Question : कठोर विज्ञान के रूप में दर्शन की हुस्सर्ल की संकल्पना पर चर्चा करें।
(2003)
Answer : दर्शन के प्रचलित ढंग से हुस्सर्ल का विरोध है। हुस्सर्ल के अनुसार दार्शनिक चिन्तन का प्रचलित ढंग जिस आधार पर टिका हुआ है, वह चिन्तन का वास्तविक आधार नहीं है। चिन्तन का वास्तविक आधार वही हो सकता है, जिसे किसी अन्य आधार की अपेक्षा न हो। अतः चिन्तन के वास्तविक आधार को स्वतः सिद्ध तथा स्वतः प्रदत्त होना आवश्यक है, अन्यथा सभी चिन्तन पूर्णतया कृत्रिम हो जाएगा। हुस्सर्ल का लक्ष्य है कि ऐसे स्वतः प्रदत्त तथा स्वतः सिद्ध आधार को ढूंढ़े तथा इसके लिए उसने एक उपयुक्त विधि का आविष्कार किया। इस प्रकार हुस्सर्ल के अनुसार ऐसे स्वतः सिद्ध आधार पर चिन्तन को बिठाने का प्रयास फेनोमेनोलाजी की दृष्टि है तथा उस आधार को पकड़ने का ढंग फेनोमेनोलाजी की विधि के साथ एकरूप कर दिया जाता है, क्योंकि फेनोमेनोलाजी के अनुरूप चिन्तन का अर्थ है- उस विधि का प्रयोग करना।
फेनोमेनोलाजी बौद्धिक अन्वेषण की विधि है। इसके अन्तर्गत अनुभव में आय रूप में जो प्रदत्त होता है, उसका विश्लेषण किया जाता है। आद्य रूप में प्रदत्त भाव सभी वैचारिक स्तरों से पहले की अवस्था है। इस भाव का विश्लेषण फेनोमेनोलाजी का उद्देश्य या कार्य है। इस कार्य के लिए फेनोमेनोलाजी चेतना पर ही ध्यान केन्द्रित करता है। इसी कारण इसका दावा है कि पहली बार चेतना इस रूप में दार्शनिक अध्ययन का केन्द्र बनी। पहले के दार्शनिक चिन्तन में चेतना का अध्ययन दोषग्रस्त भाव पर आधारित रहा। चेतना को एक द्रव्य या तत्व के रूप में कल्पित किया जाता। दर्शन भौतिक तथा मानसिक तत्वों के द्वैत से मुक्त नहीं हो पाया। इस कारण चेतना का हर प्रकार का अध्ययन भौतिक जगत की पृष्ठभूमि में किया गया। अति वैज्ञानिकता के प्रभाव में चेतना की वैज्ञानिक एवं व्यवहारवादी व्याख्या प्रस्तुत की गयी। जिसमें चेतना को प्रायः लुप्त कर दिया गया। चेतन सम्बन्धी कथनों को व्यवहार सम्बन्धी कथनों में रूपान्तरित कर दिया जाता रहा। कुछ मनोवैज्ञानिक तो चेतना की परिमाणमूलक व्याख्या भी प्रस्तुत करने लगे। फेनोमेनोलाजी इस प्रकार से चेतना के अध्ययन का समर्थक नहीं है। इसका लक्ष्य वस्तुनिष्ठता का आधार ढूंढ़ना है तथा इस आधार को वह आत्मनिष्ठ चेतना के विश्लेषण के द्वारा इस आधार ढूंढ़ने का प्रयत्न करना है। इस प्रकार यह आत्मनिष्ठ चेतना के विश्लेषण के द्वारा वस्तुनिष्ठ, आद्यरूप में प्रदत्त भावों को पकड़ने की चेष्टा करता है। फेनोमेनोलाजी के अनुसार चेतना के दो पहलू हैं। यह कुछ ग्रहण करता है तथा यह विषयोन्मुख है। फेनोमेनोलाजी पर ब्रेन्टानों के विषयापेक्षी सिद्धान्त का प्रभाव है। इस सिद्धान्त के अनुसार चेतना को अनिवार्यतः किसी विषय की अपेक्षा होती है। चेतना की विषयोन्मुखता में ही उसके विषय को पकड़ा जा सकता है। विषय को पकड़ने के लिए चेतना से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। यदि चेतना के आद्य रूप का विश्लेषण हो तो उसी चेतना में उसका विषय स्पष्ट हो जायेगा। यह विषय पूर्णतः वस्तुनिष्ठ होगा, क्योंकि किसी प्रकार की विकृति उस प्रकार रंग नही चढ़ा पायी है। यह विषय का वह रूप होगा, जो आद्य अनुभूति में प्रदत्त हुआ है। इस प्रकार से चेतना के विश्लेषण से वस्तुनिष्ठता की प्राप्ति हो सकती है। वैयक्तिक चेतना में ही अर्थ निरूपण का आधार ढूढां जा सकता है। यदि उसका आद्यरूप पकड़ में आ जाए तो वही हर प्रकार के अर्थ निरूपण का आधार होगा।
इस प्रकार फेनोमेनोलाजी का लक्ष्य शुद्ध सैद्धान्तिक है। इसी कारण इसके निष्कर्षों में व्यापकता है। शुद्ध सैद्धान्तिकता दर्शन की व्यापकता का आधार है। हुस्सर्ल ने ग्रीक दृष्टि के इस मूल भाव को समझा तथा उन्हीं के प्रभाव में अपनी फेनोमेनोलाजी को शुद्ध सैद्धान्तिक अन्वेषण का रूप दिया। हुस्सर्ल को प्रतीत हुआ कि मनुष्य के जीवन में एक आपात स्थिति प्रवेश कर चुकी है। इस सांस्कृतिक एवं अस्तित्वमूलक आपात स्थिति का कारण एक वैचारिक आपात स्थिति है। हुस्सर्ल के अनुसार अतिवैज्ञानिकता तथा वैज्ञानिक भाववाद को कारण ही ऐसा हुआ है। संशयवाद तथा सापेक्षतावाद इसकी देन है। अतः हुस्सर्ल को एक कोपरनीक वैचारिक क्रांति की आवश्यकता प्रतीत हुई। इसी संदर्भ में हुस्सर्ल ने विज्ञान के सम्बन्ध में एक बड़े महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश दिया। हुस्सर्ल के अनुसार विज्ञान की वैज्ञानिकता उनकी निश्चयता अथवा अनिवार्यता अथवा सार्वभौमिकता में निर्धारित नहीं होती, क्योंकि वैज्ञानिक निष्कर्ष तो प्रायः सदा ही तात्कालिक एवं सामयिक होते हैं। इनमें पूर्ण निश्चयता नहीं होती। इनके प्रमुख निष्कर्षो के सम्बन्ध में मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि उनमें निश्चयता की मात्र अत्यधिक है। अतः विज्ञान की वैज्ञानिकता का आधार निश्चयता ही नही हैं, बल्कि पूर्ण वस्तुनिष्ठता है। वैज्ञानिकता की पहचान उनकी इसी वस्तुनिष्ठता से होती है, विज्ञान का लक्ष्य पूर्णतया वस्तुनिष्ठ अन्वेषण है, परन्तु इस विधि या विश्लेषण के मार्ग हुस्सर्ल को एक बड़ी कठिनाई दिखाई देती है। हुस्सर्ल के अनुसार ऐसा इसलिए है कि हम दो प्रकार के विश्वासों से इतने जकड़े हुए हैं कि हम उनसे अपने को मुक्त नहीं कर पाते। एक तो हमारा सामान्य साधारण प्रकृतिवादी विश्वास है। हम सामान्यतः कुछ बातों को माने हुए होते हैं, जैसे हम हैं, कुछ भौतिक वस्तु है आदि। इनकी पकड़ इतनी कड़ी हो जाती है कि हमारे हर चिन्तन में विश्लेषण में हम मनोवैज्ञानिक से भी अपने को मुक्त नहीं कर पाते। हमारी सामान्य धारणा है कि मन चेतना आदि मनोवैज्ञानिक तथ्य हैं तथा उनका विश्लेषण मनोवैज्ञानिक आधारों पर ही किया जा सकता है। हुस्सर्ल का कहना है कि फेनोमेनोलाजीकल विश्लेषण को इन दोनों प्रकार के विश्वास तथा भ्रांतिपूर्ण धारणा से मुक्त करना अनिवार्य है। अतः उनके लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वे इन दोनों धारणाओं के दोषपूर्ण रूप को प्रकट कर दें, उनके भ्रांतिपूर्ण रूप को प्रकाश में ला दे। इसी कारण वे मनोवैज्ञानिकता तथा सामान्य प्रकृतिवादी दृष्टि दोनों का खण्डन करते। वस्तुतः यह उनके विचार का निषेधात्मक पक्ष नहीं है बल्कि इसी खण्डन के आधार पर वे अपनी विधि की रूप रेखा खींचतें हैं। अतः यह खण्डन की भावात्मक रूप में उनकी फेनोमेनोलाजी का अनिवार्य पहलू है। इस रूप में हुस्सर्ल ने फेनोमेनोलाजी को एक कठोर विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया है।
Question : सामान्य का न्याय वैशेषिक विचार।
(2003)
Answer : न्याय वैशेषिक दर्शन में विभिन्न व्यक्तियों में एकाकरता की अनुभूति या अनुवृत्ति प्रत्यय की व्याख्या के लिए ‘सामान्य’ नामक एक स्वतंत्र पदार्थ की सत्ता स्वीकार की गयी है। इसे जाति भी कहा जाता है। यह वह पदार्थ है, जिसके कारण भिन्न-भिन्न व्यक्ति एक जाति के अन्तर्गत समाविष्ट होकर एक नाम से जाने जाते हैं। जैसे संसार के भिन्न-भिन्न मनुष्यों में आकार, रंग, लंबाई आदि के भेद के बावजूद उन्हें मनुष्य संज्ञा से अभिहित किया जाता है। इसी प्रकार विभिन्न गायों में आकार, रंग, नस्ल आदि की विभिन्नता के बावजूद उन्हें गाय ही कहा जाता है।
न्याय-वैशेषिक सामान्य या जाति नामक स्वतंत्र पदार्थ की सत्ता स्वीकार करके इसकी व्याख्या करता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार सामान्य एक नित्य पदार्थ है, जो एक होते हुए भी अनेक विशिष्ट वस्तुओं में वर्तमान रहता है। अर्थात् सामान्य एक स्वतंत्र पदार्थ है, नित्य है, एक तथा अनेक विशेषों के अन्दर रहता है। तर्क संग्रह में भी नित्यमेकमनेकानुगर्त सामान्यम् कहकर सामान्य को परिभाषित किया जाता है। उपरोक्त परिभाषाओं से ज्ञात होता है कि एक वर्ग के सभी व्यक्तियों में एक ही सामान्य होता है। पुनः सामान्य नित्य होता है। किसी जाति के विशिष्ट व्यक्ति या वस्तु ही उत्पत्ति और विनाश के अधीन होते हैं। उनमें पाया जाने वाला सामान्य अविनाशी होता है। पुनः सामान्य एवं विशेष में समवाय सम्बन्ध है। जैसे विभिन्न गायों का गोत्व के साथ समवाय सम्बन्ध है। यह एक समान स्वरूप के साथ अपनी श्रेणी के सभी पदार्थों में रहता है तथा अनुवृत्ति प्रत्यय या एकाकारता की अनुभूति का कारण है। वैशेषिक दर्शन सामान्य की स्वतंत्र पदार्थ इसलिए स्वीकार करता है, क्योंकि द्रव्य, गुण, कर्म पदार्थों से विशेषों में एकाकारता की अनुभूति की व्याख्या नहीं हो सकती। वैशेषिक दर्शन सामान्य की स्थिति, द्रव्य, गुण और कर्म पदार्थों में मानता है। वैशेषिक दर्शन की सामान्य की अवधारणा को भली-भांति समझने के लिए अन्य विचारधाराओं की सामान्य के सम्प्रत्यय से उसका अन्तर समझना आवश्यक है। इसकी सामान्य विषयक अवधारणा बौद्ध, जैन, और अद्वैत वेदान्त की सामान्य अवधारणा से भिन्न है। बौद्ध दर्शन सामान्य के विषय में नामवाद एवं अपोतध्वाद का प्रतिपादन करता है। चूंकि बौद्ध दर्शन क्षणिकवाद में विश्वास करता है, अतः वह सामान्य या जाति सदृश किसी नित्य पदार्थों में विश्वास नहीं करता। उसके अनुसार केवल व्यक्ति ही सत् है। व्यक्ति के अतिरिक्त सामान्य अथवा जाति की नित्य सत्ता नहीं है। सामान्य नाममात्र है और उसकी कोई वस्तुनिष्ठ सत्ता नहीं है। नाम का अर्थ केवल यह है कि एक नाम वाले पदार्थ अन्य नाम वाले पदार्थों से भिन्न हैं। वैशेषिक दर्शन बौद्ध मत के अपोहवाद का खण्डन करता है और सामान्य की स्वतंत्र सत्ता का प्रतिपादन करता है। उसके अनुसार ‘अपोह’ वास्तव में अन्योन्यभाव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह अभावरूप होने के कारण विभिन्न व्यक्तियों में होने वाली समानता की प्रतीति का कारण नहीं हो सकता। वैशेषिक दर्शन का सामान्य सम्बन्धी दृष्टिकोण जैन एवं अद्वैत वेदान्त के सामान्य विषयक दृष्टिकोण से भिन्न है। जैन दार्शनिक बाह्य जगत में इसका आधार तो मानते हैं, किन्तु उसे नित्य नहीं मानते। जैसे गोत्व का वस्तुगत अस्तित्व तो है, किन्तु जैनी इसे पुद्गल की एक विशेष वृत्तिमात्र मानते हैं, जो गाय, जिसमें यह पाया जाता है, के लोप के साथ लुप्त हो जाता है। अद्वैत वेदान्ती के अनुसार व्यक्तियों के अतिरिक्त और उनसे भिन्न सामान्य की सत्ता नहीं है। व्यक्तियों का सर्वनिष्ठ आवश्यक धर्म ही सामान्य है, उसका आन्तरिक स्वरूप है, जिसे बुद्धि ग्रहण करती है। इस प्रकार सामान्य बुद्धि की अवधारणा या सम्प्रत्यय है। सामान्य की सत्ता व्यक्तियों से पृथक नहीं, अपितु अभिन्न है। सामान्य और व्यक्तियों में तादात्म्य सम्बन्ध है। यह मत पाश्चात्य दर्शन के अवधारणावाद की याद दिलवाता है। वैशेषिक दार्शनिक सामान्य विषयक अवधारणावाद का भी खण्डन करते हैं, और इस संदर्भ में यथार्थवाद का प्रतिपादन करते हैं। यह प्लेटो के यथार्थवाद के समतुल्य है, यद्यपि यह उसके पुरी तरह समतुल्य नहीं है, क्योंकि प्लेटों विशेषों को सामान्य की अनुकृति मानता है। किन्तु वैशेषिक ऐसा नही मानते हैं। उनके अनुसार सामान्य की सत्ता का आधार यह है कि वह अन्य पदार्थों के समान ज्ञान का विषय होता है।
Question : हुस्सर्ल की कोष्ठक प्रणाली की दार्शनिक महत्व को स्पष्ट कीजिए।
(2001)
Answer : Epoche अर्थात् कोष्ठीकरण का अर्थ है- अलग रखना, अलिप्त होना। विधि के रूप में इसका अर्थ है- अलग रखने का प्रयत्न अथवा अलिप्त रहने का प्रयत्न, अर्थात् विधि रूप में यह ‘कुछ’ ऐसे भावों, विचारों, विश्वासों से अलग रहने का प्रयत्न है। जो किसी न किसी रूप में अन्वेषण-विषय को घेरे रहते हैं। हुस्सर्ल के अनुसार घेरे रखनेवाला प्रभाव प्रकृतिवादी विश्वासों का है। अतः इपोखे की कोष्ठीकरण का अर्थ है- ऐसे विश्वासों से अपने आपको असम्बन्धित करना। हुस्सर्ल का कहना है कि प्रकृतिवाद एक ऐसी सामान्य दृष्टि है, जो प्रायः सभी मनुष्य की दृष्टि है। इस दृष्टि के आधार से यह विश्वास है कि एक तथ्यात्मक जगत है, जिसमें भौतिक वस्तुयें हैं, जिसमें व्यक्ति हैं। इन दोनों के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। इसके फलस्वरूप कुछ उद्देश्य सर्जित होते हैं। यह एक सामान्य विश्वास है, जिसपर हमारा साधारण-सामान्य जीवन टिका हुआ है। परन्तु इस विश्वास के सहारे जगत की व्याख्या करने पर ही व्याख्या वस्तुनिष्ठ नहीं होगी। हुस्सर्ल के अनुसार प्रकृतिवादी ऐसा ही दावा करते हैं, वे इस प्रकार की मनोवृति की स्वाभाविकता एवं सरलता से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि इस प्रकार की व्याख्या को केन्द्रीय बना देते हैं। इसका खण्डन दो कारणों से अनिवार्य है- एक तो इस कारण कि एक रूप में प्रकृतिवादी विचार फेनोमेनोलाजी का प्रतिद्वन्द्वी सिद्धान्त प्रतीत होता है। फेनोमेनोलाजी व्याख्या का वस्तुनिष्ठ आधार ढूंढ़ना चाहता है, प्रकृतिवाद का दावा है कि उसकी व्याख्या तो वस्तुनिष्ठ है ही, प्रकृतिवाद अपनी व्याख्या को वस्तुनिष्ठ इस कारण मानता है क्योंकि यह तो भौतिक जगत की वस्तुनिष्ठता को स्वीकार कर उसी आधार पर व्याख्या देता है। अतः हुस्सर्ल के लिए यह आवश्यक है कि वे स्पष्ट दिखा दें प्रकृतिवादी वस्तुनिष्ठता वस्तुतः वस्तुनिष्ठता है ही नहीं। दूसरा कारण यह है कि उन्हें यह दिखाना आवश्यक है कि वस्तुनिष्ठता का आधार प्रदत्तता में है, वस्तुनिष्ठता को मान्यता के रूप में स्वीकार कर लेने में नहीं। ऐसा करने से सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान भ्रान्त हो जाते हैं। अतः यदि कोई ऐसा पूर्णतया वस्तुनिष्ठ एवं स्वतः सिद्ध भाव ढूंढ़ना है जो सभी ज्ञान-विज्ञान का वास्तविक आधार है तो हमें अपने चेतना विचार को ही इन दोनों की पकड़ से मुक्त करना होगा।
प्रकृतिवादी विश्वासों के अन्तर्गत इस प्रकार के सामान्य विश्वास आते हैं, जैसे भौतिक वस्तु में विश्वास, किसी ज्ञाता आत्मा में विश्वास आदि। हुस्सर्ल का कहना है कि इस प्रकार के विश्वास एक प्रकार से पूर्वमान्यता का रूप लिए हुए है, फेनोमेनोलाजी का लक्ष्य है, चेतना में प्रदत्त विषय को उसके प्रदत्त रूप में पकड़ना, क्योंकि वही उसका वस्तुनिष्ठ रूप होगा। अब यदि हम पहले से ही पूर्व मान्यताओं में जकड़े रहे तो उस प्रदत्त रूप को नहीं पकड़ पायेंगे। इसी कारण इस विधि के प्रयोग की प्राथमिक आवश्कता है कि हम इन मान्यताओं से अपने को असम्बन्धित करें। इस अलिप्तता अथवा असम्बन्धन को स्पष्ट करने का प्रयत्न में कुछ विशेष शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। जैसे कोष्ठीकरण, विमुख होना या फिर असम्बन्धन। इन शब्दों के व्यवहार में फेनोमेनोलाजी का अभिप्राय स्पष्ट होता है, अतः हम इनके द्वारा भी इपोखे के स्वरूप को एवं इसके दार्शनिक महत्व को समझ सकते हैं।
अतः इपोखे के अन्तर्गत प्रकृतिवादी विश्वासों के जो अंश है उनसे विचार को असम्बन्धित करना है, परन्तु इसका अर्थ प्रकृतिवादी विश्वास को नकारना नहीं। यहां भौतिक वस्तु आत्मा आदि का निषेध नहीं करना है और न उनपर संशय करना है। यहां तात्पर्य यह है कि हम इनके सम्बन्ध में किसी प्रकार के निर्णय न लेने की अवस्था में आ जाए। हमें मात्र उनके सम्बन्ध में अपना निर्णय स्थगित करना है। हम केवल अपनी विधि-प्रयोग के लिए अपने से अलग कर देते हैं। उनके प्रभाव से अपने को मुक्त करने के लिए उन्हें क्रियाहीन कर देते हैं। उन्हें विचार से अलग रखने की चेष्टा करते हैं। कहा जा सकता है कि इपोखे (कोष्ठीकरण) में कुछ काल के लिए प्रकृतिवादी जगत कोष्ठों के अन्तर्गत बंद कर दिया जाता है। इस उद्देश्य से कि हमारे विचार को विकृत न कर दे।
अतः कोष्ठीकरण के द्वारा वस्तु में अविश्वास का निषेध नहीं बल्कि कुछ काल के लिए उनके सम्बन्ध में निर्णय को स्थगित करना है। ऐसा करना हुस्सर्ल के अनुसार हमारे प्रयत्न पर निर्भर करता है। ऐसा करना अपरिहार्य है, क्योंकि इसके बिना हम चेतना को उसकी बाह्य विकृतियों से मुक्त नहीं कर सकते। कोष्ठीकरण के द्वारा ही हम प्रकृतिवादी विश्वासों को पीछे ढ़केलकर चेतना के अविकृत चेतनारूप तक पहुंच जाते हैं। बाह्य विकारों से मुक्त चेतना तक पहुंच जाते है। इसी विधि के बाद चेतना को आन्तरिक मनोभावों से अलग करने की विधि प्रयुक्त की जाती है, जो कि अपचयन की विधि है। चेतना को जब तक कोष्ठीकरण के अन्तर्गत बाह्य विचारों से न किया जाय, दूसरे मनोवैज्ञानिक विश्वासों से भी अलग नहीं किया जा सकता। इसके पश्चात ही चेतना अपने मूल रूप में प्रकट होती है और इसमें आद्य रूप में प्रदत्त भाव का विश्लेषण संभव हो पाता है। इसके पश्चात् ही हमें जो आधार, ज्ञान मिलता है, वह आत्मनिष्ट रूप से वस्तुनिष्ठ की प्राप्ति है। यही सभी ज्ञान-विज्ञान का आधार है।
इस प्रकार कोष्ठीकरण दृष्टिकरण का परिवर्तन है। जो पूर्व स्वीकृत है, उनपर पुनर्विचार है। यह प्रक्रिया जगत में कोई परिवर्तन नहीं करती है। जगत के सम्बन्ध में हमारे दृष्टिकोण का परिवर्तन करती है। इससे फेनोमेनोलाजी के तटस्थ दृष्टिकोण का निर्माण होता है। अतः अनुभव एवं जगत के नये अर्थ का उद्घाटन होता है। फेनोमेनोलाजी की इस विधि का विशेष महत्व है। इसने बीसवीं शताब्दी में दर्शन के साथ-साथ साहित्य, राजनीति, धर्म, सामाज-विज्ञान, राजनीति-विज्ञान आदि के क्षेत्रें को भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया है। सार्क एवं हाडडेगर के अस्तित्ववादी विचारों में इसका स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। भाषा दर्शन के क्षेत्र में तो अर्थ निर्धारण के संदर्भ में फेनोमेनोलाजी के प्रभाव में शास्त्रर्थ मीमांसा की प्रमुख शाखायें विकसित हो गईं।
Question : हुस्सर्ल की पूर्वमान्यता रहित खोज की परियोजना (टिप्पणी)।
(1999)
Answer : फेनोमेनोलाजी का सम्बन्ध अनुभववाद से है। चूंकि अनुभव में प्राप्त इन्द्रिय संवेदनाओं का स्वरूप फेनोमेना के रूप में है, इसलिए उसे फेनोमेनोलिज्म (Phenomenolism) कहा जाता है। लेम्बर्ट, कांट, हीगल आदि के दर्शन में भी ‘फेनोमेना’ शब्द का प्रयोग मिलता है। कांट आभासी जगत के लिए फेनोमेना शब्द का प्रयोग करते हैं। हीगल चेतना के विकास की विभिन्न अवस्थाओं के लिए ‘फेनोमेना’ शब्द का प्रयोग करते हैं, जबकि हुस्सर्ल द्वारा किया गया ‘फेनोमेना’ का प्रयोग पूर्ववर्ती प्रयासों से भिन्न मौलिक रूप से हुआ है। यह सत्य के अन्वेषण की एक प्रणाली है, जिसका उद्देश्य उस बिन्दु तक पहुंचना है, जो सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों, पूर्वमान्यताओं, पक्षपातों एवं संकुचित दृष्टिकोण से रहित हो, यह तटस्थ ज्ञानमीमांसीय साधन है, जिसमें चेतना में उपस्थित होने वाले प्रदत्त को समस्त पूर्वाग्रहों से रहित होकर प्रदत्त रूप में ही अध्ययन किया जाता है, ताकि वस्तु का वास्तविक स्वरूप स्पष्ट हो सके। फेनोमेनोलाजी का नारा ही है- वस्तुओं की ओर लौटो। इसका लक्ष्य चेतना के दार्शनिक विश्लेषण से चेतना में मौलिक रूप से प्रदत्त भावों को सूत्र रूप में अध्ययन करना है, जो स्वतः सिद्ध एवं वस्तुनिष्ठ सारतत्व हो तथा जो प्रत्येक प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का आधार हो। इस विधि के दो पक्ष हैं:
(i) इपोखे (ii) रिडक्सन। इपोखे प्रकृतिवादी विश्वासों को अलग कर एवं चेतना को समस्त बाह्य विकारों से रहित कर मुक्त चेतना तक पहुंचने की प्रक्रिया है, ताकि चेतना के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किया जा सके।इपोखे वस्तुतः दृष्टिकोण को परिवर्तित करती है। रिडक्सन का अर्थ है- मूल की ओर लौटना। इसके द्वारा अनुभव में शुद्ध चेतना के अतिरिक्त जो भी शेष रह जाता है, उसे निरस्त कर दिया जाता है। इस स्थगन के तीन प्रकार हैं- संवृतिशास्त्रीय स्थगन, अनुभवातीत स्थगन और मूतकल्पीय अपचयन। इन विभिन्न अपचयनों के पश्चात शुद्ध चेतना का विधान होता है। यह वस्तु का सारतत्व होता है, जिसका ज्ञान अन्तर्बेघी से होता है। इपोखे और रिडक्सन की प्रक्रिया का अन्त इसी शुद्ध चेतना के उद्घाटन में होता है। स्थगन की यह प्रक्रिया चेतना के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण खोज करती है वह है, विषयापेक्षता का सिद्धान्त, अर्थात् चेतना विषयपेक्षी होती है। दूसरे शब्दों में, चेतन प्रक्रियायें किसी वस्तु या घटना को निर्देशित करती हैं।
Question : एडमंड हुस्सर्ल की घटना-क्रिया-विज्ञान विषयक मूलभूत संकल्पनाओं की व्याख्या कीजिए। यह केवल एक दार्शनिक रीति है या इसे तत्वमीमांसा माना जा सकता है?
(1997)
Answer : फेनोमेनोलाजी एक सत्त सत्यान्वेषण की प्रणाली है, जिसका उदय समकालीन पाश्चात्य दर्शन में एक वैचारिक आन्दोलन के रूप में हुआ है। इस घटना-क्रिया-विज्ञान (फेनोमेनोलाजी) के प्रर्वतक एडमंड हुर्स्सल हैं। दार्शनिक रूप में हुस्सर्ल का लक्ष्य दर्शन को पूर्णतः असंदिग्ध एवं अकाट्य बनाना था, परन्तु ऐसा तभी सम्भव हो सकता है, जब दार्शनिक ज्ञान के क्षेत्र में वैसी समस्त मान्यताओं का निराकरण कर दिया जाए, जिस पर संदेह सम्भव है। यह फेनोमेनोलाजी सत्य के रूप में केवल उसी को ग्रहण करने की बात करता है, जो पूर्णतः प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त हो। दूसरे शब्दों में, हुस्सर्ल दर्शन को एक कठोर विज्ञान के रूप में विकसित करना चाहते हैं, ताकि दर्शन के क्षेत्र में किसी प्रकार का संशय या विवाद न रहे। हुस्सर्ल फेनोमेनोलाजी की स्थापना करते हैं। हुस्सर्ल का यह दावा था कि अब तक जितने दार्शनिक मत हुए है। वे सभी एक निश्चित विधि का पालन नहीं करते हैं। उनके सिद्धान्त और विधिायां अनेक पूर्वमान्यताओं पर निर्भर हैं। इसी कारण इन दार्शनिक के मतों में जितनी वस्तु निष्ठता होनी चाहिए थी उतनी वस्तुनिष्ठता नहीं है। यहां नियमों का दृढ या कठोर रूप में पालन नहीं किया गया है। यही कारण था कि हुस्सर्ल यह चाहते हैं कि फेनोमेनोलाजी की स्थापना एक कठोर विज्ञान के रूप में की जाए तथा उसी रूप में उसका विकास भी किया जाए। यह तभी संभव है जब फेनोमेनोलाजी की विधि एक ऐसी विधि हो जो सभी पूर्वमान्यताओं पूर्वाग्रहों एवं अन्धविश्वासों से रहित हो। हुस्सर्ल को ऐसी प्ररेणा देकार्त से प्राप्त हुई थी।
एक वैज्ञानिक प्रणाली के रूप में फेनोमेनोलाजी का उद्देश्य दार्शनिकता को उस बिन्दु पर ले जाना है, जो सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों एवं पक्षपातों से रहित हो तथा जो मनोवैज्ञानिक प्रकृतिवादी एवं आदिम वस्तुवादी दृष्टिगोणों से युक्त हो। इस प्रणाली में चेतना में उपस्थित होने वाले प्रदत्त को समस्त पूर्वमान्यताओं से रहित कर प्रदत्त रूप में उसका अध्ययन किया जाता है। हुस्सर्ल के अनुसार फेनोमेनोलाजी गोचर वस्तु को उसके शुद्ध रूप में अध्ययन करने का विज्ञान है। हुस्सर्ल चेतना को उसके शुद्ध रूप में पकड़ने के लिए दो विधियों की चर्चा करते हैं:
(i) इपोखे (Epoche) तथा स्थगन (Rednction)
इपोखे एक ग्रीक शब्द है, जिसे अंग्रेजी में ठतंबाजपदह तथा हिन्दी में कोष्ठीकरण कहा जाता है। हुस्सर्ल इस इपोखे प्रक्रिया द्वारा प्रकृतिवादी विश्वासों को अलग कर समस्त बाह्य विकारों से मुक्त चेतना तक पहुंचना चाहते हैं, ताकि चेतना के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किया जा सके। यद्यपि यह पद्धति निषेधात्मक है, परन्तु इसका उद्देश्य किसी वस्तु का निषेध करना खण्डन करना नहीं है। यहां हम इस जगत से अलग भी नहीं होते। इपोखे की पद्धति वस्तुतः वस्तु के अस्तित्व एवं सत्ता से सम्बन्धित विभिन्न प्रचलित विश्वासों, दृष्टिकोणों एवं सिद्धान्तों का कुछ समय के लिए निलम्बित करती है, ताकि हमारा निष्कर्ष उससे प्रभावित न हो। इपोखे दृष्टिकोण का परिवर्तन है, जो पूर्व स्वीकृत है, उनपर पुर्न विचार करना है। इपोखे प्रक्रिया जगत में कोई परिवर्तन नहीं करती है, बल्कि जगत के सम्बन्ध में हमारे दृष्टिकोण का परिवर्तन करती है। संवृतिशास्त्र का दृष्टिकोण तटस्थ दर्शेक का है, इसके परिणामस्वरूप अनुभव एवं जगत के नये अर्थ का उद्घाटन होता है।
रिडक्शन का आशय है, मूल की तरफ लौटना। हुस्सर्ल के अनुसार रिडक्शन के कई प्रकारों में तीन मुख्य है। इनमें कोई निश्चित क्रमिकता नहीं है। स्थान की विधि अनुभव अथवा चेतना का विश्लेषण करके उसकी मूल संरचना का अनावरण करती है। सत्ता की वास्तविकता को सम्यक रूप में समझने के लिए अनुभवगत घटनाओं को शुद्ध प्रतीत रूप में देखना आवश्यक है। इपोखे द्वारा जहां बाह्य भ्रांत धारणाओं को कोष्ठीकृत किया जाता है, वहीं रिडक्शन द्वारा अनुभव में शुद्ध चेतना के अतिरिक्त जो भी आन्तरिक विकार शेष रह जाता है, उसे निरस्त कर दिया जाता है। रिडक्शन द्वारा अनुभव में शुद्ध चेतना के अतिरिक्त जो भी आन्तरिक विकार शेष रह जाता है। रिडक्शन के तीन प्रकार हैः
फेनोमेनोलाजिकल अपचयन का सम्बन्ध चेतना से है। हुस्सर्ल के अनुसार चेतना का अध्ययन करते समय मनोभावों का प्रभाव रहता है। अतः चेतना के वास्तविक स्वरूप को पकड़ने के लिए इन मनोदशाओं से चेतना को मुक्त करना अपरिहार्य है। यहां चेतना के मनोवैज्ञानिक साहचर्य से मुक्ति होती है। तात्विक अपचयन में चेतना को आत्मनिष्ठ आन्तरिकता से मुक्त किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप चेतना का चेतना के रूप में प्रकाशन होता है, परन्तु यह चेतना किसी व्यक्ति विशेष की चेतना होती है। मूर्तकल्पी अपचयन के स्तर पर जो प्रदत्त है उसको सार्वभौम रूप से पकड़ने का प्रयास किया जाता है। उसमें चेतना को पूर्णतः विषय स्वरूप बना दिया जाता है। इन विभिन्न अपचयनों के पश्चात् शुद्ध संवृतिभाव या शुद्ध फेनोमेना का विधान होता है। यह वस्तु का सारतत्व होता है। इसका ज्ञान अन्तर्बोध से होता है। इस प्रक्रिया का अन्त एक शुद्ध चेतना के उद्घाटन से होता है। यह प्रक्रिया चेतना के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण खोज करती है और वह चेतना का विषयापेक्षी स्वरूप। इसके अनुसार सभी चेतन क्रियायें किसी वस्तु या घटना को, चाहे वह वस्तुगत रूप से वास्तविक हो या नहीं, को निर्देशित करती है। चेतना के मूल संरचना में इस प्रकार का मंतव्य होने के कारण ही इसे विषयापेक्षी कहा है। हुस्सर्ल चेतन प्रक्रिया के तीन पक्ष मानते हैं- ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय।
इस प्रकार हुस्सर्ल शुरू से लेकर अन्त तक इस प्रक्रिया में परिवर्तन एवं विकास करते रहे हैं। इसका मुख्य विषय है- सारतत्व को समझना और उसका वर्णन करना। किसी तत्वमीमांसीय सत्ता का वर्णन करना इसका मुख्य उद्देश्य नहीं है, परन्तु गौण रूप में इससे कुछ तत्वमीमांसीय सिद्धान्त भी निकल आते हैं, यह शुद्ध चेतना की चेतना है।
मूर द्वारा फेनोमेनोलाजी की आलोचना में कहा गया है कि यदि अनुभव को कोष्ठीकृत कर दिया जाए तो कोई भी अनुभव संभव नहीं पायेगा। हुस्सर्ल सारतत्व और अन्तःप्रज्ञा को एक दूसरे पर निर्भर बना देते हैं। यहां न तो हम स्वतंत्र रूप में हम यह भी नहीं कह सकते है कि सारतत्व क्या है? दूसरे शब्दों में, यहां इनकी स्वतंत्र रूप में व्याख्या नहीं की गई है। गिलबो राडेल के अनुसार हुस्सर्ल यह मान लेता है कि जितनी भी चेतन क्रियायें हैं, वे सभी ज्ञान के अन्तर्गत आ जाती मों, परन्तु विश्वास करना या प्रार्थना करना को हम ज्ञान के अन्तर्गत नहीं ला सकते।