Question : राष्ट्र निर्माण में भारत के अधिकारीतंत्र की भूमिका और अंशदान का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
(2006)
Answer : नौकरशाही के महत्व के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि ‘नौकरशाही अच्छी हो या बुरी यह शासन की आधुनिक संरचना का एक अनिवार्य अंग, व्यावसायिक प्रशासन की फैली हुई व्यवस्था और उसमें नियुक्त अधिकारियों का पद सोपान है, जिनके ऊपर समस्त प्रशासकीय कार्य आश्रित है। चाहे हम उग्र्र प्रकार की सर्वसत्तात्मक तानाशाही के अधीन रहते हों अथवा सर्वदा उधार लोकतंत्र के अधीन, हम बहुत हद तक किसी न किस प्रकार की नौकरशाही द्वारा ही शासित है।’ आधुनिक युग में नौकरशाही प्रशासन का अनिवार्य एवं अभिन्न अंग बन गयी है। चाहे किसी भी प्रकार का शासन क्यों न हो सभी सरकारों को उसकी आवश्यकता है। यह अगर बुराई है तो भी आवश्यक है अर्थात् नौकरशाही के आलोचक भी इसे आवश्यक बुराई मानते हैं। नौकरशाही को अनावश्यक किसी भी हालत में नहीं माना जाना चाहिए। कोई भी राष्ट्र इस व्यवस्था से अपने को मुक्त नहीं रख सकता है। जहां विधायी और न्यायिक कार्यों की प्रकृति अस्थायी होती है-वहां नौकरशाही का कार्य काल स्थायी होता है।
भारतीय नौकरशाही ब्रिटिश विरासत का परिणाम है, जो पूरी तरह से ब्रिटिश ढांचे पर आधारित है। आजादी के बाद भी इस मॉडल को जस का तस स्वीकार कर लिया गया। भारत के निर्माण में अधिकारी तंत्र की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। संवैधानिक शासन के विकास एवं कार्य संचालन में नौकरशाही का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यही कारण है कि सन् 1947 में आजादी के बाद भारतीय नौकरशाही ने सभी प्रशासनिक कार्यों का संचालन अत्यंत कुशलतापूर्वक किया। भारत की नई संवैधानिक सरकार द्वारा लिए जाने वाले नए-नए उत्तरदायित्वों का वहन करने की क्षमता भारतीय नौकरशाही में मौजूद रही है। राजनीतिज्ञों की उग्रता को नौकरशाही द्वारा सौम्यता और सहनशीलता से संतुलित किया जाता रहा है। संवैधानिक संशोधन के लिए भारतीय नौकरशाही विभिन्न प्रकार के आंकड़े एवं सूचनायें प्रदान करती है। इस प्रकार नौकरशाही की भूमिका संवैधानिक विकास में सकारात्मक रही है।
भारत जैसे आधुनिक विकासशील राज्य में नौकरशाही के द्वारा आधुनिकीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में विशेष सहायता मिली है। आधुनिकीकरण और परिवर्तन दोनों को जब तक पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाएगा, तब तक विकास संभव नहीं है। वस्तुतः नौकरशाही ही वह अभिकरण है, जो विकास से संबंधित नई-नई आधुनिक योजनाओं को कार्यान्वित करता है। भारत जैसे देशों में जहां आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अभी धीमी गति से चल रही है वहां नौकरशाही भी अपने परंपरागत रूप से आधुनिक रूप में परिवर्तन के दौर से गुजर रही है।
भारत जैसे विकासशील देश के लिए नौकरशाही ने आर्थिक विकास के लिए न सिर्फ अनिवार्य और अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया है, बल्कि उन्हें सुदृढ़ तथा सशक्त भी किया है। नौकर शाही आर्थिक उत्पादन के सामान्य और विशिष्ट लक्ष्यों के निर्धारण में सहायता प्रदान करता है एवं आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करता है। यह नौकरशाही की ही मेहनत का परिणाम है कि भारत की विकास दर 8 प्रतिशत से ऊपर चल रही है व आज भारत विश्व में क्रय शक्ति के आधार पर संसार की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।
नौकरशाही के विभिन्न अभिकरण न सिर्फ हित स्पष्टीकरण और हित समूहीकरण में अपना योगदान देते हैं, बल्कि राजनीतिक समाजीकरण और राजनीतिक संचार में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। भारत जैसे संक्रमणशील समाज में सरकार के द्वारा संचालित ज्ञान, जागरुकता और प्रचार के कार्यों का संपादन कर भारतीय नौकरशाही जनता के लिए राजनीतिक समाजीकरण के अभिकरण की भी भूमिका अदा करती है।
लेकिन भारत में अधिकारी तंत्र ने जहां राष्ट्र निर्माण में अपनी महती भूमिका का निर्वहन करते हुए देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वहीं अधिकारी तंत्र के रूढि़वादी रवैये के कारण देश और समाज को काफी हानि भी उठानी पड़ी है। प्रजातंत्र व्यवस्था में व्यावहारिक रूप से ऐसी व्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि इसमें लोक सेवक लोक नियंत्रण से मुक्त रहते हैं।
लोक सेवकों को नागरिकों को अपने साथ लेकर चलना चाहिए, जबकि यह व्यवस्था जनमत के प्रति अनुत्तरदायी और गैर-जिम्मेदार है। यह लोक सेवाओं एवं नागरिकों के बीच दूरियां बढ़ाती है। अधिकारी वर्ग जो अहं भाव से ग्रस्त होता है नागरिकों के प्रति हेय दृष्टिकोण अपनाते हैं। लोक सेवक उच्चता की भावना से पीडि़त रहते हैं। इस प्रकार यह व्यवस्था नागरिकों एवं सरकार दोनों के ही हित में नहीं है। लोकसेवा के अधिकारी अधिक शक्ति का दुरुपयोग अपने ही हित साधन में करने लगते हैं।
नौकरशाही की इसलिए भी आलोचना की जाती है कि यह विभाग के नियमों एवं विनियमों का सख्ती से पालन करके ‘लाल- फीताशाही’ का सृजन करती है। इस कारण विभागीय कार्यों के संपर्क करने में अनावश्यक देरी का कारण बन जाता है और इसके साथ ही यह भ्रष्टाचार एवं कुशासन की बुराई को बढ़ावा देता है।
Question : महिला सशक्तीकरण की संकल्पना
(2006)
Answer : महिलाओं के सशक्तिकरण का अर्थ है- उनके (महिलाओं के) निर्णय लेने की क्षमता का विकास। राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक सभी क्षेत्रों में महिलाओं की समान भागीदारी व इनसे संबंधित सभी पहलुओं पर आत्म निर्णय लेने की क्षमता। वर्तमान में महिलाओं का स्व-विकास उनके सशक्तिकरण को इंगित करता है। स्त्रियों का सशक्तिकरण उन्हें नये क्षितिज दिखाने का प्रयास है, जिसमें वे नई क्षमताओं को प्राप्त कर स्वयं को नए तरीके से देखेंगी। महिला सशक्तिकरण का मुख्य पक्ष स्त्रियों के अस्तित्व का अधिकार और समाज द्वारा उसकी स्वीकार्यता है। महिलाओं द्वारा स्वयं के शरीर पर, प्रजनन के क्षेत्र में, आय पर, श्रम शक्ति पर, सम्पति पर, व सामुदायिक संसाधनों पर नियंत्रण कर पाना उनका सबलीकरण है और यही सशक्तिकरण का उद्देश्य है।
सशक्तिकरण एक लक्ष्य है और संपोषित विकास की आवश्यक दशा भी है। स्त्रियों का सामाजिक, राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में प्रतिनिधित्व दक्षता में अभिवृद्धि कार्य क्षेत्र और अन्यत्र उनके साथ किए जा रहे बुरे व्यवहार की समाप्ति, सामाजिक सुरक्षा की प्राप्ति आदि वे कार्य हैं, जिनकी पूर्णता द्वारा सशक्तिकरण का वास्तविक लक्ष्य पाना संभव है। 1948 के सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा पत्र से प्रारंभ ये प्रयास 2001 में अंतर्राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में हमारे सामने आये हैं। महिला सम्मेलन, विचार गोष्ठियों, भाषणों, राष्ट्रीय सेमिनार आदि के द्वारा जारी प्रावधानों से जागृति लायी जा रही है। किंतु यह विचार करने योग्य है कि 1920 में असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली महिलायें, एकजुटता से शराबबंदी जैसे कार्य को सफल बनाने वाली महिलाएं, जिन्होंने जेलों में अत्याचार भी सहे, वे अशक्त, अबला व कमजोर कैसे बन गयीं? गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था ‘नारी को अबला कहना अधर्म है। यह महापाप है, जो नारी के विरुद्ध पुरुष द्वारा किया जा रहा है।’ जनसंख्या का गणित और विविध क्षेत्रों में महिलाओं की समग्र भूमिका उन्हें बराबरी का हकदार बनाती है, किंतु यह बिडम्बनापूर्ण है कि समाज में उसे आज भी दोयम दर्जा प्राप्त है। स्त्रियां दोहरी मानसिकता की जकड़न में छटपटा रही हैं। जिस सामाजिक वातावरण में स्त्री अपना जीवन शिशु, कन्यारूप, पत्नी, मां के रूप में व्यतीत करती है, वह उसे साथ-साथ गमन कर रही प्रतिकूल दशाएं प्रदान करता है। भारतीय समाज में विद्यमान गैर बराबरी की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें एकाएक उखाड़ पाना संभव नहीं है। स्त्री-पुरुष के प्राणि शास्त्रीय विभेदों को सामाजिक असमानता में परिवर्तित करने की प्रक्रिया केवल पुरुष प्रधान समाज की राजनीतिक जोड़-तोड़ का परिणाम है।