Question : सगुण तथा निर्गुण ब्रह्म में भेद का विवरण दीजिए और चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रतिपाद्य विषय ब्रह्म की एकमात्र सत्ता की स्वीकृति है। यहां ब्रह्म की धारणा सीधे उपनिषदों से ली गयी है। अद्वैतवाद की तत्वमीमांसा में ब्रह्म ही एकमात्र सत् है, जगत मिथ्या है और जीव भी परमार्थतः ब्रह्म है, ब्रह्म से अभिन्न नहीं। अद्वैतवाद में ब्रह्म के दो रूप माने जाते हैं- निर्गुण एवं सगुण। शंकर के अनुसार ब्रह्म पारमार्थिक दृष्टि से निर्गुण है। ब्रह्म को निर्गुण कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि वह शून्य है। इसका तात्पर्य केवल यह है कि बुद्धि द्वारा कल्पित कोई भी रूप उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है। बुद्धि द्वारा निर्मित कोई भी अवधारणा उस पर लागू नहीं होती। जगत के कारण की दृष्टि से ब्रह्म सगुण है। वह इस अर्थ में माया से संयुक्त है और ईश्वर कहलाता है। जगत की अपेक्षा से, व्यावहारिक दृष्टि से वह ईश्वर या सगुण ब्रह्म है।
उल्लेखनीय है कि अद्वैत वेदान्त पारमार्थिक स्तर पर ब्रह्म के सगुण रूप को अस्वीकार करता है। जीव और जगत के साथ सगुण ब्रह्म के सम्बन्ध की तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती। इस प्रकार सगुण ब्रह्म की धारणा अध्यासगर्भित है और ईश्वर की तरह अन्तिम नहीं है। यद्यपि सगुण ब्रह्म का आदर्श दर्शन का अन्तिम तत्व होने के लिए अपर्याप्त है, तथापि वह मूल्यहीन नहीं है। उसकी व्यावहारिक उपयोगिता है। यह हमें एक नैतिक आदर्श प्रदान करता है। साधक इसका अनुसरण करके वह नैतिक योग्यता प्राप्त कर सकता है जो मोक्ष प्राप्ति के लिए अपरिहार्य है। उल्लेखनीय है कि निर्गुण सगुण ब्रह्म का व्याघाती नहीं है, बल्कि उसका अन्तस्थ है साथ है। पुनः सगुण ब्रह्म और व्याघाती नहीं है, बल्कि उसका अन्तस्थ है, साथ है। पुनः सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म दोनों एक ही हैं। सगुण ब्रह्म या ईश्वर निर्गुण ब्रह्म का ही प्रतिरूप है। वह जगत की अपेक्षा से सगुण है, किन्तु निरपेक्ष रूप से वह निर्गुण है, पर ब्रह्म है।
ब्रह्म का सगुण एवं सविशेष रूप ईश्वर है। ईश्वर माया की उपाधि से युक्त ब्रह्म है। माया में प्रतिबिम्बित या माया से सीमित ब्रह्म ईश्वर है। इस प्रकार ईश्वर मायोपहित ब्रह्म है। यह ब्रह्म का सर्वोच्च आभास है। यह व्यक्तित्व युक्त सर्वगुण सम्पन्न है। वह सृष्टिकर्ता, पालक एवं संहारक है। वह सच्चिदानंद है। ईश्वर जगत का कारण है, किन्तु वह जगत के दोषों से वैसे ही प्रभावित रहता है, जैसे जादूगर अपने जादू से अप्रभावित रहता है। ईश्वर स्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिामन एवं विभु है। ईश्वर आराध्य एवं उपास्य है। जीव को ईश्वर का अंश कहा जाता है। शंकराचार्य के अुनसार जीव का अंशत्व वास्तविक नहीं है, अविद्याजन्य प्रतीतिमात्र है, क्योंकि ईश्वर वस्तुतः निरवयव है। ईश्वर सृष्टि में अन्तर्यामी एवं विश्वातीत है। कुछ विद्वान ब्रह्म एवं ईश्वर में भेद करते हैं। वे दोनों में निम्नलिखित भेदों की ओर संकेत करते हैं- ब्रह्म निर्गुण है, निर्विशेष और निराकार है, किन्तु ईश्वर सगुण, सविशेष और साकार है। ब्रह्म व्यक्तित्वशून्य है, किन्तु ईश्वर व्यक्तित्वयुक्त है। ईश्वर सृष्टिकर्ता, पालक एवं संहारक है, किन्तु ब्रह्म उपरोक्त गुणों से रहित है। ब्रह्म सत्य है, किन्तु ईश्वर असत्य है, आदि। किन्तु ब्रह्म एवं ईश्वर दो सतायें नहीं है। ब्रह्म एवं ईश्वर इन दो नामों के व्यवहार से उन्हें दो पृथक सतायें नहीं समझना चाहिए। वास्तव में व्यवाहारिक दृष्टि से जिसे ईश्वर कहते हैं, वही पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म है। वस्तुतः ईश्वर निर्वैयक्तिक ब्रह्म का व्यक्तित्वयुक्त रूप है। वह ब्रह्म का सर्वोच्च आभास है। यद्यपि परमार्थतः ब्रह्म एवं ईश्वर में कोई भेद नहीं है, तथापि अद्वैत वेदान्त में ईश्वर की धारणा की अत्यंत उपयोगिता है।
ईश्वर निम्नतम दृष्टिकोण है और ब्रह्म उच्चतर। हम ईश्वर से होकर ही ब्रह्म तक पहुंच सकते हैं। हम निचली सीढ़ी से होते हुए ही उपर तक जा सकते हैं। अद्वैत वेदान्त का विश्वास है कि जब जीव को जगत की अपूर्णता का बोध्य होता है, तब वह उसके आधारभूत तत्व की खोज के प्रयास में ईश्वर को खोज निकालता है और ईश्वर उसका आराध्य एवं उपास्य हो जाता है। जब विचार उससे भी आगे बढ़ता है, तब वह जगत के सहारे जिस ईश्वर तक पहुंचा था नहीं एकमात्र सत्ता सिद्ध होता है और जगत आभासमात्र ही रह जाता है। यही ब्रह्म है। इस प्रकार ब्रह्म एवं ईश्वर एक ही सत्ता को देखने की दो दृष्टियां हैं। शंकर ने अनुसार ईश्वर की सिद्धि श्रुतिवाक्यों से होती है, अनुमान या तर्क द्वारा नहीं। उन्होंने अन्यान्य भारतीय दार्शनिकों द्वारा ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने के लिए दी गयी युक्तियों का खण्डन किया। उसके अनुसार ईश्वर को सृष्टि का निमितकारण मानने वाली विचारधारायें ईश्वर को सिमित कर देती हैं, क्योंकि उसे सृष्टि विषयक सामग्री के लिए पर निर्भर होना पड़ता है। एक पर-निर्भर ईश्वर सृष्टि कर्ता, सर्वशक्तिमान एवं निरपेक्ष नहीं हो सकता। इसी प्रकार उन्होंने ईश्वरपरिणामवाद को भी अस्वीकार करके ब्रह्म या ईश्वर को जगत का अभिनिमितोपादान कारण स्वीकार किया तथा जगत को ईश्वर का विवर्त माना। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य दर्शन के भी अधिकांश विचारक ईश्वर की सत्ता के लिए युक्तियों को अपर्याप्त मानते हैं। लोत्जे का कथन है कि जब तक हम ईश्वर में विश्वास को लेकर आगे नहीं बढ़ते, तब-तक केवल तर्क से कुछ सिद्ध नहीं होता। कांट ने भी ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने के लिए दी गई युक्तियों को अपर्याप्त दिखाते हुए विश्वास को ईश्वर की सत्ता का आधार बनाया। इसी प्रकार अद्वैत वेदान्त में भी श्रुति ईश्वर की सत्ता का आधार माना गया है। ईश्वर सम्बन्धी कथनों को समझने के लिए शंका, समाधान के द्वारा तत्वार्थ - विवेचन के लिए ही यहां तर्क को आवश्यक माना गया है।
उल्लेखनीय है कि रामानुज के विशिष्टाद्वैत में ब्रह्म को सगुण ब्रह्म या ईश्वर ही माना गया है। रामानुज के अनुसार धार्मिक, ज्ञानमीमांसीय एवं नैतिक दृष्टि से निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा में दोष है। ब्रह्म सगुण ही हो सकता है निर्गुण नहीं। अगर निर्गुण ब्रह्म है भी तो वह न तो हमारे ज्ञान का विषय बन सकता है और न ही किसी धार्मिक व्यक्ति के लिए अभीष्ट हो सकता। अतः शंकर की निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा अनभीष्ट है।
Question : शंकर के मायावाद का परीक्षण कीजिए।
(2006)
Answer : अद्वैत वेदान्त में माया की अवधारणा आधारभूत महत्व रखती है। माया के विचार को अलग करके अद्वैतवाद को नहीं समझा जा सकता। इसलिए अद्वैतवाद को मायावाद भी कहा जाता है। शंकर के अनुसार परमार्थतः ब्रह्म ही एकमात्र सत् है। वह निर्गुण, निर्विशेष, एवं भेदरहित सत्ता है। उससे इतर कोई सत्ता नहीं है। किन्तु सांसारिक जीव कुछ अन्यथा ही अनुभव करता है। उसके अनुभव में जगत का प्रपंच एवं जीवों को विविधता आती है, अर्थात् उसे जगत-जीव प्रपंच की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जगत जीव प्रपंच की वास्तविकता आती है। क्या यह नितान्त असत् है? ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता के साथ जगत-जीव प्रपंच का सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए। अद्वैत वेदान्त इसी गुत्थी को सुलझाने के लिए माया की अवधारणा प्रस्तावित करता है। उसके अनुसार माया या अविद्या के कारण निर्गुण, निर्विशेष, एवं भेदरहित ब्रह्म के स्थान पर प्रपंचात्मक जगत एवं जीवों की विविधता का अनुभव होता है। उल्लेखनीय है कि माया कि अवधारण अर्थायति प्रमाणजन्य है। शंकर ब्रह्म की एक मात्र पारमर्थिक सत्ता और जगत जीव प्रपंच की प्रत्यक्ष अनुभूति इन दो विरुद्ध कोटिक सत्यों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए इनके विरोध को दूर करने के लिए माया या अविद्या की अवधारणा प्रस्तावित करते हैं, क्योंकि इसके अभाव में इसकी व्याख्या नहीं हो पाती। यह भी उल्लेखनीय है कि शंकर ने स्वयं माया एवं अविद्या में कोई भेद नहीं किया है। शंकर के अनुसार माया जड़ है अपनी सत्ता के लिए ब्रह्म पर आश्रित है। यह ब्रह्म की स्वाभाविक शक्ति है जिससे वह जगत को उत्पन्न करता है।यह भावरूप है, सदसद्धिलक्षण एवं अनिवर्चनीय है। परन्तु रामानुज शंकर के माया या अविद्या-विचार पर घोर आपत्ति करते हैं।
रामानुज शंकर के माया सिद्धान्त का खण्डन करते हैं रामानुज शंकर के विपरीत माया (प्रकृत्ति) को ब्रह्म की वास्तविक शक्ति मानते हैं, जिसके द्वारा वह सृष्टि रचना करता है। शंकर के मायावाद के विरुद्ध रामानुज की सात अनुपपत्ति हैं। ये हैं- आश्रयानुपपत्ति, स्वरूपानुपपत्ति अनिवर्चनीयनुपपत्ति, प्रमाणनुपपत्ति, निरोधानुपपत्ति एवं विनवृत्यानुपपत्ति। इसके अन्तर्गत माया के आश्रय, उसके स्वरूप, उसकी अनिवर्चनीयता, उसके अस्तित्व के प्रमाण तथा उसके निवर्तन पर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं, किन्तु शंकर के माया विचार पर रामानुज के आक्षेपों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने पर ज्ञात होता है कि रामानुज के आक्षेप भ्रान्त धारणा पर आधारित है। वे शंकर कृत माया के विचार को समझ नहीं सके। अतः वे शंकर के माया विचार का खण्डन नहीं कर सके।
Question : आचार्य रामानुज की तत्वमीमांसा पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : रामानुज की तत्वमीमांसा में ब्रह्म परमयथार्थता है। इनका ब्रह्म संबंधी विचार विशिष्टाद्वैत कहलाता है। इनके अनुसार ब्रह्म अद्वैत स्वरूप है, क्योंकि वहां न तो सजातीय भेद है और न ही विजातीय भेद है। कहने का आशय है कि न तो ब्रह्म के समरूप कोई अन्य तत्व है और न ब्रह्म से भिन्न, पृथक, स्वतंत्र कोई दूसरा तत्व। अतः ब्रह्म अद्वैत स्वरूप ही है। परन्तु वह चित्त और अचित हसे विशिस्ट है। यहां स्वगत भेद है। चित्त और अचित्त से विशिष्ट ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करने के कारण ही इनका मत विशिष्टाद्वैत कहलाता है। यहां अभेद मुख्य है और भेद गौण है। यहां भेद-अभेद के विशेषण के रूप में है, इसीलिए यह मत भेद-विशिष्ट अभेद या द्वैत विशिष्ट अद्वैत कहा जाता है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत अद्वैत वेदान्त की अति-बौद्धिकता के विरुद्ध भक्ति और भावना के पक्ष में एक सशक्त प्रतिक्रिया है, जिसका उद्देश्य भागवत् धर्म के ईश्वरवाद और उपनिषदों के ब्रह्म की अवधारणा के बीच समन्वय स्थापित करना है। इस क्रम में रामानुज शंकर के निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं, उसे सगुण रूप में स्थापित करते हैं, साथ ही जीव और ब्रह्म के तादात्म्य तथा जगत के मिथ्यात्व का निषेध करते हुए जीवों की यथार्थता और जगत की वास्तविकता को स्वीकार करते हैं। रामानुज निम्न बिन्दुओं पर शंकर के अद्वैत वेदान्त की आलोचना करते हैं-
रामानुज के अनुसार ब्रह्म के दो रूप हैं- (i) कारण ब्रह्म तथा (ii) कार्य ब्रह्म। विश्व की सृष्टि से पूर्व की स्थिति ब्रह्म के कारण रूप को इंगित करती है। इस स्थिति में ईश्वर में चित्त और अचित्त सूक्ष्म रूप में रहते हैं। जब चित्त और अचित्त स्थूल रूप में आकार ग्रहण करते हैं तो यह कार्य ब्रह्म की स्थिति होती है, दूसरे शब्दों में स्थूल चित्त और अचित्त से विशिष्ट ब्रह्म ही इस जगत का कार्य ब्रह्म है। यही कारण है कि रामानुज के दर्शन में ब्रह्म को जगत का निमित्त और उपादान कारण दोनों माना गया है। यहां चित्त और अचित्त दोनों ब्रह्म के ही अंश है और ब्रह्म स्वयं इन अंशों से सृष्टि का निर्माण करता है। चूंकि ब्रह्म सत् है और चित्त एवं अचित इस सत् ब्रह्म के अंश है। अतः उसके अंशों से निर्मित यह जगत भी सत् ब्रह्म के अंश हैं। अतः उसके अंशों से निर्मित यह जगत भी सत् है। उल्लेखनीय है कि शंकर जगत को ब्रह्म का विवर्त मानते हैं (ब्रह्मविवर्तवाद) जबकि रामानुज ब्रह्म के चित्त और अचित्त रूपी सूक्ष्म रूपों के ही स्थूल रूप में वास्तविक रूपान्तरण या परिवर्तन की बात स्वीकार करते हैं (ब्रह्म परिणामवाद)।
रामानुज के अनुसार ब्रह्म में सजातीय एवं विजातीय भेद नहीं है, परन्तु वहां स्वगत भेद है। रामानुज के अनुसार भेद को अभेद का विशेषण स्वीकार किये बिना अभेद या एकत्व को स्थापित नहीं किया जा सकता। ब्रह्म या ईश्वर अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए अपने-आपको पांच रूपों में अभिव्यक्त करते हैं- (i) पर (ii) व्यूह (iii) अवतार (iv) अन्तर्यामी (v) अर्यावतार। ईश्वर या ब्रह्म अन गुणों से युक्त है। यहां उसे प्रधानतः अष्ट ऐश्वर्य से युक्त माना गया है।
रामानुज ब्रह्मजीव सम्बन्ध की व्याख्या के क्रम में भेदवाद, अभेदवाद एवं भेदाभेदवाद को अस्वीकार करते हैं और भेद विशिष्ट अभेद की स्थिति को स्वीकार करते हैं। मवाचार्य के भेदवाद में जीव और ब्रह्म में भेद माना जाता है। इनके भेदवाद के अनुसार जीव और ब्रह्म पृथक अस्तित्व रखते हैं। रामानुज का कहना है कि भेदवाद को मानने पर विश्व की एकता की व्याख्या नहीं हो पाएगी। शंकराचार्य अभेदवाद को मानते हैं। जीव ब्रह्म से पृथक नहीं है, जीव ब्रह्म ही है। दोनों में अभेद या तादात्म्य सम्बन्ध है। रामानुज के अनुसार इसे मानने पर विविधता की व्याख्या नहीं हो पाएगी। निम्बकाचार्य के अनुसार ब्रह्म और जीव में भेद और अभेद दोनों हैं।
रामानुज के अनुसार भेद और अभेद समान स्तर पर स्वीकार करने का विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वस्तुतः ब्रह्म और जीव में भेद विशिष्ट अभेद की स्थिति है, अर्थात् अभेद भेद से युक्त है। इस सम्बन्ध में रामानुज का सिद्धान्त अपृथक सिद्धि सम्बन्ध कहलाता है। यह सम्बन्ध संयोग एवं समन्वय सम्बन्ध से भिन्न है। संयोग सम्बन्ध एक बाह्य सम्बन्ध है जो क्षणिक एवं पृथक्करणीय होता है, जबकि अपृथक सिद्धि सम्बन्ध आन्तरिक एवं अनिवार्य सम्बन्ध है। ब्रह्म और जीव में समवाय सम्बन्ध भी नहीं माना जा सकता। समवय दो वस्तुओं का अयुतसिद्ध सम्बन्ध है। रामानुज के अनुसार समवाय सम्बन्ध अनावस्था दोष से ग्रसित है। उनके अनुसार यदि दो तत्वों के सम्बन्ध के लिए तीसरा तत्व अर्थात समवाय आवश्यक है तो फिर उस समवाय रूपी तत्व और अन्य तत्वों के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करने के लिए किसी अन्य समवाय की कल्पना करनी पड़ेगी और इस प्रकार हम अनवस्था दोष में पड़ जायेंगे। अतः ब्रह्म जीव सम्बन्ध को समवाय सम्बन्ध भी नहीं कहा जा सकता। रामानुज के अनुसार ब्रह्म और जीव में अपृथक सिद्धि सम्बन्ध है। यह एक आन्तरिक सम्बन्ध है, वास्तविक सम्बन्ध है। इसे कभी पृथक नहीं किया जा सकता। स्पष्ट है कि यह एक विशिष्ट प्रकार का सम्बन्ध है।
इस प्रकार रामानुज की तत्व मीमांसा में जीव और जगत की वास्तविक सत्ता है, यद्यपि कि वे अपने अस्तित्व के लिए ब्रह्म या ईश्वर पर आश्रित है, साथ ही रामानुज का ब्रह्म ही ईश्वर है और यह सगुण ब्रह्म है।Question : माध्व के अनुसार ‘ब्रह्म’ जीव और जगत की प्रकृति।
(2005)
Answer : माध्वाचार्य की द्वैतवादी तत्वमीमांसा में ब्रह्म की एकमात्र स्वतंत्र तत्व है। उनके यथार्थवादी द्वैतवाद तत्वमीमांसा में ब्रह्म और ईश्वर एक ही तत्व हैं। ब्रह्म ही नारायण, दृष्टि, ईश्वर, परमेश्वर, वासुदेव, परमात्मा और विष्णु आदि नामों से जाना जाता है। पुनः ब्रह्म के साथ जीव और जगत की भी पारमार्थिक सत्ताहै। इस प्रकार माहवाचार्य ईश्वर के साथ जीव एवं जगत को भी अन्तिम सत्ता को स्वीकार करके शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं रामानुज के विशिष्टाद्वैत को अस्वीकार करते हैं। उनके अनुसार ईश्वर, जीव एवं प्रकृति ये परस्पर भिन्न तत्व हैं और अपनी-अपनी सत्ता रखते हैं क्योंकि ये अनुभव का विषय बनते हैं और जो भी अनुभव का विषय बनते हैं उसकी सत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वे शंकर के अद्वैतवाद के विरोध में कहते हैं कि ईश्वर, जीव एवं प्रकृति में किसी एक में अन्य का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता और बहुत्व या नानात्व को मिथ्या भी नहीं कहा जा सकता। माध्व के अनुसार जो स्वरूपतः भिन्न होता है। वह भिन्न नहीं हो सकता। ब्रह्म जीव और प्रकृति स्वरूपतः भिन्न हैं, अतः इनमें अभेद सम्बन्ध नहीं हो सकता।
माध्वाचार्य अपने द्वैतवादी तत्वमीमांसीय ढ़ांचे में जगत का विवेचन करते हैं और जगत की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते हैं। वे इस संदर्भ में जहां शंकर के अद्वैतवादी विचार का खण्डन करते हैं, वही विशिष्टद्वैतवाद को भी असंतोष जनक बताते हैं। वे जगत विषयक शंकराचार्य की माया वादी अवधारणा को श्रुतिबाह्य घोषित करते हैं। माध्वाचार्य सत् का लक्षण बताते हैं और उसी के आधार पर जगत की वास्तविकता का प्रतिपादन करते हैं। माध्वाचार्य के अनुसार जो अनुभव (प्रतीत) का विषय है वह सत् है। अतः प्रत्यक्ष अनुभव में आनेवाली वस्तु को सत् समझना चाहिए। इसके आधार पर वे कहते हैं कि जगत् सत है क्योंकि वह अनुभव में आता है, प्रतीति का विषय बनता है। इस प्रकार जिसका प्रत्यक्ष होता है। उसकी सत्ता का अपलाप नहीं किया जा सकता। अतः जगत की वास्तविक सत्ता है। वे अर्थक्रियाकारित्व को भी सत् का लक्षण मानते हैं। यह जगत सत है, क्योंकि जागतिक पदार्थों में अर्थक्रियाकारित्व दिखाई देता है। माध्वाचार्य ईश्वर को जगत का केवल निमित्त कारण मानते हैं। प्रकृत्ति जो जड़ नित्य एवं परिणामी है, जगत का उपादन कारण है।
माधव के द्वैतवादी विचारधारा में जीव एक अस्वतंत्र तत्व है यह ब्रह्म एवं प्रकृति से स्वरूपतः भिन्न है। वे ब्रह्म एवं जीव के स्वभाव भेद का प्रतिपादन करके अद्वैतवाद के जीवों ब्रह्मैव या ब्रह्म-जीवैकत्व के विचार को अस्वीकार करते हैं। उनका जीव विचार वैष्णव मत के अनुकूल है। माध्वाचार्य जीव के स्वरूप का वर्णन करते हुए बताते हैं कि जीव वह है जो इस जीवन में सुख एवं दुःख का अनुभव करता है, जो बन्धन और मोक्ष का पात्र है जो प्रत्येक अनुभव में मै हूं इस ज्ञान को साक्षी है। इस प्रकार जीव कर्ता एवं भोक्ता है, अनुभवों का केन्द्र है। जीव को कर्त्तव्य एवं भोक्तृत्व ईश्वर की कृपा से मिलता है। तात्पर्य यह है कि जीव कर्ता ज्ञाता एवं भोक्ता है, किन्तु ईश्वर द्वारा नियम्य है। वह बन्धन एवं मोक्ष का विषय है। जीव एक स्वसंवेध सत्ता है। जीव सुख-दुख का अनुभव करने के करने के कारण ईश्वर से भिन्न है। तथापि वह ईश्वर का अंश है। माध्वाचार्य की मान्यता है कि जीव अणु परिणाम है, किन्तु वह अपने ज्ञान गुण से विभु-परिणाम है। जिस प्रकार चन्दन में सुगन्ध का गुण और दीपक में प्रकाश का गुण है, उसी प्रकार जीव में ज्ञान गुण है। जीव की दो उपाधियां हैं- स्वरूपोपाधि एवं बाह्य उपाधि। स्वरूपोपाधि जीव से अलग नहीं है। यह जीव की विशिष्टता है और ईश्वर से उसके भेद का कारण है। जीव की बाह्य उपाधियां हैं- सूक्ष्म शरीर तथा स्थूल शरीर, मानस तत्व आदि। ये उपाधियों कर्त्तजन्य है और मुक्तावस्था में नहीं होती हैं। वस्तुतः माध्व का जीव विचार उनकी भेद दृष्टि पर आधारित है। उन्होंने इसे तर्कों से सिद्ध करने का प्रयास किया है। किन्तु भेद व्यवहार में सत् हो सकता है। परमार्थ सत्नहीं हो सकता। उनका जीव विचार एक दार्शनिक एवं बौद्धिक व्यक्ति को कभी भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता। क्योंकि दर्शन भेदों के बीच अभेद खोजने का प्रयास किया है।
Question : शंकर की ‘अध्यास’ की संकल्पना को सुष्पष्ट कीजिए।
(2005)
Answer : शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्रभाष्य के प्रारंभ में ‘अध्यास’ के प्रत्यय का विस्तृत विवेचन किया है। इसमें शंकराचार्य हमारे अनुभव और व्यवहार का विश्लेषण करते हैं। वास्तव में अध्यास विद्धांत अद्वैत वेदान्त की तार्किक कुंज्जी है। शंकर का कथन है कि शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा और प्रपंचात्मक जगत तथा शरीर (अचेतन बाह्य पदार्थ) प्रकाश और अंधकार की भांति परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाले हैं और उनके गुण भी परस्पर विरुद्ध हैं। इनके गुणों का परस्पर आरोप नहीं होना चाहिए। किन्तु लोक व्यवहार में हमें इनके तादात्म्य (इतरेतरापत्रि) दिखाई देता है, अर्थात् चैतन्यस्वरूप आत्मा में विषयरूप जगत् और उसके धर्मों का परस्पर आरोप दिखाई देता है। अर्थात् चैतन्यस्वरूप आत्मा में विषयरूप जगत और उसके धर्मों का परस्पर आरोप दिखाई देता है। जिसके कारण ‘मैं यह हूं’ और ‘यह मेरा है’, ऐसा लोक व्यवहार अनादिकाल से चला आ रहा है। इस प्रकार सम्पूर्ण लोक व्यवहार सत्य और असत्य के मिथुनीकरण (मिश्रण) पर निर्भर है। आत्म और अनात्म का यह तादात्म्य शंकराचार्य की दृष्टि में अध्यास है और यह मिथ्या है।
अद्वैतवेदान्त की दृष्टि में स्मृतिरूप पूर्वदृष्ट वस्तु की अन्य वस्तु में प्रतीत अध्यास है। जैसे पहले देखे गए स्मृतरूप सर्प की रस्सी में प्रतीत अध्यास है। शंकर प्रदत्त अध्यास की परिभाषा में आये चारों पदों का अर्थ अलग-अलग है। पूर्व दृष्टि का अर्थ है, पहले देखी हुई वस्तु। जैसे जब रस्सी में सर्प का अनुभव होता है, तब सर्प अतीत में देखी गयी वस्तु है जो वर्तमान समय में संस्कार रूप में मन में विद्यमान है। स्मृतिरूपः का अर्थ है, स्मर्यमाण के सदृश। यह स्मृति तो नहीं, किन्तु स्मृति के समान रूप वाला है। जिस प्रकार स्मृति संस्कारजन्य है, उसी प्रकार यह प्रतीति भी संस्कार जन्य है। परख का अर्थ है, ‘दूसरी वस्तु में’। यह अधिष्ठान है जो वर्तमान समय में उपस्थित है। जैसे रस्सी में सर्प की प्रतीति होने के कारण यह (रस्सी) परख है। अवभासः का अर्थ है, बाधित होने योग्य। यह वह प्रतीति है जो कालान्तर में अधिष्ठान के ज्ञान से बाधित होती है। जैसे, रस्सी में सर्प की प्रतीति कालान्तर में रज्जु ज्ञान से बाधित होती है।
अर्थात् किसी स्मृतरूप वस्तु की किसी अन्य वस्तु में, जहां वह उपस्थित नहीं है, प्रतीति जो कालान्तर में अधिष्ठान के ज्ञान से बाधित होती है, अध्यास है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार ‘अतत् में तत् का अनुभव अध्यास है’। अर्थात् जहां जो वस्तु नहीं है, वहां उस वस्तु का बोध अध्यास है। जैसे, सूक्तिका का, जो रजत नहीं है, रजत के रूप में ज्ञान होना अध्यास है। शंकर अध्यास की एक अन्य परिभाषा भी देते हैं। इसके अनुसार अन्य में अन्य धर्म की प्रतीति को अध्यास कहते हैं। इस विवेचन के आधार पर अध्यास में तीन घटक दिखाई देते हैं। अधिष्ठान, अध्यस्त वस्तु और आरोप या तादात्म्य की क्रिया। अध्यास का अधिष्ठान वह वस्तु है जो अध्यास-काल में उपस्थित है और जिस पर किसी अन्य वस्तु का आरोप किया जाता है। जैसे, शुक्ति-रजत के ज्ञान में ‘शुक्ति’ अधिष्ठान है। अध्यस्त वह वस्तु है जिसका अधिष्ठान पर आरोप किया जाता है। यह ऐसी वस्तु है जिसका अतीत में कभी अनुभव हुआ होता है। यह अतीत अनुभव के विषय के रूप में भले ही सत् है, किन्तु अध्यास-काल में अनुपस्थित होने के कारण असत् होती है। अध्यास का तृतीय घटक है, आरोप। आरोप के अभाव में केवल अधिष्ठान और अध्यस्त वस्तु अध्यास नहीं है। यह अध्यास तब कहलायेगा जब अधिस्ठान में अध्यस्त का आरोप होगा या अधिष्ठान एवं अध्यस्त में तादात्म्य होगा। शंकर अध्यास सिद्धान्त के आधार पर यह प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं कि चिदात्मरूप अधिष्ठान (ब्रह्म) में यह प्रपंचात्मक जगत स्वरूपतः अध्यस्त है। अर्थात् ब्रह्म में जगत का अध्यास स्वरूपाध्यास है क्योंकि अज्ञान के कारण ब्रह्म के स्थान पर जगत का अनुभव होता है, यद्यपि ब्रह्म में जगत नहीं है। पुनः चिदात्मा ब्रह्म का प्रपंचात्मक जगत के साथ मंमर्गाध्यास है, क्योंकि नेह नानास्ति किंचन, सर्व खल्विद ब्रह्म इत्यादि श्रुतियों से ब्रह्म का संसर्गमात्र ही बाधित होता है। इस प्रकार स्वरूपाध्यास एवं संसर्गाध्यास-भेद से अध्यास के दो भेद हैं।
शंकराचार्य का कथन है कि अध्यास का कारण अविद्या है, अर्थात् अविद्या के कारण ही किसी अधिष्ठान में अध्यस्त वस्तु का आरोप होता है। अध्यास के अविधाजन्य होने के कारण अध्यसत के गुण-दोष का अणुमात्र भी प्रभाव अधिष्ठान पर नहीं पड़ता। अर्थात् जब कोई व्यक्ति अविद्या के कारण रस्सी में सर्प का ज्ञान प्राप्त करना है तब सर्पत्व का कोई भी प्रभाव रस्सी पर नहीं पड़ता। अध्यास के कारण रस्सी वस्तुतः सर्प नहीं बन जाती, वह केवल सर्प प्रतीत होती है। कालान्तर में रस्सी का रस्सी रूप में ज्ञान होने पर भी रस्सी में कोई परिवर्तन नहीं आता, केवल सर्पज्ञान बाधित होता है। पुनः शंकर के अनुसार अध्यस्त वस्तु (सर्प) मिथ्या है। सर्प सत् नहीं है, क्योंकि वह रस्सी (अधिस्ठान) में ज्ञान से बाधित होता है। वह असत् भी नहीं है, क्योंकि भ्रमकाल में उसकी प्रतीति होती है। इस प्रकार सदसद्विलक्षण होने के कारण अनिर्वचनीय है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अध्यास में किसी प्रत्यक्ष विषय में अध्यस्त पदार्थ का आरोप होता है। पुनः आत्मा का विषय नहीं है, अतः कैसे उसमें अनात्म पदार्थों का अध्यास होता है? यह प्रश्न उठना स्वभाविक है। शंकराचार्य का कथन है कि यह कोई सार्वभौम नियम नहीं है कि किसी प्रत्यक्ष विषय में ही अध्यस्त पदार्थ का आरोप हो। अर्थात् अप्रत्यक्ष पदार्थ में भी किसी अन्य पदार्थ का आरोप हो सकता है, क्योंकि अज्ञानी लोग अप्रत्यक्ष आकाश में भी मलिनता आदि दोषों का आरोप करते हैं। पुनः एक अर्थ में आत्मा अहं प्रत्यय का विषय है, क्योंकि प्रत्यात्मा का ज्ञान अपरोक्ष है। परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि आत्मा विषयी न होकर विषय है। अतः उस पर अनात्य विषयों का आरोप अस्वाभाविक नहीं है। इस प्रकार अध्यास मिथ्या ज्ञान, सत्य और असत्य का मिथुनीकरण है और अविद्याजन्य है। शंकर के अनुसार जीव इस अविद्या के कारण अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर अपने उपर अनात्म पदार्थों और उनके धर्मों को आरोपित करता है अर्थात् वह पुत्र, स्त्री, मित्र, शरीर, इन्द्रिय, अन्तःकरण और इनके धर्मों से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वह अपने कर्त्ता एवं भोक्ता, जो वह वास्तव में नहीं है, समझ लेता है तथा नानाविधि दुखों का भोग करता है। यह अनादि नैसर्गिक मिथ्याज्ञानरूप अध्यास सभी अनर्थों की जड़ है।
Question : माधव की ‘मोक्ष’ की संकल्पना।
(2004)
Answer : अन्यान्य भारतीय दर्शनों की भांति माधव दर्शन में भी बन्धन और मोक्ष की समाया जीव से सम्बन्धित है। उल्लेखनीय है कि माधव वेदान्त में जीव एक अस्वतंत्र तत्व है। उसका कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व ईश्वर प्रदत्त है। वह अपनी सत्ता के लिए ईश्वर पर निर्भर है। यद्यपि वह एक नित्य तत्व है। पुनः माधव दर्शन बन्धन और मोक्ष को भी ईश्वर का कार्य मानता है। यह दह वेदांत दर्शन जीव के केवल जीव के अज्ञान या कर्म से ही नहीं होता। उनकी मान्यता है कि कर्म आदि स्वतः अचेतन है और कोई चेतन की सत्ता ही उन्हें क्रियान्वित कर सकती है। तात्पर्य यह है कि ईश्वर इच्छा से ही कर्म आदि बन्धनकारी होते हैं। माध्वाचार्य का कथन है कि अनादि अविद्या के कारण जीव अपना स्वरूप भूल जाता है। वह अपने को स्वतंत्र समझ लेता है और उसमें मिथ्या कर्तृत्व की धारणा उत्पन्न होती है। तात्पर्य यह है कि अविद्या के कारण जीव की स्वतंत्रता की भावना एवं कर्तृत्व की मिथ्या धारणा उसे बन्धन की ओर ले जाती है और ईश्वर की इच्छा से वह बन्धनग्रस्त होता है तथा सांसारिक दुःखों का अनुभव करता है। माध्वाचार्य की मान्यता है कि बन्धन से छुटकारा पाना ही मोक्ष है। मोक्ष में जीव अपने शुद्ध रूप में अवस्थित हो जाता है। मोक्ष ईश्वर या विष्णु का साक्षात दर्शन है जो ईश्वर की कृपा से मिलता है। वह स्पष्टतः कहते हैं कि ईश्वर की कृपा के बिना मोक्ष सम्भव नहीं है। इस प्रकार मोक्ष भी ईश्वर का कार्य है। ईश्वर की कृपा उसकी भक्त्ति से उत्पन्न होती है। भक्ति ईश्वर के प्रति असीम प्रेम है, जिसे पराभक्ति कहते हैं। महवाचार्य मोक्ष हेतु भक्तिमार्ग का विधान करते हैं। महवाचार्य का कथन है कि नैतिक आचरण इस साधना-पद्धति (भक्तिमार्ग) का महत्वपूर्ण अंग है। नैतिक साधना के लिए मुमुक्षु को 20 प्रकार के गुणों का अभ्यास करना चाहिए। इनमें से कुछ गुण है- इहापुषार्थ भोग विराग, शमदमादिसाधन सप्पत्, स्वाध्याय, श्रवण, मनन, ईश्वर की भक्ति, अयोग्य, निन्दा पंचभेद, गुरूभक्ति आदि। इसके फलस्वरूप ही ईश्वर की भक्ति उत्पन्न होती है और जीव ईश्वर की कृपा पाकर मुक्त हो जाता है। भगवत्कृपा का यह सिद्धान्त का माधव दर्शन में अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि ईश्वर की कृपा के अभाव में मुक्ति असम्भव है।
माध्वाचार्य के अनुसार मोक्ष के चार भेद हैं। ये हैं कर्मक्षय, उत्क्रान्तिलय, अर्चिरादिगमन और भोग। ईश्वर के अपरोक्ष ज्ञान से सभी संचित पापों एवं अनिष्ट पुण्यकर्मों का समाप्त होना कर्मक्षय है। इसमें प्रारब्ध कर्मों का क्षय नहीं होता। प्रारब्ध कर्मों के भोग के उपरान्त ब्रह्मनाड़ी के सहारे जीव का उत्क्रमण होता है जो उत्क्रांतिलय मुक्ति है। वह अर्चिरादि-मार्ग से गमन करके ब्रह्मलोक जाता है। अन्त में ब्रह्मलोक में आनन्द भोग करना भोग-मुक्ति है। इस प्रकार माध्व दर्शन में मोक्ष एक भावात्मक अवस्था है। मध्वाचार्य के मोक्ष विचार में कतिपय अन्य बातें जैसे क्रममुक्ति, में विश्वास, सद्यः मुक्ति को अस्वीकार तथा जीवन मुक्ति का निषेध आदि सम्मिलित हैं। ये केवल विदेह मुक्ति में विश्वास करते हैं। वे मोक्ष को एक प्राप्य आदर्श मानते हैं। मोक्ष के साधन के रूप में भगवत्कृपा का प्रतिपादन करके माध्वाचार्य ने भारतीय दर्शन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। उन्होंने इसे तर्क के आधार पर स्थापित करके सराहनीय कार्य किया। किन्तु उनके द्वारा इस विषय में मान्य कतिपय सिद्धान्त अद्वैत वेदान्तियों द्वारा प्रखर तर्कों से अस्वीकार किए गये। बन्धन को भी ईश्वर का कार्य बताकर माधव वेदान्त ईश्वर के परमशुभत्व पर आघात पहुंचाता है। वास्तव में माधव के दर्शन का मोक्ष विचार तर्कतः संतोषजनक नहीं है।
Question : रामानुज के दर्शन को विशिष्टाद्वैत क्यों कहा जाता है, पूरी तरह से चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : रामानुज के दर्शन में ब्रह्म परमयथार्थता है। उनके ब्रह्म विचार को विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं। यह शंकर के अद्वैतवाद से भिन्न है। इसमें अद्वैत तत्व का समर्थन तो किया गया है, किन्तु विशेष अर्थ में। रामानुज के विशिष्टद्वैत पर उपनिषदों के ब्रह्मवाद और भागवत धर्म के ईश्वरवाद का प्रभाव है। अर्थात् रामानुज ने उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्मवाद एवं भागवत धर्म के ईश्वर की पुरूषपरक अवधारणा में समन्वय करते हुए ब्रह्म के स्वरूप का विवेचन किया। इसके परिणामस्वरूप रामानुज के ब्रह्म में शंकर के निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा को अस्वीकार करके ब्रह्म के सगुण रूप का समर्थन किया। सर्वभेद रहित ब्रह्म का खण्डन करके उसको स्वगत भेद से युक्त माना। जीव एवं ब्रह्म के तादात्म्य तथा जगत के मिथ्यात्व का निषेध करके जीवों की यथार्थता एवं जगत की वास्तविकता को स्वीकार किया है। इस प्रकार रामानुज का दर्शन शंकर के दार्शनिक विचारों के विरूद्ध एक प्रतिक्रिया प्रतीत होता है।
रामानुज के अनुसार ब्रह्म में स्वगत भेद है। शंकर का ब्रह्म सजातीय विजातीय एवं स्वगत, सभी प्रकार के भेदों से रहित है। रामानुज का कथन है कि यह सत्य है कि ब्रह्म में सजातीय एवं विजातीय भेद नहीं है, किन्तु उसमें स्वगत भेद अवश्य है। शंकर का भेद रहित ब्रह्म एक कल्पना मात्र है। ज्ञान की पद्धति में भेदरहित वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान की पद्धति में भेद रहित वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान का स्वरूप ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ की सत्ता की ओर संकेत करता है। यदि ऐसा ब्रह्म है भी तो वह अज्ञेय एवं शून्य है और धार्मिक एवं व्यावहारिक प्रयोजन की दृष्टि से अनभिष्ट है। अतः ब्रह्म को अनिवार्यतः स्वगत भेद से युक्त होना पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि रामानुज ईश्वर चित् और अचित तीन तत्व मानते हैं। चित् चेतन भोक्ता जीव है। अचित जड़ एवं भोग्य जगत है। ईश्वर दोनों का अन्तर्यामी तत्व है। ये तीनों यथार्थ एवं अन्तिम सत्तायें हैं। यद्यपिः ये तीनों समान रूप से यथार्थ एवं शाश्वत हैं, तथापि अन्तिम दो सत्ता अपनी सत्ता के लिए प्रथम (ईश्वर) पर आश्रित हैं। ईश्वर का जीव और जगत के साथ अपृथकसिद्धि सम्बन्ध है। वस्तुतः ईश्वर, चित और अचित की अपृथक सिद्धि एकता ही रामानुज का ब्रह्म है। जीवात्मायें तथा प्रकृति ईश्वर की एकता में समाविष्ट हैं। ब्रह्म के साथ उनका सम्बन्ध वैसा ही है जैसा गुणों का द्रव्य के साथ या हिस्सों का सम्पूर्ण के साथ। ईश्वर जीव (चित) और प्रकृति (अचित) से विशिष्ट है (चिदचिशिष्टः ईश्वर)। जीवात्मा प्रकार, शेष एवं नियाम्य है, किन्तु ईश्वर प्रकारी शेषी और नियन्ता है। जीवात्माएं यथार्थ एवं स्थायी हैं, यद्यपि वे अपने सब विकारों के लिए ईश्वर के अधीन हैं। इस जगत की सत्ता का निकास उसी से है और यह उसी की इच्छा के अधीन है। ईश्वर के अस्तित्व में जीव आभ्यान्तर एवं जगत बाह्य शरीर है। ईश्वर अंशीय है, जीव और जगत उसके विशेषण हैं, जीव और जगत शरीर है और शरीर उसकी आत्मा है। इस प्रकार ईश्वर, जीव एवं जगत अपने स्वरूप भेद में तीन हैं, किन्तु पद्धति तथा द्रव्य के ऐक्य के कारण एक है। चूंकि रामानुज तीनों के सम्बन्ध को शरीर एवं आत्मा के सम्बन्ध से अभिन्न करते हैं। अतः उनका ब्रह्म एक ‘अंगीय एकता’ या ‘जैविक ईकाई’ या संग्रथित साकल्य की एकता माना जा सकता है। इस प्रकार परम सत्ता को चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म कहने के कारण उनका दर्शन ‘विशिष्टाद्वैत’ कहा जाता है। ब्रह्म अद्वैत रूप तो है, किन्तु विशिष्ट अर्थ में। इस प्रकार ब्रह्म की सत्ता अद्वैत है। ब्रह्म को अद्वैत रूप कहने का तात्पर्य केवल यह है कि उसके समकक्ष एवं समान कोई अन्य तत्व नहीं है। ब्रह्म के अतिरिक्त चित् एवं अचित भी तत्व है, किन्तु वे ब्रह्म के समकक्ष नहीं हैं। वे ब्रह्म पर आश्रित एवं उसके द्वारा संचालित हैं। शुद्ध अद्वैत या शुद्ध अभेद कथनामात्र है। अद्वैत सदैव द्वैतविशिष्ट होता है। ब्रह्म एक तो है, किन्तु चिदचिद्विशिष्ट है।
इस तरह रामानुज ने भागवत धर्म के ईश्वरवाद और उपनिषदों के ब्रह्मवाद, धर्म के अन्तिम तत्व (ईश्वर) तथा दर्शन के अन्तिम तत्व (ब्रह्म या निरपेक्ष) में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। उनका यह प्रयास प्रशंसनीय था, किन्तु दोनों के समन्वय से प्राप्त निष्कर्ष में अनेक विसंगतियां आ गयीं। भागवत धर्म पर आधारित होने के कारण वह ईश्वर के साथ जीव और जगत दोनों की अन्तिम सत्ता को स्वीकार करने के लिए बाध्य है, किन्तु इसका तार्किक निष्कर्ष असन्तोषजनक हो जाता है। इसमे तार्किक दृष्टि से निम्नलिखित विसंगतियां दिखाई देती हैं:
वस्तुतः रामानुज भी शंकर की तरह वेदान्त के महान आचार्य हुए हैं। उनकी धार्मिक प्रतिभा महान थी। उनमें दार्शनिक भाव तो प्रबल था, धार्मिक आकांक्षायें भी उतनी ही प्रबल थी। उन्होंने धार्मिक भावनाओं की मांग का तार्किक विचार-पद्धति के साथ समन्वय करने का प्रयास किया। यदि उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि दो घोड़ों पर एक साथ सवारी नहीं की जा सकती। यह असफलता केवल रामानुज की ही नहीं है, वरन, समस्त ईश्वरवादी दार्शनिकों की है।
Question : शंकर द्वारा जीव के स्पष्टीकरण का वर्णन कीजिए। क्या पेश किया गया औचित्य प्रतिपादन तर्कसंगत है? स्पष्ट कीजिए।
(2003)
Answer : शंकर वेदान्त में जीव आत्मा या ब्रह्म का व्यावहारिक रूप है। यह अभौतिक और भौतिक तत्वों का योग्य है। इसका भौतिक तत्व चैतन्य है। यह चेतन रूप साक्षी (निष्क्रिय प्राणी) यह अन्तःकरण की वृत्रियों का द्रष्टा है। साक्षी स्वयंप्रकाश है और बिना किसी उपकरण के स्वतः अभिव्यक्त होता है। किन्तु इसका प्रत्यक्ष शरीर रूपी उपकरण में ही होता है। इसका भौतिक तत्व अन्तःकरण है जो अविद्या का परिणाम है। अन्तःकरण जीव की जाग्रत एवं स्वप्नावस्थाओं में सदैव सक्रिय रहता है। यह केवल सुषुप्ति में ही निष्क्रिय होता है। सुषुप्ति में अविद्या सहित साक्षी का ही अस्तित्व रहता है। अविद्या को लिंग शरीर से भिन्न कारण शरीर कहते हैं। सुषुप्ति में अन्तःकरण अपने कारण अविद्या में लीन हो जाता है। तात्पर्य है कि सुषुप्ति में केवल अविद्या से युक्त साक्षी का ही अस्तित्व होता है और अन्तःकरण कुछ समय के लिए अविद्या में लीन रहता है। इस प्रकार हम जिसे जीव कहते हैं, वह अद्वैत वेदान्त की दृष्टि में अन्तःकरण में व्याप्त चैतन्य है। अर्थात् जीव विषयी रूप या आत्म-अनात्मरूप या सत् आभास रूप है। जीव की व्यावहारिक सत्ता है। इस रूप में यह निष्क्रिय साक्षी और सक्रिय अन्तःकरण का संयुक्त रूप है। यह जीव ही अहं प्रत्यय का विषय है। जीव ही ज्ञाता, कर्ता, भोक्ता है। जीव अनेक हैं और प्रत्येक की अपनी विशिष्टता है।
अद्वैतवेदान्त की तत्वमीमांसीय ढांचे में ब्रह्म की ही एकमात्र सत्ता स्वीकृत है। पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म की सत् है। जगत की व्यावहारिक सत्ता को स्वीकार करते हुए भी पारमार्थिक दृष्टिकोण से उसकी सत्ता का निषेध किया जाता है। जीव भी परमार्थतः ब्रह्म ही माना जाता है। ब्रह्म से पृथक जीव की कोई सत्ता नहीं है। उसकी पृथक सत्ता अविद्याकृत है। तात्पर्य यह है कि जीव अनादि अविद्या के कारण ब्रह्म से भिन्न अपने अस्तित्व का अनुभव करता है। जिस प्रकार व्यक्ति अपने कंठगत द्वार को भूलकर यत्र-तत्र खोजता है। जब वह अपने कंठ की ओर देखता है तो उसका हार मिल जाता है। उसी प्रकार जीव अविद्या के कारण ब्रह्म से अपना भेद सफलता है और जब उसे ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान हो जाता है, तब उसे ब्रह्म से अपनी अनन्यता का ज्ञान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि जीव ब्रह्म से परमार्थतः अभिन्न है। इस ब्रह्मत्मैक्य को समझने के लिए शंकर के अनुयाइयों ने तीन सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं:
पुनः अद्वैतवेदान्त के आचार्यों ने ब्रह्मजीवकैत्व प्रतिपादक उपनिषदों के महावाक्यों तत्वमसि, अहं ब्रह्मस्मि, अध्यात्मा ब्रह्म, प्रज्ञान ब्रह्म) की विस्तृत व्याख्या कर जीव एवं ब्रह्म की एकता को प्रतिपादित किया है। इन्होंने दमानाधिक्य सम्बन्ध, विशेष-विशेस्य-सम्बन्ध और लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध के आधार पर इन वाक्यों का विवेचन कर ब्रधगीवैकत्व का प्रतिपादन किया है।
Question : माया के अद्वैत कल्पना की रामानुज की आलोचना।
(2003)
Answer : शंकराचार्य माया के सहारे ही जगत को सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार केवल कारण ब्रह्म ही सत् है। कार्य जगत मिथ्या है, माया है। माया की शक्ति के कारण ही ब्रह्म नानारूपात्मक जगत के रूप में प्रतीत होने लगता है। वस्तुतः नानारूपात्मक जगत मिथ्या है। इस परमार्थ सत्य एकत्व का ज्ञान होने पर नानात्व का निषेध हो जाता है। वस्तुतः नाना रूपात्मक मिथ्या है। रामानुज शंकर के माया सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते। रामानुज के अनुसार माया ईश्वर की शक्ति है। जिसके सहारे परमात्मा इस विचित्र जगत की सृष्टि करता है। सृष्टि होने वाला परमात्मा सत्य है। अतः उसकी सृष्टि संसार भी सत्य है। रामानुज ने शंकर की माया के विरूद्ध अनेक तर्क दिए हैं, जिन्हें अनुपपत्ति कहते हैं। इन्हें अनुपपति इसलिए कहते हैं, क्योंकि इनके द्वारा माया की उत्पत्ति सम्भव नहीं।
आश्रयानुपपत्तिः इसके अन्तर्गत रामानुज का कहना है कि माया या अविद्या या आश्रय या अधिष्ठान नहीं हो सकता। अविद्या का आश्रय जीव नहीं हो सकता, क्योंकि जीव तो अविद्या का कार्य है। कार्य कारण का आश्रय नहीं हो सकता। कार्य को कारण से पहले मानना तो तार्किक दृष्टि से असंगत है। पुनः ब्रह्म अविद्या अज्ञान अन्धकार है। ज्ञान अज्ञान का आश्रय नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि माया या अविद्या ही ब्रह्म को तिरोहित करती है। यदि ब्रह्म इसका आश्रय हो तो तिरोहित करने का प्रश्न ही नहीं उठता। अतः जिसका आश्रय हो ही नहीं उसके होने को प्रश्न ही नहीं उठता।
तिरोधानुपपत्तिः शंकर ने माया का कार्य तिरोधान या आच्छादन बतलाया है। माया के कारण ही ब्रह्म तो शुद्ध ज्ञान है, स्वयं प्रकाश है। माया तो अज्ञान या अन्धकार है। अन्धकार से प्रकाश का आवरण नहीं हो सकता। अतः ब्रह्म का अज्ञान से आच्छादन नहीं हो सकता। अगर अज्ञान ज्ञान का आच्छादन कर सकता है तो ज्ञान का स्वयं प्रकाश रूप ही समाप्त हो जाएगा।
स्वरूपानुपपत्तिः माया का स्वरूप असंगत है। किसी भी विषय का स्वरूप सत् होगा या असत् होगा। माया का स्वरूप न तो सत है और न असत्। माया का स्वरूप सत् नहीं क्योंकि सत् तो अद्वैत वेदान्त में केवल ब्रह्म ही है। ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ असत् है। इसका स्वरूप असत् भी नहीं माना जा सकता। असत् तो अद्वैत वेदान्त में शशश्रृंग के समान या बन्ध्यापुत्र के समान अविद्यमान वस्तु है।माया को जगत का कारण कहा गया है। जो कारण है वह असत् कैसे? अतः अविद्या का स्वरूप न सत् है और न असत्।
अनर्वचनीयणुपपत्तिः शंकराचार्य माया को अनिवर्चनीय मानते हैं। इनके अनुसार यह सद् और असद् दोनों से विलक्षण हैं। इसे सद् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ज्ञान प्राप्ति के बाद अज्ञान का नाश होता है और इसे असद् भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसकी व्यावहारिक सत्ता है। अतः यह अनिवर्चनीय का अर्थ वचन विन्यास के परे है अर्थात वचन के द्वारा जिसका निवर्चन न हो सके। परन्तु किसी वस्तु के स्वरूप के बारे में कुछ कहना भी और उसे अनवर्चनीय भी मानना तो स्पष्ट विरोध है।
प्रमाणनुपपत्तिः अविद्या अनिवर्चनीय है। अनिवर्चनीय वस्तु का किसी प्रमाण से ज्ञान नहीं होता। प्रत्यक्ष प्रमाण से भावरूप या अभावरूप वस्तु का ही ग्रहण होता है। अविद्या इन दोनों से परे है। अतः अविद्या का प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञान नहीं हो सकता। अनुमान प्रमाण के लिए व्याप्ति की आवश्यकता होती है, परन्तु अनिवर्चनीय वस्तु के लिए व्याप्ति नहीं बन सकती। श्रुति माया को परमेश्वर की शक्ति कहते हैं। इससे भी माया सिद्ध नहीं होती। अतः किसी भी प्रमाण से माया की उपलब्धि सम्भव नहीं।
निवर्त्तकानुपपत्तिः अविद्या का निराकरण भी रामानुज के अनुसार सम्भव नहीं। परन्तु शंकर के अनुसार विशुद्ध ज्ञान से अज्ञान का नाश सम्भव नहीं हैं।
निवृत्यनुपपत्तिः अविद्या का निर्वतक रामानुज के अनुसार कोई नहीं। शंकर के अनुसार ब्रह्मज्ञान ही अविद्या का निवर्तक हैं।
Question : ‘जबकि नास्तिक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को पूर्णंतया अस्वीकार कर देते हैं, आस्तिक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को केंद्रीय स्थिति प्रदान करते हुए प्रतीत नहीं होते’ इस टिप्पणी को स्पष्ट कीजिए और इसका मूल्यांकन कीजिए।
(2002)
Answer : वैचारिक स्वातंत्र्य एवं तज्जन्य विचार वैविध्य भारतीय विचारधारा की महत्वपूर्ण विशेषता रही है। प्रायः चिंतन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसको उसने स्पर्श न किया हो। इसके कारण भारतीयों में परस्पर विरोधी विचारों को सहन करने का अपूर्व साहस प्रारंभ से ही रहा। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि कोई एक विषय (ईश्वर) ही भारतीय दर्शन का केंद्र बिंदु रहा हो एवं सभी सम्प्रदायों में ईश्वर विवेचन प्राप्त ही हो।
भारतीय दर्शन में दो प्रकार की विचारधाराएं प्राप्त हैं- ईश्वर एवं निरीश्वरवादी। भारतीय दर्शन में अनेक संप्रदाय ईश्वरवादी हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शन में ईश्वर-चिंतन के लिए पर्याप्त स्थान है। न्याय-दर्शन में वेदों की प्रामाणिकता के लिए ईश्वर की आवश्यकता महसूस की गई। वे ईश्वरकर्तृव्य के कारण वेदों को प्रामाणिक एवं अभ्रांत मानते हैं। इसके अतिरिक्त न्याय दर्शन में सृष्टिकर्तृवय के लिए भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया गया। वैशेषिक दर्शन में भी नैतिकता की संभावना के लिए ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गयी। वैशेषिक दर्शन के अनुसार अदृष्ट से प्रेरित होकर ईश्वर ही जीवों को उनके अनुसार फल दिलाता है। योग दर्शन भी ईश्वरवादी है। उसमें ईश्वर की आवश्यकता दो कारणों से स्वीकार की गयी। प्रथम, सृष्टि रचना के लिए और द्वितीय, ईश्वर-प्राणिधान के लिए। योग दर्शन ने सांख्य दर्शन की तत्व मीमांसा को ज्यों का त्यों स्वीकार किया, उसके साथ ईश्वर की सत्ता को जोड़कर उसे सरल बनाने का प्रयास किया।
वेदांत दर्शन तो ब्रह्म मीमांसा एवं ईश्वरमीमांसा है ही। यद्यपि अद्वैत दर्शन में ब्रह्म एवं ईश्वर में भेद है, पारमार्थिक स्तर पर ब्रह्म की ही एकमात्र सत्ता स्वीकृत है, तथापि उसमें व्यावहारिक जगत के लिए ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गयी है। उसे सृष्टिकर्त्ता स्वीकार किया गया है। रामानुज के विशिष्टाद्वैत दर्शन में तो ईश्वर एवं ब्रह्म अभिन्न हैं। इसमें ईश्वर को ही जगत का कारण स्वीकार किया जाता है। ईश्वर भक्ति या ईश्वर-शरणागति ही जीव को सभी दुःखों से छुटकारा दिलाकर मोक्षलाभ, ईश्वरलाभ कराता है।
भारतीय विचारधारा में निरीश्वरवादी दर्शनों की भी कमी नहीं है। चार्वाक दर्शन स्पष्टतः निरीश्वरवादी विचारधारा है। इसमें प्रत्यक्ष को ही ज्ञान का एकमात्र साधन माना गया है। प्रत्यक्ष से ईश्वर का ज्ञान न होने के कारण ईश्वर को असत् माना गया है। उल्लेखीनय है कि चार्वाक दर्शन में चार महाभूतों- पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल से ही चेतन एवं अचेतन तत्वों को उद्भव स्वीकार की जाती है। एतत्हेतु ईश्वर की कोई भी आवश्यकता नहीं महसूस की जाती। जैन एवं बौद्ध दर्शन भी नास्तिक हैं। इनमें भी ईश्वर की सत्ता के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रारंभिक बौद्ध दर्शन खुलेआम अनीश्वरवादी था। गौतम बुद्ध ने स्वयं केवल चार आर्य सत्यों के अनुशीलन पर बल दिया था, इसे ही दुःख निवृत्ति अथवा निर्वाण-लाभ हेतु पर्याप्त माना था। उन्होंने ईश्वर संबंधी प्रश्नों को अभ्याकृत प्रश्न कहकर ईश्वर-चिंतन को अनुपयोगी एवं अनावश्यक माना था। जैन दर्शन भी अनीश्वरवादी है। उल्लेखनीय है कि जैन एवं बौद्ध दर्शन का प्रारंभिक स्वरूप निरीश्वरवादी था। किंतु वैचारिक विकास के एक निश्चित पड़ाव में उन्होंने अपने संस्थापकों में ईश्वरत्व को आरोपित कर दिया, यद्यपि वे प्रत्यक्षतः ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते रहे।
आस्तिक दर्शन-परंपरा में सांख्य एवं मीमांसा दर्शन निरीशरवादी हैं। सांख्य एक द्वैतवादी दर्शन है जिसमें पुरूष एवं प्रकृति दो स्वतंत्र एवं निरपेक्ष तत्व स्वीकार किये जाते हैं। इसमें पुरूष के सानिध्य में प्रकृति से संपूर्ण सृष्टि का उद्भव एवं विकास दिखाया जाता है तथा कैवल्यलाभ हेतु ज्ञानमार्ग को पर्याप्त माना जाता है। इसमें किसी भी बिंदु पर ईश्वर की सत्ता की आवश्यकता नहीं महसूस की जाती। मीमांसा दर्शन भी निरीश्वरवादी है। इसमें वेदों को अपौरूषेय माना जाता है। वेदों की प्रामाणिकता के लिए भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं महसूस की जाती। उल्लेखनीय है कि जगत कभी अन्यथा नहीं था। निसंदेह वस्तुयें परिवर्तित होती रहती हैं। किंतु इस परिवर्तन की व्याख्या वास्तविकता की स्वपरिगामिता से हो जाती है। जगत् में समयानुसार जो भी परिवर्तन होता है। उसकी प्रेरणा उस समय के जीवों के पिछले कर्मों से मिलती है। परिणाम स्वरूप इस तंत्र में ईश्वर की सत्ता के लिए कोई स्थान नहीं रट जाता। स्मरणीय है कि इसमें पौराणिक देवताओं का भी निषेध किया गया है। यज्ञों में जिन देवताओं को हवि दी जाती है, उन्हें कल्पित माना गया है, वास्तविक नहीं।
यह स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन इस प्रकार उपरोक्त विवरण से भिन्न विचारधारायें ईश्वर को केंद्र मानकर विकसित नहीं हुई है। इस दृष्टि से यह कहना भी अनुचित है कि भारतीय दर्शन ईश्वरवादी है। वस्तुतः भारतीय विचारधारा में धर्म एवं दर्शन मिले हुए हैं। अतः इस बात की काफी गुंजाईश बनती है कि इसके बार में यह अवधारणा बने कि भारतीय दर्शन ईश्वरवादी है। पुनः वेद् उपनिषद् एवं गीता भारतीय दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। जिनमें ईश्वरवादी चिंतन के लिए महत्वपूर्ण स्थान है। परंतु विभिन्न दार्शनिक संप्रदायों के सूक्ष्य अवलोकन से यह स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन में ईश्वरवाद को केंद्रीय महत्व नहीं दिया गया है।
Question : रामानुज की युक्तियों के आधार पर शंकर के मोक्ष के विश्लेषण का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : शंकर के मोक्ष-मीमांसा के मूल में अद्वैत तत्वमीमांसा का वह सिद्धान्त निहित है, जिसमें आत्मा का ब्रह्म से और ब्रह्म का मोक्ष से तादात्म्य प्राप्त होता है। शंकर और रामानुज दोनों ही अविद्या या अज्ञान को बन्धन और दुख का कारण स्वीकार करते हैं। परन्तु मोक्ष के स्वरूप को लेकर दोनों में मतभेद है। शंकर के अनुसार मोक्ष नित्य प्राप्ति की प्राप्ति है। मोक्ष प्राप्ति जीव का केवल अपने नित्य स्वरूप का ज्ञान है जिसे वह कुछ समय के लिए भूल चूका होता है। तात्पर्य यह है कि शंकर के दर्शन में मोक्ष कोई ऐसा आदर्श नहीं है जो तप से पृथक है और जो निडर या सुदूर भविष्य में प्राप्त होने वाला है। मोक्ष या मुक्ति आत्मा को किसी नवीन अवस्था की प्राप्ति नहीं है। यह आत्मा के नित्यस्वरूप का ही साक्षात्कार है। इस प्रकार मोक्ष न तो परमार्थतः उत्पन्न होती है और न पहले से अप्राप्त है। यह प्राप्त की ही प्राप्ति है। यह शाश्वत सत्य का अनुभव है।
परन्तु रामानुज की मान्यता है कि मोक्ष अप्राप्त की प्राप्ति है। इस प्रकार वे अद्वैत वेदान्त की मोक्ष विषयक उस मान्यता को अस्वीकार करते हैं, जिसमें इसे नित्य प्राप्त की प्राप्ति माना जाता है। रामानुज की दृष्टि मे मोक्ष जीव द्वारा अपने पारमार्थिक स्वरूप का ज्ञान मात्र नहीं है, अपतिु ब्रह्म प्राप्ति भी है जो ब्रह्मज्ञान से होती है इस प्रकार ब्रह्म ज्ञान ही मोक्ष नहीं है, अपितु यह मोक्ष का साधन है। इससे यह स्पष्ट है कि रामानुज शंकर के मोक्षविषयक उस दृष्टिकोण का निषेध करते हैं, जिससे ब्रह्मज्ञान को ही मोक्ष कहा गया है। इस अवस्था में जीव को वह भी प्राप्त होता है जो उसके पास नहीं है। इस प्रकार मोक्ष अप्राप्त की प्राप्ति है।
शंकर की मान्यता है कि मोक्ष ब्रह्मभाव या ब्रह्म साक्षात्कार है। यह जीव द्वारा अपनी ही आत्मा का साक्षात्कार है। मोक्ष की स्थिति में जीव अपने यथार्थ स्वरूप को धारण करता हैं। पुनः मोक्ष दुःख निवृति मात्र नहीं है, अपितु आनन्दानुभूति भी है। चित्सुखाचार्य का कथन है कि आनन्दमय का साक्षात्कार ही मोक्ष है। शंकराचार्य मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि यह पारमार्थिक, सत् कुटस्थ नित्य, आकाश के समान सर्वव्यापी अभी क्रियायों से सहित, नित्यतृप्त, निरयचव एवं स्वज्योतिस्वभाव है। मोक्ष की अवस्था में धर्म एवं अधर्म अपने कार्य सुख एवं दुख के साथ तीनों कालों में सम्बन्ध नहीं रखते। यह शरीर रहित अवस्था ही मोक्ष है।
रामानुज की मान्यता है कि मोक्ष प्राप्त होने पर मुक्तव्य। ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त करता है। यद्यपि वह उसकी तद्रुपता को नहीं प्राप्त करता। वह सर्वज्ञ हो जाता है और उसे सदैव अर्न्तदृष्टि द्वारा ईश्वर का ज्ञान होता है। अर्थात् मुक्तात्मा ब्रह्मभाव को तो प्राप्त होता है, किन्तु उसका पृथक व्यक्तित्व भी बना रहता है। उसका व्यक्तित्व ब्रह्म में विलीन नहीं होता। उसका पृथक अस्तित्व मोक्ष का विरोधी नहीं है। तात्पर्य यह है कि अपितु जीवात्मा का शुद्ध निर्मल ज्ञान से युक्त होना तथा दोषरहित होकर ब्रह्म-सदृश (ब्रह्म-प्रकार) होना है। वह ईश्वर की साहचर्यता को प्राप्त कर लेता है और उसका पृथक व्यक्तित्व भी बना रहता है। इस प्रकार जीव मोक्ष की अवस्था में ब्रह्म का सायुज्जलाभ करता है। सारूप्यलाभ नहीं।
रामानुज मुक्ति का एक ही रूप मानते हैं। वह है- विदेह मुक्ति। उनके विचार से जीवनमुक्ति सम्भव नहीं है। वे जीवन मुक्ति को अस्वीकार करते हैं। उनके अनुसार मोक्ष कर्मों का आत्यांतिक क्षय है। जब तक शरीर है, तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता, क्योंकि जीवात्मा का शरीर धारण कर्म के ही कारण है। मुक्ति सभी कर्मों के क्षय हो जाने पर तथा भौतिक शरीर के पात के अनन्तर ही सम्भव है। यह विदेह मुक्ति की अवस्था है। शंकरवेदान्त में मोक्ष के दो भेद प्राप्त होते हैं- जीवन्मुक्ति एवं विदेह मुक्ति। इसी जीवन में ही मोक्ष प्राप्त होना जीवन्मुक्ति है। शंकर के अनुसार इस जीवन में संदेह रहते हुए भी जीवन मुक्त हो सकता है। जीवब्रह्मैकत्व की अपरोक्षानुभूति होने पर इसी जीवन में मुक्त हो जाता है। शरीरपात के अनन्तर प्राप्त होने वाली मुक्ति विदेहमुक्ति है।
पुनः शंकर सद्यः मुक्ति का प्रतिपादन करते हैं। उन्हें क्रममुक्ति अस्वीकार है। ज्ञान होते ही मुक्ति सद्यः मुक्ति है। इसके विपरीत क्रममुक्ति शनैः शनैः प्राप्त होती है। शंकर के विपरीत रामानुज क्रममुक्ति में विश्वास करते हैं। क्रममुक्ति में जीव देवयान मार्ग से ब्रह्म तक पहुंचने में अनेक आर्य स्थान और मंजिल मुक्ति तक जाते हैं। शंकर ऐसी मुक्ति को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि यह नित्यमुक्ति नहीं है। क्रममुक्ति समय की अवधि में पड़ी हुई मुक्ति है, अर्थात यह केवल प्रलयपर्यन्त रहती है। यह सापेक्षिक मुक्ति है। वास्तव में यह यथार्थ मुक्ति नहीं है, वरन् एक प्रकार का लम्बा बन्धन है। वास्तविक मुक्ति सद्यः मुक्ति है जो ज्ञानोदय के साथ ही हो जाती है। शंकर की जीवन्मुक्ति की अवधारणा के साथ सद्यः मुक्ति की ही संगति है, उसको प्राप्त करने वाला पुनः भवचक्र में नहीं पड़ता।
रामानुज विशिष्टद्वैत दर्शन में भक्ति मार्ग को मोक्ष का साधन माना जाता है। रामानुज मोक्ष के लिए ईश्वर की अनुकम्पा को आवश्यक मानते हैं। बिना ईश्वर की अनुकम्पा प्राप्त किये मुक्ति नहीं मिल सकती। विशिष्ट द्वैत दर्शन में भक्तिमार्ग को ईश्वर की अनुकम्पा प्राप्त करने का अन्यतम साधन है। रामानुज कर्मयोगी एवं ज्ञान योग को भक्तिमार्ग में हितकारी मानते हैं। अर्थात् कर्म एवं ज्ञान द्वारा ही भक्ति का उदय होता है। शंकर की मान्यता है कि ज्ञानमार्ग से ही मुक्ति संभव है। कर्म से मुक्ति सम्भव नही है। शंकर के अनुसार मोक्ष को कर्मफल न मानने पर उसके अनित्यत्व का प्रसंग उपस्थित होगा। शंकर के अनुसार कर्म का फल उत्पाद्य, विकार्य, प्राप्य एवं संस्कार्य होता है, किन्तु मोक्ष न तो उत्पाद्य है, न प्राप्य है, न विकार्य है एवं न संस्कार्य है। मोक्ष भक्तिमार्ग से भी सम्भव नहीं है। शंकर के अनुसार भक्ति का आधार द्वैत बुद्धि या भेद बुद्धि है। यह आराध्य एवं आराधक भगवान एवं भक्त को भेद बुद्धि पर प्रतिष्ठित है। उल्लेखनीय है कि भेद बुद्धि अविद्याजन्य है, अर्थात् भी भक्ति का आधार है। इस प्रकार भक्ति से मोक्ष को उपलब्धि सम्भव नहीं है। परन्तु शंकराचार्य कर्म एवं भक्ति को बिल्कुल अनुयोगी नहीं मानते। शंकर कर्म एवं भक्ति की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार कर्म से चित्तशुद्धि होती है। ज्ञान में चित्तशुद्धि एवं चित्त की एकाग्रता की महती भूमिका होती है। इस प्रकार कर्म एवं भक्ति ब्रह्मज्ञान में द्वार हेतु है। परन्तु वे मोक्ष-प्राप्ति में कर्म और भक्ति को निस्सन्देह, अपर्याप्त मानते हैं।
शंकराचार्य का स्पष्ट मत है कि ज्ञानमार्ग का अनुसरण करके ही मोक्षलाभ सम्भव है, क्योंकि ज्ञान से ही अज्ञान, जो बन्धन का हेतु है का निवारण सम्भव है। उल्लेखनीय है कि ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति की बात करना भी उपचार मात्र है, क्योंकि यह मोक्ष को उत्पन्न नहीं करता केवल अविद्यानिवृत्ति करता है, जिसमें आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का अपरोक्षानुभव होता है। वास्तव में अविधानिवृत्ति आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्मभाव एवं मोक्ष एक ही है।
Question : व्यक्तिगत जीवात्माओं (जीवस) की प्रकृत्ति और वास्तविकता पर शंकर का मत।
(2000)
Answer : आचार्य शंकर के अनुसार जीव अपने यथार्थ रूप में ब्रह्म है। जीव अज्ञान या अविद्या की सृष्टि है। अतः जीव का कारण अज्ञान है। दूसरे शब्दों में, जीव ही अज्ञान का आश्रय है। अद्वैत वेदान्त में अज्ञान का आश्रय और विषय को लेकर मतभेद है। वाचस्पति मिश्र के अनुसार अज्ञान का आश्रय ही जीव है। सरेश्वराचार्य आदि के अनुसार अज्ञान का आश्रय ही जीव है। सरेश्वराचार्य आदि के अनुसार अज्ञान का आश्रय ओर विषय दोनों ही जीव है। जीव को अज्ञान का आश्रय कहने का तात्पर्य यही है कि जीव के अतिरिक्त अज्ञान कहां रहेगा। ईश्वर तो माया का आश्रय है। वह ज्ञानरूप है अतः वह अज्ञान का आश्रय नहीं हो सकता। यदि जीव ही अज्ञान का विषय नहीं हो सकता, क्योंकि जीव पहले तथा अज्ञान का बाद में। परन्तु अद्वैत वेदान्त में जीव का कारण अज्ञान ही माना गया है। वस्तुतः बीज और अंकुर के सम्बन्ध के समान अज्ञान और जीव का कार्य कारण भाव सिद्ध करना कठिन है। इसी कारण जीव और अज्ञान का सम्बन्ध अनादि माना गया है। अद्वैत मत में अज्ञान के कारण ही जीव प्रति शरीर का स्वामी मालूम पड़ता है। संसार में शरीर अनेक है, अतः जीव भी अनेक हो जाता है। शरीर के साथ सम्बन्ध होनेके कारण शरीर और इन्द्रियों द्वारा किये गये कर्मों का कर्ता जीव को माना जाता है। इसी प्रकार सुखः, दुःख आदि का भोग करने के कारण वह (जीव) भोक्ता होता है। इन्द्रियों को द्वारा सांसारिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के कारण वह ज्ञाता कहलाता है। ये सभी धर्म जीव में शरीर और संसार से सम्बन्ध होने के कारण ही उत्पन्न होते हैं। परमार्थतः यह जीव आत्मा है, परन्तु व्यवहार में यह कर्त्ता, भोक्ता, ज्ञाता है। इससे स्पष्ट है कि ईश्वर के समान जीव भी सांसारिक है। दोनों की सत्ता केवल व्यावहारिक दृष्टि से है। पारमार्थिक दृष्टि से न जीव है और न ईश्वर है। केवल एक अद्वैत आत्मा या ब्रह्म है। इस दृष्टि से जीव और आत्मा में अभेद है। अज्ञान के कारण ही असांसारिक आत्मा सांसारिक जीव प्रतीत होता है तथा माया के कारण (निर्गुण) पर ब्रह्म अपर ब्रह्म (सगुण ईश्वर) प्रतीत होता है।
जीव और आत्मा में व्यावहारिक दृष्टि से भेद है, परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से अभेद है। आत्मा नित्य, निर्खयव, निरूपाधि, अनन्त और अनवच्छिन्न है। जीव अनित्य, सावयव, सौपाधि, शान्त और अवच्छिन्न है। आत्मा एक है। यही ब्रह्म है, विभु है जीव, मन, बुद्धि, अंहकार आदि के कारण प्रति शरीर में निवास करता है तथा अनेक है। सांसारिक होने के कारण जीव कर्ता, भोक्ता ज्ञाता है। असांसारिक होने के कारण आत्मा का इन धर्मों से सम्बन्ध नहीं शुभ और अशुभ कर्म करने के कारण ही कर्त्ता है, सुख-दुःख का भोग करने के कारण भोक्ता है। सांसारिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के कारण यह ज्ञाता है। परन्तु आत्मा तो आध्यात्मिक तत्व है जिसका कर्म-अकर्म सुख, दुःख और भौतिक विषयों से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। इसे ज्ञाता नहीं वरन शुद्ध-ज्ञान चैतन्य ही कहा गया है। चैतन्य मात्र होने से इसमें विषय और विषयी का भेद नहीं। जीव आत्मा का आश्रय और विषय है। अज्ञान के कारण ही जीव बन्धन ग्रस्त है। आत्मा शुद्ध ज्ञान, प्रकाशरूप है। यह अज्ञान के परे हैं। बन्धन से सर्वथा मुक्त है। इसे शुद्ध-शुद्ध चैतन्य रूप कहा गया है। जीव आत्मा का उपरोक्त भेद केवल व्यावहारिक है। अज्ञान के कारण संसार में जव सांसारिक बनकर, बन्धन जन्य क्लेश को सहता है। ज्ञान का अभ्युदय होते ही संसार का अन्धकार दूर हो जाता है, अज्ञान समाप्त हो जाता है। जीव और आत्मा में अभेद हो जाता है।
Question : शंकर की माया की संकल्पना के विरूद्ध रामानुज द्वारा उठाई गई आपत्तियों की समीक्षा कीजिए।
(2000)
Answer : शंकर ने अपने माया-सिद्धान्त के आधार पर ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता एवं जगत-जीव-प्रपंच के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। उनकी मान्यता है कि माया के कारण ही निर्गुण एवं भेदरहित ब्रह्म जीव-जगत प्रपंच के रूप में आभासित होता है। रामानुज शंकर के माया-सिद्धान्त का खण्डन करते हैं। रामानुज शंकर के विपरीत माया (प्रकृति)को ब्रह्म की वास्तविक शक्ति मानते हैं जिसके द्वारा वह सृष्टि रचना करता है। वे सात आक्षेपों के आधार पर शंकर के माया-सिद्धान्त को तर्कतः अनुत्पत्न सिद्ध करते हैं, जिन्हें सप्तानुपपत्रि कहते हैं।
किन्तु अद्वैत वेदान्ती का उत्तर है कि यद्यपि शंकर माया को भावरूप मानते हैं, किन्तु इसका अभिप्राय इतना ही है कि वह अभावमात्र नहीं है। माया भावरूप होते हुए भी अपनी सत्ता के लिए ब्रह्म पर आश्रित है और एक आश्रित सत्ता की निवृत्ति स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है। पुनः माया तो अध्यासरूप है, अतः अधिष्ठान (ब्रह्म) के ज्ञान से उसका निराकरण सम्भव है।
संक्षेप में, शंकर के माया-विचार पर रामानुज के आक्षेपों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने पर ज्ञात होता है कि रामानुज के आक्षेप भ्रान्त धारणा पर आधारित हैं। वे शंकर कृत माया के विचार को नहीं समझ सके हैं। अतः वे शंकर के माया-विचार का खण्डन करने में असफल रहे हैं।
Question : वेदांत के द्वैततंत्र में पंचभेद सिद्धान्त बताए और उसका परीक्षण कीजिए।
(2000)
Answer : माध्वाचार्य तत्वमीमांसा की दृष्टि से द्वैतवादी यथार्थवादी है। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद या अभेदवाद के विरोध में द्वैतवाद (भेदभाव) का प्रतिपादन किया। उन्होंने शंकराचार्य के उस दृष्टिकोण को अस्वीकार किया जिसमें भेद के मिथ्यात्व का प्रतिपादन है। वे कट्टðर भेदवादी या द्वैतवादी हैं। उनका द्वैतवाद पाश्चात्य दर्शन के उस द्वैतवाद से भिन्न है। जिसमें दो अन्तिम सत्ताओं की स्वीकृति प्राप्त होती है। भारतीय दर्शन में उनका द्वैतवाद सांख्य दर्शन के द्वैतवाद से भी भिन्न है। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन के द्वैतवाद में दो स्वतंत्र, निरपेक्ष एवं अन्तिम तत्व स्वीकृत हैं- पुरुष एवं प्रकृति। किन्तु मध्य का द्वैतवाद अनुठा है। इसमें पंचविध भेद स्वीकृत हैं ये हैं-
वे इन पांच भेदों को समग्रतः प्रपंच कहते हैं। एक अन्य दृष्टि से उनके दर्शन में दो तत्वों का कथन प्राप्त होता है- स्वतंत्र एवं अस्वतंत्र। इनमें स्वतंत्र तत्व स्वयं भगवान विष्णु हैं। जीव एवं जगत तंत्र तत्व हैं। संभवतः इसी कारण उनके दर्शन को द्वैतवाद या भेदभाव कहते हैं।
मध्वाचार्य की द्वैतवादी तत्वमीमांसा में ब्रह्म ही एकमात्र स्वतंत्र तत्व है। उनके यथार्थवादी द्वैतवाद में ब्रह्म और ईश्वर एक ही तत्व हैं। ब्रह्म ही एकमात्र निरपेक्ष सत् एवं परमतत्व है जो सर्वगुण सम्पन्न हैं। ब्रह्म ही नारायण, हरि, विष्णु, हरि, ईश्वर, परमेश्वर, वासुदेव एवं परमात्मा आदि नामो से जानते हैं। पुनः ब्रह्म के साथ जीव एवं जगत की भी पारमार्थक सत्ता है। इस प्रकार माध्वाचार्य ईश्वर के साथ जीव एवं जगत की भी अन्तिम सत्ता को स्वीकार करके शंकराचार्य को अद्वैतवाद एवं रामानुज को विशिष्ट द्वैतवाद को स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार ईश्वर, जीव, एवं प्रकृति ये परस्पर भिन्न तत्व हैं और अपनी-अपनी सत्ता रखते हैं, क्योंकि ये अनुभव का विषय बनते हैं और जो भी अनुभव का विषय बनता है उसकी सत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वे शंकर के अद्वैतवाद के विरोध में कहते हैं कि ईश्वर, जीव एवं प्रकृति में किसी एक में अनय का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता और बहुत्व या नानात्व को मिथ्या भी नहीं कहा जा सकता। मध्वाचार्य द्वैत या भेद को ही अन्तिम यथार्थता मानते हैं। उनके अनुसार जो स्वरूपतः भिन्न होता है वह अभिन्न नहीं हो सकता। ब्रह्म, जीव एवं प्रकृति स्वरूपतः भिन्न है, अतः इनमें अभेद सम्बन्ध नहीं हो सकता। उल्लेखनीय है कि मध्वाचार्य कट्टðर द्वैतवादी या भेदवादी है। वे पंचविध भेद के समर्थक हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ईश्वर, जीव एवं जड़ सभी सत्ताओं से भिन्न हैं तथा इन तीनों की अंतिम एवं पारमार्थिक सत्ता है। इसके बावजूद मध्वाचार्य ब्रह्म को ही एकमात्र स्वतंत्र तत्व मानते हैं तथा जीव एवं प्रकृति को अस्वतंत्र तत्व। वे यह भी कहते हैं कि यद्यपि ईश्वर जीव एवं जगत् तीनों नित्य एवं अन्तिम है तथापि जीव एवं जगत ईश्वर से भिन्न श्रेणी के हैं और उसके ऊपर आश्रित हैं।
मध्वाचार्य का द्वैतवादी पंचविद सिद्धान्त में ब्रह्मविचार परवर्ती भारतीय दर्शन में कटु आलोचना का विषय रहा है। मधुसूदन सरस्वती, अप्यथ दीक्षित तथा चिरसुख ने प्रखर तर्कों से द्वैतवाद का खण्डन किया है। मध्वानुयायी इनके तर्कों से द्वैतवाद की रक्षा न कर सके। इन विचारकों ने मध्य और इनके अनुयायियों द्वारा द्वैतवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों का खण्डन किया तथा भेद के व्यावहारिक सत्य का प्रतिपादन किया। मध्व के द्वैतवादी विचारधारा में ईश्वर एक सर्वोपरि तथा पूर्ण सत्ता नहीं रह जाता। द्वैतवाद ईश्वर की स्वतंत्रता को असम्भव बना देता है। ईश्वर को सृष्टि का केवल निमित्त कारण मानना तथा सृष्टि विषयक सामग्री के लिए प्रकृति पर ईश्वर की निर्भरता उसे सीमित कर देती है। एक सीमित ईश्वर धर्म में कभी अभीष्ट नहीं हो सकता। जीव एवं जगत का ईश्वर से भिन्न होना साथ ही इनका ईश्वर पर आश्रित होना आत्मा विरोधग्रस्त है। इस प्रकार इन्हें तत्व की कोटि में नहीं रखा जा सकता।
उल्लेखनीय है कि अपने द्वैतवादी तत्वमीमांसीय ढांचे में मध्वाचार्य जगत का विवेचन करते हैं और जगत की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते हैं। वे इस सन्दर्भ में जहां एक ओर शंकर के अद्वैतवाद का खण्डन करते हैं, वहीं दूसरी ओर रामानुज को जगत् विषयक विशिष्ट द्वैतवादी अवधारणा को भी असन्तोषजनक कहते हैं। मध्वाचार्य रामानुज की जगत विषयम अवधारणा में जगत की वास्तविक सत्ता को तो स्वीकार करते हैं, परन्तु उनके अनुसार जगत के वास्तविकता को विशिष्ट अद्वैत में संतोषजनक व्याख्या नहीं हो पाती। उल्लेखनीय है कि रामानुज ब्रह्म को जगत का निमित्त एवं उपादान दोनों कारण मानते हैं और जगत को ब्रह्म का परिणाम या विकार कहते हैं। मध्वाचार्य का कथन है कि ब्रह्म के साथ उपादान कारणत्व असंगत है, क्योंकि उपादान कारण परिणामी या विकारी होता है और ईश्वर परिणामी या विकारी नहीं है। पुनः ईश्वर को विकारी मानने पर वह अभीष्ट सत्ता नहीं सिद्ध होता। तात्पर्य यह है कि ब्रह्म न तो जगत का निमित्त और उपादान कारण है जैसा कि रामानुज मानते हैं और न अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है। जैसा कि शंकराचार्य मानते हैं, मध्वाचार्य के दर्शन में निमित्त एवं उपादान कारण परस्पर पृथक हैं। वे ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं और प्रकृति को उपादान कारण।
मध्वाचार्य का जगत विचार भी घोर आलोचना का विषय रहा है। मध्वाचार्य यह नहीं समझ पाते कि यदि ब्रह्म एवं जगत साथ-साथ नित्य हैं तो उनका पारस्परिक सम्बन्ध क्या है?- जैसा कि आलोचकों का मानना है। यदि इनका सम्बन्ध भी नित्य है तो क्या ईश्वर अपने से भिन्न पदार्थों के साथ बद्ध हैं। इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर मध्वाचार्य के वेदान्त में नहीं है। इस प्रकर जड़ एवं जड़ से भेद तथा पुनः ईश्वर के समान उसे नित्य मानन में विरोध है।
मध्व के द्वैतवादी दर्शन में जीव एक अस्वतंत्र तत्व है, जो ब्रह्म एवं प्रकृति से स्वरूपतः भिन्न है। मध्वाचार्य भेद या द्वैत को सत्य मानते हैं। उनका कथन है कि जो स्वरूपतः भिन्न होता है वह कभी भी अभिन्न नहीं हो सकता। वे ब्रह्म एवं जीव के स्वभाव भेद का प्रतिपादन करके अद्वैतवाद के ‘जीवों ब्रह्मैव’ के विचार को करते हैं। उनका जीव विचार वैष्णव मत के अनुकूल है। मध्वाचार्य जीव का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि जीव वह है जो इस जीवन में सुख एवं दुख का अनुभव करता है, जो बन्धन और मोक्ष का पात्र है, जो प्रत्येक अनुभव में ‘मैं हूं’ इस ज्ञान का साक्षी है। इस प्रकार जीव कर्त्ता एवं भोक्ता है, अनुभवों का केन्द्र है। जीव को कर्तृत्व तथा भोवतृत्व ईश्वर की कृपा से मिलता है। तात्पर्य यह है कि जीव कर्त्ता ज्ञाता एवं भोक्ता है। जीव सुख-दुख का अनुभव करने के कारण ईश्वर से भिन्न है तथापि वह ईश्वर का अंश है। यहां जीव को ईश्वर का अंश कहने का तात्पर्य जीव ईश्वर का प्रतिबिम्ब है।
मध्वाचार्य का जीव विचार उनकी भेद-दृष्टि का परिणाम है। उन्होंने इसे प्रबल तर्कों से सिद्ध करने का प्रयास भी किया है। किन्तु भेद व्यवहार में सत् तो हो सकता है, परमार्थ सत् नहीं। उनका जीव विचार एक दार्शनिक एवं बौद्धिक व्यक्ति को कभी भी संतुष्ट नहीं कर सकता, क्योंकि दर्शन भेदों की पृष्ठभूमि में निहित अभेद को खोजने का प्रयास है। ब्रह्म-जीव भेद पर उनका अत्यधिक बल दुराग्रह होकर रह गया है। वास्तव में यदि जीव तथा प्रकृति ब्रह्म पर निर्भर है तो उन्हें द्रव्य की कोटि में नहीं रखा जा सकता।
Question : भारतीय विचारधारा के विभिन्न संप्रदायों में पाई जाने वाली कार्यकारणभाव संकल्पना का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(2000)
Answer : कारणता सिद्धांत भारतीय दर्शन में प्राचीनतम एवं प्रमुख सिद्धांत है, जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है। परंतु कारण और कार्य के स्वरूप और उनके परस्पर संबंध को लेकर भारतीय दर्शन में विवाद है। इस संबंध में अनेक प्रकार के सिद्धांत प्रचलित हो गए हैं- जैसेः
सद्कार्यवाद कारणता संबंधी एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसके समर्थकों में सांख्य, रामानुज और शंकराचार्य प्रमुख है। इस सिद्धांत के अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में सत् अर्थात् विद्यमान रहता है। उदाहरण स्वरूप घड़ा अपनी उत्पत्ति के पूर्व मिट्टी में विद्यमान रहता है। यहां घड़ा अर्थात् कार्य कोई नवीन उत्पत्ति नहीं है बल्कि जो कारण में अव्यक्त था, उसी का प्रकटीकरण या अभिव्यक्ति कार्य है। दूसरे शब्दों में, कार्य व्यक्त कारण है और कारण अव्यक्त कार्य है। कार्य कारण का आर्विभाव है।
सद्कार्यवाद के दो रूप हैं:
(i)प्रकृति परिणामवाद
(ii)ब्रह्म परिणामवाद
प्रकृति परिणामवाद सांख्य दर्शन का सिद्धांत है। इसके अनुसार प्रकृति का जगत के रूप में वास्तविक रूपांतरण होता है। अतः प्रकृति के साथ-साथ यह जगत भी सत् है। रामानुजाचार्य का मत ब्रह्म परिणामवाद कहलाता है, इनके अनुसार ब्रह्म वास्तव में जगत के रूप में रूपांतरित होता है। अतः ब्रह्म के साथ-साथ जगत भी सत् है।
शंकराचार्य का मत ब्रह्म विवर्तवाद कहलाता है। इनके अनुसार ब्रह्म में कोई वास्तविक परिणाम या रूपांतरण नहीं होता। यह जगत ब्रह्म का वास्वविक परिवर्तन न होकर उसका मिथ्या आभास मात्र है। अतः ब्रह्म ही सत् है परंतु जगत मिथ्या है।
असद्कार्यवाद, न्याय, वैशेषिक का कारणता संबंधी सिद्धांत है। इसके अनुसार कार्य अपनी उत्पति के पूर्व कारण में असत् अर्थात् विद्यमान नहीं था। उदाहरणस्वरूप घड़ा अपनी उत्पति के पूर्व मिट्टी में विद्यमान नहीं था। यहां कार्य को एक नवीन उत्पति एवं नया आरंभ माना जाता है। इसलिए इस सिद्धांत को आरम्भवाद भी कहा जाता है। सद्कार्यवाद के अनुसार यदि कार्य अपनी उत्पति के पूर्व कारण में असत है तो फिर उस कारण के असत् होने से किसी भी कार्य की उप्पति नहीं की जा सकती। किसी भी अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए तदनुरूप उपादान को ग्रहण किया जाता है। यह सिद्ध करता है कि कार्य उत्पति के पूर्व कारण में ही विद्यमान रहता है। उदाहरण के लिए दही कार्य के लिए हमें दूध रूपी उत्पादन को लेना पड़ता है। यदि कार्य को अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में न माना जाए तो वैसी स्थिति में किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न संभव हो गया।
असद्कार्यवाद के अनुसार सद्कार्यवाद के द्वारा दी गई युक्त्तियां अतार्किक हैं। यदि कार्य अपनी उत्पति के पूर्व कारण में ही निहित होता तो फिर निमित कारण की आवश्ययकता नहीं पड़ती। परन्तु हम देखते हैं कि कारण से कार्य की सिद्धि के क्रम में निमित कारण की आवश्यकता होती है। मिट्टी से घड़े के निर्माण में कुम्हार की आवश्यकता पड़ती है। असद्कार्यवाद के अनुसार कार्य की उत्पति के पश्चात ऐसा कहना कि कार्य की उत्पति हुई यह प्रमाणित करता है कि कार्य एक नवीन उत्पति है। यदि कार्य अपनी उत्पति के पूर्व कारण में ही विद्यमान होता तब कारण और कार्य में भेद करना असंभव हो जाता। परंतु हम कारण और कार्य में भेद कर सकते हैं। अतः कार्य की अपनी उत्पति के पूर्व कारण में सत्ता नहीं माना जा सकता।
स्वभाववाद चार्वाक का कारणता संबंधी सिद्धांत है। चार्वाक के अनुसार कारण से कार्य की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से होती है। इसकी यदृच्छावाद या आकास्मिकतावाद भी कहा जाता है। कार्य कारण का स्वाभाविक परिणाम है। इसके लिए किसी चेतन निमित करण की आवश्यकता नहीं है।
जैन दर्शन का कारणता संबंधी सिद्धांत सद्-असद् कार्यवाद कहलाता है। इनके अनुसार कारण में एक दृष्टिकोण से सत् होता है और दूसरे दृष्टिकोण से असत् होता है। वे द्रव्य एवं पयार्य भेद से कार्य को सद्-असद् रूप में स्वीकार करते हैं।
बौद्ध दर्शन का कारण-कार्य सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्पाद कहलाता है। यह दो शब्दों के योग से बना है- प्रतीत्य और समुत्पाद। यहां समुत्पाद का अर्थ है- उत्पत्ति, जबकि प्रतीत्य का तात्पर्य है आश्रित। अवलम्बित होकर या अपेक्षा से। अर्थात् कार्य की उत्पति कारण की अपेक्षा से या कार्य पर अवलंबित होकर ही होती है। कारण के होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के नहीं होने पर कार्य नहीं होता है। इसी के आधार पर भगवान बुद्ध ने दुःख के मूल में अविद्या की खोज की एवं इसे सभी दुःखों का कारण बताया।
इसका उल्लेख द्वितीय आर्य सत्य के अंतर्गत की जाती है, यद्यपि इसमें तृतीय आर्य सत्य का भी पक्ष सिन्नहित हो जाता है। प्रतीत्य समुत्पाद मध्यम स्थिति को इंगित करता है। यह शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के बीच का मार्ग है। यह न तो कार्य को अपनी उत्पति के पूर्व कारण में पूर्णतः विद्यमान मानता है, उसकी नवीनता को पूर्णतः अस्वीकार करता है और न ही असद्कार्यवाद की भांति कार्य को कारण से पूर्णतः स्वतंत्र रूप में स्वीकार करता है। यह सापेक्ष कारणवाद को इंगित करता है। यहां कार्य को अपनी उत्पति के लिए कारण की अपेक्षा होती है। प्रतीत्य समुत्पाद के अंतर्गत 12 अंग माने जाते हैं, इसीलिए इसे द्वादशांस भी कहा जाता है। इसे भव चक्र, जन्ममरण चक्र, धर्म चक्र एवं संसार चक्र भी कहा जाता है।
Question : मोक्ष के स्वरूप विषयक शंकर के मत की व्याख्या कीजिए। उनके मतानुसार कर्म और ज्ञान का मोक्ष से क्या सम्बन्ध है? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
(1999)
Answer : शंकराचार्य ने अपने अद्वैतवेदान्त में मोक्ष की बड़ी मौलिक व्याख्या की है। इनके मोक्ष मीमांसा के मूल में अद्वैत तत्वमीमांसा का वह सिद्धान्त निहित है जिसमें आत्मा का ब्रह्म से और ब्रह्म का मोक्ष से तादात्म्य प्राप्त होता है। अन्यायन्य भारतीय विचारधाराओं के समान वेदान्त भी अज्ञान या अविद्या को बन्धन और दुख का कारण स्वीकार करता है। इसमें मोक्ष और इसकी प्राप्ति का साधन केवल प्रतीकात्मक महत्व रखता है, क्योंकि तत्वमीमांसा की दृष्टि से जीव मोक्षस्वरूप है, ब्रह्मस्वरूप है एवं नित्यमुक्त है। वह परमार्थतः ब्रह्म से अभिन्न है। वह अनादि अविद्या के कारण ब्रह्म से अपने पार्थक्य का अनुभव करता है और अनेक प्रकार के दुखों को भोगता है मोक्ष प्राप्ति जीव का केवल अपने नित्य स्वरूप का ज्ञान है जिसे जीव अज्ञान के कारण कुछ समय के लिए भूल चुका है। अद्वैत वेदान्त के ढांचे में मोक्ष में एकमात्र जरूरत उस बाधा को हराने की है जो उसके वास्तविक स्वरूप को छिपाकर उसे बन्धनग्रस्त करती है। इसमें अज्ञान ही वह बाधा है जिसे दूर करने की आवश्यकता है।
चूंकि जीव का बन्धन अविद्याकृत है, अतः अद्वैत वेदान्त में अविद्या निवृत्ति मात्र मोक्ष है। जीव परमार्थतः ब्रह्मस्वरूप एवं नित्यमुक्त है। वह अनादि अविद्या के कारण अपने पारमार्थिक स्वरूप को भूलकर अपने को बन्धन में पाता है। इसी कारण यहां अविधा का दूर होना मात्र ही मोक्ष माना जाता है। अविद्या के दूर होते ही और ज्ञानोदय के साथ ही आत्मा अपने नित्यरूप का साक्षात्कार करके मुक्त हो जाता है। जब अविद्या का लोप होता है तब यथार्थ आत्मा वैसे ही स्वतः प्रकाशित होती है जैसे प्रभावी मलिनताओं को छूट जाने पर सुवर्ण में चमक आ जाती है अथवा दिन के छिप जाने पर मेघशून्य रात्रि में तारे प्रकाश देने लगते हैं। इस प्रकार मोक्ष मिथ्या दृष्टिकोण का मिट जाना मात्र है। शंकर बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि जैसे रस्सी का ज्ञान होने पर सर्पज्ञान दूर हो जाता है तथा जाग जाने पर स्वप्नावस्था की रचनायें स्वतः नष्ट हो जाती हैं। वैसे ही व्रह्मज्ञान होने पर बन्धन एवं तज्जन्य दुख समाप्त हो जाते हैं।
पुनः मोक्ष नित्य प्राप्ति की प्राप्ति है। उपरोक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि मोक्ष प्राप्ति जीव का केवल अपने नित्य स्वरूप का ज्ञान है, जिसे वह कुछ समय के लिए भूल चुका होता है। तात्पर्य यह है कि शंकर के दर्शन में मोक्ष ऐसा कोई आदर्श नहीं है, जो तप से पृथक है और जो निकट या सुदूर भविष्य से प्राप्त होने वाला है। मोक्ष या मुक्ति आत्मा को किसी नवीन अवस्था की प्राप्ति नहीं है। यह आत्मा के नित्यस्वरूप का ही साक्षात्कार है। इस प्रकार मोक्ष न तो परमार्थतः उत्पन्न होती है और न पहले से अप्राप्त है। यह प्राप्त की ही प्राप्ति है। यह शाखत सत्य का अनुभव है।
पुनः शंकर-दर्शन में मोक्ष ब्रह्मभाव या ब्रह्म साक्षात्कार है। यह जीव द्वारा अपनी ही आत्मा का साक्षात्कार है। मोक्ष की स्थिति में जीव अपने यथार्थ स्वरूप को धारण करता है। पुनः मोक्ष दुख निवृत्ति मात्र नहीं है, अपितु आनन्दानुभूति भी है। चित्सुखाचार्य का कथन है कि आनन्दमय का साक्षात्कार ही मोक्ष है। शंकराचार्य मोक्ष का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि यह पारमार्थिक सत् कूटस्थ नित्य, आकाश के समान सर्वव्यापी, सभी क्रियाओं से रहित, नित्यतृप्त, निरवयव एवं स्वयं ज्योतिस्वभाव है। मोक्ष की अवस्था में धर्म एवं अधर्म अपने कार्य सुख, दुख के साथ तीनों कालों में सम्बन्ध नहीं रखते। यह शरीर रहित अवस्था ही मोक्ष है।
अद्वैत वेदान्त में मोक्ष के दो भेद प्राप्त होते हैं- जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति। इसी जीवन में ही मोक्ष प्राप्त होना जीवन्मुक्ति है। शंकर के अनुसार इस जीवन में संदेह रहते हुए भी जीव मुक्त हो सकता है। जीव ब्रह्मैकरण की अपरोक्षानुभूति होने पर जीव इसी जीवन में मुक्त हो जाता है। शरीर पात के अनन्तर प्राप्त होने वाली मुक्ति विदेह मुक्ति है। जीवन्युक्त के जीवन की दो अवस्थायें होती हैं। एक, समाधि की अवस्था। इसमें वह अन्तर्मुखी होता है और स्वयं को ब्रह्म में लीन कर लेता है, उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व समाप्त होकर ब्रह्म में लीन हो जाता है। द्वितीय, व्युत्थान अवस्था। इसमें संसार का मिथ्या प्रपंच उसके सामने होता है, किन्तु वह उससे प्रभावित नहीं होता।
शंकर सद्यः मुक्ति का प्रतिपादन करते हैं। उन्हें क्रम मुक्ति अस्वीकार है। ज्ञान होते ही मुक्ति सद्यः मुक्ति है। इसके विपरीत क्रम मुक्ति शनैः शनैः प्राप्त होती है। शंकर के विपरीत रामानुज क्रम-मुक्ति में विश्वास करते हैं। क्रम मुक्ति में जीव देवयानमार्ग से ब्रह्म तक पहुंचने में अनेक आर्य स्थान हर मंजिल मुक्ति तक जाते हैं। शंकर ऐसी मुक्ति को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि यह नित्य मुक्ति नहीं है। क्रम मुक्ति समय की अवधि में पड़ी हुई मुक्ति है, अर्थात् यह केवल प्रत्ययपर्यन्त रहती है। यह सापेक्षिक मुक्ति है। वास्तव में यह यथार्थ मुक्ति नहीं है, वरन एक प्रकार का लम्बा बन्धन है।
शंकर वेदान्त में विश्वास करने वाले एक जीव के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। उनका कहना है कि जीव तो एक है, वही ब्रह्म या आत्मा है। उसका अनेक दिखना तो भ्रम मात्र है। अतः एक जीव की ही मुक्ति होती है। चूंकि इसमें अनेक जीववाद को अस्वीकार किया जाता है। अतः इसमें सर्वजीव मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता।
अद्वैतवेदान्त में ज्ञानमार्ग को मोक्ष का साधन स्वीकार किया जाता है। उसकी मान्यता है कि केवल ज्ञान से ही मुक्ति मिलती है। ज्ञान के अभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है। उसकी दृष्टि में चूंकि अज्ञान जीव के बन्धन का कारण है। अतः मोक्ष के लिए अज्ञान का निवारण आवश्यक है, जो ज्ञान से ही सम्भव है। इस प्रकार शंकर की दृष्टि में ज्ञानमार्ग से ही मुक्ति सम्भव है। शंकर का ज्ञानमार्ग सांख्य-योग दर्शन के ज्ञानमार्ग से भिन्न है। शंकराचार्य सांख्य के ज्ञानमार्ग को अवैदिक मार्ग कहते हैं। शंकर कर्ममार्ग एवं भक्तिमार्ग को भी मोक्ष-प्राप्ति में अपर्याप्त सिद्ध करते हैं। उनकी दृष्टि में मोक्ष के साधन के विषय में निम्नलिखित बाते उल्लेखनीय हैं:
कर्म से मुक्ति सम्भव नहीं है। शंकर के अनुसार मोक्ष को कर्म का फल मानने पर उसके अनित्यत्व का प्रसंग उपस्थित होगा। शंकर के अनुसार कर्म का फल उत्पाध, विकार्य, प्राप्य एवं संस्कार्य होता है। मोक्ष न तो उत्पाद्य है, न प्राप्य है, न विकार्य है एवं न संस्कार्य। शंकर के अनुसार मोक्ष, उत्पाद्य नहीं है, क्योंकि उत्पाद्य कर्मों में अनित्यत्व देखा जाता है। जैसे ‘घर करोति’ में घट उत्पाद्य है और अनित्य भी। किन्तु मोक्ष नित्य अवस्था होने के कारण उत्पाद्य नहीं है। मोक्ष विकार्य नहीं है, क्योंकि लोक में विकार्य दधि आदि कार्यों में अनित्यत्व देखा जाता है, परन्तु मोक्ष नित्य है। मोक्ष प्राप्य नहीं है, क्योंकि यह स्वात्मस्वरूप होने के कारण नित्य प्राप्त है। पुनः मोक्ष संस्कार्य भी नहीं है। संस्कार्य पदार्थों में संस्कार दो प्रकार का होता है- गुणाधानरूप संस्कार और दोषापनयनरूप संस्कार। मोक्ष में गुणाधानरूप संस्कार न घटाया जा सकता है, जोड़ा जा सकता है।इसमें दोषापनयन रूप संस्कार भी संभव नहीं है, क्योंकि यह नित्य शुद्ध ब्रह्मभाव ही है। इस प्रकार मोक्ष कर्म से ही नहीं प्राप्त किया जा सकता। परन्तु कर्म मार्ग बिल्कुल निरर्थक नहीं है। शंकर के अनुसार कर्म से चित्त-शुद्धि होती है और भक्ति चित्त की एकाग्रता में सहायक है। ज्ञान में चित्त शुद्धि एवं चित्त की एकाग्रता की महती भूमिका होती है।
शंकराचार्य का स्पष्ट मत है कि ज्ञानमार्ग का अनुसरण करके ही मोक्ष लाभ सम्भव है, क्योंकि ज्ञान से ही अज्ञान, जो बन्धन का हेतु है, का निवारण सम्भव है। उल्लेखनीय है कि ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति की बात करना भी उपचार मात्र है, क्योंकि यह मोक्ष को उत्पन्न नहं करता, केवल अविद्यानिवृत्ति करता है, जिससे आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का अपरोक्षानुभव होता है। वास्तव में अविद्यानिवृत्ति, आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्मभाव एवं मोक्ष एक ही है। उल्लेखनीय है कि अद्वैतवेदान्त में सभी लोग ज्ञान मार्ग के अधिकारी नहीं है। ज्ञानमार्ग का अधिकारी केवल वही है जो साधन चतुष्टय से युक्त है। साधन चतुष्टय चित्त को शुद्ध करके उसे ज्ञान मार्ग के योग्य बनाता है। इससे वैराग्य भाव उत्पन्न होता है, जो ज्ञान मार्ग के लिए आवश्यक है। साधन चतुष्ट्य, अर्थात् नित्यानित्यवस्तुविवेक, इहा विराग, राक्षमदसामदि साधन सम्पत एवं मुमुक्षत्व के पश्चात श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन व्यक्ति को मोक्ष तक ले जाता है।
Question : ‘ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है।’ (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवत्ति)।
(1998)
Answer : अद्वैत वेदान्त के अनुसार परम सत एक अद्वैत रूप है। इसे ही आत्मतत्व या ब्रह्म तत्व कहते हैं। इस परम तत्व की उपलब्धि हमें आत्मगत एवं वस्तुगत दोनों विधियों से होती है। यही मोक्ष है। परम सत की अनुभूति शान्त में नहीं हो सकती। परम सत ब्रह्म का साक्षात्कार आत्मा की अनन्ता में ही हो सकता है। सभी आस्तिक दार्शनिक आत्मलाभ को ही परमलाभ या मोक्ष मानते हैं? आत्म लाभ आत्मा की अपने रूप में अवस्थिति है। आचार्य शंकर के अनुसार भी आत्मा की अपने रूप में अवस्थिति मोक्ष है। तात्पर्य यह है कि मुक्त आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। आत्मा का निजी स्वरूप नित्य, शुद्ध चैतन्य है, परन्तु अज्ञान के कारण यह स्वरूप नहीं रह जाता। अज्ञान या अविद्या के कारण ही नित्य आत्मा का अविद्या या शरीर से सम्बंद्ध हो जाता है। अतः पारमार्थिक अशरीरी आत्मा सांसारिक शरीरी प्रतीत होने लगता है। जब आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तो संसार और शरीरी सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं।। यही आत्मा की अपने निजी रूप में अवस्थिति है। इस अवस्थिति की प्राप्ति केवल ज्ञान से ही सम्भव है। ज्ञान के प्रकाश से ही अज्ञान का अन्धकार दूर हो सकता है। विद्या से ही अविद्या की निवृत्ति सम्भव है। इस प्रकार आत्मा की अपने स्वरूप में अवस्थिति और अज्ञान का विनाश दोनों एक ही साथ है। इसी कारण अद्वैतवेदान्त में मोक्ष की एक और परिभाषा दी जाती है कि अज्ञान की निवृत्ति ही मोक्ष है। वस्तुतः अज्ञान की निवृत्ति और आत्मा की स्वरूप में अवस्थिति दोनों एक ही है। जब अज्ञान का विनाश हो जाता है तो आत्मा अपने की पारमार्थिक, नित्य, कुटस्थ, आकाश के समान सर्वव्यापी, सभी प्रकार क्रियाओं से रहित नित्य तृप्ति निरवयव धर्मों धर्म से शून्य शुद्ध ज्योति, स्वयं प्रकाश आदि रूप में अनुभव करने लगता है। यही आत्मा की निजी रूप में अवस्थिति है। आत्मा की यह अवस्थिति अज्ञान की निवृत्ति से ही सम्भव है। जब तक अज्ञान का आवरण रहेगा, तब तक आत्मा की स्थिति यह नहीं होगी। इसी कारण शंकराचार्य अज्ञान के विनाश को मोक्ष कहते हैं। मिथ्या ज्ञान के विनाश से आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान हो जाता है। यह आत्माज्ञान सर्वात्मभाव है। सर्वब्रह्म है, अतः सर्वात्यब्रह्मज्ञान है। यही मोक्ष की अवस्था है। यह आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता का ज्ञान है। आत्मा ज्ञानी और ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म हो जाता है। अतः ब्रह्मभाव ही मोक्ष है। यह ब्रह्मभाव ब्रह्मात्मैकत्वज्ञान है। प्रश्न यह है कि इस सर्वात्मज्ञान या ब्रह्मभाव का साधन क्या है? शंकर के अनुसार एकमात्र ज्ञान ही उसका साधन है। यह कर्मसाध्य नहीं वरन् ज्ञान साध्य है। कर्म का फल तो अनित्य है, मोक्ष तो नित्य अवस्था है।
Question : रामानुज के अनुसार ब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या कीजिए तथा जीव एवं ब्रह्म के सम्बन्ध का विवेचन कीजिए।
(1998)
Answer : रामानुज के दर्शन में ब्रह्म परम यर्थाथता है। उनके ब्रह्म विचार को विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं। यह शंकर के अद्वैतवाद से भिन्न है। इसमें अद्वैत तत्व का समर्थन तो किया गया है, किन्तु विशेष अर्थ में। रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद पर उपनिपदों के ब्रह्मवाद एवं व भागवत धर्म के ईश्वरवाद का प्रभाव है, अर्थात् रामानुज ने उपनिषदों के निर्गुण ब्रह्मवाद एवं भागवत धर्म के ईश्वर की पुरूष परक अवधारणा में समन्वय करते हुए ब्रह्म के स्वरूपका विवेचन किया। इसके परिणाम स्वरूप रामानुज के ब्रह्म शंकर के ब्रह्म से कतिपय दृष्टियों से अन्तर आ गया। जैसे, रामानुज ने शंकर के निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा को अस्वीकार करके ब्रह्म के सगुण रूप का समर्थन किया। सर्वभेदरहित ब्रह्म का खण्डन करके उसको स्वगत भेद से युक्त माना। जीव एवं ब्रह्म के तादात्मय तथा जगत के मिथ्यात्व का निषेध करके जीवों की यथार्थता एवं जगत की वास्तविकता को स्वीकार किया। इस प्रकार रामानुज का दर्शन शंकर के दार्शनिक विचारों के विरूद्ध एक प्रतिक्रिया प्रतीत होता है।
रामानुज के अनुसार ब्रह्म में स्वगत भेद है। शंकर का ब्रह्म सजातीय, विजातीय एवं स्वगत सभी प्रकार के भेदों से वृहत है। रामानुज का कथन है कि यह सत्य है कि ब्रह्म में सजातीय एवं विजातीय भेद नहीं है, किन्तु उसमें स्वगत भेद अवश्य है। शंकर का भेद रहित ब्रह्म एक कल्पनामात्र है। ज्ञान की पद्धति में भेद रहित वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता। ज्ञान का स्वरूप ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ की सत्ता की ओर संकेत करता है। यदि ऐसा ब्रह्म है भी तो वह अज्ञेय एवं शून्य और धार्मिक तथा व्यावहारिक प्रयोजन की दृष्टि से अनभीष्ट है। अतः ब्रह्मको अनिवार्यतः स्वगत भेद से युक्त होना पड़ेगा। उल्लेखनीय है कि रामानुज ईश्वर चित्र और अचित्र तीन तत्व मानते हैं। चित्र चेतन भोक्ता जीव है, अर्थात् जड़ एवं योग्य जगत है। ईश्वर दोनों का अर्न्तयामी तत्व है। ये तीनों यथार्थ एवं अंतिम सत्तायें हैं। यद्यपि ये तीनों समान रूप से यथार्थ एवं शास्वत है, यथापि अन्तिम वे अपनी सत्ता के लिए प्रथम (ईश्वर) पर आश्रित है।
ईश्वर का जीव और जगत के साथ अपृथक सिद्धि सम्बन्ध है। वस्तुतः ईश्वर, चित्र और अचित्र की अपृथक सिद्धि एकता ही रामानुज का ब्रह्म है। जीवात्मायें तथा प्रकृति ईश्वर की एकता में समाविष्ट हैं। ब्रह्म के साथ उनका सम्बन्ध वैसा ही है, जैसा गुणों का द्रव्य के साथ या हिस्सों का सम्पूर्ण के साथ। ईश्वर जीव और प्रकृति, चित्र और अचित्र से विशिष्ट है। जीवात्मा यथार्थ एवं स्थाई है यद्यपि वे अपने सब विकारों के लिए ईश्वर के अधीन हैं। ईश्वर के अस्तित्व में जीव आभ्यांतर एवं जगत बाह्य शरीर है। जीव एवं जगत अपने स्वरूप भेद से तीन है, किन्तु पद्धति तथा द्रव्य के ऐक्य के कारण एक हैं, अतः उनका ब्रह्म एक जैविक ईकाई या अंगीय एकता या संग्रचित साकल्प की एकता माना जा सकता है।
रामानुज शंकर के निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा का खंडन करते हैं। ब्रह्म को निर्गुण या निर्विशेष कहना कोरी कल्पना है। ज्ञान की पद्धति निर्गुण, निर्विशेष एवं भेद रहित ब्रह्म के साथ मेल नहीं खाती। अतःब्रह्म सगुण ही हो सकता है। प्रत्येक ज्ञान में विवेचन का तत्व शामिल होता है और ज्ञान की उत्पत्ति तुलना, वैधर्म्य, संश्लेषण एवं विश्लेषण से होती है। इस पद्धति सो किसी सगुण एवं सविशेष वस्तु का ही ग्रहण होता है, निगुर्ण एवं निर्विशेष वस्तु का नहीं। ज्ञान का सविकल्प होना भी ब्रह्म को सगुण ही सिद्ध करता है।
रामानुज अपनी ईश्वर सम्बन्धी धारणा का समर्थन धर्मशास्त्रें से भी करते हैं। वेद ब्रह्म को शुभ गुणों से युक्त कहते हैं। उपनिषद उसे सत्यम ज्ञानम और अनन्तम कहती है। उनके अनुसार सत्य, ज्ञान और आनत्य या आनन्द ब्रह्म के गुण हैं उनके स्वरूप नहीं। रामानुज ब्रह्म के दो रूप मानते हैं- कारण ब्रह्म एवं कार्य-ब्रह्म। कारण-ब्रह्म ब्रह्म की सृष्टिपूर्व अवस्था है। प्रलयकाल में चित् और अचित्र सूक्ष्मावस्था में होते हैं। यह ब्रह्म की कारणावस्था है, अर्थात् सूक्ष्म चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म कारण ब्रह्म है। ब्रह्म की कार्यावस्था उसकी कारणावस्था से भिन्न है। इसमें द्रव्य के नियामक अंश (ईश्वर) में कोई परिवर्तन नहीं होता। परिवर्तन केवल उसके नियाम्य अंशों (चित्त और अचित्त) में होता है। ये दोनों अंश स्थूल होकर नामरूप धारणा कर लेते हैं। इस प्रकार स्थूल चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म कार्य ब्रह्म है। रामानुज ने कार्य ब्रह्म की सत्य सत्ता स्वीकार करके यह दिखाने का प्रयास किया है कि ब्रह्म ही सभी रूपों में स्थित है और उसकी चिदचिद्विशिष्ट सत्ता ही एकमात्र सत्य है।
रामानुज भागवत धर्म के प्रभाव में ईश्वर को विष्णु कहते हैं। वे विष्णु या ब्रह्म के पांच रूपों की चर्चा करते हैं - परा व्यूहरूप, विभवरूप, अन्तर्यामी रूप, अर्चारूप। अन्नतः रामानुज का ईश्वर धर्म का ईश्वर है। वह व्यक्तियुक्त है, सगुण है, स्वगतभेद युक्त है। वह पापियों, दीन-दुःखियों पर दया करता है। लोकोपकार उसका आवश्यक गुण है। सत् और आनन्द ब्रह्म के गुण हैं, ब्रह्म कास्वरूप नहीं जैसा कि शंकर मानते हैं कि ईश्वर ने करूणा से प्रेरित होकर जगत की रचना की है, धार्मिक विधान का निर्माण किया है, वह अवधारणा व उपासना का विषय है।
रामानुज के ब्रह्म विषयक अवधारणा से यह स्पष्ट है कि उन्होंने भागवत धर्म के ईश्वरवाद और उपनिषदों के ब्रह्मवाद, धर्म के अंतिम तत्व तथा दर्शन के अन्तिम तत्व (ब्रह्म) में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। उनका यह प्रयास प्रशंसनीय था, किन्तु दोनों के समन्वय से प्राप्त निष्कर्ष में अनेक विसंगतियों आ गयी। भागवत धर्म पर आधारित होने के कारण वह ईश्वर के साथ जीव और जगत दोनों की अन्तिम सत्ता को स्वीकार करने के लिए बाध्य करती है।किन्तु उपनिषदों के प्रति निष्ठा उन्हें इसमें संशोधन करने के लिए बाध्य है, किन्तु इसका तार्किक निष्कर्ष असन्तोषजनक हो जाता है। इसमें तार्किक दृष्टि से निम्नलिखित विसंगतियां दिखाई देती हैं:
(i) रामानुज ईश्वर, जीव (चित्त) और प्रकृति (अचित्त) को अन्तिम सत्तायें मानते हैं, साथ ही चित्त और अचित्त को ईश्वर आश्रित भी। किन्तु यदि ये तत्व सत्ता की दृष्टि से एक है तो उनमें भेद कैसा? यदि चित्त और अचित्त को अन्तिम सत्ता माने तो ब्रह्म का ब्रह्मत्व समाप्त हो जाता है। वास्तव में चित् और अचित् को ब्रह्म के साथ नित्य मानना अनुचित है। इससे ब्रह्म की एकता की तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती।
(ii) अपृथक सिद्धि की धारणा भी जिस पर रामानुज ब्रह्म की एकता को स्थापित करना चाहते हैं, असंगत है, क्योंकि इसमें अन्तर्निहित भेद है। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सगुण ब्रह्म दर्शन की अन्तिम वस्तु वैसे ही नहीं हो सकता, जैसे ईश्वर धर्म की अन्तिम वस्तु होकर भी दर्शन की अन्तिम वस्तु नहीं हो सकता। ब्रह्म को व्यावहारिक प्रयोजनों के लिए सगुण मानने में कोई दोष नहीं है, किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से उसे निर्गुण होना ही पडे़गा।
(iii)रामानुज ईश्वर को जगत का निमित्त और उपादन, दोनों कारण मानते हैं। उनके अनुसार विकास की स्थिति में विशेष्य (ईश्वर) में कोई परिणाम न होकर केवल उसके विशेषणांश (अचित) में होता है। उसके विशेषणांश के परिणाम का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। किन्तु अवियोज्य विशेषणांश के परिवर्तनशील होने पर विशेष्यांश के अपरिवर्तनशील बने रहने की बात समझ में नहीं आती। प्रकृति के परिवर्तन का ईश्वर के स्वरूप पर अवश्य प्रभाव पड़ेगा। यह नहीं हो सकता कि हम मुर्गी का आधा भाग पकाने के लिए ले लें और शेष भाग को अण्डे देने के लिए छोड दें।
वस्तुतः रामानुज भी शंकर की तरह महान आचार्य हुए। उनकी धार्मिक प्रतिभा महान थी। उनमें दार्शनिक भाव तो प्रबल था। धार्मिक आकांक्षायें भी उतनी ही प्रबल थीं। उन्हाेंने धार्मिक भावनाओं की मांग का तार्किक विचार-पद्धति के साथ समन्वय करने का प्रयास किया। यदि उन्हें सफलता नहीं मिली तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि दो घोड़ों पर एक साथ सवारी नहीं की जा सकती। यह असफलता केवल रामानुज की ही नहीं है, वरन, समस्त ईश्वरवादी दार्शनिकों की है।
Question : माध्व वेदान्त का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
(1998)
Answer : वेदान्त परम्परा में मध्वाचार्य द्वैतवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्हें पूर्णप्रज्ञ एवं आनन्दतीर्थ भी कहते हैं। माध्वाचार्य ने अपने दार्शनिक चिन्तन में दो कार्य किया। प्रथम, उन्होंने अद्वैत विचारधारा को सदोष सिद्ध करके उसे उसके तत्वज्ञान के खोखलेपन को उद्घाटित किया। द्वितीय, उन्होंने वैष्णव परम्परा के भक्ति सिद्धान्त को तार्किक आधार पर प्रतिष्ठित किया।
माध्वाचार्य अन्य वैष्णव दार्शनिकों के समान प्रमाणमीमांसा की दृष्टि से एक यथार्थवादी विचारक हैं। ये ज्ञान को आत्मा का गुण मानते हैं। उनकी दृष्टि से ज्ञाता आने ज्ञान परस्पर भिन्न है, क्योंकि ज्ञान ज्ञाता का धर्म है। ज्ञान ज्ञाता के एकरूप नहीं है। उनके अनुसार ज्ञान की प्रक्रिया में ज्ञाता ज्ञेय विषय को जानता है। इस कारण ज्ञाता ज्ञेय, इन दोनों के सम्बन्ध को ज्ञान कहते हैं। माध्वज्ञान मीमांसा में साक्षी की अवधारणा महत्वपूर्ण है। ज्ञाता की स्वयं की आन्तरिक संवेदना शक्ति ही साक्षी है। यह आत्मा की स्वरूप चैतन्येन्द्रिय मध्वाचार्य स्वतः प्रामण्यवाद के समर्थक हैं। उनकी दृष्टि में जिन कारणों से ज्ञान उत्पन्न होता है। उन्हीं से ज्ञान में प्रामाणिकता भी उत्पन्न होती है। पुनः ज्ञाता ज्ञान के साथ-साथ उसके प्रामण्य को भी ग्रहण कर लेता है।
माध्वाचार्य तत्वमीमांसा की दृष्टि से द्वैतवादी यर्थाथवादी हैं। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद या अभेदवाद के विरोध में द्वैतवाद का प्रतिपादन किया। उन्होंने शंकराचार्य के उस दृष्टिकोण को अस्वीकार किया, जिसमें भेद के मिथ्यातत्व का प्रतिपादन हैं। वे कट्टðर भेदवादी या द्वैतवादी हैं। उनका द्वैतवाद पाश्चात्य दर्शन के उस द्वैतवाद से भिन्न है, जिसमें दो अन्तिम सत्ताओं की स्वीकृति प्राप्त होती है। भारतीय दर्शन में उनका द्वैतवाद सांख्य दर्शन के द्वैतवाद से भी भिन्न है। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन के द्वैतवाद में दो स्वतंत्र, निरपेक्ष एवं अन्तिम तत्व स्वीकृत हैं- पुरुष एवं प्रकृति। किन्तु मध्व का द्वैतवाद अनूठा है। इसमें पंचविध भेद स्वीकृत हैं। ये हैं-
वे इन पांचों को समग्रतः प्रपंच कहते हैं। एक अन्य दृष्टि से उनके दर्शन में दो तत्वों का कथन प्राप्त होता है- स्वतंत्र एवं अस्वतंत्र। इनमें स्वतंत्र तत्व स्वयं भगवान विष्णु हैं। जीव एवं जगत परतंत्र तत्व हैं। सम्भवतः इसी कारण उनके दर्शन को द्वैतवाद या भेदभाव कहते हैं।
मध्वाचार्य की द्वैतवादी तत्वमीमांसा में ब्रह्म ही एकमात्र स्वतंत्र तत्व है। उनके यथार्थवादी द्वैतवाद में ब्रह्म और ईश्वर एक ही तत्व है। ब्रह्म ही एकमात्र निरपेक्ष सत् एवं परमतत्व है, जो सर्वगुणसम्पन्न है। ईश्वर ही नारायण, हरि, ईश्वर, परमेश्वर, वासुदेव, परमात्मा एवं विष्णु आदि नामों से जाने जाते हैं। पुनः ब्रह्म के साथ जीव एवं जगत की भी पारमार्थिक सत्ता है। इस प्रकार मध्वाचार्य ईश्वर के साथ जीव एवं जगत की भी अन्तिम सत्ता को स्वीकार करके शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं रामानुज के विशिष्टद्वैतवाद को अस्वीकार करते हैं। उनके अनुसार ईश्वर जीव, एवं प्रकृति, ये परस्पर भिन्न तत्व हैं और अपनी-अपनी सत्ता रखते हैं, क्योंकि ये अनुभव का विषय बनते हैं और जो भी अनुभव का विषय बनता है, विरोध में कहते हैं कि ईश्वर जीव एवं प्रकृति में किसी एक में अन्य का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता और बहुत्व या नानात्व को मिथ्या भी नहीं कहा जा सकता। मध्वाचार्य द्वैत या भेद को ही अन्तिम यथार्थता मानते हैं।
ब्रह्म, जीव, एवं प्रकृति स्वरूपतः भिन्न है, अतः इनमें अभेद सम्बन्ध नहीं हो सकता। मध्वाचार्य का ब्रह्म विचार शंकर और रामानुज के ब्रह्म-विचार से भिन्न है। वे ब्रह्म विषयक अद्वैतवादी अवधारणा को अस्वीकार करते हैं, चाहे वो शंकर का अद्वैत रूप ब्रह्म हो या रामानुज का विशिष्टद्वैत रूप ब्रह्म। उनका ब्रह्म शंकर के निर्गुण, निर्विशेष एवं भेद रहित ब्रह्म से भी भिन्न है एवं रामानुज के स्वगत-भेदयुक्त ब्रह्म से भी। मध्वाचार्य ईश्वर को सगुण एवं सविशेष मानते हैं। वे शंकर के निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा का खण्डन करके उसे सगुण एवं सविशेष सिद्ध करते हैं। उनका कथन है कि निर्गुण ब्रह्म की अवधारणा को स्वीकार करें तो उसे अज्ञेय होना पड़ेगा और ऐसा ब्रह्म अभीष्ट नहीं होगा। ब्रह्म इसलिए भी निर्गुण एवं निर्विशेष नहीं हो सकता, क्योंकि निर्विशेष स्वयं एक भेदक तत्व है जो सविशेष तत्वों से निर्विशेष तत्व को पृथक करता है।
मध्वाचार्य अपने द्वैतवादी तत्वमीमांसीय ढांचे में जगत का विवेचन करते हैं और जगत की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करते हैं। वे इस सन्दर्भ में जहां एक ओर शंकर के अद्वैतवाद का खण्डन करते हैं वहीं दूसरी ओर रामानुज की जगद्विषयक विशिष्ट द्वैतवादी अवधारणा को भी असन्तोषजनक कहते हैं। वे जगत विषयक शंकराचार्य की मायावादी अवधारणा को श्रुतिबाह घोषित करते हैं। उन्होंने अद्वैतवेदान्त के मायावाद, आभासवाद, अध्यासवाद जगत मिथ्यात्व के विचार, सत्तात्रय के सिद्धान्त को बौद्ध तत्वज्ञान की पुनर्व्याख्या बताया और यह भी प्रतिपादित किया कि ये विचार बौद्ध दर्शन से अद्वैतवाद में प्रवेश कर गये हैं। मध्वाचार्य रामानुज की जगत् विषयक विशिष्टाद्वैत अवधारणा का भी खण्डन करते हैं। उनके अनुसार रामानुज जगत की वास्तविकता को तो स्वीकार करते हैं किन्तु उनके विशिष्टद्वैतवादी तत्वमीमांसीय ढांचे में जगत की वास्तविकता की न्यायोचित व्याख्या नहीं हो पाती। मध्वाचार्य का कथन है कि जगत के विषय में रामानुज का ब्रह्मपरिणामवादी विचार अनुचित है। उल्लेखनीय है कि रामानुज ब्रह्म को जगत का निमित एवं उपादान दोनों कारण मानते हैं और जगत को ब्रह्म का परिणाम या विकार कहते हैं। मध्वाचार्य का कथन है कि ब्रह्म के साथ उपादान कारण असंगत है क्योंकि उपादान कारण परिणामी या विकारी होता है। परन्तु ईश्वर परिणामी या विकारी नहीं है। माध्वाचार्य के अनुसार जो अनुभव का विषय बनता है वह सत् है। पुनः जिसमें अर्थक्रियाकारित्व का लक्षण है, वह सत् है। इन्हीं दोनों आधारों पर वे जगत की वास्तविक सत्ता को सिद्ध करते हैं, क्योंकि जगत अनुभव का विषय बनता है एवं उनमें अर्थक्रिया कारित्व का लक्षण या परिवर्तनशीलता निहित है।
मध्व के द्वैतवादी दर्शन में जीव एक भेद या द्वैत को सत्य मानते हैं। उनका कथन है कि जो स्वरूपतः भिन्न होता है, वह कभी भी अभिन्न नहीं हो सकता। वे ब्रह्म एवं जीव के स्वभाव भेद का प्रतिपादन करके अद्वैतवाद के जीवों ब्रह्मदैव या ब्रह्म जीवैकत्व के विचार को अस्वीकार करते हैं। उनका जीव विचार वैष्णव-मत के अनुकूल है। मध्वाचार्य जीव का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि जीव वह है जो इस जीवन में सुख एवं दुख का अनुभव करता है, जो बन्धन और मोक्ष का पात्र है, जो प्रत्येक अनुभव में ‘मैं हूं’ इस ज्ञान का साक्षी है। मध्वाचार्य के अनुसार जीव को ईश्वर अंश कहने का अर्थ है कि जीव ईश्वर का प्रतिबिम्ब है। परन्तु उनका जीव विचार एक दार्शनिक एवं बौद्धिक व्यक्ति को कभी संतुष्ट नहीं कर सकता। भेद व्यवहार में तो सत् हो सकता है लेकिन परमार्थ-सत् नहीं हो सकता। उनका जीव विचार भेद-दृष्टि का परिणाम है।
अन्यान्य भारतीय दर्शनों की भांति माध्व दर्शन में भी बन्धन और मोक्ष की समस्या जीव से सम्बन्धित है। माध्व वेदान्त जीव एक अस्वतंत्र तत्व है। उसका कर्त्तव्य एवं भक्तिृत्व ईश्वर प्रदत्त हैं। वह अपनी सत्ता के लिए ईश्वर पर निर्भर है। माध्व दर्शन बन्धन और मोक्ष को भी ईश्वर का कार्य मानता है। बन्धन एवं मोक्ष ईश्वर की इच्छा से होता है यह केवल जीव के अज्ञान या कर्म से नहीं होता। आना अद अविद्या। अनादि के कारण जीव अपना स्वरूप भूल जाता है जो उसे बन्धन की ओर ले जाता है। मध्वाचार्य की मान्यता है कि बन्धन से छूटकारा पाना ही मोक्ष ईश्वर के कृपा के बिना संभव नहीं। भगवान कृण का सिद्धान्त माध्व दर्शन में बहुत महत्वपूर्ण है इसके द्वारा उन्होंने भारतीय दर्शन के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा। परन्तु बन्धन को भी ईश्वर का कार्य बताकर माध्व वेदान्त ने ईश्वर शुभत्व पर आघात पहुंचाया। वास्तव में माध्व दर्शन का मोक्ष विचार तर्कतः संतोषजनक नहीं है।
Question : उपनिषदों के महावाक्य।
(1997)
Answer : आत्मा ही ब्रह्म है तथा बह्म ही आत्मा है। इन दोनों की अभिन्नता को बतलाने बाले श्रुति वाक्य अनेक हैं- अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् ‘मैं ही ब्रह्म हूं’ अयात्मा ब्रह्म अर्थात् यह ‘आत्मा ही ब्रह्म है’ तत्वमसि अर्थात् ‘तुम वही हो’। ये सभी वाक्य आत्मा या ब्रह्म की अभिन्नता या एकता का प्रतिपादन करते हैं। इन्हें महावाक्य कहा जाता है। प्रश्न यह है कि इन महावाक्यों से अभेद अर्थ कैसे सिद्ध होता है। आपाततः तो यह अर्थ नहीं निकलता। साधारण दृष्टि से तो जीव अल्पज्ञ, अनित्य, शान्त है और ब्रह्म सर्वज्ञ, नित्य और अनन्त है। जीव कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता है और ब्रह्म शुद्ध-बुद्ध-मुक्त है। जीव संसार में दुःख-दुख का अनुभव करता है, ब्रह्मपारमार्थिक है, केवल आनन्द रूप है। फिर जीव ब्रह्म एक (जीवों ब्रह्मैव नापरः) है, कैसे हो सकता है? साधारण दृष्टि से तो इन श्रुति वाक्यों में विरोध स्पष्ट है। वस्तुतः शब्द के अर्थ का ज्ञान दो प्रकार से होता है। अमिधा और लक्षणा से। शब्द की मुख्य दृष्टि अभिधा कहलाती है। इसे ही शक्ति कहते हैं। इस शक्ति का ज्ञान ही हमें व्याकरण कोष आदि के द्वारा होता है। उदाहरणार्थ, जो एक शब्द या पद है। इससे जो व्यक्ति नामक पदार्थ का ज्ञान होता है। दूसरे शब्दों में, गो-अर्थ गो-शब्द का अभिधेयार्थ है। संक्षेप में, यह शाबिदक अर्थ है, परन्तु सब स्थान पर शब्द का शाब्दिक अर्थ ही ग्रहण नहीं होता। कहीं कहीं शब्द का लाक्षणिक अर्थ भी ग्रहण किया जाता है। उदाहरणार्थ, हम कहते हैं कि वह व्यक्ति बिल्कुल गाय है। यहां गाय का अर्थ सीधा है अर्थात वह व्यक्ति गाय के समान सीधा है। परन्तु ‘सीधा होना ‘गो’ शब्द का मुख्यवृत्ति नहीं वरन् गौण वृति है।
अतः लक्षणा शब्द की गौण वृति है। लक्षणा तीन प्रकार की होती है- जहत्य अजहज और जहज्जहत्। जहत् का अर्थ त्याग करना है। जिस वाक्य में मुख्य अर्थ का त्याग किया जाता है, वह जहत लक्षणा हैं। उदाहरणार्थ, गंगा, घोष अर्थात गंगा में गांव है। इस अर्थ में गंगा में अर्थ का त्याग करना पड़ता है और ‘गंगा तट’ अर्थ लेना पड़ता है। अजहज के अन्तर्गत पद का प्राकृत अर्थ नहीं छोड़ा जाता, परन्तु वाच्यार्थ में परिवर्तन करना पड़ता है। उदाहरणार्थ काकेभ्यः दधि रक्ष्यताम अर्थात् कौआ से दही बचाना। परन्तु इसका अर्थ सिर्फ कौआ से नहीं बल्कि अन्य पक्षियों से भी दही की रक्षा करना। इस प्रकार कौआ अपना अर्थ रखते हुए भी लक्षणा में प्रयुक्त होता है। जहज्जत लक्षणा के अन्तर्गत जहत् और अजहत् दोनों हैं अर्थात् इसमें कुछ त्याग भी करना पड़ता है और कुछ नहीं भी त्यागना पड़ता है। उदाहरणार्थ सोड देवदतःअर्थात यही वह देवदत है अर्थात् पहले जिस देवदत्त की कहीं दूसरी जगह मैंने देखा था उसे ही यहां इस स्थान पर देख रहा हूं। इस वाक्य में देवदत् तो एक ही है। हम सिर्फ काल एवं स्थान भूल जाते हैं।
अद्वैत वेदान्ती श्री शंकराचार्य का कहना है कि ‘तत्वमसि’ आदि महावाक्यों का अर्थ जहज्जत् लक्षणा से ही स्पष्ट होता है। इस वाक्य में तत् शब्द ब्रह्म के लिए और त्व शब्द जीव के लिए है। अतः इसका अर्थ है अभेद परन्तु ब्रह्म और जीव दोनों एक या अभिन्न कैसे? जीव अल्पज्ञ है, अणु है, और शान्त है। ब्रह्म सर्वज्ञ है, विभु है और अनन्त है। दोनों में व्यावाहारिक दृष्टि से भेद है, परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से दोनों एक है, अभिन्न है, अद्वैत है। पारमार्थिक दृष्टि से दोनों में शुद्ध चैतन्य है। इस प्रकार तत् ब्रह्म से सर्वज्ञ, विभु आदि विशेषणों का त्याग करते हैं और त्वं (जीव) क अल्पज्ञ अणु आदि विशेषणों का ज्याग करते हैं तथा दोनों के विशेष्य युद्ध चैतन्य का त्याग नहीं करते हैं। इस प्रकार जहज्जहत लक्षण से महावाक्य का अर्थ स्पष्टहो जाता है। इसका अर्थ है कि जीव और ब्रह्म दोनों अभिन्न है। जीवों ब्रह्मैव नापरः। जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध ‘समानाधिकरण्य’ बताया गया है, अर्थात् दोनों का अधिकरण ‘चैतन्य’ समान है।
Question : भारतीय दर्शन के रूढि़वादी और विपंथितावादी दोनों ही प्रकार के विभिन्न संप्रदायों के आत्मा और उसके मोक्ष विषयक विभिन्न मतों के साम्य और वैषम्य को प्रस्तुत कीजिए।
(1997)
Answer : धार्मिक दृष्टि से मानव जीवन का चरम आदर्श आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति को स्वीकार किया गया है। इस संदर्भ में भारतीय दार्शनिक संपद्रायों में मोक्ष की अवधारणा का अत्याधिक महत्व है। इनमें मोक्ष को ही परम पुरूषार्थ माना गया है। कैवल्य, निर्वाण, मुक्ति, परमार्थ आदि मोक्ष के ही समानार्थक शब्द हैं। भौतिकवादी चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शन में मोक्ष को ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य स्वीकार किया गया है। परंतु मोक्ष के स्वरूप तथा इसकी प्राप्ति के विषय में इनमें मतभेद है। हालांकि कुछ बिंदुओं जैसे, मोक्ष परम लक्ष्य के रूप में, सबको इसके लिए प्रयासरत् रहने की आवश्यकता, मोक्ष से दुखों की आत्यंतिक निवृत्ति आदि के विषय में ये दार्शनिक संप्रदाय एकमत हैं।
सर्वप्रथम उपनिषदों में मोक्ष के स्वरूप तथा उसे प्राप्त करने के उपायों की विस्तृत विवेचना की गई। कुछ उपनिषद जीव और ब्रह्म की साम्यावास्था को मोक्ष मानती है, जबकि कुछ अन्य उपनिषदों के अनुसार जीव और ब्रह्म का तादात्म्य ही मोक्ष है। इसी प्रकार बाद के दार्शनिक संप्रदायों में भी मोक्ष के स्वरूप को लेकर सहमति नहीं है। इस संबंध में दर्शन में जो मतभेद है, उसका कारण है आत्मा के विषय में इन दार्शनिक संपद्रायों के भिन्न-भिन्न विचार। इन संप्रदायों में आत्मा के स्वरूप के आधार पर ही मोक्ष की विवेचना की गई है। मोक्ष के स्वरूप के विषय में उनके विचारों में अंतर आना स्वाभाविक है।
न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा को एक द्रव्य माना गया है तथा चेतना को आत्मा का आकस्मिक गुण। चेतना आत्मा में मनस एवं इंद्रियों के साथ संयोग के कारण उत्पन्न होता है। अतः मोक्ष के विषय में न्याय-वैशेषिक की मान्यता है कि मोक्ष सभी दूःखों की आत्यांतिक निवृत्ति है, अर्थात् दुःखों से पूर्ण मुक्ति ही मोक्ष या अपवर्ग है। परंतु मोक्षवस्था में आत्मा को किसी भी प्रकार के आनंद की अनुभूति नहीं होती। परंतु मोक्ष की यह परिभाषा निषेधात्मक एवं सामान्य जन के लिए अनभिष्ट है।
मोक्ष के स्वरूप के विषय में मीमांसा दर्शन का मत भी न्याय-वैशेषिक मत के समान ही है। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस दर्शन के प्रारंभिक काल में मोक्ष को मानव जीवन का प्रारंभिक लक्ष्य नहीं माना गया था, परंतु परवर्ती मीमांसा विचारकों ने मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना। मीमांसा आत्मा को समस्त अनुभवों तथा मानसिक क्रियायों का मूल आधार मानते हुए भी उसे स्वभावतः चैतन्य स्वरूप नहीं माना। मन, वाह्य इंद्रियां एवं वाह्य जगत के साथ संयोग के कारण ही आत्मा में चेतना की उत्पति होती है। पुनः मीमांसकों का कथन है प्रपंच-संबंध विल्यो मोक्षः अर्थात इस प्रपंचमय जगत के साथ आत्मा के संबंध का आत्यांतिक विनाश ही मोक्ष है। मीमांसक केवल विदेह मुक्ति को ही मोक्ष मानते हैं। परंतु शरीरयात् के अंतर तो व्यक्तित्व सदा के लिए समाप्त हो जाता है। अतः मोक्ष की ऐसी निषेधात्मक परिभाषा शायद ही किसी व्यक्ति का लक्ष्य हो सकता है।
पुनः न्याय-वैशेषिक एवं मीमांसा की भांति सांख्य दार्शनिक भी मोक्ष को जीवन का परम लक्ष्य मानते हैं। परंतु सांख्य आत्मा को स्वभावतः चैतन्यस्वरूप मानते हैं। आत्मा अपने चैतन्यस्वरूप को भूलकर स्वयं को कर्ता, भोक्ता समझने लगता है, जिसका कारण है अविविेक। अर्थात् सांख्य दर्शन में मोक्ष प्राप्ति के लिए अविवेक और इससे उत्पन्न प्रकृति के साथ पुरुष के तादात्म्य का विनाश अनिवार्य है। यह अविवेक तत्व ज्ञान द्वारा ही नष्ट हो सकता है। इस तत्व ज्ञान का अर्थ है पुरुष द्वारा अपने स्वरूप की पहचान। परंतु सांख्य दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा करें किसी प्रकार के आनंद की अनुभूति नहीं होती, परंतु उसकी चेतनता बनी रहती है। सांख्य दर्शन में मोक्ष की दो अवस्थायें स्वीकृत है- जीवन्मुक्ति और विदेमुक्ति। जीन्मुक्ति इसी जीवन में ज्ञान द्वारा मुक्ति है, परंतु विदेह मुक्ति का अर्थ है शरीर का अंत। विदेहमुक्ति में व्यक्ति का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अतः मोक्ष का प्रयोजन महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। जीवनमुक्ति की अवस्था में आत्मा की चेतनता तो बनी रहती है परंतु उसे किसी प्रकार के आनंद की अनुभूति नहीं होती। पुनः सांख्य तर्क के पुरुष प्रकृति जो कि विरूद्धधर्मी है- में संयोग की तार्किक व्याख्या नहीं की गयी है। अविवेक क्यों उत्पन्न होता है, इसका भी संतोषजनक उत्तर सांख्य दार्शनिक नहीं दे पाते।
मोक्ष के स्वरूप के विषय में अद्वैत वेदांत का मत अभी तक वर्जित सभी दर्शनों के मत से कुछ भिन्न है। शांकर वेदांत में मोक्ष की अवधारणा उनके अद्वैतवाद पर आधारित है। वे समस्त भेदों से रहित ब्रह्म की एकमात्र सत्ता को स्वीकार करते हैं तथा जगत् एवं जीव को ब्रह्म का आभास मात्र स्वीकार करते हैं। जीव वस्तु ब्रह्म ही है। ऐसा अद्वैत वेदांत की मान्यता है। किंतु अविद्या के कारण वह ब्रह्म से स्वयं को पृथक कर लेता है तथा जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। अतः जीव/आत्मा का अपने स्वाभाविक रूप में अवस्थित हो जाना ही अद्वैतवेदांत के अनुसार मोक्ष है। यह ब्रह्म साक्षात्कार, नित्य प्राप्त की प्राप्ति और ब्रह्म ज्ञान है। आत्मा शुद्ध सत्, चित् एवं आनंदस्वरूप है, अतः मोक्षावस्था में आत्मा का सच्चिदानंद स्वरूप कायम रहता है। शंकराचार्य भी जीवन-मुक्ति के साथ-साथ विदेह मुक्ति को स्वीकार करते हैं। इनके विदेह मुक्ति का सिद्धांत सांख्य दर्शन के ही समान है, परंतु जीवन-मुक्ति में प्राणी जीवित रहते हुए मोक्ष प्राप्ति के आदर्श से विशिष्टता प्रदान करता है।
रामानुज के विशिष्टाद्वैत में आत्मा की सत्ता को वास्तविक माना गया है क्योंकि यह ब्रह्म का अंश है और मोक्ष को अप्राप्त की प्राप्ति माना गया है, जो कि अद्वैतवेदांत में नित्य प्राप्त की प्राप्ति है।
बौद्ध दर्शन में अन्याय भारतीय दार्शनिक संप्रदायों के विपरीत आत्मा को एक नित्य एवं अपरिवर्तनशील द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। दूसरे शब्दों में, बौद्ध दर्शन में आत्मा नाम का कोई स्थायी तत्व नहीं है बल्कि आत्मा परिवर्तन विज्ञानों का प्रवाह है। यह रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञानों का पंचसंघात है। पुनः यद्यपि बौद्ध दर्शन में भी मोक्ष को व्यक्ति का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है, परंतु इसके मोक्ष (निर्वाण) के आदर्श के विषय में विवाद है। कुछ विचारक निर्वाण का अर्थ कहते हैं- बुझ जाना अर्थात् ठंडा पड़ जाना। तात्पर्य यह है कि निर्वाण का अर्थ हैं- दुःखों का अंत। परंतु कुछ विचारकों का मानना है कि निर्वाण का सिर्फ निषेधात्मक अर्थ नहीं, बल्कि भावात्मक अर्थ भी है। अर्थात् निर्वाण का अर्थ सिर्फ दुःखों की अत्यांतिक निवृत्ति ही नही, बल्कि आनंद की अनुभूति भी है। निर्वाण की अवस्था में भगवान बुद्ध के शब्दों में असीम सुख का भी अनुभव होता है। पुनः बौद्ध दर्शन में मोक्ष की दो अवस्था स्वीकार की गयी है- निर्वाण एवं परिनिर्वाण।
निर्वाण इसी जीवन में संभव है, जिसका सर्वोत्तम उदाहरण है बोधिसत्व का आदर्श। महापरिनिर्वाण का अर्थ है मृत्यु के पश्चात की अवस्था, जो कि सांख्य एवं शंकर वेदांत के विदेह मुक्ति की अवस्था से भिन्न नहीं है। ऐसी स्थिति में निर्वाण का आदर्श ही व्यक्ति के लिए अभीष्ट हो सकता है, जिसमें जीवन रहते हुए व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त होकर परम आनंद का अनुभव करता है और दूसरे व्यक्ति के लिए मोक्ष मार्ग का संस्थापक भी।