Question : स्ट्रॉसन के व्यक्ति-सिद्धान्त का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : साधारण भाषा दार्शनिक स्ट्रासन Individuals में यह मानते हैं कि वर्णनात्मक तत्वमीमांसा सम्भव है। वर्णनात्मक तत्वमीमांसा जगत के सम्बन्ध में हमारे विचारों की संरचना का वर्णन करता है। इस वर्णनात्मक तत्वमीमांसा के विवेचन के क्रम में ही पुरुष सिद्धान्त (व्यक्ति सिद्धान्त)की अवधारणा उभरकर सामने आती हैै। इस सिद्धान्त का सम्बन्ध पुरुष के अभिज्ञान से है। इसकी चर्चा Individuals के तीसरे अध्याय में करते हैं। यहां स्ट्रॉसन व्यक्ति के सम्बन्ध में यह बताना चाहते हैं किः
व्यक्ति का सम्प्रत्यय क्या है? व्यक्ति के सम्प्रत्यय को हम किस अर्थ में प्रयुक्त करते हैं?स्ट्रॉसन कहते हैं कि अपने उपर कई प्रकार के गुणों या विशेषताओं का आरोपण करते हैं। हम अपने उपर चेतन गुणों का भी। जैसे- हम अपने उपर संवेदना, अनुभूति, विचार, इच्छा आदि चेतन गुणों का आरोपण करते हैं। मैं प्रसन्न हूं, मैं दर्द में हूं आदि ऐसे चेतन गुणों का आरोपण केवल प्राणियों पर ही होता है।
पुनः हम अपने ऊपर अचेतन गुणों का भी आरोपण करते हैं। ऐसे गुणों के आरोपण के दो आयाम होते हैं। इसे हम अपने उपर भी आरोपित करते हैं और भौतिक वस्तुओं के ऊपर भी। जैसे मैं छः फीट लम्बा हूं। वस्तु छह फीट लम्बी है।
यहां इन भौतिक गुणों के आरोपण को लेकर समस्या नहीं है। यहां समस्या तब उत्पन्न होती है, जब चेतन गुणों या अवस्थाओं की बात की जाती है। यहां दो प्रश्न प्रबल रूप से उभरकर सामने आते हैं:
स्ट्रॉसन का कहना है कि व्यक्ति के सम्प्रत्यय की व्याख्या इन दोनों प्रश्नों का उत्तर देकर ही किया जा सकता है। परन्तु इन दोनों प्रश्नों का उत्तर देने से पहले स्ट्रासन पूर्व के दो मतों की समीक्षा करते हैं:
एक विशेष संदर्भ में विटगन्सटाईन ने तथा एक विशेष संदर्भ में एम-स्लिक ने इसे माना था। ह्यूम को भी इस मत का समर्थक
माना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार दोनों प्रश्न गलत हैं। अनुभव या चेतन अवस्थाओं का कोई विषय या स्वामी नहीं होता। अस्वामित्व-सिद्धान्त के अनुसार स्वामित्व की बात समर्थक रूप से वही हो सकती हैं। जहां हस्तान्तरण सम्भव हो, परन्तु चेतन अवस्थाओं का हस्तान्तरण नही हो सकता, क्योंकि दर्द होने पर वह उसका हस्तांतरण दूसरे को नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति को दर्द का स्वामी नहीं कहा जा सकता। यही बात सभी मानसिक सम्प्रत्ययों के लिए लागू होती है।
स्ट्रॉसन का कहना है कि अस्वामित्व सिद्धान्त को मानने पर एक ही व्यक्ति की विभिन्न अनुभूतियों के बीच भेद या अन्तर नहीं किया सकता, इस सिद्धान्त में यह मान लिया गया है कि अनुभव कारणात्मक रूप से शरीर पर निर्भर है। यहां प्रश्न है कि हम इस स्थिति का वर्णन किस प्रकार कर सकते हैं। यदि यह कहा जाए कि सभी अनुभव किसी एक शरीर पर निर्भर है तो यह असत्य होगा। सभी अनुभव किसी एक शरीर पर निर्भर नहीं हो सकते।
यदि यह कहा जाए कि मेरा अनुभव मेरे शरीर पर निर्भर है, तो ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि यहां ‘मेरा’ शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया जा रहा है। यहां मेरा का प्रयोग उसी तार्किक सम्बन्ध में किया जा रहा है, जिसका यहां खण्डन किया गया है। यदि अनुभव का कोई विषयी नहीं है तो फिर ‘मेरा अनुभव’ का कोई अर्थ नहीं होगा और जब ‘मेरा अनुभव’ का कोई प्रयोग नहीं किया जाएगा तो फिर इस सिद्धान्त को व्यक्त नहीं किया जा सकता। पुनः देकार्त के अनुसार चेतन अवस्थाओं या अनुभव का स्वामी मन या आत्मा है। द्वैतवादी देकार्त के अनुसार दूसरा प्रश्न गलत है। इनके अनुसार चेतन एवं अचेतन गुणों का आरोपण एक ही विषय पर नहीं होता।
व्यक्ति मन एवं शरीर रूपी दो परस्पर भिन्न द्रव्यों का समन्वय है। यहां चेतन गुणों का आरोपण मन पर होता है, जबकि भौतिक
गुण (विस्तार आदि) शरीर से सम्बन्धित है। परन्तु स्ट्रॉसन का कहना है कि यदि देकार्त के मत को स्वीकार किया जाए जो हमारी सारी अनुभूतियां वैयक्तिक हो जायेंगी। अनुभूतियों के वैयक्तिक होने पर ‘मैं दर्द में हूं’ यह कोई अन्य व्यक्ति नहीं समझ सकता और उसे दर्द हो रहा है, इसे मैं नहीं समझ सकता क्योंकि हम दर्द को शरीर के लक्षणों के आधार पर समझ सकते हैं, जबकि यहां यह प्रश्न कहा गया है कि दर्द (चेतन स्थिति) का सम्बन्ध आत्मा या मन से है, शरीर से नहीं।
इस प्रकार स्ट्रॉसन दोनों मतों की समीक्षा करने के पश्चात अपना मत प्रस्तुत करते हैं। स्ट्रॉसन के अनुसार व्यक्ति का सम्प्रत्यय एक मौलिक सम्प्रत्यय है। यहां मौलिक सम्प्रत्यय कहने का आशय है कि-
स्ट्रॉसन के अनुसार व्यक्ति चेतन सम्प्रत्यय ऐसा सम्प्रत्यय है जिस पर दो स्थितियों-
दोनों का आरोपण एक साथ किया जाता है। इन विधेयों का प्रयोग चेतन व्यक्ति के साथ-साथ जड़ वस्तुओं के लिए भी होता है। जिन्हें M-PREDICATE कहा जाता है। जिन विधेयों का प्रयोग केवल व्यक्ति के लिए होता है। वस्तुओं के लिए नहीं, उन्हें P-PERDICATE कहा जाता है। यहां उल्लेखनीय है कि व्यक्ति हो चेतन गुणों का स्वामी है और न ही भौतिक गुणों का अधिष्ठान मात्रा पुनः इसे दोनों का योग भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जहां योग होता है वहां पृथकता सम्भव है। परन्तु व्यक्ति के लिए P-PREDICATE और M-PREDICATE दोनों का साथ-साथ होना आवश्यक है।
यहां P- PREDICATEके आरोपण को लेकर कुछ दार्शनिक ने प्रश्न उठाए हैं। यदि यहां यह कहा जाए कि में ‘मै दर्द में हूं’ तथा वह दर्द में है, तो इन दोनों स्थितियों में यद्यपि चेतन गुणों को आरोपण किया जा रहा है। परन्तु पहली स्थिति साक्षात है, जबकि दूसरी की अनूभूति को ज्ञान उसके शारीरिक हाव-भाव को देखकर किया जाता है, इससे यह धारणा प्रबल होती है कि चेतन स्थितियों के आरोपण को मापदण्ड की प्रक्रिया सही नहीं है।
हम चेतन स्थितियों का आरोपण अपने और दूसरों के लिए अलग-अलग आधारों पर करते हैं। इसपर स्ट्रासन का कहना है कि यद्यपि हम चेतन स्थितियों का प्रयोग अपने लिए और दूसरों के लिए अलग-अलग आधारों पर करते हैं, परन्तु यहां चेतन स्थितियों के अर्थ को लेकर अन्तर नहीं है। कोई साधारण व्यक्ति भी ‘दर्द’ शब्द के दो अर्थ को स्वीकार नहीं करता। यहां केवल प्रयोग की भिन्नता है, अर्थ की दृष्टि से एकरूपता है।
स्ट्रॉसन अन्त में कहते हैं कि व्यक्ति के सम्प्रत्यय को आद्य-अवधारणा के रूप में स्वीकार कर ही मन और शरीर के सम्बन्धित वैचारिक व्यवस्थाएं आगे बढ़ती हैं।
Question : क्वाइन का विश्लेषी-संश्लेषी विभेद पर प्रहार।
(2002)
Answer : क्वाइन अनुभववादी हैं, क्योंकि वे ज्ञान के स्रोत के रूप में अनुभव को स्वीकार करते हैं, साथ ही वे भाषा और अर्थ की व्याख्या भी अनुभव के आधार पर करते हैं। परंतु क्वाइन का अनुभववाद पुराने अनुभववादियों (लॉक, बर्कले, "यूम आदि मनोवैज्ञानिक अनुभववादी) तथा तार्किक अनुभववादियों से कई बातों में मौलिक रूप से भिन्न है। क्वाइन के अनुसार अनुभववाद के दो मताग्रह हैः
(i)संश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक कथनों में अंतर
(ii)वस्तु संबंधी कथनों को इंद्रिय-संवेदनाओं के कथनों में रूपांतरित किया जा सकता है।
क्वाइन के अनुसार संश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक कथनों में केवल मात्रत्मक भेद है, इसमें कोई अत्यांतिक या श्रेणीगत भेद नहीं है। दोनों अनुभवगम्य हैं। उल्लेखनीय है कि पुराने अनुभववादियों ने अस्पष्ट रूप से और नये अनुभववादियों ने स्पष्ट रूप से संश्लेषणात्मक तथा विश्लेषणात्मक कथनों में भेद माना था। क्वाइन के अनुसार विश्लेषणात्मक की जो परिभाषा दी गई है उसमें या तो चक्रक दोष है या जिसके आधार पर विश्लेषणात्मकता की व्याख्या की जाती है, वह स्वयं स्पष्ट नहीं है। क्वाइन के अनुसार विश्लेषणात्मक कथन ऐसे कथन के रूप में माने गए मों, जिनमें प्रयुक्त शब्द पर्यायवाची होते हैं। पुनः दो शब्द पर्यायवाची तभी माने जाते हैं, जब उन्हें एक ही प्रतिज्ञप्ति में प्रयुक्त करने पर वह प्रतिज्ञप्ति विश्लेषणात्मक हो जाती है। स्पष्ट है कि यहां विश्लेषणात्मकता की व्याख्या पर्यायवाचकता के द्वारा और पर्यायवाचकता की व्याख्या विश्लेषणात्मकता के द्वारा की जा रही है, इसमें चक्रक दोष है। तार्किक भाववादियों का मानना है कि विश्लेषणात्मक कथनों में कोई इंद्रिय संवेदना नहीं होती। क्वाइन के अनुसार विश्लेषणात्मक कथनों में भी उत्तेजनात्मक विश्लेषणात्मकता होती है। इसी आधार पर क्वाइन कहते हैं कि विश्लेषणात्मक कथनों में अनुभव का तत्व होता है। क्वाइन के अनुसार हमारा सारा ज्ञान अनुभव निर्मित ढांचा है, जो विश्लेषणात्मक कथन है, वे सीधे-सीधे अनुभव से संबंधित नहीं हैं। वे केवल संश्लेषणात्मक कथनों की अपेक्षा अनुभव से दूर है। जो कथन सीधे-सीधे अनुभव पर आधारित है वह संश्लेषणात्मक है और जो अनुभव से दूर से जुड़ा है वह विश्लेषणात्मक कथन है। दूसरे शब्दों में जो कथन अनुभव की परिधि को स्पर्श करते हैं वे विश्लेषणात्मक हैं। स्पष्ट है कि दोनों प्रकार के कथन आनुभविक ही है। दोनों में कोई निरपेक्ष भेद आत्यांतिक भेद या प्रकारगत भेद नहीं हैं, इनमें केवल मात्रत्मक भेद है।
Question : प्राग्नुभविक प्रतिज्ञप्ति के भाषाई सिद्धांत की क्वाइन की मीमांसा का विवेचन कीजिए।
(2001)
Answer : क्वाइन भी एक अनुभववादी है, परंतु क्वाइन का अनुभववाद का तार्किक भाववाद (जो एक प्रकार का अनुभववाद ही है) से विरोध है। तार्किक भाववाद के अनुसार हमारे संपूर्ण ज्ञान का एकमात्र स्रोत इंद्रियानुभव है। अनुभवाश्रित ज्ञान सापेक्षिक एवं संभाव्य होता है, किंतु अनिवार्य नहीं होता। तार्किक भाववादी विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक कथनों में अंतर करते हैं। विश्लेषणात्मक वाक्य पुनरूक्ति होती है, जबकि संश्लेषणात्मक कथन तथ्यात्मक, अर्थात् विश्लेषणात्मक कथन अनिवार्य रूप से सत्य होते हैं, परंतु संश्लेषणात्मक कथन संभाव्य होते हैं। परन्तु क्वाइन ने भाषा के एक नये दृष्टिकोण पर विचार किया है। क्वाइन के अनुसार अर्थ अलग से कोई वस्तु नहीं है। यहां दो चीजे महत्वपूर्ण हैं:
ये परिस्थितियों ऐसी होती है, जो हमारी इंद्रियों को प्रभावित करती हैं और जिन्हें हम समझ सकते हैं। इस प्रकार क्वाइन परिस्थितियों से मिलने वाली उत्तेजना तथा उस उत्तेजना के फलस्वरूप होने वाली भाषायी व्यवहार, इन दो पक्षों का विश्लेषण अपने आमूल अनुभववाद में करते हैं। क्वाइन के अनुसार बाह्य जगत का ज्ञान वस्तुओं द्वारा इंद्रियों के समझ उत्पन्न उत्तेजनाओं के माध्यम से करते हैं। भाषा वाक्यों और शब्दों का अर्थ इन उत्तेजनाओं से संबंधित होता है। क्वाइन यहां यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि हमारी संपूर्ण भाषा किसी न किसी तरह उत्तेजनाओं से संबंधित होते है। इनमें कुछ प्रत्यक्षतः उत्तेजनाओं से संबंधित होती हैं और कुछ परोक्ष रूप से संबंधित होती हैं। अपने आमूल अनुभवाद में क्वाइन यही दिखाने का प्रयास करते हैं कि उत्तेजनाओं के आधार पर अर्थ के कितने भागों को व्याख्यायित किया जाता है और कितना भाग उससे सापेक्षित रूप से संबंधित होकर भी स्वतंत्र हो जाता है।
क्वाइन का मानना है कि अनुभववाद के दो प्रकार मताग्रह हैः
क्वाइन के अनुसार विश्लेषणात्मकता की जो परिभाषा दी गई हैं, उसमें या तो चक्रक दोष है या जिसके आधार पर विश्लेषणात्मकता की व्याख्या की जाती है, वह स्वयं स्पष्ट नहीं है। क्वाईन के अनुसार विश्लेषाणात्मक कथन ऐसे कथन के रूप में माने गए हैं। जिनमें प्रयुक्त शब्द पर्यायवाची होते हैं। पुनः दो शब्द पर्यायवाची तभी माने जाते हैं, जब उन्हें एक ही प्रतिज्ञप्ति में प्रयुक्त करने पर वह प्रतिज्ञप्ति विश्लेषणात्मक हो जाती है। स्पष्ट है कि यहां विश्लेषणात्मक की व्याख्या पर्यायवाचकता के द्वारा और पर्यायवाचकता की व्याख्या विश्लेषणात्मकता के द्वारा की जा रही है, इसमें चक्रक दोष है।
तार्किक भाववादियों का मानना है कि विश्लेषणात्मक कथनों में कोई इन्द्रिय-संवेदना नहीं होती। क्वाइन के अनुसार विश्लेषणात्मक कथनों में भी उत्तेजनात्मक विश्लेषणात्मकता होती है। इसी आधार पर क्वाइन कहते हैं कि विश्लेषणात्मक कथनों में अनुभव का तत्व होता है। क्वाइन के अनुसार हमारा सारा ज्ञान अनुभव निर्मित ढाँचा है। जो कथन विश्लेषणात्मक हैं, वे सीधे-सीधे अनुभव से सम्बन्धित नहीं हैं। वे संश्लेषणात्मक कथनों की अपेक्षा अनुभव से दूर हैं। दूसरे शब्दों में जो कथन अनुभव की परिधि को स्पर्श करते हैं, वे विश्लेषणात्मक हैं, और जो केन्द्र को स्पर्श करते हैं वे संश्लेषणात्मक हैं।
पुनः क्वाइन के अनुसार वस्तु सम्बन्धी कथनों से इन्द्रिय संवेदनाओं के कथनों में रूपांन्तरित नहीं किया जा सकता है। क्वाइन के अनुसार हमारा सारा ज्ञान तभी उत्पन्न होता है जब वस्तुएं हमारी इन्द्रियों पर प्रतिक्रिया करती हैं। जैसे- जब हम मेज का ज्ञान प्राप्त करते हैं, तब पहले प्रकाश की किरणें मेज से परावर्तित होकर हमारी रेटिना को प्रभावित करती है। उसी तरह के सिद्धान्त अन्य इन्द्रियों के सभी भी सम्बन्ध हैं। स्पष्ट है कि हमें आरम्भ में वस्तुओं के द्वारा उत्तजनायें मिलती है जिन्हें 'input' कहा जाता है। उनपर हम शारीरिक या वाचिक प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया input से अधिक और विविध रूपों में होती है। और इसी आधार पर जगत की व्याख्या भी करते हैं। इस input की व्याख्या करने के लिए तरह-तरह की वस्तुओं को जानते हैं और इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त विकसित करते हैं। स्पष्ट है कि अनुभव की व्याख्या करने के लिए वस्तुओं को मानना पड़ेगा, उनका सहारा लेना पड़ेगा। केवल इन्द्रिय संवेदन के स्तर पर वस्तुओं का समुचित संगठन नहीं किया जा सकता। अतः वस्तु ही मूल इकाई है, संवेदना नहीं। ऐसी स्थिति में वस्तु सम्बन्धी कथनों को इन्द्रिय-संवेदनाओं के कथनों में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता। यदि वस्तुओं को न माना जाए तो फिर संवेदनाओं में न कोई स्थायित्व रहेगा और न कोई ज्ञान सम्भव हो पाएगा।
क्वाइन अर्थ के स्वरूप के निर्धारण के सम्बन्ध में सम्पूर्णतावादी सिद्धान्त को मानते हैं। इनके अनुसार किसी वाक्य का सत्यापन अन्य वाक्यों के संदर्भ में ही हो सकता है। परन्तु ऐसा मानना असंगत है। आधुनिक विचारकों के अनुसार, शब्दों एवं वाक्यों को सीखने के लिए तथा उसके तात्पर्य के निर्धारण के लिए उसे समग्रता से पृथक करना आवश्यक है। अन्यथा न तो हम भाषा सीख पाएंगे और न ही उसकी व्याख्या कर पाएगें। पुनः क्वाइन तार्किक असंभावना एवं प्राकृतिक असंभावना के मध्य भेद नहीं करते हैं। उदाहरण से इसकी स्पष्ट पुष्टि हो जाती है। जैसेः
‘मेरे पड़ोसी का तीन वर्ष का बालक प्रौढ़ है’
मेरे पड़ोसी का तीन वर्ष का बालक रसेल के सिद्धान्त को जानता है।
पहले में जहां तार्किक असम्भावना है, वहीं दूसरे वाक्य में प्राकृतिक असम्भावना है। पुनः क्वाइन गणित और व्यावहारिक गणित के अन्तर को स्पष्ट नहीं करते है। शुद्ध गणित को अनुभव के आधार पर गलत सिद्ध नहीं किया जा सकता।
यद्यपि क्वाइन का सिद्धान्त पूर्णतया त्रुटिरहित नहीं है, फिर भी उसकी महत्ता है। वैज्ञानिक सिद्धान्तों को सम्यकरूपेण समझने के लिए तथा उसे एक नवीन दिशा देने के संदर्भ में क्वाइन का महत्वपूर्ण योगदान है। क्वाइन ने आनुभविक ज्ञान को व्यापकता प्रदान की और तत्वमीमांसा को भी उसमें सम्मिलित कर लिया।
Question : व्यक्ति का सिद्धांत।
(1998)
Answer : स्ट्रॉसन के अनुसार व्यक्ति का संप्रत्यय एक मौलिक संप्रत्यय है। यहां मौलिक संप्रत्यय कहने का आशय है कि-
(i)किसी अन्य संप्रत्ययों के आधार पर इनकी संरचना, निर्माण या व्याख्या नहीं की जा सकती।
(ii)इसे मूल इकाई के रूप में स्वीकार कर ही हम मानवीय आचरण और गतिविधियों की सार्वजनिक व्याख्या कर सकते हैं।
स्ट्रॉसन के अनुसार व्यक्ति का संप्रत्यय ऐसा संप्रत्यय है, जिसपर दो स्थितियों-
(iii)चेतन स्थितियों (P-PREDICATE) और
(ii)अचेतन स्थितियों (M-PREDICATE) दो का आरोपण एक साथ किया जाता है। विधेयों का प्रयोग चेतन व्यक्ति के साथ-साथ जड़ वस्तुओं के लिए भी होता है, जिन्हें (M-PREDICATE) कहा जाता है। जिन विधेयों का प्रयोग केवल व्यक्ति के लिए होता है, वस्तुओं के लिए नहीं, उन्हें P-PREDICATE कहा जाता है। यहां उल्लेखनीय है कि व्यक्ति न तो चेतन गुणों का स्वामी है और न ही भौतिक गुणों का अधिष्ठान मात्र है। पुनः इसे दोनों का योग भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जहां योग वहां पृथकता संभव है, परंतु व्यक्ति के लिए P-PREDICATE और M-PREDICATE दोनों का साथ-साथ होना आवश्यक है।
यहां P-PREDICATE के आरोपण को लेकर दार्शनिकों ने प्रश्न उठाये हैं। यदि यहां यह कहा जाए कि ‘मैं दर्द में हूं’ तथावह ‘दर्द में है’ तो इन दोनों स्थितियों में यद्यपि चेतन गुणों का आरोपण किया जा रहा है, परंतु पहली स्थिति साक्षात है, जबकि दूसरी की अनुभूति का ज्ञान उसके शारीरिक हाव-भाव को देखकर किया जाता है, जिससे यह धारणा प्रबल हो जाती है कि चेतन स्थितियों के आरोपण के मापदण्ड की प्रक्रिया सही नहीं है। हम चेतन स्थितियों का आरोपण अपने और दूसरों के लिए अलग-अलग आधारों पर करते हैं। इस पर स्ट्रॉसन का कहना है कि यद्यपि इस चेतन स्थितियों का प्रयोग अपने लिए और दूसरों के लिए अलग-अलग आधारों पर करते हैं, परंतु यहां चेतन स्थितियों के अर्थ को स्वीकार नहीं करता। यहां केवल प्रयोग की भिन्नता है, अर्थ की दृष्टि से एकरूपता है। स्ट्रॉसन अंत में कहते हैं कि व्यक्ति के संप्रत्यय को आद्य-अवधारणा के रूप में स्वीकार कर ही मन और शरीर से संबंधित वैचारिक व्यवस्थायें आगे बढ़ती है।
Question : "अमरता चेतन शरीर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।"
(1998)
Answer : आत्मा के सम्बन्ध में चार्वाक दर्शन का विचार अन्यान्य भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों से भिन्न है। वस्तुतः चार्वाक दर्शन की तत्त्वमीमांसा उसकी ज्ञान मीमांसा की उपसिद्धि है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन में यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में एकमात्र प्रत्यक्ष प्रमाण की वैधता स्वीकार की गयी है। इस प्रत्यक्षवादी ज्ञान सिद्वांत के आधार पर चार्वाक दार्शनिक केवल उन्हीं तत्वों की सत्ता स्वीकार करते हैं, जिनका प्रत्यक्ष होता है। जिन तत्वों का किसी रूप में प्रत्यक्ष नहीं होता है, वे उनकी सत्ता को स्वीकार नहीं करते हैं। वे ज्ञान-सिद्धांत की इसी पृष्ठभूमि में केवल जड़ तत्व या भौतिक पदार्थ की ही सत्ता स्वीकार करते हैं, क्योंकि केवल उसी का प्रत्यक्ष होता है। वे ईश्वर, आत्मा, जीवन की नित्यता आदि अतीन्द्रिय विषयों का प्रत्यक्ष न होने के कारण उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करते। अतः चार्वाक दर्शन में शरीर से भिन्न एक नित्य सत्ता के रूप में आत्मा का निषेध प्राप्त होता है। वस्तुतः चार्वाक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं करता। वह केवल आत्मा के परमार्थिक एवं अभौतिक स्वरूप, उसकी अजरता, अमरता, कूट स्थनित्यता और अपरिवर्तनशीलता को अस्वीकार करता है। उसके अनुसार प्रत्यक्ष से आत्मा नामक किसी अभौतिक तत्व का ज्ञान नहीं होता, जिसका स्वरूप अथवा लक्षण चैतन्य है। चार्वाक दर्शन के अनुसार शरीर से भिन्न किसी पृथक आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। शरीर का चेतना से युक्त होना ही आत्मतत्त्व कहलाने के लिए पर्याप्त है। हमें प्रत्यक्ष से केवल अपने शरीर का ज्ञान होता है, जो अन्य सांसारिक वस्तुओं के समान चार भूतों से उत्पन्न है। चैतन्य का प्रत्यक्ष भी शरीर के अन्तर्गत होता है। अतः चेतना से विशिष्ट शरीर ही आत्मा है। व्यक्ति प्रत्यक्ष के आधार पर भी शरीर और आत्मा के तादात्म्य का अनुभव करता है। मैं कृश हूँ, मै स्थूल हूं, मैं सुखी हूँ- ये कथन मैं (आत्मा) और शरीर के तादात्म्य का ही बोध कराते हैं। यदि आत्मा को शरीर से भिन्न कोई अभौतिक पदार्थ स्वीकार किया जाए तो इन वाक्यों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस प्रकार चार्वाक दार्शनिक जड़ तत्वों के आधार पर हीं आत्मा की व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार जड़ तत्वों से शरीर भी उत्पन्न होता है और उसमें पाया जानेवाला चैतन्य भी। जिस प्रकार पान, सुपारी, कत्था और चूना को एक साथ चबाने से लाल रंग की उत्पत्ति होती है, यद्यपि कि उसमें लाल रंग नहीं है, उसी प्रकार जड़ तत्वों के विशेष सम्मिश्रण से चेतना उत्पन्न होती है। तात्पर्य यह है कि चार्वाक विचारधारा में आत्मा एक भौतिक तत्त्व है और उसके धटक-शरीर एवं उसमें पाया जानेवाला चैतन्य जड़ तत्वों से ही उत्पन्न होते हैं। पुनः यदि चेतन शरीर ही आत्मा है, इससे भिन्न कोई आत्मा नहीं है, तो आत्मा की अमरता सम्भव नहीं। शरीर के अवसान के साथ आत्मा भी नष्ट हो जाती है। चार्वाक द्वारा आत्मा तत्व के निषेध ने तीव्र विवाद को जन्म दिया। शरीर चेतना की अभिव्यक्ति का उपकरण मात्र है। पुनः यदि चेतना शरीर का आवश्यक गुण होती तो उसे शरीर से अवियोज्य होना चाहिए, पर मूर्छा की स्थिति में ऐसा नहीं होता। यदि चेतना शरीर का धर्म होती तो उसका वैसा ही ज्ञान दूसरों को भी होना चाहिए। परन्तु चेतना तो निजी गुण है।