Question : राष्ट्रीय राजनीति के अस्थायित्व का कारण प्रादेशिक राजनीति का उदीयमान प्रभाव है।
(2007)
Answer : भारत जैसे विशाल देश में केन्द्रीयकरण की सफलता की संभावनायें कम हैं। विभिन्न क्षेत्रों की समस्यायें, रहन-सहन के ढंग, सामाजिक मान्यताएं और भौगोलिक यथार्थ इस बात को अनिवार्य बना देते हैं कि उनके साथ अलग-अलग ढंग से विचार किया जाये।
यद्यपि भारतीय संविधान में संघ शासन के रूप को स्वीकारा गया, फिर भी मजबूत केंद्र की कल्पना की गई थी। यह बात मान ली गयी थी कि केंद्र व राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बन सकती हैं और रह सकती हैं। उनमें सांविधानिक प्रश्नों पर यदि विवाद हो तो उसके लिये सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार दिया गया। फिर भी केंद्र तथा राज्यों में विवादों के ऐसे मुद्दे आये जिससे राज्य स्तरीय दलों की स्थापना हुई। द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के शक्ति संचय का कारण केंद्र और राज्य में हिंदी भाषा को लेकर विवाद रहे। अकाली दल की शक्ति का आधार ‘राज्यों को अधिक स्वायत्तता दी जाने की मांग थी। नेशनल कांफ्रेस की शक्ति का आधार कश्मीर का पृथक स्वायत दर्जा बनाये रखने की मांग रही, तेलगूदेशम के अभ्युदय का कारण आंध्र प्रदेश में केंद्र द्वारा हर तीसरे महीने मुख्यमंत्री बदलने की प्रवृत्ति रहा। एक बार सत्ता में आने के बाद सभी प्रादेशिक दलों ने केंद्र विरोधी रूख अपनाया और केंद्र-राज्य विवादों को जन्म दिया। प्रायः राज्यस्तरीय दलों को भी भूमिका को नकारात्मक दृष्टिकोण से देखने की हमारी आदत रही है और यह कह दिया जाता है कि राज्य स्तरीय प्रादेशिक दल राष्ट्रीय अखंडता के विरूद्ध हैं। राज्य दलों से राष्ट्रीय एकता कमजोर होती है और केंद्र-राज्य तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है।
भारतीय संघ व्यवस्था में राज्य स्तरीय दलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। और उनकी सकारात्मक भूमिका की तर्कसंगत व्याख्या की जानी चाहिए। यह धारणा गलत साबित हुई है कि राज्य स्तरीय दलों के सत्ता में आने से राष्ट्रीय अखण्डता भंग हुई है। यदि ऐसा होता तो तथाकथित राष्ट्रीय दल काग्रेंस, डीएमके, अन्ना डीएमके, अकाली दल, नेशनल काफ्रेंस जैसे प्रादेशिक दलों से समय-समय पर गठबंधन न करती। राज्य स्तरीय दलों के अस्तित्व के कारण ही भारतीय संविधान के संघात्मक प्रावधानों के क्रियान्वयन का सफल परीक्षण हुआ है, केंद्र की एकदलीय सरकार की निरकुंशता पर अवरोध लगाने का रचनात्मक कार्य सम्पन्न हुआ है।
Question : समाजवाद पर नेहरू के विचार।
(2007)
Answer : नेहरू पर समाजवादी विचारधारा का प्रभाव उनके 1926-27 की रूस यात्रा से ही दृढ़ हो गया था। वे रूस द्वारा प्राप्त आर्थिक विकास से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) के अध्यक्षीय भाषण में समाजवादी दर्शन के विश्वव्यापी सामाजिक प्रभाव को व्यक्त किया। उन्होंने भारत की दरिद्रता तथा आर्थिक विषमता के निवारण के लिए समाजवादी पद्धति को अनुकरणीय माना। उन्होंने Glimpses of world history में ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के अध्ययन में मार्क्स की शब्दावली का भी प्रयोग किया। यद्यपि वे मार्क्स की विचारधारा के सभी तथ्यों से प्रभावित नहीं थे, विशेषतया वर्ग-संघर्ष के विचार को स्वीकार नहीं करते थे। फिर भी उनके मन में पूंजीपतियों द्वारा साधनहीन कृषकों एवे श्रमिकों के शोषण के प्रति गहरा क्षोभ था। वे इस आर्थिक शोषण को समाजवादी प्रक्रिया से समाप्त करना चाहते थे। वे भारत में नये आर्थिक समाज की स्थापना करने के लिये परिवर्तन एवं विकास का मार्ग अपनाना चाहते थे, किंतु यह परिवर्तन शक्ति के द्वारा लाने का विचार उनका नहीं था। वे शांतिपूर्ण उपायों से सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन चाहते थे। वे भारत में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिये लोकतंत्र को अनिवार्य शर्त मानते थे। वे जनता को जाग्रत कर उसमें समाजवाद के प्रति निश्चित लोकमत का संचार करना चाहते थे, ताकि परिवर्तन की प्रक्रिया क्रमिक तथा स्वाभावितः रूप से पूर्ण हो सके।
समाजवाद को गति प्रदान करने के लिये नेहरू ने भारत की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र को अत्यधिक महत्त्व दिया। उत्पादन के प्रमुख स्रोत्रों का सार्वजनिक क्षेत्र में होना स्वतः सार्वजनिक स्वामित्व में वृद्धि करते हुये देशव्यापी औद्योगीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम होगा। वे भारत की दरिद्रता का निवारण मिश्रित अर्थव्यवस्था में ढूंढ़ रहे थे। वे योजनाबद्ध विकास के द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से इस कार्य में जुट गये। यद्यपि आज भी देश में समाजवादी समाज की स्थापना का उद्देश्य पूर्णतया संपादित नहीं हो पाया है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि नेहरू ने जिस समाजवादी व्यवस्था का सृजन करना चाहा, वह स्थापित नहीं हो पायी।
Question : सामाजिक न्याय की अम्बेडकर की संकल्पना
(2006)
Answer : सामाजिक न्याय की अम्बेडकर की संकल्पना स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांत पर आधारित है। उनके शब्दों में, ‘मेरे जीवन के आधारभूत तीन तत्व हैं- स्वतंत्रता, समता और बंधुता। इन तत्वों के बीज फ्रेंच राज्य- क्रांति में न होकर बौद्ध धर्म में हैं। यद्यपि संविधान ने इन तत्वों का समावेश राजनीति में किया है, तथापि समाज-जीवन में उन पर अमल करने की बहुत जरूरत है।’ वे सामाजिक न्याय के विकास में सबसे बड़ी बाधा जाति-व्यवस्था (वर्णव्यवस्था) को मानते थे, जिसका अनुभव उन्होंने अपने जीवन में किया था। उनका स्पष्ट मानना था कि जबतक जातिवाद समाप्त नहीं होगा, तबतक सामाजिक न्याय कोसों दूर है।
उन्होंने सामाजिक न्याय लाने के लिए जातिवाद के पूर्ण उन्मूलन की चर्चा 'Annihilation of Caste' में की है। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार जो समाज समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित है, वही समाज सामाजिक न्याय को पा सकता है। उन्होंने सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए जातिवाद के खात्मे पर जोर दिया, जोकि उनके अनुसार इस प्रकार हो सकता है-
उनका मानना था कि जब तक लोग रक्त की शुद्धता का दावा करते रहेंगे, तब तक ऊंच-नीच का भेद खत्म नहीं होगा। अतः उनके अनुसार, अंतर्विवाह ही जातिवाद की समस्या का मूल समाधान है। उन्होंने मनुस्मृति को इसलिए जलाया कि यह ग्रंथ सामाजिक अन्याय को बढ़ावा देता है। वे भगवान बुद्ध को अपना गुरु मानते थे, जिनका उपदेश सामाजिक न्याय पर आधारित है। उन्होंने सामाजिक न्याय प्राप्त करने के तरीके भी बताए। उनका कहना था- शिक्षित बनो, संगठित होओ और संघर्ष करो। उनका कहना था कि सामाजिक न्याय के बिना समाज का समग्र विकास असंभव है। उनका स्पष्ट कहना है कि जब तक समाज स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के आदर्श को मूल रूप से क्रियांवित नहीं कर लेता है, तब तक सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव है।