षण तथा चकित कर देने वाला सम्पति तथा पत्नियों के साम्यवाद का सिद्धांत भी प्रस्तुत किया है। प्लेटो के आदर्श राज्य की स्थापना निर्लिप्त बुद्धि तथा विशुद्ध विवेक से सम्पन्न परम सत्य के ज्ञाता दार्शनिकों के संरक्षण में ही हो सकती है, लेकिन शासकों की बुद्धि तथा विवेक भ्रष्ट न हो इसके लिए प्लेटो साम्यवाद की स्थापना करता है।
प्लेटो यह जानता था कि मनुष्य की आत्मा को विकृत करने वाले दो मुख्य प्रलोभन होते हैं- कंचन तथा कामिनी। इन प्रलोभनों से दूर रखकर वह पूर्ण, निस्वार्थ भावना से कार्य करके, अपने उद्देश्य की प्राप्ति चाहता है। इस लिए एक सामाजिक व्यवस्था करता है, वह है संपत्ति विषयक साम्यवाद और परिवार तथा स्त्रियों का साम्यवाद। फिर प्रश्न उठता है कि यह साम्यवाद किस पर लागू होता है?
साम्यवाद केवल अभिभावक वर्ग के लिएः प्लेटो की साम्यवाद की विशेषता है कि उसके द्वारा साम्यवादी व्यवस्था को अपनाने का सुझाव राज्य की समस्त जनता के लिए नहीं वरन् केवल अभिभावक वर्ग के लिए ही दिया गया है। उसके द्वारा इस विशेष स्थिति को अपनाये जाने का कारण यह है कि उसके साम्यवाद का उद्देश्य वर्तमान साम्यवाद की भांति आर्थिक नहीं, वरन राजनीतिक है। उसका उद्देश्य तो एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना है, जिसमें शासक वर्ग अपने सार्वजनिक वक्तव्यों का सर्वाधिक श्रेष्ठतापूर्वक संपादन कर सके।
संपत्ति विषयक साम्यवादः प्लेटो ने अभिभावक वर्ग के लिए संपत्ति विषयक साम्यवाद का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि पहली बात तो यह है कि उनके पास केवल उतनी ही सम्पत्ति होगी जितनी जीवन के लिए नितान्त अनिवार्य है। न तो उनके पास घर होगा और न कोई गोदाम, जो सबके लिए खुला न हो-तब उन्हें यानि अभिभावकों को सामान्य भोजनालयों में भोजन करना चाहिए, सिपाहियों की तरह डेरों में रहना चाहिए और केवल ये ही ऐसे नागरिक हैं, जिन्हें सोना-चांदी छूना तक नहीं चाहिए इसी में उनकी मुक्ति है और ऐसा करने से वे राज्य के रक्षक बन सकेंगे।
फोस्टर के शब्दों में ‘प्लेटो के संरक्षक वर्ग को सामूहिक रूप से संपत्ति का स्वामित्व ग्रहण करना नहीं वरन् इसका त्याग करना है।’
परिवार विषयक साम्यवादः प्लेटो का मानना है कि अभिभावक वर्ग के स्त्री या पुरुषों में कोई भी अपना निजी परिवार नहीं बनाएगा (कोई भी किसी के साथ स्थायी रूप से व व्यक्तिगत रूप से सहवास नहीं करेगा) स्त्रियां समान रूप से सबकी पत्नियां होंगी, इनकी संतानें भी समान रूप से सबकी होंगी। न तो माता-पिता अपनी संतान को जान सकेंगे और न संतान माता-पिता को।
फिर प्रश्न यह उठता है कि प्लेटो का इस प्रकार से साम्यवाद को स्थापित करने का उद्देश्य क्या था?
तब हमें प्लेटो के दार्शनिक तथा राजनीतिक विचारों में इसको ढूंढने पर पता चलता है कि वह:
(i)शासकों के विशुद्ध विवेक की रक्षा करना चाहता था क्योंकि सब जानते थे कि वित्तेषणा तथा पुत्तेषणा मनुष्य को शुद्ध धर्म और ज्ञान के मार्ग से विचलित कर देती है।
(ii)राज्य की एकता की रक्षा के लिए साम्यवाद की स्थापना जरूरी थी क्योंकि उसके भीतर विभिन्न वर्गों में संघर्ष चलता है। इस संघर्ष को समाप्त करने और राज्य की तात्विक एकता को कायम रखने का सर्वोत्तम उपाय यही समझा।
(iii)प्लेटो यह बात अच्छी तरह जानता था कि राजनीतिक सत्ता और आर्थिक सत्ता का केन्द्रीकरण न होने पाये, नहीं तो यह आदर्श राज्य के लिए अनर्थकारी सिद्ध होगा।
(iv)संरक्षकों के लिए निजी परिवारों का निषेध करने में प्लेटो का सिर्फ यही उद्देश्य था कि आने वाली प्रजाति में सुधार हो सके और समाज को अच्छी संपत्ति की प्राप्ति हो सके।
(v)स्त्रियों को समानता तथा घर की चारदीवारी से बाहरी दुनिया को दिखाना चाहता था जिससे स्त्रियां भी सार्वजनिक कार्यों में भाग ले सके।
लेकिन इस व्यवस्था को प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने स्वीकार नहीं किया और साम्यवाद की आलोचना प्रारंभ हो गयी।
अरस्तू क्रम से सभी साम्यवाद के प्रकारों का खंडन करता है। वह कहता है कि निजी सम्पत्ति व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए आवश्यक है इसका समर्थन उदारवाद तथा व्यक्तिवाद से संबंधित राजनीतिक दार्शनिक भी करते हैं। इसलिए प्लेटो द्वारा सम्पत्ति विषय साम्यवाद व्यक्ति के मूल भावना के विपरीत है।
अरस्तू कहता है कि समूचे राज्य को एक परिवार नहीं माना जा सकता है, उसमें वह एकता कभी स्थापित नहीं हो सकती जो एक परिवार में होती है। संरक्षकों के सामान्य बालकों का लालन-पालन उतनी तत्परता के साथ कदापि नहीं हो सकता, जितना कि एक परिवार में दिखाई देता है। राज्य द्वारा सर्वोत्तम स्त्री-पुरुषों की व्यवस्था करना अव्यवहारिक है। यौन संबंधों के पीछे व्यक्तिगत प्रेम तथा आकर्षण की प्रधानता होती है। इसके बावजूद भी वह जिस प्रकार के परिवार और स्त्री विषय साम्यवाद की स्थापना करना चाहता है, उससे समाज में एक प्रकार से अनैतिकता तथा अव्यवस्था का आलम फैल जाएगा।
प्लेटो के साम्यवाद की आधुनिक साम्यवाद से तुलनाः प्लेटो का साम्यवाद तथा मार्क्स के साम्यवाद में कोई समानता तो नहीं है पर इतना जरूर है कि प्लेटो तथा मार्क्स द्वारा साम्यवाद की विस्तृत विवेचनाएं की गयी। लेकिन फिर भी इनके आधारों का उल्लेख किया जा सकता है जिस पर कुछ समानता तथा असमानता दिख पड़ती हैः
(i)दोनों साम्यवादों का लक्ष्य अपने-अपने ढंग से न्याय व्यवस्था कर वर्ग संघर्ष को समाप्त करना था, जिससे राजनीतिक एकता कायम हो सके।
(ii)दोनों साम्यवाद शिक्षा को परिवर्तन का माध्यम बनाते हैं।
(iii)दोनों ही राज्य को व्यक्ति से उच्च स्थान प्रदान करते हैं।
(iv)दोनों सार्वजनिक तथा सामाजिक हित में व्यक्ति का हित समझतेहैं।
(v)दोनों राज्य में शक्ति तथा प्रतिद्वंद्विता को समाप्त कराना चाहते हैं
(vi)दोनों राज्य के विभिन्न वर्गों के बीच आर्थिक प्रतियोगिता को समाप्त करने के पक्ष में हैं।
इन्हीं समानताओं को देखकर मैक्सी कहता है कि ‘यदि प्लेटो आज जीवित होते तो वे आधुनिक साम्यवादियों से भी प्रबल साम्यवादी होते।’
इन समानताओं के बावजूद दोनों में निम्नलिखित असमानताएं भी हैंः(i)प्लेटो के साम्यवाद का लक्ष्य राजनीतिक है जबकि मार्क्स के साम्यवाद का लक्ष्य आर्थिक। प्लेटो विशिष्ट प्रकार की आर्थिक आयोजना के आधार पर राज्य में भ्रष्टाचार तथा कुशासन को दूर करके सुशासन स्थापित करना तथा राज्य में एकता चाहता था। लेकिन मार्क्स आर्थिक न्याय की स्थापना करना चाहता था और साम्यवाद के द्वारा वर्गहीन राज्यहीन की स्थापना चाहता था।
(ii)इन दोनों में एक महत्वपूर्ण अन्तर यह भी है कि प्लेटो का साम्यवाद सैनिकों तथा शासकों के लिए है जबकि आधुनिक साम्यवाद सम्पूर्ण समाज के लिए है।
(iii)प्लेटो के साम्यवाद का आधार त्याग तथा सम्पूर्ण समाज के लिए व्यक्तिगत हितों के बलिदान की भावना पर आधारित है लेकिन आधुनिक साम्यवाद पूर्णतया भौतिक है और वह संपत्ति की वांछनीयता को स्वीकार करते हुए उसके वितरण पर बल देता है।
(iv)आधुनिक साम्यवाद केवल उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण करता है उपयोग की वस्तुओं पर व्यक्तिगत स्वामित्व का उन्मूलन वह नहीं करता परंतु प्लेटो इसके ठीक विपरीत संपूर्णता पर साम्यवाद का प्रतिपादन करता है।
(v)प्लेटो का साम्यवाद स्त्रियों के सामूहिक स्वामित्व की विलक्षण व्यवस्था करता है लेकिन आधुनिक साम्यवाद केवल धन के उत्पादन वितरण को इस व्यवस्था में लाना चाहता है।
(vi)आधुनिक साम्यवाद एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन है। वह संसार भर के श्रमिकों को संगठित हो जाने के लिए आह्नान करता है, लेकिन प्लेटो का लक्ष्य ऐसा नहीं था।
इस प्रकार कुछ समानताएं तथा असमानताएं होने के बावजूद दोनों एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था चाहते हैं, जो न्याय पर आधारित हो तथा सबके जीवन स्तर को ऊपर उठा सके।
फिर यह प्रश्न उठता है कि प्लेटो के साम्यवाद आज के दौर में अपने को कहां पाता है। तब हम पाते है कि प्लेटो एक आदर्शवादी विचारक था और आदर्शवादी का व्यवहारिक जीवन में सोच को क्रियान्वयन नहीं किया जा सकता है। फिर जब यूनानी विचारक सोफिस्टो के दौर से गुजर रही थी तब ऐसा विचार आना निःसंदेह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
Question : मनुष्यों के नागरिक समाज में सम्मिलित होने का उनका उद्देश्य अपनी सम्पति का परिरक्षण करना होता है।(लॉक)
(2003)
Answer : सामाजिक समझौता सिद्धान्त का मुख्य प्रतिपादक लॉक को माना जाता है। समझौता क्यों? लॉक कहता है कि प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य के पास तीन अधिकार थे- जीवन, संपति तथा स्वतंत्रता का अधिकार। जब कुछ लोग इन अधिकारों का हनन करने लगे तब समाज में असुरक्षा की भावना के तहत समझौता सिद्धांत प्रकाश में आया। लॉक ने सम्पति को बहुत महत्व दिया है और सम्पति की सुरक्षा का ही विचार उसे नागरिक समाज स्थापित करने पर मजबूर करता है। चूंकि सम्पति एक प्राकृतिक अधिकार है। इसलिये शासक या सरकार को इसका उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है। लॉक का तात्पर्य था कि नागरिक समाज में व्यक्ति को आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने की पूर्ण स्वतन्तत्र है। सम्पति के अन्तर्गत जीवन तथा स्वतंत्रता भी सम्मिलित है और लॉक की धारणा है कि प्राकृतिक अवस्था में व्यक्तियों को जो अधिकार प्राप्त थे, समाज उनकी सुरक्षा सामूहिक रूप से और सामूहिक हितों को ध्यान में रखते हुए करेगा। इस प्रकार सरकार व्यक्तियों के जीवन, स्वतंत्रता और सम्पति की रक्षा की गारण्टी लेता है। इस समझौते में यह भी निश्चय किया जाता है कि प्रभुसत्ता समझौते की शर्तों का उल्लंघन करे और सार्वजनिक हित के विरुद्ध शासन करे तो मनुष्यों को यह अधिकार होगा कि वे उससे अथवा उस व्यक्ति समूह से राजशक्ति छीन ले और दूसरे ऐसे व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह को दे दे, जो समझौते की शर्तों के अनुकूल सार्वजनिक हित में शासन करे। इसलिये लॉक की यह उक्ति उसके राजनीतिक विचार तथा स्थापित समाज को परिलक्षित करता है।
Question : मैकियावेली का राजनीतिक दर्शन संकीर्ण रूप से स्थान विशेष और समय विशेष के लिये था। सेबाइन
(2003)
Answer : मैकियावेली के राजनीतिक विचारों में उसके अपने युग और देश की परिस्थितियों का प्रभाव इतना स्पष्ट लक्षित होता है कि डब्ल्यू.ए. डनिंग ने उसे ‘अपने युग का संतान’ माना है। मैकियावेली की रचनाएं ‘लिवी पर वार्ता’ और ‘द प्रिंस’ में निहित एक-एक विचारों के पीछे मैकियावेली के अपने युग और उसके अपने जीवन के अनुभवों की छाप ढूंढना कठिन नहीं है। समय के साथ-साथ देश या स्थान का प्रभाव भी मैकियावेली पर इतना गहरा दिखाई देता है कि जिस तरह के राजनीतिक विचार उसने रखे, इटली को छोड़कर किसी अन्य देश का कोई विचारक उस समय शायद ही उस तरह के विचार दे सकता था। मैकियावेली का युग पुनर्जागरण का युग था और इसी कारण इसे पुनर्जागरण का प्रतिनिधि भी माना जाता है। मैकियावेली ही अपने युग का ऐसा व्यक्ति दार्शनिक और पर्यवेक्षक था, जिसने समकालीन परिस्थितियों को सही तथा यथार्थ रूप में देखा।
सोलहवीं शताब्दी के अंत में जब मैकियावेली बड़ा हो चुका था, उसने देखा कि चर्च एवम् राज्य के लिये सीमित शासन का जो आंदोलन पारिषादिक युग में जोरों पर था, वह अब समाप्त हो चुका था। अब रूमानी प्रतिक्रिया ने कुलीनतंत्रीय शासन के सभी अवशेषों को परे हटा दिया था। जहां यूरोप के राज्य धर्मनिरपेक्ष राज्यों में बदल गये तथा पूर्ण राज्यतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। उसी विचार को मैकियावेली का पूर्ण सत्तावादी बनना तथा गणतंत्र का समर्थक होते हुए भी राज्यतंत्र को विशेष परिस्थितियों में इटली में मानना उसके संकीर्ण विचारों का ही परिणाम है। उसका राष्ट्र-राज्य का सिद्धांत हो या उस समय इटली में हो रहे आंदोलन, सभी पर मैकियावेली अपने हित में अपने विचारों को नया रूप देता चला गया। इसी लिये सेवाइन ने इसके राजनीतिक दर्शन को संकीर्ण माना।
Question : ‘अब तक के समस्त सामाजिक जीवन का इतिहास वर्ग-संघर्ष का ही इतिहास है।’ कार्ल मार्क्स समीक्षा कीजिए।
(2003)
Answer : मार्क्सवाद का कार्ल जनक, जिसने समाज की ऐतिहासिक व्याख्या करके समाज को आर्थिक स्वरूप प्रदान करके नया रूप दिया और बताया कि समस्त सामाजिक जीवन का इतिहास वर्ग संघर्ष का ही इतिहास है।
कार्ल मार्क्स ने अपनी विचारधारा में वर्ग संघर्ष की धारणा को विशेष महत्व प्रदान किया है। वर्ग संघर्ष के बारे में ‘साम्यवादी घोषणा पत्र’ में कहा है कि अब तक के समाजिक जीवन का इतिहास वर्ग संघर्ष का ही इतिहास है। मार्क्स के द्वारा वर्ग संघर्ष की यह धारणा आस्टिन घोरे से ली गयी, लेकिन मार्क्स ने इसकी विस्तृत विवेचना की।
मार्क्स का वर्ग संघर्ष का सिद्धांत समाज में उत्पादन तथा वितरण पर आधारित दो वर्गों को मानकर चलता है, जो अपनी विरोधी हितों के कारण संघर्षरत रहते हैं। वर्गों के स्वरूप में भले ही अन्तर होते रहे हों, किंतु समाज का एक वर्ग उत्पादन के साधनों पर अधिकार रखता है तथा दूसरा इस पर आश्रित रहता है। इन्हीं दोनों को मिलाकर हमेशा समाज बंटा रहा है। इतिहास का राजनीति शास्त्र में प्रयोग करके मार्क्स ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि समाज अपने इतिहास के प्रत्येक अवस्था में बंटा रहा है। उसको वह समाज की पूर्व अवस्था का वर्णन करके आज तक के समाज का बंटवारा करके यह दिखाता है कि किस प्रकार के समाज में संघर्ष का रूप किस प्रकार का था।
मार्क्स कहता है कि जब मनुष्य आदि साम्यवादी व्यवस्था में था, तब समाज बंटा नहीं था लेकिन सम्पति के आगमन के कारण समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया। मार्क्स सबसे पहले ह्रास व्यवस्था का वर्णन करता है। वह कहता है कि इस प्रकार के समाज में एक वर्ग ने उत्पादन के साधनों (भूमि तथा पूंजी) पर अधिकार किया तथा दूसरे वर्ग को दास बनाकर इन साधनों पर उसका प्रयोग किया, तब समाज स्वामी तथा दास वर्गों में विभाजित हो गया। फिर उत्पादन के साधनों में उन्नति हुई, लोहे के हल करघे आदि का प्रचलन बढ़ा, तब एक नवीन प्रकार के उत्पादन संबंध कायम हुए और समाज सामन्ती व्यवस्था में परिणत होकर समाज सामंत तथा काश्तकारों में परिणत हो गया। इसमें दासों की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ। इस अवस्था में भी शोषकों और शोषितों के बीच संघर्ष चलता रहा। फिर मार्क्स पूंजीवादी अवस्था का वर्णन करता है। वह कहता है कि अठारहवीं शताब्दीं में औद्योगिक क्रांति हुई, जिसने उत्पादन के साधनों में आमूल परिवर्तन कर दिया। इस अवस्था में पूंजीपति और श्रमिकों के बीच समाज बंटा। दोनों एक दूसरे के पूरक होते हुए भी इनमें संघर्ष चलता रहा। पूंजीपति कम से कम मजदूरी देना चाहता था, जिससे उसे अधिकाधिक लाभ हो और मजदूर अधिक से अधिक मजदूरी लेना चाहता है। अतः हितों के विरोध के कारण इन दोनों में संघर्ष उत्पन्न हो जाता था। यही वर्ग संघर्ष की बुनियाद है और इसी कारण वर्ग संघर्ष हमेशा से चला आ रहा है।
मार्क्स तथा ऐंजिल ‘साम्यवादी घोषणा पत्र’ में लिखते हैं कि ‘स्वतंत्र व्यक्ति तथा दास, अमीर तथा सामान्य जन, भूस्वामी तथा भूदास, श्रेणीपति तथा दस्तकार इनमें संघर्ष चलते रहते हैं। इस संघर्ष की परिणति हर बार या तो समाज के क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण में हुई है या संघर्ष करने वाले वर्गों के सर्वनाश में।
मार्क्स कहता है कि यही पूंजीवाद अपने सर्वनाश के बीज अपने आप में खुद बोता है क्योंकि सर्वनाश के बीज स्वयं में नीहित है। पूंजीपति की यह महत्वाकांक्षा कि उत्पादन अधिक से अधिक हो तथा लाभ अधिक से अधिक प्राप्त हो। पूंजीपति अपने आर्थिक हितों के चलते अधिक से अधिक उद्योगों को लगाते हैं। इससे पूंजीपतियों के हाथों में पूंजी तथा मजदूरों के हाथों में बेबसी और दुख प्राप्त होता है, जिसके कारण मजदूरों में एक चेतना का विकास होता रहता है। उनमें एकता स्थापित होती है और इसी एकता से वे पूंजीपतियों का मुकाबला करते हैं। ऐसा मार्क्स का विश्वास था। फिर औद्योगिक क्रान्ति के कारण पूंजीपति बाजार की खोज करते हैं और वे बाजार की खोजकर वहां अपने उत्पाद उद्योगों को विकसित करने का प्रयास करते है। इस प्रकार पूंजीवाद विश्वव्यापी तथा अंतराष्ट्रीय रूप धारण कर लेता है। पूंजीवादी व्यवस्था का एक परिणाम यह भी होता है कि इससे आर्थिक संकट पैदा हो जाता है तथा पूंजीपति अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं। सभी देशों के श्रमिक समान रूप से पूंजीवाद के शोषण और अत्याचारों से पीडि़त होते हैं, अतः श्रमिक आंदोलन बहुत अधिक संगठित हो जाता है, अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर लेता है। पूंजीपति इस संगठित विद्रोह को सहन नहीं कर पाता और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जाता है।
कोकर ने इसके बारे में उपयुक्त टिप्पणी की हैः
पूंजीवादी व्यवस्था मजदूरों की संख्या को बढ़ाती है, उन्हें वह संगठित समुदायों में एकत्रित कर देती है। उनमें वर्ग चेतना का प्रादुर्भाव करती है और उनमें परस्पर सम्पर्क तथा सहयोग स्थापित करने के लिए विश्वव्यापी पैमाने पर साधन प्रदान करती है। उनकी क्रय शक्ति को कम करती है और उनका अधिकाधिक शोषण करके उन्हें संगठित प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित करती है।
समीक्षाः कार्ल मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की विवेचना सामान्यतः देखने पर तो ठीक ही नजर आती है लेकिन जिन आधारों पर उसने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया वह पूर्णतः समीक्षा योग्य है।
मार्क्स की यह धारणा कि संघर्ष ही सामाजिक जीवन का आधार है ऐसा नहीं है। संघर्ष की अपेक्षा सहयोग, प्रेम, सहमति की भावनाएं भी समाज को टिकाने में अपना महत्व रखे हुए है। अर्थिक क्षेत्र में भी मजदूर और मालिक के पारस्परिक सहयोग के आधार पर वस्तुओं का उत्पादन सम्भव है। मार्क्स का यह मानना कि समाज में दो वर्ग हैं, ऐसा भी नहीं माना जा सकता क्योंकि समाज में एक सशक्त मध्यम वर्ग भी है, जिसकी उपयोगिता पूरी राजनीतिक व्यवस्था स्वीकार करती है। जिनके लिए कितनी क्रान्तियां हुई और सफल संचालन तथा व्यवस्था का इसने प्रतिनिधित्व किया, इसलिए इनको उपेक्षित नहीं किया जा सकता और क्रांतियां इन्हीं बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा ही श्रमिक वर्ग से करायी तथा उसको वास्तविक स्वरूप प्रदान किया।
मार्क्स का यह सोचना भी गलत लगता है कि वर्ग ही महत्वपूर्ण है ऐसा नहीं है वर्ग से मजबूत राह की भावना होती है, जो लोगों को कुछ भी करने के लिए मजबूर कर देती है। द्वितीय विश्व युद्ध के समय स्टालिन द्वारा सोवियत रूस के व्यक्तियों से वर्गीयता या साम्यवादी भूमि के नाम पर नहीं बल्कि सोवियत भूमि के नाम पर अपील की गयी थी और श्रमिकों ने उसमें अपना योगदान दिया था।
मार्क्स का यह सोचना भी गलत लगता है कि संसार का सारा इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है। इतिहास यह भी बताता है कि धर्म, शक्ति प्रदान करने की इच्छा भूमि और मानवीय भावनाएं तथा दुर्भावनाएं सदैव ही संघर्ष का कारण रहीं हैं। इसके अतिरिक्त कार्ल मार्क्स द्वारा वर्ग संघर्ष की धारणा के आधार पर पूंजीवाद के अंत और समाजवाद की स्थापना की जो संभावना व्यक्त की गयी है, सत्य प्रतीत नहीं होती, क्योंकि पूंजीवाद में सुधार की गुंजाइश है।
निष्कर्षः मार्क्सवाद का भूत ही था कि पूंजीवाद के सुधार करने पर विवश कर दिया और पूंजीवाद के सुधार के बाद श्रमिकों को पाश्चात्य देशों में बहुत सारी सुविधाएं प्राप्त हुईं, जिसके कारण मार्क्स की यह धारणा सफल सिद्ध हुई। मार्क्स ने भी माना कि पूंजीवादी देशों में प्रजातांत्रिक स्वरूप जहां है, वहां श्रमिकों को सुविधाएं प्राप्त हुई हैं। मार्क्स ने अपनी मृत्यु के पहले यह स्वीकार कर कर लिया था कि ऐसे देशों में क्रांति की आवश्यकता नहीं, जहां श्रमिक हड़ताल तथा अन्य साधनों को अपना कर अपनी मांगे मनवा सकते हैं।
Question : हन्ना आरेण्ट के राजनीतिक दर्शन की व्याख्या कीजिए।
(2003)
Answer : जहां बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अनेक विचार संप्रदायों ने विशेषतः प्रत्यक्षवादियों, नव प्रत्यक्षवादियों और तार्किक प्रत्यक्षवादियों ने राजनीतिक सिद्धांत को प्रायः मृत घोषित कर दिया था, वहीं, समकालीन उदारवादी सिद्धांत और समकालीन मार्क्सवादी सिद्धान्त से जुड़े हुए विचारों के आलावा ऐसे अनेक राजनीतिक दार्शनिक उभर कर सामने आये, जिन्होंने स्वतंत्रता, सर्वाधिकार वाद, क्रांति, शक्ति, सत्ता, नेतृत्व, प्रतिनिधित्व, वैधता और प्रगति इत्यादि ढेर सारी समस्याओं का विश्लेषण मौलिक ढंग से प्रस्तुत किया। इन विचारकों में हन्ना आरेण्ट प्रमुख हैं।
हन्ना आरेण्ट ने स्वतन्त्रता का विश्लेषण किया और कहा कि प्राचीन यूनानी नगर राज्य में राजनीतिक विचार की प्रधानता थी, परंतु आधुनिक युग में यह विशेषता समाप्त हो चुकी है। यूनानी नगर राज्य में समान व्यक्ति सामूहिक आदर्शों से प्रेरित होकर समुदाय की सेवा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने को तत्पर रहते थे और इसी क्षेत्र में ख्याति प्राप्त करने हेतु प्रयत्नशील थे। नगर राज्य क्यों सफल था? हन्ना कहती हैं, नगर राज्य की बेजोड़ सफलता का रहस्य यह था कि वहां सत्ता, सहभागमूलक लोकतंत्रीय संस्थाओं में नीहित थी, परंतु पारिवारिक तथा आर्थिक मामले के निजी क्षेत्र को राजनीतिक या सार्वजनिक क्षेत्र से पृथक रखा जाता था। इसके विपरीत आधुनिक युग में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र आपस में घुल-मिल गए हैं अर्थात राजनीतिक और पारिवारिक आर्थिक क्षेत्रों के बीच की सीमा रेखा मिट गयी है और राजनीतिक कार्रवाई आर्थिक प्रशासन में बदल गयी है। इसके परिणामस्वरूप चिंतन और कार्रवाई के विषय उत्पादन और उपभोग की सीमाओं की समस्याओं तक सीमित रह गये हैं, जिसने जनपुंज समाज (Mass Society) के उदय को बढ़ावा दिया है। आरेंट के अनुसार ऐसी हालत में विचार की स्वतंत्रता लुप्त हो गयी है।
फिर प्रश्न उठता है कि विचार क्या है? विचार की स्वतन्त्रता क्या है? आरेण्ट कहती है, इसके अंतर्गत समान नागरिक अपनी-अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देते हुए विश्व के बारे में अपने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण व्यक्त करते हैं, अतः इसमें प्रत्येक नागरिक कुछ-न-कुछ करने और कहने के लिए स्वतंत्र होता है। यही वह क्षेत्र है जहां विभिन्न व्यक्ति अपनी-अपनी विचार शक्ति के अनुसार मानव जीवन को अर्थ प्रदान करते हुए स्वतन्त्रता का अनुभव करता है। अतः यह विचार की स्वतन्त्रता का क्षेत्र है। यही मानव जीवन का सार्वजनिक क्षेत्र है।
हन्ना के अनुसार आधुनिक समाज में व्यक्ति के निजी हितों की देख- रेख के लिए इतने शक्तिशाली और राष्ट्रव्यापी संगठन बना दिये गये हैं कि सार्वजनिक समस्याओं की ओर ध्यान देने की गुंजाइश कम रह गयी हैं। चिन्तन का स्वरूप बदल गया है। जरूरी है कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र को अलग-अलग किया जाय और इसके लिये जरूरी है कि राजनीतिक जीवन को परिवारिक-आर्थिक जीवन से अलग करके फिर से महत्वपूर्ण स्थान देना होगा।
हन्ना आरेण्ट का दूसरा सबसे चर्चित विचार सर्वाधिकारवाद (To talitarianism) पर है। सर्वाधिकारवाद की उत्पति पर 1951 में कहती हैं कि सर्वाधिकारवाद के प्रमुख उदाहरण नाजीवाद और स्टालिनवाद हैं। ये वस्तुतः ऐसे आंदोलनों का संकेत देते हैं जिनमें निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के सारे पक्ष एक सर्वव्यापक प्रभुत्व की प्रक्रिया में विलीन हो जाते हैं। इस प्रक्रिया का केंद्र बिंदु एक छद्म वैज्ञानिक विश्व दृष्टि अथवा विचारधारा है, जो प्रस्तुत आंदोलनों को अपने तर्क या विचार के अनुरूप समाज के निरंतर विध्वंस और पुनर्निर्माण के लिए विवश करती है।
सर्वाधिकारवाद तथा सत्तावाद में अंतर करते हुए हन्ना आरेण्ट का कहना है कि सत्तावाद के अंतर्गत संपूर्ण शक्ति और उत्तरदायित्व राज्य के हाथों में केंद्रित रहता है। इसके विपरीत सर्वाधिकारवाद ऐसा अनियमित आंदोलन है जिसमें शक्ति और उत्तरदायित्व के स्रोत एक-दूसरे से कटे हुए और परस्पर विरोधी होते हैं। इसमें सर्वोच्च शक्ति साधारणतः गुप्त पुलिस के हाथों में रहती है, सरकार के हाथों में नहीं। अतः यहां वैधता और राष्ट्रीय प्रभुसत्ता निरर्थक हो जाती है। आरेण्ट के अनुसार जर्मनी में यहूदी विरोधवाद ने सर्वाधिकारवाद को बढ़ावा दिया।
हन्ना आरेण्ट का एक महत्वपूर्ण विचार 'On Revolution' में क्रान्ति के विचार मिलते हैं। उन्होंने अमेरिकी क्रान्ति और फ्रांसीसी क्रांति को एक न मानकर अंतर स्पष्ट किया है। उसने दावा किया है कि जहां अमेरिकी क्रांति एक स्वतंत्र संविधान स्थापित करने में सफल हुई, वहीं फ्रांसीसी क्रांति हिंसा और अत्याचार के रूप में ढल गयी। फ्रांस में व्यापक निर्धनता की सामाजिक समस्या ने स्वतंत्र कार्रवाई की राजनीतिक समस्या को पीछे ढकेल दिया। क्रांतिकारी निर्धन वर्ग के प्रति दया की भावना से प्रेरित होकर आतंक की राह पर चल पड़े। दूसरी ओर अमेरिकी क्रांति के फलस्वरूप स्वतंत्र संविधान का निर्माण तो हुआ परन्तु वहां के अधिकांश नागरिक राजनीतिकक्षेत्र से बाहर रह गये हैं। अतः उनके मन में जन सेवा की भावना लुप्त हो गयी और वे राजनीति को सुख के साधन के रूप में देखने लगे।
आरेण्ट के अनुसार किसी भी देश में क्रांतिकारी परम्परा की सार्थकता इस बात में है कि लोग अपने सहचरों के साथ स्वतंत्र कार्रवाई में हिस्सा लेते हुए सार्वजनिक सुख को बढ़ावा दें। परंतु ऐसा देखने को कम मिलता है। इस प्रकार हन्ना आरेण्ट ने स्पष्ट किया कि मानव जीवन के प्रति दोनों क्रांतियां किस तरह से प्रभावित करती हैं और दोनों किस राह पर चलकर अपने उद्देश्य निर्धारित करती हैं।
हन्ना आरेण्ट की चितन में अनेक मौलिक स्थापनाएं प्रस्तुत की गयी हैं, परंतु इसे किसी विशेष चिंतन प्रणाली के साथ जोड़ना कठिन है। सर्वाधिकार के बारे में उनका विश्लेषण बेजोड़ हैं परन्तु आधुनिक युग के जन पुंज समाज की विकृतियों को दूर करने के लिये आरेण्ट ने प्राचीन यूनानी राज्य की विशेषताओं की ओर लौट चलने का जो सुझाव दिया है, वह व्यवहारिक नहीं है।
Question : ‘राज्य का अस्तित्व प्राकृतिक है और वह व्यक्ति का पूर्वगामी है।’(अरस्तू)
(2002)
Answer : प्राचीन काल से ही विद्वानों ने राज्य से संबंधित विभिन्न तथ्यों को उजागर करने का प्रयास किया है, जिसमें से राज्य के उद्देश्य और औचित्य का विवेचन, राज्य की आवश्यकता, युक्ति-संगत आधार तथा राज्य को मानव-जीवन के लिए अपरिहार्य मानना प्रमुख है। यूनान के प्राचीन दार्शनिक प्लेटो और अरस्तु ने राज्य के औचित्य की व्यापक व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने राज्य को प्राकृतिक, स्वाभाविक तथा सर्वश्रेष्ठ संगठन बतलाया। उनके अनुसार राज्य उसी प्रकार प्राकृतिक संस्था है, जिस प्रकार मनुष्य प्राकृतिक है। मनुष्य के लिए उत्तम जीवन केवल राज्य में ही संभव है। राज्य में ही व्यक्ति का जीवन पूर्णता को प्राप्त करता है। उनके विचारानुसार राज्य का उद्देश्य है- आत्मनिर्भरता एवं सद्जीवन की प्राप्ति। अरस्तु के शब्दों में, ‘राज्य की उत्पत्ति जीवन के लिए होती है और वह सद्जीवन के लिए जीवित रहता है।’ संपूर्ण नागरिकों के नैतिक विकास को अपने विकास में समाहित करना ही राज्य का वास्तविक उद्देश्य है। अरस्तु ने इसे मनुष्यों का एक ऐसा समुदाय माना है जिसमें सभी व्यक्ति एक साथ रहकर अत्याधिक उत्कृष्ट जीवन की उपलब्धि कर सकते हैं। यह अपने बल पर उन सभी परिस्थितियों का निर्माण करता है, जिसके अंतर्गत व्यक्तियों के जीवन का उच्चतम नैतिक विकास हो सके। इस प्रकार अरस्तु ने राज्य को मनुष्य के अच्छे जीवन के लिए अनिवार्य बनाकर उनका औचित्य सिद्ध किया था।
राज्य से संबंधित इन विचारों का खंडन आशीर्वाधम् ने इस आशय के साथ किया है कि शक्ति का प्रयोग एक आधुनिक समस्या है। इसके अनुसार, ‘राज्य मानव-व्यवहार को व्यवस्थित करता है भले ही इस कार्य में उसे बल प्रयोग करना पड़े।’ सभी युगों में राज्य के औचित्य का अस्तित्व सिद्ध करने के अनेक प्रयत्न हुए हैं। आधुनिक युग में स्पिनोजा, मार्क्स, एंजिल्स, नीत्से और स्पेंसर ने स्पष्ट किया है कि राज्य शक्ति का मूर्तिमान स्वरूप है। परन्तु ग्रीन ने अरस्तु की बातों को स्वीकार करते हुए राज्य को एक नैतिक संस्था माना है।
Question : ‘अधिकार का यथार्थ स्त्रेत कर्त्तव्य है। यदि हम सब अपने-अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें, तो अधिकार आसानी से प्राप्त हो जायेंगे’।(मो.क. गांधी)
(2002)
Answer : गांधीजी का सम्पूर्ण जीवन इस बात की धुरी पर हमेशा घूमता रहता था कि व्यक्ति को अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए, न कि अधिकारों की चिंता। अधिकार कर्त्तव्यों की पूर्ति के अनुगामी हैं। वास्तव में, अधिकारों का वास्तविक स्रोत कर्त्तव्यों में ही निहित है। कर्त्तव्यों को छोड़कर अधिकारों के पीछे भागना मृग-मरीचिका के समान है। इनके अनुसार, अधिकारों के पीछे जितना दौडे़ंगे, उतने ही अधिकारो से दूर होते जायेंगे। गांधीजी ने इस अधिकार एवं कर्त्तव्य के विचार को राज्य, सत्य और अहिंसा की अवधारणा एवं स्वतंत्रता संघर्ष में पूर्ण रूप से अनुप्रयोग करने की कोशिश की है।
राज्य द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को नियंत्रित करने की दृष्टि से अधिकारों का महत्व गांधीजी ने स्वीकार किया है। गांधीजी की सहमति पर कराची कांग्रेस अधिवेशन में मूलभूत अधिकारों का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया था, किन्तु गांधीजी ने अधिकारों की स्थिति को व्यक्तियों की क्षमता के अनुसार निर्धारित करने पर बल दिया है। गांधीजी ने रोजगार के अधिकार को शिक्षा के साथ जोड़ते हुए यह स्पष्ट किया है कि राज्य का यह कर्त्तव्य है कि वह सबको रोजगार की सुविधा उपलब्ध कराये। इसके बावजूद गांधीजी कर्त्तव्यों को अधिक महत्व देते हैं। इनके अनुसार, अधिकारों से आत्मानुभूति होती है, किंतु सच्ची आत्मानुभूति कर्तव्यों के माध्यम से ही हो सकती है। प्रत्येक अधिकार अपने कर्त्तव्य की पूर्ति करने के लिए है। इनमें सभी प्रकार के वैधानिक अधिकार निहित हैं। पुनः गांधी ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि यदि अधिकार की मांग करने वाला तदनुरूप कर्तव्यक्षमता नहीं रखता, तो ऐसे अधिकार का महत्व स्वतः समाप्त हो जायेगा। प्रायोगिक तौर पर भी गांधी जी का उपरोक्त कथन काफी सत्यता के समीप प्रतीत होता है।
Question : ‘जहां तक राष्ट्रीय घटनाओं के निर्णयन की बात है, उनका निर्णयन ‘शक्ति-संभ्रात वर्ग’ ही करता है।’(सी. राइटमिल्स)
(2002)
Answer : सी राइट मिल्स ने बर्नहम की इस मान्यता को अस्वीकार कर दिया है कि अभिजन वर्ग की राजनीतिक शक्ति का स्रोत आर्थिक शक्ति या उत्पादन पर नियंत्रण है। मिल्स ने शक्ति को केंद्रबिंदु मानते हुए अभिजन सिद्धांत की व्याख्या की है। उसने ‘शक्ति अभिजन’ की अवधारणा को आगे बढ़ाया है। ‘शक्ति-अभिजन’ को पारिभाषित करते हुए उसने कहा कि शक्ति अभिजन वह है जो आदेशात्मक पदों पर पदस्थापित होता है। उसने अमेरिका के अभिजन वर्ग को आधार बनाकर ‘शक्ति अभिजन’ की अवधारणा का प्रतिपादन किया। मिल्स के अनुसार शक्ति अभिजन के अंतर्गत सेना के उच्च पदाधिकारी, बड़े-बड़े उद्योगपति, बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं के व्यवस्थापक, नौकरशाह व प्रशासन के उच्च पदाधिकारी आते हैं।
मिल्स के शक्ति अभिजन का तात्पर्य मुख्यतः तीन क्षेत्रों से है-सेना, उद्योग एवं प्रशासकीय कार्यपालिका। इन तीनों क्षेत्रों की संस्थाओं के उच्च पदाधिकारी ही शक्ति का आधार हैं। मिल्स के अनुसार शक्ति अभिजन के अस्तित्व तथा उनकी शक्तियों के वर्द्धन में संस्थाओं की अहम भूमिका रहती है। मिल्स ने तीन प्रकार की सामाजिक संस्थाओं का उल्लेख किया है- (क) आर्थिक संस्थाएं (ख) राजनीतिक संस्थाएं और (ग) सैनिक संस्थाएं। इन सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से ही शक्ति और घटनाओं पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है। अतः शक्ति अभिजन का प्रयास मुख्य रूप से इन संस्थाओं पर नियंत्रण रखना होता है। जब अभिजन वर्ग का इन संस्थाओं पर अधिकार हो जाता है, तो वे घटनाओं और सामाजिक क्रियाकलापों के संबंध में आवश्यक निर्णय लेने में सक्षम होते हैं।
मिल्स की अभिजन वर्ग की अवधारणा की आलोचना इसआधार पर की जाती है कि यह अस्पष्ट और असंतोषजनक है। क्योंकि इन्होंने इसकी व्याख्या पूर्णरूपेण नहीं की है कि किस प्रकार शक्ति अभिजन वर्ग का रूप धारण कर लेती है। मिल्स ने शक्ति को अभिजन का आधार मानकर अन्य आधारों की उपेक्षा की है। तीसरी, ये विचार राष्ट्रीय महत्व के निर्णय के बारे में स्पष्ट प्रतीत नहीं होते हैं एवं अंत में, उन्होंने खुद शक्ति अभिजन के औचित्य को अस्वीकार किया है। फिर भी मिल्स का यह सिद्धांत आनेवाली पीढ़ी को एक मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है।
Question : ‘इच्छा, न कि बल, राज्य का आधार है।’
(2002)
Answer : ग्रीन का स्थान उन उदारवादियों में सर्वप्रथम है, जिन्होंने समाज की अपेक्षा व्यक्ति को अधिक महत्व दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि समाजिक जीवन में महत्वपूर्ण भाग अदा करने से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास हो सकता है। ग्रीन का उदारवादी दर्शन का केंद्र सामाजिक हित रहा है, जो राज्य द्वारा बनाये जाने वाले कानून का मापदंड निर्धारित करते हैं। ग्रीन के अनुसार उदारवादी राज्य का कार्य एक स्वतंत्र समाज की स्थापना करना है और उन सभी बाधाओं को दूर करना है, जो व्यक्ति के नैतिक विकास में बाधक हैं। अतः ग्रीन के कथन से यह स्पष्ट है कि एक अच्छी सरकार का आधार इच्छा है, शक्ति नहीं, क्योंकि व्यक्ति को समाज से बांधने वाली उसकी अपनी प्रकृति है, राज्य द्वारा दी जानेवाली सजा का डर नहीं। ग्रीन ने यह माना कि राज्य का काम केवल यह देखना है कि व्यक्ति अपने कार्य कर्त्तव्यानुसार करे। राज्य के कानूनों और संस्थाओं का उद्देश्य व्यक्ति के आत्म विकास के आदर्शो की सिद्धि में सहायता देना है। राज्य का उद्देश्य व्यक्ति को अकेला छोड़ना नहीं है। इसके विपरीत यदि निरक्षरता और अज्ञान व्यक्ति के नैतिक और बौद्धिक विकास में बाधक हैं तो यह राज्य का कर्त्तव्य है कि वह स्कूल और कॉलेज का प्रबंध करे, ताकि व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर सकें।
व्यक्ति के अच्छे जीवन के लिए सामाजिक बाधाओं को दूर करने का विचार प्रस्तुत कर ग्रीन ने प्रारंभिक उदारवादियों से बिल्कुल भिन्न विचार सामने रखे। उनके अनुसार व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए सामाजिक भलाई आवश्यक है और यही विचार 20वीं शताब्दी में कल्याणकारी राज्य का आधार बना, जिसका स्पष्टीकरण लास्की और मैकाइवर की रचनाओं में मिलता है। आदर्शवादी विचारधारा से संबंध रखने के बावजूद भी ग्रीन राज्य और व्यक्ति को प्राथमिकता देता है, परंतु उसने व्यक्ति को एक सामाजिक व्यक्ति माना और राज्य का कार्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को क्षेत्र विकसित करना माना।
Question : राजनीतिक सिद्धांत के अध्ययन में ‘आदर्शक बनाम आनुभाविक बहस’ में प्रयुक्त तर्कों का परीक्षण कीजिए।
(2002)
Answer : राजनीतिक विज्ञान के परंपरागत और आधुनिक उपागमों में बुनियादी अंतर क्या है, यह जानने के लिए प्रारंभ में आदर्शक और आनुभाविक उपागमों में अंतर करना जरूरी है। आनुभविक उपागम के अन्तर्गत केवल उन तथ्यों से सरोकार रखते हैं जो हमारी अनुभव और निरीक्षण पर आधारित हो और उन्हीं निष्कर्षो पर विश्वास करते हैं, जिनका सत्यापन किया जा सके।
अतः इसमें तथ्यों के वर्णन को प्राथमिकता दी जाती है और उन्हें ‘सत्य’ या ‘असत्य’ की कसौटी पर रखते हैं। दूसरी ओर आदर्शक उपागम के अंतर्गत उन मूल्यों से सरोकार रखते हैं, जो शुभ और अशुभ तथा उचित और अनुचित में भेद करते हैं। अतः इसमें निर्देशन को प्रधानता दी जाती है। इस उपागम के अन्तर्गत ‘उचित और अनुचित’ की जांच के लिए विवेक या तर्कबुद्धि का प्रयोग किया जाता है। परंपरागत राजनीतिक सिद्धान्त के अन्तर्गत आनुभाविक और आदर्शक दोनों उपागमों को समान रूप से महत्व दिया गया है। प्लेटो ने ‘आदर्श राज्य का स्वरूप’ देखा था। अरस्तु ने राज्य को ‘आदर्श-जीवन’ का साधन माना था।’ मार्क्स ने सर्वोत्तम समाज-व्यवस्था की कल्पना साम्यवादी समाज के रूप में की थी। इन सब विचारकों के ध्यान में ‘उचित और अनुचित’ के निश्चित मानदंड थे, जिनके आधार पर उन्होंने यह निर्दिष्ट किया था कि ‘उचित’ की ‘सिद्धि’ का सर्वोत्तम मार्ग क्या होगा।
आधुनिक युग में जब राजनीति सिद्धांत के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति को प्रमुखता दी गयी, तब यह अनुभव किया गया कि एक विज्ञान के नाते राजनीति विज्ञान को केवल तथ्यों से सरोकार रखना चाहिए, जिन्हें प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर जान सकते हैं, ‘सत्य’ या ‘असत्य’ नहीं ठहरा सकते। अतः अन्य विज्ञानों की तरह राजनीति विज्ञान को भी इनका अध्ययन अपने सीमाक्षेत्र से बाहर रखना चाहिए। आनुभविक वादियों ने यह तर्क दिया कि तथ्यों को अनुभव की कसौटी पर परख सकते हैं, परंतु मूल्यों को कभी ईश्वर की इच्छा के साथ जोड़ते है, कभी प्राकृतिक कानून के साथ, या फिर वे केवल आत्मपरक होते हैं जिनकी वस्तुपरक जांच नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, ऐसे प्रश्नों को अनुभव की कसौटी पर परख सकते हैं, क्या किसी देश में लोकतंत्रीय शासन तभी स्थिर रह सकता है जब वहां के अधिकांश लोग साक्षर हों, क्या बहुदलीय प्रणाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देता है और बहुलमत प्रणाली दो दलीय को बढ़ावा देती है? परंतु ये प्रणालियां ‘उचित हैं या अनुचित’, इन प्रश्नों को कोई अनुभवसिद्ध उत्तर नहीं दिया जा सकता। अतः राजनीति विज्ञान को उनसे सरोकार नहीं रखना चाहिए।
दूसरे विश्वयुद्ध (1939-45) के बाद से राजनीति सिद्धान्त के क्षेत्र में आनुभविक उपागम के प्रयोग से इतनी विलक्षण प्रगति हुई कि मूल्य परक अध्ययन की उपेक्षा की जाने लगी। परन्तु बीच-बीच में कुछ विद्वानों ने मूल्यों के महत्व की ओर बार-बार ध्यान खींचा और मूल्यपरक अध्ययन के प्रति राजनीति सिद्धांत की रुचि को जीवित रखा। इस तरह आनुभविक और आदर्शक उपागम साथ-साथ प्रचलित रहे, हालांकि इनके तुलनात्मक महत्व में कई उतार-चढ़ाव आये। वैसे इन दोनों उपागमों के समर्थकों के बीच उग्र विवाद भी चला। जिसमें इन्होंने एक दूसरे की तीव्र आलोचना की, परंतु सुलझे हुए राजनीति-सिद्धांतकारों ने दोनों के गुणों को ग्रहण करने का प्रयत्न किया, ताकि राजनीति सिद्धान्त को आधुनिक युग की समस्याओं के समाधान का उपयुक्त साधन बनाया जा सके।
इसमें संदेह नहीं कि आनुभविक उपागम को अपनाकर राजनीति विज्ञान ने ऐसी समस्याओं का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है कि कौन-कौन सी संस्थाएं किन कार्यों के लिए उपयुक्त हैं, अतः समाज के लक्ष्यों की सिद्धि के लिए वर्तमान संस्थाओं में क्या-क्या संशोधन परिवर्तन करने होंगे? इस तरह का विश्लेषण राष्ट्र-निर्माण के प्रयास में बहुत सहायक सिद्ध हुआ है। हम आनुभविक उपागम की उपलब्धियों की उपेक्षा नहीं कर सकते, अतः वे राजनीति विज्ञान का महत्वपूर्ण अंग बन चुकी हैं। वस्तुतः आनुभविकवादी प्रचलित मूल्यों को अपने आप में सही या गलत नहीं मानते, बल्कि यह देखने का प्रयत्न करते है कि कौन-कौन से मूल्य किन-किन परिस्थितियों में किस तरह की समाज-व्यवस्था को कायम रखने में सहायक रहे हैं। परंतु मूल्यों के प्रति तटस्थता की यह प्रवृत्ति कहीं-कहीं हद से बढ़ गयी है। उदाहरण के लिए, लोक प्रशासन के अन्तर्गत कभी-कभी यह तर्क दिया जाता है कि भ्रष्टाचार भी प्रशासन को चलाने में सहायता देता है। इस दृष्टि से वह क्रित्यात्मक है, उसे उचित-अनुचित की कसौटी पर कसने की कोई जरूरत नहीं है। यदि हम मूल्य-निरपेक्षता के नाम पर भ्रष्टाचार को कायम रखने के लिए हामी भर भी देते हैं, तो हमें विनाश के गर्त में गिरने से कोई नहीं रोक सकता। इस विनाश से बचने के लिए मूल्यों के प्रति सजगता सर्वथा आवश्यक है। देखा जाए तो जन-कल्याण की सिद्धि में राजनीति सिद्धांत जितने सहायक हो सकते हैं उतना और कोई नहीं हो सकता। दार्शनिक तो केवल चिंतन के स्तर पर मूल्यों का निर्णय करता है, परंतु राजनीति-सिद्धांतकार व्यवहार के धरातल पर यह परख सकता है कि मूल्यों की सिद्धि हो भी रही है कि नहीं।
Question : प्राकृतिक अधिकारों से सामूहिक एवं पर्यावरणीय अधिकारों तक, मानव-अधिकारों के सिद्धांतों के विकास की विवेचना कीजिए।
(2002)
Answer : यह सिद्धांत अत्यंत प्राचीन है। इसके अनुसार मनुष्य के अधिकार प्राकृतिक हैं और उन्हें जन्मसिद्ध भी कहा जा सकता है। अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धांतों के अनुसार मनुष्य अपने अधिकारों का उसी तरह मालिक है, जैसे अपने हाथ, पांव, आंख आदि का। आशीर्वाधम् ने सही ही कहा है ‘वे उसी प्रकार मनुष्य की प्रकृति के भाग हैं, जिस प्रकार उसकी खाल का रंग।’ वे स्वयंसिद्ध हैं, निरपेक्ष हैं, पूर्ण सामाजिक हैं और जन्मजात हैं। ये अधिकार जीवन स्वतंत्रता और सुख से संबंध रखते हैं। वास्तव में, इन अधिकारों के लिए मनुष्य किसी का आभारी नहीं है, बल्कि समाज तथा राज्य का यह दायित्व है कि वे इन अधिकारों का सम्मान तथा सुरक्षा करें। इस सिद्धांत को हम ग्रेशियस, हुकर, जॉन लॉक तथा अमेरिका के संविधान में लिखित अधिकारों की घोषणा तथा 1789 की फ्रांसीसी क्रांति की विचारधारा में देखते हैं। लॉक के शब्दों में- यदि राज्य व्यक्तियों के इन अधिकारों की सुरक्षा करने में असमर्थ है तो व्यक्ति राज्य की आज्ञापालन के कर्त्तव्य से मुक्त हो जाता है। इस अवस्था में राज्य अवज्ञा करना न्यायोचित है।
हॉब्स, लॉक, रूसो, मिल्टन, वॉल्टेयर, टॉमस पेन तथा ब्लैकस्टन आदि विचारकों ने अधिकारों की उत्त्पति के विषय में इस मत का समर्थन किया है। सामाजिक समझौते के सिद्धांत के मानने वालों ने तो इसे व्यक्ति के अधिकारों की उत्पत्ति का मूलमंत्र माना है। वर्जीनिया के विधान के घोषणानुसार, ‘सब मनुष्य स्वभाव से ही समान रूप में स्वतंत्र और बंधनहीन होते हैं। उनके कुछ जन्मजात अधिकार होते हैं, जिनमें सामाजिक अवस्था में आने के पश्चात् वे अपने संतान को किसी प्रकार वंचित नहीं कर सकते। वे अधिकार हैं जीवन और स्वतंत्रता का सुख, संपत्ति की प्राप्ति और स्वामित्व के साधन और सुख और सुरक्षा की खोज और प्राप्ति।’ हॉब्स ने प्राकृतिक अधिकारों को प्राकृतिक शक्ति मानते हुए कहा है कि ‘प्रत्येक वस्तु पर यहां तक कि एक दूसरे के शरीर पर भी प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है।’ हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति इच्छानुसार तब तक सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र होता है, जब तक वह औरों की इसी प्रकार की स्वतंत्रता में बाधक नहीं होता। अधिकारों के इसी प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम की घोषणा में भी समानता, जीवन और स्वतंत्रता के अधिकारों को अक्षुण्ण घोषित किया गया था। फ्रांस की राज्य क्रांति ने भी संसार में स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व जैसी भावनाओं को अमर बनाया था। इन सबका आधार अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धांत ही था। इसी सिद्धांत के आधार पर वर्तमान काल में भी भोजन, वस्त्र, निवास तथा आजीविका के अधिकारों को प्राकृतिक मानकर उन्हें ऐसा आधारभूत माना जाता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन यूनानी तथा रोमन दार्शनिकों ने भी प्राकृतिक अधिकारों की चर्चा की है। उनके अनुसार वैयक्तिक अधिकार प्रकृति की देन हैं। सिसरों के शब्दों में, ‘संसार में एक सार्वजनिक और विश्वव्यापी नियम है जो बुद्धि और विवेक के अुसार मनुष्य और प्रकृति में समान रूप से देखा जाता है। इसलिए उक्त प्राकृतिक नियम मनुष्यों और परमात्मा के ऊपर समान रूप से लागू है, क्योंकि सभी विवेकशील हैं। इसलिए मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में प्राकृतिक नियम का सिद्धांत काफी महत्व रखता है, विशेषकर जब संसार भर के सभी प्राणियों में समानता और भ्रातृत्व की भावना का संचार हो रहा है।’
यद्यपि अधिकारों के इस सिद्धांत ने उस समय जब व्यक्ति को भेड़-बकरी से बढ़कर नहीं समझा जाता था, मनुष्य का महत्व संसार के समक्ष रखा एवं उपलब्धि हासिल की। परंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि यह सिद्धांत आलोचना योग्य नहीं है। वास्तव में इसकी आलोचना निम्न आधारों पर की जाती हैः
i.इस सिद्धांत के अंतर्गत प्राकृतिक शब्द सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन इस शब्द की व्याख्या पर इस सिद्धांत के विद्वान एकमत नहीं हैं। डी.जी. रीचि ने अपनी पुस्तक में प्राकृतिक अधिकार के विभिन्न अर्थों की व्याख्या की है। वास्तव में, प्राकृतिक शब्द का प्रयोग कोई निश्चित अर्थ लिये बिना ही किया गया है। अतः प्राकृतिक अधिकारों की एक सूची भी नहीं बन पायी है, जो कि इस समर्थकों को सर्वमान्य हो।
ii.यदि इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाये कि प्राकृतिक अधिकारों का जन्म प्राकृतिक अवस्था में हुआ था, तो प्राकृतिक अवस्था में प्रचलित अनेक संस्थाओं, जैसे - बहुपत्नीवाद और बहुपतिवाद को प्राकृतिक अधिकार मान लेना उचित नहीं होगा।
iii.प्राकृतिक अधिकार के सिद्धान्त में विरोधाभास देखने को मिलता है। इस सिद्धांत के प्रतिपादकों का कहना है कि नैसर्गिक अधिकारों के क्षेत्र में राज्य या समाज हस्तक्षेप नहीं कर सकता अर्थात् ये अधिकार अनियंत्रित हैं, लेकिन अधिकारों का समुचित नियंत्रण उनकी व्यावहारिक उपयोगिता के लिए बहुत ही आवश्यक है। फिर भी एक अनियंत्रित अधिकार दूसरे अधिकार को नष्ट कर देता है।
iv.इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक संगठन साधारणतः कृत्रिम होते हैं। जैसे-राज्य भी एक कृत्रिम संस्था है। लेकिन वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। राज्य एक प्राकृतिक विकास है, वह कृत्रिम रचना नहीं है। वास्तव में, संस्थाएं बनावटी नहीं होती हैं। बोसांके ने सच ही कहा है ‘नैतिक विचारों के मूर्त रूप हैं।’
v.यह सिद्धान्त इस तथ्य पर जोर देता है कि समाज से अलग भी हम अधिकारों का उपभोग कर सकते हैं। लेकिन यह विचार गलत है। समाज से बाहर यापहले हमारे पास शक्ति तो हो सकती है पर अधिकार नहीं।
vi.बैंथम ने प्राकृतिक अधिकारों को ‘अराजकतापूर्ण भ्रांतियों’ की संज्ञा दी। उसके अनुसार यदि मैं कहता हूं कि यह अधिकार मेरा है और आपको कोई अधिकार नहीं, तो इसका फैसला कौन करेगा? प्राकृतिक कानून क्या है? ये कब लिखे गये? इन्हें किसने लिखा? सभी लोग किस आधार पर समान हैं? बैंथम ने सभी अधिकारों को उपयोगिता के साथ जोड़ने का समर्थन किया और यही इनका मानदंड रखा।
परंतु प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत को सर्वथा अस्वीकार कर दिया गया हो, ऐसा नहीं हैं। ग्रीन ने इस सिद्धांत को एक नया अर्थ दिया। ग्रीनने उन सभी अधिकारों को प्राकृतिक माना, जो व्यक्ति को प्राप्त होने चाहिए और जो व्यक्ति के नैतिक और विवेकसम्मत विकास के लिए अनिवार्य हैं। अधिकार इस दृष्टि से प्राकृतिक हैं कि जिस उद्देश्य के लिए ये आवश्यक हैं, वे उद्देश्य प्राकृतिक हैं। साथ ही, यह भी सत्य है कि इस सिद्धांत की सत्यता तभी सकती है, जब हम इसका अर्थ यह लगायें कि प्राकृतिक अधिकार वे आदर्श या नैतिक अधिकार हैं, जिनसें मनुष्य को वंचित नहीं किया जाना चाहिए। जैसा लार्ड ने कहा है ‘यह स्वीकर किया जाना चाहिए कि प्राकृतिक अधिकार मानव संस्था द्वारा स्वीकृत अथवा अस्वीकृत दशाएं हैं, जो व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं।’ केवल नैतिक विकास की आवश्यकताओं के रूप में ही अधिकारों को प्राकृतिक कहा जा सकता है।
Question : एम.एन. रॉय की मार्क्सवादी उग्र-मानववाद तक की वैचारिक यात्र का विश्लेषण कीजिए।
(2002)
Answer : एम.एन. रॉय का दर्शन एक राजनीति नेता के रूप में उनके विकास के साथ-साथ विकसित होता है। रॉय ने एक ‘रोमांटिक क्रांतिवादी’ के रूप में शुरुआत की और मार्क्सवाद के विस्तृत ढांचे से होते हुए अंत में एक ऐसी स्थिति में पहुंचे, जहां उन्होंने उग्र- मानववाद या नव-मानववाद का मौलिक राजनीतिक विचार प्रस्तुत किया।
एक मार्क्सवादी के रूप में रॉय का जीवनकाल 1917 से 1946 तक रहा, जिसमें प्रारंभिक चरण में अर्थात् 1917 से 1930 तक उन पर रूढि़वादी साम्यवाद का रंग चढ़ा रहा। अगले चरण में 1930 से 1931 के दौरान वे एक रेडिकल कांग्रेसी रहे और तीसरे चरण में अर्थात् 1940 से 1946 के दौरान उनकी चिन्तन शैली एक मौलिक लोकतंत्रवादी की रही। राय का मार्क्सवादी स्वरूप सदा एक सा न रहा, बल्कि समय के साथ उसमें परिवर्तन आते गए। ज्यों-ज्यों स्वतंत्र चिंतन के क्षेत्र में वे आगे बढ़ते गए, त्यों-त्यों वे मार्क्सवादी प्रभाव से हटते गए और आगे चलकर उन्होंने एक मौलिक मानववादी के रूप में जिन सिद्धांतों और विचारों का प्रतिपादन किया, वे मार्क्सवाद से एकदम अलग ही हो गए। रॉय 1946 के बाद से अपनी मृत्यु (अर्थात् 1954) तक उग्र मानववादी रहे।
रॉय का मार्क्सवाद के प्रति दृष्टिकोण
(क)मार्क्सवाद में परस्पर विरोधी और असंगत प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं। एक प्रवृत्ति शोषण की निंदा करती है, तो दूसरी प्रवृत्ति द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग संघर्ष पर बहुत अधिक बल देती है। रॉय ने शोषण का तो विरोध किया, किंतु दूसरी प्रवृत्ति का इस आधार पर विरोध किया कि यह व्यक्ति की अवहेलना कर तानाशाही और सर्वाधिकारवाद को बढ़ावा देती हैं।
(ख)रॉय मार्क्सवाद की वैज्ञानिक पद्धति के प्रशंसक थे और उसे कट्टरपंथ का रूप देना अनुचित समझते थे। उनका मानना था कि किसी भी प्रगतिशील सिद्धांत को बदलती परिस्थितियों के अनुकूल ढालने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
(ग)रॉय ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक दर्शन का पूरी तरह विरोध किया और इसे मानव प्रगति के मार्ग में बाधक माना। उनके शब्दों में ‘द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया संसार को बदलने के लिए उन महानतम क्रांतिकारियों के लिए भी कोई स्थान नहीं देती जो मार्क्सवादी दर्शन से सुसज्जित हैं।’
(घ)रॉय के अनुसार इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या भी दोषपूर्ण है, क्योंकि वह सामाजिक प्रक्रिया में मानसिक क्रिया को बहुत कम स्थान देती है। साथ ही व्यक्ति की सृजनात्मक शक्ति को भी कोई स्थान नहीं देती।
(घ)रॉय ने मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त में भी संदेह प्रकट किया। उन्होंने कहा कि इतिहास में विभिन्न सामाजिक वर्गों का अस्तित्व अवश्य रहा है और उनमें परस्पर खींचातानी भी रही है, लेकिन सामाजिक एकता और बंधन के तत्व विशेष प्रबल रहे हैं। इन शक्तिशाली तत्वों के कारण ही समाज मुख्य रूप से टिका हुआ है। यदि केवल वर्ग संघर्ष की ही प्रधानता होती तो मानव जाति कभी के लड़-भिड़कर समाप्त हो जाती।
(ब)मार्क्सवाद के विरुद्ध रॉय की एक गंभीर आपत्ति यह रही कि उसमें नैतिक नियमों के लिए कोई स्थान नहीं है। मार्क्सवादी दर्शन ऐतिहासिक आवश्यकता के समक्ष स्वेच्छापूर्ण गुलामों का समूह भर तैयार करता है।
रॉय ने मार्क्सवाद की आलोचनाओं द्वारा अपनी साम्यवादी सहयोगियों को क्रुद्ध कर दिया और साम्यवाद जगत में रॉय के लिए कोई स्थान न रहा। मौलिक मानववाद को मार्क्सवाद का संशोधन नहीं, वरन् मार्क्सवाद का परित्याग अधिक समझा जाता है।
उग्र मानववाद के बारे में रॉय का मानना था कि वर्तमान मनुष्य जीवन का अधोःपतन पिछली विचारधाराओं की गलतियों और कमियों के कारण हुआ। अतः उन्होंने एक वास्तविक क्रांतिकारी, सामाजिक और राजनीतिक दर्शन की आवश्यकता महसूस की, जो मनुष्य के नैतिक व्यक्तित्व को पुनर्जीवित कर सके और मनुष्य के सच्चे स्वरूप को पहचान सके।
रॉय के अनुसार उग्र मानववाद ‘आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित स्वतंत्रता का दर्शन’ है। रॉय ने महसूस किया कि विज्ञान के विकास ने मनुष्य की क्रियात्मक शक्तियों को अंधविश्वास और पारलौकिक शक्तियों के भय से मुक्त कर दिया है। विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है, जिसे वैज्ञानिक ज्ञान द्वारा जीता न जा सके। अतः माननीय स्वतंत्रता को भी सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता।
रॉय के अनुसार नैतिकता न तो तर्क का आदेश है और न ही भगवान के भय से उपजी श्रद्धा। यह मानव की अपनी पर्यावरण के प्रति बुद्धिमतापूर्ण प्रतिक्रिया है। नैतिकता के नियम मानव की जैविक विरासत के अंग हैं और सामाजिक जीवन को सुनिश्चित करने के लिए इनका जन्म हुआ है, क्योंकि सामाजिक जीवन, जीवन व अस्तित्व के लिए, वैयक्तिक संघर्ष की तुलना में अधिक लाभदायक है।
रॉय, हॉब्स के समान मानते हैं कि स्व-रक्षा की भावना ने ही मनुष्य को एकाकी जीवन के स्थान पर सामाजिक समूहों में जोड़ा। साथ ही रॉय यह भी मानते है कि वैयक्तिक हित और सामाजिक हित कहीं न कहीं समान हैं। समाज और राज्य की स्थापना वैयक्तिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए की गई थी, किंतु व्यवहार में ये दोनों मनुष्य का दमन कर वैयक्तिक स्वतंत्रता को नष्ट कर रहे हैं।
मनुष्य की स्वतंत्र स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए ही रॉय ने एक ‘दलविहीन लोकतंत्र’ की स्थापना की बात की। रॉय का ‘मौलिक लोकतंत्र’ (Radical Democracy) ‘जन समितियों’ पर आधारित राजनीतिक व्यवस्था और सहकारिता आधारित आर्थिक व्यवस्था पर टिका है। रॉय ने राष्ट्रवाद को भी एक प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति बताते हुए प्रत्येक समाज और प्रत्येक देश को इससे बचने का संदेश दिया। वे व्यक्ति को राष्ट्रवाद की संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर ‘प्रेम और विश्वास के राष्ट्रमंडल’ का सदस्य बनाना चाहते हैं, जिसे भौगोलिक सीमाओं ने दूषित न किया हो। इस प्रकार वे विश्व बंधुत्व के समर्थक थे।
इस प्रकार रॉय की वैचारिक यात्र के केन्द्र में व्यक्ति है, जिसने उन्हें ‘क्रांतिवादी रोमांटिकता’ और मार्क्सवाद से अलग कर ‘मौलिक मानववाद’ की ओर अग्रसर किया। अपने इस योगदान के कारण वे भारतीय चिंतकों में सबसे अधिक मौलिक हैं।
Question : राजनीति सिद्धांत के अध्ययन के लिए सांदर्भिक दृष्टिकोण की प्रासंगिता।
(2001)
Answer : वास्तव में सांदर्भिक दृष्टिकोण, राजनीति सिद्धांत के अध्ययन का कोई विशेष एवं प्रमुख दृष्टिकोण के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। सांदर्भिक दृष्टिकोण का मूल तात्पर्य यह है कि किसी परिस्थिति को कर्ता के आधार पर विचार करना। अतः यह दृष्टिकोण किसी भी प्रकार के ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक तथ्यों को अस्वीकार करता है। यह मुख्य रूप से यर्थाथता पर ध्यान केंद्रित करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि राजनीति विज्ञान में हम शक्ति का विश्लेषण करते हैं और इसे विभिन्न राजनीतिक संगठनों से संबंधित करते हैं।
इस दृष्टिकोण का प्रयोग हम राजनीति सिद्धांत के क्षेत्र में निर्णय निर्धारण सिद्धांत के तहत व्याख्या कर सकते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि किसी परिस्थिति विशेष के आधार पर हम समाधान की खोज करते हैं। उदाहरण के लिए अगर हम नौकरशाही को देखें तो हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि किसी विशेष परिस्थिति में लिया गया उचित निर्णय किसी देश को मजबूती देता है। इस प्रकार का निर्णय कोई पूर्व प्रेक्षित नहीं होती है, बल्कि यह परिस्थिति पर आधारित होता है। परंतु दूसरी ओर यह भी बात हो सकती है कि किसी भी अधिकारी द्वारा लिया गया निर्णय हानिकारक हो सकता है एवं यह संपूर्ण व्यवस्था को विचलित कर सकती है। अतः इस प्रकार से एक अधिकारी को निर्णय निर्धारण के लिए अनुभव, ज्ञान एवं परिस्थिति विशेष का अर्थ मालूम होना अति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त इस दृष्टिकोण के अंतर्गत ये भी अस्पष्ट रहती है कि कानून का पालन किस प्रकार किया जाये।
अतः उपरोक्त सभी परिस्थितियों को अगर ध्यानपूर्वक देखें ताे यह स्पष्ट हो जाती है कि कोई भी दृष्टिकोण संपूर्ण रूप से राजनीतिक सिद्धांत को एक आधार प्रदान नहीं कर सकती है। फिर भी वर्तमान समय में सांदर्भिक दृष्टिकोण का उपयोग किया जाना चाहिए और यह इसलिए कि आधुनिक समाज में प्रत्येक स्तर पर स्थान एवं समय भिन्न-भिन्न होता है एवं ऐसी जगहों पर इस दृष्टिकोण का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।
Question : इस कथन की विधि मान्यता कि गांधीवादी सिद्धांतों में सबसे प्रमुख है- अहिंसा सत्य का पालन और धर्म की गरिमा।
(2001)
Answer : गांधीवादी सिद्धांतों में अहिंसा, सत्य का पालन और धर्म की गरिमा मूलरूप से समाहित है और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। जब हम स्वतंत्रता के लिए इच्छुक थे और अंग्रेजी सरकार का बहिष्कार कर रहे थे तो इस समय भी गांधीवादी विचारधारा के लोग सत्य, अहिंसा और धर्म की गरिमा को अच्छी तरह समझते हुए उसका पालन करते थे। वो यह बात का सूचक है कि गांधीवादी विचारधारा के लोग सत्य, अहिंसा का पालन और धर्म की गरिमा पर जोर देते रहे और अंततोगत्वा उसका पालन भी निष्ठापूर्वक किये। दूसरी ओर गरम दल के नेता इस विचारधारा के खिलाफ थे और इस विचारधारा के खिलाफ कार्य करते थे। गांधीवादी विचारधारा के लोग अहिंसा और सत्य के बल पर आजादी पाना चाहते थे, जबकि गरम दल वाले इस विचारधारा के खिलाफ थे। लेकिन गांधीवादी विचारधारा के लोगों ने उस कठिन परिस्थितियों में अहिंसा का ख्याल करते हुए आजादी के लिए लड़ते रहे। जबकि गरमदल वाले हिंसा पर उतर आये। गांधीवादी विचारधारा के लोग हिंसा की तरफ कभी नहीं मुड़े। उन्होंने आजादी की लड़ाई में अहिंसा, सत्य का पालन और धर्म की गरिमा पर काफी बल दिया। इसी कारण इन दोनों दलों के बीच अनबन बनी हुई थी।
Question : ‘शक्ति के मानचित्र’ के रूप में संविधान।
(2001)
Answer : किसी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित करता है जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है और उनकी शक्तियों की व्याख्या करती है और उनके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनियमन करता है। किसी देश के संविधान को ऐसी आधार विधि भी कहा जा सकता है जो उसकी राज्य व्यवस्था के मूल सिद्धांत निहित करती है और जिसकी कसौटी पर राज्य की अन्य सभी विधियों तथा कार्यपालक कार्यों को उसकी विधिमान्यता तथा वैधता के लिए कसा जाता है।
प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति, आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है। संविधान को एक जड़ दस्तावेज मात्र मान लेना ठीक नहीं होता क्योंकि संविधान केवल वही नहीं है जो संविधान के मूलपाठ में लिखित है। संविधान सक्रिय संख्याओं का एक सजीव संग्रह है। यह निरंतर पनपता रहता है। पल्लवित होता रहता है। हर संविधान इसी बात से अर्थ तथा तत्व ग्रहण करता है। संविधान देश की शासन व्यवस्था पर भी पूर्णतः हावी रहता है। संविधान कुछ इस पर निर्भर करता है कि देश के न्यायालय जिस प्रकार उसका निर्वचन करते हैं तथा उसे अमल में लाने की वास्तविक प्रक्रिया में उसके चारों ओर कैसी परिपार्टियां तथा प्रथाएं जन्म लेती हैं।
उदाहरण के लिए अगर हम भारत की संविधान की बात करें तो उसके शक्ति मानचित्र संविधान की प्रस्तावना में निहित होती हैं। जो इस प्रकार हैंः ‘हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. को एतद् द्वारा संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।’
Question : सिद्धांतवाद की परिभाषा दीजिए। ‘सिद्धांतवाद का अंत’ विषयक बहस की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
(2001)
Answer : राजनीति सिद्धांत के अंतर्गत सिद्धांतवाद का विश्लेषण दो स्तरों पर किया जाता है। (1) ऐसे विचारों का समुच्चय जिनमें कोई समूह आस्था और विश्वास रखता है। (2) सिद्धांतों का विज्ञान जिसमें यह पता लगाते हैं कि सिद्धांतों और विश्वासों का निर्माण कैसे होता है। उनमें विकृतियां कैसे पैदा होती हैं और उन विकृतियों से बचाव तथा सच्चा ज्ञान प्राप्त करने की संभावना क्या है।
सिद्धांतवाद का अर्थ है किसी समाज या समूह में प्रचलित उन विचारों का समुच्चय, जिनके आधार पर वह किसी विशेष ढंग के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संगठन को उचित या अनुचित ठहराता है। इस दृष्टि से सिद्धांतवाद विश्वास का विषय है। इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। किसी सिद्धांतवाद के अनुयायी उसे अपने-आप में सत्य मानकर उसका अनुसरण करते हैं। उसके सत्यापन की जरूरत नहीं समझी जाती है। भिन्न-भिन्न समूह भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का समर्थन करते हैं। अतः उसमें मतभेद पैदा होना स्वाभाविक है। सिद्धांतवादी समाज में राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रेम और घृणा के संबंध को बढ़ावा देती है जो कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुकूल नहीं है। यही करण है कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समर्थक सिद्धांतों को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। राजनीति के क्षेत्र में प्रचलित सिद्धांतों के प्रमुख उदाहरण हैं। उदारवाद, पूंजीवाद, मार्क्सवाद, समाजवाद, रुढि़वाद, आदर्शवाद, अराजकतावाद, साम्यवाद,फास्टिटवाद, सत्तावाद, सर्वाधिकारवाद, साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद, अंतर्राष्ट्रीय इत्यादि।
सिद्धांतवाद सिद्धांतों के विज्ञान का संकेत देती है। सबसे पहले फ्रांसीसी विचारक देस्त द ट्रेसी (1754-1936) के उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में सिद्धांतवाद शब्द का प्रयोग सिद्धांतों के विज्ञान के अर्थ में किया था। ट्रेसी ने तर्क दिया था कि सही अर्थ में हमारे विचार अनुभवमूलक ज्ञान पर आधारित होते हैं। अलौकिक या आध्यात्मिक घटनाएं सही विचारों के निर्माण में कोई भूमिका नहीं निभाती। मनुष्य अपनी समाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों को सुधारने के लिए विज्ञान का सहारा ले सकते हैं। ट्रेसी से पहले अंग्रेज व सिद्धांतवाद फ्रांसिस बेकन (1516-1626) ने यह तर्क दिया था कि ज्ञान सतर्क और सही-सही निरीक्षण एवं अनुभव से प्राप्त करना चाहिए। अधूरी वैज्ञानिक पद्धति से केवल विकृत जानकारी प्राप्त होती है। बेकन और ट्रेसी ने वैज्ञानिक पद्धति से प्राप्त ज्ञान की प्रामाणिकता पर बल देते हुए विश्व को विकृत ज्ञान के प्रति सावधान किया था। सिद्धांतवाद के विकृत रूपों के विश्लेषण पर आरंभ मार्क्स के चिंतन से होता है। आगे चलकर इटावली समाज वैज्ञानिक विल्फ्रेडो पैरेटो ने तर्क दिया था कि सब सिद्धांतवाद अपनी मनचाही सामाजिक नीतियों को बढ़ावा देने के लिए मनुष्यों की भावनाओं से फायदा उठाती है। भावनाओं को उद्दीप्त करके यदि उन्हें धार्मिक निष्ठा के स्तर पर ला दिया जाये तो फिर बात ही क्या है।
सिद्धांतवाद की वर्तमान स्थिति के बारे में 1960 के दशक से जो विवाद शुरू हुआ। उसका विषय था- सिद्धांतवाद का अंत। इसका अर्थ यह था कि औद्योगिक विकास की उन्नत अवस्था में किसी देश के सामाजिक आर्थिक संगठन का स्वरूप यहां प्रचलित विचारधारा से निर्धारित नहीं होता, बल्कि औद्योगिक विकास के स्तर से निर्धारित होता है।
अमेरिकी समाज वैज्ञानिक डेरियल बैल ने अपनी चर्चित कृति ‘द एंड ऑफ आइडियोलॉजी’ के अंतर्गत यह तर्क दिया था कि सारे उत्तर औद्योगिक समाज एक जैसे विकास की ओर अग्रसर होते हैं। चाहे वह किसी भी विचारधारा का अनुसरण करता हो। मतलब यहां यह है कि एक जैसी संस्थाएं और प्रवृत्तियां विकसित हो जाती हैं। चाहे वे पूंजीवादी विचारधारा के समर्थक हो या समाजवादी सिद्धांतों का। इसकी विशेषता यह होती है कि वहां उद्योगों की तुलना में सेवाओं के क्षेत्र में कामगारों का अनुपात बढ़ जाता है और संपूर्ण प्रशासन में तकनीकी विशिष्ट वर्ग का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है।
अमेरिकी अर्थशास्त्रवेत्ता जे.को. गैल्बेथे ने ‘द न्यू इंडस्ट्रियल स्टंट’ के अंतर्गत यह तर्क दिया था कि औद्योगीकृत समाज अनिवार्यतः एक जैसे विकास की ओर अग्रसर होते हैं जिनमें व्यावसायिक वर्गों और तकनीकीविदों का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। यही कारण है कि अमेरिका की तरह रूस में भी अत्यधिक केंद्रीकरण और अधिकार तंत्रीकरण के लक्षण पाये जाते हैं। उधर अमेरिकी राजनीति समाज वैज्ञानिक सीमोर लिप्सेट ने अपनी महत्वपूर्ण कृति ‘पोलिटिकल मेन’ के उपसंहार के अंतर्गत लिखा है कि वामपंथी और दक्षिणपंथी एक-दूसरे के निकट आ रहे हैं। आज के समाजवादी सर्वशक्तिमान राज्य के खतरों से चिंतित हैं। उदारवादियों और समाजवादियों के सिद्धांत्मक मतभेद के विषय में केवल ये रह गये हैं कि सरकारी स्वामित्व और आर्थिक नियोजन के क्षेत्र को थोड़ा कम कर दिया जाये या बढ़ा दिया जाये। ब्रिटिश राजनीतिक वैज्ञानिक रैल्फ डैरनडॉर्फ ने क्लास एंड कांन्फिक्ट इन एन इंडिस्ट्रियल सोसायटी के अंतर्गत यह तर्क दिया है कि यूरोपीय समाज उत्तर पूंजीवाद के दौर में पहुंच चुका है। अब आर्थिक संघर्ष और राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र में समवर्ती नहीं रह गये हैं।
परंतु रिचर्ड टिटमस, सी. राइट मिल्स और सीबी मैकफर्सन ने सिद्धांतवाद के अंत के सिद्धांत की कड़ी आलोचना की है। टिटमस ने लिखा है कि सिद्धांतवाद के अंत के समर्थक पूंजीवादी समाज में आर्थिक शक्ति के एकाधिकारपूर्ण जमाव सामाजिक विघटन और सांस्कृतिक बंधन की समस्या की अनदेखी करते हैं। सी राइट मिल्स ने सिद्धांतवाद के अंत में समर्थकों को यथास्थिति के समर्थक बताते हैं। क्योंकि इसी से उसका स्वार्थसाधन होता है। सी-वी- मैकफर्सन के अनुसार सिद्धांतवाद के अंत का नारा लगाने वाले लोग बाजार समाज के भीतर ही साम्यमूलक वितरण की समस्या का समाधान ढूंढते हैं।
वस्तुतः सिद्धांतवाद के अंत की बात केवल उदारवादी पूंजीवादी दायर में ही सुनने को मिलती है। समाजवादी क्षेत्र में उसे कोई महत्व नहीं दिया जाता है। तीसरी दुनिया के सिद्धांतवाद आज भी महत्वपूर्ण हैं और वह जनसमूह को प्रगति की दिशा में गतिशील करने का महत्वपूर्ण साधन हैं। सिद्धांतवाद को मिथ्या चेतना या अप्रासंगिक मात्र कह कर नहीं रखा जा सकता।
Question : आधुनिक भारतीय राजनीतिक विचारधारा के प्रमुख घटक क्या हैं? गांधीजी और एम.एन. राय के संदर्भ में उसकी समीक्षा कीजिए।
(2001)
Answer : आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीति चिंतन को वर्गीकृत करना सरल नहीं है क्योंकि प्रत्येक विचारक ने राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं पर अपने व्यक्तिगत विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित विचारों में कड़ी परंपरा एवं आधुनिकता का सम्मिश्रण है, तो कहीं पर इनका परस्पर विरोधी संघर्ष भी है। आधुनिक भारतीय समाजिक एवं राजनीतिक चिंतन का घटक निम्नांकित रूप में निर्धारित किया जाता है।
दूसरी विचारधारा में आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन के उन विचारकों को सम्मिलित किया गया है, जो उदारवादी एवं मितवादी विचारों के हों। इनमें दादाभाई नौरोजी, महादेव गोविंद रानाडे, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, फिरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, श्रीनिवास शास्त्री आदि प्रमुख हैं।
आधुनिक भारतीय समाजिक एवं राजनीतिक चिंतन की तृतीय विचारधारा के अंतर्गत उग्रवाद का अध्ययन किया जाता है। उग्रवादी विचारकों में बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिनचंद्र पाल तथा अरविंद घोष का योगदान उल्लेखनीय है। उन्होंने बहिष्कार, स्वराज-स्वदेशी तथा राष्ट्रीय शिक्षा के कार्यक्रम प्रस्तुत किये। राष्ट्रवादी चिंतन को आध्यात्मिक आयाम प्रदान कर उग्रवादियों ने भारतीय जनसमुदाय में नवीन चेतना का संचार किया। निष्क्रिय प्रतिरोध का इनका विचार एक क्रांतिकारी प्रयोग सिद्ध हुआ। अंग्रेजी राज को चुनौती देने में इस विचार का अत्यधिक महत्व बढ़ा। इनका दृष्टिकोण स्वदेशी था, पर वे पाश्चात्य ज्ञान एवं शिक्षा के विरोधी थे। स्वराज प्राप्ति इनका मुख्य लक्ष्य था।
सर्वप्रथम सामाजिक एवं धर्म सुधार आंदोलन के प्रणेताओं का अध्ययन किया जाता है। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद तथा श्रीमती एनी बेसेंट ने आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन को सजीवित कर धर्म एवं समाज के सुधार का अथक प्रयास किया है। इनका यह कार्य संस्थागत था। विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर उन्होंने अपने विचारों को स्थायी संस्थागत आधार प्रदान किया ताकि भविष्य की पीढि़या उनके मार्गदर्शन प्राप्त कर सके। आज भी ब्रह्मसमाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन तथा थियोसोफिकल सोसाइटी का अपने कार्य अपने संस्थापकों की नीति के अनुसार यद्निश्चित परिवर्तन के साथ चल रहा है।
इनके विचारों में समाजवाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद तथा अंतर्राष्ट्रवाद का विश्लेषण मिलता है। लाला लाजपत राय के समाजवाद तथा श्रमिक संगठन से संबंधित विचार एवं साम्यवाद के प्रति उनके उद्गार आज भी दूरदर्शिता राजनीतिक दक्षता एवं विद्वता की याद दिलाते हैं। सामाजिक क्षेत्र में कार्य किये कार्य ने महात्मा गांधी को प्रेरित किया।
हालांकि, भारतीय सामाजिक एवं राजनीति चिंतन की चौथी विचारधारा, धर्म तथा राजनीति के गठबंधन की तरफ इंगित करता है। अंग्रेजी कूटनीति में जिस सांप्रदायिक त्रिकोण की स्थापना कर हिंदुओं एवं मुसलमानों में फूट डालने में सफलता प्राप्त की। वहीं नीति, धर्म तथा राजनीति को संयुक्त करने वाली चिंतन के लिए उत्तरदायी बनीं। मुस्लिम लीग की स्थापना ने तथा मिंटो-मार्ले सुधारों ने मुसलमानों को संगठित और आक्रामक रवैया अपनाने के लिए प्रेरित किया। इसकी प्रतिक्रिया में हिंदू-मानस में भी जोश आया। हिंदू विचारधारा के समर्थकों ने प्राचीन सांस्कृतिक गौरव भारत के विशिष्ट दर्शन तथा मानवीय प्रबंद्धता का संदेश अपने सहधर्मियों को देकर भावी संकट तथा विघटनकारी सांप्रदायिक तत्वों के प्रति उन्हें सजग किया। जहां हिंदू विचारधारा विशुद्ध रूप से भारतीय थी क्योंकि भारत के बाहर न तो कोई उसका प्रेरणा स्थल था न विश्राम स्थल ही। वहां मुस्लिम विचारधारा ने बाह्य स्थलों एवं तत्वों से प्रेरणा प्राप्त की और सदैव भारत से अपने आपको पृथक माना।
चिंतन की छठी विचारधारा मानववाद, समाजवाद तथा सर्वोदयवाद से संबंधित है। इसमें मानवेंद्र नाथ राय का नव-मानववाद अथवा वैज्ञानिक मानववाद की विचारधारा, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. राममनोहर लोहिया, शशांक मेहता, जय प्रकाश नारायण आदि समाजवादी नेताओं के विचार एवं विनोबा भावे का भूदान कार्यक्रम सम्मिलित है। सर्वोदय से संबंधित विचारकों ने भी भारतीय चिंतन में दलविहीन लोकतंत्र जैसे विचारकों का समावेश किया है। उपर्युक्त विचारकों में मानवेंद्र नाथ राय, आचार्य नरेंद्र देव तथा विनोबा भावे का विशिष्ट स्थान है। मानवेंद्र नाथ राय की मौलिकता नव मानववाद की स्थापना में तथा साम्यवाद की कटु आलोचना में परिलक्षित होती है। राय पहले लेखक हैं जिन्होंने आधुनिक चिंतन की मार्क्सवादी व्यवस्था होती है। आचार्य नरेंद्र देव ने समाजवाद को भारतीय परिवेश में अंगीकृत करने के लिए वैचारिक एवं व्यावहारिक साधन जुटाए। विनोबा भावे ने गांधीजी के विचारों को मूर्तरूप देने का सफल प्रयोग किया है। उनका भूदान कार्यक्रम इसी उद्देश्य से परिचालित हैं।
आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन समन्वयवादी हैं। इस धारा के प्रमुख अरविंद घोष, रवींद्र नाथ ठाकुर, महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू थे। उनके विचारों में उग्रवाद एवं उदारवाद का सम्यक मिश्रण है। मानव गरिमा, व्यक्तिगत, स्वतंत्रता, शोषण का विरोध, विश्व बंधुत्व विचारों ने उन चिंतकों को नवीन दिशा दिया।
महात्मा गांधी ने आधुनिक भारतीय चिंतन को अहिंसा, सत्याग्रह तथा अहसयोग का कार्यक्रम देकर ने केवल भारत अपितु विश्वचिंतन में अपना अनूठा स्थान बना लिया है। धर्म तथा राजनीति का समुचित सिद्धांत द्वारा शासन सत्ता का विकेंद्रीकरण, ग्राम स्वराज आदि महात्मा गांधी के ऐसे विचार थे। जिन्होंने आधुनिक भारतीय समाजिक एवं राजनीतिक चिंतन को गरिमा एवं विश्वसनीयता प्रदान की। समाजिक दृष्टि से हरिजनोद्वार का कार्य निष्पक्ष सामाजिक न्याय का प्रतीक था। आर्थिक क्षेत्र में पूंजीवाद के दुर्गुणों को शांतिपूर्ण ढंग से दूर करने का उनका उपचार साम्यवादी वर्ग संघर्ष का एकमात्र उपाय है। गांधीजी के राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहर लाल नेहरू के विचारों पर पाश्चात्य प्रभाव अधिक था। वे अत्यधिक आदर्शवादी थे। उन्होंने समाजवाद का आधार प्रस्तुत किया। वे अंतर्राष्ट्रीय मानववाद, धर्मनिरपेक्ष राज्य तथा संसदीय लोकतंत्र के समर्थक विचारक एम.एन. राय का राजनीतिक दर्शन विभिन्न आयामों को स्पष्ट करती है। राय ने राष्ट्रीय क्रांति के रूप में अपने राजनीतिक जीवन को प्रारंभ किया। परंतु अंततोगत्वा वे मार्क्सवादी से उग्रमानववादी बन गये। उनका नव-मानववाद उदारवाद तथा मार्क्सवाद का सम्मिश्रण था। उनका नवमानववाद उदरवाद का ही दर्शन है। पुराने उदारवाद को मार्क्स के विचारों से परिष्कृत कर नव मानव वाद के स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
Question : सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के संदर्भ में राज्य विषयक मार्क्सवादी सिद्धांत की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।
(2001)
Answer : राज्य का वर्ग-सिद्धांत मार्क्सवाद से जुड़ा हुआ है। इसके अनुसार, राज्य न तो प्राकृतिक संस्था है, न ही भौतिक संस्था है। जैसा कि राज्य का आंशिक सिद्धांत मानता है, यह एक कृत्रिम उपकरण है। परंतु यंत्रीय सिद्धांत की मान्यताओं के विपरीत राज्य का वर्ग सिद्धांत को न तो जनसाधारण की इच्छा की अभिव्यक्ति मानता है न परस्पर विरोधी हितों के सामंजस्य का साधन स्वीकार करता है। इसके अनुसार राज्य उस समय अस्तित्व में आता है जब निजी संपत्ति के आधार पर समाज दो परस्पर विरोधी वर्गों धनवान और निर्धन वर्गों में बंट जाता है। जो वर्ग उत्पादन के प्रमुख साधनों का स्वामी है वह अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए राजनीतिक शक्ति का ताना-बाना बुन लेता है। वही राज्य के रूप में हमारे सामने आता है।
राज्य प्रभुत्वशाली वर्ग का उपकरण है। राज्य के वर्ग सिद्धांत के अनुसार, राजनीतिक शक्ति, आर्थिक शक्ति के हाथ की कठपुतली है। आर्थिक शक्ति से संपन्न वर्ग अर्थात धनवान वर्ग ही राजनीतिक दृष्टि से बुर्जुग और सर्वहारा वर्ग होता है। उस तरह राज्य समाज की इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि हर समाज पर ऊपर से थोपी गयी चीज है। राज्य पूरे समाज के हित साधन का स्रोत नहीं हो सकता क्योंकि वह धनवान वर्ग के हित साधन का उपकरण है और उसी वर्ग के हितों को बढ़ावा देने के लिए वह निर्धन वर्ग का भरपूर शोषण करता है।
राज्य का वर्ग सिद्धांत समाज और राज्य में स्पष्ट अंतर करते हुए यह मानता है कि समाज एक प्राकृतिक संस्था है, जो सदा से चली आ रही है परंतु राज्य एक कृत्रिम संस्था है, जिसका निर्माण बाद में हुआ। उसका निर्माण संपूर्ण समाज ने सबके हित साधन के लिए नहीं किया गया, बल्कि धनवान वर्ग ने अपने स्वार्थ के लिए किया। अतः किसी भी युग में किसी भी राज्य में राज्य, जो अधिकार प्रदान करता है वे प्रभुत्वशाली वर्ग के अधिकार होते हैं। चाहे उनमें जनसाधारण की स्वतंत्रता और समानता का कितना ही बड़ा दावा क्यों न किया गया हो।
राज्य पराधीन वर्ग के शोषण का साधन है। राज्य बुर्जुआ वर्ग के हाथ की कठपुतली है और उस वर्ग के हितों को बढ़ावा देने के लिए एक यह सर्वहारा वर्ग का शोषण अवश्य करता है। अतः राज्य की नींव नैतिकता या न्याय पर नहीं रखी जाती, बल्कि सामाजिक अन्याय पर रखी जाती है। राज्य परस्पर विरोधी वर्गों के समाधान नहीं कर सकता, बल्कि वह बुर्जुआ वर्ग के हित में उस संघर्ष को दबा देता है। शासितों की सहमति की भ्रांति पैदा करने के लिए तथा अपने अस्तित्व को नैतिक दृष्टि से उचित ठहराने के लिए राज्य विचारधारात्मक शक्ति का प्रयोग करता है। राज्य के वर्ग सिद्धांत के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स (15818-89) और फ्रैड्रिक एंगेल्स (1821-95) ‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ के अंतर्गत लिखा है।
सही-सही कहा जाये तो राजनीतिक शक्ति एक वर्ग का उत्पीड़न करने के लिए दूसरे वर्ग की संगठित शक्ति मात्र है। लेनिन (1870-1924) ने भी राज्य के इस वर्ग चरित्र की पुष्टि की है। इसके अनुसार राज्य वर्ग के हित में शासित वर्ग का दमन और उत्पीड़न करता है। राज्य का यह शोषणकारी स्वरूप इतिहास के आरंभ से ही चला आ रहा है। परंतु पूंजीवाद की चरम सीमा पर पहुंच कर अब यह संभव हो गया है कि निर्धन वर्ग एक शक्तिशाली संगठन बनाकर धनवान वर्ग को सत्ता से हटा दें और स्वयं सत्ता संभाल लें। जब सर्वहारा वर्ग सत्ता संभाल लेगा और उत्पादन के प्रमुख साधनों का समाजीकरण कर देगा, तब भी राज्य का दमनकारी रूप बना रहेगा। परंतु ऐसे राज्य के साथ उसका कोई निहित स्वार्थ नहीं जुडा़ होगा। अतः वह उसे कायम रखना नहीं चाहेगा। इससे वर्ग हीन समाज के उदय का रास्ता खुल जायेगा। वर्गहीन समाज में राज्य का अस्तित्व निरर्थक हो जायेगा। अतः तब राज्यहीन समाज का उदय होगा।
राज्य के वर्ग सिद्धांत का मुख्य योगदान यह है कि उसने इतिहास की यात्र को निर्धारित करने में आर्थिक शक्तियों की भूमिका को स्पष्ट किया है और यह दिखाया है कि शासक वर्ग आर्थिक शक्ति का स्वामी होता है। वह अपने स्वार्थ साधन के लिए जनसाधारण का दमन और उत्पीड़न करता है। परंतु इसकी मुख्य त्रुटि यह है कि यह केवल आर्थिक तत्वों को संपूर्ण सामाजिक जीवन की धुरी मानता है और यह आशा करता है कि उत्पादन के प्रमुख साधनों का समाजीकरण हो जाने पर सब मनुष्य स्वतंत्रता और समानता के आधार पर व्यवहार करने लगेंगे और उन पर वा“य नियमन या नियंत्रण की आवश्यकता नहीं रहेगी। परंतु जैसा कि समाजवादी देशों- सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ, जनवादी चीन गणराज्य, पोलैंड इत्यादि के अनुभव से सिद्ध हो गया है। आर्थिक जीवन में समाजवाद स्थापित हो जाने पर भी राजनीतिक प्रमुख के नये-नये रूप विकसित हो जाते हैं और इस आधार पर नये विशिष्ट वर्ग अस्तित्व में आ जाते हैं। इससे वर्गहीन समाज का उदय नहीं होता, बल्कि कठोर श्रेणी तंत्र विकसित हो जाता है। युगोस्लाविया के मार्क्सवादी विचारक मिलोवन जिलासा (1911) ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘द न्यू क्लास’ (नवोदित वर्ग) के अंतर्गत यह तर्क दिया था कि सोवियत संघ जैसे समाजवादी देशों में साम्यवादी दलों के अधिकारी इतने शक्तिशाली हो गये थे कि उन्होंने एक नये शासक वर्ग का रूप धारण कर लिया था। इस वर्ग के सदस्यों को अपने प्रशासनिक अधिकार के बल पर ऐसे विशेषाधिकार और आर्थिक वरीयताएं प्राप्त थीं जो जनसाधारण से उनकी अलग पहचान बनाती थीं। इस तरह समाजवादी देशों ने वर्गहीन समाज के विचार को बहुत पीछे धकेल दिया था। इतिहास साक्षी है शक्ति की यही विषमता 1991 तक आते-आते सोवियत संघ के विघटन का कारण बना। उन्हीं दिनों पूर्वी यूरोप के समाजवादी देश (हंगरी, पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लाविया, बुल्गारिया और रूमानिया) में समाजवाद के पतन से यह बात और भी स्पष्ट हो गयी कि वहां के साम्यवादी दलों ने आम नागरिकों को भावनाओं को कुचलकर ही अपनी अदम्य शक्ति कायम कर रखी थी।
कुछ भी हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सता कि आर्थिक साधनों का स्वामित्व दूसरे पर प्रभुत्व स्थापित करने का सबसे शक्तिशाली साधन है और आर्थिक स्वतंत्रता के बिना मनुष्यों के लिए किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता निराधार होगी।
Question : ‘जब तक दार्शनिक नरेश नहीं को जाने या इस संसार के नरेश और राजकुमार दर्शन की भावना और शक्ति से ओत-प्रोत नहीं हो जाते, तब तक शहरों को बुराई से कभी भी राहत नहीं मिलेगी।’ -प्लेटो
(2000)
Answer : प्लेटो के संपूर्ण राजनीतिक दर्शन में सर्वाधिक भौतिक धारणा दार्शनिक राजाओं का शासन है। किंतु उसने तत्कालीन राजनीतिक समाज की जो बुराइयां देखीं, उससे वह राजनीति से विमुख हो गया और उसने स्वयं राजनीतिक जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा राजनीति से अलग रहते हुए राजनीतिक जीवन की बुराइयां को दूर करने के उपायों पर विचार किया। यद्यपि प्लेटो सामान्यतः एक ही दार्शनिक राजा का शासन स्थापित करने के पक्ष में है। किंतु उसका विचार है कि यदि किसी राज्य में दार्शनिक राजा के समान की शिक्षा, चरित्र की श्रेष्ठता और दूरदर्शिता से संपन्नता से व्यक्ति हो, तो दार्शनिक राजा को इनके साथ मिलकर शासन का संचालन करना चाहिए।
प्लेटो ने दार्शनिक शासक को शासन की असीमित शक्ति देकर निरंकुश शासन का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। यद्यपि प्लेटो ने शासक पर चार प्रतिबंधों का उल्लेख किया है। किंतु ये प्रतिबंध ऐसे नहीं हैं कि उसे निरंकुश बनने से रोक सके। शासक को असीमित सत्ता प्रदान करने का परिणाम जनहित की दृष्टि से अच्छा नहीं हो सकता। सत्ता का मद स्वामित्व का है और प्लेटो ने दार्शनिक को निरंकुश शासन का अधिकार देकर उसके सत्ता मत से दूषित और भ्रष्ट होने की आशंका बढ़ा दी है।
Question : ‘शक्ति अपने में एक साध्य है और वह उन साधनों की खोज करता है जो शक्ति के अर्जन, प्रतिधारण और विस्तार के लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त है और इस प्रकार वह शक्ति को नैतिकता, आचारनीति, धर्म और तत्वमीमांसा से पृथक कर देता है।’-मैकियावेली एवं एस्बेस्टाइन
(2000)
Answer : मैकियावली की मानव स्वभाव संबंधित विचारधारा निश्चित रूप से अत्यधिक त्रुटिपूर्ण है। प्रथमतः मैकियावली की मानव स्वभाव संबंधित धारणा न केवल एकांगी है। मैकियावली की मानव स्वभाव संबंध धारणा न केवल एकांगी वरन् सतार्किक और अवैज्ञानिक भी है। वह मानव स्वभाव संबंधित अपने निष्कर्षों पर मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर नहीं पहुंचती है और न ही वह हॉब्स के समान मानव स्वभाव संबंधी दोषों को तर्क के आधार पर सिद्ध करने का प्रयास किया है। मैकियावली शक्तिशाली शक्ति को वंदनीय समझता है और शक्ति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक उपाय का प्रयोग करना उचित। उसके इस दृष्टिकोण के कारण धार्मिक और नैतिक प्रभाव से पूर्णतया मुक्त राजनीति का जन्म हुआ।
जो राजा और गणराज्य अपने आपको भ्रष्टाचार से मुक्त रखना चाहते हैं उनमें सबसे पहले समस्त धार्मिक संस्कारों की विशुद्धता को सुरक्षित रखना चाहिए और उनके प्रति उचित श्रद्धा भाव रखना चाहिए, क्योंकि धर्म की हानि होते हुए देखने से बढ़कर किसी देश के विनाश का कोई कारण नहीं है। मैकियावली ने अपने राजनीतिक दर्शन में धर्म और नीति की घोर अपेक्षा की है। उन्होंने इस दृष्टिकोण से कभी भी चीजों को देखने का प्रयत्न नहीं किया कि उन्हें कैसी होनी चाहिए।
Question : ‘मैं उस प्रत्येक राज्य को नाम देता हूं जो विधि द्वारा शासित हैं, भले ही उसके प्रशासन का रूप कुछ भी हो।’ -रूसो
(2000)
Answer : रूसो के सामाजिक समझौते सिद्धांत द्वारा जिस राजनीतिक समाज का जन्म होता है उसके अंतर्गत किन्हीं व्यक्तियों का शासन नहीं वरन् विधि का शासन स्थापित होता है। रूसो, हॉब्स या लॉक की तरह इस बात को स्वीकार नहीं करता कि प्राकृतिक अवस्था में किसी प्रकार के प्राकृतिक नियम या प्राकृतिक विधियां प्रचलित थीं। उसके अनुसार विधि का अस्तित्व तो राजनीतिक समाज में ही संभव है। सामाजिक समझौते के पश्चात सामान्य इच्छा द्वारा संवैधानिक विधियों का निर्माण होता है, जो सभ्य समाज के सभी सदस्यों को स्वतंत्रता प्रदान करती है। चूंकि विधियां सामान्य इच्छा या परिणाम है, इसलिए वे आवश्यक रूप से जनहित में होती हैं। रूसो के अनुसार ‘कोई भी राज्य वैध नहीं, जब तक कि उस पर विधियों का शासन न हो और इस प्रकार से शासित राज्य उसके शासन का रूप कुछ भी हो गणतंत्र है। अपनी विधि की धारणा के अंतर्गत रूसो केवल संवैधानिक विधियों की ही कल्पना करता है। साधारणतया रूसो प्रत्यक्ष प्रजातंत्र को सर्वोत्तम मानता है क्योंकि इसमें समस्त जनता प्रत्यक्ष रूप से संप्रभुता का प्रयोग करती है। इसलिए वह कहता है कि यथार्थ में यदि सही कहा जाये तो सच्चा प्रजातंत्र न कभी हुआ है और न कभी होगा। जिससे वह सामान्य इच्छा व्यक्त कर संप्रभुता का प्रदर्शन कर सके। सरकार के स्वरूप के बारे में निर्णय ले सके तथा तत्कालीन सरकार को बनाये रखने या अंत करने का आदेश दे सके। इस प्रकार की जनसभाएं ही सरकार के हस्तक्षेप से जनता की प्रभुता की रक्षा कर सकती है।
Question : आधुनिक बहुलवादी लोकतंत्रों ने राष्ट्र राज्य के ताने-बाने पर एक बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। चर्चा कीजिए।
(2000)
Answer : लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत इसके विशिष्ट वर्गवादी सिद्धांत के साथ निकट से जुड़ा है। जोसेफ शुंपीटर और रेमोदं आरों जैसे विचारकों ने उदार समाज में विशिष्ट वर्गों की बहुलता की चर्चा की थी। इस दृष्टि से उसके चिंतन में लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धांत का संकेत मिलता है।
इधर कुछ विचारकों ने लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धांत को नये ढंग से प्रस्तुत किया है। उन्हें प्रायः समूह सिद्धांतों का व्यक्ति माना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार, उदार लोकतंत्र का अर्थ है अपेक्षाकृत स्वायत्त समूहों के बीच सौदेबाजी की प्रक्रिया। इस विचारधारा के अनुसार, उदार समाज के अंतर्गत मनुष्यों को अपने-अपने हितों की देखरेख के लिए संगठन बनाने की स्वतंत्रता प्राप्त होती है। इस तरह वे अपेक्षाकृत स्वायत्त हित समूहों के रूप में संगठित हो जाते हैं। उदार समाज में किसानों, कामगारों, दुकानदारों, व्यापारियों, व्यावसायिकों, उपभोक्ताओं इत्यादि के अपने-अपने संघ बने होते हैं। लोकतंत्रीय प्रक्रिया के अंतर्गत ये संघ या समूह आपस में सौदेबाजी करके ऐसी नीतियों के अपनी सहमति व्यक्त करते हैं, जिनसे उनके परस्पर विरोधी हितों में समायोजन स्थापित हो सके। इस तरह शासन जनसाधारण की सहमति से चलाया जाता है।
लोकतंत्र के समूह सिद्धांत के आरंभिक संकेत बीसवीं शताब्दी के शुरू में मिलते हैं। एफ.ए. बेटली में ‘द प्रॉसेस ऑफ गवर्नमेंट’ के अंतर्गत यह विचार किया कि लोकतंत्र ऐसा राजनीतिक खेल है जिसमें तरह-तरह के समूह हिस्सा लेते हैं। बाद में डेविड ट्रन्न्मैन ने द गवर्नमेंटल प्रॉसेस के अंतर्गत इस विचार की पुष्टि की है। इस व्याख्या के अनुसार लोकतंत्रीय सरकार सार्वजनिक दबाव का केंद्र-बिंदु होती है। इसका कार्य ऐसी नीतियां बनाना है, जिनमें इन समूहों की सबसे प्रमुख सामान्य मांग की झलक मिलती हो। उदाहरण के लिए व्यापारियों और उपभोक्ताओं के संगठन शुरू में परस्पर विरोधी मांगे प्रस्तुत करते हैं। परंतु फिर वे ऐसी नीतियों के लिए सहमत हो जाते हैं, जिनमें दोनों समूहों के हितों के समायोजन की गुंजाइश रखी गयी हो। लोकतंत्रीय सरकार का कार्य उन्हीं नीतियों को अभिव्यक्ति प्रदान करना और कार्यरूप देना है।
समकालीन राजनीति सिद्धांत के अंतर्गत राबर्ट हाल ने अपनी चर्चित कृति ‘ए प्रिफेस टू डेमोक्रेटिक थ्योरी’ के अंतर्गत लोकतंत्रीय प्रक्रिया का ऐसा प्रतिरूप विकसित किया है, जिसे उसने बहुलवंश की संज्ञा दी है। इस संकल्पना के अनुसार, लोकतंत्रीय समाज में नीति-निर्माण की प्रक्रिया ऊपर से देखने में चाहे ही केंद्रीकृत क्यों न दिखाई दे। वास्वत में यह अत्यंत विकेंद्रीकृत प्रक्रिया है। इसके अंतर्गत अनेक स्वायत्त समूह आपस में समझौता या सौदेबाजी करते हैं। अतः सार्वजनिक नीति उन सब समूहों की परस्पर क्रिया का परिणाम होती है जो उससे संबंधित विषय में दिलचस्पी का दावा करते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार नीति-निर्माण में सरकार की भूमिका बहुत कम रह जाती है। क्योंकि यह विभिन्न स्वामित्व समूहों को केवल सहमति की स्थिति तक पहुंचाने में मदद करती है।
लोकतंत्र के समूहन सिद्धांत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके अनुसार राजनीति में विशिष्ट वर्ग की भूमिका बहुत कम रह जाती है। क्योंकि विशिष्ट वर्ग समाज पर अपनी इच्छा थोपने की स्थिति में रह जाता। लोकतंत्र के बहुलवादी सिद्धांत का यह रूप लोकतंत्र के विशिष्ट वर्गवादी सिद्धांत से बिल्कुल भिन्न सिद्ध होता है।
देखा जाये तो लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत इसके विशिष्टवर्गीय सिद्धांत की तुलना में अधिक प्रगतिशील और आशाजनक है। जहां विशिष्टवर्गीय सिद्धांत अनसाधारण को विशिष्टवर्गों की शतरंज के मोहरे बना देता है, वहां बहुलवादी सिद्धांत असाधारण समूह को मुख्य खिलाडि़यों का दल मानता है और विशिष्टवर्ग को खेल में ‘बैज’ या ‘अंपायर’ का दर्जा देता है।
परंतु लोकतंत्र का बहुलवादी सिद्धांत भी कुछ ऐसी मान्यताओं पर आधारित है जो यथार्थ जगत से बहुत दूर है। भारत जैसे विकासशील समाज में यह बात और भी ज्यादा उभरकर सामने आती है। बहुलवादी सिद्धांत यह मानकर चलता है कि समाज में सभी हित समूह अपने-अपने हितों के प्रति समान रूप से सजग, संगठित और सक्रिय होते हैं, परंतु वास्तविक जीवन में ऐसा नहीं होता। उदाहरण के लिए- उपभोक्तओं की तुलना में व्यापारियों के हित-समूह अधिक संगठित मुखर और साधन संपन्न होते हैं। यदि सरकार दोनों की सौदेबाजी में केवल तटस्थ दर्शक या पंच की भूमिका निभाती रहे तो कुछ वर्षों के साथ ज्यादती हो सकती है जिसका कोई प्रतिकार उस सिद्धांत के पास नहीं है।
लोकतंत्र का ऐसा कोई भी सिद्धांत जो यथार्थ जगत में अन्याय से पीडि़त वर्गों की उत्पत्ति का रास्ता नहीं सुझाता, उसे स्वीकार करना कठिन है।Question : ‘उत्तर व्यवहारवाद व्यवहारात्मक क्रांति का नकार नहीं है, वरन केवल उसका संशोधक है।’ यह राजनीति विज्ञान के विषय की प्रतिष्ठा को ऊपर उठाने का किस प्रकार एक प्रयास है।
(2000)
Answer : व्यवहारवाद राजनीति के अध्ययन का एक आधुनिक उपागम है। इस उपागम के सूत्रपात से राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में ऐसा युगांतरकारी परिवर्तन आ गया। इसे व्यवहारवादी क्रांति की संज्ञा दी जाती है। यह बात ध्यान देने की है कि प्रणाली विश्लेषण और संरचनात्मक, कृत्यात्मक विश्लेषण जैसे सिद्धांत तो स्वयं राजनीति की व्याख्या देने का प्रयत्न करते हैं। परंतु व्यवहार स्वयं राजनीति की कोई व्याख्या नहीं देता। यह केवल राजनीति के जन्म का ढांचा प्रस्तुत करता है।
बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के अंत में डेविड ईस्टन ने व्यवहारवाद की तत्कालीन प्रवृत्तियों पर प्रबल प्रहार किया। हालांकि, व्यवहावाद के विकास में स्वयं ईस्टन की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। सितंबर 1969 में न्यूयार्क में अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस एसोसिएशन के पैसठवें अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण के अंतर्गत ईस्टन ने तत्कालीन राजनीतिक अनुसंधान की स्थिति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया। जिसमें राजनीति के अध्ययन को कठोर वैज्ञानिक अनुशासन में ढालने की कोशिश की जा रही थी। उसे नयी दिशा देने के लिए ईस्टन ने उत्तर व्यवहारवादी क्रांति का शंखनाद किया।
ईस्टन ने तर्क दिया कि छठे और सातवें दशक में बहुत सारा समय बेकार के अनुसंधान में लगाया गया है। राजनीति वैज्ञानिक आमतौर पर अपने विश्वविद्यालय परिसर के शीशमहल में बैठे-बैठे तरह-तरह की रूपावली संकल्पनात्मक ढांचे, प्रतिरूप सिद्धांत और अधिसिद्धांत तैयार करने में लगे रहे हैं। हालांकि, कभी-कभी उन्होंने क्षेत्र कार्य की ओर भी ध्यान दिया है, पर उन्हें यह मालूम नहीं कि बाहर की दुनिया कितने जबरदस्त सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संकट से जूझ रही है। उधर न्यूक्लीय बम का खतरा, इधर संयुक्त राज्य अमेरिका में बढ़ते हुए आंतरिक मतभेद जिसमें गृहयुद्ध की ज्वाला भड़क सकती है या तानाशाही आ सकती है। उधर वियतनाम की लड़ाई जिसकी बकायदा घोषणा तक नहीं हुई।पर जिसने विश्व की नैतिक चैतना को झकझोर दिया। ये सब परिस्थितियां हैं जिनकी कोई पूर्वसूचना किसी राजनीति विज्ञान ने नहीं दी थी। चाहे वह व्यवहारवादी था या परंपरागत। उत्तर व्यवहारवाद के वक्तव्य ने तर्क दिया कि इस अनुसंधान से क्या फायदा जो सामाजिक समस्याओं से कोई सरोकार न रखता हो।
उत्तर व्यवहारवाद की तीव्र आलोचना अवश्य की। परंतु इसने परंपरावाद को फिर से स्थापित करने का समर्थन नहीं किया। उसने व्यवहारवादी युग की उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए राजनीति विज्ञान के नये क्षितिज की ओर संकेत किया। अतः न तो यह प्रतिक्रिया का सूचक था, न प्रतिक्रांति का, उसने केवल सुधार की मांग की। इसने किसी विशेष विचारधारा को भी नहीं अपनाया। इसकी दो मुख्य मांगें थी। प्रासंगिता और कार्रवाई। ईस्टन के अनुसार उत्तर व्यवहारवाद की प्रमुख मान्यताएं निम्न होंः
1.राजनीतिक अनुसंधान में तकनीक का उतना महत्व नहीं जितना सार तत्व का है। अर्थात यदि तकनीक की दृष्टि से कोई अनुसंधान उच्चकोटि का हो, परंतु समसामयिकी समस्याओं के समाधान में सहायक न हो वो उससे किनारा कर लेना ही बेहतर होगा।
2.व्यवहारवाद सामाजिक स्थिरता पर बल देता रहा है। अतः उसने अपना ध्यान तथ्यों के विश्लेषण तक सीमित रखा है। परंतु अब राजनीति विज्ञान को सामाजिक परिवर्तन की ओर ध्यान देना चाहिए और तथ्यों को विस्तृत सामाजिक संदर्भ के साथ जोड़कर देखना चाहिए।
3.व्यवहारवाद ने अमूर्तकरण और विश्लेषण पर ध्यान केंद्रित करते हुए राजनीति के हर यथार्थ की अपेक्षा की है। भौतिक सुख-समृद्धि के बावजूद वर्तमान संकट, संघर्ष और चिंता हैं। इनसे उबरने की तरकीब निकालना राजनीति विज्ञान का दायित्व नहीं तो फिर किसका है।
4.व्यवहारवाद ने सामाजिक मूल्यों को इतना कम महत्व दिया कि जैसे उनकी गिनती ही न हो। यह स्थिति अच्छी नहीं। हमारा सारा ज्ञान मूल्यों की आधारशिला पर टिका है। अतः यदि मूल्यों को ज्ञान की प्रेरणा शक्ति नहीं माना जाता तो ज्ञान के दुरुपयोग का खतरा बना रहेगा। राजनीति में मूल्यों की भूमिका महत्वपूर्ण है। अतः विज्ञान के नाम पर मूल्यों को राजनीतिक अध्ययन की परिधि से बाहर नहीं धकेला जा सकता।
5.उत्तर-व्यवहारवाद, राजनीति-वैज्ञानिकों से यह मांग करता है कि बुद्धिजीवियों के नाते उन्हें समाज में बड़े-बड़े काम करने हैं। मानव मूल्यों की रक्षा करना उनका विशेष दायित्व है। यदि तटस्थता के नाम पर वे सामाजिक समस्याओं से कोई सरोकार नहीं रखते तो समाज में उनकी स्थिति टांका लगाने वाले मिस्त्रियों की सी रह जायेगी। तब वे विशिष्ट स्वतंत्रता और सम्मान के अधिकारी नहीं रह जायेंगे।
6.सामाजिक समस्याओं को समझ लेने पर राजनीति वैज्ञानिक कार्रवाई से विमुख नहीं रख सका। चिंतनपरक विज्ञान उन्नीसवीं शताब्दी तक तो ठीक था, जब विभिन्न राष्ट्रों की नैतिक मान्यताएं एक सी थी। परंतु समकालीन समाज में इतने तीव्र वैचारिक मतभेद पाये जाते हैं कि राजनीति विज्ञान को चिंतन की लक्ष्मण रेखा पार करके ठोस कार्य के मैदान में उतर जाना चाहिए ताकि इस नाजुक दौर में वह समाज को टूटने से बचा सके।
अंततः जब तक स्वीकार कर लिया जायेगा कि बुद्धिजीवियों को एक सकारात्मक भूमिका निभानी है। अर्थात उन्हें समाज के लिए उपयुक्त साध्य निर्धारित करने हैं और समाज को उनकी ओर प्रेरित करना है। तब सभी व्यवसायों को राजनीति से संबद्ध करना अनिवार्य भी माना जायेगा और वांछनीय भी।
उत्तर व्यवहारवाद ने व्यवहारवाद की उपलब्धियों को समेकित करके विकास की नयी दिशा का संकेत दिया ताकि वह सामाजिक पुनर्निर्माण में सहायक हो सके। इसमें अनुभवमूलक उपागम के विकसित रूप को मानवीय उपागम के साथ जोड़ने की कोशिश की गयी। इस दृष्टि से व्यवहारवादी परंपरा ने उत्तर व्यवहारवाद की उपलब्धियों को आत्मसात कर लिया है। बहुत से राजनीति वैज्ञानिक और अन्य सामाजिक वैज्ञानिक निर्धन वर्गों, स्त्रियों, बच्चों, दलितों तथा आदिवासियों की दशा सुधारने, बंधुआ मजदूरों की मुक्ति और विश्वशांति तथा पर्यावरण की रक्षा से जुड़े हुए आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। परंतु उनके लिए दलगत राजनीति में हिस्सा लेना उचित नहीं होगा। राजनीति विज्ञान का कार्य सत्ताधारियों पर अंकुश रखना है। सत्ता की लड़ाई में किसी को सहायता पहुंचाना नहीं।
Question : सामाजिक न्याय प्राप्त करने का रौलसीय लक्ष्य किस सीमा तक सांस्कृतिक, धार्मिक और वैचारिक समूहों के बीच आधारवादी मतैक्य पर निर्भर करता है?
(2000)
Answer : समकालीन उदारवादी चिंतन के अंतर्गत प्रगति बनाम न्याय के विवाद में डेयक ने प्रगति का पक्ष लेते हुए न्याय की अवहेलना की है। इसके विपरीत जॉन रॉल्स (1921) ने अपनी विख्यात कृति ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ के अंतर्गत यह तर्क दिया कि उत्तम समाज में अनेक सद्गुण अपेक्षित होते हैं। उनमें न्याय का स्थान सर्वप्रथम है। न्याय, उत्तम समाज की आवश्यक शर्त है। परंतु यह इसके लिए पर्याप्त नहीं है। किसी समाज में न्याय के अलावा दूसरे नैतिक गुणों की प्रधानता हो सकती है। परंतु अन्यापूर्ण समाज विशेष रूप से निंदनीय होगा। जो विचारक यह मांग करते हैं कि सामाजिक उन्नति के कार्यक्रम में न्याय के विचार को आड़े नहीं आने देना चाहिए। वे समाज को नैतिक पतन की ओर ले जाने का खतरा मोल ले रहे होते हैं।
न्याय की समस्या: रॉल्स के अनुसार न्याय की समस्या प्राथमिक वस्तुओं के न्यायपूर्ण वितरण की समस्या है। ये प्राथमिक वस्तुएं हैं- अधिकार और स्वतंत्रताएं, शक्ति और अवसर, आय और संपदा तथा आत्म-सम्मान के साधन। रॉल्स से अपने न्याय सिद्धांत को शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की संज्ञा दी है। इसका कार्य यह है कि न्याय के जो सिद्धांत सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिए जायेंगे, उनके प्रयोग के फलस्वरूप जो भी वितरण व्यवस्था अस्तित्व में आयेगी, वो अनिवार्यतः न्यायपूर्ण होगी। रॉल्स ने उन सिद्धांतों की कटु आलोचना की है, जो जीवन की नैतिक मूल्यों की अपेक्षा करते हुए किसी पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की पूर्ति करना चाहते हैं।
उपयोगितावाद का सिद्धांत अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख का हिसाब लगाते समय यह नहीं देखता है कि उससे किसी व्यक्ति विशेष को कितना क्षति हो सकती है। जैसे कि उसे दास बनाकर उसका जीवन बर्बाद किया जा सकता है। रॉल्स के अनुसार, सुखी लोगों के सुख को कितना ही क्यों न बढ़ा दिया जाये, उससे दुःखी लोगों के दुःख का हिसाब बराबर नहीं किया जा सकता।
रॉल्स की प्रसिद्ध कृति ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रकाशित हुई। यह ऐसा अवसर था जब वहां अल्पसंख्यक वर्गों के लिए समान अधिकारों का आंदोलन अपने चरमोत्मकर्ष पर था और तरह-तरह की राजनीतिक असहमति का बोलबाला था। साथ-साथ यह भी अनुभव किया जाने लगा कि पूंजीवादी और मिश्रित अर्थव्यवस्थाएं वस्तुओं और सेवाओं को जुटाने में चाहे कितनी कार्यकुशल क्यों न हो। उन्होंने आय, संपदा और शक्ति की ऐसी विषमता पैदा कर दी थी जिन्हें कहीं भी उचित नहीं माना जा सकता था, जो आमूल परिवर्तनवादी आर्थिक विषमताओं के उन्मूलन के लिए राजनीतिक कार्रवाई की मांग कर रहे थे। वे अपने वक्तव्यों में बार-बार न्याय की दुहाई देते थे। अतः प्रस्तुत संदर्भ में न्याय का पुनर्विवधन जरूरी था। रॉल्स की कृति में न्याय के अमूर्त और दार्शनिक सिद्धांत को ऐसे रूप में उभारा गया। जिसके अंतर्गत अधिकारों तथा आय और संपदा के वितरण के क्षेत्र में नीति-निर्माण के लिए ठोस सुझाव प्रस्तुत किये गये थे।
रॉल्स की तर्क प्रणाली: न्याय की सर्वसम्मत प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए रॉल्स ने एक विशेष तर्क प्रणाली का सहारा लिया है। सामाजिक अनुबंध की तर्क प्रणाली का अनुसरण करते हुए रॉल्स ने एक काल्पनिक युक्ति का प्रयोग किया है। इसके अंतर्गत उसने यह कल्पना की है कि यदि व्यक्तियों को उसकी वर्तमान सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से पृथक कर दिया जाये और समाज में प्रचलित भेदभाव के ज्ञान से भी परे हटा दिया जाये, तो वे भावी समाज में अपने हितों की अधिकतम वृद्धि के लिए सामाजिक जीवन में नियमों, सिद्धांतों और संस्थाओं का पुनर्निर्माण किस प्रकार करेंगे। इस काल्पनिक स्थिति को रॉल्स ने मूल स्थिति की संज्ञा दी है। ऐसी स्थिति में लोग परस्पर सहमति से जो नियम स्वीकार करेंगे, उन्हें विश्वव्यापी आधार पर न्याय के नियम स्वीकार मान सकते हैं।
मूल स्थिति या वर्णन करते हुए रॉल्स ने यह कल्पना की है कि मनुष्य अज्ञान के पर्दे की पीछे बैठे हैं। यह एक काल्पनिक स्थिति है जिसमें मनुष्य अपनी-अपनी आवश्यकताओं, हितों, निपुणताओं, योग्यताओं इत्यादि से बिल्कुल बेखबर होते हैं। वे यह भी नहीं जानते हैं कि वास्तविक समाज में कौन-कौन सी बातें संघर्ष पैदा करती हैं। अतः यदि उन्हें यह मालूम हो कि वे श्वते या अश्वेत हैं, प्रोटेस्टेंट या कैथोलिक हैं तो इसमें कोई फर्क नहीं पडे़गा, क्योंकि उन्हें यह पता नहीं होगा कि समाज में किस आधार पर भेदभाव बरता जाता है। परंतु उन्हें अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान का आरंभिक ज्ञान होता है और न्याय का बोध भी होता है।
समाज के पर्दे के पीछे मनुष्यों पर कुछ प्रतिबंध अवश्य लगे होते हैं जो नैतिकता के विचार के साथ जुड़े हैं। परंतु उन्हें उन बातों की जानकारी नहीं होती है जो उनके मन में परस्पर विरोध या पूर्वाग्रह पैदा कर सकती हैं। रॉल्स ने मूल स्थिति में जिन मनुष्यों की कल्पना की है वे विवेकशील कर्ता हैं, जो न्याय के नियमों का पता लगाने के उद्देश्य से परस्पर सहमति पर पहुंचने के लिए एकत्र हुए हैं। वे स्वार्थपरायण तो हैं, परंतु मनुवादी नहीं। भौतिक नियमों से बंधे होने के कारण वे इतने अहंकेंद्रित नहीं हो सकते हर तरह के स्वार्थ साधन को तत्पर हो जायें। दूसरे शब्दों में, उनकी स्वार्थ भावना पर नैतिक भावना का अंकुश रहता है। वे ईष्यालु भी नहीं हैं। उनका सरोकार अपने-अपने प्रारंभिक वस्तुओं की अधिकतम वृद्धि से है। दूसरों को ये वस्तुएं कितनी मात्र में मिलती हैं। इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
रॉल्स के अनुसार, ऐसी हालत में ये मनुष्य कोई जोखिम उठाने या जुआ खेलने को तैयार नहीं होंगे, क्योंकि अज्ञान के पर्दे के पीछे वे यह नहीं जानते हैं कि वे कितना दांव लगा सकते हैं। इस अनिश्चितता की स्थिति में उनके सामने जो भी विकल्प होंगे, उनमें से वे सबसे कम खतरनाक रास्ता चुनेंगे।
Question : ‘राज्य व्यवस्था या संवैधानिक शासन से सामान्यतः तात्पर्य है कुलीन तंत्र व लोकतंत्र का विलयन’ (अरस्तू)
(1999)
Answer : अरस्तू एक व्यवहारिक विचारक होने के साथ-साथ संविधानों या सरकारों का वैज्ञानिक वर्गीकरण करने वाला पहला विचारक था। अरस्तू ने संविधानों के छः वर्ग बतलाये हैंः एकतंत्र या राजतंत्र, आततायी तंत्र, कुलीन तंत्र, वर्गतंत्र या धानिक तंत्र, बहुतंत्र या संविधानिक तंत्र तथा भीड़तंत्र। सरकारों का वर्गीकरण करने के उपरांत अरस्तू ने इस बात की खोज का प्रयास किया कि शासन के इन छः रूपों में शासन का कौन सा रूप सबसे अच्छा, व्यवहारिक तथा उपयुक्त होगा। इस दृष्टि से उसने मध्यम वर्ग द्वारा शासित सरकार या शासन को, जिसे वह बहुतंत्र या संविधानिक तंत्र कहता है, श्रेष्ठ बतलाया है। संविधानिक तंत्र को स्पष्ट करते हुए अरस्तू कहता है कि संविधानिक शासन से सामान्यतः तात्पर्य है कुलीन तंत्र व लोकतंत्र का विलयन। नगर राज्य में तीन वर्ग होते हैं, अत्यंत संपन्न, अत्यंत निर्धन और इन दोनों के बीच का मध्यम वर्ग। संविधानिक तंत्र में इस तीसरे वर्ग द्वारा शासन सत्ता का संचालन किया जाता है। अरस्तू के अनुसार धनी व्यक्तियों में आज्ञाकारिता व अनुशासन की भावना नहीं होती और निर्धनों में शासन की योग्यता नहीं होती, वे केवल आज्ञा पालन करना ही जानते हैं। धनी और निर्धन व्यक्तियों की इस परस्पर विरोधी भावनाओं के फलस्वरूप सारा राज्य दो भागों में विभाजित हो जाता है। इसमें एक भाग दासों को होता है तथा दूसरा भाग स्वामियों का हो जाता है। स्नेह व सहयोग की भावना के अभाव में उनमें किसी प्रकार की एकता की भावना नहीं होती। अतः राज्य के इन दोषों को दूर करने के लिए आवश्यक है कि मध्यम वर्ग का विकास किया जाये क्योंकि ऐसे वर्ग के व्यक्तियों में ही समानता और मित्रता की भावना विद्यमान रहती है।
अपने इस पर्यवेक्षण के आधार पर अरस्तू इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि राजनीति समाज का सर्वोच्च रूप है, जिसमें सत्ता, मध्यम वर्ग के हाथ में रहती है। अतः उसके अनुसार शासन की श्रेष्ठता के लिए आवश्यक है कि राज्य में मध्यम वर्ग की संख्या अधिक हो जिससे कि धनी और निर्धन वर्ग के प्रमुखता की स्थिति प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध न हो, अर्थात न कुलीन तंत्र, जहां धनी का शासन रहता है और न लोकतंत्र जहां निर्धन लोगों का शासन पर पकड़ रहता हो।
इसलिए अरस्तू अपने इस मध्यम वर्ग द्वारा प्रशासित राज्य को, जिसे वह संविधानिक शासन कहता है, कुलीन तंत्र व लोकतंत्र का विलयन बतलाता हैं उसके अनुसार जैसे मध्यम वर्ग अमीर तथा गरीब वर्गों के विलयन का परिणाम होता है उसी प्रकार मध्यम वर्ग द्वारा शासित संविधानिक शासन व्यवस्था भी धनी वर्ग द्वारा शासित कुलीन तंत्रीय शासन व्यवस्था और निर्धन वर्ग द्वारा शासित लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था का विलयन होता है।
Question : ‘वह महान उद्देश्य और मुख्य उद्देश्य जिसके लिए मनुष्य राज्य में एकताबद्ध होते हैं और शासनाधीन होते हैं, वह है संपत्ति का संरक्षण, जिसके लिए प्राकृतिक अवस्था में अनेक अभाव हैं।’ (जॉन लॉक)
(1999)
Answer : अपनी पुस्तक ट्रीटाइज में लॉक ने इस तथ्य पर सबसे अधिक जोर दिया है कि राज्य के निर्माण का मुख्य उद्देश्य ही नागरिकों के जीवन, उनकी स्वतंत्रता और उनकी संपत्ति के उन प्राकृतिक अधिकारों को सुरक्षित करना है जिसका उपयोग में वे प्राकृतिक अवस्था में करते थे। इसी परिप्रेक्ष्य में संपत्ति को वे व्यापक तथा विशेष, दो अर्थों में प्रयोग करते हैं। व्यापक अर्थ में जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति के अधिकार सम्मिलित हैं। संकीर्ण (विशेष) अर्थों में संपत्ति का अधिग्रहण तथा उस पर दावेदारी प्रस्तुत करने से है। व्यापक अर्थ के संदर्भ में लॉक के अनुसार व्यक्ति आपस में समझौते द्वारा राज्य का इसलिए निर्माण करते हैं कि संपत्ति का संरक्षण किया जा सके। लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में संपत्ति में अंतर्निहित जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति उतने सुरक्षित नहीं थे, जितना उनको होना चाहिए था। जिससे व्यक्ति को संपत्ति के संरक्षण और अभिवृद्धि करने में दिक्कत होती थी, क्योंकि विधि अनिश्चिचता और समरूप प्रशासकीय अधिकरणों तथा न्यायिक निर्णय अनुपस्थित था। राज्य का निर्माण तथा राजनीतिक समाज के अविर्भाव द्वारा इन तीनों असुविधाओं को दूर कर अधिकारों को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया। लॉक के अनुसार मनुष्य आदिम प्राकृतिक अवस्था का परित्याग इसलिए करता है कि राजनीतिक समाज का निर्माण कर वह पारस्परिक साझेदारी द्वारा जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति का स्वतंत्रतापूर्वक उपभोग कर सके। अतः लॉक के मतानुसार संपत्ति समाज, राज्य तथा सरकार से पूर्ववर्ती है। समाज अथवा राज्य अधिकार की सृष्टि नहीं करते, बल्कि इनका अस्तित्व इसलिए है कि जीवन, स्वतंत्रता तथा संपत्ति के प्राकृतिक अधिकारों के परीक्षण का एकमात्र उद्देश्य पूरा कर सके। अतः मताधिकार प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के साथ पैदा होते हैं। लॉक ने संपत्तिधारी को श्रम द्वारा प्रदत्त संपत्ति के उपयोग करने का सिर्फ भौलिक अधिकार नहीं बल्कि नैतिक अधिकार भी माना है। लॉक के अनुसार राजनीतिक समाज में व्यक्तियों के जीवन, संपत्ति तथा स्वतंत्रता निम्न तीन कारकों की उपस्थिति में सुरक्षित रह सकते हैं, जिनका प्राकृतिक अवस्था में अभाव था- वे हैं, प्रथम, प्राकृतिक अधिकारों की विधि के अनुसार प्रमाणिक व्याख्या। द्वितीय, व्यक्तियों के इस अधिकार के पारस्परिक दावों की जांच तथा व्याख्या करने के लिए एक निष्पक्ष न्यायिक प्राधिकारी तथा तृतीय, न्यायाधिकारी के निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए तथा समाजों के निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए तथा समाजों के आक्रमणों को रोकने के लिए समाज की शक्ति का प्रयोग।
Question : ‘समग्र मानव इतिहास एक प्रक्रिया है जिसमें प्रत्यय भौतिक यथार्थ का रूप धारण कर लेते हैं।’
(1999)
Answer : हीगल द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक पद्धति का सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि वाद, प्रतिवाद तथा संवाद का क्रम निरंतर चलता है। हीगल के अनुसार वाद प्रारंभिक विचार है, प्रतिवाद उसके विरोध में उत्पन्न हुआ विचार है तथा जब दोनों विचार आपस में अंतःक्रिया करते हैं तो तीसरा विचार, जिसे संवाद कहा जाता है, उत्पन्न हो जाता है। इस तरह हीगल के अनुसार संपूर्ण विकास प्रक्रिया में प्रत्यय या विचार ही महत्वपूर्ण तत्व है तथा यही प्रत्यय या विचार हमें भौतिक यथार्थ के रूप में दिखायी देता है। अपनी इस प्रक्रिया तथा विचार सिद्धांत को हीगल मानवीय इतिहास के विकास प्रक्रिया की व्याख्या के लिए भी प्रयोग करते हैं। अपने इस द्वंद्वात्मक विकास सिद्धांत के अनुसार हीगल विश्व इतिहास की विभिन्न घटनाओं को एक विकासक्रम में जोड़कर विकास के एक अनवरत क्रम का निर्माण किया तथा यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि संपूर्ण मानव इतिहास विश्व आत्मा की अभिव्यक्ति की कहानी है। हीगल के अनुसार इतिहास में घटित होने वाली सभी घटनायें विश्वात्मा के निरंतर विकास के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करती है। द्वंद्वात्मक पद्धति को हीगल मानव इतिहास के विकास क्रम से जोड़कर यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मानव विकास अपने सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त करने की ओर अग्रसर है। इस विकास का आधार प्रत्यय है। हीगल का मानना है कि विश्वात्मा इतिहास में अपने विकास के लिए विभिन्न रूप ग्रहण करती है। द्वंद्वात्मक पद्धति के अनुसार इसके प्रत्येक अगले रूप में पिछला रूप बीज की तरह विद्यमान रहता है और इस प्रकार इसके विकास में एक मौलिक एकता तथा अनवरता बनी रहती है।
हीगल विश्वात्मा के विकास का प्रारंभ चीन से मानते हैं। वहां विश्व आत्मा अपने स्थूलतम रूप में थी क्योंकि वहां का सारा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक जीवन एक ही व्यक्ति के द्वारा नियंत्रित था। इसके बाद विश्वात्मा अपने विकास क्रम में यूनान और रोम पहुंची। इस अवस्था में जनता को अपनी स्वतंत्रता मिली लेकिन यह स्वतंत्रता आत्मिक नहीं राजनीतिक थी। इस विकास के पश्चात विश्व आत्मा का अंतिम विकास जर्मन राज्य में होगा जिसमें सभी को आत्मिक उत्थान की पूर्णता प्राप्त होगी तथा शासक व जनता के बीच विद्यमान अब तक की खाई पट जायेगी तथा दोनों के हित और उद्देश्य एकीकृत हो जायेंगे। हीगल का कहना है कि संपूर्ण मानवीय जगत में विद्यमान वस्तुओं एवं व्यक्तियों का आधार विचार या प्रत्यय है। कोई भी पदार्थ चाहे वह भौतिक हो या अभौतिक विचार का ही प्रकटीकरण है। अपने अंतिम निष्कर्ष में हीगल कहता है कि- ‘समग्र मानव इतिहास एक विकास प्रक्रिया है जिसमें प्रत्यय भौतिक यथार्थ का रूप धारण कर लेते हैं।’
Question : ‘मार्क्स के कार्य में तीन तत्वों का मिश्रण दिखायी देता है- जर्मन दर्शन, अंग्रेजी राजकीय अर्थशास्त्र और फ्रांसीसी समाजवाद।’ (लेनिन)
(1999)
Answer : लेनिन के अनुसार मार्क्स अपने वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांत के प्रतिपादन में अपने पूर्ववर्ती विचारकों तथा प्रचलित विचारधाराओं का ऋणी है। लेनिन के अनुसार, यदि मार्क्स की द्वंद्वात्मक पद्धति जर्मनी के दर्शन से प्रभावित थी तो उसका ‘अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत’ ब्रिटिश राजकीय अर्थशास्त्र की देन थी और राज्य तथा क्रांति का सिद्धांत फ्रांस के समाजवाद से निकला है। मार्क्स ने हीगल नामक जर्मन दार्शनिक से विकास का विरोध और संघर्ष का सिद्धांत सीखा। इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक राज्य या स्थिति या विचार अपने में अंतर्विरोधों के कारण अपने विरोधी को जन्म देता है जो कलांतर में विकसित होकर विरोध के रूप में प्रकट होता है। इस विरोध के विरोध में मूल भौतिक तत्व और उसके विरोधी तत्व का समन्वयन होता है। हीगल ने इसे द्वंद्ववादी सिद्धांत का नाम दिया है। उसकी मान्यता थी कि मूलतः वैचारिक द्वंद्व से ही विश्व प्रगति का लक्ष्य प्राप्त होता है। इस दृष्टि से वह हीगल के इस सिद्धांत से बहुत प्रभावित था लेकिन उसने इसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन किया। मार्क्स का मत था कि वैचारिक द्वंद्व की अपने आप में कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है वरन् यह भौतिक द्वंद्व का प्रतिबिंब मात्र होता है। मूल तत्व विचार नहीं पदार्थ है। विचार पदार्थ से उत्पन्न होता है। इस प्रकार हीगल का द्वंद्वावाद मार्क्स के हाथों में जाकर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत बन गया।
मार्क्स को प्रभावित करने वाली दूसरी सबसे प्रमुख विचारधारा उन्नीसवीं शताब्दी के ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों का शास्त्रीय चिंतन था। मार्क्स ने एडम स्मिथ, रिकार्डो आदि अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित श्रम आधारित मूल्य सिद्धांत, मूल्य का श्रम सिद्धांत आदि का अपने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत में पूर्ण प्रयोग किया, लेकिन उसकी दिशा बदल दी। ब्रिटिश अर्थशास्त्रियों ने अपने सिद्धांत पूंजीपतियों के हित में प्रतिपादित किये, मार्क्स ने उनका प्रयोग श्रमिकों के हितों में पूंजीपतियों द्वारा किये जाने वाले शोषण का पर्दाफाश करने के लिए किया। मार्क्स का तीसरा प्रेरणास्रोत फ्रांसीसी समाजवादियों का क्रांतिकारी चिंतन था। फ्रांस में सेंट साइमन, चार्ल्स फोरिथर, प्रूधों आदि चिंतकों के द्वारा जिस समाजवाद का प्रतिपादन किया गया उसका स्वरूप यद्यपि काल्पनिक था तथापि वह अपने चरित्र में क्रांतिकारी था। उत्पादन के साधनों में सार्वजनिक स्वामित्व का सिद्धांत, श्रमिकों का उत्थान और उनका शोषण करने वाले वर्ग के विनाश का सिद्धांत और वर्गविहीन समाज की स्थापना का विचार आदि मार्क्स ने फ्रांसीसी चिंतन से ग्रहण किया। इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि विषमताओं पर फलने-फूलने वाले पूंजीवादी की शोषक सभ्यता को समाप्त करना, स्वतंत्रता व बंधुत्व के सिद्धांतों पर निर्मित वैज्ञानिक समाजवाद की जिस नव-सभ्यता की विचारधारा का मार्क्स द्वारा निर्माण और विकास किया गया उसके बहुत से सिद्धांतों का विभिन्न जर्मन, ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी चिंतकों द्वारा मार्क्स के पहले ही प्रतिपादित कर दिया था।
Question : ‘वैज्ञानिक राजनीति का विकास तभी हो सकता है, जबकि राजनीति की सामग्री को क्रियाओं की व्यवस्थाओं के रूप में लिया जाये।’ कैप्लन के उपरोक्त कथन के प्रकाश में व्यवस्था सिद्धांत को राजनीति विज्ञान में लागू करने पर उत्पन्न दोषों का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(1999)
Answer : राजनीति विज्ञान के अध्ययन में व्यवस्था सिद्धांत का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। कैप्लन ने व्यवस्था सिद्धांत को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में लागू करके इस सिद्धांत को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। व्यवस्था सिद्धांत के विकास में अनेक अनुशासनों का योगदान रहा है। राजनीति विज्ञान में उसकी महत्वपूर्ण उपयोगिता यह है कि ऐसी राजनीति संस्थाओं को जो राज्य नहीं हैं, जैसे अंतर्राष्ट्रीय राजव्यवस्था, नगर के अनुभविक अध्ययन को संभव बनाता है। इससे राजव्यवस्थाओं में वर्तमान तनाव, संघर्ष, विकास आदि परिवर्तनों का अध्ययन करने में सहायता मिलती है। ईस्टन के अतिरिक्त ग्रेबील, आमंड, मार्टन कैप्लान, कार्ल डायश आदि राजनीतिक विद्वानों द्वारा इस दिशा में प्रयास किये गये हैं। राजनीति विज्ञान में व्यवस्था सिद्धांत, संस्थाओं तथा क्रियाओं का विश्लेषण करता है। शक्ति, सत्ता, भौतिक बल आदि को राजनीति का स्वरूप माना गया है। राजनीतिक संरचनाएं एवं प्रक्रियाएं विभिन्न तत्वों के साथ संश्लिष्ट रहती हैं। अतः राजव्यवस्था को अधिकांशतः अवधारणात्मक आधार पर ही समझा जाता है। समाज एक सामान्य व्यवस्था माना जाता है, जिनके अंदर अनेक व्यवस्थाएं होती है। राजनीतिक व्यवस्था इनमें से ही एक व्यवस्था है, किंतु स्वयं राजनीति व्यवस्था को उसके भीतर उपलब्ध उपव्यवस्थाओं के संदर्भ में अध्ययन का विषय बनाया जाता है, तब उसे व्यवस्था कहा जाता है। आमंड के अनुसार समाज में राजनीतिक व्यवस्था औचित्यपूर्ण, सुव्यस्थित अथवा रूपांतर करने वाली व्यवस्था होती है। कैप्लान की राजनीतिक व्यवस्था में भी अन्य व्यवस्थाओं की तरह ‘पहचान योग विविध हित’ होता है। ये आवश्यक रूप से परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक होते हैं। इन हितों से संबंधित सामान्य अविधानिक नियम निर्धारित किये जाते हैं। ईस्टन उसे समाज में मूल्यों का अधिकारिक विनिधान करने के लिए निर्णय करने वाली व्यवस्था बताता है। वाइजमैन के मतानुसार प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक संरचनाएं कर्ताओं द्वारा निष्पादित व्यक्तिकार्य, व्यक्ति के मध्य वर्तमान अंतःक्रिया प्रतिमान तथा राजनैतिक प्रक्रिया अंतर्ग्रस्त होती है।
वैसे कुछ राजनीतिक विचारकों ने व्यवस्था सिद्धांत के बारे में कैप्लान के दिये गये विचारों के संबंध में कुछ दोषों की ओर इंगित किया है, जिन्हें नकारा नहीं जा सकता है, जैसे मीहान ने अंतःक्रिया व्यवस्था की धारणा पर आधारित कैप्लान की अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के बारे में बताया है कि वह अपेक्षाकृत थोड़े से चरों से ही निर्मित की गयी है। वास्तव में उसका निर्माण बहुसंख्यक अव्यवस्था के चरों वाली व्यवस्थाओं से होता है। प्रारूपों को हम जितना अधिक शुद्ध करते जायेंगे वे उतना ही भद्दा होता जायेगा। व्यवस्थाओं के संयुक्त तथा प्रतिसम्भरित होते रहने की भावना से उसके समक्ष सीमा निर्धारण की समस्या उत्पन्न हो गयी है। यद्यपि उसने संप्रभुता की परंपरागत धारणा को स्थान दिया है, किंतु राज व्यवस्था में सरकार का स्थान स्पष्ट नहीं है। उनकी व्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक उपयोगी है। घरेलू राजनीति में नहीं। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि उसका अभियांत्रिक उपागम उसके व्यवस्था विश्लेषण को शुद्ध ढंग से वर्गीकृत करने में सफल हुआ है, लेकिन इससे समस्याओं की समाप्ति नहीं हो जाती। वैसे तो समस्याओं की समाप्ति संभव नहीं है, फिर भी अत्यावश्यक नियम संबंधी धारणा प्रकार्यवाद दृष्टि से स्पष्ट नहीं है। उसने कर्ताओं को विजयी होने के लिए छः नियमों का प्रतिपादन किया है। वे कार्य सिद्धांत के काफी निकट हैं। वे व्यवहार से अनुभविक सामान्यीकरण निकाले जाने के बजाय अंतर्राष्ट्रीय कार्य के रणनीतियों की तरह प्रतीत होते हैं। उनमें परस्पर विरोध भी है। राजनीति कार्य सिद्धांत, शतरंज या ताश आदि की तरह औपचारिक नियमों के अनुसार परिचालित नहीं होती। कैप्लान का यह दृष्टिकोण मान्य प्रतीत होता है कि एक सामान्य सिद्धांत की प्राप्ति निरर्थक है। ईस्टन व्यवस्था सिद्धांत को केवल अवधारणात्मक विचारबंध के रूप में प्रयोग करता है। कोलमैन तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में विकासशील देशों के लिए एक विकास सिद्धांत तैयार करता है जो लगभग सभी नवीन राजनीति व्यवस्थाओं पर लागू हो सके। कैप्लान स्पष्टतः ऐसे सिद्धांत के पक्ष में नहीं है। इस प्रकार कैप्लान ने रॉस एश्मी की धारणा को अपनाते हुए व्यवस्था विश्लेष्ण में उन अंतःकरण विचारों का अध्ययन किया है जो अपने पर्यावरण से भिन्न होते हैं। उनमें यह भी देखा जाता है कि पर्यावरणात्मक बाधाओं के प्रभाव के होते हुए भी वह विचार अपने आप को कैसे बनाए रखता है। उसने इस विश्लेषण के लिए सामान्य व्यवस्था सिद्धांत को अनुपयोगी बताया है क्योंकि व्यवस्था सिद्धांत, स्थायित्व को यथार्थ नहीं मानता। यह बात अवश्य है कि बहुत समय तक टिकी रहने वाली व्यवस्था हमारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, इसी कारण संतुलन विश्लेषण की सहायता से अस्थायीपूर्ण व्यवस्थाओं के परिवर्तनकारी कारकों को जाना जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक नवीन पृष्ठभूमि पर स्थित होकर उसने व्यवस्था सिद्धांत के संतुलन धारणा को केंद्रीय बनाकर विभिन्न चरों को स्पष्ट करने के लिए उपयोग किया है। इससे व्यवस्थाओं में अंतर्निहित अपूर्णताएं जानने में सहायता मिली है। व्यवस्थाओं में अनेक प्रकार के संतुलन पाये जाते हैं, इनमें से तो मशीनी संतुलन का मापन स्वतंत्र एवं समान रूप से किया जा सकता है। इसलिए कैप्लान का यह मत सही प्रतीत होता है कि सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए एक सामान्य व्यवस्था सिद्धांत का निर्माण संभव नहीं है। व्याख्यात्मक उद्देश्यों के लिए विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं अलग-अलग प्रकार के सिद्धांत चाहती हैं। उसने राजनीति और राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा को सभी परंपरावादी पूर्वाग्रहों से मुक्त करके शोधपरक सिद्धांत के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया है। राजनीति व्यवस्था के चार कार्य होते हैंः
इन कार्यों को विभिन्न रीतियों, अनुक्रमों एवं संयोजनों से किया जाता है। वैसे तो कार्य करने के अनेक प्रकार हो सकते हैं, उनके अनेक शैलियां हो सकती हैं तथा उन्हें अनेक प्रकारणाओं में रखा जा सकता है। राजनीतिक व्यवस्था का प्रयोग विशेष करके नये रूप के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। इनके आधारभूत लक्ष्य स्थायित्व अवसरानुकूल आदि हो सकते हैं। ये लक्ष्य तथा उनको निष्पादन करने की राजनैतिक शैलियां राजनीति व्यवस्थाओं को परंपरागत धारणाओं के अनुसार सीमित एवं विभाजित नहीं करती हैं। स्पिरो ने राजनीतिक व्यवस्था सिद्धांत का मूल्यांकन किया है। उसने राजनीतिक व्यवस्था सिद्धांत को राजनीति विज्ञान के लिए अनिवार्य मानते हुए, तुलना एवं व्यापकता की दृष्टि से उसके योगदान को स्वीकार किया है, किंतु उसने बताया है कि कुछ ही विश्लेषकों ने इसके सहारे राजनीति के अध्ययन को क्रमबद्ध बनाया है। लेकिन उनका यह भी मानना है कि राजनीतिक व्यवस्था न तो पूरी तरह प्राकृतिक है, और न ही पूरी तरह निर्दिष्ट ही है। इसलिए राजनीति विज्ञान में अन्य विषयों तथा भौतिक विज्ञान, जीवशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि से अवधारणाएं लेते समय राजनीतिक व्यवस्था के सिद्धांतकारों को सचेत रहना चाहिए। स्पिरों की दृष्टि से राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था से अधिक व्यापक, महान तथा अधिक महत्वपूर्ण है और केवल कैप्लान ही इस तथ्य को सही-सही समझ पाया है और परिभाषित कर पाया है।
Question : राजनीतिक व्यवस्थाओं के विश्लेषण में व्यवहारवादी व उत्तर व्यवहारवादी उपागमों का इनकी दुर्बलताओं सहित आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। राजनीतिक व्यवहार का मूल्यांकन करने के लिए राजनीति शास्त्र में नाप-तौल के क्या मानक उपलब्ध हैं?
(1999)
Answer : आधुनिक राजनीति विज्ञान में व्यवहारवाद या व्यवहारवादी उपागम राजनीतिक तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण का एक विशेष तरीका है, जिसे द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिकी राज वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया, यद्यपि इसकी जड़ें प्रथम महायुद्ध के भी पूर्व ग्राहम वालस और बैंडले आदि की रचनाओं में देखी जा सकती है। व्यवहारवाद आज बहुत अधिक प्रचलित और व्यापक हो गया है, इस कारण इसे राजनीति के वैज्ञानिक अध्ययन का सहचर कहा जा सकता है। कुछ विचारक तो यह भी मानते हैं कि राजनीति विज्ञान की अन्य अनेक उपागम जैसे संचार सिद्धांत, प्रकार्य सिद्धांत आदि व्यवहारवादी क्रांति ही उपज हैं। व्यवहारवाद अनुभवात्मक शोध तथा प्राविधियों के निरंतर सुधार में विश्वास रखता है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह केवल एक मनोदशा या मनोवृति है, तो कुछ विचारकों की दृष्टि में इसके अपने निश्चित विचार, सिद्धांत और कार्यविधियां हैं। किर्क-पैट्रिक ने व्यवहारवाद के स्वरूप का, स्पष्टता और विशदता के साथ विवेचन किया है, इसके अनुसार व्यवहारवाद की निम्न चार विशेषताएं हैंः
व्यवहारवाद का अधिकृत विद्वान डेविड ईस्टन को माना जाता है। उसने अपने लेख ‘द करंट मिनिंग ऑफ विहेवरेलिज्म’ में व्यवहारवाद के आधार एवं लक्ष्यों को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया हैः (i) नियमन, (ii) सत्यापन, (iii) तकनीकी प्रयोग, (iv) परिमाणनीकरण, (v) मूल्य निर्धारण, (vi) व्यवस्थाबद्धीकरण, (vii) विशुद्धता ज्ञान, (viii) समग्रता। व्यवहारवाद की अपनी कुछ उपयोगिताएं हैं, जो निम्नलिखत हैंः
वैसे व्यवहारवाद विचार की लाख विशेषताओं के बावजूद यह कहना उचित नहीं होगा कि व्यवहारवाद अकाट्य है। व्यवहारवादी की आलोचना के कुछ बिंदुओं का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित हैः
व्यवहारवाद की उपर्युक्त वर्णित दुर्बलताओं के कारण ही उत्तर व्यवहारवाद का जन्म हुआ। व्यवहारवाद के प्रवक्ता डेविड ईस्टन ही उत्तर व्यवहारवाद के भी प्रवक्ता रहे हैं। उनके अनुसार व्यवहारवाद के कारण राजनीति विज्ञान, राजनीतिक जीवन की वास्तविक समस्याओं से अलग हटकर अवधारणात्मक ढांचों, मॉडलों और सिद्धांतों में उलझकर रह गया है। उत्तर व्यवहारवाद में इस बात पर बल दिया गया है कि राजनीतिक शोध, जीवन की समस्याओं से प्रासंगिक और उन पर आधारित होने चाहिए, हमारा लक्ष्य सामाजिक स्थिरता नहीं वरन् परिवर्तन होना चाहिए तथा मूल्यों को समस्त अध्ययन में केंद्रीय स्थिति प्रदान की जानी चाहिए।
उत्तर व्यवहारवाद की विशेषताएं निम्नलिखित हैंः
इस तरह यह सरलतापूर्वक देखा जा सकता है कि उत्तर व्यवहारवाद ने व्यहारवाद की खामियों को दूर करने का प्रयास किया। मगर बाद में यह महसूस किया जाने लगा कि राजनीति विज्ञान का वैज्ञानिक अध्ययन करने में मात्र उत्तर व्यवहारवादी तरीके ही पूर्ण नहीं हैं। इसलिए 1970 के उपरांत व्यवहारवादी एवं उत्तर व्यवहारवादी उपागमों के गुणों को एक साथ मिलाया जाने लगा। यह स्वीकार किया गया कि दोनों प्रवृत्तियों के बीच उचित समन्वय स्थापित करने पर ही राजनीतिक व्यवहार का नाप-तौल या मूल्यांकन सही प्रकार से किया जा सकता है।
Question : ‘स्वतंत्रता या स्वाधीनता का तात्पर्य है- गति के बाह्य अवरोधकों में विरोध का अभाव।’
(1999)
Answer : प्राकृतिक अवस्था के बारे में बताते हुए हाब्स कहता है कि प्राकृतिक अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र था। व्यक्ति यह कार्य भावावेशों द्वारा ग्रस्त होकर अपनी सहज प्रवृत्ति से प्रेरित होकर करता था, जिसका उद्देश्य आत्मसंरक्षण तथा आनंद की खोज पर आधारित था। प्रत्येक व्यक्ति उतनी संपत्ति अधिग्रहित तथा संरक्षित कर सकता था, जो शक्ति द्वारा रक्षित हो सकती है। यह शक्ति उसका शारीरिक बल था। हॉब्स के अनुसार, संप्रभु ने जिन कार्यों को करने से मना नहीं किया है वे सभी कार्य व्यक्ति करने का अधिकारी है। हॉब्स ने संप्रभु के आदेश को विधि माना है, जिसको व्यक्ति की स्वतंत्रता में कोई रुकावट न मानकर साधक माना है। क्योंकि ‘मौलिक संविदा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा का स्थान दूसरी इच्छा ने ने ले लिया है।’ यह अभिव्यक्ति रुकावट न बने इसके लिए संप्रभु की इच्छा व्यक्तियों को प्रतिनिधिक इच्छा होती है। इसलिए उस इच्छा का अर्थात विधि का अनुसरण करने में ही स्वतंत्रता का उपयोग माना है। इसलिए हॉब्स कहते हैं कि, ‘स्वतंत्रता का तात्पर्य है गति के बाह्य अवरोधों में विरोध का अभाव।’ इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए प्रो. ई.एल. बुडनार्ड ने कहा कि ‘यदि स्वतंत्रता विरोध की अनुपस्थिति है अर्थात गति में बाहरी रुकावटों की अनुपस्थिति है तो प्रजा तभी तक स्वतंत्र रह सकती है जब तक कि वह अपनी भलाई के लिए कोई कार्य करने के लिए बाध्य नहीं हो जाये।’ विधि के प्रति निष्ठा उसके द्वारा विधि का पालन उसकी भलाई के लिए है क्योंकि वह उनके प्राणों का संरक्षण करती है। हॉब्स का स्वतंत्रता संबंधी विचार निष्कर्ष के रूप में नकारात्मक पक्ष लिए हुए है। हॉब्स के शब्दों में, ‘विधियों का प्रयोग लोगों को सभी स्वैच्छिक कार्यों से बाध्य करने के लिए नहीं है। बल्कि उन्हें ऐसी नियमित गति प्रदान करने के लिए है, ताकि वे तीव्र इच्छाओं, उतावलापन तथा पाशविक कृत्यों द्वारा अपने आपको क्षति नहीं पहुंचाये जैसे कि बोर्ड यात्रियों को रोकने के लिए नहीं, अपितु उनको ठीक रास्ते पर लाने के लिए बनायी गयी है। अतः व्यक्ति अपने स्वैच्छिक अधिकारों का उपभोग संप्रभु के अहस्तक्षेप की अवस्था तक कर सकते हैं। लेकिन इनके बीच अधिकारों के पारस्परिक संघर्ष की दशा में संप्रभु की इच्छा का अनुसरण करना होगा। अतः हॉब्स के राज्य में स्वतंत्रता दो प्रकार की थी- प्रथम, संप्रभु ने जिसके लिए मना नहीं किया है। दूसरा, वह स्वतंत्रता जिसे मौलिक संविदा के शर्तों के अनुसार भोगा नहीं जा सकता, जिसमें जीवन का अधिकार अंतर्निहित था।’ हॉब्स के अनुसार स्वतंत्रता चाहे जैसी हो विधि तथा संप्रभु क्षेत्र के अंतर्गत जन्मजात या मौलिक नहीं, विधि द्वारा प्रदत्त है।
Question : सर्वप्रथम किसी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, संपत्ति या किसी वस्तु से जो विधि के अंतर्गत उसकी है, वंचित करना प्रायः अन्यायपूर्ण माना जाता है। (सर जॉन स्टॅअर्ट मिल)
(1999)
Answer : जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक ‘ऑन लिबर्टी’ में स्वतंत्रता के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘मानवजाति किसी भी घटक की स्वतंत्रता में केवल एक आधार पर हस्तक्षेप कर सकती है और वह है आत्मरक्षा। सभ्य समाज में किसी भी सदस्य के विरुद्ध उसका प्रयोग तभी हो सकता है जब उससे दूसरों को हानि पहुंचे अर्थात विधि विरुद्ध हो। उसका अपना भौतिक या नैतिक हित, हस्तक्षेप का औचित्यपूर्ण कारण नहीं हो सकता। किसी भी व्यक्ति को किसी भी कार्य को करने या न करने के लिए विवश करना इस आधार पर उचित नहीं माना जा सकता कि ऐसा करना उसके हित में होगा, या ऐसा करने से उसके सुख में वृद्धि होगी, या ऐसा करना बुद्धिमतापूर्ण होगा।’ अतःमिल के शब्दों में, ‘सर्वप्रथम किसी को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, संपत्ति या किसी वस्तु से जो विधि के अंतर्गत उसकी है, वंचित करना प्रायः अन्यायपूर्ण माना जाता है।’ वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अलग मानते हुए स्वतंत्रता को दो भागों में विभक्त करते हैं। प्रथम, स्वयं से संबंधित कार्य या स्व- विषयक कार्य, दूसरा, दूसरों से संबंधित अर्थात पर-विषयक कार्य।
मिल के अनुसार, समाज मानव के आचरण के केवल उसी अंश को नियंत्रित कर सकता है जो दूसरे व्यक्तियों से संबंधित हों। स्वयं अपने ही कार्यों में उसकी स्वतंत्रता अधिकांशतः निरपेक्ष है। अपने आप पर, अपने शरीर और मस्तिष्क पर व्यक्ति संप्रभु है। मिल के अनुसार सभी आदर्श और युक्ति वस्तुएं व्यक्तियों से ही आती हैं। और व्यक्तियों से आनी चाहिए। व्यक्ति के स्व-विषयक कार्यों न करने देना पाशविक जीवन बना देना है, जिसने व्यक्ति का विकास बाधित होता है। व्यक्ति स्वतंत्रता एवं संपत्ति के अभाव के कारण समाज की प्रगति का अवरुद्ध हो जाने का प्रतीक है। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्व-विषयक स्वतंत्रता के अंतर्गत आती है। जिसके बिना उसका पूर्ण आत्म विकास असंभव है। वैचारिक दमन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दमन मानव जाति के हित में कभी भी नहीं है।
Question : हमारा विश्वास है कि सिद्धांतः समाज के प्रत्येक व्यक्ति की न्याय पर आधारिक अपनी अनुलंघनीयता होती है। (रॉल्स)
(1999)
Answer : जान रॉल्स ने अपनी पुस्तक ‘ए थ्योरी ऑफ जस्टिस’ में प्रक्रियात्मक न्याय और सामाजिक न्याय के सिद्धांत को मिलाकर न्याय के व्यापक सिद्धांत की स्थापना का प्रयत्न किया है। रॉल्स मानते हैं कि प्रत्येक स्वतंत्रता और विवेकशील मनुष्य जो अपने हितों की अभिवृद्धि के इच्छुक हैं, समानता मूल स्थिति में, समाज की संरचना करने में, स्वीकार करेंगे। इसे और स्पष्ट करते हुए रॉल्स कहता है कि ‘हमारा विश्वास है कि सिद्धांततः समाज के प्रत्येक व्यक्ति की न्याय पर आधारिक अपनी अनुलंघनीयता होती है।’ अर्थात जब व्यक्ति समाज की रचना करते हैं तो उनका उद्देश्य होता है कि उनके हितों की पूर्ति हो, जिनकी वह अनदेखी अर्थात नजरअंदाज नहीं कर सकते। वे प्राथमिक सामाजिक वस्तुओं, संपत्ति, आय, शक्ति, सत्ता, स्वतंत्रता, आदर सम्मान में अपनी हिस्सेदारी के लिए निश्चित रहता है। ऐसी अवस्था में एक व्यक्ति जो सिद्धांत अपने संगठन के लिए तय करता है, वे निष्पक्ष न्याय के सिद्धांत होंगे।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी मूल स्थिति में न्याय के नियम को दो आधारों पर स्वीकृति प्रदान करता है। प्रथम स्थान पर, वह समान स्वतंत्रता के सिद्धांत के आधार पर यह मांग करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को सबसे विस्तृत स्वतंत्रता का ऐसा समान अधिकार प्राप्त होना चाहिए जो दूसरों की वैसी ही स्वतंत्रता के साथ निभाया जा सकता हो। दूसरे स्थान पर, भेद-मूलक सिद्धांत के आधार पर यह मांग करता है कि समाज के सबसे निर्धन तथा कमजोर वर्ग के लोगों को अधिकतम लाभ प्राप्त हो तथा अवसर की उचित समानता के सिद्धांत पर यह मांग रखता है कि जो असमानताएं उन पदों और स्थितियों से जुड़ी हों जो अवसर की उचित समानता की शर्तों पर सबसे लिए अर्जित की स्थिति हो तथा सर्वसुलभ हो। रॉल्स ने इस तथ्य पर विशेष बल दिया है कि सभी स्वतंत्रताएं राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से मिलनी चाहिए। सभी व्यक्ति न्याय की दृष्टि में समान हैं। किसी को कम या अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है। स्वतंत्रताओं की समग्र व्यवस्था अनुल्लंघनीय हैं। वस्तुएं या किसी अन्य चीजों के वितरण में असमानता उसी आधार पर उचित मानी जा सकती है जब यह असमानता सबसे लिए, विशेषकर न्यूनतम अर्थात् हीनतम स्थिति वाले लोगों के लिए अधिकतम लाभप्रद हो। समाज का प्रत्येक व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार करता है और न्याय के उल्लंघन करने से बचता है।
Question : ‘राज्य-व्यवस्था सरकार का सर्वोत्तम व्यावहारिक रूप है।’-अरस्तु
(1998)
Answer : अरस्तु ने राज्य-व्यवस्था अथवा वैधानिक जनतंत्र को वर्गतंत्र तथा प्रजातंत्र का मिश्रण मानते हुए इसे सरकार का सर्वोत्तम व्यावहारिक रूप माना है। उसके द्वारा प्रस्तुत राज्यों के वर्गीकरण के अनुसार वर्गतंत्र कुलीनतंत्र का और प्रजातंत्र वैधानिक जनतंत्र का विकृत रूप है। अरस्तु ने वैधानिक जनतंत्र या राज्य-व्यवस्था की धारणा को साधारणतया ऐसे मिश्रण के लिए प्रयुक्त किया है जो वर्गतंत्र तथा प्रजातंत्र के तत्त्वों से निर्मित हो, परंतु प्रजातंत्र की और अधिक झुकाव रखता हो। राज्य व्यवस्था धनी तथा निर्धनों एवं संपत्ति तथा स्वतंत्र जन्म के तत्त्वों का सम्मिश्रण है। जिस संविधान में जन्म, संपत्ति तथा योग्यता के तत्त्वों का सम्मिश्रण पाया जाता है, वह कुलीनतंत्र की ओर अधिक झुकाव रखता है। परंतु वैधानिक जनतंत्र में धनी तथा निर्धनों का ही सम्मिश्रण होता है। वर्ग तंत्र तथा प्रजातंत्र के तत्त्वों के मिश्रण की प्रक्रिया में वह तीन सिद्धांतों की चर्चा करता है:
(1) वर्गतंत्र में यदि धनी लोग न्यायालय की बैठक से अनुपस्थित रहते हैं, तो उन्हें दंड दिया जाता है और निर्धनों की उपस्थिति का वेतन नहीं मिलता। प्रजातंत्र में निर्धनों को ऐसी उपस्थिति के लिए वेतन दिया जाता है और धनिकों को अनुपस्थित रहने पर दंड नहीं दिया जाता। मिश्रण के नियम यह होना चाहिए कि इन दोनों का कोई मध्यम मार्ग अपनाया जाय जो दोनों में शामिल हो।
(2) वर्गतंत्र में सभा की बैठक में भाग लेने की अर्हता अत्यधिकसम्पत्ति का होना मानी जाती है, तो प्रजातंत्र में या तो सम्पत्ति की कोई योग्यता नहीं रखी जाती अथवा बहुत ही न्यून संपत्ति वांछनीय मानी जाती है। अतः सम्मिश्रण का रूप दोनों के मध्य औसत निकालकर निर्धारित किया जा सकता है।
(3) प्रजातंत्र में मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति के लिए संपत्ति की कोई अर्हता निर्धारित नहीं की जाती और उन्हें पर्ची द्वारा छांटा जाता है, जबकि वर्गतंत्र में संपत्ति की योग्यता के साथ-साथ मतदान द्वारा भी उनकी नियुक्ति की जाती है। अतः मिश्रण का तरीका यह हो सकता है कि मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति में वर्गतंत्र के मत द्वारा नियुक्ति के सिद्धांत को तथा प्रजातंत्र के संपत्ति संबंधी प्रतिबंध को न लगाने का सिद्धांत अपनाया जाय। एक समुचित ढंग से वैधानिक जनतंत्र (राज्य-व्यवस्था) से यह आभास होना चाहिए कि उसमें वर्गतंत्र तथा प्रजातंत्र दोनों के तत्व विद्यमान हैं, साथ ही यह भी कि उसमें इन दोनों में से किसी एक के तत्त्व पूर्णतया नहीं है। इस प्रकार राज्य-व्यवस्था, वर्गतंत्र तथा प्रजातंत्र के तत्त्वों का मध्यमान है तथा सरकार का सर्वोत्तम व्यावहारिक रूप है।
Question : ‘हॉब्स ने प्रभुसत्ता को उन सभी अक्षमताओं से मुक्त कर दिया जिन्हें बोडिन ने बिना परिमार्जन के वैसे ही छोड़ दिया था।’-सैबीन
(1998)
Answer : सैबाइन हॉब्स द्वारा प्रस्तुत प्रभुसत्ता के विचार के अध्ययन के उपरांत माना कि ‘हॉब्स ने संप्रभुता को उन समस्त अयोग्यताओं से पूर्णतया मुक्त कर दिया जिन्हें बोडिन ने बिना परिमार्जन के वैसे ही छोड़ दिया था।’ यद्यपि बोडिन ने संप्रभुता को राज्य की सर्वोच्च सत्ता कहा था जिस पर कि कानून का कोई प्रतिबंध नहीं है, तथापि उसने संप्रभु की सत्ता को दैवी-कानून, प्राकृतिक कानून, राष्ट्रों के कानून, संवैधानिक कानून तथा सम्पत्ति के अधिकारों द्वारा मर्यादित माना था। इस प्रकार उसके संप्रभुता के सिद्धांतों में अनेक असंगतियां उत्पन्न हो गयी, क्योंकि एक ओर तो उसने प्रभुसत्ता को राज्य की सर्वोच्च सत्ता कहकर उसे कानून द्वारा अप्रबंधित स्वीकार किया, और दूसरी ओर उसे उसी सर्वोच्च सत्ता के ऊपर इतने अधिक प्रतिबंध लगा दिये थे कि उसका सिद्धांत नहीं रह गया। हॉब्स का प्रभुसत्ता संबंधी सिद्धांत इस दृष्टि से पूर्ण है कि बोडिन की भांति हॉब्स प्रभुसत्ता के ऊपर कोई भी मर्यादा आरोपित नहीं करता। हॉब्स के मत से केवल दो ही व्यवस्थायें संभव हो सकती हैं- या तो प्राकृतिक की अराजक स्थिति या निरंकुश संप्रभु द्वारा शासित राज्य/सैबाइन ने कहा है कि हॉब्स की व्यवस्था में समाज तथा राज्य के मध्य या राज्य तथा शासन के मध्य भेद करना भ्रामक होगा, क्योंकि बिना वास्तविक शासक के न तो समाज का अस्तित्व संभव है, न राज्य का। प्रत्युत् ऐसा जन-समूह ‘सिर-विहीन’ समूह कहलायेगा। हॉब्स के अनुसार, प्राकृतिक स्थिति में जन-समूह की ऐसी ही स्थिति थी। उस समय लोग प्राकृतिक अधिकारों का समान प्रयोग करते थे और आत्म-रक्षा के निमित्त जो भी ठीक समझते थे, वैसा करते थे। अतः वह स्थिति उनके मध्य निरंतर परस्पर संघर्ष की स्थिति थी। जब मानवों में विवेक की उत्त्पत्ति हुई तो उन्होंने प्राकृतिक अधिकार का परित्याग करने की संविदा की तथा उस संविदा को बनाये रखने की कामना की। उस संविदा द्वारा उन्होंने अपने प्राकृतिक अधिकारों को जिस व्यक्ति या व्यक्ति-समूह को सौंपे, वह समाज का संप्रभु बन गया। इस संविदा के द्वारा लोगों ने परस्पर अपनी इच्छा से कार्य न करने वाली इच्छा की सृष्टि की। यह कृत्रिम इच्छा संप्रभु को प्राप्त हो गयी जो सभी व्यक्तियों का प्रतिनिधि बन गया। इस प्रकार संप्रभु के व्यक्तिव में एक ऐसी एकांकी प्रतिनिध्यात्मक इच्छा का निर्माण हो गया जो विविध संघर्षरत इच्छाओं की स्थानापन्न इच्छा थी। हॉब्स की धारण में संप्रभु वह व्यक्ति है जिसे एक विशाल जन-समूह के पारस्परिक समझौते के द्वारा, अपने में से प्रत्येक को दूसरा बना दिया है, ताकि वह दूसरा व्यक्ति उन सबकी शांति तथा सामूहिक सुरक्षा के निमित्त जो भी उचित समझे उसके लिए उन सबको शक्ति तथा साधन के रूप में प्रयुक्त कर सके। इस प्रकार संप्रभु की सत्ता असीम तथा अमर्यादित हो जाती है और जनता के कल्याण एवं सुरक्षा के दायित्व को संपन्न करने के लिए कानून बनाने तथा उन्हें लागू करने का एकमात्र अधिकार उसे प्राप्त हो जाता है।
Question : ‘लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद है।’-स्टालिन
(1998)
Answer : स्टालिन के उल्लेखित वक्तव्य का अर्थ यह है कि जिस तरह मार्क्स ने पूंजीवाद के अंर्तद्वंद को देखकर अपने विचार व्यक्त किये थे वैसे ही पूंजीवाद जब आगे बढ़कर साम्राज्यवाद का रूप ले लेता है, तब उसमें जो अंर्तद्वंद पैदा होते हैं उसे ही लेनिन ने मार्क्सवादी सिद्धांत के आधार पर व्यक्त किया। अपने ग्रंथ ‘साम्राज्यवाद: पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था’ में लेनिन ने यह धारणा प्रकट की कि उन्नत औद्योगिक देशों के नीचे मध्य वर्ग तथा कुशल मजदूर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए संकट से, जिसकी कि मार्क्स ने उनके लिए भविष्यवाणी की थी, इसलिये बच गये और वहां वर्ग-संघर्ष इसलिए जोर न पकड़ पाया कि उन देशों की आर्थिक अवस्था अपने अधीनस्थ देशों के कारण अच्छी हो गयी थी। शासक देशों का पराधीन राष्ट्रों के साथ संबंध पूंजीपतियों और श्रमिक के बीच का संबंध था। वे, जो कि साम्राज्य के अभाव में श्रमजीवी होते, अब पूंजीपति हो गये थे और सच्चे श्रमजीवी पराधीन देशों के अभागे शोषित निवासी थे जो कि और भी अधिक संकट और पतन के गड्ढे में पड़े हुए थे। लेनिन का दावा था कि साम्राज्यवाद की यह अवस्था, किसी भी अर्थ में मार्क्स के मन्तव्य का विरोध नहीं था, बल्कि उसकी पूर्ति थी, यद्यपि स्वयं मार्क्स को उसका यथेष्ट पूर्वाभास न मिला था। लेनिन कहता है कि जैसे-तैसे पूंजीवाद का विकास होता जाता है, औद्योगिक उत्पादन की इकाइयां अधिकाधिक बड़ी होती जाती है और विभिन्न प्रकार के संगठन बनाकर एकाधिकारवादी पूंजीवादी को जन्म देती है। वित्त जगत में भी यह प्रक्रियाचलती है। बैंक संगठित हो जाते हैं और उस पूंजी के स्वामी बन जाते हैं जो उद्योगपति प्रयोग करते हैं। एकाधिकारी पूंजीवादी भी वित्त पूंजीवादी है। एकाधिकारी वित्त पूंजीवाद आक्रमणकारी साम्राज्यवादी है। इसकी विशिष्ट निर्यात पूंजी है और इसके तीन परिणाम निकलते हैं। ये हैं (1) पराधीन जातियों का शोषण, जिनके ऊपर यह उत्तरोत्तर बढ़ते हुए संकट का पूंजीवादी कानून लागू करता है और जिनकी स्वतंत्रता को यह नष्ट कर देता है। (2) यह राष्ट्रों के बीच युद्ध को जन्म देता है क्योंकि यह राष्ट्र के अंदर भी प्रतिस्पर्धा के स्थान पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को प्रतिस्थापित करता है और बाजारों तथा भूमि की इच्छुक शक्तियों के संघर्ष में युद्ध अपरिहार्य हो उठता है और (3) अंत में इसके परिणामस्वरूप पूंजीवाद का अंत हो जाता है और नवीन व्यवस्था का जन्म होता है क्योंकि श्रमिकों के शस्त्रीकरण और सैनिक प्रशिक्षण के साथ जो युद्ध राष्ट्रीययुद्धों के रूप में आरंभ होते हैं, उनका अन्त वर्ग-युद्धों के रूप में होगा। इसलिए लेनिन कहता है कि मार्क्स की बात गलत नहीं थी। उसने केवल एक अव्स्था पर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया था, जो कि उसकी अपनी युक्ति की अन्तिम अवस्था थी। लेनिन के इस विचार के आलोक में ही स्टालिन लेनिन के विचार को साम्राज्यवाद और सर्वहारा युग के क्रांति का मार्क्सवाद कहा है।
Question : ‘रूसो का सामाजिक संविदा सिद्धांत हॉब्स के लेवियाथन का ही दूसरा रूप है केवल उसका शीर्ष कटा हुआ है।’ विवेचन कीजिए।
(1998)
Answer : हॉब्स, लॉक और रूसो इन तीनों समझौतावादियों की विचारधारा के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट है कि हॉब्स और लॉक का समझौता सिद्धांत एक-दूसरे के नितान्त विपरीत है तथा रूसो ने अपने समझौता सिद्धांत में हॉब्स और लॉक के विचारों का समन्वय करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार रूसो के विचार कहीं हॉब्स से मिलते-जुलते हैं और कहीं लॉक से। हॉब्स तथा रूसो को प्रभुसत्ता संबंधी विचार बहुत कुछ सीमा तक एक से हैं। सामान्य इच्छा के जो लक्षण रूसो ने बताये हैं, वे लगभग वैसे ही हैं जिनका वर्णन हॉब्स ने अपने संप्रभु में किया है। अंतर केवल यह है कि हॉबस का संप्रभु एक मानव देव है और रूसो संप्रभुता का निवास सामान्य इच्छा में मानता है। इसलिए वाहन (टंनहींद) का कथन ठीक है कि ‘यदि हॉब्स के मानव देव (लेवायथन) का शीश काट दिया जाय तो वह रूसो की सामान्य इच्छा होगी।’
हॉब्स तथा रूसो के प्रभुसत्ताधारी की प्रमुख समानताएं इस प्रकार हैं:
एक दृष्टि से तो रूसो का संप्रभु हॉब्स से भी अधिक निरंकुश है। हॉब्स राज्य की असीमित शक्ति प्रदान करते हुए भी व्यक्ति को आत्म सुरक्षा के अधिकार के हित में राज्य का विरोध करने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है, लेकिन रूसो किसी भी स्थिति में व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार प्रदान नहीं करता। उसकी दृष्टि में सामान्य इच्छा व्यक्तियों की आदर्श इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है और इसलिए वह किसी भी स्थिति में गलत नहीं हो सकती। स्वयं रूसो की भाषा में, ‘जिस प्रकार प्रकृति ने मनुष्य को उनके शरीर के विभिन्न अवयवों पर पूर्ण नियंत्रण का अधिकार प्रदान किया है ठीक उसी प्रकार सामाजिक समझौते ने राजनीतिक अवयव (सामान्य इच्छा) को उसके शरीर के विभिन्न अवयवों (व्यक्ति) के ऊपर पूर्ण निरंकुश अधिकार प्रदान किये हैं।’
हॉब्स और रूसो की विचारधारा में उपर्युक्त समानता होते हुए भी इन दोनों विचारकों की असमानताएं अधिक महत्वपूर्ण हैं। प्रथमतः हॉब्स के अनुसार व्यक्ति अपनी शक्तियों का समर्पण एक व्यक्ति विशेष या समूह के प्रति करता है जो कि संविदा का कोई पक्ष नहीं वरन् उससे बाहर है। किंतु रूसो के अनुसार व्यक्ति अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति समूह को नहीं वरन् संपूर्ण समाज को समर्पित करता है। रूसो का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको समष्टि के प्रति समर्पित करता है, किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं, अतः जो कुछ वह देता है वह उसे संप्रभुत्ता संपन्न समाज का सदस्य हाने के नाते पुनः प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार राज्य में भी वह उतना स्वतंत्र रहता है जितना कि पहले था। रूसो के राजनीतिक सामज की स्थापना से व्यक्ति की स्वतंत्रता में कोई कमी नहीं होती, लेकिन हॉब्स के समझौते में शक्तियों का निर्माण एक बाहरी सत्ता के प्रति होने के कारण हॉब्स, रूसो के समान यह दावा नहीं कर सकता कि समझौते के उपरांत भी व्यक्ति उतना ही स्वतंत्र है, जितना कि पहले था। इस प्रकार रूसो का संप्रभु एक संपूर्ण समाज है जबकि हॉब्स का केवल एक व्यक्ति।
द्वितीयतः, इन दोनों में यह भी महत्वपूर्ण अंतर है कि हॉब्स के संप्रभु का विधायी तथा कार्यपालिका दोनों शक्तियों पर अधिकार है और इसलिए वह निरंकुश है और प्रजातंत्र दास, किन्तु रूसो का संप्रभु-समाज केवल विधायी शक्तियों का प्रयोग करता है, कार्यपालिका शक्तियां वह सरकार को सौंप देता है जो कि उसका अभिकर्त्ता अथवा सेवक है। रूसो के संप्रभुतासंपन्न राज्य तथा सरकार में भेद है, जबकि हॉब्स में दोनों तद्रूप हैं। इस प्रकार हॉब्स और रूसो दोनों की संविदा के अन्तर्गत यद्यपि व्यक्ति सम्पूर्ण शक्तियों का समर्पण करते हैं, लेकिन अंतर यह है कि रूसो इस समर्पण के बाद भी व्यक्ति की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखता है, हॉब्स की संविदा के अंतर्गत व्यक्तियों की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। इसी दृष्टि से रूसो के सिद्धांत के संबंध में कहा गया है कि रूसो का प्रभुसत्ताधारी हॉब्स का लेवायथन है जिसका मस्तक काट दिया गया है।
Question : जॉन स्टुअर्ट मिल ने किस प्रकार प्रारंभिक आमूल परिवर्तनवादी उदारतावाद में संशोधन किया, स्पष्ट कीजिये।
(1998)
Answer : यद्यपि बेन्थम और जेम्स मिल की विचारधारा द्वारा अनेक प्रकार के उदारवादी दर्शन को सहायता प्रदान की गयी, लेकिन उदारवादी दर्शन की पूर्ण अभिव्यक्ति सर्वप्रथम जॉन स्टुअर्ट मिल की विचारधारा में ही है। मिल ने उन सिद्धांतों को लागू करने के लिए संघर्ष किया जो उसने बेंथम और जेम्स मिल से ग्रहण किये थे। इस संबंध में उसने अनुभव और परिस्थितियों से पाठ ग्रहण करते हुए नागरिक अधिकारों को व्यापक बनाने पर बल दिया और इस बात का प्रतिपादन किया कि स्त्रियों को भी नागरिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए। मिल का विचार है कि सत्य की प्राप्ति वैज्ञानिक पद्धति अर्थात विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर ही संभव है। उसके द्वारा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शब्दों का प्रयोग व्यापक अर्थों में किया गया है और उसकी इस धारणा के अंतर्गत लेखन, प्रकाशन, और संगठन की स्वतंत्रता भी सम्मिलित हैं। ये स्वतंत्रताएं परस्पर पूरक हैं और सामुदायिक जीवन के लिए रोटी, पानी और हवा कही जा सकती है।
मिल के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को विचार स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए और उसे इस बात का भरोसा होना चाहिए कि उसकी इस स्वतंत्रता में राज्य या व्यक्ति के पड़ोसियों द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा। विचार स्वतंत्रता का उस समय तक कोई उपयोग नहीं हो सकता जब तक कि इन्हें व्यक्त करने और इनके प्रसार हेतु संगठन स्थापित करने का व्यक्तियों को अधिकार प्राप्त न हो। अतः राज्य के द्वारा व्यक्तियों को ये सभी स्वतंत्रताएं प्रदान की जानी चाहिए और यदि कभी बहुसंख्यक वर्ग अपनी शक्ति के बल पर अल्पसंख्यक वर्ग की इन स्वतंत्रताओं पर आघात करना चाहे, तो राज्य के द्वारा बहुसंख्यक वर्ग के हस्तक्षेप से अल्पसंख्यक वर्ग की इन स्वतंत्रताओं की रक्षा की जानी चाहिए। मानवीय स्वतंत्रताओं की रक्षा करने के साधन के रूप में ही उसके द्वारा प्रतिनिध्यात्मक शासन का प्रतिपादन किया गया था। उसका दृढ़ विश्वास था कि राजनीति सामान्य हित का विषय है और इसलिए राज्य की नीति पर सामान्य नागरिक समुदाय का नियंत्रण होना चाहिए। मिल के द्वारा अपनी विचारधारा का प्रारंभ एक परंपरागत उदारवादी के रूप में किया गया, लेकिन शीघ्र ही उसके द्वारा यह अनुभव किया गया कि व्यक्तियों की स्वतंत्रता की रक्षा तभी संभव है जबकि जनसाधारण के लिए उचित प्रकार की सामाजिक स्थितियां विद्यमान हों। फोरियर और लुई ब्लां आदि की विचारधारा के अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि राजनीतिक स्वतंत्रता का प्रश्न संपत्ति और उस पर नियंत्रण के प्रश्न से जुड़ा हुआ है। अब उसने इस विचार को अपनाया कि पूंजीवाद में व्याप्त भीषण निर्धनता और बेकारी पूंजीवादी व्यवस्था के ही दुष्परिणाम हैं। उसने इस बात पर बल दिया कि राज्य के द्वारा उचित वेतन, सभी के लिए शिक्षा की व्यवस्था और समानता की स्थापना के लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए। समाज की उत्पादन क्षमता और मानवीय साधनों का पूर्ण उपयोग किया जाना चाहिए और इस संबंध में उसके द्वारा राष्ट्रीय समाजवादी अर्थव्यवस्था का भी विरोध नहीं किया गया।
प्रारंभिक आमूल परिवर्तनवादी उदारतावाद या यूं कहें कि बेंथम का उदारतावाद का सिद्धांत उसकी सुखवादी मनोवैज्ञानिक धारणा पर आधारित था जिसके अनुसार बेंथम विविध सुखों के मध्य गुणात्मक अंतर नहीं मानता था। उसने सुखों के मध्य मात्रत्मक अंतर मानकर उनकी नाप-तोल किये जा सकने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है जिसके अनुसार किसी वस्तु या कार्य की उपयोगिता उससे अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख प्राप्त होने से आंकी जा सकती है। मिल ने अपने को सदैव एक उदारवादी माना था, परंतु उसके तथा बेंथम के उदारवादी सिद्धांत में भारी अंतर है। मिल भी सुखवाद को उपयोगिता का आधार मानता है। परंतु बेंथम तथा मिल के सुखवाद में सबसे मौलिक अंतर यह था कि बेंथम के विपरीत मिल ने विभिन्न सुखों के मध्य गुणगत अंतर को भी स्वीकार किया है। इस दृष्टि से यदि विभिन्न सुखों के मध्य गुणगत अंतर हो, तो गुणों की नाप-तोल नहीं की जा सकेगी। मिल का मत है कि कुछ सुख उच्च कोटि के तथा कुछ निम्न कोटि के होते हैं। इनका ज्ञान उन्हीं लोगों को होता है जिन्होंने इनका अनुभव किया है। इस दृष्टि से वे उच्च कोटि के सुखों की प्राप्ति करना अधिक पसंद करते हैं। मिल ने कहा है कि एक संतुष्ट सुअर की अपेक्षा एक असंतुष्ट मानव होना अधिक अच्छा है, एक संतुष्ट मुर्ख की अपेक्षा असंतुष्ट सुकरात होना अधिक श्रेष्ठ है। यदि मूर्ख या सुअर की राय अलग हो, तो इसका कारण यह है कि वे केवल अपने ही पक्ष को समझते हैं जबकि दूसरे पक्ष (मानव तथा सुकरात) दोनों पक्षों को समझते हैं। अर्थात् एक मानव प्राणी या बुद्धिमान केवल अपने ही सुख को श्रेष्ठ नहीं समझता बल्कि वह यह भी देखता है कि कौन सा सुख श्रेष्ठतर है और कैसे प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा प्राणी सदैव श्रेष्ठतर सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है।
जहां प्रारंभिक उदारवादियों ने राज्य को मानवीय स्वतंत्रता का शत्रु माना था, वहीं मिल ने अपने विचारों में राज्य को मानवीय स्वतंत्रता का संरक्षक माना और विशेष परिस्थितयों में राज्य द्वारा मानवीय स्वतंत्रता पर अंकुश तक लगाने की बात कही। उदाहरणस्वरूप अगर बहुमत की स्वतंत्रता अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता का अतिक्रमण कर रही हो तब। इस तरह हम कह सकते है कि मिल ने प्रारंभिक आमूल परिवर्तनवादी उदारतावाद को काफी संशोधित किया था और उदारतावाद के सिद्धांत को एक आधुनिक ढांचा प्रदान किया था जिसके आधार पर उदारतावाद का आधुनिक सिद्धांत अपना वजूद प्राप्त कर सका।
Question : राजनीति के प्रति ‘व्यवहारवादी दृष्टिकोण’ से क्या तात्पर्य है? क्या यह अकाट्य (सुस्पष्ट) दृष्टिकोण है? क्या यह कहना सही है कि राजनीतिक विश्लेषण में व्यवहारवादी दृष्टिकोण का उद्भव मार्क्सवादी दृष्टिकोण की जवाबी कार्रवाई के रूप में हुआ?
(1998)
Answer : व्यवहारवाद या व्यवहारवादी उपागम राजनीतिक तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण का एक विशेष तरीका है जिसे द्वितीय महायुद्ध के बाद अमरीकी राजवैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया यद्यपि इसकी जड़ें प्रथम महायुद्ध के भी पूर्व ग्राहम वालस बैंडले आदि की रचनाओं में देखी जा सकती है। व्यवहारवाद आज बहुत अधिक प्रचलित और व्यापक हो गया है किंतु इसके अर्थ के संबंध में सभी का दृष्टिकोण समान नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह केवल एक ‘मनोदशा’, (Mood) या ‘मनोवृत्ति’ है, तो कुछ विचारकों की दृष्टि में इसके अपने निश्चित विचार, सिद्धांत और कार्यविधियां हैं। किर्क पैट्रिक ने व्यवहारवाद के स्वरूप का स्पष्टता और विशदता के साथ विवेचन किया है, इसके अनुसार व्यवहारवाद की निम्न चार विशेषताएं हैं:
1. यह इस बात पर बल देता है कि राजनीतिक अध्ययन और शोध कार्य में विश्लेषण की मौलिक इकाई संस्थाएं न होकर व्यक्ति होना चाहिए।
2. यह सामाजिक विज्ञानों को व्यवहारवादी विद्वानों के रूप में देखता है और राजनीति विज्ञान की अन्य सामाजिक विज्ञान के साथ एकता पर बल देता है।
3. यह तथ्यों के पर्यवेक्षण, वर्गीकरण और माप के लिए अधिक परिशुद्ध प्रविधियों के विकास और उपयोग पर बल देता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि जहां तक संभव हो, सांख्यिकीय या परिमाणात्मक सूत्रीकरणों का उपयोग किया जाना चाहिए।
4. यह राजनीति विज्ञान के लक्ष्य को एक व्यवस्थित आनुभाविक सिद्धांत के रूप में परिभाषित करता है। व्यवहारवाद का अधिकारी विद्वान डेविड ईस्टन को कहा जा सकता है। उसे अपने लेख "The Current Meaning of Behaviouralism" में व्यवहारवाद के आधार एवं लक्ष्यों को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया हैः
(i) नियमन, (ii) सत्यापन, (iii) तकनीकी प्रयोग, (iv) परिमाणनीकरण, (v) मूल्य निर्धारण, (vi) व्यवस्थाबद्धीकरण, (vii) विशुद्ध ज्ञान और (viii) समग्रता।
व्यवहारवाद की अपनी कुछ उपयोगिताएं हैं जिनका उल्लेख उग्र रूपों में किया जा सकता हैः
(i) व्यवहारवाद केवल एक उपागम या दृष्टिकोण मात्र नहीं है, वरन् यह तो राजनीति विज्ञान की समस्त विषय-वस्तु को नवीन रूप में प्रस्तुत करने का एक साधन है। व्यवहारवाद केवल सुधार ही नहीं वरन् इसने पुननिर्माण किया है तथा इसने राजविज्ञान को नयी मूल्य, नयी भाषा, नयी पद्धतियां, उच्चतर प्रस्थिति, नवीन दिशाएं और सबसे बढ़कर ‘अनुभवात्मकता वैज्ञानिकता’ प्रदान की है।
(ii) व्यवहारवाद ने राजवैज्ञानिकों के दृष्टिकोण को व्यापक बताया है और उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया है कि एक समाज विज्ञान का अध्ययन दूसरे समाज विज्ञान के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। व्यवहारवादियों के इस विचार को ‘अंतर अनुशासनात्मक दृष्टिकोण (Inter-disciplinary approach) कहा जा सकता है। डह्नल के मतानुसार व्यवहारवाद ‘‘राजनीतिक अध्ययनों को आधुनिक मनोविज्ञान, समाजशास्त्र मानवशास्त्र और अर्थशास्त्र के सिद्धांतों, उपलब्धियों और दृष्टिकोणों के निकट सम्पर्क में लाने में सफल हुआ है।’
(iii) राजवैज्ञानिक अब तक सामान्यतया ऐसे दार्शनिकों के रूप में कार्य करते रहे हैं जो केवल नैतिक मूल्यों व आदर्शों से ही संबंध रखते थे। व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान को यथार्थ के धरातल पर खड़ा करने का कार्य किया है। उसने इस बात पर जोर दिया है कि राजवैज्ञानिक का संबंध ‘क्या है’ से है, न कि ‘क्या होना चाहिए’ से। व्यवहारवाद ने संस्थाओं के स्थान पर व्यक्ति को राजनीतिक विश्लेषण को इकाई बनाने पर जोर देने की बात कही है। वह इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस प्रकार उसने राजविज्ञान को एकता और आधुनिकता प्रदान की है।
(iv) व्यवहारवाद ने अपने वैज्ञानिक अनुभववाद के माध्यम से नवीन दृष्टि नवीन पद्धतियां, नये मापन और नूतन क्षेत्र प्रदान किए हैं। व्यवहारवाद के परिणामस्वरूप ही राजनीति विज्ञान साक्षात्कार प्रणाली, मूल प्रश्नावली प्रणाली और सोशियोमैट्री आदि अपनाने की ओर प्रदत हुआ है। राजनीति के अंतर्गत अब न केवल ‘मतदान व्यवहार’ वरन् राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं का अध्ययन भी इस पद्धति के आधार पर किया जाने लगा है।
व्यवहारवादी विचार या उपागम की लाख विशेषताओं के बावजूद यह कहना उचित नहीं होगा कि व्यवहारवाद अकाट्य (सुस्पष्ट) है। व्यवहारवाद की आलोचना के कुछ बिन्दुओं का संक्षिप्त विवेचरण इस प्रकार है:
1. व्यवहारवाद की सबसे प्रमुख कमजोरी उसकी मूल्य निरपेक्षता है जिसके फलस्वरूप राजविज्ञान नीति निर्माण, सक्रिय राजनीति, समाज की तात्कालिक और दूरगामी समस्याओं आदि से पूर्णतया पृथक हो गया है। यदि मूल्य निरपेक्षता ही हमारा ध्येय है, तो फिर प्रजातंत्र और तानाशाही सभी व्यवस्थाएं बिल्कुल समान हो जाती है और एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसे आर्नल्ड वैश्ट ने बीसवीं सदी की दुखांत घटना कहा है। मूल्यों से बचने का प्रयत्न तो मूल्यहीनता की खुली छूट देने के समान है।
2. व्यवहारवादी एक साथ ही मर्यादित और अहंकारी दोनों रूपों में सामने आते हैं। एक ओर तो वे अपने निष्कर्षों और मान्यताओं आदि को सापेक्ष मानते हैं और इस दृष्टि से वे मर्यादित हैं। लेकिन दूसरी ओर वे किसी भी ऐसे तत्त्व के अस्तित्व को महत्व देने के लिए तैयार नहीं हैं जिसे गिना, तौला या नापा जा सके। यह उनकी विचारधारा का अहंकारी पक्ष है और इस दृष्टि से उनमें व धार्मिक कट्टरपंथियों में कोई अंतर नहीं रह जाता।
3. रैमनी, किर्क, पैट्रिक, डैल आदि सभी ने यह आलोचना की है कि व्यवहारवादियों ने अब तक मानव व्यवहार का विज्ञान प्रस्तुत नहीं किया, यद्यपि वे लाखों डालर इस व्यय साध्य लक्ष्य की पूर्ति के लिए खर्च करा चुके हैं। एक विश्वसनीय, व्यापक और संतोषप्रद राजनीति का विज्ञान अभी तक मृगतृष्णा ही बना हुआ है।
4. दुर्भाग्यवश व्यवहारवादी इस बात को भुला देते हैं कि प्राकृतिक विज्ञानों और राजनीति विज्ञान के तथ्यों में बड़ा गंभीर अंतर है। राजनीति विज्ञान के तथ्य प्राकृतिक विज्ञानों के तथ्यों की तुलना में बहुत अधिक जटिल, अत्यधिक परिवर्तनशील, न्यून मात्र में प्रत्यक्षतः परिवेक्षणीय, कम समरूप और कार्य के उद्देश्य से परिपूर्ण होते हैं। इन कारणों से राजविज्ञान को प्राकृतिक या भौतिक विज्ञानों के समकक्ष बनाने का प्रयास अत्यंत कठिन है।
5. यवहारवादियों की कमजोरी उनके द्वारा पद्धतियों पर अत्यधिक जोर देने के कारण भी है।
6. क्रिश्चियन बे के मतानुसार इसकी विज्ञान स्थापना की धुन का परिणाम राजनीति से बचने के रूप में निकला है। कटु शब्दों का प्रयोग करते हुए इस बात का अल्फ्रेड कॉबन ने इस प्रकार कहा है कि ‘व्यवहारवाद राजनीति के खतरनाक चक्कर से बचने के लिए विश्वविद्यालय के शिक्षकों द्वारा आविष्कृत युक्ति है।’
7. व्यवहारवादियों की स्थिति इस दृष्टि से भी असंगतिपूर्ण है कि एक ओर वे अपने आपको मूल्य निरपेक्षतावादी बताते हैं, लेकिन दूसरी ओर एक भी ऐसा व्यवहारवादी नहीं है जो उदार प्रजातंत्र में विश्वास न करता हो। वस्तुस्थिति यह है कि व्यवहारवादियों ने स्थायित्व को पूर्व धारणा के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक लक्ष्य बना लिया है और व रूढि़वादी बन गये हैं।
वैसे तो यह कहीं भी स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं मिलता है कि राजनीतिक मार्क्सवादी दृष्टिकोण की जवाबी कार्रवाई के रूप में हुआ। फिर भी निम्नलिखित तथ्यों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि व्यवहारवादी दृष्टिकोण मार्क्सवादी दृष्टिकोण से अंतर जरूर रखता हैः
i. व्यवहारवादी दृष्टिकोण से राजनीति विश्लेषण का उद्भव अमेरिका में हुआ, इससे यह स्पष्ट है कि इसके पीछे मार्क्सवाद के विरोध की भावना जरूर होगी।
ii. व्यवहारवादी दृष्टिकोण ‘क्या है’ पर अधिक बल देता है न कि ‘क्या होना चाहिए’ पर। जबकि मार्क्सवादी दृष्टिकोण ‘क्या होना चाहिए’ पर अधिक बल देते हुए साम्यवाद को विकास की अंतिम अवस्था मानता है।
iii. मार्क्सवाद समाज को शोषक एवं शोषित वर्गों के खंडों में बांट कर अपना अध्ययन प्रस्तुत करता है जबकि व्यवहारवाद संपूर्ण समाज को एक इकाई के रूप में देखते हुए इसका अध्ययन समग्रता में करता है।Question : ‘शक्ति संपन्नता’ की संकल्पना पर लगभग 200 शब्दों में टिप्पणी लिखिए।
(1998)
Answer : रॉबर्ट बायर्सटेड के अनुसार, ‘शक्ति बल प्रयोग की योग्यता है, न कि उसका वास्तविक प्रयोग।’ मैकाइवर ने कहा है कि ‘शक्ति होने से हमारा अर्थ व्यक्तियों या व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित करने, विनियमित करने या निर्देशित करने की क्षमता से हैं।’ शक्ति संपन्नता की संकल्पना किसी व्यक्ति को किस आधार पर शक्ति प्राप्त होती है से संबंधित है। मैक्सवेबर के अनुसार शक्ति को तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है। ये तीन प्रकार हैंः (i) कानूनी या वैधानिक (ii) परंपरागत और (iii) करिश्मावादी। जब किसी व्यक्ति को किसी पद को ग्रहण करने के कारण उस पद से संबंधित वैधानिक या कानूनी शक्ति प्राप्त हो जाती है, तो उसे वैधानिक शक्ति संपन्नता कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप किसी व्यक्ति के राष्ट्रपति पद पर चुने जाने के बाद उसे जो शक्ति प्राप्त होती है, उसे वैधानिक या कानूनी शक्ति कहा जा सकता है। जब किसी व्यक्ति को किसी खास परंपरा के आधार पर शक्ति की प्राप्ति होती है, तो उसे परंपरागत शक्ति कहा जाता है। जैसे किसी परिवार में ज्येष्ठ पुत्र को प्राप्त होने वाली शक्ति परम्परागत शक्ति के अंतर्गत आती है। करिश्मा के द्वारा प्राप्त शक्ति को करिश्माई शक्ति सम्पन्नता कहा जाता है। 1971-72 के वर्षों में श्रीमती गांधी को भारतीय जनता पर करिश्मावादी शक्ति ही प्राप्त थी। इस स्थिति में जनमानस इंदिरा गांधी के द्वारा बांग्लादेश निर्माण करवा देने के कारण अभिभूत थी और संपूर्णरूपेण श्रीमती गांधी के नियंत्रण में थी।
Question : ‘पाप, अतः, सुविधा-अधिकार का जनक है, और मनुष्य की मनुष्य के प्रति अधीनता का प्रथम कारण है।’ (संत ऑगस्टीन)
(1997)
Answer : राजनीतिक विचारधाराओं के संदर्भ में आरंभिक चर्च संस्थापकों में से सन्त ऑग्स्टीन की रचनाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं। सांसारिक राज्य के संबंध में ऑगस्टीन रोमन लेखकों से भिन्न दृष्टिकोण रखता है। उसके अनुसार राज्य का आधार न्याय तथा कानून नहीं है। वह अंशतः दंड देने वाली और अंशतः उपचार के रूप वाली संस्था है। प्रारंभ में सब मानव समान थे और विवेक तथा न्याय के नियमों का अनुगमन करते थे। परंतु अपने पापों के फलस्वरूप कुछ मानवों को दूसरों की अधीनता में रहना पड़ा। राज्य की उत्पत्ति दैवी है। राज्य का शासक पृथ्वी पर ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में है, अतः मानव के लिए उसकी आज्ञा का पालन करना आवश्यक है। परन्तु दैवी राज्य, जो वास्तविक राज्य होता है, का स्वरूप ऐसा नहीं होता। इस दृष्टि से ऑगस्टीन की विचारधारा समाज में दो प्रकार के व्यक्तियों (दुष्टों तथा संतों) की कल्पना करती है। उन्हीं की जीवन प्रणालियां दो व्यवस्थाओं की सूचक हैं। ऑगस्टीन का उद्देश्य चर्च तथा राज्य को पृथक करना नहीं था, प्रत्युत वह राजसत्ता के स्थान पर चर्च की सत्ता को प्रमुखता देना चाहता था।
ऑगस्टीन के अनुसार दास-प्रथा भी परंपरागत होने के कारण ही अपना औचित्य रखती है। उसका औचित्य इस कारण से भी है कि वह मानव के पापों का परिणाम है, अतः पापों के उपचार हेतु दैवी दंड के रूप में वह मान्य की जा सकती है परंतु, यह प्राकृतिक नहीं है।
Question : ‘जो कोई भी प्राकृतिक अवस्था से समाज में शामिल हुआ, तो यह समझ जाना चाहिए कि उसने अपनी वे सब शक्तियां जो उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक थीं जिनके लिए समाज का गठन किया गया था, समाज के बहुसंख्यक वर्ग को अर्पित कर दीं।’(लॉक)
(1997)
Answer : लॉक ने मानव स्वभाव तथा प्राकृतिक स्थिति का काफी हद तक यथार्थ चित्रण किया है। उसकी प्राकृतिक अधिकारों संबंधी धारणा मानवीय है। उसके विचार क्रम में यह संदेह करने की गुंजाइश कम है कि प्राकृतिक स्थिति के मानव संविदा द्वारा राजनीतिक समाज निर्मित करने को क्यों प्रेरित हुए। क्योंकि प्राकृतिक स्थिति के जीवन में जो कठिनाइयां थीं, उन्हें लॉक तर्क-सम्मत ढंग से व्यक्त कर सका है। लॉक ने संविदा की धारणा को इसलिए आवश्यक दर्शाया है क्योंकि वह लोकतंत्र तथा मर्यादित शासन के सिद्धांत का समर्थक है। संविदा द्वारा व्यक्ति जिस प्राकृतिक अधिकार का परित्याग करते हैं, वह किसी व्यक्ति-विशेष या समूह-विशेष को नहीं प्राप्त होता, बल्कि संपूर्ण समाज को प्राप्त होता है। अतः उस अधिकार का प्रयोग करने की सर्वोच्च शक्ति संपूर्ण समाज को प्राप्त होती है। यह लॉक की लोकतंत्री-धारणा का प्रतीक है।
दूसरी ओर संप्रभु समाज की शक्ति अमर्यादित नहीं है। उसके ऊपर व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की मर्यादा है। मर्यादित शासन संविदागत ही हो सकता है। राजनीतिक समाज तथा उसके अभिकर्ता को शासन- संगठन की जो सत्ता प्राप्त होती है, वह व्यक्तियों की संविदा द्वारा प्राप्त होती है। संविदा की धारणा लॉक की विचारधारा में सदैव केंद्रीय स्थान रखती है। संविदा करने के लिए व्यक्तियों को बाध्य नहीं किया जा सकता, परंतु संविदा करने वाले व्यक्ति संविदा द्वारा बाध्य हैं। संविदा बहुमत के शासन का द्योतक है जो कि लोकतन्त्र का आधारभूत व्यावहारिक तत्त्व है। संविदा किसी भी रूप में निरंकुश या स्वेच्छाचारी शासन का द्योतक नहीं है।
Question : ‘किसी वस्तु की प्रकृति से उत्पन्न आवश्यक संबंधों को कानून कहते हैं।’ (मांटेस्क्यू)
(1997)
Answer : मांटेस्क्यू की राजनीतिक विचारधाराओं का सुसंबद्ध रूप उसके ग्रंथ ‘स्पिरिट ऑफ दि लॉज’ में पाया जाता है। ‘कानून की आत्मा’, जैसा इस पुस्तक के नाम का हिंदी अर्थ है, इस बात का द्योतक है कि मांटेस्क्यू के राजनीतिक विचारों का आधार उसकी कानून संबंधी धारणा है। मांटेस्क्यू की दृष्टि से कानून न तो विवेक का आदेश है जिसका अस्तित्व प्रकृति में है और न वह ईश्वर या संप्रभु का आदेश है, अपितु कानून की धारणा विभिन्न वस्तुओं के अंतर्गत ‘कार्य-कारण संबंध’ के द्वारा ज्ञात होती है। कानून की पारिभाषिक व्याख्या करते हुए ग्रंथ के प्रारंभ में वह लिखता है कि ‘कानून अपने सर्वाधिक सामान्य अर्थ में, वस्तुओं की प्रकृति से निकलने वाले आवश्यक संबंध हैं।’ इस अर्थ में संसार की समस्त वस्तुओं के अपने कानून होते हैं-देवत का अपना कानून है, भौतिक संसार का अपना कानून है, जानवरों का अपना कानून है, मानव का अपना कानून है।
मांटेस्क्यू द्वारा दी गयी कानून की यह परिभाषा अद्भूत है जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इस सम्पूर्ण विश्व का संचालन तथा नियमन कानून के द्वारा होता है जिसे प्राकृतिक कानून कहा जा सकता है। यह सृष्टि की सजीव तथा निर्जीव सभी वस्तुओें पर लागू होता है। मांटेस्क्यू की इस धारणा की बहुत आलोचना हुई है विशेष रूप से विधिशास्त्रियों द्वारा। लेकिन मांटेस्क्यू की धारणा में विश्व की समस्त-वस्तुओं के अस्तित्व में उनसे संबद्ध कानून के अंतर्गत कार्य-कारण संबंध का होना अवश्यक है। अर्थात् जहां कहीं भी वस्तुओं के मध्य संबंध होते हैं, वहां उन सम्बन्धों का नियमन करने के लिए कानून होते हैं क्योंकि संपूर्ण विश्व का नियमन कानूनों के द्वारा होता है।
Question : ‘मनुष्यों की चेतना उनका अस्तित्व निर्धारित नहीं करती, वरन् इसके विपरीत उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना निर्धारित करता है।’(मार्क्स)
(1997)
Answer : मार्क्स ने इतिहास की व्याख्या करने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया है और वह यह नहीं मानता कि इतिहास केवल अतीत के राजा-महाराजाओं तथा योद्धाओं की वीरता तथा युद्धों की कहानी मात्र है। प्रत्युत इतिहास को समझने के लिए हमें संबंधित युग के सामाजिक संबंधों का ज्ञान आर्थिक स्थितियों के संदर्भ में भी करना चाहिए। मार्क्स के अनुसार इतिहास में कभी भी मनुष्यों की चेतना मनुष्य का अस्तित्व निर्धारित नहीं करती, वरन् इसके विपरीत उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना निर्धारित करता है। मार्क्स के कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति की समाज में स्थिति, कि वह राजा है या प्रजा, मालिक है या दास, पूंजीपति, या सर्वहारा या श्रमिक है, उसके सामाजिक अस्तित्व पर निर्भर करता है। व्यक्ति की चेतना चाहे कुछ भी कहती है, वह करता वही है जो उसके सामाजिक अस्तित्व द्वारा निर्धारित किया जाता है। अगर व्यक्ति को समाज में उच्च या अमीर या शोषक वर्ग का अस्तित्व प्राप्त है, तो वह लाभ उठाने और अन्यों शोषण का ही कार्य करेगा। अगर व्यक्ति को समाज में निम्न या गरीब या शोषित वर्ग का अस्तित्व प्राप्त है, तो वह मजदूरी या शोषक वर्ग की सेवा ही करेगा। इस तरह व्यक्ति की सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता है।
मार्क्स कहता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में जब शोषित वर्ग को अपने निम्न सामाजिक अस्तित्व और शोषणात्मक व्यवस्था की जानकारी हो जायेगी, तब उनमें वर्ग चेतना का उदय होगा और यह वर्ग चेतना सर्वहारा को पूंजीपतियों और शोषकों के खिलाफ क्रांति करने के लिए प्रेरित करेगी, जिसके परिणामस्वरूप पूंजीवादी व्यवस्था का अंत होगा और एक नया शोषण-मुक्त समाज अर्थात् साम्यवादी समाज का उदय होगा जिसमें सभी को समान सामाजिक स्थिति प्राप्त होगी और कोई शोषक नहीं होगा।
Question : आधुनिक राजनीतिक विश्लेषण के व्यवस्था सिद्धांत के महत्व की विवेचना कीजिए।
(1997)
Answer : व्यवस्था विश्लेषण सिद्धांत आधुनिक राजनीति की वैज्ञानिकता, व्यापकता और प्रौढ़ता की खोज का अप्रतिम उदाहरण है। राजनीति में व्यवस्था सिद्धांत की सार्थकता इस बात में है कि यह राजनीतिक जीवन की व्यापकता और गहराई को समझने के लिए परंपरागत राजनीति के संकीर्ण दायरे से निकलकर अन्य विज्ञानों की खोज से प्राप्त निष्कर्षों को भी औजार के रूप में इस्तेमाल करता है।
राजनीति विज्ञान में व्यवस्था विश्लेषण सिद्धांत का प्रयोग इसके परिवर्तित अध्ययन क्षेत्र का परिचायक है। आधुनिक राजनीतिक विश्लेषण राजनीतिक व्यवस्थाओं का ही विश्लेषण है। यदि हमें राजनीतिशास्त्र को अधिक वैज्ञानिक व प्रभावशाली विषय बनाना है, तो हमें एक व्यापक ‘विश्लेषण सिद्धांत’ के विकास की आवश्यकता है, जिससे हम उन सभी तत्त्वों का विश्लेषण कर सकें जो आज के राजनीतिक जीवन के आधार हैं और जिनकी परंपरागत राजनीतिशास्त्रियों ने उपेक्षा की है। इसके अंतर्गत हमें सभी प्रकार के समाजों, भले ही उनमें आकार, संस्कृति, शैक्षिक स्तर, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा आधुनिकीकरण में कितने ही व्यापक अन्तर क्यों न हों, शामिल करना होगा।
‘राजनीतिक व्यवस्था’ की संकल्पना इस उद्देश्य की पूर्ति करती है। यह शब्द अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसके अंतर्गत समस्त राजनीतिक क्रियाएं सन्निहित हैं, भले ही उनका संबंध समाज की किसी भी संस्था से हो या किसी भी स्थान पर घटित हों। राजनीतिक क्रियाएं केवल राज्य और सरकार तक ही सीमित नहीं हैं, वरन् वे परिवार, क्लब, चर्च और उन संस्थाओं में भी पायी जाती हैं जहां पर व्यक्ति को दूसरे के सहयोग की आवश्यकता होती है।
राजनीति के अन्तर्गत व्यवस्था विश्लेषण सिद्धांत अमेरिकन राजनीतिशास्त्रियों की देन है। सर्वप्रथम इस सिद्धांत का प्रयोग प्राकृतिक विज्ञानों में हुआ और उसके बाद समाजशास्त्र से होता हुआ यह राजनीतिक विश्लेषण का आधार बन गया। राजनीति में इसकी आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से महसूस की जाने लगीः
राजनीतिक व्यवस्था राजनीतिक संस्थाओं तक ही सीमित नहीं है। जाति, समूह, चर्च, व्यावसायिक संगठन, सभी में राजनीतिक व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है, यदि संस्था के सदस्य सत्ता, शक्ति, और नियम से संबंधित है। वस्तुतः प्रत्येक संगठन का एक राजनीतिक पहलू होता हैं। राबर्ट डहल के अनुसार, ‘राजनीतिक व्यवस्था मानव संबंधों का वह स्थायी स्वरूप है जिसके अंतर्गत शक्ति, नियम और सत्ता महत्वपूर्ण मात्र में अंतरग्रस्त हों।’ डेविड ईस्टन के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था के तीन संघटक हैं- ‘प्रथम, राजनीतिक व्यवस्था नीतियों के माध्यम से मूल्यों का आबंटन करता है; द्वितीय, इसका आवंटन प्राधिकारिक होता है; तीसरा, इसका आधिकारिक आबंटन समाज पर बाह्य रूप से लागू होता है।’ संक्षेप में राजनीतिक भागों में ऐसी संबंधसूत्रता होती है कि व्यवस्था के किसी भी भाग में हुआ कोई भी परिवर्तन, अन्य अन्तःक्रियाशील अंगों तथा संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में भी अनुकूल परिवर्तन ला देता है।
राजनीति में व्यवस्था की अवधारणा का प्रयोग करने वाले विद्वानों में ईस्टन का नाम अग्रणी है। सन् 1953 में प्रकाशित पुस्तक ‘दि पोलिटिकल सिस्टम’ में उसने राजनीति विज्ञान में एक ‘सामान्य व्यवस्था सिद्धांत’ के निर्माण का विचार प्रस्तुत किया था।
डेविड ईस्टन के अनुसार, ‘राजनीतिक व्यवस्था, अंतर-क्रियाओं का ऐसा समूह है जिसके अंतर्गत मांगों को निर्गत (वनज चनज) में बदला जाता है।’ राजनीतिक व्यवस्था संस्थाओं एवं प्रक्रियाओं का एक जटिल समूह है, जो समाज के भीतर अधिकारिक मूल्यों का नियोजन करती है। हम राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन इसलिए करते हैं कि उनके अधिकारपूर्ण निर्णय के परिणामों का समाज के लिए बहुत महत्व है और इन परिणामों को निर्गत कहा जाता है। किसी भी व्यवस्था को जीवित रहने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें निरंतर निवेश होता रहे। निवेश के बिना कोई भी व्यवस्था कार्य नहीं कर सकती। निर्गत के बिना उसके कार्यों को समझा-पहचाना नहीं जा सकता। डेविड ईस्टन के अनुसार, निवेश से तात्पर्य मांग तथा समर्थन से है। मांग, मन की अभिव्यक्ति है जिसके द्वारा किसी वस्तु विशेष के प्राधिकारिक आबंटन के लिए, उन लोगों से जो कि इसको करने के लिए उत्तरदायी हैं, कहा जाता है कि ऐसा होना चाहिए या नहीं होना चाहिए। बिना समर्थन के शासन में स्थिरता नहीं आ पाती। सामाजिक एकता बनाए रखने के लिए समर्थन आवश्यक है। निर्गत वे उत्पादित वस्तुएं हैं जो निवेश के रूपांतरण के बाद प्राप्त होती हैं। निर्गत का उद्देश्य सदस्यों की आवश्यकताओं को पूरा करना होता है।
राजनीतिक व्यवस्था की अवधारणा के ईस्टन द्वारा दिये गये मॉडल को ‘निवेश-निर्गत मॉडल’ कहा जाता है और आमंड पावेल द्वारा दिये गये मॉडल को ‘संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक मॉडल’ कहा जाता है। आमंड पावेल ने राजनीतिक व्यवस्था के बारे में मौलिक रूप से ईस्टन की ही व्यवस्था को स्वीकार किया है, किन्तु इन्होंने राजनीतिक व्यवस्था के संघटकों को लेकर ईस्टन से बहुत आगे बढ़ने का प्रयास किया है। वे राजनीतिक व्यवस्था के ढांचे को इसके प्रकार्यात्मक पहलुओं से पृथक् करके समझने का प्रयत्न करते हैं।
राबर्ट सी. बोन का मत है कि राजनीतिक व्यवस्था उपागम से तुलनात्मक विश्लेषण का सर्वश्रेष्ठ साधन प्रस्तुत हुआ है। इससे तुलनाएं करना आसान और उपयोगी बना है। उन्हीं के शब्दों में, ‘यह तुलनात्मक विश्लेषण की श्रेष्ठतम प्रविधि है क्योंकि यह सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था के अवलोकन पर केन्द्रित है और इसके अंतर्वेशी प्रत्यय और प्रवर्ग तुलना में सहूलियत ला देते हैं।’
डॉ. एस.पी. वर्मा ने डेविड ईस्टन के व्यवस्था विश्लेषण सिद्धांत की दो विशेषताएं बतलायी हैं- प्रथम, इस विश्लेषण प्रद्धति में संतुलन दृष्टिकोण से आगे तक जाकर व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों और गत्यात्मकताओं पर ध्यान दिया गया है। द्वितीय, राजनीति में इसके द्वारा प्रस्थापित प्रत्ययों, प्रविधियों और अवधारणाओं के माध्यम से संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था का तुलनीय अवलोकन किया जा सकता है।
मोटे रूप से राजनीति के अध्ययन में व्यवस्था विश्लेषण सिद्धांत के लाभ इस प्रकार हैंः
संक्षेप में, राजनीति को परंपरा से निकालकर आधुनिक बनाने को ‘राजनीतिक व्यवस्था’ की अवधारणा की आधारभूत देन मानी जाती है।
Question : लोक-संप्रभुता सिद्धांत के दार्शनिक आधार एवं मानव जाति के लिए उसके महत्व की विवेचना कीजिए।
(1997)
Answer : लोक-संप्रभुता का विचार आधुनिक लोकतंत्र का आधारभूत सिद्धांत है। इस धारणा के अनुसार अंतिम प्रभुसत्ता जनता में निहित होती है। लोक प्रभुता के विचार को मध्य युग में मार्सीलियो ऑफ पेडुआ (Marsiglio of Padua) और विलियम ऑफ ओकम (William of Occam) आदि विचारकों के द्वारा जन्म दिया गया। परंतु इस धारणा का प्रमुख प्रतिपादक रूसो है, जिसने ‘सामान्य इच्छा’ को ही लोक संप्रभुता माना है। ‘सामान्य इच्छा’ से रूसो का तात्पर्य सबकी इच्छा के उस भाग से था जिसमें सामान्य हित निहित हो।
उन्नीसवीं सदी में लोकतन्त्र के विकास के साथ-साथ लोक प्रभुता के सिद्धान्त को भी लोकप्रियता मिली और आजकल तो निर्विवाद रूप से यह स्वीकार कर लिया गया है कि राजनीतिक सत्ता का अन्तिम संरक्षण जनता-जनार्दन के हाथों में ही है और जैसा कि ब्राइस ने कहा है, ‘आधुनिक युग में लोक-प्रभुसता, लोकतन्त्र का आधार और पर्याय बन चुकी है।’ परंतु लोक प्रभुता के सिद्धांत के प्रतिपादक स्पष्ट रूप से यह नहीं बताते कि ‘जनता’ शब्द से उनका तात्पर्य क्या है? एक अर्थ में नवजात शिशु से लेकर मृतप्राय व्यक्ति तक, निम्नतम अपराधी से लेकर आदर्शतम नागरिक तक, सभी इस शब्द के अंतर्गत आ जाते हैं। दूसरे अर्थ में, इस शब्द से केवल उन्हीं व्यक्तियों का बोध होता है जिनमें राजनीतिक चेतना हो, जो उत्तरदायित्वपूर्ण हों, जिन्हें मताधिकार प्राप्त हो और जो जनसंख्या के बहुमत का निर्माण करते हों। प्रथम अर्थ वाली जनता को प्रभुसता मानना तो कोरी मूर्खता होगी। इस प्रकार लोक प्रभुसता से केवल मताधिकार प्राप्त जनसंख्या के बहुमत का बोध हो सकता है और इस अर्थ में राजनीतिक प्रभुता तथा लोक प्रभुता में कोई अन्तर नहीं रह जाता। इसलिए गार्नर ने लिखा है कि, ‘लोकप्रिय संप्रभुता का अर्थ निर्वाचक समूह की जनसंख्या की शक्ति से अधिक कुछ नहीं होता और यह उन्हीं देशों में संभव है जिनमें व्यापक मताधिकार की प्रणाली प्रचालित करने के लिए वैध रूप से स्थापित मार्गों द्वारा उनकी इच्छा को व्यक्त और प्रसारित करने के लिए क्रियान्वित होती है।’
डॉ. आशीर्वाद के अनुसार लोक प्रभुता के सिद्धांत में निम्न गुण विशेष उल्लेखनीय हैं:
इस तरह देखा जा सकता है कि लोक संप्रभुता के विचार का दार्शनिक आधार जनता को सर्वोच्चता प्रदान करना और सर्वाधिकारी बनाना है। यह विचार शासन को जन इच्छाओं पर आधारित, जन इच्छाओं द्वारा निर्मित और जन इच्छाओं द्वारा विघटित मानती है। लोक संप्रभुता का सिद्धांत मानव जाति को काफी सम्मान देता है और उसे शासन व्यवस्था का आधार मानता है। लोक संप्रभुता के सिद्धांत ने दैवी सत्ता एवं शक्ति आधारित सत्ता के सिद्धांत को गलत सिद्ध करते हुए सामान्य मानव को महत्व दिया और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था की नींव रखी। इस सिद्धांत ने शासन पर साधारण जनता के अधिकार को स्थापित कर मानव जाति के कल्याण, उत्थान एवं विकास के लिए शासन को उत्तरदायी बना दिया। आज विश्व भर में फैली लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था इस लोक-संप्रभुता के सिद्धान्त पर आधारित है।
Question : आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत में मान्यताप्राप्त प्रतिरोध और क्रांति के अधिकारों की प्रकृति और सीमाओं का परीक्षण कीजिए।
(1997)
Answer : साधारणतया यह प्रश्न किया जाता है कि आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत में व्यक्ति को राज्य के प्रति प्रतिरोध और क्रांति का अधिकार प्राप्त है या नहीं और अगर है, तो इसकी प्रकृति और सीमाएं क्या हैं? राज्य के प्रति भक्ति और राज्य की आज्ञाओं का पालन व्यक्ति का कानूनी कर्तव्य होता है और इसलिए व्यक्ति को राज्य के प्रति विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नहीं सकता क्योंकि कानून के द्वारा व्यक्ति को कानून के उल्लंघन का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। लेकिन व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य ही प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि शासन के अस्तित्व का उद्देश्य जन-इच्छा को कार्यरूप में परिणत करते हुए सामान्य कल्याण होता है। यदि शासन सामाज्य कल्याण की साधना में असफल हो जाता है या शासन जन-इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं करता, तो उस शासन को अस्तित्व में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार शेष नहीं रह जाता है। नागरिकों को इस प्रकार की सरकार को पदच्युत करने का अधिकार होता है और यदि संवैधानिक मार्ग से इच्छित परिवर्तन न किया जा सके, तो व्यक्ति को अधिकार है कि वह शक्ति के आधार पर वांछित परिवर्तन लाने का प्रयत्न करे।
लॉस्की ने कहा है कि, ‘नागरिकता व्यक्ति के विवेकपूर्ण निर्णय का जनकल्याण में प्रयोग है। ऐसी परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को इस बात का विश्वास हो जाए कि विद्यमान शासन व्यवस्था सर्वमान्य के हित में कार्य नहीं कर सकती, तो राज्य के प्रति विद्रोह व्यक्ति का एक नैतिक अधिकार ही नहीं, वरन् एक नैतिक कर्तव्य भी हो जाता है’ और जैसा कि महात्मा गांधी ने भी कहा है कि ‘व्यक्ति का सर्वोच्च कर्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति होता है’। अतः अंतरात्मा की पुकार पर सरकार का विरोध किया जा सकता है।
इस बात का अवश्य ही ध्यान रखा जाना चाहिए कि विद्रोह का यह अधिकार ‘राज्य की अंतिम औषधि है न कि प्रतिदिन का भोजन।’ इसलिए दूसरे सभी संबंधित पहलुओं पर विचार किये जाने के बाद ही इस अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है। इस संबंध में टी.एच. ग्रीन ने अपनी पुस्तक ‘राजनीतिक दायित्व के सिद्धांत’ (Principles of Political Obligations) में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे काफी महत्वपूर्ण हैं। ग्रीन, महात्मा गांधी, लॉस्की आदि विद्वानों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि निम्नलिखित परिस्थितियों में ही विद्रोह के अधिकार का प्रयोग किया जा सकता हैः
1.स्थिति को सुधारने और वांछित परिवर्तन लाने के लिए विद्रोह के पूर्व सभी प्रकार के संवैधानिक साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए और संवैधानिक साधनों की असफलता के बाद ही विद्रोह के संबंध में सोचा जाना चाहिए।
2.विद्रोह की भावना वैयक्तिक न होकर सामाजिक होनी चाहिए। सरकार के द्वारा किए जाने वाले अन्याय साधारण प्रकृति के न होकर गंभीर प्रकृति के होने चाहिए और विद्रोह करने वाली जनता विद्रोह के उद्देश्य से पूर्ण परिचित होनी चाहिए।
3.विद्रोह किसी वर्ग विशेष के हित की प्रेरणा से नहीं, वरन् सार्वजनिक हित की प्रेरणा से ही किया जाना चाहिए।
4.विद्रोह करने वाले व्यक्ति को चरित्रवान, संयमी और विवेकशील होना चाहिए। उसका विवेक पक्ष भावना पक्ष से सबल होना चाहिए और उसे विद्रोह के भिन्न-भिन्न रूपों का ज्ञान होना चाहिए।
5.अनेक बार विद्रोह के परिणाम विद्रोह के पूर्व की स्थिति से भी भंयकर होते हैं। अतः विद्रोह गंभीरपूर्वक विचार के बाद किया जाना चाहिए। यदि विद्रोह का परिणाम तत्कालीन स्थिति से संतोषजनक प्रतीत होता है, तभी विद्रोह किया जाना चाहिए।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यद्यपि व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार प्राप्त होता है, लेकिन इस प्रकार के अधिकार का प्रयोग सभी प्रकार की बातों पर विचार कर विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए।
Question : ‘दासता, मालिक और दास दोनों के लिए स्वाभाविक एवं कल्याणकारी है।’(अरस्तू)
(1996)
Answer : अरस्तू परिवार को राज्य की आधारशिला तथा दास को परिवार का अभिन्न अंग मानता है। दास-प्रथा के औचित्य को दर्शाते हुए अरस्तू प्रकृति के नियमों और अपने दार्शनिक तथा तथ्यगत तर्कों का सहारा लेता है। उसका तर्क है कि यह बात आवश्यक एवं व्यावहारिक है कि कुछ लोग शासक होंगे तथा कुछ शासित। जन्म से ही कुछ लोग शासन करने के लिए तथा कुछ शासित बने रहने के लिए निश्चित कर दिये जाते हैं। यह तो प्रकृति का नियम है कि उच्चतर वस्तु निम्नतर वस्तु के ऊपर शासन करती है। मानवों की शारीरिक तथा मानसिक क्षमताओं में विविधता पायी जाती है। जिन व्यक्तियों में उच्च विवेक शक्ति होती है वे आदेश देने तथा निर्देश देने की क्षमता रखते हैं और जिन व्यक्तियों में विवेक की मात्र इतनी ही होती है कि वे विवेक को समझ मात्र सकते हैं, उनकी क्षमता आज्ञापालन तक सीमित होती है। यह अंतर मानसिक एवं शारीरिक क्षमता दोनों का होता है। दोनों का मिश्रण दोनों प्रकार के व्यक्तियों के हित में अथवा संपूर्ण परिवार के हित में है।
दास-प्रथा प्राकृतिक है। इसका औचित्य इस आधार पर भी सिद्ध होता है कि दास मालिक के साथ जीवन व्यतीत करता हुआ अपने जीवन को भी उच्चतर बना सकता है क्योंकि उसका मालिक के साथ संपर्क उसे उत्तमता प्रदान करेगा। साथ ही दास का होना मालिक के हित में इसलिए है क्योंकि उसके कारण मालिक को अधिक आराम तथा शारीरिक श्रम से अवकाश मिलता है जिसके फलस्वरूप वह मानसिक कार्य करने का अधिक सुअवसर प्राप्त करता है। जिस प्रकार उत्तम संगीत के लिए संगीत के उपकरण आवश्यक हैं, उसी प्रकार स्वस्थ पारिवारिक जीवन के लिए दास एक अपरिहार्य उपकरण के रूप में होता है। अतः दासता मालिक और दास दोनों के लिए कल्याणकारी है।
Question : ‘कोई भी व्यक्ति अपननी सहमति के बिना संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता।’(लॉक)
(1996)
Answer : राज्य की उत्पत्ति से संबंधित संविदावादी सिद्धांतों को देने के क्रम में लॉक ने राज्य-पूर्व के प्राकृतिक अधिकारों एवं कानूनों का उल्लेख किया है। उसके अनुसार प्राकृतिक स्थिति में प्राकृतिक कानूनों के द्वारा मानव के समस्त कार्यकलापों तथा व्यापारों का नियमन होता है। उस स्थिति में इसके निर्वचन, परिपालन एवं कार्यान्वयन हेतु किसी सर्वमान्य मानवीय सत्ता के अभाव में जो कठिनाई थी, उसी को दूर करने के लिए राजनीतिक समाज निर्मित करने की संविदा व्यक्तियों के द्वारा की जाती है। राजनीतिक समाज की स्थापना हो जाने पर भी प्राकृतिक कानून की संप्रभुता बनी रहती है। राज्य की सरकार इस कानून से अंसगति रखने वाले किसी कानून का निर्माण नहीं कर सकती। इसी कानून के अंतर्गत व्यक्ति अनेक अधिकारों का उपभोग करते हैं। ये अधिकार प्राकृतिक तथा अलंध्य हैं। इन्हीं की रक्षा के लिए राजनीतिक समाज का निर्माण किया जाता है।
लॉक के अनुसार प्राकृतिक अधिकार इस प्रकार हैं-जीवन, स्वतंत्रता, स्वास्थ्य तथा सम्पत्ति के अधिकार। परंतु लॉक इनमें से सम्पत्ति के अधिकार को सबसे प्रमुख स्थान देता है। उसके विचार से अन्य अधिकार इसी अधिकार के अंतर्गत आ जाते हैं। लॉक ने कहा है कि ‘मानवों के समाज में प्रवेश करने का कारण ही अपनी सम्पत्ति की सुरक्षा है।’ इसका यह निष्कर्ष है कि नागरिकों के प्राकृतिक अधिकार राज्य से पूर्व हैं, अर्थात् अधिकारों की सृष्टि राज्य या समाज के द्वारा नहीं होती, अपितु व्यक्तियों के प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य की सृष्टि होती है। शासन तथा कानून इन अधिकारों में कोई कमी नहीं कर सकते। लॉक के इन अधिकारों में सर्वप्रमुख संपत्ति के अधिकार से कोई भी व्यक्ति अपनी सहमति के बिना वंचित नहीं किया जा सकता।
Question : ‘एक राज्य की वकत, दूरगामी समय में, उन व्यक्तियों की वकत में है जो उसमें निवास करते हैं।’(जे. एस. मिल)
(1996)
Answer : मिल समाज की विभिन्न संस्थाओं की भांति राज्य को भी एक सामाजिक संस्था के रूप में मानता है। परंतु मिल न तो राज्य की धारणा के संबंध में दार्शनिक ढंग से चिंतन करता है और न ही राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धांत को अमान्य करता है। इसे वह एक यांत्रिक धारणा मानता है जिसके अंतर्गत मानव की इच्छा तथा व्यक्तित्व के महत्व की उपेक्षा की गयी थी। मिल के मत में राज्य मानवों की इच्छा की उपज है, न कि किसी हित विशेष की। मिल राज्य की उत्पत्ति को मानवों की आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त मानव इच्छा के परिणामस्वरूप हुआ मानता है जिसके विकास-क्रम में मानव की चेतना, इच्छा, व्यक्तित्व एवं परिस्थितियां प्रभाव डालती रहती हैं।
राज्य के स्वरूप के संबंध में मिल राज्य के सावयवस्वरूप की कल्पना नहीं करता, राज्य संबंधी धारणा यांत्रिक है। परंतु मिल का राज्य रूपी यंत्र सचेतन है जिसमें राज्य का स्वरूप विकसित होता रहता है। मिल की दृष्टि में राज्य एक नैतिक संस्था है। अन्य व्यक्तिवादियों की भांति मिल राज्य के केवल निषेधात्मक स्वरूप को स्वीकार नहीं करता। उसके मत में राज्य का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के सम्मान तथा व्यक्तित्व का विकास करना है। अतः राज्य व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायता पहुंचाने के लिए किसी न किसी रूप में हस्तक्षेप करने का अधिकार रखता है, क्योंकि ‘लंबे समय में राज्य की वकत (worth) उन व्यक्तियों की वकत है जो उसके भाग हैं।’
Question : ‘विरोधाभास दुनिया का नियामक सिद्धांत है।’
(1996)
Answer : हीगल का समूचा दर्शन द्वंद्ववाद की पद्धति पर आधारित है। इस पद्धति का उद्देश्य इतिहास की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करना था। हीगल के मत से मानवीय सभ्यता का विकास क्रम एक सीधी रेखा के रूप में नहीं बढ़ता, अपितु इसके विकास का मार्ग टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं के रूप में होता है। इसमें समय-समय पर जो व्यवस्थाएं बनी रहती हैं या जो घटनाएं घटती हैं, उनमें स्वयं विरोधाभासी प्रवृत्तियों के कारण नई व्यवस्थाओं या घटनाओं की सृष्टि होती रहती है। इन परिवर्तनों में किन्हीं सांसारिक तत्त्वों का हाथ नहीं होता, अपितु विश्वात्मा का हाथ होता है जिसे हीगल अनेक नामों से संबोधित करता है, यथा दैवी आत्मता, दैवी विवेक, दैवी प्रत्यय आदि। इसी के द्वारा संपूर्ण विकास क्रम चलता रहता है।
विकास क्रम की इस पद्धति को हीगल ने द्वंद्ववाद का नाम दिया है जो उसके दर्शन का केंद्र है। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए हेगल कहता है कि विरोधाभास दुनिया का नियामक सिद्धांत है क्योंकि वाद, प्रतिवाद तथा संवाद के विरोधाभास का क्रम ऐतिहासिक विकास में निरंतर चलता रहता है। जब एक व्यवस्था वाद से प्रतिवाद में तथा अंततः संवाद में परिणत हो जाती है, तो कालांतर में संवाद के अंतर्गत भी पुनः विरोधी तत्त्व प्रकट होने लगते हैं। वह पुनः वाद बन जाता है और फिर उसका प्रतिवाद तथ संवाद प्रकट होगा और इस तरह दुनिया का विकास क्रम चलता रहेगा।
Question : ‘लॉक की विचारधारा को किसी प्रकार के अयोग्य जनतांत्रीय सिद्धांत में परिवर्तित करना कठिन है।’ (मेकफरसन) विवेचन कीजिए।
(1996)
Answer : जॉन लॉक के विचार निरंकुशतावाद के विरुद्ध मर्यादित शासन-सत्ता का समर्थन करते हैं। लॉक के राजनीतिक चिंतन का केंद्र व्यक्ति तथा राज्य के मध्य संबंधों का विवेचन करना था। वह इस समस्या को लेकर चलता है कि राजनीतिक सत्ता के अस्तित्व का, जो कि कानून बनाने तथा दंड देने का अधिकार रखती है, क्या कारण है? लॉक का उत्तर है कि उसका औचित्य जनता का हित करना है। इसी आधार पर वह व्यक्तियों के राज्य की आज्ञाकारिता के कारणों की भी विवेचना करता है।
लॉक के विचार में राजनीतिक समाजों की स्थापना की एकमात्र विधि जनता की सहमति है। उसने कहा है कि ‘प्रकृतितः समस्त मानव स्वतन्त्र, समान तथा स्वाधीन हैं, अतः किसी भी व्यक्ति को बिना उसकी निजी सहमति के उसकी सम्पत्ति से विहीन या दूसरे की राजनीतिक सत्ता के अधीन नहीं रखा जा सकता।’ जनता की सहमति द्वारा राजनीतिक समाज की स्थापना किए जाने का एक निष्कर्ष है बहुमत की सहमति, अर्थात् बहुमत का शासन। लॉक की धारणा यह थी कि सामुदायिक कार्य प्रणाली का सिद्धांत यह है कि बहुमत की बात मानी जानी चाहिए। यह व्यावहारवादी दृष्टि से आवश्यक ही नहीं है, अपितु इसके अभाव में सामूहिक कार्य का संपादन असंभव हो जाता है। उसके मत में ‘जन-समूह’ का कार्य उसके व्यक्तियों की सलाह ही है और यह भी आवश्यक है कि संपूर्ण को एक ही दिशा की ओर जाना चाहिए। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि संपूर्ण को उसी दिशा की ओर बढ़ना चाहिए जिस दिशा को अधिक शक्ति ले जाती है और यह शक्ति बहुमत की सहमति है। लॉक की धारणा के अनुसार मूल संविदा में यह तत्त्व निहित था कि व्यक्तिगत सदस्यों तथा अल्पसंख्यकों को बहुमत की बात माननी चाहिए, अन्यथा समाज को एकता नष्ट हो जाएगी।
लॉक के ‘बहुमत के शासन’ के सिद्धान्त की बहुत आलोचना हुई है। सम्भवतः वह ‘बहुमत के अत्याचार’ जैसी धारणा की कल्पना नहीं करता था। साथ ही यह मानना भी उचित नहीं है कि लॉक का उद्देश्य यह बताना था कि यदि बहुमत का शासन नहीं रहेगा तो समाज नष्ट हो जाएगा। लॉक अल्पसंख्यकों के शासन से अनभिज्ञ नहीं था, उसके मतानुसार यदि बहुमत का शासन नहीं होगा तो अल्पसंख्यक शासन करेंगे, तब भी समाज के नष्ट होने का प्रश्न नहीं उठ सकता। परंतु लॉक का उद्देश्य केवल यह दर्शाना था कि अल्पसंख्यकों का शासन समाज की उत्तमता के लिए अनुचित होगा। लॉक का उद्देश्य समाज को एक व्यक्ति या अल्पसंख्यकों के अत्याचारों से सुरक्षित रखने की धारणा को दर्शाना था। इससे लॉक की लोकतन्त्रवादी धारणा स्पष्ट होती है क्योंकि लोकतंत्र की कार्यान्वित में बहुमत के शासन के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प संभव नहीं है। यदि लोकतंत्र को समस्त जनता की सहमति द्वारा शासन माना जाय, तो लॉक इस तथ्य से भी अनभिज्ञ नहीं था कि किसी विषय पर समस्त जनता का एकमत हो सकना असंभव है। यदि प्रत्येक व्यक्ति की स्वेच्छा तथा अपनी सहमति के अनुसार कार्य करने को स्वतंत्र माना जाय, तो वह बात प्राकृतिक स्थिति की द्योतक है। संविदा द्वारा व्यक्तियों ने प्राकृतिक स्थिति की ऐसी स्वतंत्रता का परित्याग किया है। अतः मूल संविदा में यह धारणा अन्तर्निहित है कि व्यक्ति बहुमत की सहमति के अनुसार शासित होंगे।
लेकिन लॉक ने नागरिकों को यह भी अधिकार दिया है कि अगर शासन व्यवस्था उनके प्राकृतिक अधिकारों, यथा मानव स्वतंत्रता, जीवन तथा संपत्ति की रक्षा करने में असमर्थ है या इन प्राकृतिक अधिकारों से नागरिकों को वंचित करता है, तो कोई भी नागरिक शासन व्यवस्था का विरोध कर सकता है। लॉक ने शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए जहां संविदा और संविधान का जिक्र किया है, वहीं पृथक्करण सिद्धांत के आधार पर सरकार के विभिन्न अंगों-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका की अलग-अलग शक्ति का भी उल्लेख किया है। साथ ही वह संसद की सर्वोत्तम तथा राजा की शक्ति को मर्यादित करने की धारणा भी व्यक्त करता है।
वैसे राजनीतिक सिद्धांतों के इतिहास में लॉक के विचारों को मौलिक नहीं माना जाता है, लेकिन लॉक ने अपने पहले के विचारकों के विचारों को व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत कर बहुमत पर आधारित एक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की सुदृढ़ नींव रखी थी, जो आने वाले दिनों में फ्रांस की क्रांति और अमेरिका की क्रांति के बाद स्थापित शासन व्यवस्था का आधार बनी। अतः मेकफरसन का कहना उचित ही है कि, ‘लॉक की विचारधारा को किसी प्रकार के अयोग्य जनतंत्रीय सिद्धांत में परिवर्तित करना कठिन है।’
Question : व्यवहारवाद की मौलिक मान्यताओं का विवेचन कीजिए। व्यवहारवाद किस प्रकार व्यवहारवाद सिद्धांत से भिन्न है?
(1996)
Answer : व्यवहारवाद या व्यवहारवादी उपागम राजनीतिक तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण का एक विशेष तरीका है, जिसे द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिकी राजवैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया। यद्यपि इसकी जड़ें प्रथम महायुद्ध के भी पूर्व ग्राह्मम वालस और बैंडले आदि की रचनाओं में देखी जा सकती हैं। यह उपागम राजविज्ञान के संदर्भ में मुख्यतया अपना ध्यान राजनीतिक व्यवहार पर केंद्रित करता है और इस बात का प्रतिपादन करता। है कि राजनीतिक गतिविधियों का वैज्ञानिक अध्ययन, व्यक्तियों के राजनीतिक व्यवहार के आधार पर ही किया जा सकता है। व्यवहारवाद अनुभवनात्मक और क्रियात्मक है तथा इसमें व्यक्तिनिष्ठ मूल्यों और कल्पनाओं आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। व्यवहारवाद इस दृष्टि से परंपरावादियों के नितान्त विरुद्ध है कि वह राजविज्ञान को राज्य की कानूनी एवं दार्शनिक सीमाओं में बांधने के लिए तैयार नहीं है। व्यवहारवाद के अनुसार राज्य के बाहर भी सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र की जो संस्थाएं और सत्ताएं हैं और इन सबको प्रेरित करने वाली जा मानसिक व्यवहार है, उसका अध्ययन अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है। राबर्ट ए- डहल के अनुसार, ‘व्यवहारवादी क्रांति परंपरागत राजनीतिक विज्ञान की उपलब्धियों के प्रति असन्तोष का परिणाम है, जिसका उद्देश्य राजनीति विज्ञान को अधिक वैज्ञानिक बनाना है।’ व्यवहारवाद के समर्थक डेविड ईस्टन, लासवेल, आमंड कोलमैन हींजयूलाउ डॉयस, एडवर्ड शीलस, पोवेल आदि हैं।
किर्क पैट्रिक ने व्यवहारवाद के स्वरूप का स्पष्टता और विशदता के साथ विवेचन किया है। इसके अनुसार व्यवहारवाद की निम्न चार विशेषताएं हैं- (1) यह इस बात पर बल देता है कि राजनीतिक अध्ययन और शोध कार्य में विश्लेषण की मौलिक इकाई संस्थाएं न होकर व्यक्ति होना चाहिए। (2) यह सामाजिक विज्ञानों को व्यवहारवादी विज्ञानों के रूप में देखता है और राजनीति विज्ञान की अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ एकता पर बल देता है। (3) यह तथ्यों के पर्यवेक्षण, वर्गीकरण और माप के लिए अधिक परिशुद्ध प्रविधियों के विकास और उपयोग पर बल देता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि जहां तक संभव हो, सांख्यिकीय या परिमाणात्मक सूत्री-करणों का उपयोग किया जाना चाहिए। (4) यह राजनीतिक विज्ञान के लक्ष्य को एक व्यवस्थित आनुभविक सिद्धांत के रूप में परिभाषित करता है।
व्यवहारवाद का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विद्वान डेविड ईस्टन ने अपने लेख ‘The Current Meaning of Behaviouralism’ में व्यवहारवाद के मौलिक मान्यताओं को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया हैः
1. नियमन: व्यवहारवादी मानते हैं कि राजनीतिक व्यवहार में सामान्य तत्त्व ढूंढे जा सकते हैं, उन्हें राजनीति व्यवहार के सामान्यीकरणों अथवा सिद्धांतों के रूप में व्यक्त किया जा सकता है और इनके आधार पर मानवीय व्यवहार की व्याख्या और भविष्य के लिए संभावनाएं व्यक्त की जा सकती हैं।
2. सत्यापन: मानवीय व्यवहार के संबंध में एकत्रित सामग्री को पुनः जांचने और उसकी पुष्टि करने की क्रिया को सत्यापन कहते हैं। व्यवहारवादी अध्ययन पद्धति की एक विशेषता यह है कि उसके अंतर्गत एकत्रित की गयी सामग्री का सत्यापन किया जाता है।
3. तकनीकी प्रयोग: मानवीय व्यवहार का पर्यवेक्षण करने और उसका विश्लेषण कर परिणामों को अंकित करने के लिए कठोर शुद्धीकरण के साधनों को अपनाया जाना चाहिए। पर शुद्धीकरण की प्रक्रिया ज्ञान को विकासशीलता प्रदान करती है और इसके आधार से नये तथ्य प्राप्त किए जाने पर पुरानी सामग्री को अप्रमाणित ठहराया जा सकता है।
4. परिमाणनीकरण: उपलब्धियों के विवरण तथा आधार सामग्री को लेखबद्ध करने तथा उसमें सुस्पष्टता लाने के लिए मापन और परिमाणनीकरण किया जाना चाहिए। मापन और परिमाणनीकरण का यह कार्य उनके अपने लिए नहीं, वरन् अन्य प्रयोजनों के प्रकाश में किया जाना चाहिए।
5. मूल्य निर्धारण व आदर्श निर्माण: सामान्यतः व्यवहारवादी मूल्यों की दृष्टि से तटस्थ रहना चाहते हैं, फिर भी नैतिक मूल्यांकन के कुछ मूल्यों व आदर्शों का प्रतिपादन और प्रयोग आवश्यक हो जाता है। इस संबंध में अपनाये गये मूल्यों व आदर्शों को अध्ययनकर्ता के मूल्यों व आदर्शों से अलग रखा जाना चाहिए और सामान्य मूल्य व आदर्श अध्ययनकर्त्ता के मूल्यों व आदर्शों से अप्रभावित रहने चाहिए।
6. व्यवस्थाबद्धीकरण: अनुसंधान आवश्यक रूप से क्रमबद्ध होना चाहिए अर्थात् सिद्धांत एवं अनुसंधान को संबद्ध और क्रमबद्ध ज्ञान के दो ऐसे भाग समझा जाना चाहिए जो परस्पर गुंथे हुए हैं। सिद्धांत से अशिक्षित अनुसंधान निरर्थक हो जाता है और आंकड़ों से असमर्थित सिद्धांत निरर्थक होगा। वस्तुतः सिद्धांत और तथ्य एक-दूसरे से अपृथकनीय होते हैं।
7. विशुद्ध ज्ञान: ज्ञान का प्रयोग वैज्ञानिक उद्यम का भी उतना ही अंग है जितना कि सिद्धांतात्मक बोध का। लेकिन तार्किक रूप में राजनीतिक व्यवहार का बोध और व्याख्या पहले ही आते हैं और एक ऐसा आधार प्रदान करते हैं जिनके बल पर समाज की महत्वपूर्ण व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की जा सकती है।
8. समग्रता: व्यवहारवादियों की एक प्रमुख मान्यता यह है कि समस्त मानव व्यवहार एक ही पूर्ण इकाई है और उसका अध्ययन खंडों में नहीं होना चाहिए। व्यवहारवाद के अनुसार मानव व्यवहार में एक मूलभूत एकता पायी जाती है तथा इसी कारण विभिन्न समाज विज्ञान परस्पर अत्यंत समीप हैं। अतः राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन जीवन के अन्य पक्षों के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। राजनीति विज्ञान में व्यवहारवाद की जहां अपनी कुछ उपयोगिताएं रही हैं, वहां इसकी अनेक दुर्बलताएं भी हैं और इन दुर्बलताओं ने ही उत्तर व्यवहारवाद को जन्म दिया। व्यवहारवाद के प्रवक्ता डेविड ईस्टन ही उत्तर-व्यवहारवाद के भी प्रवक्ता रहे हैं। उनके अनुसार व्यवहारवाद के कारण राजनीति विज्ञान राजनीतिक जीवन की वास्तविक समस्याओं से अलग हटकर अवधारणात्मक ढांचों, मॉडलों और सिद्धांतों में उलझकर रह गया है। उत्तर-व्यवहारवाद में इस बात पर बल दिया गया कि राजनीतिक शोध जीवन की समस्याओं से प्रासंगिक और उन पर आधारित होने चाहिए, हमारा लक्ष्य सामाजिक स्थिरता नहीं वरन् परिवर्तन होना चाहिए, तथा मूल्यों को समस्त अध्ययन में केंद्रीय स्थिति प्रदान की जानी चाहिए।
व्यवहारवाद एवं उत्तर-व्यवहारवाद में भिन्नता
(i)व्यवहारवादियों ने अध्ययन विषय की अपेक्षा अध्ययन की प्रविधि पर अधिक बल दिया था, लेकिन उत्तर-व्यवहारवादियों ने इस सत्य को स्वीकार किया कि अध्ययन प्रविधि की अपेक्षा अध्ययन विषय अधिक महत्वपूर्ण हैं। दूसरे शब्दों में उत्तर-व्यवहारवादी इस बात पर बल देते हैं कि जब तक अनुसंधान समकालीन आवयक सामाजिक समस्याओं से संबद्ध और अर्थपूर्ण नहीं है, तब तक अनुसन्धान का प्रविधि पर विचार निरर्थक है। व्यवहारवादियों के इस नारे के स्थान पर कि ‘अस्पष्ट होने से गलत होना अच्छा है, उत्तर-व्यवहारवादियों ने यह नारा दिया है कि ‘अप्रासंगिक सुनिश्चिता से अस्पष्ट होना अच्छा है।’
(ii)व्यवहारवाद यथास्थिति के साथ जुड़ गया था, लेकिन उत्तर- व्यवहारवादियों की मान्यता है कि सामाजिक संरक्षण तथा यथास्थिति के स्थान पर सामाजिक परिवर्तन तथा गतिशीलता को अपनाया जाना चाहिए एवं सामाजिक परिवर्तन को गति एवं दिशा प्रदान की जानी चाहिए।
(iii)जहां व्यवहारवाद अमूर्त अवधारणाओं और विकल्पों के साथ जुड़ गया था, वहां उत्तर-व्यवहारवादी समाज की समकालीन समस्याओं से आंखें नहीं मूंद लेना चाहते। उनके अनुसार राजनीतिशास्त्र के औचित्य की पूर्णता इस बात पर निर्भर करती है कि वह मानव जाति की वास्तविक समस्याओं का समाधान करने की दिशा में आगे बढ़े।
(iv)व्यवहारवाद ने मूल्य निरपेक्षता पर बल देने के क्रम में राजनीति विज्ञान को प्रयोजनहीन बना दिया। लेकिन उत्तर व्यवहारवादियों का मानना है कि यदि ज्ञान को सही प्रयोजनों के लिए प्रयोग में लाना है, तो मूल्यों को उनकी केंद्रीय स्थिति प्रदान करनी होगी।
(v)जहां व्यवहारवाद अध्ययन विषय की तुलना में प्रविधि को अधिक महत्व देने के कारण वैज्ञानिक शोधकर्त्ता, तकनीशियन और प्रविधिज्ञ के साथ जुड़कर रह गया था, वहीं उत्तर-व्यवहारवादियों द्वारा मूल्यों तथा चिंतन को अधिक महत्व देने के कारण बुद्धिजीवियों का महत्व बढ़ा।
(vi)व्यवहारवाद की तुलना में उत्तर-व्यवहारवाद राजनीतिक विषयों के अध्ययनकर्त्ता को समाज के पुननिर्माण कार्य में रत रहने पर बल देता है।
इस तरह यह सरलतापूर्वक देखा जा सकता है कि उत्तर-व्यवहारवाद बहुत-सी मान्यताओं में व्यवहारवाद से भिन्न था। 1970 के बाद दोनों के बीच के पारस्परिक विरोध का अंत होने लगा और यह स्वीकार किया गया कि दोनों प्रवृत्तियों के बीच उचित समन्वय स्थापित करने पर ही राजनीति विज्ञान का अध्ययन वैज्ञानिकता के साथ-साथ सार्थकता की स्थिति को प्राप्त कर सकेगा।
Question : शक्ति और सत्ता में भेद बताइए। सत्ता पर आश्रित होने से शक्ति की प्रकृति पर क्या प्रभाव पड़ता है?
(1996)
Answer : रॉबर्ट डैल के मतानुसार शक्ति के अध्ययन की प्रमुख कठिनाई यह है कि इसके अनेक अर्थ होते हैं। वस्तुस्थिति यही है कि शक्ति को विभिन्न विचारकों ने अलग-अलग रूप से परिभाषित किया है। शक्ति की कुछ परिभाषाएं इस प्रकार हैंः
रॉबर्ट बायर्सटेड के अनुसार, ‘शक्ति बल प्रयोग की योग्यता है, न कि उसका वास्तविक प्रयोग।’ मैकाइवर ने कहा है कि ‘शक्ति होने से हमारा तात्यपर्य व्यक्तियों या व्यक्तियों के व्यवहार को नियन्त्रित करने, विनियमित करने या निर्देशित करने की क्षमता से है।’ मार्गेंथो ने ‘शक्ति में उस प्रत्येक वस्तु को शामिल किया है, जिसके द्वारा मनुष्य के ऊपर नियन्त्रण स्थापित किया एवं बनाये रखा जाता है।’ गोल्ड हैमर तथा शिल्स के कथनानुसार, ‘एक व्यक्ति को इतना ही शक्तिशाली कहा जाता है जितना कि वह अपने लक्ष्यों के अनुरुप दूसरों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है।’ रॉबर्ट ए. डैल के अनुसार ‘शक्ति लोगों के पारस्परिक सम्बन्धों की एक ऐसी विशेष स्थिति का नाम है जिसके अंतर्गत एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को प्रभावित कर उससे कुछ ऐसे कार्य कराये जा सकते हैं जो उसके द्वारा अन्यथा न किये जाते।’
दूसरी तरफ समाज विज्ञानों के अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान कोष के अनुसार सत्ता को कई प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। सत्ता की अनेक व्याख्याएं की गयी हैं, किंतु अपने सभी रूपों में सत्ता शक्ति, प्रभाव एवं नेतृत्व से जुड़ी हुई है। बायर्सटेड के अनुसार सत्ता शक्ति के प्रयोग का संस्थात्मक अधिकार है, वह स्वयं शक्ति नहीं है। बीच-दूसरों के कार्य निष्पादन को प्रभावित या निर्देशित करने के औचित्यपूर्ण अधिकार को सत्ता कहता है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार-सत्ता वह शक्ति है जो कि स्वीकृत, सम्मानित, ज्ञात एवं औचित्यपूर्ण हो। हरबर्ट साइमां के अनुसार सत्ता के अंतर्गत वरिष्ठ एवं अधीनस्थ के व्यवहार आते हैं। सत्ता का अस्तित्व तब और केवल तब ही माना जाता है, जबकि ऐसा संबंध उन दोनों के बीच में स्थित हो। यदि अधीनस्थ के व्यवहार में परिवर्तन नहीं दिखायी देता है, तो कोई सत्ता नहीं मानी जाती, चाहे संगठन के ‘कागजी’ सिद्धांत कुछ भी क्यों न हों। वास्तव में सत्ता-स्थिति के अंतर्गत दो प्रकार के व्यवहार होते हैं: (1) आदेशों के अनुपालन की प्रत्याशा तथा (2) आदेशों के अनुपालन की इच्छा।
शक्ति और सत्ता में भेद: राजनीतिक संगठन उन संरचनाओं द्वारा निर्मित होते हैं जो कि बल के प्रयोग का नियमन करती हैं तथा सामाजिक सहयोग और नेतृत्व से संबंधित होती हैं। इनमें शक्ति और सत्ता का महत्वपूर्ण स्थान होता है। शक्ति व्यक्तियों, समूहों तथा भौतिक परिस्थितियों के प्रतिरोध के होते हुए भी स्वतन्त्र कार्य करने की क्षमता का नाम है। यह आदेश देने की क्षमता है। उसे अपनी इच्छा को प्रभावशाली ढंग से पूर्ण करने की योग्यता के रूप में देखा जा सकता है और यदि आवश्यकता पड़े तो दूसरों पर थोपा जा सकता है। इतिहास में अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिनमें दूसरे राज्यों पर अनधिकृत रूप से अधिकार किया गया अथवा उन पर विजय प्राप्त की गयी, किंतु बाद में धीरे-धीरे उन्हें जनस्वीकृति प्राप्त हो गयी और वे सत्ता बन गये। सत्ता के बिना शक्ति असंस्थायीकृत, असाधनात्मक, परिस्थितिजन्य एवं अनिश्चित होती है। सत्ता संस्थायीकृत होने के कारण अपने विषय-क्षेत्र और प्रकृति से निश्चित होती है, उसके निर्देशों को बाध्यकारी मानकर पालन किया जाता है। सत्ता निश्चित, स्पष्ट तथा प्रकट होती है इसलिए उसका विभिन्न स्तरों पर व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा समूहों में प्रत्यायोजन किया जा सकता है। शक्ति में इस प्रकार की स्पष्टता एवं निश्चितता का अभाव होता है।
चार्ल्स ई. मेरियम ने अपनी पुस्तक ष्च्वसपजपबंस च्वूमतष् में शक्ति और सत्ता में कोई भेद नहीं किया है, लेकिन वास्तव में इस प्रकार का दृष्टिकोण उचित नहीं है क्योंकि शक्ति, दामन का एक यंत्र है और इसका प्रभाव भौतिक होता है। सत्ता सहमति पर आधारित हो सकती है और इसके साथ ही अधिक प्रभावशाली भी हो सकती है। अनेक राजनीतिक और सामाजिक संस्थाएं ऐसी हैं जो कि बहुत अधिक सत्ता का प्रयोग करती हैं किंतु केवल सहमति पर आधारित हैं। शिक्षक, पत्रकार और जनसेवक की सत्ता सहमति पर आधारित नहीं होती है, फिर भी उनका बहुत अधिक सम्मान किया जाता है।
उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट है कि सत्ता संस्थायीकृत होती है और इसका विषय क्षेत्र और प्रकृति भी निश्चित होती है, उसके निर्देशों को बाध्यकारी मानकर पालन किया जाता है। सत्ता निश्चित, स्पष्ट तथा प्रकट होती है, इसलिए उसका विभिन्न स्तरों पर व्यक्तियों, संस्थाओं अथवा समूहों में प्रत्यायोजन किया जा सकता है। साथ ही कोई भी सत्ता जनस्वीकृति की विशेषता पर आधारित होती है, जबकि शक्ति के साथ ऐसा नहीं होता है और उसकी स्पष्टता एवं निश्चितता का भी अभाव होता है। इसलिए जब शक्ति सत्ता पर आश्रित होती है तो शक्ति भी निश्चित, स्पष्ट एवं सुव्याख्यायित हो जाती है तथा उसे जनस्वीकृति भी प्राप्त हो जाती है। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझा जा सकता है, किसी लोकतन्त्रत्मक शासन व्यवस्था में एक दबाव समूह को सरकारी नीतियों को प्रभावित करने की बहुत शक्ति होती है, मगर उसकी यह शक्ति निश्चित, स्पष्ट एवं जनस्वीकृत नहीं होती है। लेकिन जब यही दबाव- समूह सत्ता में आ जाता है या सरकार बना लेता है, तब उसकी शक्ति सत्ता पर आश्रित हो जाती है और स्पष्ट, निश्चित एवं जनस्वीकृत हो जाती है।
राजनीतिक व्यवस्थाओं और संगठनों में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जबकि वरिष्ठ व्यक्ति के पास केवल सत्ता है और अधीनस्थ या कनिष्ठ व्यक्तियों के पास शक्ति, लेकिन यह अवांछित स्थिति ही है। इन दोनों का उचित सन्तुलन राजनीतिक की एक शाश्वत समस्या है जिसे सफल नेतृत्व के द्वारा ही सुलझाया जा सकता है। राजनीति व्यवस्था और संगठनों में सत्ता और शक्ति को सामान्य रूप से संयुक्त किया जाता है और ऐसा किया जाना आवश्यक भी है क्योंकि अत्यन्त लोकप्रिय शासक को भी शासन-सत्ता के संचालन के लिए सत्ता और शक्ति दाेनों की आवश्यकता होती है।
Question : ‘व्यक्ति के शासन से विधि का शासन बेहतर है।’(अरस्तू)
(1995)
Answer : अरस्तू प्लेटो का शिष्य था, लेकिन मैक्सी के अनुसार, ‘जहां प्लेटो हमें एक आदर्श राज्य का आभास कराता है, वहीं अरस्तू हमें उस सामग्री को प्रदान करता है जिसके द्वारा परिस्थितियों की अनुकूलता का अवलंबन करते हुए एक आदर्श राज्य का निर्माण किया जा सके।’ इस दृष्टि से प्लेटो आदर्शवादी तथा अरस्तू यथार्थवादी है। अरस्तू ने राजतंत्र के गुण-दोषों का विवेचन दो सिद्धांतों के आधार पर किया है। यदि राजा का व्यक्तिगत शासन हो, तो उसमें उपक्रम (initiative) का गुण होता है। अतएव राज्य के शासकों को भ्रष्ट होने से बचाने का उपाय यही है कि उनके ऊपर कानून की प्रभुसत्ता बनी रहे, क्योंकि कानून वासनाविहीन विवेक है। जिस राजतंत्र को अरस्तू सर्वोत्तम मानता है वह वैधानिक राजतंत्र है, न कि स्वेच्छाचारी तंत्र’ जो एक अत्याचारी शासन होता है।
सैबाइन के मत में ‘अरस्तू कानून की सर्वोच्चता को एक उत्तम राज्य के लक्षण के रूप में स्वीकार करता है, न कि केवल एक दुर्भाग्यपूर्ण आवश्यकता के रूप में।’ सैबाइन के अनुसार अरस्तू द्वारा वर्णित विधि के शासन में तीन तत्त्व विद्यमान हैं- (1) यह जनसाधारण के हित में सम्पन्न होता है, न कि किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष के हित में (2) यह विधिगत शासन है क्योंकि इसमें शासक प्रचलित परंपराओं का उल्लंघन नहीं कर सकते तथा (3) यह शासितों की इच्छा के अनुकूल सम्पन्न होता है, न कि शासकों की इच्छा या शक्ति के आधार पर। परन्तु, अरस्तू इन तत्त्वों का परीक्षण क्रमबद्ध ढंग से नहीं करता, न ही उसने कहीं पर वैधानिक शासन की परिभाषा दी है। परंतु, उसका विश्वास है कि ‘कानून तथा न्याय से परिपूर्ण मानव समस्त जीवों में श्रेष्ठतम होता है, परंतु इनसे पृथक् होने पर वह सबसे निकृष्टतम रह जाता है।’
Question : ‘अंत में हर मनुष्य की लगातार सफलता उन चीजों को पाने पर है, जिन्हें वह समय-समय पर चाहता है।’ (हॉब्स)
(1995)
Answer : उपर्युक्त वक्तव्य में हॉब्स मनुष्य की चाहत पर अधिक बल देते हुए यह बताता है कि मनुष्य की लगातार सफलता इन चाहतों को प्राप्त करने से ही निर्धारित होती है। हॉब्स के अनुसार प्रकृतिवश मनुष्य स्वार्थी और झगड़ालू होता है। अतः यह संभव नहीं था कि प्राकृतिक स्थिति में कोई भी मनुष्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर पाता क्योंकि उस समय मनुष्य-मनुष्य के बीच संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी। इस स्थिति का अंत राज्य की स्थापना के बाद ही संभव हो सका। शक्तिशाली संप्रभु राज्य की स्थापना का समर्थन कर हॉब्स व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विरोध नहीं करता है। उसके मत से व्यक्ति अनेक स्वतंत्रताओं का उपयोग कर सकते हैं। वे उन समस्त कार्यों को करने के लिए स्वतंत्र हैं जिन्हें सुरक्षा के हित में संप्रभु राज्य अमान्य नहीं करता।
हॉब्स की सरकार जनता के लिए है, भले ही वह जनता द्वारा संचालित नहीं है। हॉब्स की विचारधारा में शासन का स्वरूप पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष तथा उपयोगितावादी है। उसका महत्व उसके कार्यों के द्वारा आंका जा सकता है। उसे वास्तव में व्यक्तियों के लिए लाभकारी होना चाहिए ताकि वह व्यक्ति को शांति, सुख तथा जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा प्रदान कर सके। हॉब्स की दृष्टि में ‘सार्वजनिक इच्छा की भांति सामान्य तथा सार्वजनिक हित की धारणा एक कपोल कल्पना मात्र है, एकमात्र हित व्यक्तियों का है जिन्हें अपने जीवन के साधनों के रूप में सुरक्षा प्राप्त हो सके। यदि ऐसा नहीं होता तो समाज में अराजकता छा जाती है।’ इस प्रकार हॉब्स का एकमात्र उद्देश्य व्यक्ति का हित साधन है और ऐसे समाज में व्यक्ति को वह हर चीज प्राप्त होती है जिसे वह चाहता है और लगातार प्राप्त करता है, व्यक्ति के कल्याण तथा व्यक्ति की सुरक्षा के लिए ही वह निरंकुश राजतंत्र को एकमात्र सर्वोत्तम तथा व्यावहारिक व्यवस्था मानता है।
Question : ‘दंड न होकर निरोधात्मक एवं सुधारक होना चाहिए।’ (बेन्थम)
(1995)
Answer : बेंथम स्वयं एक विधिवेत्ता था। उसके समय में दंड तथा व्यवहार संहिताएं उपयोगिता के सिद्धांत की दृष्टि से दोषपूर्ण थीं। छोटे-छोटे अपराधों के लिए भी कठोर तथा अमानवीय दंड की व्यवस्था थी। साथ ही दंड का उद्देश्य भी उपयोगिता के सिद्धान्त से असंगतिपूर्ण था। दंड का उद्देश्य प्रतिशोध या निवारक था। बेंथम का यह भी मत था कि दंडात्मक कानून उन लोगों के द्वारा बनाये जाते रहे हैं, जो सामाजिक जीवन में उच्चतर स्थिति रखते हैं। अतः दंडात्मक कानून जनसाधारण के लिए कठोर था और उसका उद्देश्य निम्न वर्ग को दंड से भयभीत रखकर उच्च वर्ग को लाभ पहुंचाना था। बेंथम ने यह अनुभव किया कि अनेक अपराधों के लिए तो दंड देना ही उचित नहीं था। दंड का उद्देश्य अधिकतम सुख की उपलब्धि कराना होना चाहिए। दंड देने से पूर्व अपराधी के उद्देश्य, परिस्थितियों, मानसिक स्थिति आदि बातों का भली-भांति विचार कर लेना चाहिए और उनके आधार पर ही दंड को निर्धारित किया जाना चाहिए।
बेंथम का मत था कि दंड व्यवस्था प्रतिकारात्मक होने की बजाय विरोधात्मक और सुधारात्मक होनी चाहिए। ऐसी व्यवस्था हो जिससे अपराधियों को अपराध करने से रोका जा सके और जिसने अपराध कर लिया है उसे सुधारा जा सके। बेंथम ने दंड-व्यवस्था में सुधार के साथ-साथ जेलों की व्यवस्था में सुधार करने और अपराधियों को मुक्ति मिल जाने के बाद उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने की भी वकालत की। ऐसा करने से ही अपराधियों को सुधारा जा सकता है।
Question : ‘लंबे समय में राज्य की वकत (worth) उन व्यक्तियों की वकत है जो उसके भाग हैं।’ (जे.एस. मिल)
(1995)
Answer : मिल समाज की विभिन्न संस्थाओं की भांति राज्य को भी एक सामाजिक संस्था के रूप में मानता है। परंतु मिल न तो राज्य की धारणा के संबंध में दार्शनिक ढंग से चिंतन करता है और न ही राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धांत को अमान्य करता है। इसे वह एक यांत्रिक धारणा मानता है जिसके अंतर्गत मानव की इच्छा तथा व्यक्तित्व के महत्व की उपेक्षा की गयी थी। मिल के मत में राज्य मानवों की इच्छा की उपज है, न कि किसी हित विशेष की। मिल राज्य की उत्पत्ति को मानवों की आवश्यकताओं की पूर्ति के निमित्त मानव इच्छा के परिणामस्वरूप हुआ मानता है जिसके विकास-क्रम में मानव की चेतना, इच्छा, व्यक्तित्व एवं परिस्थितियां प्रभाव डालती रहती हैं।
राज्य के स्वरूप के संबंध में मिल राज्य के सावयवस्वरूप की कल्पना नहीं करता, राज्य संबंधी धारणा यांत्रिक है। परंतु मिल का राज्य रूपी यंत्र सचेतन है जिसमें राज्य का स्वरूप विकसित होता रहता है। मिल की दृष्टि में राज्य एक नैतिक संस्था है। अन्य व्यक्तिवादियों की भांति मिल राज्य के केवल निषेधात्मक स्वरूप को स्वीकार नहीं करता। उसके मत में राज्य का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के सम्मान तथा व्यक्तित्व का विकास करना है। अतः राज्य व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास में सहायता पहुंचाने के लिए किसी न किसी रूप में हस्तक्षेप करने का अधिकार रखता है, क्योंकि ‘लंबे समय में राज्य की वकत (worth) उन व्यक्तियों की वकत है जो उसके भाग हैं।’
Question : राजनीति विज्ञान में तथ्य मूल्य के द्विभागीकरण का परीक्षण कीजिये। उत्तर- व्यवहारवाद ने किस हद तक इसे हल किया है?
(1995)
Answer : राजनीति विज्ञान विविध विषयों का अध्ययन अनुभवसिद्ध तथ्यों और मूल्य वरीयता के अनुसार करता है। तथ्यों का प्रश्न, ‘क्या है’ से संबंधित होता है, जबकि मूल्य वरीयता ‘क्या होना चाहिए’ से संबंधित होता है। विषय क्षेत्र की लम्बे समय से चली आ रही स्थिति से असंतोष और मूल्य निर्णय में अधिक लगे रहने के कारण राजनीति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र और इसके अध्ययन पद्धतियों के बारे में विवाद बढ़ने लगा। एक प्रकार की अनुभव प्रेरित और मूल्य स्वतंत्र वैज्ञानिक राजनीति का विकास करने का प्रयत्न किया गया जिससे यह एक प्राकृतिक विज्ञान की तरह का विषय बन सके। तीन तरह के विचारों द्वारा राजनीतिक विज्ञान के विषय वस्तु को परिभाषित किया गया। प्रथमतः राजनीति विज्ञान में मूल्य आधारित विचार-विमर्श की एक लंबी परंपरा है। इस तरह की परंपरा में दार्शनिकों द्वारा ‘क्या होना चाहिए’ पर ज्यादा ध्यान दिया गया। प्लेटो और अरस्तू के दिनों से राजनीतिक दर्शनशास्त्रियों ने ‘राज्य का आकार क्या होना चाहिए’, ‘इसके लक्ष्य और उद्देश्य क्या होने चाहिए’ तथा ‘नागरिकों के क्या अधिकार और कर्त्तव्य होने चाहिए’ आदि प्रश्नों को उठाया। स्वीकृत आदर्शों और मूल्यों के आधार पर राजनीतिक संरचना, प्रक्रियाओं और व्यवहार के बारे में साधारणीकरण करने का प्रयास किया गया। ये साधारनीकरण आवश्यक रूप से मूल्य आधारित थे, न कि अनुभवसिद्ध प्रेरित। हालांकि यह कहना गलत होगा कि इस उपागम का अनुसरण करने वाले सभी परंपरावादियों ने राजनीतिक वास्तविकताओं को पूर्णतः अमान्य किया। उदाहरण के लिए, अरस्तू तुलनात्मक आधार पर राज्यों के संविधान में दिलचस्पी रखते थे। यह सही है कि परंपरावादियों की प्रमुख चिंता कमोबेश लक्ष्यों और मूल्यों के बारे में ही रही, और इसलिए इस उपागम को विस्तृत रूप में ‘आदर्शवादी’ कहा गया है।
राजनीतिक घटना के विश्लेषण की द्वितीय प्रवृत्ति प्रमुखतः ‘अनुभवसिद्ध’ रही है। इस वर्ग की मुख्य चिंता राजनीतिक दृष्टि से उचित वस्तुओं और संस्थाओं का विवरण देना और तथ्यों के बीच उल्लेखनीय संबंधों को स्थापित करना है। राजनीतिक व्यवस्थाओं के वास्तविक प्रकार क्या हैं, कैसे राजनीतिक शक्ति का वास्तविक वितरण होता है, व्यवहार में निर्णय कैसे लिए जाते हैं आदि जैसे प्रश्न उठाए गये हैं। यहां प्रमुख रोशनी राजनीतिक व्यवस्थाओं के वास्तविक प्राकृतिक संरचना और कार्य पर डाला गया। तथ्यों पर आधारित प्रस्तावों और साधारणीकरण के निर्माण के प्रयास के कारण इस तरह का विचार-विमर्श ‘अनुभवसिद्ध’ कहलाता है।
तीसरा, एक विशेष प्रकार का विचार-विमर्श है जो निर्देशित परिवर्तन और सुधार में दिलचस्पी रखता है। वस्तुतः यह आदर्शवादी और अनुभवसिद्ध विचारों का संयोग है। यह अपने दृष्टिकोण में संयोगवादी है। यह ‘क्या है’ और ‘क्या होना चाहिए’ के बीच के खाली स्थान को भरने का प्रयास करता है। राजनीतिक सुधार के लिए प्रस्ताव (जैसे कि दलबदल निरोधक उपाय) और राजनीतिक सुधार करने के लिए कार्यक्रम (जैसे- भारत में राष्ट्रपति शासन बनाम संसदीय शासन) प्रमुख रूप से आदर्शवादी मान्यताओं पर आधारित हैं। साथ ही साथ यह तथ्यात्मक आंकड़ों के परीक्षण और मूल्यांकन में भी लगा रहता है।
उपर्युक्त वर्णित तीनों अध्ययन पद्धतियां सभी राजनीतिक घटनाओं से संबंधित विचार-विमर्शों में पायी जा सकती हैं। कोई तथ्य और मूल्य पर कम जोर देता है, तो कोई सिर्फ तथ्यों पर, तो कोई दोनों में उचित संबंध बनाए रखने का प्रयास करता है। राजनीति विज्ञान में राजनीतिक तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण एवं व्यक्तिनिष्ठ मूल्यों को त्याग कर राजनीति विज्ञान को एक वैज्ञानिक स्वरूप देने का प्रयास व्यवहारवादी उपागम या व्यवहारवाद के तहत किया गया। व्यवहारवाद का विकास द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिकी राजनीतिज्ञों द्वारा किया गया। यद्यपि इसकी जड़ें प्रथम महायुद्ध से पूर्व ही ग्राहम वालस और बैंज्ले की रचनाओं में देखी जा सकती हैं।
तथ्यात्मक मूल्यों के द्विभागीकरण (dichotomy) का आरंभ वस्तुतः व्यवहारवाद के आगमन के साथ ही हुआ। व्यवहारवादी उपागम में जहां तथ्यों पर बहुत अधिक बल दिया गया, वहीं मूल्यों को त्यागा गया अर्थात राजनीतिक घटनाओं के अध्ययन में मूल्य निरपेक्षता की नीति अपनायी गयी। उनकी यह नीति राजनीति विज्ञान को प्राकृतिक या भौतिक विज्ञानों के समकक्ष बनाने का प्रयास था। लेकिन दुर्भाग्यवश, व्यवहारवादी इस बात को भुला देते हैं कि प्राकृतिक विज्ञानों और राजनीति विज्ञान के तथ्यों में बहुत बड़ा अंतर है। राजनीति विज्ञान के तथ्य प्राकृतिक विज्ञानों के तथ्यों की तुलना में बहुत अधिक जटिल, अत्यधिक परिवर्तनशील, न्यूनमात्र में परिवेक्षणीय, कम समरूप और कार्य के उद्देश्य से परिपूर्ण होते हैं। इन कारणों से राजनीति विज्ञान को प्राकृतिक या भौतिक विज्ञानों के समकक्ष बनाने का प्रयास अत्यंत कठिन है।
व्यवहारवाद की दूसरी सबसे प्रमुख कमजोरी उसकी मूल्य निरपेक्षता है, जिसके फलस्वरूप राजनीति विज्ञान नीति निर्माण, सक्रिय राजनीति, समाज की तात्कालिक और दूरगामी समस्याओं आदि से पूर्णतया पृथक हो गया है। यदि मूल्य निरपेक्षता ही हमारा ध्येय है, तो फिर प्रजातंत्र और तानाशाही जैसी व्यवस्थाएं बिल्कुल समान हो जाती हैं और एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसे आर्नल्ड वैश्ट ने ‘बीसवीं सदी की दुखांत घटना’ कहा है। इस संबंध में जेम्स ए. गोल्ड एवं विन्सेंट थर्स्बी नितांत प्रासंगिक रूप में पूछते हैं कि ‘बिना किसी उद्देश्य के किया गया कोई कार्य राजनीतिक कैसे हो सकता है?’ मूल्यों से बचने का प्रयत्न तो मूल्यहीनता की खुली छूट देने के समान है।
व्यवहारवाद की उपर्युक्त वर्णित दुर्बलताओं ने ही ‘उत्तर व्यवहारवाद’ को जन्म दिया है। डेविड ईस्टन, जो कि व्यवहारवाद का एक प्रणेता रहा है, ने 1960 में व्यवहारवाद पर प्रबल प्रहार किया। यह देखा गया है कि व्यवहारवाद के कारण राजनीति विज्ञान राजनीतिक जीवन की वास्तविक समस्याओं से अलग हट कर अवधारणात्मक ढांचों, मॉडलों और सिद्धांतों में उलझ कर रह गया है। अतः उत्तर व्यवहारवाद में इस बात पर बल दिया गया कि राजनीतिक शोध, जीवन की समस्याओं से प्रासंगिक और उन पर आधारित होनी चाहिए। हमारा लक्ष्य सामजिक स्थिरता नहीं, वरन् सामाजिक परिवर्तन होना चाहिए तथा मूल्यों को समस्त अध्ययन में केंद्रीय स्थिति प्रदान की जानी चाहिए। उत्तर व्यवहारवादियों के अनुसार बौद्धिक धर्म की समाज में एक निश्चित और महत्वपूर्ण भूमिका है और ज्ञान का उपयोग जीवन के लिए किया जाना चाहिए। उत्तर व्यवहारवाद में तथ्य-मूल्य द्विभागीकरण के विवाद को खत्म किया गया और तथ्यों को महत्वपूर्ण मानते हुए मूल्यों को केन्द्रीय स्थिति दी गयी।
डेविड ईस्टन ने उत्तर व्यवहारवाद के दो प्रमुख दायित्व प्रस्तुत किये हैं: (I) औचित्यपूर्णता, और (II) कर्म। ईस्टन ने ही उत्तर व्यवहारवाद की सात विशेषताएं बतलायी हैं, जिन्हें वह औचित्यपूर्णता सिद्धांत’ (Relevance of Credo) कहता है। उत्तर व्यवहारवाद की ये विशेषताएं हैंः (1) अध्ययन प्रविधि की अपेक्षा अध्ययन विषय को अधिक महत्वपूर्ण माना गया। (2) सामाजिक परिवर्तन पर अधिक बल दिया गया। (3) यह माना गया कि राजनीतिशास्त्र की औचित्यपूर्णता इस बात पर निर्भर करती है कि वह मानव जाति की वास्तविक समस्याओं का समाधान करने की दिशा में आगे बढ़े। (4) यह स्वीकारा गया कि यदि ज्ञान को सही प्रयोजनों के लिए प्रयोग में लाना है, तो मूल्यों को उनकी केंद्रीय स्थिति प्रदान करनी होगी। (5) मूल्यों तथा चिंतन के महत्व को स्वीकारने के साथ-साथ बुद्धजीवियों की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना गया। (6) राजनीति विज्ञान को एक कर्मनिष्ठ विज्ञान कहा गया और माना गया कि राजनीतिक विषयों के अध्ययनकर्ता को समाज के पुनर्निर्माण में रत रहना चाहिए। (7) सभी व्यवसायों का राजनीतिकरण करना चाहिए।
1907 ई. के बाद व्यवहारवादियों तथा उत्तर व्यवहारवादियों के बीच पारस्परिक विरोध की स्थिति समाप्त हो गयी। व्यवहारवाद की इस बात को स्वीकार कर लिया गया कि राजनीति विज्ञान में अधिकाधिक मात्र में आनुभाविक अध्ययन और परिशुद्ध परिणाम देने वाली पद्धतियों को अपनाते हुए इसे सही अर्थों में विज्ञान की स्थिति प्रदान करने की चेष्टा की जानी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही यह मान लिया गया कि राजनीति का ज्ञान वास्तविक राजनीतिक जीवन की समस्याओं और जटिलताओं से अलग रह कर नहीं किया जा सकता तथा समस्त राजनीतिक अध्ययन में मूल्यों को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त होनी चाहिए। व्यवहारवादी तथा उत्तर व्यवहारवादी प्रवृत्तियों अर्थात् तथ्यों और मूल्यों के बीच उचित समन्वय स्थापित करने पर ही राजनीति विज्ञान का अध्ययन वैज्ञानिकता और सार्थकता की स्थिति को प्राप्त कर सकेगा।
Question : राजनीतिक सिद्धांतों में बाध्यता के महत्व का परीक्षण कीजिए।
(1995)
Answer : राज्य की सदस्यता अनिवार्य है और कोई भी व्यक्ति इस विवशता से बच नहीं सकता। लेकिन क्या वह अपने राज्य के सभी कार्यों को मानने के लिए बाध्य है? क्या व्यक्ति अपने विवेक के आधार पर राज्य के कानून का विरोध कर सकता है? संक्षेप में यही राजनीतिक ‘बाध्यता’ की समस्या है। राजनीतिक सिद्धांतों में व्यक्ति (नागरिक) और राज्य के बीच के संबंधों को समझने में ‘बाध्यता’ का काफी महत्वपूर्ण स्थान है। कानूनी दृष्टि से एक नागरिक राज्य के सभी व्यक्त किये गये इच्छा को मानने के लिए बाध्य है। राज्य संप्रभु शक्ति का एक विशिष्ट स्रोत है, जिससे विधि की उत्पत्ति होती है। अतः राज्य को ऐसी शक्ति प्राप्त होती है जिसके द्वारा वह अपने नागरिकों को अपने कानूनी नियमों में बांधता है। लेकिन यह पूर्णरूपेण वैधानिक उपागम है। राजनीतिक बाध्यता की व्याख्या में वैधानिक सिद्धांत अपर्याप्त है, क्योंकि यह विधि का सिद्धांत है, न कि राजनीति का।
राजनीतिक विचार के विभिन्न धाराओं ने राजनीतिक बाध्यता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। दैवीय अधिकार के सिद्धांत, जिसने अपना तार्किक विकास थॉमस एक्विनेश के विचारों में प्राप्त किया, के अनुसार मानवीय विधि दैवीय उत्पत्ति का ही परिणाम है। अतः सभी नागरिकों को राज्य, जो दैवीय शक्तियों के कारण अस्तित्व में आया है, के कानूनों को अनिवार्य रूप से मानना चाहिए। दूसरी तरफ राज्य की उत्पत्ति से संबंधित सामाजिक समझौते के सिद्धांत के अनुसार चूंकि राज्य व्यक्तियों के आपसी समझौते का ही परिणाम है, इसलिए नागरिकों को राज्य के कानून को आवश्यक रूप से मानना चाहिए। सामाजिक समझौतावादी सिद्धांत स्पष्ट रूप से नागरिकों को अपने राज्य के आदेशों/कानूनों को मानने के लिए बाध्य कर देता है। इसका मानना है कि यह बाध्यता इसलिए है कि राज्य की उत्पत्ति के लिए जो समझौता किया गया था, वह बना रहे। लेकिन उपर्युक्त वर्णित दोनों ही सिद्धांत कल्पनाओं पर आधारित अनैतिहासिक और अमूर्त विचार हैं। अतः राजनीति में अनुभवसिद्ध विचारों के उदय के साथ ही इन सिद्धांतों (दैवीय और सामाजिक समझौते के सिद्धांतों) को बहुत हद तक त्याग दिया गया है।
हीगेल जैसे आदर्शवादियों ने राज्य को ‘विवेक बुद्धि का मूर्तरूप’ और ‘स्वतंत्रता की वास्तविकता’ माना है और कहा है कि स्वतंत्रता की संकल्पना राज्य के कानूनोंके अन्तर्गत ही है। अतः ‘हिगेलियन राज्य’ में एक व्यक्ति कानून को मानने के लिए बाध्य होता है। इस विचारधारा के अनुसार, एक व्यक्ति का राज्य के विरुद्ध जाना असंभव है। वह पूरी तरह से राज्य के कानून के अन्तर्गत रहता है।
मार्क्सवादी सिद्धांत, जो आर्थिक निर्धारणवाद पर यकीन करता है, राजनीतिक बाध्यता को एक खास दृष्टिकोण से देखता है। राजनीतिक बाध्यता की प्रकृति पूंजीवादी प्रणाली और समाजवादी प्रणाली में अलग-अलग होती है। पूंजीवादी प्रणाली में नागरिकों को राज्य के नीतियों का विरोध करने का अधिकार होता है, लेकिन जैसे ही एक पूंजीवादी राज्य समाजवादी राज्य में परिवर्तित हो जाता है, नागरिक इस अधिकार से वंचित हो जाते हैं। मार्क्सवाद, पूंजीवादी व्यवस्था में नागरिकों द्वारा राज्य का विरोध करने के अधिकार को तो स्वीकार करता है, लेकिन समाजवादी व्यवस्था में नहीं। क्योंकि इसके अनुसारं समाजवाद संपूर्ण समाज की व्यवस्था होती है, इसलिए किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को विरोध स्वीकार्य नहीं होगा। इस तरह मार्क्सवाद राजनीतिक बाध्यता को राजनीतिक इष्टता में परिवर्तित कर देता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पूरी तरह उपेक्षित कर देता है।
उपर्युक्त वर्णित सभी सिद्धांत राजनीतिक बाध्यता की समस्या को कुछ पूर्व निर्धारित कल्पना की रोशनी में देखते हैं जो पूरी तरह इच्छित चुनाव है, न कि अनुभवसिद्ध तथ्य। इसके अलावा उपर्युक्त सिद्धान्तों ने व्यक्ति व एक स्वतंत्र अस्तित्व को पूरी तरह उपेक्षित किया है। लेकिन राजनीतिक बाध्यता का मौलिक प्रश्न इस बात पर आधारित है कि कैसे व्यक्ति राज्य (जिस में वह रहता है) के कानूनों का विरोध करता है।
कानूनी दृष्टि से एक व्यक्ति विधि के तहत सत्ता द्वारा बनाए गये कानूनों को मानने के लिए बाध्य होता है। चूंकि ये कानून वैध होते हैं, इसलिए नागरिकों पर बाध्य होते हैं। लेकिन इस कानून को, जैसा कि बार्कर ने कहा है, ‘न्यायोचित’ या जैसा कि लॉस्की ने कहा है, ‘नैतिक रूप से पर्याप्त’ होना चाहिए। बार्कर के अनुसार अगर एक वैध कानून न्यायोचित नहीं है, तो नागरिकों को इसका विरोध करने का अधिकार है। ऐसी स्थिति में उसके महान राजनीतिक बाध्यता (Super Political Obligation) उसके राजनीतिक बाध्यता से अधिक महत्वपूर्ण हो जायेंगे। दूसरी तरफ लॉस्की का मानना है कि जब-जब कानून व्यक्ति के अपने अनुभव के विरुद्ध जा रहा हो, तब-तब व्यक्ति को राज्य-कानून के विरुद्ध विरोध का अधिकार है। लॉस्की के अनुसार, ‘नैतिक रूप से पर्याप्त’ होने पर ही कोई कानून मान्य हो सकता है। अगर राज्य व्यक्ति के स्व-विकास को चोट पहुंचाने वाली कोई भी कार्य करती है, तो व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार है। वैसे लॉस्की की आलोचना इस आधार पर की जाती रही है कि उन्होंने व्यक्ति के विरोध करने के अधिकार की वकालत करने के जोश में अनुकूल सामुदायिक चेतना की पूरी तरह उपेक्षा की है।
सामुदायिक बाध्यता की समस्या को हमेशा किसी एक खास राजनीतिक प्रणाली के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए, पृथक रूप से नहीं। मौलिक रूप से राजनीतिक बाध्यता की समस्या प्रजातंत्र के साथ जुड़ी हुई है। यथार्थवादी दृष्टिकोण से यह कहा जा सकता है कि राज्य एक प्रशासनिक संस्था है, कोई दैवीय संस्था नहीं। राज्य के द्वारा बनाये गये कानून हमेशा उचित और अनुकूल हों, यह जरूरी भी नहीं है। इसलिए नागरिक, जो किसी भी राज्य की स्थापना के लिए आवश्यक तत्त्वों में से एक है, को यह अधिकार होता है कि वह राज्य द्वारा बनाये गए अनुचित कानूनों का विरोध करे। राजनीतिक सिद्धांतों में ‘बाध्यता’ को अलग-अलग रूप में लिया गया है, लेकिन इन सारे सिद्धान्तों से प्राप्त निचोड़ के यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति अपने राज्य के आदेशों, कानूनों व नियमों को मानने के लिए तो बाध्य है, पर अपनी व्यक्तिगत चेतना की पूरी तरह तिलांजलि देकर नहीं। राजनीतिक व्यवस्था के सुचारू ढंग से चलने में नागरिकों की ‘राजनीतिक बाध्यता’ एक अनिवार्य तत्त्व है, इसलिए राजनीतिक सिद्धांतों में ‘बाध्यता’ का काफी महत्वपूर्ण स्थान है।
Question : समाजवादी विचारों में मार्क्स के बाद की गतिविधियों की विवेचना कीजिए।
(1995)
Answer : नयी-नयी समस्या अथवा परिस्थितियों की सही-सही व्याख्या करने और उपयुक्त ठहराने की राजनीतिक जरूरतों और सोच के कारण किसी भी विचारधारा में निरंतर कुछ न कुछ सुधार चलता रहता है। समाजवादी विचारों में मार्क्स के बाद की गतिविधियां, सिर्फ सम्मेलनों या वाद-विवादों से ही नहीं, बल्कि शासन करने में समाजवादी विचारों के प्रयोग से भी ओत-प्रोत रहा। लेनिन से माओ तक और स्टालिन से खुश्चेव तक ने मार्क्स द्वारा प्रतिपादित समाजवादी विचारों में अपनी- अपनी जरूरतों एवं परिस्थितियों के अनुसार कुछ न कुछ सुधार किया।
लेनिन रूस में समाजवादी आंदोलन का आधारस्तंभ था। उसका प्रमुख कार्य यह था कि मार्क्स के विचारों को एक आंदोलन की वास्तविकताओं के अनुरूप बनाया जाए। अपने अनुभव और प्रथम विश्व युद्ध के दौरान आया समस्याओं ने लेनिन को समाजवादी विचारों को थोड़ा सुधारने के लिए प्रेरित किया। लेनिन ने एक ट्रेड यूनियन (मजदूर संगठन) चेतना और एक समाजवादी चेतना के बीच मौलिक अंतर रखा। मार्क्स की तरह लेनिन भी विश्वास करता था कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के परिपक्व होने तथा उत्पादन संबंधों के आविर्भाव से सर्वहारा में एक ‘मजदूर यूनियन चेतना’ पैदा होगा जिसके कारण मजदूरों को अपने अधिकारों के बारे में अधिक जानकारी होगी।
लेकिन समाजवादी विचारधारा के क्रांतिकारी चेतना का उदय अचानक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के कुछ स्वचालित गतिविधियों के कारण नहीं होगा। लेनिन के विचार में सर्वहारा वर्ग को एक ज्वलंत समाजवादी जानकारियों के साथ प्रेरित करने के लिए किसी बाह्य शक्ति की आवश्यकता होगी। दूसरे शब्दों में मजदूरों में क्रांतिकारी समाजवादी चेतना के विकास के लिए एक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी नेतृत्व होना बेहद जरूरी है। लेनिन के द्वारा मार्क्सवाद को नव दृष्टिकोण देने के तहत दल को अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका सौंपी गयी क्योंकि उसके विचार में मार्क्स द्वारा यह सोचना संभव नहीं है कि समाजवादी चेतना मात्र वर्ग-संघर्ष के कारण पैदा हो जाएगी। मजदूरों में समाजवादी चेतना पैदा करने के लिए बुद्धिजीवियों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है।
समाजवादी विचारधारा में लेनिन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान पूंजीवाद के साम्राज्यात्मक स्तरों का और उस स्थिति में समाजवादी विचारधारा की स्थिति की व्याख्या करना था। लेनिन का मानना था कि अपने विकसित अवस्था में पूंजीवाद एक साम्राज्यवादी रूप धारण कर लेती है क्योंकि पूंजीवाद जब अति विकसित अवस्था में पहुंच जाती है, तब उसे अपने आप को बनाए रखने के लिए विश्वस्तरीय बाजार की तलाश के साथ-साथ कच्चे मालों की प्राप्ति के ड्डोतों की भी तलाश होती है जो अन्य कमजोर देशों को अपना उपनिवेश बना कर पूरा किया जाता है। लेनिन के अनुसार इस प्रयास के क्रम में पूंजीवादी देशों के बीच आपसी कटुता बढ़ती है और इसी का परिणाम 1914 का प्रथम विश्वयुद्ध था। ऐसे किसी युद्ध से मजदूरों का कोई लेना देना नहीं होता है। युद्ध उत्पादन के पूंजीवादी प्रारूप के परस्पर विरुद्धता को, उत्पादन के अंतर्राष्ट्रीय विशेषताओं के बीच के परस्पर विरुद्धता को और विश्व के राष्ट्रीय राज्यों में राजनीति विभाजन द्वारा लगाये गये नियंत्रण को दर्शाता है। पूंजीवाद अपने इन परस्पर विरुद्धता से बच नहीं पाता है और अंततः वर्ग-संघर्ष, जो साम्राज्यवाद के प्रसार के कारण दब गया था, पुनः उभर आता है। सर्वहारा पुनः एकजुट होकर वित्तीय पूंजी के तानाशाही व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास करता है और इस सामाजिक क्रांति द्वारा मजदूर वर्ग एक नयी राज्य व्यवस्था और शक्ति का निर्माण करता है।
मार्क्स ने सर्वहारा के तानाशाही के संगठन की रूपरेखा नहीं बनायी थी। यह काम लेनिन ने किया। सर्वहारा की तानाशाही व्यवस्था में एकदलीय राज्य होगा, जिसका निर्देशन मजदूर वर्ग के कुछ वर्ग चेतन नेताओं द्वारा किया जायेगा। मजदूर लोगों की पार्टी (दल) क्रांतिकारी सामाजिक व्यवस्था का एक अस्त्र होगा। यह एक संक्रमणकालीन व्यवस्था होगी जिसमें पार्टी पुराने शोषित वर्गों के विरोधी प्रयासों को रोकेगा और राज्य को समाजवादी लक्ष्य के अंतिम मुकाम तक ले जायेगा। राज्यविहीन समाज, मानव की यात्र का अंतिम पड़ाव है, जिसमें पूर्ण स्वतंत्रता विभिन्न स्तरों और सोच-समझ कर योजनाबद्ध तरीके से बनाये गये शिक्षा व्यवस्था द्वारा प्राप्त होगा। लेनिन की दृष्टि में प्रथम स्तर में उपभोगजन्य वस्तुओं का बराबर-बराबर बंटवारा है। अंतिम स्तर एक आदर्श स्तर है जिसमें प्रत्येक से उसकी योग्यतानुसार काम लेना तथा प्रत्येक को उसकी जरूरतों के अनुसार- पारिश्रमिक देना ‘सर्वप्रमुख आदर्श’ होगा।
लेकिन लेनिन का यह भी मानना था कि यह आदर्श अवस्था तब तक नहीं प्राप्त हो सकती, जब तक कि मानवीय प्रकृति और उत्पादन की तकनीकियों में एक क्रांतिकारी परिवर्तन न हो जाये। अतः लेनिन भी मार्क्स की तरह एक काल्पनिक आदर्श की बात करता है, लेकिन वह इस आदर्श और इसे प्राप्त करने की योग्यता के बीच असमंजस पैदा नहीं करता।
1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद ट्रॉटस्की ने समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए ‘स्थायी क्रांति’ की वकालत की। उसका विचार था कि पूंजीवादी देशों से घिरे एक अविकसित देश में एक स्थायी क्रांति होना संभव नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि विचारों को औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्रों में निर्यात किया जाये और अगर इन विकसित देशों के मजदूर इन क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित हो गये, तो अविकसित देशों को विकसित देशों से विभिन्न प्रकार की सहायता मिल सकेगी जो समाजवाद को आगे बढ़ाने में काफी मददगार सिद्ध होगा। स्टालिन, जो ‘राजनीतिक रणनीति’ का गुरू था, ‘एक अकेले देश में समाजवाद’ का वकालतकर्त्ता था। उसके विचार में तीव्र औद्योगिक वृद्धि और कृषि के समूहीकरण द्वारा एक देश में समाजवाद लाया जा सकता है। अप्रैल 1925 में सम्पन्न कम्युनिस्ट पार्टी के 14वें कांग्रेस में स्टालिन के विचारों को स्वीकारा गया और इस विचार को दल का आदर्श बना दिया गया।
स्टालिन के ‘एक अकेले देश में समाजवाद’ की स्वीकृति ने मार्क्सवादी सिद्धान्त में एक उल्लेखनीय सुधार को प्रवृत्त किया। मार्क्स, ऐंग्ल्स और लेनिन के लिए अंतर्राष्ट्रीयवाद, साम्यवाद का मौलिक केंद्र था। लेकिन स्टालिन का दृष्टिकोण शक्तिशाली और इसने रूस को विश्व क्रांति का पुरोधा बना दिया। इस तरह साम्यवाद ने अपना वास्तविक अंतर्राष्ट्रीय चेतना खो दिया और इसने स्टालिन के विचारों के द्वारा राष्ट्रवाद से निकट संबंध बना लिया। स्टालिन के विचारों ने सर्वहारा के तानाशाही से संबंधित मार्क्स के विचारों में भी कुछ सुधार किया। स्टालिन ने नये क्रांतिकारी व्यवस्था में पार्टी के प्रमुखतम भूमिका को पूरी तरह स्वीकार कर लिया। स्टालिन ने पार्टी के नियंत्रण को धीरे-धीरे बढ़ाया और उसके शासनकाल में शक्ति पूर्णतः केंद्रित और पूर्ण हो गयी। स्टालिन को ऐसा करना इसलिए जरूरी लगा, क्योंकि पूंजीवादी देशों के बीच रूस को शक्तिशाली बनाने के लिए सत्ता पर नियंत्रण जरूरी था। अतः उसके विचार में जब तक चारों तरफ से घेरे हुए विरोधी पूंजीवादी व्यवस्था समाप्त नहीं हो जाती, तब तक सोवियत रूस में राज्य सत्ता को पूर्णरूपेन प्रभावी और शक्तिशाली रहना पड़ेगा।
स्टालिन का सोवियत राजनीति पर बहुत कम दिनों तक प्रभाव रहा। पार्टी के 20वीं कांग्रेस में खुश्चेव और लकोयान ने स्टालिन के विचारों की जम कर आलोचना की। उस पर यह आरोप लगाया गया कि उसने पार्टी और राज्य की शक्ति को मात्र अपने व्यक्तित्त्व को प्रभावी बनाने के लिए बढ़ाया था। यहां तक कि 22वीं कांग्रेस में स्टालिन द्वारा किये गये गलत कार्यों पर एक रिपोर्ट भी पेश किया गया था। 20वीं कांग्रेस के बाद सोवियत रूस में एक नयी व्यवस्था की शुरुआत हुई जिसके अंतर्गत साम्यवादी सिद्धान्त में काफी सुधार किये गये। देश और विदेशों में साम्यवादी विचारधारा को फैलाने के लिए कई नये सिद्धान्त बनाये गये। मौलिक सिद्धान्त में वर्णित विचार-‘समाजवाद के लिए मात्र एक ही रास्ता है’ की जगह कांग्रेस (20वीं) ने कई वैकल्पिक रास्तों की बात की। कांग्रेस ने प्रजातांत्रिक पद्धतियों द्वारा समाजवाद की प्राप्ति को भी स्वीकार किया। कांग्रेस ने मौलिक सिद्धान्त में वर्णित युद्ध की अनिवार्यता को पूर्णतः अस्वीकार दिया। खुश्चेव ने प्रजातंत्र में संसदीय शक्ति द्वारा पूंजीवाद को खत्म करने की संभावना को स्वीकार किया। यह लेनिनवाद से पूर्ण रूप से अलगाव का द्योतक था। इस नयी सोच ने ‘समाजवाद के निर्यात’ को अस्वीकार किया, समाजवाद के लिए अन्य रास्तों को स्वीकारा और राज्य तथा पार्टी की बढ़ती शक्ति को कम करने का समर्थन किया।
नये चीन के निर्माणकर्ता माओ-त्से-तुंग ‘लोगों के प्रजातांत्रिक तानाशाही’ या ‘नये प्रजातंत्र’ के समर्थक थे। माओ के अनुसार इस प्रकार के प्रजातंत्र में स्वतंत्रता सिर्फ व्यक्ति से संबंधित होती है। छोटे से काल के लिए माओ के नारे ‘सैकड़ों फूलों को खिलने दो’ की अनुमति प्राप्त बुद्धिजीवी स्वतंत्रता ने चीनी साम्यवादी समाज के विरुद्ध बुद्धिवादी विचारों और विरोध का लहर पैदा किया। इस बात से खफा होकर राज्य नियंत्रण बढ़ा दिया गया। हाल के ‘सांस्कृतिक क्रांतियों’ ने चीनी समाज के तनाव और विवादों को उभार दिया था। विदेशी मामलों में चीन का दृष्टिकोण था कि शान्ति की स्थापना मात्र ‘आतंकवादी संघर्ष’ द्वारा ही हो सकती है। इसके कारण जहां चीन का पश्चिमी देशों से मतभेद रहा, वहीं साम्यवादी रूस से भी कई मामलों में तनाव बराबर बना रहा।
अतः अंत में यह कहा जा सकता है कि मार्क्स के बाद समाजवादी विचारधारा ठीक वही नहीं रही, जैसा कि उसने प्रतिपादित किया था। समाजवादी विचारधारा समय, देश एवं परिस्थितियों के साथ विशेष व्यक्तित्व के अपने-अपने दृष्टिकोण के कारण लगातार परिवर्तन और सुधार के दौर से गुजरती रही है।
Question : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के लिए खेल थियोरी और उसकी परिसीमाएं
(2005)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के लिए खेल थियोरी और उसकी परिसीमाएं: खेल सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक क्रीड़ास्थली मानता है जहां राष्ट्र और राज्य अपनी व्यूह रचना कर रहे हैं। इस सिद्धांत में अनेक समानताओं के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक खेल मान लिया जाता है और उसके अध्ययन के लिए खेल जैसा एक प्रतिरूप या नमूना (Pattern) बनाकर अतंर्राष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन किया जाता है। इस मॉडल या नमूना में शक्ति (Power), निर्णय (Decision), विवाद (Conflict) तथा सहयोग (Co-operation) प्रमुखतम अवधारणाएं हैं। इस मॉडल में राष्ट्रों को राष्ट्रीय हित की पूर्ति के लिए प्रतियोगिताकर रहे खिलाडि़यों के समान समझा जाता है। जिसमें प्रतियोगिता के नियम बिलकुल स्पष्ट और पूर्व-निश्चित होते हैं और एक निर्णायक बिलकुल तटस्थ होकर पक्षों को खेल खिलाता है। यहां निर्णायक की भूमिका में राष्ट्रसंघ को अपना उत्तरदायित्व निभाने तथा नियमों को पालन करवाने का जिम्मा होता है। खेल सिद्धांत वास्तव में तर्कसंगत कार्यवाही को प्रेरित करता है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विजय के अधिकतर अवसर पाना ही तर्कसंगत होता है।
मार्क्सवादी विचारकों ने खेल सिद्धांत का प्रयोग भिन्न प्रकार से किया है। वे विभिन्न प्रकार के साधनों एवं प्रक्रियाओं को काम में लाते हैं जिसे ‘स्वरूपीकरण (Formation)’ कहा जाता है। इसमें विभिन्न प्रक्रियाओं में ऐसी सामान्य प्रतिक्रियाओं के स्वरूपों को छांटे लेना तथा बाद में निहित तत्वों के आधार पर सामान्य कृत करना होता है।
वस्तुतः खेल सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन का सामान्य सिद्धांत नहीं बन पाया। इस सिद्धांत की अपनी कुछ परिसीमाएं हैं जिसके कारण इसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर लागू नहीं किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में खेल सिद्धांत के लिए नयी शब्दावली का विकास करना होगा। खेल सिद्धांत में मानव स्वभाव के उस पक्ष पर ध्यान केंद्रित किया गया है जो विरोध, प्रतिद्वंद्विता तथा प्रतिस्पर्धा से संबंधित है। खेल सिद्धांत की एक कमजोरी यह भी है कि इसे टू-पर्सन-जीरो सम गेम के मामले में ही कुछ सफलता से लागू किया जा सकता है परंतु ऐसी स्थितियां बहुत कम होती हैं। जीरो सम (शून्य-योग) अंतर्राष्ट्रीय जीवन से कोई समुचित मेल नहीं बैठता है। इससे केवल युद्ध की स्थिति का ही वर्णन किया जा सकता है, जबकि युद्ध के अतिरिक्त सहयोग और सामंजस्य के तत्व भी अत्यंत प्रबल हैं। साथ ही साथ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के खिलाड़ी उतने विवेकजन्य (Rational) कदापि नहीं होते जितने इस सिद्धांत के विचारकों ने सोचा है।
खेल सिद्धांत का क्षेत्र अत्यधिक सीमित है। इसे दिव्यशक्ति शून्य खेलों के बारे में कुछ सफलता के साथ ही लागू किया जा सकता है, जहां भाग लेने वाले केवल दो राष्ट्र हों, किंतु अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐसी परिस्थितियां बहुत कम होती हैं। इसके प्रतिपादक हामस शैंलिग को यह स्वीकार करना पड़ा है कि युद्ध निवारण आकस्मिक आक्रमण, परमाणु आतंक जैसे व्यापक समस्याओं के समाधान में इसका कोई उपयोग नहीं है। विश्व की जटिल समस्याओं के अध्ययन में इस सिद्धांत को लागु नहीं किया जा सकता है।
Question : धारणीय विकास
(2005)
Answer : धारणीय विकासः औद्योगीकरण और उपभोक्तावाद के कारण प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन पूरे विश्व में हो रहा है। आज का आधुनिक औद्योगिक समाज प्राकृतिक संसाधनों के लगातार दोहन पर आश्रित है। इससे विश्व के प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव पड़ता है। मनुष्य भौतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से प्रकृति से न केवल दूर हो गया बल्कि वह उसे दूषित करने लगा है। ये प्रवृत्तियां पूरे मानवता के लिए घातक एवं विनाशकारी है। अतः प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित रखने का दायित्व विश्व के हर व्यक्ति को है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए पर्यावरणवादियों ने ‘धारणीय विकास’ (Sustainble Developmennt) का आदर्श विश्व के सामने रखा।
‘धारणीय विकास’ इस बात का सूचक है कि पर्यावरण सर्वोपरि है। ये जीवन की गुणवत्ता को आर्थिक संवृद्धि से ऊंचा स्थान देते हैं। पर्यावरणवादी वर्तमान आर्थिक मूल्यों को चुनौती देते हुए कहते हैं कि यदि आर्थिक संवृद्धि के लिये पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के अलावा कोई विकल्प न हो तो पर्यावरण की रक्षा के हित में आर्थिक संवृद्धि का बलिदान कर देना चाहिए। ये इस सिद्धांत पर बल देते हैं कि प्राकृतिक संशोधन पूरे विश्व की धरोहर हैं तथा इसकी रक्षा करना सबका परम कर्तव्य है। इस धारणा के अनुसार मनुष्य और प्रकृति के टूटे हुए संबंध को जोड़ना जरूरी है। पर्यावरणवादी मनुष्य को अपने उपभोग में कटौती करने की सलाह देते हैं। ऐसी अर्थव्यवस्था स्थापित करने की कोशिश करते हैं, जिससे मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए किसी विशिष्ट वर्ग को निजी लाभ को बढ़ावा न मिले, क्योंकि निजी लाभ अपव्ययपूर्ण उपयोग को बढ़ावा देती है, जो घातक एवं विनाशकारी है।
उत्पादन के स्तर पर यथासंभव न्यूनतम सामग्री और ऊर्जा का प्रयोग करने से न्यूनतम प्रदूषण की संभावना होती है। धारणीय विकास ऐसे आत्मनिर्भर समुदाय के संगठन पर बल देता है जो अपने उपभोग में कटौती करे और अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन करे। ये महात्मा गांधी की परिसंकल्पनाओं पर आधारित है। धारणीय विकास के सिद्धांत के तहत पर्यावरणवेत्ता संपूर्ण मानव जाति के कल्याण को अपना लक्ष्य बनाया है।
Question : स्त्री-पुरुष न्याय के लिए आंदोलनों में आधारित मुद्दे
(2005)
Answer : स्त्री-पुरुष न्याय के लिए आंदोलनों में आधारित मुद्देः स्त्री-पुरुष न्याय के लिए आंदोलन 20वीं शताब्दी की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस काल में कई भागों में महिला आंदोलनों का उदय हुआ। इन आंदोलन के माध्यम से महिलाओं ने असमानता, पितृसत्तात्मक मूल्यों एवं समाजिक संरचनाओं में असमानता के विरुद्ध आवाज उठाई। भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में समाज सुधारकों ने बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह की मनाही, पर्दा प्रथा, महिलाओं को शिक्षा जैसे मुद्दों पर बहस की शुरुआत की। अखिल भारतीय महिला सम्मेलन के गठन के बाद से एक नई प्रवृत्ति का शुभारंभ हुआ। इसने महिलाओं को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराने और समाज में फैली कुरीतियों से महिलाओं को अवगत कराया। समाजिक सुधार आंदोलन ने महिलाओं की समाजिक स्थिति की स्वीकार्यता के लिए माहौल बनाया, जबकि राष्ट्रीय आंदोलन ने गैर-जातीय एवं वाह्य जगत के क्रिया-कलापों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन दिया।
विश्व समाज के बदलते हुए परिवेश में महिलाएं बड़े पदों पर आसीन होने लगीं। 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया तथा इसे महिला दशक के रूप में बढ़ाया गया। इस दशक ने न सिर्फ महिला समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया बल्कि महिला संगठन बनाने के लिए प्रेरित किया। भारतीय समाज में व्याप्त कुछ भीषण असमानताओं और महिलाओं की बदतर होती स्थिति की ओर ध्यान आकृष्ट किया। अनेक स्वायत्त महिला समूह अस्तित्व में आये। इन समूहों ने बलात्कार, शराबी पति द्वारा पत्नी को प्रताड़ना, दहेज, शारीरिक व्यापार, परिवारिक हिंसा, महिला-स्वास्थ्य, महिला कैदियों का उत्पीड़न, पर्सनल लॉ जैसे मुद्दों को उठाया। अनेक सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थानों में महिला सशक्तिकरण की बाते कीं और इसे कार्यरूप दिया। पिछले दशकों में राजनीतिक हलकों से महिलाओं को राजनीति में सहभागिता जैसे मुद्दे छाए रहे हैं। जिसके फलस्वरूप पंचायती राज्य व्यवस्था में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित हैं। केंद्र सरकार भी महिलाओं को संसद में आरक्षण देने की दिशा में कार्यरत है।
Question : शीत युद्धोत्तर काल में गुटनिरपेक्षता की सार्थकता
(2005)
Answer : शीत युद्धोत्तर काल में गुटनिरपेक्षता की सार्थकताः गुटनिरपेक्षता शीतयुद्ध के विरुद्ध एक सकारात्मक प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न हुई और धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के एक सिद्धांत के रूप को ग्रहण किया और विश्वव्यापी आंदोलन का आधार बन गया। ऐसा दृष्टिकोण संकीर्ण है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन महत्वहीन हो गया है। गुटनिरपेक्षता की राजनीतिक संगति चाहे समाप्त हो गयी हो, फिर भी नव-उपनिवेशवाद के इस युग में आर्थिक न्याय की प्राप्ति के लिए प्रयास करने का प्रमुख साधन आज भी गुटनिरपेक्षता है। आर्थिक आंदोलन के रूप में गुटनिरपेक्षता का भविष्य निश्चित रूप से उज्जवल है। अब तृतीय विश्व के आंदोलन का रुख राजनीतिक नहीं आर्थिक है। गुटनिपेक्षता विश्व राजनीति में राष्ट्रों के लिए एक नये विकल्प के रूप में निश्चय ही स्थायी रूप धारण कर लिया है। इसने छोटे-छोटे राष्ट्रों की स्वतंत्रता एवं समता बनाये रखने में योगदान दिया है। आज भी बहुत से गुटनिरपेक्ष देश गरीब एवं पिछड़े हैं।
समृद्ध एवं विकसित राष्ट्रों द्वारा स्वयं या बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उनका नव-औपनिवेशिक शोषण किया जा रहा है। इस स्थिति में उसे बचाने के लिए यह जरूरी है कि विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच सार्थक वार्ता के लिए दबाव डाला जाय, तभी विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग सुदृढ़ एवं सक्रिय करने के लिए गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक अपरिहार्य मंच का काम करेगा।
आज अंतर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय निःशस्त्रीकरण, आर्थिक समस्या, पर्यावरण प्रदूषण तथा आणविक निःशस्त्रीकरण है। गुट निरपेक्ष आंदोलन इस समस्या के सामाधान में अपनी भूमिका निभा सकता है।
ये छोटे-छोटे तीसरी दुनिया के देशों के आर्थिक हितों का ध्यान रखते हुए ये सुनिश्चत करें कि महाशक्तियां तीसरी दुनिया के देशों में हथियारों का जामवाड़ा न करें। शीत युद्ध समाप्ति के बाद भी इस आंदोलन के सदस्य बनने की चाह ये दर्शाता है कि सार्वभौम कार्यों में गुटनिर-पेक्ष आंदोलन की निरन्तर प्रासंगिकता है और इसका महत्व भी बढ़ा है।
Question : विश्वव्यापी न्याय के लिए तीसरी दुनिया आंदोलन के बुनियादी लक्ष्यों का विश्लेषण कीजिए। उनको प्राप्त करने के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग का क्या महत्व है?
(2005)
Answer : तीसरी दुनिया में निर्धन, अल्प विकसित तथा विकासशील देश शामिल हैं, जो शीघ्र बहुमुखी विकास करने के लिए कड़ा संघर्ष कर रहे हैं। इनकी अर्थव्यवस्था कमजोर है। इन देशों की आर्थिक विकास दर तथा विकास का स्तर कम है। इन देशों में औद्योगीकरण तथा विकास के लिए आवश्यक भौतिक सुविधाओं की कमी है। विकसित देश जो मूलतः उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित हैं, जिनकी जनसंख्या समस्त जनसंख्या की करीब तीस प्रतिशत से भी कम है। परंतु समस्त विश्व के आय का करीब सत्तर प्रतिशत से अधिक पर नियंत्रण है, जबकि तीसरी दुनिया के देशों की जनसंख्या समस्त जनसंख्या की सत्तर प्रतिशत से भी अधिक है। परंतु समस्त विश्व के आय के तीस प्रतिशत पर इनका अधिकार है। जहां विकसित देश प्रतिवर्ष समृद्ध होते जा रहे हैं, वहीं तीसरी दुनिया के देशों पर विदेशी ऋणों का बोझ बढ़ता जा रहा है। यह अंतर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है।
तीसरी दुनिया के बुनियादी लक्ष्यों में आर्थिक विकास, प्रजाति भेदभाव, सामूहिक आत्मनिर्भरता, शस्त्र नियंत्रण, आणविक ऊर्जा का शांति के लिए उपयोग, अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का मुकाबला, विश्व शांति, तकनीकी ज्ञान, संयुक्त राष्ट्र का लोकतंत्रीकरण तथा विश्व व्यापार संगठन के तहत एक पारदर्शी निष्पक्ष और न्यायसंगत नियमों पर आधारित बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था के महत्व पर जोर दिया है। ये देश अपनी राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं के पृथक स्वरूप को बनाये रखना चाहते हैं। इसके साथ-साथ अपनी पहचान बरकरार रखने हेतु किसी बड़े राष्ट्र के समूह में शामिल नहीं होना चाहते हैं।
तीसरी दुनिया के देश आज अपने उचित अधिकारों तथा समकालीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में उचित हिस्से की प्राप्ति करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। वे विकसित राष्ट्रों द्वारा उत्पादित व्यवस्था के आधिपत्य को समाप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। ये देश समकालीन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नई आर्थिक व्यवस्था की प्राप्ति को अति आवश्यक मानते हैं। ये विकसित राष्ट्रों द्वारा निरंतर किये जाने वाले आर्थिक शोषण का विरोध करते हैं। तीसरी दुनिया के राष्ट्र नव-उपनिवेशवाद तथा बहुर्राष्ट्रीय कंपनियों के शोषण का विरोध करते हैं। तीसरी दुनिया के देश अविकासशीलता से विकासशीलता की ओर जाना चाहते हैं। वे आत्मनिर्भर होना चाहते हैं। आत्मनिर्भरता अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में उन्हें प्रभावशाली तथा समानता के सतर पर साझेदार बना सकती है। इन देशों ने विश्वव्यापी न्याय की प्राप्ति के लिए विभिन्न मंचों तथा संगठनों, जिसमें प्रमुख हैं- गुटनिरपेक्ष आंदोलन, समूह-77, समूह-15 की स्थापना की और दक्षिण-दक्षिण सहयोग का आह्वान किया।
नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के लिए गरीब और विकासशील देशों का संघर्ष वस्तुतः आर्थिक स्वाधीनता का संघर्ष है। इस संघर्ष में ये देश संगठित होते जा रहे हैं। वे पारस्परिक विकास के लिए दक्षिण-दक्षिण सहयोग को प्रोत्साहित कर रहे हैं। दक्षिण-दक्षिण सहयोग से तात्पर्य है विकासशील देशों के बीच बहुमुखी सहयोग। अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ाने तथा आर्थिक सहयोग के लिए विकासशील देशों ने उत्तर की बजाय दक्षिण-दक्षिण सहयोग पर बल दिया है। इस तरह के सहयोग का सूत्रपात गुटनिरपेक्ष आंदोलन से हो गया है। दक्षिण गोलार्द्ध के विकासशील निर्धन राष्ट्रों में निरंतर बनी रहने वाली मंडी की स्थिति, उत्तर-दक्षिण वार्ताओं में गतिरोध की स्थिति तथा विकसित राष्ट्रों की दमन नीति ने दक्षिण-दक्षिण सहयोग का नारा बुलंद किया है।
विकासशील देशों में तेल, लौह अयस्क, तांबा जैसे प्राकृतिक संसाधनों के विपुल भंडार हैं। औद्योगिक देशों के द्वारा अपने लिए इन संसाधनों का उपयोग होता रहा है। तीसरी दुनिया के देशों के संगठित होने से विकसित देश तथा बहुर्राष्ट्रीय निगम उन्हें कच्चा माल उत्पन्न करने वाले उपनिवेश नहीं मानेंगे। कच्चे माल पर उत्पादक राष्ट्र का पूर्णाधिकार होगा, वे अपने हित में इसका उपयोग कर सकेंगे। विकसित देश कई तरह की रियायतें देने पर मजबूर होंगे और संपदा का बंटवारा न्यायसंगत होगा। जब इन देशों का आपसी सहयोग होगा तो विकसित देश भी इनकी सम्प्रभुता का आदर करेंगे। आज के विकसित राष्ट्र पूर्व में अपने उपनिवेशों जिसमें तीसरी दुनिया के देश हैं, उनके साधनों का शोषण कर विकसित बन गये हैं। अपने साम्राज्यों की समाप्ति के बाद भी विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था तथा नीतियों पर अपना पूर्ण नव-उपनिवेशीय आर्थिक तथा राजनीतिक नियंत्रण बनाये हुए हैं। ये देश विदेशी सहायता, सैन्य सहायता, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाएं, बहुराष्ट्रीय निगम जैसे साधनों द्वारा इन तीसरी दुनिया के देशों की आर्थिक नीतियों पर गहरा नियंत्रण बनाये हुए है।
विकासशील राष्ट्र अपने औद्योगिक तथा आर्थिक पिछडे़पन के कारण धनी तथा विकसित राष्ट्रों पर निर्भर करते है। इसी कारण ये राष्ट्र धनी राष्ट्रों द्वारा आर्थिक शोषण के लक्ष्य बन जाते हैं। प्रचलित आर्थिक व्यवस्था विकसित देशों के अनुरूप है। अतः तीसरी दुनिया के देशों को इस नव-उपनिवेशवाद के युग से बाहर निकलने के लिए आपस में सहयोग करना आवश्यक है। नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था पर उत्तर-दक्षिण समझौता होने के बहुत कम आसार हैं, अतः विकासशील राष्ट्रों के आपसी सहयोग से ही वे आत्मनिर्भर बन सकेंगे। तीसरी दुनिया के देशों में ही जो कुछ विकसित राष्ट्र हैं, वे उन देशों की मदद कर सकते हैं क्योंकि उनका सामाजिक-आर्थिक जीवन करीब-करीब मिलता-जुलता है और वे एक दूसरे को अच्छी तरह समझ सकते हैं। दक्षिण-दक्षिण सहयोग से वास्तविक नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना हो सकती है।
तीसरी दुनिया के देश दक्षिण-दक्षिण सहयोग का आह्वान कर वर्तमान आर्थिक व्यवस्था की पुनः संरचना, विश्व व्यापार संगठन के अधीन तीसरे विश्व के अधिकारों के लिए सुरक्षा प्राप्त करना, विश्व व्यापार में पहले से अधिक तथा निश्चित भाग प्राप्त करना, संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा परिषद में तीसरी दुनिया के देशों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व तथा अंतर्राष्ट्रीय निर्णयों में उचित भागीदारी की मांग प्रबलता से कर सकते हैं। कोई भी विकासशील राष्ट्र अकेले अपनी समस्याओं से निपट नहीं सकता है। विकासशील राष्ट्र जो विकसित एवं औद्योगिक रूप से संपन्न है, वह दूसरे विकासशील देश की मदद कर सकता है। विकासशील राष्ट्रों में जो राष्ट्र तकनीकी रूप से उत्तम है वह अपनी तकनीक का हस्तांतरण दूसरे विकासशील राष्ट्र को कर सकता है। कई विकासशील देशों ने अपनी पद्धतियों का आदान-प्रदान कर खाद्य उत्पादन तथा अन्य बुनियादी क्षेत्रों में अनवरत वृद्धि की है। जिससे इन देशों की खाद्य आत्मनिर्भरता बढ़ी है। भारतीय सहयोग द्वारा एशियन-अफ्रीकन देशों में कई उद्योगों की स्थापना की गयी है।
दक्षिण-दक्षिण सहयोग तीसरी दुनिया के लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक है। विकासशील राष्ट्र आपसी सहयोग से ही आत्मनिर्भर हो सकते हैं।Question : विकास के पूंजीवादी मॉडल की प्रकृति और विकासशील देशों के लिए उस मॉडल की उपयोगिता और परिसीमाओं का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
(2005)
Answer : विश्व में विकास के पूंजीवादी मॉडल को अनेक प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रणालियां इसे समाप्त करके इसकी जगह लेने आती रहीं किन्तु कोई भी प्रणाली इतनी उत्पादनशील सिद्ध नहीं हुई जितना कि पूंजीवादी प्रणाली। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों ने पूंजीवाद के विरूद्ध एक बेहतर आर्थिक तंत्र के आधार पर साम्यवादी व्यवस्था के निर्माण का प्रयास किया, किन्तु उनका प्रयत्न असफल रहा। आज त्वरित आर्थिक विकास के लिए दुनिया के अधिकांश देशों ने पूंजीवादी मॉडल को अपना लिया है। पूंजीवादी मॉडल की विशेषता है- मुक्त व्यापार, खुली प्रतियोगिता, स्वतंत्र समझौते, बाजार तथा उपभोक्तावाद, आर्थिक क्षेत्र में राज्य का कम से कम नियंत्रण तथा निजीकरण का महत्व।
विकास के पूंजीवादी मॉडल का एक उद्देश्य है आत्मनिर्भरता। विकासशील राष्ट्र अविकासशीलता से विकासशीलता की ओर जाना चाहते हैं। केवल आत्मनिर्भरता ही उन्हे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उन्हें प्रभावशाली तथा समानता के स्तर पर साझेदार बना सकती है। आज विकासशील देशों का बाजार भांति-भांति के उपभोक्ता वस्तुओं से भरा है। बाजार में प्रतिस्पर्धाएं बढ़ी हैं और उत्पादक एवं ग्राहको दोनों को फायदे हो रहे हैं। विकसित देश विकासशील देशों में पूंजी निवेश कर रहे हैं साथ ही उस देश के संरचनात्मक विकास में मदद कर रहे हैं।
निजीकरण एवं विकासशील देशों द्वारा अपने सार्वजनिक क्षेत्र की समस्याओं का वैकल्पिक समाधान खोजना है। विकासशील देशों ने ये निष्कर्ष निकाला था कि मिल्कियत की जगह बाजार की प्रतिद्वंद्विता ही कार्यकुशलता के लिए असली चीज है, लेकिन उद्यमों के कामकाज का स्तर तय करने के लिए मिल्कियत एक महत्वपूर्ण कारक है। सामान्य बाजार व्यवस्था के अंदर निजी कम्पनियों का काम काज सार्वजनिक कंपनियों से बेहतर रहा है। अधिकांश कंपनियों में निजीकरण के बाद उनके माल के प्रति ग्राहकों की संतुष्टी बढ़ी है और माल निर्यात कर विदेशी मुद्रायें भी बढ़ी हैं। इस मुक्त बाजार व्यवस्था से अधिक तेजी से विकास रहन-सहन का उच्चतर स्तर, विदेशी निवेशकों से नये-नये अवसर जैसे स्पष्ट हैं। यातायात और संचार साधनों में हुए विकास के कारण भौगोलिक दूरियां सिमट गयी हैं। अब न केवल व्यापार तकनीकी एवं सेवा क्षेत्र बल्कि लोगों का सीमा पर आवागमन सस्ता एवं सुगम हो गया। श्रम बाजार विश्वव्यापी हो गया है। कोई भी देश अपना नुकसान करके ही शेष विश्व से खुद को अलग रख सकता है। विकसित तथा विकासशील राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं में अंतर बावजूद सार्वभौमिक आत्मनिर्भरता में वृद्धि हुई है।
बहुराष्ट्रीय निगम तथा उनके समर्थकों का मानना है कि इहोंने पूंजी तथा उत्पादन को पहले विश्व से तीसरे विश्व तक पहुंचाया है तथा यह तीसरे विश्व के लिए बहुत लाभदायक रहा है। ये विकासशील राष्ट्रों की विदेश धन निवेश की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इनके द्वारा विकसित तकनीक विकसित राष्ट्रों से विकासशील राष्ट्रों तक पहुंचती है। पूंजीवादी व्यवस्था से रोजगारों के बढ़ोतरी हुई है।
पूंजीवादी व्यवस्था केवल सकारात्मक परिणाम विकासशील देशों के लिए नहीं दिया है। आंकड़े गवाह हैं कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देश भयंकर आर्थिक संकट के फंस गये हैं। विकसित और अविकसित या विकासशील देशों के बीच अंतर बढ़ रहा है। गरीब देश गरीब ही रहे और अमीर और अधिक अमीर हो रहे हैं। विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था कर्जों के चंगुल में फंस गयी है और लगातार फंसती जा रही है। आर्थिक रूप से तथा वास्तविक व्यवहार में वे आज के विकसित राष्ट्रों पर निर्भर हैं। विकसित राष्ट्र बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा विकासशील राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था तथा देश की अंदरूनी नीतियों पर भी अपना नियंत्रण रख रहे हैं। भारत जैसे देश का आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा अर्थिक शोषण हो रहा है। किसी ने कहा है- पूंजीवादी व्यवस्था नई आर्थिक साम्राज्यवाद का दूसरा रूप है। आज पूरी दुनिया अमेरिका की ओर देख रहा है। नव उपनिवेशवाद का लक्ष्य है नव स्वतंत्र देशों में विकास की पूंजीवादी दिशाओं में निदिर्ष्ट करें ताकि उन देशों के शोषण की संभावना कायम रहे। आंकड़े बताते हैं कि विदेशी पूंजी पिछड़े देशों के औद्योगीकरण में अवरोध पैदा करती है। प्राविधिक विकास की दृष्टि से पश्चिमी दुनिया और तीसरी दुनिया में प्राविधिक अनुसंधान की दर करीब 141:1 का अनुपात है और इसी अंतर के कारण पश्चिमी देश और बहुराष्ट्रीय निगम उनका शोषण करती है। प्राविधिक हस्तांतरण के द्वारा विकासशील देशों को अपने शिकंजे में रखा जा रहा है। असमान व्यापार भी विकासशील देशों को हानि पहुंचाता है।
जब कि इन देशों के सस्ते श्रम, कच्चे माल की उपलब्धता, शोषण की तीव्रता के कारण विकसित राष्ट्र बहुराष्ट्रीय निगमों के द्वारा मुनाफा कमा रहे हैं। इसके साथ-साथ ये उन देशों के प्राकृतिक साधनों पर नियंत्रण रखते हैं। नव-उपनिवेशवाद के साधन के रूप में असमान व्यापार, प्रत्यक्ष पूंजी विनियोग, साम्राज्यवादी कर्ज, हथियारों की आपूर्ति, संस्कृति निर्यात के द्वारा विकसित राष्ट्र विकासशील देशों पर अपना प्रभुत्व जमा रहे हैं।
Question : किसी देश की विदेश नीति के निर्धारण में भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक कारकों की भूमिका और महत्व का वर्णन एवं आकलन कीजिए।
(2005)
Answer : किसी देश की विदेश नीति उस देश के गतिविधियों का एक व्यवस्थित रूप है जिनका दीर्घकालीन अनुभव के आधार पर राज्य द्वारा किया जाता है और जिसका उद्देश्य दूसरे राज्यों के व्यवहार अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप परिवर्तित करना है तथा इसके साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का आकलन करते हुए स्वयं अपने व्यवहार में ऐसा परिर्वतन लाना है जिससे अन्य राज्यों के व्यवहार अथवा क्रियाकलापों के साथ तालमेल बैठ सके। कोई भी देश अपनी विदेश नीति का निर्धारण अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर करती है। परन्तु इसका अर्थ ये नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का महत्व नहीं होता है। विदेश नीति निर्धारण में जिन महत्वपूर्ण कारकों का योगदान होता है वे हैं, जनसंख्या, भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक संपदा, औद्योगिक स्रोत, राजनीतिक अवस्थाएं, भाषा, धर्म, संस्कृति, विश्व जनमत, विचारधारा इत्यादि।
किसी भी देश की भू-राजनीति विदेश नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। किसी देश की भौगोलिक स्थिति विदेश नीति का सापेक्षतया सबसे अधिक स्थायी तत्व होता है। ये तत्व राष्ट्र के लोगों की आवश्यकताओं तथा इन आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमताओं दोनों का निर्धारण करती है। भारत की ऐसी भौगोलिक स्थिति के कारण ही उसे थल सेना, वायुसेना तथा नौसेना तीनों पर रक्षा व्यय करना होता है, जबकि इसका पड़ोसी देश नेपाल को नौसेना की आवश्यकता नहीं है। नेपाल का अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण भारत और चीन दोनों के लिए सामरिक दृष्टिकोण से महत्व है जिसके कारण भारत तथा चीन दोनों अपनी विदेश नीति के निर्धारण के इसका ध्यान रखता है। ब्रिटेन का नौ सैनिक शक्ति तथा इंगलिश चैनल की भूमिका ने इसे साम्राज्यवादी ताकत के रूप में प्रसिद्ध किया। हिन्द महासागर भारत की विदेश नीति पर बहुत प्रभाव डालता है। हिमालय भारत की अखंडता की रक्षा करता है तथा भारत को इस क्षेत्र में सेना के रख-रखाव पर खर्च करना पड़ता है।
भौगोलिक स्थिति के कारण ही रूस, भारत, चीन एवं पाकिस्तान की विदेश नीति प्रभावित है। ये सारे देश एक-दूसरे के भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज कर अपनी विदेश नीति का निर्माण नहीं कर सकते हैं। भौगोलिक स्थिति के साथ-साथ प्राकृतिक सम्पदा भी एक प्रमुख स्थायी निर्धारक तत्व है। कोई भी राष्ट्र तब तक शक्तिशाली राष्ट्र नहीं बन सकता जब तक इसके भू-भाग में पर्याप्त प्राकृतिक साधन नहीं होंगे। प्राकृतिक संसाधन की बहुलता के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका आज अत्यधिक समृद्ध राष्ट्र है। इसकी समृद्धता दूसरे गरीब देशों की विदेश नीति को प्रभावित करता है। तेल सम्पदा की बहुलता के कारण अरब देश की अपनी अलग विदेश नीति है ये विकसित देशों की अर्थव्यवस्था तक को व्यापक रूप से प्रभावित कर रहे हैं। सभी बड़े विकसित देश भी अरब देश के साथ अपने सम्बन्धों का मधुर बनाने में लगे हैं। इन्हीं कारणों से कुवैत पर आधिपत्य जमाने की कोशिश हो रही है।
भू-राजनीतिक के साथ-साथ भू-आर्थिक तत्व आज विश्व के विदेश नीति निर्धारक तत्वों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भू-आर्थिक आज के विश्व का महत्वपूर्ण आंतरिक एवं वाह्य नीति निर्धारक है। संयुक्त राज्य अमेरिका आज आर्थिक रूप से अधिक विकसित है जिसके कारण विश्व राजनीति को प्रभावित करता है। आज उसके कट्टर शत्रु भी अपनी औद्योगिक विकास के लिए उसकी मदद ले रहे हैं। ऐसे आर्थिक संपन्न राष्ट्र अपनी विदेश नीति के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए विदेशी सहायता को साधन के रूप में प्रयोग करते हैं। सोवियत संघ केवल सैनिक शक्ति के बल पर एक महाशक्ति बना नहीं रह सका। आर्थिक संपन्नता के अभाव में इसका विश्व में प्रभाव समाप्त कर दिया।
विकासशील राष्ट्रों की नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के लिए पूर्ण रूप से बचनबद्धता विदेशी सम्बन्धों में आर्थिक तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका एक उदाहरण है। निसंदेह ये आर्थिक निर्भरता इनके स्वतंत्र विदेश नीति पर प्रभाव डालते हैं। अफ्रीका तथा एशिया महादेश के बहुत सारे देश की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर है। कि उनकी अपनी स्वतंत्र विदेश नीति नहीं है। उनकी विदेश नीति या आंतरिक नीति निर्धारक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक तथा आर्थिक संपन्न उसके पड़ोसी देश हैं।
भू-राजनीतिक एवं भू-आर्थिक तत्व किसी देश के नीति निर्धारण में आधारभूत निर्देशक तत्वों की भूमिका अदा करते हैं। निसंदेह किसी भी देश की विदेश नीति की सफलता उसके निर्धारक तत्वों के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन पर निर्भर करता है। समय के साथ बदलती परिस्थितियों के कारण इन तत्वों का महत्व घटता-बढ़ता है।
Question : राजकीय अर्थशास्त्र उपागम का महत्व और परिसीमाएं।
(2004)
Answer : राजकीय अर्थशास्त्र उपागम का महत्व और परिसीमाएं: राजकीय अर्थशास्त्र (Political Economy) अध्ययन की वह शाखा जहां राजनीति विश्लेषण के आर्थिक तत्व की मदद ली जाती है। यह एक सच्चाई है कि आर्थिक संबंध व संस्थाएं राजनीतिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती हैं। आर्थिक पक्ष की देखभाल राज्य और सरकार का मूल कर्तव्य है, क्योंकि समाज कल्याण के लिए आर्थिक विकास महत्वपूर्ण है। राजकीय अर्थशास्त्र उपागम के अध्ययन में आर्थिक प्रतिरूपों का प्रयोग करते हुए आर्थिक जीवन पर राजनीतिक निर्णयों के प्रभाव की जांच की जाती है। इसमें इस संकल्पनाओं का विस्तृत विवेचन किया जाता है जो मनुष्य की राजनीतिक तथा आर्थिक दोनों प्रकार की गतिविधियों पर समान रूप से लागू होती हैं।
अर्थशास्त्र का आरंभ राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन से हुआ था। आर्थिक गतिविधियों पर राज्य और सरकार का कितना नियंत्रण हो यह चिंता और विचार विमर्श का प्रश्न है। आर्थिक गतिविधियां इतनी महत्वपूर्ण हैं कि कोई भी सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती है। उसी तरह राजनीति तथा राजनीति व्यवस्था की प्रकृति को जानना अर्थशास्त्री के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। अर्थव्यवस्था के संबंध में लिये जाने वाले अधिकांश निर्णय राजनीतिक होते हैं।
आर्थिक प्रणाली को केवल बाजार की शक्तियों एवं खुली स्पर्द्धा में छोड़ देने पर सामाजिक दृष्टि से विनाशकारी परिणाम निकलते हैं। इससे आर्थिक विषमताएं समाज में व्याप्त हो जाती हैं। गरीबों का शोषण होने लगता है। इसी कारण से आर्थिक गतिविधियों के नियमन की आवश्यकता महसूस की गयी। इसी आवश्यकता की प्रवृत्ति ने राजकीय अर्थशास्त्र को एक नये रूप में विकसित किया।
Question : राष्ट्रीय हित की यथार्थवादी दृष्टि।
(2004)
Answer : राष्ट्रीय हित का यथार्थवादी दृष्टिः ‘राष्ट्रीय हित’ की यथार्थवादी दृष्टिकोण विश्व राजनीति को शक्ति प्राप्त करने के लिए किया जा रहा संघर्ष समझता है। यथार्थवादी पक्ष उन लोगों का है जो स्थूल और स्वार्थसाधक राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि मानते हैं। यह कहना अधिक उचित होगा कि यथार्थवाद विचारों का वह समूह है जो सुरक्षा एवं शक्ति के घटकों के ध्वनितार्थों को अपनी चिंतन सामग्री मानता है।
यथार्थवादी दृष्टिकोण के तह में बुनियादी मान्यता यह है कि राष्ट्रों के बीच विरोध एवं संघर्ष किसी न किसी रूप में सदैव बने रहते हैं। शक्ति पाने की होड़ को अंतर्राष्ट्रीय कानून या सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। इसलिए राजनय और राष्ट्र नेतृत्व का मुख्य कार्य शक्ति की होड़ में विजय प्राप्त करना है। जार्ज कैनन एवं मारगेनथाऊ जैसे यथार्थवादियों का मानना है कि राष्ट्रीय हित सुविचारित नीति और सैद्धांतिक विश्लेषण दोनों के लिए अधिक विश्वसनीय पथ प्रदर्शक है।
यथार्थवादी दृष्टिकोण उस आदर्शवादी या यूरोपियन दृष्टिकोण से बिलकुल भिन्न है जो शक्ति राजनीति को इतिहास का सिर्फ असामान्य या अस्थायी दौर समझता है। इस दृष्टिकोण के चिंतकों का कहना है कि विदेश नीति और संबंधों का फैसला राष्ट्रीय हित के आधार पर होना चाहिए न कि नैतिक सिद्धांतों के आधार पर। राष्ट्रीय जरूरत के सामने किसी भी नैतिक सिद्धांत का कोई महत्व नहीं है। चाहे किसी राष्ट्र के कितने ही ऊंचे आदर्श हों और कितनी ही उदार अभिलाषाएं हों, वह अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हित के अनुकूल ही लागू करता है।
Question : सोवियत संघ के निपात का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव।
(2004)
Answer : सोवियत संघ के निपात का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभावः सोवियत संघ का विघटन एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय घटना थी कि संसार का कोई भी देश इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। लगभग सभी देशों को चाहे वे सोवियत संघ के मित्र थे अथवा शत्रु अथवा निर्गुट, अपनी विदेश नीतियों में कुछ न कुछ परिवर्तन करना पड़ा।
सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरा विश्व सैन्य दृष्टि से एक ध्रुवीय बन गया। संयुक्त राज्य सत्ता का केंद्र बन गया है। शीत युद्ध के दौरान अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के छाये हुए उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद, साम्यवादी और गैर साम्यवादी देशों के बीच सैद्धान्तिक संघर्ष, औद्योगिकीय दृष्टि से उन्नत देशों तथा गरीब विकासशील देशों के बीच आदान-प्रदान प्रभावित करने वाले आर्थिक मुद्दों के स्थान पर अब मानव अधिकार, निरस्त्रीकरण तथा अस्त्र नियंत्रण, अच्छा शासन, भूमंडलीय पर्यावरण की देखरेख तथा मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के सिद्धांत के अंतर्गत ग्लोबल व्यवस्था जैसे मुद्दे उभरने लगे। प्राचीन ट्रांस-क्षेत्रीय और ट्रांस-द्विपीय बहुपक्षीय गुटनिरपेक्ष आंदोलन, यूएनसीटीएडी तथा जी-77 का स्थान अब भू-राजनीति तथा आर्थिक क्षेत्रीयवाद तथा क्षेत्रीय समूह व्यवस्था लेने लगे।
संयुक्त राष्ट्र पर शीत युद्ध का दबाव नहीं रहा। परंतु अब इस पर औद्योगिक रूप से उन्नत पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों द्वारा नये किस्म के दबाव पड़ने लगे। संयुक्त राष्ट्र अब संयुक्त राज्य तथा औद्योगिक रूप से विकसित देशों द्वारा तैयार की गयी (नई विश्व व्यवस्था) की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की दिशा में अधिक सक्रिय हो गया।
सोवियत संघ के विघटन से विश्वव्यापी समाजवादी आंदोलन को गहरा धक्का लगा। प्रथम समाजवादी देश होने के नाते सोवियत संघ अनेक अविकसित तथा विकासशील देशों के लिए प्रेरणा का स्रोत सिद्ध हुआ था। इस विघटन ने अनेकों विकासशील देशों को सोचने पर मजबूर कर दिया और अनेक देश समाजवादी अर्थव्यवस्था को त्यागकर बाजार अर्थव्यवस्था पर आधारित पूंजीवाद को अपना लिया।
संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सामान्य रूप में एशिया तथा यूरोप की राजनीति में विशेष रूप में सोवियत संघ के विघटन के साथ गहन तथा तीव्र गति से परिवर्तन हुए हैं।
Question : पारिस्थितिक सारोकारों के प्रति साझे वैश्विक उपागम की आवश्यकता और उसके विकास में प्रतिबाधाएं।
(2004)
Answer : पारिस्थितिक सारोकारों के प्रति साझे वैश्विक उपागम की आवश्यकता और उसके विकास में प्रतिबाधाएं: पर्यावरणीय चिंताएं यदा-कदा ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर की जाती थीं परंतु आजकल पर्यावरण को समर्थन देने तथा इसके संतुलन के लिए विश्व के सभी राष्ट्र एकजुट हैं तथा संयुक्त राष्ट्र भी इस ओर प्रयासरत है। इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि मानव गतिविधियां वायुमंडल में ‘ग्रीन हाऊस’ गैसों की रचना में योगदान करती हैं, जिसके फलस्वरूप वैश्विक तापमान में धीरे-धीरे वृद्धि हो रही है। ओजोन परत ऊपरी वायुमंडल में गैस की एक पतली परत है जो पृथ्वी की सतह को सूर्य के नुकसानदेह अल्ट्रावायलेट रेडियेशन से बचाती है। बढ़े हुए पराबैंगनी विकिरण से संपर्क त्वचा कैंसर को जन्म देने वाला माना जाता है। यह पौधों, शैवाल, खाद्य शृंखला एवं वैश्विक पारिस्थितिकी प्रणाली को भी असाधारण क्षति पहुंचाता है। यूएनईपी के अनुमानों के अनुसार धरती की एक-चौथाई भूमि पर मरुस्थलीकरण का खतरा है। मानव के अस्तित्व के लिए जैव विविधता आवश्यक है। इसके साथ-साथ प्रदूषण को रोकना अति आवश्यक है।
विश्व के अधिकांश भागों में पर्यावरण की समस्या अब भी निर्धनता और अज्ञान से संबंधित है। परंपरागत अंतर्राष्ट्रीय कानून में प्रदूषण और पर्यावरण ह्रास समस्याओं पर बहुत ज्यादा चिंतन नहीं किया गया था। संयुक्त राष्ट्र के तत्संबंधी कार्यों में प्राकृतिक संशोधनों की खोज एवं उनके उपयोग पर जोर दिया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से पर्यावरणीय चिंताओं को शामिल करने का कार्य धीमा रहा। पर्यावरण में क्षय होना जारी रहा और वैश्विक ताप, ओजोन क्षय, वायु एवं जल प्रदूषण जैसी समस्याएं और गंभीर हो गयीं।
Question : अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन के तंत्र उपागम पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था सिद्धांत व्यवहारिक क्रांति की देन है। इस दृष्टिकोण के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में ‘एक व्यवस्था’ विद्यमान है जिसके विभिन्न अंग पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं द्वारा परस्पर संबंध स्थापित रखते हैं। विश्व की सभी राजनीतिक गतिविधियां इस सुव्यवस्थित ढांचे के अंगों की इन्हीं आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम है। इस दृष्टिकोण के समर्थकों का मत है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का वैज्ञानिक अध्ययन तभी किया जा सकता है, जबकि इसे एक ‘व्यवस्था’ के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय। इस धारणा की कल्पना सर्वप्रथम के.डब्ल्यू. थाम्पसन ने की और मार्टिन कैप्लन ने इस धारणा का और अधिक विस्तार किया।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘व्यवस्था’ शब्द तीन अर्थों में प्रयोग होता है। प्रथम अर्थ के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक ढांचा स्वयं तो निष्क्रिय है किंतु उसका गठन करने वाले अंग अर्थात राज्य सक्रिय हैं। द्वितीय अर्थ के अनुसार ढांचा ही प्रधान है जो अपने विभिन्न अंगों की गतिविधियों तथा उनके कार्यकलापों को नियंत्रित एवं उनके स्वरूप को निर्धारित करता है। तीसरे अर्थ में, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में विशेष प्रकार की प्रविधियों का प्रयोग करते हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय वास्तविकता की व्याख्या करता है। इसमें अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक व्यवस्था के रूप में प्रतिपादित करने की चेष्टा है। इस संदर्भ में जेम्स एन. राजेनाऊ ने लिखा है कि अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों के अध्ययन में जो नवीनतम प्रवृत्तियां विकसित हो रही हैं उनमें से संभवतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रवृत्ति पूरे अंतर्राष्ट्रीय जगत को व्यवस्था मानकर चलने की है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन के संदर्भ में ये हमारे समक्ष कुछ उपयोगी प्रतिमान प्रस्तुत करता है और कुछ भविष्य कथन भी प्रस्तुत करने में समर्थ है जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की भावी दिशा तय करने में मदद करता है।
व्यवस्था विश्लेषण धारणा के अनुसार किसी राष्ट्र का व्यवहार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था से कुछ लेने और देने का दोतरफा किया है। व्यवस्था दृष्टिकोण राज्यों के व्यवहार के अध्ययन पर बल देता है क्योंकि राज्यों के बदलते व्यवहार का प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में दिखलाई देता है। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यवस्था उपागम को लोकप्रिय करने में मार्टिन कैप्लन का विशेष हाथ है।
संरचनात्मक संतुलन को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विश्लेषण का आधार मानते हुए मार्टिन काप्लान का मत है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक क्रम और संबंद्धता है तथा आगे भी रहेगी। कैप्लन का अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था दृष्टिकोण कई सैद्धांतिक मान्यताओं पर आधारित है। काप्लान का विचार है कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था को सुगठित रखने के लिए भौतिक शक्ति आवश्यक है। उसका विश्वास है कि राष्ट्रीय राज्यों का अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यवहार सदैव राष्ट्रीय हित के आधारभूत विचारों से अनुशासित होता है। कप्लान ने विभिन्न मान्यताओं के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के छः प्रतिमानों की कल्पना की है।
(1) शक्ति संतुलन व्यवस्थाः काप्लान के अनुसार प्रथम राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था के साथ-साथ तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुसार शक्ति संतुलन व्यवस्था स्थापित हुई। इस व्यवस्था में भाग लेने वाले राज्य अंतर्राष्ट्रीय होते हैं जो एक उपश्रेणी के रूप में राष्ट्रीय राज्य भी होते हैं। कैप्लन के अनुसार, शक्ति संतुलन व्यवस्था के कुछ नियम अपरिहार्य हैं। जैसे- प्रत्येक कार्यकर्ता को अपनी क्षमता बढ़ानी चाहिए परंतु युद्ध नहीं करना चाहिए। यदि समझौते के कारण अपनी क्षमता बढ़ानी मुश्किल हो तो युद्ध का सहारा लेनी चाहिए। किसी आवश्यक कार्यकर्ता के लिए युद्ध पर रोक लगा देना अच्छा है। व्यवस्था के भीतर किसी भी विशेष गठबंधन का विरोध करना चाहिए। अधिराष्ट्रीय सिद्धांत का विरोध करना चाहिए तथा पराजित राष्ट्र को व्यवस्था में पुनः शामिल करने जैसे नियम पालन करना चाहिए। मार्टन काप्लान का मत है कि इन नियमों का पालन न होने पर शक्ति संतुलन भंग होने की संभावना है।
(2) शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्थाः काप्लान के अनुसार शक्ति संतुलन व्यवस्था का सर्वाधिक संभावित रूपान्तरण द्विध्रुवीय व्यवस्था में होता है। इसमें दो महाशक्तियों के चारों ओर लघु शक्तियों और निर्गुट राज्यों का समूह घिरा रहा है, जिससे दो बड़ी शक्तियों की शक्ति शिथिल बनी रहती है। काप्लान के अनुसार सार्वभौम अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का विकास तब संभव होता है जब शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था के मुख्य राज्यों के कार्यों का विस्तार हो जाता है। राष्ट्रीय हित अंतर्राष्ट्रीय हित के अंतर्गत समझे जाते हैं। सभी राष्ट्र अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शांतिपूर्ण उपायों का आश्रय लेंगे। शक्ति संतुलन वाली अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के विपरीत इस व्यवस्था में भूमिका विभेदन की मात्र अधिक होती है।
(3) दृढ़ द्विध्रुवीय व्यवस्थाः यह शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था का रूपांतरित रूप है। इसमें निर्गुट तथा विश्वव्यापी उद्देश्यों के समर्थकों का पूर्णतः लोप हो जाता है या महत्वहीन हो जाता है। इस अवस्था में मध्यस्थीकरण से संबद्ध भूमिकाओं का अभाव होता है। इस व्यवस्था में स्थायित्व का अभाव रहता है।
(4) विश्वव्यापी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाः विश्वव्यापी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का विकास शिथिल द्विध्रुवीय व्यवस्था के मुख्य राज्यों के कार्यों के विस्तार से होता है। इसमें विश्वव्यापीकर्ता जैसे संयुक्त राष्ट्र संघ बहुत शक्तिशाली होता है और राष्ट्रीयकर्ताओं के मध्य होने वाले युद्ध को रोक सकता है। राष्ट्रीय कार्यकर्ता अपने उद्देश्य विश्वव्यापी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के ढांचे के भीतर ही सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे।
(5) सोपान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाः इसमें संगठन के भौगोलिक तत्वों की अपेक्षा प्रकार्यात्मक तत्व अधिक सुदृढ़ होते हैं। यह सोपानीय अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था निदेशात्मक और गैर निदेशात्मक दोनों प्रकार की हो सकती है। एकीकरण की अधिकतम मात्र के कारण इस व्यवस्था में काफी स्थायित्व रहता है।
इकाई वीटो अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाः यह एक ऐसी व्यवस्था होगी जिसमें प्रत्येक राज्य के पास निषेधाधिकार (वीटो) होगा। इसमें इस प्रकार के घातक अस्त्रों का अस्तित्व होगा कि कोई भी राष्ट्र स्वयं नष्ट होने से पहले दूसरों को नष्ट कर देने में समर्थ हों। ऐसी व्यवस्था में सार्वभौमिक संगठनों का अस्तित्व नहीं हो सकता। इस व्यवस्था में सभी कर्ता अपनी सुरक्षा के लिए अपनी सामर्थ्य पर निर्भर करते हैं।
कैप्लन के व्यवस्था निकाय सिद्धांत की आलोचना भी की गयी है।आलोचकों ने छः प्रतिमानों को मनमाना बंटवारा तथा इसे भिन्न-भिन्न कसौटियों के आधार पर अलग-अलग वर्गों में बांटने की आलोचना की है। इसकी आलोचना और भी तर्कों के आधार पर की गयी है। इसके बावजूद भी कैप्लन के कुछ प्रतिमानों की सार्थकता अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में किसी न किसी रूप में अवश्य दिखायी देती है। शक्ति संतुलन वाला प्रतिमान किसी न किसी रूप में अवश्य विद्यमान रहा है।
Question : शीत युद्ध अवधि के दौरान परम शक्ति संबंधों के एक उदाहरण के रूप में, 1962 के क्यूबाई मिसाइल संकट का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
(2004)
Answer : शीत युद्ध का प्रयोग तनाव की उस ‘अभूतपूर्व स्थिति के लिए किया गया जो कि दो पूर्व मित्रों, संयुक्त राज्य अमरीका तथा सोवियत संघ के मध्य अचानक विकसित हो गई। इस संघर्ष का एक लंबा इतिहास है। यह अंतर्राष्ट्रीय साम्यवाद और अमेरिकी पूंजीवादी के मध्य लंबे समय तक चला संघर्ष था। जिसका अंत सोवियत संघ के विघटन के बाद हो गया।
शीत युद्ध की राजनीति में बर्लिन में सोवियत संघ की सफलता को मात्र ‘छिछली विजय’ कहा गया, परंतु 1962 के अक्टूबर माह का क्यूबा संकट वास्तव में सोवियत संघ की पराजय और अमेरिका की विजय मानी गई। क्यूबा संकट निर्विवाद रूप से सबसे गंभीर था। विश्व तृतीय महायुद्ध के कगार पर पहुंच गया था। यदि जरा सी भी चूक हो जाती तो परमाणु युद्ध छिड़ने की संभावना मानी जा रही थी।
क्यूबा द्वीप कैरीबियन सागर क्षेत्र का सबसे बड़ा द्वीप है। इस द्वीप को स्पेन से अमेरिका ने स्वतंत्र करवाया था। यद्यपि 1898 में स्वतंत्रता के बाद क्यूबा अमेरिका का एक राज्य नहीं बन पाया परंतु उसकी अर्थव्यवस्था को अमेरिका के साथ संबद्ध कर दिया गया था तथा गैट संशोधन के तहत अमेरिका को उसके आंतरिक मामले को हस्तक्षेप करने का अधिकार था। गैट संशोधन की समाप्ति के पश्चात् क्यूबा में कुछ समय तक राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। 1959 तक बतिस्ता और उसके बाद फिडेल कास्त्रो सत्तारूढ़ हुए। फिडेल कास्त्रो बहुत ही महत्वाकांक्षी था। सत्ता प्राप्ति के लिए उसने अमेरिकी सहायता प्राप्त किया और सत्तारूढ़ होने के बाद वह अपने को मार्क्सवादी घोषित कर पूरी तरह सोवियत संरक्षण में आ गया। अमेरिका ने क्यूबा से राजनीति संबंध विच्छेद कर लिया तथा क्यूबा शरणार्थियों के साथ मिलकर कास्त्रो को अपदस्थ करने की योजना पर काम करने लगा। अमेरिकी सहायता की उम्मीद से निर्वासित क्यूबावासियों ने पिग्स की खड़ी में उतरने का प्रयास किया। लेकिन अमेरिका की अस्पष्ट नीति ने उन्हें प्रत्यक्ष समर्थन नहीं दिया। लाखों लोग गिरफ्रतार कर लिये गये।
पिग्स की खाड़ी के असफल अभियान ने क्यूबा को सोवियत संघ के और करीब ला दिया। सोवियत संघ में खुश्चेव ने कास्त्रो का स्वागत किया तथा अमेरिका को चुनौती देने के उद्देश्य से क्यूबा में सोवियत सैनिक अड्डा स्थापित करने का निश्चय किया। खुश्चेव ने क्यूबा को 28 जेट परमाणु बमवर्षक तथा पृथ्वी से पृथ्वी पर मार करने वाले प्रक्षेपास्त्र भेजने का निर्णय किया। दूसरी तरफ अमेरिका को भरोसा दिलाया कि उसका कोई आक्रामक इरादा नहीं है वह केवल क्यूबा की रक्षा व्यवस्था सुनिश्चित कर रहा है। मगर वो झूठ था। सोवियत संघ ने क्यूबा में लंबी दूरी मारक क्षमता वाली अनेक प्रक्षेपास्त्र, विमान भेदी प्रक्षेपास्त्र तथा सोवियत सैनिकों का जमावड़ा लिये आगे बढ़ा। अमेरिका को इस जानकारी ने संकट में डाल दिया।
अमेरिकी प्रशासन ने स्थिति से निपटने के लिए अनेक प्रस्तावों पर विचार किया। अंततः क्यूबा की नाविक घेराबंदी कर सोवियत जहाज को क्यूबा तक पहुंचने से रोकने का प्रयास हुआ। इस घेराबंदी को संगरोध रेखा (Quarantine line) कहा गया। अमेरिकी प्रशासन ने खुश्चेव को अपने जहाजों को वापस बुलाने का आग्रह किया। घेराबंदी करने का निर्णय 22 अक्टूबर, 1962 को लिया गया तथा सोवियत संघ को पुनः विचार के लिए दो दिनों का समय दिया गया। अमेरिकी घेराबंदी सफल हुई। सोवियत संघ ने संघर्ष का मार्ग छोड़कर अपने जहाजों को वापस बुला लिया। इसके साथ केनेडी ने यथास्थिति बहाल करने के आग्रह पर क्यूबा से सभी प्रक्षेपास्त्र संबंधी सामग्री भी वापस मंगवा लेने का वचन दिया। अमेरिका ने भी क्यूबा पर हमला न करने का वचन दिया। क्यूबा संकट का समाधान हो गया।
पिग्स की खाड़ी में अगर अमेरिका अपमानित हुआ था तो अक्टूबर 1962 में उसकी विजय हुई थी। परंतु उसकी विजय अधूरी साबित हुई। हालांकि संकट का बल प्रयोग के बिना समाधान के लिए राष्ट्रपति की प्रशंसा की गयी और संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की विजय हुई। परंतु इस संकट के बाद सोवियत संघ इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि परमाणु शक्ति के क्षेत्र में अमेरिका के बराबरी के बिना वह भविष्य के किसी भी संघर्ष में अमेरिका से पुनः अपमानित हुए बच नहीं सकता।
परिणामस्वरूप अमेरिकी-सोवियत परमाणु अस्त्र संबंध दो विभिन्न दिशाओं में विकसित हुए। प्रथम सोवियत संघ ने अपने परमाणु अस्त्र कार्यक्रम में तेजी लाने का प्रयास किया। दूसरी तरफ आंशिक परमाणु परीक्षण निषेध संधि दोनों देशों के बीच सीधी संचार व्यवस्था, वाह्य अंतरिक्ष संधि तथा परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किये गये। जहां तक क्यूबा का प्रश्न है, वह भी इस संकट के बाद गुट-निरपेक्ष हो गया परंतु कास्त्रो अमेरिका का कटु आलोचना करता रहा। सोवियत संघ में भी खुश्चेव के अपदस्थ होने के बाद उसकी आलोचना की गयी।
Question : यूरोपीय संघ का प्रादेशिक संगठन के एक सफल मामले के रूप में किस प्रकार उदय हुआ था? क्या अन्य प्रदेशों में भी उसकी प्रतिकृति की जा सकती है?
(2004)
Answer : यूरोपीय संघ (European union) 25 सदस्य देशों का अत्यंत प्रभावी क्षेत्रीय संगठन है। इस संगठन को क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग का मार्गदर्शक माना जाता है। इस संगठन का मुख्य उद्देश्य आर्थिक एकीकरण है। जिसमें सदस्य देशों के साथ आर्थिक सहयोग एवं मुक्त व्यापार शामिल है। यूरोपीय संघ राजनीतिक-आर्थिक एकीकरण की दिशा में में कार्यरत है। हालांकि अभी हाल में यूरोपीय एकीकरण की दिशा में तैयार किये संविधान को फिलहाल स्थगित कर दिया है।
यूरोप की एकता का विचार 1923 से चला आ रहा था जब यूरोपियन आंदोलन के नेता काऊट कलेर्गी ने यूरोप के संयुक्त राज्य की संकल्पना किया था। इसकी शुरुआत 1952 में छह देशों बेल्जियम, फ्रांस, पश्चिम जर्मनी, इटली, लक्जमबर्ग तथा नीदरलैंड्स के द्वारा स्थापित यूरोपीय कोयला एवं इस्पात समुदाय (European Coal and Steel Community, (ECSC) से हुई थी। लगभग चार दशक तक 1952 से 1992 तक यूरोप के राजनीतिक एकीकरण के कई प्रयास किये गये जिसमें यूरोपीय रक्षा समुदाय (EDC), यूरेटोम (EURATOM), यूरोपीय अणु ऊर्जा समुदाय तथा यूरोपीय आर्थिक समुदाय (EEC) हालांकि ये आर्थिक एकीकरण के प्रयास थे परंतु संस्थापकों का ये अनुमान था कि एक दिन यूरोप में राजनीतिक एकीकरण का पौधा अवश्य उपजेगा।
आपसी अंतर्विरोध इतने थे कि आर्थिक सहयोग अधिक व्यवहारिक तथा मध्यमार्गी माना गया। सन् 1992 तक साझा बाजार की विस्तृत योजना कर ली गयी तथा उसी वर्ष मॉसट्रिक संधि, जिसे यूरोपीय संघ की संधि कहते हैं पर सदस्य देशों ने हस्ताक्षर कर दिये। यह संधि 1 नवंबर, 1993 को लागू हो गयी और अब ये यूरोपीय समुदाय के स्थान पर यूरोपीय संघ की स्थापना हुई। इस संघ में यूरोपीय कोयला एवं इस्पात समुदाय, यूरोपीय अणु ऊर्जा समुदाय एवं यूरोपीय आर्थिक समुदाय तीनों का विलय कर यूरोपीय संघ की स्थापना हुई।
सोवियत संघ के विघटन एवं शीत युद्ध के समापन के पश्चात् स्थापित एक ध्रुवीय विश्व व्यवस्था में अमेरिका भले ही एकल महाशक्ति के रूप में उभरा है तथा विश्व के प्रमुख क्षेत्रों पर उसका प्रभाव है। परन्तु यूरोपीय संघ वर्तमान विश्व व्यवस्था में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने की अकांक्षा रखते हैं। यूरोपीय संघ का अंतिम उद्देश्य यूरोप का राजनीतिक एकीकरण है परन्तु उसका तत्कालिक उद्देश्य संघ राष्ट्रों के बीच आर्थिक उन्नति एवं आर्थिक सहयोग बढ़ाना तथा समस्त संघ में एक साझी मुद्रा का प्रचलन करना है। एक साझी मुद्रा के चलन से न केवल सभी देशों का एक साझा व्यापार संभव होगा और मुक्त व्यापार ही सकेगा बल्कि यूरोप के राजनीतिक एकीकरण का मार्ग भी प्रशस्त होगा। 12 सदस्य राष्ट्रों में साझामुद्रा ‘यूटो’ का पूर्ण प्रचलन 1 जनवरी, 2002 से प्रारम्भ हुआ।
इसके साथ-साथ बिना प्रदेश पत्र की यात्र से न केवल पर्यटन को बढ़ावा मिला है, बल्कि यूरोप के एक इकाई के रूप उभरने में भी सहायता मिल रही है। भारत के भी यूरोपीय यूनियन के साथ राजनयिक संबंध हैं। भारत में वाणिज्य के क्षेत्र में यूरोपीय संघ की भागीदारी सबसे अधिक है। यूरोपीय संघ में जिस गति से आर्थिक और राजनीतिक एकीकरण हो रहा है उससे एक धुव्रीय राष्ट्र का वर्चस्व नहीं रह पायेगा। ये आर्थिक एवं राजनीतिक परिपेक्ष्य में सकारात्मक संकेत है।
समकालीन विश्व में कुछ ऐसे क्षेत्रीय संगठन हैं जो लगातार प्रयास करता आ रहे हैं कि संबंधित राष्ट्र प्रादेशिक अखंडता का पर सुरक्षा तथा आंतरिक मामलों में न हस्तक्षेप करते हुए क्षेत्रीय सहयोग को प्रोत्साहन दे। क्षेत्रीय संगठनों के माध्यम से क्षेत्रीय एकीकरण की आवधारणा को संस्थात्मक संरचना का रूप प्राप्त ही कर सकता है, जिसका जीता जागता उदाहरण यूरापीय संघ है। ये आर्थिक राजनीतिक सहयोग का एकीकरण है। कुछ वैसे प्रतिबद्ध संगठनों को भी यूरोपीय संघ की तर्ज पर प्रतिरूप किया जा सकता है। जिनमें प्रमुख हैं- अफ्रीकन संघ, दक्षिण एशियाई क्षेत्रिय सहयोग संगठन अरब लीग। अफ्रीका ने इस दिशा में कदम बढ़ा भी दिया है। परंतु यूरोपीय संघ की भांति इसके सदस्य देश अपनी राष्ट्रीयता संप्रभुता के अंश को त्यागने को तैयार नहीं है।
जिससे एक सुसंगठित, अविभाज्य, संगठनात्मक एवं राजनीतिक इकाई को संभव बनाया जा सके। अफ्रीकी देशों में कहीं एक देश बहुत विकसित है कहीं एक बहुतकम विकसित। ऐसी स्थिति में सामंजस्यता लाना मुश्किल का काम है। ठीक ऐसी ही स्थिति दक्षिण एशिया के भी देशों में विद्यमान है जहां भौगोलिक स्थिति एवं सीमा विवाद के कारण कई देश अडि़यल रवैये का परिचय देते हैं।
यहां की समाजिक-आर्थिक संरचना ऐसी है जो इस दिशा में मदद कर सकती है परन्तु सबसे बड़ी समस्या भौगोलिक स्थिति में अंतर्विरोध परन्तु ये देश अगर चाहे तो आर्थिक एकीकरण तथा मुक्त व्यापार लागू कर सकते हैं जो यूरोपीय संघ के आदर्श की ओर कदम होगा।
Question : दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत के संबंध की संभावनाएं एवं समस्या।
(2004)
Answer : दक्षिण पूर्व एशिया के साथ भारत के संबंध की संभावनाएं एवं समस्याः भारत ने दक्षिण-पूर्व एशिया, जिसमें 10 देश शामिल हैं, के साथ सम्बन्धों में मजबूती के अनेक प्रयास किये हैं। भारत की भौगोलिक एवं राजनीतिक परिदृश्य में उसे दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ सम्बन्धों के प्रति सकारात्मक खि्ांचाव लाया है। सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत ने पड़ोसी देशों के साथ मित्रता का हाथ बढ़ाया। भारत दक्षिण-पूर्व एशिया का संगठन ‘आसियान’का पूर्ण वार्ता का सदस्य बन गया है। इस व्यवस्था के बाद भारत ‘आसियान’देशों तथा इस फोरम के सभी राष्ट्रों के साथ सामरिक एवं सुरक्षा मुददों पर भारत भी चर्चा करेगा।
यह बात उल्लेखनीय है कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में म्यांमार भारत के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह भारत को दक्षिण-पूर्व दशिया के दूसरे देशों से भौगोलिक रूप से जोड़ता है। म्यांमार के राष्ट्राध्यक्ष की भारत यात्रा तथा दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा तमांथि जल विद्युत परियोजना में भारत के सहयोग पर सहमति एवं आतंकवाद, तस्करी, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अपराध तथा साइबर अपराध के विरूद्ध समझौता हुआ। भारत तथा म्यांमार दोनों चाहतं हैं कि वहां लोकतंत्र बहाल हो। इसके साथ-साथ भारत तथा थाइलैण्ड के बीच लागू हुआ ऐतिहासिक मुक्त व्यापार समझौता भारत की ‘पूर्व की ओर देखो नीति’का एक पड़ाव है दक्षिण पूर्व एशियाई बाजार में भारत के प्रवेश के लिए थाइलैंड एक प्रवेश द्वार की भूमिका निभा सकता है। सिंगापुर विश्व का पहला देश है जिसके साथ भारत ने सेवा व्यापार के लिए समझौता किया है। सिंगापुर ने सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत को अपना समर्थन दुहराया है। मलेशिया भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है तथा इसने भारत की पूर्व की ओर देखो नीति की सराहना की है। 2016 तक ‘आसियान’के सभी देशों के साथ भारत का मुक्त व्यापार क्षेत्र की योजना है। दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत की भौगोलिक परिस्थिति को देखते हुए सम्बन्धित देशों के बीच उत्पादों तथा जनता के आवागमन को सुगम बनाने की दिशा में कार्यरत है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से दक्षिणी-पूर्वी एशिया संसार के सर्वाधिक विस्फोटक एवं महत्वपूर्ण स्थलों में एक है। चीन की प्रभुता पाने तथा पश्चिमी शक्तियों को इसे रोकने के कारण दक्षिण-पूर्व एशियाई देश हमेशा सुर्खियों में रहा है। चीन इन देशों में साम्यवादी व्यवस्था लागू करना चाहता है, जो भारत जैसे लोकतंत्रीय प्रणाली में विश्वास करने वाले देश के लिए खतरा है। दूसरी ओर अमेरिका भी अपनी प्रभुता जमाये रखना चाहता है। दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न देशों के बीच सीमा विवाद चल रहा है जो कभी भी अंतर्राष्ट्रीय शांति भंग होने का कारण बन सकता है। इन देशों की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं है। प्रवासी भारतीय के मुद्दे पर कभी-कभी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ कटुता उत्पन्न होता है।
Question : पारंपरिक उपागम और उसका महत्व
(2003)
Answer : तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन के परंपरागत उपागमों का संबंध मुख्यतः इतिहास, नीतिशास्त्र, दर्शन एवं कानून से रहा। प्रारंभ में परंपरागत उपागमों में विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं के औपचारिक अध्ययन पर बल दिया गया। बाद में ऐतिहासिक कानूनी पद्धतियों की प्रतिक्रियास्वरूप संरुपण पद्धति को अपनाया गया। परंपरागत उपागमों में संस्थाओं पर विशेष बल दिया गया। उन्हीं के फलस्वरूप इस उपागम में समाहित ऐतिहासिक, कानूनी, संस्थागत उपागमों का विस्तृत वर्णन किया गया।
ऐतिहासिक उपागम के अंतर्गत भिन्न-भिन्न राज्यों में शासन प्रणालियों की ऐतिहासिक विवरण तैयार करके तुलना की जाती है। अरस्तू ने इस प्रणाली का प्रयोग करके 158 देशों के संविधान का अध्ययन किया था। इसके मुख्य समर्थक मैकियावेली, मांटेस्क्यू, राकबिले, वेजहाट आदि थे।
कानूनी उपागम के अंतर्गत भिन्न-भिन्न देशों में प्रचलित संविधानों के आधार पर वहां की शासन प्रणालियों के संगठनात्मक ढांचों, शासन के अंगों की कानूनी शक्तियों और उसके परस्पर संबंधों का विश्लेषण किया जाता है और जहां आवश्यक हो, वहां संगठनात्मक सुधार के उपायों के बारे में विचार किया जाता है। इसके समर्थकों में विल्सन, फ्रेडरिक, कार्ल स्टाइन इत्यादि हैं।
संरचनात्मक उपागम के अंतर्गत कानूनी शक्तियों की जगह विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं द्वारा संपादित किये जाने वाले कार्यों की समीक्षा की जाती है। इसे निकट से जुड़े हुए सदस्य ब्राइस, फ्रैडरिक, डुवर्जर आदि हैं।
संरुपण उपागम के अंतर्गत प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को धुरी मानकर चलता है और उसका अलग से अध्ययन किया जाता है। न्यूमैन, कार्टर, हर्ज इत्यादि ने इसकी शुरुआत की।
परंपरागत उपागमों का महत्व तुलनात्मक राजनीति में अपनी महत्ता को बनाए हुए है। शासन प्रणालियां अपने स्वरूप के किस दौर से गुजरी है। वहां कानून व्यवस्था कैसी रही है, संस्थाएं किस प्रकार कार्य करती थीं? इन सबकी जानकारी परंपरागत उपागमों से प्राप्त होती है और आने वाले समय में किस प्रकार के राजनीतिक व्यवस्था कायम की जाय जो सबसे अच्छी हो, उसमें परंपरागत उपागम अपना योगदान देता है।
Question : शक्ति संतुलन तथा विश्व राजनीति पर उसका प्रभाव
(2003)
Answer : राष्ट्रों के बीच शक्ति के सामान्य वितरण को शक्ति संतुलन माना जाता है। विशेष स्थिति में इसका अर्थ यह माना जाता है कि स्वतंत्र एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र पर छा जाना।
मार्गेन्थाऊ इस सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए मानते हैं कि प्रत्येक राष्ट्र यथास्थिति को बनाए रखने अथवा बदलने के लिए दूसरे राष्ट्रों की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त करने की उम्मीद रखता है।
कई लेखक शक्ति संतुलन को नीति के रूप में देखते हैं। जैसे- विंस्टन चर्चिल, कैनेथ टामसन। कुछ लेखक इस सिद्धांत को विश्व राजनीति के एक व्यवस्था निकाय तंत्र के रूप में भी देखते हैं। जैसे- टेलर, सीलर्च आदि। ये इन संतुलनों को प्राप्त करने हेतु उपाय भी सुझाते हैं। राष्ट्र प्रायः आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार शक्ति संतुलन अपने पक्ष में करने की चेष्टा करते हैं। राष्ट्र मोटे तौर पर निम्नलिखित 6 तरीके अपनाते हैं।
(2) शस्त्रस्त्रों का भंडार तथा निःशस्त्रीकरण (2) अधिकाधिक प्रदेशों पर कब्जा कर लेना या क्षतिपूर्ति (3) मध्यवर्ती राज्य (4) मैत्री संधियों या गठबंधन (5) हस्तक्षेप (6) फूट डालो व शासन करो।
शक्ति संतुलन सिद्धांत अब भी एक मौलिक सिद्धांत है, जो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में स्थिरता को जन्म देता है। यह संतुलन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति के अनुरूप है। शक्ति संतुलन सिद्धांत राष्ट्रों की बहुसंख्या सुनिश्चित रखता है तथा राष्ट्रों में शांति कायम करने के लिए उसके सक्रिय सहयोग को सुनिश्चित करता है। कमजोर तथा छोटे राष्ट्रों की स्वतंत्रता व संप्रभुता को सुनिश्चित करता है तथा विश्व राजनीति में यह संभावना को कम करके शांति का स्रोत बन जाता है। यह सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में साम्राज्यवाद को कुचल देता है और विश्व व्यवस्था को स्थायी स्वरूप प्रदान करने में योगदान देता है।
Question : विश्व व्यापार संगठन के मुख्य अभिलक्षण
(2003)
Answer : यह संगठन उरुग्वे दौर की बहुपक्षीय वार्ता के अंतिम चरण के पश्चात 1 जनवरी, 1995 को अस्तित्व में आया। ‘गैट’ (GATT) का इस संस्था के अंतर्गत विलय हो गया तथा गैट की उरुग्वे वार्ता के सभी प्रावधान 1 दिसंबर, 2004 तक विश्व व्यापार नियमावली के अंग बन जायेंगे। भारत इसके संस्थापक सदस्यों में है। विश्व व्यापार संगठन का मुख्य उद्देश्य विश्व व्यापार का उदारीकरण करना है। संगठन के सदस्यों के लिए आवश्यक है कि वे व्यापार सेवा एवं बौद्धिक संपदा के संबंध में सही एवं निष्पक्ष नियमों का पालन करें। संगठन के सदस्य देशों द्वारा उरुग्वे चक्र के वार्ता के दौरान औद्योगिक वस्तुओं पर प्रशुल्क दर व अनुदान कम करके, आयात प्रतिबंध हटाने, बौद्धिक संपदा अधिकार पर सहमति बनाने तथा नागरिक उड्डयन, दूर संचार, वित्तीय सेवाओं एवं श्रम पर विनियम बनाने की व्यवस्था की गयी है।
विश्व व्यापार संगठन का नेतृत्व एवं व्यापार मंत्रियों के हाथों में है जो दो साल में एक बार मिलते हैं। मंत्रिस्तरीय सम्मेलन का संचालन समन्वय परिषद द्वारा किया जाता है। इसकी सहायता तीन सहायक परिषद- (1) वस्तुओं के लिए व्यापार परिषद (2) सेवा क्षेत्र के लिए व्यापार परिषद (3) बौद्धिक संपदा अधिकारों से संबद्ध परिषद करती है। इन सभी परिषदों का संचालन एक सचिवालय द्वारा होता है। इसका मुख्यालय जेनेवा (स्विट्जरलैंड) में है।
विश्व व्यापार संगठन से विकासशील देशों को सर्वाधिक फायदा होगा, ऐसा विश्व बैंक तथा अन्य पश्चिमी देशों की एजेंसियों का आकलन है। इस आकलन का अनुमान है कि विश्व व्यापार में 213 अरब डॉलर की प्रतिवर्ष बढ़ोतरी होगी।
वस्तुतः यह संगठन अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था एवं व्यापार का प्रहरी है, जो सभी देशों की व्यापार प्रणाली पर लगातार निगाह रखता है।
हाल ही में चीन का डब्ल्यू.टी.ओ. में शामिल होना न केवल भारत के लिए अपितु संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिए लाभकारी हो सकता है। कारण यह है कि चीन का बाजार एशियाई देशों के लिए उनकी मांग के अनुसार सस्ते दामों पर इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएं आसानी से उपलब्ध हो जायेंगी। जिससे चीन का पड़ोसी देशों के साथ सौहार्द्रपूर्ण वातावरण तैयार करने में मदद मिलेगी और परस्पर आर्थिक क्षेत्रीय संगठन मजबूत होंगे।
Question : सार्क देशों के सुचारु प्रचालन के रास्ते में रुकावटें
(2003)
Answer : सार्क की स्थापना 1985 में की गयी। क्षेत्रीय सहयोग की भावना से गठित राष्ट्रपति जियाउर्रहमान का सपना और सात देशों की भौगोलिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक धार्मिक एकता का प्रतीक अपने 20 वर्ष पश्चात की सहयोग की भावना को सफल नहीं बना सकी। लेकिन यह क्रियाशील रहा और जिस गति से इसको आगे बढ़ना चाहिए था, वैसा यह गति नहीं ले पाया। यह सच है कि इसने क्षेत्रीय राष्ट्रों के बीच अंतःसहयोग को बढ़ावा दिया और यह भी सच है कि अंतर्राष्ट्रीय जगत में यह न्यूनाधिक क्षेत्रीय राष्ट्रों के पक्ष में दबाव बनाने में भी सफल रहा, फिर भी इस बात से इंकार संभव नहीं है कि सार्क से जितनी अपेक्षाएं थीं, वह आज भी पूरी नहीं हुई हैं।
वस्तुतः सार्क की कुछ भौतिक और तात्विक समस्या रही है, जिसके कारण यह क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में खुलकर कार्य नहीं कर पायी है। प्रथम, सार्क अपने जन्म के समय से ही अंतर्विरोधों एवं विरोधाभासों से ग्रसित रहा है। दूसरे, वर्जित द्विपक्षीय मुद्दे भी सार्क के विभिन्न सम्मेलनों में खुलकर उछलते हैं। तीसरे, पाकिस्तान की भारत विरोधी नीति एवं सार्क के प्रति शुरू से ही निष्क्रियता भी सार्क संगठन की एक प्रमुख बाधा रही है। चौथे, राष्ट्रों के परस्पर मतभेदों जैसे भारत-पाकिस्तान मतभेद व संघर्ष, पाकिस्तान-बांग्लादेश मतभेद, भारत-बांग्लादेश मतभेद इत्यादि भी सार्क की प्रगति में रोड़ा अटकाया है। पांचवें, पाकिस्तान की भारत में आतंकवादी गतिविधियां और उसकी भारत के विरोध विषवमन की नीति सार्क के विकास के मार्ग में एक प्रमुख अवरोधक रही है। छठे, आर्थिक दृष्टि से भी सार्क की सफलता संदिग्ध दिखती है।
संबद्ध राष्ट्रों के परस्पर मतभेदों के बावजूद अतः क्षेत्रीय सहयोग पर बल देकर दक्षिण-दक्षिण सहयोग व उत्तर-दक्षिण सहयोग के तथ्य पर जोर देकर ‘साप्टा’ (SAPTA) को अपना कर साफ्टा को विकासोन्मुख कर, नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की मांग को तीव्रता प्रदान कर तथा परमाणु मुक्त विश्व की अवधारणा प्रस्तुत कर सार्क अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है।
Question : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन में यर्थाथवादी सिद्धांत को स्पष्टतया समझाइये।
(2003)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक यथार्थवाद के मुख्य प्रवर्तक जे. मार्गेन्थाऊ रहे हैं। यह सिद्धांत राष्ट्रों के मध्य शक्ति के लिये संघर्ष के सभी पहलुओं का वर्णन करता है। इस सिद्धान्त का विस्तृत रूप 1945 के बाद देखने को मिलता है।
मार्गेन्थाऊ के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति प्रायः सभी राजनीतियों की तरह राष्ट्रों के मध्य संघर्ष है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अंतिम उद्देश्य चाहे कुछ भी रहा हो, इसका तत्कालीन उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना होता है।
प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को शक्ति द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता है। इससे राष्ट्रों के मध्य शक्ति का संघर्ष होता है। इसलिए मार्गेन्थाऊ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति के दृष्टिकोण को अपनाते हैं और सारा ध्यान शक्ति पर लगाते हैं। फिर यह प्रश्न उठता है कि इसे यथार्थवाद क्यों कहा जाता है?
मार्गेन्थाऊ के सिद्धांत को इसलिये यथार्थवाद कहा जाता है क्योंकि यह मानव के स्वभाव, जो तथा वास्तव में घटी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से संबंधित है एवं राष्ट्र हमेशा अपने हितों को बनाये तथा सुरक्षित रखना चाहता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय शक्ति एक साधन है। इस तरह प्रत्येक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के साथ शक्ति संघर्ष में लिप्त रहता है।
मार्गेन्थाऊ ने अपने यर्थाथवादी सिद्धान्त के छः सिद्धान्तों का वर्णन किया है जिनको मिलाकर राजनीतिक यथार्थवाद एक पूर्ण सिद्धांत बनता है।
1. मानवीय स्वभाव के वस्तुनिष्ठ कानूनों पर आधारित राजनीतिक सिद्धान्तः मार्गेन्थाऊ कहते हैं- राजनीति सामान्य समाज की तरह, उस वस्तुनिष्ठ नियमों द्वारा संचालित होती है जिनकी जड़ें मानव के स्वभाव में हैं। यह कानून मानवीय अधिमानों के लिये दुर्भेद हैं, इसलिये न तो इनसे इनकार किया जा सकता है तथा न ही इन्हें चुनौती दी जा सकती है।
(क)मानवीय संबंधों के तथ्यः राजनीति के कानूनों का मुख्य आधार मानव स्वभाव होता है और वह अधिक परिवर्तित नहीं होता। अतः राजनीतिक सिद्धान्त का नया स्वरूप मानना सदा अच्छा नहीं होता और न ही पुराना जीवन काल एक बुराई होता है।
(ख)विवेकपूर्ण परिकल्पनाः मार्गेन्थाऊ शक्ति सिद्धान्त का उदाहरण देता है, जिसका राजनीति तथा तर्क दोनों प्रकार के तथ्य समर्थन करते हैं, इसी प्रकार वे लिखते हैं विदेश नीति का स्वरूप केवल दिये गये राजनीतिक कार्यों तथा इन कार्यों के संभावित परिणामों के परीक्षण से ही जांचा जा सकता है।
2. राष्ट्रीय शक्ति के रूप में परिभाषित राष्ट्रीय हितः यही सिद्धांत इस सिद्धांत का केंद्र बिंदु है जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का वर्णन करने के लिए शक्ति के रूप में परिभाषित हित के अध्ययन की वकालत करता है। मार्गेन्थाऊ के अनुसारः शक्ति के रूप में परिभाषित हित एक ऐसा मुख्य मील का पत्थर है जो अंतराष्ट्रीय राजनीति की जमीन में से रास्ता ढूंढने के लिए राजनीतिक यथार्थवाद की सहायता करता है। यह धारणा अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को समझने के कारणों तथा समझने योग्य तथ्यों के मध्य संबंध स्थापित करती है।
राष्ट्रीय हित हमेशा राष्ट्रीय शक्ति द्वारा ही सुरक्षित किया जाता है। यह सिद्धान्त राजनेताओं के व्यवहार दो तरह से परिभाषित करता हैः
(क)राजनीतिक यथार्थवाद राजनेताओं के मंतव्य पर अधिक जोर नहीं देता।
(ख)यह सिद्धांत अपने को इस श्रम से दूर रखता है कि एक राजनेता की विदेश नीति उसकी विचारारात्मक अथवा दार्शनिक अथवा राजनीतिक झुकावों के अनुरूप होती है।
(ग)राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय शक्ति विदेश नीति के निर्धारक तत्व होते हैं।
(घ)मार्गेन्थाऊ के अनुसार यह विद्यार्थियों पर बौद्धिक अनुशासन लागू करता है। राजनीति का विषयवस्तु में एक तार्किक क्रम पैदा करता है और इस तरह राजनीति के सिद्धांत को समझने संभव बनाता है।
3. हित सदैव परिवर्तनीय हैः किसी राष्ट्र की राष्ट्रीय शक्ति हमेशा परिवर्तनीय होती है तथा राष्ट्रीय हित प्राप्त करने वाले वातावरण में परिवर्तन के साथ ही यह परिवर्तित हो जाती है।
राष्ट्रीय हित तथा राष्ट्रीय शक्ति का लगातार मूल्यांकन होते रहना चाहिए।
4. अमूर्त नैतिक नियम राजनीति पर लागू नहीं किये जा सकते। राजनीतिक यथार्थवाद नैतिक नियमों के महत्व को मानता है, परन्तु उसका यह दृढ़ विश्वास है कि अमूर्त और सर्वमान्य स्वरूप के रूप में उन्हें राज कार्यों पर लागू नहीं किया जा सकता।
बुद्धिमता ही मार्गदर्शक हो सकती है। बुद्धिमता के बिना यानि किसी कथित नैतिक कार्य के राजनीतिक परिणामों पर ध्यान दिये बिना, राजनीतिक नैतिकता नहीं हो सकती। यथार्थवाद बुद्धिमता को वैकल्पिक राजनीतिक कार्यों के परिणामों की तुलना करना सबसे उत्तम गुण मानता है।
5. एक राष्ट्र की नैतिक आकांक्षाओं तथा सार्वभौम नैतिक मूल्यों में अंतर होता है। राजनीतिक यथार्थवाद किसी विशेष राज्य की नैतिक आकांक्षाओं तथा सारी दुनिया पर लागू होने वाले नैतिक मूल्यों को एक समान मानने से इन्कार करता है। वह यह भी मानने से इन्कार करता है। वह यह भी मानने से इन्कार करता है कि किसी राज्य के राष्ट्रीय हित या नीतियां सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्तों का ही प्रतिबिंब होता है। राष्ट्र सदैव राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करते हैं, न कि नैतिक सिद्धान्तों को।
6. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की स्वायत्तताः बौद्धिक रूप से राजनीतिक यर्थाथवाद राजनीतिक क्षेत्र की स्वायत्तता को कायम करता है। एक राजनीतिक यथार्थवादी हमेशा शक्ति के रूप में परिभाषित हितों के बारे में सोचता है। एक वकील वैध नियमों से अपने कार्यों की पुष्टि करता है तथा एक नीतिवान अपने कार्यों की नैतिक कानूनों द्वारा पुष्टि करता है।
इसलिए हम कह सकते हैं कि राजनीतिक यथार्थवाद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को राष्ट्रों के मध्य शक्ति के लिए संघर्ष मानता है, जिसमें हर राष्ट्र अपना राष्ट्रीय हित प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के लिए युक्तिसंगत तथा यथार्थवादी सिद्धांत बनाना चाहता है और इसके लिए शक्ति के रूप में पारिभाषित हित की अवधारणा को ऐसा मील का पत्थर मानता है, जो राष्ट्रों की सभी नीतियों तथा कार्यों को समझने तथा उनका विश्लेषण करने के लिये सहायक हो सकती हैं। यह राजकीय जांच के लिए नैतिक नियमों को लागू नहीं करता अपितु बुद्धिमता पर निर्भर रहने की वकालत करता है। यह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की स्वायत्तता की वकालत करता है। शान्ति के लिये वह कूट नीति को वरीयता देता है। मार्गेन्थाऊ के यथार्थवादी सिद्धांत की वैनो वासरमैन, रार्बट टक्कर, स्टेनले हाफमैन तथा कई अन्य दूसरे आलोचकों द्वारा इसकी बहुत तीखी आलोचना की है।
वासर मैन के अनुसार, मार्गेन्थाऊ का सिद्धान्त अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के वैज्ञानिक सिद्धांत के विकास पर गंभीर अंकुश है।
रार्वट टक्कर के अनुसार, यह न तो पूरी तरह यथार्थवादी है और नही इन नियमों का आपस में समन्वय है।
निष्कर्षः यह मार्गेन्थाऊ के प्रयत्नों का फल है कि हमारे लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत के रूप में राजनीतिक यथार्थवाद क्रम बद्ध विचारधारा का होना सम्भव हो पाया। निःसन्देह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत के रूप में यह एक अपर्याप्त तथा कमजोर सिद्धांत है, फिर भी कहना ही होगा कि इससे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के वास्तविक अध्ययन को प्रोत्साहन मिला। इसने बदलते हुए समय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को आदर्शवाद से बदल कर विज्ञानवाद की तरफ ले जाने में एक प्रमुख साधन का काम किया है। मार्गेन्थाऊ को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में ऐसे अनुसंधान तथा अध्ययन को लोक प्रिय बनाने का श्रेय मिलना ही चाहिए, जिसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक स्वायत विषय के रूप में अपनी पहचान कायम करने में सहायता दी है।
Question : क्या आपके विचार में सोवियत संघ के विघटन के बाद अब भी शीत युद्ध विद्यमान है?
(2003)
Answer : सोवियत संघ के विघटन को 20वीं शताब्दी की एक आश्चर्यजनक घटना कहा जा सकता है। जिस प्रकार 1917 में आयी समाजवादी क्रांति के बाद सोवियत संघ के उद्भव ने 20वीं शताब्दी के आरंभ में विश्व राजनीति को गहरे रूप में प्रभावित किया था, उसी तरह 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में सोवियत संघ का विघटन भी विश्व राजनीति में परिवर्तन का एक महान स्वप्नद्रष्टा बना।
74 वर्षों तक एक महाशक्ति के रूप में विश्व राजनीति को प्रभावित करने के पश्चात 1991 में सोवियत संघ का ‘पेरोस्त्रेइका’ तथा ‘ग्लासनोस्त’ से उत्पन्न राजनीतिक उथल-पुथल तथा आर्थिक कमजोरी के कारण विघटन हो गया। सोवियत संघ का विघटन ऐसे समय पर हुआ जबकि शीतयुद्ध अपनी अंतिम सांसें गिन रहा था। पूर्वी यूरोप में उदारवादी लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी, वारसा समझौता समाप्त हो चुका था तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा सह-अस्तित्व का सिद्धांत अपनी पगडंडियां तय कर चुका था। ‘आईएनएफ’ तथा ‘स्टार्ट’ संधियों ने शस्त्र नियंत्रण तथा निःशस्त्रीकरण की प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। इन सभी परिवर्तनों ने विश्व व्यवस्था को एक नया रूप देना आरंभ कर दिया था कि सोवियत संघ का विघटन हो गया है तथा परिवर्तन की प्रक्रिया और भी व्यापक तथा और भी गहन हो गयी है। दोनों में से एक ‘रूस’ महाशक्ति बनने के बाद सिर्फ किताबी पन्नों में सिमट कर रह गया तथा दूसरा ‘अमेरिका’ अपने अस्तित्व और उपलब्धि के साथ भविष्य में सिरमौर बना हुआ है।
जहां तक शीत युद्ध की समकालीन उपस्थिति का सवाल है तो यह कहा जा सकता है कि शीत युद्ध तो आज औपचारिक रूप से समाप्त हो चुका है किंतु वास्तव में विश्व राजनीति में इसके अनौपचारिक अवशेष बचे हुए हैं। यह बात दूसरी है कि आज इसकी प्रकृति काफी परिवर्तित हो चुकी है, जब शीतयुद्ध का स्थान क्षेत्रीय युद्ध और Proxy War ने ले लिया है। उल्लेखनीय है कि शीत युद्ध के दौरान जो साधन अपनाये जाते थे, वे आज भी दो परस्पर विरोधी राष्ट्रों के बीच अपनाये जाते हैं। राजनीतिक नीति और कूटनीति के कलुषित मानदंड वर्तमान में भी अपनाये जा रहे हैं। प्रचार, शक्ति प्रदर्शन, आर्थिक सहायता, कूटनीतिक साधन, जासूसी, शस्त्रों का प्रसार इत्यादि साधन आज भी परस्पर विरोधी राष्ट्रों के बीच अपने राष्ट्र विकास को प्रदर्शित करने के लिए मान्य माने जा रहे हैं।
गौरतलब है कि आज शीत युद्ध का स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। यह अब दो विचारधाराओं और दो ब्लॉकों का युद्ध नहीं रह गया है बल्कि इसने दो राष्ट्रों, दो क्षेत्रों और दो शक्तियों के बीच के युद्ध का रूप ले लिया है। क्षेत्रीय और द्विपक्षीय तनाव और संघर्ष इसी की उत्पत्ति है। अरब-इजरायल मतभेद, भारत-पाकिस्तान मतभेद, इराक-ईरान संघर्ष, पाकिस्तान-बांग्लादेश अंतर्द्वंद्व आदि को इसी दृष्टिकोण से देखा जा सकता है, क्योंकि इन परस्पर विरोधी पक्षों में युद्धोपरांत आणविक शक्ति से उत्पन्न आतंक के संतुलन की वजह से परस्पर वाक् युद्ध की स्थिति बनी हुई है। दोनों पक्ष एक-दूसरे के विरुद्ध प्रचार करते हैं। एक-दूसरे के विरुद्ध शस्त्रस्त्रों का प्रसार करते हैं। एक-दूसरे के विरुद्ध कूटनीतिक व्यवहार तथा जासूसी करते हैं तथा महाशक्तियों को अपने पक्ष में प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश करते हैं। इन सबका उद्देश्य मुख्यतः एक राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय जगत में दूसरे राष्ट्र की स्थिति को कमजोर बनाना होता है। जैसे- पाकिस्तान भारत के विरुद्ध, अरब-इजरायल के विरुद्ध, बांग्लादेश भारत के विरुद्ध।
समाजवादी सोवियत संघ का विघटन तथा पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवादी शासनों के पतन के बाद साम्यवादी विचारधारा को गहरा धक्का लगा, जिससे एशिया की एक बड़ी शक्ति चीन ने भी एक शक्ति के रूप में अपने आप को अकेला पाया। लिहाजा इसे भी अपनी आर्थिक व्यवस्था को उदार बनाना पड़ा तथा भारत, जापान, वियतनाम तथा अन्य एशियाई देशों के साथ संबंधों में सुधार के लिए विवश होना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद पर बढ़ रहा अमेरिकी प्रभुत्व पर अंकुश लगाना भी चीन के लिए कठिन हो गया। वियतनाम से भी कंबोडिया को अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी। चीन के साथ तथा अन्य एशियाई देशों के साथ मित्रता और सहयोग की स्थापना करनी पड़ी। इसी क्रम में जापान को भी एशिया में अपनी भूमिका का पुनर्निर्धारण करना पड़ा और तकनीकी अर्थव्यवस्था को पुष्ट करना पड़ा। नये वातावरण में लगभग सभी देशों को अपनी सैनिक शक्ति का कुछ विकास करना पड़ा और रक्षा बजट में वृद्धि करनी पड़ी।
अमेरिका के साथ आर्थिक शीत युद्ध छिड़ जाने की आशंका से जापान के द्वारा एशिया के देशों की विशेषकर भारत और चीन के साथ व्यापार संबंधों को बढ़ाने की आवश्यकता पड़ी। परिणामस्वरूप जी-8, साफ्टा आदि का उद्भव हुआ। यूरोपीय यूनियन की क्रियाविधि इसी शुभ पर आधारित है। अभी हाल में 12वें सार्क सम्मेलन के तहत भारत द्वारा दक्षिण एशिया संघ का पुष्ट विचार रखा गया। केंद्रीय एशिया तथा पश्चिम एशिया में कट्टर शक्तियों के बढ़ते बल पर अंकुश लगाने के लिए लोकतंत्रीय और धर्मनिरपेक्ष देशों को भी अपनी कुछ नीतियों में परिवर्तन करना पड़ा। परिवर्तित वातावरण पाकिस्तान ने केंद्रीय एशिया तथा पश्चिम एशिया की तरफ झुककर आर्थिक सहयोग संगठन का निर्माण किया।
1985-90 के दौरान भूतपूर्व सोवियत संघ की शक्ति में जो ह्रास हुआ, उसने अफगानिस्तान और कंबोडिया संकटों के समापन और पश्चिम एशिया में शांति की स्थापना हेतु इजरायल व अरब में बातचीन को नयी और आवश्यक परिस्थितियां उत्पन्न कर दी।
इसी परिवेश का परिणाम यह है कि जहां एक तरफ अमेरिका की निरंकुश शक्ति पर अंकुश लगाने के लिए रूस, चीन व भारत मिलकर एक नया त्रिकोण बनाने को प्रतिबद्ध हैं, वहीं अमेरिका भी अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए कभी भारत तो कभी पाकिस्तान का कूटनीतिक समर्थन करता रहा।
अमेरिका द्वारा घोषित लीबिया, ईरान तथा उत्तरी कोरिया को शैतानियत की धूरी कहा जाना भी अमेरिका की वर्चस्ववादी कूटनीति हो सकती है, जो समकालीन परिवेश में शीत युद्ध की समाप्ति के बाद एक नये अनौपचारिक शीत युद्ध का श्रीगणेश कर रहा है।
समग्रतः यह कहा जा सकता है कि यद्यपि औपचारिक रूप से तो शीत युद्ध का अंत हो चुका है किंतु इसका अनौपचारिक स्वरूप आज भी बना हुआ है। पहले यह शीत युद्ध जहां दो शक्तियों के बीच अस्तित्व के लिए हो रहा था, वही अब यह बहुध्रुवीय शक्तियों के गठजोड़ के साथ किसी एक राष्ट्र के विरुद्ध या अमेरिका या इस्लामिक कट्टर वाद के विरुद्ध हो रहा है।
Question : संयुक्त राष्ट्र तंत्र के अधीन मानवाधिकारों के संरक्षण एवं प्रवर्तन का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2003)
Answer : साधारणतः अधिकारों को व्यक्ति का ऐसा दावा कहा जाता है जो समाज द्वारा स्वीकृत हो तथा राज्य द्वारा लागू किया जा रहा हो। ये अधिकार व्यक्ति के लिए इतने महत्वपूर्ण माने जाते हैं कि इनकी अनुपस्थिति में कोई भी व्यक्ति अपने श्रेष्ठ स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकता। रैण्डम हाउस एनसाइक्लोपीडिया में लिखा है कि मानव अधिकार ‘एक मनुष्य होने के नाते ही एक व्यक्ति की शक्तियों, अस्तित्व की शर्तों तथा प्राप्तियों के दावे होते हैं।’ ये वह अधिकार होते हैं जो मनुष्य की प्रकृति में नीहित होते हैं तथा जो उसके मनुष्य जीवन जीने के लिए नितांत आवश्यक हैं।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अधीन कार्य करते हुए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद ने फरवरी 1946 में मानव अधिकार आयोग की स्थापना की। इस आयोग को यह निर्देश दिया गया कि मानव अधिकारों से संबंधित अन्य विषयों पर रिर्पोट पेश करे। आयोग ने मानव अधिकारों से संबंधित सार्वभौमिक घोषणा तथा कुछ अन्य समझौतों पर मसौदा तैयार किया।
यह मसौदा संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 दिसंबर, 1948 को स्वीकार कर लिया। इस तरह मानव अधिकारों की सुरक्षा मजबूत की गयी। तत्पश्चात 10 दिसंबर को हम मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाते हैं।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में एक प्रस्तावना तथा 30 अनुच्छेद हैं, जिनमें नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का वर्णन है। मानवाधिकार का मुद्दा भी समकालीन विश्व जगत के एक प्रमुख सरोकार के रूप में उभरा है। पिछले कुछ वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय जगत को शायद किसी तत्व ने इतना अधिक उद्देलित नहीं किया, जितना कि मानवाधिकार के मुद्दे ने किया है। मानवाधिकार के हनन तथा संरक्षण का प्रश्न विश्व के राष्ट्रों के लिए आज अत्यन्त महत्वपूर्ण सरोकार बना हुआ है। मानवाधिकार को लोकतांत्रिक अधिकार या जीवन के मूलभूत अधिकार भी माना जाता है। ये मौलिक अधिकार या मूलभूत इसलिए होते हैं कि ये लोगों के जीवन और व्यक्तित्व के चहुंमुखी विकास के लिए परमावश्यक होते हैं। ये मानवाधिकार मनुष्य की प्रकृति से जुड़े हुए हैं और मानव अधिकार की संकल्पना का विकास मनुष्य के नैतिक परिपेक्ष्य में करते हैं। टामस पेन तथा लैफन ने जिस प्राकृतिक अधिकार की संकल्पना प्रस्तुत की, भविष्य में उसी से मानवाधिकार की संकल्पना विकसित हुई।
1776 की अमरीकी स्वाधीनता की घोषणा में मानव अधिकार की घोषणा की प्रासंगिकता भी संशोधनों से प्रकाश में आयी, जिससे विश्व राजनीतिक मंच पर मानव अधिकार पुष्ट होकर उभरा तथा 1789 की फ्रांसीसी घोषणा ने वास्तव में मानव अधिकार की संकल्पना को विकसित करने में एक पथ प्रदर्शन का कार्य किया। जब सभी लोकतांत्रिक देशों में एक होड़ लगाने का कार्य कि लोगों के लिए मानवाधिकार अत्यावश्यक हैं तथा सभी ने अपनी लोकतंत्रीय प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में इसे आवश्यक समझा और अपनी नीति में इसे अपरिहार्य एवं मुख्य कार्य माना। बाद के वर्षों में 1948 की संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार संबंधी घोषणा ने भी मानवाधिकार के महत्व को और अधिक बल प्रदान किया। वस्तुतः मानवाधिकार मोटे तौर पर वे अधिकार हैं जो स्वयं प्रकृति की देन है, इसलिए कोई उनका हरण नहीं कर सकता। यह किसी दूसरे को हस्तांतरित नहीं किए जा सकते।
मानवाधिकारों से आशय चार प्रकार के अधिकारों से है।
(i)ऐसे अधिकार जो प्रत्येक मानव में जन्मजात होते हैं और उसके जीवन के अभिन्न अंग होते हैं।
(ii)ऐसे अधिकार जो लोगों के जीवन और उसके विकास के लिए आधारभूत होते हैं।
(iii)ऐसे अधिकार जिनके उपयोग के लिए उचित सामाजिक दशाओं का होना एक पूर्व मत है तथा,
(iv)ऐसे अधिकार जिन्हें मानव की प्राथमिक आवश्यकताओं व मांगों के रूप में प्रत्येक राज्य को अपने संविधान तथा कानूनों में सम्मिलित कर लेना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि मानवाधिकारों का सर्वोत्तम स्पष्टीकरण संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 10 दिसंबर, 1948 में होता है। जिसमें मुख्यतः स्वतंत्रता एवं समानता का अधिकार, जीवन का अधिकार, संपति का अधिकार, राजनीतिक अधिकार, कानून की उचित प्रक्रिया का अधिकार, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास का अधिकार, बच्चों एवं महिलाओं, आत्मनिर्णय एवं विकास के अधिकार इत्यादि अधिकारों को शामिल किया गया है।
इन संयुक्त राष्ट्र घोषणाओं के अतिरिक्त कई अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने संधियों और समझौते के द्वारा मानवाधिकारों के प्रति सुरक्षा, सम्मान एवं संकल्प व्यक्त किये हैं, जिसमें 1950 का मानवाधिकार संबंधी यूरोपीय अभिसमय, 1966 का मानवाधिकार संबंधी अमरीकी अभिसमय, 1975 का हेलसिंकी समझौता, 1981 का जनवादी एवं मानव अधिकार संबंधी अफ्रीकी अधिकार पत्र इत्यादि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
बाद के वर्षों में जैसे-जैसे मानवाधिकार का मुद्दा जोर पकड़ता गया, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनसे संबंधित संगठन भी विकसित हुए। मानवाधिकारों की देख-रेख के सन्दर्भ में 1921 में लंदन में स्थापित एमनेस्टी इंटरनेशनल, 1971 में स्थापित डाक्टर्स विदाउट वौडर्स, जिसे आस्कर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है, 1978 में “युमन राइटस (HUMAN RIGHTS) वाच, 1946 में ब्रुसेल्स में स्थापित इंटर नेशनल एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक लीयर्स, 1980 में मनीला में स्थापित थर्ड वर्ल्स मूवमेंट अर्गेस्ट दि एक्सप्लाइरेशन आफ वूमेन इत्यादि संस्थाएं महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं।
भारत में पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज, पीपुल्स युनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स एवं मानवाधिकार आयोग इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य रहे हैं।
निष्कर्षतः आज विश्व के प्रायः सभी राष्ट्रों ने मानवाधिकारों के सम्मान एवं संरक्षण पर बल देना शुरू किया है। इसी की परिणति है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राज्य मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया। इस तथ्य को राज्यों के लोकतांत्रिक एवं कल्याणकारी स्वरूप ने भी बल प्रदान किया है। ऐसे हमें समकालीन विश्व में मानवाधिकारों के प्रति जो सम्मान और सजगता बढ़ी है उसे हम अपनी सभ्यता की महान उपलब्धि मान सकते हैं।
Question : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का मार्क्सवादी उपागम
(2002)
Answer : मार्क्सवादी उपागम का हम पूर्णतः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के धरातल पर अनुप्रयोग करते आये हैं। मार्क्स ने दुनिया के मजदूरों को एकीकृत होने का आह्नान किया। मार्क्सवाद के अनुसार सारी दुनिया के देशों को एक प्रगतिशील सामाजिक-राजनैतिक विचार पर बात कर उसे अपने सही धरातल पर उतारने की बात करते हैं। इसलिए मार्क्सवादी वैज्ञानिक साम्यवादी व्यवस्था पर विश्वास करते हैं।
यद्यपि मार्क्सवादी उपागम का महत्व एवं व्याख्या सभी बिंदुओं जैसे सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक आधार पर की गयी है परंतु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में मार्क्सवादी सारी दुनिया को दो प्रकार के देशों में विभाजित करते हैं- (1) विकसित देश, (2) विकासशील या अविकसित देश। विकसित देश वास्तव में पूंजीवाद व्यवस्था को निरूपित करते हैं एवं ये सभी रूपों में आर्थिक, तकनीकी, वैज्ञानिक एवं राजनैतिक रूप से शक्तिशाली होते हैं। परन्तु दूसरी ओर जो विकासशील देश हैं उसे अपनी आवश्यकता की पूर्ति एवं विकास के लिए विकसित देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। विकासशील देश वास्तविक रूप से गरीब होते हैं। इस सापेक्ष में हम अमेरिका एवं ब्रिटेन जैसे देश को विकसित श्रेणी एवं तृतीय प्रकार के देशों को हम विकासशील देशों की श्रेणी में रखते हैं। मार्क्सवाद के अनुसार- ये विकसित देशों विकासशील देशों से सभी प्रकार के कच्चेपदार्थों का आयात कर वह अपने तकनीकी के द्वारा नये समान बनाकर विकासशील देशों को निर्यात करते हैं एवं यह आयात-निर्यात का अनुपात आर्थिक रूप से काफी असमान एवं भेदभाव पूर्ण होते हैं जिसके कारण विकासशील देशों आर्थिक शोषण होता है। परंतु विकासशील देशों को फिर भी विकसित देशों पर निर्भरता बनी रहती है।
इसका दूसरा अनुप्रयोग संकट के समय होता है। इस समय विकसित देशों के द्वारा विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगाये जाते हैं, जिसके फलस्वरूप विभिन्न देशों के बीच युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। अतः ऐसी स्थिति पैदा न हो इसके लिए मार्क्स सहयोग एवं मातृत्व की भावना की महत्ता की बात करता है। मार्क्सवादी इस प्रकार के तनाव को समाप्त करने के पक्ष में हैं। फिर सवाल उठता है कि इस प्रकार का तनाव किस प्रकार समाप्त किये जाये, तो मार्क्स का उत्तर है साम्यवाद का प्रयोग करके। इससे संबंधित प्रमुख विचार वालरास्टाइन ने अपने विश्व पद्धति के सिद्धान्तके द्वारा हल करने की प्रस्तावना को प्रस्तुत किया है कि इस संसार को किस प्रकार स्वीकृत किया जाये एवं अंत में इन्होंने ने भी मार्क्सवाद के सहयोग एवं व्यवस्थित पद्वति को अपनाने पर बल दिया है। वास्तव में, मार्क्सवाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रमुख भूमिका निभा सकता है।
Question : राष्ट्रीय सुरक्षा की बदलती प्रकृति तथा गतिकी
(2002)
Answer : वर्तमान समय में राष्ट्रीय सुरक्षा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह किसी देश के भी राष्ट्रीय महत्व के क्रियान्वित एवं विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। पहले राष्ट्रीय सुरक्षा की अवधारणा वस्तुतः आंतरिक एवं बाहरी कारणों के सापेक्ष में लिया जाता था। जिसमें अंतर्राष्ट्रीय सीमा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता था, साथ ही यह भी सत्य है कि राष्ट्रीय सुरक्षा न केवल देश या राज्य की सम्पति, क्षेत्र या व्यक्ति को बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा करजा है बल्कि आंतरिक स्थितियों से भी सुरक्षा करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन आज के समय में राष्ट्रीय सुरक्षा न कोई स्थैतिक या स्थिर अवधारणा है बल्कि काफी परिवर्तन एवं गतिशील है। जैसे-जैसे तकनीकी और आधुनिकता में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे ही इसका रूप बदलता जाता है। वर्तमान समय में राष्ट्रीय सुरक्षा एक राष्ट्र तक सीमित होकर नहीं रह गया, बल्कि ग्लोबल हो गया है। अतः हर एक देश को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बल तथा डिप्लोमेटिक (कूटनीतिक) दोनों प्रकार के अस्त्रों का प्रयोग करना पड़ता है। राष्ट्रीय सुरक्षा विभिन्न आयामों पर केंद्रित करता है। इसका कारण यह है कि इसे ग्लोबल देशों के साथ राष्ट्रीय तकनीकी, औद्योगिक क्षमता एवं आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ रखना पड़ता है, जिससे वे सामाजिक न्याय एवं समानता के बिंदुओं पर मिलीटरी संगठन से साथ खरा उतरे।
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय तथा राष्ट्रीय सुरक्षा तीनों साथ-साथ इस वैश्वीकरण के समय चलता है। वस्तुतः किसी भी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा अंतर्राष्ट्रीय वातावरण के साथ चलायमान रहता है। कोई भी देश निश्चित रूप से यह आशा नहीं कर सकता है कि कौन उसका मित्र है और कौन शत्रु। अतः राष्ट्रीय सुरक्षा को कायम रखने के लिए सभी देशों के साथ सहयोगात्मक एवं मातृत्व संबंध स्थापित करना चाहिए एवं साथ ही सभी आंतरिक दृष्टिकोणों से भी परिचित होना आवश्यक है। पालमर एवं पर्किन्स ने सच ही कहा है कि जहां राष्ट्रीय राज्य राजनीतिक संगठन के रूप में कायम है वहां राष्ट्रीय सुरक्षा को कायम रखना जरूरी है।
Question : मानव अधिकार और लोकोपकारी मध्यक्षेप
(2002)
Answer : मानव अधिकार और लोकोपकारी मध्यक्षेप: मानव अधिकार किसी व्यक्ति के जीवन, समानता एवं गरिमा को कायम रखने से संबंधित हैं। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर 1 में यह वर्णित है कि संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य मानव अधिकार, जाति, लिंग, भाषा तथा धर्म के भेदभाव किये बिना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्राप्त करना है। जहां तक मानव अधिकार की बात यह कि व्यक्ति को जीवन, सुरक्षा, स्वतंत्रता प्रदान करता है एवं किसी भी प्रकार का अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध असहयोगात्मक प्रवृत्ति का संचार करता है। यह व्यक्ति को हर एक क्षेत्र में स्वतंत्रता प्रदान करता है परंतु शिष्टाचार एवं पद्वति के अंतर्गत।
अतः मानव अधिकार मानवता की स्थिति को कायम रखने की एक व्यवस्था है परंतु वर्तमान समय में हम देखते हैं कि यह बहुत सारे अमानवीय घटनाओं को नियंत्रित करने में असफल रहा है। जैसे अभी हाल ही में गुजरात में दंगे वृहत पैमाने पर किये गये। अगर हम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के धरातल पर देखें तो यह बात और स्पष्ट होकर सामने आती है। अभी हाल ही ओसामा बिन लादेन के नाम पर अफगानिस्तान के बच्चों, औरतों एवं बेकसूर लोगों की वृहत पैमाने पर हत्या क्या मानव अधिकार का लोकोपकारी मध्यक्षेप नहीं है तो और क्या है? पुनः अभी अमेरिका की तैयारी इराक को तबाह करने की हो रही है। हो सकता है वहां की जनता को अपने जीवन से हाथ धोना पड़े। अतः सारा इतिहास चाहे वह राष्ट्रीय हो या अंतर्राष्ट्रीय, मानव अधिकारों के हनन से भरा हुआ है। मानव अधिकार सभी के लिए समान होता है। यह सिर्फ अमीरों के लिए होता है। मानव अधिकार सभी भेदभावों से परे है। यह समाज में सामंजस्य एवं सहयोग की नींव पर टिके हैं। फिर भी, बहुत से संगठन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकारों की रक्षा का प्रयास करते हैं।
Question : क्षेत्रीय सहयोग के तृतीय संसार प्रतिमान के रूप में आसियान
(2002)
Answer : क्षेत्रीय सहयोग के तृतीय संसार प्रतिमान के रूप में आसियानः दक्षिण-पूर्व एशियाई सन्धि संगठन यानि आसियान की स्थापना बैंकाक घोषणा के दौरान 1967 में की गयी थी। अभी वर्तमान में आसियान के देशों की कुल संख्या 9 है। आसियान के प्रमुख उद्देश्यों में क्षेत्र में आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति तथा सांस्कृतिक विकास में गति लाना, क्षेत्रीय सहयोग तथा स्थिरता में वृद्धि करना, वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास, शैक्षणिक तथा तकनीकी क्षेत्रों में सहयोग एवं सहायता प्रदान करना, दक्षिण एशियाई क्षेत्र से संबंधित अध्ययनों में वृद्धि करना, कृषि क्षेत्र तथा औद्योगिक क्षेत्रों तथा व्यापार में सहयोग से कार्य करना तथा समान उद्देश्यों वाले अन्य क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग करना शामिल हैं।
वास्तविक रूप से यह संगठन आर्थिक सहयोग के लिए स्थापित किया गया था। परंतु वर्तमान में यह एक गैर सैनिक तथा गैर सुरक्षात्मक संगठन के रूप में भी कार्य कर रहा है। 27 नवंबर, 1971 को जारी कुवालालंपुर घोषणा पत्र में इन देशों ने स्पष्ट रूप से कहा था- ‘दक्षिण पूर्वी एशिया को शान्तिपूर्ण, स्वतंत्र तथा तटस्थ क्षेत्र के रूप में मान्यता और सम्मान दिलाये जाये जो बाहरी शक्तियों के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप से मुक्त हो।’ आज भी आसियान का यही मुख्य लक्ष्य है। परंतु इस बात से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि इसके समक्ष काफी चुनौतियां हैं। इन चुनौतियों में सुरक्षा संबंधी आर्थिक सहयोग संबंधी प्रमुख हैं।
आसियान के 29वें वार्षिक सम्मेलन जकार्ता में भारत को एक पूर्ण वार्ताकार सहयोगी का स्तर प्रदान किया गया था। इसके साथ ही भारत को आसियान क्षेत्रीय फोरम की सदस्यता प्राप्त हो गयी। 1992 से ही भारत आसियान का क्षेत्रीय वार्ताकार सहयोगी बना हुआ है। अब भारत को आसियान के निदेशेक मंडल में भाग लेने का अवसर प्राप्त हो गया है। भारत के स्तर में, भारत की नयी ‘पूर्व की ओर देखो’ नीति का परिणाम है। भारत तथा आसियान के संबंध मुख्यतः दोनों पक्षों के मध्य आर्थिक संबंध सहयोग तथा दक्षिण पूर्ण एशिया में राजनीतिक तथा सुरक्षात्मक क्षेत्रों की गतिविधियों पर आधारित है।
Question : अफगान गृह-युद्ध के मूल कारणों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए। इस युद्ध में सोवियत संघ तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्या भूमिका निभायी थी?
(2002)
Answer : अफगानिस्तान भू-राजनीतिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद अफगानिस्तान के महत्व में काफी वृद्धि हुई। इसका कारण यह था कि एक तरफ तो ईरान का महत्व बढ़ रहा था तथा दूसरी तरफ सोवियत संघ के दक्षिण में स्थित मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाले प्रदेशों का महत्व था। बीसवीं सदी में ब्रिटेन तथा सोवियत संघ के मध्य हुए 1907 के समझौते के अंतर्गत अफगानिस्तान अपनी स्वतंत्रता को कायम रख सका था। 1919 में ब्रिटेन के साथ अफगानिस्तान का तीसरा युद्ध हुआ था जिसमें सोवियत संघ ने उसकी सहायता की एवं युद्ध समाप्ति के बाद ब्रिटेन ने अफगानिस्तान को पूर्ण स्वतंत्रता को औपचारिक रूप से स्थापित हो गया था परंतु वह गुटनिरपेक्ष बना रहा।
1973 में दाउद खान ने एक क्रान्ति के द्वारा तत्कालीन शासन जहीर शाह को अपदस्त करके सत्ता पर अधिकार कर लिया। इस क्रान्ति के साथ ही अफगानिस्तान का संकट प्रारंभ हुआ। दाउद सत्ता में आने के बाद पूर्व सोवियत संघ के साथ किये गये सभी सन्धि-समझौते का पालन करने में रुचि प्रदर्शित की। इन समझौते में मुख्य थे- 1921 की मैत्री सन्धि, 1926 की आक्रमण सन्धि तथा 1931 की परस्पर सहायता सन्धि। 1978 में नूर मोहम्मद तराकी ने दाउद खान को अपदस्थ कर 5 दिसम्बर, 1978 को सोवियत संघ के साथ एक 20 वर्षीय सहयोग तथा मैत्री सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिये। सितम्बर, 1979 में हफीजुल्ला अमीन ने एक क्रान्ति में तराकी की हत्या कर दी। परंतु 27 दिसंबर, 1979 को सैनिक क्रान्ति में अमीन की भी हत्या कर दी गयी तथा बबरक करमाल अफगानिस्तान के राष्ट्रपति बने। अप्रैल, 1978 की क्रान्ति को ‘सौर क्रांति’ कहा जाता है। इस क्रान्ति के पश्चात नये शासक तराकी ने व्यापक सामाजिक और आर्थिक सुधारों की घोषणा की थी तथा विदेशी शक्तियों को यह आश्वासन दिया था कि सोवियत संघ की विदेशी नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया जायेगा। इसके बाद बबरक करमाल 27 दिसंबर से अप्रैल, 1988 तक की सत्ता में रहे। वास्तव में, 1979 से लेकर 1988 तक अफगानिस्तान की स्थिति संकटमय बनी रही तथा विश्व राजनीति को आंदोलित करती रही।
उपरोक्त वर्णित गृहयुद्ध का प्रमुख कारण अफगानिस्तान में मुख्यतः दो गुटों के बीच का गृहयुद्ध था और ये गुट थे जमायते इस्लामी तथा दूसरा हिज्बे इस्लामी। इन दोनों के अतिरिक्त अन्य अनेक विद्रोही गुट भी अफगानिस्तान में असन्तोष फैला रहे थे। इसके बीच गुटबंदी एवं संघर्ष का कारण वस्तुतः सत्ता हथियाने की प्रवृत्ति से विकसित हुआ था। साथ ही इसका दूसरा कारण आंतरिक के साथ-साथ बाहरी देशों द्वारा हस्तक्षेप भी काफी सक्रिय रहा था। अन्ततः 7 मार्च, 1993 कोएक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जो अफगान शांति समझौता कहलाता है। इसके अंतर्गत अफगानिस्तान के 8 विद्रोही गुटों के बीच समझौता हुआ परंतु परिणाम क्या हुआ? अफगानिस्तान के अनेक गुटों में से कोई भी गुट वास्तव में शान्ति स्थापना का इच्छुक नजर नहीं आया। अफगानिस्तान की समस्या में अब नशीले पदार्थों के व्यापार से होने वाली आय का प्रश्न भी शामिल हो गया तथा अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठन भी इस संघर्ष में सम्मिलित हो गये। 27 सितम्बर, 1996 को तालीबान ने रब्बानी की वैध सरकार का तख्ता पलटकर काबुल पर अपना अधिकार कर लिया तथा एक छः सदस्यीय अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा कर दी तथा शरीयत के नियमों को कठोरतापूर्वक लागू कर दिया गया। तत्पश्चात् इस्लामिक संगठन ने तालिबान को अपनी सदस्यता प्रदान नहीं की तथा तालीबान विरोधियों ने 8 अक्टूबर, 1996 को तालीबान विरोधी मोर्चा बना लिया एवं अफगानिस्तान में गृहयुद्ध की स्थिति निरन्तर बनी रही। वर्तमान समय में ओसामा बिन लादेन को लेकर तालिबान एवं अमेरिका के बीच हुए युद्ध में अफगानिस्तान की आंतरिक गृह युद्ध सुलझा हुआ नजर आ रहा है एवं अफगानिस्तान में एक प्रजातंत्र तरीके से शासन पद्धति चल रहा है।
सोवियत संघ की अफगान गृह-युद्ध में भूमिका: पूर्व सोवियत संघ की अफगान गृह-युद्ध में भूमिकाओं को हम इस प्रकार वर्णन कर सकते हैंः
इन सारी भूमिकाओं से यह स्पष्ट तौर पर बातें सामने आती है कि सोवियत संघ ने अपनी वर्चस्व एवं राजनीति को कायम रखने के लिए अपनी भूमिका अदा की।
संयुक्त राज्य अमेरिका की अफगान गृह-युद्ध में भूमिकाः
इसके अतिरिक्त सोवियत संघ एवं संयुक्त राज्य अमेरिका के सम्मिलित प्रयास से जिनेवा समझौता सम्पन्न हुआ। अमेरिका और सोवियत संघ ने गारन्टी दी कि दोनों देश अफगानिस्तान में शान्ति स्थापित रखने में सहयोग करेंगे तथा रूस अपनी सेनाओं को वापस हटा लेगा। अतः उपरोक्त वर्णनों से यह ज्ञात होता है कि अफगान गृहयुद्ध एक बहुत ही जटिल ऐतिहासिक घटना थी। परंतु बहुत सालों के पश्चात् अब अफगानिस्तान में एक प्रजातांत्रिक सरकार की स्थापना हो चुकी है और आशा है कि वहां के नागरिक सभी भेद-भाव से ऊपर उठकर देश और समाज के लिए काम करेंगे।
Question : राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों एवं परिसीमाओं की विवेचना कीजिए।
(2002)
Answer : अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र मे किसी की राष्ट्रीय शक्ति राष्ट्र की वह शक्ति है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति दूसरे राष्ट्रों के कार्यों, व्यवहारों और नीतियों पर प्रभाव तथा नियंत्रण रखने की चेष्टा करता है। यह राष्ट्र की वह क्षमता है जिसके बल पर वह दूसरों राष्ट्रों से अपनी इच्छा के अनुरूप कोई कमी करा लेता है।
वास्तव में राष्ट्रीय-शक्ति मूल रूप से सैनिक शक्ति ही है, किन्तु इस शक्ति की रचना में अनेक तत्व कार्य करते हैं और इसलिए वे भी शक्ति के घटक तत्व कहे जा सकते हैं। ये तत्व वे हैं जिनमें राष्ट्र शक्ति बनता है। राष्ट्रीय शक्ति के तत्व के रूप में हम दो भागों में विभाजित कर देखते हैंः (1) गैर मानवीय तत्व (2) मानवीय तत्व। गैर मानवीय तत्व के अंतर्गत भूगोल, प्राकृतिक संसाधान आता है जबकि मानवीय तत्व के अंतर्गत जनसंख्या, तकनीकी, विचारधारा, राष्ट्रीय चरित्र, राष्ट्रीय मनोबल, नेतृत्व, कूटनीति, शासन के गुण, औद्योगिक क्षमता तथा सैनिक तैयारी आता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय शक्ति के तत्वों मोटे तौर पर पुनः तीन वर्गों में भी बांटा जा सकता है। प्राकृतिक, सामाजिक तथा प्रत्ययात्मक। प्राकृतिक तत्वों में भौगोलिक विशेषताएं, प्राकृतिक साधन और जनसंख्या आते हैं। सामाजिक तत्वों में आर्थिक विकास, राजनीतिक ढांचा तथा राष्ट्रीय मनोबल आते हैं। प्रत्युयात्मक तत्वों में ने नेतृत्व वर्ग के आदर्श, बुद्धि और दूरदर्शिता आते हैं। इन तत्वों को हम यहां बारी-बारी से प्रस्तुत करेंगे।
(1) भूगोल: राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्वों में भूगोल सबसे अधिक स्थायी तत्व माना गया है। भूगोल मूलक राजनीति के विद्वान कहते हैं कि शक्ति का मुख्य अवयव भूगोल है और किसी राष्ट्र की जड़ उस राष्ट्र के भूगोल में होती है। भूगोल राष्ट्रों की शक्ति के लिए एक आधारित ढांचा प्रस्तुत करता है। सबसे महत्वपूर्ण भौगोलिक घटक हैं- किसी देश का क्षेत्रफल, उसकी जलवायु, स्थलाकृति और उसकी अवस्थिति।
(2) प्राकृतिक संसाधन: राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण का दूसरा तत्व राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधन हैं। प्राकृतिक संसाधन प्रकृति में उपलब्ध उपयोगी सामग्री और पद्धति को कहते हैं। प्राकृतिक संसाधनों में मुख्यतया खनिज, ईंधन, भूमि तथा भूमि से प्राप्त अथवा निकले पदार्थ, जैसे- कोयला, तेल, वनस्पति आते हैं। सबसे प्रमुख बात यह है कि किसी राष्ट्र के लिए बड़ीशक्ति बनने और बने रहने की एक आवश्यक शर्त पर्याप्त प्राकृतिक साधनों तक निरापद पहुंच जरूरी है। मॉगेन्थाऊ के शब्दों में ‘किसी राष्ट्र की अन्य स्थायी तत्व उसके प्राकृतिक संसाधन हैं।’ मोटे रूप से प्राकृतिक स्रोतों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है- खनिज पदार्थ, वनस्पति उत्पादन तथा जीव जंतु।
(3) जनसंख्या: हम यह जानते हैं कि बड़ी आबादी से यह तय नहीं हो जाता कि राज्य बड़ी शक्ति हो ही जायेगा, लेकिन कोई राज्य अपेक्षाकृत बड़ी संख्या के बिना बड़ी शक्ति नहीं हो सकता। निश्चित तौर पर बड़ी जनसंख्या सैनिक तथा आर्थिक दृष्टि से किसी राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि कर सकती है। प्रथम श्रेणी के सैनिक अथवा शक्तिशाली राष्ट्रों के लिए विशाल जनसंख्या का होना आवश्यक है। विशाल जनसंख्या से बड़ी फौजें, अधिक श्रमिक और श्रेष्ठ व्यक्तियों के चयन की सुविधा होती है। यदि दो राष्ट्रों की वैज्ञानिक प्रगति, तकनीकि विकास, औद्यौगिक स्तरऔर अन्य शक्ति तत्व समान हों तो विशाल जनसंख्या सदैव राष्ट्र की शक्ति बढ़ाने में अधिक सहायक होगी। राष्ट्र का शक्तिशाली होना वास्तविक रूप से जनसंख्या की प्रकृति, उसके चरित्र और गुणों पर निर्भर करता है।
(4) तकनीकी: तकनीकी परिवर्तन एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत मुख्यतः विधान, शिक्षा, अनुसंधान, वैयक्तिक एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में विकास, प्रबंध, प्रविधि, उत्पादन सुविधाएं श्रमिक और मजदूर संगठन आते हैं। तकनीकी विकास से राष्ट्रीय शक्ति अनेक रूपों में प्रभावित होती है-तकनीकी प्रगति राष्ट्र के स्वरूप को बदल देती है। पुराना परम्परावादी समाज और आधुनिक एवं प्रगतिशील बन जाता है तथा इससे राष्ट्रों की शक्ति स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। तकनीकी प्रगति ने मुख्यतः सैनिक तकनीकी, औद्योगिक तकनीक एवं संचार तकनीक क्षेत्रों ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया है।
(5) विचारधारा: विचार और विचारधाराएं शक्ति के अवयवों का प्रत्ययात्मक भाग है। वास्तविक रूप में विचारधारा को विदेश नीति के वास्तविक उद्देश्य छिपाने का आवरण कहा जा सकता है। इस अर्थ में विचारधारा विदेश नीति के तात्कालिक लक्ष्य के रूप में शक्ति प्राप्ति के बारे में तत्पर होती है। आज सम्पूर्ण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति विचारधारा के आधार पर ही लोकतांत्रिक और साम्यवादी गुटों में विभाजित है।
(6) राष्ट्रीय चरित्र: राष्ट्रीय चरित्र शक्ति का अमूर्त, सूक्ष्म तथा मानवीय तत्व है। प्रत्येक देश के निवासियों में सामान्य गुण, अवगुण अवश्य पाये जाते हैं। जिन्हें हम सामूहिक रूप से राष्ट्रीय चरित्र के नाम से जानते हैं। राष्ट्रीय चरित्र के कारण जर्मनी और रूस सैन्यीकरण पर आधारित विदेश नीतियां सरलता से अपना सकते हैं, जबकि अमेरिका तथा ब्रिटेन ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि इन दोनों देशों का जनमानस मूलतः सैन्यीकरण के विरुद्ध हैं। उदासीनता, सामंजस्य और सहिष्णुता की भावना, शान्तिवाद एवं अहिंसा में आस्था, सामाजिक विषमता एवं फूट भारतीय चरित्र की विशेषताएं हैं।
(7) राष्ट्रीय मनोबल: मनोबल राष्ट्रीय शक्ति का एक सूक्ष्म तथापि प्रभावकारी तत्व है। राजनीति के संदर्भ में मनोबल एक पूरे राष्ट्र का वह सामूहिक मानसिक दृष्टिकोण है जिससे वह अपनी सरकार की नीतियों को हितकर मानकर उनका समर्थन करने को तत्पर होता। राष्ट्रीय संकट के समय में जिस देश के निवासियों का मनोबल जितना ऊंचा होगा, वह उतनी ही सफलता से संकटों का सामना कर सकेगा।
(8) कूटनीति: अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों का संचालन विदेश नीति के द्वारा होता है। अतः एक सुनिश्चित, सुसंबद्ध और तर्कसंगत विदेश नीति का होना जरूरी है। विदेशनीति को ठीक रीति के लागू करने का कार्य कूटनीति करती है। यदि मनोबल राष्ट्रीय शक्ति की आत्मा है तो कूटनीति उसका मस्तिष्क है।
(9) शासन के गुण: राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण में शासनतंत्र का स्वरूप भी एक महत्वपूर्ण कारण हैं। राष्ट्रीय शक्ति के स्रोत के रूप में अच्छे शासन के तीन अर्थ होते हैं- सर्वप्रथम तो राष्ट्रीय शक्ति देने वाले भौतिक तथा मानवीय तत्वों का संतुलन और तृतीय विदेश नीतियों के समर्थन में लोक सम्पत्ति की प्राप्ति।
(10) आद्यौगिक क्षमता: औद्योगिक राष्ट्र ही महान शक्ति कहलाते हैं। इसका कारण यह है कि किसी राष्ट्र की शक्ति उसकी औद्योगिक क्षमता पर निर्भर करती है।
(11) सैनिक तैयारी: सैनिक दृष्टि से किसी राष्ट्र की शक्ति सैनिकों तथा शस्त्रों की संख्या तथा उनके सैन्य संगठन के विभिन्न अंगों के वितरण पर निर्भर रहती है। राष्ट्र शक्ति की दृष्टि से शान्तिकाल में भी राष्ट्रों के पास न केवल पर्याप्त सेना अपेक्षित है अपितु वह प्रशिक्षित और एकदम तैयारी की स्थिति में होनी चाहिए।
उपरोक्त सभी राष्ट्रीय तत्वों से यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार से ये तत्व किसी भी देश की राष्ट्रीय शक्ति से जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय शक्ति के कुछ परिसीमायें भी हैं। जो इस प्रकार हैंः
(1)किसी राज्य की शक्ति को पूर्ण रूप से निरपेक्ष समझना- विभिन्न देशों की राष्ट्रीय शक्ति में विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन आते रहते हैं। राजनीति में शक्ति सदैव सापेक्ष होती है। जैसे अगर हम रूस और अमेरिका को वर्तमान समय की सर्वोच्च शक्तियां कहते हैं तो इसका अभिप्राय होता है कि इस समय अन्य देशों की तुलना में इनकी शक्ति सबसे अधिक है। अतः किसी राज्य की शक्ति को पूर्णरूप से विभिन्न समयों को ध्यान में रखते हुए निरपेक्ष नहीं समझना चाहिए।
(2)राष्ट्रीय शक्ति के किसी तत्व को स्थायी एवं अपरिवर्तनशील समझना 1940-41 में हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी की सैनिक शक्ति अपने उत्कर्षी के चरम शिखर पर थी। उस समय यह समझा जाता था कि यूरोप पर जर्मनी का प्रभुत्व स्थायी रूप से स्थापित हो गया है। किंतु दो वर्षों में ही मान्यता भ्रांतिपूर्ण सिद्ध हुई। अतः किसी भी देश की राष्ट्रीय शक्ति के किसी तत्व को स्थायी एवं अपरिवर्तन शील नहीं समझना चाहिए।
(3)राष्ट्रीय शक्ति के प्रमुख तत्वों में से किसी एक तत्व को असाधारण महत्व देना तथा अन्य तत्वों की अपेक्षा करना प्रायः भौगोलिक स्थिति, राष्ट्रीयता और सैनिकवाद के तत्वों को असाधारण महत्व दिया जाता है, इनके आधार पर किसी देश को अतीव शक्तिशाली घोषित किया जाता है। ये किन्डर ने ‘भौगोलिक स्थिति’ के कारण रूस को विश्व की सर्वोच्य शक्ति बतलाया और जर्मन भूराजनीतिज्ञ होर्शोकट ने जर्मनी की भौगोलिक स्थिति के कारण इसे संसार का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य माना। ये सब विचार गलत हुआ क्योंकि ये केवल एक तत्व भूराजनीति को असाधारण महत्व देते हैं।
Question : वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था विकासशील देशों के प्रति किस सीमा तक अन्यायपूर्ण और आधिपत्यपूर्ण है?
(2002)
Answer : 1950 व 1960 के दशक में जहां अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का केन्द्र बिन्दु उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद व नवराष्ट्रों की स्वतंत्रता रही है तो 1970 से 1990 का दशक में मूल रूप से विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ा रहा। 1970 के दशक से ही तीसरी दुनिया के देशों का इस संदर्भ में प्रमुख कार्य ‘नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की मांग रहा है। इसके माध्यम से भारत व अन्य तीसरी दुनिया के देश अपनी आर्थिक प्रभुसत्ता, समानता व न्याय पर आधारित एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना का प्रयास कर रहे थे जिससे पूंजीवादी शक्तियों द्वारा इनका शोषण न हो सके। इसके द्वारा ये राष्ट्र 1946 में स्थापित ब्रेंडन वुड संस्थाओं (विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष) को समाप्त करके नये संस्थान विकास पर बल देते थे।
वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था विकासशील देशों के प्रति किस प्रकार अन्यायपूर्ण तथा अधिपत्यपूर्ण है, इसके लिए कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक है-
(1)लगभग 30 प्रतिशत आबादी वाले विकसित राष्ट्र विश्व संसाधन के 70 प्रतिशत का उपभोग करता है जबकि इसके विपरीत 70 प्रतिशत की तीसरी दुनिया के लोग मात्र 30 प्रतिशत संसाधनों पर निर्भर करते हैं। लगभग दो दर्जन औद्योगिक देशों की प्रति व्यक्ति आय 3000 से 6000 डॉलर के बीच है तो लगभग 100 या इससे अधिक विकासशील देशों की आय लगभग 100 डॉलर है। अतः बहुत समय से यह अमीर देश का आधिपत्य विकासशील देशों पर रहा है।
(2)विकसित देशों द्वारा पूंजी व उत्पादकता बाजार पर हमेशा से कब्जा रहा है। वास्तव में इन देशों ने कच्चे माल के उत्पादन पर कब्जा करके उत्पादन का नियंत्रण पूर्णतया अपने हाथ में ले लिया है। इसमें उनकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही है। इन्हीं कंपनियों के कारण इन राष्ट्रों ने विकासशील देशों के बाजारों को अपने नियंत्रण मे ले लिया है।
(3)द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास व पुर्ननिर्माण हेतु स्थापित विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष नामक संस्थाओं ने पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाये रखा है। इन संस्थाओं के नीतियों ने तीसरी दुनिया के देशों की सहायता के बजाय अमेरिका की आर्थिक हितों के विकास में सहयोग प्रदान किया जिससे इन देशों की विश्व व्यापार में भागीदारी और औसत उत्पादकता में काफी गिरावट आयी है।
(4)व्यापारिक संदर्भ में पिछले दो दशकों में विकासशील देशों को व्यापार असंतुलन की समस्या का सामना करना पड़ा रहा था तथा इन सबके पीछे व्यापार व प्रशुल्क संबधित सामान्य समझौते (गैट) की भूमिका महत्वपूर्ण रही है, जिन्होंने सिर्फ विकसित देशों के हितों को ही संरक्षण दिया है।
(5)इसके अतिरिक्त कुछ अन्य स्थानीय शक्तिशाली राष्ट्र भी गरीब राष्ट्रों की विपदाएं बढ़ाने लगे और इसमें प्रमुख थे तेल उत्पादक राष्ट्र। इन राष्ट्रों द्वारा तेल को 1973 के बाद राजनैतिक हथियार बनाकर प्रयोग करने का विकसित राष्ट्रों की बजाय विकासशील राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं पर प्रतिकूल असर पड़ना तय था।
1919 मे सोवियत संघ के विघटन के केवल विश्व राजनैतिक धरातल ही नहीं बदला, बल्कि उससे कई दूरगामी परिणाम भी निकले। इससे विकासशील देश राजनैतिक व आर्थिक रूप से गम्भीर रूप से प्रभावित हुए। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में विकसित देशों का आधिपत्य विकासशील देशों पर इस प्रकार रहा-
1.आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका व उसके सहयोगी ‘जी-7’ के देशों का वर्चस्व स्थापित हो गया।
2.विश्व में सभी देशों के विकास हेतु मात्र पूंजीपति मॉडल ही केवल अन्तिम इच्छा बन गयी है।
3.विश्व बैंक व मुद्राकोष के माध्यम से अमेरिका को अन्य विकासशील देशों की, गतिविधियों में सीधे हस्तक्षेप के अवसर प्राप्त हो गये।
4.विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के दबावों के अर्न्तगत ज्यादातर देशों को उदारीकरण, खुलापन तथा वैश्वीकरण की नीतियों का अनुसरण करना पड़ रहा है, जिसके फलस्वरूप विकासशील देशों के ऊपर विकसित देशों का आधिपत्य कायम होता जा रहा है।
5.सोवियत विघटन से उत्पन्न नव गणराज्यों को आर्थिक सहायता प्रदान करने के कारण विकासशील देशों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं में धन की और कमी आ गयी जिसका स्पष्ट प्रभाव विकासशील देशों के अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
6.वास्तविक रूप से तीसरी देशों को मिलने वाली सस्ते ब्याज पर मिलने वाली ऋण व अनुदान समाप्त हो गया। जिसके कारण विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी।
7.संयुक्त राष्ट्र राजनैतिक के साथ-साथ आर्थिक उत्तरदायित्व निभाने में अक्षम रही जिसके फलस्वरूप विकसित देशों का आधिपत्य कायम रहा। इसकी नीतियों में वस्तुनिष्ठता का अभाव व एक समूह का वर्चस्व छा गया।
अतः इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए 1995 के विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की गयी परंतु इस संस्थान का भी मुख्य झुकाव पूंजीपति राष्ट्रों के पक्ष में रहा। व्यापक विश्व-संगठन बनने के बाद भी द्वि-पक्षीय प्रतिबन्धों की समाप्ति भी नहीं हुई। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं राष्ट्रोपरि कम्पनियों का महत्व अत्यधिक रूप से बढ़ गया। बौद्धिक सम्पदा अधिकारों, श्रम कानूनों, मानवाधिकार सेवा क्षेत्रों को खोलने आदि के दुष्प्रभाव भी इन्हीं विकासशील देशों को झेलने पड़ेंगे। अतः उपरोक्त घटनाक्रमों के कारण शीतयुद्धोत्तर युग में विचारधारा की दीवार गिरने, सम्पूर्ण विश्व एक होने, खुलापन, उदारीकरण, विश्वीकरण आदि की प्रक्रियाओं के बावजूद, नयी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के स्थापित होने के आसार नगण्य पड़ते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 1970 के दशक से भारत व अन्य विकासशील राष्ट्र एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को बनाने हेतु प्रयासरत हैं परन्तु सफलता प्राप्त नहीं हुई। शीतयुद्ध युग में भारत ने इस प्रयास हेतु रचित विभिन्न मंचों/संगठनों के माध्यम से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। परंतु 1945 में स्थापित ब्रिटेनवुड संस्थाओं के समूलनाश हेतु अथवा नयी व्यवस्था के विकास हेतु वह कुछ नहीं कर सका। 1991 के बाद यह स्थिति और भी जटिल बन गयी है। 1990 के दशक वस्तुतः वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के नाम से जाना जाता है। इस वैश्वीकरण के कारण आर्थिक व्यवस्था को उदार बनाने की बात कही गयी परंतु हुआ क्या, विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों से सस्ते दाम पर कच्चे पदार्थों का आयात कर अपनी विकसित तकनीकी द्वारा उत्पादित सामानों का निर्यात विकासशील देशों में करना शुरू किया, जिसके फलस्वरूप विकासशील देशों की अपनी औद्योगिक एवं बाजार व्यवस्था काफी चरमरा गयी और विकसित देशों का वर्चस्व विकासशील देशों पर बना रहा। साथ ही, इस नीति के तहत विकसित देशों के बहुत से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का पदार्पण विकासशील देशों में हुआ जिसके फलस्वरूप विकासशील देशों के बाजार इन कम्पनियों के बाजार-स्पर्द्धा में टिक नहीं पाये। इसके अतिरिक्त, विकासशील देश अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए इस उदारीकरण, वैश्वीकरण व बाजार के खुलेपन के दौर में वह पाश्चात्य देशों से पूंजीनिवेश एवं तकनीकि विज्ञान प्राप्त करने की इच्छा को बढ़ावा दिया है और स्वाभाविक भी है। इन सारी स्थितियों से पूर्णतः स्पष्ट होता है कि विकसित देशों का अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के तहत विकासशील देशों का हस्तक्षेप एवं अधिपत्य अवश्य ही बढ़ा है और इस परिस्थिति से उबरने के लिए एक ठोस एवं वैज्ञानिक नीति भी अत्यंत आवश्यकता है।
Question : क्यूबा प्रक्षेपास्त्र एक Factor के रूप में अमेरिका का संबंध U.S.S.R. के साथ)।
(2002)
Answer : पेरिस शिखर सम्मेलन की असफलता से संपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समाज में गहरी निराशा छा गयी। इसी के मद्देनजर उन्होंने सुलह की पहल की। ख्रुश्चेव ने 10 दिसंबर, 1960 को वक्तव्य जारी कर कहा कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सब प्रकार के तनाव उत्पन्न होते हैं। किन्तु समय बीतने के साथ ऐसे संबंधों की कटुता दूर हो जाती है। उधर अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में जॉन एफ. केनेडी के विजयी होने पर एक नयी आशा का संचार हुआ। अमरीकी राष्ट्रपति केनेडी ने कहा- हम जिस प्रकार की शांति चाहते हैं। कब्रिस्तान की शान्ति या खामोश बैठे गुलामों की शान्ति, बल्कि एक ऐसी शांति, जिसमें जीवन जीने लायक लगे तथा जिसमें मनुष्य जाति और विभिन्न राष्ट्र आने वाली पीढि़यों के लिए एक बेहतर संसार छोड़ा जा सके।
कैरिबियाई महाद्वीप में स्थित क्यूबा हर दृष्टि से दोनों महाशक्तियों के लिए महत्वपूर्ण है। एक रूस के लिए अगर वह लकड़घोड़ा हो सकता है तो दूसरी ओर अमेरिका के लिए गठिया हो सकता है। क्यूबा संकट के बारे में दोनों महाशक्तियों द्वारा बुद्धिमत्तापूर्ण में ‘मील का पत्थर’ माना जा सकता है। इस संबंध में एडवर्ड क्रेकेशा का मानना एकदम सही है कि क्यूबा के बाद से ज्वार एक ही दिशा में बढ़ रहा है। वाशिंगटन के साथ लगातार और गुप्त कथोपकथन के साथ आज स्थलों का क्रमिक शीतलीकरण हुआ है।
Question : राष्ट्रीय हित एवं राष्ट्रीय लक्षणः विदेश नीति का मार्गदर्शन
(2001)
Answer : ‘अंतर्राष्ट्रीय पारस्परिक व्यवहार के सभी साधनों और तकनीकों का मैत्रीपूर्ण संबंधों शांति एवं युद्ध दोनों ही कामों में प्रयोग किया जा सकता है। यद्यपि इतना अवश्य है कि इनमें से कुछ की प्रकृति अधिकतर समझानें बुझाने की तो दूसरों की दबावकारी की है।’
राष्ट्रीय हित और संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के दो बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व हैं और दोनों के बीच संबंधों की महत्ता उस तथ्य से प्रकट होती है कि एक राष्ट्र का हित सदैव दूसरे राष्ट्रों के हित से मेल नहीं खाता और इसलिए राष्ट्रों के बीच परस्पर संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। संघर्ष का तत्व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में निरन्तर प्रभावशाली बना रहेगा। संघर्ष एवं प्रतियोगिता की स्थिति मुख्यतः इसलिए कायम रहती है कि प्रत्येक देश अपने राष्ट्रीय हित की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है और उसके ये प्रयास दूसरे राष्ट्रों के राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के प्रयासों से टकराते हैं। सामान्यतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार की विशेषता है जो विशेषतः राष्ट्रीय हित की दृष्टि से प्रचार कार्य और राजनीतिक युद्ध को कूटनीतिक संचालन में सहायता करते हैं और आर्थिक साधन देश के हितों को सदृंढ आधारभूमि प्रदान करने के लिए अपनाए जाते हैं।
साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद तथा युद्ध ये ऐसे साधन हैं जो अवसर के अनुसार अपनाए जाते हैं। आज के अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक वातावरण में युद्ध का मार्ग सामान्यतः तभी अपनाया जाता है, जब कूटनीति प्रचार एवं राजनीतिक युद्ध के साधान असफल हो जाते हैं, और राष्ट्र वार्ता द्वारा नहीं बल्कि जनहित द्वारा अपने राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि का निर्णय ले लेता हैं। युद्ध के समय भी अन्य साधन सक्रिय रह सकते हैं और प्रायः रहते भी हैं, इसलिए युद्धविराम हो जाता है। विजय-पराजय द्वारा युद्ध का निर्णय होता है, तो भी अन्य साधनों द्वारा राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा और अधिकाधिक प्राप्ति के दांवपेंच खेले जाते हैं।
Question : तृतीय विश्व में राजनीतिक प्रक्रिया का स्वरूप
(2001)
Answer : उत्तर तथा दक्षिण के बीच टकराव है जबकि अब अमेरिका और रूस की कटुता कम हुई है। यहां विकसित देशों के बीच कटुता घट रही है। वहीं विकसित एवं विकासशील देशों के बीच टकराव की स्थिति बढ़ती जा रही है। जबकि विकसित राष्ट्र और तीसरी दुनिया के विकासशील राष्ट्रों के बीच टकराव स्पष्ट तौर पर पाया जाता है।
उत्तर-दक्षिण संघर्ष को सुलझाने के लिए कुछ वर्ष पूर्व मनीला में आयोजित अंकटाड सम्मेलन का उल्लेख करना वांछनीय होगा। वहां विकासशील देशों ने एकता के साथ विकसित देशों से व्यापार में कुछ रियायतों के लिए परामर्श किया। लेकिन समृद्ध राष्ट्रों की हठधर्मिता के कारण उसके परिणाम उत्साहजनक नहीं रहे। तीसरी दुनियां के राष्ट्र संख्यात्मक शक्ति के जोर पर विकसित राष्ट्रों के मुकाबले अपने प्रस्तावों को हमेशा पारित करवाते आये हैं, किन्तु व्यवहार में ऐसे प्रस्तावों का पर्याप्त रूप से क्रियान्वयन नहीं हुआ है। अभी भी दक्षिण अफ्रीका में गोरी सरकार शासन में है, असल में विश्व महाशक्तियां ऐसे प्रस्तावों के बारे में ईमानदार नहीं हैं।
नवोदित राष्ट्रों द्वारा सदस्यता पाने का आवेदन करने पर विश्व की बड़ी शक्तियों ने अनेक तकनीकी रोड़े अटकाकर उन्हें इनमें आने से रोका। वियतनाम, कोरिया तथा साम्यवादी चीन के उदाहरण विश्व शक्तियों के षडयंत्रों की याद ताजा करते हैं। तीसरी दुनिया के विकसित, अविकसित राष्ट्रों में भी उसके द्वारा विभिन्न प्रकार विगत कुछ वर्षों से विकसित एवं विकासशील देशों के बीच टकराव के कुछ नये मुद्दे सामने आयें हैं, जिस कारण समय की पुकार यही है कि यदि अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को कायम रखना है तो तीसरी दुनिया के समस्त देशों को एकजुट होकर चलना चाहिये।
Question : अनिवार्य क्षेत्रधिकार वर्ग अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थिति को स्पष्ट करता है।
(2001)
Answer : द हेग, नीदरलैंड्स में स्थित इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस संयुक्त राष्ट्र का मुख्य न्यायिक अंग है। यह राज्यों के मध्य कानूनी विवादों को निपटाता है और संयुक्त राष्ट्र एवं उसकी विशेषज्ञ एजेंसियों को परामर्शपूर्ण राय प्रदान करता है। उसकी संविधि संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अभिन्न अंग है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अन्य संस्थाएं भी किसी कानूनी प्रश्न पर न्यायालय से परामर्श ले सकती हैं। व्यक्तिगत झगड़े इस अदालत में पेश नहीं किये जा सकते हैं। यह न्यायालय उसकी संविधि के पक्ष बने सभी देशों के लिए खुला है, जिसमें संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य एवं स्विट्जरलैंड शामिल है। महासभा एवं सुरक्षा परिषद द्वारा किसी भी कानूनी प्रश्न पर न्यायालय से परामर्शपूर्ण राय मांगी जा सकती है। संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंग एवं विशेषज्ञ एजेंसियां, महासभा द्वारा प्राधिकृत किये जाने पर अपनी गतिविधियों की परिधि के भीतर आने वाले कानूनी प्रश्नों पर परामर्श पूर्ण राय मांग सकते हैं।
न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में उन सभी प्रश्नों का समावेश है। जो देशों द्वारा उसके पास भेजे जाते हैं। साथ ही संयुक्त राष्ट्र चार्टर या अंतर्राष्ट्रीय संधियों में निहित सभी विषय उसकी अधिकार सीमा में है। न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को स्वीकार करने के लिए राज्य स्वयं को पहले ही आबद्ध कर सकते हैं।
राज्य स्वयं घोषणा करके उन क्षेत्रों में न्यायालय के आवश्यक क्षेत्रधिकार को स्वीकार कर लेते हैं। ये हैं- संधि के व्याख्या, अंतर्राष्ट्रीय कानून के क्षेत्र से संबंधित सभी मामले किसी ऐसे तथ्य का अस्तित्व जिसके सिद्ध होने पर किसी अंतर्राष्ट्रीय कर्त्तव्य का उल्लंघन समझा जाये तथा किसी अंतर्राष्ट्रीय विधि के उल्लंघन पर क्षतिपूर्ति का रूप और परिणाम। श्री ओपेनडीश ने न्यायालय के इस क्षेत्रधिकार को वैकल्पिक आवश्यक क्षेत्रधिकार कहा है। यह वैकल्पिक इसलिए है, क्योंकि वह उन्हीं राज्यों पर लागू होता है, जो उपयुक्त घोषणा करें और लागू तभी होता है जब विवाद से संबंधित अन्य राज्य भी इस प्रकार की घोषणा करे। यह आवश्यक इसलिए है, क्योंकि जो राज्य इस प्रकार की घोषणा कर देता है, उससे संबंधित विवाद किसी विशेष समझौते के बिना भी न्यायालय के समक्ष लाये जा सकते हैं।
Question : उत्तर-दक्षिण देशों के चुनौतीपूर्ण प्रमुख मुद्दे को रेखांकित करें।
(2001)
Answer : उत्तर शब्द का प्रयोग विश्व के समृद्धिशाली औद्योगीकृत तथा गैर साम्यवादी देशों के लिए किया जाता है। जैसे- अमेरिका, कनाडा, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा पश्चिम यूरोप के देश। इसमें से अधिकांश देशों की व्यक्तिगत आय बहुत उंची है तथा ये देश अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के भी सदस्य हैं। उत्तर के विपरीत दक्षिण के राज्य तृतीय विश्व के विकासशील राज्य हैं तथा इनमें से अधिकांश की प्रति व्यक्ति आय बहुम कम है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इन उत्तर तथा दक्षिण के राज्यों में असमानता अधिक बढ़ने लगी।
वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की कुछ विशेषताओं के कारण दक्षिण के राज्यों को उत्तर के राज्यों की अपेक्षा अधिक नुकसान हो रहा था। यही कारण था कि दक्षिण के विकासशील देशों ने नयी अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग के साथ-साथ उत्तर-दक्षिण संवाद को भी महत्वपूर्ण मानना प्रारंभ कर दिया था। इसी मांग को अधिक महत्वपूर्ण बनाने के पीछे वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की निम्नलिखित विशेषता थीः
विकासशील देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से तथा 61-77 के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर दवाब डालना प्रारंभ किया। जिससे विकसित तथा विकासशील देशों के मध्य सहयोग को विस्तृत किया जा सके। 1967 में पहली बार तृतीय विश्व के देशों में अल्जीयर्स सम्मेलन में विकसित देशों से और अधिक सुविधाओं की मांग की तथा वर्तमान व्यापार व्यवस्थाओं की आलोचना की और एक मांग की उन व्यवस्थाओं में सुधार करके विकासशील देशों के साथ आर्थिक सहयोग में वृद्धि की जाये। इस दौरान उत्तर-दक्षिण संवाद के साथ-साथ नयी अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की मांग निरंतर उठायी जा रही थी।
उत्तर-दक्षिण संवाद अचानक तथा तेज समस्या के कारण ही उत्पन्न नहीं हुआ था बल्कि यह तीसरे विश्व में गति का तथा संयुक्त राष्ट्र में विकासशील देशों के योगदान का भी परिचायक है। कानकुन शिखर सम्मेलन मेक्सिको की राजधानी में 22-23 अक्टूबर 1981 को आयोजित किया गया, जिसमें 8 विकसित तथा 14 विकासशील देशों में भाग लिया। सोवियत संघ में आमंत्रित किये जाने पर भी इस सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया था। सम्मेलन में मुख्य चर्चा इस प्रश्न पर हुई थी कि विश्व वार्ताएं किस तरह आयोजित की जायें। विकासशील देशों का सामना या अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर संयुक्त राष्ट्र का अन्तिम नियंत्रण होना चाहिये जबकि अमेरिका का मानना था कि इन संस्थाओं द्वारा लिये गये निर्णय अंतिम होते हैं।
राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन: 1981 में राष्ट्रमंडल का शिखर सम्मेलन मेलबोर्न में आयोजित किया गया। उस सम्मेलन द्वारा सुझाव दिया गया कि उत्तर-दक्षिण के संवाद के पुनरावलोकन के लिए एक नयी समिति बनायी जानी चाहिये। इस समिति का गठन राष्ट्रमंडल के सचिवालय द्वारा 2 फरवरी, 1983 को किया गया।
दिसंबर 1981 में विकासशील देशों के प्रतिनिधियों ने अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के पुर्ननिर्माण के लिए किये जाने वाले उत्तर-दक्षिण संवाद पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के समक्ष एक प्रस्ताव रखा। किन्तु अमेरिका ने उस प्रस्ताव का यह कहते हुए विरोध किया कि उसके द्वारा विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जायेगी।
ब्रान्ट कमीशन रिपोर्टः फरवरी 1983 में आयोग ने अपनी द्वितीय रिपोर्ट प्रस्तुत की। जिसमें विकासशील तथा औद्योगिक देशों की सहायता के लिए अनेक सुझाव दिये गये थे।
राष्ट्रमंडल सम्मेलनः नवंबर 1983 में नयी दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल शिखर सम्मेलन का ध्यान भी इस समस्या के प्रति आकर्षित हुआ तथा सम्मेलन में मांग की गयी कि अंतर्राष्ट्रीय, आर्थिक, वित्तीय तथा व्यापारिक मुद्दों का व्यापक स्तर पर मूल्यांकन किया जाये। सम्मेलन में इस बात पर भी बल दिया गया कि एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में इन समस्याओं पर विचार होना चाहिये। किन्तु 1984 में उत्तर-दक्षिण संवाद में गतिरोध उत्पन्न हो गया तथा अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के समक्ष अनेक समस्यायें उत्पन्न हो गयी क्योंकि इस संस्थाओं के साधन निरन्तर बढ़ती हुई मांगों के अनुरूप नहीं बढ़ पा रहे थे।
Question : अरब-इजराइल संघर्ष वास्तव में दो उभरते राष्ट्रवाद के बीच का संघर्ष है।
(2001)
Answer : पश्चिम एशिया में अरब-इजराइल की संघर्ष सम्पूर्ण शताब्दी की एक बहुत बड़ी समस्या है। अरब-इजरायल संघर्ष का मूल कारण हैं। इस क्षेत्र में प्रचलित धर्म पर आधारित दो विचारधाराएं, जिन्हें अरबवाद तथा यहूदीवाद कहा जाता है। 14 मई, 1948 को ब्रिटेन ने फिलिस्तीन पर से अपना मेन्डेट समाप्त कर दिया तथा उसी दिन इजराइल ने यहूदी राज्य के निर्माण की घोषणा कर दी। फिलिस्तीन में इजराइल की स्थापना पश्चिमी राष्ट्रों के समर्थन से हुई थी। अतः अमेरिका, ब्रिटेन तथा पूर्व सोवियत संघ ने उसे तत्काल मान्यता प्रदान कर दी। मेन्डेट की समाप्ति तथा इजराइल की स्थापना की घोषणा के साथ इजराइल तथा अरब देशों के मध्य वर्षों तक चलने वाला युद्ध प्रारंभ हो गया।
15 मई, 1948 को सीरिया, लेबनान, इराक, मिस्र, सऊदी अरब, जार्डन आदि देशों ने मिलकर इजराइल पर आक्रमण कर दिया। अरब सेनाओं ने यहूदियों के नियंत्रण से बाहर के दक्षिणी तथा पूर्वी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया तथा यरूशलम के इजराइल भाग की नाकेबन्दी करने का प्रयास किया। इस युद्ध में अरब की सैनिक शक्ति अधिक थी तथापि अमेरिका तथा सोवियत संघ की सैनिक और आर्थिक सहायता के कारण इस युद्ध में इजरायल की विजय हुई। अमेरिका की मध्यस्थता के कारण इस युद्ध को बन्द करवाया गया। जुलाई 1949 में इजराइल तथा अरब देशों के मध्य समझौता हुआ इजराइल ने अपने क्षेत्रों से भागे हुए अरबों को वापस आने की आज्ञा नहीं दी, बल्कि शेष बचे अरबों को भयभीत करके वहां से भगा दिया। 14 दिन चलने वाले इस युद्ध के परिणामस्वरूप इजराइल के क्षेत्र में 7000 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई। जबकि उसे विभाजन के द्वारा 14 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि प्राप्त हुई थी। इस युद्ध के अन्त तक इजराइल का भू-क्षेत्र बढ़कर 14,000 से 21,000 वर्ग किलोमीटर हो गया। समझौते के द्वारा फिलीस्तीन के राज्य अधिकार को पूर्वस्थापित करने के विषय में कुछ नहीं किया गया तथा यरूशलम का अंतर्राष्ट्रीय दर्जे का प्रश्न भी अनिर्मित रहा। 1980 में इजराइल में अपने हिस्से के यरूशलम को अपनी राजधानी घोषित कर दिया। इस युद्ध के परिणामस्वरूप इजराइल चारों तरफ से अरब देशों से घिर गया तथा तब से लेकर आज तक इजराइल तथा अरब देशों के मध्य संघर्ष अनवरत रूप से बना हुआ है।
1957 से 1959 तक सीमाओं पर शान्ति रही किन्तु इसके बाद तीसरे अरब-इजराइल युद्ध की भूमिका बनने लगी। मिस्र ने पहले तो नहर के माध्यम से इजराइल ले जा रहे सामान को जब्त कर लिया तथा फिर पूर्वी एशिया को भेजे जाने वाले इजराइली सामान पर रोक लगा दी। कारण यह बताया गया कि अभी दोनों के मध्य विद्रोह चल रहा है। अतः अकाबा की खाड़ी की नाकेबन्दी न्यायोचित है। इसके बाद सीरिया से चलाया जाने वाले गुरिल्ला युद्ध अधिक तीव्र हो गया तथा 1967 में इजराइल तथा सीरिया की सीमा पर झड़पों में वृद्धि हो गयी। अप्रैल 1967 में अरब गुरिल्लाओं ने सीरिया की सीमा पर स्थित इजराइली क्षेत्रों पर आक्रमण किया। 7 अप्रैल को इजराइल ने सीरिया के ठिकानों पर बमबारी की। 18 मई, 1967 को मिस्र की सरकार ने गाजा क्षेत्र में से संयुक्त राष्ट्र संकटकालीन सेनाओं को वापस बुलाने की मांग की। जिसे संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव ने स्वीकर कर लिया। उसके तुरंत बाद दोनों पक्षों में संघर्ष की संभावना बढ़ गयी।
21 मई, 1967 को यासिर ने घोषणा की कि वह तिरान के जलडमरु मध्य को बंद कर देगा तथा अकाबा की खाड़ी की नाकेबन्दी कर देगा। 23 मई, 1967 को अकाबा की खाड़ी को इजराइली आकाओं के लिए बन्द कर दिया गया। इजराइल के लिए यह अत्याधिक संकटपूर्ण स्थिति थी, क्योंकि स्वेज नहर बन्द कर दिये जाने के बाद वह लाल सागर में तिरान तथा अकाबा की खाड़ी के माध्यम से ही प्रवेश कर सकता था। अतः मिस्र के उस कार्य से इजराइल का लाल सागर में प्रवेश बंद हो गया। 30 मई, 1967 को नासिर में अपने एक भाषण में खुले रूप से इजराइल को चुनौती दी, तथा ब्रिटेन और अमेरिका ने भी अकाबा की खाड़ी की नाकेबन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन माना। इजरायल ने गाजा से लेकर काहिरा तक सभी हवाई अड्डों पर बमबारी की तथा इसे प्रतिरक्षात्मक कार्य बताया। यासिर ने भी उसी दिन इजरायल के साथ युद्ध की घोषणा कर दी तथा अकाबा की खाड़ी को पूरी तरह बंद कर दिया।
5 जून, 1967 तक इजरायल ने संपूर्ण सिनाई क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। उसकी सेनाएं स्वेज नहर के पूर्वी तट पर पहुंच गयी तथा स्वेज नहर पार करने की तैयारी करने लगी। उसका शर्म-उल-शेख पर तो अधिकार था ही, उसने बेलहेथम पर भी अधिकार कर लिया। अब उसका अधिकार पूरे सिनाई प्रायद्वीप, स्वेज नहर के पूर्वी तट, गाजापट्टी, जार्डन के पश्चिमी तट, सीरिया की गोलन पहाडि़यों तथा येरूशलम के पूर्वी भाग पर भी हो गया तथा इस तरह इजरायल की सीमाएं तीन गुना विस्तृत हो गयीं। उसे यह नियम 6 दिन के अंदर प्राप्त हो गयी थी। 5 जून, 1967 को इजरायल तथा मिस्र के मध्य युद्ध बंद हो गया। 10 जून, 1967 को सीरिया के साथ युद्ध विराम संधि हो गया। इस युद्ध के बाद इजरायल ने शांति के निम्न शर्त रखी थीः
इजरायल की इन शर्तों को अरब देशों ने मानने से इंकार कर दिया।
Question : आज का नैतिक दावा कल का मानवीय अधिकार होता जा रहा है। बीसवीं शताब्दी में मानवीय अधिकारों को अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा देने का प्रयास का मूल्यांकन करें।
(2001)
Answer : संयुक्त राष्ट्र की एक बड़ी उपलब्धि है। मानवाधिकार कानून की व्यापक संस्था का निर्माण करते हुए इतिहास में पहली बार मानवाधिकारों की वैश्विक और अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण प्राप्त उपलब्ध करना है। इस संस्था का आधार 1948 में महासभा द्वारा पारित संयुक्त राष्ट्र चार्टर और मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा है। उसके बाद से संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकार कानूनों का धीरे-धीरे विस्तार किया ताकि महिलाओं, बच्चों, विकलांग व्यक्तियों, अल्पसंख्यकों, प्रवासी श्रमिकों और अन्य कमजोर वर्गों के विशेष वर्गों को इसके दायरे में लाया जा सके, जिन्हें अब लंबे समय से चली आ रही भेदभावपूर्ण व्यवस्थाओं से बचाव के अधिकार मिल गये हैं।
सन् 1945 में सन फ्रांसिस्को सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई थी। महिलाओं, मजदूर संघों, नस्ली संगठनों और धार्मिक समूहों के लगभग 40 गैर सरकारी संगठनों के साथ अधिकतर छोटे देशों के प्रतिनिधिमंडल भी मिल गये थे और उन्होंने अन्य देशों द्वारा प्रस्तावित प्रयासों के अलावा भी अनेक उपाय किये जाने का सुझाव दिया था। उनके सतत प्रयासों के परिणामस्वरूप ही मानवाधिकारों के बारे में साहसिक प्रावधानों को संयुक्त राष्ट्र चार्टर में सम्मिलित किया गया और उसी के साथ 1945 के बाद के दौर में अंतर्राष्ट्रीय कानून बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत भी हुई। इस चार्टर की प्रस्तावना में मूल मानवाधिकारों, मानव के सम्मान और गौरव, पुरुषों और महिलाओं और बड़े और छोटे देशों के समान अधिकारों में स्पष्ट रूप से आस्था व्यक्त की गयी। अनुच्छेद 1 के अनुसार संयुक्त राष्ट्र का एक मुख्य कार्य जाति, लिंग, भाषा या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव किये बिना सभी के मानवाधिकारों का सम्मान करने को बढ़ावा देना है। संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में हुए मानवाधिकार समझौते में दो को सर्वाधिक कानूनी मान्यता प्राप्त हुई है। एक है आर्थिक-सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों से संबंधित तथा दूसरे का संबंध नागरिक और राजनीतिक अधिकारों से है।
इस प्रकार का रंगभेद समाप्त करने के बारे में अंतर्राष्ट्रीय कनवेंशन पर सबसे ज्यादा 157 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं। महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त करने संबंधी कनवेंशन पर 166 देशों के हस्ताक्षर हैं और इसमें कानून की नजर से महिलाओं को समानता दिये जाने की गारंटी है तथा राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन, राष्ट्रीयता, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, विवाह और परिवार बनाने के मामलों में महिलाओं के प्रति भेदभाव दूर करने के विशेष उपाय किये गये। उत्पीड़न और अन्य अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या दंड रोकने संबंधित कनवेंशन पर 123 देशों ने हस्ताक्षर किये हैं। इसमें उत्पीड़न को अंतर्राष्ट्रीय अपराध माना गया है।
बाल अधिकारों के बारे में कनवेंशन (1929) में बच्चों की कमजोर स्थिति को स्वीकार किया गया है और बच्चों को सभी प्रकार के मानवाधिकार दिये जाने के बारे में व्यापक आचार संहिता निर्धारित की गयी है। धर्म और विश्वास पर आधारित हर प्रकार के असंगत और भेदभाव की समाप्ति की घोषणा (1981) में सभी को सोचने और किसी भी धर्म को अपनाने का अधिकार दिया गया है।
मानवाधिकार आयोग ने 1947 में मानवाधिकारों के संरक्षण एवं प्रोत्साहन के लिए एक संस्था का गठन किया। उसकी बैठक वर्ष में एक बार होती है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त, मानवाधिकारों के मामले में संयुक्त राष्ट्र गतिविधियों के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार रहता है। इस उच्चायुक्त ने मानवाधिकार कार्यों से जुड़े संयुक्त राष्ट्र बाल निधि, यूनेस्को, यूएनडीपी, यूएनएएचसीआर और संयुक्त राष्ट्र स्वयंसेवकों जैसे अन्य निकायों से सहयोग और संयोजन संस्थागत रूप में प्राप्त करने के ठोस कदम उठाये हैं। मानवाधिकार शिक्षा के संयुक्त राष्ट्र दशक का उद्देश्य मानवाधिकारों के प्रति विश्व भर में जागरुकता पैदा करना और उसके लिए वैश्विक संस्कृति विकसित करना है। उसकी मदद से करीब 40 लोगों ने मानवाधिकार शिक्षा को स्कूलों के पाठ्यक्रमों में शामिल करके इसका प्रचार-प्रसार किया है।
मानवाधिकारों के प्रति संयुक्त राष्ट्र का दृष्टिकोण शुरू से ही रहा है कि अत्यधिक गरीबी और अल्पविकास से मानवाधिकारों के अपेक्षित उपयोग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और यह पहली बार वैश्विक घोषणा में ही स्पष्ट कर दिया गया था। महासभा द्वारा 1986 में पारित विकास के अधिकार संबंधी घोषणा में सरकारों ने विकास के अधिकार को उच्च प्राथमिकता प्रदान की थी और उच्चायुक्त के समावेश में उसे स्पष्ट रूप से परिलक्षित किया है। 1998 में मानवाधिकार आयोग ने विकास के अधिकार के बारे में स्वतंत्र विशेषज्ञों की नियुक्ति की है। वर्ष 1998 में ही आयोग ने विकास के अधिकारों के क्रियान्वयन और प्रगति पर निगाह रखने के लिए कार्यदल का भी गठन किया था।
संयुक्त राष्ट्र की चिंता का एक बड़ा विषय है- श्रमिकों के अधिकारों को परिभाषित करना और उनको संरक्षण प्रदान करना। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक प्रमुख संस्था, त्रिपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन जिसमें सरकार, मालिकों और श्रमिकों के प्रतिनिधि होते हैं, इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है।
देशों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक बनावट या ढांचों को खतरे में डालते हुए नस्लीय जातीय और धार्मिक तनाव बढ़ने लगे हैं। जिनके कारण अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों के प्रति भी रुचियों में वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय जातीय, धार्मिक और भाषाई गुणों की आकांक्षा पूरी करने और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की पक्की व्यवस्था करने से सभी व्यक्तियों की समानता को मान्यता मिली है और समाज में उनका योगदान बढ़ाने और सामाजिक तनावों को घटाने में मदद मिलती है। अपनी स्थापना के समय से ही संयुक्त राष्ट्र अपने मानवाधिकार एजेंडों अल्पसंख्यकों के अधिकारों उच्च प्राथमिकता देता आया है। अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों के संरक्षण की गारंटी की भेदभाव न करने के सिद्धांत में शामिल है।
मानवाधिकारों को संरक्षण और बढ़ावा देने के उपाय तो पहले से ही कहीं ज्यादा मजबूत हैं। संयुक्त राष्ट्र सुधार कार्यक्रम में महासचिव कोफी अन्नान ने घोषणा की थी कि मानवाधिकारों का मुद्दा संगठन के विविधतापूर्ण दायित्व में हमेशा प्रमुख रहेगा।
Question : प्रभुता संपन्न राज्य पर पुनर्विचार
(2000)
Answer : राजनीति विज्ञान तथा न्यायशास्त्र के शब्दों में संप्रभुता को राज्य का एक अनिवार्य गुण माना जाता है तथा यह एक ऐसी परिशुद्ध तथा सर्वोच्च सत्ता की द्योतक है, जिस पर आंतरिक या बाह्य सत्ता का कोई नियंत्रण नहीं होता। संप्रभुता के इस पारंपरिक अर्थ में आज के किसी भी राज्य को पूरी तरह संपन्न नहीं कहा जा सकता। संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय आर्थिक समिति आदि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की सदस्यता और अंतर्राष्ट्रीय संधियां, समझौते, अभिसमय आदि उस पर बहुत से दायित्व डाल देते हैं और कई तरह के अंकुश लगा सकते हैं जिसमें संप्रभुता पर थोड़ी बहुत आंच आती ही है।
संयुक्त राज्य अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया में संप्रभुता तथा राज्यों के बीच बंटी हुई है और प्रत्येक राज्य संविधान द्वारा सौंपे गये क्षेत्र में प्रभुत्व संपन्न हैं। किंतु इसके विपरीत भारत में संघ तथा राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन के बावजूद उसमें संप्रभुता का कोई विभाजन नहीं है। आपात स्थितियों के दौरान संघ राष्ट्रीय हित में राज्यों के अधिकार क्षेत्र को लांघ सकता है। सामान्य स्थिति के दौरान भी वह अनुच्छेद 249 के अधीन राज्य सूची में समाविष्ट विषयों पर कानून बनाकर, राज्यों के क्षेत्र का अतिक्रमण कर सकता है। हमारी राष्ट्रीय संप्रभुता अखंड तथा अविभाज्य है। कोई भी राज्य या राज्यों का समूह संविधान को रद्द नहीं कर सकता या संविधान द्वारा स्थापित संघ से बाहर नहीं जा सकता। हमारे संविधान निर्माताओं ने आरंभ से ही संघ की अनश्वरता का उपबंध कर दिया है और राज्यों को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं दिया।
Question : सूचना प्रौद्योगिकी - राष्ट्रीय शक्ति का एक तत्व
(2000)
Answer : सूचना प्रौद्योगिकी वास्तव में राष्ट्रीय शक्ति का एक तत्व है, जो पारदर्शिता के साथ दिखता है। सूचना प्रौद्योगिकी के कारण लोगों में नये-नये अवसर प्राप्त होते हैं। खासकर भारत जैसे देश जहां बेरोजगारी अपनी चरम सीमा पर है। सूचना प्रौद्योगिकी ने बहुत लोगों को रोजगार दिया है। जिसने हमारे समाज में असंतोष की भावना को रोका है। आज टेलीफोन और मोबाइल का हमारे देश में जाल बिछा हुआ है। इससे राष्ट्र को एक बहुत बड़ा राजस्व प्राप्त होता है। रेडियो, टेलिविजन, टेलीफोन और मोबाइल सूचना प्रौद्योगिकी के मूल यंत्र हैं।
आज सूचना प्रौद्योगिकी के कारण लोग आवागमन की समस्या से बचते हैं और समय की बहुत बड़ी समस्या सुलझ जाती है। लोग देश और विदेश की समस्या से अवगत होते हैं और राष्ट्रीय शक्ति को संगठित करने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सूचना प्रौद्योगिकी एक समाज को दूसरे समाज से और देश को जोड़ने का काम करती है। जिससे राष्ट्रीय शक्ति में वृद्धि होती है। दूरसंचार में हमारी तकनीकी क्षमता बेमिसाल है। थोड़े ही समय में हमने सेवाओं तथा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे के मामले में अंतर्राष्ट्रीय स्तर को प्राप्त किया है। पिछले दो वर्षों में भारत ने 5048 करोड़ रुपये का विदेशी निवेश प्राप्त किया है और रोजगार पर इसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से अनूकूल असर है। कॉल सेंटर इसके प्रमुख उदाहरण हैं। जिसमें कम से कम एक लाख नये रोजगार प्राप्त हुए हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों तथा सिक्किम में 487 ब्लाकों में सामुदायिक सूचना केंद्रों ने सामाजिक-आर्थिक विकास में मदद पहुंचायी है। इस तरह 5048 रुपये का निवेश हमारे राष्ट्र को एक नये शक्ति का रूप देता है।
Question : सर्व-अमेरिकावाद
(2000)
Answer : विश्व के मानचित्र में अमेरिका एक चमकता हुआ सितारा है, जो अपने विकास के चरम सीमा पर खड़ा हुआ दिखता है। इसी कारण आज विश्व के अधिकांश देशों पर इसका प्रभाव और वर्चस्व साफ दिखता है और संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् स्थायी सदस्यता ने तो इसे मनमानी करने का अधिकार ही दे रखा है। संयुक्त राष्ट्र संघ पर यह अपना दबदबा बनाये हुए है। खासकर तीसरी दुनिया को अमेरिका अभिशाप दिखता है। बहुत से देश सिर्फ इसके चमचे बनकर रह गये हैं या बहुत सारे ऐसी घटनाएं दिखने को मिलती हैं जिससे उसकी दादागिरी दिखती है। भूमंडलीकरण के दौर में इसने तीसरी दुनिया के बाजारों पर अपना सर्चस्व कायम कर रखा है। भारत के संबंध अक्सर अमेरिका से खराब रहे हैं क्योंकि उसकी विदेश नीति पूर्वाग्रह से ग्रसित है। भारत ने जब पोखरण में परमाणु परीक्षण किया तो उसने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया। भारत ने भी अपनी हार नहीं मानी, अब उसने खुद आर्थिक प्रतिबंध हटा लिया है। अफगानिस्तान और इराक उसके मनमानी के ज्वलंत उदाहरण हैं। आज इराक की स्थिति क्या है। छिपा हुआ नहीं है किसी से। आखिर क्यों होता है ऐसा? उसकी मनमानी का प्रभाव विश्व समाज पर पड़ता है। इससे मानवता का हनन होता है। आखिर इन सब बातों पर संयुक्त राष्ट्र ध्यान नहीं रखता है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ खुद उसके हाथ की कठपुतली बना हुआ है।
भूमंडलीकरण के तहत उसने ऐसी नीति अपनायी है कि आज अधिकांश देशों के बजार पर इसका प्रभाव बना हुआ है। अमेरिका आज पूरे विश्व समाज पर अपना मनमानी करता है। वह किसी भी समीकरण को किसी भी रूप में अपने हित के लिए बदल सकता है।
Question : संयुक्त राष्ट्र महासभा सहस्राब्दि शिखर सम्मेलन
(2000)
Answer : 6 और 8 सितंबर, 2000 को संयुक्त राष्ट्र संघ के हेडक्वाटर न्यूयार्क में शिखर सम्मेलन हुआ। जिसका मूल उद्देश्य मानव, एकता, सम्मान और समानता भूमंडलीय स्तर पर लाने के लिए किया गया था। संयुक्त राष्ट्र पूरे विश्व में शांति की स्थापना करना चाहता है ताकि विश्व समाज में किसी तरह अशांति या युद्ध की संभावना को रोका जा सके। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय और कानून उपनिवेशवाद और आंतरिक मामले में हस्तक्षेप पर भी प्रकाश डाला है। भूमंडलीकरण के कारण जिस देश का कम फायदा हुआ उसे अधिक फायदा दिलाना यह इस शिखर सम्मेलन में चर्चा हुई। स्वतंत्रता, समानता, एकता, पर्यावरण की सुरक्षा पर भी इस शिखर सम्मेलन में प्रकाश डाला गया।
इस शिखर सम्मेलन में शांति, सुरक्षा और निरस्त्रीकरण को मुख्य मुद्दा बनाया गया। इसमें परमाणु हथियार को खत्म करने पर भी जोर दिया, जो मानव को नाश करने का एक महत्वपूर्ण हथियार है और इसके विश्व में बहुत सारे देश अभी तक विकास नहीं कर पाये हैं। गरीबी और भुखमरी से लड़ रहे हैं। ऐसे देश को आर्थिक महत्व देकर आगे बढ़ाना है ताकि यह देश भी अपने को विकास कर सके।
विकसित और विकासशील देशों के द्वारा परमाणु निरीक्षण से पर्यावरण अत्यंत प्रदूषित हो गया है, जो विश्व समाज को अभिशाप हो सकता है। एजेंडा 21 में भी इस बात की चर्चा की गयी है किस प्रकार पर्यावरण को प्रदूषण से बचाया जाये।
इस शिखर सम्मेलन में लोकतंत्र कानून, मानवाधिकार, मौलिक अधिकार पर भी चर्चा की गयी। इसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक की सुरक्षा पर बल दिया गया।
इस सम्मेलन में अफ्रीका के विशेष रूप से संघर्ष कर रहे गरीबी और आर्थिक रूप से पिछड़े रहने के कारण इस पर ध्यान दिया गया। अफ्रीका में एड्स की बीमारी को रोकने पर विशेष बल दिया गया।
Question : ‘सभी राजनीतियों की भांति अंतर्राष्ट्रीय राजनीति भी शक्ति के लिए एक संघर्ष है’ टिप्पणी कीजिए।
(2000)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विश्लेषण से जुड़े हुए यर्थाथवादी सिद्धांत की अन्य अनेक प्रतिस्पर्द्धी सिद्धांतों को चुनौती का सामना करना पड़ा। यह सिद्धांत उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में प्रस्तुत किया गया था। बीसवीं शताब्दी में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में इस सिद्धांत को दोहराया गया। इस सिद्धांत के मूल प्रवर्तकों- कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट मैनीफिस्टो’ के अंतर्गत तर्क दिया था कि पूंजीवाद के विस्तार के साथ विश्व संप्रभुतासंपन्न राष्ट्र राज्यों में विभाजित नहीं होगा। इसमें एक बुर्जुआ और दूसरा सर्वहारा वर्ग होगा। ये वर्ग सामाजिक दृष्टि से बंटे होंगे। मौलिक दृष्टि से नहीं। इस संघर्ष का मुख्य मुद्दा आर्थिक हितों का टकराव होगा, मार्क्सवादी सिद्धांत के समर्थक यह मानते हैं कि विश्व समाज की बुनियादी इकाइयां सामाजिक वर्ग है, राष्ट्र-राज्य नहीं।
इस सिद्धांत के आलोचक यह तर्क देते हैं कि यथार्थ के स्तर पर जो युद्ध देखने में आते हैं, वे मुख्यतः राष्ट्र-राज्यों के संघर्ष होते हैं। इन युद्धों में आर्थिक हितों के अलावा प्रजातीय धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक हितों के टकराव की भी आशंका रहती है।
इसके अलावा मार्क्सवादी ने आर्थिक शक्ति के जमाव का जो सिद्धांत प्रस्तुत किया है। वह है यथार्थ-अनुभव के स्तर पर पूरा नहीं उतरता। तीसरी दुनिया के देशों में आर्थिक शक्ति और राजनीतिक शक्ति में अलगाव पैदा हो जाता है और आर्थिक शक्ति को राजनीतिक शक्ति के साथ समझौता करना पड़ता है। अतः वहां भी आर्थिक शक्ति का जमाव एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाता। परंतु अंतर्राष्ट्रीय जगत में शक्ति का संघर्ष अकारण ही नहीं होता, उसके कुछ आधार होते हैं। इस संघर्ष के प्रथम आधार की प्रकृति मानवीय है। यद्यपि भी देश की सुरक्षा और एकता अच्छे जीवन की एक शर्त होती है फिर भी राष्ट्रीय राज्यव्यवस्था अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में संघर्ष का एक प्रमुख कारण है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच अनेकों प्रश्नों पर मतभेदों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक और राजनीतिक संगठनों तथा विश्वासों के बीच स्थित भिन्नताएं अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का मुख्य कारण है।
कुछ विचारकों का कहना है कि विचारधारा कभी-कभी तो राष्ट्रीयता की भावना से ऊपर उठ जाती है। क्लाइड क्लखोन आदि जाति शास्त्र के विद्वानों का मत है कि संघर्षपूर्ण नैतिक मूल्य-मनमुटाव के प्रधान के कारण होते हैं। लेनिन ने राज्यों के व्यवहार एवं शक्ति-संघर्ष के लिए एक अन्य आधार को उत्तरदायी ठहराया है, जो प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे लोग या वर्ग होते हैं जो दूसरे लोगों की जमीन, जीवन एवं भूमि पर अपनी राष्ट्रीय सत्ता का प्रसार करना चाहते हैं।
Question : क्या आप इस मत से सहमत है कि निर्गुट आंदोलन के पुनराविष्कार की जरूरत है?
(2000)
Answer : गुटनिरपेक्ष आंदोलन उन देशों से व्यापक अनुभव तथा आकांक्षाओं का परिणाम था, जिन्हें एक लंबे समय के बाद गुलामी से मुक्ति प्राप्त हुई थी। अपनी पराधीनता के दौरान उन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध अनेक युद्धों में सम्मिलित होना पड़ा था। अतः वे किसी भी कीमत पर अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहते थे।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जहां बहुत सफलता मिली है। वहीं उसमें बहुत सी खामियां भी देखने को मिलती हैं। उन खामियों को देखने के बाद लगता है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन में पुनराविष्कार की जरूरत है। एक तरफ गुटनिरपेक्ष आंदोलन 1961 से लगातार विस्तृत तथा सशक्त होता जा रहा है तथा अनेक क्षेत्रों में उसके योगदान तथा उपलब्धियों को सराहा गया है तो दूसरी तरफ अनेक आधारों पर उसकी आलोचना भी की गयी हैः
1. सर्वमान्य परिभाषा का अभाव: इस आंदोलन की सबसे बड़ी कमी है कि 1961 में लेकर आज तक उसकी कोई सुस्पष्ट तथा सर्वमान्य परिभाषा नहीं हो पायी है। अतः हर व्यक्ति तथा देश अपने दृष्टिकोण तथा विचारधारा के अनुरूप उसका अलग अर्थ निकलता है। अतः आंदोलन के बारे में अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो गयी है।
2. सिद्धांत तथा व्यवहार में अंतर: गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सिद्धांत तथा उसके देशों के व्यवहार में अत्यधिक अंतर है। सिद्धांततः ये देश परंपरागत शक्ति मॉडल को स्वीकारते हैं, किंतु अनेक गुटनिरपेक्ष देश अपने आपसी व्यवहार में भी परंपरागत शक्ति संतुलन के आधार पर निर्णय लेते हैं। परिणामस्वरूप अनेक सदस्य राष्ट्रों में ही समय-समय पर गठित संघर्ष हुए हैं। जिनके कारण आंदोलन की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचता है।
3. सदस्य देशों के आपसी संघर्ष: अनेक परस्पर विरोधी विचारधाराओं के कारण तथा आपसी राष्ट्रीय हितों में टकराव के कारण सदस्य देशों में आपस में ही अनेक समस्या संघर्ष तक गए हैं। प्रारंभ में इन संघर्षों को यह कहकर टाल दिया गया कि यह एक स्वतंत्र देशों या आंदोलन है जो अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र है तथा यह देश किसी तरहके तीसरे गुट का निर्माण नहीं करना चाहते, किंतु समय के साथ यह स्पष्ट हो गया कि आपसी तनाव तथा संघर्ष इस आंदोलन में सैद्धांतिक रूप से विद्यमान है, क्योंकि यह आंदोलन हर प्रश्न तथा समस्या रूप से विचार कर इससे संबंधित निर्णय लेने का पक्षधर है।
इस आंदोलन को सदस्य राष्ट्रों के आपसी संघर्षों से तो हानि हुई है। लेकिन उसकी प्रतिष्ठा के लिए सर्वाधिक घातक सिद्ध हुआ है। इसके सदस्य राष्ट्रों द्वारा आपसी संघर्षों में आंदोलन के ही अन्य राष्ट्रों की सहायता और यहां तक कि सैनिक मदद भी मांगना तथा प्राप्त करना। इसी प्रकार 1978 के बेलग्रेड के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में सदस्य राष्ट्रों के मध्य विवाद के शांतिपूर्ण समाधान पर विस्तार से विचार किया गया।
4. सदस्य राष्ट्रों में एकता का अभाव: समय के साथ-साथ देशों में आपसी एकता का अभाव है। कुछ देश औपचारिक रूप से तो गुट निरपेक्ष होने का दावा करते हैं, किंतु यथार्थ में वह स्वयं को किसी न किसी गुट के साथ घनिष्ठ रूप से संबंध किये हुये हैं। यहीं नहीं इन देशों ने आंदोलन पर अपना प्रभाव डालने का प्रयास किया है। इससे उन सामान्य में आंदोलन की विश्वसनीयता कम हुई है। कुछ देश आंदोलन तथा स्वयं की एकताएवं निष्ठा को अलग बनाये रखने का प्रयास करते हैं। तथापि ऐसे देशों की भी कमी पड़ी है, जिन्होंने आंदोलन का प्रयोग अपने निहित राष्ट्रीय स्वार्थों की पूर्ति हेतु किया है।
5. विचारधारात्मक मतभेद: सदस्य देशों की स्वयं की परस्पर विरोधी विचारधारा होने के कारण कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि आंदोलन भी दो भागों में बंट गया है। पश्चिम समर्थक देश तथा साम्यवाद समर्थक देश। यहां तक कि क्यूबा ने तो आंदोलन में यह प्रस्ताव तक रखा कि आंदोलन को सोवियत संघ के अधिक निकट होना चाहिए, क्योंकि वह प्रारंभ से ही आंदोलन का समर्थन करता आ रहा है। हवाना शिखर सम्मेलन में सम्मिलित अपने शत्रुओं की आलोचना तथा निष्ठा की तो ईरान, इराक जैसे द्वि-पक्षीय युद्धों में आंदोलन की एकता को आघात पहुंचाया।
6. यह नीति सदस्य राष्ट्रों को सुरक्षा प्रदान नहीं करती: गुट निरपेक्ष आंदोलन प्रकृति से अत्यंत आदर्शवादी तथा अपनी सुरक्षा व्यवस्था के लिए पर्याप्त मामला था। इन देशों ने अपनी सैद्धान्तिक शुद्धता बनाए रखने के लिए न तो स्वयं की रक्षा सेनाओं का विस्तार किया और न ही विदेशों से सैनिक सहायता प्राप्त की। किन्तु उसकी नीति का खोखलापन भारत पर 1962 में हुए चीन के आक्रमण के समय स्पष्ट हो गया। तब आंदोलन के अनेक सदस्यों में संकट के समय भारत के साथ सहानुभूति भी व्यक्त नहीं की। तथा अनेक ऐसे देशों में भारत ही सहायता की जिन्हें स्पष्ट तथा निर्विविवाद रूप से पश्चिम का समर्थक माना जाता रहा है। 1962 में जब आंदोलन अपने प्रारंभिक चरण में था तब तो यह स्पष्ट हो गया था कि अपनी रक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना राष्ट्रीय हित में तो है ही यह गुटनिरपेक्षता के विरुद्ध भी नहीं माना जाना चाहिए। अतः गुट निरपेक्षता को, सदस्यों राष्ट्रों को अपनी सुरक्षा का साधन नहीं मान लेना चाहिए।
7. अवसरवादी नीति: गुटनिरपेक्ष आंदोलन के आलोचक उस पर अवसरवादिता का आरोप लगाते हैं। उनका मानना है कि यह नीति सिद्धांतहीन है तथा साम्यवादी और पूंजीवादी दोनों गुटों से अधिक से अधिक सहायता प्राप्त करने के लिए अपनायी गयी है।
Question : विकासशील देश उदारीकरण और भूमंडलीकरण से विकसित देशों के ट्रोजन डार्स के रूप में भयभीत है। सविस्तार चर्चा कीजिए।
(2000)
Answer : भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दौर में विकसित देशों द्वारा विकासशील देश पर ट्रोजन डार्स के रूप में भयभीत हैं। मेकलडान ने भूमंडलीकरण के अंतर्गत, जो दुनिया को एक छत के नीचे लाने का सपना देखा था, वो बिल्कुल अधूरा सा लगता है। आज उदारीकरण के नीति के कारण विकासशील देश विकसित देशों का मुखौटा बनकर रह गये हैं। जो देश 70-80 के दशक में आजादी पायी, उसकी हालत तो पहले से जर्जर है। उनके उद्योग पुराने हैं। विकसित देशों के तुलना में उसकी तकनीकी बहुत पुरानी है, जिससे उदारीकरण के नीति के कारण विकसित देश के बाजार पर उसका सामान आधुनिक तरीके से बना होगा। उसकी मांग बाजार में ज्यादा होगी। विकासशील देशों में भूख और कुपोषण का संकट लगातार बढ़ रहा है। संपूर्ण भूमंडल की जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन के बावजूद विश्व में प्रतिवर्ष करीब तीन करोड़ 60 लाखलोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भूख के कारण मरते हैं। जो देश भूख और कुपोषण का सामना ठीक से नहीं कर पा रहा है, उसके लिए भला उदारीकरण और भूमंडलीकरण कहां तक फायदेमंद होगा? जिसने अपने मौलिक आवश्यकताएं पूरी करनी है, वो उदारीकरण के इस दौर में कहां तक चल पाएगा? आज उदारीकरण के नीति के कारण विकासशील और भूमंडलीकरण के प्रभावों पर आयोजित सम्मेलनों और परिचर्चाओं में यह बात सामने आ रही हैं कि विकसित देश, वैश्वीकरण के मद्देनजर गरीब देशों की संप्रभुता और बाजारों पर अपना कब्जा करना चाहते हैं। अमीर देशों के बढ़ते प्रभाव से लैटिन अमेरिकी देशों सहित दुनिया के कई देशों ही अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा गयी है। बहुत से विकासशील देशों की सरकारें विकसित देशों की एजेंट बनकर रह गयी हैं। विकसित देशों के हितों को ध्यान में रखकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर की नीतियों का निमार्ण किया जा रहा है और इन नीतियों को विकासशील देशों पर थोप कर उनका शोषण किया जा रहा है। पूंजीपति देशों ने अपने लाभ के लिए बाकी बची दुनिया को एक खुला बाजार बना दिया है। पूंजीपति देश तीसरी दुनिया के देशों में पूंजी लगाकर उनका शोषण कर रहे हैं और एक प्रकार से पूरी दुनिया पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं।
ऐसे परिवेश में दुनिया के करोड़ों लोग चिंतित हैं कि क्या विकासशील देश गरीबी, भूख और बेरोजगारी के अभिशाप से मुक्त हो पाएंगे? सामाजिक और व्यापार शोध में काम करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संस्था ऑक्सफेम के मुताबिक विकसित देश अपने यहां कृषि को भारी सब्सिडी दे रहे हैं, जबकि साफ-सफाई के नाम पर विकासशील देशों के कृषि उत्पादकों को अपने देश में प्रवेश पर तमाम प्रतिबंध लगा रखे हैं। इन देशों की सब्सिडी के कारण सस्ते कृषि उत्पाद विकासशील देशों में डंप हो रहे हैं। विकासशील देशों के कृषि उत्पादों के दाम लागत से भी कम हैं। उससे उनकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हो रही है। विकासशील देशों के उत्पादकों को निर्यात करते समय विकसित देशों को उत्पादकों को निर्यात करते समय विकसित देशों के निर्यातकों की तुलना में चार गुणा अधिक शुल्क अदा करना पड़ता है।
विश्व से गरीबी मिटाने के लिए विश्व संगठनों ने योजना बनायी है कि सन् 2015 तक भूमंडलीय गरीबी को आधा किया जाएगा। यह लक्ष्य एक बड़ी भारी चुनौती है। पिछले दस वर्षों के दौरान दक्षिण एशियाई देशों में गरीबी तेजी से बढ़ी है। उदारीकरण से सबसे ज्यादा दक्षिण एशिया के देश ही प्रभावित हुए हैं। उस दौरान सबसे अहम् बात यह रही है कि यहां बड़े शहरों में लोगों के जीवन-स्तर में सुधार आया वहीं गावों केजीवन-स्तर में जोरदार गिरावट दर्ज की गयी। स्पष्ट रूप से वैश्वीकरण का वर्तमान दौर विकासशील देशों के लिए उत्साहजनक नहीं हैं। थोड़े से नये उद्योगशील अर्थव्यवस्थाएं धनी विकसित देशों के समीप अपनेको लाने में सफल हुई, परंतु गरीब देश वैश्वीकरण के नाम पर विकासशील देशों का शोषण कर रहे हैं। उदारीकरण के नीति से समाज गरीब और अमीर वर्ग में बंट गया है। उदारीकरण की नीति के अंतर्गत आज बाजार में जो सामान उपलब्ध है, उसे सिर्फ अमीर वर्ग ही खरीदने में अपने आपको सक्षम पाते हैं। उदारीकरण की इस नीति द्वारा अमीरी और गरीबी की समस्या उत्पन्न कर दी गयी है, जिससे सामाजिक असंतोष समाज में बढ़ रहा है, जो कोई उग्र रूप भी धारणा कर सकता है।
उपरोक्त कथनों से यह देखने से स्पष्ट होता है कि विकसित देश विकासशील देशों के बाजार पर पूर्णतः हावी हो गयी हैं। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण विकसित देश ट्रोजन डॉर्स के रूप में भयभीत हैं।
Question : राष्ट्रीय हित एवं विचारधारा
(1999)
Answer : राष्ट्रीय हित, संघर्ष या विरोध और विचारधारा इन तीनों में परस्पर निकटतम संबंध है। पर एक परस्पर संबंध मुख्यतः परंपरागत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रधान विशेषता रही है। स्थिति यहां तक है कि यह बात स्वतः सिद्ध मानी जाती है कि प्रत्येक राष्ट्र की राष्ट्रीय हित के संरक्षण की अभिलाषा से विरोध अवश्य ही पैदा होता है और राष्ट्र अपने दृष्टिकोण के लिए समर्थन किसी न किसी विचारधारा के आधार पर पाने का सदा प्रयत्न करता है। पर यह बात महत्वपूर्ण है कि अंतर्राष्ट्रीय एकीकरण की ओर उन्मुख प्रवृत्तियों से और शांति के लिए बढ़ती हुई चिंता से जो नये बल उत्पन्न हुए हों, उनके प्रकाश में इस परस्पर संबंधों की नये सिरे से परीक्षा करें।
इस तरह की पुनः परीक्षा की आवश्यकता का औचित्य यह है कि राष्ट्रीय हित को अंतर्राष्ट्रीय वास्तविकता को पुनर्निर्दिष्ट करना होता है। ताकि राष्ट्र नेता सही नीतियों का अनुसरण करने में समर्थ हो सकें। चूंकि राष्ट्रीय नीतियों का सही होना इस बात पर निर्भर है कि वे कहां तक अंतर्राष्ट्रीय एकीकरण की जरूरतें पूरा करती हैं। इसलिए उनसे ऐसी अवस्थाएं पैदा हो सकती हैं। इसलिए हमारा यहां इतना आशय है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के नये बलों के उभर आने से राष्ट्रीय हित के संप्रभुत्व का ऐसा पुर्नमूल्यांकन करना आवश्यक हो गया है। जिनमें अब इसे अंतर्राष्ट्रीय विरोधों का जन्मदाता न माना जाये। यदि इस मार्ग पर राष्ट्रीय हित की पुनः परीक्षा की जाये तो यह सुझाया जा सकता है कि विदेशनीति के वास्तविक उद्देश्यों के मुखौटे के रूप में विचारधारा की यह आवश्यकता धीरे-धीरे कम होती जायेगी। यदि ऐसा संभव हुआ तो हो सकता है कि कालांतर में केवल एक ऐसी विचारधारा का अस्तित्व रहे जो शांति और अंतर्राष्ट्रीय एकीकरण से जुड़ी हुई हो।
Question : एजेंडा और उसके बाद
(1999)
Answer : एजेंडा 21 को पृथ्वी शिखर सम्मेलन में स्वीकार किया गया। यह टिकाऊ विकास के सभी क्षेत्रों में वैश्विक कार्य की एक व्यापक योजना है। इसमें सरकारों ने कारवाई के ऐसे विस्तृत ब्लूप्रिंट की रूपरेखा पेश की जो विश्व को उसकी आर्थिक वृद्धि के मौजूदा गैर-टिकाऊ माहौल से अलग हटाकर ऐसी गतिविधियों की ओर ले जा सकती है, जो उन पर्यावरणीय साधनों को सुरक्षित और नवीकृत करेगी। जिन क्षेत्रों में कार्रवाई की जरूरत है, उनमें शामिल हैं- वातावरण की सुरक्षा, निर्वनीकरण, मृदाक्षय और मरुस्थलीयकरण को रोकना, वायु एवं जल का प्रदूषण न होने देना। मत्स्य धन में गिरावट को रोकना तथा विषैले उत्सर्जन के सुरक्षित प्रबंधन को प्रोत्साहित करना। एजेंडा 21 में विकास के उन पैटर्न पर भी ध्यान दिया गया है, जिनसे पर्यावरण पर दबाव पड़ता है। विकासशील देश में गरीबी तथा विदेशी कर्ज, उत्पादन और उपभोग के गैर टिकाऊ पैटर्न, जनांकिकीय दबाव तथा अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का ऐसे समूह हैं। महिलाएं, मजदूर संघ, किसान, बच्चे एवं युवजन, देशीय जन, वैज्ञानिक समुदाय, स्थानीय अधिकारीगण, व्यासाय, उद्योग एवं गैर सरकारी संगठन।
संयुक्त राष्ट्र से अनुरोध किया गया कि वह एजेंडा 21 को अमल में लाने वाले राष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन करें। विकास सहायता कार्यक्रमों को ज्यादा से ज्यादा महिलाओं की ओर उन्मुख किया जा रहा है।
एजेंडा 21 के विश्वव्यापी अमल को पूर्ण समर्थन सुनिश्चित करने के लिए वृहसभा ने 1992 में टिकाऊ विकास आयोग स्थापित किया। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक कार्य विभाग अपने विकास खंड के माध्यम से आयोग को सचिवालय प्रदान करता है तथा टिकाऊ विकास के कार्यान्वयन को आसान बनाने के लिए नीतिगत सिफारिशों के अनुरोध का उत्तर देता है।
पृथ्वी शिखर सम्मेलन में यह सहमति हुई कि एजेंडा 21 के लिए अधिकांश धन प्रत्येक देश के सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र से आयेगा। 1998 में 36 राष्ट्रों ने दो अरब 75 करोड़ डॉलर दिये। जैफ निधियां के प्राथमिक साधन हैं जिनके जरिये जैविक विविधता एवं मौसम परिवर्तन संधियों के लक्ष्य साकार किये जाते हैं।
Question : यूरोपियन संघ
(1999)
Answer : यूरोपियन संघ कई नामों से जाना जाता है। परंतु यह यूरोपीय आर्थिक समुदाय के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसको यूरोपीय आर्थिक समुदाय इसलिए कहना उचित होगा क्योंकि, यही इसका अधिकृत शीर्षक है। 1 जनवरी, 1958 को एक संधि द्वारा यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना हुई। प्रारंभ में इसके छः राष्ट्र- फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग, जर्मन संघीय गणराज्य व इटली सदस्य थे। बाद में ब्रिटेन, आयरलैंड, डेनमार्क और नार्वे भी इस संधि में शामिल हो गये। परंतु नार्वे उससे हट गया। 1981 में ग्रीस तथा 1986 में स्पेन और पुर्तगाल इसके सदस्य बन गये। जनवरी 1995 में आस्ट्रिया, फिनलैंड तथा स्वीडन को यूरोपीय संघ का सदस्य नियुक्त किया गया। इस तरह अब संघ की सदस्य संख्या 12 से बढ़कर 15 हो गयी है।
वास्तव में इस संघ का उद्देश्य आर्थिक संघ का निर्माण करना है, जिसके द्वारा सभी सदस्य देशों के रहन-सहन के स्तर में वृद्धि की जा सकती है। ‘इस यूरोपीय समुदाय की यह महत्वाकांक्षा थी कि 1992 तक पूरा पश्चिमी यूरोप एक एकात्मक बाजार के रूप में विकसित होगा। राष्ट्रों की वर्तमान सीमाओं को आर्थिक विपणन की दृष्टि से समाप्त कर दिया जायेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका की तर्ज पर यूरोपीय साझा बाजार को एक सीमामुक्त एकात्मक बाजार के रूप में परिणत कर दिया जायेगा।’ डेन्यु ने इस संबंध में स्पष्ट किया है कि सामान्य दृष्टि से यह आर्थिक संधि है, लेकिन इसका राजनीतिक पहलू अधिक प्रभाशाली हैं। हेलिस्टाइन तो इसकी तुलना तीन अवस्था वाले रॉकेट से करते हैं, जिसमें कि पहली अवस्था तटकर संघ, दूसरी अवस्था आर्थिक संघ तथा तीसरी अवस्था राजनीतिक संघ की है। अतः राजनीतिक आधार और आर्थिक लाभों के कारण समुदाय की स्थापना को प्रोत्साहन मिला।
11 दिसंबर, 1991 को नीदरलैंड के मेस्ट्रिज नगर में 12 सदस्यीय यूरोपीय समुदाय ने यूरोपीय मौद्रिक संघ के अनुबंध पर सभी सदस्य देशों के हस्ताक्षर कर लिये गये। जिसके तहत इन देशों में समान मुद्रा का चलन एक यूरोपीय केंद्रीय बैंक की स्थापना के साथ शुरू किया गया। यह मुद्रा यूरो कहा गया एवं इसका चलन 1 जनवरी, 1999 से किया गया। अतः इस प्रकार से मेस्ट्रिच संधि के फलस्वरूप यूरोपीय समुदाय यूरोपीय संघ में बदल गया। इस मेस्ट्रिच सम्मेलन के मौके पर यह भी घोषणा की गयी कि, ‘सन् 2010 तक समुदाय की सदस्या 20 हो जायेगी तथा 2020 तक यह बढ़कर 30 तक पहुंच जायेगी।’
Question : आण्विक युग में राजनय का महत्व
(1999)
Answer : वर्तमान समय में राजनय का कार्य, परमाणु युद्ध की संभावना को देखते हुए पहले से भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में मॉरगनेग्यू ने सच ही कहा है कि युद्ध आत्मघाती निराशा का एक साधन बन गया है। परिणामतः राष्ट्रों को युद्धों की विकल्पों की बात सोचनी पड़ती है। किसी सीमित युद्ध के व्यापक गुट में बदल जाने का खतरा रहता है। यदि हम भूतकाल को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी छोटे क्षेत्र में युद्ध से बचना होता है तो सारे संसार में युद्ध को रोकना आवश्यक हो जाता है। अतः राजनय का काम वर्तमान समय में परमाणु युद्ध का निवारण करना है।
जब कभी युद्ध की स्थिति पैदा होती है तो विश्व के नेता अपीलें निकालते हैं और ऐसी स्थिति में सीधे उलझे हुए राष्ट्रों पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव डालने के लिए आपस में मिलकर बातचीत करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अंतर्राष्ट्रीय शांति की चिंता हर किसी को है और शांति बनाए रखने का काम राजनय का है। इसलिए राजनय को अपना द्विपक्षीय और बहुपक्षीय रूप को त्यागकर अंतर्राष्ट्रीय राजयन बन जाना होता है। राजनय के स्वरूप में हुआ परिवर्तन उसके पुराने और नये रूप में मुख्य भेदक बिंदु है। वास्तव में वर्तमान समय में राजनय का प्रमुख कार्य परमाणु अस्त्र के प्रयोग को रोकना है। इसलिए आज राजनय का कार्य अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के सुनिश्चित समाधान के लिए समझौते करना ही नहीं बल्कि तीसरा विश्व युद्ध का खतरा भी टालना है।
राजनय के इस कार्य का स्वरूप समर नीति है। इससे इस काम को व्यवहारिक महत्व मिल जाता है। व्यवहारिक महत्व को अक्सर संबंधित समझा जाता है और वह कार्य है समझौता करवा देने वाली सौदेबाजी करना। राजनय दोनों पक्षों के हितों का प्रयत्न करता है और उन हितों को देखते हुए तथा उसके समर्थन के लिए उपलब्ध शक्ति को देखते हुए विवादास्पद उद्देश्यों को संतुलित करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार की राजनयिक तकनीक न केवल अंतर्राष्ट्रीय विरोधों के लिए शांतिमय समाधान के लिए साधन के रूप में। बल्कि साझे हितों के निरुपण के लिए शोध के रूप में ही काम आती है।
अतः इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि राजनय साधारण तौर पर विदेशनीति एवं मुख्य रूप से परमाणु युद्ध में विशेष भूमिका निभाती है।
Question : ‘निर्णय-परक सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में केवल एक आंशिक सिद्धांत है।’ इस कथन की आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(1999)
Answer : निर्णयकारिता अथवा निर्णयपरक सिद्धांत के बौद्धिक बीज अठारहवीं सदी से भी पहले दिखायी देते हैं। बीसवीं शताब्दी में उस सिद्धांत की प्रेरणा वॉन-न्यूमैन तथा ऑस्कर मॉर्गन्सटर्न द्वारा बनाये गये खेलों के सिद्धांतों के स्वरूप निरुपणों से मिली। 1957 में उसने सरकारी निर्णयकारिता के स्वरूप आर्थिक सिद्धांतों के रूप में पेश किये गये। इसके अतिरिक्त विलियम राइकर, जेम्स रोबिन्सन और हरबर्ट साइमन आदि कई लेखकों ने राजनीति विज्ञान के अध्ययन में निर्णयकारी दृष्टिकोण को समृद्ध किया।
निर्णयकारी विश्लेषण के अर्थ में उसकी संभावनाओं को ठीक-ठीक समझने के लिए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि डिसीजन मैकिंग का संप्रत्यय पॉलिसी मैकिंग और इसे ही अन्य संप्रयत्यों से भिन्न है।
निर्णमकरण दृष्टिकोण का मूल उद्देश्य दो हैं एक तो राजनीति क्षेत्र में उन मार्मिक संरचनाओं को पहचानना, जहां परिवर्तन होते हैं। जहां निर्णय किये जाते हैं और जहां कार्यवाही का सूत्रपात और उसकी पूर्ति हो जाती है। दूसरा उद्देश्य यह है कि इस निर्णयकारी व्यवहार का व्यवस्थित विश्लेषण किया जाये। जिसकी परिणति कार्यवाही के रूप में होती है। इस प्रकार निर्णयकरण दृष्टिकरण उन कार्यकर्ताओं पर अपना ध्यान केंद्रित करता है जो निर्णयकर्ता कहलाते हैं और उन राज्यों पर भी जो निर्णय करने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्य के कार्यों को निर्णयकर्ताओं के कार्यों को शीशे में देखा जाता है। कार्यकर्ता स्थिति को जिस रूप में देखते हैं, वह भी निर्णय करने के आधार में महत्वपूर्ण है। निर्णयकारी दृष्टिकोण यह मानकर चलता है कि राजनीतिक कार्यवाही की पूंजी यह है कि निर्णयकर्ता कार्यकर्ता के रूप में किस तरीके से अपनी स्थिति निर्दिष्ट करते हैं और उस स्थिति का अपना चित्र उनकी कार्यवाही के स्वरूप को किस सीमा तक निर्धारित करता है। आंतरिक परिवेश के घटक तत्व हैं- व्यक्तित्व, भूमिकाएं, निर्णयकारी इकाई में मौजूद संगठन, सरकारी ढांचे जिनके अंदर रहते हुए निर्णयकर्ता अपना कार्य करता है। भौतिक और प्रौद्योगिक दशाएं बुनियादी मूल और ध्येय समाज में कार्यशील अनेक प्रकार के प्रभाव। बाह्य परिवेश में किसी समय विशेष पर अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में कुल स्थिति में मौजूद सारे प्रासंगिक कारक शामिल हैं।
डैरंड और मारगेट स्पाइट को इस बात में कम दिलचस्पी है कि कोई निर्णय कैसे और क्यों किया जाता है। उसकी मुख्य रुचि इस बात में अधिक है जो पर्यावरण निर्णयकर्ता देखते हैं। इसका उस पर्यावरण से क्या संबंध है जो निर्णयकर्ता की दृष्टि और अंदाजों से बाहर है। निर्णयकारी दृष्टिकोण में दूसरा मार्ग व्यक्तित्व कारक का मार्ग है जो अलेकजेंडर जॉर्ज और जूलियट जॉर्ज ने अपनाया है। यद्यपि डीन रस्क जैसे कुछ प्रेक्षक व्यक्तित्व कारक के महत्व से इंकार करते हैं पर इसके महत्व की पूरी तरह उपेक्षा नहीं की जा सकती है। डैरंड लैसवेल, गैब्रीन आलमंड, मारगेरेट इर्मन और लिस्टर मिलब्रेथ ने इस कारक का उचित महत्व स्वीकार किया है।
जार्ज मॉडेलस्की ने शक्ति की परिभाषा से अपनी बात शुरू की है। मॉडेलस्की के अनुसार किसी राज्य के वे समस्त साधन उस राज्य की शक्ति कहलाते हैं, जिनकी सहायता से वह राज्य अन्य राज्यों का व्यवहार भविष्य में वांछनीय बनाने का प्रयत्न करता है। मॉडेलस्की की धारणा है कि सरकारी स्तर और समुदाय के स्तर दोनों पर शक्ति का महत्व वहीं तक है, जहां तक वह किसी परिवर्तन को रोकने या समायोजन को लागू करने या कुछ प्रकार के निर्णयों को कार्य रूप में परिणत करने के साधन के रूप में काम करती है।
जेम्स रॉबिन्सन ने निर्णय के अवसर का जो संप्रत्यय विकसित किया है। वह भी महत्वपूर्ण हो जाता है। निर्णयकारी दृष्टिकोण सारतः संकटावस्थाओं में निर्णय विश्लेषण में उपयोगी हो सकता है। क्योंकि संकट का स्वरूप हर मामले में अलग-अलग होता है। इसलिए किसी निर्णय का हर विश्लेषण किसी एक उदाहरण का अध्ययन हो सकता है। ऐसे सकल विषय अध्ययन से किसी एक निर्णय या कुछ छोड़े हुए निर्णयों के निर्णयकरण प्रक्रम की बहुत अच्छी भीतरी झांकी तो मिल जाती है पर विदेशनीति के नीतियों के सांगोपांग विश्लेषण के लिए किसी व्यापक सिद्धांत का आधार नहीं हासिल होता।
Question : एकध्रुवीय विश्व में निर्गुट आंदोलन अपना महत्व खो चुका है। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? इस कथन के समर्थन में अपना उत्तर दीजिए।
(1999)
Answer : कुछ विचारक शीतयुद्ध को ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन के उदय का एकमात्र कारण मानते हैं। इन विद्वानों के अनुसार द्वितीय विश्व युद्धोत्तर काल में दोनों महाशक्तियों के मध्य यूरोप को लेकर ही तनाव था और यूरोप के देश अपनी भू-राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति के कारण दोनों महाशक्तियों में से किसी एक ओर से शीतयुद्ध में सम्मिलित होने के लिए बाध्य थे। किंतु एशिया तथा अफ्रीका के दशों पर इस तरह की कोई बाध्यता नहीं थी। अतः वे स्वयं को शीतयुद्ध की राजनीति से अलग रखा। वो महाशक्तियों की यूरोपीय संघर्ष के प्रति अलगाव की नीति रखते हुए अपनी स्वतंत्रता बनाए रखना चाहते थे। हालांकि अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति तथा अस्थिर राजनीतिक अवस्था के कारण इनमें से अधिकांश महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र बनते जा रहे थे। अतः ये विचारक शीतयुद्ध तथा गुटनिरेपक्षता में कार्य-कारण की तलाश करने का प्रयास करते हैं। अगर इन विचारकों के इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाये तो एक तरफ तो उन्हें न्यायोचित इस आधार पर ठहराया जा सकता है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन का विकास हुआ और वह दिन-प्रतिदिन अधिक सशक्त बनता गया, किंतु दूसरी तरफ हमें यह भी मानना होगा कि शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन का औचित्य भी समाप्त हो गया है। अतः इस आंदोलन को भी समाप्त कर देना चाहिए।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के समर्थक इन विचारकों से स्वभावतः सहमत नहीं है। उनका मानना है कि यह एक संयोग मात्र था कि शीतयुद्ध तथा गुटनिरपेक्षता का विकास विस्तार एक ही कालावधि में हुआ। तो यह भी स्वीकार करते हैं कि गुटनिरपेक्षता को शीतयुद्ध के कारण अधिक सफलता प्राप्त हुई है। किंतु शीतयुद्ध तथा इस आंदोलन के कार्यकर्ता संबंध को स्वीकार करने हेतु कदापि तैयार नहीं हैं। इन विचारकों का मानना है कि शीतयुद्ध के अतिरिक्त भी गुटनिपेक्ष आंदोलन के अन्य कारण हैं।
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध की राजनीति का विरोध गुटनिरपेक्ष आंदोलन का तत्व नहीं अपितु उसका परिणाम मात्र था। यह इस बात से भी सिद्ध हो जाता है कि प्रारंभ में जहां आंदोलन राजनीतिक प्रश्नों पर अपना दबाव केंद्रित कर रहा था तथा समय की मांग के अनुरूप उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, रंगभेद की नीति तथा प्रजातिवाद का विरोध कर रहा था, वहीं समय तथा परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप आंदोलन ने जब अपना दबाव आर्थिक सुधारों पर केंद्रित कर नयी अर्थव्यवस्था की स्थापना तथा निःशस्त्रीकरण तथा विश्वशांति की स्थापना को अपना उद्देश्य बना लिया। इस आंदोलन को अपने प्रारंभिक वर्षों में दोनों ही महाशक्तियों के संदेह तथा आरोपों का सामना करना पड़ा है। इस आंदोलन को अवसरवादी अनैतिक तथा व्यर्थ कहा गया है। इन विरोधियों का कहना था इस आंदोलन से न तो इसके सदस्य देशों को कोई लाभ होगा, न ही विश्व को।
अमेरिका तथा मित्र देशों ने इस आंदोलन को व्यर्थ तथा असंभव बताया तो सोवियत संघ ने इस आंदोलन को प्रारंभ से ही अपना प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष समर्थन प्रदान किया। जिसका लाभ उसे भी मिला। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के लगभग हर सम्मेलन में अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किये गये तो सोवियत संघ का नाम लेकर उसकी आलोचना तक भी नहीं की गयी जब उसकी सेना भारी मात्र में अफगानिस्तान में बनी हुई थी। सोवियत संघ ने सदैव उपनिवेशों की स्वतंत्रता को अपना समर्थन दिया तथा उनके स्वतंत्रता आंदोलन को अपना सहयोग भी प्रदान किया। यही नहीं सोवियत संघ ने शीतयुद्ध की चरम सीमा पर भी सेंन्टो, सीटो आदि सैनिक गठबंधनों की तरह के सैनिक संधि संगठन नहीं बनाये और इस तरह एशिया तथा अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों को शीतयुद्ध से अलग रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत के अनुरूप यह स्वाभाविक था कि अपने शत्रु को अपना मित्र माना जाये और आंदोलन इसी सिद्धांत को अपनाकर आगे बढ़ रहा था। सोवियत संघ ने बिना किसी बाहरी सहायता के नियोजित अर्थव्यवस्था के माध्यम से जिस तीव्र गति से अपना विकास उससे आंदोलन के सदस्य देशों के नेता चमत्कृत थे तथा उसी के अनुरूप अपने विकास के भी स्वप्न देख रहे थे। अपने विगत अनुभवों के कारण अधिकांश नेताओं का विचार था कि पूंजीवाद शोषण तथा असमानता को जन्म देता है और उसकी अंतिम परिणति होती है साम्राज्यवाद के रूप में। अतः वो पूंजीवादी देशों को स्वतंत्रता के पश्चात भी संदेह थी तथा अविश्वास की दृष्टि से देखते थे। अतः यह स्वाभाविक था कि गुट निरपेक्ष आंदोलन महाशक्तियों से समान दूरी बनाये रखने के सिद्धांत को मानते हुए भी सोवियत संघ के अधिक निकट रहता।
Question : विश्व व्यापार संगठन के कार्यों से संबंधित विभिन्न विवादास्पद मुद्दों का आलोचनात्मक परीक्षण विकासशील देशों के विचार से एवं भारत के संदर्भ में करें।
(1999)
Answer : 1 जनवरी, 1995 को विश्व व्यापार संगठन की औपचारिक स्थापना हुई। इसकी स्थापना दुनिया भर के देशों की अर्थव्यवस्थाओं के एकीकरण की दिशा में निर्णायक कदम है। आठवें व्यापार और तटकर संबंधी आम समझौता (गैट) की कोख से उपजा ये अंतर्राष्ट्रीय संगठन गैट की जगह लेकर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की निगरानी करने लगा है। लेकिन उरुग्वे दौर की वार्ता के बाद बने डंकल दस्तावेज पर दस्तखत न कर पाने वाले देशों की सहूलियत के लिए फिलहाल 1996 तक गैट की व्यवस्थाएं लागू रहीं। भारत के अलावा और 77 देश अब तक डब्ल्यू.टी.ओ. की स्थापना के सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करके उसके सदस्य बन चुके हैं। भारत के जिनेवा स्थित राजदूत श्रीनिवासन नारायण ने 30 दिसंबर को ही सहमति पत्र पर भारत की तरफ से हस्ताक्षर करके सदस्यता ली है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं में दखल रखने वाला ये तीसरा महत्वपूर्ण संगठन है। इसके पहले विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व के ज्यादातर देशों की अर्थव्यवस्था में घुसपैठ कर चुके हैं। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना भी दरअसल इस नव आर्थिक उपनिवेशवाद की महत्वपूर्ण कड़ी है। इसकी स्थापना के साथ ही बौद्धिक संपदा कानूनों से लेकर कृषि प्रणालियों की तकनीक और बीज की खरीद-फरोख्त और भंडारण और बीमा, बैंकिंग और पर्यटन सेवाओं जैसे अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भी अमीर देशों का दखल हो जायेगा। अपनी अमीरी और प्रौद्योगिकी क्षमता के दंभ में डूबे अमेरिका ने डब्ल्यू.टी.ओ. बनने से पहले ही उसकी निष्पक्षता पर अपनी सीनेट में पास कानून से संदेह खड़ा कर दिया है। ये कानून डब्ल्यू.टी.ओ. की स्थापना को सीनेट की मंजूरी दिलाने संबंधी हैं। उसमें साफ कहा गया है कि डब्ल्यू.टी.ओ. के विश्व व्यापार की निगरानी संबंधी प्रावधानों की अमेरिका अपनी सुविधा के मुताबिक व्याख्या करेगा और उसमें अमेरिकी हित सबसे ऊपर रहेगा।
तमाम कठिन कानूनी शब्दावली और प्रक्रियाओं को गढ़कर बनाए जाने वाला डब्ल्यू.टी.ओ. भारत जैसे पिछड़े देशों के लिए फायदे से ज्यादा नुकसान होने के असार हैं। विश्व व्यापार में भारत की भागीदारी फिलहाल लगभग एक फीसदी है। इसके मुकाबले अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, कनाडा वगैरह की विश्व व्यापार में तूती बोलती है। ये सभी देश संयुक्त राष्ट्र के विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (वाइपो) के सदस्य हैं और पेरिस कन्वेंशन इनमें लागू है। पेरिस कन्वेंशन में बौद्धिक संपदा के वही प्रावधान निहित हैं जिनके आठवें गैट के माध्यम से हाल में गरीब देशों पर थोपा गया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान प्रतिभा की जगह उत्पाद के पेटेंट का है। इसके लिए इन देशों में अस्सी के दशक में भारत और दूसरे विकासशील देशों पर उनके पेटेंट कानूनों में संशोधन के लिए बेहिसाब दबाव डाला था। पेरिस कन्वेंशन की व्यवस्थाओं को आखिरकार गैट में शामिल कराने में अमीर देश कामयाब रहे।
गैट के आठवें दौर के प्रावधानों के तहत भारत और दूसरे विकासशील देशों को इस सदी के अंत तक अपने पेटेंट कानून बदलकर उनमें प्रक्रिया की जगह उत्पाद के पेटेंट का प्रावधान करना होगा। उसमें दवाओं पर भी बहुराष्ट्रीय निगमों को रायल्टी वसूल करने की छूट मिलेगी और गरीब देशों में दवा और महंगी को जायेगी।
डब्ल्यू.टी.ओ. की स्थापना के समर्थक ये भी प्रचारित करा रहे हैं कि उससे दुनिया में व्यापारिक संरक्षण व्यापार में गैर व्यापारिक बाधाएं और असमर्थ व्यापारिक होड़ खत्म हो जायेगी। लेकिन अमेरिका का व्यापारिक व्यवहार गरीब देशों में आयात संबंधी उसकी शर्त भविष्य में ठीक उलट-पुलट के माहौल का इशारा करती है। भारत से घाघरों के आयात में नाडे़ की जगह इलास्टिक इस्तेमाल किये जाने पर रेयॉन घाघरों के आग पकड़ने के प्रति संवदेनशील होने के नाम पर अमेरिका के बाधा खड़े करने की कोशिश इसकी मिसाल है।
चीन जितनी तेजी से गैट की सदस्यता के लिए सक्रिय हुआ। इसकी चिंता उसी रूप में बढ़ी है एवं ये चीन को कुछ मिश्रित प्रतिबंधों के दायरे में बांधे रहने तथा उसके बाजार में पूर्णतया अपने अनुकूल बनाने की दिशा में प्रयासरत है। पहला कि चीन को विकासशील देश का दर्जा नहीं मिले अन्यथा संक्रमणकालीन व्यवस्था का लाभ उठाकर यह विश्व व्यापार व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। बहरहाल चीन ने अमेरिका सहित यूरोपीय देशों की रवैये को देखते हुए यह घोषणा कर दी कि अगर इन देशों ने उसकी प्रति व्यवहार में समुचित परिवर्तन नहीं लाये तो वह गैट एवं उसके बाद विश्व व्यापार संगठन में प्रवेश का इरादा अंतिम रूप से त्याग देगा। पेटेंट कानून को संशोधित कर दिया गया है। पेटेंट कानून में बदलाव इसलिए लाया गया कि ताकि भारत भी इसका विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बन सके।
पौधे के जीन परपेटेंट स्वीकार करना, पौधे और उसका बीज पर ही पेटेंट स्वीकार करना हुआ। बीज पेटेंट के कृषि और खाद्य सुरक्षा पर घातक परिणामों पर देश में काफी चर्चा हुई है। केंद्र सरकार को यह जान लेना चाहिए कि अध्यादेश से कानून तोड़ा जरूर जा सकता है लेकिन लोकतंत्र के हर रास्ते को बंद नहीं किया जा सकता। आने वाले चुनाव में यह स्पष्ट हो जायेगा कि भारत के लोग सरकार की इस कारवाई को करते हैं या नहीं।
Question : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के तथ्य को आधुनिक संदर्भ में समझाने में कैप्लान के व्यवस्था सिद्धांत की व्याख्यात्मक संभावना का परीक्षण कीजिये।
(1998)
Answer : व्यवस्था सिद्धान्त, समाज विज्ञान में व्यावहारवादी क्रान्ति का परिणाम है। मॉर्टन कैप्लान व्यवस्था उपागम के सबसे प्रधान व्याख्याताओं में से एक हैं। उनका विचार था कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में कुछ न कुछ सहयोग, निरंतरता और व्यवस्था है। अंतर्राष्ट्रीय संबंध एवं राजनीति में वे दो बातों को शामिल करते हैं- ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ और ‘राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था’। कैप्लान के अनुसार, राष्ट्रीय राज्य व्यवस्था सही मायने में राजनीतिक व्यवस्था है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था सही मायने में एक राजनीतिक व्यवस्था नहीं है। उनके अनुसार, किसी भी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए किसी न किसी शारीरिक शक्ति की आवश्यकता होती है, जो राज्य व्यवस्था में तो उपस्थित रहता है, मगर अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में नहीं पाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्र या राज्य मुख्य भूमिका प्रदान करने वाले होते हैं और उनकी भूमिका अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में होने वाले परिवर्त्तन के साथ परिवर्तित होती रहती है। कैप्लान ने प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्थाओं के छह नमूनों को पेश किया है, वे हैं- शक्ति संतुलन व्यवस्था, ढीला द्विध्रुवीय व्यवस्था, वास्तविक द्विध्रुवीय व्यवस्था, सार्वभौमिक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था, एकध्रुवीय अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था और इकाई निषेधाधिकार व्यवस्था। इन सभी व्यवस्थाओं का निम्नलिखित रूप से विवेचन किया जा सकता हैः
1. शक्ति संतुलन व्यवस्था: यह व्यवस्था यूरोप में 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में अस्तित्व में था। इसमें राजनीतिक शक्ति का एक संतुलन होता है, जो एक खास समय में, एक खास राष्ट्र के पक्ष में होती है। सैद्धान्तिक रूप से इस व्यवस्था में शक्ति का बंटवारा असमान रूप से सभी राष्ट्रों के बीच होता है, जिससे कोई एक राष्ट्र अत्यधिक शक्तिशाली नहीं बन पाता है। इस व्यवस्था में छः महत्त्वपूर्ण नियमों का होना आवश्यक हैः
यह व्यव्स्था दो शताब्दियों तक ठीक-ठाक चला, मगर 20वीं शताब्दी के आरंभ होने के साथ इस व्यवस्था के नियम अपनी औचित्यता खोने लगे।
2 ढीला दो-ध्रुवीय व्यवस्था: शक्ति संतुलन खुद को ढीला दो-ध्रुवीय व्यवस्था में तब्दील कर लेता है। इस व्यवस्था में प्रत्येक गुट का अपना एक प्रधान भूमिकाकर्ता इस ढीले दो-ध्रुवीय व्यवस्था में हिस्सा लेते हैं। महाराष्ट्रीय भूमिकाकर्ता गुटीय भूमिकाकर्ता में बंटे रहते हैं, जैसे- नाटो और वारसॉ गुट तथा सार्वभौमिक भूमिकाकर्ता, जैसे- संयुक्त राष्ट्र संघ। ढीला दो-ध्रुवीय व्यवस्था की विशेषता दो गुटीय भूमिकाकर्ता (संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ), अन्य सदस्यीय गुटीय भूमिकाकर्ता (गुटनिरपेक्ष देश) और सार्वभौमिक भूमिकाकर्ता (सं.रा.संघ)। ये सभी व्यवस्था के भीतर अपनी एक विशेष और अलग-अलग भूमिका निभाते हैं, लेकिन व्यवस्था के नियम सभी के लिए एक से नहीं होते। ढीला दोध्रुवीय व्यवस्था में हमेशा एक तरह की अस्थिरता बनी रहती है, क्योंकि किसी भी भूमिकाकर्ता को नीति निर्माण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्राप्त नहीं होती है।
3. वास्तविक दो-ध्रुवीय व्यवस्था: कैप्लान के अनुसार, ढीला दोध्रुवीय व्यवस्था या तो अन्य व्यवस्था में तब्दील हो जाता है या फिर वास्तविक दोध्रुवीय व्यवस्था में। इस व्यवस्था में गुटनिरपेक्ष देश या असदस्यीय देश या तो अस्तित्वहीन हो जाते हैं या फिर महात्त्वहीन हो जाते हैं। इस व्यवस्था में सार्वभौमिक भूमिकाकर्ता भी अपना महत्त्व खोता जाता है और दोनों गुटीय भूमिकाकर्ता के बीच मध्यस्थता करने की शक्ति ही देता है।
4. सार्वभौमिक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था: इस व्यवस्था को विश्व संघ के समान समझा जा सकता है। यह तभी संभव है, जब संयुक्त राष्ट्र संघ या इसी तरह का कोई अन्य संगठन इतना अधिक ताकतवर हो जाये कि वह युद्ध को रोक सके और वैश्विक शांति को बनाये रख सके तथा दोध्रुवीय व्यवस्था का अस्तित्व समाप्त हो जाये। यह संगठन न्यायिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यों को करें। हालांकि राष्ट्रीय राज्यों को पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त हो।
5. एकध्रुवीय अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था: यह भी एक अन्य काल्पनिक नमूना है। यह तब अस्तित्व में आता है, जब एक सार्वभौमिक भूमिकाकर्ता सम्पूर्ण विश्व को खुद में समा ले और सिर्फ एक राष्ट्र सार्वभौमिक भूमिकाकर्ता के रूप में बचा रहे। इस व्यवस्था में राष्ट्र सम्प्रभु, स्वतंत्र राजनीतिक इकाई न रह कर सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के एक क्षेत्रीय उप-विभाजन रह जायेंगें। यह व्यवस्था निर्देशित व्यवस्था होगी, अगर सम्पूर्ण विश्व को विजय द्वारा एक किया गया हो और यह निर्देशित नहीं होगा, अगर सभी राज्यों ने मिलकर इस व्यवस्था को बनाया हो। ऐसी स्थिति में शक्ति का वितरण श्रेणी क्रम के अनुसार किया जायेगा। इस व्यवस्था के शिखर पर एक राष्ट्रीय भूमिकाकर्ता होगा। अ-निर्देशित व्यवस्था इच्छा पर आधारित होगी, जबकि निर्देशित व्यवस्था शक्ति पर।
6. इकाई निषेधाधिकार व्यवस्था: इस व्यवस्था का आंतरिक आधार यह है कि सभी राज्यों को एक दूसरे को तबाह करने की एकसमान शक्ति होगी। सभी राज्य दूसरे राज्यों को तबाह करने लायक शस्त्रों को हासिल किये हुए होगीं। इकाई निषेधाधिकार व्यवस्था सिर्फ उस समय तक अस्तित्व में रह सकेगा, जब सभी भूमिकाकर्ता किसी भी खतरे का सामना करने और किसी भी आक्रमण का उत्तर दे सकने में सक्षम होंगे।
वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को समझने में कैप्लान का व्यवस्था सिद्धान्त अपनी उपयोगिता रखता है, परन्तु कुछ आधारों पर इस सिद्धान्त की आलोचना भी की जाती है। सर्वप्रथम, आलोचकों ने यह इंगित किया कि कैप्लान के छह नमूनों में प्रथम दो वास्तविकता पर आधारित हैं। तीसरा नमूना अपनी सम्भावना को खोता जा रहा है, क्योंकि स्थायित्त्व और गुटनिरपेक्ष देशों के पक्ष में बढ़ता समर्थन तथा दोध्रुवीय व्यवस्था के प्रति बढ़ता असंतोष, इस नमूने को आने ही नहीं देगा। चतुर्थ नमूना के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि एक तरह की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का विकास हो रहा है। पांचवां नमूना कभी भी अस्तित्व में आयेगा, इसकी संभावना ही नहीं है। छठें नमूने की व्यवस्था का अस्तित्व में आना शंकाग्रस्त है, क्योंकि परमाणु अप्रसार संधि इस व्यवस्था को आने ही नहीं देगा।
इस तरह अंत में हम यह कह सकते हैं कि अपनी थोड़ी बहुत कमियों के बावजूद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के तथ्य को आधुनिक संदर्भ में समझाने में कैप्लान के व्यवस्था सिद्धान्त की व्याख्यात्मक संभावना काफी अधिक है और यह भविष्य में भी अपनी भूमिका निभाती रहेगी।
Question : मैत्री संधि
(1998)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मैत्री संधि को अपनी विदेश नीति का आधार बनाने की शुरुआत आधुनिक काल में साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा की गयी। बहुराष्ट्र व्यवस्था में शक्ति संतुलन बनाये रखने और अपने राष्ट्रीय हित की वृद्धि के लिए विदेश नीति में मैत्री संधि का इस्तेमाल एक उपकरण के रूप में किया जाता है। सामान्यतः कोई भी राष्ट्र मैत्री संधि का इस्तेमाल अपनी जरूरतों के अनुसार ही करता है। अगर कोई राष्ट्र बहुत ही ताकतवर है, तो उसके लिए मैत्री संधि का बहुत अधिक महत्त्व नहीं होता। अगर कोई राष्ट्र कमजोर है, तो वह मैत्री संधि द्वारा अपनी कमजोरी को दूर करने का प्रयास करता है। कोई भी राष्ट्र यह कभी नहीं चाहता है कि मैत्री संधि से उसे जितना प्राप्त होता है, उससे अधिक उसे देना पड़े। अगर ऐसी स्थिति आ जाती है, तो वह राष्ट्र, मैत्री संधि से अलग हो जाता है। संक्षेप में, इतना ही कहा जा सकता है कि मैत्री संधि राष्ट्रों के राष्ट्रीय हित पर निर्भर करती है।
कूटनीति एवं राजनयिक भाषा में मैत्री संधि का अर्थ है- दो या अधिक संप्रभु राष्ट्रों के बीच आपसी सैनिक सहयोग की व्यवस्था। मैत्री संधि द्वारा एक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय शस्त्र सेना की कमियों को पूरा करने का प्रयास करता है। साधारणतया जो राष्ट्र आपस में मैत्री संधि करते हैं, वे किसी भी समान शत्रु के खिलाफ मिल कर लड़ने के लिए वचनबद्ध होते हैं। कई बार मैत्री संधि का अर्थ, आपसी सैनिक सहयोग की जगह मात्र एक-दूसरे को अपनी भूमि पर सैनिक अड्डे बनाने एवं रखने से भी संबंधित होता है। कभी-कभी मैत्री संधि के तहत अन्य क्षत्रों में भी आपसी सहयोग बढ़ाने की व्यवस्था की जाती है, लेकिन इन सब का आधार किसी न किसी रूप में सैनिक सहयोग जरूर ही होता है। ऐसा माना जाता है कि कोई भी मैत्री संधि बगैर सैन्य समझौते के सफल नहीं हो सकती है।
प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व मैत्री संधियां साधारणतः आक्रमक नहीं होती थीं। उस समय मैत्री संधि के तहत अनाक्रमण और किसी भी आक्रमण के समय एक दूसरे की मदद करने से संबंधित होता था। लेकिन प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व तथा बाद में कई मैत्री संधियां अस्तित्व में आयीं जो आक्रामक प्रकृति से प्रभावित थीं। इनमें मित्र राष्ट्र, धुरी राष्ट्र, नाटो, वार्सवॉ पैक्ट, सीएटो, सेंटो आदि प्रमुख थे। मैत्री संधि ने विश्व को दो आक्रमक विरोधी गुटों में बांटने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी और विश्व को युद्धों की अग्नि में झोंक दिया था।
Question : नव-उपनिवेशवाद
(1998)
Answer : नव-उपनिवेशवाद, उपनिवेश- वाद का आधुनिक रूप है। राजनीतिक उपनिवेशवाद तो प्रायः समाप्त हो गया है, परन्तु आर्थिक उपनिवेशवाद का युग प्रारम्भ हो गया है। यह आर्थिक उपनिवेशवाद ही नव-उपनिवेशवाद है। इसका अर्थ आर्थिक परतन्त्रता से है, जो धनी व शक्तिशाली राष्ट्र, अर्द्ध विकसित देशों को आर्थिक सहायता देकर तथा उन पर राजनीतिक दबाव डाल कर अपने प्रभाव द्वारा पैदा की जाती है। दूसरे देश की आंतरिक व बाह्य नीति को प्रभावित करना भी नव-साम्राज्यवाद का ढंग है। क्वामे नक्रुमाह के अनुसार, नव-उपनिवेश का आंतरिक अर्थ यह है कि राष्ट्र, सिद्धान्त रूप में स्वतन्त्र होता है और अंतर्राष्ट्रीय सम्प्रभुता के मामले में स्वतन्त्र होता है। मगर वास्तविरूप में, आरंभ में उसकी आर्थिक व्यवस्था और अंततः उसके राजनीतिक नीतियों का निर्धारण किसी बाह्य शक्ति द्वारा किया जाता है।
नव-उपनिवेशवाद का आरंभ द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त अधिकांश परतन्त्र राष्ट्रों ने अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त कर लिया था, मगर आर्थिक दृष्टि से वे अर्द्धविकसित एवं खास्ताहाल स्थिति में ही थे। दूसरी तरफ, पहले की साम्राज्यवाद शक्तियों एवं विकसित देशों को अपने देश में निर्मित मालों को बेचने के लिए बाजार की आवश्यकता थी और कच्चे माल की निरंतर आपूर्ति के लिए किसी स्रोत की आवश्यकता थी। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त विकसित देशों ने अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए गरीब एवं अर्द्धविकसित देशों की आर्थिक सहायता एवं सहयोग देकर इन राष्ट्रों से अपने लिए कई व्यापारिक सुविधा प्राप्त कर ली। इन सुविधाओं की सहायता से इन विकसित राष्ट्रों ने सबसे पहले अर्द्धविकसित देशों के अर्थव्यवस्था पर अपना प्रभाव जमाया और अंततः उनके राजनीति को भी प्रभावित करने लगे। अगर किसी अर्द्धविकसित राष्ट्र ने विकसित देशों की इस चाल का विरोध किया तो इन राष्ट्रों ने उस अर्द्धविकसित देश की सरकार ही बदलवा डाली या गृह युद्ध करवा दिया। अमेरिका ने 60 के दशक में चिली और 80 के दशक में पनामा में जो कुछ किया, वह नव-उपनिवेशवाद का ही उदाहरण है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिशास्त्रियों का मानना है कि विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के उपरान्त बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को मिली छूट के कारण नव-उपनिवेशवाद की प्रक्रिया और भी तीव्रता से बढे़गी।
Question : जनसाधारण पर्यावरण के निम्नीकरण तथा उससे जुड़ी हुई समस्याओं से चिन्तित हैं। इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया की विवेचना कीजिये।
(1998)
Answer : जब मानव का इस पृथ्वी पर आविर्भाव हुआ, तो अनेक वर्षों तक इसकी नैसर्गिकता में कोई अंतर नहीं आया। लेकिन ज्यों-ज्यों वह विकास की ओर अग्रसर होता गया और मशीनों का सहारा लेता गया, त्यों-त्यों प्रकृति में विविध प्रकार के असंतुलन की स्थिति पनपती गयी। वस्तुतः उद्योग ही प्रदूषण को बढ़ावा देते हैं। चाहे चिमनियों से निकला धुंआ हो, जिसमें कार्बन के कण, कार्बन डाइऑक्साइड व कार्बन डाइसल्फाइड सरीखी जहरीली गैसें होती हैं अथवा उद्योगों का अपशिष्ट पदार्थ, जो नदियों, तालाबों आदि में डाल दिया जाता है। ये क्रमशः वायु और जल को दूषित करते हैं। उद्योगों में मुख्यतः ईंधन के रूप में पेट्रोलियम और कोयला जलाया जाता है, जिससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र बढ़ती है। संसाधनों का बेतरतीब विनाश हो रहा है। वनों की कटाई के कारण जलवायु में गर्माहट बढ़ रही है, बाढ़ों का प्रकोप बढ़ रहा है और भू-स्खलन बढ़ता जा रहा है। गाडि़यों की बढ़ती भीड़ ने न सिर्फ वायु प्रदूषण पैदा किया है, बल्कि ध्वनि प्रदूषण की समस्या भी अब खतरनाक स्थिति को प्राप्त कर चुकी है। सुख-सुविधा की आदी बन चुका विश्व, एयर कंडिशनरों एवं रेफ्रिजरेटरों के माध्यम से ओाजोन परत के क्षरण को बढ़ाने वाले क्लोरो फ्रलोरो कार्बन की बड़ी मात्र में उत्सर्जन कर रहा है। बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए वनों के कटाव की बढ़ती प्रवृति ने जैव विविधता एवं जीवधारियों के अस्तित्व को संकटमय बना डाला है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि पर्यावरण की समस्या आज इस कदर बढ़ गयी है कि आने वाले दिनों में सम्पूर्ण सृष्टि के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग जाने की आशंका है। संपूर्ण विश्व में पर्यावरण समस्या को दूर करने एवं जनसाधारण को इस समस्या से अवगत कराने के लिए कार्य कर रही स्वयंसेवी संगठनें एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ग्रीन पीस जैसे संगठनों का बनना इस बात को इंगित करता है कि आज जनसाधारण पर्यावरण के निम्नीकरण तथा उससे जुड़ी हुई समस्याओं से काफी चिन्तित है। यह जनसाधारण में बढ़ती हुई चिन्ता का परिणाम है। आज विश्व के सभी राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिल-जुलकर इस समस्या का निदान ढूंढने में लगे हुए हैं।
पर्यावरण के निम्नीकरण तथा उससे जुड़ी हुई समस्याओं में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर काफी कुछ किये जा रहे हैं। पर्यावरण समस्या के ऊपर नजर रखने और इसके निदान के उपाय तलाशने के लिए संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में वर्ल्ड वाइड फण्ड (WWF) जैसा संगठन कार्य कर रहा है, जो विश्व के सभी क्षेत्रों में पर्यावरण समस्या को दूर करने में लगे संगठनों एवं राष्ट्रों को वित्त मुहैया कराता है।
पर्यावरण संरक्षण की विश्वव्यापी चेतना का इतिहास: 1948 में फ्रांस के फोंतेनब्ला नगर में संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से प्रकृति संरक्षण का अंतर्राष्ट्रीय संघ स्थापित हुआ था, पर असली कार्य आरंभ हुआ संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संघठन आदि के सहयोग द्वारा 1968 में पेरिस में आयोजित ‘जीवमंडल कांफ्रेंस’ से। इस कांफ्रेंस में प्रमुख रूप से वैज्ञानिक विशेषज्ञों ने भाग लिया था।
इस सम्मेलन के बाद विश्व पर्यावरण के बारे में जो चेतना मुखर हुई थी, उसे 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित संयुक्त राष्ट्र की ‘मानव पर्यावरण कांफ्रेंस’ से और बल मिला और चूंकि इसमें राजनीतिज्ञों की बहुलता थी, इसलिए पर्यावरण की समस्या को विश्व स्तर पर मान्यता मिली। यह भी महसूस किया गया कि पर्यावरण संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किये जाने चाहिए। स्टॉकहोम में 110 से अधिक राष्ट्रों के प्रतिनिधि मौजूद थे और इस अवसर पर राष्ट्रीय सरकारों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के लिए 109 सूत्री सिफारिशें मंजूर की गयीं। इस सम्मेलन के निष्कर्षों को वैज्ञानिकों और राजनीतिज्ञों दोनों की स्वीकृति मिली।
सभी राष्ट्रों में पर्यावरण संबंधी कानून बनाये गये। अमेरिकी राष्ट्रपति ने 1969 के राष्ट्रीय पर्यावरण नीति विधेयक पर 1 जनवरी, 1970 को हस्ताक्षर कर इस दिशा में पहल किया। 1971 में हॉलैंड, फ्रांस, जापान, कनाडा और अन्य बहुत से राष्ट्रों ने पर्यावरण संबंधी बहुत सी एजेंसियां स्थापित कीं। 1972 में भारतीय सरकार ने ‘राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजन समन्वय समिति’ गठित की थी। इसका मार्च 1981 में पुनर्गठन किया गया। भारत सरकार ने केंद्र में 1 नवंबर, 1980 को पर्यावरण संबंधी एक अलग विभाग की स्थापना की।
दो दशकों की पर्यावरणीय हालत पर गंभीर विचार-विमर्श के लिए ब्राजील की पूर्व राजधानी रियो डि जनेरियो में 3-14 जून 1992 तक 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन' (UNCED) का आयोजन किया गया, जिसमें विश्व समुदाय के 178 देशों ने भाग लिया और 100 से अधिक शासनाध्यक्षों ने इसे संबोधित किया। रियो भू-शिखर या पृथ्वी सम्मेलन आयोजकों की दृष्टि में भले ही सफल घोषित किया गया हो, पर कई मामलों में सम्मेलन की सार्थकता के आगे प्रश्न चिह्न लगते हैं, जो निम्नलिखित हैं:
फिर भी, सम्मेलन में कुछ चीजें हुईं, जो संरक्षण की पृष्ठभूमि निर्मित करने में सार्थक मानी जा सकती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 27 सूत्री रियो घोषणा-पत्र में विश्व समुदाय के सभी देशों के प्रायः सभी सरकारों को सम्मिलित किया गया है, जो पर्यावरण और विकास से संबंधित हैं। निस्संदेह यह इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी ईमानदारी और प्रभावशाली ढंग से इन प्रावधानों का अनुपालन किया जाता है।
3 जून, 1993 को अमेरिका ने जैव विविधता संधि पर हस्ताक्षर किया। यह संधि ही पृथ्वी सम्मेलन का मुख्य मुद्दा था। अब तक 157 राष्ट्रों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिये हैं।
पर्यावरण संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किये गये अन्य प्रयास निम्नलिखित हैं:
आज जबकि पूरे विश्व में पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है तथा हर तरह के प्रदूषण जानलेवा स्तर तक बढ़ गये हैं, ऐसे में विश्व के सभी देशों का यह कर्त्तव्य है कि वे मानव ही नहीं, बल्कि सभी प्राणियों और पेड़-पौधों की रक्षा के लिए मिल-जुलकर कार्य करें और यह प्रयास भी करें कि अब आगे पर्यावरण को और अधिक नुकसान न होने पाये। इस कार्य में विकसित देशों को अपने स्वार्थों को छोड़ कर विकासशील देशों के साथ सहयोग करना होगा।
Question : संयुक्त राष्ट्र संघ के एक विश्व राज्य बनने में आने वाली चुनौतियों तथा संभावनाओं का विश्लेषण कीजिये।
(1998)
Answer : विश्व युद्धों के रक्तरंजित इतिहास के पुनरावर्तन से विश्व को बचाने के लिए विश्व की तत्कालीन महाशक्तियों ने द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पूर्व ही अथक प्रयास शुरू कर दिये थे। 26 जनू, 1945 को 51 राष्ट्रों के लगभग पौने दो अरब निवासियों के प्रतिनिधियों ने अमेरिका के सैन फ्रांसिस्कों नगर में अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के लिए एक नया अधिकार-पत्र स्वीकार किया, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ का ‘चार्टर’ कहा जाता है। 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत रूप से स्थापना हुई, जिस पर चीन, फ्रांस, सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमेरिका ने हस्ताक्षर किये और यही पांच देश सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य हुए। संधि-पत्र पर हस्ताक्षर हो जाने के पश्चात् से ही अमेरिका और सोवियत संघ जैसे दो शक्तिशाली गुटों में विभाजित हो जाने तथा शीत युद्ध शुरू हो जाने के कारण, इसके मूल उद्देश्यों- अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के प्रयासों को गहरा धक्का लगा। फिर भी, इसने अनेक बार उन विषम परिस्थितियों और विवादों को टालने में निश्चित रूप से सफलता प्राप्त की, जो तृतीय विश्व युद्ध की पूर्वपीठिका बन सकती थी। संयुक्त राष्ट्र ने ईरान (1946), यूनान (1916), सिरीया एवं लेबनान (1946), इंडोनेशिया (1947), फिलीस्तीन समस्या, कोरिया समस्या (1950), कश्मीर (1948 एवं 1965), स्वेज नहर (1956), अरब-इजरायल युद्ध, वियतनाम युद्ध (1974), चेकोस्लोवाकिया संकट, अफगानिस्तान समस्या (1979), ईरान-इराक युद्ध (1980), फॉकलैण्ड विवाद (1982), इराक द्वारा कुवैत का अधिग्रहण (1990), सोमालिया, युगांडा, युगोस्लाविया, रवान्डा, कम्बोडिया आदि देशों में उत्पन्न विवादों को हल करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, भले ही हर जगह वह पूर्णतः सफल हुआ हो या नहीं। निरस्त्रीकरण, सामाजिक विकास, एवं स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की दिशा में भी संयुक्त राष्ट्र को काफी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
1990 के दशक के आरंभ में शीत युद्ध के औपचारिक अन्त हो जाने के बाद अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों का यह अनुमान था कि अब वह स्थित आ गयी है, जब राष्ट्रों के बीच के आपसी वैमनस्यता का अन्त हो जायेगा और संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में कैप्लान द्वारा प्रस्तावित व्यवस्थाओं में से एक सार्वभौमिक राज्य व्यवस्था अर्थात् एक विश्व राज्य, आने वाले दिनों में बन जायेगा। लेकिन, संयुक्त राष्ट्र संघ के एक विश्व राज्य बनने में आने वाली चुनौतियां जहां बहुत अधिक हैं, वहीं वर्तमान परिस्थितियों के गर्भ में इसकी संभावना भी छुपी हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक विश्व राज्य बनने में आने वाली चुनौतियों को निम्नलिखित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता हैः
इन उपर्युक्त चुनौतियों के साथ-साथ कुछ ऐसे भी संकेत है, जो यह संभावना प्रस्तुत करते हैं कि आनेवाले दिनों में संयुक्त राष्ट्र संघ एक विश्व राज्य बन जायेगा। परमाणु अप्रसार संधि, पर्यावरण समस्या के निदान के लिए सामूहिक प्रयास, विश्व के आर्थिक रूप से एक सूत्र में बंधने, सामाजिक समस्याओं के निदान के लिए बढ़ते आपसी सहयोग, खतरनाक शस्त्रों के खिलाफ बढ़ती जनभावना, परिवहन एवं संचार के क्षेत्र में आये क्रांति, आदि के कारण आज सम्पूर्ण विश्व एक ‘वैश्विक गांव’ (Global village) में परिवर्तित होता जा रहा है। सभी तरह के वैश्विक सहयोग में संयुक्त राष्ट्र संघ की बढ़ती भूमिका इस तथ्य को उजागर करती है, जहां आज सम्पूर्ण विश्व संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में एक सूत्र में बंधता जा रहा है वहीं संघ की भूमिका अब एक वैश्विक मुखिया का रूप लेता जा रहा है। ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ के एक विश्व राज्य बनने की संभावना बढ़ जाती है।
Question : परंपरागत शस्त्र व्यापार
(1998)
Answer : सामान्यतः विश्व शस्त्र व्यापार में व्यापार योग्य शस्त्रों को दो श्रेणियों में बांटा जाता है। प्रथम श्रेणी है, परम्परागत शस्त्रों का, जिसमें परम्परागत सैन्य साजो-सामान, बन्दूकें, बमों, तोपों, बख्तरबन्द गाडि़यों, हवाई जहाजों, शस्त्रयुक्त नौ जहाजों आदि को शामिल किया जाता है। दूसरी श्रेणी है, विशिष्ट या आधुनिक शस्त्रों का, जिसमें आधुनिक एवं विकसित तथा बेहद ही खतरनाक शस्त्रों को शमिल किया जाता है। इसमें प्रक्षेपास्त्रों, परमाणु हथियारों, विकसित हवाई जहाजों, परमाणु शस्त्रों से युक्त पनडुब्बियों, जैविक हथियारों, जहरीली गैसों से युक्त हथियारों, लैंड माइन्स आदि आते हैं।
विश्व शस्त्र व्यापार के वार्षिक आंकड़ों को प्रस्तुत करने वाले सिपरी ईयर बुक के अनुसार, 1980 के दशक के उपरान्त विश्व शस्त्र व्यापार में राशि की दृष्टि से परम्परागत शस्त्रों का हिस्सा कम होता जा रहा है, क्योंकि अधिकांश देश अब खुद ही इन परम्परागत शस्त्रों का निर्माण कर रहे हैं। 1980 के दशक तक परम्परागत शस्त्र व्यापार में सोवियत संघ का हिस्सा सबसे ज्यादा था। उस समय होने वाले कुल वैश्विक परम्परागत शस्त्र व्यापार में सोवियत संघ का हिस्सा 40 प्रतिशत था। 90 के दशक के आरम्भ में सोवियत संघ के विघटन के उपरान्त परम्परागत शस्त्र व्यापार में संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, फ्रांस आदि का हिस्सा बढ़ता गया। पिछले वर्ष के आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वैश्विक शस्त्र व्यापार में परम्परागत शस्त्रों का हिस्सा अब भी काफी है और इसके व्यापार में अब रूस, अमेरिका, चीन एवं फ्रांस महत्त्वपूर्ण भागीदारी रखते हैं। परम्परागत शस्त्र के अधिकांश खरीददार विकासशील एवं अर्द्धविकसित राष्ट्र हैं।
Question : शस्त्र नियंत्रण में अवरोधकों का विश्लेषण कीजिये।
(1998)
Answer : ‘शस्त्र होड़’ का अर्थ है अधिक से अधिक मात्र में प्रत्येक देश द्वारा खतरनाक शस्त्रों को जमा करने में लगे रहने की प्रवृत्ति वैसे तो शस्त्रों के होड़ के बारे में साक्ष्य मध्यकालीन राज्यों के समय से ही मिलते है, मगर शस्त्र होड़ की विधिवत शुरुआत बिस्मार्क ने जर्मनी को एक विश्व शक्ति बनाने के लिए किया था। इसी शस्त्र होड़ की गर्भ से प्रथम विश्व युद्ध एवं द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से 1990 तक चले शीत युद्ध (Cold war), जिसमें वास्तविक युद्ध तो नहीं होता मगर युद्ध सा तनाव और आपसी अविश्वास बना रहता है, के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व में शस्त्र होड़ ने अपने चरम स्थिति को प्राप्त कर लिया था।
विश्व को शस्त्र होड़ की दादवानाल से बचाने और विश्व को तृतीय विश्व युद्ध के महाविनाश से बचाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की अगुवाई में शस्त्र नियंत्रण के कई उपाय किये गये। छोटे-मोटे हथियारों से लेकर लैण्ड माइन्स (बारूदी सुरंगों), परमाणु शस्त्रों, परमाणु प्रसार एवं परमाणु बम परीक्षण पर रोक लगाने का प्रयास करके तथा सभी देशों के आपसी विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से हल करने का सुझाव देकर, संयुक्त राष्ट्र संघ ने शस्त्र होड़ एवं शस्त्र निर्माण पर नियंत्रण लगाने का काफी प्रयत्न किया है।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि शीत युद्ध की समाप्ति (1990 के बाद), सोवियत गणराज्यों के बिखरने और विश्व के देशों में आर्थिक समृद्धि प्राप्ति करने की इच्छा बलवती होने तथा क्षेत्रीय एवं आर्थिक विकास के लिए क्षेत्रीय संगठनों का बनना और विश्व के अर्थव्यवस्था का विश्व व्यापार संगठन (1995 में स्थापित) के नेतृत्व में वैश्वीकरण (Globalisation) हो जाने के बाद ‘शस्त्र होड़’ की प्रकृति समाप्त हो जायेगी और एक नया होड़ जो ‘डॉलरों की अधिकाधिक प्राप्ति’ एवं आर्थिक रूप से समृद्ध होने से सम्बन्धित होगा आरम्भ होगा। मगर, ऐसा नहीं हुआ। सिपरी आर्म्स इयर बुक के अनुसार, वैश्विक शस्त्र व्यापार 1990 के दशक में पहले की अपेक्षा अधिक ही रहा है। और हथियार खरीदने वालों में विकासशील एवं गरीब देशों का स्थान प्रमुख था। अब यहां प्रश्न यह उठता है कि अंततः वह क्या अवरोधक है जो शस्त्र नियंत्रण के मानवीय प्रयास के मार्ग में बाधक का कार्य कर रहा है। यह अवरोधक निम्नलिखित है:
(i) शस्त्र निर्मातादेशों का स्वार्थ: शीत युद्ध की समाप्ति के बाद यह आशा व्यक्त की जा रही थी कि अब शस्त्र होड़ कम हो जायेगा। मगर ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि शस्त्र निर्माता देशों के कुल राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा हिस्सा उन्हें अन्य देशों के शस्त्रों को बेच कर प्राप्त होता है। इसलिए कोई भी शस्त्र निर्माता राष्ट्र यह नहीं चाहता है कि उसके इस आय में कमी आये। अमेरिका, फ्रांस, रूस, जर्मनी एवं चीन के राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा हिस्सा शस्त्रों की बिक्री द्वारा प्राप्त होता है। विशेषकर, अमेरिका के आय का लगभग 30 प्रतिशत तक हिस्सा शस्त्रों के बिक्री से प्राप्त होता है। रूस के आय का तो सबसे बड़ा स्रोत शस्त्र व्यापार ही है। ऐसी स्थिति में यह आशा करना कि बड़े एवं विकसित देश शस्त्रों की होड़ पर नियंत्रण लगाने में पूर्णरूपेण सहयोग देंगे, गलत ही होगा।
(ii) क्षेत्रीय स्तर पर बढ़ते तनाव ने भी शस्त्र नियंत्रण के प्रयास को क्षति पहुंचाया है। दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बीच, दक्षिण पूर्वी एशिया में दक्षिणी चीन सागर के द्वीपों को लेकर उभरे विवादों, मध्य ऐशियाई देशों में व्याप्त तनाव एवं अफ्रीकी देशों में चल रहे निरंतर गृह युद्ध की स्थिति ने भी इन क्षेत्रों के देशों को अधिक से अधिक एवं खतरनाक हथियारों की प्राप्ति करने के लिए प्रेरित किया है। स्थिति यह है कि यह देश अपने विकास कार्यों के पैसे भी शस्त्रों के खरीदने में लगा रहे हैं।
(iii) विश्व भर में बढ़ती आतंकवाद, कट्टरतावाद एवं अन्य विघटनकारी गतिविधियों ने प्रत्येक देश को इस बात के लिए मजबूर किया है कि वे अपनी सुरक्षा के लिए हर तरह से शक्ति संपन्न हों। अपराधियों के पास अत्याधुनिक शस्त्रों के रहने से प्रत्येक देशों को इसके काट के रूप में अधिक से अधिक अत्याधुनिक हथियार की प्राप्ति के लिए मजबूर होना पड़ा है।
(iv) विश्व की महाशक्तियों- अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन, जर्मनी एवं जापान के बीच यूं तो प्रत्यक्ष रूप से किसी भी तरह की शस्त्र होड़ देखने को नहीं मिल रहा है, लेकिन यह भी एक स्पष्ट तथ्य है कि इन देशों के बीच अप्रत्यक्ष रूप से शस्त्र होड़ अभी चल रही है, ये देश किसी भी रूप में यह नहीं चाहते कि शस्त्रों के मामले में किसी भी महाशक्ति से कमजोर रहे। चीन एवं फ्रांस द्वारा हाल में किये गये परमाणु विस्फोटों एवं अन्य महाशक्तियों द्वारा अधिक से अधिक अत्याधुनिक एवं खतरनाक शस्त्रों के निर्माण में लगा रहना इस तथ्य को स्पष्ट करता है।
(v) शस्त्र नियंत्रण के सभी प्रयासों में अपने स्वार्थ की रक्षा करने की महाशक्तियों के रवैये के कारण भी शस्त्र नियंत्रण के प्रयासों को वह गति नहीं मिल पा रही है, जो मिलनी चाहिए थी। परमाणु अप्रसार संधि, व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि आदि के तहत महाशक्तियों ने अपने स्वार्थ की रक्षा के लिए जो प्रयास किये किसी से छुपी नहीं हैं। महाशक्तियों की इस दुहरी नीति ने विकासशील राष्ट्रों के मन में शंका के बीज बो दिये और इसीलिए विकासशील देश शस्त्रों को जमा करने में लगे हैं।
(Vi) संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का महाशक्तियों के प्रभाव में कार्य करने की बढ़ती प्रवृत्ति से इनकी इस क्षमता को क्षति पहुंचायी है जिसके तहत वे शस्त्र नियंत्रण का कार्य कर सकते थे।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि शस्त्र नियंत्रण के मार्ग में अभी भी काफी अवरोधक है और जब तक इन अवरोधकों को दूर नहीं कर लिया जाता तब तक मानव जाति पर अचानक मिट जाने का डर हमेशा ही बना रहेगा।Question : अणु शक्ति के उपयोग
(1998)
Answer : अणु शक्ति ऊर्जा का प्राचीनतम एवं नवीनतम स्रोत है। प्राचीनतम इसलिए, क्योंकि अपने प्राकृतिक रूप में इसकी खोज बहुत पहले ही की गयी थी और नवीनतम इसलिए कि ऊर्जा उत्पादन के लिए इसका प्रयोग 1940 में ‘मैनहट्टन परियोजना’ में पहली बार किया गया। तारों की ऊर्जा का स्रोत आणविक ऊर्जा ही है। जाहिर है, सूर्य का स्रोत भी आणविक ऊर्जा ही है। इस प्रकार, ब्रह्माण्ड में सारी ऊर्जा एवं जीवन का मूल कहीं न कहीं आणविक शक्ति ही है। परन्तु यदि इस ऊर्जा का दुरुपयोग किया गया, तो पृथ्वी से जीवन लुप्त भी हो सकता है। उल्लेखनीय है कि परमाणु के केन्द्रक में एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया से जो परिवर्तन होते हैं, उससे विद्युत ऊर्जा तो उत्पन्न होती ही है, उसका अन्य शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए भी महत्त्वपूर्ण प्रयोग हो सकता है, जैसे- कृषि, उद्योग, चिकित्सा आदि में।
यह माना जाता है कि अणु शक्ति के उपयोग से मानव जाति का काफी भला हो सकता है, विशेषकर एशिया और अफ्रिका के लोगों का। यह शक्ति रेगिस्तानी क्षेत्र में हरियाली ला सकती है तथा पिछड़े हुए क्षेत्र में औद्योगिक विकास की नींव डाल सकती है। अणुशक्ति के प्रमुख उपयोग निम्नलिखित हैं:
Question : प्रभावी सरकार: राष्ट्र शक्ति का एक स्रोत
(1997)
Answer : सिर्फ खनिज एवं मानव संसाधनों की उपस्थिति से राष्ट्र शक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती, जब तक कि ऐसी कोई सत्ता या संस्था न हो, जो मानव प्रयत्नों को सही दिशा में संचालित एवं समन्वय करे। ऐसी संस्था किसी देश की सरकार होती है। अगर सरकार उचित प्रकार से संगठित, कार्यकुशल और प्रभावी न हो, तो राष्ट्र शक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यह सरकार का कार्य होता है कि वह व्यक्तियों और खनिज संसाधनों में समन्वय स्थापित करे और शक्ति की प्राप्ति कर राष्ट्रीय हित की पूर्ति करे।
राष्ट्र शक्ति में इस कारक के महत्त्व को प्रमाणित करने वाले कई उदाहरण हैं। कई दशकों तक अन्य कारकों के साथ-साथ केन्द्रीय सत्ता के अप्रभावी होने तथा कई क्षेत्रों पर केन्द्रीय सत्ता के प्रभावी नियन्त्रण के अभाव के कारण, चीन एक कमजोर राष्ट्र बना रहा। समान स्थिति फ्रांस के साथ भी रही। 1958 में फ्रांस में दी गुले द्वारा शासन सम्भालने से पहले तक फ्रांस, कई दशकों तक कई राजनीतिक दलों में विभाजित देश था। इसने न सिर्फ केन्द्रीय सत्ता को दुर्बल ही बनाया था, बल्कि फ्रांस को राजनीतिक रूप से एक कमजोर राष्ट्र भी बना दिया था।
यह एक विवाद का विषय है कि राष्ट्र शक्ति की प्राप्ति में प्रजातन्त्र अधिक प्रभावी होता है या अधिनायक तंत्र। कई बार प्रजातान्त्रिक सरकार, अधिनायक तंत्र से अधिक प्रभावी ढंग से कार्य करती है और कई बार अधिनायक तंत्र अधिक प्रभावी होता है। प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के समय, सिर्फ सोवियत संघ को छोड़कर लगभग सभी प्रजातांत्रिक देशों ने अच्छा कार्य किया था। आज भी यह कहना काफी कठिन है कि किस तरह की शासन व्यवस्था अधिक प्रभावी होती है। पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि एक प्रभावी, कार्यकुशल और संगठित सरकार राष्ट्र शक्ति का एक अति महत्त्वपूर्ण कारक है।
Question : ‘शक्ति-संतुलन और सामूहिक सुरक्षा के सम्बन्ध एक साथ ही परस्पर पूरक और परस्पर विरोधी रहे हैं।’ वक्तव्य पर सुविस्तृत प्रकाश डालिए।
(1997)
Answer : अक्सर सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था को एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रारूप के रूप में चित्रित किया जाता है, जो शक्ति-संतुलन की धारणा को नकारती है और इस तरह विश्व समाज की प्रकृति और धारणा को मजबूती प्रदान करती है। जब राष्ट्र एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन या संस्था द्वारा परस्पर जुड़ते हैं, और जब वे शांति स्थापना के लिए सही मायने में सहयोग करते हैं, तब गुटबन्दी, अस्त्रों के भंडार, छुपे हुए क्षेत्रीय समझौते, राजनीतिक चालबाजियां और दुश्मनी, अस्थायित्व, या युद्ध, जो शक्ति संतुलन की धारणा के संकेतक हैं, की जरूरत नहीं रहती है। वैसे अभी तक विश्व-स्तर पर किये गये सामूहिक सुरक्षा स्थापित करने के सभी प्रयासों ने यह भी सिद्ध किया है कि इन प्रयासों के पीछे, कहीं-न-कहीं शक्ति-संतुलन की नीति जुड़ी रही है। और यह तब तक कार्य नहीं कर सकती, जब तक कि ‘शक्ति राजनीति’ उसके आधार में उपस्थित नहीं रहती हो। क्वीनसी राईट अपनी इस धारणा में न्यायोचित ठहरते हैं कि ‘सामूहिक सुरक्षा के साथ शक्ति-संतुलन का सम्बन्ध सहयोगात्मक भी है और विरोधात्मक भी है।’ जब तक विश्व का मत और अधिक एकताबद्ध नहीं हो जाता है, तब तक यह स्थिति अस्तित्व में रहेगी। राईट विश्वास करते हैं कि ‘सामूहिक सुरक्षा को शक्ति- संतुलन पर अवश्य ही निर्भर रहना चाहिए, क्योंकि शक्ति सन्तुलन की प्रक्रिया स्थानीय स्तर पर स्थायित्व स्थापित करके वैश्विक स्तर पर सामूहिक-सुरक्षा को मजबूती प्रदान करती है।’
आधुनिक काल में सामूहिक सुरक्षा के तीन उदाहरण रहे हैं, यूरोप का समूह, लीग ऑफ नेशन्स (राष्ट्रों का समूह) और संयुक्त राष्ट्र। इन संगठनों की शक्ति संतुलन की स्थिति के साथ सम्बन्ध अति महत्त्वपूर्ण है। इसे आगे निम्न रूप से विचारित किया गया हैः
1. यूरोप का समूह: यह शताब्दियों से सोचे जा रहे विचार का एक सफल परिणति था, जिसने पहली बार ‘शक्तियों के समूह’ की कल्पना को चरितार्थ किया। यह समूह 1815 में वियना कांग्रेस के गर्भ से उत्पन्न हुआ। महाशक्तियों ने विरोधी शक्तियों के वर्चस्व को बढ़ने से रोकने के लिए यह समूह बनाया था, जो सामूहिक सुरक्षा की भावना से अधिक प्रेरित थी। यूरोप का यह समूह, यूरोप के प्रमुख शक्तियों का एक ढीला-ढाला समूह था, जो नेपोलियन के युद्धों के तुरंत बाद अस्तित्व में आया और प्रथम विश्व युद्ध तक अस्तित्व में रहा। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यह समूह काफी प्रभावी रहा था। 19वीं शताब्दी के अंत में इस समूह का पतन आरंभ हो गया। एक साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्वी के रूप में जर्मनी के उदय और यूरोप का दो विरोधी सशस्त्र गुटों में विभाजन ने समूह को अनुपयोगी सिद्ध कर दिया। वस्तुतः यह समूह, शक्ति-संतुलन की धारणा को समाप्त करने की बजाय, महाशक्तियों के बीच सहयोग के लिए स्थापित संतुलन पर ही इतने दिनों तक अस्तित्व में रह सका था।
2. लीग ऑफ नेशन्स: यह वुडरो विल्सन और लीग के अन्य संस्थापकों का विश्वास था कि लीग, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था स्थापित करेगा, जो शक्ति-संतुलन का पूरक होगा। लीग, सार्वभौमिकता के आदर्श पर स्थापित था, हालांकि संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य छोटे देश इसके सदस्य नहीं बने और जर्मनी एवं रूस को बाद तक सदस्यता प्रदान नहीं कि गई। 1929 के विश्व आर्थिक मंदी, जर्मनी में हिटलर एवं इटली में मुसोलिनी का उदय तथा जापान द्वारा 1931 में मनचुरिया पर आक्रमण द्वारा आरंभिक अधिनायकवादी अतिक्रमणात्मक विचारधारा की शुरुआत ने लीग की कमजोरी और अयोग्यता को स्पष्ट कर दिया। हालांकि लीग ने अंतर्राष्ट्रीयवाद और विश्व के देशों के बीच सामूहिक सुरक्षा की धारणा को मजबूत करने का प्रयास किया, लेकिन सैद्धान्तिक रूप को छोड़कर इसने शक्ति-संतुलन को कभी भी अमान्य नहीं किया। कई लोग ब्रिटिश राजनयिक लॉर्ड ओ. एबेरनॉन के इस विश्वास का समर्थन करते हैं कि ‘अंतर्राष्ट्रीय कानून की एक स्पष्ट व्यवस्था के साथ-साथ सामूहिक सुरक्षा के लिए शक्ति-संतुलन भी अनिवार्य है।’ एल. ओपेनहीम का मानना था कि ‘लीग ऑफ नेशंस का अस्तित्व शक्ति-संतुलन को कम करने की बजाय, इसे और भी अनिवार्य बना देता है, क्योंकि एक शक्तिशाली देश लीग की अवमानना कर सकता है।’
3. संयुक्त राष्ट्र संघ: हालांकि मित्र शक्तियां, धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध द्वितीय विश्व युद्ध में युद्धरत थीं, पर उसी समय वे एक नये अंतर्राष्ट्रीय संगठन की नींव भी रख रही थीं। संयुक्त राष्ट्र संघ, जिसकी नींव उन्होंने रखी, वह लीग की अपेक्षा अंतर्राष्ट्रीय वास्तविकता को अधिक ध्यान में रखकर बनाया गया और अधिक शक्तिशाली भी है। लेकिन कुछ मामलों में यह सामूहिक सुरक्षा के एक उपकरण के रूप में कमजोर रहा, उदाहरण के लिए, महाशक्तियों को वरीय प्रस्थिति दी गयी और सुरक्षा परिषद् में अपने निषेधाधिकार (वीटो) शक्ति का प्रयोग कर ये पांच महाशक्तियां, संयुक्त राष्ट्र के लगभग सभी कार्यों को रोक सकती हैं। इसके अलावा चार्टर, संयुक्त राष्ट्र से बाहर ‘व्यक्तिगत और सामूहिक आत्म-रक्षा’ को स्वीकृत ही नहीं करता, प्रोत्साहित भी करता है (अनुच्छेद 51)। यह संयुक्त राष्ट्र के बाहर क्षेत्रीय सुरक्षा व्यवस्था की भी अनुमति देता है (अनुच्छेद 52-54)। यह निश्चित करना कठिन है कि 1947 की रियो संधि और अमेरिकी राज्यों का संगठन, अरब लीग, ब्रुसेल्स संधि और उत्तरी अटलांटिक पैक्ट आदि सामूहिक सुरक्षा के लिए स्थापित संयुक्त राष्ट्र को मजबूत करते हैं या शक्ति-संतुलन की धारणा को ही प्रोत्साहित करते हैं। संयुक्त राष्ट्र, लीग की ही तरह सदस्य राष्ट्रों की सम्प्रभुता पर ही आधारित है और यह इनके बगैर कार्य नहीं कर सकता है। यह भी अंतर्राष्ट्रीय समाज की स्थिति, विशेषकर महाशक्तियों के आपसी सम्बन्धों से प्रभावित होता है। चूंकि यह संबंध अभी भी शक्ति-संतुलन की सोच पर ही आधारित है और संयुक्त राष्ट्र के बाहर महाश- क्तियों की विदेश नीति वस्तुतः इसी सोच के आधार पर निर्धारित होती है, इसलिए यह सोचना कि संयुक्त राष्ट्र, शक्ति-संतुलन के प्रक्रिया से बाहर है, शायद गलत होगा। अतः यह कहना सही ही होगा कि ‘सामूहिक सुरक्षा के साथ शक्ति-संतुलन का संबंध एक ही समय में सहयोगात्मक और विरोधात्मक रहा है।’
Question : ‘एशिया और अफ्रीका के लोगों की स्थिति में तथा यूरोप के साथ उनके सम्बन्धों में जो परिवर्तन आया, वह निश्चय ही नये युग के सूत्रपात का संकेत था।’ इस कथन की विवेचना कीजिये।
(1997)
Answer : मध्य 20वीं शताब्दी की महानतम एवं सर्वाधिक उल्लेखनीय घटनाएं, एशिया और अफ्रीका का उदय रहीं। इन दोनों महाद्वीपों के लोग, विदेशी सत्ता द्वारा लगाये गये बंधनों एवं गुलामी के जंजीरों को तोड़कर बाहर निकले। 1945 और 1960 के बीच दोनों महाद्वीपों में रहने वाले विश्व के एक चौथाई लोगों ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की। उपनिवेशवाद के पतन ने एक नये युग के शुरुआत की उद्घोषणा की इस पर विचार व्यक्त करते हुए विद्वानों ने कहा, मानव इतिहास में इससे पूर्व पहले कभी भी ऐसा उलट-फेर नहीं हुआ था। एशिया एवं अफ्रीका के लोगों की स्थिति में परिवर्तन और यूरोप के साथ उनके सम्बन्धों में बदलाव, एक नये युग के आरंभ का स्पष्ट संकेत था।
एफ्रो-एशियाई पुर्णोदय का अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभावः
एफ्रो-एशियाई देशों के पुर्णोदय के महत्त्व पर विचार व्यक्त करते हुए प्रो. हौफमैन कहते हैं, जब बीसवीं शताब्दी का इतिहास लिखा जायेगा तब प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध, या परमाणु ऊर्जा की खोज या मानव का अंतरिक्ष में पहुंच जाना या चांद की खोज जैसे महत्त्वपूर्ण घटनाओं से अधिक महत्त्वपूर्ण विश्व के दो-तिहाई लोगों का उत्तम जीवन, गरीबी, असाक्षरता-बीमारियों के उन्मूलन के लिए जागने की घटना होगी। इस घटना के कारण इस शताब्दी को सभी कालों की सबसे महान शताब्दी माना जायेगा।
Question : अंतर्राष्ट्रीयवाद और वैश्वीकरण के पारस्परिक व्याघात का प्रतिपादन कीजिये।
(1997)
Answer : अक्सर ‘अंतर्राष्ट्रीयवाद’ और ‘वैश्वीकरण’ शब्दों को एक-दूसरे के बदले प्रयोग में लाया जाता है, या कम-से-कम इन दोनों शब्दों को एक ही सिक्के के दो पहलू समझा जाता है। लेकिन राजनीतिक विचारकों का मानना है कि अन्तर्राष्ट्रीयवाद और वैश्वीकरण में काफी अंतर है और इन दोनों को एक-दूसरे के लिए प्रयोग में लाना गलत है।
राजनीतिक विचारकों के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय- वाद बहुत हद तक एक राजनीतिक विचार है, जबकि वैश्वीकरण मूलतः एक आर्थिक विचार है। अन्तर्राष्ट्रीयवाद एक ऐसा विचार, एक ऐसी प्रक्रिया या एक ऐसी नीति है, जिसके द्वारा इस परस्पर निर्भर विश्व में प्रचलित राजनीतिक सोच को व्यक्त किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीयवाद के द्वारा एक सोच, एक धारा या एक नीति को कई देशों में फैलाने का प्रयास किया जाता है। एक राष्ट्र, कई राष्ट्रों के साथ परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है। राजनीतिक विचारकों का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीयवाद विश्व के कुछ या बहुत से देशों में किसी बात के प्रचलित होने से संबंधित होता है, जबकि वैश्वीकरण एक ही सूत्र में संपूर्ण विश्व को बांधता है।
अंतर्राष्ट्रीयवाद में कोई देश विश्व के अन्य देशों से जुड़ने का प्रयास करता है। इस प्रयास के तहत उसे कई देशों या कुछ देशों से सम्बन्ध सुधारना होता है, उनकी बातों को मानना होता है, अपनी बातों को मनवाना होता है। जबकि वैश्वीकरण में किसी देश को अलग से ऐसा कुछ भी नहीं करना होता है। एक बार वैश्वीकरण से सम्बन्धित समझौता हो गया, तो विश्व के सभी देश चाहें या न चाहें वैश्वीकरण के सूत्र में बंध जाते हैं।
अंतर्राष्ट्रीयवाद, द्विपक्षीय या बहुपक्षीय हो सकता है, जबकि वैश्वीकरण द्विपक्षीय या बहुपक्षीय न होकर विश्व स्तरीय होता है। इसमें कोई देश किसी एक या बहुत से देशों से समझौता नहीं करता है, बल्कि सभी देश सभी देशों से समझौता करते हैं। राजनीतिक विचारकों का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीयवाद एक गतिशील धारणा है, जबकि वैश्वीकरण एक स्थैतिक धारणा है। अंतर्राष्ट्रीयवाद के तहत बहुत-से देशों में किसी चीज, विचार या अन्य तत्त्वों को प्रचारित करने या होने के लिए उस जगह या देश में जाना पड़ता है, जबकि वैश्वीकरण में कोई भी चीज, वस्तु या विचार अपनी जगह पर रहते हुए भी संपूर्ण विश्व से जुड़ जाती है। उदाहरणस्वरूप, अंतर्राष्ट्रीयवाद के तहत एक कम्पनी को अगर अंतर्राष्ट्रीय रूप ग्रहण करना होता है, तो उसे दूसरे देशों में अपनी इकाईयां स्थापित करनी होती हैं, जबकि वैश्वीकरण में कोई कम्पनी एक ही जगह स्थापित होने के बावजूद, विश्व बाजार में अपने कार्यों को प्रसारित कर सकती है।
विद्वानों का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीयवाद, जहां बहुत हद तक एक वैचारिक धारणा है, वहीं वैश्वीकरण एक भौतिक धारणा है। अंतर्राष्ट्रीयवाद के लिए संचार-सम्पर्क के साधनों की उतनी अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती, जितनी वैश्वीकरण के अस्तित्व के लिए आवश्यक है।
रोनाल्ड रॉबर्टसन के अनुसार हम समकालीन वैश्वीकरण को दो-तही प्रक्रिया विशेष का सार्वभौमीकरण और सार्वभौम का विशेषीकरण के संस्थायीकरण के रूप में समझ सकते हैं। वैश्वीकरण का सिद्धान्त यह मानता है कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय संबंध आरंभ से ही एक-दूसरे से बंधे हुए हैं। आज एक देश की सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक नीति बहुत हद विश्व की स्थिति से प्रभावित होती है। इसलिए वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध को अंतर्राष्ट्रीयवाद के दायरे में न रखकर, वैश्वीकरण के तहत रखना चाहिए। कुछ लोगों का मानना है कि वर्तमान विश्व व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीयवाद के दौर से बहुत आगे निकल चुकी है और वैश्वीकरण के दौर में प्रवेश कर चुकी है। अंतर्राष्ट्रीयवाद के तहत प्रत्येक देश का अपना एक विशिष्ट अस्तित्व हमेशा बना रहा, मगर इस वैश्वीकरण के दौर में संपूर्ण विश्व सिकुड़ कर एक वैश्विक गांव का रूप ग्रहण कर चुका है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रों का विशिष्ट अस्तित्व समाप्त तो नहीं हुआ है, मगर महत्त्वपूर्ण भी नहीं रह गया है। इस वैश्वीकरण के युग में कोई भी देश सम्पूर्ण दुनिया से कट के न तो रह सकता है और न ही अपने विकास की आकांक्षाओं की पूर्ति कर सकता है।
Question : मॉस्ट्रिश संधि
(1997)
Answer : मॉस्ट्रिश संधि, यूरोपीय आर्थिक समुदाय (जिसे अब यूरोपीय संघ कहा जाता है) के 12 सदस्यों के बीच 11 दिसंबर, 1991 को हस्ताक्षरित किया गया था, जिसने यूरोपियन यूनियन (संघ) को एक वास्तविकता बना दिया। मॉस्ट्रिश संधि के निम्नलिखित मुख्य प्रावधान हैंः
मॉस्ट्रिश संधि को सभी सदस्य देशों द्वारा स्वीकृत किया जाना था। सदस्य देशों में से अधिकांश ने संसदीय स्वीकृति को अपनाया, क्योंकि जन स्वीकृति मिलने में शंका थी। डेनमार्क ने जनमत संग्रह में इस संधि को अस्वीकृत कर दिया। आयरलैण्ड, फ्रांस, ग्रीस ने इसे स्वीकृत कर लिया है। ब्रिटेन में मॉस्ट्रिश संधि के प्रति मिश्रित दृष्टिकोण हैं।
Question : साप्टा (SAPTA) और साफ्टा (SAFTA)
(1997)
Answer : दक्षेस वरीयता व्यापार व्यवस्था या साप्टा की रूप-रचना पर एक समझौता, अप्रैल 1993 में ढाका में सम्पन्न हुए दक्षेस के सातवें शिखर सम्मेलन के दौरान हुआ था। सभी सदस्य देशों को 7 नवम्बर, 1995 तक इस समझौते को अपनी संसद द्वारा स्वीकृत कराना और इस समझौते को 7 दिसम्बर, 1995 से प्रभावी करने का निर्णय लिया गया था। मई 1995 में हुए आठवें दक्षेस शिखर सम्मेलन में साप्टा से सम्बन्धित बाकी के अन्य सभी बातों पर समझौता किया गया था।
साप्टा व्यवस्था के अंतर्गत सभी दक्षेस देशों को परस्पर प्रशुल्क छूटों एवं व्यापार में वरीयता देने की व्यवस्था करनी है। इसकी शुरुआत 226 वस्तुओं पर 10 से 100 प्रतिशत के प्रशुल्क छूट के साथ हुई। भारत ने 106 वस्तुओं पर प्रशुल्क छूट प्रदान की, जबकि बांग्लादेश ने 12, मालदीव ने 17, नेपाल ने 14, पाकिस्तान ने 35, श्रीलंका ने 31 और भूटान ने 11 वस्तुओं पर प्रशुल्क छूट प्रदान की। वर्तमान में, दक्षेस देशों ने लगभग 2000 वस्तुओं पर प्रशुल्क छूटों की व्यवस्था का विस्तार कर दिया है। यह स्पष्ट है कि साप्टा, दक्षेस क्षेत्र में स्वतंत्र व्यापार व्यवस्था की स्थापना की दिशा में प्रथम महत्त्वपूर्ण कदम था।
माले (मालदीव) में मध्य मई 1997 में सम्पन्न नवें दक्षेस शिखर सम्मेलन में दक्षिण एशिया स्वतंत्र व्यापार क्षेत्र (साफ्टा) से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए गये। यह स्वीकृत किया गया कि पूर्व में निर्धारित समय सीमा, 2005 ई. से पहले ही साफ्टा को 2001 ई. तक स्थापित कर लिया जायेगा। दक्षेस देश, परस्पर प्रशुल्कों एवं व्यापार रुकावटों को पूरी तरह हटाने पर भी सहमत हो गये। अतः साप्टा दक्षेस देशों के बीच परस्पर प्रशुल्क छूट एवं व्यापार वरीयता से सम्बन्धित है, तो साफ्टा परस्पर स्वतंत्र व्यापार से सम्बन्धित है।
Question : ‘सांस्कृतिक साम्राज्यवाद’ पर टिप्पणी लिखिये। टिप्पणी लगभग 200 शब्दों से अधिक न हो।
(1997)
Answer : सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से अभिप्राय सामान्यतया एक ऐसी अवधारणा से है जिसमें एक देश द्वारा दूसरे देश पर उसके सांस्कृतिक मूल्य थोपे जाते हैं। जाहिर है कि ऐसा तभी हो सकता है, जब किसी देश का दूसरे देश पर आधिपत्य हो। प्रत्येक विकसित देश की यह आकांक्षा होती है कि विश्व में उसके अधीनस्थ देशों में उसके सांस्कृतिक मूल्यों का आदर किया जाये। आज के बढ़ते हुए प्रौद्योगिक युग में, सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के माध्यम से जितनी तेजी से अधीनस्थ देश पर वर्चस्व स्थापित किया जा सकता है, उतना किसी अन्य माध्यम से नहीं।
भारतीय परिवेश में यदि हम देखें तो पाश्चात्य उपभोक्तावृत्ति को बढ़ावा देने की दृष्टि से ही यहां टी.वी. चैनलों की वृद्धि होती जा रही है। उपभोक्तावाद के शौकीन इन पाश्चात्य मूल्यों को अंगीकृत तो कर लेते हैं, लेकिन परिणाम ठीक नहीं निकलते। सामान्यतया देखा गया है कि इन साधनों को जुटाने में व्यक्ति, इतना अधिक भौतिकवादी हो गया है कि वह अपने आध्यात्मिक मूल्यों पर ध्यान ही नहीं दे पाता। जब विदेशी सामानों के प्रति आकर्षण बढ़ जाता है तो इसे जुटाने और विकसित देशों की सांस्कृतिक परम्परा में हम अपने आप को ढालने का प्रयास करते हैं जिसका कुप्रभाव विकासशील या अर्द्धविकसित देशों की पूंजी संरचना पर पड़ता है।
वर्तमान समय में, पश्चिमी संस्कृति, जैसे- फैशन, जीवन यापन का ढंग, संगीत, सोच और अन्य तत्त्वों का प्रभाव और आकर्षण, पूर्व के विकासशील देशों पर धीमे-धीमे पश्चिमी देशों के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का रास्ता बना रहा है। चीन द्वारा अधिग्रहित तिब्बत के निवासियों को चीन की संस्कृति द्वारा प्रभावित करने का और उन्हें चीन को ही अपना देश मानने के लिए मजबूर करने का कार्य चीन की सरकार द्वारा किया जा रहा है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, वास्तविकता में, जैसा कि प्रो. मोर्गेन्थु कहते हैं ‘सर्वाधिक स्थायी और साम्राज्यवादी नीतियों में सर्वाधिक सफल नीति है और इसका प्रभाव काफी गहरा होता है।’
Question : ‘प्रौद्योगिकी एवं जल ड्डोतों पर राज्य-प्रभुसत्ता’ पर लगभग 200 शब्दों में टिप्पणी लिखिए।
(1996)
Answer : अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार प्रत्येक राज्य को उसके जल स्रोतों पर प्रभुसत्ता प्राप्त है। इन जल स्रोतों का वह राज्य अपनी इच्छा के अनुसार उपयोग कर सकता है। साथ ही, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों ने इस बात का भी प्रबन्ध किया है कि कोई देश ऐसे जल स्रोतों को, जो उसके राज्य-क्षेत्र से उद्गमित होकर अन्य देशों को जाता हो को अवरुद्ध नहीं कर सकता है। वैसे अंतर्राष्ट्रीय कानून जल स्रोतों के उद्गम-स्थलों वाले देशों को उन जल स्रोतों का बहते हुए अन्य देशों में जाने पर रोक नहीं लगाने को व्यवस्था तो करता ही है, साथ ही उद्गम स्थलों वाले देशों को जल का अधिक हिस्सा रखने की छूट भी देता है। जल स्रोतों पर प्रभुसत्ता सम्बन्धी विवादों का हल या तो द्विपक्षीय समझौता द्वारा या अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा किया जा सकता है।
प्रौद्योगिकी के विकास ने जल स्रोतों के विभिन्न तरह के इस्तेमाल को बढ़ाने के साथ-साथ जल स्रोतों के संरक्षण के अवसर को भी उपलब्ध कराया है। वैसे यह भी माना जा रहा है कि प्रौद्योगिकी के विकास ने जल प्रदूषण को भी बढ़ाया है। अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार कोई भी देश अपने प्रभुसत्ता के अंतर्गत आने वाले जल स्रोतों के वृद्धि, संरक्षण, एवं उपयोग के लिए अपने या अन्य देशों से उपलब्ध प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर सकता है। अगर अन्य देशों से प्रौद्योगिकी लिया गया हो तो भी जल स्रोतों पर प्रभुसत्ता जल स्रोतों के उद्गम स्थल वाले देश का ही होगा।
Question : ''यथार्थवाद उपागम, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में राज्य क्यों एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं अथवा एक-दूसरे को धमकाते हैं, स्पष्ट करने में तो सहायक है, लेकिन यह उनके सहकारिता के व्यवहार जो कि देखने में आता है, को दर्शाने में कम प्रभावशील है------------।'' इस पर विचार विमर्श कीजिये।
(1996)
Answer : अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों की व्याख्या से सम्बन्धित परम्परागत उपागम के दो रूप है, यथार्थवाद उपागम एवं आदर्शवाद उपागम। यथार्थवाद उपागम अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के निर्धारण में सुरक्षा और शक्ति कारकों पर अधिक बल देता है। यह विचार व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से उत्पन्न हुआ है जिसके अनुसार, अन्य लोग उसे विध्वंस करने के प्रयास में निरंतर लगे हुए हैं और इसलिए उसे अन्य लोगों को विध्वंस करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए, जब भी उसे खुद की सुरक्षा के लिए इसकी जरूरत हो। अतः यर्थाथवाद उपागम की मौलिक मान्यता यह है कि राज्यों के बीच किसी-न-किसी प्रकार का संघर्ष हमेशा अस्तित्व में रहता है। इसे एक निश्चित विचार के रूप में स्वीकारा गया है। अंतर्राष्ट्रीय कानूनों एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के रहने के बाद भी विश्व के देशों के बीच चल रहे संघर्ष के अस्तित्व को उदाहरण के रूप में लिया गया है। अतः यर्थाथवाद बगैर किसी मतभेद के शक्ति के लिए संघर्ष की निरंतरता को अपने निर्देशक सिद्धान्त के रूप में ग्रहण करता है।
इसलिए यह कहना कि यर्थाथवाद उपागम, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में राज्य क्यों एक-दूसरे के साथ युद्ध करते हैं अथवा एक दूसरे को धमकाते हैं, स्पष्ट करने में तो सहायक है, लेकिन यह उनके सहकारिता के व्यवहार जो कि देखने में आते हैं, को दर्शाने में कम प्रभावशील है।
थॉमस हॉब्स और निकोलो मैकियावली प्रमुख यर्थाथवादी माने जाते हैं। हाल के वर्षों में जॉर्ज केन्नेन और हेंस जे. मोर्गेन्थु, हेनरी किसिंजर आदि यर्थाथवादी सिद्धान्त के प्रमुख व्याख्याता रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के यथार्थवादी सिद्धान्त का सबसे श्रेष्ठ व्याख्या मोर्गेन्थु द्वारा दिया गया है। उसके अनुसार, अन्य सभी राजनीतियों की तरह ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति भी शक्ति के लिए एक संघर्ष है, राजनीति जिसका अंतिम उद्देश्य जो भी हो प्रारम्भिक उद्देश्य शक्ति ही होता है। कूटनीतिज्ञ और सामान्य लोग भी अंततः स्वतन्त्रता, सुरक्षा, सम्पन्नता या खुद शक्ति को ही प्राप्त करने का अंतिम लक्ष्य रखते हैं। वे अपने लक्ष्यों को धार्मिक, दार्शनिक आर्थिक या सामाजिक आदर्श के आधार पर विवेचित कर सकते हैं। वे आपसी सम्बन्धों को प्रौद्योगिकी सहयोग या अन्य प्रकार के सहयोगों द्वारा बढ़ा सकते हैं, लेकिन जब वे अपने लक्ष्य को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, तो वे शक्ति की प्राप्ति द्वारा ही ऐसा करते हैं।
मोर्गेन्थु ने अपने यथार्थवादी सिद्धान्त में छह मान्यताओं पर बल दिया है जो निम्नलिखित हैंः
प्रथम, राजनीति मानव की प्रकृति और मनोविज्ञान पर आधारित वस्तुनिष्ठ कानूनों द्वारा नियंत्रित होता है। हम राजनीतिक घटना को मानव मनोविज्ञान और विवेक पर आधारित एक राजनीतिक सिद्धान्त का विकास कर के समझ सकते हैं। उसने तथ्यों की प्राप्ति और विवेक द्वारा इन तथ्यों को एक अर्थ देने पर बल दिया।
दूसरा, मोर्गेन्थु ने राष्ट्रीय हित पर अत्यधिक बल दिया है, जिसे उसने शक्ति के रूप में परिभाषित किया है। वह कहता है कि राजनीति को नैतिक या धार्मिक अर्थों में नहीं समझा जा सकता, इसे सिर्फ तार्किक आधार पर ही समझा जा सकता है।
तीसरा, मार्गेन्थाऊ के अनुसार हित निश्चित नहीं हैं और वे पर्यावरण के अनुसार बदलते रहते हैं। अतः उसने राजनीतिक कार्यकलाप के निर्धारण में पर्यावरण की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी है।
चौथा, मोर्गेन्थु के अनुसार राज्य के कार्यकलापों को नैतिक आधार पर नहीं समझा जा सकता है।
पांचवां, मोर्गेन्थाऊ के अनुसार राज्य के हित की प्राप्तिनैतिकता के आधार पर नहीं, बल्कि राजनीति के आधार पर ही हो सकती है।
छठां, मोर्गेन्थु मानते हैं कि राजनीतिज्ञों का हर कार्य किसी न किसी हित से निर्धारित होता है। यर्थाथवादी सिद्धान्त अ-राजनीतिक स्तर के विचारों की प्रासंगिकता को स्वीकार तो करता है पर उन्हें राजनीति से निम्न स्थान देता है।
इसी तरह केन्नेन ने भी माना है कि राष्ट्रीय हित किसी भी योग्य नीति का एक विश्वासयोग्य निर्देशक होता है और सभी राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित की सुरक्षा का प्रयास करते हैं। हालांकि, केन्नेन राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा की नीति के निर्माण में नैतिक उपागम को भी ग्रहण करने पर जोर देते हैं। दूसरी तरफ, मोर्गेन्थु नैतिक-पहलुओं की पूर्णतः अवहेलना करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के निर्माण और समझ के लिए सिर्फ राष्ट्रीय हितों पर ही जोर देते हैं। फिर भी, दोनों ही शक्ति की राजनीति को विश्व राजनीतिक सम्बन्धों के आधार के रूप में स्वीकार करते हैं।
यर्थाथवादी उपागम द्वारा शक्ति, संघर्ष और राष्ट्रीय हित को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का आधार मानने और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को समझने में निर्णायक कारक स्वीकार करने के कारण, आलोचकों ने यर्थाथवादी उपागम की आलोचना भी की है। आलोचकों के अनुसार यर्थाथवादी उपागम विश्व के देशों बीच राष्ट्रीय हित के लिए संघर्ष पर जोर देने के क्रम में व्यक्तियों के नैतिक, शांति एवं सौहार्द्रपूर्ण सोचों की पूर्णतः अवहेलना की है। आलोचकों का मानना है कि यथार्थवादी उपागम राज्यों के बीच युद्ध क्यों होता है इसे समझाने में तो सक्षम हो सकता है, मगर राज्यों के बीच सौहार्द्र एवं सहयोग क्यों जन्म लेता है, इसे समझाने में कम प्रभावशील है।
Question : विदेश नीति में प्रकृति विशिष्ट तत्त्वों की भूमिका
(1996)
Answer : विदेश नीति में प्रकृति विशिष्ट तत्त्वों की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है। प्रकृति-विशिष्ट तत्त्वों में देश की उपज क्षमता, जलवायु, अन्य देशों से अवस्थिति और जल-मार्गे आदि आते हैं। उपर्युक्त सभी तत्त्व एक देश के स्व-निर्भरता के निर्धारक कारक होते हैं। साधारणतः भू-बद्ध देशों, शीतोष्ण क्षेत्रों के देशों और एक शक्ति संपन्न देश की सीमा पर अवस्थित देशों की अपेक्षा ऐसे देश जिनकी पहुंच गर्म-जल बन्दरगाहों तक होती है या उष्णीय जलवायु क्षेत्र में अवस्थित होते हैं या फिर किसी भी शक्तिशाली देश से काफी दूर अवस्थित रहते हैं, अधिक स्व-निर्भर होते हैं। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका 19वीं शताब्दी में अपने भौगोलिक अवस्थिति के कारण ही पृथक्कतावादी नीति को अपना सका था।
वैसे प्रकृति-विशिष्ट तत्त्वों की महत्ता को सभी लोग स्वीकार करते हैं, लेकिन प्रौद्योगिकी के विकास एवं वैज्ञानिक प्रगति के कारण इसके महत्त्व में काफी कमी आई है। उदाहरण के लिए, यातायात और संचार के साधनों में प्रगति के कारण सम्पूर्ण विश्व सिकुड़-सा गया है और जल के विशाल संग्रह को किसी भी संभावित सैनिक आक्रमण का प्राकृतिक रुकावट या सुरक्षा मानने की धारणा अब समाप्त हो चुकी है। फिर भी, किसी भी देश के प्राकृतिक विशिष्ट तत्त्वों की देश के विदेश नीति निर्माण में काफी महत्त्वपूर्ण स्थान अब भी है। भारत द्वारा गुटनिरपेक्षता नीति को अपनाना उसके भौगोलिक अवस्थिति से प्रभावित माना जाता है। इसकी सीमाओं पर दो महाशक्तियों (रूस या पूर्व सोवियत संघ और चीन) की उपस्थिति ने इसे किसी सैनिक गुट या शक्ति गुट का सदस्य बनने से रोका है।
Question : अतीतकाल को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र तृतीय विश्व को नव-साम्राज्यवाद से मुक्त करवा सकेगा, इसके प्रति अधिक आशावान नहीं हुआ जा सकता। व्याख्या कीजिये।
(1996)
Answer : वारसा गुट (साम्यवादी देशों का गुट) की समाप्ति के पश्चात् 1989-90 में पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने बदले विश्व राजनीतिक परीदृश्य को बड़ी चतुराई से ‘नयी विश्व व्यवस्था’ का नाम दिया और स्वतः अगुआ बनते हुए विश्व का आह्नान किया कि लोकतन्त्र, मानवाधिकार रक्षा, पर्यावरण सुरक्षा, स्वतंत्र विश्व व्यापार और परमाणु निरस्त्रीकरण जैसे मूल्यों तथा नीतियों की स्थापना के लिए वह अमेरिका का साथ दे। यह ‘नयी विश्व व्यवस्था’ मात्र इस बात का संकेत नहीं थी कि अब विश्व का एकमात्र महाशक्ति अमेरिका रह गया है, बल्कि इस बात का भी संकेत थी कि संयुक्त राष्ट्र संघ का रहा-सहा प्रभाव भी खत्म होता जा रहा है और वह अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों की स्वार्थपूर्ति का माध्यम बनता जा रहा है। अमेरिका ने 1991 के खाड़ी युद्ध के समय संयुक्त राष्ट्र संघ का जिस तरह से इस्तेमाल किया और संयुक्त राष्ट्र संघ को अपनी इच्छाओं के आगे नतमस्तक होने के लिए मजबूर कर दिया, वह संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रभावहीन बनते जाने का ही उदाहरण है।
‘नयी विश्व व्यवस्था’ जिसे एक ध्रुवीय विश्व की संज्ञा दी जाती है, में अमेरिका और इसके समर्थक विकसित देशों की पकड़ संयुक्त राष्ट्र संघ पर पहले की तुलना में और भी अधिक मजबूत हो गयी है। मानवाधिकार, पर्यावरण, निरस्त्रीकरण एवं संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किये जाने वाले शांति स्थापना कार्यों से संबंधित निर्णय, अमेरिका के इच्छाओं के अनुसार ही लिए जाने की प्रवृत्ति अब और भी अधिक बढ़ गयी है। बोस्निया विवाद के हल में संयुक्त राष्ट्र संघ की विफलता और फिर अमेरिका द्वारा इसे हल करना इस बात का संकेत है कि अब संयुक्त राष्ट्र संघ अपना औचित्य खोता जा रहा है।
‘नयी विश्व व्यवस्था’ की एक और विशेषता है, विश्व व्यापार संगठन के नये जाल का स्थापना। नयी विश्व अर्थव्यवस्था के माध्यम से नया विश्व समाज बनाने के नाम पर विकसित देशों ने आर्थिक राजनय द्वारा विश्व व्यापार संगठन की स्थापना करवाकर व्यापारिक सौदेबाजी और कूटनीति का एक नया मंच स्थापित कर लिया है। पश्चिमी यूरोप के सभी देशों तथा अमेरिका में उद्योग बन्द हो रहे हैं और बेरोजगारी बढ़ने से वहां मांग और खपत में कमी हुई है। अधिसंख्य देशों के बजट वर्षों से घाटे में चल रहे हैं। अतः वहां पूंजी निवेश की अधिक गुंजाइश भी नहीं बची है। इस परिस्थिति में विकासशील देशों पर दबाव डालकर तथा सुधारों का आकर्षण दिखाकर विकसित देश अपनी पूंजी और अपने औद्योगिक माल की बिक्री का विस्तार करने का प्रयास कर रहे हैं। जो नया विश्व व्यापार संगठन बना है, उस पर संयुक्त राष्ट्र की तरह विकसित व धनी देश ही निस्सन्देह हावी रहेंगे।
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना विकसित देशों के नव-साम्राज्यवादी उद्देश्य को फैलाने में और भी मदद देगी, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। नव-साम्राज्यवाद का अर्थ है, विकसित देशों द्वारा विकासशील या निर्धन देशों आर्थिक व्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्थापना कर, व्यापार पर नियंत्रण कर, अनुदान-ट्टण देकर एवं अपने सांस्कृतिक प्रभाव का विस्तार कर अपने ऊपर निर्भर बना देना। विश्व व्यापार संगठन द्वारा स्वतन्त्र विश्व व्यापार की व्यवस्था इस नव-साम्राज्यवाद की प्रक्रिया को तीव्र ही करेगी। यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र संघ तृतीय विश्व को इस नव-साम्राज्यवाद से मुक्त करवा सकता है?
अपनी स्थापना के समय से ही संयुक्त राष्ट्र संघ, विशेषकर सुरक्षा परिषद् का ढांचा इस प्रकार बनाया गया कि महाशक्तियों ने उसका अपने हित में उपयोग किया। इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र ने कतिपय प्रभावशाली भूमिकाओं का निर्वहन किया, किन्तु जैसे-जैसे महाशक्तियों के हित में विस्तार होता गया, संयुक्त राष्ट्र संघ उनकी कठपुतली बनता गया। इराक, यूगोस्वालिया, रवांडा व हैती आदि घटनाक्रम के प्रमाण हैं कि यह विश्व संस्था अपनी प्रभावशीलता और विश्वसनीयता लगभग खो चुकी है।
जहां तक संयुक्त राष्ट्र संघ के आर्थिक मामलों से संबंधित कार्यों का सवाल है, तो इसने विकासशील और विकसित देशों के बीच के आर्थिक विषमता को दूर करने का प्रयास तो किया है। नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के क्रम में अंकटाड की स्थापना और उत्तर-दक्षिण विवादों को हल कर, विकसित देशों अर्थात् उत्तर द्वारा विकासशील देशों अर्थात् दक्षिण को आर्थिक मदद दिये जाने की व्यवस्था करने का भी प्रयास किया है। लेकिन अमेरिका द्वारा 1960 के दशक में चिली के अलंडा सरकार को हटाने और वहां की सत्ता पर अपने समर्थक को बैठाने, तथा 1980 के दशक में पनामा में राजनीतिक उथल-पुथल करवाने और वहां के प्रधान जनरल नोरियगा को गिरफ्रतार करके अमेरिका लाने के समय संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी इस बात का उदाहरण है कि संयुक्त राष्ट्र विकसित देशों के नव-साम्राज्यवाद से तृतीय विश्व को मुक्त कराने में असमर्थ है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक को अपने नव-साम्राज्यवादी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल में लाने वाले और संयुक्त राष्ट्र संघ के खर्चों का सबसे बड़ा भाग देने वाले अमेरिका और उसके समर्थक विकसित देशों के आर्थिक हितों पर अंकुश लगा पाना संयुक्त राष्ट्र संघ के वश के बाहर की बात हो गयी है। अतः यह कहा जा सकता है अपने अतीत के उदाहरणों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ तृतीय विश्व के देशों को नव-साम्राज्यवाद की कसती चंगुल से मुक्त करा पाने में असमर्थ है।
Question : संयुक्त राज्य अमेरिका की अमेरिकी राज्य संगठन (ओ.ए.एस.) में भूमिका।
(1996)
Answer : अमेरिकी राज्य संगठन (OAS) विश्व का सबसे पुराना क्षेत्रीय संगठन है जिसकी स्थापना अमेरिकी गोलार्द्ध के देशों द्वारा आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए 1948 में की गयी थी। अमेरिकी देशों में सबसे समृद्ध, विशाल, विकसित एवं शक्तिशाली होने के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका का ओ.ए.एस. की स्थापना से लेकर अब तक के कार्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने ओ.ए.एस. का इस्तेमाल इस क्षेत्र में साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव को नहीं फैलने देने के लिए किया था। संयुक्त राज्य अमेरिका सुरक्षा से सम्बन्धित मामलों में भी काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। इसी प्रकार ओ.ए.एस. के सदस्य देशों के आर्थिक विकास में संयुक्त राज्य अमेरिका की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण रही है और इसने ओ.ए.एस. को वित्तीय सहायता देने के साथ-साथ सदस्य देशों को अलग-से भी काफी वित्तीय सहायता है। संयुक्त राज्य अमेरिका ओ.ए.एस. के सहयोगी
संस्था, यथा- अंतः अमेरिकी आर्थिक एवं सामाजिक परिषद्, अंतः अमेरिकी सांस्कृतिक परिषद्, न्यायाधीशों की अंतः अमेरिकी परिषद् एवं ओ.ए.एस. के तहत स्थापित कृषि, विज्ञान, बच्चों, महिलाओं, मानवाधिकार, स्वास्थ्य एवं भूगोल तथा इतिहास से सम्बन्धित संस्थाओं की स्थापना, वित्तीय जरूरतों और कार्यक्रमों में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर संयुक्त राज्य अमेरिका इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाता तो ओ.ए.एस. इतनी प्रगति भी नहीं कर पाता।
Question : अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में विचारधारा की भूमिका
(1995)
Answer : 20वीं शताब्दी में विविध विचारधाराओं, यथा-नाजीवाद, फासीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, उपनिवेशवाद-विरोधी एवं पूंजीवाद आदि ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को निर्धारित करने में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। वैसे अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विद्वानों के बीच अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में विचारधारा की भूमिका को लेकर काफी मतभेद रहे हैं। प्रो. नार्मेन हिल के अनुसार, कोई भी विचारधारा एक रेडिमेड (Readymade) पैकेज उपलब्ध कराती है। साम्यवादी देश का नागरिक साम्यवादी विचारधारा को ग्रहण करता है, तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था वाले देश में हर नागरिक प्रजातंत्र के प्रति एक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि रखता है। एक विचाराधारा को मानने वाले देशों के बीच भी अक्सर आत्मीय सम्बन्ध बन जाते हैं। लेकिन कुछ विद्वान इस तर्क को अमान्य ठहराते हैं और तर्क देते हैं कि विचारधारा का अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में कोई भूमिका नहीं है। दरअसल, वास्तविकता इन दोनों ही विचारों के बीच में कहीं स्थित है। हालांकि यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि विचारधारा अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन यह सही है कि विचारधारा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को कुछ हद तक प्रभावित जरूर करती है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी और इटली में प्रभावी क्रमशः नाजीवाद और फासीवाद ने इन दोनों देशों के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों या विदेश नीति को प्रभावित किया था। दूसरी विचारधारा किसी देश के राजनीतिक गतिविधियों को न्यायोचित और तार्किक ठहराने का कार्य करती है। उदाहरणस्वरूप, साम्यवादी देश अगर पूंजीवादी देश का विरोध करता है, तो साम्यवादी विचारधारा उसके इस कृत्य को सही ठहराती है और मजदूरों को शोषण से मुक्त कराने वाला कार्य बताती है। तीसरा विचारधारा दो देशों के बीच सहयोग और विरोध के सम्बन्धों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। किसी देश की विदेश नीति का आधार क्या हो, यह उस देश में प्रभावी विचारधारा द्वारा ही निर्धारित होता है। प्रजातंत्र समर्थक देश की विदेश नीति सहयोगात्मक होगी, जबकी फासीवादी विचारधारा वाले देश की विदेश नीति आक्रामक होगी। प्रो. मोर्गेन्थाउ के अनुसार, आंतरिक या अंतर्राष्ट्रीय शक्ति के संघर्ष में विचारधारा हमेशा एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
Question : गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सम्मुख कार्यावली
(1995)
Answer : छठें दशक में विश्व राजनीति की उपज गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना के समय जो प्राथमिकताएं थीं, उनकी उपादेयता आज भी मानी जा सकती है। भले ही आज विश्व दो सैनिक गुटों में न विभाजित हो, परन्तु सह-अस्तित्व, विश्वशांति, निरस्त्रीकरण, समान विश्व अर्थव्यवस्था और त्रस्त तथा शोषित मानवता के लिए संघर्ष की अपेक्षाएं आज भी विद्यमान हैं। इनके लिए संर्घषरत रह कर एक नये विश्व परिवेश की स्थापना करना, जिससे मानव की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, इस संगठन की सर्वोच्च प्राथमिकता हो सकती है। बदली हुई अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति में गुटनिरपेक्ष आंदोलन से निम्नलिखित अपेक्षाएं हैंः
Question : ‘एक दूसरे पर बढ़ती हुई निर्भरता की यथार्थता, परम्परागत प्रभुसत्ता के सिद्धांत, जो कि सभी राज्यों की विदेश नीतियों में मुख्य भूमिका निभाता है, को अब अधिकतर निष्फल कर रही है----।’ विचार विमर्श कीजिये।
(1995)
Answer : प्रभुसत्ता की संकल्पना का आविर्भाव आधुनिक राज्य के सिद्धान्त को पूर्णता प्रदान करने के लिए हुआ। इस संकल्पना ने आधुनिक राज्यों को अन्य सामाजिक संस्थाओं, विशेषकर सामन्तों एवं अन्य शक्तिशाली संस्थाओं के प्रति बाध्यता से मुक्ति प्रदान की और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राज्यों को सम्मान प्रदान करने का प्रयास किया। अतः प्रभुसत्ता के सिद्धान्त ने जन नीति और नागरिकों पर बाध्य विधियों के निर्माण करने का एकाधिकार राज्यों को प्रदान किया। इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राज्यों को एक स्वतंत्र अस्तित्व, जो किसी भी बाह्य सत्ता या संगठन के नियंत्रण के अंतर्गत नहीं था, के रूप में स्थापित किया। संक्षेप में, प्रभुसत्ता ने राज्यों को अपने आंतरिक व बाह्य दोनों मामलों में सर्वाधिकार शक्ति से संपन्न बनाया।
लेकिन वैज्ञानिक प्रगति तथा यातायात और संचार के साधनों के विकास ने विश्व के विभिन्न देशों को एक-दूसरे के काफी समीप ला दिया है और वर्तमान समय में एक राज्य की संप्रभुता (प्रभुसत्ता) अंतर्राष्ट्रीय कानून और विश्व जनमत से बहुत अधिक सीमित होती है। यद्यपि कानूनी दृष्टि से सम्प्रभुता पर अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है, लेकिन किसी भी सम्प्रभु राष्ट्र द्वारा विश्व जनमत का विरोध किया जाना संभव नहीं है। लॉस्की सम्पूर्ण मानवता के हित में राज्य की संप्रभुता को सीमित करने के पक्ष में है और उसके विचार में, ‘संप्रभु की मनमानी आज्ञा देने की शक्ति मानवता के हित से मेल नहीं खाती है।’
परम्परागत प्रभुसत्ता सिद्धान्त कि प्रत्येक राज्य अपने आंतरिक एवं बाह्य मामलों में पूर्ण रूप से सर्वाधिकारी और प्रभु है, सभी राज्यों की विदेश नीतियों में मुख्य भूमिका निभाता है, लेकिन एक-दूसरे पर बढ़ती हुई निर्भरता की यथार्थता इस नीति को अधिकतर निष्फल कर रही है। इस तथ्य को अन्तर्राष्ट्रीयता के आधार पर प्रभुसत्ता के सिद्धान्त की आलोचना करने वालों के दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। प्रभुसत्ता के सिद्धान्त की आलोचना अंतर्राष्ट्रीयता के आधार पर दो प्रकार से की जा सकती है। कुछ लेखकों का विचार है कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विकास के परिणामस्वरूप बाहरी मामलों में राज्य की सम्प्रभुता नष्ट हो गयी है। इसके अतिरिक्त बहुलवादी यह भी कहते हैं कि प्रभुसत्ता का सिद्धान्त ही संघर्षों एवं युद्धों का जनक है और विश्व शान्ति बनाये रखने के लिए प्रभुसत्ता के सिद्धान्त का त्याग एक अनिवार्य आवश्यकता है। लॉस्की प्रभुसत्ता की धारणा को अंतर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए बहुत अधिक भयावह मानता है। उसके शब्दों में, ‘असीमित एवं अनुत्तरदायी सम्प्रभुता का सिद्धान्त मानवता के हितों से मेल नहीं खाता है और जिस प्रकार राजाओं के दैवी अधिकार समाप्त हो गये, वैसे ही राज्य की सम्प्रभुता भी समाप्त हो जायेगी। यदि प्रभुसत्ता का सारा विचार ही सदैव के लिए समाप्त कर दिया जाये तो राजनीति विज्ञान के प्रति यह एक बहुत बड़ी सेवा होगी।’
उपर्युक्त विचार-विमर्श के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों में प्रभुसत्ता पर अधिक बल देने वाली विदेश नीति बनाने से सभी राष्ट्रों को आपसी सहयोग बढ़ाने में काफी कठिनाई आ सकती है। इसलिए बाह्य मामलों में प्रत्येक राज्य को अपनी परम्परागत प्रभुसत्ता की धारणा से बाहर निकल कर अंतर्राष्ट्रीय विधि, अंतर्राष्ट्रीय संधियों एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के निर्देशों एवं नियमों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। लेकिन कोई भी देश बगैर किसी कारण के या बगैर किसी लाभ के अंतर्राष्ट्रीय विधि, अंतर्राष्ट्रीय संधियों एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के निर्देशों का पालन नहीं करता। ऐसा करने के पीछे प्रमुख कारण है- हाल के दिनों में, विशेषकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व के सभी देशों की एक-दूसरे पर बढ़ती हुई निर्भरता। विभिन्न देशों की परस्पर निर्भरता को निम्न क्षेत्रों में देखा जा सकता हैः
1. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति: द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शांति की तलाश में व्याकुल विश्व जनमत ने अंतर्राष्ट्रीय विधि संगठन, मानवाधिकार आयोग आदि को अधिक से अधिक शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए मजबूर किया। अपने विकासक्रम में इन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर मजबूत पकड़ स्थापित होता गया। ऐसे में किसी भी देश का पृथक् रहना कठिन था। इन संगठनों में कोई भी निर्णय बहुमत द्वारा लिये जाने के कारण, सभी देशों को अपने हित के लिए विश्व में बढ़ती अंतर्राष्ट्रीयता की भावना के आगे परंपरागत प्रभुसत्ता को थोड़ा कमजोर करना पड़ा। अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को प्राप्त कई अधिकारों ने विश्व के सभी देशों के परंपरागत प्रभुसत्ता को कई प्रकार से अंकुश में जकड़ लिया।
2. आर्थिक मामलों में: विकसित हो रही विश्व की मांग और जरूरतें भी तेजी से बढ़ रही हैं। ऐसे में किसी एक देश द्वारा अपनी सारी जरूरतों को स्वयं पूरा कर पाना कठिन है, जिसके कारण परंपरागत प्रभुसत्ता को हल्का-सा धक्का लगा है। अगर मध्य-पूर्व देशों के पास तेल बहुतायत में है, तो भारत जैसे देश के पास खाद्यान्न और वस्त्रों की निर्यात योग्य क्षमता है। दोनों समूह के देशों को एक-दूसरे से अपनी-अपनी जरूरतों के लिए व्यापारिक संबंध बनाना जरूरी है। कई आर्थिक संधियां, खासकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मामले में, पूरी तरह से परम्परागत प्रभुसत्ता की धारणा के विरुद्ध जाती हैं, क्योंकि कोई भी देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर बगैर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को बिगाड़े और अंतर्राष्ट्रीय विधि को तोड़े कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है। वर्ष 1990-91 के बाद वैश्वीकरण के इस दौर में तथा 1995 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना हो जाने के बाद, सभी देशों के बीच एक अटूट आर्थिक बंधन स्थापित हो गया है। ऐसे में कोई भी देश कोई भी व्यापारिक निर्णय अपनी प्रभुसत्ता के अनुसार करने की क्षमता से थोड़ा वंचित हो ही गया है।
3. वैज्ञानिक प्रगति: बढ़ती वैज्ञानिक प्रगति ने भी सभी देशों को एक-दूसरे पर निर्भर होने के लिए विवश कर दिया है। जहां विकासशील देश विभिन्न वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति की कमी को पूरा करने के लिए विकसित देशों पर निर्भर रहते हैं, वहीं विकसित देश कच्चे मालों, सस्ते श्रम एवं अपनी वैज्ञानिक प्रगति के बाजार के लिए विकासशील देशों पर निर्भर हैं। वैसे तो सभी देशों को अपने आस-पास के समुद्र, अपनी भूमि एवं भूमि के ऊपर आकाश पर प्रभुसत्ता प्राप्त होती है, लेकिन यह प्रभुसत्ता अंतर्राष्ट्रीय विधि द्वारा मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो कोई भी ताकतवर या विकसित देश इस वैज्ञानिक प्रगति के युग में आसानी से किसी भी छोटे और कमजोर देश पर कब्जा जमा सकता था। दूरदर्शन तरंगों द्वारा किसी भी देश में अपने कार्यक्रमों को पहुंचाना किसी देश की प्रभुसत्ता का उल्लंघन ही है और इसे रोका भी नहीं जा सकता है।
4. वैश्विक (Global) समस्याओं के कारणः हाल के दिनों में सम्पूर्ण विश्व में मानवता संबंधी समस्याओं को हल करने के लिए विश्वस्तरीय प्रयास किये जाने की बढ़ती प्रवृति ने भी प्रत्येक देश की परम्परागत प्रभुसत्ता को कुछ कमजोर किया है। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, आवासहीनता, पर्यावरण प्रदूषण, नशीले पदार्थों का व्यापार, आंतकवाद, कट्टरवाद, एड्स, तस्करी आदि समस्याओं के लिए विश्वस्तरीय प्रयास किये जाने की प्रवृत्ति आरंभ हो चुकी है और अब संपूर्ण विश्व को खंड-खंड में देखने के बजाय ‘एक गांव’ के रूप में देखने की प्रवृत्ति की शुरुआत हो चुकी है। ऐसे में कोई देश अपनी परंपरागत प्रभुसत्ता की ढोल कब तक बजाता रह सकता है?
अंत में, यह कहना शायद उचित ही है कि ‘एक-दूसरे पर बढ़ती हुई निर्भरता की यथार्थता, परंपरागत प्रभुसत्ता के सिद्धांत, जो कि सभी राज्यों की विदेश नीतियों में मुख्य भूमिका निभाता है, को अब अधिकतर निष्फल कर रही है-----।’
Question : वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अन्यायपूर्वक और प्रमुख (Hege-monic) पक्षों, और उन तत्त्वों का जो इनका स्थायीकरण करते हैं, का विश्लेषण कीजिये।
(1995)
Answer : नयी विश्व अर्थव्यवस्था के माध्यम से विकसित देशों ने विश्व व्यापार संगठन की स्थापना करबाकर सौदेबाजी और कूटनीति का एक नया मंच स्थापित कर लिया है। पश्चिमी यूरोप के सभी देशों तथा अमेरिका में उद्योग बंद हो रहे हैं। शीत युद्ध के समाप्त होने से हथियारों की बिक्री घटी है और बेरोजगारी बढ़ने से वहां मांग और खपत में कमी हुई है। अधिसंख्य देशों के बजट वर्षों से घाटे में चल रहे हैं। अतः वहां पूंजी निवेश की भी अधिक गुंजाइश नहीं बची है। इस परिस्थिति में विकासशील देशों पर दबाव डाल कर तथा सुधारों का आकर्षण दिखा कर विकसित देश अपनी पूंजी और अपने औद्योगिक माल की बिक्री का विस्तार करने का प्रयास कर रहे हैं। जो नया विश्व व्यापार संगठन वर्ष 1995 में स्थापित हुआ, उस पर संयुक्त राष्ट्र की तरह विकसित व धनी देश ही निस्सन्देह हावी रहेंगे, इसकी संभावना अभी से दिखने लगी है।
नयी विश्व अर्थव्यवस्था को आकार देने का कार्य सितम्बर 1986 में लैटिन अमेरिकी देश ऊरुग्वे में प्रशुल्क एवं व्यापार सम्बन्धी सामान्य समझौता (गैट) वार्ता के आठवें चक्र ने किया। गैट के महानिदेशक ‘आर्थर डंकेल द्वारा रखे गये ‘डंकेल प्रस्ताव’ पर अप्रैल 1994 में काफी विचार-विमर्श के बाद मोरक्को में 117 देशों द्वारा हस्ताक्षर किये गये। यह समझौता 1995 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के साथ लागू हो गया। विश्व आर्थिक इतिहास में डंकेल प्रस्ताव संभवतः सर्वाधिक विवादास्पद घटना रही है। डंकेल प्रस्ताव ने वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अन्यायपूर्ण और प्रमुख पक्षों, और उन तत्त्वों का जो इनका स्थायीकरण करते हैं, के बीज अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की भूमि पर लगा दिये हैं, जिससे उत्पन्न होने वाले फल तो विकसित देशों को मिलेंगे, पर विकासशील एवं निर्धन राष्ट्रों को इससे कोई विशेष उम्मीद नहीं है।
वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की सबसे अन्यायपूर्ण या प्रमुख पक्ष तो विश्व व्यापार संगठन की स्थापना ही है। विश्व व्यापार संगठन का संगठनात्मक ढांचा ही इस तरह का बनाया गया है, ताकि इस पर विकसित एवं धनी देशों की पकड़ हमेशा के लिए बनी रहे। अब तक के कार्यों से विश्व व्यापार संगठन ने विकसित देशों के पक्ष पालन करने की प्रवृत्ति को ही प्रदर्शित किया है। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अन्यायपूर्ण एवं प्रमुख तत्त्वों के स्थायीकरण के सबसे बड़े साधन के रूप में उभर कर सामने आयी है।
लेकिन गैट वार्ता के बाद हुई समझौते ने सिर्फ विश्व व्यापार संगठन की स्थापना ही नहीं की, बल्कि वैश्वीकरण (Globalisation), कृषि सेवा एवं बौद्धिक सम्पदा सम्बन्धी प्रस्तावों के द्वारा वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अन्यायपूर्ण तत्वों को स्थायित्व प्रदान किया है। गैट वार्ता के उपर्युक्त प्रस्तावों की क्रमानुसार विवेचना करने से यह तथ्य स्पष्ट हो सकता है।
वैश्वीकरण से तात्पर्य है ‘विश्व की अर्थव्यवस्था में घुल जाना’। वैश्वीकरण के तहत विश्व के सभी राष्ट्र एक आर्थिक सूत्र में बंध गये हैं। अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, विदेशी पूंजी निवेशकों और बहुद्देशीय व्यापारियों को विश्व के किसी भी देश में अपने आर्थिक कार्यकलाप करने की स्वतंत्रता प्राप्त हो गयी है। गैट समझौते के बाद अब कोई भी सदस्य देश चाह कर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, निवेशकों और व्यापारियों को रोक नहीं सकता है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि वैश्वीकरण के लाभ विकसित देशों को ही प्राप्त होगें, क्योंकि विकसित देशों के पास ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, निवेशकों, एवं व्यापार की क्षमता उपलब्ध है। विकासशील और निर्धन देश तो सिर्फ बाजार ही बन कर रह जायेंगे। अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों का मानना है कि वैश्वीकरण से आने वाले दिनों में विकासशील और निर्धन देशों का विकसित देशों द्वारा शोषण और भी बढेंगे।
कृषि सम्बन्धी प्रस्ताव के तहत विकासशील एवं निर्धन देशों को आगामी दस वर्ष के अन्दर अपने कृषि आयातों पर प्रशुल्कों को घटाना होगा। इसके अतिरिक्त इन देशों को अपनी कुल घरेलू आवश्यकता के 3 प्रतिशत से 5 प्रतिशत तक कृषि पदार्थों का आयात करना होगा। गरीब देशों को कृषि आदानों-बिजली, खाद्य, सिंचाई, बीज आदि पर दी जाने वाली अनुदान राशि में सन् 2003 तक 13 प्रतिशत तक की कटौती करनी होगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत की जाने वाली बिक्री अब बाजार भाव पर ही की जा सकेगी तथा इनके विक्रय पर सब्सिडी 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकेंगे। यह वितरण अब जनसंख्या के एक निर्धनतम वर्ग को पोषण प्राप्त कराने के आधार पर ही दिया जा सकता है। इन प्रावधानों से कृषि उत्पादन में दीर्घकाल में अत्यधिक उच्चावचन आयेंगे व अधिकांश गरीब जनसंख्या भुखमरी के स्तर तक पहुंच जायेगी।
किसी फसल विशेष के लिए दिये जाने वाले अनुदान की राशि यदि उस कृषि उपज के मूल्य के 10 प्रतिशत से ज्यादा है, तो इसमें आगामी 76 वर्षों में 36 प्रतिशत तक कटौती करनी होगी। चूंकि वर्तमान में भारत सहित अन्य विकासशील देशों में यह अनुदान राशि 10 प्रतिशत से कम है, अतः कटौती नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन यह बात ध्यातव्य है कि कृषि उपज मूल्य की गणना अन्तर्राष्ट्रीय कीमतों के आधार पर होगी। अतः आंकड़ों का कमाल दिखा कर अनुदान राशि को ज्यादा दिखाया जा सकता है।
कृषि संबंधी प्रस्तावों में सर्वाधिक विवादास्पद मुद्दा विभिन्न पौधों, बीजों और प्रजातियों के पेटेन्ट अधिकारों का है। इसके अंतर्गत कृषक अपने उत्पादन का कुछ भाग बीजों के रूप में प्रयोग करने के लिए नहीं रख सकेंगे। उन्हें प्रति वर्ष नये बीज खरीदने होंगे और इन बीजों व प्रजातियों पर मूल संस्था को रॉयल्टी प्रदान करनी होगी। यह सच है कि विकसित देशों द्वारा कृषि अनुदानों में कमी आने पर विकासशील देशों की कृषि निर्यात, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी हो जायेंगे तथा इन्हें अपेक्षाकृत बड़ा बाजार मिल सकेगा, लेकिन विकसित देशों द्वारा अपने कृषि उत्पादों का अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कम मूल्य पर बेचने की चालबाजी ने विकासशील देशों को प्राप्त होने वाले लाभ की संभावना को ही पूरी तरह से चकानाचूर कर दिया है।
डंकेल प्रस्ताव के अनुसार, सेवाओं, यथा-बैंक, बीमा, टेलीफोन, जहाजरानी, परिवहन, उपग्रह सेवाएं, पर्यटन, फिल्म, नाटक, होटल आदि के क्षेत्र में भी मुक्त व्यापार को स्थापित किया गया है। इन क्षेत्रों में भी विकसित देश अधिक लाभदायक स्थिति में हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों में उन्होंने काफी विकास पहले से ही कर लिया है और साथ ही अधिकांश विकासशील देशों में विकसित देशों की उपर्युक्त सेवाओं के प्रति जबर्दस्त आकर्षण पहले से ही बना हुआ है। इस तरह इन क्षेत्रों में भी विकासशील एवं निर्धन देशों का विकसित देशों से पिछड़ जाना अवश्यंभावी ही है।
15 दिसम्बर, 1993 को किये गये समझौते के अनुसार, सम्पूर्ण विश्व में बौद्धिक सम्पदा से सम्बन्धित व्यापार नये अधिनियमों के तहत होगा। अब ‘प्रक्रिया’ पेटेन्ट के स्थान पर ‘उत्पाद’ पेटेंट होगा और पेटेन्ट की अवधि भी अधिक होगी। इस प्रस्ताव का सर्वाधिक दुष्प्रभाव औषधि उद्योग पर पड़ेगा। अधिकांश औषधियों के मूल्यों में वृद्धि होगी और सरकार केवल जीवन रक्षक औषधियों के मूल्य पर ही नियंत्रण रख सकेगी। सर्वाधिक विवादास्पद प्रस्ताव पेटेंट अधिकारों के दुरुपयोग संबंधी शिकायत की स्थिति में अपराधी पक्ष पर उसे सिद्ध करने का भार डालना है।
अतः उपर्युक्त आधारों पर वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के अन्यायपूर्णक और प्रमुख पक्षों का पूर्ण स्थायीकरण विकसित देशों के पक्ष में कर दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा प्रकाशित ‘मानव विकास रिपोर्ट-1997’ के अनुसार, ‘वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का ढांचा कुछ इस तरह का है, जिसमें धनवान राष्ट्र अधिक धनवान हो रहे हैं और निर्धन राष्ट्र और अधिक निर्धन होते जा रहे हैं।’ इसलिए वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अर्थव्यवस्था को अन्यायपूर्ण कहना गलत नहीं है।
Question : अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अंतर्राष्ट्रीय विधि की भूमिका
(1995)
Answer : वर्तमान युग अंतर्राष्ट्रीयवाद का एक युग है, जिसमें विभिन्न देश एक-दूसरे से निरंतर परस्पर संबंध के दायरे में बंधते हैं। राष्ट्रों के बीच के सम्बन्धों को नियंत्रित करने के लिए, चाहे शान्ति का समय हो या युद्ध का काल, पिछले कुछ शताब्दियों से कुछ नियम और नियंत्रण विकसित किये गये हैं, जिन्हें सामान्य रूप से ‘अंतर्राष्ट्रीय विधि’ कहा जाता है। ये नियम विविध राष्ट्रों के बीच के सम्बन्धों को नियंत्रित करने के साथ-साथ इन संबंधों को एक आधार भी देते हैं। अधिकांश देश अपने राष्ट्रीय हितों के कारण अंतर्राष्ट्रीय विधि का अनुपालन करते हैं। विशेषकर ऐसे देश जो कमजोर और अविकसित हैं, उनके लिए तो अंतर्राष्ट्रीय विधि एक सुरक्षा कवच ही है।
प्रो. क्लेफ्रफेंस के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय विधि, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का एक आधारस्तंभ होती है। अंतर्राष्ट्रीय विधि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को कानूनी जामा पहनाने के साथ-साथ एक आकार भी प्रदान करती है।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की व्यवस्था कैसी हो, किस तरह की हो- इन नियमों का निर्माण अंतर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार ही किया जाता है। विभिन्न देशों के बीच द्विपक्षीय सम्बन्ध, अंतर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के अस्तित्व में होने के कारण ही संभव हो सके हैं। राष्ट्रों के बीच युद्धों को रोकने में अंतर्राष्ट्रीय विधि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। किसी शक्तिशाली देश द्वारा एक कमजोर और छोटे देश की सम्प्रभुता, अखण्डता एवं सत्ता का सम्मान किया जाना, अंतर्राष्ट्रीय विधि के अस्तित्व में रहने के कारण ही सम्भव हो सका है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के बीच वाणिज्यिक सम्बन्धों की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय विधि के कारण ही सम्भव हो सकी है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन हाल के दिनों में आये हैं, वे भी बहुत हद तक अंतर्राष्ट्रीय विधि के कारण ही सम्भव हुए हैं। उदाहरण के तौर पर मानवाधिकार कानूनों, रंगभेद विरोधी विधियों आदि ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अंत में यह कहा जा सकता है कि बगैर अंतर्राष्ट्रीय विधि के अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था सुचारु रूप से चल ही नहीं सकती है और ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
Question : ‘आरंभ से ही संयुक्त राष्ट्र विश्व राजनीति का एक सूक्ष्म जगत रहा है। इस संस्था के आन्तरिक घटनाक्रम इसके बाहर होने वाली घटनाओं और वातावरण को ही प्रतिबिंबित करते हैं।’ चर्चा कीजिये।
(1995)
Answer : वर्तमान, भविष्य एवं अतीत की समस्याओं एवं मुद्दों पर विचार-विमर्श करते हैं, ऐसी संस्था के रूप में स्थापित संयुक्त राष्ट्र के आन्तरिक घटनाक्रम विश्व में घटने वाली घटनाओं से अछूते कैसे रह सकते थे या रह सकते हैं? आरम्भ से ही संयुक्त राष्ट्र के सभी आन्तरिक घटनाक्रम बाहर की घटनाओं और वातावरण को प्रतिबिंबित करते रहे हैं। अगर संयुक्त राष्ट्र के अभी तक के कार्यकलापों को देखा जाये तो यह सरलतापूर्वक कहा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र विश्व राजनीति का एक सूक्ष्म जगत है।
प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका से त्रस्त होकर विश्व के राष्ट्रों ने शान्ति व सुरक्षा स्थापित करने के लिए मिल कर राष्ट्र संघ का निर्माण किया था, जो अपने उद्देश्य में असफल रहा और 20 वर्षों के बाद ही दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका से विश्व को पुनः रक्तरंजित होना पड़ा। इस रक्तरंजित इतिहास के पुनरावर्तन से विश्व को बचाने के लिए विश्व की तत्कालीन महाशक्तियों ने द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पूर्व ही प्रयास शुरू कर दिया था। विश्व शान्ति के सिद्धान्तों पर गहन विचार-विमर्श किया गया और अक्टूबर 1944 में इंग्लैंड, अमेरिका, सोवियत संघ और चीन के प्रतिनिधियों ने अमेरिका के ‘डम्बारटन ओम्स’ नामक स्थान पर एकत्रित होकर संयुक्त राष्ट्र संघ नामक विश्व संगठन के बहुआयामी स्वरूप के बारे में महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया। 24 अक्टूबर, 1954 को संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत रूप से स्थापना हुई, जिस पर चीन, फ्रांस, सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमेरिका ने हस्ताक्षर किये और ये ही सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य बने। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्य संख्या 185 है।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से लेकर आज तक के आतंरिक घटनाक्रमों को बाहरी जगत में होने वाली घटनाओं के प्रतिबिंब के रूप में दिखलाने के लिए सर्वप्रथम हमें संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्पूर्ण इतिहास को तीन कालों में बांटना होगा। ये तीन काल हैं- स्थापना के समय का काल, वर्ष 1954 से लेकर वर्ष 1990 तक का काल और 1990 से लेकर अब तक का काल।
स्थापना के समय का काल: संयुक्त राष्ट्र की स्थापना ही बाह्य जगत के घटनाक्रम के प्रतिबिंब के रूप में हुई थी। विश्व युद्ध से तबाह हुई दुनिया शांति की तलाश में थी और इसी शांति की खोज का परिणाम संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के सर्वाधिक शक्तिशाली अंग, सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता द्वितीय विश्व युद्ध में जीते हुए राष्ट्रों- अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, सोवियत संघ एवं चीन को दी गयी, और प्रमुख पराजित राष्ट्रों- जर्मनी, इटली, जापान आदि को अलग रखा गया। यह उदाहरण भी संयुक्त राष्ट्र पर पड़े बाह्य जगत के घटनाक्रमों के प्रभाव को ही स्पष्ट करता है। स्थापना के समय प्रमुख निर्णयों को लेते समय विकासशील और गरीब देशों को अलग-थलग रखना भी बाह्य जगत के घटनाक्रमों के प्रभाव को ही स्पष्ट करता है। स्थापना के समय लिया जाने वाला हर निर्णय अमेरिका और उसके सहयोगी राष्ट्रों का निर्णय होता था और उन्हीं की मनमानी चलती थी।
वर्ष 1954 से वर्ष 1990 तक का कालः यह दौर शीतयुद्ध का दौर था। इस काल में दुनिया दो गुटों में बंटी हुई थी। एक गुट का नेता पूंजीवादी व्यवस्था का प्रतीक, अमेरिका था, तो दूसरे गुट का नेता साम्यवादी व्यवस्था का ध्वाजारोहक, सोवियत संघ था। इसी दौर में एक तीसरे गुट के रूप में गुटनिरपेक्ष देशों के समूह का भी उदय हुआ। लेकिन कमजोर, विकासशील एवं गरीब देशों का समूह होने के कारण संयुक्त राष्ट्र के कार्यकलापों पर इसका प्रभाव बहुत सबल नहीं था। गुटनिरपेक्ष समूह के अधिकांश देश भी किसी न किसी आधार पर या तो अमेरिकी गुट के समर्थक थे या फिर सोवियत संघ के गुट के। इस तरह वर्ष 1954 से लेकर वर्ष 1990 तक का दौर विश्व राजनीति के दो गुटों की गुटबंदी का दौर था, जिसमें दोनों गुट विश्व के हर मामले में विरोधी रवैया अपनाते थे। गुटबंदी में बंटी विश्व राजनीति का प्रभाव संयुक्त राष्ट्र के आंतरिक घटनाक्रमों पर भी पड़ा और इसके मूल उद्देश्यों-अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के प्रयासों को गहरा धक्का लगा। चाहे वह फिलीस्तीन समस्या हो, चाहे कोरिया समस्या या कश्मीर या स्वेज नहर का मुद्दा हो या फिर निरस्त्रीकरण का ही मामला हो, दोनों गुट सदा ही एक-दूसरे के विरोधी बने रहे। इस प्रतिद्वंद्विता ने संयुक्त राष्ट्र को पंगु तो नहीं बनाया, पर मूक दर्शक जरूर बनने को विवश कर दिया। सोवियत संघ का अफगानिस्तान में प्रवेश (1970 के दशक में), अमेरिका का वियतनाम पर आक्रमण (1970 के दशक में) या ईरान-इराक के बीच वर्षों तक चले युद्ध के समय संयुक्त राष्ट्र एक मूक दर्शक ही बनी बैठी रही। विश्व में बढ़ते शस्त्रों होड़ को रोक सकने में संयुक्त राष्ट्र असफल रहा, क्योंकि उस दौर में संयुक्त राष्ट्र कोई भी निर्णय एकमत से लेने में असमर्थ था। शीत युद्ध काल के गुटीय विश्व राजनीति का स्पष्ट प्रभाव संयुक्त राष्ट्र के आंतरिक घटनाक्रमों में देखा जा सकता है। इस दौर में सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों ने सर्वाधिक बार अपनी ‘वीटो’ शक्ति का प्रयोग किया और संयुक्त राष्ट्र को कोई भी निर्णायक कदम उठाने से रोक दिया।
वर्ष 1990 से अब तक का काल: वर्ष 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक अविस्मरणीय बदलाव आया। सोवियत संघ के विघटन के साथ ही दुनिया भर में फैले साम्यवादी शासन व्यवस्थाएं गिरने लगीं और इसी के साथ सोवियत संघ के नेतृत्व वाले साम्यवादी गुट का भी अस्तित्व समाप्त हो गया। वर्ष 1990 के बाद विश्व राजनीति ने शीत युद्ध के दौर से निकल कर एक ऐसे दौर में प्रवेश किया, जिसमें विश्व राजनीतिक पटल पर एक ही महाशक्ति का अस्तित्व शेष था और वह अमेरिका था। वर्ष 1990 के बाद अमेरिका विश्व राजनीति में सर्वप्रमुख होता गया और एक तरह से विश्व राजनीति का निर्धारक हो गया। विश्व राजनीति में आयी इस बदलाव का प्रभाव संयुक्त राष्ट्र के आंतरिक कार्यकलापों पर भी पड़ा। इस दौर में प्रवेश करने के साथ ही संयुक्त राष्ट्र पर अमेरिका की पकड़ मजबूत होती गयी और अमेरिका की इच्छाओं के आगे संयुक्त राष्ट्र को झुकना पड़ा। खाड़ी युद्ध के समय या फिर बोस्निया हर्जेगोविना, सोमालिया, अंगोला, हैती या फिर अभी हाल ही में भारत और पाकिस्तान द्वारा परमाणु बम विस्फोट के बाद पहली बार संयुक्त राष्ट्र द्वारा किसी राष्ट्र की परमाणु बम विस्फोट करने पर अलोचना करना संयुक्त राष्ट्र के कार्यकलापों पर बढ़ते अमेरिकी प्रभाव का ही द्योतक है।
अब संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में अमेरिका की आलोचना करने वाला कोई नहीं है। ऐसे में अमेरिका का विरोध करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। अब सोवियत संघ का उत्तराधिकारी रूस, कमोबेश अमेरिकी समर्थक ही बन गया है। संयुक्त राष्ट्र का महासचिव कौन बनेगा, संयुक्त राष्ट्र क्या कार्य करेगा, क्या नहीं, संयुक्त राष्ट्र का बजट कितने का होगा और आने वाले दिनों में संयुक्त राष्ट्र के संगठनात्मक सुधार किस तरह होंगे, आदि जैसे निर्णय अमेरिकी प्रभाव के तहत ही किये जा रहे हैं या किये जाने वाले हैं। यह विश्व राजनीति में अमेरिका के बढ़ते प्रभाव का ही द्योतक है।
यह सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र अपने आरम्भिक दिनों से ही कभी जीते हुए राष्ट्रों, कभी शीत युद्धकालीन गुटबंदी और अब अमेरिका की बढ़ती निरंकुशता से ग्रसित रहा है, फिर भी इसने अनेक बार उन विषम परिस्थितियों और विवादों को टालने में निश्चित रूप से सफलता प्राप्त की है, जो तृतीय विश्व युद्ध की पूर्व पीठिका बन सकती थीं। विश्व राजनीति में विकासशील देशों के बढ़ते प्रभाव की प्रतिछाया भी संयुक्त राष्ट्र पर पड़ी है। संयुक्त राष्ट्र की महासभा की बढ़ती शक्ति और संयुक्त राष्ट्र के संगठनात्मक सुधार की बढ़ती मांग तथा निरस्त्रीकरण, पर्यावरण समस्या, आवास समस्या, विश्व स्वास्थ्य समस्या, शिक्षा, भुखमरी, गरीबी एवं अन्य आर्थिक समस्याओं के निवारण के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा किये जा रहे कार्यकलापों को संयुक्त राष्ट्र के कार्यों पर विकासशील और गरीब देशों के बढ़ते प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। आशा तो यही की जानी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र जल्द ही अमेरिका के प्रभाव से मुक्त होकर एक वास्तविक वैश्विक मुखिया के रूप में कार्य कर सकेगा।
Question : ओ.ए.यू. एवं अफ्रीका में संघर्ष
(1995)
Answer : स्वतंत्र अफ्रीकी राष्ट्रों द्वारा ओ.ए.यू. (ऑर्गेनाइजेशन ऑफ अफ्रीकन यूनियन) की स्थापना मई 1963 में अफ्रीकी राष्ट्रों के बीच चल रहे आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं से उत्पन्न संघर्षों को हल करने के लिए किया गया था। आरंभ में इस संगठन में 32 सदस्य राष्ट्र थे, जो बढ़ कर अब 51 हो गये हैं। रंगभेदी व्यवस्था से मुक्त होने के बाद दक्षिण अफ्रीका भी इस संगठन का सदस्य बन गया है। संगठन के मुख्य उद्देश्यों को संगठन के चार्टर के अनुच्छेद II में उल्लेखित किया गया है, जिसके अनुसार निम्न महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर बल दिया गया है-
ओ.ए.यू. के उद्देश्यों को लगभग सभी अफ्रीकी राष्ट्रों द्वारा स्वीकार किया जाता है और सभी राष्ट्रों ने मिल कर कई घोषणाएं भी की हैं, लेकिन वास्तव में ओ.ए.यू. का प्रभाव कम हो रहा है। रवांडा, बुरुण्डी, नाइजीरिया, अंगोला, मिस्र आदि देशों में चल रहे के गृह युद्धों के परिप्रेक्ष्य में ओ.ए.यू. की कमजोरी उभर कर सामने आयी है। सोमालिया की समस्या तो ओ.ए.यू. के अस्तित्व एवं उपयोगगिता पर एक बड़ा सा प्रश्न चिह्न ही है। आज तक सभी अफ्रीकी राष्ट्र गरीबी, भुखमरी एवं पिछड़ेपन की समस्या को दूर करने के लिए कोई प्रभावी प्रयास मिल-जुल कर नहीं कर पाये हैं। फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि ओ.ए.यू. अफ्रीकी राष्ट्रों के बीच सहयोगात्मक अस्तित्व की भावना को प्रचारित करने में सफल रहा है। एक अफ्रीकी विकास बैंक की स्थापना की गयी है और अब एक ‘अफ्रीका सामान्य बाजार’ को वास्तविक रूप देने का कार्य लगभग पूर्ण हो गया है। इसके अलावा ओ.ए.यू. संयुक्त राष्ट्र सहित सभी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में सम्पूर्ण अफ्रीकी देशों के सामान्य हितों के मामलों को सफलतापूर्वक रखने में काफी सफल रहा है।
Question : एन.पी.टी. के नवीकरण के संदर्भ में इसके पक्ष समर्थकों और आलोचकों दोनों द्वारा उठाये गये विवाद विषयों की जांच कीजिये।
(1995)
Answer : परमाणु अप्रसार संधि (एन.पी.टी.) के नवीकरण पर विचार करने के लिए एक सम्मेलन 17 अप्रैल से 12 मई, 1995 तक न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र के प्रागंण में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन का उद्देश्य एन.पी.टी. की पुनर्समीक्षा करने के साथ-साथ यह निश्चित करना था कि क्या इस संधि को अनिश्चित अवधि के लिए स्वीकार कर लिया जाये या सिर्फ किसी निश्चित अवधि के लिए ही। सम्मेलन में इस संधि को अनिश्चित अवधि के लिए स्वीकृत कर लिया गया और परमाणु शस्त्र सम्पन्न देशों ने परमाणु अस्त्रों को पूर्णरूपेण समाप्त करने की शर्त को स्वीकार किया। सम्मेलन में इस संधि से अब तक नहीं जुड़े देशों से इस संधि में शामिल होने की अपील की गयी और वैश्विक शांति के लिए मिल-जुलकर प्रयत्न करने का आह्वान किया।
लेकिन उपर्युक्त सम्मेलन एन.पी.टी. के नवीकरण के सन्दर्भ में इसके पक्ष समर्थकों और आलोचकों, दोनों द्वारा उठाये गये विवाद विषयों के कारण काफी विवादित रहा। वर्ष 1970 में स्वीकृत हुए एन.पी.टी. के अनुसार विश्व के मात्र पांच देश-संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस और ब्रिटेन ही परमाणु अस्त्र सम्पन्न देश हैं और इन्हें ही परमाणु अस्त्रों को रखने की छूट प्राप्त है। आरंभ में इसे 25 वर्षों के लिए स्वीकृत किया गया था। इसी कारण वर्ष अप्रैल-मई 1995 में एन.पी.टी. के नवीकरण के विषय पर सम्मेलन आयोजित हुआ था, जिसकी अध्यक्षता श्रीलंका के श्री जयंथा धनपाल ने की।
1995 के सम्मेलन में अमेरिका द्वारा लाये गये एन.पी.टी. को स्थायी रूप से अनिश्चित अवधि के लिए स्वीकृत करने के प्रस्ताव को 107 देशों का समर्थन मिलने के कारण इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया।
इस संधि को 12 देशों ने स्वीकार नहीं किया। इनमें प्रमुख हैं भारत, पाकिस्तान और इजरायल ये सभी परमाणु अस्त्रों के निर्माण की क्षमता रखते हैं। अन्य देश हैं- अंगोला, क्यूबा, संयुक्त अरब अमीरात, ताजिकिस्तान, इरिटिया, कॉमोरूस, दजीउती और मोनाको। वैसे पाकिस्तान और इजरायल अपनी-अपनी क्षेत्रीय रणनीतिक समस्याओं के कारण ही संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये, अन्यथा इन्हें अमेरिका द्वारा प्रस्तावित समझौते से कोई विरोध नहीं था।
एन.पी.टी. के नवीकरण से सम्बन्धित इस सम्मेलन में सदस्यों के बीच एन.पी.टी. के विस्तार और स्वयं एन.पी.टी. की भूमिका को लेकर काफी मतभेद था। जहां एन.पी.टी. के पक्षसमर्थकों में से चार प्रमुख देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस इस संधि को अनिश्चित काल के लिए लागू करना चाहते थे, वहीं चीन इसे निश्चित काल या फिर 25 वर्षों के लिए लागू करने का समर्थक था। कई देशों, जिनमें मलेशिया, इंडोनेशिया और नाइजीरिया आदि शामिल थे कि मांगें एन.पी.टी. को एक बार में 25 वर्षों के लिए बढ़ाने और हर पांचवें वर्ष में पुनर्समीक्षा करने, संधि को मानने वाले देशों पर कानूनी बंधनों, खतरनाक अस्त्रों की पूर्ण समाप्ति और परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण प्रयोग में वैश्विक सहयोग की व्यवस्था आदि की थी। एन.पी.टी. के पक्ष समर्थकों के अनुसार, इस संधि ने विश्व में बढ़ते परमाणु अस्त्रों की होड़ को रोकने में एक अहम भूमिका निभायी है और आने वाले दिनों में भी काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। पक्षसमर्थकों का दावा था कि इस संधि ने विश्व परमाणु प्रसार को रोकने में एक मजबूत रूकावट का कार्य किया है। पक्षसमर्थकों का मानना है कि इस संधि में किसी बदलाव या परिवर्तन की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि यह संधि अपने वर्तमान अवस्था में ही परमाणु प्रसार को रोकने में सक्षम है।
दूसरी तरफ, एन.पी.टी. के वर्तमान नियमों की आलोचना करने वाले एवं एन.पी.टी. में सुधार लाने के समर्थक देशों का तर्क था कि यह संधि परमाणु अस्त्रों की पूर्ण समाप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कोई समय निश्चित करने में असमर्थ रही है। इन देशों का दावा है कि हल्के जल रियेक्टरों के रूप में परमाणु विहीन देश भी परमाणु अस्त्रों को सरलता से प्राप्त कर सकते हैं। इन देशों का यह भी तर्क था कि एन.पी.टी. इजरायल और उत्तरी कोरिया को गैर कानूनी ढंग से परमाणु अस्त्रों को प्राप्त करने से नहीं रोक सका है। इन देशों की इस बात पर भी आपत्ति थी कि एन.पी.टी. भेदभाव की व्यवस्था पर आधारित है। एन.पी.टी. मात्र पांच देशों को परमाणु अस्त्र सम्पन्न देशों के रूप में मान कर, अन्य देशों को स्थायी रूप से कमजोर और शक्तिहीन बनाये रखने का प्रयास करता है। एन.पी.टी. के अंतर्गत गैर-परमाणु देशों पर नजर रखने की कोई व्यवस्था नहीं है। इन देशों का मानना था कि एन.पी.टी. अभी तक उन देशों और क्षेत्रों में ही सफल हो सका है, जहां परमाणु अस्त्र बनाने की क्षमता पूर्णरूपेण विकसित नहीं है। कोई देश परमाणु अस्त्र बना रहा है या नहीं इसकी जांच करना अभी भी संभव नहीं है, क्योंकि एन.पी.टी. के नियमों के अनुसार कोई भी देश कभी भी इस संधि से बाहर निकल सकता है और जांच से बच सकता है। एन.पी.टी. के वर्तमान स्वरूप के आलोचकों का मानना है कि एन.पी.टी. परमाणु शस्त्र सम्पन्न देशों को अपने परमाणु शस्त्रों में वृद्धि करने से रोकने में पूर्णतः असमर्थ रहा है। वर्तमान अनुमान के अनुसार अमेरिका के पास 1,50,000 परमाणु अस्त्र हैं, तो रूस के पास 29000, चीन के पास 284, ब्रिटेन के पास 205 और फ्रांस के पास 512 परमाणु अस्त्र हैं। वहीं अब तक अमेरिका ने जहां 1030 बार परमाणु परीक्षण किये हैं, वहीं रूस ने 715 बार, ब्रिटेन ने 45 बार, फ्रांस ने 191 बार और चीन ने 42 बार परमाणु परिक्षण किये हैं।
वर्तमान स्वरूप के आलोचकों की मांग थी कि एन.पी.टी. के अधिनियमों के अंतर्गत परमाणु सम्पन्न और परमाणुविहीन देशों के बीच जो भेदभाव किया गया है, उसे समाप्त किया जाये। साथ ही साथ सभी तरह के खतरनाक अस्त्रों को एक निश्चित अवधि में पूर्णरूपेण समाप्त किये जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। लेकिन अंततः अमेरिका समर्थित एन.पी.टी. के वर्तमान स्वरूप के समर्थकों की ही विजय हुई और अप्रैल-मई 1995 में सम्पन्न सम्मेलन में एन.पी.टी. को अनिश्चित अवधि के लिए स्वीकार कर लिया गया।