Question : लाइबनिज का चिद्णुवाद (चिढ़णु विज्ञान)।
(2007)
Answer : लाइबनिज के चिद्णुवाद में चेतन और जड़तत्व के भेद को स्वीकार नहीं किया गया है। वह भौतिक परमाणुओं की अवधारणा का खण्डन करता है। यदि परमाणुओं को भौतिक माना जाए जो विस्तार से युक्त होने के कारण वे विश्लेष्य (विभाज्य) होंगे। अतः तार्किक दृष्टि से भौतिक परमाणुओं को अविभाज्य नहीं कहा जा सकता है। इसके फलस्वरूप विभाज्य परमाणु अविनाशी नहीं कहा जा सकता है। इसके फलस्वरूप विभाज्य परमाणु अविनाशी द्रव्य नहीं हो सकता। अतः जड़तत्व को वास्तविक तत्व के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उसके अनुसार केवल चैतन्य ही वास्तविक तत्व हो सकता है। चूंकि चेतना विस्तार से रहित होती है, इसलिए उसका विभिन्न अवयवों में विभाजन और विश्लेषण नहीं हो सकता है। अपने इस अविभाज्य एवं चेतन तत्व को लाइबनिज ने ‘चिद्णु’ कहा है।
लाइबनिज के चेतन अणु ही निरवयव, सरल, अविभाज्य और अविनाशी तत्व हो सकते हैं। इन्हीं चिद्णुओं के द्वारा संपूर्ण सृष्टि की रचना हुई है। लाइबनिज के चिद्णु निरवयव और अविभाज्य होते हुए भी अपूर्त संप्रत्यय नहीं हैं। ये वास्तविक तत्व अर्थात् वस्तु सत् है।
परन्तु चिद्णु विज्ञान सम्बन्धी लाइबनिज का सिद्धान्त दोष युक्त है। इन्होंने देकार्त के द्वैतवाद एवं निमितेश्वरवाद के तार्किक दोषों को दूर करने का प्रयास किया है, साथ ही स्पिनोजा के सर्वेश्वरवाद से भी बचने का प्रयास किया हैं, परन्तु लाइबनिज ने एक ओर ईश्वर को को चिदणुओं का स्रष्टा कहा है तो दूसरी ओर उनके दर्शन में ईश्वर स्वयं एक चिदणु है। एक ओर उसने द्रव्यों के बहुत्ताववाद का प्रतिपादन किया, तो दूसरी ओर एक परम चिदणु की सहायता से परस्पर असम्बद्ध चिदणुओं में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। वस्तुतः चिदणुओं की पुर्णता एवं स्वतंत्रता और उनका सांजस्यपूर्ण होना तर्कसंगत नहीं हो सकता है। पुनः लाइबनिज ने चिदणुओं को गुणात्मक दृष्टि से समान माना है क्योंकि सभी चिदणु चेतन हैं, किन्तु पुनः लाइबनिज ने उन्हें श्रेणियों में विभक्त कर दिया है। इन कठिनाईओं के होते हुए भी लाइबनिज का बहुआयामी दार्शनिक अनुशीलन दर्शन जगत को प्रभावित करता है।
Question : स्पीनोजा के सार सिद्धान्त को स्पष्ट करें।
(2006)
Answer : स्पीनोजा के दर्शन की शुरूआत निरपेक्ष द्रव्य से ही होती है। स्पीनोजा के अनुसार ईश्वर एक निरपेक्ष द्रव्य है। स्पीनोजा के अनुसार द्रव्य वह है जो अपने में रहता है और अपने द्वारा ही समझा जाता है अर्थात इसके ज्ञान के लिए किसी अन्य वस्तु के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है। द्रव्य की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि द्रव्य अपने अस्तित्व और ज्ञान के लिये किसी दुसरी वस्तु पर आश्रित नहीं होता है। उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार ज्यामिति में कुछ मौलिक नियमों से अनेक उपनियमों को सिद्ध किया जाता है, उसी प्रकार स्पीनोजा के द्रव्य से उसके अन्य दार्शनिक सिद्धान्त तर्कतः फलित होते हैं। द्रव्यकी इस परभाषा के आधार पर द्रव्य के बारे में कुछ निष्कर्ष नियमित किए जा सकते हैं।
चूंकि प्रत्येक वस्तु अपने अस्तित्व और ज्ञान के लिए द्रव्य पर आश्रित है, इसलिए केवल द्रव्य ही अपने उपर निर्भर करता हो सकता है। इससे सिद्ध होता है कि द्रव्य स्वतंत्र है। स्पीनोजा के दर्शन में स्वतंत्र का प्रयोग आत्मनिर्धारण के अर्थ में किया गया है। इस दृष्टि से द्रव्य अपने स्वभाव के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकता। स्पीनोजा के दर्शन में स्वतंत्रता स्वेच्छाचारिता नहीं है। चूंकि द्रव्य अपने ज्ञान के लिए किसी अन्य तत्व पर निर्भर नहीं है, इसलिये यही एकमात्र परम सत्ता है। इससे स्पष्ट है कि निरपेक्ष द्रव्य ही ईश्वर है। यदि एक से अधिक द्रव्यों की सत्ता को माना जाए तो उसकी स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। इस प्रकार ईश्वर स्वतंत्र, अद्वितीय एवं एक निरपेक्ष द्रव्य है।
स्पीनोजा के अनुसार द्रव्य प्रत्येक वस्तु का आदि कारण है। यदि द्रव्य को आदि कारण या स्वयंभू न माना जाए तो एक वस्तु दूसरी वस्तु का और दूसरी वस्तु तीसरी वस्तु का कारण होगी। इस क्रम में ‘अनावस्था दोष’ से नहीं बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि द्रव्य के कारण-रूप में किसी अन्य तत्व को माना जाए तो द्रव्य की स्वतंत्रता और निरपेक्षता की रक्षा नहीं की जा सकती है। द्रव्य की परिभाषा के अनुसार द्रव्य अपने ज्ञान और अस्तित्व के लिए आत्मनिर्भर है। इससे सिद्ध होता है कि अन्य द्रव्य स्वतः सिद्ध है। उसके ही प्रकाश से प्रत्येक वस्तु आलोकित होती है। वह सृष्टि के कण-कण में अपने को अभिव्यक्त करता है। दूसरे शब्दो में द्रव्य (ईश्वर) अन्तर्यामी है। द्रव्य (ईश्वर) सब में है और सब कुछ द्रव्य के अन्तर्गत है। यह दृष्टि स्पीनोजा को सर्वेश्वरवाद की ओर ले जाती है। चूंकि स्पीनोजा का द्रव्य ‘पूर्ण’ अर्थात आप्तकाय है, अतः उसे किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है। यदि द्रव्य को पूर्ण न माना जाए तो पुनः उसकी निरपेक्षता और स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि द्रव्य असीम है क्योंकि उसे सीमित करने वाली कोई वस्तु नही है। इसी कारण स्पीनोजा ने द्रव्य को ‘अन्नत’ कहा है।
चूंकि द्रव्य पूर्ण असीम, नित्य सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी है, इसलिए सीमित एवं अपूर्ण मानव बुद्धि तथा भाषा के द्वारा उसका निर्वचन नहीं हो सकता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर अनिर्वचनीय है। वस्तुतः द्रव्य के निर्गुण होने से उसकी अनिर्वचनीयता भी सिद्ध होती है। स्पीनोजा का प्रसिद्ध कथन है- ‘प्रत्येक निर्वचन निषेधात्मक होता है।’
स्पीनोजा के अनुसार किसी वस्तु के गुण का विवेचन करना उसमें अन्य गुणों का निषेध करना होता है। जैसे जब हम कहते हैं कि गाय सफेद है, तो उसके लाल, पीला, हरा, नीला आदि रंगों का निषेध हो जाता है। स्पीनोजा के अनुसार किसी वस्तु के गुणों का वर्णन करने से वह वस्तु उन गुणों से सीमित हो जाती है। चूंकि द्रव्य असीमित और पूर्ण है, इसलिए गुणों के आधार पर उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। इसकी तुलना शंकराचार्य के इस कथन से की जा सकती है- यदि सीमित (अपूर्ण) मानव असीमित ब्रह्म को समझ सकता है तो उसका बांध तात्विक रूप में अनन्त है, अथवा ब्रह्म अनन्त नहीं हो सकता। अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते है- "प्रत्येक शब्द किसी का संकेत उस वस्तु की किसी न किसी जाति, गुण, कर्म अथवा संबंध की किसी वृति विशेष के साथ सहचर्य युक्त होकर ही कर सकता है। किन्तु ब्रह्म में कोई गुण, जाति, संबंध, क्रम आदि नहीं हैं, इससे स्पष्ट है कि शंकराचार्य के ब्रह्म के समान स्पीनोजा का द्रव्य भी निर्गुण हैं, अतः उसका वर्णन भाषा के द्वारा नहीं किया जा सकता है। किन्तु निरपेक्ष सत्ता को निर्गुण कहने का अर्थ गुणों से रहित होना नहीं है। स्पीनोजा के अनुसार परिणाम या संख्या की दृष्टि से गुण असीमित हैं, इसलिए उनकी गणना नहीं की जा सकती है। इससे स्पष्ट है कि अनन्त (असंत्य) गुणों से युक्त होने के कारण स्पीनोजा अपने द्रव्य को निर्गुण और अनिर्वचनीय कहता है।
यही कारण है कि वह निरपेक्ष द्रव्य का संकेत करने के लिये माध्यमिक द्वेत और अद्वैत वेदान्त के समान निषेधात्मक पद्धति का प्रयोग करता है। नेति-नेति ही स्पीनोजा के ईश्वर अथवा शंकर के ब्रह्म का सर्वोत्तम निर्वचन है। यह निर्विशिष्ट तत्व अपरोक्षानुभूति अथवा प्रज्ञात्मक ज्ञान का विषय है।
स्पीनोजा के अनुसार ईश्वर और सृष्टि में अभेद्य (तादात्य) सम्बन्ध है। जगत द्रव्य से अनन्य है। ईश्वर ही सृष्टि का कारण है। परन्तु यहां कार्य-कारण का प्रयोग प्रचलित अर्थ में नहीं है। सृष्टिकी रचना में ईश्वर का कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि ईश्वर पूर्ण है। सृष्टि ईश्वर से निष्क्रमण द्वारा भी अस्तित्व में नहीं आती क्योकि ईश्वर के बाहर कुछ भी नहीं। सृष्टि और ईश्वर में तार्किक सम्बन्ध है, दैशिक और कालिक नहीं। सृष्टि और ईश्वर की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है, परन्तु स्पीनोजा का यह विचार आलोचना से परे नहीं है, क्योंकि ईश्वर और सृष्टि में अभेद्य संबंध होने से संसार में अशुभ की व्याख्या नहीं हो पाती है, कुछ दार्शनिक स्पीनोजा को सर्वग्रासी मानते हैं। ईश्वर की प्रकृति से व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता है। शंकर की तरह प्रकृति को विवर्त न मानना स्पीनोजा की भूल है जिसका निराकरण वे नहीं करे पाए।
Question : देकार्त के द्वैतवाद पर चर्चा कीजिए।
(2006)
Answer : देकार्त के दर्शन की सबसे बड़ी समस्या उसका द्वैतवाद है। देकार्त ने स्वतंत्र सत्ता से युक्त होने को द्रव्य की प्रमुख विशेषता माना है। उसके अनुसार- "द्रव्य वह है जो स्वतंत्र अस्तित्व से युक्त हो एवं जिसका चिन्तन और अस्तित्व किसी अन्य वस्तु की अवधारणा एवं चिन्तन पर आश्रित न हो। देकार्त ने द्रव्य का निम्न भेद माना है।"
देकार्त के अनुसार आत्मा एक विचारशील द्रव्य है। जड़ एक विस्तारवन द्रव्य है। आत्मा और जड़ द्रव्य दोनों परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाले द्र्रव्य है। हमें आत्मा का ज्ञान साक्षात रूप में प्रतिमान के द्वारा होता है। किन्तु बाह्य जड़ पदार्थ का ज्ञान परोक्ष रूप में होता है। देकार्त प्रत्यय प्रतिनिधित्ववादी है। उसके अनुसार बाह्य जगत हमारे ज्ञान के साक्षात विषय नहीं है। यह अपने प्रतिविम्बों के माध्यम से ही आत्मा के लिए ज्ञेय होता है। लेकिन लॉक के विपरीत देकार्त के प्रतिनिधित्ववाद का आधार अर्न्त दृष्टि है। वह विस्तार के प्रत्यय को जन्मजात मानता है, अतः विस्तार का ज्ञान प्रत्यक्ष का पूर्ववर्ती है।
इससे स्पष्ट है कि देकार्त ज्ञानमीमांसीय और तत्व मीमांसीय दोनों दृष्टियों से द्वैतवादी है। ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से वह ज्ञान के तीन प्रमुख कारक मानता है। (i) आत्मा में स्थित प्रत्यय (ii) बाह्य वस्तुयें तथा (iii) आत्मा में स्थित प्रत्ययों और बाह्य पिण्डों में समरूपता। आधुनिक युग में विज्ञान के प्रभाव में विश्व की व्याख्या एक मशीन के रूप में की गयी है। इस यंत्र रूपी विश्व को जानने के लिए यह आवश्यक है कि ज्ञाता के मन में किसी न किसी प्रकार से इसका प्रतिनिधित्व अवश्य हो।
देकार्त तत्व मीमांसीय दृष्टि से द्वैतवादी है क्योंकि वह आत्मा एवं अनात्मा दोनों को परस्पर विरोधी स्वरूप और गुणों से युक्त मानता है। आत्मा चेतन द्रव्य है जो नित्य चिन्तनशील है। इसके ठीक विपरीत अनात्मा (जड़) एक अचेतन द्रव्य है जो सदैव विस्तार से युक्त और विचार से पूर्णतया रहित (विचार शुन्य) है। दूसरे शब्दों में, आत्मा विचारशील और विस्तार शून्य है। इसके विपरीत अनात्मा(शरीर) विस्तारवान और विचार शून्य है। वैसे तो गुणात्मक दृष्टि से आत्मा और जड़ तत्व ये दो सापेक्ष द्रव्य हैं। किन्तु परिणाम (संस्था) की दृष्टि से अनेक जीवाज्मायें चेतन द्रव्य के विचार नामक गुण के विकार हैं। यद्यपि आत्मा और जड़ तत्व सापेक्ष द्रव्य है, तथापि वे ईश्वर के द्वारा रचित या सृष्ट द्रव्य हैं। अर्थात् वे ईश्वर से उत्पन्न और ईश्वर पर आश्रित हैं। ईश्वर पर आश्रित होने के कारण आत्मा एवं अनात्मा का यह द्वैत और परस्पर विरोधी स्वभाव कुछ अंशों में सामंजस्यपूर्णं हो जाता है।
यद्यपि देकार्त के समान आचार्य रामानुज की चित्-अचित् और ईश्वर इन तीन तत्वों को स्वीकार करते हैं, तथापि दोनों दार्शनिकों के दृष्टिकोणों में कुछ मौलिक अन्तर है। दोनों विचारकों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि रामानुजाचार्य के अनुसार चित् अचित और ईश्वर की अपृथक सिद्ध एकता ही ब्रह्म है, किन्तु देकार्त के दर्शन में आत्मा, अनात्मा और ईश्वर के बीच इस एकता का अभाव है।
देकार्त के विपरीत रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी हैं और उसके समक्ष आत्मा और शरीर के पारस्परिक सम्बन्ध की व्याख्या करना कोई जटिल समस्या नही हैं। वह तत्वत्रय के बीच अपृथक समबन्ध का प्रतिपादन करता है। देकार्त आत्मा और शरीर के सम्बन्ध की व्याख्या करने के लिए अन्तः क्रियावाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता हैं, अन्तः क्रियावाद के अनुसार आत्मा और शरीर एक दूसरे के प्रति क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। एक तत्व की क्रिया से दूसरे तत्व में प्रतिक्रिया होती है। इस प्रकार वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रश्न उठता है कि चेतन और अचेतन तत्व एक-दूसरे को क्यों प्रभावित करते हैं? यदि वे परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं तो उन्हें एक-दूसरे से स्वतंत्र कैसे कहा जा सकता है? देकार्त के अनुसार आत्मा और शरीर में अंतःक्रिया एक पीनियल ग्लैण्ड के माध्यम से होती है। पीनियल ग्लैण्ड शारीरिक है क्योंकि यह मस्तिष्क का सूक्ष्मतम मध्य भाग है। देकार्त ने इसे आत्मा का आसन कहा है। यद्यपि आत्मा संपूर्ण शरीर में व्याप्त होता है, तथापि उसका प्रमुख स्थान पीनियल ग्लैण्ड है। शारीरिक परिवर्तनों के कारण पीनियल ग्लैण्ड भी गतिशील हो जाता है, जिसके कारण वहां पर स्थित आत्मा भी हिल जाता है। इसके परिणामस्वरूप आत्मा संवेदनाओं और भावनाओं को अनुभव करने लगता है। इसी प्रकार ऐच्छिक कार्यों, संकल्पों , भावनाओं, इच्छाओं आदि के अनुसार यह आत्मा के क्रियाशील होने पर पीनियल ग्लैण्ड भी गतिशील हो जाती है। इस प्रकार आत्मा एवं शरीर क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
परन्तु देकार्त द्वारा द्वैतवात का यह समाधान संतोषजनक नहीं है। समस्या यह है कि यदि आत्मा और शरीर को तथाकथित मिलन केन्द्र (पीनियल ग्लैण्ड) शारीरिक है तो उसे विस्तार युक्त कहा जाएगा। यदि पीनियल ग्लैण्ड विस्तारवान है तो वह विस्तार से रहित आत्मा का मिलन केन्द्र कैसे हो सकता है। इसके अतिरिक्त यदि मन और शरीर एक दूसरे से नितान्त भिन्न स्वभाव वाले हैं तो उनमें अंतःक्रिया कैसे हो सकती है।Question : मन और शरीर दो अन्योन्यकारी पदार्थों के रूप में।
(2005)
Answer : आत्मा और शरीर के सम्बन्ध की व्याख्या आधुनिक यूरोपीय दर्शन की एक जटिल समस्या है। यह समस्या देकार्त के द्वैतवाद से प्रारंभ होती है। उसके अनुसार आत्मा एवं शरीर दोनों एक दूसरे से पृथक और स्वतंत्र हैं। आत्मा चैतन्य से युक्त है। इसके विपरीत शरीर एक भौतिक तत्व है जिसमें केवल विस्तार पाया जाता है। देकार्त आत्मा को चेतन द्रव्य और शरीर को जड़ द्रव्य मानता हैं। जो परस्पर विरोधी गुणों से युक्त है। आत्मा चिंतनशील है पर विस्तार रहित है। परन्तु शरीर केवल विस्तारवान है और उसके चिंतन का नितान्त अभाव है। देकार्त के अनुसार मनुष्य न केवल मन है और न केवल शरीर है। वह दोनों का संयुक्त रूप है।
प्रश्न उठता है कि दो परस्पर विरोधी गुणों वाले द्रव्य (आत्मा, शरीर) परस्पर कैसे संबंधित हो सकते हैं, आत्मा और शरीर में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए देकार्त ने अंतः क्रियावाद या क्रिया प्रतिक्रियावाद का प्रतिपादन किया है। जिसके अनुसार मस्तिष्क के पास एक पीनियल ग्लैण्ड (जो शरीर का एक भाग है) के माध्यम से मन और शरीर में क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। परन्तु यह इस समस्या का संतोषजनक समाधान नहीं है, क्योंकि पीनियल ग्लैण्ड स्वयं शरीर का एक भाग है। अतः यह मन/आत्मा के साथ अंतः क्रिया नहीं कर सकता। इस समस्या के समाधान के रूप में स्पीनोजा ने समानान्तरवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार मानसिक एवं भौतिक द्रव्य न होकर गुण है और एक ही द्रव्य के दो पहलू है। अतः मानसिक और शारीरिक क्रियायें एक दूसरे के समानान्तर रूप में धारित होती है। क्योंकि ये एक ही द्रव्य के दो गुण हैं और विपरीत गुणों वाले होने के बावजूद भी इनमें कोई विरोध नहीं है। परन्तु लार्डबनित्ज ने स्पीनोजा के गुणों के द्वैत को स्वीकार नहीं किया तथा ईश्वर द्वारा पूर्व स्थापित सामंजस्य के माध्यम से मन शरीर संयोग को संभव बताया। परन्तु इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता खण्डित होती है। आगे चलकर स्ट्रॉसन ने ‘व्यक्ति सिद्धान्त’ के द्वारा व्यक्ति को इकाई रूप में स्थापित किया, जिससे मन शरीर समस्या का समाधान कुछ सीमा तक संभव हो सका।
Question : स्पीनोजा का परम पदार्थ का संप्रत्यय।
(2005)
Answer : स्पीनोजा अपने दर्शन का प्रारम्भ निरपेक्ष द्रव्य से करता है। उसके अनुसार ईश्वर एक निरपेक्ष द्रव्य है। स्पीनोजा के अनुसार फ्द्रव्य वह है जो अपने में रहता है और अपने द्वारा समझा जा सकता है।"अर्थात् इसके ज्ञान के लिए किसी अन्य वस्तु के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है। द्रव्य की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि द्रव्य अपने अस्तित्व और ज्ञान के लिए किसी दूसरी वस्तु पर आश्रित नहीं होता है। उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार ज्यामिति में कुछ मौलिक नियमों से अनेक उपनियमों को सिद्ध किया जा सकता है, उसी प्रकार स्पीनोजा के द्रव्य से उसके दार्शनिक सिद्धान्त तर्कतः फलित होते हैं। द्रव्य की इस परिभाषा के आधार पर द्रव्य के बारे में कुछ निष्कर्ष तर्कतः निगमित किए जा सकते हैं।
सर्वप्रथम इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि द्रव्य स्वतंत्र है। यहां स्वतंत्रता का प्रयोग आत्मनिर्धारण के लिया किया गया है। चूँकि इसलिए यही एकमात्र परम सत्ता है। इससे स्पष्ट है कि निरपेक्ष द्रव्य ही परम पदार्थ ईश्वर है। द्रव्य की इस परिभाषा से यह भी सिद्ध होता है कि ईश्वर एक है। यदि एक से अधिक द्रव्य की सत्ता मानी जाए तो उनकी स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। स्पीनोजा के अनुसार द्रव्य प्रत्येक वस्तु का आदि कारण है। द्रव्य को यदि आदि कारण न माना जाए तो फिर अनावस्था दोष का क्रम उपस्थित होगा। पुनः द्रव्य स्वतः सिद्ध है। वह अन्तर्यामी है। यह सब में है और सब कुछ इसमें है। यह दृष्टि स्पीनोजा को सर्वेश्वरवाद की ओर ले जाती है। स्पीनोजा का द्रव्य पूर्णं अर्थात् आप्तकाय है। चूंकि द्रव्य असीम है, अतः यह अनन्त भी है। पुनः द्रव्य पूर्णं असीम, नित्य, सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी होने के कारण सीमित एवं अपूर्ण मानवबुद्धि तथा भाषा के द्वारा उसका निर्वाचन नहीं हो सकता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर अनिर्वचनीय है। वस्तुतः द्रव्य के निर्गुण होने से उसकी अनिवार्यनीयता भी सिद्ध होती है। इसी आधार पर शंकर भी ब्रहम के निवर्चन के लिए ‘नेति नेति’ का प्रयोग करते हैं।
Question : स्पीनोजा के अनुसार द्रव्य की प्रकृति और विशेषणों से उसके संबंध की व्याख्या करें।
(2002)
Answer : स्पीनोजा के दर्शन की शुरूआत निरपेक्ष द्रव्य से ही होती है। स्पीनोजा के अनुसार ईश्वर एक निरपेक्ष द्रव्य है। स्पीनोजा के अनुसार द्रव्य वह है जो अपने में रहता है और अपने द्वारा ही समझा जाता है अर्थात इसके ज्ञान के लिए किसी अन्य वस्तु के ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है।
द्रव्य की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि द्रव्य अपने अस्तित्व और ज्ञान के लिये किसी दुसरी वस्तु पर आश्रित नहीं होता है। उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार ज्यामिति में कुछ मौलिक नियमों से अनेक उपनियमों को सिद्ध किया जाता है, उसी प्रकार स्पीनोजा के द्रव्य से उसके अन्य दार्शनिक सिद्धान्त तर्कतः फलित होते हैं। द्रव्यकी इस परभाषा के आधार पर द्रव्य के बारे में कुछ निष्कर्ष नियमित किए जा सकते हैं।
चूंकि प्रत्येक वस्तु अपने अस्तित्व और ज्ञान के लिए द्रव्य पर आश्रित है, इसलिए केवल द्रव्य ही अपने उपर निर्भर करता हो सकता है। इससे सिद्ध होता है कि द्रव्य स्वतंत्र है। स्पीनोजा के दर्शन में स्वतंत्र का प्रयोग आत्मनिर्धारण के अर्थ में किया गया है। इस दृष्टि से द्रव्य अपने स्वभाव के विरूद्ध कार्य नहीं कर सकता। स्पीनोजा के दर्शन में स्वतंत्रता स्वेच्छाचारिता नहीं है। चूंकि द्रव्य अपने ज्ञान के लिए किसी अन्य तत्व पर निर्भर नहीं है, इसलिये यही एकमात्र परम सत्ता है। इससे स्पष्ट है कि निरपेक्ष द्रव्य ही ईश्वरहै। यदि एक से अधिक द्रव्यों की सत्ता को माना जाए तो उसकी स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। इस प्रकार ईश्वर स्वतंत्र, अद्वितीय एवं एक निरपेक्ष द्रव्य है।
स्पीनोजा के अनुसार द्रव्य प्रत्येक वस्तु का आदि कारण है। यदि द्रव्य को आदि कारण या स्वयंभू न माना जाए तो एक वस्तु दूसरी वस्तु का और दूसरी वस्तु तीसरी वस्तु का कारण होगी। इस क्रम में ‘अनावस्था दोष’ से नहीं बचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त यदि द्रव्य के कारण-रूप में किसी अन्य तत्व को माना जाए तो द्रव्य की स्वतंत्रता और निरपेक्षता की रक्षा नहीं की जा सकती है। द्रव्य की परिभाषा के अनुसार द्रव्य अपने ज्ञान और अस्तित्व के लिए आत्मनिर्भर है। इससे सिद्ध होता है कि अन्य द्रव्य स्वतः सिद्ध है। उसके ही प्रकाश से प्रत्येक वस्तु आलोकित होती है। वह सृष्टि के कण-कण में अपने को अभिव्यक्त करता है। दूसरे शब्दों में द्रव्य (ईश्वर) अन्तर्यामी है। द्रव्य (ईश्वर) सब में है और सब कुछ द्रव्य के अन्तर्गत है। यह दृष्टि स्पीनोजा को सर्वेश्वरवाद की ओर ले जाती है। चूंकि स्पीनोजा का द्रव्य ‘पूर्ण’ अर्थात आप्तकाय है, अतः उसे किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है। यदि द्रव्य को पूर्ण न माना जाए तो पुनः उसकी निरपेक्षता और स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि द्रव्य असीम है क्योंकि उसे सीमित करने वाली कोई वस्तु नही है। इसी कारण स्पीनोजा ने द्रव्य को ‘अन्नत’ कहा है।
चूंकि द्रव्य पूर्ण असीम, नित्य सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी है, इसलिए सीमित एवं अपूर्ण मानव बुद्धि तथा भाषा के द्वारा उसका निर्वचन नहीं हो सकता है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर अनिर्वचनीय है। वस्तुतः द्रव्य के निर्गुण होने से उसकी अनिर्वचनीयता भी सिद्ध होती है। स्पीनोजा का प्रसिद्ध कथन है- ‘प्रत्येक निर्वचन निषेधात्मक होता है।’
स्पीनोजा के अनुसार किसी वस्तु के गुण का विवेचन करना उसमें अन्य गुणों का निषेध करना होता है। जैसे जब हम कहते हैं कि गाय सफेद है, तो उसके लाल, पीला, हरा, नीला आदि रंगों का निषेध हो जाता है। स्पीनोजा के अनुसार किसी वस्तु के गुणों का वर्णन करने से वह वस्तु उन गुणों से सीमित हो जाती है। चूंकि द्रव्य असीमित और पूर्ण है, इसलिए गुणों के आधार पर उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। इसकी तुलना शंकराचार्य के इस कथन से की जा सकती है- यदि सीमित (अपूर्ण) मानव असीमित ब्रह्म को समझ सकता है तो उसका बांध तात्विक रूप में अनन्त है, अथवा ब्रह्म अनन्त नहीं हो सकता। अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते मों. प्रत्येक शब्द किसी का संकेत उस वस्तु की किसी न किसी जाति, गुण, कर्म अथवा संबंध की किसी वृति विशेष के साथ सहचर्य युक्त होकर ही कर सकता है। किन्तु ब्रह्म में कोई गुण, जाति, संबंध, क्रम आदि नहीं हैं, इससे स्पष्ट है कि शंकराचार्य के ब्रह्म के समान स्पीनोजा का द्रव्य भी निर्गुण है, अतः उसका वर्णन भाषा के द्वारा नहीं किया जा सकता है। किन्तु निरपेक्ष सत्ता को निर्गुण कहने का अर्थ गुणों से रहित होना नहीं है। स्पीनोजा के अनुसार परिणाम या संख्या की दृष्टि से गुण असीमित हैं, इसलिए उनकी गणना नहीं की जा सकती है। इससे स्पष्ट है कि अनन्त (असंत्य) गुणों से युक्त होने के कारण स्पीनोजा अपने द्रव्य को निर्गुण और अनिर्वचनीय कहता है।
यही कारण है कि वह निरपेक्ष द्रव्य का संकेत करने के लिये माध्यमिक द्वेत और अद्वैत वेदान्त के समान निषेधात्मक पद्धति का प्रयोग करता है। नेति-नेति ही स्पीनोजा के ईश्वर अथवा शंकर के ब्रह्म का सर्वोत्तम निर्वचन है। यह निर्विशिष्ट तत्व अपरोक्षानुभूति अथवा प्रज्ञात्मक ज्ञान का विषय है।
स्पीनोजा के अनुसार ईश्वर और सृष्टि में अभेद्य (तादात्य) सम्बन्ध है। जगत द्रव्य से अनन्य है। ईश्वर ही सृष्टि का कारण है। परन्तु यहां कार्य-कारण का प्रयोग प्रचलित अर्थ में नहीं है। सृष्टिकी रचना में ईश्वर का कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि ईश्वर पूर्ण है। सृष्टि ईश्वर से निष्क्रमण द्वारा भी अस्तित्व में नहीं आती क्योंकि ईश्वर के बाहर कुछ भी नहीं। सृष्टि और ईश्वर में तार्किक सम्बन्ध है, दैशिक और कालिक नहीं। सृष्टि और ईश्वर की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है, परन्तु स्पीनोजा का यह विचार आलोचना से परे नहीं है, क्योंकि ईश्वर और सृष्टि में अभेद्य संबंध होने से संसार में अशुभ की व्याख्या नहीं हो पाती है, कुछ दार्शनिक स्पीनोजा को सर्वग्रासी मानते हैं। ईश्वर की प्रकृति से व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता है। शंकर की तरह प्रकृति को विवर्त न मानना स्पीनोजा की भूल है जिसका निराकरण वे नहीं करे पाए।
Question : स्पीनोजा के सत्य ईश्वर, प्रकृति के अभिज्ञान के सिद्धान्त का कथन करे।
(2002)
Answer : स्पीनोजा के दर्शन का निरपेक्ष द्रव्य ही ईश्वर है। स्पीनोजा के अनुसार द्रव्य वह है जो अपने में रहता है और अपने द्वारा ही समझा जाता है। स्पीनोजा का द्रव्य स्वतंत्र, निरपेक्ष, असीम, पूर्ण, एक, आप्तकाय तथा अन्तर्यामी है। इससे स्पष्ट है कि निरपेक्ष द्रव्य ही ईश्वर है।
स्पीनोजा के अनुसार ईश्वर और सृष्टि में अभेद (तादारम्य) सम्बन्ध है। जगत द्रव्य से अनन्य है। ईश्वर या द्रव्य सभी भेदों से रहित है। उल्लेखनीय है कि कुछ धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदाय ईश्वर में सजातीय एवं विजातीय भेद मानते हैं, परन्तु शंकराचार्य एवं स्पीनोजा के अनुसार क्रमशः ब्रह्म तथा ईश्वर सभी भेदों से रहित हैं। सृष्टि और ईश्वर को अभिन्न मानने के कारण स्पीनोजा को भौतिकवादी नास्तिक माना जाता है, जो सही नहीं है। वस्तुतः स्पीनोजा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड और उसके प्रत्येक घटक में एक ही ईश्वर का प्रकाश देखता है। ईश्वर प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है। अतः स्पीनोजा को निरीश्वरवादी और भौतिकवादी कहना गलत समझ पर आधारित है।
परन्तु प्रश्न है कि स्पीनोजा के अनुसार ईश्वर और सृष्टि में क्या सम्बन्ध है? स्पीनोजा का कहना है कि ईश्वर ही सृष्टि का कारण है। परन्तु यहां कारण-कार्य का प्रयोग इसके प्रचलित अर्थ में नहीं किया गया है। अर्थात् ईश्वर जगत की रचना इस प्रकार नहीं करता है, जिस प्रकार कुम्भकार घट का निर्माण करता है। सृष्टि की रचना में ईश्वर का कोई प्रयोजन भी नहीं है, क्योंकि स्पीनोजा का ईश्वर पूर्ण और आप्तकाय है। पूर्ण और आप्तकाय होने के कारण ईश्वर की कोई ईच्छा भी नहीं हो सकती। ब्रह्माण्ड की सत्ता ईश्वर से परे भी नहीं है, क्योंकि वह सृष्टि का अधिष्ठान है। स्पीनोजा की सृष्टि मीमांसा प्लोटिनस के निष्क्रमण सिद्धान्त से भिन्न है। ईश्वर से सृष्टि का निष्क्रर्मण तर्कतः सम्भव नहीं, क्योंकि ईश्वर से बाहर कुछ भी नहीं है। निष्क्रमण तभी सम्भव है, जब ईश्वर के बाहर कुछ हो। स्पीनोजा का ईश्वर असीम और सर्वगत सत्ता है। वस्तुतः स्पीनोजा के दर्शन में सृष्टि और ईश्वर और ईश्वर के बीच तार्किक सम्बन्ध है। सृष्टि ईश्वर की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है।
देकार्त के विपरीत स्पीनोजा ईश्वर को सृष्टि का निमित्त और उत्पादन दोनों कारण मानता है। इस दृष्टि से वह अपने ईश्वर को विभिन्न पाश्चात्य धर्मों में मान्य ईश्वर के संप्रत्यय से अलग कर लेता है। स्पीनोजा के दर्शन को सर्वेश्वरवाद कहा जाता है क्योंकि उसके अनुसार सब कुछ सर्वेश्वरमय है और ईश्वर ही सब कुछ है। इस प्रकार ईश्वर से परे दृष्टि की कोई भी वस्तु, घटना और क्रिया संभव नहीं है। स्पीनोजा के अनुसार ईश्वर और सृष्टि में किसी न्याययुक्ति के आधार वाक्यों और निष्कर्षों के सम्बन्ध के समान तार्किक और अनिवार्य सम्बन्ध है। सृष्टि-प्रक्रिया ईश्वर से तर्कतः और अनिवार्यतः फलित होती है। चूंकि सृष्टि ईश्वर से स्वाभावतः नियमित होती है, इसलिए यह ईश्वर का वास्तविक विकार (परिणाम) है। यहां पर स्पीनोजा की सृष्टि मीमांसा रामानुजाचार्य के ब्रह्मपरिणामवाद के निकट है, किन्तु उसका मत शंकराचार्य के विवर्तवाद से भिन्न है। शंकराचार्य के विपरीत स्पीनोजा सृष्टि को न तो द्रव्य का विवर्त और न मिथ्या कहता है स्पीनोजा ने ईश्वर के तीन रूपों का उल्लेख किया हैः
(i) कार्य प्रकृतिः यह ईश्वर का विश्वरूप है। यह वस्तुओं की अनेकता के कार्यों का एक रूप है। यह द्रव्य के विकारों का जगत है। इस स्तर पर विभिन्न वस्तुओं में भेद पाया जाता है।
(ii) कारण प्रकृतिः जहां तक ईश्वर जगत का स्वतंत्र कारण है उसे विश्वात्मा कहा जाता है। यह वस्तुओं का सौर्वभौम सिद्धान्त है। यह चेतन और अचेतन जगत की आत्मा है। इसे सक्रिय प्रकृति भी कहा जाता है। यहां पर ईश्वर को गुणों की दृष्टि से दखा जाता है।
(iii) पररूपः इसके अंतर्गत गुणों और विकारों से स्वतंत्र रूप में, अर्थात शुद्ध द्रव्य की दृष्टि से ईश्वर के स्वरूप पर विचार किया जाता है। यह केवल प्रज्ञा के द्वारा ही हो सकता है। यह विशुद्ध अभेद की अवस्था है जिसके अन्तर्गत ज्ञान और अनुभूति की एकता स्थापित हो जाती है। यह अनिर्वचनीय है। यह ईश्वर का सर्वोच्च रूप है।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि स्पीनोजा के दर्शन में द्रव्य, ईश्वर और प्रकृति इन तीनों पदों का प्रयोग एकार्थक है। स्पीनोजा का द्रव्य सत् होने के साथ-साथ शुभ भी है क्योंकि यही जीवन का परम श्रेय है। इसके स्वरूप का साक्षात्कार करना ही मनुष्य की सच्ची स्वतंत्रता और बन्धनों से मुक्ति है। स्पीनोजा का द्रव्य अरस्तु के द्रव्य से भिन्न है। अरस्तु का द्रव्य ईश्वर आकारों का आकार है, जो केवल एक तार्किक संप्रत्यय है। उल्लेखनीय है कि अरस्तु अपनी विभिन्न कोटियों के अन्तर्गत द्रव्य को एक महत्वपूर्ण कोटि मानता है। इसके विपरीत स्पिनोजा का द्रव्य एक तत्व मीमांसीय संप्रत्यय है। इसके द्वारा जगत की व्याख्या की जाती है। इसकी तुलना सांख्य की प्रकृति से भी की जाती है, क्योंकि सांख्य दर्शन में भी प्रकृति से ही उसके तहत अहंकार आदि तर्कतः विकसित होते हैं।
स्पिनोजा के द्रव्य की पूर्णता से उसका आनन्द स्वरूप भी सिद्ध होता है, किन्तु वह मानवोचित गुणों का आरोपण द्रव्य पर नहीं करता। वह निर्विकार और निराकार तत्व है, जिसे ईश्वर कहा जाता है।
परन्तु स्पिनोजा के द्वारा प्रतिपादित द्रव्य की अवधारणा निर्दोष नहीं है। ईश्वर को पूर्ण द्रव्य कहा गया है। दूसरी ओर उसे निर्गुण कहा गया है। स्पिनोजा यह भी व्याख्या नहीं कर पाते कि विचार और विस्तार एक ही द्रव्य में कैसे रह पाते हैं, जबकि ये परस्पर विरोधी प्रकृति के हैं। पुनः सृष्टि और ईश्वर में अभेद्य मानने से ईश्वर जगत् में व्याप्त अशुभ से ग्रस्त हो जाता है। ईश्वर को अनिर्वचनीय कहने से स्पिनोजा का सर्वेश्वरवाद रहस्यवाद में परिणत हो जाता है। सर्वेश्वरवाद मानने के कारण स्पिनोजा के दर्शन में मनुष्य के संकाय स्वातंत्रय का भी निषेध हो जाता है। वस्तुतः यहां स्वातंत्रय का निराकरण नहीं, बल्कि स्पिनोजा अहंकार का निषेध करने का बोध रखता है।
Question : देकार्त की दार्शनिक (दर्शन) प्रणाली।
(2001)
Answer : देकार्त की दार्शनिक पद्धति गणित की ज्यामितीय विधि से प्रभावित है। इसकी पुष्टि इस कथन से होती है, "मेरी यह इच्छा है कि कोई भी व्यक्ति किसी सिद्धान्त पर तब तक विश्वास न करे जब तक वह उसको किसी अकाट्य और स्पष्ट तर्क के आधार पर स्वयं सत्य न समझता हो", उसकी इस पद्धति का प्रयोग ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में किया जा सकता है। देकार्त की दार्शनिक पद्धति के चार प्रमुख नियम हैं, जिसका उल्लेख उसने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘दार्शनिक पद्धति पर विमर्श’ में किया है। ये नियम इस प्रकार हैं: प्रथम नियम के अनुसार किसी चीज को तब तक सत्य नहीं मानना चाहिए, जब तक कि उसका प्रामाणित ज्ञान न हो जाए। किसी चीज का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें पूर्वा ग्रहों से मुक्त होना चाहिए, केवल स्पष्ट एव विवेकपूर्ण ज्ञान को ही प्रमाणित मानना चाहिए। द्वितीय नियम के अनुसार, हमें जिस जटिल समस्या पर विचार करना है, उसका विश्लेषण करना चाहिए। विचारणीय समस्या का विश्लेषण तब तक करना चाहिए, जब तक उसके अविश्लेष्य, अर्थात सरल अंश प्राप्त न हो जाए। तृतीय नियम के अनुसार, विचारणीय समस्या के स्वरूप पर व्यवस्थित ढंग से विचार किया जाता है। हम सरलता से कठिनता के बढ़ते हुए क्रम में विश्लेष्य समस्या को प्रस्तुत करते हैं। सबसे पहले समस्या के सरल और मूल तत्वों को रखते हैं। उसके बाद धीर-धीरे अपेक्षाकृत कुछ अधिक विशिष्ट तत्वों पर विचार किया जाता है। चतुर्थ नियम के अनुसार पूर्वोक्त नियम का सर्वेक्षण, परिक्षण और मूल्यांकन है। इसके अन्तर्गत अपने द्वारा किए गए आकलन (गणना) का आलोचनात्मक सर्वेक्षण किया जाता है, ताकि विश्लेषण और संश्लेषण की प्रक्रिया में कोई घटक छूट न जाए। देकार्त की विश्लेषण पद्धति विश्लेषण प्रधान है क्योंकि बिना विश्लेषण के किसी समस्या के मूल घटकों का स्पष्ट और विवेकपूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता। यह पद्धति निगमनात्मक भी है। साथ न्यायवाक्यीय पद्धति के दोषों से रहित भी।
Question : अंतःक्रियावाद।
(1998)
Answer : आत्मा और शरीर में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए देकार्त ने अन्तःक्रियावाद या क्रिया-प्रतिक्रियावाद का प्रतिपादन क्रिया है। अन्तक्रियावाद के अनुसार आत्मा और शरीर एक-दूसरे से प्रतिक्रिया करते हैं। एक तत्व की क्रिया से दूसरे तत्व में प्रतिक्रिया होती है। इस प्रकार वे एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। यहां यह प्रश्न उठता है कि चेतन और अचेतन तत्व एक-दूसरे को क्यों और कैसे प्रभावित करते हैं? यदि वे परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं तो उन्हे एक-दूसरे से स्वतंत्र कैसे कहा जा सकता है? देकार्त के अनुसार आत्मा और शरीर में अंतर्क्रिया एक (पीनियल ग्लैण्ड) के माध्यम से होता है। पीनियल ग्लैण्ड शारीरिक है क्योंकि यह मस्तिष्क का सूक्ष्मतम मध्य भाग है। देकार्त ने इसे आत्मा का आसन कहा है। यद्यपि आत्मा संपूर्ण शरीर में व्याप्त होता है, तथापि उसका प्रमुख स्थान पीनियल ग्लैण्ड है। शारीरिक परिवर्तनों के कारण पीनियल ग्लैण्ड भी गतिशील हो जाता है। इसके कारण वहां पर स्थित आत्मा भी हिल जाता है। इसके कारण आत्मा संवेदनाओं, और भावनाओं का अनुभव करने लगता है। इसी प्रकार ऐच्छिक कार्यों, संकल्पों, भावनाओं, इच्छाओं आदि के अवसर पर आत्मा के क्रियाशील होने पर पीनियल ग्लैण्ड भी गतिशील हो जाती है। देकार्त का यह अंतर्क्रियावाद दर्शन जगत में कटु आलोचना का विषय रहा है। शरीर-मन संबंधी समस्या के लिए उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया यह समाधान तार्किक दृष्टि से आपत्तिजनक है। समस्या यह है कि आत्मा शरीर का तथा कथित मिलन केन्द्र (पीनियल ग्लैण्ड) विस्तारवान है तो वह विस्तार से रहित आत्मा का मिलन-केन्द्र कैसे हो सकता है। इसके अतिरिक्त यदि मन और शरीर एक दूसरे से नितान्त भिन्न स्वभाव वाले हैं तो उनमें अंतर्क्रिया कैसे हो सकती है। संपूर्ण शरीर में व्याप्त रहने वाले चेतन तत्व को शरीर के एक भाग विशेष तक सीमित करना एवं मरितष्क के इस अंश विशेष को आत्मा व शरीर का मिलन-केन्द्र कहना, देकार्त के मन की कल्पना मात्र है।
Question : एक सर्व सम्पूर्ण, सर्वव्याप्त सत्ता के प्रत्यय का अर्थ यह भी है कि उसका अस्तित्व है।
(1997)
Answer : एक सर्व सम्पूर्ण सर्वव्याप्त सत्ता के प्रत्यय का अर्थ यह भी है कि उसका अस्तित्व है। यह ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के लिये देकार्त द्वारा दी गई प्रत्यय सत्तामूलक युक्ति है। इस युक्ति का प्रतिपादन सर्वप्रथम ईसाई सन्त एन्सेल्म ने किया था। देकार्त ने इस युक्ति को विकसित और परिमार्जित रूप दिया। देकार्त ने ईश्वर की अवधारणा एक निरपेक्ष द्रव्य के रूप में की है। देकार्त की प्रत्यय सत्ता मूलक युक्ति के अनुसार हमारे मन में ईश्वर की पूर्णता का एक जन्मजात प्रत्यय विद्यमान है। हम जगत में स्थित वस्तुओं के साथ-साथ स्वयं को भी अपूर्ण पाते हैं। यदि हमारी आत्मा में पूर्णता का प्रत्यय निहित न होता तो हम अन्य वस्तुओं को अपूर्ण नहीं कह सकते थे। देकार्त के अनुसार अपूर्ण वस्तु के प्रत्यय से किसी वस्तु के अस्तित्व की संभावना मात्र का प्रतिपादन किया जा सकता है। इसके विपरीत पूर्ण तत्व के प्रत्यय से उसका अस्तित्व अनिवार्यतः सिद्ध होता है क्योंकि पूर्णता के प्रत्यय में ही उसका अस्तित्व भी सम्मिलित हो जाता है। इस युक्ति में देकार्त ने ईश्वर की पूर्णता के प्रत्यय से ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन किया है। ईश्वर की पूर्णता के प्रत्यय (विचार) मात्र से उसकी सत्ता तर्कतः सिद्ध होती है। इस युक्ति को अनुभव निरपेक्ष भी कहा जाता है। इस युक्ति के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व और सार तत्व को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। ईश्वर की पूर्णता के प्रत्यय (सार तत्व) से उसका अस्तित्व उसी प्रकार तर्कतः फलित होता है, जिस प्रकार त्रिभुज के प्रत्यय से उसकी त्रिकोणात्मकता तार्किक दृष्टि से सिद्ध हो जाती है। यह युक्ति ईश्वर की पूर्णता के प्रत्यय को जन्मजात मानती है। इसमें ईश्वर के ‘अस्तित्व’ को पूर्णता के प्रत्यय के अन्तर्गत सम्मिलित कर लिया गया है। देकार्त के अनुसार ईश्वर के संदर्भ में होना और ‘सोचा जाना’ अर्थात् अस्तित्व और ‘सार तत्व’ अनिवार्य रूप से अपृथक हैं। प्रत्यय सत्ता मूलक युक्ति के विरूद्ध अनेक आपत्तियां उठाई गई हैं। इसमें प्रमुख आक्षेप यह है कि अस्तित्व को गुण मानकर भूल की है। यदि अस्तित्व को गुण मान लिया जाय तो उसके आश्रय के रूप में एक अन्य अस्तित्व की कल्पना करनी पड़ेगी। इससे अनावस्था दोष उत्पन्न होगा। पुनः अस्तित्ववादियों के अनुसार अस्तित्व को सारतत्व का पूर्ववर्ती माना गया है। एक समकालीन विचारक गैनिलो के अनुसार पूर्णता के प्रत्यय मात्र से किसी विचार की सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती।
Question : शरीर एवं मन के संबंध में परम्परागत यूरोपीय दर्शनशास्त्र के विभिन्न सिद्धान्तों का उल्लेख करें और स्पष्ट करते हुए उनकी व्याख्या करें।
(1997)
Answer : आत्मा और शरीर के सम्बन्ध की समस्या देकार्त के द्वैतवाद से प्रारम्भ होती है। देकार्त के अनुसार आत्मा (मन) और शरीर दोनों एक दूसरे से पृथक और स्वतंत्र हैं। आत्मा चैतन्ययुक्त है। इसके विपरीत शरीर एक भौतिक तत्व है। जिसमें केवल विस्तार पाया जाता है। देकार्त आत्मा को चेतन द्रव्य और शरीर को जड़ द्रव्य मानता है- जो परस्पर विरोधी गुणों से युक्त है। आत्मा केवल चिन्तनशील है। इसके विपरीत शरीर केवल विस्तारण है और उसमें विचार का नितान्त अभाव है।
देकार्त के अनुसार मनुष्य न केवल मन है और न केवल शरीर है, वह आत्मा (मन) और शरीर अर्थात् विचार विस्तार दोनों का संयुक्त रूप है। अब प्रश्न यह है कि दो परस्पर विरोधी गुणों का बल द्रव्य (आत्मा और शरीर) परस्पर कैसे संबंधित हो सकते हैं? यही देकार्त के द्वैतवाद की मूलभूत समस्या है। इस समस्या के समाधान के लिए देकार्त ने अंतः क्रियावाद या क्रिया-प्रतिक्रियावाद का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मा और शरीर एक दूसरे के प्रति क्रिया एक पीनियल ग्लैण्ड के माध्यम से होती है। यह ग्लैण्ड शरीर (मस्तिष्क) का सूक्ष्म भाग है जो आत्मा का आशय है। शारीरिक परिवर्तनों के कारण यह ग्लैण्ड भी गतिशील हो उठता है, जिसके कारण वहां पर स्थित आत्मा भी हिल जाता है। इसके कारण आत्मा संवेदनाओं का अनुभव करने लगता है। इसी प्रकार ऐच्छिक कार्यों आदि के अवसर पर आत्मा के चिंतनशील होने पर पीनियल ग्लैण्ड भी गतिशील हो जाती है, जिससे संपूर्ण शरीर में गति पैदा हो जाती है। परन्तु यह सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से आपतिजनक है ऐसा इसलिये कि जब पीनियल ग्लैण्ड शरीर का भाग है तो यह विस्तारवान होगा। वैसे में यह विस्तार रहित आत्मा का मिलन केन्द्र कैसे हो सकता है। इसके अतिरिक्त मन और शरीर एक-दूसरे से नितान्त भिन्न स्वभाव वाले हैं, अतः उनमें संयोग कैसे सम्भव है?
इस समस्या के समाधान के रूप में ग्युलिंक्स तथा मेलेब्रश ने ईश्वर निमित्तवाद का प्रतिपादन किया। ये आत्मा एवं शरीर के लिए ईश्वर निमित्तवाद का सहारा लिया। इनके अनुसार मानसिक क्रियाओं एवं शारीरिक क्रियाओं के बीच सम्बन्ध का सूत्रधार ईश्वर है। ईश्वर ही शारीरिक व्यवहार के अनुरूप इन शारीरिक क्रियाओं का ज्ञान आत्मा को प्रदान करता है। इस प्रकार यह समाधान मनुष्य को ईश्वर का एक उपकरण मात्र बना देता है।
इस समस्या के समाधान के निमित स्पीनोजा ने देकार्त के द्वैत का निराकरण करके उसे गुणात्मक द्वैत में परिणत कर दिया। उसके अनुसार मानसिक एवं भौतिक घटनायें एक ही द्रव्य के दो पहलू है। विचार और विस्तार दोनों एक ही द्रव्य के समानान्तर गुण है। मनुष्य विकारों का एक पूंज है। मनुष्य ईश्वर के गुणों (विचार एवं विस्तार) अथवा उनके माध्यम से अभिव्यक्ति विकारों की संरचना है। प्रश्न उठता है कि एक ही व्यक्ति में परस्पर विरोधी गुणों के विकार कैसे रह सकते हैं। स्पीनोजा का कहना है कि विचार और विस्तार परस्पर विरोधी द्रव्य नही हैं। इन दोनों का अधिष्ठान एक पूर्ण द्रव्य है, जिसके स्वभाव से ये दोनों गुण समानान्तर रूप से प्रकाशित होते हैं। विचार और विस्तार दोनों का आधार एक ही द्रव्य को मान लेने के कारण स्पीनोजा उनके विरोधी स्वभाव में सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस प्रकार वह देकार्त के दर्शन की इस समस्या को हल करने का प्रयास करता है। अब आत्मा और शरीर के सम्बन्ध के लिए उनमें अंतः क्रिया मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती है, क्योंकि प्रत्येक घटना मान सिद्ध और शारीरिक दोनों हैं। आत्मा और शरीर में कोई संयोग भी नहीं हो सकता क्योंकि वे स्वभावतः एक ही द्रव्य से संबंधित होने के कारण एक दूसरे के सहयोगी हैं। आत्मा शरीर का विचार है और शरीर आत्मा का विस्तार है जो विचार हमारे मन में उठता है, उसके समानान्तर ही शरीर में कार्य क्रिया गति या घटना घटित होती है। इसी प्रकार यदि हमारे शरीर में कोई घटना घटित होती है तो उसके समानान्तर ही मन में उस क्रिया या घटना का विचार उत्पन्न हो जाता है।
परन्तु लाइबनिज को यह सामाधान स्वीकार नहीं। लाइबनिज के अनुसार चेतन और जड़ अथवा विचार और विस्तार का द्वैत असंगत है। शरीर चिंद्णुओं का समूह है। चिंद्णुओं के इस समूह में सर्वाधिक क्रियाशील चिद्णु शरीरी है। सभी चिह्णु अपने आंतरिक नियमों के अनुसार विकास प्रक्रिया में है। अल्प विकसित चिंद्ण अधिक विकसित चिंद्णु की ओर आकर्षित होते हैं। शरीरी चिंद्ण के द्वारा अनुशासित होते हैं, क्योंकि आत्मा उनका साध्य है।
लाइबनिज के इस विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा और शरीर न तो परस्पर विरोधी द्रव्य है और न एक-दूसरे के सामानान्तर गुण है। वह ग्यूलिंक्स और मेलेब्रांच जैसे निमित वादियों के समान आत्मा और शरीर के सम्बन्ध के लिए सदैव ईश्वरीय हस्तक्षेप को भी स्वीकार नहीं करता है। चुंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है इसलिए आत्मा और शरीर में सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उसे बार-बार हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता है। आत्मा और शरीर क्रमशः चिंद्णुओं की क्रियाशील और अल्प क्रियाशील दो अवस्थायें हैं। इन दोनों अवस्थाओें में कोई गुणात्मक भेद नहीं है। ईश्वर ने इन दोनों में इस प्रकार सामंजस्य स्थापित कर दिया है कि एक दूसरे से स्वतंत्र होते हुए भी चिंद्णुओं के स्वभाव में ही यह सामंजस्य स्थापित कर दिया है। इससे स्पष्ट है कि लाइबनिज के दर्शन में देकार्त के द्वैतवाद से उत्पन्न आत्मा और शरीर के सम्बन्ध की समस्या कोई विशेष महत्व नहीं रखती है। इसे लाइबनिज ने एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि लाइबनिज का कहना है कि जिस प्रकार दो घडि़यां एक कुशल कारीगर द्वारा पहले ही इस प्रकार बनाई गयी होती हैं कि वे हमेशा एक समय बताती हैं, उसी प्रकार ईश्वर ने सभी चिंद्णुओं को एकतंत्र में बांध दिया है जिससे आत्मा चिंद्णु और शरीर चिंद्णु की क्रियाओं में सामंजस्य दिखाई पड़ता है। इसके आगे स्ट्रॉसन द्वारा व्यक्ति सिद्धान्त के माध्यम में इस समाधान का प्रयास किया गया है, जो अन्य समाधानों से अधिक संतोषजनक है।
Question : मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं।
(1997)
Answer : देकार्त का बहुआयामी और व्यापक सन्देह उसकी दार्शनिक पद्धति की मौलिक विशेषता है, किन्तु समस्त संशयों ओैर अनिश्चितताओं के बीच एक बात पूर्ण रूप से संशय-रहित और निश्चित है- "मैं सोचता हूं।" ‘सोचना’ का अर्थ है विचार करना। किन्तु बिना किसी विचारक के विचार करना संभव नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि संशय करना अथवा सोचना एक विचारक के अस्तित्व की मांग करता है। देकार्त के अनुसार शरीर पर तो संशय किया जा सकता है, किन्तु संशयकर्ता का अस्तित्व असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो उठता है। इस प्रकार शरीर को जानने की अपेक्षा संशय करने वाले आत्मा को जानना सरल है। यह कहना तो आत्माव्याघात होगा कि जिस क्षण कोई व्यक्ति चिंतन करता है, उस क्षण उसका अस्तित्व नहीं होता । देकार्त यह तर्कतः सिद्ध करने का प्रयास करता हैं कि ‘सोचना’ सोचने वाले चिन्तन करने वाले की ओर संकेत करता है। उसके अनुसार ‘सोचना’ सोचने वाले चिन्तन करने को प्रतिपन्न करता है और चिंतन करने से चिंतक का अस्तित्व स्वयं सिद्ध हो जाता है।"मै सोचता हूं, इसलिये मै हूं" यह एक स्पष्ट और विवकेपूर्ण ज्ञान है। इस सिद्धान्त ही देकार्त की ज्ञान मीमांसा का भी प्रारंभिक सोपान है। वस्तुतः देकार्त की संदेह पद्धति इसी असंदिग्ध एवं अकाट्य स्वतः सिद्ध सत्य पर पहुंचने का साधन है। आत्मा की सिद्धि न तो इन्द्रियानुभव पर आधारित है और न बौद्धिक युक्तियों पर। यह प्रतिमान से उत्पन्न स्वयं सिद्ध ज्ञान है। देकार्त का संशय संशयकर्ता आत्मा के स्वतः सिद्ध हो जाने के बाद समाप्त हो जाता है। उसके दर्शन में संशय को ज्ञान का प्रारंभिक बिन्दु माना गया है। इस प्रकार के संशय से हमें पूर्वाग्रहों से रहित होकर चिंतन करने की प्ररेणा मिलती है। इस प्रकार हम संशय से निश्चय पर पहुंचते हैं। यदि मनुष्य चिंतनशील न हो तो उसके अस्तित्व को सिद्ध करना असंभव होगा। अतः देकार्त चिंतन करने को ही आत्मा का अनिवार्य गुण मानता है। देकार्त के दर्शन में और चिंतन में अवियोज्य सम्बन्ध है।