Question : द्रव्य विषयक लॉक के विचारों का कथन कीजिए और उस पर चर्चा कीजिए।
(2007)
Answer : यद्यपि लॉक के दर्शन में ज्ञान मीमांसा का प्राथमिक महत्व है, तथापि वह तत्वमीमांसा की उपेक्षा नहीं करता है। वस्तुतः तत्वमीमांसा को ज्ञान मीमांसा के आधार पर सिद्ध करने का प्रयास करता है। लॉक के दर्शन की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि उसकी ज्ञानमीमांसा से उसके द्वारा प्रतिपादित तत्वमीमांसा तर्कतः सिद्ध नहीं हो पाती है।
यद्यपि लॉक और देकार्त की ज्ञान मीमांसा में अंतर है, परन्तु तत्वज्ञान से संबंधित विचारों में दोनों दार्शनिकों में पर्याप्त समानता है। लॉक की तत्वमीमांसा के अन्तर्गत तीन प्रमुख तत्व हैं-भौतिक द्रव्य, आत्मा और ईश्वर। लॉक के अनुसार जगत द्रव्यों से निर्मित है। द्रव्य मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं। (i) भौतिक द्रव्य और (ii) अभौतिक द्रव्य।
भौतिक द्रव्य के छः प्रमुख मूलगुण है- विस्तार, ठोसपन, आकार, गति, विराम एवं संख्या। ये गुण भौतिक वस्तुओं में पाये जाते हैं, जो भूतत्व या जड़ से निर्मित हैं। हमें द्रव्य का साक्षात ज्ञान नहीं हो सकता। किन्तु लॉक भौतिक द्रव्य में दृढ़ विश्वास करता है वह कहता है, ‘द्रव्य सर्वत्र एक सा किन्तु मैं नहीं जानता क्या’? भौतिक द्रव्य निष्क्रिय है। द्रव्य के अज्ञेय होते हुए भी लॉक कुछ समुचित साक्ष्यों के आधार पर द्रव्य के अस्तित्व में विश्वास करता है। उसके अनुसार अधोलिखित साक्ष्यों के आधार पर जड़ द्रव्य के अस्तित्व को सिद्ध किया जा सकता है। हमें जो संवेदन प्राप्त होती है, इनका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अंधा, बहरा, लंगड़ा अथवा किसी अन्य इंद्रिय से रहित है तो वह उस ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हमारे मन में उन्हें (संवेदना को) उत्पन्न करता है। इससे अतिरिक्त भूततत्व के कारण ही प्रत्यक्ष और स्मृति में भेद किया जाता है। हमारे प्रत्यक्ष स्पष्ट और पर्याप्त होते है, क्योंकि वे जड़ तत्व के द्वारा उत्पन्न किए जाते हैं। इसके विपरीत किसी बाह्य जड़तत्व से उत्पन्न न होने वाली स्मृति अस्पष्ट और धुंधली होती है, स्मृति मन के आंतरिक संस्कारों से उत्पन्न होती है। लॉक के समान नैयायिकों ने भी स्मृति को संस्कारजन्य ज्ञान कहा है।
हमारे इन्द्रिय संवेदन बाह्य भौतिक द्रव्य के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं। कोई मनुष्य जिस वस्तु को देखता है उसे चख सकता है, छू सकता है। इससे सिद्ध होता है कि द्रव्य का प्रत्यय यथार्थ है। उल्लेखनीय है कि लॉक द्रव्य के प्रत्यय को यथार्थ मानते हुए भी उसे पर्याप्त नहीं मानता है। द्रव्य का कोई भी जटिल प्रत्यय उसके सभी पहलुओं अथवा उसके मूल स्वरूप का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करता है। लॉक के अनुसार हम जिन मूलगुणों का निश्चित प्रत्यक्ष करते हैं, उनका कोई न कोई आश्रय अवश्य होना चाहिए। निश्चित रूप से उन मूलगुणों को अधिष्ठान भौतिक द्रव्य है। यही कारण है कि लॉक के मूलगुणों को वस्तु का वास्तविक धर्म कहा है। दूसरे शब्दों में मूलगुण वस्तुनिष्ठ हैं। इसके विपरीत उपगुण आत्मनिष्ठ होते हैं, जो हमारे मन में हैं। वे वस्तुओं में नही पाये जाते हैं। इस प्रकार लॉक के संवेदनों के ड्डोत और समस्त प्रत्यक्षों के आधार के रूप में जड़ द्रव्य की सत्ता का प्रतिपादन किया। हमारे प्रत्यक्ष ज्ञान की स्पष्टता और निश्चयक वैधता का आधार भौतिक द्रव्य है। इसी प्रकार मूलगुणों के आश्रय के रूप में लॉक जड़तत्व की सत्ता का प्रतिपादन करता है। संक्षेप में, प्रत्यक्ष ज्ञान की स्पष्ट प्रतित और उसकी तुलना में स्मृतिजन्य ज्ञान की अस्पष्ट और मंद प्रतीति का कारण भौतिक (जड़) द्रव्य है। उल्लेखनीय है कि लॉक के समान वैयायिकों ने स्मृति को संस्कारजन्य कहा है, जिसमें वस्तु का साक्षात अनुभव नहीं होता। यह वस्तु के ज्ञान की पुनराभिव्यक्ति मात्र है।
लॉक के अनुसार भौतिक द्रव्यों की संख्या अनेक है। उसकी अनेकता से सिद्ध होता है कि वे विशेष हैं। विशेष द्रव्य एक-दूसरे के प्रति अंतर्क्रिया करते हैं। इस प्रकार वे कारण-कार्य की श्रृंखला में बंधे हुए हैं किंतु लॉक इस द्रव्य को अद्वेत मानता है। हम देख चुके हैं कि वह भौतिक द्रव्य के प्रत्यय एक जटिल प्रत्यय कहता कि जिसके अनुरूप प्राकृतिक जगत में भौतिक द्रव्य का अस्तित्व अनुमान के आधार पर सिद्ध होता है। इससे स्पष्ट है कि लॉक भौतिक द्रव्य को अनुमान का विषय मानता है। किन्तु यह लॉक दर्शन की अत्यंत उलझी हुई समस्या है। यदि कोई वस्तु अज्ञात और अज्ञेय है तो केवल उस वस्तु के प्रत्यय के आधार पर वस्तु के यथार्थ रूप और अस्तित्व का निर्धारण कैसे किया जा सकता है? चूंकि लॉक प्रत्यय और वस्तु में भेद करता है, इसलिए वह वस्तुवादी है। द्रव्य की सत्ता द्रव्य के ज्ञान से स्वतंत्र है। किन्तु वस्तु के प्रत्यय और वस्तु की सत्ता में संवादिता कैसे स्थापित की जाए। लॉक इस समस्या को हल करने में असफल रहा है। यही कारण है कि आगे चलकर उसे अनुभववादी परम्परा के ही एक दार्शनिक विशप बर्कले की आलोचना का शिकार होना पड़ा। उसके अनुभववाद की विसंगतियों के कारण वह अनुभववादी परम्परा को ही डुबो देता है, जो कभी ह्यूम के संशयवाद के रूप में तो कभी बर्कले के आत्मनिष्ठ प्रत्यक्षवाद के रूप में अभिव्यक्ति होता रहता है। यदि वह मान लेता है कि भौतिक द्रव्य का ज्ञान प्रत्ययात्मक नहीं है तो अनुभववाद की यह मान्यता ही ध्वस्त हो जाती कि समस्त ज्ञान आनुभविक प्रत्ययों तक सीमित है। इससे स्पष्ट है कि उसके दर्शन में भौतिक द्रव्य की अवधारणा सामंजस्यपूर्ण नहीं है। वस्तुतः लॉक की ज्ञान मीमांसा में तार्किक और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को इस प्रकार मिला दिया गया है कि उसके दर्शन में स्पष्टता और सुसंगति का अभाव उत्पन्न हो गया है। अतः उसके तत्वमीमांसा में भी दोष आ गया है। परन्तु फिर भी लॉक के दार्शनिक क्रम को तार्किक भाववादियों द्वारा अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
Question : लॉक के अनुसार ज्ञानमीमांसा।
(2006)
Answer : लॉक आधुनिक पाश्चात्य दर्शन के ऐसे प्रथम दार्शनिक हैं, जो तत्व मीमांसा के पूर्व ज्ञान मीमांसा को प्रथामिकता देते हैं।
लॉक की ज्ञान मीमांसा के चार प्रमुख भाग हैं:
लॉक के अनुसार यथार्थ ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र स्रोत अनुभव है। अनुभव हमें दो रूपों में मिलता हैः
शारीरिक इन्द्रियों का बाह्य वस्तुओं से संपर्क एवं प्रभावित होने पर वाह्य वस्तुओं के गुणों की संवदेना प्राप्त होती है। आन्तरिक दशाओं के प्रत्यक्षीकरण से स्वसंवेदना प्राप्त होती है। जैसे-भय, क्रोध, आदि। हमारा सम्पूर्ण ज्ञान इन्हीं दो अनुभाविक रूपों पर आधारित होता है। संवेदन और स्वसंवेदन से अनुभव प्रत्यय के रूप में प्राप्त होता है। प्रत्यय विचार और बुद्धि के साक्षात विषय हैं। प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं- सरल प्रत्यय एवं जटिल प्रत्यय। सरल प्रत्यय वे हैं जो सम्वेदन स्वसंवेदन या दोनों से प्राप्त होते हैं। सरल प्रत्यय चार प्रकार के होते हैं। सरल प्रत्ययों की प्राप्ति के समय मन निष्क्रिय रूप से सरल प्रत्ययों का निर्माण करता है। सरल प्रत्ययों से जटिल प्रत्ययों के निर्माण की प्रक्रिया के 6 सोपान है- (i) प्रत्यक्षीकरण (ii) धारणा (iii) पार्थक्य बोध (iv) तुलना (v) संयोजन (vi) आपूर्तिकरण।
ज्ञान की प्रमाणिकता के सम्बन्ध में लॉक संवादिता सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। लॉक के अनुसार विचार के अनुरूप वस्तु के रहने पर ज्ञान सत्य होता है। ज्ञान की उत्पति अनुभव तक ही सीमित होती है।
Question : ह्यूम के संशयवाद पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : संयशवाद वह विचारधारा है जो किसी चीज को असंदिग्ध और निश्चयात्मक रूप में जानने से इंकार करता है। उग्र संशयवाद के अनुसार किसी भी वस्तु का ज्ञान असंभव है। यद्यपि संशयवाद तार्किक बहस में भाग ले सकता है तथापि वह किसी सिद्धान्त का तार्किक दृष्टि से निश्चित नहीं मानता है। उग्र संशयवाद के अनुसार किसी सिद्धान्त की प्राथिकता भी तकर्तः सिद्ध नहीं की जा सकती है। ऐसी संशयात्मा एक उभयतोपाश की स्थिति में फंसा रहता है। वह कोई स्पष्ट निर्णय लेने में असमर्थ रहता है। इस प्रकार संशयवाद किसी प्रकार की दार्शनिक स्वीकृति नहीं कर सकता है। यहां तक की कोई संशयवादी यह भी दावा नहीं कर सकता है कि वह हमेशा संशयवादी ही रहेगा। इस दृष्टि से संशयवाद एक तदर्थ कामचलाऊ और अस्थायी विचारधारा है। किन्तु ह्यूम का संशयवाद इस प्रकार के उग्र संशयवाद से भिन्न है।
दर्शन जगत में ह्यूम के संशयवाद को अनुभववाद का तार्किक परिणाम माना जाता है। वस्तुतः वह लॉक और बर्कले की अपेक्षा अधिक सक्षम और युक्ति संगत तर्कशास्त्री हैं। यदि ज्ञान का एकमात्र स्रोत इन्द्रियानुभव को ही स्वीकार किया जाए तो वस्तुओं के आंतरिक स्वरूप का ज्ञान असंभव हो जाएगा। इन्द्रियानुभव के आधार पर केवल भौतिक जगत के बाह्य स्वरूप का सतही ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है। हमारा ज्ञान केवल वर्तमानकाल और विशेष वस्तुओं एवं घटनाओं तक ही सीमित है। उसमें सार्वभौमिकता और अनिवार्यता की स्थापना नहीं की जा सकती है। भूतकालीन घटनाओं एवं तथ्यों के ज्ञान का आधार स्मृति है। किन्तु यह सदैव सत्य नहीं होती है। अतः स्मृति के द्वारा निश्चयात्मक ज्ञान की आशा नहीं की जा सकती। बीजगणित एवं अंकगणित संबंधी कथनों के निश्चयात्मक और अनिवार्य होने का कारण यह है कि वे वस्तु जगत से संबंधित नहीं हैं। वे प्रत्ययों के पारस्परिक सम्बन्धों पर आश्रित होते हैं, उनका निषेध करना आत्मव्याघाती होगा।
इस प्रकार वस्तु तथ्य के विषय में भी हमारा ज्ञान निश्चयात्मक या निर्णायक रूप से सत्य नहीं हो सकता है। हमें भौतिक जगत के नियम में पूर्ण सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है। प्रायिकता में अनिश्चितता की कुछ मात्रा विद्यमान होती है। इस विवेचना से स्पष्ट है कि ह्यूम ज्ञान को पूर्ण निश्चिता के अर्थ में लेता है। जो कथन संभाव्य है। वे केवल विश्वास के विषय है। हम भौतिक जगत में केवल विश्वास कर सकते हैं। किन्तु इस विश्वास को तर्क प्रक्रिया के द्वारा असंदिग्ध रूप में प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
किसी अनुभव की अनेक बार पुनरावृति होने से उसके प्रति हमारे मन में विश्वास उत्पन्न हो जाता है। ह्यूम के अनुसार आगमनात्मक तर्क पद्धति को प्रमाणिकता को तर्क बुद्धि और अनुभव के द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता है। उस पर आश्रित हमारे विश्वास अंधविश्वासों से भिन्न नहीं है, ये विश्वास मनोवैज्ञानिक हैं।
प्रश्न यह है कि यदि बाह्य जगत के विषय में हमारा विश्वास त्रुटिपूर्ण और भ्रांत है, तो क्या हमें अपने विश्वासों और तर्कों को छोड़कर बाह्य जगत की सत्ता का निराकरण करना चाहिए? परन्तु बाह्य जगत हमारी कोटि कल्पना पर आधारित नहीं है, इसलिए हम बाह्य जगत में अपने विश्वास सहज और स्वाभाविक हैं, किन्तु दूसरी ओर हम जगत के विषय में चाहे जिस तरह विचार करें, उसका ज्ञान संभव नहीं प्रतीत होता। सम्पूर्ण तथ्यात्मक ज्ञान प्रायिक, अनिश्चित और इसलिए संशयग्रस्त होता है। ह्यूम के अनुसार किसी विषय पर गंभीर चिन्तन करने से संशय बढ़ता ही जाता है, इसलिए असावधानी और किसी विषय पर ध्यान न केन्द्रित करना ही संशयवाद का एकमात्र उपचार है।
किन्तु ह्यूम का संशयवाद उग्र संशयवाद नहीं है। वह मानव के ज्ञान शक्ति की असमर्थता की अपेक्षा उसकी सीमा पर बल देता है। वह आत्यांतिक संशयवाद का परित्याग कर देता है, क्योंकि वह जार्जियस एवं पायरो के समान ज्ञान को असंभव नहीं मानता है। तथ्यात्मक ज्ञान जो कारणात्मक सम्बन्ध पर आधारित है, आनुभविक होता है। ऐसा ज्ञान अनिवार्य नहीं बल्कि संभाव्य होता है। ऐसा ज्ञान भले ही सत्य हो, किन्तु इसे अनिवार्य नहीं कहा जा सकता है। आत्म जगत और ईश्वर में विश्वास करने के लिए हमारे पास कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं हो सकता है। वास्तव में ह्यूम का संशयवाद शास्त्रीय संशयवाद है। इससे हमारे चिन्तन और दृष्टिकोण में निष्पक्षता आती है। हम अनेक प्रकार के अंधविश्वासों एवं पूर्वाग्रहों से बच जाते हैं। वह पायरोवाद या आत्यांतिक संशयवाद को एक दुराग्रह कहता है। ह्यूम कुछ विश्वासों को तार्किक मानता है, जो भावनात्मक विश्वासों से भिन्न है। बाह्य जगत के और कारणता में विश्वास प्राकृतिक (सहज) है। प्राकृतिक विश्वासों का कारण स्वयं मानव स्वभाव है। ये विश्वास ही समस्त युक्तियों के आधार है। यद्यपि ह्यूम तार्किक दृष्टि से संशयवादी है, तथापि वह विश्वास और कल्पना बाह्य जगत की सत्ता को मान लेता है। इन प्राकृतिक विश्वासों के कारण ह्यूम का संशयवाद विनम्र संशयवाद में रूपान्तरित हो जाता है। किन्तु इसे प्रामाणिक विश्वास नहीं कहा जा सकता है। जगत के ज्ञान के लिये हमारे पास कोई तार्किक प्रमाण नहीं है। अतः ह्यूम का संशयवाद बना रहता है, उसके संशयवाद का महत्व इस बात में है कि वह परम्परागत अनुभववाद की विसंगतियों को तार्किक दृष्टि से अभिव्यक्ति कर देता है। उसका संशयवाद हमारे ज्ञान को संस्कारों एवं प्रत्ययों तक सीमित कर देता है। ह्यूम के संशयवाद का प्रभाव समकालीन दर्शन में तार्किक भाववादियों पर भी पड़ा। यद्यपि तार्किक माववादी ह्यूम के संशयवाद का खण्डन करते हैं, तथापि वे संशयवाद के एक नये रूप को जन्म देते हैं। उनका संशय अनुभव के विभिन्न तरीकों के प्रति अविश्वास, ईश्वर, आत्मा आदि से सम्बन्धित है। परन्तु यह संशयवाद का सूचक नहीं बल्कि दर्शन की एक नयी दिशा है। वास्तव में कोई सच्चा दार्शनिक पूर्ण संशयवादी नही हो सकता। ह्यूम का संशयवाद हमारे ज्ञान की सीमा और बौद्धिक क्षमता का बोध कराता है।
Question : कांट ह्यूम के संशयवाद के प्रति किस प्रकार अनुक्रिया करता है।
(2005)
Answer : कांट के अनुसार बुद्धि विकल्प अनुभव निरपेक्ष और सार्वभौम होते हैं और इनका कार्य अव्यस्थित, असम्बद्ध तथा निरर्थक इन्द्रिय संवेदनों को व्यवस्थित, सम्बद्ध और सार्थक बनाकर ज्ञान के रूप में परिणत करना है। भौतिक विज्ञान और व्यावहारिक दर्शन में संयोजक और अनुभव निरपेक्ष वाक्य इन बुद्धि विकल्पों के कारण ही सम्भव होते हैं। बुद्धि, विकल्प प्रकृति को नियमित करते हैं। हमारे ज्ञान में जो निश्चयात्मकता और अनिवार्यता है, वह संवेदनों से नहीं आती। वह अनुभव निरपेक्ष बृद्धि विकल्पों से आती है। भौतिक विज्ञान के सार्वभौम सत्य सिद्धान्त इस बात को सिद्ध करते हैं कि बुद्धि-विकल्प बाह्य जगत को नियमित करते हैं। ह्यूम ने कार्य-कारण सम्बन्ध को वस्तु जगत का सम्बन्ध न बताकर केवल दिशाओं का ही सम्बन्ध बताया था। कांट का मत है कि कार्य-कारण सम्बन्ध वस्तु जगत का सम्बन्ध है। ह्यूम का कथन तो ठीक है कि यह संबंध इन्द्रिय संवेदन से प्राप्त नहीं हो सकता, किन्तु इस संबंध को काल्पनिक नहीं माना जा सकता। ह्यूम के अनुसार कार्यकारण सम्बन्ध को हमारे विज्ञानों का सम्बन्ध क्यों न माना जाए। इस अत्यन्त महत्वपूर्ण आक्षेप के उत्तर में कांट ने कहा है कि यदि बुद्धि विकल्प बाह्य जगत को निर्धारित न करे तो इसे बाह्य जगत को कोई अनुभव नहीं हो सकता। बुद्धि-विकल्पों के बिना सार्वभौम और अनिवार्य सत्य की बात तो दूर है, यह बाह्य जगत भी हमारे अनुभव नहीं बन सकता है। केवल मिश्रित और सार्वभौम सत्यों की उपलब्धि के लिए ही बुद्धि-विकल्पों को मानना आवश्यक नहीं है। अपितु विषयता की प्रतित के लिए भी बुद्धि विकल्पों को मानना अत्यावश्यक है। इस बात की सिद्धि को कि अनुभव निरपेक्ष बुद्धि विकल्पों के बिना हमें किसी प्रकार का अनुभव नहीं हो सकता, कांट ने विषयता के आधार पर अतीन्द्रिय बुद्धि-विकल्पों की स्थापना कहा है। इससे ह्यूम के आत्मघाती सन्देहवाद पर मर्मान्तक प्रहार हुआ है और उसे सदा के लिए समाप्त कर दिया। ह्यूम का कथन था कि हमें इन्द्रिय संवेदनों का ही ज्ञान होता है और ये संवेदन क्षणिक और पृथक-पृथक होते हैं तथा इनके आधार पर सार्वभौम सत्य का प्रतिपादन नहीं हो सकता। कांट का उत्तर है कि अनुभव निरपेक्ष और सर्वभौम बुद्धि-विकल्पों के बिना क्षणिक तथा पृथक-पृथक इंद्रिय संवेदन भी हमारे अनुभव के विषय नहीं बन सकते। बुद्धि-विकल्पों के बिना इस सम्वेदन और सन्देहवाद का भी प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। इन्द्रिय सम्वेदन पृथक-पृथक अस्त व्यस्त, अव्यवस्थित असम्बद्ध और निरर्थक है। स्वयं इनमें हमारे ज्ञान के विषय बनने की शक्ति नहीं है। इसको विषय बनाया जा सकता है। इनको संग्रहीत, व्यवस्थित, सम्बद्ध और नियमित करके सार्थक ज्ञान के रूप में परिणत करने की शक्ति केवल बुद्धि विकल्पों में है। बुद्धि विकल्प स्वयं अनुभव निरपेक्ष और सर्वभौम है। उनकी शक्ति के कारण ये सम्वेदन हमारे ज्ञान का विषय बनते हैं।
पुनः कांट का कहना है कि बुद्धि विकल्प तो सम्वेदनों को ज्ञान का रूप देने के ढांचे हैं, उनमें स्वयं शक्ति नहीं है। यह शक्ति विशुद्ध आत्मा से आती है। आत्मा के प्रकाश में बुद्धि-विकल्प जगमगाते हैं और इसी की शक्ति से वे सम्वेदनों को ज्ञान का रूप देते हैं। इस विशुद्ध आत्मा का निराकरण शक्य नहीं क्योंकि यह स्वतः सिद्ध है और समस्त अनुभव का आधार है। स्वीकरण और निराकरण, मण्डन और खण्डन विधि और निषेध आदि सब ज्ञान के धर्म है और स्वयं ज्ञान बिना आत्मा के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः विशुद्ध आत्मा समस्त ज्ञान और अनुभव का अधिष्ठान है। इसका निराकरण सम्भव नहीं क्योंकि जो निराकर्ता है, वही आत्मरूप है। यह विशुद्ध आत्मा व्यवहारिक जीवात्मा नहीं है। व्यावहारिक जीव तो हमारे स्वसंवेदन का विषय बनता है। किन्तु विशुद्ध आत्मा सदा ज्ञाता ही रहता है, कभी विषय या ज्ञेय नहीं बनता। ह्यूम इस विशुद्ध आत्मा को खोज नहीं सके, क्योंकि वे आत्मा को विषय के रूप में पकड़ना चाहते हैं। परन्तु कभी विषय नहीं बन सकता, यह स्वतः सिद्ध है। प्रत्येक ज्ञान में इसकी सत्ता झलकती है। इसको विषय के रूप में खोजना वैसा ही है जैसे ज्वलन्त सूर्य को दीपक के प्रकाश द्वारा देखना। इस विशुद्ध ज्ञाता के बिना किसी प्रकार का ज्ञान सम्भव नहीं। इसी की ज्योति से और शक्ति से बुद्धि-विकल्प इन्द्रिय-सम्वेदनों का ज्ञान का विषय बनाते हैं। यह विशुद्ध ज्ञाता नित्य और अनुभव निरपेक्ष है। संग्रहण, समन्वय, सम्बन्ध, नियम, सार्वभौमता और अनिवार्यता सब इस ज्ञाता के कारण सम्भव है। इस विशुद्ध ज्ञाता को कांट ने अतीन्द्रिय-समन्वयात्मक अद्वय-विशुद्ध अपरोक्षानुभूति का नाम दिया है। यह विशुद्ध ज्ञाता विशुद्ध ज्ञान स्वरूप है। यह अद्वयपूर्ण नित्य, और अनिर्वयनीय है। यह स्वतः सिद्ध सार्वभौम और अनिवार्य है। यह अतिन्द्रिय और अनुभव निरपेक्ष है। यह शरीर परिच्छिन्न जीव नहीं है। समस्त जीवों में इसी की ज्योति है। सारे जीवों के बुद्धि-विकल्प इसी की शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। यह विशुद्ध और नित्य ज्ञाता हमारे सारे सम्वेदनों और विज्ञानों को एक सूत्र में बांधता है। इसी के कारण हमारे अनुभवों में एकरूपता होती है। इसी के कारण प्रत्येक जीव का जगत भिन्न भिन्न नहीं होता। इसी के कारण ज्ञान में सार्वभौमता और अनिवार्यता आती है। यह हमारे सारे ज्ञान और अनुभव का एकमात्र स्रोत है। यह ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान व्यावहारिक त्रिपुरी के पार है और उसका निविकल्प अधिष्ठान है। इसी की ज्योति और शक्ति के कारण जीव ज्ञाता और ज्ञेय बनता है।
इस प्रकार कांट ने ह्यूम के संशयवाद के आधार पर प्रहार कर बुद्धि विकल्पों की महता को रेखांकित क्रिया, परन्तु से स्वयं को नहीं बचा पाया। उसने स्वलक्षण वस्तुओं को परमार्थ जगत में स्थित बताकर उसे अतीन्द्रिय विषय के रूप में अज्ञेय अपरोक्षनुभूतिगम्य बताया। इसका समाधान निरपेक्ष प्रत्ययवादियों ने किया।
Question : फिनोमेना और न्यूमिना के बीच कांट के विभेद की सार्थकता।
(2004)
Answer : कांट की ज्ञान मीमांसा के अन्तर्गत संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णय मानव ज्ञान का प्रतिमान है। संश्लेषणात्मक निर्णयों में एक अंश संवेदना का और दूसरा अंश बुद्धि-विकल्पों से संबंधित रहता है। इसके अतिरिक्त जो संवेद्य हैं, वह देश काल से परिच्छिन्न होता है। अनुभव का विषय आभास होता है, जो आभास का विषय नहीं है, वह अनुभव का विषय नहीं हो सकता है। अतः मानव बुद्धि अनुभव की उस सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकती है, जिसके अन्तर्गत वस्तुएं प्रदत्त होती हैं। अनुभव की सीमा से परे बुद्धि विकल्पों का प्रयोग अनुचित है। हमारी संवेदनायें पारमार्थिक स्वलक्षणों से उत्पन्न होती हैं और देश काल रूपी संवेदना के आकारों से होकर बुद्धि विकल्पों तक पहुंचती है, किन्तु संवेदना को उत्पन्न करने वाले पारमार्थिक स्वलक्षणों को कांट अज्ञेय मानता है। संवेदनाओं की स्रोत स्व लक्षण वस्तुएं स्वतः असंवेद्य हैं, जो असंवेद्य उसका ज्ञान नहीं हो सकता है। कांट के अनुसार स्वलक्षण वस्तुए देश काल रूपी संवेदना के आकारों से परे होने के कारण असंवेद्य है, अतः कांट उन्हें अज्ञेय मानता है। शाब्दिक दृष्टि से व्यवहार एक संवेद्य विषय और परमार्थ बौद्धिक चिंतन का विषय है। व्यवहार का यह ज्ञान मीमांसीय है। यहां प्रश्न उठता है कि यदि परमार्थ अज्ञेय है तो हमें परमार्थ की अज्ञेयता का ज्ञान कैसे होता है? क्या कांट का यह दावा न्योयोचित है कि परामर्श की सत्ता है? क्या ऐसा करके कांट परमार्थ को बुद्धि विकल्पों से सम्बद्ध नहीं कर देता है? वास्तव में कांट परमार्थ को अज्ञेय इसलिए कहता है, क्योंकि हमें इसका भावात्मक ज्ञान नहीं हो सकता। कांट के दर्शन में अज्ञेयवाद का अर्थ ज्ञान का नितान्त अभाव नहीं है। पारमार्थिक स्वलक्षणों का अज्ञान केवल मानव ज्ञान की सीमा का निर्धारण है। कांट आस्था के आधार पर व्यवहार जगत के तात्विक आधार, स्वरूप एवं लक्षणों को अवस्थानुकूल मानता है। ऐसी ही मान्यता भारतीय दर्शन में अद्वैत वेदान्तियों और बौद्धों की भी रही है। वस्तुतः शंकर और कांट दोनों ही दार्शनिक ज्ञान की उपाधियों के प्रश्न को अनुभवमूलक विधि के बजाय आलोचनात्मक विधि से हल करने का प्रयास करते हैं।
Question : उक्ति और प्रदर्शन के बीच भेद।
(2004)
Answer : कथन और प्रदर्शन में अन्तर से सम्बन्धित विश्लेषण विटगेन्सटार्डन द्वारा किया गया भाषा-विश्लेषण है। विटगेन्सटाइन के अनुसार बहुत सी चीजें हैं, जिनका कथन नहीं हो सकता है। जिसमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तो से है कि स्वयं प्रतिज्ञप्ति का आकार क्या है और भाषा का आकार क्या है? मगर हम सार्थक रूप से नहीं कह सकते मों कि भाषा और प्रतिज्ञप्ति का तार्किक आधार क्या है? ऐसा इसलिए क्योंकि भाषा का तार्किक आकार कोई तथ्य या वस्तुओं का संयोजन नहीं हैं। इसी तरह से प्रतिज्ञप्ति भी कोई तथ्य नहीं है। भाषा की आकारिक विशेषतायें अकथनीय है। भाषा के द्वारा ही हम जगत को व्यक्त करते हैं। लेकिन भाषा के विषय में स्वयं भाषा के द्वारा कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी तरह यह बताना आवश्यक है कि नाम क्या है? पर नाम के विषय में जो कुछ कहा जाएगा, वह भी निरर्थक हो जाएगा। पुनः विटगेन्सटाईन के अनुसार मेरी भाषा की सीमा मेरे जगत की सीमा है। लेकिन यहां मैं के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसी लिए वह कहता है कि टेक्स्ट्स में जो लिखा है वह सब निरर्थक है। यह किसी तथ्य का वर्णन नहीं है। केवल स्पष्ट करने के लिए है, जिस विषय में हम सार्थक रूप से कुछ कह नहीं सकते उसके विषय में हम सार्थक रूप से कुछ कह ही नहीं सकते। उसके विषय में हमें चुप ही रहना चाहिए। भाषा की रचना हम सार्थक रूप से कह नहीं सकते, लेकिन इसको हम समझ सकते है क्योंकि ये स्वयं अपने को प्रतिज्ञप्ति के द्वारा प्रदर्शित करती हैं। प्रतिज्ञप्ति का आकार प्रतिज्ञप्ति के माध्यम से स्वयं को प्रदर्शित करता है। इसी तहत से ये भी समझ सकते हैं कि नाम क्या है तथ्य क्या है पर इसके विषय में कुछ नहीं कह सकते। ये सारी विशेषतायें हैं, जो भाषा के द्वारा अपने को प्रदर्शित करती हैं। इस सिद्धान्त की आलोचना में यह कहा गया है कि अर्थ का चित्रत्मक सिद्धान्त अगर माना जाए तभी कथन और प्रदर्शन में अंतर आता है, क्योंकि यह सिद्धान्त यह बताता है कि जो प्रतिज्ञप्ति चित्र है, वही सार्थक है, जो चित्र नहीं है, वह निरर्थक है। इसी आधार पर कथन और प्रदर्शन में अन्तर किया गया है।
Question : सत्ता दृश्यता है।
(2003)
Answer : ‘सत्ता दृश्यता है’ के द्वारा बर्कले यह सिद्ध करने का प्रयास करता है कि वस्तुयें भौतिक या जड़ नहीं मों, बल्कि प्रत्ययों के परिवार है। चूंकि तथाकथित वस्तुयें (प्रत्ययों के संघात) ज्ञाता (आत्मा) के मन के प्रत्यय हैं, इसलिए बर्कले को आत्मनिस्ठ प्रत्यय वादी कहा जाता है। आत्मनिस्ठ प्रत्ययवाद के अनुसार आत्मा और उसके प्रत्ययों के अतिरिक्त किसी भौतिक वस्तु की सत्ता नहीं है। अतः बर्कले को अहंमात्रवादी कहा जाता है। वास्तव में बर्कले ने ‘सत्ता दृश्यता है’ का प्रयोग अत्यंत व्यापक अर्थ में किया है। दृश्यता अथवा अनुभव केवल वर्तमान कालिक संवेदना तक ही सीमित नहीं है। बकेले के कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तुओें के सत् होने का अर्थ उनका दृश्य होना है। इस प्रकार कोई भी वस्तु या गुण बिना अनुभव का विषय हुए सत् नहीं हो सकता है। बर्कले की इस मान्यता को सूत्र रूप में ‘सत्ता दृश्यता है’ कहा जाता है, अर्थात् वस्तुओं की सत्ता दृश्यता पर निर्भर करती है। इस दृष्टि से तथाकथित बाह्य वस्तुयें अनेक संवेद्य प्रत्ययों के संघात हैं। ये समस्त गुण अनुभव कर्ता आत्मा को अनुभव पर आश्रित हैं। जो संबंध है कि वह प्रत्यय है। अतः बाह्य वस्तुयें आत्मा के प्रत्यय हैं। परन्तु अनुभव होने का अर्थ वर्तमान काल के साथ-साथ भूतकाल और भविष्य काल सम्बन्धी अनुभूतियों के साथ-साथ अनुभव का विषय होने की संभावना पर भी लागू होता है। परन्तु बर्कले के अनुसार बाह्य वस्तुओं जैसे नदी, पर्वत या अन्य प्राकृतिक वस्तुओें के प्रत्ययों का जनक ईश्वर है। ये प्रत्यय जीवात्माओं के लिए अनुभव के विषय तो हैं, किन्तु वे जीवात्माओं के द्वारा उत्पन्न नहीं किये जा सकते। उनका रचयिता ईश्वर है। इससे स्पष्ट है कि बर्कले जगत की वस्तुओं को सीमित मानव के मन की कल्पना नहीं कहता है। वह बाह्य वस्तुओं के स्वरूप का एक अभौतिकवाद विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इससे यह भी स्पष्ट है कि बर्कले पर लगाया गया यह आपेक्ष कि वह आत्मनिठदवादी या अहंमात्रवादी है, उचित नहीं है।
Question : संश्लिष्ट प्राग्नुभविक निर्णय किस प्रकार संभव है?
(2003)
Answer : कांट के Critique of pure Reason का मुख्य उद्देश्य संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णयों की व्याख्या करना है। कांट यथार्थ ज्ञान की कसौटी के रूप में अनिवार्यता और सार्वभौमता के साथ-साथ नवीनता को भी स्वीकार करते हैं। ज्ञान के सम्बन्ध में कांट अपने पूर्ववर्ती विचारधाराओं, अनुभववाद और बुद्धिवाद की मान्यताओं का खण्डन करते हैं। वे उन्हें एकांगी मानते हैं। बुद्धिवादी ज्ञान में अनिवार्यता एव सार्वभौमता को स्वीकार करते हैं। परन्तु वहां नवीनता नहीं होती, क्योंकि प्रत्यय जन्मजात है। दूसरी ओर अनुभववाद ज्ञान में नवीनता के स्वीकार करते हैं। परन्तु वहां अनिवार्यता एवं सार्वभौमता नहीं है। कांट इन दोनों पक्षों को समन्वित करते हुए ज्ञान को संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णय का तात्पर्य है कि इसमें (i) विधेय उद्देश्य में सम्मिलित नहीं होती (ii) साथ ही उसकी प्रामाणिकता अनुभव पर आधारित नहीं होती। कांट के अनुसार गणित एवं भौतिकी में संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णय संभव है। गणित में 7+5= 12 के उदाहरण में ‘7+5’ उद्देश्य है, जबकि ‘12’ विधेय है। कांट के अनुसार यहां विधेय उद्देश्य में निहित नहीं है। यह उद्देश्य के सम्बन्ध में एक नवीन जानकारी है। ‘7+5’ केवल दो अंकों के योग को दिखाता है। इस योग से क्या योगफल निकलेगा, इसे यह नहीं बताता। अतः यह स्पष्ट है कि यह निर्णय संश्लेषणात्मकसाथ ही प्राग्नुभविक है। कांट के अनुसार भौतिकी में भी संश्लेषणात्मक है, प्राग्नुभविक निर्णय संभव है। भौतिकी में ऐसे निर्णयों की सम्भावना का कारण बुद्धि विकल्प है। कांट ने इसे एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट किया है, जैसे प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। कांट के अनुसार यह निर्णय संश्लेषणात्मक है, क्योंकि यहां कारण कार्य में विद्यमान नहीं है, साथ ही यह निर्णय प्राग्नुभविक है क्योंकि यह बुद्धि विकल्पों पर आधारित है। इस प्रकार कांट गणित एवं विज्ञान में संश्लेषणात्मक प्राग्नुभविक निर्णयों का सम्भव मानते हैं।
Question : रसेल का तार्किक परमाणुवाद क्या है? इस सम्बन्ध में शामिल तत्वमीमांसा की संकल्पना को सुस्पष्ट कीजिए।
(2003)
Answer : रसेल के अनुसार भाषा एवं जगत की संरचना एक सामान है, इसलिए अगर भाषा को अच्छी तरह समझ लिया जाए तो जगत को समझना आसान हो जाता है। इसी आधार पर उसने तार्किक परमाणुवाद की संकल्पना का विकास किया। तार्किक परमाणुवाद का उद्देश्य जगत की सरलतम इकाई को खोजना हैताकि जगत की तार्किक व्याख्या हो सके। पुनः इसका दूसरा उद्देश्य जगत की वस्तुओं एवं जगत की संरचना को भाषा के द्वारा सार्थक रूप से व्यक्त करना है। रसेल का कहना भी है कि भाषा जगत का दर्पण है।"
तार्किक परमाणुवाद का सम्बन्ध रसेल और विटगेन्सटाईन दोनों से है, परन्तु रसेल और विटगेन्सटाईन दोनों के तार्किक परमाणुवाद में अन्तर है। रसेल मानता है कि वस्तुयें इन्द्रिय-प्रदत्त मों, जबकि विटगेन्सटार्डन ने ट्रेक्टेट्स में इन्द्रिय-प्रदत्तों को वस्तु नहीं माना है। विटगेन्सटार्डन निषेधात्मक कथनों के अनुरूप किसी निषेधात्मक तथ्य को स्वीकार नहीं करते। विटगेन्सटार्डन के अनुसार भावात्मक एवं निषेधात्मक दोनों के अनुरूप एक ही तथ्य होता है। यदि तथ्य है तो भावात्मक कथन सत्य होगा, इसलिए वे कहते हैं कि निषेधात्मक कथन भावात्मक कथनों के सत्यता फलन है। रसेल कृत्रिम भाषा के समर्थक है, जबकि विटगेन्सटार्डन साधारण भाषा का समर्थन करते हैं।
तार्किक परमाणुवाद के अनुसार जगत की सरलतम इकाई अणु है। ये अणु चेतन या भौतिक की प्रक्रिया भी भौतिक, रासायनिक या मनोवैज्ञानिक विश्लेषण न होकर तार्किक विश्लेषण है। दूसरे शब्दों में, जगत की सरलतम इकाई तार्किक अणु तार्किक विश्लेषण के अन्तिम परिणाम है। तार्किक अणुवाद के दो पक्ष हैं-
(i) तार्किक भाषाई पक्ष एवं
(ii) इसी के अनुरूप और इसी से निर्धारित तात्विक पक्ष।
यहां भाषा के विश्लेषण के द्वारा यह बताया जा रहा है कि जगत में क्या है। तार्किक परमाणुवाद के तार्किक पक्ष में भाषा, भाषा की इकाई, प्रतिज्ञप्ति, अणुवाक्य और आणविक वाक्य आते हैं, जबकि तार्किक अणुवाद के तात्विक पक्ष में विशेष, गुण, सम्बन्ध और तथ्य की खोज की गई है। रसेल का कहना है कि विश्व मूलतः इन्हीं तत्वों से संरचित है।
यहां यह प्रश्न उभरता है कि तार्किक विश्लेषण किसका किया जाए? जगत का या वस्तुओं का, या किसी अन्य का। रसेल के अनुसार तार्किक विश्लेषण तथ्यों का किया जाता है। इस प्रकार तार्किक अणुवाद में तथ्य यह मौलिक तत्व है, जिससे जगत संरचित है। विटगेन्सटाईन का कहना है कि जगत तथ्यों की समग्रता है। वस्तुओं की नहीं। "word is a totality of facts not thing" गुण और सम्बन्ध से युक्त विशेष ही तथ्य है। इस प्रकार यहां जगत को संरचित करने वाले चार तत्व उभरते हैं- विशेष, गुण, सम्बन्ध और तथ्य।
तथ्य किसी अस्तित्ववान इकाई का नाम नहीं है। तथ्य वह है जो संपूर्ण वाक्य द्वारा संकेतिक होता है, जैसे- ‘सुकरात’ तथ्य नहीं है, परन्तु ‘सुकरात मर चुका है’ यह एक तथ्य है नेपोलियन तथ्य नहीं है, परन्तु नेपोलियन ने जोसेफिन के साथ विवाह किया, यह एक तथ्य है। तथ्य अपने आप में सत्य या असत्य नहीं होती तथ्य तथ्य होते हैं, तथ्य के कारण प्रतिज्ञप्ति सत्य या असत्य होती है। प्रतिज्ञप्ति के अनुरूप तथ्य के रहने पर प्रतिज्ञप्ति साथ मानी जाती है। रसेल ने कई प्रकार के तथ्य माने हैं, जैसे- विशेषतम्य, सामान्य तथ्य, निषेधात्मक तथ्य, भावात्मक तथ्य आदि।
रसेल के अनुसार भाषा की जो तात्विक संरचना है, वही जगत की भी संरचना है। भाषा की दृष्टि से जो सरलतम इकाई है, वही जगत की भी सरलतम इकाई है, क्योंकि भाषा सदैव सत्ता का वर्णन करती है। यदि भाषा को तार्किक रूप से परिवर्तित किया जाए तो भाषा की संरचना जगत की संरचना को भी व्यक्त करेगी।
रसेल काल्पनिक पदार्थों से छूटकारा पाने के लिए तार्किक परम्परा का सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। इसके माध्यम से वे जगत के भौतिक तत्वों की स्थिति को स्पष्ट करते हैं। रसेल के अनुसार तार्किक संरचना सिद्धान्त के दो आयाम हैं:
(i) इस सरलतम तक कैसे पहुंचते हैं।
(ii) उस सरलतम को किस प्रकार भौतिक पदार्थ और मन आदि अवधारणाओं में रूपान्तरित करते हैं।
रसेल के अनुसार ज्ञान के दो रूप हैं- (i) साक्षात परिचय ज्ञान तथा (ii) वर्णनात्मक ज्ञान। साक्षात परिचय ज्ञान हमें केवल इंद्रिय प्रदत का मिलता है, वस्तुओं का नहीं। वस्तु का ज्ञान हमें वर्णन द्वारा प्राप्त होता है। जैसे- हम भेज को देखते हैं तब हमें चौकोरपन, ठोसपन इत्यादि का इन्द्रिय प्रदत्त का मिलता है। हम इनके आधार पर वस्तुओं की तार्किक संरचना कर लेते हैं। स्पष्ट है कि रसेल के अनुसार मेज जैसी वस्तु विभिन्न लोगों को प्राप्त विभिन्न-प्रदत्तों के आधार पर रचित एक तार्किक रचना है, अतः तथाकथित भौतिक वस्तओं का अपना निजी, स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। विभिन्न वस्तुये जहां इन्द्रिय-प्रदत्तों के आधार पर निर्मित तार्किक रचनायें हैं, वहीं आत्मा मनोदशाओं के आधार पर निर्मित तार्किक संरचना मात्र है, चूंकि इन्द्रिय प्रदत्तों में वस्तुनिष्ठता पायी जाती है, अतः एक वस्तु के बारे में प्रायः सभी एक ही प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हैं। रसेल का यह तार्किक संरचना का सिद्धान्त उन सभी तत्वों के अस्तित्व का निराकरण कर देता मों, जिन्हें हम अनुमानित करते हैं। रसेल अपने इस तार्किक संरचना के सिद्धान्त द्वारा मन और शरीर के द्वैत को समाप्त कर देते हैं। दोनों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। इन्हें भौतिक, आध्यात्मिक, शारीरिक, मानसिक आदि रूपों में विभक्त नहीं किया जा सकता है। रसेल के अनुसार दोनों तार्किक संरचनायें हैं जो अन्ततः इन्द्रिय प्रदत्तों के विभिन्न परिप्रक्ष्यों के संयोजन के आधार पर निर्मित होते हैं। रसेल इन दोनों को मूल द्रव्यों से निष्कर्षित करने का प्रयास करते हैं।
Question : आगमन पर ह्यूम का विचार।
(2002)
Answer : ह्यूम द्वारा कारणता का विश्लेषण विवाद विषय रहा है। इसी क्रम में इसने आगमन की समस्या पर भी विचार किया है। ह्यूम के अनुसार कारण कार्य के सम्बन्ध को अनिवार्य सिद्ध करने का क्या आधार है? परम्परागत रूप से इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए ‘प्रकृति की एकरूपता’ का सहारा लिया जाता है। प्रकृति की एकरूपता का अर्थ है कि प्रकृति समान परिस्थितियों में समान कार्य करती है। ऐसा अतीत या भूतकाल में सदैव होता रहा है, इसलिए भविष्य में ऐसा ही होगा। इस सम्बन्ध में ह्यूम की समस्या यह है कि अतीतकाल में प्रकृति की एकरूपता के आधार पर यह कैसे कहा जा सकता है कि भविष्य की अतीत के समान होगा। प्रकृति की एकरूपता स्वयं एक प्रकार के आगमनात्मक अनुमान पर आधारित है। अतः आगमन के आधार पर इसको सिद्ध नहीं किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सर्वव्यापी कथन या प्रतिज्ञप्ति की सत्यता को उसके अन्तर्गत आने वाले प्रत्येक उदाहरण की सत्यता का बिना परीक्षण किये ही स्वीकार किया जा सकता है। हम उसमें मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्वास कर सकते हैं। वास्तव में ह्यूम आगमन की समस्या के मनोवैज्ञानिक समाधान को स्वीकार करता है, किन्तु समस्या का मनोवैज्ञानिक समाधान दार्शनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है। वस्तुतः समस्या का स्वरूप तार्किक है, किन्तु ह्यूम आगमन की समस्या के तार्किक समाधान को सम्भव नहीं मानता है। वस्तुतः आगमन में प्राप्त ज्ञान संभाव्य सत्य की कोटि में आता है। उसके आधार पर किसी अनिवार्य सम्बन्ध का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता है। अतः आगमनात्मक दृष्टि से भी कारण-कार्य में किसी अनिवार्य एवं सार्वभौम संबंध की स्थापना नहीं की जा सकती है। दूसरे शब्दों में अनुभव के आधार पर कारण-कार्य सम्बन्ध की अनिवार्यता एवं सार्वभौमिकता को तर्कतः सिद्ध नहीं किया जा सकता।
Question : कांट का फ्समीक्षात्मक दर्शन"तर्क बुद्धिवाद और इन्द्रियानुभवाद के बीच एक समाधान है। इस टिप्पणी को पूरी तरह स्पष्ट कीजिए और पारम्परिक तत्व मीमांसा की संभावना के लिए ऐसे समाधान के परिणाम पर प्रकाश डालिए।
(2002)
Answer : कांट स्वयं अपने दर्शन को आलोचनात्मक दर्शन कहते हैं। यहां आलोचना का आशय किसी दार्शनिक ज्ञान या दार्शनिक पुस्तक की आलोचना करना नहीं है। साथ ही इसका आशय खण्डन करना या कमी बताना मात्र नहीं है। यहां आलोचना का वास्तविक अर्थ ज्ञान के वास्तविक स्वरूप उसकी सम्भावना, उसकी संरचना, प्रमाणिकता आदि का विवेचन, परीक्षण, आलोचना, समीक्षा एवं स्पष्टीकरण करना है। कांट का दर्शन दो कारणों से समीक्षावाद कहा जाता हैः
(i) कांट के पूर्ववर्ती सिद्धान्तों-बुद्धिवादी एवं अनुभववाद में ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान की संभावना, मनुष्य के ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता तथा ज्ञान की सीमा आदि का परीक्षण किए बिना सीधे ज्ञान सम्बन्धी सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। यहां कांट ज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करने के पूर्व इन सारी बातों की समीक्षा करते मों और तत्पश्चात अपना सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं।
(ii) कुछ विचारक इस कारण भी कांट को समीक्षावादी कहते मों, क्योंकि उन्होंने सीधे-सीधे अपना ज्ञान सिद्धान्त प्रस्तुत करने के बजाए अपने पूर्ववर्ती मतों की समीक्षा की है। कांट का यह समीक्षावाद समन्वयवाद का रूप ले लेता है। कांट के दर्शन में समन्वय की यह स्थिति निम्न रूपों में दिखाई देती हैः
ज्ञान का स्रोतः बुद्धिवादियों के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र यथार्थ बुद्धि है- जबकि अनुभववादियों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति का का एकमात्र यथार्थ स्रोत अनुभव है। कांट के अनुसार ये दोनों मत एकांगी हैं। ज्ञान न केवल इन्द्रियों से और न ही केवल बुद्धि से हो सकता है। इन्द्रियों से केवल ज्ञान की सामग्री मिलती है। यह सामग्री केवल इंद्र्रिय-संवेदन रूप है, जो अव्यवस्थित एवं वि शृंखलित है। अतः जब तक इन इन्द्रिय संवेदनाओं में परस्पर व्यवस्थापन एवं सम्बन्ध न हो तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । यह कार्य बुद्धि में निहित आकारों के द्वारा होता है। ज्ञान इन्द्रिय और बुद्धि का सम्मिलित परिणाम है। ज्ञान का विषय या सामग्री अनुभव से प्राप्त होता है। जबकि ज्ञान का आकार बुद्धि द्वारा प्रदान किया जाता है। कांट का कथन है किसंवेदन बिना संप्रत्ययों के अंधे हैं और सम्प्रत्यय बिना प्रत्यक्ष के शून्य है।"
स्पष्ट है कि कांट ज्ञान प्राप्ति में अनुभव और बुद्धि दोनों की भूमिका स्वीकार करते हैं। ज्ञान के दो पक्ष हैं। विषय तथा आकार। ज्ञान का विषय अनुभव से मिलता है, आकार बुद्धि से।
ज्ञान का लक्षणः बुद्धिवादी अनिवार्य एवं सार्वभौम ज्ञान पर बल देते हैं। अनुभववादी ज्ञान में नवीनता की स्थिति स्वीकार करते हैं। वहीं कांट ज्ञान के रूप में अनिवार्यता एवं सार्वभौमता के साथ-साथ नवीनता को भी मानते हैं। वे ज्ञान को पारिभाषित करते हुए कहते हैं कि ज्ञान संश्लेषणात्मक पद्धति पर जोर देते हैं, जबकि कांट ज्ञान की पद्धति को आगमनात्मक एवं निगमनात्मक दोनों मानते हैं।
निष्क्रियता एवं सक्रियताः अनुभववाद ज्ञान प्राप्ति में मन को निष्क्रिय मानता है, उदाहरणस्वरूप लॉक का कहना है कि मन निष्क्रिय रूप से सरल प्रत्ययों को प्राप्त करता है, दूसरी ओर बुद्धिवाद ज्ञान प्राप्ति में मन को सदैव सक्रिय मानता है। कांट के अनुसार ज्ञान प्राप्ति में मन इस अर्थ में निष्क्रिय माना जा सकता है कि वह ज्ञान सम्बन्धी सामग्री या विषय अपने भीतर से उत्पन्न नहीं करता। विषय वस्तु बाहर से आती है, परन्तु बोध शक्ति और प्रज्ञा शक्ति के आधार पर वह सक्रिय होकर ज्ञान का निर्माण करता है।
ज्ञान का प्रारम्भः अनुभववादियों के अनुसार कोई ज्ञान जन्मजात नहीं है जबकि बुद्धिवादियों के अनुसार ज्ञान जन्मजात है। (देकार्त एवं स्पीनोजा कुछ प्रत्ययों को जन्मजात मानते हैं जबकि लार्डबनित्ज सभी प्रत्ययों को जन्मजात मानते हैं) कांट के अनुसार ज्ञान का प्रारम्भ अनुभव से होता है, परन्तु ज्ञान का आकार बुद्धि से मिलता है, जो प्राग्नुभविक है।
क्षमताः अनुभववाद के अनुसार बुद्धि में अनिवार्य एवं निश्चित ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता नहीं है, जबकि बुद्धिवाद के अनुसार मनुष्य में ज्ञान प्राप्त करने की असीम क्षमता है। इसी मान्यता के कारण अनुभववाद की चरम परिणति संदेहवाद में होती है, जबकि बुद्धिवाद की परिणति बुद्धिवाद में होती है।
कांट के अनुसार हमें केवल संवेद्य वस्तुओं का ही ज्ञान प्राप्त होता है, जिसकी संवेदना नहीं मिलती है। इसका ज्ञान संभव नहीं है। दूसरे शब्दों में, देश और काल से परे वस्तु का वास्तविक स्वरूप अज्ञात एवं अज्ञेय है। कांट के इस निष्कर्ष से कांट के दर्शन में तत्वमीमांसा की सम्भावना समस्त हो जाती है क्योंकि ईश्वर आत्मा आदि अतिइन्द्रियां सत्ताएं हैं। इनका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो सकता है। ये अपरोक्षानुभूतिगम्य हैं। बुद्धि की शक्ति की पहुंच इन तक नहीं हैं। अतः तार्किक दृष्टि से इनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसी आधार पर कांट में ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में दिये गए प्रत्यय सत्ता मूलक युक्ति ब्रह्मांड मूलक युक्ति एवं प्रयोजन मूलक युक्ति का खण्डन किया है। परन्तु यह उल्लेखनीय है कि कांट ने आस्था को ईश्वर में विश्वास का आधार बताया है। अतः कांट के दर्शन में नैतिकता की पूर्वमान्यता के रूप मे तत्वमीमांसा सत्ताओं, ईश्वर आत्मा तथा संकल्प स्वातंत्र्य को स्वीकार किया गया है।
Question : मूर की सामान्य बुद्धि की प्रतिरक्षा।
(2002)
Answer : मूर एक सामान्य बुद्धिपरक वस्तुवाद के समर्थक हैं। उन्होंने प्रत्ययवाद का निराकरण करने के साथ-साथ विश्व के सम्बन्ध में अपने विचारों को प्रस्तुत किया। मूर द्वारा प्रतिपादित जगत सम्बन्धी अवधारणा सामान्य बुद्धि के अनुरूप है। मूर अभूर्त चिन्तन पर आधारित दार्शनिक समस्याओं का समर्थन नहीं करते हैं। उनके अनुसार दार्शनिक चिंतन सामान्य बुद्धि के अनुस्य होना चाहिए, अन्यथा दर्शन के क्षेत्र में एक जड़ता आ जाएगी। वे प्रायः सभी दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर सामान्य बुद्धि के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। बाह्य जगत की सत्ता का प्रतिपादन करते हुए मूर कहते हैं कि विश्व में अनेक प्रकार के भौतिक पदार्थ हैं जैसे मानव शरीर पेड़-पौधे, पहाड़, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, आदि। ये सभी पदार्थ देश में स्थित है। इसके अतिरिक्त ये पदार्थ काल के अन्तर्गत हैं। प्रत्येक भौतिक पदार्थ या तो भूतकाल में है या वर्तमान काल या भविष्यत काल में। इन भौतिक पदार्थो के अतिरिक्त चेतन पदार्थो का भी अस्तित्व है। मूर के अनुसार भौतिक पदार्थो के अस्तित्व के लिए अनिवार्य नहीं हैं कि मन का भी अस्तित्व हो। अतः बाह्य पदार्थो का अस्तित्व किसी चेतन प्राणी के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है। मूर ईश्वर तथा मृत्यु के बाद के जीवन को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं हैं। भौतिक पदार्थों के अस्तित्व के लिए ईश्वर को मानना मूर के सामान्य बुद्धि विषयक धारणा के अनुकूल नहीं है। मूर के द्वारा प्रतिपादित सामान्य बुद्धिपरक कथनों को विटगेन्सटाईन ने चुनौती दी है। उसने यह दावा किया है कि मूर ने जिन सामान्य बुद्धिपरक कथनों का सिद्ध करने का प्रयास किया है, वे कथन एक पूर्व मान्यता के रूप में स्वीकार किये जाते हैं। उनको सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः सामान्य बुद्धिपरक कथनों को मानकर ही लोग दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ करते हैं। परन्तु दर्शन केवल सामान्य बुद्धिपरक चिन्तन नहीं है। इससे तो दर्शन के क्षेत्र में जड़ता आ जाएगी। पुनः मूर सामान्य बुद्धि की धारणा का प्रयोग निष्कर्ष के रूप में करते हैं।
Question : सत्यापन सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए और दर्शाइए कि क्या यह सिद्धान्त तत्वमीमांसा को निराश पर पहुंचा देता है?
(2002)
Answer : सत्यापनीयता सिद्धान्त के उद्भव में पूर्ववर्ती विटगेन्सटार्डन का दर्शन उत्प्रेरक रहा है। विटगेन्सटार्डन कहते हैं कि किसी तर्कवाक्य का अर्थ वह है, जिसे वह प्रस्तुत करता है। सत्यापन किन-किन रूपों में होता है, और इसकी सीमायें क्या है? इसे लेकर तार्किक भाववादियों में मतभेद है। इस मतभेद के कारण इसमे निरन्तर विकास एवं परिवर्द्धन होता रहा है। एम. स्लीक के दर्शन में सत्यापनीयता सिद्धान्त की प्रारंभिक रूप रेखा दिखाई पड़ती है। इनके अनुसार किसी वाक्य का अर्थ उसके सत्यापन की विधि है। यहां समस्या यह है कि एक ही कथन का सत्यापन अनेक तरीकों से किया जा सकता है। अतः एक ही प्रतिज्ञप्ति का एक से अधिक अर्थ हो सकता है, साथ ही अनुभव व्यक्तिगत एवं सीमित होता है। ऐसी स्थिति में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है, इस सिद्धान्त का प्रचलित रूप एयर के दर्शन में दिखाई पड़ता है। एयर सत्यापनीयता सिद्धान्त को तीन रूपों में प्रस्तुत करते हैं:
जिस कथन के सत्य या असत्य होने का निर्णय व्यवहार में उपलब्ध साधनों के द्वारा शीघ्र हो जाए, वह सत्यापन को मानने पर बहुत से वैज्ञानिक कथन और भविष्योन्मुखी कथन भी निरर्थक हो जाएगें, क्योंकि इनका व्यावहारिक सत्यापन सम्भव नहीं है। एयर इसी कारण व्यावहारिक सत्यापन के साथ-साथ सैद्धान्तिक सत्यापन को भी स्वीकार करते हैं। उसके अनुसार सत्यापन दोनों स्तरों पर सम्भव है। इसी कारण ‘मंगल ग्रह पर जीवन है’ जैसे भविष्योन्मुखी कथन सार्थक है, परन्तु तत्वमीमांसीय कथन न तो व्यावहारिक दृष्टिकोण से सत्यापित होते हैं और न ही सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से। जैसे-ईश्वर सभी मनुष्यों से प्रेम करता है, यह निरर्थक कथन है।
जब किसी कथन का सत्यापन इन्द्रिय अनुभव द्वारा निश्चित रूप से होता है, तो वह सबल सत्यापन कहलाता है। निर्बल अर्थ में सत्यापन तब माना जाता है, जब किसी कथन की सत्यता और असत्यता का निर्णय संभाव्य रूप से हो। यदि केवल सत्यापन को ही स्वीकार किया जाए तो फिर बहुत से वैज्ञानिक कथन एवं सामान्य कथन भी निरर्थक हो जायेंगे। जैसे ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ वस्तुओं में आर्कषण शक्ति होती है आदि। ऐसे कथनों को निश्चयात्मक रूप से सत्यापित नहीं किया जा सकता है। एस- स्लिक का मानना है कि केवल सबल सत्यापन को ही स्वीकार करना चाहिए। निर्बल सत्यापन को वे ‘महत्वपूर्ण निरर्थक’ (important Nonsenge) मानते हैं, परन्तु सिल्क की बातों को मानने पर वस्तु स्थिति स्पष्ट नही होता हैं। ए-जे- एयर प्रारम्भ में केवल निर्बल सत्यापन को ही स्वीकार करते मों। इस पर लजरोबिज का कहना है कि (निर्बल) शब्द सबल सापेक्ष है। बिना सबल को माने निर्बल को नहीं माना जा सकता। एयर अपने Language Truth and Logic के दूसरे संस्करण में स्वीकार करते मों कि कुछ कथन सबल अर्थ में भी सत्यापित होते हैं। इन्हें एयर मूल प्रतिज्ञप्ति कहते हैं उदाहरणस्वरूप मैं इस समय दर्द में हूं। कारनेप ऐसी प्रतिज्ञिप्तयों को 'Protcol ptoposition' कहते हैं, परन्तु तत्वमीमांसीय कथन न तो निर्णय अर्थ में सत्यापनीय है और न सबल अर्थ में सत्यापनीय है। अतः ऐसे कथन निरर्थक हैं।
पुनः जब किसी प्रतिज्ञप्ति का सत्यापन इन्द्रियानुभव द्वारा प्रत्यक्ष रूप से हो जाए तो उसे अपरोक्ष सत्यापन कहते हैं। इस प्रकार की प्रतिज्ञप्तियों को निरीक्षण प्रतिज्ञप्तियां कहा जाता है। जब किसी कथन का सत्यापन परोक्ष रूप से हो तो उसे परोक्ष सत्यापन कहा जाता है। यहां समस्या यह है कि यदि केवल अपरोक्ष सत्यापन का माना जाए तो ऐतिहासिक कथनों के साथ-साथ बहुत सारे वैज्ञानिक कथन भी निरर्थक हो जाएंगें। कारनेप का कहना है कि यदि किसी कार्य का अपरोक्ष सत्यापन हो जाता है तो फिर उसे उत्पन्न करने वाले कारण का भी परोक्ष सत्यापन हो जाता है। जैसे विद्युतधारा का परोक्ष सत्यापन जलते हुए बल्ब को देखकर किया जा सकता है। एयर के अनुसार कोई कथन परोक्ष रूप से सत्यापित तब माना जाएगा, जब इसमें एक या अनेक कथनों को जोड़कर एक ऐसे निरीक्षण कथन को निर्मित किया जाए जो केवल उस अन्य कथन से निगमित न हो एवं जिसका प्रत्यक्ष सत्यापन सम्भव हो। निरीक्षण कथन का सम्बन्ध किसी विशेष अनुभवसूचक कथन से होता है। यहां एयर कहते हैं कि हम इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं- वर्षा होने पर गड्ढे़ भरे दिखाई देते हैं (p>q) वर्षा हुई (p) गढे़ भरे दिखाई दे रहे है। (q) ‘वर्षा हुई’ कथन के हम परोक्ष रूप से सत्यापित कर सकते हैं। यहां निष्कर्ष निकलता है कि वह प्रत्यक्ष रूप से सत्यापित है। अतः लिया गया कथन भी परोक्ष रूप से सत्यापित हो जाता है। आर्सिया बर्लिन का कहना है कि इस आधार पर किसी भी तत्वमीमांसीय सत्ता को सत्यापित किया जा सकता है। जैसे- ईश्वर का अस्तित्व है- इसे परोक्ष रूप से सत्यापित किया जा सकता है। इसे हम निम्नलिखित रूप में देख सकते हैं:
यदि ईश्वर का अस्तित्व है तो घास हरी है
ईश्वर का अस्तित्व है, घास हरी है।
यहां निष्कर्ष का प्रत्यक्ष सत्यापन हो जाता है। अतः इस आधार पर ईश्वर के अस्तित्व का परोक्ष सत्यापन भी मानना पड़ेगा। इस समस्या के कारण एयर अपने मत में संशोधन करते हैं। एयर के अनुसार किसी कथन को जिस कथन में मिलाया जाए, वह कथन या तो विश्लेषणात्मक हो या, प्रत्यक्ष रूप से सत्यापनीय हो या स्वतंत्र रूप से परोक्षतः सत्यापित हो। एयर के इस संशोधन से भी समस्या का समाधान नहीं होता गणितज्ञ अलेंज चर्च के एक सूत्र के माध्यम से आपेक्ष लगाते हैं:
यहां और तीन स्वतंत्र निरीक्षण कथन है। जबकि कोई भी तत्व मीमांसीय कथन हो सकता है। यहां इस सूत्र की सहायता सेको परोक्ष रूप से सत्यापित किया जा सकता है। अलेंज चर्च को इस आक्षेप के पश्चात एयर यह स्वीकार करते हैं कि सत्यापनीय सिद्धान्त को निश्चयात्मक रूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। इस सिद्धान्त को त्रुटिरहित रूप में प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है।
Question : वैयक्तिक अनन्यता विषयक ह्यूम के मत का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : ह्यूम के अनुसार आत्मा प्रत्यक्षों की एक प्रवाहमान शाश्वत धारा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, परन्तु इससे यह समस्या उत्पन्न होती है कि नित्य आत्मा के अभाव में वैयक्तिक अनन्यता की व्याख्या कैसे की जा सकती है। ह्यूम के अनुसार हमारे संस्कारों एवं प्रत्ययों को कोई स्वामी नहीं है। अन्तर्निरीक्षण से भी किसी कुटस्थ, नित्य तथा संस्कारों के आश्रय रूपी आत्मा का ज्ञान नहीं होता है।
ह्यूम के इस मत को अस्वामित्व का सिद्धान्त के नाम से जाना है। उसके अनुसार वैयक्तिक अनन्यता केवल एक काल्पनिक विचार है, यह हमारे संस्कारों आर प्रत्ययों के साहचार्य से उत्पन्न होता है। इस उद्धरण में ह्यूम के कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य की एकता प्रत्ययों के पारस्परिक सम्बन्धोंं पर निर्भर है। ये संबंध कारणता और सादृश्यता के द्वारा एकता को उत्पन्न करते हैं। इससे स्पष्ट है कि ह्यूम के अनुसार वैयक्तिक अनन्यता कारणात्मक संबंध के द्वारा सम्पन्न होती है।
ह्यूम के अनुसार समस्त मानव ज्ञान संस्कार जन्य हैं। ये संस्कार बौद्ध दार्शनिकों के स्वलक्षणों के समान मौलिक एवं विशिष्ट इकाइयां हैं। हमारा मन प्रत्ययों के प्रवाह से युक्त है। ये प्रत्यय परस्पर व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध और व्यवस्थित होता है। एक प्रत्यय के बाद दूसरा प्रत्यय स्वभावतः आ जाता है। ह्यूम ने इसे आनन्तर्य सम्बन्ध कहा है। प्रत्ययों की इस क्रमबद्धता के तीन प्रमुख आधार हैं। जिनके द्वारा साहचर्य नियम सम्पन्न होता है। ये तीन नियम हैं- (i) सादृश्यता का नियम (ii) दैशिक एवं कालिक संबंध (iii) कारण-कार्य संबंध
यदि दो प्रत्यय परस्पर समान होते हैं, तो इस सादृश्यता के कारण एक वस्तु के प्रत्यय के स्मरण से दूसरी वस्तु के प्रत्यय की स्मृति हमारे मन में सजीव हो उठती है। जैसे किसी मनुष्य का चित्र देखने से उस मनुष्य का प्रत्यय स्वाभाविक रूप से हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। इसी प्रकार दैशिक एवं कालिक सम्बन्धों की दृष्टि से एक ही स्थान अथवा एक ही काल में एक घटना दूसरी घटना के बाद घटित होती है। यहां पर भी एक घटना के प्रत्यय के बाद दूसरी धटना का प्रत्यय उपस्थित हो जाता है। तीसरे नियम के अनुसार यदि हम किसी व्यक्ति के घाव का स्मरण करते हैं तो उसके ठीक बाद उसके दर्द का प्रत्यय भी उसके मानस टल पर आ जाता है। घाव और दर्द में कारण कार्य संबंध है। इस प्रकार कारण कार्य नियम के अनुसार भी एक घटना के प्रत्यय के बाद दूसरी घटना का प्रत्यय उपस्थित हो जाता है। ह्यूम के अनुसार इन तीन नियमों में से किसी भी एक नियम के आधार पर दो प्रत्ययों में पारस्परिक साहचर्य हो सकता है। ये सभी नियम अनुभव जन्य एवं मनोवैज्ञानिक हैं। इनमें कोई तार्किक सम्बन्ध नहीं है जिसे अनिवार्य एवं सार्वभौमिक कहा जा सके। ह्यूम साहचर्य नियम का आधार आगमनात्मक सामान्यीकरण को मानता है। ह्यूम साहचर्य नियम को संपादित करने वाले इन तीनों सम्बन्धों को प्राकृतिक सम्बन्ध कहता है। इन नियमों के अन्तर्गत स्वाभाविक रूप में से एक प्रत्यय, दूसरे प्रत्यय के साथ उपस्थित होता रहता है, किन्तु हमारे प्रत्ययों की तुलना सदैव प्राकृतिक संबंधों पर ही निर्भर नहीं होती है।
पुनः वैयक्ति अनन्यता की व्याख्या के संदर्भ में ह्यूम का कथन है कि व्यक्ति दो भिन्न प्रकार के द्रव्यों का समावेश है। मन तथा शरीर। यहां ‘मन’ को अधिष्ठान के रूप में जाना जाता है जो विचारों, अनुभवों आदि का स्वामी है। ह्यूम वैयक्तिक अनन्यता की व्याख्या स्मृति और सादृश्यता के आधार पर करते हैं। वास्तव में सभी प्रत्यक्ष अलग-अलग होते हैं, वे निरन्तर एक-दूसरे का अनुवर्तन करते हैं। किन्तु स्मृति के फलस्वरूप हम कुछ प्रत्यक्षों में सादृश्यता का अनुभव करते हैं और इन प्रत्यक्षों या प्रत्ययों को अलग-अलग न मानकर उनके निरन्तर अस्तित्व की कल्पना कर लेते हैं। स्पष्ट है कि ह्यूम के अनुसार वैयक्तिक अनन्यता सत् या वास्तविक न होकर स्मृति पर आधारित कल्पना मात्र है।
ह्यूम के अनुसार स्मृति के अतिरिक्त वस्तुओं एवं व्यक्तियों में बहुत धीमी गति से होने वाले परिवर्तन भी वैयक्तिक अनन्यता की कल्पना में सहायक सिद्ध होते हैं। हम ऐसे परिवर्तनों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। परिणामस्वरूप कालान्तर में उसमें व्यापक परिवर्तन आ जाने के बाद भी हम यही कहते हैं कि वही वस्तु या व्यक्ति है।
परन्तु ह्यूम के द्वारा वैयक्तिक अनन्यता एवं आत्मा संबंधी तर्क तीव्र आलोचना का विषय रहा है। सर्वप्रथम यह कहा जाता है कि स्मृति अकेले नहीं रह सकती, स्मृति का स्मरणकर्ता अवश्य होना चाहिए, अर्थात् स्थायी आत्मा का होना आवश्यक है। पुनः विचार विचारक के बिना नहीं हो सकता। ऐसे विचार या अनुभव नहीं होते जो स्वच्छन्द विचरण कर रहे हों। स्थायी आत्मा को नहीं मानने पर अनुभवों में अन्तर की व्याख्या तर्कतः नहीं हो पायेगी। पुनः ह्यूम द्वारा आत्मा का खण्डन आत्मविरोधाभासी है। ह्यूम का कथन है कि "मैं आत्मा को नहीं पकड़ पाता" यहां मैं का तात्पर्य उसी आत्म तत्व से है, जिसका खण्डन किया जा रहा है। जान हार्सपर्स के अनुसार मुझे अनुभव का मात्र एक अनुभव के रूप में अनुभव नहीं होता बल्कि मेरे (आत्मा) अनुभव के रूप में होता है। इससे सिद्ध होता है कि मैं अर्थात् आत्मा का अस्तित्व है। पुनः ज्ञान की समुचित व्याख्या भी आत्मा के बिना नहीं हो सकती। स्पष्ट है कि वैयक्तिक अनन्यता के सम्बन्ध में ह्यूम का मत विसंगतियों से युक्त है।
Question : कांट की दिक्काल की संकल्पना।
(2001)
Answer : कांट अपनी पुस्तक बतपजपुनम वि चनतम त्मेंवद में ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति को शुद्ध बुद्धि कहते मों। संवेदन शक्ति के अन्तर्गत दो प्रागनुभविक आकार होते हैं। ये हैं- देश और काल। देश और काल बाह्य पदार्थ नहीं हैं, बल्कि मानसिक धर्म है। ये दोनों मानसिक चश्मों के समान हैं। जिस प्रकार नीला चश्मा पहनने पर सब कुछ नीला दिखाई देता हैं उसी प्रकार देश और काल भी मन के दो चश्में हैं, जिनके द्वारा मन बाह्य जगत को देखता है। इस देश और काल के कारण ही विश्व की प्रत्येक वस्तु को सदैव देश और काल में ही देखा जाता है। हम जैसे ही किसी वस्तु को देखते हैं, उसे दैशिक-कालिक क्रम में सजा देते मों। इस देश और काल की अनुभव से प्राप्ति नहीं होती बल्कि अनुभव की प्राप्ति देश और काल के माध्यम से होती है। हम देश और काल में नहीं हैं, बल्कि देश और काल हमारे अन्दर है। देश और काल सभी संवेदनाओं के अनिवार्य आधार हैं।
कांट यहां देश और काल के सम्बन्ध में प्रचलित अन्य मान्यताओं का खण्डन भी करते हैं। न्यूटन के अनुसार समय और काल वस्तुनिष्ठ पदार्थ हैं। भारतीय दर्शन में जैन और वैशेषिक दर्शन में भी इसी के समरूप अवधारणा दिखाई देती है। लार्डबनित्ज यह मानते हैं कि समय और काल गुण एवं सम्बन्ध हैं। कांट के अनुसार न तो समय और काल को वस्तुनिष्ठ पदार्थ माना जा सकता है और ही उसे गुण या सम्बन्ध के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। कांट समय और काल के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए दो पक्षों को तर्कतः प्रस्तुत करते मों:
(i) देश और काल अनुभव निरपेक्ष हैं; प्राग्नुभविक है।
(ii) देश और काल सम्प्रत्यय नहीं है, बल्कि शुद्ध प्रत्यय है।
परन्तु कांट की देश काल सम्बन्धी अवधारणा दोष युक्त है यदि देश काल वस्तुनिष्ठ नहीं तो फिर वस्तुओं को एक निश्चित दैशिक स्थिति में देखने का कोई आधार नहीं। रसेल के अनुसार दिक्काल की अवधारणा भी वस्तु सापेक्ष ही है। वस्तुतः देश काल सम्बन्धी कांट की अवधारणा तार्किक प्रयोगों पर आधारित नहीं है।
Question : रसेल का तार्किक रचना का सिद्धान्त।
(2001)
Answer : रसेल काल्पनिक पदार्थों से छूटकारा पाने के लिए तार्किक संरचना का सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। इसके माध्यम से वे जगत के भौतिक तत्वों की स्थिति को स्पष्ट करते हैं। रसेल के अनुसार तार्किक संरचना सिद्धान्त के दो आयाम हैं:
(i) इस सरलतम तक कैसे पहुंचते हैं।
(ii) उस सरलतम को किस प्रकार भौतिक पदार्थ और मन आदि अवधारणाओं में स्थान्तरित करते है।
रसेल के अनुसार ज्ञान के दो रूप हैं:
(i)साक्षात परिचय ज्ञान तथा
(ii)वर्णनात्मक ज्ञान।
साक्षात परिचय ज्ञान हमें केवल इन्द्रिय प्रदत्त का मिलता है। वस्तुओं का नहीं। वस्तु का ज्ञान हमें वर्णन द्वारा प्राप्त होता है। जैसे जब हम ‘मेज’ को देखते हैं, तब हमें चौकोरपन, ठोसपन इत्यादि का इन्द्रिय प्रदत्त ज्ञान मिलता है। हम इनके आधार पर वस्तुओं की तार्किक संरचना कर लेते हैं। स्पष्ट है कि रसेल के अनुसार मेज जैसी वस्तु विभिन्न लोगों को प्राप्त विभिन्न इन्द्रिय प्रदत्तों के आधार पर रचित एक तार्किक रचना है। अतः तथाकथित भौतिक वस्तुओं का अपना निजी, स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। विभिन्न वस्तुयें, जहां इन्द्रिय प्रदत्तों के आधार पर निर्मित तार्किक रचनायें हैं, वही आत्मा मनोदशाओं के आधार पर निर्मित तार्किक संरचना मात्र है। चूंकि इन्द्रिय-प्रदत्तों में वस्तुनिष्ठता पायी जाती है, अतः एक वस्तु के बारे में प्रायः सभी व्यक्ति एक ही प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हैं। रसेल का यह तार्किक संरचना का सिद्धान्त उन सभी तत्वों की सत्ता को निरस्त कर देता है। जिन्हें हम अनुमानित करते हैं या अनावश्यक रूप से निमित कर लेते हैं। रसेल अपने इस तार्किक संरचना के सिद्धान्त द्वारा मन और शरीर के द्वैत को समाप्त कर देते हैं। दोनों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है, अर्थात् इन्हें भौतिक आध्यात्मिक, शारीरिक मानसिक आदि रूपों में विभक्त नहीं किया जा सकता है। यहां रसेल मन और शरीर को एक दूसरे में विलीन करने का या एक दूसरे पर निर्भर करने का प्रयास नहीं करते हैं। जैसाकि पहले के दार्शनिकों ने किया है, जो अन्ततः इन्द्रिय प्रदत्तों के विभिन्न परिप्रेक्ष्यों के संयोजन के आधार पर निर्मित होते हैं। रसेल इन दोनों को मूल द्रव्य से निष्कर्षित करने का प्रयास करते हैं। विश्व इसी मूल द्रव्य से निर्मित है, जो न मानसिक है न भौतिक है। रसेल इस मूल पदार्थ को तटस्थ विशेष की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार मन बाह्य वस्तुएं दोनों ही तटस्थ विशेष घटनाओं के समूह मात्र हैं।
Question : तार्किक प्रत्यक्षवादियों की तत्वमीमांसा की निरसन संबंधी युक्तियों का मूल्यांकन कीजिए।
(2001)
Answer : तत्वमीमांसा प्राचीन काल से दार्शनिक के चिन्तन की मुख्य विषय-वस्तु रही है। तत्वमीमांसकों ने तत्व के स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक तात्विक सत्ताओं यथा प्राकृतिक तत्व, आत्म तत्व ईश्वर इत्यादि विषयक युक्तियां प्रस्तुत की हैं, जिन्हें वे आनुभविक वाक्यों से भी अधिक निश्चयात्मक मानते हैं। आधुनिक युग में विएना-सर्किल से उचित अनुभव एवं विज्ञान पर आधारित विचारधारा तार्किक-भाववाद इस परम्परागत तत्वमीमांसीय चिन्तन को दर्शन की विषय वस्तु से हटाकर अर्थहीन घोषित करती है। इस क्रम में वे तत्वमीमांसा का निरसन करते हैं।
तत्वमीमांसा की मौलिक अवधारणा यह है कि व्यावहारिक सत्ता से परे कोई आध्यात्मिक सत्ता अवश्य है। तत्वमीमांसा का उद्देश्य अनुभव से परे सत्ता का वर्णन करना है। तत्वमीमांसा के निराकरण का मूल आधार तार्किक भाववाद की इस अवधारणा में निहित है कि इन्द्रिय ज्ञान ही एकमात्र यथार्थ ज्ञान का स्रोत है, अर्थात् यदि इन्द्रियानुभव से परे कोई सत्ता है, तो वह अर्थहीन है। एयर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि कोई भी वाक्य जो हमारे इन्द्रियानुभव से परे सत्ता का कथन करता है। अर्थहीन है, कार्नेप ने भी तत्वमीमांसा को अर्थहीन कहा है।
तत्वमीमांसा के निरसन के लिए तार्किक भाववादी दो विधियों अपनाते हैं- (i) भाषा तार्किक विश्लेषण तथा (ii) सत्यापनीय सिद्धान्त या प्रमाणीकरण का सिद्धान्त। कार्नेप तत्वमीमांसा के निरसन के लिये भाषा के तार्किक विश्लेषण पर बल देते हैं। वे तत्वमीमांसा में प्रयुक्त भाषा का तार्किक विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि तत्वमीमांसा के सभी वाक्य प्राक्थन एवं शब्द अर्थहीन या निरर्थक हैं । यहां इसके लिए असत्य या अनुपयोगी या संदेहात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, बल्कि इसे अर्थहीन कहा गया है। इसे हम एक तत्वमीमांसीय कथन के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे- ‘ईश्वर का अस्तित्व है’। यह कथन आस्तिक तत्वमीमांसा के दृष्टिकोण से सत्य एवं अर्थपूर्ण है, जबकि नास्तिक तत्वमीमांसा इस कथन को असत्य कहेगी। इस कथन के सम्बन्ध में कोई संदेहवादी निश्चित प्रमाण न मिलने के कारण संदेहात्मक स्थिति को अभिव्यक्त करेगा। इन सबसे पृथक तार्किक भाववादी इस कथन को सत्य असत्य या संदेहात्मक न मानकर अर्थहीन कहेगा। कार्नेप भाषा के दो अंग मानते हैं- (i) शब्द भंडार तथा (ii) वाक्य विन्यास।
वाक्य अर्थपूर्ण तभी होते हैं, जब उसमें अर्थपूर्ण शब्दों को तार्किक नियमों के अनुरूप जोड़ा जाता है। अतः दो प्रकार से वाक्य भी उत्पन्न हो सकते हैं। यथा (i) या तो उनमें छदम शब्द व्यवहृत हो अर्थात् उनसे कोई अर्थ सूचित न हो। यथा आकाश-कुसुम बन्ध्या पुत्र आदि छदम शब्द हैं।
(ii) दूसरे प्रकार के वाक्य वे वाक्य हैं जिनमें व्यवहृत शब्द तो अर्थपूर्ण हैं, किन्तु उनका वाक्य विन्यास गलत है, जैसे ‘सीजर मूल संख्या है,’ ईमानदारी गेंद खेलती है। ध्यातव्य है कि उनमें प्रयुक्त शब्द सीजर, मूल संख्या, सदगुण आदि अर्थपूर्ण हैं, किन्तु उनका तार्किक विन्यास असंगत है। इन्हें जोड़ने में तार्किक नियम का उल्लंघन नहीं हुआ है। इस प्रकार उपर्युक्त वाक्य छदम कथन हैं। इस प्रकार कार्नेप यह दिखाते हैं कि ये सभी वाक्य अर्थहीन हैं, क्योंकि इन वाक्यों के विश्लेषण के मूल में कोई स्वानुभावमूलक वाक्य प्राप्त नहीं होता। कार्नेप के अनुसार तत्वमीमांसा के कथन प्रायः इन्हीं दो प्रकार के वाक्यों में रहते हैं। इनमें व्यवहृत शब्द कोई अर्थ सूचित नहीं करते तथा अधिकतर अथपूर्ण होते हुए भी तार्किक वाक्य विन्यास के उल्लंघन के कारण छदम कथन बन जाते हैं। कार्नेप ने ‘ईश्वर’ के शब्द का विश्लेषण करते हुए दिखाया है कि ईश्वर शब्द का पौराणिक अर्थ शायद कुछ भी हो, किन्तु उसका तात्विक अर्थ नहीं है।
पुनः भाववादियों ने अर्थ के सत्यापनीय सिद्धान्त के द्वारा भी तत्वमीमांसा के निरसन का प्रयास किया है। तार्किक भाववादियों के अनुसार संज्ञानात्मक अर्थ में केवल दो ही प्रकार के कथन सम्भव हैं- विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक कथन। विश्लेषणात्मक कथन की सत्यता का निश्चय कथन में आये हुए शब्दों से ही हो जाता है। इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती है। संश्लेषणात्मक कथन की सत्यता का निश्चय इन्द्रियानुभव द्वारा होता है। यदि कोई कथन ऐसा है जो न तो विश्लेषणात्मक और न ही सत्यापनीय है, तो वह निरर्थक है। तत्वमीमांसा के कथन इसी प्रकार के हैं जो न विश्लेषणात्मक हैं और न ही सत्यापनीय। अतः तत्वमीमांसा के कथन निरर्थक हैं। तार्किक भाववादियों के अनुसार जो संश्लेषणात्मक कथन सत्यापनीय हैं, वह सार्थक है। विटगेन्सटार्डन अपने टैक्टेट्स में कहते है कि किसी तर्कवाक्य का अर्थ वह चित्र है, जिसे वह प्रस्तुत करता है। वस्तु स्थिति के अनुरूप वाक्य साथ एवं वस्तु स्थिति से असंगत वाक्य असत्य होते हैं। विटगेन्सटार्डन के इसी विचार को तार्किक भाववादियों ने आगे बढ़ाया। सत्यापन की विधि के सन्दर्भ में तार्किक भाववादियों में मतभेद है, परन्तु इसका स्पष्ट रूप एयर के द्वारा अस्तित्व में लाया गया। सत्यापनीय सिद्धान्त तीन वर्गों में विभाजित हैः
(i)सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिकः जो कथन न व्यावहारिक हो तो कम से कम सैद्धान्तिक रूप से भी सत्यापनीय हो, तो वह कथन सार्थक कथन होगा, परन्तु तत्वमीमांसीय कथन न तो व्यावहारिक और न ही सैद्धान्तिक रूप से भी सत्यापनीय हैं, परन्तु इस सिद्धान्त में यह दोष है कि इस आधार पर भविष्य के साथ-साथ वर्तमान के भी कई कथन निरर्थक सिद्ध हो जाऐंगे, क्योंकि उनका इस आधार पर सत्यापन सम्भव नहीं है।
(ii)सबल और निर्बल सत्यापनः जब किसी कथन का सत्यापन सबल रूप से न सही, निर्बल रूप से ही हो जाए तो भी वह कथन सार्थक कथन माना जाएगा, परन्तु तत्वमीमांसीय कथन न तो सबल रूप से ओर न ही निर्बल रूप से सत्यापनीय हैं।
(iii)प्रत्यक्ष और परोक्ष सत्यापनीयः जब किसी कथन का सत्यापन अनुभव द्वारा प्रत्यक्ष रूप से हो जाए तो वह अपरोक्ष सत्यापन है। पुनः कार्नेप के अनुसार किसी कार्य का प्रत्यक्ष सत्यापन हो जाता है तो उसे उत्पन्न करने वाले कारण का परोक्ष सत्यापन हो जाता है। इस आधार पर भी तत्वमीमांसा कथन सत्यापनीय नहीं हैं, अतः सत्यापनीयता के सिद्धान्त के आधार पर भी तत्वमीमांसीय कथन निरर्थक है, क्योंकि ये सत्यापनीय नहीं हैं।
परन्तु सत्यापनीय सिद्धान्त की अपनी स्वयं की स्थिति स्पष्ट नहीं है। यह सिद्धान्त स्वयं में न तो विश्लेषणात्मक है और न अनुभव द्वारा सत्यापित। इसका अर्थ यह हुआ कि यह निरर्थक है। ज्ञान पासमोर का कथन है कि यदि हम विज्ञान को स्वतंत्र सिद्ध करने का प्रयास करते हैं तो तत्वमीमांसा स्वतः सार्थक सिद्ध होने लगती है। सत्यापनीय सिद्धान्त की तकनीकी आलोचना भी की जाती है। वाक्य और प्रतिज्ञप्ति में क्या अन्तर है? सत्यापन वाक्य का होता है या प्रतिज्ञप्ति का। वाक्य की विशेषता अर्थ है या सत्यता। इसी कठिनाई से बचने के लिए एयर ने कथन शब्द का प्रयोग किया है। पर वास्तव में तर्कशास्त्र में प्रतिज्ञप्ति और अर्थ में अन्तर नहीं किया गया है। विटगेन्सटार्डन का कहना है कि यहां विरोध हो उसे मापदण्ड नहीं बनाया जा सकता। सत्यापनीय सिद्धान्त में स्वयं विरोध है, अतः इसे अर्थ का मापदण्ड नहीं बनाया जा सकता। पुनः सत्यापन केवल सत्य या असत्य कथन का होता है। भाषा में ऐसे कथन होते हैं जो न सत्य होते हैं और न असत्य। रसेल के अनुसार कुछ वैज्ञानिक कथनों का न तो व्यवहारिक सत्यापन सम्भव है और न सैद्धान्तिक। फिर भी ये निरर्थक नहीं हैं। सत्यापन सिद्धान्त को मान लेने पर अहंमात्रवाद की सिद्धि होती है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव उसका व्यक्तिगत अनुभव होता है।
Question : ह्यूम का दृश्य प्रपंचवाद।
(2000)
Answer : ह्यूम विशुद्ध अनुभववादी है। यद्यपि ह्यूम के पूर्व लोक और बर्कले ने भी अनुभव को ज्ञान-प्राप्ति के एकमात्र स्रोत के रूप में स्वीकार किया था, लेकिन वे अनुभववाद का तार्किक रूप से अनुपालन नहीं कर पाए। लॉक अनुभववादी होते हुए भी मन-संरचित जटिल प्रत्ययों के रूप में ईश्वर, आत्मा और जगत की कल्पना कर लेते हैं। बर्कले लॉक से एक कदम आगे बढ़ते हुए जड़ की सत्ता का तो खण्डन कर लेते मों, परन्तु अनुभव जन प्रत्ययों के आधार के रूप में आत्मा और ईश्वर की सत्ता को अनुभव से परे होने के बावजूद स्वीकार कर लेते हैं। ह्यूम अनुभववाद को उसकी तार्किक पराकाष्ठा पर पहुंचाते हैं और जड़ जगत के साथ-साथ ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देते हैं। ह्यूम के अनुसार वस्तु तथ्यों का ज्ञान हमें अनुभव से मिलता है। यहां अनिवार्यता और सार्वभौमता नहीं होती, क्योंकि हम इसका विपरीत सोच सकते हैं। ऐसा सोचने से तार्किक व्याघात उत्पन्न नहीं होता। पुनः अनुभव व्यक्तिगत एवं वर्तमान काल तक सीमित होता है। ऐसी स्थिति में इनके माध्यम से अनिवार्य और सार्वभौम ज्ञान की प्राप्ति नहीं की जा सकती। ऐसे प्रत्येक ज्ञान पर संदेह किया जा सकता है। ह्यूम के इस निष्कर्ष के कारण लॉक एवं बर्कले द्वारा प्रतिपादित अनुभववाद संशयवाद में परिणत हो जाता है। संशयवाद वह विचारधारा है, जो वस्तुओं के अस्तित्व और ज्ञान के सम्बन्ध में कोई निश्चित निर्णय देने से इंकार करे। ह्यूम के अनुसार अनुभव हमें केवल संभाव्य ज्ञान ही प्रदान कर सकता है। हम अनुभव के आधार पर निश्चित एवं सार्वभौम ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकते। अतः वस्तु तथ्य विषयक ज्ञान संशयात्मक होता है। परन्तु ह्यूम को उग्र संशयवादी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यद्यपि ह्यूम ने वस्तु जगत, आत्मा, कारणता की अनिर्वायता आदि पर संदेह व्यक्त किया है। परन्तु अपनी विधि और निष्कर्ष पर नहीं। ‘सब कुछ सन्देहमय है’ ऐसा कहने वाला कम से कम इस कथन को अवश्य ही असंदिग्ध मानता है। यह ह्यूम का दृश्य प्रपंचवाद है, क्योंकि कारण कार्य के बीच की अनिर्वायता की धारणा को खंडित कर लॉक, बर्कले के जड़ आत्मा एवं ईश्वर की सत्ता के अस्तित्व पर भी संदेह करता है।
Question : ईश्वर के अस्तित्व के लिए साक्ष्यों की कांट की आलोचना बताइए और उसका परीक्षण कीजिए।
(2000)
Answer : दर्शनशास्त्र के इतिहास में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए परम्परागत रूप से तीन युक्तियां दी गई हैं। इन्द्रियानुभविक जगत में निहित कारण-कार्य के नियम के आधार पर इस जगत से परे जगत या सृष्टि आदि के कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है। इसके अतिरिक्त वस्तुओं के सामान्य अस्तित्व के आधार पर अनिवार्य सत्ता के अस्तित्व की स्थापना की जाती है। तीसरे तर्क के अन्तर्गत पूर्णता के प्रत्यय के आधार पर जगत की सर्वोच्च सत्ता का अनुमान किया जाता है। कांट ने सब से पहले प्रत्यय सत्ता मूलक युक्ति पर विचार किया है। इस युक्ति को वह प्राग्नुभविक प्रमाण भी कहता है। कांट के अनुसार यह युक्ति दोषपूर्ण है, क्योंकि इसमें अस्तित्व को एक गुणा मान लेने की मूल की गयी है। किंन्तु अस्तित्व कोई गुण नहीं है। उसमें गुणख्यापन की क्रमिक प्राग्प्रेक्षा है यदि अस्तित्व को एक गुण मान लेने की मूल की गई है। वस्तुतः अस्तित्व गुण का पूर्ववर्ती होता है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व उसमें गुण स्थापना की तार्किक प्राग्पेक्ष है। यदि अस्तित्व को गुण मान लिया जाए जो उस अस्तित्व रूपी गुण के आश्रय के रूप में एक अन्य अस्तित्व की कल्पना करनी पड़ेगी। किन्तु इस क्रम का कोई अंत नहीं हो सकता। पुनः कांट के अनुसार किसी वस्तु के प्रत्यय मात्र से उसका वास्तविक अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता, केवल प्रत्ययों से प्रत्ययों की ही सत्ता सिद्ध होती है। प्रत्यय के अनुरूप वास्तविक तत्व का होना अनिवार्य नहीं है। प्रत्यय सत्तामूलक तर्क को एक युक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाए तो यह युक्ति आत्माश्रय दोष या चक्रक दोष से ग्रस्त हो जाती है। इसे इस रूप में रखा जा सकता है- जो पूर्ण है वह सत् है, ईश्वर पूर्ण है, अतः ईश्वर सत् है।
इस युक्ति में ईश्वर की सत्ता को मुख्य आधार वाक्य में पहले से ही मान लिया गया है। सृष्टि वैज्ञानिक तर्क के अनुसार प्रत्येक कार्य या घटना अनिवार्यतः सकारण है। चूंकि सृष्टि अथवा जगत भी एक कार्य है, इसलिए इसका भी कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। इस युक्ति के अन्तर्गत जगत की कारण-कार्यशृंखला के अंतिम कारण के रूप में ईश्वर को सृष्टि का आदि कारण माना गया है। इस युक्ति का प्रारम्भ इन्द्रियानुभव से होता है। किन्तु अन्त में यह युक्ति अनुभव की सीमा का परित्याग करके अनुभव से स्वतंत्र रूप में ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास करती है। कांट के अनुसार यह युक्ति अनुभव का परित्याग करके बौद्धिक संप्रत्ययों के आधार पर अनिवार्य सत्ता के स्वरूप को निश्चित करने का प्रयास करती है। इस तर्क में यह पूर्व मान्यता निहित है कि निरपेक्ष सत्ता के अस्तित्व का अनुमान सत्ता के प्रत्यय के माध्यम से किया जा सकता है। इन्द्रियानुभव के आधार पर हम केवल प्राकृतिक जगत में स्थित आपातिक एवं अनिवार्य संप्रत्ययों को ही प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए इस तर्क के आधार पर किसी ईश्वर जैसी पारमार्थिक सत्ता के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। बुद्धि विकल्प होने के कारण कारणता का प्रयोग केवल प्राकृतिक जगत की सीमा के अन्तर्गत किया जा सकता है। पुनः कार्य-कारण कीशंृखला की अंतिम कड़ी के रूप में ईश्वर को मानने से ईश्वर को भी भौतिक मानना पड़ेगा।
भौतिक-धार्मिक युक्ति, प्राकृतिक जगत में वस्तुओं की संरचना, व्यवस्था, नियमबद्धता एवं सौन्दर्य को देखकर उसके व्यवस्थापक या शिल्पी के रूप में ईश्वर की सत्ता का अनुमान करती है। हमें सृष्टि में एक व्यवस्था और प्रयोजन दिखाई पड़ता है। यह व्यवस्था स्वयं प्राकृतिक वस्तुओं का कार्य नहीं हो सकती और न ही सीमित मानव ही इसका कारण हो सकता है। अतः कहा जा सकता है कि किसी निरपेक्ष सत्ता ने इस जगत में व्यवस्था एवं प्रयोजन स्थापित किया है। यह सत्ता ईश्वर है। कांट के अनुसार यह युक्ति भी आनुभविक जगत से सम्बन्धित अनुभव का परित्याग करके प्राग्नुभविक रूप से अपने निष्कर्षों को स्थापित करती है। सादृश्यानुमान पर आश्रित होने के कारण यह युक्ति ईश्वर की सृष्टि रचना के लिए उपादान आपेक्ष बना देती है। साम्यानुमान आगमनात्मक युक्ति के अन्तर्गत आता है। आगमनात्मक युक्ति के द्वारा स्थापित साथ केवल सम्भाव्य ही हो सकता है, अनिवार्य नहीं।
कांट के अनुसार हम केवल उन्हीं विषयों को जान सकते हैं, जिसकी संवेदना हमें मिलती है। हमें केवल प्राकृतिक जगत की संवेदना मिलती है, जो देश काल के माध्यम से हमें प्राप्त होती है। दूसरी ओर प्रज्ञा, अनुभव और बुद्धि की सीमा का अतिक्रमण करना चाहती है। जब प्रज्ञा अनुभव की सीमा की उपेक्षा कर उससे परे बुद्धि-विकल्पों का प्रयोग करने के लिए बाध्य करती है, तो अनुभवातीत भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। अनुभव से परे किसी भी अन्य तत्व पर बुद्धि-विकल्पों का प्रयोग असंगत है। बुद्धि-विकल्पों का यह अनुचित प्रयोग ही अनुभवातीत तत्व मीमांसा की उत्पत्ति का कारण होता है। इसलिए कांट अतीन्द्रिय तत्वमीमांसा की सिद्धि के प्रयासों का खण्डन करते मों।
कांट के अनुसार अनुभवातीत तत्वमीमांसा के रूप में दर्शनशास्त्र असम्भव है। किन्तु तत्वमीमांसा को असम्भव कहने का तात्पर्य न तो उसका निषेध करना है और न ही यह सिद्ध करना है कि निरर्थक है। अतीन्द्रिय तत्वमीमांसा को असम्भव कहने का आशय केवल इतना ही है कि वह तर्क बुद्धि के द्वारा ज्ञेय नहीं है। ईश्वर आत्मा और जगत के मूल तत्व मानव का विषय नहीं है। मानव-ज्ञान केवल प्राकृतिक जगत तक सीमित है। जिसकी संवेदना प्राप्त होती है। इससे परे धर्म और नैतिकता का क्षेत्र है। धर्म एवं अन्य नैतिक मूल्यों का आधार आस्था है। अतः आस्था और विश्वास के आधार पर ही तत्वमीमांसीय सत्ता को स्वीकार किया जा सकता है। इसे तर्क देकर सिद्ध नहीं किया जा सकता। उल्लेखनीय है कि कांट ने नैतिकता की पूर्व मान्यता के रूप में ईश्वर का अस्तित्व आत्मा की अमरता और संकल्प स्वातंर्य को स्वीकार किया है। कांट द्वारा ईश्वर मीमांसा की आलोचना वस्तुतः इस क्षेत्र में अन्तविरोधों को ये अंतविरोधी दिखाना है। व्याघात है, जिसका समाधान ईश्वरवादियों ने अपने-अपने ढंग से किया है।
Question : बुद्धिगत धारणाओें विषयक कांट के मत।
(1999)
Answer : कांट ज्ञान प्राप्ति के साधन को शुद्ध बुद्धि कहते मों। कांट के अनुसार शुद्ध बुद्धि के तीन पक्ष है- संवेदना, बोध शक्ति और प्रज्ञा शक्ति। संवेदना बाह्य जगत में संवेदनाओं को ग्रहण कर ज्ञान की सामग्री जमा करती है। बोध शक्ति के स्तर पर इन संवेदनाओं को सुव्यवस्थित कर ज्ञान का निर्माण किया जाता है। और प्रज्ञा शक्ति के स्तर पर इन्हें समष्टिगत रूप प्रदान किया जाता है। बोध शक्ति में 12 मूल धारणायें होती हैं, जिनके आधार पर संवेदना को व्यवस्थित कर ज्ञान का रूप दिया जाता है। ये सांचों के समान होते हैं, जिनमें ढ़लकर संवेदनाएं ज्ञान के रूप में निर्मित होती हैं। इन्हीं मूल धारणाओं को यहां बुद्धि की कोटि कहा गया है। कांट की ये 12 कोटियां आकारिक तर्कशास्त्र के 12 परामर्शों के अनुरूप हैं। यहां इन 12 कोटियों को चार वर्गों में विभाजित किया गया है और प्रत्येक वर्ग में तीन-तीन कोटियां हैं। ये चार वर्ग परिमाण, गुण, सम्बन्ध एवं विधि या प्रकार के रूप में हैं। इनमें से प्रत्येक कोटि एक विशेष प्रकार के परामर्श के रूप में ज्ञान को ढ़ालती हैं। ये कोटियां हैः
परिमाण वाचक- एकता, अनेकता, समग्रता;
गुणवाचक- सत्ता, निषेध, सीमा
संबंधवाचक- द्रव्य-गुण सम्बन्ध, कार्य-कारण सम्बन्ध और अन्योन्याश्रय सम्बन्ध
प्रकारतावाचक- संभावना एवं असंभावना, अस्तित्व एवं अनस्तित्व, अनिवार्यता एवं आपतिकता।
इन्द्रिय संवेदनाओं को ज्ञान के रूप में ढ़ालने की प्रक्रिया को कांट तीन चरणों में बताते हैं- (i) संवेदनाओं का मिश्रण (ii) संवेदनाओं की अवधारणा एवं (iii) पूर्व में प्राप्त संवेदनाओं का बाद में प्राप्त संवेदनाओं से संयोग। इन तीनों प्रक्रियाओं के सम्मिलित रूप को ही कांट ज्ञान-प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं। इस क्रम में ह्यूम के कार्य-कारण विश्लेषण का भी खण्डन करते हैं। कांट के अनुसार कार्य-कारण संबंध बुद्धि का एक विकल्प है। यह एक प्राग्नुभविक सिद्धान्त है। अतः आनुभविक घटनाओं के सम्बन्ध में कारणता सिद्धान्त का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन इस आधार पर किसी अनुभवातीत सत्ता को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
Question : निषेधात्मक तत्वों संबंधित रसेल की संकल्पना।
(1999)
Answer : तथ्य से रसेल का तात्पर्य है कि कुछ वस्तुओं में कुछ गुण हैं अथवा कुछ वस्तुओं में कुछ सम्बन्ध हैं, इससे तथ्य के एक महत्वपूर्ण रूप पर प्रकाश पड़ता है। तथ्य नाम या किसी एक शब्द से व्यक्ति नहीं होते। प्रतिज्ञाष्तियों से व्यक्त होता है। वस्तुतः रसेल का कहना है कि तथ्य वे हैं जो प्रतिज्ञाप्तयों को सत्य या असत्य बनाते हैं। यदि यह कहा जाता है कि ‘वर्षा हो रही है’ तो एक प्रकार के मौसम से यह वाक्य सत्य हो जाता है तथा दूसरे प्रकार के मौसममें असत्य हो जाता है। मौसम में कुछ ऐसी तथ्यात्मक स्थितियां होती है, जो इस वाक्य को सत्य या असत्य बनाती हैं। रसेल के तथ्य सम्बन्धी विचारों की मौलिकता इसमें भी है। रसेल एकमात्र विचारक हैं जिन्होंने विभिन्न प्रकार के तथ्यों को स्वीकार ने की आवश्यकता को समझा है। रसेल भावात्मक तथ्यों के साथ-साथ निषेधात्मक तथ्य को भी स्वीकार करते हैं। सामान्यतः यह माना जाता है जिस तथ्य से भावात्मक कथन सिद्ध होता है, उसी से निषेधात्मक कथन भी सिद्ध हो जाती है, परन्तु रसेल का ऐसा मानना है कि निषेधात्मक तर्कवाक्य के लिए निषेधात्मक तथ्य को मानना आवश्यक हैं। जैसे सुकरात जीवित नहीं हैं। यदि यह निषेधात्मक प्रतिज्ञप्ति असत्य है, तो फिर इसकी निश्चितता का पता भावात्मक तथ्य के आधार पर लगाया जा सकता है। परन्तु यदि यह निषेधात्मक सत्य है तो हमे इसके लिए निषेधात्मक तथ्य को मानना पडे़गा। विटगेन्सटाईन निषेधात्मक तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकिः
(i) निषेधात्मक तथ्य के अनुरूप कोई वस्तु नहीं है।
(ii) संवादिता सिद्धान्त के द्वारा न केवल भावात्मक तथ्य का पता चलता है कि अपितु निषेधात्मक तथ्य की भी जानकारी हो जाती है। जैसे यदि यह कहा जाए की ‘दीवार हरी है’ तो इसी से यह भी पता चल जाता है कि दीवार पीली नहीं है।
विटगेन्सटार्डन रसेल के विपरीत सामान्य तथ्य को भी स्वीकार नहीं करते है क्योंकि
(i) सामान्य तथ्यों के अनुरूप कोई वस्तु नहीं होती है।
(i) सामान्य तथ्यों को विशेष तथ्यों का सत्यता फलन कहा जाता है।
Question : सामान्य बुद्धि विषयक मूर की धारणा स्पष्ट कीजिए तथा उसके समर्थन के लिए उनके तर्कों की परीक्षा कीजिए।
(1999)
Answer : मूर ने दर्शन के क्षेत्र में प्रचलित बौद्धिक जटिलताओं के विरोध में सामान्य बुद्धि की रक्षा करने का प्रयास किया है। ये बौद्धिक जटिलतायें प्रत्ययवादियों (हीगल, ब्रेडले आदि) और संयशवादियों (ह्यूम) के कारण उत्पन्न हुई। ये दोनों एक तरफ तो कुछ ऐसे सिद्धान्तों को प्र्रतिपादित करते हैं जो हमारे सामान्य बुद्धि के विश्वासों के प्रतिकूल है, तो दूसरी तरफ वे कुछ ऐसी बातों का खण्डन करते हैं, जिन्हें हमारी सामान्य बुद्धि स्वभावतः स्वीकार किये रहती है। ऐसे दार्शनिक सिद्धान्तों के विरोध में ही मूर ने सामान्य बुद्धि का समर्थन किया है। मूर सामान्य बुद्धि की न तो कोई परिभाषा देते हैं और न ही उसका स्पष्टीकरण करते हैं। पुनः मूर सामान्य बुद्धि को मानव मन की संरचना को कारण उत्पन्न स्वाभाविक विश्वास एक विशेष प्रकार से सोचने की प्रवृति एक ठीक, अच्छा, व्यावहारिक निर्णय या औसत व्यावहारिक समझदारी आदि के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। मूर के अनुसार सामान्य बुद्धि के विश्वास ऐसे विश्वास है, जिन्हें प्रायः सभी व्यक्ति मानते हैं। ऐसे विश्वास हमारे वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होते हैं। इन विश्वासों पर हमारा जीवन आधारित होता है और इन्हीं विश्वासों के अनुरूप हम अपने जीवन को संचालित भी करते हैं। ये विश्वास जिस जगत में हम रहते हैं, उससे सम्बन्धित है। ये ऐसे विश्वास हैं जिनका आजतक खण्डन नहीं हुआ है, जैसे ये मेरा शरीर है, मेरे दो हाथ, ये मेरा दायां हाथ है, आदि।
मूर ने सामान्य बुद्धि की प्रतिरक्षा के सम्बन्ध में अपनी अलग-अलग कृतियों में कई तर्क प्रस्तुत किये हैं। कुल मिलाकर ऐसी 6 तर्क हैं, जिनके आधार पर वे सामान्य बुद्धि की प्रतिरक्षा करते हैः
(i)सार्वभौम स्वीकृति पर आधारित तर्कः मूर ने इसका प्रयोग सामान्य बुद्धि क्या है और इसकी प्रामाणिकता कैसे निर्धारित होती है? इन दोनों संदर्भो में किया है। उसके अनुसार वैसे विश्वास जिन्हें सभी लोग मानते हैं, जो शुरू से लेकर अभी तक सत्य है, जिनका अभी खण्डन नहीं हुआ हैं वे निश्चित रूप से सत्य विश्वास है। उदाहरण स्वरूप सभी लोग यह मानते हैं कि जिस जगत में वे रहते मों, उसमें बहुत सी भौतिक वस्तुयें हैं, उन्हीं के समान अन्य मनुष्य भी हैं। यहां ऐसे सारे विश्वास स्वभावतः साथ माने जाते हैं। यहां किसी आगमनात्मक या निगमनात्मक तर्क देने की आवश्यकता नहीं है कि मै हूं और मेरे दो हाथ हैं। यह सामान्य बुद्धि का विश्वास है।
(ii)बाध्यता सम्बन्धी स्वीकृति का तर्कः मूर के अनुसार कुछ ऐसे विश्वास हैं जिन्हें मानने के लिए हम बाध्य है। दार्शनिक दृष्टिकोण से भले ही इन्हें असत्य माना जाए, परन्तु व्यावहारिक दृष्टिकोण से हम इन्हें असत नहीं मान सकते। हम सभी जानते हैं कि पानी पीने से प्यास बुझती है। भोजन करने से भूख शान्त होती है। कोई दार्शनिक भले ही इसे सिद्धान्ततः असत्य मानता हो, परन्तु व्यावहारिक जीवन में वे इन्हें मानने के लिए बाध्य है। इन्हें माने बिना हमारा व्यावहारिक जीवन सुचारू रूप से संचारित नहीं हो सकता।
(iii)इन्द्रियानुभव से सम्बन्धित तर्कः इंद्रिय संवेदन ही हमें बतलाता है कि कोई विषय भी है, जो स्वयं इन्द्रिय-अनुभव नहीं है। जब हमें मेज का इन्द्रिय-संवेदन होता है तो इस इन्द्रिय-अनुभव से यह सिद्ध होता है कि मेज है। मेज इन्द्रिय-अनुभव नही है, बल्कि मेज के कारण इन्द्रिय अनुभव होता है। यदि मेज न हो तो मेज का इन्द्रिय अनुभव भी नहीं होगा। स्पष्ट है कि ये इन्द्रिय अनुभव या इन्द्रिय-संवेदन स्वयं ही अपने से परे वस्तुओं को सिद्ध करते हैं।
(iv)वैचारिक असंगति पर आधारित तर्कः सहज बृद्धि के विश्वासों को न मानने पर विरोधाभास उत्पन्न होता है। कई दार्शनिक आत्मा, अन्य मनुष्य, देश, काल आदि का खण्डन करते हैं। उसे असत्य रूप में व्याख्यायित करते हैं, परन्तु ऐसा मानना विरोधभास को जन्म देता है। उदाहरणस्वरूप संशयवादियों का कथन है कि इसमें से कोई यह नहीं जान सकता है कि अन्य मनुष्यों का अस्तित्व है। मूर के अनुसार इस वाक्य में असंगति है। यहां हममें से, का अर्थ ही है कि मेरे अतिरिक्त अन्य मनुष्य भी हैं। पुनः कुछ विचारक दिक् और काल को असत्य मानते हैं, परन्तु दिक और काल का खण्डन दिक् और काल के संदर्भ में किया जा सकता है।
(v)कुछ दार्शनिक स्वप्न एवं वास्तविक अनुभव में अन्तर नहीं करते और इस आधार पर वस्तु की सत्ता के निराकरण का प्रयास करते हैं। देकार्त ने भी अपने संदेह विधि के क्रम में इसका प्रयोग किया था। उन्होंने कहा था कि हो सकता है कि मैं अभी भ्रम में हूं, इस आधार पर वह वस्तु पर संदेह करता है। इस पर मूर का कहना है कि यदि सबकुछ स्वप्न है तो फिर स्वप्न का अर्थ है? स्वप्न का अर्थ तभी हो सकता है, जब उससे भिन्न कोई यथार्थ अनुभव भी हो। यहां दोनों सापेक्ष शब्द हैं। अतः स्वप्न से भी यह सिद्ध होता है कि यथार्थ अनुभव भी है।
(vi) मूर के अनुसार सहज बुद्धि के विश्वासों को हम पूरी दृढ़ता एवं निष्ठा के साथ स्वीकार करते हैं। यदि कोई इनके विरोध में किसी सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है, कोई तर्क प्रस्तुत करता है, तो भी ऐसे विश्वासों को हम नहीं छोड़ते हैं। इनको मानने के लिए हमारे उपर व्यावहारिक दबाव बना रहता है। जैसे यह मेरा दायां हाथ है, यह मेरा बायां हाथ है। ह्यूम जैसे संशयवादी भी व्यावहारिक दृष्टिकोण से ऐसे विश्वासों को बल प्रदान करते हैं।
परन्तु मूर ने सामान्य बुद्धि का कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण या परिभाषा नहीं दी है। मूर के तर्क एक दूसरे मिलते हैं। इनमें कोई भी युक्ति दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रबल युक्ति नही हैं। मूर कहते है कि जो सभी मानते हैं वे सत्य हैं परन्तु जो सभी मानते हैं वो असत्य भी हो सकते हैं, भूतकाल में कई सामान्य विश्वास वर्तमान काल में असत्य एवं असिद्ध हैं। मूर ने भाषा के साधारण अर्थ का प्रयोग किया है, परन्तु वे स्वयं सामान्य बुद्धि संबंधी विश्वास के साधारण अर्थ उल्लंघन करते हैं।
Question : मूर प्रत्ययवाद का खण्डन कैसे करते हैं? आलोचनात्मक मूल्यांकन करे।
(1998)
Answer : मूर के दर्शन पटल पर उदय के समय प्रत्ययवाद अपने शिखर पर था, लेकिन मूर सहज ज्ञान के अनुरूप वास्तववादी विचारधारा के मानने वाले थे। अतः अपने दार्शनिक सिद्धान्त को स्थापित करने के लिए मूर के लिए यह आवश्यक था कि प्रत्ययवाद का खण्डन किया जाए। उन्होंने यह कार्य अपने लेख प्रत्ययवाद का खण्डन के माध्यम से किया। मूर का प्रत्यय यह था कि यह खण्डन ऐसा हो कि प्रत्ययवाद की नींव हिल जाए और अपने इस प्रयास में वे सफल भी रहे। मूर के अनुसार प्रत्ययवाद की सर्वप्रमुख विशेषता वे तर्क हैं जिन्हें प्रत्ययवादियों ने अपने सिद्धान्त के समर्थन में दिया है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मूर ने प्रत्ययवाद के कुछ मुख्य सिद्धान्तों पर प्रहार किया। प्रत्ययवादियों का यह कहना है कि जो कुछ है, उसका होना उसके अनुभवजन्य होने पर निर्भर है। अनुभव से परे किसी वस्तु का अस्तित्व सम्भव नहीं है। इस तर्क को बर्कले की भाषा में ‘दृश्यते इति वर्तते’ कहा गया है। मूर द्वारा प्रत्ययवाद का खण्डन इसी पर केन्द्रित है।
मूर के अनुसार दृश्यते इतिवर्तते के संयोजक के व्यवहार में is का प्रयोग किया गया है। Esse is percipi में cupla is का व्यवहार तीन अर्थों में किया जा सकता है- प्रथम अर्थ में कहा जा सकता है कि is शब्द का अर्थ विधेय तथा उद्देश्य का पूर्ण तादात्मय है। अर्थात् Esse और Percipi दोनों पर्यायवाची है किन्तु इस स्थिति में Esse का percipi कहना Esee की परिभाषा देना है। किन्तु मूर के अनुसार कोई भी प्रत्ययवादी अपने सिद्धान्त की इस व्याख्या को स्वीकार नहीं करता। यदि वे ऐसा करते हैं तो इसे सिद्ध करने की चेष्टा नहीं करते। एसी स्थिति में यह स्वतः सिद्ध होता। अतः प्रत्ययवादियों द्वारा लिया हुआ अर्थ यह नहीं हो सकता।
दूसरे अर्थ में, Percipi न तो Esse का अर्थ है और न ही उसके अर्थ का कोई अंश, अर्थात् 'percipi' 'Esse' का एक नया गुण (लक्षण) है। इस प्रकार Esse Percipi एक संश्लेषणात्मक वाक्य होगा। किन्तु संश्लेषणात्मक वाक्य अनिवार्य नहीं होते हैं जबकि प्रत्ययवादी इसे अनिवार्य बताते हैं। मूर के अनुसार कोई संश्लेषणात्मक वाक्य अनिवार्य तभी हो सकता है, जबकि वह स्वतः सिद्ध हो। सामान्यतः स्वतः सिद्ध वाक्यों के लिए किसी युक्ति की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु इसे स्थापित करने के लिए प्रत्ययवादियों की युक्ति इस प्रकार है। उनके अनुसार किसी वस्तु का होना उसके देखे जाने पर निर्भर है, क्योंकि किसी अनुभव के विषय की हम अनुभवकर्ता से अलग कल्पना भी कर सकते अर्थात् प्रत्ययवादियों ने इस वाक्य की अनिवार्यता व्याघात नियम के आधार पर सिद्ध की है। किन्तु ऐसा वाक्य जिसके विरोध वाक्य की कल्पना सम्भव न हो, विश्लेषणात्मक होता है। इस प्रकार इस दृष्टि से(Esse is Percipi) एक साथ संश्लेषणात्मक और विश्लेषणात्मक दोनों है। जिसकी यह पूरी युक्ति ही आत्म विरोधी बन जाती है। अतः तीसरे अर्थ में भी Esse is percipi को मान्यता नहीं दी जा सकती।
मूर ने Esse is percipi के समर्थन में प्रत्ययवाद द्वारा प्रस्तुत तर्कों को समझने के लिए संवेदना तथा भाव प्रत्यय के स्वरूप का विवेचन किया है। मूर का मत है कि इनके निरूपण में प्रत्ययवादी क्रान्तियों में उलझ जाते हैं। मूर के अनुसार यद्यपि हरे की संवेदना और नीले की संवेदना में अन्तर है, किन्तु उन दोनों में सदृश्यता भी अवश्य है, क्योंकि दोनों ही संवेदनाएं हैं। मूर ने सादृश्यता को चेतना कहा है। अतएव हर संवेदना में दो तत्व स्पष्ट रूप से पाए जाते हैं- एक चेतना, जो कि हर संवेदना में अनिवार्य रूप से पाए जाते हैं। तथा दूसरा, वह जिसके चलते एक संवेदना दूसरी संवेदना से पृथक होती है। मूर ने इसे संवेदना का विषय कहा है। मूर के अनुसार प्रत्ययवादियों का सबसे बड़ा अपराध है- चेतना तथा उसके विषय को एकरूप मान लेना।
अंततः मूर के अनुसार प्रत्ययवादियों का आत्मविचार स्वतः प्रत्ययवाद का विरोधी है। यदि हर तत्व का होना उसके अनुभूत होने पर निर्भर है, तो आत्मा के अस्तित्व को भी स्वीकार नही किया जा सकता। यदि आत्मा का होना उसके अनुभूत होने पर निर्भर है तो आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व भी खण्डित हो जाता है। मूर के अनुसार जिन युक्तियों के आधार पर प्रत्ययवादी आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करना करते हैं, उन्हीं के आधार पर विषय की स्वतंत्रता को भी स्वीकार अनिवार्य है। बर्कले का आत्मनिष्ट प्रत्ययवाद लॉक के प्रतिनिधिवाद का परिणाम है। मन तथा वस्तु के सम्बन्ध को लेकर बर्कले ने जिस प्रत्ययवाद की आधारशिला रखी, उसके विरूद्ध दर्शन के क्षेत्र में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। यह प्रतिक्रिया जहां एक ओर प्रत्ययवादी मान्यताओं के विरूद्ध है, तो वहीं दूसरी ओर लॉक के ज्ञानमीमांसीय द्वैतवाद को अस्वीकार करता है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मूर ने प्रत्ययवाद पर सीधा प्रहार किया।
परन्तु मूर का यह मान लेना कि बर्कले की युक्ति सभी प्रत्ययवादियों के सिद्धान्तों का मूल आधार है, उचित नहीं है। प्लेटों हीगल जैसे प्रत्ययवादियों के लिए बर्कले का सिद्धान्त स्वीकार्य नहीं है। प्लेटो का कहना है कि प्रत्यय का ज्ञान किसी अनुभव पर आधारित नहीं है। हीगल के अनुसार निरपेक्ष प्रत्यायों की सत्ता अनुभव आधारित नहीं है। पुनः यहां बर्कले के प्रत्ययवाद का भी पूर्णतः खण्डन नहीं होता। बर्कले के दर्शन में दृश्यता सिर्फ मनुष्य पर निर्भर नहीं है, बल्कि उसका अन्तिम आधार और कारण ईश्वर है। मूर ने अपने खण्डन में ईश्वर का उल्लेख नहीं किया है। पुनः मूर 'is' शब्द के तीसरे अर्थ के खण्डन में सफल नहीं हो पाए हैं। मूर के अनुसार संश्लेषणात्मक कथन अनिवार्य नहीं हो सकता। कांट का कहना है कि कुछ संश्लेषणात्मक कथन अनिवार्य नहीं हो सकते हैं। क्वाइन के संश्लेषणात्मक एवं विश्लेषणात्मक कथनों में कोई आत्यांतिक भेद नही हैं। उनमें गुणात्मक भेद नहीं है, केवल मात्रत्मक अन्तर है। अतः इनके मध्य व्याघात नहीं माना जा सकता। पुनः कुछ ऐसी वस्तुयें हैं, जिनका अनुभव से अनिवार्य सम्बन्ध होता है। पुनः जिस प्रकार प्रत्ययवाद सिद्ध नहीं होता, वैसे ही वस्तुवाद भी सिद्ध नहीं किया जा सकता।
Question : तत्वमीमांसा के सम्बन्ध में एयर के मत का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
(1998)
Answer : तत्वमीमांसा के निरसन के प्रयत्न में एयर ने प्रमाणीकरण के सिद्धान्त पर अधिक जोर दिया है। ए.जे. एयर के अनुसार तत्वमीमांसा की आधारभूत मान्यता यह है कि एक अभौतिक सत्ता है। एयर के अनुसार वही कथन सार्थक हो सकता है जो या तो विश्लेषणात्मक हो या फिर तथ्यात्मक, अर्थात् अनुभव पर आधारित। विश्लेषणात्मक कथन पुनयुक्ति मात्र होती है। फलस्वरूप उनसे न तो स्वयं विश्व के विषय में कोई जानकारी मिलती है, और न ही कोई तथ्यात्मक कथन निगमित होता है। पुनरूक्तियों से भी कथन निकल सकता है, वह भी पुनरूक्ति ही होगा। यथा-त्रिभुज के तीन कोण होते हैं। कुमारी, अविवाहित है आदि। अतः तत्वमीमांसीय कथन विश्लेषणात्मक नहीं है। इसी प्रकार यदि यह आनुभविक है तो इसका अपरोक्ष या परोक्ष अनुभव परीक्षण की सम्भावना होनी चाहिए। अपरोक्ष अनुभव परीक्षण की सम्भावना तब होती है, जब किसी अन्य आधार वाक्य से जोड़ने पर उससे कोई निरीक्षण वाक्य निगमित हो। वह भी उस रूप में कि वह निरीक्षण वाक्य उस अन्य आधार वाक्य से पृथक रूप में न निकले। किन्तु तत्वमीमांसीय कथन अर्थपूर्णता की इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। पुनः परोक्ष अनुभव परीक्षण के लिए उपर्युक्त प्रथम शर्त (अपरोक्ष अनुभव परीक्षण) के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि उन वाक्यों को या तो विश्लेषणात्मक होना चाहिए था आनुभविक। ‘ईश्वर है’ वाक्य का विश्लेषण कर एयर ने दिखाया कि यह विश्लेषणात्मक नहीं है, क्योंकि विश्लेषणात्मक कथन पुनरूक्ति मात्र होते हैं जिनसे कोई नवीन जानकारी नहीं मिलती है, जो कि तत्वमीमांसा की मान्यता के सर्वथा विपरीत हो। इसी प्रकार ‘ईश्वर है’ वाक्य का अपरोक्ष या परोक्ष अनुभव परीक्षण भी सम्भव नहीं है, क्योंकि ‘ईश्वर है’, वाक्य तत्वमीमांसीय है और एक अनुभवतीत अतीन्द्रिय सत्ता का सूचक है। अतः ‘ईश्वर है’ वाक्य निरर्थक है।
यदि यह कहा जाए कि ‘ईश्वर है’, वाक्य को विश्व में व्याप्त व्यवस्था एवं प्रयोजन के आधार पर परोक्ष रूप से सत्यापित किया जा सकता है, तो इसे भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। यहां विश्व में व्यवस्था एवं प्रयोजन है- यह अनिवार्य स्वीकार्य कथन है, जिसे परोक्ष सत्यापनीयता की शर्त के अनुसार या तो विश्लेषणात्मक या आनुभाविक दोनों में से कोई एक होना आवश्यक है, किन्तु यह वाक्य न तो विश्लेषणात्मक है और न आनुभविक। विटगेन्सटार्डन का भी यह मानना है कि दर्शनशास्त्र भाषा की विवेचना है और भाषा अनुभवात्मक तथ्यों की प्रतिकात्मक प्रतिनिधि होती है। उसके अनुसार भाषा में दो प्रकार की प्रतीज्ञप्तियां होती हैं- (i) सरल प्रतिज्ञप्ति तथा (ii) मिश्रित प्रतिज्ञप्ति।
मिश्रित प्रतिज्ञप्ति को सरल प्रतिज्ञप्ति में विभाजित किया जा सकता है। यही कारण है कि विटगेन्सटार्डन भाषा को सरल प्रतिज्ञप्तियों का संकलन कहता है और प्रतिज्ञप्तियों की सत्यता के लिए प्रमाणीकरण के सिद्धान्त पर जोर देता है। उनके शब्दों, में प्रतिज्ञप्ति सदवस्तु का एक चित्र है। यही कारण है कि विटगेन्सटार्डन यह मानते हैं कि प्रत्येक अर्थपूर्ण भाषा बाह्य जगत का चित्र प्रस्तुत करती है। अतः यदि हम यह जानना चाहें कि कोई वाक्य सत्य है या असत्य, तो हमें बाह्य जगत का निरीक्षण करना होगा।
एयर तत्वमीमांसा की इस मान्यता का भी खण्डन करते हैं कि धार्मिक अनुभव अन्तः प्रज्ञात्मक अनुभव है, आदि के आधार पर ‘ईश्वर है,’ जैसे कथनों की अनुभव परीक्षा संभव है। एयर का कहना है कि यदि ये अनुभव हमारे साधारण अनुभवों जैसे- ‘लाल धब्बा है’ के समान है, तो ऐसे कथनों को अर्थपूर्ण माना जा सकता है, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि इन अनुभवों से एक अनुभवातीत सत्ता की बात की जाती है, तो फिर यह प्रश्न उठता है कि तत्वमीमांसीय कथनों को किस कोटि में रखा जाए। एयर के अनुसार ये शब्दजाल मात्र हैं, अर्थात् तत्वमीमांसा की रचना भाषा के तार्किक स्वरूप को न समझने के कारण सम्भव होती है। उदाहरणस्वरूप कुछ वाक्य व्याकरण की दृष्टि से समान होते हैं, अतः यह मान लिया जाता है कि उनकी तार्किक संरचना भी संभव है, जो कि असंगत है। यथा निम्न दो कथन व्याकरण की दृष्टि से समान हैं- (i) गुलाब लाल है (ii) गुलाब अस्तित्ववान है। किन्तु इस सामानता के आधार पर यह भ्रांति हो जाती है कि तार्किक दृष्टि से भी दोनों समान हैं, अर्थात् यह मान लिया जाता है कि लाल और अस्तित्व दोनों का प्रयोग किसी गुण के लिए हुआ है। तब यह मान लिया जाता है कि अस्तित्व एक गुण है जो कि असत्य है। जैसा कि कांट ने कहा है कि अस्तित्व कोई गुण नहीं है। हम जब भी किसी विषय पर किसी गुण का आरोपण करते हैं, जैसे गुलाब लाल है तो हम यह भी एक तरह से कह रहे हैं कि गुलाब अस्तित्ववान है। इस प्रकार अस्तित्व को अलग से एक गुण या लक्षण माने लें तो यह सभी भावात्मक प्रतिज्ञप्तियों को पुनरूक्ति बना देगा, जिनसे कोई नवीन जानकारी नहीं मिल सकती है। कुछ दार्शनिकों के अनुसार यद्यपि तत्वमीमांसा सम्भव नहीं है, किन्तु वह अर्थहीन भी नहीं है। जिस प्रकार कविता शब्दशः सार्थक न होते हुए भी हमारे भावों एवं संवेदनाओं को प्रभावित करती है, उसी प्रकार तत्वमीमांसा भी हमारे भावों और संवंगों को प्रभावित करते हैं, किंतु एयर तत्वमीमांसा और कविता में मौलिक अन्तर करते हैं। कविता तथ्यों का वर्णन नहीं करती, किन्तु तत्वमीमांसा का उद्देश्य वास्तविक तथ्यों का वर्णन करना होता है। सत्यापन सिद्धान्त से स्पष्ट है कि वह अपने इस उद्देश्य में सर्वथा असफल है, इसलिए एयर तत्वमीमांसकों को विस्थापित कवि कहता है। ‘ईश्वर अस्तित्वान है’ कथन मानवीय अनुभव द्वारा सत्यापनीय न होने के कारण तथ्यात्मक नहीं माना जा सकता। वह संश्लेषणात्मक या विश्लेषणात्मक कथन नहीं है। वास्तव में वह संवेगात्मक कथन है, जो वक्ता के ईश्वर संबंधी मनोभावों की प्रकाशित करता है। वक्ता का उसमें अडिग विश्वास होता है। वह उसके पक्ष में कोई तथ्यात्मक साक्ष्य नहीं दे सकता। सत्यापनीय सिद्धान्त जो कि तर्कीय प्रत्यक्षवाद की सार्थकता का मापदण्ड है, वह स्वयं ही मापदण्ड के अनुसार सार्थक नहीं है। विटगेन्सटार्डन एवं अन्य तर्कीय प्रत्यक्षवाद इसकी निरर्थकता को स्वीकार करते हैं। एयर इस आक्षेप से बचने के लिए कहते हैं कि सत्यापन के सिद्धान्त को मात्र परिभाषा के रूप में ही लिया जाना चाहिए, न कि आनुभविक वाक्य के रूप में।
Question : तर्क बुद्धिवाद एवं अनुभववाद का अधिक्रमण करके कांट इन दोनों के बीच सामंजस्य बैठाता है।
(1997)
Answer : कांट स्वयं अपने दर्शन को आलोचनात्मक दर्शन कहते हैं। यहां आलोचना का आशय किसी दार्शनिक ज्ञान या दार्शनिक पुस्तक की आलोचना करना नहीं है। साथ ही इसका आशय खण्डन करना या कभी बताना मात्र नहीं है। यहां आलोचना का वास्तविक अर्थ है ज्ञान के वास्तविक स्वरूप, उसकी सम्भावना, उसकी संरचना प्रामाणिकता आदि का विवेचन, परीक्षण, आलोचना, समीक्षा एवं स्पष्टीकरण करना। कांट के पूर्ववर्ती सिद्धान्तों बुद्धिवाद एवं अनुभववाद में ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान की सम्भावना, मनुष्य के ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता तथा ज्ञान की सीमा आदि का परीक्षण किये बिना सीधे-सीधे ज्ञान सम्बन्धी सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। यहां कांट ज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करने के पूर्व इन सारी बातों की समीक्षा करते हैं। तत्पश्चात अपना सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। कांट का यह समीक्षावाद समन्वयवाद का रूप ले लेता है। कांट के दर्शन में समन्वय की यह स्थिति निम्न रूपों में दिखाई देती है, बुद्धिवादियों के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति का एक मात्र यथार्थ स्रोत बुद्धि है, जबकि अनुभववादियों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र स्रोत अनुभव है। कांट के अनुसार दोनों मत एकांगी मों। ज्ञान न केवल इन्द्रियों से और न ही केवल बुद्धि सम्प्रत्ययों से होता है। इन्द्रियों से केवल ज्ञान की सामग्री मिलती है। यह सामग्री केवल इन्द्रिय सम्वेदन रूप है। जो अव्यय स्थित एवं वि शृंखलित है। अतः जब तक इन इन्द्रिय संवेदनाओं में परस्पर व्यवस्थापन एवं सम्बन्ध न हो, तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह कार्य बुद्धि में निर्मित आकारों के द्वारा होता है। ज्ञान इन्द्रिय और बुद्धि का सम्मिलित परिणाम है। ज्ञान का विषय या सामग्री अनुभव से प्राप्त होता है। जबकि ज्ञान का आकार बुद्धि द्वारा प्रदान किया जाता है। कांट का कथन है संवेदन बिना सम्प्रत्ययों के अंधे हैं और सम्प्रत्यय बिना प्रत्यय के शून्य हैं।" पुनः बुद्धिवादी अनिवार्य एवं सार्वभौम ज्ञान पर वक्त देते हैं जबकि अनुभववादी ज्ञान की नवीनता पर। परन्तु कांट ज्ञान की सार्वभौमता के साथ-साथ नवीनता पर भी बल देता है।
Question : द्वन्द्वात्मक प्रणाली की मुख्य बात यह है कि प्रत्येक विशिष्ट अभिवृत्रि या विश्वास के पक्षपाती दावे का तार्किक आधार पर हास्यास्पद बनाकर चुनौती देता है।
(1997)
Answer : तर्कीय परमाणुवाद एक तत्वमीमांसीय सिद्धान्त है जो विश्व के परम तत्वों के रूप में कुछ अणु की कल्पना करता है। अणु का अर्थ वह सरलतम अविभाज्य तत्व, जिसका और विभाजन नहीं हो सके। यह सिद्धान्त अणुवाद है, क्योंकि अणुवाद के तीन विशिष्ट एवं प्रधान लक्षण इसमें उपस्थित हैं- एक तो अणुवाद तत्वमीमांसीय सिद्धान्त है, जिसका लक्ष्य विश्व की तात्विक व्याख्या है। पुनः अणुवाद का दूसरा अनिवार्य लक्षण हैं कि वह अनेकवादी होता है। यहां भी अणुवाद यह मानकर चलता है कि विश्व में अनेक पृथक-पृथक तत्व हैं। पुनः अणुवाद का एक लक्षण यह भी है कि विचार का लक्ष्य कुछ अणुतत्वों की खोज है। ऐसे अणुतत्वों की खोज, जो विश्व की जानकारी देने में उपयोगी तथा अनिवार्य सिद्ध हो। पुनः यह अणुवाद तात्विक नहीं, तार्किक अणुवाद है। तात्विक अणुवाद या तो भौतिक होता है या जड़वादी। अणुवाद के समान या अभौतिक या आध्यात्मिक। यहां अणुवाद तार्किक है क्योंकि जिस अणुवाद की बात की जा रही हैं। वे भाषीय इकाई हैं, अणुवाक्य है जिनसे तथ्यों की जानकारी होती है। दूसरे शब्दों में, ये भाषीय विश्लेषण के द्वारा ही इन तक पहुंचा जा सकता है। इस प्रकार तार्किक अनुवाद के दो उद्देश्य हैं-
(i) जगत की सरल इकाई की खोज जिससे जगत की तार्किक व्याख्या हो सके।
(ii)जगत की वस्तुओं एवं जगत की संरचना को भाषा द्वारा सार्थक रूप से व्यक्त करना। तार्किक अणुवाद की संरचना को भाषा द्वारा सार्थक रूप से व्यक्त करना। तार्किक अणुवाद का सम्बन्ध रसेल एवं विटगेन्सटाईन दोनों से है।
तार्किक अणुवाद के अनुसार जगत की सरलतम इकाई अणु है। पुनः इन अणुओं तक पहुंचने की प्रक्रिया भौतिक रसायनिक या मनोवैज्ञानिक विश्लेषण न होकर तार्किक विश्लेषण है। दूसरे शब्दों में जगत की सरलतम इकाई तार्किक अणु तार्किक के अन्तिम परिणाम है। तार्किक अणुवाद के दो पक्ष हैं-
(i) तार्किक या भाषाई पक्ष
(ii) इसी के अनुरूप और इसी से निर्धारित तात्विक पक्ष।
यहां भाषा के विश्लेषण द्वारा यह बताया जा रहा है कि जगत में क्या है? तार्किक अणुवाद के तार्किक पक्ष में भाषा, भाषा की इकाई, प्रतिज्ञप्ति अणुवाक्य, अणुवाक्य और तात्विक वाक्य आते हैं, जबकि तार्किक अणुवाद के तात्विक पक्ष में विशेष गुण सम्बन्ध और तथ्य की खोज की गई है। रसेल का कहना है कि विश्व मूलतः इन्ही तत्वों से संरचित है।
Question : रसेल के वर्णन-सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए और पी.एफ. स्ट्रॉसन की आलोचना के विशेष संदर्भ में उसकी परीक्षा करें।
(1997)
Answer : रसेल ने मूर के साथ आरम्भ में यह माना था कि जितने भी शब्द सार्थक हैं, उनमें केवल वही शब्द सार्थक है, जो किसी न किसी वस्तु का निर्देश करते हैं और वह वस्तु ही उस शब्द का अर्थ है। यही रसेल का वर्णन सिद्धान्त कहलाता है। अधिकतर दार्शनिकों ने इस सिद्धान्त के स्वीकार किया था और उन्हीं की परम्परा में रसेल ने विशेषकर अपने पारंपरिक चिंतन में इस सिद्धान्त को माना। जैसे मेज शब्द वस्तु है, लेकिन यहां पर एक समस्या आती है कि बहुत से शब्द हैं जो ऐसी किसी वस्तु का निर्देश नहीं करते हैं। जिसका कि देश और काल में अस्तित्व हो। जैसे सोने का पहाड़ एक सींग वाला घोड़ा, वर्गाकार वृत। प्रश्न है कि क्या इन शब्दों को हम निरर्थक मान लें। इसका माइनांग ने समर्थन किया था, जिससे मूर और रसेल के साथ-साथ सभी वस्तुवादी दार्शनिक प्रभावित थे। माइनांग का यह कहना था कि प्रत्येक शब्द सार्थक है। वह किसी न किसी वस्तु का निर्देश करता है। यदि ऐसा सत्य है जिसके अनुरूप वास्तविक जगत की कोई वस्तु नहीं है, तो भी उसकी किसी-न-किसी रूप में सत्ता है। इस सत्ता को हम कह सकते है, इसका अस्तित्व नहीं है पर स्वत्व है। रसेल ने भी ऐसी सभी स्वरूप वस्तुओं को स्वीकार किया था।
रसेल यह कहना चाहते हैं कि ये दोनों सामाधान वास्तविक नहीं हैं, फिर समाधान क्या हो सकता है? रसेल मानता है कि अन्य दो प्रकार के शब्दों में या वाक्याशों में अन्तर कर सकते हैं। एक तरफ वे शब्द जिन्हें व्यक्तिवाचक नाम कहा जाता है। और ऐसे शब्द वास्तविक वस्तुओें का निर्देश करते हैं और इन शब्दों का अर्थ केवल इनके द्वारा निर्दिष्ट वस्तुए हैं। पहले को वर्णन का सिद्धान्त अब भी मानता है, पर उन्हें सीमित कर देता है। जिन्हें भी व्यक्तिवाचक नामकहा जाता है, ऐसे शब्द वास्तविक वस्तुओं का निर्देश करते हैं और इन शब्दों का अर्थ इनके द्वारा निदिष्ट वस्तुयें है। जैसे प्लेटो का अर्थ प्लेटो व्यक्ति है, दिल्ली का अर्थ दिल्ली शहर हैं इत्यादि। अगर बोर्ड शब्द व्याकरण की दृष्टि से व्यक्तिवाचक प्रतीत होता है, पर स्पष्ट नहीं है कि ऐसा व्यक्ति था या नहीं था। तब रसेल कहता है कि ये व्यक्तिवाचक नाम नहीं है, केवल संक्षिप्त वर्णन है। जैसे वह कहता है कि हेमलेट का प्रयोग व्यक्तिवाचक नाम की तरह किया जाता है। लेकिन हेमलेट था नहीं। इस नाम के अनुरूप कोई व्यक्ति नहीं था, इसलिए ये व्यक्ति वाचक नहीं हैं। जो व्यक्तिवाचक नाम है, या वस्तुओं को निर्देश करते हैं, वही उसका अर्थ है। यदि कोई शब्द जो वस्तु का निर्देश नहीं करता है तो व्यक्तिवाचक नाम नहीं है। बहुत से ऐसे वर्णनात्मक वाक्यांश हैं, जिनका प्रयोग नामों की तरह किया जाता है। जैसे The prime Minister, फ्रांस का वर्तमान शासक। हिन्दी में संदर्भ हमारी सहायता करते है। फिर रसेल कहता है उनका सरलता से निराकरण किया जा सकता है अर्थात् इनका ऐसे वाक्यों में रूपान्तरण किया जा सकता है, जिसमें में इस शब्द का प्रयोग न हो और अर्थ में कोई अन्तर न आए।
रसेल का कहना है कि चाहे निश्चित वर्णनात्मक शब्द हो या अनिश्चित वर्णनात्मक शब्द हो, इनका स्वतंत्र रूप में कोई अर्थ नहीं होता। जैसे हम सिर्फ इतना कहें कि फ्रांस का वर्तमान शासक या एक मनुष्य बेवर्ली का लेखक, तब इन शब्दों का अर्थ नहीं। इनका अर्थ प्रतिज्ञप्तियों में प्रयोग करने पर ही होता है। रसेल कहता है कि इस तरह के शब्द अपूर्ण प्रतीक हैं। उसने यह गणित से लिया है। जैसे + - × आदि का अपने आप में कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन वर्णनात्मक शब्दों का निराकरण किया जा सकता है। जैसे बेवर्ली का लेखक स्काट है। इसे हम इस तरह लिख सकते हैं:
(i) कम से कम एक व्यक्ति ने बेवर्ली लिखा।
(ii) अधिक-से अधिक एक व्यक्ति ने बेवर्ली ने लिखा।
(iii) जिसने बेवर्ली लिखा, वह स्काट है।
इन तीनों वाक्यों में कहीं भी वर्णनात्मक शब्द या वाक्यांश नहीं आया है। यहां बेवर्ली का लेखक का वाक्यांश का निराकरण हो गया, लेकिन इससे अर्थ में कोई अन्तर नहीं आया। ‘बेवर्ली’ का लेखक का जो अर्थ है, वही अर्थ इन तीनों वाक्यों का भी है। इसके आधार पर जो सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष है वह यह है कि व्याकरणात्मक आकार तार्किक आकार नहीं है। हमारी बहुत सी समस्यायें व्याकरणात्मक आकार को तार्किक आकार मान लेने से उत्पन्न होती हैं। व्याकरणिक आकार तार्किक आकार को छिपाता है।
स्ट्रॉसन ने अपने लेख श्वद त्ममिततपदहश् में विस्तार से रसेल के इस सिद्धान्त को लेकर आलोचना की है। स्ट्रासन का कहना है कि रसेल ने निर्देशात्मक शब्दों और निर्देशन की क्रिया में अन्तर नहीं किया। जब हम किसी वस्तु के संबंध में कुछ कहना चाहते हैं तो हमें निर्देशात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे- व्यक्तिवाचक नाम, सर्वनाम, वर्णनात्मक शब्द। ये निश्चित भी हो सकते मों और अनिश्चित भी। इनके द्वारा प्रायः निर्देशन का कार्य किया जाता है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि इनमें से कोई शब्द अपने आप में निर्देशन का कार्य करता है। स्ट्रॉसन के अनुसार रसेल की दूसरी गलती यह है कि रसेल ने वाक्य में और वाक्य के प्रयोग में अंतर नहीं किया है। स्ट्रॉसन के अनुसार अंतर यह है कि वाक्य अपने आप में न सार्थक होता है, न निरर्थक होता है। जब वाक्य का प्रयोग कथन के लिए किया जा रहा है तो कथन या तो सत्य होता है या असत्य होता है। रसेल की तीसरी गलती यह है कि रसेल ने यह मान लिया था कि प्रत्येक वाक्य का प्रतिज्ञाप्ति में उसके अर्थ में ही अस्तित्व का कथन निहित होता है। स्ट्रॉसन ये कह रहा है कि जब रसेल यह कहता है कि फ्रांस का वर्तमान शासक गंजा है, तो इस कथन में यह भी कहा जा रहा है कि फ्रांस में वर्तमान काल में शासक है। इस वाक्य का उद्वेश्य हुआ फ्रांस का वर्तमान शासक गंजा और विधेय हुआ, उसका गंजा होना। स्ट्रॉसन का कहना है कि जहां स्पष्ट रूप से कथन न किया गया हो, वहां हम अस्तित्व के कथन को वाक्य का भाग नहीं बना सकते। ऐसे संदर्भ में उद्देश्य का ही होना उस कथन के प्रयोग की पूर्व अपेक्षा है।
तार्किक प्रत्यक्षवादः अर्थ का सत्यापन सिद्धांत; तत्वमीमांसा का अस्वीकार; अनिवार्य प्रतिज्ञप्ति का भाषिक सिद्धांत