Question : बौद्धा के अनुसार चार आर्य सत्य।
(2007)
Answer : गौतम बुद्ध ने बोधि-प्राप्ति के बाद अपनी शिक्षाओं के सारांश को चार आर्य सत्य के रूप में व्यक्त किया। उनकी ये शिक्षायें व्यावहारिक अधिक हैं, सैद्धान्तिक कम। उल्लेखनीय है कि वे सैद्धान्तिक चिन्तन पर बल न देकर व्यवहारिक चिन्तन को ही आवश्यक एवं मूल्यवान मानते थे। उन्होंने दार्शनिकों तत्वों (आत्मा, ईश्वर, जगत) के विषय में उठाये गये प्रश्नों को अव्याकृत प्रश्नादि कहा और दार्शनिक प्रश्न पूछे जाने पर मौनवृत्ति का सहारा लिया। उन्होंने दार्शनिकों प्रश्नों के विषय में इसलिए मौन धारण किया कि उनसे दुःखों को दूर करने में कोई सहायता नहीं मिलती। बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्य निम्नलिखित हैं:
सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यकवाद, सम्यक कथित, सम्यक आजीव सम्यक व्यास, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि। अष्टांगिक मार्ग में निर्वाण प्राप्ति के लिए शील सामधि और प्रज्ञा की शिक्षा दी गयी है। बौद्ध दर्शन में इसे त्रिशिक्षा कहा जाता है। प्रज्ञा के अन्तर्गत सम्यक दृष्टि और सम्यक संकल्प आते हैं। शील में सम्यक वाक् सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव और सम्यक व्यायाम का समावेश होता है। समाधि में सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि आते हैं। बुद्ध के अनुसार जो शील में प्रतिष्ठित है, समाधि और प्रज्ञा की भावना रखता है वह प्रज्ञावना एवं वीर्यवान होकर तृष्णा का नाश करके निर्वाण प्राप्त करता है। बौद्ध दर्शन में इन आर्य सत्यों का केन्द्रीय महत्व है। बौद्ध दर्शन के दार्शनिक सिद्धांतों के बीज इनमें निहित है।
Question : बौद्ध के प्रतीत्यमुत्पाद पर चर्चा करें।
(2006)
Answer : गौतम बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद को सापेक्ष कारणता का सिद्धांत या आश्रित उत्पत्ति का सिद्धांत स्वीकार किया। गौतम बुद्ध के इस सिद्धांत का परवर्ती बौद्ध मत में भी महत्वपूर्ण स्थान बना रहा। यह बौद्ध धर्म का आधारभूत सिद्धांत है। बौद्ध दर्शन का यह दार्शनिक सिद्धांत गौतम के तृतीय एवं तृतीय आर्य सत्यों में निहित हैं व्युत्पत्ति की दृष्टि से प्रतीत्यसमुत्पाद दो शब्दों के योग से बना है- प्रतीत्य और समुत्पाद। इसमें प्रतीत्य का अर्थ है ऐसा होने पर या अपेक्षा रखकर अथवा ‘आश्रित होकर’ तथा समुत्पाद का अर्थ है ‘वैसा होता है’ अथवा ‘वैसी उत्पत्ति’।इस प्रकार व्युत्पत्तिके आधार पर प्रतीत्यसमुत्वाद का अर्थ है, ‘ऐसा होने पर वैसा होता है। अर्थात् प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार कतिपय परिस्थितियों या उपाधियों के होने पर अन्य परिस्थितियों की उत्पत्ति होती है। यह अन्य परिस्थिति भी स्वसम्बन्धित दूसरी परिस्थिति को उत्पन्न करती है। उत्पत्ति का यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक पूर्ववर्ती उपाधियां बनी रहती हैं। इस प्रकार गौतम बुद्ध को अनुसार संसार की प्रत्येक घटना सकारण है।
संसार में कुछ भी ज्ञात होता है कि कारण के निरूद्ध होने पर ही कार्यनिरुद्ध होता है। कारण के न निरूद्ध होने पर कार्य भी नहीं निरुद्ध होता और उत्पत्ति का क्रम चलता रहता है। अतः उत्पत्ति या कार्य के कारण सापेक्ष होने से प्रतीत्यसमुत्पाद सापेक्ष कारणता का सिद्धांत है। पुनः यह आश्रित उत्पत्ति का सिद्धांत इसलिए है, क्योंकि यह कार्य की उत्पत्ति को कारण पर आश्रित मानता हैं, प्रतीत्यसमुत्पाद कारण कार्य सम्बन्ध के विषय में यादृच्छिकतावाद का निषेध करता है। यादृच्छिकतावाद के अनुसार प्रत्येक घटना यादृच्छिक है। इसमें कोई घटना अकस्मात् या संयोगवश उत्पन होती हुई स्वीकार की जाती है। गौतमबुद्ध ने प्रकृति एक रूप है इस सिद्धांत के आधार पर यादृच्छिकतावाद का निषेध किया। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि प्रकृति में कुछ भी अकस्मात् नहीं घटित होती। प्रकृति की प्रत्येक घटना सकारण है। उन्होंने कारण कार्य के सम्बन्ध के विषय में उस दृष्टिकोण को भी अस्वीकार किया, जो किसी घटना की उत्पत्ति में कारणत्व को तो स्वीकार करता है, लेकिन कारणत्व में ज्ञात तत्वों के अतिरिक्त प्रकृति ईश्वर या ब्रह्म जैसे अलौकिक तत्वों को भी शामिल कर लेता है।
गौतम बुद्ध ने कारण सामग्री में अलौकिक तत्वों का निषेध करके प्रतीत्यसमुत्पाद को रूढि़वाद से बचा लिया। बौद्ध दर्शन यह तो स्वीकार करता है कि प्रत्येक घटना का कोई कारण होता है, किन्तु वह कारण में कार्योत्पत्ति की आन्तरिक प्रयोजनशीलता को नहीं स्वीकार करता। उसके अनुसार कार्य कारण से केवल निर्धारित होता है, प्रतीत्यसमुत्पन्न होता है।
गौतम बुद्ध प्रतीत्यसमुत्पन्न को मध्यम प्रतिपदा कहते हैं। यह शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के बीच का मार्ग है। शाश्वतवाद के अनुसार कुछ वस्तुएं नित्य हैं, जिनका न आदि है और न अन्त। अनादि एवं अन्नत होने के कारण उनकी सत्ता किसी कारण पर निर्भर नहीं होती।
उच्छेदवाद के अनुसार वस्तु के नष्ट होने पर कुछ भी अवशिष्ट नहीं बचता। गौतम बुद्ध के अनुसार शाश्वतवाद एवं उच्छेदवाद दोनों एकान्तिक दृष्टिकोण एवं अतिवाद हैं, अतः दोनों असत्य एवं उपेक्षणीय हैं। सत्यता इन दोनों के बीच में है। यही प्रतीत्यसमुत्वाद है। प्रतीत्यसमुत्पाद मध्यम मार्ग है जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति अन्य वस्तुओं पर निर्भर है और वह स्वयं भी दूसरी वस्तुओं को उत्पन्न करती है। यह श्रृखला तब तक चलती रहती है, जब तक उत्पादक परिस्थितियों अवरूद्ध नहीं हो जाती। गौतम बुद्ध ने दुःख के कारण की खेाज प्रतीत्यसमुत्पाद के ही आधार पर किया। इसी के आधार पर दुःख निरोध की सम्भावना व्यक्त की गई है। इसी सिद्धांत से द्वादशनिदानचक्र की खोज की गई, जिसमेंव्यक्तिका भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों जीवन निहित हैं। गौतम बुद्ध का अनित्यवाद एवं क्षणिकवाद भी प्रतीत्यसमुत्पाद से ही स्थापित होता है। इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद का बौद्ध दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान है।