Question : संश्लिष्ट प्राग्नुभविक निर्णय किस प्रकार संभव है?
(2007)
Answer : कांट के Critique of pure Reasonका मुख्य उद्देश्य संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णयों की व्याख्या करना है। कांट यथार्थ ज्ञान की कसौटी के रूप में अनिवार्यता और सार्वभौमता के साथ-साथ नवीनता को भी स्वीकार करते हैं। ज्ञान के सम्बन्ध में कांट अपने पूर्ववर्ती विचारधाराओं, अनुभववाद और बुद्धिवाद की मान्यताओं का खण्डन करते हैं। वे उन्हें एकांगी मानते हैं। बुद्धिवादी ज्ञान में अनिवार्यता एव सार्वभौमता को स्वीकार करते हैं। परन्तु वहां नवीनता नहीं होती, क्योंकि प्रत्यय जन्मजात है। दूसरी ओर अनुभववाद ज्ञान में नवीनता के स्वीकार करते हैं। परन्तु वहां अनिवार्यता एवं सार्वभौमता नहीं है। कांट इन दोनो पक्षों को समन्वित करते हुए ज्ञान को संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णय का तात्पर्य है कि इसमें (i) विधेय उद्देश्य में सम्मिलित नहीं होती (ii) साथ ही उसकी प्रामाणिकता अनुभव पर आधारित नहीं होती। कांट के अनुसार गणित एवं भौतिकी में संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णय संभव है। गणित में 7 + 5 = 12 के उदाहरण में ‘7 + 5’ उद्देश्य है, जबकि ‘12’ विधेय है। कांट के अनुसार यहां विधेय उद्देश्य में निहित नहीं है। यह उद्देश्य के सम्बन्ध में एक नवीन जानकारी है। ‘7 + 5’ केवल दो अंकों के योग को दिखाता है। इस योग से क्या योगफल निकलेगा, इसे यह नहीं बताता। अतः यह स्पष्ट है कि यह निर्णय संश्लेषणात्मकसाथ ही प्राग्नुभविक है।
कांट के अनुसार भौतिकी में भी संश्लेषणात्मक है, प्राग्नुभविक निर्णय संभव है। भौतिकी में ऐसे निर्णयों की सम्भावना का कारण बुद्धि विकल्प है। कांट ने इसे एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया है, जैसे प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। कांट के अनुसार यह निर्णय संश्लेषणात्मक है, क्योंकि यहां कारण कार्य में विद्यमान नहीं है, साथ ही यह निर्णय प्राग्नुभविक है क्योंकि यह बुद्धि विकल्पों पर आधारित है। इस प्रकार कांट गणित एवं विज्ञान में संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णयों का सम्भव मानते हैं।
Question : ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाणों की कांट की आलोचना को स्पष्ट करे।
(2006)
Answer : ईश्वर मीमांसा के अन्तर्गत ईश्वर के संप्रत्यय को एक वास्तविक सत्ता के रूप में सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इसके अन्तर्गत प्रत्यय सत्ता मूलक तर्क, सृष्टि वैज्ञानिक तर्क एवं भौतिक धार्मिक तर्क महत्वपूर्ण हैं। कांट ने इन सभी तर्कों का अपनी ईश्वर मीमांसा के अन्तर्गत खण्डन किया है। कांट के अनुसार हम केवल उन्हीं विषयों को जान सकते हैं, जिसकी संवेदना हमें मिलती हैं। हमें केवल प्राकृतिक जगत की संवेदना मिलती है, जो देश, काल के माध्यम से प्राप्त होती है। दूसरी ओर प्रज्ञा, अनुभव और बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण करना चाहती है। जब प्रज्ञा अनुभव की अपेक्षा कर उससे परे बुद्धि-विकल्पों का प्रयोग करने के लिए बाध्य करती है, तो अनुभवातीत भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। अनुभव से परे किसी भी अन्य तत्व पर बुद्धि विकल्पों का प्रयोग असंगत है। बुद्धि विकल्पों का यह अनुचित प्रयोग ही अनुभवातीत तत्व मीमांसा की उत्पत्ति का कारण होता है। इसलिए कांट अतीन्द्रिय तत्वमीमांसा की सिद्धि के प्रयासों का खण्डन करते हैं। उन्हें असंगत मानते हैं। कांट के अनुसार अनुभवातीत तत्वमीमांसा के रूप में दर्शन शास्त्र असम्भव है, किन्तु तत्वमीमांसा को असम्भव कहने का तात्पर्य न तो उसका निषेध करना और नहीं सिद्ध करना है कि वह निर्रथक है।
अतीन्द्रिय तत्वमीमांसा को असम्भव कहने का आशय केवल इतना ही है कि वह तर्क बुद्धि के द्वारा ज्ञेय नहीं है। ईश्वर, आत्मा और जगत के मूल तत्व मानव ज्ञान के विषय नहीं है। मानव ज्ञान केवल प्राकृतिक जगत तक सीमित है। जिसकी संवेदना प्राप्त होती है। इससे परे देश धर्म और नैतिकता का क्षेत्र है। धर्म एवं अन्य नैतिक मूल्यों का आधार आस्था है। अतः आस्था और विकास के आधार पर ही तत्वमीमांसीय सत्ता को स्वीकार किया जा सकता है। इसे तर्क देकर सिद्ध नहीं किया जा सकता। उल्लेखनीय है कि कांट ने नैतिकता की पूर्वमान्यता के रूप में ईश्वर का अस्तित्व आत्मा की अमरता और संकल्प स्वातंत्रय को स्वीकार करता है।