Question : जैन दर्शन के पुद्गल का स्वरूप।
(2007)
Answer : जैन दर्शन में पुद्गल जड़ तत्व या भौतिक तत्व है। तत्व रूप में पुद्गल का प्रयोग बौद्ध दर्शन में यह शब्द जीव के लिए आया है, किन्तु जैन दर्शन में यह भौतिक तत्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह विश्व का भौतिक आधार है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्न पुद्गल के गुण है। व्युत्पति के अनुसार पुद्गल वह है जिसका संयोग और विभाग हो सके। इस परिभाषा का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि पुद्गल के दो प्रकार हैं। अणुरूप और स्कन्ध रूप। पुद्गल के विभाजन की अंतिम एवं सूक्ष्मतम अवस्था जो पुनः अविभाज्य हो, अणु कहलाती है। अणु अभिवाज्य होने के कारण निरवयव होता है। इसका आदि अंत एवं मध्य कुछ भी नहीं होता। यह सूक्ष्मतम, अविभाज्य निरवयव निरपेक्ष एवं नित्य सत्ता है। इसका न तो निर्माण होता है और न विनाश। यह स्वयं अमूर्त है। स्वयं अमूर्त होते हुए भी यह सभी मूर्त वस्तुओं का आधार है। जैन दर्शन के अनुसार अणु पुद्गलों से स्कन्ध या संघात पुद्गलों का निर्माण होता हैं। जैन दर्शन की सृष्टिमीमांसा में विश्व का ढांचा परमाणुओं से निर्मित माना जाता है। सभी भौतिक पदार्थ जो इन्द्रियों से जाने जाते है। अनुभव में आने वाली सभी वस्तुयें जिनमें जीवों के शरीर ज्ञानेन्द्रियां एवं मन भी शामिल हैं, अणुओं से निर्मित हैं। दो या दो अधिक अणुओं के संयोग से स्कन्ध या संघात पुद्गल उत्पन्न होते हैं। अणुओं में आकर्षण शक्ति होती है, जिससे अणुओं में संयोग और वियोग होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु स्कन्ध पुद्गल हैं और सम्पूर्ण जगत इन्हीं स्कन्धों से निर्मित है। प्रत्येक दृश्यमान पदार्थ एक स्कन्ध है और भौतिक जगत एक स्कन्धों का समूह है। भौतिक जगत में दिखाई देने वाले परिवर्तन अणुओं के संयोग और विभाग से उत्पन्न होते हैं। संक्षेप में अणु पुद्गल अदृश्य है, अनुमान जन्य है, किन्तु स्कन्ध पुद्गल दृष्टिगोचर है। अणु पुद्गल कारण-रूप है और स्कन्ध पुद्गल कार्यरूप। उल्लेखनीय है कि जैन-दर्शन कर्म को भी परमाणविक मानता है। भारतीय दर्शन में अणुवादी कल्पना वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शनों भी प्राप्त होती है। जैन एवं वैशेषिक अणुवाद में कुछ समानताएं है। दोनों विचार धाराओं के विचारक अणुओं को अविभाज्य, निखयव, नित्य, अदृश्य तथा भौतिक जगत का उत्पादन कारण मानते हैं। दोनों दर्शनों के अणुवादी विचारों में मतभेद भी हैं। जैसे जैन दार्शनिक अणुओं में केवल परिमाणात्मक भेद मानते हैं, किन्तु वैशेषिक दार्शनिक अणुओं में परिमाणात्मक और गुणात्मक भेद स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक अणुओं के गुणों को नित्य नहीं मानते, किन्तु वैशेषिक इनके गुणों को भी नित्य मानते है। जैन एवं बौद्ध दर्शनों के अणुओं में मुख्य अन्तर यह है कि जैन दर्शन के अणु नित्य हैं, किन्तु बौद्ध दर्शन में अणुओं को अस्थायी और विनाशी माना जाता है। संक्षेप में पुद्गल विचार के जैन दर्शन में यह महत्वपूर्ण स्थान है।