Question : चार्वाक के अनुसार आत्मा का स्वरूप।
(2007)
Answer : आत्मा के सम्बन्ध में चार्वाक दर्शन का विचार अन्यान्य भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों से भिन है। वस्तुतः चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा उसकी ज्ञान मीमांसा की उपसिद्धि है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन में यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण की वैधता स्वीकार की गयी है। इस प्रत्यक्षवादी ज्ञान सिद्वांत के आधार पर चार्वाक दार्शनिक केवल उन्हीं तत्वों की सत्ता स्वीकार करते हैं, जिनका प्रत्यक्ष होता है। जिन तत्वों का किसी रूप में प्रत्यक्ष नहीं होता है, वे उनकी सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं। वे ज्ञान-सिद्धांत की इसी पृष्ठभूमि में केवल जड़ तत्व या भौतिक पदार्थ की ही सत्ता स्वीकार करते हैं, क्योंकि केवल उसी का प्रत्यक्ष होता है। वे ईश्वर, आत्मा, जीवन की नित्यता आदि अतीन्द्रिय विषयों का प्रत्यक्ष न होने के कारण उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करते। अतः चार्वाक दर्शन में शरीर से भिन एक नित्य सत्ता के रूप में आत्मा का निषेध प्राप्त होता है। वस्तुतः चार्वाक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं करता। वह केवल आत्मा के परमार्थिक एवं अभौतिक स्वरूप, उसकी अजरता, अमरता, कूट स्थनित्यता और अपरिवर्तनशीलता को अस्वीकार करता है। उसके अनुसार प्रत्यक्ष से आत्मा नामक किसी अभौतिक तत्व का ज्ञान नहीं होता, जिसका स्वरूप अथवा लक्षण चैतन्य है। चार्वाक दर्शन के अनुसार शरीर से भिन किसी पृथक आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। शरीर का चेतना से युक्त होना ही आत्मतत्त्व कहलाने के लिए पर्याप्त है। हमें प्रत्यक्ष से केवल अपने शरीर का ज्ञान होता है, जो अन्य सांसारिक वस्तुओं के समान चार भूतों से उत्पन है। चैतन्य का प्रत्यक्ष भी शरीर के अन्तर्गत होता है। अतः चेतना से विशिष्ट शरीर ही आत्मा है। व्यक्ति प्रत्यक्ष के आधार पर भी शरीर और आत्मा के तादात्म्य का अनुभव करता है। मैं कृश हूँ, मै स्थूल हूं, मैं सुखी हूँ- ये कथन मैं (आत्मा) और शरीर के तादात्म्य का ही बोध कराते हैं। यदि आत्मा को शरीर से भिन कोई अभौतिक पदार्थ स्वीकार किया जाए तो इन वाक्यों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस प्रकार चार्वाक दार्शनिक जड़ तत्वों के आधार पर हीं आत्मा की व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार जड़ तत्वों से शरीर भी उत्पन होता है और उसमें पाया जानेवाला चैतन्य भी। जिस प्रकार पान, सुपारी, कत्था और चूना को एक साथ चबाने से लाल रंग की उत्पत्ति होती है, यद्यपि कि उसमें लाल रंग नहीं है, उसी प्रकार जड़ तत्वों के विशेष सम्मिश्रण से चेतना उत्पन होती है। तात्पर्य यह है कि चार्वाक विचारधारा में आत्मा एक भौतिक तत्त्व है और उसके धटक-शरीर एवं उसमें पाया जानेवाला चैतन्य जड़ तत्वों से ही उत्पन होते हैं। पुनः यदि चेतन शरीर ही आत्मा है, इससे भिन कोई आत्मा नहीं है, तो आत्मा की अमरता सम्भव नहीं। शरीर के अवसान के साथ आत्मा भी नष्ट हो जाती है। चार्वाक द्वारा आत्मा तत्व के निषेध ने तीव्र विवाद को जन्म दिया। शरीर चेतना की अभिव्यक्ति का उपकरण मात्र है। पुनः यदि चेतना शरीर का आवश्यक गुण होती तो उसे शरीर से अवियोज्य होना चाहिए, पर मूर्छा की स्थिति में ऐसा नहीं होता। यदि चेतना शरीर का धर्म होती तो उसका वैसा ही ज्ञान दूसरों को भी होना चाहिए। परन्तु चेतना तो निजी गुण है।
Question : चार्वाक के अनुसार ज्ञानमीमांसा की चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : चार्वाक दर्शन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसका ज्ञान मीमांसीय प्रत्यक्षवाद है, जिसमें प्रत्यक्ष के अतिरिक्त ज्ञान के अन्य सभी प्रयोगों की अस्वीकृति है। वस्तुतः इसकी तत्व मीमांसीय और आचारमीमांसीय अवधारणायें उसके ज्ञानमीमांसीय सिद्धांत की ही उपसिद्धि हैं। वस्तुतः इसके ज्ञान सिद्धांत का जितना विशिष्ट पक्ष एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकृति है, उतना ही विशिष्ट पक्ष अन्य प्रमाणों, विशेषतः अनुमान प्रमाण का खण्डन भी है। चार्वाक दर्शन के अनुसार यथार्थ ज्ञान का एक ही प्रमाणिक साधन है। वह है, प्रत्यक्ष। चार्वाक प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों की वैधता को स्वीकार नहीं करता। चार्वाक दर्शन के अनुसार ज्ञानेन्द्रिय एवं विषय के सम्पर्क से उत्पन ज्ञान ही प्रत्यक्ष है प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानने का कारण इस प्रमाण में प्राप्त अभ्रान्तता और निश्चयात्मकता है, जो प्रत्यक्षेतर प्रमाणों में सम्भव नहीं है। चार्वाक दार्शनिक अनुमान को प्रमाण अथवा ज्ञान के साधन के रूप में स्वीकार नहीं करते। अनुमान का खण्डन करने के लिए ये अनुमान के आधारभूत सिद्धांत व्यक्ति को अवैध सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। व्यष्टि हेतु एवं साध्य का व्याप्य-व्यापक भाव और अनुमान का आधार है। उनका कथन है कि हेतु एवं साध्य का व्याप्य-व्यापक भाव निराधार एवं तर्क विरुद्ध है, क्योंकि हमारे पास इस प्रकार के सर्वव्यापी तर्कवाक्यों को प्राप्त करने का कोई वैध साधन नहीं है। अनुमान तभी निश्चयात्मक एवं निर्दोष हो सकता है, जब व्याप्ति निर्दोष हो परन्तु हेतु एवं साध्य के बीच के व्याप्ति सम्बन्ध को सिद्ध करने का कोई प्रत्यक्ष आधार नहीं है।
पुनः चार्वाक शब्द को भी ज्ञान के साधन के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। विश्वसनीय व्यक्तियों या आप्त पुरूषों के वचनों एवं श्र्रुतियों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे शास्दा प्रण करते है और इसके साधन को शब्द प्रमाण कहते हैं। इसे अन्ययान्य भारतीय दर्शन में स्वीकार किया गया है।
चारवकों के अनुसार शब्द से प्राप्त सभी ज्ञान अनुमान सिद्ध है। यह अनुमान पर आश्रित है। अतः इसकी भी प्रमाणिकता संदिग्ध है। इनमें असत्यता पुनरूक्ति एवं असंगति होती है। पुनः चार्वाक दार्शनिक उपमान के प्रमाणत्व का भी निषेध करते हैं। चूंकि उपमान का आधार सादृश्य ज्ञान है और सादृश्य का ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता है। अतः चार्वाक इसके लिए किसी स्वतंत्र प्रमाण को आवश्यक नहीं मानते। पुनः कतिपय भारतीय विचारक उपमान का अन्तर्भाव अनुमान में करते हैं, अतः अनुमान के अप्रमाणिक होने से उपमान भी अप्रमाणिक हो जाता है।
चार्वाक दर्शन के प्रत्यक्षवादी ज्ञानमीमांसा के विरुद्ध भारतीय दर्शन के अन्य सम्प्रदायों में घोर प्रतिक्रिया हुई है। इसके विरुद्ध कई आक्षेप है। प्रथमतः चार्वाक के ज्ञान सिद्धांत को मानकर विश्व में किसी प्रकार की व्यवस्था का दावा नहीं किया जा सकता। एकमात्र प्रत्यक्ष में विश्वास विश्व का केवल खंडित ज्ञान करा सकता है। उन्हें जोड़नेवाले किसी अनिवार्य सम्बन्ध का ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। पुनः प्रत्यक्ष का प्रमाणत्व निर्विवाद नहीं है। प्रत्यक्ष ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति पर निर्भर है। ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति की सीमा प्रत्यक्ष की सीमा का निर्धारण करती है। जैन दार्शनिक का कथन है कि चार्वाकों द्वारा अनुमान का खण्डन आत्मव्याघातक है। यदि चार्वाकों से प्रश्न किया जाए कि वे प्रत्यक्ष को ही प्रमाण क्यों मानते हैं तो वे या तो मौन रहेंगे या इसके लिए कोई युक्ति देंगे। यदि वे मौन रहते हैं तो उनके पास अपने मत के लिए कोई प्रमाण नहीं है और यदि वे कोई तर्क देते हैं तो अनुमान का ही सहारा लेते है। पुनः अनुमान की वैधता को चुनौती देना चिन्तन एवं विवाद को निर्मूल कर देना है। सभी प्रकार का चिन्तन, वाद-विवाद अनुमान से ही सम्भव है। पुनः शब्द एवं उपमान प्रमाण भी निर्मूल नहीं है, इनमें विश्वास न करने से सांसारिक व्यवहार एवं सामाजिक, नैतिक व्यवस्था के ध्वस्त होने का खतरा हो सकता है।
Question : द्रव्य की जैन परिभाषा।
(2005)
Answer : जैन तत्वमीमांसा में वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। जैन दर्शन के अनुसार जिस आश्रय में धर्म होते हैं, वह धर्मी है और
धर्मी की विशेषताएं धर्म हैं। जैन दर्शन में धर्मी के लिए द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है। इसमें द्रव्य में दो प्रकार के धर्म स्वीकार किये जाते हैं- स्वरूप धर्म और आगन्तुक धर्म। इस प्रकार दव्य वह है जिसमें स्वरूप और आगन्तुक धर्म पाये जाते हैं। स्वरूप में द्रव्य के अपरिवर्तनशील एवं नित्य धर्म है। इसके अभाव में द्रव्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है, जैसे- चेतना जीव का स्वरूप धर्म है, पृतिका घट का स्वरूप धर्म है। आगन्तुक धर्म द्रव्य के परिवर्तनशील धर्म है। ये धर्म द्रव्य में आते जाते रहते हैं। इनके अभाव में भी द्रव्य अस्तित्ववान हो सकता है। जैसे सुख, दुख, इच्छा, संकल्प आदि जीव का आगन्तुक धर्म है। रंग, रूप आदि घट के आगनतुक धर्म है। जैन दर्शन में स्वरूप धर्म को गुण कहा जाता है और आगन्तुक धर्म को पयार्य कया विकार। इस प्रकार जन दर्शन के अनुसार द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्याय पाये जाते हैं। जैन दार्शनिक इस बात पर बल देते हैं कि द्रव्य और गुण में नितान्त भेद है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है। सत् वह है कि जिसकी उत्पत्ति एवं विनाश होता है तथा जिसमें स्थिरता होती है, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ जिसका प्रादुभाव विनाश और स्थिति होती है, वह द्रव्य है। जैन दार्शनिक अद्वैत वेदान्त एवं बौद्ध दर्शन के सत के लक्षण को अस्वीकार करता है, जिनमें क्रमशः त्रिकालावाधित्व एवं अर्थक्रियाकारित्व को सत्ता का लक्षण स्वीकार किया जाता है। जैन दर्शन का कथन है कि अद्वैत एवं बौद्ध मत एकान्तवाद हों। अद्वैत वेदान्त में केवल द्रव्यत्व का स्वीकार करके गुणों को अस्वीकार किया जाता है। इसके विपरीत बौद्ध मत केवल परिवर्तनशील धर्मों को स्वीकार करता है। और द्रव्य तत्व की उपेक्षा करता है। जैन मत दोनों को महत्व देता है। उसके अनुसार द्रव्य गुण की दृष्टि से नित्य होता है और पर्याय की दृष्टि से परिवर्तनशील और अस्थायी। इस प्रकार जैन दर्शन का कथन है कि द्रव्य एक गतिशील यर्थाथता है। यह सब वस्तुओं के अन्दर रहने वाले सार तत्व हैं जो अपने को विविध आकृतियों में प्रकट करता है। और इसकी तीन विशेषताओं उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिति में कोई विरोध नहीं है। गुण की दृष्टि से इसमें एकता, सामान्यत्व एवं नित्यता तथा पर्याय की दृष्टि से अनेकता विशेषत्व विद्यमान होती है।
Question : शून्यता के बौद्ध अभिप्राय का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : माध्यमिक शून्यवाद महायान बौद्ध विचारधारा की महत्वपूर्ण शाखा है। सम्भवतः यह बौद्ध तार्किक चिन्तन का अंतिम निष्कर्ष है। आचार्य नागार्जुन को शून्यवाद का प्रवर्तक माना जाता है।सर्वप्रथम आचार्य नागार्जुन ने महायान सूत्रें में बिखरे हुए शून्यता सम्बन्धी विचारों को लेकर क्रमबद्ध रूप में शून्यवादी विचाराधारा का प्रतिपादन किया। नागार्जुन वह प्रथम दार्शनिक है, जिसने यथार्थवादी एवं विज्ञानवादी विचारकों से कहीं आगे बढ़कर अनुभव के विषयों का विश्लेषण किया। शून्यवाद माध्यमिक दर्शन के नाम से भी जाना जाता है। यह गौतम बुद्ध के उपदेशों को अक्षरशः मानते हुए परम विधि एवं परम निषेध के बीच के मार्ग को स्वीकार करता है। बौद्ध चिन्तन परम्परा का तार्किक परिणाम है। सर्वास्तिवाद का वैभाषिक सम्प्रदाय विज्ञान एवं विज्ञानेतर दोनों की सत्ता को स्वीकार करता है और बाह्य वस्तु के साक्षात प्रत्यक्ष में विश्वास करता है, किन्तुउसका सैद्धान्तिक सम्प्रदाय वैभाषिक के बाह्य प्रत्यक्षवाद के स्थान पर बाह्यनुमेयवाद की स्थापना करता है। वह बाह्य वस्तु को केवल इन्द्रिय प्रेरक मानता है और संवेदन के अधिष्ठान के रूप में उसका अनुमान करता है। तातपर्य है कि वैभाषिक सम्प्रदाय की ज्ञान निरपेक्ष बाह्य वस्तु सैत्रंतिक सम्प्रदाय में प्राकल्पित एवं अनुमेय बन जाती है। योगाचार केवल विज्ञानों की सत्ता को स्वीकार करता है और बाह्य जगत को विज्ञानमात्र या विज्ञान का आभास मात्र मानते हुए युक्तिपूर्वक बाह्य वस्तु का निषेध करता है। माध्यमिक सम्प्रदाय ने विश्लेषण पद्धति को आगे बढ़ाया उसके ज्ञान की सम्पूर्ण प्रक्रिया की आलोचना करते हुए योगाचार सम्प्रदाय की दार्शनिक
विचारधारा को उसके चरम बिन्दु पर पहुंचाया तथा विज्ञान एवं विज्ञानेतर तत्व (बाह्य वस्तु) का खण्डन करके तत्व को शून्य घोषित किया।
शून्यवादी (माध्यमिक) दर्शन का दावा है कि योगाचार सम्प्रदाय जिन युक्तियों का प्रयोग करके बाह्य वस्तु की सत्ता का निषेध करता है, उन्हीं युक्तियों के आधार पर आत्मा का भी निषेध किया जा सकता है। शून्यवाद के अनुसार यदि हम प्रत्यानुभवों से आगे बढ़कर अनुभूत पदार्थों तक नहीं पहुंच सकते तो अनुभवों के आधार पर प्रत्यक्ष की संपादक आत्मचेतना तक कैसे पहुंच सकते हैं? यदि गुणों का अनुभव प्रकृति संज्ञक किसी बाह्य वस्तु का निर्देश कर सकता है क्योंकि आत्मा तो विचार नहीं है। हम जिस यथार्थता का निषेध बाह्य जगत के विषय में करते हैं, उसका श्रेय विचार को कैसे दे सकते हैं क्योंकि दोनों स्थायी अनुभाव वर्ग में आते हैं। देखने, अनुभव करने व इच्छा करने आदि के अतिरिक्त आत्मा का कोई स्वरूप ज्ञात नहीं हैं अतः बाह्यजगत को विज्ञान की प्रतीती भी मानने की जरूरत नहीं है। विज्ञानवादियों ने निरंतर विद्यमान विषयी की स्थापना करके इन्द्रियजम्य संसार की व्याख्या किया। शून्य वादियों ने तर्क को और भी आगे ले जाकर आत्मा की छायामात्र को भी त्याग दिया। इस प्रकार उसने आत्म विज्ञान की भी सत्ता का निराकरण करके विचारों के प्रवाहमात्र का प्रतिपादन करते हुए बाह्य जगत के समान ही उसे भी व्यवहार-भूमि का अंग बना दिया। नागार्जुन मध्यमिकाशास्त्र में बाह्य सत्ता का प्रतिपादन करने वाली युक्तियों (उत्पत्ति, गति, निरोध आदि) में दोष दिखाकर वस्तुस्वभाव की तार्किक विवेचना की और यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि वस्तु सम्बन्धी उत्पत्ति, जाति, गति, निरोध आदिगुण वस्तु के स्वरूप नहीं है, अपितु अविद्याजन्य मिथ्या प्रपंचमात्र है। यह सम्पूर्ण आनुभाविक जगत प्रतीति मात्र और अज्ञेय सम्बन्धों का जाल है। प्रकृति और आत्मा देश और काल, कारण और कार्यरूप पदार्थ, गति और विश्रान्ति एक समान दृष्टिशक्ति में आनेवाला ढांचा मात्र है, जो अपने पीछे उड़ते हुए बादलों की तरह कोई भी चिन्ह नहीं छोड़ जाता किंतु इस मत में बिुद्ध की देशना की आधारशिला प्रतीत्यसमुत्पाद भी मिथ्या कल्पना बन जाता है। पारमार्थिक दृष्टि से कार्यकारण की परम्परा जो प्रतीत्यसमुत्पाद का सारार्थ है, असत्य मानी गई। नागार्जुन के अनुसार किसी का भी कहीं अस्तित्व नहीं है, चाहे हम उसे स्वयं से उत्पन्न माने या दूसरे से उत्पन्न माने या दोनों से उत्पन्न माने या किसी भी कारण से उत्पन्न माने। इस प्रकार शून्यवाद की दृष्टि में उत्पत्ति की धारणा मिथ्या, प्रत्ययपात्र है, वस्तु-स्वभाव नहीं है। चूंकि बुद्ध का सिद्धान्त किसी भी चीज को आकारण नहीं मानता, अतः सम्पूर्ण जगत भ्रममूलक हैं। सारा अनुभव भ्रम है, विज्ञान एवं विज्ञानेतर तत्व भ्रम है और विश्व मिथ्या सम्बन्ध रखनेवाली मिथ्या वस्तुओं का जालमात्र है।
माध्यमिक दर्शन तत्व को शून्य या शून्यता कहता है। कुछ भाष्यव्यकारों एवं अलोचकों के अनुसार शून्य का अर्थ अभाव है, अनस्तित्व है। किन्तु माध्यमिक शून्य का अर्थ अभाव एवं अनस्तित्व नहीं करता। यहां शून्यता एक भावात्मक तत्व है। शून्यता उसका पर्यायवाची है, जिसका कोई कारण नहीं है जो विचार एवं प्रत्यय या भाव से परे है वह जिसकी उत्पत्ति नहीं होती, जो उत्पन्न नहीं हुई और जिसकी कोई पाय नहीं है।
बौद्ध विज्ञानवाद एवं अन्यायन्य आस्तिक दर्शनों में शून्यवादी दर्शन पर गम्भीर आक्षेप किये हैं। शुन्यवाद में सत्ता को शून्य कहा जाता है। आलोचक शून्य शब्द का शाब्दिक अर्थ करके उसपर अभाववाद, अनस्तिवाद एवं सर्व वैनाशिकवाद का आरोप लगाते हैं किन्तु उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि ये आक्षेप असत्य है, क्योंकि शुन्यवाद ‘शुन्य’ शब्द का अर्थ अभाव नहीं करता। यह केवल आनुभाविक जगत को असत्य मानता है। वह पारमार्थिक सत्ता के अस्तित्व में विश्वास करता है। बौद्ध दर्शन के विज्ञानवादी सम्प्रदाय द्वारा माध्यमिक दर्शन की आलोचना महत्वपूर्ण है। विज्ञानवाद के अनुसार माध्यमिक दर्शन द्वारा विज्ञान एवं विषय को सापेक्ष मानना तभी तर्कसंगत हो सकता है जब वह किसी निरपेक्ष तत्व की सत्ता को स्वीकार करता जिसकी अपेक्षा से वे सापेक्ष होते। चूंकि माध्यमिक किसी निरपेक्ष तत्व में विश्वास नहीं करता। अतः उसका सापेक्षवाद समीचीन नहीं है। विज्ञानवादियों के अनुसार शून्यवाद ने जगत की समस्त वस्तुओं को मिथ्या सिद्ध किया, गाथावाद की मान्यता को आगे बढ़ाया। किन्तु इस मायावाद का क्या आधार है? इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया।
आचार्य शंकर ने शून्यवाद की पूर्ण उपेक्षा की है। उन्होंने ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्य में जहां अन्यान्य दर्शनों की आलोचना की है शून्यवाद के विषय में केवल इतना लिखा ‘शुन्यवाद सभी प्रमाणों के विरूद्ध है। मैं इसकी आलोचना करके इसे कोई महत्व नहीं देना चाहता हूं। शंकराचार्य के आलोचकों ने शंकराचार्य द्वारा शून्यवाद की उपेक्षा को सेदिन्य सिद्ध किया उनका कथन है कि शंकराचार्य ने शून्यवाद की आलोचना इसलिए नहीं की, क्योंकि उनके मान्यवाद तथा माध्यमिक शून्यवाद में पर्याप्त साम्य है। उनके द्वारा शून्यवाद की आलोचना उनकी अपनी ही आलोचना होती। किन्तु यह आरोप
निराधार है। मायावाद और शून्यवाद दर्शन के प्रयोजन में कोई साम्य नहीं है। मायावाद और शून्यवाद में पर्याप्त अन्तर है।
आचार्य कुमारिल ने शून्यवादी विचारधारा के ‘सत्यद्वय सिद्धांत’ पर गम्भीर आरोप लगाया है। उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि संवृत्ति सत्य को सत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो सत्य है वह निरपेक्ष सत्य है। यदि संवृत्ति सत्य का अन्ततः परित्याग करना है तो उसका विचार ही निरर्थक है। यदि दोनों को युगपत अवस्थित माना जाए तो परमार्थ भी संवृत्ति के दोषों के दूषित हो जाएगा। वस्तुतः नागार्जुन ने भी परमार्थ को ही अन्तिम सत्य स्वीकार किया है। उन्होंने केवल लोक व्यवहार के लिए संवृद्धि सत्य को स्वीकार किया, साथ ही उसे व्याज्य भी माना। वे इसके बिना परमार्थ का ज्ञान असम्भव मानते हैं। वस्तुतः यह कोई आश्चर्यजनक स्थिति नहीं है। शंकराचार्य भी बाह्य जगत की व्यावहारिक सत्ता को स्वीकार करते हैं।
Question : न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष की प्रकृति और प्रकार।
(2005)
Answer : भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय, यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में प्रत्यक्ष प्रमाण के महत्व को स्वीकार करते हैं। न्याय दर्शन में तो प्रत्यक्ष की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें प्रत्यक्ष प्रमा एवं प्रमाण दोनों हैं। प्रत्यक्ष प्रमा को उत्पन्न करने वाले असाधारण कारण का मुख्य साधन को प्रमाण कहते हैं। सामान्यतः ज्ञानेन्द्रिय एवं अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। जैसे चतुरिन्द्रिय एवं घर के सम्पर्क से प्राप्त घर ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमा का एक प्रकार एवं उदाहरण है। महर्षि गौतम के अनुसार ज्ञानेन्द्रियों का विषय से सम्पर्क होने से उत्पन्न होने वाला त्रुटिरहित अव्ययपदेश एवं व्यवसायात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष है। वाचस्पति मिश्र अव्ययपदेश का अर्थ नामजात्यादि कल्पना रहित निर्विकल्प ज्ञान, व्यवसायात्मक का अर्थ नामजात्यादि विशिष्ट सविकल्प प्रत्यक्ष तथा अव्यभिचारि का अर्थ अभ्रान्त करते हैं। अन्नभट्ट ने भी प्रत्यक्ष का अर्थ इन्द्रियों का विषय से सम्पर्क होने के परिणामस्वरूप उत्पन्न ज्ञान किया है। प्रत्यक्ष की इन परिभाषाओं से प्रत्यक्ष ज्ञान में दो विशेषताएं ज्ञात होती हैं- प्रथम, यह एक त्रुटिरहित ज्ञान है और द्वितीय, इसमें विषय के साथ ज्ञानेन्द्रियों का सम्पर्क आवश्यक है। कालान्तर में आचार्य विश्वनाथ एवं गंगेश उपाध्याय, आदि नव्य न्याय के विचारकों ने दिखाया कि प्रत्यक्ष की उपरोक्त परिभाषायें, संकीर्ण हैं। इनमें प्रत्यक्ष ज्ञान के वे ही प्रकार आते हैं, जिनमें इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष अपेक्षित है। किन्तु योगज आदि प्रत्यक्ष ज्ञान के ऐसे भी प्रकार हैं जो इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के बिना प्राप्त होते हैं। ईश्वर को सभी विषयों का प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु उसको कोई भी इन्द्रिय नहीं है। अतः इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष प्रत्यक्ष ज्ञान के सभी प्रकारों का सामान्य लक्षण नहीं है। गंगेश उपाध्याय के अनुसार प्रत्यक्ष का सामान्य लक्षण है- विषय की साक्षात प्रतीति। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार प्रत्यक्ष वह ज्ञान है जो अन्य ज्ञान से उत्पन्न न हो। इन परिभाषाओं में प्रत्यक्ष के वे भी प्रकार आ जाते हैं, जिनमें इन्द्रियार्थ संयोग होता है और वे भी प्रकार हैं जो किसी इन्द्रियार्थ संयोग के बिना भी प्राप्त होते हैं।
जो प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है, उसमें तीन प्रकार का संयोग है। आत्मा का मन से संयोग, मन का ज्ञानेन्द्रियों से संयोग और ज्ञानेन्द्रिय का विषय से संयोग। न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद हैं- लौकिक प्रत्यक्ष और अलौकिक प्रत्यक्ष।
जब ज्ञानेन्द्रिय एवं विषय का सम्पर्क साधारण ढंग से होता है, तब लौकिक प्रत्यक्ष होता है। लौकिक प्रत्यक्ष के भी दो भेद होते हैं- बाह्य प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष। पांच बाह्य ज्ञानेन्द्रियों का उनके विषयों के साथ सम्पर्क होने पर उत्पन्न ज्ञान बाह्य प्रत्यक्ष कहलाता है। मानसिक भावों के साथ मन का संयोग होने पर दुःख इच्छा और संकल्प का जो ज्ञान होता है उसे मानस प्रत्यक्ष कहते हैं।
न्याय दर्शन में अलौलिक प्रत्यक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष का वह प्रकार है जिसमें इन्द्रियार्थ सिन्नकर्ण साधारण रीति से नहीं होता। इसमें सिन्नकर्ष असाधारण ढंग से होता है। न्याय दर्शन में अलौलिक प्रत्यक्ष के तीन भेद होते हैं- सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष, ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष और योगज प्रत्यक्ष। व्यक्ति विशेष का प्रत्यक्ष होने पर जो तत्सम्बन्धी सामान्य या जाति का प्रत्यक्ष होता है, उसे सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहते हैं। न्याय दर्शन को ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष की अवधारणा में कोई ज्ञानेन्द्रिय अपने विषय से भिन्न विषय का ज्ञान प्राप्त करती है। जैसे कोई व्यक्ति दूर से ही चन्दन के टुकड़े को देखकर कह सकता है। कि चन्दन का टुकड़ा सुगन्धित है। उल्लेखनीय है कि सुगन्ध का ज्ञान नाक से होता है और आंख से रूप का। परन्तु यहां चन्दन के पेड़ को देखकर उसके सुगन्ध का ज्ञान होना ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष है।
न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष का एक अन्य भेद प्राप्त होता है, जिसे हम योगज, प्रत्यक्ष कहते हैं, जो समाधि की अवस्था में योगियों को प्राप्त होता है। जैन, बौद्ध एवं वेदान्त दार्शनिक भी इस प्रत्यक्ष को सम्भव मानते हैं। न्याय दार्शनिकों के अनुसार योगियों को भूत तथा भविष्य का सूक्ष्माति सूक्ष्म वस्तुओं का निकटस्थ एवं दूरस्थ वस्तुओं का हस्तामलकवत् साक्षात अनुभव होता है।
Question : वैशेषिकों के अनुसार द्रव्यों की प्रकृति एवं प्रकारों का कथन कीजिए और उन पर चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : वैशेषिक दर्शन एक वस्तुवादी दर्शन है और इसका वस्तुवाद बहुत्ववादी वस्तुवाद कहलाता है। यह भारतीय दर्शन में अपनी प्रमेय मीमांसा के लिए आख्यात है। महर्षि कणाद के अनुसार पदार्थों का सम्यक ज्ञान होने से निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। वैशेषिक दर्शन संसार के सभी विषयों को पदार्थ कहता है। वैशेषिक दर्शन ने विषयों का सात प्रकार के पदार्थों में विभाजन किया है। इन सात पदार्थों में द्रव्य सार्वधिक महत्वपूर्ण है, ऐसा इसलिए है कि अन्य सभी पदार्थों की सत्ता द्रव्य की सत्ता पर आधारित है। वैशेषिक दर्शन प्रत्ययवादी सम्प्रदायों के विरूद्ध द्रव्य पदार्थ के सहारे ही अपनी विचारधारा को प्रतिपादित करता है। इसके अनुसार बौद्ध दर्शन की यह दृष्टिकोण अनुभव की कसौटी के विपरीत है कि द्रव्य अपने गुणों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यथार्थता हमारे समक्ष ऐसे द्रव्यों को प्रस्तुत करती है, जिन्हें गुणों से लक्ष्य किया जा सकता है।
वैशेषिक सूत्र के अनुसार द्रव्य वह है, जो गुण तथा कर्म का आश्रय है और अपने कार्य का समवायि कारण है। तर्क भाषा के अनुसार जो समवायिकरण है तथा गुणों का आश्रय है, वह द्रव्य है। इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि द्रव्य के अभाव में गुण, कर्म, सामान्य आदि की सत्ता होना असम्भव है। वैशेषिक दर्शन नौ द्रव्यों को मानता है- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकार, दिक्, काल, मन और आत्मा। इन द्रव्यों में सभी शरीरधारी अशरीरधारी वस्तुओं का समावेश हो जाता है। इन नौ द्रव्यों में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के द्रव्य शामिल हैं। ये सब नित्य द्रव्य हैं। इनमें कुछ विभु हैं और कुछ अणु।
वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु- इन चारों द्रव्यों के दो रूप माने गए हैं- नित्य अथवा कारण रूप और अनित्य अथवा कार्यरूप। ये अपने परमाणु रूप में नित्य हैं। इनके परमाणु अविभाज्य निरवयव, नित्य, परिमण्डलाकार, गतिहीन, गुण एवं परिमाण की दृष्टि से परस्पर भिन्न तथा भौतिक जगत के उपादान कारण हैं। पृथ्वी के परमाणुओं में चार गुण-गन्ध, रस, रूप और स्पर्श हैं। जल के परमाणुओं में तीन गुण-रस, रूप, तथा स्पर्श हैं। अग्नि के परमाणुओं में दो गुण-रूप और स्पर्श तथा वायु में एक गुण-स्पर्श है। इसके बावजूद पृथ्वी में गन्ध की जल में रस की अग्नि में रूप की तथा वायु में स्पर्श की प्रधानता है। इन चारों द्रव्यों का कार्यरूप पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु के स्थूल महाभूत और तदुत्पन्न यह दृश्य जगत है। ये स्वभाव से अनित्य हैं, क्योंकि उत्पत्ति एवं विनाश के अधीन हैं। आकाश-वैशैषिक दर्शन में आकाश महाभूत होते हुए भी पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु महाभूतों से भिन्न है। आकाश इन महाभूतों के विपरीत अपरमाणविक और विभु हैं, इससे कोई वस्तु उत्पन्न नहीं होती, जबकि अन्य भूतों के परमाणुओं से स्थूल वस्तुयें उत्पन्न होती हैं। यह सृष्ट जगत का आधारभूत सर्वव्यापी पदार्थ है। यह भौतिक द्रव्य है एवं शब्द इसका गुण है। यह शब्द का समवायि कारण है। यह एक नित्य, निरवयव, निष्क्रिय एवं अपरमाणविक है। आकाश का ज्ञान अनुमान से होता है, प्रत्यक्ष से नहीं, क्योंकि इसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श गुण नहीं हैं। यह अन्य चारों भूतों के परमाणुओं को संयुक्त होकर सृष्टि की रचना करने का माध्यम प्रदान करता है। यह सम्पूर्ण देश को व्याप्त करता है, किन्तु स्वयं देश से भिन्न है। दिक और काल- वैशेषिक दर्शन दिक और काल को भी द्रव्य मानता है। इसके अनुसार दिक् सत अस्तित्व का प्रतिपादन करता है और काल अनुक्रम का। दूसरे शब्दों में, दिक् दृश्यमान पदार्थों का वर्णन करता है और काल उन पदार्थों का जो उत्पत्ति एवं विनाश के अधीन है। संसार में काल का अस्तित्व पूर्वापरत्व के अनुभव पर और दिक का अस्तित्व पदार्थों के देश वर्तित्व सम्बन्ध पर आधारित है। इनकी सत्ता अनुमान से सिद्ध होती है, प्रत्यक्ष से नहीं। दिक एवं काल सर्वव्यापी, नित्य, अतीन्द्रिय, अभौतिक एवं गुणहीन हैं। काल सर्वव्यापी होने पर भी उपाधि के कारण भूत, वर्तमान, भविष्य, वर्ष, मास, पक्ष आदि सीमित रूपों में उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दिक् भी उपाधि के कारण प्राची, प्रतीची, उदीची, अवाची का ज्ञान कराता है। काल को सभी कर्मों का निमित्त कारण एवं विश्व का आश्रय माना जाता है। उल्लेखनीय है कि दिक एवं आकाश एक ही चीज नहीं है। आकाश दिक् से भरा हुआ ईतर-सदृश द्रव्य है जिसमें शब्द गुण है।
आत्मा-वैशेषिक दर्शन में आत्मा की अवधारणा न्याय दर्शन के आत्मविचार से मिलती जुलती है। दोनों में केवल इतना अन्तर है कि वैशेषिक ने आत्मा में प्रत्यक्ष ज्ञान को, जिसमें आत्म ज्ञान का कुर्त्ता और विषय भी है, स्वीकार नहीं किया। इसमें आत्मा को द्रव्य मानकर ज्ञान को उसका आकस्मिक गुण माना गया है। प्राकृतिक अवस्था में आत्मा ज्ञानरहित होती है। इसे वस्तुओं का ज्ञान शरीर से सम्बद्ध होने पर ही होता है। आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, मन, एवं बुद्धि से भिन्न हैं, क्योंकि चेतना शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि या मन का गुण नहीं हो सकता। यह नित्य एवं विभु है। इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, प्रयत्न एवं ज्ञान इसके गुण हैं।
वैशेषिक दर्शन में आत्मा के दो भेद प्राप्त होते हैं- परमात्मा एवं जीवात्मा। परमात्मा एक तथा नित्य है। वह सर्वज्ञ है। वह सृष्टि, स्थिति और संहार आदि का नियामक है, इसलिए वह ईश्वर है। जीवत्मायें अनित्य तथा शरीर भेद से अनन्त हैं। जीव का परिमाण भी विभु है, क्योंकि उसे अणु या मध्यम परिमाण मानने पर अनेक कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं। जीवात्मा के अन्य गुण हैं- सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, भावना, धर्म और अधर्म उसके ये गुण भी आगन्तुक हैं।
मनस-वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत अन्तिम द्रव्य मनस् है और यह भी जावात्मा के समान अनेक हैं। यह एक आन्तरिक इन्द्रिय है जिसके कारण सुख, दुख, ज्ञान आदि की उत्पत्ति होती है। यह अणुरूप है। यह ज्ञान का साधनमात्र होने के कारण अन्य इन्द्रियों की तरह जड़ है। ज्ञान चाहे वा“य वस्तु का हो या आन्तरिक अवस्थाओं का की उत्पत्ति के लिए मनस एक अनिवार्य सहायक कारण है। मनस् द्वारा ही आत्मा का इन्द्रिय एवं शरीर से सम्बन्ध स्थापित होता है। इसलिए वैशेषिक मनस को सक्रिय मानता है। वैशेषिक दर्शन में अयुगपत ज्ञान का कारण भी मनस को मानता है। यह गुणहीन और अभौतिक है। उपरोक्त नौ द्रव्यों में पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, और आकाश भौतिक द्रव्य हैं तथा दिक्, काल, आत्मा और मनस् अभौतिकद्रव्य हैं।
Question : सांख्य की पुरुष की संकल्पना।
(2005)
Answer : पुरुष सांख्य दर्शन का आत्म तत्व है। सांख्य दर्शन पुरुष के विषय में तीन प्रश्नों पर विचार करता है- पुरुष का स्वरूप क्या है? पुरुष के अस्तित्व के क्या प्रमाण है? पुरुष एक है या अनेक। सांख्य दर्शन में पुरुष का स्वरूप प्रकृति के सर्वथा विपरीत माना गया है। चूंकि यह प्रकृति को त्रिगुणात्मिका, अविवेक, विषयी, ज्ञेय, अचेतन और सामान्य मानता है, अतः प्रकृति का विरूद्धधर्मी होने के कारण पुरूष त्रिगुणातीत, विवेकी, विषयी, ज्ञाता, विविक्त, विशेष, चेतन तथा अपरिणामी है। सांख्य दर्शन का पुरूष चैतन्यस्वरूप है। इस कारण वह शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार से भिन्न है। पुरुष कोई द्रव्य भी नहीं है, जिसका लक्षण चेतना है। यह चैतन्य स्वरूप है। चेतना इसका स्वभाव है, वह साक्षी है, निष्क्रिय, उदासीन है, कुटस्थ-नित्य एवं अपरिवर्तनशील है। वह कुटस्थ नित्य होने के कारण कारण-कार्यशृंखला से परे है। वह न तो किसी का कारण है और न किसी का कार्य। वह नित्ययुक्त, उदासीन, द्रव्य एवं अकर्त्ता है। वह अज, निज, सर्वव्यापी, अनाश्रित, निरवयव एवं स्वतंत्र है। पुरुष प्रकृति के विकारों का दृष्टा मात्र है कर्ता नहीं है। सांख्य दर्शन की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वह पुरुष की अकर्त्ता मानते हुए भी भोक्ता मानता है। सांख्य दर्शन पुरूष को सच्चित्स्वरूप तो स्वीकार करता है, किन्तु आनन्द स्वरूप नहीं मानता, क्योंकि आनन्द प्रकृति के सत्व गुण से उत्पन्न होता है। अतः वह पुरूष का स्वरूप नही हो सकता। इस प्रकार पुरूष अद्वैत वेदान्त के आत्मतत्व से भी भिन्न है। सांख्य पुरूष बहुत्व में विश्वास करता है। सांख्य दर्शन के अनुसार संसार में प्रत्येक पुरूष का जन्म मरण और करण प्रतिनियत हैं। वे न एक साथ जन्म लेते हैं और न एक साथ मृत्यु को प्राप्त होते हैं। पुनः सभी पुरूषों के क्रियाकलापों में भी विभिन्नता दिखाई पड़ती है। गुणों की दृष्टि से भी उनमें अंतर है। अतः पुरूष एक नहीं अनेक है। परन्तु सांख्य दर्शन द्वारा बताये गए पुरूष बहुत्व की यह अवधारणा सांख्य दर्शन बताये गए पुरूष के स्वरूप से मेल नहीं खाता। पुरूष को सांख्य दर्शन में नित्य कुटस्थ आप्तकाय आदि बताया गया है लेकिन पुरूष बहुत्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उसे सांसारिक जीव के स्तर पर ला खड़ा किया गया है। पुनः चेतना के स्तर समान होने के कारण भेद की बात करना भी तार्किक नहीं है। सांख्य दर्शन में पुरूष के अस्तित्व की सिद्धि के लिये भी कुछ युक्तियां दी गयी है। सांख्य दर्शन के अनुसार संसार के सभी पदार्थ दूसरों का स्वार्थ सिद्ध करते हैं। वह दुसरा तत्व जिसका ये साध्य सिद्ध करते हैं। कोई अचेतन तत्व नहीं हो सकता। ये जिस चेतन तत्व का साध्य सिद्ध करते हैं वह पुरुष ही है। पुनः संसार के सभी संघात पदार्थों से जिस चेतन तत्व के साध्य की सिद्धि होती है, वह स्वयं संघात एवं सावयव नहीं हो सकता, अतः वह निरवयव एवं विजातीय चेतन तत्व, जो संघात नहीं है, पुरुष है। पुनः संसार के सभी भौतिक पदार्थ अचेतन हैं। अचेतन पदार्थों से कोई क्रिया तभी सम्पन्न हो सकती है जब कोई चेतन तत्व उनका नियमन एवं नियन्त्रण करे। यह चेतन तत्व जो सबका नियंत्रण कर्त्ता है, पुरुष है। अर्थात् इससे भी पुरुष की सत्ता सिद्ध होती है। पुनः प्रकृति एवं उसके सभी विकारों के भोक्ता के रूप में भी पुरूष की सत्ता सिद्ध होती है। पुन सांख्य दर्शन के अनुसार संसार में कैवल्य के लिए प्रवृति दिखाई देती है। कैवल्य कसे त्रिविध दुःखों की आत्यांकित निवृति होती है। वह तत्व जिसके कैवल्य हेतु संसार के सभी पदार्थ प्रयासरत दिखाई देते हैं, वह आत्म तत्व पुरुष ही है। इस प्रकार कैवल्यार्थ प्रवृति से पुरुष की सत्ता प्रमाणित होती है।
Question : जीव के जैन सिद्धान्त का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : जीव जैन दर्शन का आत्म तत्व है। यह एक अभौतिक तत्व है। यद्यपि जैन दर्शन एक नास्तिक विचारधारा है। तथापि उसका आत्मा सम्बन्धी विचार अन्य नास्तिक दर्शनों के आत्मा सम्बन्धी विचारों से भिन्न है। चार्वाक और बौद्ध नास्तिक विचारधाराओं में नित्य आत्मा के अस्तित्व का निषेध प्राप्त होता है चार्वाक दर्शन शरीर को ही आत्मा कहता है और चेतना उसका गुण। चाहे शरीर की तरह चेतना को भी चार महाभूता से उत्पन्न मानता है। उसके अनुसार चैतन्य विशिष्ट शरीर की आत्मा है। यद्यपि बौद्ध दर्शन शरीर को तो आत्मा नहीं मानता। तथापि वह नित्य आत्मा की सत्ता को भी नहीं स्वीकार करता। बौद्ध दर्शन में आत्मा की सम्बन्धी विचार उपर्युक्त विचारों से भिन्न है। इसमें आत्मा शरीर एवं इन्द्रियां से सर्वथा भिन्न एक चेतन भिन्न है। न्याय-वैशेषिक दर्शन चेतना को आत्मा का आगन्तुक गुण मानता है। उसके अनुसार आत्मा एक अचेतन द्रव्य है जो विशेष अवस्थाओं में चैतन्य का आधार बनता है। किन्तु जैन दर्शन चेतना आत्मा का नित्य धर्म मानता है। उसके अभाव में आत्मा की सत्ताअसम्भव है। जैन दर्शन यह भी कहता है कि जीव में कुछ आगन्तुक धर्म भी होते हैं। जो उसमे आते जाते रहते हैं। सुख, दुःख इच्छा, संकल्प आदि जीव के आगन्तुक धर्म है। जीव में चेतन स्थिर है, नित्य धर्म है। इसके विपरीत सुख, दुख, आदि उत्पत्ति एवं विनाश के अधीन है, अर्थात् जीव में उत्पत्ति व्यय लक्षण सत् द्रव्य का यह लक्षण पाया जाता है।
जैन दर्शन में जीव का एक लक्षण भी प्राप्त होता है। उमास्वामी के अनुसार जीव का लक्षण उपयोग है। जीव का चैतन्य रूप चेतना का परिणाम है। चेतना के तीन प्रकार हैं- ज्ञान, अभाव और कर्म। ये तीनों एक साथ मिलकर उपयोग की अवधारणा सामने लाता है। इस प्रकार ज्ञानपूर्वक किसी कार्य को करना और उसका फल प्राप्त करना उपयोग है। इससे सिद्ध होता है कि जीव ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता है। जैन दर्शन के अनुसार जीव स्वभावतः पूर्ण है। उसमें अनन्तचतुष्टय अर्थात चार प्रकार की पूर्णतायें पायी जाती हैं। ये हैं- अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द। जीव के ये स्वाभाविक धर्म केवल मुक्त जीवों में अभिव्यक्त होते हैं। किन्तु कर्मफल से सम्प्रक्त होने के कारण सांसारिक जीवों में, जो बन्धनग्रस्त हैं, अनन्तचतुष्टय की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती। उल्लेखनीय है कि बन्धनग्रस्त अवस्था में भी जीव के ये लक्षण केवल तिरोहित होते हैं, वे नष्ट नहीं होते। ये स्वाभाविक धर्म कर्म जन्य बाधाओं के दूर हो जाने पर जीव में पुनः प्रकट हो जाते हैं। जैन दर्शन चेतना की अभिव्यक्ति के आधार पर जीवों का वर्गीकरण करता है। वह सर्वप्रथम जीव के दो भेद करता है- मुक्त और वद्ध। मुक्त जीवों मे जीव के स्वाभाविक स्वरूप का पूर्ण प्रकाशन होता है। उनमें अनन्तचतुष्टय पाया जाता है। इन जीवो में कर्मबन्ध समाप्त हो चुके हैं और ये मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। वद्ध जीव वे हैं जो अब भी कर्म पुद्गलों से आक्रान्त हैं। जैन दर्शन वद्ध जीवों के दो भेद करता है- त्रस और स्थावर। त्रस जीव गतिमान हैं और स्थावर की न्यूनतम अभिव्यक्ति होती है। स्थावर जीवों में जीव के स्वरूप की न्यूनतम अभिव्यक्ति, अग्निकालिक और वनस्पतिकालिक। इनमें केवल एक इन्द्रिय स्पर्शैन्द्रिय पायी जाती है। त्रस जीवों में स्थावर जीवों की अपेक्षा चेतना अधिक विकसित होती है। चैतन्य की अभिव्यक्ति की दृष्टि से त्रस जीवों के चार भेद होते हैं:
(i) द्वीन्द्रिय जीव- सीप, घोंघा
(ii) त्रीन्द्रिय जीव - पिपीलिका
(iii) चतुरिन्द्रिय जी- भ्रमर, मक्खी
(iv) पंचेन्द्रिय जीव- मनुष्य, पशु, पक्षी
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन अनेक जीववाद में विश्वास करता है। इसकी मान्यतानुसार जीव अनेक हैं। यह संसार त्रस और स्थावर जाति के अनन्त जीवों में व्याप्त है। ये सभी जीव पूर्णता प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हैं। इस प्रकार गुणों के तारतम्य के आधार पर जीवों के अनन्त भेद हैं। सम्पूर्ण लोक जीवों से भरा पड़ा है। इन बन्धन ग्रस्त जीवों के अतिरिक्त नित्यसिद्ध जीव हैं, जो कभी शरीर ही नहीं धारण करते नरकवासी और देवलोक वासी जीव तथा मुक्त जीव हैं। इस प्रकार जैन दर्शन में अद्वैत वेदान्त के एकात्मवाद के विपरीत जीवों की अनेकता का समर्थन किया जाता है। जैन दर्शन का यह विचार सांख्य दर्शन के पुरूषबटुत्व कीअवधारणा के नजदीक है।
जैन दर्शन जीव के विषय में मध्यपरिणामवाद का प्रतिपादन करता है। यह भारतीय दर्शन में विचित्र सिद्धान्त है। इसके अनुसार जीव का परिणाम को घटने बढ़ने वाला मानता है। यह आत्मा के परिणाम के विषय में विभुवाद और अणुवाद का मध्यवर्ती सिद्धान्त है। भारतीय दर्शन में न्याय एवं अद्वैत वेदान्त आदि विचारधाराओं आत्मा को विभु-परिणाम मानता है। वे उसे सर्वव्यापी कहती हैं। इसके विपरीत वैष्णव विचारधाराएं उसे अणु-परिणाम मानती हैं। वे इसका आकार अणुरूप स्वीकार करती हैं। इन दोनों सिद्धान्तों के विपरीत जैन दार्शनिक उसे मध्ययम परिणाम मानते हैं। वे उसे शरीर परिणाम और संकोच की गंजाईश है। जीव जिस भौतिक शरीर से सम्बन्ध होता है, उसक लम्बाई-चौड़ाई के अनुरूप उसका विस्तार और संकोच होता है।
जैन दार्शनिक प्रयोगों के आधार पर भी जीव की सत्ता को सिद्ध करते हैं। जैन दर्शन में निम्नलिखित युक्तियों के आधार पर भी जीव की सत्ता को सिद्ध करते हैं। जैन दर्शन में निम्नलिखित युक्तियां के आधार पर जीव की सत्ता सिद्ध की जाती हैः
(i) हमें सुख, दुख, इच्छा, संकल्प, और स्मृति, आदि गुणों का अनुभव होता है, चूंकि गुण बिना गुणी (द्रव्य) के नयी रह सकते। अतः इन गुणों के अस्तित्व के लिए भी किसी द्रव्य का होना अनावश्यक है। ये गुण जीव या आत्मा के हैं। इन गुणों से आत्मा के अस्तित्व का साक्षात प्रत्यक्ष होता है।
(ii) शरीर तो यंत्रवत है। जिस प्रकार किसी यन्त्र को संचालित करने के लिए एक चालक की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार शरीर तो जड़ है। अतः उसे संचालित होने के लिए एक भी चालक की आवश्यकता होती है, वह चालक आत्मा है।
(iii) हमारी ज्ञानेन्द्रियां ज्ञान के साधन मात्र हैं। प्रश्न है कि ज्ञानेन्द्रियां से कौन ज्ञान प्राप्त करता है? स्पष्टतः यह ज्ञान स्वयं ज्ञानेन्द्रियां को या शरीर को नहीं प्राप्त होता। इन साधनों से ज्ञान प्राप्त करनेवाला आत्मा ही है।
(iv) शरीर के निर्माण के लिए भी आत्मा की सत्ता आवश्यक है। शरीर का निर्माण पुद्गल कणों से होता है। ये पुद्गल-कण अचेतन है। अतः इनसे स्वतः शरीर का निर्माण नहीं हो सकता। इन्हें एक निमित्त कारण की आवश्यकता है जिससे पुद्गल-कणों को शरीर का आकार प्राप्त हो। यह निमित्त कारण आत्मा या जीव है।
(v) आत्मा के अस्तित्व में सन्देह करने पर भी संदेह के आलम्बन के रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। मेरा अस्तित्व नहीं है, कहने मात्र से ही मैं अर्थात जीव की सत्य सिद्ध होती है। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में देकार्त और भारतीय दर्शन के अधिकांश विचारक भी स्वीकार करते हैं कि जो निराकर्ता है, वही उसका स्वरूप है।
परन्तु जैन दर्शन की जीव संबंधी धारणा में तार्किक दृष्टि से दोष है। जैन दार्शनिक चेतना को जीव का लक्षण मानते हैं। जैन दर्शन में जीव को द्रव्य मानकर चेतना को उसका लक्षण माना जाता है, अर्थात् जीव और चेतना में।
Question : निर्वाण की प्रकृति एवं प्रकार।
(2004)
Answer : गौतम बुद्ध ने तृतीय आर्य सत्य में दुःख निरोध या निर्वाण का विवेचन किया। गौतमबुद्ध के समक्ष सबसे अहम् प्रश्न था कि किस प्रकार दुःखमय जीवन की समस्या को हल किया जाए। उन्होंने इसी समस्या के निदान हेतु द्वितीय आर्य सत्य में प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर दुःखों के कारण की खोज किया। उन्होंने अविद्या को सम्पूर्ण दुःख चक्र का मूलभूत कारण घोषित किया। पुनः उन्होंने तृतीय आर्य सत्य में इसी के आधार पर दुःख विरोध से सम्पूर्ण दुःख चक्र को निरूद्ध किया जा सकता है। दुःख निरोध ही निर्वाण है। वस्तुतः निर्वाण ही गौतम बुद्ध की शिक्षाओं का लक्ष्य है। यह अन्यान्य भारतीय विचारधाराओं में स्वीकृत मोक्ष या कैवल्य का आदर्श है। उल्लेखनीय है कि भारतीय दर्शन में मोक्ष या निर्वाण को परम पुरूषार्थ स्वीकार किया गया है और चारों पुरूषार्थ (धर्म, अर्थ, काम मोक्ष) में मोक्ष को ही व्यक्ति का परम लक्ष्य मानते हुए उसका सर्वाधिक विवेचन किया गया है। गौतम बुद्ध ने मोक्ष के आदर्श का व्याख्यान निर्वाण के अर्थ में किया और इसे दुःख निरोध की अवस्था कहा है। चूंकि गौतम बुद्ध ने नित्य आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार किया, अतः ऐसी स्थिति में उनके द्वारा निर्वाण के आदर्श की स्वीकृति अधिक महत्वपूर्ण हैं। निर्वाण शब्द का शाब्दिक अर्थ है- बुझ जाना या ठण्डा पड़ जाना। निर्वाण के शाब्दिक अर्थ को ध्यान में रखते हुए बौद्ध दर्शन के कुछ भाष्यकार एवं कतिपय अन्यान्य भारतीय दार्शनिक निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त करते हैं। उनके अनुसार दीपक के बुझने या ठण्डा पड़ने से तात्पर्य जीवन के बुझने, जीवन के अन्त होने या मृत्यु से है, जिसमें पंचस्कन्धों के बने रहने की यह अविच्छिन्न प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। किन्तु गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के मन्तव्य एवं लक्ष्य को ध्यान में रखने पर निर्वाण का यह अर्थ मान्य नहीं हो सकता। यदि निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त किया जाएगा तो यह चार्वाक दर्शन के ‘मरणमेव अपवर्गः’ जैसा होगा और हेय तथा अभीष्ट होगा। निर्वाण का अर्थ बुद्ध की शिक्षाओं के लिए घातक होगा और कोई भी व्यक्ति उनकी शिक्षाओं का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित नहीं होगा। पुनः यदि निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त है तो यह कहना हास्यास्पद एवं निराधार होगा कि गौतम बुद्ध ने जीवन काल में निर्वाण प्राप्त भी किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध के वचन स्पष्टतः इस बात के प्रमाण हैं कि उन्होंने जीवन काल में निर्वाण प्राप्त किया था। अतः निर्वाण जीवन का अन्त या मृत्यु नहीं हो सकता। वस्तुतः बुझ जाने एवं ठण्डा पड़ने से तात्पर्य दुःखों के बुझने या ठण्डा पड़ने से है। गौतम बुद्ध के चार का आर्यों सत्यों में भी यही अर्थ उभरकर आता है। यदि प्रथम आर्य सत्य दुःखों की गहन अनुभूति करता है और द्वितीय आर्य सत्य उसका कारण स्पष्ट करता है तो तृतीय आर्य सत्य में दुःखों के अन्त की ओर ही संकेत होगा, जीवन के अन्त की ओर नहीं। यह दुःखों का अंत ही निर्वाण है। स्पष्टतः दीपक के बुझने से दुःखों के विलीन हो जाने का संकेत है और ठण्डा हो जाने से दुःखों के शान्त हो जाने का अर्थ प्राप्त होता है, अर्थात् जिस प्रकार दीपक में डाले गए तेल के समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है या ठण्डा पड़ जाता है, उसी प्रकार दुःखों के समाप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरूष शान्त हो जाता है, बुझ जाता है या ठण्डा पड़ जाता है। निर्वाण भावात्मक अवस्था है, चैतन्य अवस्था या अभावात्मक अवस्था, इसके सम्बन्ध में भी बौद्ध दर्शन में दो परम्परायें पायी जाती हैं। एक परम्परा उन दार्शनिकों की है जो निर्वाण को एक अभावात्मक या अचैतन्य अवस्था स्वीकार करते हैं। ओल्डेनवर्ग, दाहक आदि बौद्ध दार्शनिक इसी परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन विचारकों के अनुसार बुद्ध निर्वाण को विरोधभाव, अभाव मात्र मानते थे। चूंकि वे अनात्मवाद को मानते थे। अजर-अमर एवं कूटस्थ नित्य आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करते थे। अतः वे निर्वाण को भावात्मक या चैतन्य अवस्था नहीं स्वीकार कर सकते थे। किन्तु अचैतन्य अवस्था होने पर भी निर्वाण को निः श्रेयस का अभाव नहीं कहा जा सकता। वह अभावात्मक अवस्था होने पर भी परम निःश्रेयस परम कल्याण और अमृत पद है। मोक्ष की ऐसी ही कल्पना न्याय-वैशेषिक दर्शन में भी मिलती है। दूसरी परम्परा उन दार्शनिकों की है जो निर्वाण को भावात्मक अवस्था स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार के निर्वाण में चेतनता बनी रहती है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण के दो भेद प्राप्त होते हैं- उपाधिशेष निर्वाण तथा निरूपाधिशेष निर्वाण। पहले प्रकार का निर्वाण पूर्णता प्राप्त सन्त पुरूष को उपलक्षित करता है जिसमें पांचों स्कन्ध अभी भी सुरक्षित हैं। वस्तुतः उपाधिशेष निर्वाण जीवन रहते हुए भी निर्वाण को प्राप्त कर लेना है। निरूपाधिशेष निर्वाण में सन्त पुरूष की मत्यु के पश्चात एवं मृत्यु के परिणामस्वरूप समस्त अस्तित्व का ही लोप हो जाता है। अर्थात् यह निर्वाण शरीरपात के अन्नतर प्राप्त होता है। हम इन दोनों निर्वाणों की तुलना अद्वैत वेदान्त एवं सांख्य दर्शनों की क्रमशः जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति से कर सकते हैं। निर्वाण एक अवर्णनीय अवस्था है। इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
Question : क्षणिकता के बौद्ध प्रत्यय का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : बौद्ध दर्शन में क्षर्णिकवाद अनित्यता का तार्किक विकास है, यह बुद्धोत्तर बौद्ध दर्शन में अस्तित्व में आया। गौतमबुद्ध ने स्वयं अनित्यतावाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। गौतम बुद्ध का अनित्यतावाद का दार्शनिक सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत से सिद्ध होता है। इसने सांसारिक वस्तुओं चेतन एवं अचेतन दोनों की अनित्यता एवं अस्थायित्व को प्रतिपादित किया। बुद्ध की स्थापना है कि संसार में कुछ भी स्थायी या नित्य नहीं है। यहां तक कि आत्मा कभी भी नित्य सत्ता नहीं है। यह उल्लेखनीय है कि गौतमबुद्ध ने स्वयं अस्थायित्व एवं क्षणिकत्व में भेंद किया है। उन्होंने आत्मा को क्षणिक तथा भौतिक वस्तुओं को अनित्य कहा। गौतम बुद्ध के अणुनायियों ने कालान्तर में अनित्यवाद के सिद्धान्त का विकसित करके क्षणिकवाद का रूप दे दिया। यह उल्लेखनीय है कि कोई वस्तु क्षणिक है और कोई वस्तु अनित्य है, दोनों स्थापनाओं में अन्तर है। वस्तुयें अनित्य हैं, गौतम बुद्ध के इस सिद्धान्त के गर्म से निहित तर्क के बल से क्षणिकवाद का विकास हुआ। क्षणिकवाद में आत्मा के क्षणिक स्वरूप को अस्तित्वमात्र तक सीमित करके सभी वस्तुओं पर लागू कर दिया गया। क्षणिकवाद का अर्थ केवल यह नहीं है कि कोई वस्तु शाश्वत या नित्य नहीं है, अपितु इसका अर्थ यह भी है कि किसी वस्तु का अस्तित्व कुछ समय के लिएभी नहीं रहता उसका अस्तित्व क्षण भर के लिए ही रहता है। क्षणिकवाद का अर्थ है, किसी वस्तु का उसकी उत्पत्ति के तुरन्त बाद विनाश वह वस्तु जो अपनी उत्पत्ति के बाद नष्ट हो जाती है, क्षणिक कहलाती है। वस्तुतः क्षणिक स्वभाव और वह वस्तु जिसमें इसके होने की कल्पना की जाती है, एक ही है। क्षणिक स्वभाव ही क्षणिक वस्तु है। दोनों में अन्तर करना बुद्धि की उपज है।
‘संसार में सबकुछ क्षणिक है’ इसे सिद्ध करने के लिए बौद्ध दर्शन में युक्तियां दी जाती हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार किसी वस्तु की सत्ता केवल तभी होती हैं, जब उसमें अर्थ क्रियाकारित्व, कार्यक्षमता अथवा किसी कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति पायी जाती है। जब किसी वस्तु में अन्य वस्तु को उत्पन्न करने की शक्ति होती है तब वह क्षणिक और परिवर्तनशील होती है। यदि वह स्थायी और अपरिवर्तनशील होती, तो उनमें किसी वस्तु को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं हो सकती, फलस्वरूप उसकी सत्ता नहीं हो सकती। इस प्रकार स्थायी एवं नित्य सत्ता का विचार स्वतः विरोधी है। वस्तुतः अस्तित्व संसार के पदार्थों की व्यवस्था में किसी प्रकार का परिवर्तन करने की क्षमता का नाम है। बीज की सत्ता है, क्योंकि उससे अंकुर उत्पन्न होता है। अंकुर की सत्ता है, क्योंकि वह तने को उत्पन्न करता है। इस प्रकार सत्ता वस्तुयें परिवर्तन लाने की क्षमता का नाम है। स्थायी पदार्थों में परिवर्तन लाने की यह शक्ति नहीं पायी जाती। यदि वस्तुओं में भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में परितर्वन न होता है तो वे भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य कैसे करती? यदि इसके उत्तर में यह कहा जाए कि संभाव्य शक्ति तो स्थायी है और यह अन्य शर्तों के पूरी होने पर वास्तविक रूप में आ जाती है तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि जिसके अन्दर किसी कार्य को करने की शक्ति होती है, वह उसे कर देता है यदि वह वैसा नहीं कर सकता तो उसमें शक्ति नहीं हो सकती। यदि अवस्थाओं के कारण परिवर्तन होता है तो केवल उन्हीं अवस्थाओं का अस्तित्व है और उन अवस्थाओं से भिन्न स्थायी वस्तुओं का अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार यदि अस्तित्व से तात्पर्य कार्यकारण भाव की क्षमता है, तो जो सत् है वह क्षणिक ही तो सकता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार क्षणिकत्व का यह विचार केवल बीज पर ही लागू नहीं होता, अपितु संसार की सभी वस्तुओं पर लागू होता है, अतः क्षणिकवाद के अनुसार संसार भी सभी वस्तुयें क्षणिक एवं परिवर्तनशील हैं।
बौद्ध दर्शन की हीनयान या सर्वास्तिवादी शाखा में जिसमें वैशेषिक एवं सैद्धान्तिक सम्प्रदाय आते हैं, क्षणिकवाद के विषय में दो संस्थायें प्राप्त होती हैं- सर्वक्षणिकम और सर्वअनात्यकम। सर्वक्षणिकम के अनुसार केवल क्षणिक धर्मों की सत्ता है। क्षणिक धर्मों की धारा निरन्तर प्रवाहित हो रही है, इसे सन्तानवाद कहते हैं। ये धर्म दो प्रकार के हैं- चेतन और जड़। ये दोनों परस्पर स्वतंत्र एवं सत् हैं। चेतन धर्म विज्ञान कहलाते हैं और जड़ धर्म भौतिक परमाणु इन क्षणिक विज्ञानों एवं क्षणिक भौतिक परमाणुओं की अलग-अलग धाराएं प्रवाहित हो रही हैं। सर्व अनात्यकम का अर्थ है कि कोई नित्य चेतन या अचेतन द्रव्य नहीं है। न तो चेतन आत्मा नामक नित्य द्रव्य है एवं न भौतिक पदार्थ नाम का जड़ द्रव्य। द्रव्यता, नामक, तादात्म्य, नित्यता आदि कल्पनामात्र है। सत् केवल क्षणिक धर्म है। ये क्षणिक धर्म मिलकर अपने संघात बनाते रहते हैं जो निरन्तर परिवर्तनशील हैं इन्हें संघातवाद कहते हैं। उल्लेखनीय है कि बौद्ध दर्शन में पांच स्कन्ध माने जाते हैं- रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, और विज्ञान। इनमें रूप स्कन्ध भौतिक है, जो पृथ्वी जब अग्नि, वायु के परमाणुओं से बनता है। शेष चारों स्कन्ध मानसिक हैं। इस क्षणिक पंचसंघात को पुलढ़गल या आत्मा कहते हैं और क्षणिक परमाणु संघात को भौतिक पदार्थ, किन्तु ये दोनों संघात उपचार मात्र हैं। दोनों की कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। वास्तविक सत्ता केवल क्षणिक विज्ञानों एवं क्षणिक परमाणुओं की है, जिनका प्रवाह निरन्तर चल रहा है।
कालान्तर में योगाचार विज्ञानवाद ने जड़तत्व की भी सत्ता को अस्वीकार कर दिया और केवल क्षणिक विज्ञानों के प्रवाह को स्वीकार किया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि क्षणिक विज्ञान ही जड़ जगत के रूप में प्रतीत होते हैं। माध्यमिक शून्यवाद अपनी तर्क पद्धति में वस्तु के साथ विज्ञान को भी अस्वीकार कर देता है। वह सत्ता को प्रपंचशून्य और जगत को स्वभाव शून्य कहकर अनिवर्चनीय घोषित कर देता है।
बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद एवं अनात्यवाद के सिद्धांत औपनिषदिक विचारों एवं अन्यान्य पारम्परिक ब्राह्मण दर्शन के सिद्धांतों के विरूद्ध खुली वैचारिक बगावत के प्रतीक है, क्योंकि इन सिद्धांतों ने इन विचारधाराओं की कतिपय सुसमर्थित मान्यताओं को असंगत सिद्ध कर दिया, फलस्वरूप भारतीय दर्शन में बौद्ध दर्शन के विरूद्ध व्यापक प्रतिक्रिया हुई। इसकी प्रथम प्रतिक्रिया इसके समकालीन जैन दर्शन में ही हुई, जो बौद्ध परम्परा की ही दार्शनिक विचारधारा है। जैन दर्शन क्षणिकवाद के सिद्धांत को अस्वीकार करता है। जैन दर्शन क्षणिकवादियों पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि कृत्यानि एवं अकृतलाभ के श्दोष को दुख एवं निर्वाण में दोष को, स्मृति नाश के दोष को देखते हुए भी क्षणिकवाद में आस्था रखने वाले व्यक्ति निश्चय ही अत्यन्त साहसी है। तात्पर्य यह है कि क्षणिकवाद को स्वीकार करने पर कर्मवाद का सिद्धांत असंगत होता है। दुःख एवं निर्वाण के विचार में दोष आता है तथा स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञा की व्याख्या करना कठिन हो जाता है। शंकराचार्यने ब्रह्मसूत्र पर लिखे गए अपने भाष्य में क्षणिकवाद एवं अनात्यवाद की आलोचना करते हुए आत्मा को नित्य सत्ता पर बल दिया। सामान्यतः क्षणिकवाद के विरूद्ध निम्नलिखित प्रश्न उठाये जाते हैं:
क्षणिक विषयों में कारणत्व नहीं हो सकता। शंकराचार्य के अनुसार किसी कार्य को उत्पन्न करने के लिए पहले कारण की उत्पत्ति होती है, तब उसके कारण में क्रिया होनी चाहिए। इस तरह कार्योत्पत्ति के लिए कारण की सत्ता एक से अधिक क्षणों तक होनी चाहिए। स्पष्टतः यह स्थिति क्षणिकवाद के विरूद्ध जाती है। यदि किसी तरह क्षणिक तत्वों की उत्पत्ति स्वीकार भी कर ली जाए तो उनमें संयोग नहीं हो सकता, फलस्वरूप कार्योत्पत्ति नहीं हो सकती। पुनः बौद्ध दर्शन किसी सन्तति का कभी अन्त नहीं मानता, बल्कि एक सन्तति का अन्य सन्तति में रूपान्तरण मानता हैं। जैसे, बीज-सन्तति अंकुर-सन्तति में रूपान्तरित होती है। बौद्ध दर्शन में इसके कतिपय अपवाद भी प्राप्त होता है। जैसे- अर्हत, जो निर्वाण-प्राप्त व्यक्ति है, के मरने के बाद उसकी आत्म सन्तति समाप्त हो जाती है। पुनः यदि प्रत्येक चीज क्षणिक हैं, तो दुःख भी क्षणिक होगा, फलस्वरूप उसे दूरे करने के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होगी। इस प्रकार बौद्ध दर्शन की सम्पूर्ण नैतिक साधना निरर्थक एवं अनावश्यक हो जाएगी। पुनः क्षणिकवाद के अनुसार निर्वाण भी क्षणिक होगा, अतः कोई भी व्यक्ति अगले क्षण में नष्ट हो जाने के भय से उसे प्राप्त करने के लिए उत्साहित नहीं होगा। क्षणिकवाद के आधार पर ज्ञान की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। यदि क्षणिक विज्ञानों की सन्तति का ही नाम आत्मा है, उससे भिन्न कोई नित्य आत्मा नहीं है तो प्रश्न है कि ज्ञान किसे प्राप्त होता है? क्या एक विज्ञान दूसरे विज्ञान को जानता है? वस्तुतः क्षणिक विज्ञान दूसरे क्षणिक विज्ञान ज्ञाता नहीं हो सकता। एक नित्य आत्मा के अभाव में संवेदन तो रहेंगे लेकिन वे ज्ञान नहीं कहलायेंगे। ज्ञान की अवधारणा यह उपलक्षित करती है कि विज्ञानों की सन्तति का एक ऐसे विषयी से सम्बन्ध होता है जो उस सन्तति के पूर्वापर क्रम का अंग नहीं है। यदि आत्मा या विषयी द्वारा अनुभवों का संश्लेषण न हो तो वह संवेदन मात्र होगा, उसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। आलोचकों के अनुसार पुनर्जन्म की अवधारणा की अनात्मवाद के साथ संगति नहीं बैठती, क्योंकि पुनर्जन्म के लिए नित्य आत्मा की सत्ता में विश्वास आवश्यक है। गौतम बुद्ध का कथन है कि क्षणिकवाद एव अनात्मवाद के साथ पुनर्जन्म के सिद्धान्त में विश्वास असंगत नहीं है। यद्यपि किसी नित्य आत्मा की सत्ता नहीं है, तथापि व्यक्ति का जीवन विभिन्न क्रमबद्ध एवं अव्यवहित अवस्थाओं की एक सन्तति है। इस सन्तति में किसी अवस्था का प्रादुर्भाव उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होता हैं और वह अवस्था स्वयं भावी अवस्था को उत्पन्न करती है। इस प्रकार जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में कारण-कार्य सम्बन्ध होने के कारण मनुष्य में व्यक्तित्व का सातत्व बना रहता है। वस्तुतः गौतम बुद्ध ने पुनर्जन्म की अवधारणा ही परिवर्तित कर दिया। इससे यह तथ्या उभरकर आया कि केवल इस जीवन के समाप्त होने पर ही पुनर्जन्म नहीं होता, अपितु पुनर्जन्म प्रतिक्षण होता है। इस प्रकार यह पुनर्जन्म या तो चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का होता है या फिर चरित्र का होता है। यह भी आक्षेप किया जाता है कि क्षणिकवाद में विश्वास कर्मवाद के नैतिक सिद्धांत को भी अप्रासंगिक बना देता है। कर्मवाद के अनुसार कर्मकाल का भोक्ता वही होना चाहिए जो कर्म का कर्ता हो। यह तभी सम्भव है जब एक नित्य आत्मा का अस्तित्व हो। पुनः यह भी आक्षेप किया जाता है कि क्षणिकवाद एवं अनात्मवाद से प्रत्यभिज्ञा और स्मृति की व्याख्या नहीं होती। प्रत्यभिज्ञा का सम्बन्ध पहचान से है, यदि प्रत्येक वस्तु क्षणिक एवं परिवर्तनशील है और आत्मा भी प्रतिक्षण परिवर्तनशील है तो इस यह कह सकते हैं कि यह वही कुर्सी है जिसे मैंने पांच वर्ष पहले खरीदा था। बौद्ध दर्शन के अनुसार यह सादृश्य के आधार पर सम्भव है। उसके अनुसार प्रत्यक्षीकरण के किन्हीं दो क्षणों में वस्तुयें केवल समान होती हैं और गलती से इस समानता को तादात्म्य रूप लिया जाता है। बौद्ध दर्शन स्मृति की व्याख्या विज्ञान-सत्य के आधार पर करता है।
Question : न्याय के अनुसार अनुमानों की प्रकृति एवं प्रकार।
(2004)
Answer : भारतीय प्रमाण मीमांसा में प्रथा के विभिन्न भेदों में अनुमिति प्रथा को वैशिष्टपूर्ण स्थान प्राप्त है। अनुमिति प्रथा के कारण या साधन या प्रमाण को अनुमान कहते हैं। व्युत्पत्ति की दृष्टि से अनुमान शब्द दो शब्दों के योग से बना है। अनु + मान। अनु का अर्थ है पश्चात और पश्चात का अर्थ है ज्ञान। इस प्रकार अनुमान का शाब्दिक अर्थ है- पश्चात ज्ञान या बाद में होने वाला ज्ञान। महर्षि गौतम ने अनुमान को प्रत्यक्षमूमलक ज्ञान कहा है। न्याय दर्शन का अनुमान एक व्यवहित एवं परोक्ष ज्ञान है। इसमें ज्ञान की उपलब्धि प्रत्यक्ष द्वारा नहीं होती। इसमें हेतु या लिंग के प्रत्यक्ष ज्ञान से उस लिंग को धारण करने वाले लिंगी का ज्ञान प्राप्त होता है या लिंग के ज्ञान से उस पदार्थ का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। जिसमें यह लिंग पाया जाता है। इसी प्रकार अनुमान को परिभाषित करते हुए महर्षि वात्सायन का कथन है- प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा लिंग के ज्ञान के बाद में विषय का होने वाला ज्ञान अनुमान है।
प्राचीन न्याय दर्शन में अनुमान के दो भेद प्राप्त होते हैं: स्वार्थानुमान एवं परमार्थानुमान। अनुमान का यह भेद प्रयोजन भेद के आधार पर किया जाता है। स्वार्थानुमान स्वतः अपनी संशयनिवृत्ति के लिए या स्वतः अपने ज्ञान के लिए किया जाता है। इसे वाक्यों की क्रमबद्ध व्यवस्था में अभिव्यक्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया मात्र है। जैसे रसोईघर आदि स्थानों में धुएं के साथ आाग को देखकर कोई व्यक्ति धुएं और आग की व्यात्ति को ग्रहण करके पर्वत पर धुआं देखता है और धुएं को देखकर जहां धुंआ है वहां आग है, इस व्याप्ति को स्मरण करता है। यह स्वार्थानुमान है। परार्थानुमान दूसरों की संशय निवृत्ति के लिए या दूसरों को समझाने के लिए होता है, उसे परार्थानुमान कहते हैं। इसे तर्कवाक्यों की एक व्यवस्था में रखना आवश्यक है, जिसमें पांच अवयव होते हैं। अतः इसे पंचावयव अनुमान भी कहते हैं। इसके पांच अवयव हैं- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण,उपनय और निगमन।
प्रतिज्ञा- यह एक तार्किक कथन है जिसके द्वारा पक्ष में साध्य के होने का स्पष्ट निर्देश किया जाता है।
हेतु- पक्ष में साध्य के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए जो साक्ष्य दिया जाता है उसे हेतु कहते हैं।
उदाहरण- इसमें व्याप्ति का कथन तथा तत्प्रतिपादक उदाहरण का उल्लेख किया जाता है।
उपनय- उदाहरण द्वारा हेतु और साध्य में व्याप्ति संबंध दिखाने के बाद उपनय में उससे विशिष्ट हेतु को पक्ष में होना दिखाया जाता है।
निगमन- इसमें साध्य का पक्ष में होने का निष्कर्ष निकाला जाता है।
भारतीय न्याय में परार्थानुमान की तार्किक अभिव्यक्ति निम्नलिखित ढंग से की जाती हैः
प्रतिज्ञा - पर्वत पर आग है।
हेतु - क्योंकि वहां धुआं है।
उदाहरण - जहां धुआं होता है, वहां आग होती है, जैसे, रसोईघर में।
उपनय - पर्वत पर धुआं है।
निगमन - अतः पर्वत पर आग है।
महर्षि गौतम के न्याय सूत्र में अनुमान के तीन भेद प्राप्त होते हैं- पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतादृष्ट। पूर्ववत् अनुमान में दृष्ट कारण से अदृष्ट कार्य का अनुमान किया जाता है। शेषवत् अनुमान में कार्य के प्रत्यक्ष ज्ञान से अप्रत्यक्ष कारण का अनुमान किया जाता है। सामान्यतोदृष्टि अनुमान कारण कार्य सम्बन्ध के ज्ञान पर आधारित न होकर सह अस्तित्व के ज्ञान पर आधारित है। नव्य न्याय में अनुमान के तीन भेद प्राप्त होते हैं- केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी। केवलान्वयी अनुमान में हेतु और साध्य का नियत साहचर्य देखा जाता है। जैसे- सभी प्रमेय अभिधेय हैं।
घर प्रमेय है।
अतः घर अभिधेय हैं।
केवल व्यतिरेकी अनुमान का आधार व्यतिरेक व्याप्ति है। इसमें अनुमान साध्य के अभाव के साथ हेतु के अभाव की व्याप्ति ज्ञान से होता है।
जैसे अन्य भूतों से जो भिन्न है उसमें गन्ध नहीं है।
पृथ्वी में गन्ध है।
अतः पृथ्वी अन्य भूतों से भिन्न है।
अन्वय-व्यतिरेकी अनुमान का आधार अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों व्याप्तियां हैं। इसमें हेतु के उपस्थित रहने पर साध्य भी उपस्थित रहता है और साध्य के अनुपस्थित रहने पर हेतु भी अनुपस्थित रहता है।
Question : चार्वाक के द्वारा अनुमान का खण्डन स्वयं में अनुमान का एक प्रक्रम है। चर्चा कीजिए।
(2003)
Answer : अनुमान ज्ञान का एक परोक्ष साधन है, जिसमें पक्ष में हेतु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उसमें अदृष्ट साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। जैसे, किसी स्थान विशेष में उठते हुए धुएं को देखकर वहां अदृष्ट अग्नि का ज्ञान अनुमिति प्रमा है और इस प्रमा का असाधारण साधन अनुमान प्रमाण है। सामान्यतः भारतीय परम्परा में अनुमान (परार्थानुमान) का निम्नलिखित स्वरूप है-
प्रतिज्ञा -पर्वत पर आग है।
हेतु-क्योंकि वहां धुआं है।
उदाहरण-जहां धुआं होता है वहां आग होती है, जैसे रसोईघर में।
उपनय-पर्वत पर धुआं है।
निगमन-अतः पर्वत पर आग है।
उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त अनुमान में पर्वत पर आग के ज्ञान में दो कारक हैं- प्रथम, पर्वत पर धुएं का प्रत्यक्ष ज्ञान (पक्षधर्मता) और द्वितीय, धुएं आग के नियत सहचर्य सम्बन्ध का ज्ञान, जिसे व्याप्ति कहते हैं। वस्तुतः व्याप्ति का ज्ञान ही अनुमान का प्राण नाड़ी या आधार है, जिसके अभाव में अनुमान सम्भव नहीं है। चार्वाक के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय अनुमान प्रमाण की वैधता को स्वीकार करते हैं। चार्वाक दार्शनिक अनुमान प्रमाण का खण्डन करने के लिए उसके आधारभूत सिद्धांत व्याप्ति को अवैध सिद्व करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि हेतु और साध्य का व्याय-व्यापक भाव ही अनुमान का आधार है। उनका कथन है कि धूम और अग्नि के बीच व्याप्य-व्यापक भाव एवं तत्सदृश अन्य व्याहितयां की कल्पना निराधार एवं तर्क विरूद्ध है, क्योंकि हमारे पास इस प्रकार की सर्वव्यापी तर्कवाक्यों को प्राप्त करने का कोई वैध साधन नहीं है। चूंकि व्याप्ति हेतु और साध्य का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है, अतः चार्वाकों की मान्यता है कि अनुमान तभी निश्चयात्मक एवं निर्दोष हो सकता है, जब व्याप्ति निर्दोष एवं वास्तविक हो। किन्तु व्याप्ति के विषय में निश्चायक रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता। जहां धुआं होता है, वहां आग होती है- हम इस व्याप्ति ज्ञान को केवल तभी निश्चायक एवं प्रामाणिक मान सकते हैं। जब हम प्रत्यक्ष से धूमयुक्त सभी पदार्थों को अग्नियुक्त जान सके। किन्तु यह बिल्कुल असम्भव है कि हम भूत एवं भविष्य के सभी धूमवान स्थलों को अग्नियुक्त देख सकें। प्रत्यक्ष का सम्बन्ध केवल वर्तमान से है और इस वर्तमान समय में भी सभी धूमवान पदार्थों को अग्नियुक्त नहीं जान सकते हैं। पुनः यदि इस प्रकार की व्याप्ति आज सत्य भी हो तो यह भविष्य में भी सत्य होगी, इसका कोई प्रमाण नहीं है। इस प्रकार प्रत्यक्षानुभव का क्षेत्र अत्यन्त सीमित है, परिणामस्वरूप वह हमें किसी भी सामान्य सम्बन्ध (व्याप्ति) का ज्ञान नहीं करा सकता। जहां तक अनुभूत दृष्टान्तों का सम्बन्ध है, उनमें व्याप्ति को सत्य माना जा सकता है, किन्तु इस बात की कोई गारन्टी नहीं है कि वह अनुभूत दृष्टान्तों के विषय में सत्य हो। यह सन्देह कि व्याप्ति शायद अनुभूत दृष्टान्तों के विषय में सत्य न हो, अनुमान में व्याप्ति के उपयोग को व्यर्थ सिद्ध करने के लिए सक्षम है। पुनः यदि हम कुछ दृष्टान्तों में व्याप्ति सम्बन्ध का प्रत्यक्ष करके बलात सामान्य नियम को स्थापित करने का प्रयास करेंगे तो अवैध सामान्यीकरण दोष उत्पन्न होगा। अतः प्रत्यक्ष, जो ज्ञान का एकमात्र प्रामाणिक साधन है, से व्याप्ति को स्थापित किया जा सकता है।
चार्वाक दर्शन के अनुसार अनुमान और शब्द प्रमाण भी व्यापित को सत्याप्ति नहीं कर सकते हैं। व्याप्ति की स्थापना शब्द प्रमाण से भी सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रथम शब्द ज्ञान का प्रामाणिक साधन नहीं है, द्वितीय शब्द प्रमाण के आधार पर व्याप्ति को स्थापित करने के प्रयास में अनुमान शब्द पर निर्भर हो जाएगा। शब्द से ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक अनुमान की आवश्यकता होती है, जो अधोलिखित है-
सभी आप्त पुरूषों के वाक्य प्रमाण हैं।
यह आप्त पुरूष का वाक्य है।
अतः यह प्रमाण है।
इस प्रकार शब्द से प्राप्त ज्ञान अनुमान पर आश्रित हैं, फलस्वरूप अनुमान की तरह उसकी भी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है। पुनः कार्यकारण के नियम के आधार पर भी व्याप्ति को स्थापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि कारण-कार्य का सार्वभौम नियम स्वयं एक व्याप्ति है। इस प्रकार चार्वाकों का कथन है कि व्याप्ति की स्थापना किसी भी प्रमाण से सम्भव नहीं है। चूंकि व्याप्ति अनुमान का आधार है, अतः व्याप्ति कि सन्दिग्ध होने से उस पर आधारित अनुमान भी निश्चयात्मक नहीं रह जाता है।
परन्तु वास्तव में चार्वाक दार्शनिक अनुमान को ज्ञान के अवैध साधन के रूप में प्रमाणित नहीं कर पाते हैं। अन्यान्य भारतीय दर्शनों में चार्वाकों द्वारा अनुमान प्रमाण के खंडन की आलोचना तो की ही गयी है, साथ ही चार्वाकों द्वारा स्वयं अनुमान प्रमाण को निरूदेश्य ही सिद्ध करने की बात कही गयी है। जैन दार्शनिकों का कथन है कि चार्वाकों द्वारा अनुमान प्रमाण का खण्डन आत्मव्याघातक है। यदि चार्वाकों से कहा जाए कि वे प्रत्यक्ष को ही क्यों प्रमाण मानते हैं तो वे या तो मौन रहेंगे या उसके लिए कोई युक्ति देगें। यदि वे मौन रहते हैं तो स्पष्टतः उनके पास अपने मत के लिए कोई प्रमाण नहीं है और यदि वे इसके लिए कोई युक्ति देते हैं तो वे अनुमान प्रमाण का सहारा ही लेते हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार चार्वाक विचारकों द्वारा प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण घोषित करना, परलोक आदि अप्रत्यक्ष विषयों के बारे में किसी भी प्रकार का विवेचना करना, अन्य मतों पर विचार करना तथा अपने सिद्धांतों का स्पष्टीकरण करना बिना अनुमान के सम्भव नहीं है।
बौद्ध दार्शनिकों का कथन है कि चार्वाक दार्शनिक द्वारा व्याप्ति का निषेध अनुचित है। यद्यपि बौद्ध विचारक भी व्याप्ति सम्बन्धी हिन्दु तर्कशास्त्रियों के दृष्टिकोण से असहमत हैं, तथापि उनका स्पष्ट विचार है कि दो घटनाओं या वस्तुओं को जोड़ने वाले सामान्य कथन को तबतक सत्य मानना पड़ेगा, जबतक वह सबके द्वारा स्वीकृत है। किसी समर्थन प्राप्त कथन को चुनौती देना व्यावहारिक जीवन की बुनियाद को ही चुनौती देना है और किसी वादी की यह स्थिति उसके अपने लिए ही हानिकारक होती है। उनके अनुसार हम अनन्त काल तक शंका नहीं कर सकते, बल्कि जब शंका करते-करते विचार में आत्मव्याघात उत्पन्न होने लगे या कोई व्यवहारिक असंगति उत्पन्न हो तो सन्देह का परित्याग करना ही उचित है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक विचारक भी पूर्णतया व्याप्ति का खण्डन नहीं कर पाते हैं। उनकी यह मान्यता कि प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है, अनुमान प्रमाण नहीं है, उनकी इस आस्था की ओर संकेत करता है कि कतिपय दृष्टान्तों में व्याप्ति समय है क्योंकि यह आगमनात्मक सामान्यीकरण का फल है। इसी प्रकार सांख्य, न्याय, वैशेषिक और मीमांसा विचारक भी व्याप्ति में अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए अनुमान की वैधता को स्थापित करते हैं। पुनः अनुमान की वैधता को चुनौती देना चिन्तन एवं विवाद को निर्मूल कर देना है। सभी प्रकार के चिंतन, वाद-विवाद सभी सिद्धान्त, सभी प्रकार के विधान एवं निषेध, सभी तर्क एवं कुतर्क अनुमान से ही सम्भव है। चार्वाक दार्शनिक अपनी बात को सिद्ध करने के लिए तो इन युक्तियों का सहारा लेते हैं। इस क्रम में वे स्वयं अनुमान का सहारा लेते हुए दीखते हैं, परन्तु फिर भी वे अनुमान प्रमाण का खंडन करते है, यह हास्यास्पद है।
Question : जैन दर्शन के अनेकांतवाद का प्रतिपादन कीजिए। क्या वास्तविकता की यह सुसंगत थियोरी है? कारण प्रस्तुत कीजिए।
(2003)
Answer : जैन दर्शन की तत्वमीमांसा अनेकांतवाद है। अनेकांतवाद का अर्थ है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है या वस्तु में अनेक धर्म होते हैं। उल्लेखनीय है कि अनेकांतवाद वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानने के साथ उसे अनेक भी मानता है। यहां धर्म शब्द गुण या लक्षण या विशेषता के अर्थ है कि वस्तु अनन्त लक्षण या विशेषता के अर्थ मे आया है। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, का अर्थ है कि वस्तु में अनन्त गुण या अनन्त लक्षण होते हैं। जैन दर्शन के अनुसारजिस आश्रय में धर्म होते हैं, वह धर्मी है और धर्मी की विशेषताएं धर्म है। जैन दर्शन में धर्मी के लिए द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है। इसमें द्रव्यमें दो प्रकार के धर्म स्वीकार किए जाते हैं। स्वरूप धर्म और आगन्तुक धर्म पाये जाते हैं। स्वरूप धर्म द्रव्य के अपरिवर्तलशील एवं नित्य धर्म हैं। इसके अभाव में द्रव्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है। जैसे चेतना जीव का स्वरूप धर्म है, मृत्रिका घर का स्वरूप धर्म है। आगन्तुक धर्म व द्रव्य के परिवर्तनशील धर्म है। ये धर्म द्रव्य में आते जाते रहते हैं। इनके अभाव में भी द्रव्य अस्तित्ववान हो सकता है। जैसे सुख, दुख, इच्छासंकल्प आदि जीव के आगन्तुक धर्म हैं। रंग रूप आदि घर के आगन्तुक धर्म है। जैन दर्शन में स्वरूप धर्म को गुण (Attribute) कहा जाता है और आगन्तुक धर्म को पर्याय या विकास। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्याय पाये जाते हैं। जैन दार्शनिक इस बात पर बल देते हैं है कि द्रव्य और गुण को परस्पर पृथक नहीं किया जा सकता। जैन-दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है। सत् वह है जिसकी उत्पत्ति एवं विनाश होता है तथा जिसमें स्थिरता होती हैं, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ जिसका प्रादुर्भाव विनाश और स्थिति होती है, वह द्रव्य है। जैन दार्शनिक अद्वैत वेदान्त एवं बौद्ध दर्शन के सत् के लक्षण को अम्वीकार करता है, जिनमें क्रमशः विकालावाधित्व और अर्थक्रियाकारित्व को सत्ता का लक्षण स्वीकार किया जाता है। जैन दर्शन का कथनहै कि अद्वैत एवं बौद्ध मत एकान्तवाद है, अद्वैत वेदान्त में केवल द्रव्यत्व को स्वीकार करके गुणों का अस्वीकार किया जाता है। द्रव्यत्व की उपेक्षा करता है। जैन मत दोनों को महत्व देता है। उसके अनुसार द्रव्य गुण की दृष्टि से नित्य होता है, क्योंकि गुण उसके अपरिवर्तनशील धर्म है। चूंकि पर्याय उत्पत्ति विनाशधर्मा हैं। अतः उसकी दृष्टि से वह परिवर्तनशील और अस्थाई है जैसे घर में प्रतिका अपरिवर्तनशील एवं नित्य तत्व है। किन्तु चूंकि वह मृत्रिका के उत्पन्न होता है। उसके रूप, रंग आदि में परिवर्तन होता है। एवं कालान्तर में उसका विनाश भी होता है। अतः घर का उद्भव रंग, रूप आदि में परिवर्तन उसका विनाश अनित्य तत्व है। इसी प्रकार जैन दर्शन का कथन है कि द्रव्य एक गतिशील यथार्थता है। यह सब वस्तुओं के अन्दर रहने वाला सारतत्व है, जो अपने को विविध आकृतियों में प्रकट करता है और इसकी तीन विशेषताएं है। उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिति। द्रव्य की इन तीनों विशेषताओं में कोई विरोध भी नही है, क्योंकि गुण की दृष्टि से द्रव्य में एकता सामान्वयत्व एवं नित्यता की सिद्धि होती है और पर्याय की दृष्टि से अनेकता विशेषत्व एवं अनित्यता की। इस प्रकार दृष्टि भेद से वस्तु में एकता और अनेकता सामान्यत्व एवं विशेषत्व नित्यता एवं अनित्यता एक साथ रह सकते हैं। संक्षेप में, यद्यपि सत् स्वतः नित्य है तथापि उसमें विकार दिखाई देते हैं, जो प्रकट होते रहते हैं और लुप्त होते रहते हैं। परिवर्तित होने के बावजूद स्थिर रहना द्रव्य की विशेषता है। उल्लेखनीय है कि बौद्ध दर्शन भी परिवर्तनशीलता को मानता हैं। किन्तु दोनों की मान्यता में अंतर है। बौद्ध दर्शन स्थाई तत्व का बिल्कुल निषेध करता है। वह जिस परिवर्तन में विश्वास करता है वह वास्तव में किसी का भी परिवर्तन नहीं है। इसके विपरीत जैन दर्शन परिवर्तन को भी स्वीकार करता है और उस वस्तु को भी मानता है, जिसमें परिवर्तन होता है।
इस प्रकार जैन दर्शन की तत्वमीमांसा अनन्तधर्मात्मक है। जैन दर्शन की यह भी मान्यता है कि वस्तु के अनन्त धर्मों में कुछ भावात्मक है और कुछ अभावात्मक। भावात्मक धर्म यह सूचित करता है कि वह क्या है? अभावात्मक धर्म अन्य वस्तुओं से उसका पार्थक्य सूचित करते हैं। वे भावात्मक धर्मों को स्वपर्याय कहते हैं। और अभावात्मक धर्मों को परपर्याय। वस्तु के अभावात्मक धर्मों की संख्या भावात्मक धर्मों से अधिक होती है। अनेकांतवाद और स्यादवाद एक ही सिद्धान्त के दो पक्ष हैं। अनेकांतवाद तत्वमीमांसा का सिद्धान्त है, जिसका अर्थ है कि संसार में अनन्त वस्तुएं है और प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म है। स्यादवाद ज्ञानमीमांसा एवं तर्कशास्त्र का सिद्धान्त है। इसका अर्थ है कि मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान एकांगी, आंशिक, अपूर्ण एवं सापेक्ष है। इस कारण उसका परामर्श भी आंशिक एवं सापेक्ष है। जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है, बहुलवादी एवं सापेक्षतावादी यथार्थवाद। यह सत्ता की दृष्टि से अनेकांतवाद और ज्ञान की दृष्टि से स्याद्वाद है।
परन्तु तार्किक दृष्टि से अनेकांतवाद एवं वास्तविकता सम्बन्धी मत उसे अद्वैतवाद पर पहुंचाती है, जिसकी जैन दार्शनिक उपेक्षा करते है। जैन दर्शन अपने सिद्धान्त के तार्किक निहितार्थ को वहीं समझ पाता है। वह सामान्य अनुभव का प्राथमिक विश्लेषण करके रूक जाता है और अपने विश्लेषण को उसके तार्किक परिणामों पर नहीं ले जाता। सापेक्षवाद का तार्किक निष्कर्ष अद्वैतवाद है जिसे जैन दर्शन अस्वीकार करता है, क्योंकि बिना अद्वैत तत्व में विश्वास किये सापेक्षवाद को स्वीकार करना असम्भव है। इसी प्रकार बहुलवाद का सिद्धान्त भी तर्कतः अद्वैतवाद पर ले जाता है। वह जिस मापदण्ड के आधार पर विचार करता है उसे बीच में ही छोड़ देता है और उसे तार्किक परिणाम पर नहीं ले जाता है। जैन दर्शन भौतिक जगत की विविधतायें एकता खोजना चाहता है और उसे प्रयास में वह पुद्गल को अन्तिम तत्व मान लेता है। वह एकत्व के खोज के प्रयास में सभी जीवों को भी स्वरूपतः एक ही प्रकार का मान लेता है। किन्तु वह पुद्गल और जीवों में जड़त्व की खोज नही करना चाहता और वह इस प्रकार अपनी कसौटी का परित्याग कर देता है। यदि वह उनके भी मूलतत्व को जानने का प्रयास करता तो स्पष्टतः अद्वैतवाद पर पहुंचता। पुनः जैन दर्शन के पुद्गल को अनन्त अणुओं में विभाजित करते हुए भी उनमें गुणात्मक भेद को अस्वीकार किया है और गुणात्मक दृष्टि से एक ही प्रकार का स्वीकार कर लिया। जैन दर्शन के अनुसार हमारे सभी ज्ञान सापेक्ष एवं आंशिक हैं। वे निरपेक्ष ज्ञान को अस्वीकार करते हैं, किन्तु निरपेक्ष को स्वीकार किये बिना सापेक्ष की अवधारणा को स्वीकार करना सम्भव है। पुनः जैन दार्शनिक केवल ज्ञान को शुद्ध, पूर्ण, अपरोक्ष और परमार्थ ज्ञान मानते हैं, जो सभी आवरणीय कर्मों के क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है। यद्यपि जैन दार्शनिक स्वयं इसके लिए निरपेक्ष शब्द का प्रयोग नहीं करते, तथापि यह न चाहते हुए भी निरपेक्ष तत्व की स्वीकृति ही है, जैन दर्शन स्यादवाद एवं सप्रभंगी नय के आधार पर अन्य मतों की परीक्षा तो करता है, किन्तु आधार पर वह अपनी परीक्षा नही करता।
Question : बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद।
(2003)
Answer : गौतम बुद्ध ने स्वयं अनित्यतावाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। क्षणिकवाद अनित्यतावाद का तार्किक विकास है जो बुद्धोत्तर बौद्ध दर्शन में अस्तित्व में आया। गौतम बुद्ध का अनित्यतावाद का दार्शनिक सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्वाद के सिद्धांत से सिद्ध होता है कि इसने सांसारिक वस्तुओं- चेतन एवं अचेतन दोनों की अनित्यता एवं अस्थायित्व को प्रतिपादित किया। यह उल्लेखनीय है कि गौतम बुद्ध ने स्वयं अस्थायित्व एवं क्षणिकत्व में भेद किया है। उन्होंने आत्मा को क्षणिक तथा भौतिक वस्तुओं को अनित्य कहा। परिवर्तनशीलता एवं अस्थायित्व का यह सिद्धांत भारतीय विचारधारा को गौतम बुद्ध की अनुपम देन है। इसने यह स्पष्ट किया कि संसार परिवर्तन का प्रवाह है, घटनाओं एवं विचारों का प्रवाह मात्र है, जिसमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है। जीवन परिवर्तन की अभिव्यक्तियों कीशृंखला मात्र है। प्रत्येक चीज परतंत्र, आश्रित, सापेक्ष तथा प्रतीत्यसमुत्पन्न होने के कारण अनित्य एवं अस्थायी है। उन्होंने पदार्थों को, आत्मा को एवं अन्याय सांसारिक वस्तुओं को संभूति प्रक्रिया एवं परिवर्तन के रूप में देखा। बौद्ध दर्शन में परिवर्तन एवं अनित्यता को स्पष्ट करने के लिए अग्नि की ज्वाला एवं नदी की धारा का उदाहरण प्राप्त होता है। अग्नि की जवाला या दीपक की लौ अपरिवर्तित प्रतीत होती है, किन्तु वह प्रत्येक क्षण में वही नहीं है, अपितु अन्य ज्वाला या लौ ही है। इन ज्वालाओं या लौ के निरन्तर प्रवाह के कारण उनमें एकता की प्रतीति होती है। उल्लेखनीय है कि कोई वस्तु क्षणिक है और कोई वस्तु अनित्य है, दोनों स्थापनायें परस्पर भिन्न हैं। क्षणिकवाद में आत्मा के क्षणिक स्वरूप को अस्तित्वमात्र तक सीमित करके सभी वस्तुओं पर लागू कर दिया। क्षणिकवाद का अर्थ केवल यह नहीं है कि कोई वस्तु शाश्वत या नित्य नहीं है, अपितु इसका अर्थ यह भी है कि किसी वस्तु का उसकी उत्पत्ति के तुरन्त बाद विनाश। परंतु बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद को तार्किक रूप से दोषयुक्त बताया गया है, क्योंकि इससे दुःख, सुख, निर्वाण, कारणत्व एवं पुनर्जन्म की अवधारणाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती।
जैन दर्शन क्षणिकवाद सिद्धान्त पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि कृतहानि एवं अकृतलाभ के दोष को दुख एवं निर्वाण में दोष को, स्मृति नाश के दोष को देखते हुए भी क्षणिकवाद में आस्था रखनेवाले व्यक्ति निश्चयतः अत्यंत साहसी हैं। तात्पर्य है कि क्षणिकवाद को स्वीकार करने पर कर्मवाद का सिद्धांत असंगत होता है। दुःख एवं निर्वाण के विचार में दोष आता है तथा स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञा की व्याख्या करना कठिन हो जाता है। अतः क्षणिकवाद की व्याख्या तार्किक आधार पर संभव नहीं है, क्योंकि इससे सारा कार्य व्यवहार असंभव हो जाएगा।
Question : विमुक्ति का सांख्य सिद्धांत।
(2003)
Answer : सांख्य दर्शन में विमुक्ति को कैवल्य के नाम से जाना जाता है। सांख्य दर्शन में यह घोषित किया गया है कि तीन प्रकार के दुःखों के अभिघात के कारण उनके विनाश के लिए जिज्ञासा होती है, ये हैं आध्यात्मिक आधिभौतिक एवं आधिदैविक। आध्यात्मिक दुःख वह है जो मनुष्य के आध्यात्मिक भौतिक स्वरूप के कारण होता है। यह जीव के शरीर या मन में उत्पन्न होता है। जैसे शारीरिक अव्यवस्थाओं तथा मानसिक अशान्ति से उत्पन्न दुःख। अधिभौतिक दुःख वह है जो बाह्य जगत के कारण उत्पन्न होता है। इसमें अन्य मनुष्य या मनुष्येतर जीव से उत्पन्न दुःख आते है। आधिदैविक दुःख वह है जो अतिप्राकृतिक कारणों या दैवीय शक्तियों से उत्पन्न होता है। जैसेे ग्रहों- भूत-प्रेत तथा पंचतत्वों से उत्पन्न दुःख।
सांख्य दर्शन के अनुसार दुःखों का कारण बन्धन है। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन में पुरुष बन्धन एक मिथ्या विचार है। पुरुष स्वभावतः नित्य तथा शुद्ध है, ज्ञानस्वरूप तथा बंधनरहित है। इसका न तो बंधन होता है और न विमुक्त। वास्तव में प्रकृति ही लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) के रूप में अनेक पुरुषों को आश्रय से बंधनग्रस्त होती है, संसरण करती है और मुक्त होती है। सूक्ष्म शरीर के साथ पुरुष का संयोग ही बन्धन है और बन्धन का कारण अविवेक है। पुरुष स्वभावतः ज्ञातामात्र है जो बुद्धि, अहंकार, मन, शरीर और इन्द्रिय से भिन्न है, किन्तु वह अविवेक के कारण अनात्म वस्तुओं से अपना तादात्मय स्थापित करके अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है और अनात्म वस्तुओं तथा उनके गुणों से तादात्मय स्थापित करके उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है। बुद्धि में पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ने से जड़ बुद्धि चैतन्य युक्त हो जाती है, और अहंकार के आरोप के कारण वह उसके गुणों को अपना स्वरूप समझकर स्वयं कर्त्ता, स्वाकी आदि मान लेता है। सांख्य दर्शन के अनुसार विमुक्ति तीनों प्रकार के दुखों की आत्यांतिक निवृति मात्र है। यह वह अवस्था है, जिसमें सभी प्रकार के दुःखाें का सर्वदा के लिए निवारण हो जाता है। इस अवस्था में पुरुष अपने नित्य शुद्ध चैतन्य स्वरूप में प्रकाशित होता है। यह पुरूष के अपने नित्य स्वरूप में अवस्थित हो जाने की अवस्था है। वह अचेतन प्रकृति एवं अन्तः करणादि से अपना विभेद जान लेता है। इसे उपवर्ग भी कहा जाता है क्योंकि इसमें पुरुष दुःखमय जगत से अलग हो जाता है। पुनः चूंकि सूक्ष्म शरीर से पुरुष का संयोग ही बन्धन या दुःखानुभूति का कारण है, अतः विवेक ज्ञान द्वारा इस संयोग की समाप्ति ही कैवल्य है। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन मे विमुक्ति दुःखों की आत्यांतिक निवृतिमात्र है। इसमें सुख या आनन्द का तत्व नहीं होता क्योंकि पुरुष सर्वगुणातीत है। यह सुख-दुःख रहित अवस्था होने के कारण एक ज्ञानशुन्य अवस्था है। सांख्य दर्शन में विमुक्ति के दो रूप मिलते हैं-जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति। जीवन काल में ही दुःखों की आत्यान्तिक निवृति जीवन मुक्ति है। सांख्य दर्शन के अनुसार विवेक ज्ञान होते ही पुरूष प्रकृति से मुक्त हो जाता है। तथापि प्रारब्ध कर्मों के भोगपर्यन्त उसका शरीर बना रहता है, किन्तु शरीर के व्यापार उसे प्रभावित नहीं करते। इस अवस्था में पुरुष का बुद्धि से भी सम्बन्ध बना रहता है, लेकिन बुद्धि के सारे दोष समाप्त हो जाते हैं। वह संसार में रहते हुए भी संसारी नहीं होता। जीवनयुक्त का शरीर प्रारब्ध कर्मों के कारण चलता रहता है और प्रारब्ध कर्मों की समाप्ति के बाद शरीर भी समाप्त हो जाता है। यह विदेह मुक्ति की अवस्था है। जीवन युक्त का जीवन आदर्श जीवन है। वह जनसामान्य के स्वरूप और उपायों की जानकारी देकर उनके कैवल्य-प्राप्ति में सहायता देता है। विदेहयुक्ति में पुरुष का स्थूल एवं सूक्ष्म, सभी शरीरों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। और उसे पूर्ण कैवल्य प्राप्त हो जाता है। विमुक्ति की प्राप्ति के
साधन के विषय में सांख्य मौन है। सांख्य दर्शन तत्वज्ञान को कैवल्य का साधन मानता है। इसका तत्व ज्ञान विवेक ज्ञान है, पुरुष और प्रकृति के भेद का ज्ञान। सांख्य दर्शन के अनुसार जब यह भेद ज्ञान मनन एवं निदिध्यासन से सुदृढ़ हो जाता है, तब पुरूष अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है।
Question : चार्वाक के मत का प्रत्यक्ष ज्ञान ही ज्ञान का एकमात्र वैध स्रोत होता है, का कथन कीजिए और मूल्यांकन कीजिए।
(2002)
Answer : भारतीय विचारधारा में चार्वाक दर्शन एक प्रत्यक्षवादी भौतिकवादी और सुखवादी विचारधारा है। यह ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से प्रत्यक्षवादी है। इसकी ज्ञानमीमांसा का महत्वपूर्ण पक्ष इसका ज्ञानमीमांसीय प्रत्यक्षवाद है, जिसमें प्रत्यक्ष के अतिरिक्त ज्ञान के अन्य सभी प्रमाणों की अस्वीकृति है। भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में ज्ञान के प्रमाणों की संख्या में मतभेद है। चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी सम्प्रदाय प्रत्यक्ष के साथ-साथ एक या अन्य प्रमाण की वैधता स्वीकार करते हैं। इन सबके विपरीत चार्वाक दर्शन केवल प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है।
प्रत्यक्ष क्या है? इस सम्बन्ध में चार्वाकों की परिभाषा प्राप्त नहीं होती। सामान्यतः वे अन्य भारतीय दर्शनों की तरह यह स्वीकार करते हैं कि इन्द्रिय एवं विषय के सम्पर्क से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष कहलाता है। प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रमाण भी प्रत्यक्ष है। चूंकि हमारी ज्ञानेन्द्रियां पांच हैं (आंख, नाक, कान, जिह्ना और त्वचा)। अतः इनसे क्रमशः रुप, शब्द, गन्ध, रस, और स्पर्श का ज्ञान होता है। प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानने का कारण इस प्रमाण में अभ्रान्तता और निश्चयात्मकता है, जो प्रत्यक्षेतर प्रमाणों में सम्भव नहीं है।
चार्वाक दार्शनिक अनुमान को ज्ञान का वैध साधन स्वीकार नहीं करते हैं। अनुमान ज्ञान का एक परोक्ष साधन है, जिसमें पक्ष में हेतु के प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर उसमें अदृष्ट साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। जैसे- किसी स्थान विशेष में धुएं को देखकर वहां अदृष्ट अग्नि का ज्ञान अनुमित प्रमा है और इस प्रथा काअसाधारण साधन अनुमान प्रमाण है। धुएं और आग के नियत साहचर्य सम्बन्ध का ज्ञान व्याप्ति कहलाता है, यह अनुमान का आधार है। चार्वाक दार्शनिक अनुमान प्रमाण का खण्डन करने के लिए व्याप्ति को ही अवैध सिद्ध करना चाहते हैं।
चार्वाकों का कथन है कि अनुमान तभी निश्चयात्मक एवं निर्दोष हो सकता है जब व्याप्ति निर्दोष एवं वास्तविक हो। किन्तु व्याप्ति के विषय में निश्चयात्मक रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता है। जहां धुआं होता है, वहां आग होती है, हम इस व्याप्ति ज्ञान को केवल तभी निश्चयात्मक एवं प्रमाणिक मान सकते हैं। जब हम प्रत्यक्ष से धूम्र युक्त सभी पदार्थों को अग्नियुक्त जान सकें। किन्तु यह बिल्कुलअसम्भव है कि हम भूत एवं भविष्य के सभी धूमवान स्थलों को अग्नियुक्त देख सकें। प्रत्यक्ष का सम्बन्ध केवल वर्तमान से है और हम वर्तमान समय में भी सभी धूमवान पदार्थों को अग्नियुक्त नहीं जान सकते। पुनः इस प्रकार की व्याप्ति आज सत्य भी हो तो यह भविष्य में भी सत्य होगी, इसका कोई प्रमाण नहीं है। इस प्रकार प्रत्यक्षानुभव का क्षेत्र अत्यन्त सीमित है, परिणामस्वरूप वह हमें किसी भी सामान्य सम्बन्ध (व्याप्ति) का ज्ञान नहीं करा सकता। जहां तक अनुभूत दृष्टान्तों का सम्बन्ध है, उनमें व्याप्ति को सत्य माना जा सकता है, किन्तु इस बात की कोई गारन्टी नहीं है कि वह अनुभूत दृष्टांतों के विषय में भी सत्य हो। यह सन्देह कि व्याप्ति शायद अनुभूत दृष्टान्तों के विषय में सत्य न हो अनुमान में व्याप्ति के उपयोग को व्यर्थ सिद्ध कर देने के लिए पर्याप्त है। पुनः व्याप्ति हेतु और साध्य का निरूपाधिक सम्बन्ध है। चार्वाक का कथन है कि प्रत्यक्ष द्वारा निरूपाधिक सम्बन्ध का ज्ञान सम्भव नहीं है। उपाधि दो प्रकार की होती है- शंकित और निश्चित। यदि उपाधि निश्चित है, जैसे अग्नि एवं धुएं में तो व्याप्ति वैध नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि हम दो वस्तुओं में साहचर्य को देखकर यह नहीं कह सकते हैं कि उनका साहचर्य निरूपाधिक है।
चार्वाक दार्शनिक अनुमान का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं कि वह अनुभव के दौरान हमारे मन में स्थापित हो जानेवाले साहचर्यों का फल है। यह एक विशुद्ध मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।
चार्वाक दार्शनिक प्रत्यक्ष को ज्ञान का एकमात्र वैध साधन मानने के क्रम में शब्द प्रमाण का भी खंडन करते हैं। चार्वाकों के अनुसार आप्त पुरूषों के शब्दों से ज्ञान-प्राप्ति का दावा किया जाता है, अतः उसे कणेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ही मानना चाहिए, स्वतंत्र प्रमाण नहीं। पुनः आप्त पुरूषों के शब्द वहां तक प्रामाणिक माने जा सकते हैं, जहां तक वे प्रत्यक्ष विषयों का बोध कराते हैं। यदि उनसे अप्रत्यक्ष विषयों के बोध का दावा किया जाता है, तो उनका प्रमाण्य संदिग्ध हो जाता है, क्योंकि उन विषयों का प्रामाण्य प्रत्यक्ष द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। चार्वाक वेदों के प्रामाण्य का निषेध करते हैं और उसे असत्य, पुनरूक्ति एवं दोषयुक्त मानते हैं।
पुनः चार्वाक उपमान को भी ज्ञान का वैध साधन स्वीकार नहीं करते। उपमान सादृश्य ज्ञान पर आधारित होता है। सादृश्य का ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता है। अतः चार्वाक इसके लिए किसी स्वतंत्र प्रमाण को आवश्यक नहीं मानते। इस प्रकार अनुमान, शब्द और उपमान प्रमाणों के अप्रमाणिक होने से चार्वाक ज्ञान मीमांसा में प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण बचता है।
परन्तु चार्वाक दर्शन की ज्ञान मीमांसा के विरूद्ध भारतीय दर्शन के अन्य सम्प्रदायों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। इसके विरूद्ध कई आक्षेप किए गये हैं:
चार्वाक दर्शन ने प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण घोषित करके तथा प्रत्यक्षेत्तर प्रमाणों का खण्डन करके दर्शन को, जो भारतीय विचार धारा के अनुसार जीवन की साधना है, बौद्धिक साधना के स्थान से भी च्युत कर दिया। उसका ज्ञान सिद्धांत इसलिए भी उपेक्षणीय हैं कि उसके आधार पर विश्व में किसी समायोजन एवं व्यवस्था का प्रश्न ही नहीं उठाया। चार्वाकों ने अनुमान प्रमाण का खण्डन प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर किया। किन्तु प्रत्यक्ष की प्रामाणिकता निर्विवाद नहीं है। इन्द्रियों की सीमा प्रत्यक्ष की सीमा है। रज्गु में सर्प की प्रतीति, बालू में जल का आभास, पृथ्वी का चपटी दिखाई देना दोषपूर्ण प्रत्यक्ष के उदाहरण हैं। इस प्रकार अनुमान के प्रमाणत्व के खण्डन का आधार दूषित है। पुनः चार्वाक दार्शनिकों द्वारा व्याप्ति का निषेध अनुचित है। यद्यपि बौद्ध विचारक भी व्याप्ति सम्बन्धी हिन्दू तर्कशास्त्रियों के दृष्टिकोण से असहमत हैं, तथापि उनका स्पष्ट विचार है कि दो घटनाओं या वस्तुओं को जोड़ने वाले सामान्य कथन को तब तक सत्य मानना पड़ेगा, जब तक वह उसके द्वारा स्वीकृत है और दैनिक व्यवहार के किसी आधारभूत नियम पर आधारित है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक विचारक भी पुर्णतया व्याप्ति का खण्डन नहीं कर पाते हैं। उनकी मान्यता कि ‘प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है, अनुमान प्रमाण नहीं है, उनकी इस आस्था की ओर संकेत करता है कि कतिपय दृष्टान्तों में व्याप्ति सम्भव है, क्योंकि यह आगमनात्मक सामान्यीकरण का फल है। इसी प्रकार सांख्य न्याय, वैशेषिक और मीमांसा विचारक भी व्याप्ति में अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए अनुमान की वैधता को स्थापित करते हैं।
पुनः अनुमान की वैधता को चुनौती देना चिन्तन एवं विवाद को निर्मूल कर देना है। सभी प्रकार के सिद्धांत सभी प्रकार के विधान एवं निषेध सभी तर्क एवं कुतर्क अनुमान से ही सम्भव है। चार्वाक विचारकों ने अनुमान प्रमाण के प्रमाणत्व का निषेध करके भारतीय विचारधारा को बौद्धिक साधना के स्थान से च्यूत करने का प्रयास किया। प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय में चार्वाकों की युक्ति कि ये निर्विवाद एवं दोषरहित है, अनुमान तथा शब्द पर भी लागू होती है। यदि चार्वाक कहें कि अनुमान तथा शब्द कभी-कभी सदोष होते हैं तो प्रत्यक्ष भी कम सदोष नहीं होता। जीवन में सदोष प्रत्यक्ष के भी कम उदाहरण नहीं मिलते। परन्तु चार्वाक ज्ञानमीमांसा के कतिपय अप्रिय परिणामों के बावजूद इसकी देने भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसके ज्ञानमीमांसीय विचारों ने भारतीय विचारकों के समक्ष अनेक समस्यायें पैदा कीं, जिनका समाधान करने के लिए वे विवश हुए, फलस्वरूप भारतीय दर्शन पुष्ट एवं समृद्ध हुआ।
Question : अनेकांतवाद एवं सप्रभंगी नय के बीच का सम्बन्ध।
(2002)
Answer : अनेकांतवाद एवं सप्रभंगी नय एक ही सिद्धान्त के दो पक्ष हैं। अनेकांतवाद तत्वमीमासा का सिद्धान्त हैं जिसका अर्थ है कि संसार में अनन्त वस्तुए हैं और प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म है। स्यादवाद एवं सप्तभंगी नय ज्ञानमीमांसा एवं तर्कशास्त्र का सिद्धान्त है। इसका अर्थ है कि मनुष्य का सम्पूर्ण ज्ञान एकांगी, आंशिक, अपूर्ण और सापेक्ष होता है। इस कारण उसका परामर्श भी आंशिक एवं सापेक्ष होता है। जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है बहुलवादी एवं स्यादातवादी यथार्थवाद। यह सत्ता की दृष्टि से अनेकांतवाद और ज्ञान की दृष्टि से स्यादवाद है जिसका प्रमाण है। सप्तभंगीनय अर्थात् परामर्श (नय) के सात प्रकार। संप्तभंगीनय अनेकांतवाद को सिद्ध करता है। जैन दर्शन का दावा है कि विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तविभिन्न दृष्टियों पर आधारित होते हैं। इस प्रकार सत्ता सम्बन्धी जितने सिद्धान्त हैं, सत्ता में उतने धर्म हैं, अर्थात् सत्ता में (वस्तु) में अनेक धर्म होते हैं। सप्तभंगीनय की सात विधाओं से यह प्रमाणित होता है कि वस्तु सम्बन्धी-विवेचन अनेक दृष्टियों परआधारित होता है। इस प्रकार अनेक धर्मात्मक या अननत धर्मात्मक होती है। स्यादवाद और संप्रभंगी नय विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का अनेकांतवाद में समन्वय करता है। इस प्रकार यह एक उदारवादी सिद्धान्त है। यह इस बात पर बल देता है कि प्रत्येक सिद्धान्त सापेक्ष रूप से सत्य होता है। वह जिस दृष्टि (धर्म) से में सत्ता (वस्तु) को देखता है, वह दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में सत्य होता है। विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों में परस्पर विरोध का कारण दृष्टि भेद है। परन्तु जैन दार्शनिकके इस दावे की कि स्यादवाद और संप्रभंगी नय अनेकांतवाद को स्थापित करता है, आलोचना की गई है। वस्तुतः जैन तर्कशास्त्र एवं ज्ञानमीमांसा अद्वैतवाद की ओर ले जाता है। आचार्य शंकर का कथन है कि यदि सभी सिद्धान्त सौपाधिक दृष्टि से साथ होगा। सापेक्षता निश्पेक्षता से सम्बन्धित है और उसके अस्तित्व को पहले ही स्वीकार कर लेती है। संप्तभंगीनय हमे बिंखरे हुए नयों कोएक कर देता है किन्तु उनके समन्वय का प्रयास नहीं करता। स्यादवाद के सात नय बिखरे हुए पुष्प या मोती के समान हैं। निरपेक्ष रूपी धागे के अभाव में उन्हें दार्शनिक माला में पिरोया नहीं जा सकता। निरपेक्ष ही सापेक्षों को जीवन, अर्थ, महत्व, प्रदान करता है। अनन्तधर्मात्मक कहने से एवं धर्मी की उपेक्षा करने से तत्व का बोध नही हो सकता। केवल ज्ञान की अवधारण, स्यादवाद की एकमात्र स्वीकृति उसे अद्वैतवाद पर ले जाती है।
Question : आत्मा की न्याय दृष्टि।
(2002)
Answer : न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा एक द्रव्य है जो शरीर, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि से भिन्न है। इसका कारण यह है कि आत्मा नित्य है, किन्तु शरीर, इन्द्रिय आदि अनित्य है। शरीर, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि आदि आत्मा के साधन हैं, वह इनका प्रयोग करता है। आत्मा शरीर नहीं है, क्योंकि शरीर की अपनी चेतना नहीं है। ज्ञानेन्द्रियों की आत्मा नहीं है, क्योंकि कल्पना, स्मृति, विचार आदि मानसिक व्यापार इन्द्रियों के कार्य नहीं हैं। पुनः आत्मा इन्द्रियों का नियंत्रण करने वाला तथा उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान का संश्लेषण करने वाला है। मन भी आत्मा नहीं है, क्योंकि मन अणु परिमाण है, जबकि आत्मा विभु है। मन साधन मात्र है जिसके द्वारा आत्मा मनन या विचार करता है। इस प्रकार आत्मा का ऐक्य देह, इन्द्रिय, एवं मन से नहीं हो सकता, क्योंकि देह के नष्ट होने, इन्द्रियों के अलग होने और मन के निष्चेस्ट हो जाने पर भी आत्मा अस्तित्ववान बना रहता है। आत्मा विभू है। वह अणु-परिमाण या मध्यम परिमाण नहीं है, क्योंकि ये साकार वस्तुओं के गुण है और आत्मा निराकार एवं निरूयव है। आत्मा विज्ञानों का प्रवाह मात्र नहीं हैं, क्योंकि विज्ञान प्रवाह मात्र से स्मृति की व्याख्या नहीं हो सकती। न्याय दर्शन चैतन्य या ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानता है। आत्मा में चैतन्य तभी आता है, जब इसका मन के साथ, मन का इन्द्रियों के साथ और इन्द्रियों का बाह्य वस्तुओं के साथ सम्पर्क होता है, अर्थात् आत्मा का बाह्य विषयों के साथ सम्पर्क होने पर ही इसमें चैतन्य या ज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार आत्मा के विषय में न्याय-दर्शन का विचार जैन, सांख्य, एवं अद्वैत वेदान्त से भिन्न हैं। जैन दर्शन आत्मा को द्रव्य मानकर चेतना को उसका स्वरूप धर्म मानता है। इसके विपरीत न्याय दर्शन आत्मा को द्रव्य तो मानता है, लेकिन चेतना को उसका आकस्मिक धर्म मानता है।
न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा एक अभौतिक द्रव्य है, जिसमें छहः गुण हैं- इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख और ज्ञान। न्याय-दर्शन के एक अन्य ग्रंथ में आत्मा के आठ अन्य गुण भी गिनाये गये हैं- संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, भावना, धर्म एवं अधर्म। न्याय दर्शन की किरणावली नामक टीका में प्रथम छः गुणों को सामान्य गुण तथा अन्तिम आठ गुणों को विशेष गुण बताया गया है। वास्तव में आत्मा निर्गुण है। उसमें गिनाए गए छः गुण अनित्य हैं। ये गुण आत्मा में तब आते हैं, जब शरीर से सम्बन्धित होती है। इस प्रकार आत्मा ज्ञानादि छः गुणों से परे हैं। वह ज्ञानादि का आश्रय होते हुए भी ज्ञानवान नहीं है। प्राचीन नैयायिक आत्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान को अस्वीकार करते हैं। उनके अनुसार आत्मा का ज्ञान आप्त वचनों से होता है। ये अनुमान द्वारा भी आत्म ज्ञान को स्वीकार करते हैं। आत्मा के प्रत्यक्ष गुणों इच्छा, द्वैष, सुख, दुःख आदि से अनुमान के द्वारा उसका ज्ञान होता है। किन्तु नव्य नैयायिक मानस प्रत्यक्ष के आधार पर आत्मा के ज्ञान की बात करते हैं। न्याय दर्शन में आत्मा के दो भेद हैं- जीवात्मा और परमात्मा। जीवात्मायें अनेक हैं परन्तु परमात्मा एक है और वह ईश्वर है।
न्याय दर्शन का आत्म सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से अग्राध्य है। आत्मा को एक द्रव्य मानकर चेतना को उसका आगन्तुक गुण मानना त्रुटिपूर्ण है। एक अचेतन द्रव्य के रूप में आत्मा की अवधारणा सामान्य अनुभव के प्रतिकूल जाती है। इसको चेतन स्वरूप स्वीकार किए बिना न तो जीवन के नानाविध अनुभवों में समन्वय किया जा सकता है और न अनुभव की बौद्धिक व्याख्या ही की जा सकती है। आत्मा को अचेतन द्रव्य मानने पर स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञा की व्याख्या नहीं की जा सकती।
Question : प्रकृति के विकास का सांख्य सिद्धान्त।
(2002)
Answer : सांख्य दर्शन का विकासवाद सृष्टि के उदभव और विकास का सिद्धान्त है। इसके विकासवाद की पृष्ठभूमि में इसका सत्यकार्यवाद का सिद्धान्त निहित है, जिसके अनुसार कार्य उत्पत्ति के पूर्व अपने उपादान कारण में व्यक्त रूप में विद्यमान रहता है। सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है। सम्पूर्ण सृष्टि उत्पति के पूर्व प्रकृतिमें विद्यमान रहता है। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि कोई नवीन उत्पत्ति नही हैं और प्रलय सृष्टि का विनाश नही हैं। प्रकृति में जो व्यक्त है उसी का व्यक्त सृष्टि है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थों का तिरोभाव मात्र हैं। सृष्टि प्रकृति का विकार मात्र हैं सांख्य दर्शन का यह सिद्धान्त प्रकृतिपरिणामवाद कहलाता है। उल्लेखनीय है कि प्रकृति सत्व, रजस, और तमस तीनों गुणों की साम्यावस्था है। गुणों की साम्यावस्था प्रलयकालीन अवस्था है। इसमें तीनों गुण एक दूसरे से बिल्कुल पृथक हो जाते है। साम्यावास्था में सत्व में रजस हकजस में और तमस में अवस्थित हो जाते हैं। यह स्मरणीय है कि सांख्य दर्शन प्रकृति को नित्य परिणामशील मानता है, क्योंकि यदि प्रकृति की गति एक बार भी अवरूद्ध हो जाए तो उसका पुनः प्रारंभ होना सम्भव नहीं है। प्रकृति में सर्ग की स्थिति में तो परिणाम होता ही है, उसमें प्रलय की स्थिति में भी परिणाम होता है। जब तीनोें गुण साम्यावस्था में रहते हैं। साम्यावस्था में प्रकृति में सरूप परिणाम होता है। यह रजस के कारण सम्भव होता है, क्योंकि यह स्वभाव में ही चंचल है। विरूप परिणाम का प्रारम्भ गुणों की साम्यावस्था भंग होने पर होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष के सम्बन्ध से प्रकृति की साम्यावस्था भंग होती है। पुरुष-प्रकृति संयोग से प्रकृति के तीनों गुणों में गुणक्षोभ होता है। गुणक्षोभ के कारण विरूप परिणाम प्रारम्भ होता है और सांसारिक पदार्थों का आर्विभाव होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति ज्ञेय है। वह ज्ञात होने के लिए पुरुष की उपेक्षा करती है। पुरुष दुःखत्रय से मुक्त होने के लिए कैवल्य के लिए प्रकृति की उपेक्षा करता है। प्रकृति से उत्पन्न होने वाला प्रथम तत्व महत् या बुद्धि है। प्रकृति का दूसरा विकार अहंकार है। यह महत्त तत्व का परिणाम है। सांख्याकारिका में अहंकार के तीन भेद प्राप्त होते हैं- वैकारिक, तैजस एवं भूतादि। अहंकार से एकादश इन्द्रियों एवं मंच तंमात्रओं की उत्पति होती है। भूतादि अहंकार से पंच तनमात्रयें उत्पन्न होती हैं। प्रकृति से महाभूतों की उत्पत्ति तक विकास के दो रूप दिखाई देते हैं- प्रत्यय सर्ग तथा भौतिक सर्ग। प्रकृति से लेकर पंच महाभूतों तक कीशृंखला में चौबीस तत्व है। प्रकृति से उदभूत सांख्य दर्शन का पच्चीसवां तत्व है। महत अहंकार और तन्मात्रयें प्रकृति-विकृति (कारण-कार्य) दोनों हैं। मन ज्ञानेन्द्रियां पंच कर्मेन्द्रियां और पंचमहाभूतों केवल विकृति कार्य है। प्रकृति विकासवाद का विश्लेषण करने पर इसमें निम्नलिखित विशेषतायें पायी जाती हैं:
Question : नागार्जुन का शून्यवाद का बचाव।
(2001)
Answer : बौद्ध दर्शन की महायान शाखा का एक प्रमुख दार्शनिक निकाय माध्यमिक शून्यवाद है। बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित मध्यम मार्ग का प्रबल समर्थक होने के कारण इसे ‘माध्यमिक’ की संज्ञा दी गई है तथा शून्य को परमार्थ तत्व मानने के कारण इसे शून्यवादी कहा गया है। शून्यवाद बौद्ध दार्शनिकों के तार्किक बुद्धि के चरम स्थिति को परिलक्षित करता है। संकीर्ण अर्थ में शून्य को असत् अभाव अस्तित्व विहीनता, पूर्णतः निषेध आदि के रूप में लिया जाता है। परन्तु शून्यता का वास्तविक अर्थ इन सबसे भिन्न है। शून्यता सापेक्षता की स्थिति को बताता है। इसी कारण उसे शून्य कहा जाता है। शुन्यता असत् नहीं है क्योंकि असत् बुद्धि की एक कोटि है जबकि शून्यता बुद्धि की समस्त कोटियों से परे है। शून्यता अभाव भी नहीं है, क्योंकि अभाव भाव सापेक्ष कल्पना है परन्तु शून्यता परमार्थ की सत्ता होने के कारण स्वयं निरपेक्ष है, यह समस्त प्रकार के प्रपंचों से रहित है। इसका स्वरूप अवर्जनीय है। नागर्जुन शून्यवाद की सिद्धि के लिए अनेक तर्क प्रस्तुत करते हैं। इस क्रम में विभिन्न सिद्धांतों एवं मतों की परीक्षा करते हैं और यह बतलाते हैं कि वे सभी स्वरूपतः एवं स्वभावतः शून्य हैः
प्रमाण परीक्षाः सामान्यतः प्रमाणों के द्वारा प्रमेय का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। नागार्जुन के अनुसार प्रमाणों के आधार पर वस्तु की वास्तविकता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि ये प्रमाण स्वतः प्रमाणित नही है। यदि प्रमाण की प्रमाणिकता दूसरे प्रभाव से सिद्ध हो तो वह स्वयं प्रभाव नहीं रह पाएगा। अगर प्रमेय के आधार पर प्रमाण की सिद्धि करने का प्रयास किया जाए तो प्रमेय स्वयं प्रमाण हो जाएगा, परंतु प्रमेय अपनी सिद्धि के लिए सदा दूसरों पर निर्भर करता है। पुनः प्रमाण को स्वतः एवं परतः मानने पर विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। नागार्जुन कहते हैं कि प्रमाणों की प्रमाणिकता निश्चित नहीं है, अतः वे शून्य हैं।
द्रव्य परीक्षाः सामान्यतः द्रव्य की सत्ता स्वीकार की जाती है, परन्तु द्रव्य की परीक्षा करने पर यह स्पष्ट होता है कि द्रव्य रंग, गुण, आकार आदि का समुदाय मात्र है। द्रव्य की खोज करने पर हम गुणों तक पहुंच जाते हैं और गुणों की परीक्षा करने पर द्रव्य की स्थिति उभरकर सामने आती है। दोनों की कल्पना सापेक्षिक है। दोनों का कोई विशिष्ट स्वभाव नहीं है, इस अर्थ में वे शून्य हैं।
काल परीक्षाः हम लोक व्यवहार में भूत, भविष्य, एवं वर्तमान की बात करते हैं। भूत को नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह अतीत की स्थिति है। भविष्य अभी आया नहीं है, वह तो अग्रिम घटनाओंके गर्म में छुपा हुआ है। वर्तमान का कोई अस्तित्व नहीं है। वर्तमान की कल्पना भूत और भविष्य के सापेक्ष है। वर्तमान वह कहा जाता है जो न भूत हो न भविष्य हो। अतः वर्तमान भी सापेक्ष है अतः काल शुभस्वरूप है।
उत्पत्ति परीक्षाः नागार्जुन के अनुसार उत्पत्ति अपने आप नहीं हो सकती, क्योंकि तब वैसी स्थिति में उस वस्तु की अपनी उत्पत्ति से पूर्व की स्थिति को स्वीकार करना पड़ेगा। उत्पत्ति परत भी नहीं हो सकती। हम ऐसा भी नहीं कह सकते कि वस्तु की उत्पत्ति स्वतः और परतः दोनों होती है। ऐसा मानने पर विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। स्पष्ट है कि ये सब शून्य रूप हैं। इस प्रकार नागार्जुन द्रव्य, काल, उत्पत्ति, प्रमाण, गति आदि की परीक्षा कर शून्यता को स्थापित करते हैं।
Question : व्याप्ति की प्रकृति के न्याय वैशेषिक सिद्धान्त का मूल्याकंन करें।
(2001)
Answer : उल्लेखनीय है कि अनुमान प्रमाण को चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। अनुमान एक परोक्ष ज्ञान है, जो व्याप्ति पर आश्रित है। व्यप्ति अनुमान का प्राण नाड़ी है, जिसके अभाव में अनुमान सम्भव नहीं है। वस्तुतः व्याप्ति ही अनुमान प्रमाण से प्राप्त ज्ञान की प्रामाणिकता का निर्णायक है। अनुमान की प्रणाली में व्याप्ति की इसी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण व्याप्ति ज्ञान को अनुमान का साधन माना जाता है।
व्याप्ति का अर्थ है हेतु और साध्य का व्यापक सम्बन्ध। यह हेतु और साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध है। जैसे जहां जहां धुंआ होता है, वहां आग होती है, यह एक व्याप्तिवाक्य है और धुएं (हेतु) और आग (साध्य) के नियत साहचर्य सम्बन्ध का कथन करता है। दूसरे शब्दों, में हेतु और साध्य में जो स्वाभाविक अविच्छेद एवं व्यापक सम्बन्ध होता है, उसे व्यापित कहते हैं। व्याप्ति सम्बन्ध में सम्बन्धित पक्षों में व्यापक होता है और दूसरा व्यापक। अतः व्यप्ति व्याप्य एवं व्यापक का स्वाभाविक सम्बन्ध है। व्यपक का अर्थ है, प्रसार में व्याप्य से अधिक या बराबर होना और व्याप्य स्वभावतः व्यापक के बराबर या उससे न्यून प्रसार वाला होता है। जैसे धुएं और आग की व्याप्ति में धुआं व्याप्य और आग व्यापण है, क्योंकि जहां धुआं होगा, वहां आग अवश्य होगी। इतना ही नहीं व्याप्ति उपाधि रहित नियत साहचर्य सम्बन्ध है। जैसे जहां धुआं है, वहां आग है। इसमें व्याप्ति अनौपाधिक है, क्योंकि साध्य (आग) बिना किसी उपाधि या शर्त के हेतु (धुएं) का अनुगामी है, किन्तु आग एवं धुएं का सम्बन्ध सौपाधिक है, क्योंकि आग धुएं का अनुगामी तभी होगा, जब जलावन अर्द्धदग्ध या आर्द होगा। अतः यथार्थ व्याप्ति के लिए हेतु और साध्य का सम्बन्ध अनौपाधिक होना चाहिए।
व्याप्यत्व एवं व्यापकत्व की दृष्टि से व्याप्ति के दो भेद प्राप्त होते हैं-समव्याप्ति एवं विषम व्याप्ति। जब न्यूनाधिक विस्तार वाले दो पदों में व्याप्ति सम्बन्ध होता है, उसे विषम वयाप्ति कहते है। जैसे धुएं और आग में विषम व्याप्ति है। जहां धुआं है, वहां आग हैं, यह सामान्य कथन सत्य है। किन्तु जहां आग है, वहां धुआं है, यहां कथन असत्य है। अतः यदि व्याप्य एवं व्यापक न्यूनाधिक विस्तार वाले हों, व्यापक से व्यापक का अनुमान किया जा सके, किन्तु व्यापक से व्यापक का अनुमान न किया जाए तो दोनों में व्याप्ति विषम होती है।
जब समान विस्तार वाले दो पदों में व्याप्ति सम्बन्ध होता है, अर्थात् व्याप्य से व्यापक का अनुमान सम्भव हों, तब दोनों पदों में व्याप्ति समव्याप्ति होती। इसमें दोनों पद एक दूसरे के व्याप्य एवं व्यापक हो सकते हैं। जैसे अभिधेय एवं प्रमेय में समव्याप्ति होने के कारण अभिधेयत्व से प्रमेयत्व का और प्रमेयत्व से अभिधेयत्व का अनुमान सम्भव है।
व्याप्ति के विषय में यह प्रश्न उठता है कि व्याप्ति का निश्चय अर्थात् आगमनात्मक निश्चयों की उपलब्धि किस प्रकार होती है। चार्वाक विचारकों ने स्पष्ट व्याप्ति सम्बन्ध का खण्डन किया और एतद्द्वारा प्रमाण के रूप में अनुमान का निराकरण किया। उनके अनुसार व्याप्ति अनुभव के दौरान हमारे मन में स्थापित हो जाने वाले साहर्च्यों का फल है। इस प्रकार व्याप्ति ग्रहण विशुद्ध मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें तार्किक अनिवार्यता का होना आवश्यक नहीं है। बौद्ध दार्शनिक अनुमान को ज्ञान का प्रमाण स्वीकार करते हैं, तथा व्याप्ति को अनुमान का आधार। व्याष्टि-ज्ञान के विषय में उनका विचार है कि उसका ज्ञान कार्यकारण नियम और तादात्मय सम्बन्ध के आधार पर होता है।
न्यायदर्शन में एक विशिष्ट पद्धति से व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना स्वीकार की जाती है। इस पद्धति में निम्नलिखित सोपान हैं: अन्वय विधि व व्यतिरेक विधि अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि, व्यभिचार ग्रह, उपाधि निरास तर्क और सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष।
अन्वय विधिः न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति ज्ञान का मुख्य साधन अतीत में दो पदार्थों का बार-बार एक साथ अनुभव किया जाता है। जिसका कभी भी व्यभिचार न हो। जैसे- जब रसोईघर, आदि स्थानों में धुएं के साथ आग का प्रत्यक्ष बिना किसी अपवाद के अनेक बार होता है, तब हमारे मन में यह धारणा बन जाती है कि धूम और आग में सहचर सम्बन्ध है, यह प्रक्रिया अन्वय विधि है।
व्यतिरेक विधिः न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति निश्चय के लिए अन्वय विधि के साथ व्यतिरेक विधि भी उपयोगी है। साध्य एवं हेतु का अभाव विषयक सहचर व्यतिरेक विधि कहलाती है। न्याय दर्शन यह दिखाने का प्रयास करता है कि धुएं के साथ आग के सहचर के साथ जब आग की अनुपस्थिति में भी धुएं की भी अनुपस्थिति देखी जाती है तो धुएं के साथ आग के सहचर की प्रामाणिकता स्पष्ट हो जाती है।
अन्वयः व्यतिरेक की संयुक्त विधि- न्याय दर्शन अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि का उपयोग व्याप्ति ग्रहण में करता है। यह अन्वय विधि से धुएं के साथ आग के साहचर्य की प्राक्कल्पना पर पहुंचता है। जब आग के अभाव में धुएं का भी अभाव रहता तब अन्वय विधि से जिस प्राक्कल्पना की प्राप्ति होती है। वह व्यतिरेक विधि से प्रामाणिक सिद्ध हो जाती है। न्याय दर्शन का यह मत पाश्चात्य दार्शनिक मिल की संयुक्त विधि से मिलता जुलता है।
व्यक्तिचाराग्रहः न्याय दार्शनिक अन्वय एवं व्यतिरेक विधि द्वारा स्थापित निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिए व्यभिचाराग्रह पर बल देते हैं। उनके अनुसार सहचार दर्शन के साथ व्यभिचार का अदर्शन भी आवश्यक है। यद्यपि अन्वय एवं व्यतिरेक से यह ज्ञात हो जाता है कि जहां धुआं है वहां आग है और जहां आग नहीं है, वहां धुआं नहीं है, तथापि न्याय दार्शनिक इस बात पर बल देते हैं कि धुएं और आग के सहचार को व्यभिचार भी किसी को ज्ञात नहीं होना चाहिए।
उपाधि निरासः चूंकि व्याप्ति हेतु और साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध है- इसलिए न्याय दार्शनिक व्याप्ति की यथार्थता हेतु उपाधि निरास पर भी बल देते हैं। जो धर्म साध्य का व्यापक हो तथा हेतु का अव्यापक हो उसे उपाधि कहते हैं। जैसे, यदि कोई व्यक्ति कहता है कि लाहे का गोला घुमावान है क्योंकि उसमें आग है तो यह अनुमान अप्रामाणिक होगा। इसका कारण यह है कि इसमें आर्द्वन्घनत्व रूप उपाधि पर ध्यान नहीं दिया गया है। अतः व्याप्ति के विषय में यह निश्चय कर लेना आवश्यक है कि कहीं स्थापित व्याप्ति में कोई उपाधि तो नहीं है।
तर्कः परवर्ती न्याय दर्शन में निषेधात्मक दृष्टान्तों पर बल देते हुए तर्क अथवा अप्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी व्याप्ति को पुष्ट करने का प्रयास किया गया है। जैसे जहां-जहां धुंआ है, वहां-वहां आग है। यदि यह व्याप्ति वाक्य नहीं है तो उसका विरोधी वाक्य, कभी-कभी धुएं के साथ आग नहीं रहती है, अवश्य साथ होना चाहिए। किन्तु, यह वाक्य सामान्य अनुभव के विरूद्ध है, क्योंकि इसका खण्डन कारण कार्य नियम से हो जाता है। अतः जहां धुआं है वहां आग है- यह कथन सत्य होगा। इस प्रकार नैयायिक विचारक तर्क सामान्य लक्षण की सत्यता को स्थापित करते हैं।
सामान्य लक्षण प्रत्यक्षः नैयायिक व्याप्ति ज्ञान के लिए सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष का आश्रय लेते हैं। उनके अनुसार उपरोक्त सोपानों के अन्तर्गत केवल व्यक्तिगत घटनाओं का प्रत्यक्ष होता है। अर्थात् हम यह जानते हैं कि केवल स्थल विशेषों पर ही धुएं के साथ आग दिखाई देती है, सब स्थलों पर नहीं। किन्तु विशेष दृष्टान्तों के प्रत्यक्ष से सामान्य तर्क वाक्यों जहां धुआं है वहां आग है, कैसे स्थापित होता हैं। नैयायिक का कथन है कि जिस समय नेत्र एवं धुएं का सम्पर्क होने पर धुएं का प्रत्यक्ष होता है, उसी समय संयुक्त समवाय सम्बन्ध से हमें घुमत्व का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। चूंकि घुमत्व जाति नित्य है, धुएं से कभी उसका वियोग नहीं हो सकता, अतः एक ही स्थान पर धुआं और घुमत्व तथा आग एवं वहिनत्व को देखकर सभी अविद्यमान धूमों एवं बह्यियों का प्रत्यक्ष हो जाता है और हम यह जान लेते हैं कि जहां धुआं होता है वहां आग होती है।
परन्तु अद्वैत वेदान्ती न्याय दर्शन की व्याप्ति-स्थापन प्रणाली की आलोचना करते हैं। वे व्याप्ति ज्ञान में नैयायिकों की व्यतिरेक विधि, तर्क और सामान्य लक्षता की पद्धति को अस्वीकार करते हैं। उनके अनुसार तर्क द्वारा व्याप्ति की वैधता की परीक्षा का विचार निरर्थक है, क्योंकि स्वयं तर्क में व्याप्ति शामिल है, जिसे पुनः वैध सिद्ध करना पड़ेगा, क्योंकि व्याप्य के आरोप से व्यापक का आक्षेपण रूप तर्क व्याप्ति के अधीन है। अद्वैत वेदान्ती व्याप्ति की स्थापना में नैयायिकों के सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष के सिद्धान्त की आलोचना करते हैं। वस्तुतः इस मतभेद का कारण सामान्य के विषय में अद्वैत और न्याय की अवधारणाओं में अन्तर है। न्याय दर्शन सामान्य को नित्य पदार्थ मानता है, जो व्यक्तियों से भिन्न होते हुए भी उनमें समवर्त है। इसके आधार पर वे कहते हैं कि किसी स्थल विशेष में धुएं का प्रत्यक्ष कर लेते हैं और सामान्य का प्रत्यक्ष सभी धूमों का प्रत्यक्ष कर देता है। किन्तु अद्वैत वेदान्ती के अनुसार व्यक्तियों का सर्वनिष्ठ धर्म ही सामान्य है और उसकी सत्ता व्यक्तियों का भिन्न नहीं है, अपितु अभिन्न है। सामान्य कथन की स्थापना इसलिए सम्भव हैं क्योंकि हम धुएं और आग के प्रत्यक्ष द्वारा दो सामान्यों में सम्बन्ध स्थापित करते हैं। और अकेले यही सभी धूमों और वाि“यों में सामान्य सम्बन्ध का आधार तैयार करता है। अद्वैत वेदान्ती के अनुसार हम अतीत के अव्यभिचारी साहचार्य के अनुभव से व्याप्ति का ज्ञान प्राप्त करते हैं।
Question : अपने पुरूष सिद्धान्त के विषय में सांख्य के ओचित्य स्थापन का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : सांख्य दर्शन एक द्वैतवादी विचारधारा है। इसमें दो परस्पर स्वतंत्र और निरपेक्ष तत्व स्वीकार किये जाते हैं। ये है- पुरूष एवं प्रकृति। इस विचारधारा में पुरूष सिद्धान्त का विशेष महत्व है क्योंकि सांख्य दर्शन की मान्यता है कि पुरूष के कैवल्यार्थ ही प्रकृति से सम्पूर्ण सृष्टि का विकास होता है। पुरूष सांख्य दर्शन का आत्म तत्व है। सांख्य दर्शन में पुरूष का स्वरूप प्रकृति के सर्वथा विपरीत है। प्रकृति के विरूद्धधर्मी होने के कारण पुरूषका स्वरूप त्रिगुणातीत विवेकी विषयी, ज्ञाता, विविक्त विशेष, चेतन और अपरिणामी है। सांख्य दर्शन का पुरूष चैतन्य स्वरूप है। इस कारण वह शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार से भिन्न है। चेतन पुरूष का स्वभाव है। यह साक्षी, नित्य, कूटस्थ एवं अपरिवर्तनशील है। यह कार्य-कारण शृंखला से परे है। यह नित्य मुक्त (कैवल्य) उदासीन, दृष्टा एवं कर्ता है। यह अज, निज, सर्वव्यापी अनाश्रित, निरवयव एवं स्वतंत्र है। पुरूष प्रकृति के विकारों का दृष्टा मात्र है। कर्ता नहीं सांख्य दर्शन की एक उल्लेखनीय विशेषता है कि वह पुरूष को अकर्ता मानते हुए भी भोक्ता मानता है।
सांख्य दर्शन युक्तियों के आधार पर पुरूष के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास करता हैः
पुनः सांख्य दर्शन पुरूष की अनेकता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। उल्लेखनीय है कि जैन मिमांसा, विशिष्टाद्वैत में भी अनेक जीवों की सत्ता में विश्वास किया जाता है। सांख्य दर्शन का कथन है कि संसार में प्रत्येक पुरूष का जन्म, मरण और करण (इन्द्रियां) प्रतिनियत हैं। विभिन्न पुरूषों के जन्म मरण में अंतर दिखाई देता है। इससे स्पष्ट है कि पुरूष अनेक हैं। पुनः सांख्य दर्शन के अनुसार संसार में युगपत प्रवृति नहीं दिखाई देती है। विश्व मेंप्रत्येक व्यक्तिके क्रियाकलापों में विभिन्नता दिखाई देती है। प्रत्येक व्यकि्त भिन्न-भिन्न कर्म में प्रवृत दिखाई देता है। इससे सिद्ध होता है कि पुरूष एक नहीं अनेक है। पुनः सांख्य दर्शन के अनुसार संसार के सभी जीवों में विभिन्न स्तर दिखाई देते हैं। उनमें गुण की दृष्टि से भेद है। इससे यह सिद्ध होता है कि पुरूष एक नहीं है।
परन्तु सांख्य का पुरूष सिद्धान्त दोषपूर्ण है। सांख्य दर्शन की पुरूष विषयक मान्यता कर्मवाद के सिद्धान्त के प्रतिकूल जाती है।वह प्रकृति के कर्तव्य और पुरूष में भोक्तृत्व का आरोप करके कृत्प्रणाश और अकृप्कर्मभोग को निमंत्रण देकर कर्मवाद की नैतिक मान्यता को ठुकरा देता है। पुरूष की अनेकता को प्रतिपादित करने के लिए सांख्य दर्शन की युक्तियां अत्यंत हास्यपद प्रतीत होती है। सांख्य दर्शन के पुरूष के स्वरूप विवेचन तथा पुरूष बहुत्व की मान्यता में स्पष्टतः विरोध है। वह परामर्थक आत्मा और सांसारिक जीव के भेद की उपेक्षा करता है। इसके द्वारा पुरूष की अनेकता को सिद्ध करती है, पारमार्थिक सत्ता की अनेकता को नहीं। वह पुरूष को स्वरूपतः चैतन्य, स्वप्रकाश, नित्य, साक्षी, दृष्टा, निर्गुण, निराकार, और अशरीरी मानता है। पुरूष के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास में भी वह उसे असंधात त्रिगुणातीत तथा शरीर, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि से भिन्न और शुद्ध चैतन्य स्वरूप स्वीकार करता है। किन्तु पुरूष की अनेकता को सिद्ध करने के लिए सांख्य दर्शन की युक्तियों पुरूषों में भी गुणों का भेद देखती है, इसे इन्द्रिय मन-शरीरयुक्त जन्म-मृत्यु के अधीन दिखाती है तथा साक्षी, दृष्टा, निर्विकार एवं निष्क्रिय पुरूष में भोक्तृत्व का आरोप करती है। सांख्य दर्शन की इस युक्ति से कि यदि पुरूष एक होता तो सभी पुरूष एक ही साथ मृत्यु को प्राप्त होते अथवा एक ही समय जन्म ग्रहण करते, इस केवल यही अनुमान कर सकते है कि शरीरधारी आत्माएं अनेक हैं क्योंकि न तो उनका एक साथ जन्म होता और न एक साथ मरण। वस्तुतः जन्म-मरण, आकार-प्रकार का भेद शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं। चूंकि प्रत्येक जीवात्मा का अपना शारीरिक संघटन तथा अभिरूचि है, अतः उनमें युगपत क्रिया-कलाप नहीं दिखाई देता। वास्तव में जो भेद विभेद दिखाई देता है, वह प्रकृति जन्य विकारों में है, शुद्ध चैतन्यस्वरूप पुरूष में नही। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा पुरूष-बहुत्व का प्रतिपादन बुद्धिगम्य नहीं प्रतीत होता।
पुनः अनुभव सिद्ध आत्माओं की अनेकता से सांख्य दर्शन द्वारा स्वीकृत चैतन्यस्वरूप नित्य पुरूष की अनेकता का निष्कर्ष निकालने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। यदि प्रत्येक पुरूष चैतन्यस्वरूप है। चैतन्य की दृष्टि से उनमें किग्चित भी भेद नहीं है तो पुरूष बहुत्व का अनुमान करना निराधार है, क्योंकि भेद के अभाव में बहुत्व की मान्यता असम्भव है। इसी कारण सांख्य दर्शन के टीकाकार गौड़पाद भी एक पुरूष की अवधारणा को स्वीकार करते हैं। वस्तुतः साख्य दर्शन पुरूष और जीव के भेद की उपेक्षा करके पुरूष में अनेकत्व का आरोप करके अपने दर्शन के निहितार्थ को भूल जाता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय दर्शन के जीवों के अनेकत्व के विषय में कोई विवाद नहीं है। यहां तक कि अद्वैत वेदान्त भी जीवों के अनेकत्व को स्वीकार करता है। सांख्य दर्शन की युक्तियां केवल बुद्धिपरक सांसारिक जीवों की अनेकता को सिद्ध करती हैं। इनसे उस पुरूष की अनेकता नहीं स्थापित हो पाती, जिसे सांख्य दर्शन चेतनस्वरूप, असंग, त्रिगुणातीत साक्षी, द्रस्टा एवं उदासीन मानता है। वास्तव में सांख्य दार्शनिक जिन्हें भिन्न-भिन्न पुरूष कहता है, वह सांसारिक जीव है। पुरूष चैतन्य स्वरूप, सर्वव्यापी, आत्मा का नाम है जिसे देहस्थ जीव के साथ नहीं मिलाना चाहिए। शंकराचार्य ने प्रखर तर्कों से पुरूष बहुत्व का निषेध किया है। वस्तुतः सांख्य दर्शन द्वारा पुरूष के स्वरूप-विवेचन में अद्वैत वेदान्त की पृष्ठभूमि दिखाई देती है। यदि सांख्य दार्शनिक पुरूष को एक मान ले और उसे बह्म या आत्मा स्वीकार कर ले। प्रकृति की माया का स्तर प्रदान करके जीवों की अनेकता को पुरूष का आभासमात्र स्वीकार कर ले तो उनके अन्तर्विरोध दूर हो सकते हैं।
Question : प्रत्यक्षपरक त्रुटि का कुमारिल भट्ट का स्पष्टीकरण।
(2001)
Answer : प्रत्यक्षपरक कुमारिल भट्ट का सिद्धान्त विपरीत ख्यातिवाद कहलाता है। कुमारिल भी प्रभाकर की भांति यथार्थवादी हैं, किन्तुवे प्रभाकर के भ्रमविषयक अभावात्मक विचार को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि उससे अनुभव की व्याख्या नहीं हो पाती। यह अभाव रूप या अज्ञान रूप है। अज्ञान रूप भ्रम किसी व्यक्ति को व्यवहार नहीं कर सकता। कुमारिल उपरोक्त कारणों से भ्रम की सत्ता स्वीकार करते हैं। कुमारिल भी प्रभाकर की भांति की वस्तु को दो भागों में विभाजित करता है, जैसे- रस्सी में सर्प का भ्रम होने पर ‘यह सर्प है’ ऐसा अनुभव होता है। इस भ्रम में ‘यह’ प्रत्यक्ष का विषय है और ‘सर्प’ स्मृति का विषय है। कुमारिल के अनुसार भ्रम का कारण यह नहीं है कि हम दोनों को मिलाकर एक कर देते हैं, जिसे संसर्ग कहते हैं इसी संसर्ग के कारण रस्सी में सर्प का भ्रम होता है कि हम दोनों को मिलाकर एक कर देते है यह सर्प है, इस भ्रम में यह (उद्देश्य) और सर्प (विधेय) दोनों ही सत्य है। भ्रम इस बात को लेकर उत्पन्न होता है कि हम दो सत् किन्तु पृथक-पृथक पदार्थों में उद्देश्य विधेयात्मक सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं, जिसे संसर्ग कहते हैं। इसी संसर्ग के कारण रस्सी में सर्प का भ्रम होता है। (संसर्ग ग्रह)। भ्रम उन विषयों को लेकर नहीं होता जो वास्तविक पदार्थ हैं। परिणामस्वरूप यह का सर्प के रूप में विपरीत ज्ञान होता है। इस प्रकार भ्रम दो ज्ञान न होकर एक ज्ञान है, जिसमें वस्तु एक संश्लिष्ट चीज के रूप में अनुभूत होती है। उल्लेखनीय है कि कुमारिल का भ्रम विचार न्याय वैश्विक दर्शन के भ्रम विचार के साथ साम्य रखती है। जिस प्रकार कुमारिल भी कहते हैं कि भ्रम में वस्तु का विपरीत ज्ञान होता है। किन्तु न्याय वैश्विक और यह मीमांसा के भ्रम-विचारोंमें अंतर यह है कि जहां न्याय वैशीष्ट दर्शन भ्रम की व्याख्या के लिए ज्ञान लक्षण नामक अलौकिक प्रत्यक्ष को स्वीकार करता है, वही यह मीमांसा में ऐसे किसी भी प्रत्यक्ष को स्वीकार नहीं किया जाता। प्रभाकर और कुमारिल के भ्रम-विचारों में अन्तरयह है कि प्रभाकर के अनुसार भ्रम का कारण यह न जान पाना है कि अनुभूत्यांश तथा स्मृत्यंश परस्पर बिल्कुल पृथक है (असंसर्ग ग्रह), किन्तु कुमारिल के अनुसार इसका कारण इन दोनों अंशों को परस्पर मिला देना है। प्रभाकर मानते हैं कि भ्रम का कारण अज्ञान है, भेद-ज्ञान का न होना है, किन्तु कुमारिल की मान्यता है कि भ्रम का कारण विपरीत ज्ञान है। जैसे लाल रंग के फूल के सामने सफेदस्पफ़रीक रखा होने पर ‘यह लाल है’ ऐसा भ्रम उत्पन्न होता है। प्रभाकर के अनुसार ऐसा भ्रम ‘यह’ और ‘लाल’ में भेद न कर पाने के कारण होता है। किन्तु कुमारिल की मान्यता है कि यहां दो सम्बन्धी असम्बन्धित होते हुए भी सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। परिणामस्वरूप ’लाल रंग’ यह से अलग न रहकर ‘यह’ में दिख पड़ता है, अर्थात् भ्रम में ‘यह’ जैसा है, उससे विपरीत दीख पड़ता है। प्रभाकर भ्रम को एक ज्ञान न स्वीकार करके दो ज्ञान मानते हैं, किन्तु कुमारिल उसे एक ही ज्ञान मानते हैं। संक्षेप में प्रभाकर मीमांसा भ्रम की सत्ता को ही अस्वीकार करते हैं, किन्तु कुमारिल मीमांसा में भ्रम की सत्ता को स्वीकार की जाती है, यद्यपि कुमारिल यह मानते हैं कि भ्रम विषयों को लेकर नहीं होता, अपितु उसके संसर्ग के कारण होता है। सम्यक मूल्यांकन करने पर ज्ञात होता है कि कुमारिल की भ्रम की व्याख्या में सैद्धान्तिक कठिनाई आ गई हैं, उन्होंने भ्रम की अन्तर्वस्तु में विचार का अंश शामिल करके यथार्थवाद का परित्याग कर दिया। तात्पर्य यह है कि कुमारिल का विपरीत ख्यातिवाद यथार्थवादी विचारधारा के प्रतिकूल चला जाता है। यद्यपि अढयाति भी भ्रम की तर्कसंगत व्याख्या नहीं कर पाता, तथापि वह अपने आधारभूत यथार्थवादी अभ्युपगम के प्रति इमानदार बना रहता है।
Question : चार्वाक सम्प्रदाय का नीतिशास्त्र।
(2000)
Answer : चार्वाक दर्शन का नैतिक विचार उसकी ज्ञान मीमांसा एवं तत्वमीमासा का साक्षात परिणाम है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन की ज्ञान मीमांसा प्रत्यक्षवादी है, जिसमें एकमात्र प्रत्यक्ष के प्रमाणत्व की स्वीकृति है तथा अन्य प्रत्यक्षेतर प्रमाणों का निषेध है। उसी प्रकार चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा भौतिकवादी है, जिसमें ईश्वर एवं नित्य आत्मतत्व की सत्ता का निषेध है, केवल जड़तत्व की सत्ता की स्वीकृति है और जड़तत्वों से ही सम्पूर्ण चराचर जगत की उत्पत्ति दिखाने का प्रयास है। उसमें मनुष्य के भौतिक स्वरूप का प्रतिपादन है। उसकी नीतिमीमांसा उसके ज्ञानमीमांसा एवं तत्वमीमांसीय सिद्धातों की ही उपसिद्धि है। इसमें मानव का स्वरूप और प्रत्यक्ष का स्वरूप (पुरूषार्थ का स्वरूप) पूर्णतया परिवर्तित हो जाता है। चार्वाक दर्शन के नैतिक विचार निम्नांकित हैं:
मोक्ष पुरूषार्थ नहीं है, उसकी उपलब्धि असम्भव है। चार्वाकों के अनुसार मृत्यु ही मोक्ष है। यदि मोक्ष अथवा स्वर्ग से तात्पर्य आत्मा का शरीरिक बन्धन से मुक्त होना है, तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि जीवित शरीर ही आत्मा है। शरीर से भिन्न आत्मा का कोई स्वरूप नहीं है। पुनः चार्वाक दर्शन के अनुसार धर्म मानसिक भ्रांति है और शास्त्र अविश्वसनीय है। परम्परागत भारतीय विचारधारा में धर्म का सम्प्रत्यय अत्यधिक महत्वपूर्ण है। किन्तु चार्वाक दर्शन के अनुसार धर्म मूर्खतापूर्ण मतिभ्रम एवं एक प्रकार का मानसिक रोग है। न ईश्वर का अस्तित्व है एवं न नित्य आत्मा का। धार्मिक अन्ध विश्वासों एवं पक्षपातों के कारण मनुष्य को परलोक, नित्य आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग-नरक की कल्पना करने की आदत बन गयी है। चार्वाक दार्शनिक वेदों की घोर-निन्दा करते हैं, क्योंकि धार्मिक विषयों में वेदों को ही प्रमाण माना जाता है। उनके अनुसार वेद अविश्वसनीय हैं क्योंकि वे असत्यता, असंगति एवं पुनरूक्ति के दोषों से भरे पड़े हैं। चार्वाक दार्शनिक वैदिक कर्मकाण्ड एवं यज्ञ आदि का भी घोर विरोध करते हैं। वे वैदिक कर्मकाण्डों का उपहास करते हैं। चार्वाकों के अनुसार तीनों वेद एवं वैदिक कर्मकाण्ड धूर्त ब्राह्मणों की जीविका के साधन हैं। चार्वाक दर्शन में काम ही परम पुरूषार्थ है और अर्थ उसकी प्राप्ति का साधन। मानव मूल्यों की दृष्टि से यह भारतीय परम्परा की मूल्यावस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन है। वस्तुतः यह प्रत्यक्षवादी ज्ञानमीमांसा, भौतिकवादी तत्वमीमांसा, आध्यात्मिक एवं धार्मिक मूल्यों की अस्वीकृति तथा भौतिक मूल्यों की स्वीकृति का साक्षात परिणाम है। चार्वाकों की स्पष्ट मान्यता है, कि जो कर्म काम की पूर्ति करे या मनुष्य को सुख प्रदान करे वही उचित है। चूंकि आत्मा का सम्बन्ध वर्तमान चेतन देह से है। अतः वर्तमान जीवन का सुख ही अभीष्ट है। पुनः चार्वाकों की यह भी मान्यता है कि दुःख के भय से सुख को छोड़ना भी मुर्खता है।
परन्तु चार्वाक की नीतिमीमांसा एवं नैतिक विचारों को अत्यन्त हेय एवं घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। चार्वाक दर्शन की नीति मीमांसा के विश्लेषण से यह ज्ञात होता है कि वह भारतीय विचारधारा में स्वीकृत चारों पुरूषार्थों में से मोक्ष और धर्म को बिल्कुल अस्वीकार कर देता है। चार्वाक दर्शन की मान्यताओं में वस्तुतः मनुष्य के चित्र को उच्चतर जीवन के विचारों तथा अध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों से बिल्कुल हटाकर विषय भोग की दुनिया में केन्द्रित कर दिया। उसने विश्व को नियंत्रित करने वाले ईश्वर तथा मनुष्य को सन्मार्ग पर लानेवाली अन्तर्दृष्टि का तो निषेध किया ही, परलोक लोकोत्तर जीवन तथा पुनर्जन्म को भी अस्वीकार करके कर्मवाद के सिद्धांत का भी जो भारतीय नैतिक आदर्शों की रक्तवाहिनी धमनी है, तिरस्कार किया। इसीलिए कालान्तर में वात्सायन आदि सुशिक्षित चार्वाक दार्शनिकों ने मूल चार्वाक दर्शन की कतिपय जीवन विरोधी मान्यताओं को अस्वीकार किया।
Question : सप्तभंगीनय।
(2000)
Answer : स्याद्वाद का प्रमाण सप्तभंगीनय है। इसका अर्थ है किसी वस्तु के विषय में परामर्श या नय के सात प्रकार। सप्तभंगी नय द्वारा किसी वस्तु के विषय नानाविध धर्मों का निश्चय किया जा सकता है। ये बिना किसी आत्म विरोध के अलग अलग या संयुक्त रूप से किसी वस्तु के विषय में विधान या निषेध करते हैं और इस प्रकार किसी वस्तु के अनेक धर्मों का प्रकाशन करते हैं। उल्लेखनीय है कि स्यादवाद ज्ञान की सांयक्षता का सिद्धान्त है। इसका निहितार्थ यह है कि सीमित बुद्धियुक्त प्राणी किसी वस्तु के विषय में जो परामर्श करता है, वह किसी प्रसंग में करता है और उस प्रसंग में वह सत्य होता है। यह प्रतिपादित करता है कि मानव ज्ञान प्रसंग सापेक्ष है। अतः न कोई ज्ञान पूर्ण सत्य और न पूर्ण असत्य। प्रत्येक ज्ञान में सत्यता होती है, किन्तु यह सत्यता किसी दृष्टिकोण विशेष से होती है। जैन-दर्शन में साधारण रीति से किसी विषय के बारे में परामर्श करना नय है। जैन-दर्शन में परार्मश या नय के साथ भेद किए जाते हैं, जो यह बतलाता है कि किसी विषय से संबंधित सार सात अलग-अलग दृष्टिकोण विशेष से सत्य होते हैं, परन्तु वे उस विशेष के बारे में आंशिक सत्य का उद्घाटन करते हैं। ये सात नय स्यादवाद के सिद्धान्त को सम्पुष्ट करता है। ये सात नय इस प्रकार हैः
Question : अनेकांतवाद के पक्ष में जैन तर्क।
(1999)
Answer : जैन दर्शन की तत्वमीमांसा अनकांतवादी है, जिसमें वस्तु अनन्त धर्मात्मक मानी जाती है। अनन्तधर्मात्मक होने के कारण उसका स्वरूप अत्यधिक जटिल होता है। वस्तु के अनन्त धर्मों का ज्ञान मात्र केवली को होता है, क्योंकि वह सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ वह है जो किसी वस्तु का सभी दृष्टियों से जानता है। उसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु को सभी दृष्टियों से जानता है। साधारण मनुष्य का ज्ञान अत्यधिक सीमित होता है, क्योंकि वह किसी वस्तु को कुछ ही दृष्टियों से देखता है। वह वस्तु के आंशिक धर्मों को ही जानता है क्योंकि वह किसी वस्तु की दृष्टियों से देखता है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है। सत् वह है जिसकी उत्पत्ति एवं विनाश हो तथा जिसमें स्थिरता हो। जैन दर्शन अद्वैत वेदान्त एवं बौद्ध दर्शन के सत् के लक्षण को अस्वीकार करता है। जिनमें क्रमशः त्रिकालावाधात्व और अर्थक्रियाकारित्व को सत्ता का लक्षण स्वीकार किया जाता है। जैन दर्शन का कथन है कि अद्वैत एवं बौद्ध मत एकान्तवाद है। अद्वैत वेदान्त में केवल द्रव्यत्व को स्वीकार करके गुणों को अस्वीकार किया जाता है। इसके विपरीत बौद्ध मत केवल परिवर्तनशील धर्मोें को स्वीकार करता है और द्रव्यत्व की उपेक्षा करता है। जैन मत दोनों को महत्व देता है। उसके अनुसार द्रव्य गुण की दृष्टि से नित्य होता है, क्योंकि गुण उसके परिवर्तनशील धर्म है। चूंकि पर्याय उत्पत्ति विनाशधर्मा है, अतः उसकी दृष्टि से वह परिवर्तनशील और अस्थायी है। जैसे घर में मृत्रिका अपरिवर्तनशील एवं नित्य तत्व है, किन्तु चूंकि वह मृत्रिका से उत्पन्न होता है, उसके रूप, रंग आदि में परिवर्तन होता है एवं कालान्तर में उसका विनाश भी होता है। अतः घर का उदभव रंग, रूप आदि में परिवर्तन उसका विनाश अनित्य तत्व है। इस प्रकार जैन दर्शन का कथन है कि द्रव्य एक गतिशील यर्थाथता है। यह सब वस्तुओं के अन्दर रहने वाला सारतत्व है, जो अपने को विविध आकृतियों में प्रकट करता है। इसकी तीन विशेषतायें है- उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिति। द्रव्य की इन तीनों विशेषताओं में कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि गुण की दृष्टि से द्रव्यमें एकता समान्यतत्व एवं नित्यता की सिद्धि होती है और पर्याय की दृष्टि से अनेकता, विशेषत्व एवं अनित्यता की। इस प्रकार दृष्टि-भेद से वस्तु में एकता, अनेकता, सामान्यत्व एवं विशेषत्व आदि एक साथ रह सकते हैं। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि वस्तु के अनन्त धर्मोंमें कुछ धर्म भावात्मक हैं और कुछ अभावात्मक। भावात्मक धर्म यह सूचित करते हैं कि वह क्या है? अभावात्मक धर्म में अन्य वस्तुओं से उसका पार्थक्य सूचित करते हैं। वे भावात्मक धर्मों को स्वपर्याय कहते हैं और अभावात्मक धर्मांे को परपर्याय। इस प्रकार जैन दार्शनिक सत्ता की दृष्टि से अनेकान्तवाद के समर्थक है।
Question : कारणता सम्बन्धी न्याय मत।
(1999)
Answer : न्याय दर्शन में अन्य वर्ग प्राप्ति के लिए तत्वज्ञान आवश्यक माना गया है। अतः वह तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रमा, प्रमेय एवं प्रमाणों की विस्तृत विवेचना करता है। उसके तत्व चिन्तन या प्रमेय मीमांसा का आधार उसका कारण सम्बन्धी विचार है। न्याय दर्शन में कारण के विषय में तीन प्रश्नों पर विचार किया गया है- (i) कारण क्या है? इसका स्वरूप क्या है? (ii) कार्य का कारण से क्या सम्बन्ध है? (iii) कारण कितने प्रकार का होता है?
अन्नभट्ट के अनुसार कार्य की अनन्यासिद्ध नियत पूर्ववर्ती अवस्था को कारण कहते हैं। तर्कभाषा के अनुसार भी जो कार्य का नियत पूर्ववर्ती हो तथा अन्यथा सिद्ध न हो वह कारण है। कारण की उपर्युक्त परिभाषाओं में कारण के तीन लक्षण प्राप्त होते हैं- पूर्ववर्हीत्व, नियतता एवं अनन्यथा सिद्धत्व। पूर्ववर्तित्व लक्षण कारण और कार्य में अन्तर दिखाता है। इसके अनुसार कारण कार्य की पूर्ववर्ती अवस्था है और कार्य कारण की उत्तरवर्ती अवस्था। इस लक्षण से प्रकट होता है कि कारण की कार्य से पूर्व सत्ता होती है। नियतता का अर्थ है कि कारण कार्य की नियत पूर्ववर्ती अवस्था है। यदि कारण का लक्षण केवल पूर्ववर्तित्व (पूर्ववर्ती अवस्था) किया जाए, तो उसमें अतिव्याप्ति दोष आ जायेगा। वे तमाम अवस्थायें भी केवल पूर्ववर्ती होने के कारण किसी कार्य का कारण हो जायेंगी, जिनके अभाव में भी वह कार्य उत्पन्न हो सकता है। पुनः नित्य एवं सर्वव्यापी द्रव्य, जो किसी कार्य के पूर्ववर्ती है, जिन्हें स्वेच्छया न तो उपस्थित किया जा सकता है और न हराया जा सकता है, कार्य के प्रति अन्यथा सिद्ध है। तात्पर्य है कि कारण को कार्य का निकटस्थ पूर्ववर्ती होना चाहिए। यह परिभाषा पाश्चात्य दर्शन में दी गयी कारण की उस परिभाषा से मिलती जुलती है, जिसमें उसे कार्य की निरुपाधिक निकटस्थ, नियत पूर्ववर्ती अवस्था माना जाता है। कारण और कार्य के सम्बन्ध के विषय में न्याय दर्शन का सिद्धान्त असत्त कार्यवाद या आरम्भवाद कहलाता है। इसके अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में असत् या अविद्यमान रहता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कार्य सांख्य दर्शन के सत्यकार्यवाद का विरोध करता है, जिसमें कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है।
न्याय दर्शन में कारण के तीन भेद किये जाते हैं- समवायि कारण, असमवायि कारण और निमित्त कारण। समवायि कारण वह है, जिसमें कार्य समवाय सम्बन्ध से उपस्थित रहता है। इस प्रकार वह द्रव्य जिसमें कार्य उत्पन्न होता है, समवायि कारण है। न्याय दर्शन में उपादान कारण को ही समवायि कारण माना जाता है जो समवायि कारण नहीं है, वह असमवायि कारण है। जो समवायि कारण से निकट सम्बन्ध रखता है तथा जिसमें कारण का सामान्य लक्षण भी घटित होता है, वह असमवायि कारण है। जो न तो समवायि कारण है और न असमवायि कारण, वह निमित्त कारण है। यह शक्तिमान होता है, जो अपनी शक्ति से उपादान कारण से कार्य उत्पन्न करता है। उल्लेखनीय है कि न्याय दर्शन में ये तीनों कारण केवल भाव पदार्थों में पाये जाते हैं। अभाव का सिर्फ निमित्त कारण होता है, क्योंकि उसका कभी कहीं भी समवाय सम्बन्ध नहीं होता। सांख्य एवं अद्वैत वेदान्ती विचारक न्याय दर्शन के कारणता विचार के विषय में कई आक्षेप लगाते हैं। सर्वप्रथम न्याय दर्शन कारण को परिभाषित करते हुए पूर्ववार्तत्व पर बल देता है जो तार्किक दृष्टि से तो ठीक है, किन्तु कालक्रम की दृष्टि से समीचीन है। शंकराचार्य का कथन है कि इस पूर्ववार्तीत्व एवं अनन्यथा सिद्ध दोनों पर जोर नहीं दे सकते। पुनः सांख्य एवं वेदान्त दार्शनिक कारण कार्य सम्बन्ध के विषय में न्याय दर्शन के असत्यकार्यवाद की आलोचना करते हैं। सांख्य दर्शन का कथन है कि जिसका अस्तित्व नहीं है, उसे कभी-भी उत्पन्न नही ंकिया जा सकता। कारण में कार्य का प्रभाव स्वीकार करने पर कोई भी पदार्थ किसी भी कारण से उत्पन्न होगा और कार्य-विशेष की उत्पत्ति के लिए कारण-विशेष का प्रश्न ही नहीं उठेगा। अतः कारण में कार्य की पूर्वसत्ता को स्वीकार करना पड़ेगा। सांख्य एवं वेदान्त दर्शन का यह आग्रह है कि यदि कार्य करण से सर्वथा भिन्न है तो दोनों को जोड़ने वाला कोई निर्णायक सिद्धान्त नहीं हो सकता।
Question : प्रकृति की सत्ता के लिए सांख्य तर्क।
(1999)
Answer : सांख्य दर्शन की द्वैतवादी विचारधारा में पुुरूष के अतिरिक्त द्वितीय तत्व अव्यक्त या प्रकृति है। यह विश्व का मूल कारण है। सम्पूर्ण विविधताआें से परिपूर्ण यह जगत प्रकृति से ही उत्पन्न है। सांख्य दर्शन विश्व के मूल कारण की खोज के प्रयास में प्रकृति की सत्ता का अनुमान करता है। सांख्य दर्शन युक्तियां के आधार पर प्रकृति की सत्ता को सिद्ध करता है। इस प्रसंग में सांख्यकारिका में निम्नलिखित युक्तियां प्राप्त होती हैं:
Question : ख्याति सम्बन्धी पूर्व मीमांसा मत।
(1999)
Answer : मीमांसा दर्शन के स्वतः प्रामाण्यवाद के अन्तर्गत ज्ञान स्वतः प्रमाण होता है। इसमें प्रत्येक ज्ञान स्वतः सत्य होता है। इसमें अप्रामाणिक एवं अयथार्थ ज्ञान को अस्वीकार किया जाता है किन्तु रज्जु में सर्प का अनुभव, शुक्तिका में रजत का अनुभव, भांतिपूर्ण अनुभव हैं और ये स्वतः प्रमाण ज्ञान के प्रतिकूल हैं तो भ्रम (ख्याति) क्यों होता है? अन्य यथार्थवादी विचारधाराओें के समान मीमांसा दर्शन भी इस समस्या पर विचार करता है। मीमांसा दर्शन के दोनों सम्प्रदायों (प्रभाकर मीमांसा एवं कुमारिल भट्ट मीमांसा) में इस समस्या पर भिन्न-भिन्न रूप से विचार किया गया है।
प्रभाकर का भ्रम विचार अख्यातिवाद कहलाता है। इसमें भ्रम की तात्विक यथार्थता को ही अस्वीकार किया जाता है। प्रभाकर के अनुसार तथाकथित भ्रम एक ज्ञान नहीं होता, बल्कि यह दो ज्ञानों का योग होता है। अर्थात् भ्रम में दो ज्ञान होते हैं और उसके दो अलग-अलग विषय होते हैं। भ्रम में इन दोनों परस्पर भिन्न ज्ञानों के भेद का और इनके अलग-अलग विषयों के भेद को ज्ञान नहीं होता। इस प्रकार हम भ्रम में इस बात को भूल जाते हैं कि यह दो ज्ञान हैं। परिणामस्वरूप हम उनके विषयों की पृथकता को ग्रहण नहीं कर पाते। जब हम रस्सी के स्थान पर सर्प का अनुभव करते हैं और कहते हैं कि यह सर्प है तो यह एक ज्ञान नहीं है, बल्कि दो ज्ञानों का सम्मिश्रण है। इससे यह का और साथ ही सर्प का ही उन विशेषताओं का, जो रस्सी में भी विद्यमान होती है, वास्तव में प्रत्यक्ष होता है। इन विशेषताओं का प्रत्यक्ष हमारे मन में अहित में अनुभूत सर्प के संस्कार को जगाकर सर्प का स्मरण करा देता है। इस प्रकार रज्जु-सर्प का तथाकथित भ्रम प्रत्यक्ष और स्मृति का सम्मिश्रण है। इसमें यह प्रत्यक्ष का विषय और सर्प स्मृति का विषय है। इसमें यह का प्रत्यक्ष ज्ञान और सर्प का स्मरणात्मक ज्ञान दोनों ही साथ है।
कुमारिल का भ्रम विषयक सिद्धान्त विपरीत ख्यातिवाद है। कुमारिल भी प्रभाकर की भांति यथार्थवादी है, किन्तु वे प्रभाकर के भ्रम विषयक अभावात्मक विचार को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि उससे अनुभव की व्याख्या नहीं हो पाती। यदि भ्रम अभाव रूप या अज्ञान रूप है तो भ्रम के समय व्यक्ति उसके अनुरूप कैसे व्यवहार में प्रवृत्त होता है। अज्ञानरूप भ्रम किसी व्यक्ति को व्यवहार में प्रवृत्त नहीं कर सकता। कुमारिल उपरोक्त कारणों से भ्रम की सत्ता स्वीकार करते हैं। कुमारिल भी प्रभाकर की भांति भ्रम की वस्तुओं को दो भागों में विभाजित करते हैं। जैसे रस्सी में सर्प का भ्रम होने पर यह सर्प है, ऐसा अनुभव होता है। इस भ्रम में यह प्रत्यक्ष का विषय है और सर्प स्मृत्ति का विषय है। कुमारिल के अनुसार भ्रम का कारण यह नहीं है कि हम दोनों में भेद नहीं कर पाते। भ्रम इस कारण होता है कि हम दोनों को मिलाकर एक कर देते हैं। यह सर्प है, इस भ्रम में यह (उद्देश्य) और सर्प (विदेह) दोनों ही सत्य है। भ्रम इस बात को लेकर उत्पन्न होता है कि हम दो सत्य किन्तु पृथक-पृथक पदार्थों में उद्देश्य विधेयात्मक सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, जिसे संसर्ग कहते हैं। इसी संसर्ग के कारण रस्सी में सर्प का भ्रम होता है। भ्रम उन विषयों को लेकर नहीं होता है, जो वास्तविक पदार्थ हैं, परिणामस्वरूप ‘यह’ का ‘सर्प’ कि रूप में विपरीत ज्ञान होता है। इस प्रकार भ्रम दो ज्ञान न होकर एक ज्ञान है जिसमें वस्तु संश्लिष्ट चीज के रूप में अनुभूत होती है।
Question : एकान्तवाद और अनेकान्तवाद।
(1998)
Answer : जैन दर्शन की तत्वमीमांसा अनेकांतवाद है। अनेकांतवाद का अर्थ है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है या वस्तु में अनेक धर्म होते हैं। उल्लेखनीय है कि अनेकांतवाद वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानने के साथ उसे अनेक भी मानता है। यहां धर्म शब्द गुण, लक्षण या विशेषता के अर्थ में आया है। ‘वस्तु का अनन्तधर्मात्मक है’ का अर्थ है कि वस्तु में अनन्त गुण अनन्त लक्षण होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जिस आश्रय में धर्म होते हैं वह धर्मी है और धर्मी की विशेषतायें धर्म है। जैन दर्शन में धर्मी के लिए द्रव्य शब्द का प्रयोग होता है। इसमें द्रव्य में दो प्रकार के धर्म स्वीकार किए जाते हैं। स्वरूप धर्म और आगन्तुक धर्म। इस प्रकार द्रव्य वह है जिसमे स्वरूप और आगन्तुक धर्म पाये जाते हैं। स्वरूप धर्म द्रव्य के अपरिवर्तनशील एवं नित्य धर्म हैं। इसके अभाव में द्रव्य का असितत्व सम्भव नहीं है। जैसे चेतना जीव का स्वरूप धर्म है। ये धर्म द्रव्य में आते जाते रहते हैं। इनके अभाव में भी द्रव्य अस्तित्ववान हो सकता है। जैसे सुख-दुख, इच्छा, संकल्प आदि जीव आगन्तुक धर्म है। रंग-रूप आदि घर के आगन्तुक धर्महैं। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है। सत् वह है जिसकी उत्पत्ति विनाश तथा स्थिति होती है, वह द्रव्य है। जैन दार्शनिक अद्वैतवेदान्त एवं बौद्ध दर्शन के सत् के लक्षण को अस्वीकार करते हैं, जिसमें क्रमशः त्रिकलावाधित्व और अर्थक्रिया कारित्व का सत्ता का लक्षण स्वीकार किया जाता है। जैन दर्शन का कथन है कि अद्वैत एवं बौद्ध मत एकान्त मत एकान्तवाद है। अद्वैत वेदान्त में केवल द्रव्यत्व को स्वीकार करके गुणों को अस्वीकार किया जाता है। इसके विपरीत बौद्ध मत केवल परिवर्तनशील धर्मों को स्वीकारकरके द्रव्य की उपेक्षा करता है। जैन मत दोनों को महत्व देता है। उसके अनुसार द्रव्य गुण की दृष्टि से नित्य होता है, क्योंकि गुण उसके अपरिवर्तन शील धर्म है। चूंकि पर्याय उत्पत्ति विनाश धर्म है, अतः उसकी दृष्टि से वह परिवर्तनशील और अस्थायी है। जैसे घर में पृत्रिका अपरिवर्तन शील है, उसके रूप रंग, आदि में परिवर्तन होता है एवं कालान्तर में उसका विनाश अनित्य तत्व है। इस प्रकार द्रव्य एक गतिशील यथार्थता है। यह तत्व वस्तुओं के अंदर रहनेवाला सारतत्व है जो अपने का विविध आकृतियों में प्रकट करता है और उसकी तीन विशेषताएं हैं- उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिति। द्रव्य की इन तीन विशेषताओं में कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि गुण की दृष्टि सेद्रव्य में एकता सामान्यतत्व एवं नित्यता की सिद्धि होती है और पर्याय की दृष्टि से अनेकता, विशेषत्व एवं अनित्यता की। इस प्रकार दृष्टि भेद से वस्तु में एकता-अनेकता सामान्यत्व एवं विशेषत्व, नित्यता एवं अनित्यता एक साथ रहते हैं।
Question : न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान के स्वरूप एवं संरचना की विवेचना कीजिए तथा परार्थानुमान के विभिन्न सोपानों के महत्व की व्याख्या कीजिए।
(1998)
Answer : न्याय दर्शन के अनुसार यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। प्रमा की प्राप्ति के साधन या करण को प्रमाण कहा जाता है। न्याय दर्शन में चार प्रमाण स्वीकार किए गये हैं। इनमें अनुमान एक महत्वपूर्ण प्रमाण है। इस अनुमान का क्षेत्र प्र्रत्यक्ष से व्यापक है, क्योंकि इसके द्वारा वर्तमान की दूरस्थ वस्तुओं के साथ-साथ एवं भविष्य का भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
अनुमान दो शब्दों के योग से बना है- अनु+मान। यहां अनु का अर्थ है पश्चात और मान का आशय है ज्ञान। अतः शाब्दिक दृष्टिकोण से अनुमान का तात्पर्य है- पश्चात ज्ञान। दूसरे शब्दों में पूर्व ज्ञान के पश्चात और उसी पर आधारित होकर होने वाला ज्ञान अनुमान है। यहां पूर्व ज्ञान का आशय पक्षधर्मता ज्ञान और व्याप्ति ज्ञान से है। हेतु का पक्ष में होना ही पक्षधर्मता है। उदाहरणस्वरूप पर्वत पर धुआं है। व्याप्ति हेतु और साध्य का नियत सार्वभौम एवं शर्त रहित सम्बन्ध है। उदाहरणस्वरूप जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां आग है। इन दोनों में पक्षधर्मता जहां अनुमान का वैज्ञानिक आधार है, वहीं व्याप्ति अनुमान के तार्किक आधार के रूप में काम करती है। न्याय मतानुसार व्याप्ति से विशिष्ट पक्षधर्मता का ज्ञान ही परामर्श हैं। ‘परामर्श’ जन्य ज्ञान को यहां अनुमिति कहा गया है। इस अनुमिति के कारण या साधन को ही अनुमान कहा जाता है।
‘अनुमिति करणम् अनुमानम्’
संक्षेप में, अनुमान बुद्धि की वह प्रक्रिया है, जिसमें किसी दृष्ट हेतु या लिंग के ज्ञान के आधार पर किसी दूसरी अदृष्ट वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, क्योंकि उस अदृष्ट (अज्ञात) वस्तु एवं हेतु के बीच व्याप्ति सम्बन्ध रहता है।
अनुमान के लिए तीन पदों का होना आवश्यक है।
इसे हम एक अनुमान के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं:
प्रस्तुत उदाहरण में धुआं हेतु है। पर्वत पक्ष है और अग्नि साध्य है। अनुमान के लिए कम से कम तीन वाक्यों का होना आवश्यक है। ये तीन वाक्य तब होते हैं, जब व्यक्ति अपने लिए अनुमान करता है। जब अनुमान दूसरों के शंका समाधान के लिए किया जाता है। तब वहां पांच अवयव की आवश्यकता होती है, इन्हें पंचावयव कहा जाता है।
प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान के दो भाग हैं- स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान। जो अनुमान अपने लिए अर्थात अपनी शंका के सामाधान के लिए किया जाता है, उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है। स्वार्थानुमान में तीन प्रकार के वाक्य होते हैं। यहां इन वाक्यों में क्रमिकता का होना आवश्यक नहीं हैः
जब अनुमान दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए या उनके शंका समाधान के लिए किया जाता है। तब उसे परार्थानुमान कहा जाता है। परार्थानुमान में पांच वाक्य होते हैं, और इसलिए इसे पंचायवय अनुमान भी कहा जाता है। इस अनुमान में क्रमिकता का होना अपरिहार्य है। इसे हम निम्न प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं। उदाहरणस्वरूपः
प्रतिज्ञा- पर्वत पर आग है (विशेष)
हेतु- क्योंकि वहां धुंआ है (विशेष)
उदाहरण सहित व्यप्ति वाक्य- जहां-जहां धुआं है, वहां-वहां आग है- जैसे रसोई घर (सामान्य)
उपनय -इस पर्वत पर धुआं है (विशेष)
निगमन- पर्वत पर आग है (विशेष)
यहां प्रतिज्ञा वह है, जिसमें साध्य को सिद्ध करने की बात कही जाती है। जिसके आधार पर साध्य को किया जाता है, वही हेतु कहलाता है। व्याप्ति स्थापित करने वाला दृष्टांत ही उदाहरण सहित व्याप्ति वाक्य कहलाता है। दृष्टांत सहित हेतु और साध्य का व्यापक सम्बन्ध दिखलाकर उसे पक्ष में प्रस्तुत करना ही उपनय है। जब प्रतिज्ञा की सिद्धि हो जाती है, तो उसे ही निगमन कहा जाता है।
कुछ आलोचकों का कहना है कि उपनय और निगमन क्रमशः हेतु और प्रतिज्ञा की पुनरावृति है। न्याय दर्शन इसे स्वीकार नहीं करता। न्याय दर्शन के अनुसार जब दृष्टांत सहित हेतु को अपने पक्ष में दिखाया जाता है, तब वह उपनय कहलाता है। जबकि प्रतिज्ञा में जो असिद्ध रूप में होता है, निगमन में वह सिद्धि रूप में स्थापित होता है।
पाश्चात्य तर्कशास्त्र में जहां अनुमान को आगमन एवं निगमन इन दो भागों में विभक्त किया गया है, वहीं भारतीय दर्शन में इस प्रकार का भेद नहीं किया गया है। पाश्चात्य आगमन में विशेष दो सामान्य निष्कर्ष निकाला जाता है, वहीं निगमनात्मक अनुमान में सामान्य से विशेष की ओर बढ़ा जाता है। न्याययिकों के परार्थानुमान में आगमन और निगमन का समन्वय दिखाई देता है। यहां परार्थानुमान में विशेष से सामान्य और सामान्य से पुनः विशेष (विशेष-सामान्य-विशेष) की ओर बढ़ा जाता है। इस प्रकार पाश्चात्य न्याय वाक्य केवल निगमनात्मक और आकारिक है, किन्तु भारतीय न्यायवाक्य, आगमनात्मक, निगमनात्मक तथा आकारिक वस्तुगत है।
नव्य नैयायिकों की धारणा है कि भारतीय परार्थानुमान के पांच अवयवों को तीन अवयवों में घटाया जा सकता है। भारतीय परार्थानुमान का प्रतिज्ञा और निगमन वाक्य एक ही है तथा हेतु और उपनय का भी एक ही हैं। यदि प्रथम दो अवयवों (प्रतिज्ञा हेतु) को निकाल दिया जाए तो भारतीय परार्थानुमान पाश्चात्य अनुमान जैसा हो जाता है। यदि अन्तिम दो अवयवों को निकाल दें तो भारतीय अनुमान की प्रक्रिया पाश्चात्य अनुमान के विपरीत हो जाती है। पाश्चात्य न्याय में आकारिक सत्यता होती है, किन्तु भारतीय परार्थानुमान में आकारिक और वास्तुगत दोनों सत्यता पायी जाती है।
Question : पुरूष बहुत्व का सिद्धान्त।
(1998)
Answer : भारतीय दर्शन में सांख्य एक द्वैतवादी विचारधारा के रूप में आख्यात है, जिसमें दो परस्पर स्वतंत्र और निरपेक्ष तत्व स्वीकार किये जाते हैं। वे हैं पुरूष और प्रकृति। इस द्वितत्ववादी विचारधारा में पुरूष सिद्धान्त का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि सांख्य दर्शन की मान्यता है कि पुरूष के कैवल्यार्थ ही प्रकृति से सम्पूर्ण सृष्टि का विकास होता है। पुरूष सांख्य का आत्म तत्व है। सांख्य दर्शन पुरूष की अनकेता के सिद्धान्तका प्रतिपादन करता है। वह इसे युक्तियों द्वारा भी प्रमाणित करता है। सांख्य दर्शन पुरूष को अनेक मानता है। वह अद्वैत वेदान्त की इस मान्यता को अस्वीकार करता है कि एक ही आत्मा सभी जीवों में व्याप्त है। सांख्य का यह विचार जैन, मीमांसा एवं रामानुज के विशिष्टद्वैत से मेल खाता है, क्योंकि इन विचारधाराओं में भी अनेक जीवों के अस्तित्व में विश्वास किया जाता है। सांख्यकारिका में पुरूष बहुत्व को प्रतिपादित करने के लिए निम्नलिखित युक्तियां दी गई हैः
(i)जन्मसम्णकरणाना प्रतिनियमातः सांख्य दर्शन के अनुसार संसार में प्रत्येक पुरूष का जन्म, मरण और करण प्रतिनियमित हैं। विभिन्न पुरूषों के जन्म और मृत्यु में अन्तर दिखाई देता है। विभिन्न पुरूषों को इन्द्रियों में भेद प्रतीत होता है। एक पुरूष के जन्म लेनेसे सभी पुरूष का जन्म नहीं हो जाता एवं एक की मृत्य से सबों की मृत्यु भी नहीं हो जाती, अतः इससे सिद्ध होता है कि पुरूष एक नहीं हैं।
(ii)अयुग्तत्प्रवृतेः सांख्य दर्शन के अनुसार संसार में युगघत प्रवृति विभिन्नता दिखाई देती है। हम देखते है कि जब एक व्यक्ति सोता है, तब दूसरा कार्य करता है, एक हंसता है तब दूसरा रोता हुआ दिखता पड़ता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न कर्म परिलक्षित होती है। इससे प्रमाणित होता है कि पुरूष एक नहीं अनेक हैं:
(iii)त्रैगुण्यविपर्यातः संसार सभी जीवोें में विभिन्न स्तर दिखाई देते हैं और उनमें गुण की दृष्टि से भेद प्रतीत होता है। देवताओं का स्तर सभी जीवों में सर्वोच्च है। इसके बाद मानव जाति का स्तर है। अन्त में पशु-पक्षी तथा अन्य जीवों का स्तर है। पुनः यद्यपि सभी जीवों में रजम, तमस एवं तपस तीनों गुण पाए जाते हैं, परन्तु सभी जीवों में विभिन्नता पायी जाती है। यदि सभी जावों में एक ही पुरूष होता तो सभी एक ही कोटि में आते और उनमें गुणों की दृष्टि से भेद नहीं होता। किन्तु ऐसा नही हैं। इससे सिद्ध होता है कि पुरूष अनेक हैं एक नहीं।
परन्तु सांख्य दर्शन के पुरूष बहुत्व सिद्धान्त की आलोचना की गई है। सांख्य दर्शन की पुरुष विषयक मान्यता कर्मवाद के सिद्धान्त के प्रतिकूल जाती है। वह प्रकृति में कर्तव्य एवं पुरूष में भोकतृत्व का आरोप करके कृत्प्रणाश और अकृत्कर्मभोग को निमंत्रण देकर कर्मवाद की नैतिक मान्यता को ठुकरा देता है। पुरूष बहुत्व के सिद्धान्त में एक दोष यह भी है कि वह पारमार्थिक आत्मा और सांसारिक जीव के भेद की उपेक्षा करता है। इसके द्वारा पुरूष की अनकेता को सिद्ध करने के लिए दी गई युक्तियां सांसारिक जीवों की एकता को सिद्ध करती हैं। पारपार्थिक आत्मा की अनकेता को नहीं। वह पुरूष को स्वरूपतः शुद्ध चैतन्य स्वप्रकाश, नित्य, साक्षी, दृष्टा, निर्गुण निराकार और अशरीर मानता है परन्तु पुरूष के अस्तित्व को सिद्ध करने के प्रयास में वह उसे इन्द्रिय मन-शरीर युक्त, जन्म, मृत्यु के अधीन दिखाता है। यदि प्रत्येक पुरूष चैतन्य स्वरूप है, चैतन्य की दृष्टि से उसमें भेद नहीं तो पुरुष बहुत्व का अनुमान निराधार है, क्योंकि भेद के अभाव में बहुत्व की मान्यता असम्भव है।
Question : बोधिसत्व।
(1997)
Answer : महायान धर्म का नैतिक आदर्श बोधिसत्व की अवधारणा है। वह हीनयान धर्म के नैतिक आदर्श अर्हत की
अवधारणा से भिन्न है। महायान ने अपनी उदार प्रवृत्ति एवं प्रगतिशीलता के कारण हीनयान के स्वार्थवाद और आत्मकेन्द्रीयता का निषेध किया। फलस्वरूप उसने हीनयान के आदर्शको भी अस्वीकार कर दिया। महायान अपनी उदारवृत्ति के कारण न तो व्यक्तिगत निर्वाण को आदर्श बना सका और न कुछ लोगों के निर्वाण को। उसने एक ऐसे आदर्श को स्वीकार किया जिसमें प्राणिमात्र की युक्ति का सन्देश हैं। उसने निर्वाण के उस आदर्श पर बल दिया जिसमें स्वदुःख निवृत्ति के साथ जीवमात्र की दुख निवृत्ति संकल्प दिखाई दे। महायान ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लोगों के समक्ष बोधिसत्व का आदर्श रखा। बोधिसत्व का शाब्दिक अर्थ है, एक ऐसा व्यक्ति जिसका सारतत्व पूर्ण ज्ञान है। यह वह महाप्राणी है जो सम्बोधि प्राप्त करता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसका अर्थ, उस व्यक्ति से है जो पूर्ण ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर है। बोधिसत्व के आदर्श को अत्यधिक महत्व देने के कारण महायान बोधिसत्वयान कहलाया। बोधिसत्व हीनयान के अर्हंत् की तरह केवल व्यक्तिगत कल्याण के लिए प्रयास नहीं करता, वरन् समष्टिगत कल्याण के लिए प्रयास करता हैं। बोधिसत्व यह है जो सभी प्राणियों को निर्वाण प्राप्त कराना चाहता है और सभी दुखी प्राणियों के उद्धार में लगा रहता है। उसका सबसे बड़ा गुण महाकरूणा है, जिसके कारण वह व्यक्तिगत निर्वाण को ठुकरा देता है, सभी के सुख के लिए अपने सुख का परित्याग करता है। वह व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्त करके भी उसे तब तक नहीं स्वीकार करता जब तक विश्व के सभी प्राणी मुक्त न हो जाएं। वह व्यक्तिगत निर्वाण के आदर्श को अत्यंत निकृष्ट मानता है। लंकावतारसूत्र के अनुसार बोधिसत्व यह संकल्प लेता है कि मैं तब तक परिनिर्वाण में प्रवेश करूंगा जब तक संसार के सभी प्राणी भी निर्वाण नहीं प्राप्त कर लेते। बोधिसत्व की यह अवधारणा उपनिषदों में प्रतिपादित ‘प्रबुद्ध’ की अवधारणा से गीता के ‘स्थितप्रज्ञ’ एवं पुरूषोत्तम की अवधारणा से तथा ईसाई धर्म में ‘ईसामसीह’ से मेल खाती है, क्योंकि वह दुःख से पीडि़त मानव जाति को दुःखों से मुक्त कराने में उनकी सहायता करता है। बोधिसत्व के लिए दो गुणों की आवश्यकता होती है- बोधिचित्त और बोधिचर्चा। सभी जीवों के समृद्धरण के अभिप्राय से बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए सम्यक सम्बोधि में चित्त लगाना ही बोधचित्त का ग्रहण है। बोधिचर्चा षट्पारमिताओं- दान, शील, शान्ति, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा का अभ्यास है। महायान धर्म में बोधिसत्व के लिए ‘परिवर्तन का सिद्धांत’ स्वीकार किया गया। परिवर्त्त का सिद्धांतअन्यों के लाभ के लिए पुण्य को संचित करने का सिद्धांत है। महायान धर्म की उदारता और बोधिसत्व के आदर्श ने बौद्ध धर्म के व्यापक आधार दिया और यह विश्व के एक बड़े भाग में फैल गया। महायान धर्म में बोधिसतव की अवधारणा की स्वीकृति ने इसे विश्वधर्म और मानव धर्म बना दिया।
Question : सांख्य मत के अनुसार प्रकृति के स्वरूप और उसके विकास की व्याख्या कीजिए।
(1997)
Answer : सांख्य दर्शन की द्वैतवादी विचारधारा में पुरूष के अतिरिक्त द्वितीय तत्व अव्यक्त या प्रकृति है यह विश्व का मूल कारण है। सांख्य दर्शन विश्व के मूल कारण की खोज के प्रयास में प्रकृति की सत्ता का अनुमान करता है। यह प्रकृति पुरूष का विरूद्धधर्मीहै। यह चेतनास्वरूप, त्रिगुणातीत एवं उदासीन पुरूष के विपरीत है। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। इसमें तीन गुण पाये जाते हैं। ये गुण हैं- सत्व, रजस और तमस। तीनों गुणों की साम्यवस्था का नाम प्रकृति है। सामान्यतः गुण शब्द का जो अर्थ किया जाता है इस अर्थ में स+व रजस और तमस गुण नहीं है। वस्तुतः ये प्रकृति के गुण नहीं हैं, अपितु उसके संघटक तत्व हैं। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन प्रकृति और उसके गुणों में द्रव्य गुण-भेद नहीं स्वीकार करता है। यहां सांख्य दर्शन की मान्यता न्याय-वैश्विक दर्शन की उस विचारधारा के विपरीत है, जिसमें पदार्थ में द्रव्य गुण भेद स्वीकार किया जाता है। तात्पर्य यह है कि सत्व, रजस और तमस द्रव्य रूप हैं। ये इसलिए भी द्रव्य हैं क्योंकि सांख्य दर्शन में इनके भी गुणों का विवेचन प्राप्त होता है। सांख्य प्रवचन भाज्य के अनुसार सत्व, रजस और तमस इस अर्थ में गुण हैं कि ये रस्सी के तीनों गुणों के समान पुरूष को बांधने का काम करते हैं। चूंकि ये पुरूष के उद्देश्य साधन में गौण रूप से सहायक हैं, इसलिए भी उन्हें गुण कहा जाता है। अन्य व्याख्या के अनुसार ये इसलिए गुण हैं, क्योंकि अकेली प्रकृति विशेष्य है और ये उसके अन्दर केवल अवयव रूप में अवस्थित हैं। प्रकृति के गुणों का ज्ञान अनुमान से होता है। इनके कार्यों से इनकीसत्ता का अनुमान किया जाता है। संसार के सभी सूक्ष्माति सूक्ष्म और स्थूल विषय सुख, दुःख अथवा मोह उत्पन्न करते हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृति के अनेक नाम प्राप्त होते हैं। इनसे भी प्रकृति को स्वरूप का परिचय प्राप्त होता है। सांख्य दार्शनिक इसे प्रधान कहते हैं क्योंकि यह विश्व का प्रथम मूलभूत कारण है। प्रकृति अव्यक्त भी है, क्योंकि इसमें यह सम्पूर्ण जगत अस्तित्व में आने के पूर्व अव्यक्त रूप से निहित था। प्रकृति को अजा कहते हैं, क्योंकि यह अनुत्पन्न है और इसका कोई कारण नहीं है। यद्यपि यह सम्पूर्ण जड़ जगत का कारण है, किन्तु इसका कोई कारण नहीं है। सांख्य दर्शन में प्रकृति को अनुमान भी कहा जाता है। इसकी सत्ता का ज्ञान प्रत्यज्ञादि प्रमाणों से न होकर केवल अनुमान से होता है। यह जड़ है क्योंकि यह मूलभूत भौतिक पदार्थ है। यह अचेतन होने के कारण अविवेकी भी है। यह विषय या ज्ञेय है क्योंकि यह पुरूष द्वारा भोग्य एवं जानी जाती है। यह सामान्य है क्योंकि यह सम्पूर्ण भौतिक जगत में व्याप्त है और यह भौतिक जगत अपने आर्विभाव के पूर्व प्रकृति में ही निहित था। चूंकि प्रकृति अकारण और अनुत्पन्न है, अतः यह नित्य एवं शाश्वत है। यह स्वतंत्र है क्योंकि यह किसी अन्य तत्व पर आश्रित नहीं है। चूंकि संपूर्ण जगत प्रकृति से प्रसूत है, अतः यह प्रसवधर्मी है। उपर्युक्त लक्षणों के कारण प्रकृति का स्वरूप बताते समय कतिपय ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं कि मानों वह कोई चेतन व्यक्तित्व युक्त सत्ता हो। जैसे, प्रकृति स्त्री है। प्रसवधर्मिणी है। वह अत्यंत सुकुमार है, लज्जाशील है। पुरूष के द्वारा देखे जाने पर पुनः उसके सामने कभी नहीं आती है। वह गुणवती है, उपाकारिणी है आदि।
सांख्य दर्शन में सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति है। सम्पूर्ण सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व प्रकृति में विद्यमान थी। उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि कोई नवीन उत्पत्ति नहीं और प्रलय दृष्टि का विनाश नहीं है। प्रकृति में जो अव्यक्त है, उसी का व्यक्त होना सृष्टि है। इसी प्रकार प्रलय सांसारिक पदार्थों का तिरोभाव है। सृष्टि प्रकृति का विकार का परिणाम है। सांख्य दर्शन का यह सिद्धांत प्रकृति परिणामवाद कहलाता है। उल्लेखनीय है कि प्रकृतिसत्व, रजस और तमस इन तीनों गुणों की साम्यावस्था है। गुणों की साम्यावस्था प्रलयकालीन अवस्था है, इसमें तीनों गुण एक दूसरे से बिल्कुल पृथक हो जाते हैं। साम्यावस्था में सत्व सत्व में रजस,रजस में मतस तमस में अवस्थित हो जाता है। यह स्मरणीय है कि सांख्य दर्शन प्रकृति को नित्य परिगमनशील मानता है, क्योंकि यदि प्रकृति की गति एक बार भी अवरूद्ध हो जाए तो उसका पुनः प्रारम्भ होना सम्भव नहीं है। प्रकृति में सर्ग की स्थिति में तो परिणाम होती ही है, उसमें प्रलय की स्थिति में भी परिणाम होता है। साम्यावस्था में प्रकृति में सरूप परिणाम होता है। इसमें सत्व गुण का सत्व में रजस का राजस में और तमस का तमस में परिणाम होता है। यह रजस के कारण सम्भव होता है। यह स्वभाव से ही चंचल होता है। विरूप परिणाम होने पर महत् आदि सांसारिक पदार्थों की उत्पत्ति प्रारम्भ होती है।
सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरूष के सम्बन्ध से प्रकृति की साम्यावस्था भंग होती है। सांख्य दर्शन प्रकृति और पुरूष के सम्बन्ध को संयोग कहता है। पुरूष के संयोग से प्रकृति की साम्यावस्था भंग होने पर पहले रजोगुण गतिशील होता है। उससे सत्व और तमस गुण में भी स्पन्दन होता है। इसके परिणामस्वरूप तीनों गुणों में भींषण आन्दोलन उत्पन्न होता है। सांख्य दर्शन इसे गुण क्षोभ कहता है। इसके कारण विरूद्ध परिणाम एवं सांसारिक पदार्थों का अर्विभाव होता है। परन्तु यहां प्रश्न यह है कि चेतन पुरूष और अचेतन प्रकृति विरूद्ध धर्मी है फिर दोनों में संयोग कैसे संभव है सांख्य अंधे एवं लंगड़े की उपमा देकर प्रकृति-पुरूष संयोग को सम्भव मानती है। पुनः प्रकृति ज्ञेय है। वह ज्ञात होने के लिए पुरूष की अपेक्षा करती है। पुरूष दुःखमय से मुक्त होने के लिए कैवल्य के लिए (कैव्लयार्थ) प्रकृति की अपेक्षा करती है। दोनों की अपेक्षायें संयोग को सम्भव बनाती हैं। पुनः सांख्य दर्शन के अनुसार यद्यपि पुरूष निष्क्रय है तथापि वह प्रकृति को उसी प्रकार प्रभावित करती है। जिस प्रकार चुम्बक लौटे अपनी ओर खींचता है। इस प्रकार सांख्य दर्शन पुरूष और प्रकृति के संयोग को सम्भव मानकर प्रकृति इसे सृष्टि के उद्भव और विकास की व्याख्या करता है।
सांख्य दर्शन में स्वीकृत विकास क्रम की प्रक्रिया में प्रकृति से उत्पन्न होने वाला प्रथम तत्व महत यानि बुद्धि है। यह विराट बाह्य जगत इसमें बीज रूप में निहित है। आभ्यांतर दृष्टि से इसे बुद्धि कहते हैं। यह सभी जीवों में विद्यमान होती है। प्रकृति का दूसरा विकार अंहकार है। यह महत्त तत्व का परिणाम है। अंहकार का लक्ष्य अभिमान है। जीवों की बुद्धि में मैं और मेरा की भावना अंहकार है सांख्यकारिका में अहंकार के तीन भेद प्राप्त होते हैं- वैकारिक, तैजस और भूतादि। अहंकार से एकादश इन्द्रियों एवं पंच तन्मात्रओं की उत्पत्ति होती है। वैकारिक अहंकार से एकादश इन्द्रियों (मन+पंच ज्ञानेन्द्रियों+पंच कर्मेंन्द्रियां) की उत्पत्ति होती है। इसमें दस बाह्य इन्द्रियां एवं एक आन्तरिक इन्द्रिय है।
भूतादि अंहकार से पंचतन्मात्रओं की उत्पत्ति होती है। इसे तन्मात्र इसलिए कहते हैं, क्योंकि ये शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के सूक्ष्म तत्व हैं। ये पंचतंमात्र हैं- शब्दतंनमात्र, स्पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र रसतन्मात्र और गन्धतन्मात्र। इनका ज्ञान अनुमान से होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार पंचतन्मात्रओं से पंचमहाभूत की उत्पत्ति होती है।
इस प्रकार प्रकृति से महाभूतों की उत्पत्ति तक विकास के दो रूप दिखाई देते हैं- प्रत्यय सर्ग या बुद्धि सर्ग और तन्मात्र सर्ग या भौतिक सर्ग। प्रत्यय सर्ग में बुद्धि, अहंकार और एकादश इन्द्रियों का आर्विभाव होता है। भौतिक सर्ग में पंच तन्मात्रओं और पंच महाभूतों का विकास सम्मिलित है।उल्लेखनीय है कि त्रिगुणात्मिका प्रकृति के समान ही तन्मय पदार्थ भी अविवेकी, विषय, अनेक पुरूष के लिए सामान्य अचेतन तथा प्रसवधर्मी है। प्रकृति से उदभूत एक तत्व कार्य है क्योंकि वे प्रकृति और पुरूष से भिन्न है और उनमें प्रकृति के सभी गुण रहते हैं:
सांख्य विकासवाद का विश्लेषण करने पर इसमें निम्नलिखित विशेषतायें पाई जाती है।
(i) सम्पूर्ण सृष्टि अपने उद्भव एवं विकास के पूर्व एक मूलकारण में विद्यमान थी। सृष्टि कोई नवीन उत्पत्ति नहीं है बल्कि अभिव्यक्ति मात्र है। प्रकृति में अव्यक्त तत्वों का व्यक्त होना ही सृष्टि है।
(ii) सांख्य विकासवाद शक्ति संरक्षण के सिद्धान्त को मानता है और भूत तत्व की नित्यता को स्वीकार करता है। इसकी मान्यता है कि असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और जो सत् है, वह हमेशा सत् है।
(iii) सृष्टि और प्रलय आवर्ती है। सृष्टि और प्रलय एक के बाद एक आते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रकृति में परिवर्तन एक ही दिशा में नहीं होता है।
(iv) विकास की प्रक्रिया यांत्रिक नहीं है। यह सप्रयोजन है। प्रकृति अचेतन होने के बावजूद पुरूष के कैवल्यार्थ और भोगार्थ सांसारिक पदार्थों को उत्पन्न करती है। अतः इसे अचेतन प्रयोजनवाद भी कहते हैं।
परन्तु सांख्य दर्शन की प्रकृति यांत्रिक की अवधारणा और उसका विकासवादी दृष्टिकोण दोषपूर्ण है। सांख्य प्रकृति को निर्वैयक्तिक मानता है परन्तु उसके स्वरूप विवेचन से प्रकृति व्यक्तित्वान सत्ता प्रतीत होती है। पुनः प्रकृति-पुरूष संयोग संभव नहीं है, क्योंकि दोनों विरूद्धधर्मी हैं। प्रकृति को सत्य मान लेने से ही सांख्य दर्शन में विकासवाद एवं द्वैतवाद का समाधान सम्भव है।
Question : स्वतः प्रामाण्य और परतः प्रामाण्य।
(1997)
Answer : प्रामाण्यवाद भारतीय दर्शन की मुख्य समस्याओं में से एक है। इसमें ज्ञान की सत्यता एवं असत्यता को निर्धारित करने वाले सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार ज्ञान स्वतः प्रमाण एवं स्वतः अप्रमाण होता है। इसके ठीक विपरीत न्याय दर्शन की दृष्टि में ज्ञान का प्रमाणत्व एवं अप्रमाणत्व दोनों परतः होता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार ज्ञान का प्रमाण्य परतः एवं अप्रामाण्य स्वतः होता है। मीमांसा दर्शन ज्ञान को स्वतः प्रमाण एवं परतः अप्रमाण मानती है।
सांख्य दर्शन ज्ञान के प्रामाण्य एवं अप्रमाण्य दोनों को स्वतः मानता है। इसके अनुसार जिन सामग्रियों से ज्ञान उत्पन्न होता है उन्हीं से ज्ञान में प्रामाण्य एवं अप्रमाण्य दोनों उत्पन्न होता है। सांख्य दर्शन सत्कार्यवाद के आधार पर प्रामाण्य एवं अप्रमाण्य को ज्ञान का फल मानकर उन्हें ज्ञान में ही मानता है। किन्तु इस दृष्टिकोण को स्वीकार करने पर प्रामाण्य एवं अप्रामाण्य में भेद करना कठिन हो जाता है। बौद्ध दर्शन का मत है कि ज्ञान स्वतः अप्रामाण्य होता है, वह असत्य उत्पन्न होता है, उसमें प्रामाण्य परतः उत्पन्न होता है। ज्ञान के अनुरूप आचरण करने से व्यावहारिक जीवन में प्राप्त होने वाली सफलता ज्ञान को प्रामाणिक बनाती है। उनके अनुसार ज्ञान को स्वतः प्रामाण्य मानने पर भ्रम नहीं होना चाहिए। किन्तु भ्रम जीवन में प्रायः उत्पन्न होता ही रहता है। बौद्ध दर्शन का उपरोक्त दृष्टिकोण ज्ञान को मूल्यहीन बना देता है। यदि ज्ञान को स्वतः अप्रामाण्य मान लें तो कोई भी व्यक्ति उसे प्राप्त करने का उद्योग नहीं करेगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति अप्राणिक ज्ञान नहीं प्राप्त करना चाहता। प्रामाण्यवाद का लेकर सर्वाधिक मतभेद एवं विवाद न्याय एवं मीमांसा दर्शनों में रहा है। उल्लेखनीय है कि न्याय दर्शन परतः प्रामाण्यवादी एवं मीमांसा दर्शन स्वतः प्रामाण्य नहीं है। परतः प्रामाण्यवाद में किसी भी ज्ञान का प्रामाण्य उस ज्ञान की उत्पादक सामग्री के अतिरिक्त अन्य कारणों से उत्पन्न होता है, वह तज्जन्य ज्ञान की प्रवृति साफल्य से उत्पन्न होता है। स्वतः प्रामाण्यवाद में ज्ञान की उत्पत्ति में ही ज्ञान का प्रामाण्य भी निहित माना जाता है। इसमें ज्ञान अपने प्रभाव के लिए अपनी ज्ञाप्ति तथा स्वोत्पादक सामग्री से भी किसी अन्य की अपेक्षा नहीं रखता। उल्लेखनीय है कि न्याय एवं मीमांसा दोनों दर्शन ज्ञान अप्रामाज्य के विषय में एकमत हैं क्योंकि वे ज्ञान के प्रमाण्य को परतः मानते है। न्याय दर्शन मीमांस के स्वतः प्रामाण्यवाद को अस्वीकार करता है इसमें ज्ञान की उत्पादक सामग्री में ही ज्ञान के प्रामाण्य को भी निहित माना जाता है। न्याय दर्शन के अनुसार ज्ञान की उत्पादक सामग्रियो केवल ज्ञान को उत्पन्न करती हैं, उसके प्रामाण्य को नहीं। ज्ञान का प्रामाण्य उसके उत्पादक सामग्री के अतिरिक्त अन्य कारणों से उत्पन्न होता है। मीमांसा दर्शन के आचार्य स्वतः प्रामाण्यवाद की स्थापना के पूर्व न्याय दर्शन के परतः प्रामाण्यवाद का खण्डन करते हैं। मीमांसा के अनुसार परतः प्रामाण्यवाद का आधार न्याय दर्शन के इस वैचारिक पृष्ठभूमि में निहित है कि ज्ञान के सामग्री के एकत्रहोने पर उसकी उत्पत्ति होती है। मीमांसा के आचार्यों का यह कथन है कि ज्ञान की उत्पत्ति दिखाने वाला यह सिद्धान्त ही असंगत है। ज्ञान की यह विशेषता है कि वह अपने साथ अपने विषय को भी प्रकाशित करता है। ज्ञान द्वारा अपने विषय का प्रकाश होता है, इससे ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती।