Question : "यह आवश्यक है कि राजनीतिक सुधार सामाजिक सुधारों के अग्रगामी हों, न कि उनके अनुगामीय् (तिलक)। सुस्पष्ट कीजिए।
(2007)
Answer : पश्चिम की बुद्धिवादी, वैज्ञानिक और गतिशील सभ्यता तथा भारत की धार्मिक, पुरातनपोषी और परम्परागत संस्कृति के बीच संपर्क के कारण समाज सुधार की समस्या बड़ी महत्त्वपूर्ण हो गई थी। भारत में अनेक आंदोलनों का उदय हुआ, जिन्होंने सामाजिक परिवर्तन और रूपान्तर का समर्थन किया। इनमें से ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज आदि कुछ आंदोलनों पर पाश्चात्य विचारधाराओं का गहरा प्रभाव पड़ा। अतः उन्होंने तत्काल समाज सुधार करने का हृदय से समर्थन किया। हिन्दुओं के समाज-सुधार आंदोलन सरकार द्वारा सामाजिक कानून बनाने के विरूद्ध नहीं थे यही नहीं बल्कि उन्होंने इस कार्य में सरकार की सहायता भी की किंतु समाज सुधार के संबंध में लोकमान्य तिलक का दृष्टिकोण एकदम भिन्न था। इतनी ही महत्त्वपूर्ण एक अन्य समस्या यह थी कि राजनीतिक आंदोलन और समाज सुधार के बीच क्या संबंध हो। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885) के समय से यह समस्या महत्त्वपूर्ण माने जाने लगी थी। कलकत्ता के कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन मे दादाभाई नौरोजी ने स्पष्ट घोषणा की कि ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को चाहिए कि वह अपने को केवल उन्हीं प्रश्नों तक सीमित रखे, जिसमें संपूर्ण राष्ट्र प्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित हो सके। समाज सुधार की समस्याओं तथा अन्य वर्गगत प्रश्नों को वर्ग सम्मेलनों के लिये छोड़ देना चाहिए। तिलक भी सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं को एक साथ मिलाने के विरूद्ध थे। उनका कहना था कि राजनीतिक प्रगति तात्कालिक आवश्यकता की चीज है जबकि सामाजिक प्रश्नों पर धीरे-धीरे विचार किया जा सकता है, और सामाजिक सुधार धीरे-धीरे लाये जा सकते हैं।
तिलक ने ‘केसरी’ में अनेक लेख लिखकर अपने समाज सुधार संबंधी सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। वे सिद्धान्ततः समाज सुधार के विरूद्ध नहीं थे, किंतु वे तात्कालिक तथा अविकल सामाजिक क्रांति के कार्यक्रम के कट्र शत्रु थे। उनका विचार था कि सामाजिक परिवर्तन उसी प्रकार धीरे-धीरे और स्वतः आ जायेंगे जैसे किसी अवयवी में आ जाते हैं और प्रगतिशील शिक्षा तथा बढ़ती हुई जागृति ही इस प्रकार के परिवर्तनों का मुख्य साधन होनी चाहिए।
जो सुधार ऊपर से थोपे जाते हैं और दण्ड के भय पर आधारित होते हैं, वे यांत्रिक होते हैं तथा उनसे समाज के जीवन की विद्यमान व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने की डर रहता है। समाज विकासशील अपयवी के सदृश है। समाज सुधार के प्रश्नों को लेकर गुट और वर्ग उत्पन्न करके उसकी एकता और सृदृढ़ता को भंग करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। तिलक का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय जीवन में एक नया उभार उत्पन्न करना था, इसलिए वे जनता के समक्ष परस्पर विरोधी सामाजिक-दर्शनों को प्रस्तुत करके उनके मन में भ्रम पैदा करने के विरूद्ध थे।
वे सामाजिक जीवन में फूट डालने और विघटनकारी प्रभावों को प्रोत्साहन देने के पक्ष में नहीं थे। उनका विचार था कि प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन धीरे-धीरे किये जाने चाहिए और उन लोगों की प्रेरणा से तथा उनके नेतृत्व में किये जाये, जिनके मन में हिंदु आदर्शों के प्रति श्रद्धा हो। जिन्हें आध्यात्मिक तत्व की प्राथमिकता में विश्वास नहीं है और जो एक प्रकार से बहिष्कृत बुद्धिजीवी हैं, उन्हें जनता पर अपनी समाज सुधार संबंधी अधकचरी धारणाओं को लादने का नैतिक आधार नहीं है। तिलक चाहते थे कि सामाजिक जीवन में परिवर्तन धीरे-धीरे और शांतिपूर्ण तरीकों से हो। वे यह मानने के लिये तैयार नहीं थे कि पश्चिम के सामजिक जीवन और संस्थाओं का अंधानुकरण करके देश का उद्धार हो सकता है। वे प्रगति चाहते थे, किंतु साथ-ही-साथ जिसे हेगेल ने लोकभावना कहा है उसके महत्व को भी भलीभांति समझते थे। इसलिए वे हिदू समाज के इतिहास और विकास की पूर्ण अवहेलना करके जल्दी में बनाये गये सामाजिक कानूनों के अंधकार में कूदने के विरूद्ध थे। तिलक सुधारकों की इस अवधारणा में विश्वास नहीं रखते थे कि समाज सुधार राजनीतिक प्रगति की पूर्व शर्त है। सुधारकों का यह आग्रह था कि राजनीतिक उन्नति के ठोस लाभों को उपलब्ध करने के लिये आवश्यक है कि उससे पहले हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था में सुधार कर लिया जाये। तिलक ने इस प्रस्थापना का विराध किया कि अग्रेज शासकों से राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने के लिये पहले समाज का सुधार कर लेना आवश्यक है। उन्होंने उस समय के आयरलैण्ड का उल्लेख किया। आयरलैण्डवासियों ने समाज सुधार की उन सभी योजनाओं को लगभग पूरा कर लिया था जिनका भारतीय सुधारक समर्थन कर रहे थे, किंतु राजनीतिक दृष्टि से उनका देश अब भी अधोगति की अवस्था में पड़ा था। 1898-999 में तिलक ने श्रीलंका और वर्मा की यात्रा की। उन्होंने देखा कि उन देशों में भारत से कहीं अधिक सामाजिक स्वतंत्रता है, किंतु उदाहरणों के द्वारा तिलक ने इस तर्क का नितान्त खोखलापन सिद्ध कर दिया कि समाज सुधार राजनीतिक प्रगति और मुक्ति की अपरिहार्य पूर्व शर्त है। वे इस विश्वास पर सदैव गंभीरता और दृढ़ता से डटे रहे कि राजनीतिक हथियार प्राथमिक तथा निरपेक्ष महत्त्व की वस्तु है और अधिकाधिक राजनीतिक अधिकारों को प्राप्त करना भारत की सर्वोच्च आवश्यकता है। सामाजिक समस्याओं को उसके बाद सुलझाया जा सकता है।
अपने जीवन के परवर्ती काल में तिलक देश की समस्याओं से संबंधित व्यक्तियों के बीच श्रम-विभाजन के सिद्धांत का पोषण करने में लगे थे। उन्होंने कहा कि मैं अपनी सम्पूर्ण शक्ति राजनीतिक अधिकारों के प्रश्न को हल करने में जुटा रहा हूं, कुछ अन्य लोगों को चाहिए कि ये दलित वर्गों के सामाजिक उद्धार के कार्य को अपने हाथों में ले लें। इस सब पर विचार करते हुये यह कहना गलत होगा कि तिलक सामाजिक सुधारों के विरूद्ध थे और पुराने पंथों और मतवादों के अनुदार समर्थक थे। अपने लेखों और भाषणों में उन्होंने बार-बार इस बात को स्पष्ट किया है कि वे समाज सुधार के विरूद्ध नहीं थे। तिलक ने राजनीतिक मुक्ति को राष्ट्र की सर्वोच्च आवश्यकता बतलाकर इस बात का प्रमाण दे दिया कि उनमें राष्ट्र की शक्ति का निर्माण करने की दूरदर्शिता थी। सुधारकों और आदर्शवादियों की सुधार योजनायें कितनी भी आकर्षक क्यों न होती, समाज में फूट डालने से राष्ट्र की एकता के भंग होने का भारी डर था। राष्ट्र का जीवन एक अविच्छिन्न ऐतिहासिक और मानसिक प्रवाह है। तिलक का कहना था कि इस प्रवाह को छिन्न-भिन्न करना उचित नहीं है। इस समय आवश्यक है कि इसके और अधिक सुदृढ़ बनाया जाये। वे राष्ट्र के जीवन को उत्तेजित करके ऐसी दिशा में मोड़ना चाहते थे जिससे अंत में राजनीतिक आत्मनिर्णय के सिद्धांत की विजय हो सके। अतः यह समझना भूल है कि तिलक की राजनीतिक आचार-संहिता एक जनोत्तेजक नेता की आचार संहिता थी और इसलिए उन्होंने चतुराई के साथ इसके अंतर्गत राजनीतिक अतिवाद और सामाजिक प्रतिक्रियावाद दोनों के समन्वय की छूट दे रखी थी। इस मत को लोकप्रिय बनाने वाला तिलक का महान शत्रु सर वेलेंटाइन शिरोल थे। उनकी पुस्तक द इण्डियन अनरेस्ट (The Indian unrest) के प्रकाशन के समय से इस मत को भारतीय राष्ट्रवाद के उन अनेक विद्वानों ने दुहराया है जिनमें आलोचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव है। पाश्चात्य देशों के राष्ट्रवाद के इतिहास का अध्ययन करने पर पता चलता है कि राष्ट्रवाद का निर्माण संवेग रहित यांत्रिक बुद्धि के आधार पर नहीं किया जा सकता बल्कि उसके लिये संवेगात्मक एकता की आवश्यकता होती है। और यह एकता तभी संभव है जबकि लोग ऐतिहासिक विपदाओं, विजयों और पराजयों की सामूहिक स्मृति के सूत्र से परस्पर आबद्ध हो। इसलिए समाज की विशिष्ट सांस्कृतिक भावना और मूल्यों का राष्ट्रवाद के आधार का निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। रेनन के अनुसार, भी राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होने के दौरान उसकी सांस्कृतिक अविच्छिन्नता को कायम रखना आवश्यक है।