Question : शब्द प्रमाण की प्रकृति।
(2007)
Answer : भारतीय दर्शन में चार्वाक, बौद्ध एवं वैशेषिक को छोड़कर बाकी सभी दार्शनिक सम्प्रदायों में यथार्थ ज्ञान के साधन के रूप में शब्द प्रमाण की महत्ता को स्वीकार किया गया है। न्याय एवं मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण पर विशेष रूप से चर्चा की गयी है। शब्दों एवं वाक्यों से प्राप्त ज्ञान शब्द प्रमाण के अन्तर्गत आते हैं, परन्तु सभी प्रकार के शब्द और वाक्य प्रमाण की कोटि में नहीं आते। केवल विश्वसनीय व्यक्ति का वचन ही शब्द प्रमाण में सम्मिलित किया जाता है। इस संदर्भ में न्याय दर्शन के अनुसार आप्तेपदेशः शब्दः अर्थात आप्त व्यक्ति का वचन ही शब्द है। शब्द प्रमाण को दो रूपों में बांटा जाता है-
विषय काल के आधार पर शब्द प्रमाण दो रूपों में दिखाई देता है।
यहां दृष्टार्थ का आशय शब्द से प्राप्त वैसे ज्ञान से है, जिसको प्रत्यक्ष किया जा सकता है, जैसे ताजमहल। पुनः शब्द से ऐसी किसी वस्तु का ज्ञान जो दृष्ट नहीं हो, प्राप्त हो। अदृष्टार्थ की कोटि में आता है। जैसे पाप, पुण्य, धर्म, अधर्म आदि।
स्रोत के आधार पर भी शब्द प्रमाण के दो रूप हैं:
लौकिक कथनों में केवल विश्वसनीय व्यक्ति के वचनों को ही प्रामाणिक माना जाता है। वैदिक कथन ईश्वरीय वचन होने के कारण प्रामाणिक हैं। परन्तु शब्दों के समूह मात्रा से अर्थपूर्ण वाक्य की प्राप्ति नहीं होती है। अर्थपूर्ण शब्दों का सार्थक समन्वय ही वाक्य को निर्मित करता है। किसी वाक्य के अर्थपूर्ण होने के लिए चार बातें आवश्यक हैं-
आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य। इन शर्तों के होने से ही वाक्य का अर्थ स्पष्ट हो सकता है एवं वे प्रामाणिक माने जा सकते हैं। वेद के यर्थाथ ज्ञान के लिए वेदों की प्रामाणिकता के संबंध में न्याय एवं मीमांसा दर्शन के मत अलग-अलग हैं। मीमांसा के अनुसार वैदिक वाक्य अपौरूषेय है।
अपौरूषेय का अर्थ है कि वेद स्वयंभू एवं अकर्तृकृव है। मीमांसा वेदों के अपौरूषेयतत्व का प्रतिपादन करके वेदों में त्रुटि की सभी सम्भावनाओं को अस्वीकार करती है। यह विचारधारा न्याय-वैशेषिक दर्शन की उस अवधारणा को अस्वीकार करती है। जो ईश्वर सृष्ट होने के कारण वेद को प्रमाणिक मानती है। मीमांसा के अनुसार अकर्तृत्व के कारण वेद में शब्दों का क्रम स्वनिर्धारित है। वेद की नित्यता का तात्पर्य उसके पाठ के स्थायित्व से है। वेद अनादिकाल से गुरू शिष्य परम्परा से अखण्डरूप से सुरक्षित चला आ रहा है। इस प्रकार अपौरूषेय, नित्य एवं स्वतः प्रमाण होने के कारण वेद शाश्वत सत्यों का आगार है और यथार्थ ज्ञान का साधन।
Question : न्याय प्रणित असत् कार्यवाद को विस्तार से स्पष्ट कीजिए।
(2007)
Answer : कारण कार्य के सम्बन्ध के विषय में न्याय दर्शन का सिद्धान्त असत्यकार्यवाद या आरम्भवाद कहलाता है। इसके अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में असत या अविद्यमान रहता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कार्य का आरम्भ होता है। इसी कारण इसे आरम्भवाद भी कहते हैं। यह सांख्य दर्शन के सत्यकार्यवाद का विरोध करता है जिसमें कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है। सत्यकार्यवाद की सिद्धि के लिए सांख्य दार्शनिक निम्नलिखित युक्तियां देते हैं-
सांख्य दार्शनिकों के अनुसार असत् किसी कार्य का कारण नही हो सकता। असत् में किसी वस्तु को उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं होती। असत् से असत् की उत्पन्न होता है, उससे किसी वस्तु की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। शुन्य से किसी वस्तु का आर्विभाव सम्भव नहीं। बालू में तेल असत् है।
अतः किसी भी प्रयास से बालू से तेल नहीं प्राप्त हो सकता। तात्पर्य यह है कि यदि कारण में कार्य का अभाव है, तो कारण से कभी भी कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। पुनः सांख्य दर्शन की मान्यता है कि हम कारण और कार्य के सम्बन्ध के विषय में चेतन है, जो इस बात का प्रमाण है कि कार्य अपने कारण में उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान रहता है। हम इस ज्ञान के कारण जिस कार्य को उत्पन्न करना चाहते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए उससे सम्बन्धित सामग्री (उपादान) को ही ग्रहण करते हैं। दही प्राप्त करने के लिए दूध ही ग्रहण किया जाता है।
सांख्य दार्शनिकों के अनुसार यदि कारण में कार्य अविद्यमान होता तो किसी भी कारण से प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति सम्भव होती, अभाव से भी कार्य का आर्विभाव होता और असत् से भी सत् की उत्पत्ति सम्भव होती। जैसे बालू में तेल का अभाव होता है। यदि अभाव से कार्योत्पत्ति होती तो बालू से तेल निकलना चाहिए था। सांख्य दर्शन के अनुसार समर्थ कारण से ही सम्बन्धित कार्य की उत्पत्ति होती है। जिस कारण में किसी कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति होती है, उसी कारण से वह कार्य उत्पन्न होता है। दूध से दही बनता है, क्योंकि दूध में दही उत्पन्न करने की शक्ति होती है। तिलहन वस्तुओं से तेल उत्पन्न होता है, क्योंकि उनमें तेल को उत्पन्न करने की शक्ति होती है।
अंततः सांख्य दार्शनिकों के अनुसार सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि कारण और कार्य में तादात्म्य सम्बन्ध है। कार्य कारणरूप होता है। कार्य कारण से अभिन्न होता है, भिन्न नहीं। कारण और कार्य एक ही वस्तु की क्रमशः अव्यक्त और व्यक्त अवस्थायें हैं। जैसे तत्व की दृष्टि से मिट्टी का घड़ा वास्तव में मिट्टी ही है और पत्थर की मूर्ति वस्तुतः पत्थर ही है। इसी प्रकार कपड़ा अपने तात्विक रूप में धागों से भिन्न नहीं है। पुनः सांख्य दर्शन उत्पत्ति का विशेष अर्थ करता है। यहां उत्पत्ति से तात्पर्य किसी ऐसी नवीन वस्तु की सृष्टि नहीं है, जिसका कारण में अभाव हो। उसके अनुसार उत्पत्ति केवल अभिव्यक्ति है। कारणावस्था में जो अव्यक्त रहता है वही कार्यावस्था में अभिव्यक्त होता है।
न्याय दार्शनिक अपने असत्यकार्यवाद में कुछ युक्तियां देते हैं। इससे एक ओर सत्यकार्यवाद का तो खण्डन होता ही है साथ ही साथ असत्यकार्यवाद की सिद्धि भी होती है?
इन युक्तियों के आधार पर न्याय दर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि कार्य कारण में उत्पत्ति के पूर्व सर्वथा असत् होता है। वह सर्वथा एक नवीन आरम्भ है, अतः यह सिद्धान्त असत्यकार्यवाद या आरम्भवाद कहलाता है।
सांख्य एवं अद्वैतवेदान्ती विचारक न्याय-दर्शन के कारण-विचार के विषय में कई आक्षेप लगाते हैं- न्यायदर्शन कारण को पारिभाषित करते हुए पूर्ववर्तीत्व पर बल देता है जो तार्किक दृष्टि से ठीक नहीं है, किन्तु कालक्रम की दृष्टि से समीचीन नहीं है। सूर्य प्रकाश का कारण है और दोनों एक ही समय में विद्यमान रहते हैं। न्यायदर्शन क्रियात्मक दृष्टि से कार्य-कारण भाव के लिए पूर्ववर्तित्व के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है। पूर्ववर्ती अवस्थाओं के विषय में तथा उस परिवर्तन के विषय में, जो अवस्थाओं को एकत्र कर उन्हें कारण बना देता है, जिससे वे कार्य को उत्पन्न करते हैं- न्याय दर्शन का विश्लेषण कृत्रिम है। शंकराचार्य का कथन है कि हम पूर्वर्गत्व एवं निरूपाद्यिता दोनों पर जोर नहीं दे सकते। यदि कारण और कार्य अयुत्यसिद्ध है तो कारण का सदा कार्य से पूर्व होना आवश्यक नहीं है। यह कहना अधिक यथार्थ है कि कारण और कार्य एक ही वस्तु की दो भिन्न-भिन्न अवस्थायें हैं। यह कहना यथार्थ नहीं है कि वे दो भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं और अवियोज्य ढंग से जुड़े हैं। न्याय दर्शन द्वारा समवाय सम्बन्ध पर बल देना इसी निष्कर्ष की पुष्टि करता है। यदि कार्य एवं कारण परस्पर समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है तो उनमें तादात्म्य सम्बन्ध मानना अधिक उचित है।
पुनः सांख्य दर्शन का कथन है कि जिसका अस्तित्व नहीं उसे कभी भी उत्पन्न नहीं किया जा सकता। उपादान कारण सदैव अपने कार्य से जुड़ा होता है। सांख्य एवं वेदान्त दर्शन का आग्रह है कि यदि कार्य कारण से सर्वथा भिन्न है तो दोनों को जोड़ने वाला कोई निर्णायक सिद्धान्त नहीं हो सकता। सांख्य एवं वेदान्त कारण तथा कार्य को तादात्म्य नियम से आबद्ध मानते हैं। दोनों को परस्पर बांधने के लिए किसी कड़ी को आवश्यक नहीं मानते। वे निमित्त कारण को ही असमवाय कारण मानते हैं। वे समवायि एवं असमवाय कारण में भेद अनुचित मानते हैं।
Question : प्रमाणों की न्याय थ्योरी को स्पष्ट कीजिए।
(2006)
Answer : न्याय दर्शन में प्रमाण मीमांसा का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें मोक्ष प्राप्ति के लिए यथार्थ ज्ञान (प्रमा) को आवश्यक माना गया है। न्याय दर्शन वस्तुवादी है एवं ज्ञान को अनुभव करता है। अनुभव स्मृति भिन्न ज्ञान है। यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। तर्क संग्रह के अनुसार किसी वस्तु का जो वह है उसी रूप में ज्ञान अनुभव प्रमा है। इस प्रकार न्याय दर्शन यथार्थता को प्रमा का लक्षण मानता है। उल्लेखनीय है कि मीमांसा दर्शन यथार्थता के साथ नवीनता को प्रमा का लक्षण मानता है। न्यायदर्शन स्मृति को प्रमा के बाहर रखता है, क्योंकि यथार्थ अनुभवजन्य है। एवं अनुभव स्मृतिभिन्न ज्ञान है।
न्याय दर्शन में प्रमा के चार प्रकार हैं-
प्रत्यक्ष प्रमा की प्राप्ति का साधन भी प्रत्यक्ष ही है। अतः प्रत्यक्ष प्रमा और प्रमाण दोनो हैं। अनुमिति एक प्रमा है और उसकी प्राप्ति का साधन अनुमान है। अनुमान से जिसका? ज्ञान प्राप्त होता है, उसे अनुमिति कहते हैं। शब्द ज्ञान को प्राप्ति का साधन शब्द है। उपमिति की प्राप्ति का साधन उपमान है। इन विभिन्न प्रमाणों में प्रत्यक्ष प्रधान श्रेष्ठ एवं उपजीव्य हैं।
यहां प्रत्यक्ष का तात्पर्य इन्द्रियों का वस्तुओं से सन्निकर्ष के पश्चात उत्पन्न ज्ञान है। न्याय दर्शन के संस्थापक गौतम अपने ‘न्यायसूत्र’ में प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि इन्द्रिय एवं वस्तु के सन्निकर्ष से उत्पन्न ऐसा ज्ञान प्रत्यक्ष है, जो अव्यय प्रदेश, अव्यभिचारी एवं व्यवसायात्मक हो। इस परिभाषा के विश्लेषण से निम्न बातें उभरकर सामने आती हैं:
(I) यहां इन्द्रिय का तात्पर्य ज्ञानेन्द्रियों से है। ज्ञानेन्द्रियां छः हैं, इन्हें दो भागों में वर्गीकृत किया गया हैः
(i) बाह्य ज्ञानेन्द्रियां- आंख, कान, नाक, मुंह व त्वचा
(ii) आन्तरिक - मन
(iii) अर्थ- यहां अर्थ का तात्पर्य ‘वस्तु’ प्रमेय या ज्ञेय से है।
(iv) सन्निकर्ष- इन्द्रियों का वस्तु के साथ सम्पर्क या जुड़ाव ही सन्निकर्ष है। यह सन्निकर्ष छः प्रकार का हैः
(v) अव्ययप्रदेश- वाचस्पति मिश्र के अनुसार अव्ययप्रदेश शब्द निर्विकल्प प्रत्यक्ष को, अव्यभिचारी शब्द अभ्रांत ज्ञान को और व्यवसायात्क शब्द सविकल्प पद को इंगित करता है।
पुनः दूसरे भाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार शब्द प्रमाण से प्रत्यक्ष प्रमाण की भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए अव्ययप्रदेश पद का, भ्रांत ज्ञान के निराकरण के लिए अव्यभिचारी पद का और संशयात्मक ज्ञान के निवारण हेतु व्यवसायात्मक पद का प्रयोग प्रत्यक्ष में किया गया है। न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं- लौकिक एवं अलौकिक प्रत्यक्ष।
लौकिक प्रत्यक्षः जब ज्ञानेन्द्रियों का वस्तु के साथ सम्पर्क लौकिक ढंग से होता है तो इस प्रत्यक्ष को लौकिक प्रत्यक्ष या साधारण प्रत्यक्ष कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप- चक्षु से घर का प्रत्यक्ष। लौकिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का होता है- बाह्य लौकिक प्रत्यक्ष एवं आन्तरिक लौकिक प्रत्यक्ष। बाह्य लौकिक प्रत्यक्ष में पंचज्ञानेन्द्रियों द्वारा विषय का सम्पर्क होता है एवं आन्तरिक (मानस प्रत्यक्ष) में आत्मा का मन से और मन का मानसिक भावों से प्रत्यक्ष होता है। जैसे सुख, दुख का प्रत्यक्ष।
अलौकिक प्रत्यक्षः जब ज्ञानेन्द्रियों का सम्पर्क वस्तु के साथ असाधारण ढंग से होता है, तो उस प्रत्यक्ष को अलौकिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। उदाहरण के लिए चन्दन के टुकड़े को देखकर उसके सुगंधित होने का ज्ञान। अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं- सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष, ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष और योगज प्रत्यक्ष।
किसी व्यक्ति विशेष को देखकर उसमें निहित जाति या सामान्य का प्रत्यक्ष सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहलाता है। उदाहरणस्वरूप, मनुष्य को देखकर मनुष्यत्व का ज्ञान। न्याय दर्शन में सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष के आधार पर ही अनुमान के आधार (व्याप्ति) को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष में इन्द्रियां अपने विषयों से भिन्न विषय का ज्ञान प्राप्त करती हैं। उदाहरणस्वरूप, आंखों को देखकर ठंडेपन की अनुभूति का ज्ञान, जो कि त्वचा का विषय है। न्यायदर्शन में वस्तुवाद की रक्षा और भ्रम की व्याख्या करने के लिए ज्ञान लक्षण प्रत्यक्ष को स्वीकार किया गया है। योगियों द्वारा भूत, भविष्य, गूढ़, गंभीर एवं सूक्ष्म विषयों का ज्ञान ही योगज प्रत्यक्ष कहलाता है।
न्यायदर्शन के प्रमाण मीमांसा में अनुमान प्रमाण की भी विशद विवेचना है। अनुमान दो शब्दों के योग से बना है- अनु+मान। यहां अनु का अर्थ है, पश्चात और मान का आशय है ज्ञान। अतः शाब्दिक दृष्टिकोण से अनुमान का तात्पर्य है- पश्चात ज्ञान। दूसरे शब्दों में पूर्व ज्ञान के पश्चात और उसी पर आधारित होकर होने वाला ज्ञान अनुमान है। अनुमान के लिए तीन पदों का होना आवश्यक है- (i) हेतुपद (ii) पक्ष पद (iii) साध्य पद। हेतु वह साधन है, जिसके माध्यम से साध्य को पक्ष में सिद्ध किया जाता है। पक्ष वह आशय है, जिसमें साध्य को सिद्ध किया जाता है। हेतु के आधार पर पक्ष में जिसकी सिद्धि की जाती है, वह साध्य कहलाता है। अनुमान के लिए व्याप्ति सम्बन्ध का होना आवश्य है। यह हेतु और साध्य का नियत, साहचर्य एवं अनौपाधिक सम्बन्ध है। न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में उपमान को स्वीकार किया गया है।
उपमान का शाब्दिक अर्थ होता है- सादृश्य ज्ञान। न्यायदर्शन के प्रणेता गौतम के अनुसार प्रसिद्ध वस्तु (गाय) के साधर्म्य (सादृश्यता) के आधार पर अप्रसिद्ध वस्तु (नील गाय) के ज्ञान को उपमिति कहते हैं और उसके करण या साधन को उपमान कहते हैं। यह उपमान संज्ञा- संज्ञी (नाम-नामी) सम्बन्ध है। इसमें किसी नाम और उस नाम द्वारा सूचित होने वाली वस्तु के सम्बन्ध का ज्ञान होता है। उपमान के लिए चार क्रमिक स्तर उभरकर सामने आते हैं:
अन्नतः न्यायदर्शन में यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में ‘शब्द प्रमाण’ को स्वीकार किया गया है। शब्दों एवं वाक्यों से प्राप्त ज्ञान शब्द प्रमाण के अन्तर्गत सम्मिलित किए जाते हैं। परन्तु सभी प्रकार के शब्द और वाक्य प्रमाण की कोटि में नहीं आते। केवल विश्वसनीय व्यक्ति का वचन ही शब्द प्रमाण में सम्मिलित किये जाते हैं। शब्द प्रमाण को दो रूपों में बांटा जाता है-
विषय वस्तु के आधार पर शब्द प्रमाण दो रूपों में दिखाई देता है- (a) दृष्सर्थ (b) अदृर्ष्यर्थ। यहां दृष्यर्थ का आशय शब्द से प्राप्त वैसे ज्ञान से है, जिसको प्रत्यक्ष किया जा सकता है। परन्तु शब्द से ऐसे किसी वस्तु का ज्ञान को दृष्य नहीं हो अदृर्ष्थ प्रत्यक्ष की श्रेणी में आता है। जैसे पाप-पुण्य आदि।
स्रोत के आधार पर भी शब्द प्रमाण के दो रूप हैं- (i) लौकिक (ii) वैदिक। लौकिक कथनों में केवल विश्वसनीय व्यक्तियों के वचन आते हैं। वैदिक कथन ईश्वरीय वचन होने के कारण प्रामाणिक हैं। इस प्रकार न्याय दर्शन की प्रमाणमीमांसा इन्हीं चार प्रमाणों पर टिकी है।