Question : रसेल के वर्णन-सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए और पी.एफ. स्ट्रॉसन की आलोचना के विशेष संदर्भ में उसकी परीक्षा करें।
(2007)
Answer : रसेल ने मूर के साथ आरम्भ में यह माना था कि जितने भी शब्द सार्थक हैं, उनमें केवल वही शब्द सार्थक है, जो किसी न किसी वस्तु का निर्देश करते हैं और वह वस्तु ही उस शब्द का अर्थ है। यही रसेल का वर्णन सिद्धान्त कहलाता है। अधिकतर दार्शनिकों ने इस सिद्धान्त के स्वीकार किया था और उन्हीं की परम्परा में रसेल ने विशेषकर अपने पारंपरिक चिंतन में इस सिद्धान्त को माना। जैसे मेज शब्द वस्तु है, लेकिन यहां पर एक समस्या आती है कि बहुत से शब्द हैं जो ऐसी किसी वस्तु का निर्देश नहीं करते हैं। जिसका कि देश और काल में अस्तित्व हो। जैसे सोने का पहाड़ एक सींग वाला घोड़ा, वर्गाकार वृत। प्रश्न है कि क्या इन शब्दों को हम निरर्थक मान लें। इसका माइनांग ने समर्थन किया था, जिससे मूर और रसेल के साथ-साथ सभी वस्तुवादी दार्शनिक प्रभावित थे। माइनांग का यह कहना था कि प्रत्येक शब्द सार्थक है।
वह किसी न किसी वस्तु का निर्देश करता है। यदि ऐसा सत्य है जिसके अनुरूप वास्तविक जगत की कोई वस्तु नहीं है, तो भी उसकी किसी-न-किसी रूप में सत्ता है। इस सत्ता को हम कह सकते है, इसका अस्तित्व नहीं है पर स्वत्व है। रसेल ने भी ऐसी सभी स्वरूप वस्तुओं को स्वीकार किया था।
रसेल यह कहना चाहते हैं कि ये दोनों सामाधान वास्तविक नहीं हैं, फिर समाधान क्या हो सकता है? रसेल मानता है कि अन्य दो प्रकार के शब्दों में या वाक्याशों में अन्तर कर सकते हैं। एक तरफ वे शब्द जिन्हें व्यक्तिवाचक नाम कहा जाता है। और ऐसे शब्द वास्तविक वस्तुओें का निर्देश करते हैं और इन शब्दों का अर्थ केवल इनके द्वारा निर्दिष्ट वस्तुए हैं।
पहले को वर्णन का सिद्धान्त अब भी मानता है, पर उन्हें सीमित कर देता है। जिन्हें भी व्यक्तिवाचक नाम कहा जाता है, ऐसे शब्द वास्तविक वस्तुओं का निर्देश करते हैं और इन शब्दों का अर्थ इनके द्वारा निदिष्ट वस्तुयें है। जैसे प्लेटो का अर्थ प्लेटो व्यक्ति है, दिल्ली का अर्थ दिल्ली शहर हैं इत्यादि।
अगर बोर्ड शब्द व्याकरण की दृष्टि से व्यक्तिवाचक प्रतीत होता है, पर स्पष्ट नहीं है कि ऐसा व्यक्ति था या नहीं था। तब रसेल कहता है कि ये व्यक्तिवाचक नाम नहीं है, केवल संक्षिप्त वर्णन है। जैसे वह कहता है कि हेमलेट का प्रयोग व्यक्तिवाचक नाम की तरह किया जाता है। लेकिन हेमलेट था नहीं। इस नाम के अनुरूप कोई व्यक्ति नहीं था, इसलिए ये व्यक्ति वाचक नहीं है। जो व्यक्तिवाचक नाम है, या वस्तुओं को निर्देश करते हैं, वही उसका अर्थ है। यदि कोई शब्द जो वस्तु का निर्देश नहीं करता है तो व्यक्तिवाचक नाम नहीं है। बहुत से ऐसे वर्णनात्मक वाक्यांश हैं, जिनका प्रयोग नामों की तरह किया जाता है।
जैसे The prime Ministerफ्रांस का वर्तमान शासक। हिन्दी में संदर्भ हमारी सहायता करते है। फिर रसेल कहता है उनका सरलता से निराकरण किया जा सकता है अर्थात् इनका ऐसे वाक्यों में रूपान्तरण किया जा सकता है, जिसमें में इस शब्द का प्रयोग न हो और अर्थ में कोई अन्तर न आए।
रसेल का कहना है कि चाहे निश्चित वर्णनात्मक शब्द हो या अनिश्चित वर्णनात्मक शब्द हो, इनका स्वतंत्र रूप में कोई अर्थ नहीं होता। जैसे हम सिर्फ इतना कहें कि फ्रांस का वर्तमान शासक या एक मनुष्य बेवर्ली का लेखक, तब इन शब्दों का अर्थ नहीं। इनका अर्थ प्रतिज्ञप्तियों में प्रयोग करने पर ही होता है। रसेल कहता है कि इस तरह के शब्द अपूर्ण प्रतीक हैं। उसने यह गणित से लिया है। जैसे + – × आदि का अपने आप में कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन वर्णनात्मक शब्दों का निराकरण किया जा सकता है। जैसे बेवर्ली का लेखक स्काट है। इसे हम इस तरह लिख सकते हैं
इन तीनों वाक्यों में कहीं भी वर्णनात्मक शब्द या वाक्यांश नहीं आया है। यहां बेवर्ली का लेखक का वाक्यांश का निराकरण हो गया, लेकिन इससे अर्थ में कोई अन्तर नहीं आया। ‘बेवर्ली’ का लेखक का जो अर्थ है, वही अर्थ इन तीनों वाक्यों का भी है। इसके आधार पर जो सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष है वह यह है कि व्याकरणात्मक आकार तार्किक आकार नहीं है। हमारी बहुत सी समस्यायें व्याकरणात्मक आकार को तार्किक आकार मान लेने से उत्पन्न होती हैं। व्याकरणिक आकार तार्किक आकार को छिपाता है।
स्ट्रॉसन ने अपने लेख 'on Referring' में विस्तार से रसेल के इस सिद्धान्त को लेकर आलोचना की है। स्ट्रासन का कहना है कि रसेल ने निर्देशात्मक शब्दों और निर्देशन की क्रिया में अन्तर नहीं किया। जब हम किसी वस्तु के संबंध में कुछ कहना चाहते हैं तो हमें निर्देशात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे- व्यक्तिवाचक नाम, सर्वनाम, वर्णनात्मक शब्द। ये निश्चित भी हो सकते है और अनिश्चित भी। इनके द्वारा प्रायः निर्देशन का कार्य किया जाता है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि इनमें से कोई शब्द अपने आप में निर्देशन का कार्य करता है।
स्ट्रॉसन के अनुसार रसेल की दूसरी गलती यह है कि रसेल ने वाक्य में और वाक्य के प्रयोग में अंतर नहीं किया है। स्ट्रॉसन के अनुसार अंतर यह है कि वाक्य अपने आप में न सार्थक होता है, न निरर्थक होता है। जब वाक्य का प्रयोग कथन के लिए किया जा रहा है तो कथन या तो सत्य होता है या असत्य होता है।
रसेल की तीसरी गलती यह है कि रसेल ने यह मान लिया था कि प्रत्येक वाक्य का प्रतिज्ञाप्ति में उसके अर्थ में ही अस्तित्व का कथन निहित होता है।
स्ट्रॉसन ये कह रहा है कि जब रसेल यह कहता है कि फ्रांस का वर्तमान शासक गंजा है, तो इस कथन में यह भी कहा जा रहा है कि फ्रांस में वर्तमान काल में शासक है।
इस वाक्य का उद्वेश्य हुआ फ्रांस का वर्तमान शासक गंजा और विधेय हुआ, उसका गंजा होना। स्ट्रॉसन का कहना है कि जहां स्पष्ट रूप से कथन न किया गया हो, वहां हम अस्तित्व के कथन को वाक्य का भाग नहीं बना सकते। ऐसे संदर्भ में उद्देश्य का ही होना उस कथन के प्रयोग की पूर्व अपेक्षा है।