Question : सार्त्रे के स्वतंत्रता के संप्रत्यय पर चर्चा कीजिए।
(2004)
Answer : सार्त्र के अस्तित्ववादी विचारधारा में स्वतंत्रता की बड़ी मार्मिक एवं स्पष्ट व्याख्या हुई है। सार्त्रे के अनुसार मानव अस्तित्व की अनुभूति का अर्थ है- मानव की मौलिक स्वतंत्रता की अनुभूति। मानव को अस्तित्व की प्रथम अनुभूति में ही अपने एकाकीपन की अनुभूति होती है, वह अपने को एक स्थिति में वस्तुओं तथा अन्य से घिरा पाता है तथा साथ-साथ यह भी मान लेता है कि ईश्वर के समान कोई सहारा नहीं है, जिस पर वह झुक सके। अतः वह क्या बनेगा, किस दिशा में उसका अस्तित्व प्रवाहित होगा? यह सब उसके ही निर्णय-निश्चय पर निर्भर करता है। यही स्वतंत्रता की प्राथमिक अनुभूति है। एकाएक वह अपने को ऐसी स्थिति में पाता है, जहां स्वतंत्रता की अनुभूति होती है। यह स्थिति या यह अनुभूति उसके कारण नहीं हैं, वह उस स्थिति में एक प्रकार से फेंका हुआ है। वह एकाएक अपने को इस स्थिति में पाता है, जहां उसे स्पष्ट अनुभूति होती है कि अब सब कुछ उसी पर निर्भर है। सार्त्रे इस तथ्य का सुन्दर विवरण देते हुए कहते हैं कि ‘मानव स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है’। चुनाव भी उसे करना ही है, ऐसा नहीं हो सकता कि वह चुनाव करे ही नहीं। किसी निश्चित चुनाव को वह टाल सकता है, यह टालना भी एक प्रकार का चुनाव ही है। वह नहीं कर सकता है तो बस किसी प्रकार का चुनाव नहीं करना। यह विवशता स्वतंत्रता की मजबूरी है, उसकी अभिशप्तता है।
मूलतः स्वतंत्रता से सार्त्र का तात्पर्य चुनाव की स्वतंत्रता अथवा निर्णय की स्वतंत्रता से है। व्यक्ति क्या बनेगा, किस रूप में उसकी योजनायें सर्जित होंगी। यह उसके स्वतंत्र निर्णय पर ही निर्भर करता है। सार्त्रे स्पष्ट कहते हैं कि मनुष्य अपनी स्वतंत्र इच्छा-शक्ति से ही आत्म-निर्माण करता है, वह जो कुछ बनता है वह उसके स्वतंत्र निर्णय का ही परिणाम है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सार्त्रे प्रभावों के महत्व की उपेक्षा करता है। सार्त्र का कहना है कि व्यक्ति ही अन्ततः प्रभावों को आंकता है, विकल्पों के विषयों में खींचता है। उसकी स्वतंत्रता इस तथ्य में है कि सभी प्रभावों के मध्य अन्तिम चुनाव उसे ही करना है। यदि वह प्रभावों से प्रभावित होता है तो यह भी उसी का निश्चय होगा। सार्त्रे इसे अपने एक विद्यार्थी के उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हैं। वह सार्त्रे के पास यह सलाह लेने गया था कि वह या अन्य कोई उसे जो भी सलाह दे, अन्ततः यह तो उसी को निश्चय करना है कि वह सलाह को माने या न माने। वह विद्यार्थी सार्त्रे के पास सलाह के लिए जाता है- यह भी उसी का निश्चय है। इसमें भी वह एक प्रकार से निर्णय ही ले रहा है, क्योंकि सलाहकार के चुनाव में भी अन्तिम निर्णय का अंश है, क्योंकि सलाहकार के विषय में उसे सामान्य जानकारी है कि वह किस प्रकार की सलाह दे सकता है। इसी बात को एक अन्य उदाहरण से और स्पष्ट किया जा सकता है। मान लें कि कोई विद्यार्थी एकाएक पिता के देहान्त होने के बाद अत्यन्त आर्थिक अभाव तथा छोटे भाई बहनों की देख-रेख के लिए पढ़ाई छोड़ किसी नौकरी में लग जाता है। यहां कहा जा सकता है कि वहां परिस्थितियों ने उसे ऐसा करने के लिए विवश कर दिया। किन्तु, सार्त्रे की ओर से कहा जा सकता है कि पढ़ाई छोड़ने का अन्तिम निर्णय विद्यार्थी ही ने किया। यह नहीं कहा जा सकता कि उसके पास कोई चारा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि विकल्प थे, वह आत्महत्या कर सकता था, ऐसा उसने निर्णय नहीं लिया। उसने सभी विकल्पों को परखा, तब अन्तिम निर्णय लिया। इस प्रकार उसका यह ‘चुनाव’ उसकी मौलिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति ही है। इस प्रकार सार्त्रे का कहना है कि व्यक्ति जिस वातावरण, परिस्थिति में अपने को पाता है, वहां वातावरण की ओर से स्तंत्रता के मार्ग में अवरोध उत्पन्न हो सकता है, किन्तु स्वतंत्रता में निहित यह शक्ति है कि वह अपना दिशा निर्देश स्वयं कर लेता है। सार्त्र के अनुसार स्वतंत्रता एक सतत् प्रवाह है, वह एक अनन्त प्यास है, जो हर निश्चय के साथ नये-नये रूप में मुखरित होती है। यदि यह प्रवाह रूक जाए तो चेतना-अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। यही मौलिक स्वतंत्रता मनुष्य की विशिष्टता है जो इसे असत् तत्वों से भिन्न बनाती है।
सार्त्र के अनुसार स्वतंत्रता की अनुभूति में दायित्व भाव अनिवार्यतः निहित है। मनुष्य की स्वतंत्रता उसे सतत् क्रियाशील रखती है, इसी क्रियाशीलता में उसका अस्तित्व विकसित होता है, इन्हीं स्वतंत्र निर्णयों के अनुरूप वह आत्म-निर्माण करता है। कोई ईश्वर जैसा सहारा नहीं है, आत्म निर्माण वही स्वयं करता है। अतः आत्म-निर्माण का पूर्ण दायित्व उसी पर है। सार्त्र का कहना है कि इस दृष्टि से स्वतंत्रता एक भार है, हर निर्णय में व्यक्ति को एक भार वहन करना पड़ता है। वह भार दायित्व का भार है। सार्त्र का कहना है कि चेतन अस्तित्व का अर्थ है- इस दायित्व-भार के प्रति सदा सतत् सजग रहना।
सार्त्र ने इस दायित्व-बोध को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इस प्रकार के दायित्व की भावना व्यक्ति में अपने प्रति भी है तथा अन्य के प्रति भी। हर निर्णय में प्रति दायित्व का बोध है क्योंकि उसे अवगति है कि उसी निर्णय पर उसकी योजनायें निर्भर करती हैं। यह निर्भर करता है कि वह किस रूप में अस्तित्ववान होगा। सार्त्रे का कहना है कि इसके अतिरिक्त हर निर्णय में सूक्ष्म रूप से उसे अन्य के प्रति भी अपने दायित्व का बोध रहता है। उसका हर निर्णय अन्ततः तभी लिया जाता है, जब उसे वह निर्णय अन्य विकल्पों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त लगे। इस दृष्टि से उसका निर्णय उस परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ निर्णय के रूप में उभरता है। इसका अर्थ है कि वह निर्णय तभी लेता है, जब वह सोच लेता है कि ऐसी परिस्थिति में फंसा हर व्यक्ति यही निर्णय लेगा। इस प्रकार अपने निर्णय लेने में एक प्रकार से वह अन्य का भी मार्गदर्शक बन जाता है। अन्य के प्रति अपने दायित्व के लिए सजग रहता है तथा यह सोच लेता है कि इस स्थिति में सभी ऐसा करेंगे। सार्त्रे के विद्यार्थी वाले उदाहरण के विश्लेषण के द्वारा इस बात को स्पष्ट किया जा सकता है। मान लें उस विद्यार्थी ने अन्ततः युद्ध में जाने का निर्णय लिया। यह ठीक है कि अन्तिम निर्णय उसे ही लेना पड़ा, किन्तु इस निर्णय लेने की प्रक्रिया में जो उसका अन्तर्द्वन्द्व रहा, यह जो विकल्पों की परख का सिलसिला चलता रहा, वह सब उसके दायित्व-बोध की अभिव्यक्ति है। अपने प्रति तो उसका दायित्व बोध है, क्योंकि इस निर्णय के अनुरूप उसका जीवन एक विशेष दिशा में प्रवाहित हुआ। किन्तु इस निर्णय में उसका अन्य के प्रति दायित्व भी परिलक्षित है। ऐसा निर्णय वह तभी ले पाया जब उसे यह समझ आयी कि ऐसी परिस्थिति में हर व्यक्ति युद्ध में जाने का ही निर्णय लेता है। इस प्रकार अपने लिए चुनाव करने में वह अन्य के लिए भी चुनाव कर रहा है। यही उसका अन्य के प्रति दायित्व है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सार्त्र मानव अस्तित्व का चित्र इस प्रकार खींचते हैं कि उसमें ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है। मानव स्वतंत्र है और उसकी संकल्प की स्वतंत्रता भी अक्षुण्ण है। उसे अपने योजनाओं सभी सम्बन्धी निर्णय लेने की स्वतंत्रता है और यह उसके अस्तित्व के निर्माण के एक अंश के रूप में ही अर्जित होता है।
Question : ‘अस्तित्व सार से पहले आता है’।
(2003)
Answer : सार्त्र की मूल अस्तित्ववादी उक्ति है कि अस्तित्व भाव से पहले है। इसे अस्तित्ववादी विचार की मूलोक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सार्त्रे ने इसकी व्याख्या अपने ढंग से की है। उनकी अस्त्विवादी विचारधारा इसी व्याख्या में स्पष्ट होता है। सार्त्रे के अनुसार हमारी प्रचलित धारणा यही है कि भाव का स्थान अस्तित्व से पहले आता है। उदाहरणतः हम यह जानकर चलते हैं कि यह घर या मेज का भाव उनके होने के पहले आता है। घर या मेज के निर्माण के पहले निर्माणकर्त्ता के मन में घर या मेज का भाव रहता है। इसी के अनुरूप वह घर या मेज का निर्माण करता है। इस प्रकार यहां घर या मेज का भाव उनके अस्तित्व के पहले है। उसी प्रकार जो लोग ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता के रूप में सोचते हैं, वे यह भी सोचते हैं कि हर अस्तित्ववान वस्तु का भाव ईश्वरीय मन में पहले से विद्यमान था, जिसके अनुरूप ईश्वर ने उस वस्तु को अस्तित्व दिया। इस दृष्टि से मनुष्य का भाव भी मनुष्य के अस्तित्वपन होने के पहले से ईश्वरीय मन में थी। इस प्रकार के विचार में मनुष्य का भाव मनुष्य के अस्तित्व के पहले है, किन्तु सार्त्रे विपरीत ढंग से सोचते हैं। वे देखते हैं कि ईश्वर आदि की बात तो व्यक्ति बहुत बाद में करता है, इस दृष्टि से ईश्वर-भाव के बहुत पहले व्यक्ति को अहं की अथवा आत्म, अस्तित्व की चेतना हो जाती है। अतः सार्त्रे ईश्वर को मान कर नहीं सोचते। सार्त्रे के अनुसार जब कोई ईश्वरीय सत्ता नहीं है, बल्कि मानव सत्ता ही वह सत्ता है, जिसमें स्पष्टतः अस्तित्व भाव से पहले है। मनुष्य पहले है, उसे अपने आत्म अस्तित्व की चेतना भी पहले होती है। इस चेतना के बाद ही उसमें भाव बनाने की क्षमता आती है और तब वह मानव भाव भी बना लेता है। किन्तु किसी भी भाव के पहले बल्कि प्राथमिक रूप में उसे अस्तित्व की ही चेतना होती है। नवजात शिशु तो पैदा होने के समय प्रायः शून्य है। वास्तविक अथवा अस्तित्ववादी दृष्टि से देखा जाए तो वह अभी मानव भी नहीं हैं क्योंकि वह स्थूल तत्वों के समान अभी प्रतिक्रियाओं का समूह है। अस्तित्ववादी अर्थ में उसका होना उसका मानव होना, उसके अस्तित्व की प्राथमिक अनुभूति के साथ आरम्भ होता है। अतः उसके लिए अस्तित्व पहले है। इसी प्राथमिक चेतना के साथ उसका जीवन संरचित होता है। उसकी आत्मसम्बन्धी अवधारणा क्या होगी, उसमें किस प्रकार के भावों के निर्माण की क्षमता आयेगी? यह सब भी उसी पर निर्भर करता है। यही वह सत्ता है जिसमें अस्तित्व हर प्रकार के भाव-विचार आदि से पहले हैं।
Question : सार्त्रे की सांवृतिक सत्ता मीमांसा।
(2000)
Answer : सार्त्रे के अनुसार अस्तित्ववान व्यक्ति वस्तुतः चेतन मनुष्य है। चेतना एक विशेष प्रकार के निषेधों से संरचित होती है। इस निषेध भाव से तीन प्रकार के विचार स्पष्ट होते हैं- कमी या अभाव की चेतना, निषेधता तथा शून्यता की अनुभूति। फेनोमेनोलाजी के प्रभाव में सार्जे की चेतना के विषेयापेक्षी रूप को स्वीकारते हैं। चेतना का यह स्वरूप ही है कि वह विषयोन्मुखी होती है, उसका विषय की ओर अनिवार्य संकेत रहता है। इसका अर्थ है कि चेतना में ही चेता तथा विषय दोनों हैं, परन्तु दोनों में भेद कुछ भी नहीं है। चेतना में जो कमी है, वही चेतना तथा विषय का अन्तर है। चेतना अपने में ही यह भेद बना लेती है। अतः यह भेद भी चेतना ही है, उससे बाहर नहीं। इसी कारण सार्त्रे कहते हैं कि यह भेद वस्तुतः कुछ नहीं है तथा इस दृष्टि से चेतना भी कुछ नहीं है। यहनिषेधता है, क्योंकि इसी के द्वारा चेतना संरचित होती है। चेतना का स्वरूप ही निषेध हो जाता है। इस निषेधता का विश्लेषण करते हुए सार्ते कहते हैं कि यह हां या नहीं कहने की शक्ति है, स्वीकारने की, अस्वीकारने की क्षमता है। स्वीकारने-अस्वीकारने की शक्ति का विश्लेषण सार्त्रे मानव अस्तित्व में निहित सम्भावनाओं के आधार पर करते हैं। उसके अनुसार मानव-अस्तित्व तो चेतना ही है, अस्तित्व को चेतना में यह अनुभूति निहित है कि उसे पूर्णतया, आत्म अस्तित्व की सम्भावनाओं के साथ आत्म को अनुभूत करना है। आत्म-चेतन आत्म की चेतना है, किन्तु अभी अपने में निहित पूर्ण सम्भावनाओं को व्यक्त करता हुआ अनुभूत नहीं हो रहा है। सार्त्रे समझते हैं कि इस प्रकार की अनुभूति सम्भव भी नहीं है क्योंकि अपनी पूर्ण सम्भावनाओं के साथ तो केवल वस्तुयें व्यक्त होती हैं। अतः मानव का लक्ष्य है आत्म को इस प्रकार अनुभूत करना जैसे वह भी कोई स्वअस्तित्व हो, और यह लक्ष्य असम्भव है, क्योंकि वह है नहीं है। इसी कारण कहा जा सकता है कि आत्म अस्तित्व की चेतना जो आत्म नहीं है- उसकी चेतना है, सम्भावनाओं की चेतना है, और सम्भावनायें अभी वास्तविक नहीं हुई, प्रकट नहीं हुई हैं। उन सम्भावनाओं को प्रकट करने का निर्णय भी व्यक्ति पर है। उन्हें स्वीकारने-अस्वीकारने का निर्णय उसी में है। इसी कारण यहीं पर मानव की मौलिक स्वतंत्रता भी बिखर जाती है, जो मानव के अस्तित्ववादी रूप में निहित है। सार्त्रे ने इसी लिए मनुष्य को कभी-कभी 'useless passion' कहा है, क्योंकि मनुष्य जो वह नहीं हो सकता, वही होना चाहता है। यही उसका स्वरूप है, इसी कारण कहा गया है कि कभी यह नहीं होना मानव अस्तित्व का स्वरूप है।