Question : तार्किक प्रत्यक्षवादियों की तत्वमीमांसा की निरसन संबंधी युक्तियों का मूल्यांकन कीजिए।
(2007)
Answer : तत्वमीमांसा प्राचीन काल से दार्शनिक के चिन्तन की मुख्य विषय-वस्तु रही है। तत्वमीमांसकों ने तत्व के स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक तात्विक सत्ताओं यथा प्राकृतिक तत्व, आत्म तत्व ईश्वर इत्यादि विषयक युक्तियां प्रस्तुत की हैं, जिन्हें वे आनुभविक वाक्यों से भी अधिक निश्चयात्मक मानते हैं। आधुनिक युग में विएना-सर्किल से उचित अनुभव एवं विज्ञान पर आधारित विचारधारा तार्किक-भाववाद इस परम्परागत तत्वमीमांसीय चिन्तन को दर्शन की विषय वस्तु से हटाकर अर्थहीन घोषित करती है। इस क्रम में वे तत्वमीमांसा का निरसन करते हैं।
तत्वमीमांसा की मौलिक अवधारणा यह है कि व्यावहारिक सत्ता से परे कोई आध्यात्मिक सत्ता अवश्य है। तत्वमीमांसा का उद्देश्य अनुभव से परे सत्ता का वर्णन करना है। तत्वमीमांसा के निराकरण का मूल आधार तार्किक भाववाद की इस अवधारणा में निहित है कि इन्द्रिय ज्ञान ही एकमात्र यथार्थ ज्ञान का स्रोत्र है, अर्थात् यदि इन्द्रियानुभव से परे कोई सत्ता है, तो वह अर्थहीन है। एयर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि कोई भी वाक्य जो हमारे इन्द्रियानुभव से परे सत्ता का कथन करता है। अर्थहीन है, कार्नेप ने भी तत्वमीमांसा को अर्थहीन कहा है।
तत्वमीमांसा के निरसन के लिए तार्किक भाववादी दो विधियों अपनाते हैं- (i) भाषा तार्किक विश्लेषण तथा (ii) सत्यापनीय सिद्धान्त या प्रमाणीकरण का सिद्धान्त। कार्नेप तत्वमीमांसा के निरसन के लिये भाषा के तार्किक विश्लेषण पर बल देते हैं। वे तत्वमीमांसा में प्रयुक्त भाषा का तार्किक विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि तत्वमीमांसा के सभी वाक्य प्राक्थन एवं शब्द अर्थहीन या निरर्थक हैं । यहां इसके लिए असत्य या अनुपयोगी या संदेहात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, बल्कि इसे अर्थहीन कहा गया है। इसे हम एक तत्वमीमांसीय कथन के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे- ‘ईश्वर का अस्तित्व है’। यह कथन आस्तिक तत्वमीमांसा के दृष्टिकोण से सत्य एवं अर्थपूर्ण है, जबकि नास्तिक तत्वमीमांसा इस कथन को असत्य कहेगी। इस कथन के सम्बन्ध में कोई संदेहवादी निश्चित प्रमाण न मिलने के कारण संदेहात्मक स्थिति को अभिव्यक्त करेगा। इन सबसे पृथक तार्किक भाववादी इस कथन को सत्य असत्य या संदेहात्मक न मानकर अर्थहीन कहेगा। कार्नेप भाषा के दो अंग मानते हैं- (i) शब्द भंडार तथा (ii) वाक्य विन्यास।
वाक्य अर्थपूर्ण तभी होते हैं, जब उसमें अर्थपूर्ण शब्दों को तार्किक नियमों के अनुरूप जोड़ा जाता है। अतः दो प्रकार से वाक्य भी उत्पन्न हो सकते हैं। यथा (i) या तो उनमें छदम शब्द व्यवहृत हो अर्थात् उनसे कोई अर्थ सूचित न हो। यथा आकाश-कुसुम बन्ध्या पुत्र आदि छदम शब्द हैं।
(ii) दूसरे प्रकार के वाक्य वे वाक्य हैं जिनमें व्यवहृत शब्द तो अर्थपूर्ण हैं, किन्तु उनका वाक्य विन्यास गलत है, जैसे ‘सीजर मूल संख्या है,’ ईमानदारी गेंद खेलती है। ध्यातव्य है कि उनमें प्रयुक्त शब्द सीजर, मूल संख्या, सदगुण आदि अर्थपूर्ण हैं, किन्तु उनका तार्किक विन्यास असंगत है। इन्हें जोड़ने में तार्किक नियम का उल्लंघन नहीं हुआ है। इस प्रकार उपर्युक्त वाक्य छदम कथन हैं। इस प्रकार कार्नेप यह दिखाते हैं कि ये सभी वाक्य अर्थहीन हैं, क्योंकि इन वाक्यों के विश्लेषण के मूल में कोई स्वानुभावमूलक वाक्य प्राप्त नहीं होता। कार्नेप के अनुसार तत्वमीमांसा के कथन प्रायः इन्हीं दो प्रकार के वाक्यों में रहते हैं। इनमें व्यवहृत शब्द कोई अर्थ सूचित नहीं करते तथा अधिकतर अथपूर्ण होते हुए भी तार्किक वाक्य विन्यास के उल्लंघन के कारण छदम कथन बन जाते हैं। कार्नेप ने ‘ईश्वर’ के शब्द का विश्लेषण करते हुए दिखाया है कि ईश्वर शब्द का पौराणिक अर्थ शायद कुछ भी हो, किन्तु उसका तात्विक अर्थ नहीं है।
पुनः भाववादियों ने अर्थ के सत्यापनीय सिद्धान्त के द्वारा भी तत्वमीमांसा के निरसन का प्रयास किया है। तार्किक भाववादियों के अनुसार संज्ञानात्मक अर्थ में केवल दो ही प्रकार के कथन सम्भव हैं- विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक कथन। विश्लेषणात्मक कथन की सत्यता का निश्चय कथन में आये हुए शब्दों से ही हो जाता है। इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती है। संश्लेषणात्मक कथन की सत्यता का निश्चय इन्द्रियानुभव द्वारा होता है। यदि कोई कथन ऐसा है जो न तो विश्लेषणात्मक और न ही सत्यापनीय है, तो वह निरर्थक है। तत्वमीमांसा के कथन इसी प्रकार के हैं जो न विश्लेषणात्मक हैं और न ही सत्यापनीय। अतः तत्वमीमांसा के कथन निरर्थक हैं। तार्किक भाववादियों के अनुसार जो संश्लेषणात्मक कथन सत्यापनीय हैं, वह सार्थक है। विटगेन्सटार्डन अपने टैक्टेट्स में कहते है कि किसी तर्कवाक्य का अर्थ वह चित्र है, जिसे वह प्रस्तुत करता है। वस्तु स्थिति के अनुरूप वाक्य साथ एवं वस्तु स्थिति से असंगत वाक्य असत्य होते हैं। विटगेन्सटार्डन के इसी विचार को तार्किक भाववादियों ने आगे बढ़ाया। सत्यापन की विधि के सन्दर्भ में तार्किक भाववादियों में मतभेद है, परन्तु इसका स्पष्ट रूप एयर के द्वारा अस्तित्व में लाया गया। सत्यापनीय सिद्धान्त तीन वर्गा में विभाजित हैः
(i) सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिकः जो कथन न व्यावहारिक हो तो कम से कम सैद्धान्तिक रूप से भी सत्यापनीय हो, तो वह कथन सार्थक कथन होगा, परन्तु तत्वमीमांसीय कथन न तो व्यावहारिक और न ही सैद्धान्तिक रूप से भी सत्यापनीय हैं, परन्तु इस सिद्धान्त में यह दोष है कि इस आधार पर भविष्य के साथ-साथ वर्तमान के भी कई कथन निरर्थक सिद्ध हो जाऐंगे, क्योंकि उनका इस आधार पर सत्यापन सम्भव नहीं है।
(ii) सबल और निर्बल सत्यापनः जब किसी कथन का सत्यापन सबल रूप से न सही, निर्बल रूप से ही हो जाए तो भी वह कथन सार्थक कथन माना जाएगा, परन्तु तत्वमीमांसीय कथन न तो सबल रूप से ओर न ही निर्बल रूप से सत्यापनीय हैं।
(iii) प्रत्यक्ष और परोक्ष सत्यापनीयः जब किसी कथन का सत्यापन अनुभव द्वारा प्रत्यक्ष रूप से हो जाए तो वह अपरोक्ष सत्यापन है। पुनः कार्नेप के अनुसार किसी कार्य का प्रत्यक्ष सत्यापन हो जाता है तो उसे उत्पन्न करने वाले कारण का परोक्ष सत्यापन हो जाता है। इस आधार पर भी तत्वमीमांसा कथन सत्यापनीय नहीं हैं, अतः सत्यापनीयता के सिद्धान्त के आधार पर भी तत्वमीमांसीय कथन निरर्थक है, क्योंकि ये सत्यापनीय नहीं हैं।
परन्तु सत्यापनीय सिद्धान्त की अपनी स्वयं की स्थिति स्पष्ट नहीं है। यह सिद्धान्त स्वयं में न तो विश्लेषणात्मक है और न अनुभव द्वारा सत्यापित। इसका अर्थ यह हुआ कि यह निरर्थक है। ज्ञान पासमोर का कथन है कि यदि हम विज्ञान को स्वतंत्र सिद्ध करने का प्रयास करते हैं तो तत्वमीमांसा स्वतः सार्थक सिद्ध होने लगती है। सत्यापनीय सिद्धान्त की तकनीकी आलोचना भी की जाती है। वाक्य और प्रतिज्ञप्ति में क्या अन्तर है? सत्यापन वाक्य का होता है या प्रतिज्ञप्ति का। वाक्य की विशेषता अर्थ है या सत्यता। इसी कठिनाई से बचने के लिए एयर ने कथन शब्द का प्रयोग किया है। पर वास्तव में तर्कशास्त्र में प्रतिज्ञप्ति और अर्थ में अन्तर नहीं किया गया है।
विटगेन्सटार्डन का कहना है कि यहां विरोध हो उसे मापदण्ड नहीं बनाया जा सकता। सत्यापनीय सिद्धान्त में स्वयं विरोध है, अतः इसे अर्थ का मापदण्ड नहीं बनाया जा सकता। पुनः सत्यापन केवल सत्य या असत्य कथन का होता है। भाषा में ऐसे कथन होते हैं जो न सत्य होते हैं और न असत्य।
रसेल के अनुसार कुछ वैज्ञानिक कथनों का न तो व्यवहारिक सत्यापन सम्भव है और न सैद्धान्तिक। फिर भी ये निरर्थक नहीं हैं। सत्यापन सिद्धान्त को मान लेने पर अहंमात्रवाद की सिद्धि होती है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव उसका व्यक्तिगत अनुभव होता है।