Question : प्लेटो के प्रत्यय ज्ञान सिद्धांत।
(2007)
Answer : प्लेटो को बुद्धिवादी ज्ञान मीमांसा का प्रवर्तक माना जा सकता है। उसकी ज्ञान मीमांसा में ज्ञान के स्वरूप पर दो दृष्टियों से विचार किया गया है। निषेधात्मक दृष्टि से प्लेटो ने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ज्ञान क्या नहीं है? ज्ञान के स्वरूप एवं विषय को तबतक नहीं जाना जा सकता है, जबतक कि अज्ञान अर्थात् जो ज्ञान नहीं है, का ज्ञान हो जाए। अतः ज्ञान को जानने से पहले, जो ज्ञान नहीं है, उसे जानना आवश्यक है। जब प्लेटो ने कहा ‘स्वयं को जानो’ तो इसका अर्थ अपने ज्ञान की सीमा को जानने से है। अज्ञान, असत्य, भ्रम आदि का ज्ञान क्रमशः ज्ञान, सत्य और प्रामणिक ज्ञान की तार्किक प्राग्पेक्षा है। प्लेटो के अनुसार यदि इंद्रिय प्रत्यक्ष और मत को ज्ञान माना जाए तो प्रामाणिक तथा दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करना असंभव है। प्रत्यक्ष ज्ञान से बाध्य जगत के सतही स्वरूप की प्रतीति अकेली हो, किंतु इसके द्वारा वस्तुओं के सार तत्व का बोध नहीं हो सकता है। दार्शनिक ज्ञान सत्य के प्रति प्रेम के बिना संभव नहीं है। दार्शनिक ज्ञान प्रत्ययों के स्वरूप के चिंतन में निहित है। प्रत्ययों या सामान्यों का ज्ञान बौद्धिक अंतर्दृष्टि से प्राप्त होता है। यही सम्यक ज्ञान है।
मानव के द्वारा किया गया प्रत्यक्ष बिना तुलना, वर्गीकरण और नामकरण के अर्थपूर्ण नहीं हो सकता है। परंतु तुलना, वर्गीकरण और नामकरण की शक्ति बौद्धिक व्यापार है। इनके अभाव में कोई प्रत्यक्ष वास्तविक ज्ञान नहीं होता है। प्लेटो के अनुसार ज्ञान बौद्धिक विश्वास एवं सत्य मत से भी भिन्न है। ये आस्थापरक, परिवर्तनशील एवं प्रवृत्यात्मक होते हैं। परंतु ज्ञान नित्य कुटस्थ एवं सत्यता के सकारण समझ पर आधारित होता है। अतः प्लेटो के अनुसार दार्शनिक ज्ञान प्रत्ययों (सामान्यों) अथवा विशुद्ध आकारों का अंत बोध है जो बौद्धिक अंतर्दृष्टि से ही प्राप्त हो सकता है। यह प्रत्ययों का ज्ञान है। ज्ञान का विषय वह है जो वास्तव में है तथा अज्ञान का विषय वह है जो वास्तव में नहीं है।
Question : अरस्तु का पदार्थ सिद्धांत।
(2006)
Answer : अरस्तु का पदार्थ सिद्धांत प्लेटो के दर्शन का ही एक विकसित रूप है। अरस्तु के अनुसार सामान्य से विशेषों के उद्भव और विकास का प्रतिपादन करना दर्शन का प्रमुख व्यापार है। उसके दर्शन का प्रारंभ ही प्लेटो के प्रत्ययवाद की आलोचना से होता है। अरस्तु ने भी सामान्य को एक निरपेक्ष सत्ता माना है। किंतु उसका सामान्य विशेषे से परे नहीं, बल्कि उसमें निहित है। किसी वस्तु का सार तत्व वस्तु के बाहर नहीं होता है। सामान्य और विशेष परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। अतः अरस्तु का द्रव्य (Substonrce)सामान्य से युक्त विशेष है। द्रव्य की परिभाषा सामान्यतया इस रूप में दी जाती है-द्रव्य वह तत्व है जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है और जो अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य वस्तु पर आश्रित नहीं है।
अरस्तु के अनुसार पदार्थ वह है जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है अर्थात् जो अपनी स्थिति के लिए किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं करता। अरस्तु के अनुसार पदार्थ का प्रयोग उद्देश्य के लिए होता है, यह कभी किसी वस्तु का विधेय (Predicate)या विशेषण नहीं हो सकता। इसी आधार पर अरस्तु कहते हैं कि प्लेटो के प्रत्यय जो वस्तुतः सामान्य हैं, पदार्थ नहीं हो सकते, क्योंकि सामान्य किसी एक वर्ग विशेष की वस्तुओं से संबंधित एक विधेय मात्र है। सामान्य वस्तु-विशेषों से पृथक अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं रख सकता, जिस प्रकार ‘भारीपन’ को भारी वस्तुओं से पृथक नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार मनुष्यता को मनुष्यों से अलग नहीं किया जा सकता। अतः सामान्य पदार्थ नहीं है, क्योंकि ये वस्तु-विशेष सापेक्ष है। सामान्य की भांति विशेष को भी पदार्थ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो पूर्ण रूप से विशेष और विशेष से रहित हो। वस्तुतः सामान्य और विशेष अन्योन्याश्रित है। दोनों एक दूसरे से संबद्ध है, उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार सोने का पीलापन, ठोसपन आदि गुण हैं, उन्हें सोने से पृथक नहीं किया जा सकता। अतः अरस्तु के अनुसार पदार्थ वस्तुतः सामान्य और विशेष दोनों का यौगिक है। यह सामान्य युक्त विशेष है। अतः प्रत्येक विशिष्ट वस्तु है। अरस्तु की यह पदार्थ संबंधी अवधारणा यथार्थवादी, अनुभववादी एवं वास्तविक हैं।
Question : ज्ञान एवं मत में भेद।
(2005)
Answer : प्लेटो के अनुसार जिस प्रकार प्रत्यक्ष को ज्ञान नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार मत को भी ज्ञान नहीं कहा जा सकता है। उल्लखेनीय है कि सत्य पर अथवा विश्वास अटकलबाजी से भिन्न होता है। यह निराधार अंधविश्वासपूर्ण तथा सांयोगिक होता है। जैसे कोई व्यक्ति रविवार को इस आधार पर लाटरी खरीदता है कि यह उसके लिए सौभाग्यशाली है। संयोगवश उसकी लाटरी निकल आती है। यद्यपि यह अटकलबाजी सत्य सिद्ध हो सकती है, तथापि इसे तार्किक विश्वास सत्य या सत्य मत की कोटि में नहीं रखा जा सकता है। प्लेटो के अनुसार ज्ञान बौद्धिक विश्वास एवं सत्य मत से भिन्न होता है। किसी व्यक्ति के लिए अपने विश्वासों को त्यागना, सुधारना, संशोधित करना संभव है। किंतु ज्ञान के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। हमारे विश्वासों एवं मतों में चढ़ाव उतार अथवा अस्थिरता ज्ञान के स्वरूप को प्रभावित नहीं करती है। हमारे विश्वास/मत सहज प्रवृत्यात्मक एवं आस्थापरक होते हैं। इसके विपरीत ज्ञान सहज प्रवृत्तियों एवं विश्वासों पर आधारित नहीं होता है। ज्ञान समग्र बौद्धिक समझ और तार्किक बोध पर आधारित होता है। कौशलपूर्ण संभावना से मत को बदला जा सकता है किंतु ज्ञान बौद्धिक होता है और उसे तर्कों तथा भावोत्तेजना के द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। ज्ञान किसी विषय के सम्पर्क बोध एवं उसकी सत्यता के कारण समझ पर आधारित होता है, अर्थात् यह किसी विषय के ज्ञान की सत्यता के कारणों का भी ज्ञान है। हमारे मतभेद और विवाद किसी मत के बारे में हो सकते हैं किंतु ज्ञान के संबंध में नहीं। ज्ञान के विषय अपरिवर्तनशील, शाश्वत एवं विशुद्ध सत् प्रत्यय हैं। मत का विषय प्रतीत होता है। किंतु यह हमेशा समान रूप से स्थिर एवं कुटस्थ नहीं होता है। कुछ समय बाद उसकी प्रतीति बाधित हो जाती है। अतः प्लेटो इसे ज्ञान और अज्ञान दोनों से भिन्न मानता है। वस्तुतः यह ज्ञान एवं अज्ञान के बीच की अवस्था है।
Question : ‘सामान्य विशेषों में अनुगत होता है’, इस वक्तव्य के आलोक में अरस्तु के प्रत्यय सिद्धांत का वर्णन करें।
(2003)
Answer : अरस्तु अपने दर्शन को पूववर्ती दार्शनिकों के विचारों का पूर्ण समन्वय मानते हैं। उनके अनुसार दर्शन का लक्ष्य पूर्ण सत्ता का ज्ञान है। अरस्तु के अनुसार दर्शन का सत् परम तत्व या परम द्रव्य है। यह नित्य और कुटस्थ है। स्वयं अपरिणामी होते हुए भी यह सामान्य परिणाम या परिवर्तन का कारण है। इसी को आधार बनाकर अरस्तु अपने प्रत्यय सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं। प्रत्यय के संबंध में अपने विचार प्रकट करने के पहले वे प्लेटो के प्रत्यय के सिद्धांत की आलोचना करते हैं। तत्पश्चात वे इसका संशोधित रूप प्रकट करते हैं। प्लटो की तरह अरस्तु भी विज्ञान का महत्व स्वीकार करते हैं। अरस्तु के अनुसार शुद्ध सत् ही शुद्ध चित है। किंतु वे विज्ञान/प्रत्यय जगत को वस्तु जगत से भिन्न न मानकर उसी में अनुचित मानते हैं।
अरस्तु के अनुसार भी प्रत्यय या सामान्य बुद्धि की कोरी कल्पना नहीं है, किंतु वास्तविक सत्य है। प्रत्यय, विज्ञान या सामान्य वस्तुगत है, अर्थात् विभिन्न वस्तुओं में अनुचित है। सामान्य की सत्ता वास्तविक होते हुए भी व्यक्तियों से या वस्तुओं से पृथक नहीं है। यह उनके पार या उपर नहीं है। यही वास्तविक प्रत्यय/विज्ञान या वास्तविक सामान्य है। यह अनित्य वस्तुओं का नित्य स्वरूप है। यह भेद में अनुचित अभेद है। सांसारिक पदार्थ वस्तुतः सत्य है। ये द्रव्य है। वे तत्व हैं। उन तत्वों का स्वरूप होने के कारण सामान्य/प्रत्यय भी तत्व है। वस्तुतः सामान्य ही हमारे ज्ञान के विषय है और विविध विज्ञानों/प्रत्ययों का कार्य विभिन्न पदार्थों में अनुचित सामान्यों का ज्ञान प्राप्त करना है। सामान्य प्रत्यय रूप हैं, अतः चेतन है, जड़ नहीं है। संसार के विविध पदार्थ अपनी जड़ता के कारण अनित्य, परिणामी और विनाशशील है। इनका सामान्य, जो इनका स्वरूप है, नित्य, अपरिणामी और अविनाशी है, किंतु इनमें अभिव्यक्ति होने के कारण वह भी इनकी जड़ता से परिछिन्न हो जाता है। तत्व शब्द का प्रयोग वस्तुतः सामान्य या स्वरूप के लिए ही होना चाहिए। किंतु शुद्ध स्वरूप, जो जड़ता से नितांत रहित हो, केवल अरस्तु पर प्लेटो का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। किंतु अरस्तु कभी-कभी इसके विपरीत भी कहते हैं कि वस्तुतः तत्व विशेष ही है। यह सदा एक और वही रहता है सामान्य को, व्यक्तिरूपी तत्वों में अनुगत रहने के कारण, गौण रूप से तत्व कहा जाता है। इन दो विरोधी धाराओं का समन्वय अरस्तु नहीं कर पाते हैं। एक ओर तो प्लेटो के प्रत्यय/सामान्य का खण्डन करने के लिए उन्होंने व्यक्ति को ही वास्तविक माना और दूसरी ओर, प्लेटो से ही प्रभावित होकर, उन्होंने सामान्य को ही एकमात्र शुद्ध तत्व कहे जाने का अधिकार दे दिया। शायद उनका तात्पर्य यही था कि व्यक्तियों से भिन्न और परे सामान्य की सत्ता नहीं मानी जा सकती।
अपने प्रत्यय सिद्धांत के विश्लेषण के अंतर्गत अरस्तु के प्रत्यय या सामान्य का ही रूपांतरण ‘कारण’ में हो जाता है। अरस्तु के अनुसार प्रत्येक तत्व में दो बातें पायी जाती हैं- एक तो उसका द्रव्य और दूसरी उसका स्वरूप। स्वरूप तो सामान्य है जो एक जाति के सभी तत्वों में समान है। द्रव्य विशेषता का जनक है। द्रव्य परिणाम एवं गति का अधार है। यह जड़ता का प्रतीक है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु द्रव्य और स्वरूप का सम्मिश्रण है। इस जगत में द्रव्य और स्वरूप को कभी अलग अलग नहीं किया जा सकता। यहां एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता। अतः इस संसार में कोई वस्तु विशुद्ध द्रव्य या विशुद्ध स्वरूप नहीं है। विशुद्ध द्रव्य है मूल प्रकृति और विशुद्ध स्वरूप है ईश्वर एक पूर्ण जड़ता है और दूसरा पूर्ण चैतन्य, एक शुद्ध क्रम है और दूसरा शुद्ध ज्ञान। एक गति एवं परिणाम है, तो दूसरा नित्य कुटस्थ।
अतः संसार के प्रत्येक तत्व में द्रव्य और स्वरूप का सम्मिश्रण होना अनिवार्य है। द्रव्य को अरस्तु साध्य और स्वरूप को सिद्ध कहते हैं। गति या परिणाम वस्तुतः विकास है- द्रव्य का स्वरूप की ओर विकास, साध्य का सिद्ध की ओर विकास। प्रत्येक गति या परिणाम के चार कारण होते हैं- (i) उपादान कारण (ii) निमित्त कारण (iii) स्वरूप कारण तथा (iv) लक्ष्य कारण। यहां अरस्तु ने द्रव्य और स्वरूप के अतिरिक्त निमित्त और लक्ष्य को भी स्वीकार किया है। साध्य या द्रव्य को सिद्ध या स्वरूप बनने के लिए, निमित्त कारण की, जो गति या परिणाम उत्पन्न कर सके और उस लक्ष्य की, जिसकी ओर वह प्रगति कर रहा है, आवश्यकता है।
विश्व की प्रत्येक वस्तु में द्रव्य और स्वरूप दोनों हैं। प्रत्येक वस्तु साध्य से सिद्ध की ओर अग्रसर हो रही है, क्योंकि उसमें एक कमी है जो उसमें नहीं होना चाहिए था और जिसको दूर करने की शक्ति उसमें निहित है। ज्ञातव्य है कि अरस्तु ने अपने लक्ष्य एवं निमित कारण का अन्तर्भाव भी स्वरूप कारण में ही किया है जो वस्तुतः आकार या सामान्य है। इस प्रकार मुख्य रूप से प्रत्येक तत्व के दो ही कारण बनते हैं- स्वरूप एवं उपादान, द्रव्य एवं आकार।
विकास की श्रेणी में अरस्तु के अनुसार द्रव्य ही आकार ग्रहण करता है। वस्तु जगत एवं प्रत्यय जगत में वास्तविक भेद नहीं है। बालक ही युवक का रूप लेता है। सामान्य या प्रत्यय सिद्ध है और वस्तुयें साध्य हैं। परमार्थ व्यवहार में ही अनुष्युत है और व्यवहार परमार्थ की ओर विकसित हो रहा है। साध्य जब सिद्ध बन जाता है, द्रव्य जब स्वरूप-लाभ कर लेता है, तब अरस्तु ने सिद्ध सत्ता का नाम दिया है। वास्तविक सिद्ध सत्ता तो ईश्वर ही है जो इस जगत को आकर्षित कर रहे हैं और यह जगत उनकी ओर विकसित हो रहा है।
इस प्रकार अरस्तु ने अपने प्रत्यय सिद्धांत के द्वारा विश्व की प्रयोजनवादी व्याख्या भी की है और अपने कारणता सिद्धांत का प्रतिपादन कर कारणता की संकल्पना में वैज्ञानिकता के साथ दार्शनिकता का भी अंश समाहित किया है। परन्तु अरस्तु का प्रत्यय संबंधी सिद्धांत प्लेटो के प्रत्यय संबंधी सिद्धांत का खंडन करने में असमर्थ तो रहा ही, साथ में उनकी तत्व मीमांसा द्वैतवाद का भी शिकार हो गया। यह द्वैत परमार्थ एवं व्यवहार का द्वैत है जिसका वो समाधान नहीं कर पाएं।
Question : प्लेटो और अरस्तु के सत् के सिद्धांत के मध्य अंतर स्पष्ट करें।
(2002)
Answer : यद्यपि अरस्तु का दर्शन पलेटो के दर्शन का एक विकसित रूप है, तथापि इन दोनों महान दार्शनिकों में कुछ मौलिक अंतर है। अरस्तु की रूचि प्राकृतिक तथ्यों के निरीक्षण में थी। अतः उनका दर्शन आनुभविक पक्ष की उपेक्षा नहीं करता है। अरस्तु ने प्लेटो के दर्शन में निहित दोषों को दूर करके एक परिष्कृत और असंदिग्ध दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किंतु अरस्तु की दार्शनिक मान्यताओं का भी आधार प्लेटो का दर्शन ही है। प्लेटो और अरस्तु ये दोनों विचारक दर्शनशास्त्र के उद्देश्य को लेकर परस्पर सहमत हैं। उनके अनुसार दार्शनिक अनुशीलन का आरंभ आश्चर्य से होता है। दर्शन का लक्ष्य विशेषों में अंतनिर्हित सार्वभौम सार तत्व का विवेचन एवं मूल्यांकन करना है। यह वस्तुओं के अंतिम कारण की खोज करने से संबंधित है। उल्लेखनीय है कि अरस्तु भी प्लेटो के समान ज्ञान को मत और कल्पना से भिन्न मानता है। ज्ञान का विषय शाश्वत और अनिवार्य सत्ता है। अरस्तु प्रथम सिद्धांतों के रूप में दार्शनिक चिंतन पर बल देता है। उसके अनुसार दर्शनशास्त्र का स्थान अन्य सभी प्राकृतिक विज्ञानों से उत्कृष्ट और उच्च स्तरीय है।
वास्तव में अरस्तु के युग में ज्ञान की अनेक विधाओं का अध्ययन दर्शन के ही अंतर्गत किया जाता था। इसमें तत्व मीमांसीय चिंतन के साथ-साथ सौंदर्य शास्त्रीय, नीति शास्त्रीय, ज्ञान मीमांसीय और प्राकृतिक विज्ञानों का अध्ययन भी है। परंतु वह दर्शन को व्यावहारिक पक्ष से हटाकर पूर्णतः सैद्धांतिक बना देता है। अरस्तु के अनुसार सामान्य से विशेषों को उद्भव और विकास का प्रतिपादन करना दर्शनशास्त्र का प्रमुख व्यापार है। वह ज्ञान के विषय एवं प्रामाण्य के अंतर्गत प्राचीन ज्ञान को भी सम्मिलित कर लेता है। इस प्रकार वह प्लेटो द्वारा प्रतिपादित ज्ञान मीमांसा में संशोधन करता है। प्लेटो की ज्ञान मीमांसा में ज्ञान के विषय के रूप में शाश्वत और अनिवार्य (सामान्य) विषयों को ही सम्मिलित किया जाता है। अरस्तु ने अपने दर्शन में विशेषों को यथोचित स्थान देकर ज्ञान के आनुभविक पक्ष को भी महत्व दिया। इस प्रकार आनुभविक प्रेक्षण को महत्व देकर उसने आगमनात्मक विधि को एक पारिभाषिक स्वरूप प्रदान किया। अरस्तु ने प्लेटो की कवित्व पूर्ण भाषा और रूपकों एवं उपमाओं पर आधारित दार्शनिक समस्यायों की पौराणिक व्याख्या के लिए भी प्लेटो की कटु आलोचना की। उसके दर्शन का प्रारंभ प्लेटो के प्रत्ययवाद की आलोचना से होता है। अरस्तु ने भी सामान्य को एक निरपेक्ष सत्ता माना है। किंतु उसका सामान्य विशेषों से परे नहीं बल्कि उसमें निहित है। किसी वस्तु का सार तत्व वस्तु के बाहर नहीं हो सकता। सामान्य और विशेष परस्पर अन्योयाश्रित हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। अतः अरस्तु का द्रव्य सामान्य से युक्त विशेष है। अरस्तु का द्रव्य उसकी अन्य कोटियों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है। द्रव्य किसी वाक्य का विधेय अथवा किसी वस्तु का गुण नहीं हो सकता है। जगत की सभी वस्तुयें उसके गुण और विधेय हैं। अरस्तु के सामान्य किसी अतीन्द्रिय जगत में नहीं रहते हैं। किंतु प्लेटो के समान अरस्तु भी सामान्यों को वास्तविक मानता है। सामान्य वास्तविक सत्ता है। सामान्य के ज्ञान का आधार भी वह प्लेटो के समान बुद्धि को ही मानता है।
परंतु अरस्तु के अनुसार प्लेटो का सबसे बड़ा दार्शनिक अपराध उनका परमार्थ और व्यवहार का द्वैतवाद है। परमार्थ और व्यवहार की कल्पना तो अपराध नहीं है। यह किसी-न-किसी रूप में स्वयं अरस्तु को भी मान्य है। किंतु परमार्थ और व्यवहार के आत्यांतिक भेद में दोष है। अरस्तु के अनुसार प्लेटो ने परमार्थ को व्यवहार से बिंदु अलग ऊपर उठा कर रख दिया है। प्लेटो ने विज्ञान/प्रत्यय जगत को इन्द्रियानुभव के वस्तु जगत से नितांत भिन्न और असम्बद्ध मान लिया है। फलतः विज्ञान जगत ही एकमात्र सत् और वस्तु जगत सर्वथा असत् बन गया है। अरस्तु भी विज्ञान/प्रत्यय को महत्वपूर्ण मानते हैं। शुद्ध सत् ही शुद्ध चित्त है। किंतु वे विज्ञान-जगत को वस्तु जगत से भिन्न न मानकर उसी में अनुचित मानते हैं। परमार्थ व्यवहार में अंतर्निहित है। परमार्थ व्यवहार के पार उससे अत्यंत भिन्न नहीं है। अतः अरस्तु के अनुसार विज्ञान का प्राधान्य होते हुए भी वस्तु जगत की सत्ता अक्षुण्ण है। अरस्तु ने प्लेटो के विज्ञानवाद के खण्डन का भी प्रयास किया है।
प्लेटो के अनुसार विज्ञान ‘सामान्य’ है। सामान्य को उन्होंने केवल हमारी बुद्धि की कल्पना नहीं माना है। वे सामान्यों का वास्तविक पदार्थ मानते हैं। किंतु उनके अनुसार सामान्यों को एक अलग ही संसार है। वस्तु जगत के पदार्थ अनित्य और असत् है, किंतु ये सामान्य नित्य और सत् हैं। ऐसा मानना प्लेटो की भूल है। सामान्य और नित्य होते हुए भी, जगत के पदार्थों से अलग नहीं रहते। ये विशेषों या पदार्थों में ही अनुगत रहते हैं। यदि सामान्यों को विशेष द्रव्यों में अनुगत न मानकर उनसे सर्वथा पृथक माना जाए, तो फिर उन वस्तुओं के भी, जिनको हम द्रव्य नहीं कहते, सामान्य मानने पड़ेंगें। फिर तो, अभावों और संबंधों को भी सामान्य मानने पड़ेंगे, जो असंगत है।
प्लेटो का विज्ञान जगत वस्तु जगत की निरर्थक पुनरावृत्ति मात्र है। सामान्यों की स्थापना प्लेटो ने वस्तुओं की सत्ता और उनके स्वरूप की संगति बताने के लिए की थी। संसार के विभिन्न पदार्थ अपने-अपने सामान्य के कारण सत् प्रतीत होते हैं। विविध मनुष्यों में ‘मानवता’ का सामान्य अनुचित है और विविध अश्वों में ‘अश्वत्व’ इत्यादि। किंतु प्लेटो इसे भूल गए और उन्होंने सामान्य के संसार को इस संसार से सर्वथा पृथक कर दिया। ऐसी दशा में सामान्यों या विज्ञानों का जगत हमारे वस्तु जगत की पुनरावृत्ति बन गया।
अरस्तु के अनुसार वस्तु-जगत के प्रत्येक तत्व में दो बातें पाई जाती हैं। एक तो उसका का द्रव्य और दूसरी उसका स्वरूप। स्वरूप तो सामान्य है जो एक जाति के सभी तत्वों में समान है। द्रव्य विशेषता का जनक है। यही एक तत्व को, जो वह है, बनाता है। परिणाम एवं गति का आधार है। विशुद्ध द्रव्य मूल प्रकृति है तथा विशुद्ध स्वरूप ईश्वर है। एक पूर्ण जड़ता तथा दूसरा पूर्ण चैतन्य। संसार की प्रत्येक वस्तु इन दोनों का सम्मिश्रण है। इस प्रकार प्लेटो एवं अरस्तु सामान्य के सत् के संबंध में विचार में अंतर का आधार सामान्य एवं विशेषों के संबंध में उनकी अलग-अलग धारणाओं के कारण हैं।
Question : प्लेटो का प्रत्यय/विज्ञान सिद्धांत।
(2000)
Answer : प्रत्यय सिद्धांत प्लेटो के दर्शन का केंद्रीय एवं महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका संबंध ज्ञान-मीमांसा एवं तत्व-मीमांसा दोनों से है। प्लेटो के अनुसार हमारा सारा ज्ञान प्रत्ययों से ही होता है। प्रत्यय ही हमारे ज्ञान के वास्तविक विषय है। इन प्रत्ययों की वास्तविक सत्ता है। प्लेटो के अनुसार वास्तविक ज्ञान वस्तुनिष्ठ, निश्चित, सार्वभौम एवं अपरिवर्तनशील होता है। ऐसी स्थिति में परिवर्तनशील प्रत्यक्ष जगत (इंद्रिय जगत) की वस्तुयें ऐसे ज्ञान का विषय नहीं हो सकतीं। ये मात्र यह प्रत्यक्ष के विषय हैं। ये आत्मनिष्ठ हैं। ज्ञान का वास्तविक विषय प्रत्यय है। ये प्रत्यय वस्तु विशेषों के सार तत्व हैं। उदाहरणस्वरूप, मनुष्यता, सौंदर्य, न्याय आदि प्लेटो के अनुसार संप्रत्ययों (मानसिक) और विशिष्ट वस्तुओं से परे कंपनी स्वतंत्र, निजी सत्ता रखते हैं। संसार में जितने प्रकार के भौतिक एवं अभौतिक पदार्थ हैं, प्रत्ययों के जगत में उतने ही प्रकार के प्रत्यय होते हैं। इन प्रत्ययों का ज्ञान अनुभव से नहीं बल्कि बौद्धिक अंतर्दृष्टि से होता है। प्लेटो का प्रत्यय सिद्धांत सुकरात के संप्रत्यय का संशोधित, परिष्कृत एवं विकसित रूप है। प्रत्यय निम्नलिखित रूप में संप्रत्यय से भिन्न हैः
Question : अरस्तु का पदार्थ सिद्धांत के लिए तर्क।
(1999)
Answer : अरस्तु का पदार्थ सिद्धांत प्लेटो के दर्शन का ही एक विकसित रूप है। अरस्तु के अनुसार सामान्य से विशेषों के उद्भव और विकास का प्रतिपादन करना दर्शन का प्रमुख व्यापार है। उसके दर्शन का प्रारंभ ही प्लेटो के प्रत्ययवाद की आलोचना से होता है। अरस्तु ने भी सामान्य को एक निरपेक्ष सत्ता माना है। किंतु उसका सामान्य विशेषे से परे नहीं, बल्कि उसमें निहित है। किसी वस्तु का सार तत्व वस्तु के बाहर नहीं होता है। सामान्य और विशेष परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। अतः अरस्तु का द्रव्य (Substonrce) सामान्य से युक्त विशेष है। द्रव्य की परिभाषा सामान्यतया इस रूप में दी जाती है-द्रव्य वह तत्व है जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है और जो अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य वस्तु पर आश्रित नहीं है।
अरस्तु के अनुसार पदार्थ वह है जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है अर्थात् जो अपनी स्थिति के लिए किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं करता। अरस्तु के अनुसार पदार्थ का प्रयोग उद्देश्य के लिए होता है, यह कभी किसी वस्तु का विधेय (Predicate) या विशेषण नहीं हो सकता। इसी आधार पर अरस्तु कहते हैं कि प्लेटो के प्रत्यय जो वस्तुतः सामान्य हैं, पदार्थ नहीं हो सकते, क्योंकि सामान्य किसी एक वर्ग विशेष की वस्तुओं से संबंधित एक विधेय मात्र है। सामान्य वस्तु-विशेषों से पृथक अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं रख सकता, जिस प्रकार ‘भारीपन’ को भारी वस्तुओं से पृथक नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार मनुष्यता को मनुष्यों से अलग नहीं किया जा सकता। अतः सामान्य पदार्थ नहीं है, क्योंकि ये वस्तु-विशेष सापेक्ष है। सामान्य की भांति विशेष को भी पदार्थ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो पूर्ण रूप से विशेष और विशेष से रहित हो। वस्तुतः सामान्य और विशेष अन्योन्याश्रित है। दोनों एक दूसरे से संबद्ध है, उन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार सोने का पीलापन, ठोसपन आदि गुण हैं, उन्हें सोने से पृथक नहीं किया जा सकता। अतः अरस्तु के अनुसार पदार्थ वस्तुतः सामान्य और विशेष दोनों का यौगिक है। यह सामान्य युक्त विशेष है। अतः प्रत्येक विशिष्ट वस्तु है। अरस्तु की यह पदार्थ संबंधी अवधारणा यथार्थवादी, अनुभववादी एवं वास्तविक हैं।
Question : प्लेटो के प्रत्यय सिद्धांत का आलोचनात्मक विश्लेषण करें।
(1998)
Answer : प्रत्यय सिद्धांत प्लेटो के दर्शन का केंद्रीय एवं महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका संबंध ज्ञान मीमांसा एवं तत्व मीमांसा दोनों से है। प्लेटो के अनुसार हमारा सारा ज्ञान प्रत्ययों से ही होता है। प्रत्यय ही हमारे ज्ञान के वास्तविक विषय हैं। इन प्रत्ययों की वास्तविक सत्ता है। प्लेटो के अनुसार वास्तविक ज्ञान वस्तुनिष्ठ, निश्चित, सार्वभौम एवं अपरिवर्तनशील होता है। ऐसी स्थिति में परिवर्तनशील प्रत्यक्ष जगत (इंद्रिय जगत) की वस्तुयें ऐसे ज्ञान का विषय नहीं हो सकतीं। ये मत या प्रत्यक्ष के विषय हैं, ये आत्मनिष्ठ हैं। ज्ञान का वास्तविक विषय प्रत्यय है। ये प्रत्यय वस्तु-विशेषों के सार तत्व हैं। उदाहरणस्वरूप, मनुष्यता, सौंदर्य, न्याय, आदि प्लेटो के अनुसार संप्रत्ययों एवं विशिष्ट वस्तुओं से परे अपनी स्वतंत्र निजी सत्ता रखते हैं। संसार में जितने प्रकार के भौतिक एवं अभौतिक पदार्थ हैं, प्रत्ययों के जगत में उतने ही प्रकार के प्रत्यय होते हैं। इन प्रत्ययों का ज्ञान अनुभव से नहीं बल्कि बौद्धिक अंतर्दृष्टि से होता है।
प्लेटो का प्रत्यय सिद्धांत सुकरात के समप्रत्यय का संशोधित, परिष्कृत एवं विकसित रूप है। प्रत्यय निम्नलिखित रूप में संप्रत्यय से भिन्न हैः
(i)सुकरात के अनुसार संप्रत्यय मानसिक हैं जबकि प्लेटो के अनुसार प्रत्ययों की वास्तविक सत्ता है।
(ii)सुकरात ने शुभ के निरपेक्ष प्रत्यय की ओर संकेत मात्र किया है किंतु प्लेटो के दर्शन में परम शुभ के स्वरूप का उपमा एवं रूपकों के माध्यम से वर्णन करने का प्रयास किया गया है।
(iii)सुकरात यह नहीं बताते हैं कि अन्य प्रत्यय शुभ से किस प्रकार संबंधित है। प्लेटो ने अपने प्रत्यय सिद्धांत में इसे बताने का प्रयास किया है। उन्होंने इस संदर्भ में प्रत्ययों के एक सुसम्बद्धशृंखला का निरूपण किया है। इनके अनुसार सभी प्रत्यय शुभ की अभिव्यक्तियां हैं और इसी कारण उन सबका अस्तित्व है।
प्लेटो के अनुसार प्रत्यय अतीन्द्रिय वास्तविकता का निर्धारण प्लेटो संवादिता सिद्धांत के आधार पर करते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार ज्ञान विचारों एवं वस्तुओं की यथार्थ संगति का परिणाम है। प्लेटो इसे एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हैं। यदि किसी से यह पूछा जाए कि सौन्दर्य क्या है? तो वह सौन्दर्य के विभिन्न उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कह सकता है कि जैसे कमल का फूल, घड़ी, मकान आदि सुंदर हैं। यहां इन तीनों में सुंदरता विद्यमान है। इन तीनों में सौंदर्य के ज्ञान के लिए समानता का ज्ञान होना आवश्यक है। समानता के निर्धारण के लिए तुलना आवश्यक है। तुलना तभी कर सकती है जब वहां दो चीजे उपलब्ध हों-सामग्री तथा मापदण्ड।
प्लेटो के अनुसार सामग्री तो अनुभव से मिल जाती है परंतु मापदण्ड बुद्धि द्वारा उद्बोधित होता है। चूंकि यह मापदण्ड सभी व्यक्तियों में जन्म से ही अनिवार्यतः विद्यमान रहता है। इसलिए इस पर आधारित ज्ञान सार्वभौम एवं अपरिवर्तनशील होता है। ऐसे ज्ञान का अनुस्मरण होता है। यहां प्लेटो इन प्रत्ययों को सोफिस्टों के सापेक्षवाद, आत्मनिष्टता एवं कल्पनाशीलता से बचाने के लिए उसकी वस्तुगत एवं स्वतंत्र निजी सत्ता को स्वीकार करते हैं। हमारे मन में स्थित सौंदर्य का प्रत्यय उस बाह्य वस्तु (सौंदर्य) का ही प्रतिबिम्ब मात्र है।
प्लेटो के प्रत्यय सिद्धांत पर पांच दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। सत्ता के दृष्टिकोण से प्रत्यय की ही अंतिम सत्ता है। वे सत् रूप हैं। ये प्रत्यय अपने वर्ग की वस्तुओं के सार तत्व हैं। फिर भी वस्तु विशेषों से इनकी पृथक स्वतंत्र सत्ता है। देश और काल में ये अस्तित्ववान नहीं हैं।
प्रयोजन की दृष्टि से प्रत्यय नित्य सांचे हैं। इनकी सहायता से ईश्वर इंद्रिय जगत की वस्तुओं को निर्मित करता है। तार्किक दृष्टि से प्रत्यय सामान्य है, सार तत्व स्वरूप है। किसी एक वर्ग के सभी वस्तु विशेषों में कोई एक ही सामान्य रहता है। सामान्य के कारण ही एक वर्ग की वस्तु को दूसरे वर्ग की वस्तुओं से पृथक किया जाता है। ज्ञान मीमांसीय दृष्टिकोण से प्रत्यय ही ज्ञान के वास्तविक विषय हैं। इंद्रिय जगत की वस्तुयें ज्ञान की वास्तविक विषय-वस्तु नहीं हैं, क्योंकि वे अनित्य क्षणभंगुर एवं जीवित हैं। वे ज्ञान के नहीं अपितु मत के विषय हैं। रहस्यात्मक दृष्टिकोण से प्रत्यय शुभ की अभिव्यक्तियां है। इन विभिन्न प्रत्ययों में एक तारतम्यता है। जिनमें परम शुभ का प्रत्यय सर्वोच्च स्तर पर है।
प्लेटो के अनुसार प्रत्यय जगत और लौकिक जगत में निम्नलिखित अंतर है- प्रत्यय जगत सत्, नित्य, चित्र रूप, सामान्य, मूल तत्व एवं पूर्ण है, परंतु लौकिक जगत अर्द्ध सत्, अर्द्ध असत्, अनित्य, जड़ रूप, विशेष, अनुकृति एवं अपूर्ण हैं।
प्लेटो के प्रत्यय सिद्धांत की अरस्तु द्वारा आलोचना की गयी है। अरस्तु के अनुसार प्लेटो ने प्रत्ययों को जिस रूप में स्वीकार किया है उसे उस रूप में स्वीकार करने पर मुख्यतः दो समस्यायें उत्पन्न होती हैं। इससे जगत की वस्तुओं के अस्तित्व एवं उनकी उत्पत्ति की व्याख्या नहीं हो पाती। पुनः प्रत्ययों एवं वस्तुओं के मध्य संबंध की भी व्याख्या नहीं हो पाती है। प्रत्यय सामान्य हैं, जबकि वस्तुयें विशेष हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना कि विशेष सामान्य की प्रतिकृति है, स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि वस्तु-विशेष प्रत्यय जगत में भाग लेती है तो फिर ऐसी स्थिति में या तो प्रत्यय जगत की स्वतंत्रता खण्डित होती है या फिर प्रत्यय जगत लौकिक वस्तुओं से सापेक्षित हो जाता है या दोनों का भेद समाप्त हो जाता है। पुनः अरस्तु का कथन है कि प्रत्यय, नित्य एवं अपरिवर्तनशील है। ऐसी स्थिति में इनके आधार पर विश्व की वस्तुओं की अनित्यता एवं परिवर्तनशीलता की तर्कतः व्याख्या नहीं की जा सकती।
प्लेटो के अनुसार प्रत्यय वस्तुओं के सार तत्व हैं। इस पर अरस्तु का आक्षेप है कि यदि प्रत्यय या सामान्य को वस्तु विशेषों से पृथक कर दिया जाए तो वस्तु विशेषों का स्वरूप नष्ट होने लगता है। अरस्तु के अनुसार प्लेटो के प्रत्ययवाद में तृतीय मनुष्यमूलक दोष है। प्लेटो के अनुसार एक ही वर्ग की सभी वस्तुओं में समानता या सादृश्यता का कारण उस सभी का एक ही प्रत्यय की अनुकृति होना है। अरस्तु के अनुसार एक ही प्रकार की वस्तुओं और उस प्रत्यय में भी सादृश्यता का होना आवश्यक है। इस सादृश्यता की व्याख्या के लिए किसी तीसरे प्रत्यय की व्याख्या करनी होगी और इस प्रकार यहां अनावस्था दोष की उत्पत्ति होती है। परंतु अरस्तु द्वारा दी गयी आलोचना प्लेटो के अप्रत्यय संबंधी अवधारणा के गलत समझ के कारण संतोषजनक नहीं है।