Question : प्रजातंत्र जो कि प्रत्येक व्यक्ति की धारणा को एक समान मानता है, यह निर्धारित करने में अक्षम है कि क्या करना उचित है।
(2007)
Answer : समानता प्रजातंत्र की एक आधारशिला है। प्रजातांत्रिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए यह मानव समानता के सिद्धांत में विश्वास करता है। परंतु मानव समानता के सिद्धांत के विरोधियों की धारणा यह है कि राजनीतिक बातों में समस्त मनुष्यों को समान समझने का कोई औचित्य नहीं है। उनका कहना है कि राजनीति में प्रत्येक को समान शक्ति मिलनी चाहिए, इतना ही प्रभावपूर्ण है कि यह कहना कि कानून में प्रत्येक को समान दक्षता होनी चाहिए। इनका मत है कि राजनीतिक शक्ति सामाजिक प्रतिष्ठा उद्यम में सफलता, बल्कि उपलब्धियों इत्यादि के आधार पर मिलना चाहिए जो कि राजनीतिक कुशलता के मान्य परिचालक हैं। मानव समानता के सिद्धांत को राजनीतिक जीवन में आरोपित करने के ऐसे परिणाम निकलते हैं, जिन्हें नैतिक दृष्टि से उचित सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह एक मनुष्य एक वोट के सूत्र जो जन्म देता है, इसके फलस्वरूप निर्वाचन के दिन बुद्धिमान तथा मूर्ख, मितव्ययी तथा फिजूलखर्च और धनी तथा दरिद्र एक ही स्तर पर आ जाते हैं। यह एकदम अन्यायपूर्ण है।
प्रजातंत्र के आलोचकों का कहना है कि वोटों को केवल गिन लेना निरर्थक हैं। हमें उनका मूल्यांकन करना चाहिए। व्यवस्थापिका सभा को प्रायः प्रत्येक वोटर के लिए खुला रखने का सिद्धांत ऐसा है, जिसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। व्यवस्थापन कार्य सुगम नहीं है, आजकल की जटिल सामाजिक परिस्थितियों में यह बहुत कठिन हो गया है और इसके लिए बड़े विशिष्ट ज्ञान और अनुभव की आवश्यकता होती है।
परंतु लोकतंत्र का आधार बिंदु यह विश्वास है कि समस्त मनुष्य यह खोजने के लिए उनमें सर्वश्रेष्ठ कौन हैं और किसे सत्ता सौंपी जानी चाहिए, इस संबंध में समान रूप से अधिकार का प्रयोग करे। यद्यपि लोकतंत्र का यह विश्वास है कि प्रत्येक एक गिना जाना चाहिए और किसी को भी एक से अधिक नहीं गिनना चाहिए तथापि वह इस बात को कदापि सहन नहीं कर सकता कि शासन के विषयों में निरक्षरों का भी उतना ही प्रभाव होना चाहिए, जितना की विद्वान, बुद्धिमान तथा अनुभवी नेताओं का। मानव जीवन में नेतृत्व के महत्व की उपेक्षा लोकतंत्र नहीं करता। लोकतंत्र चाहता है कि नेता अपनी नीतियों और विचारों को कार्यान्वित करने के लिए अपने अनुयायियों का समर्थन प्राप्त करने के लिए उनका नेतृत्व करें तथा अपनी स्थिति और अधिकार का प्रयोग करें। इस प्रसंग में यह भी ध्यान देने योग्य है कि अभी तक वोटों का मूल्यांकन करने का कोई उपाय नहीं निकाला गया है। यदि ऐसे करने का कोई प्रयास किया गया तो उससे मतदाताओं के बीच कई वास्तविक भेद अत्यंत अतिरंजित हो उठेंगे और उससे मूल्यांकन करने वालों के हाथों में मनमानी करने की बड़ी भारी शक्ति आ जाएगी। वोटों की गणना की प्रणाली से अभी तक कोई गंभीर दोष देख नहीं निकले हैं। इसका कारण यह है कि मत देने के पूर्व जो वाद-विवाद होता है, उसमें बुद्धिमान, कुशल तथा अनुभवी व्यक्तियों द्वारा कम कुशल और कम योग्य व्यक्तियों के प्रभावित होने की बड़ी संभावना रहती है। परंतु फिर भी लोकतंत्र पर यह आरोप लगाना सही नहीं है कि उसका मानव समानता का सिद्धांत नैतिक दृष्टि से अनुचित है।
Question : आर्थिक क्षेत्र में शक्ति के साथ बिना राजनीतिक लोकतंत्र खोखला होता है।
(2005)
Answer : राजनीतिक लोकतंत्र की आधारशिलाओं में राजनीतिक समानता एक महत्वपूर्ण अवयव है। राजनीतिक समानता के बिना लोकतंत्र की स्थापना नहीं की जा सकती, परंतु राजनीतिक समानता आर्थिक समानता के बिना संभव नहीं है। सामाजिक-आर्थिक समानता में समानता के सामाजिक और आर्थिक पक्ष एक दूसरे के साथ गुंथे हुए हैं। राजनीतिक समानता का अर्थ यह है कि समस्त वयस्क नागरिकों को समान नागरिक तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए। जैसे कि मत देने का अधिकार तथा कोई सरकारी पद प्राप्त करने का अधिकार। राजनीतिक समानता का यह अर्थ नहीं कि राज्य में प्रत्येक व्यक्ति समान शक्ति का प्रयोग करेगा, इसका अर्थ केवल यह है कि प्रत्येक को एक से ही राजनीतिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए। परंतु आर्थिक समानता के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र सामान्य मनुष्यों को अपनी इच्छाओं की पूर्णता में सहायता नहीं दे सकता। राजनीतिक शक्ति, आर्थिक शक्ति की दासी होती है। यदि जनसाधारण की सार्वजनिक विषयों में अपना समुचित भाग लेता है तो उत्पादन के भौतिक साधनों के स्वामियों का शक्तियों पर एकाधिकार नष्ट किया जाना चाहिए और व्यक्तिगत स्वामित्व के स्थान पर सार्वजनिक स्वामित्व की स्थापना करके आर्थिक समानता की स्थापना करनी चाहिए। दरिद्रता अर्थात् आर्थिक शक्ति का अभाव व्यक्तित्व के विकास में सबसे गंभीर बाधा है। यह व्यक्ति को सार्वजनिक विषयों पर अपना समुचित प्रभाव डालने से रोकती है। आर्थिक शक्ति ही आर्थिक सामाजिक समानता को सुनिश्चित कर सकती है। पुनः आर्थिक समानता के होने से ही समाज में आर्थिक स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सकती है। आर्थिक स्वतंत्रता के बल पर ही व्यक्ति को न्यूनतम आय का आश्वसन मिल सकता है जो कि उसकी जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है और जिससे कि वह समाज में प्राप्त अवसर की उपयोग कर सकता है।
आर्थिक शक्ति और आर्थिक स्वतंत्रता के अभाव में स्वतंत्रता एक विशेषाधिकार बन जाता है, जिसके फलस्वरूप लोकतांत्रिक मूल्यों एवं आदर्शों के हनन होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर के लिए अपना राजनीतिक शक्ति का प्रयोग मुश्किल तो होता ही है, साथ ही वे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में पूंजीपतियों की दुर्भावना और लोभ एवं लालच के शिकार होकर अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करने से वंचित रह जाते हैं या फिर वर्ग विशेष के प्रभाव में आकर अपनी राजनीतिक शक्ति का दुरूपयोग भी कर सकते हैं।
Question : प्रजातंत्र की अवधारणा सारतः विवादित अवधारणा है।
(2004)
Answer : प्रजातंत्र की अवधारणा अपने ऐतिहासिक विकास क्रम में जिस घटना से जुड़ी हुई है, उसने (फ्रांसीसी क्रांति) प्रजातंत्र के बुनियादी मूल्यों के रूप में स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व का आदर्श स्थापित किया था। इसलिए यदि इन मूल्यों को प्रजातंत्र का आधार कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी। स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व जो कि प्रजातंत्र के आधार हैं, परस्पर पूरक तथा परस्पर आश्रित हैं। एक दूसरे के विरोधी होते हुए भी ये मूल्य एक दूसरे के विकास में योग प्रदान करते हैं, यथा- स्वतंत्रता मनुष्य की एक प्राकृतिक अवस्था है। संभव है समाज में प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता प्रदान करने में समाज में असमानता उत्पन्न हो जाए। ऐसी स्थिति में असमानता को खत्म करने के लिए न्याय के आदर्श के द्वारा समानता को स्थापित करने का प्रयत्न किया जाएगा। किंतु इस प्रयास में कुछ लोगों की स्वतंत्रता को सीमित करना आवश्यक होगा। परस्पर विरोधी स्वरूप के कारण ही इनको आधार बनाकर जब लोकतंत्र को विविध अवधारणा के संदर्भ में व्याख्यायित किया गया है, तब परिणाम स्वरूप लोकतंत्र का भिन्न-भिन्न स्वरूप सामने आया है। यथा- स्वतंत्रता को प्राथमिक मानते हुए तथा समानता को गौण मानते हुए उदारवादी लोकतंत्र की अवधारणा प्रस्तुत हुई। जबकि समानता को प्राथमिक तथा स्वतंत्रता को गौण मानते हुए समाजवादी लोकतंत्र अथवा साम्यवादी लोकतंत्र की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया। यही कारण है कि लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों में किसी एक पर विशेष बल देने के कारण लोकतंत्र का जो विविध स्वरूप उभर कर सामने आता है, वह इस प्रश्न को उठाने के लिए प्रेरित करता है कि क्या प्रजातंत्र को अवधारणा सारतः विवादित या विरोधाभासी है, परंतु सही मायने में लोकतंत्र की सफलता इसी बात में निश्चित है कि समानता तथा स्वतंत्रता जो प्रजातंत्र के आधार हैं, के बीच सामंजस्य एवं संतुलन की स्थिति बनाई जाए, ताकि न्याय के आदर्श की प्राप्ति हो सके। यही पर यह विरोध समाप्त हो जाता है।
Question : लोकतांत्रिक राज्य में सरकारी कर्मचारियों द्वारा हड़ताल का कोई औचित्य नहीं है।
(2003)
Answer : लोकतांत्रिक राज्य वह है जो जनता के द्वारा निर्वाचिक प्रतिनिधियों के द्वारा शासित होता है। प्रत्यक्ष रूप से जनप्रतिनिधि लोकतांत्रिक राज्य के लिए विधान का निर्माण करते हैं, किंतु इसका क्रियान्वयन सरकारी कर्मचारियों के द्वारा होता है। इसलिए सरकारी कर्मचारी अप्रत्यक्ष रूप से राज्य के स्तंभ हैं। सरकारी कर्मचारियों का यह दायित्व सदैव उनके स्मरण में होना आवश्यक है, क्योंकि उसी अवस्था में वह लोकतंत्र का पोषण कर उसको मजबूत करेंगे। ऐसी स्थिति में यदि सरकारी कर्मचारी अपने दायित्व को विस्मृत कर अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हड़ताल करते हैं तो यह कृत्य लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत जाता है। इससे वे न केवल जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों से प्रदत्त बहुमत के शासन की अवहेलना करते हैं, वरन् स्वयं राज्य का अंग होते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की विरोधी अवस्था को प्रतिकल्पित करते हैं। किंतु सरकारी कर्मचारी प्राथमिक रूप से जनता के उस वृहद समूह का अंग है, जिसमें अपने अधिकारों का प्रयोग कर लोकतंत्र को स्थापित किया है। मौलिक रूप से लोकतंत्र का स्रोत होने के कारण उनका (सरकारी कर्मचारियों का) यह कर्तव्य है कि अपने अधिकारों की रक्षा के लिए तथा लोकतांत्रिक मूल्य को स्थापित करने के लिए राज्य के किसी भी गैर लोकतांत्रिक कृत्य का विरोध करें। विरोध के इस कृत्य में स्मरण रखना आवश्यक है कि यह भी लोकतांत्रिक ही होना चाहिए। इस लिए लोकतांत्रिक राज्य में इसका स्तंभ होने के कारण सरकारी कर्मचारियों को स्वयं इस संस्था का विरोध करने का तथा इसको भी गैर लोकतांत्रिक तरीके से अभिव्यक्त करने का कोई औचित्य नहीं है, लेकिन इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि प्राथमिक रूप से राज्य का नागरिक होने के कारण राज्य के किसी भी अलोकतांत्रिक कृत्य का विरोध लोकतांत्रिक तरीके से करने का उन्हें पूरा अधिकार है।
Question : क्या आप सोचते हैं कि लोकतंत्र शासन का सर्वोत्तम रूप है? क्या लोकतंत्र से परे की कोई गुंजाइश है? इस संदर्भ में योग्यता तंत्र की अवधारणा का विश्लेषण कीजिए।
(2002)
Answer : लोकतंत्र समाज का वह संगठन है, जिसका कि उद्देश्य बंधुत्व की भावना द्वारा स्वतंत्रता और समानता को प्राप्त करना है और इस रूप में इसे शासन को सर्वोत्तम पद्धति के रूप में स्वीकार किया गया है। वस्तुतः एक सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र की कितनी भी आलोचना क्यों न की जाए, यह सर्वोत्तम व्यवस्था है। इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते हैंः
(i)व्यक्तित्व का विकासः एक सामाजिक संगठन के रूप में जिसमें कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास करने का समान अवसर प्राप्त होता है और वह जानता है कि उसे यह अवसर प्राप्त है, लोकतंत्र के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास अधिकतम विकास स्वतंत्र वातावरण में ही हो सकता है और लोकतंत्र ही वह शासन प्रणाली है जो कि व्यक्ति को अधिकतम स्वतंत्रता प्रदान करती है। प्रत्येक मनुष्य के निजी व्यक्तित्व के महत्व को स्वीकार करते हुए लोकतंत्र इस बात पर बल देता है कि प्रत्येक व्यक्ति को साध्य समझा जाना चाहिए और इसलिए इसके अंतर्गत समस्त हितों का मूल्यांकन निष्पक्षतापूर्वक किया जाता है।
(ii)शासन की कुशलताः एक शासन व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र का पक्षपोषण इसलिए भी किया जाता है कि इसमें शासन कार्य में जनता के भाग लेने से बड़ा लाभ होता है। यह राजतंत्र तथा कुलीनतंत्र की अपेक्षा अधिक कुशल होता है, क्योंकि इसका उद्देश्य समाज के घटकों की भलाई के अलावे और कुछ नहीं होता है, चाहे ये घटक आर्थिक रूप से कितने ही अक्षम क्यों न हो। इसके अंतर्गत शासकों के ऊपर शासितों का नियंत्रण रहता है, इसलिए वे उनके कल्याण की उपेक्षा नहीं कर सकते। वस्तुतः शासन की कुशलता की बात छोड़ भी दें तो यह जनता में एक सबल नैतिक भावना ईमानदारी, श्रमशीलता, आत्मनिर्भरता तथा साहस का संचार करता है।
(iii)लोगों में गौरव तथा उत्तरदायित्व की भावना का संचारः लोकतंत्र के अंतर्गत राजनीतिक सत्ताधिकार लोगों में गौरव की भावना को ऊंचा उठाता है और उसमें उत्तरदायित्व की भावना का संचार करके उन्हें उच्चतर स्तर तक ले जाता है। सार्वजनिक विषयों के प्रबंध तथा राजसत्ता के प्रयोग में भाग लेने से व्यक्ति में मस्तिष्क और हृदय के कुछ ऐसे गुणों का विकास होता है जो कि व्यक्ति तथा समाज दोनों के लिए बड़े मूल्यवान होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि सुशासन स्वशासन का विकल्प नहीं हो सकता।
(iv)राष्ट्रभक्ति की भावना का संचारः लोकतंत्र का एक अन्य महान गुण यह है कि यह जनसाधारण में राष्ट्र भक्ति की भावना का संचार करता है। इसके अंतर्गत नागरिकगण यह अनुभव करने लगते हैं कि हम शासन के अभिन्न अंग हैं और उसका कल्याण हमारा कल्याण है तथा उसका संगठन हमारा संगठन है।
(v)हिंसात्मक क्रांतियों का खतरा कम होनाः जनतंत्र क्रांतियों के खतरे को कई उपायों से कम करता है। यह जनता को अपने कष्टों का निवारण करने का पर्याप्त साधन प्रदान करता है। यदि सरकार उसकी बात नहीं सुनती और उनकी शिकायतों को दूर करने के लिए कोई समुचित कदम नहीं उठाती, तो निर्णयन के समय जनता उसे हटाकर ऐसे लोगों के हाथ में शासन सत्ता सौंप सकती है जो कि उसकी समस्याओं के प्रति अधिक सहानुभूतिपूर्ण तथा संवेदनशील दृष्टिकोण रखते हैं।
(vi)राजसत्ता तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता में सामंजस्यः लोकतंत्र का एक अन्य गुण यह है कि उसक अंतर्गत राज्य केअधिकार और व्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच सामंजस्य सुगमतापूर्वक हो सकता है। राजतंत्र तथा कुलीनतंत्र में कानून शासक सत्ता की इच्छा को अभिलक्षित करते हैं और वे मनमाने तथा दमनकारी हो सकते हैं। यदि उनका पालन जबर्दस्ती कराया जाता है तो उससे व्यक्ति की स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है, परंतु एक लोकतंत्र में कानून जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा बनाए जाते हैं, उनका उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखना होता है। व्यक्ति को कानून के द्वारा जो स्वतंत्रता दी जाती है, सरकार भी उसे नहीं छीन सकती। कानून निर्माण की प्रक्रिया के साथ एक न एक रूप में जनता की संबद्ध करके और सरकार को जनइच्छा के प्रति संवेदनशील बनाकर लोकतंत्रराज्य के अधिकार तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता में सामंजस्य कर सकता है। निस्संदेह एक लोकतंत्रीय शासन व्यवस्था में जनता को अपनी इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करने की अन्य प्रकार की शासन व्यवस्था की अपेक्षा अधिक सुविधा रहती है।
(vii)जनमत की शक्तिः राजतंत्र, कुलीनतंत्र, तानाशाही इत्यादि के अधीन शासकों के मनमानेपन और स्वार्थव्धता के विरुद्ध कोई उपचार नहीं है, किंतु लोकतंत्र जनमत में एक ऐसा मूल्यवान अस्त्र होता है जो कि सरकार को सही मार्ग पर रखता है और शक्ति के दुरूपयोग की संभावनाओं को कम करता है। जब शासन अत्याचारी हो जाता है तो जनमत उसे सत्मार्ग पर आने के लिए विवश कर देता है। यदि वह शासन जनमत की अवहेलना करता है और अपनी नीति में सुधार नहीं करता, तो उसके समक्ष अपने स्थान पर दूसरे शासन के स्थापित हो जाने का खतरा होता रहता है। जनमत एक ऐसी शक्ति है जिसे कि मंत्रियों तथा विधायकों को ध्यान में रखना पड़ता है और अपनी नीतियों को उसी के अनुसार निर्धारित करना पड़ता है। इस बात का उदाहरण देना तो अनावश्यक है, जहां कि जनमत के बल ने सरकार को अपनी नीतियों और कार्यक्रमों में संशोधन करने तथा उनका परित्याग करने के लिए विवश कर दिया है। लोकतंत्र की जनमत के प्रति आदर भावना का एक सुपरिणाम यह होता है कि उनमें क्रांतियों का खतरा अपेक्षाकृत कम होता है।
अगर लोकतंत्र को योग्यतातंत्र के संदर्भ में समझा जाए तो इसके अंतर्गत जनसाधारण को जनता में से योग्यता व्यक्तियों को अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मिलता है। जनसाधारण निश्चित अंतराल पर वोट के द्वारा अपने नेताओं का चुनाव करते हैं। पुनः इन प्रतिनिधियों के द्वारा जनता की मांगों की अनदेखी करने पर अगले चुनाव में उन्हें सत्ता से वंचित होना पड़ता है। लोकतंत्र के अंतर्गत योग्य व्यक्ति अब नेता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चूंकि जनसाधारण अपने आप शासन चलाने में समर्थ नहीं होते हैं, इसलिए शासन अनिवार्यतः योग्य व्यक्तियों, नेताओं का कार्य होता है। लोकतंत्र को असल खतरा नेतृत्व के अिस्तत्व से नहीं, बल्कि नेतृत्व के अभाव से होता है। यह लोगों को सही नेतृत्व नहीं मिलेगा, तो लोकतंत्र विरोधी विशिष्ट वर्ग उन्हें गुमराह कर सकता है। योग्य नेता के रूप में शासक लोकतंत्र के अंतर्गत यह अनुभव करते हैं कि जब तक वे जनमत के प्रति संवेदनशील रहेंगे और जब तक वे जनता के दिल में जगह बना सकेंगे, तभी तक वे सत्ता में रह सकेंगे। अन्यथा कोई दूसरा विशिष्ट वर्ग उनकी जगह संभालने के लिए निरंतर तैयार रहता है।
हालांकि लोकतंत्र के विरोधी यह तर्क देते हैं कि सर्वसाधारण प्रायः अनपढ़, जाहिल और गैर जिम्मेदार होते हैं। लोकतंत्र में उनके मत को अहमियत देने से भीड़तंत्र को बढ़ावा मिलता है, परिणाम यह होता है कि गुणवत्ता की जगह परिव्यय को प्रमुखता दी जाती है। इसमें मत गिने जाते हैं तौले नहीं जाते। इससे विवेक और प्रतिभा भी उपेक्षा होती है और ऐसे गैरे लोग जो कुछ चाहते हैं वही हो कर रहता है। परंतु यह ज्ञातव्य है कि समानता के आदर्श को अपनाते हुए लोकतंत्र समानता में विश्वास करता है और इसलिए समान राजनीतिक अधिकार तथा वोट देने के अधिकार का प्रयोग करते हुए चुनाव के द्वारा योग्य व्यक्तियों को चुनने की प्रक्रिया समकालीन परिप्रेक्ष्य में सबसे बेहतर तरीका है, जिससे शासन करने वाले प्रतिनिधि को सत्ता की बागडोर दी जा सके। अन्य किसी भी शासनतंत्र में यह प्रक्रिया इतनी पारदर्शिता के साथ नहीं अपनाई जाती। अतः यह कहना उचित नहीं होगा कि वर्तमान में लोकतंत्रीय शासन पद्धति ही एक आदर्श शासन पद्धति के सबसे निकट है और इसीलिए विश्व के अधिकांश देशों में लोकतंत्रीय शासन को ही आदर्श मानकर इसे अपनाये जाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
Question : उदारवादी प्रजातंत्र के आधारभूत सिद्धांतों का व्याख्यात्मक उल्लेख कीजिए। इस संदर्भ में इस विषय पर विचार कीजिए कि न्याय जो कि उदारवादी प्रजातंत्र का एक मूलभूत आदर्श है, को किस हद तक इसके अंतर्गत साकार किया जा सकता है।
(2001)
Answer : उदारवाद राजनीति का वह सिद्धांत है, जो सामंतवाद के पतन के बाद राजनीति को बाजार अर्थव्यवस्था के अनुरूप मोड़ देने के लिए असि्तत्व में आया। शुरू-शुरू में इसने व्यक्ति को राजनीति का केंद्र बिंदु मानते हुए व्यक्तिवाद को अपनाया, परंतु बाद में इसने राजनीति में समूहों को महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए बहुलवाद को अपना लिया। शुरू-शुरू में इसने मुक्त बाजार व्यवस्था को सर्वहित का उपयुक्त साधन मानते हुए राज्य के लिए अहस्तक्षेप नीति का समर्थन किया, परंतु बाद में उसने बाजार व्यवस्था को सर्वहित के अनुरूप नियमित करने की आवश्यकता स्वीकार करते हुए कल्याणकारी राज्य का सिद्धांत अपना लिया। इंटरनेशनल एन्साइक्लोपीडिया ऑफ द नेशनल साइंसेस के अंतर्गत उदाहरणवाद की मुख्य मान्यताओं का सारांश इन शब्दों में प्रस्तुत किया हैः
(i) व्यक्ति के व्यक्तित्व के स्वतंत्र अभिव्यक्ति को महत्व दिया जाए।
(ii) मनुष्य अपनी इस अभिव्यक्ति को अपने लिए भी मूल्यवान सिद्ध कर सकते हैं, समाज के लिए भी।
(iii) उन संस्थाओं और नीतियों को बरकरार रखा जाए जो इस स्वतंत्र अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता में विश्वास को बढ़ावा देती है।
संक्षेप में, उदारवादी चिंतन और व्यवहार में दो प्रमुख विषयों पर बल दिया जाता है- एक तो इसमें निरंकुश सत्ता को अस्वीकार करके उसकी जगह मनुष्यों की स्वतंत्रता पर आधारित व्यवस्था स्थापित करने का लक्ष्य सामने रखा जाता है, दूसरे इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की मांग की जाती है। इसमें एक तो इसका व्यावहारिक पक्ष है, दूसरा दार्शनिक पक्ष। अधिकांश उदारवादी दोनों में समन्वय करने का प्रयास करते हैं। ज्ञातव्य है कि न्याय की संकल्पना राजनीति दर्शन का चिंतन विषय रही है। समकालीन उदारवाद ने इस समस्या को नए ढंग से उठाया है और उसके समाधान प्रस्तुत किए हैं। न्याय की समस्या मुख्यतः यह निर्णय करने की समस्या है कि समाज के विभिन्न व्यक्तियों और समूहों के बीच विभिन्न वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों और लाभों इत्यादि के आवंटन का नैतिक आधार क्या होना चाहिए? अतः व्यवहार के धरातल पर यह स्वतंत्रता और समानता के परस्पर विरोधी दावों को सुलझाने की समस्या है। एक ओर आईजिया बर्लिन और एफए हेयक जैसे विचारक हैं, जो स्वतंत्रता को प्रधान लक्ष्य मानते हुए समानता को गौण मानते हैं, दूसरी ओर मैकफर्सन और राल्स जैसे सिद्धांतकार हैं, जो स्वतंत्रता और समानता में सामंजस्य पर बल देते हैं।
बर्लिन ने अपने प्रसिद्ध निबंध (स्वतंत्रता की दो संकल्पनाएं) के अंतर्गत शुरू-शुरू में स्वतंत्रता और समानता को एक दूसरे से स्वाधीन मूल्य मानते हुए यह तर्क दिया कि भिन्न-भिन्न मूल्यों का विश्लेषण करते हुए, उन्हें किसी एक में नहीं बदला जा सकता। परंतु आगे चलकर समानता के दावे को बहुत पीछे धकेल दिया। स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक रूपों में अंतर करते हुए बर्लिन ने तर्क दिया कि राज्य केवल नकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है, सकारात्मक स्वतंत्रता व्यक्ति का निजी मामला है, जिससे राज्य को कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए। इस तरह बर्लिन ने वर्तमान सामाजिक, आर्थिक विषमताओं के निराकरण को राज्य के कार्यक्षेत्र से बाहर रखते हुए समानता के दावे को ठुकरा दिया। बर्लिन का तर्क कितना असंगत है, इस ओर संकेत करते हुए बी पारेख ने लिखा है कि ‘‘यदि कोई व्यक्ति यह सोंचता हो कि उसके जीवन मेंसाधनों का अभाव सामाजिक प्रबंध का परिणाम है, अतः यह उसकी स्वतंत्रता में अन्य लोगों के हस्तक्षेप के तुल्य है, तो इस पर बर्लिन क्या कहेगा’’ देखा जाए तो बार्लन ने सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को प्राकृतिक और नैतिक विषमताओं के समक्ष रखकर समानता के सिद्धांत का भ्रामक चित्र प्रस्तुत किया है।
हेयक ने अपनी कृति स्वतंत्रता का संविधान के अंतर्गत स्वतंत्रता और समानता को परस्पर विरोधी सिद्धांत मानते हुए यह तर्क दिया कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न योग्यताएं और निपुणताएं पाई जाती हैं। कानून के समक्ष समानता का नियम लागू करने पर आय और संपदा की विषमता इस स्थिति का स्वाभाविक परिणाम होगी। इस विषमता को रोकने का उपाय यह होगा कि सत्तावादी शासन स्थापित करके व्यक्तिगत प्रतिमाओं और आकांक्षाओं का दमन कर दिया जाए। इस तरह बल-पूर्वक समानता स्थापित करने का प्रस्ताव स्वतंत्र समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः हेयक ने समानता की तुलना में स्वतंत्रता को इतनी प्रधानता दी है कि वह सब व्यक्तियों के लिए समान स्वतंत्रता के दावे को भी स्वीकार नहीं करता। उसके विचार में वैयक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक प्रगति की जरूरी शर्त है। परंतु नकारात्मक उदारवादियों की इस संकल्पना से वास्तविक रूप में न्याय की स्थापना असंभव लगती है।
नकारात्मक उदारवाद के विपरीत जब सकारात्मक उदारवाद का विकास हुआ तो इन विचारकों ने न्याय की स्थापना के लिए राज्य को सकारात्मक भूमिका पर जोर दिया, ताकि समानता की स्थापना हो सके। सकारात्मक उदारवाद यह विश्वास करता है कि व्यक्तियों के परस्पर संबंधों को नियमित और संतुलित करने के लिए राज्य को सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। आगे चलकर वह कल्याणकारी राज्य की संकल्पना के रूप में विकसित हुआ। आर्थिक क्षेत्र में राज्य की क्या भूमिका होनी चाहिए इस प्रश्न पर मिल ने राज्य के नकारात्मक स्वरूप को स्वीकार नहीं किया। उदारवाद की परंपरा में वह पहला ऐसा विचारक है जिसने पूंजीवाद के बढ़ते हुए प्रभाव के संदर्भ में व्यक्ति और राज्य के संबंध पर विचार किया और व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए राज्य के हस्तक्षेप को उचित ठहराया। उसने यह स्वीकार किया जब आर्थिक क्षेत्र में न्यायिक विषमता देखने को मिलती है, तब राज्य की ओर से अहस्तक्षेप की नीति सामाजिक सुख का संवर्धन नहीं कर सकती। जब भूमि उद्योग धंधों और ज्ञान विज्ञान के साधनों पर इने-गिने लोगों का ही अधिकार हो तब राज्य को तटस्थ नहीं रहना चाहिए, बल्कि विशाल निर्धन वर्ग के कल्याण की दिशा में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए मिल के मुख्य सुझाव हैं, अनिवार्य शिक्षा व्यवस्था, उत्तराधिकार का परिसीमन, एकाधिकार पर राज्य का नियंत्रण, भूसंपत्ति की सीमाएं निर्धारित करना और ऐसे श्रम कानून बनाना, जिनके अनुसार काम के घेरे निश्चित कर दिए जाएं और कारखानों में बच्चों से मजदूरी न कराई जा सके। इस तरह मिल ने आर्थिक क्षेत्र में उदारवादी मूल्यों के साथ समाजवादी मूल्यों का संयोग करके उदारवादी सिद्धांतों के अंतर्गत न्याय की आदर्श को साकार करने की कोशिश की।
पुनः उदारवादियों ने अधिकारों का सिद्धांत प्रस्तुत किया। ये अधिकार किसी अनुभवातीत कानून से नहीं जन्मे थे, जैसा कि लॉक ने सोचा था बल्कि इनकी उत्पत्ति मनुष्य की नैतिक प्रकृति से हुई थी। पुराने उदारवाद ने अहस्तक्षेप की जिस नीति का समर्थन किया था, उसने जीवन के आर्थिक और राजनीतिक पक्षों का परस्पर संबंध सही दृष्टिकोण से नहीं देखा था। सकारात्मक उदारवादियों ने यह अनुभव किया कि जब राजनीतिक जीवन में स्वतंत्रता की मांग की जाती है, तो उनके साथ समानता की मांग भी जुड़ी होती है। अतः आर्थिक क्षेत्र में भी सच्ची स्वतंत्रता तभी स्थापित की जा सकती है जब वह भी समानता को बढ़ावा दे। इन उदारवादियों ने राज्य के लिए ऐसी कारवाई का दार्शनिक आधार अवश्य प्रस्तुत किया जिससे सामाजिक विषमता को दूर किया जा सके और अवसर की समानता जुटाई जा सके। उदारवाद की परंपरा में यह एक नया विचार था, जिसने स्वतंत्रता की नई व्याख्या की मांग की ताकि आर्थिक संबंधों के क्षेत्र में भी स्वतंत्रता और समानता में सामंजस्य स्थापित किया जा सके। उन्होंने तर्क दिया कि अधिकार स्वतंत्रता में छिपे रहते हैं, क्योंकि स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि सबको आत्म विकास की समान परिस्थितियों में जीने का अवसर मिले। अधिकारों की तरह राज्य भी मनुष्य की नैतिक चेतना से जन्मा है, क्योंकि राज्य का कार्य सर्वहित को बढ़ावा देना है। निर्णय में कोई रुकावट आ सकती है। राज्य का कर्तव्य यह है कि सद इच्छा के मार्ग में जो बाधाएं उपस्थित हों, उनके निवारण में वह अपनी पूरी शक्ति लगा दे। इस तरह राज्य में न्याय की स्थापना सुनिश्चित की जा सकती है।
Question : उदार लोकतंत्र।
(1999)
Answer : ऐतिहासिक दृष्टि से उदारवाद और लोकतंत्र की उत्पत्ति भिन्न परंपराओं से हुई है। परंतु आधुनिक युग में लोकतंत्र की सामान्य धारा उदारवाद के साथ इतनी निकट से जुड़ गयी है कि सामान्य भाषा में, जब तक लोकतंत्र शब्द के साथ कोई विशेषण न लगाया जाए, तब तक उसका अभिप्राय उदार लोकतंत्र का उदारवादी लोकतंत्र ही माना जाता है। उदारवाद और लोकतंत्र के इस संयोग में ऐतिहासिक परिस्थितियों का हाथ रहा है। पुराने उदारवाद ने समाज के आर्थिक जीवन में पूंजीवाद को बढ़ावा दिया, जिसमें उत्पादन, वितरण और विनिमय के साधन पूंजीपतियों के हाथों में केंद्रित हो गए। इससे बहुत बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण और शहरीकरण को बढ़ावा मिला। परिणाम यह हुआ कि एक विशाल मजदूर वर्ग बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में केंद्रित हो गया। खुले बाजार की स्पर्द्धा में मजदूर वर्ग की दुर्दशा हुई, परंतु यह वर्ग अपनी संख्या शक्ति के प्रति भी सजग हो गया। मजदूर वर्ग ने अपनी दुर्दशा से उबरने के लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग की। उदारवादी पूंजीवादी राज्य को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए मजदूर वर्ग अर्थात् जनसाधारण के राजनीतिक अधिकारों को मान्यता देनी पड़ी। अतः उदारवादी राज्य ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के साथ-साथ सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को भी अपनाया। इस तरह से उदारवाद के साथ लोकतंत्र का सिद्धांत आकर जुड़ गया और उदार लोकतंत्र की उत्पत्ति हुई।
उदार लोकतंत्र के समर्थक लोकतंत्र की संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर विशेष बल देते हैं। किसी देश में लोकतंत्र है या नहीं, यह जांच करने के लिए उनकी कसौटी यह है कि वहां पर सरकार इन संस्थाओं और प्रक्रियाओं के माध्यम से चलाई जाती है या नहीं? उनका विश्वास है कि जनसाधारण की इच्छा को शासन का आधार बनाने के लिए ये संस्थाएं और ये संस्थाएं और प्रक्रियाएं अनिवार्य हैं। उदार लोकतंत्र के समर्थक इसके कुछ खास लक्षणों पर एकमात्र हैं। उदार लोकतंत्र में विविध वर्गों, विविध विचारधाराओं, विविध दृष्टिकोणों और विविध हितों में सामंजस्य और परस्पर समायोजन का अवसर दिया जाता है। इसलिए वहां एक से अधिक राजनीतिक दल होने जरूरी हैं, ताकि ये दल सार्वजनिक नीति के वैकल्पिक कार्यक्रम प्रस्तुत करके जनसाधारण का समर्थन प्राप्त कर सके और राजनीतिक सत्ता संभालकर जनसाधारण को संतुष्ट करने की क्षमता का प्रमाण दे सकें। उदार लोकतंत्र में राजनीतिक पद जनता के समर्थन से प्राप्त किए जाते हैं, उससे, परंपरा से, उत्तराधिकार से या किसी की कृपा से नहीं। लोकतंत्र की विशेषत उसे सामंतवाद, राजतंत्र इत्यादि से अलग करती है। उदार लोकतंत्र को चलाने का व्यावहारिक तरीका प्रतिनिधि शासन है। प्रतिनिधि शासन चलाने के लिए नागरिक निश्चित अवधि के बाद अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं। लोकतंत्र के चुनाव सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर होना चाहिए अर्थात् इसमें वोट देने का अधिकार निश्चित न्यूनतम आयु के सभी नागरिकों को होना चाहिए, चाहे वे स्त्री हो या पुरुष किसी भी जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा इत्यादि से जुड़े हों। उदार लोकतंत्र में नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, सभा करने और संघ बनाने की स्वतंत्रता, वैयक्तिक स्वतंत्रता इत्यादि प्राप्त होना आवश्यक है। उन्हीं स्वतंत्रताओं के बल पर नागरिक अपने सामान्य हितों को पहचानते हैं और अपने हित समूह बनाकर शासन की नीतियों को प्रभावित करने में समर्थ होते हैं।
उदार लोकतंत्र की सार्थकता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधिकार शासन के अन्य अंगों, अर्थात् विधानमंडल तथा कार्यपालिका से स्वाधीन हो। लोकतंत्र में साधारणतः विधानमंडल और कार्यपालिका पर राजनीतियों का प्रभुत्व रहता है, परंतु न्यायाधीश अपनी योग्यता एवं अनुभव के आधार पर नियुक्त किए जाते हैं। परंतु उदार लोकतंत्र की कुछ त्रुटियां भी है जैसे-वास्तविक प्रतिस्पर्द्धा कुछ प्रभावशाली वर्गों के बीच होना, सत्ता संपन्न वर्गों के हाथ में होना, व्यापारिक घरानों का एकाधिकार होना, निरक्षरता, अज्ञान, गरीबी आदि का होना।
Question : लोकतंत्र सरकार का एक प्रकार ही नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति भी है। चर्चा करें।
(1997)
Answer : मानव सभ्यता के आज तक के इतिहास में जिन राजनीतिक व्यवस्थाओं और संरचनाओं का विकास मानव ने किया, उनमें लोकतंत्र की व्यवस्था न केवल सर्वाधिक विकसित है, बल्कि अपने दार्शनिक एवं मूल्यात्मक पक्षों के कारण राजनीतिक क्षेत्र का अतिक्रमण भी करती है। इसका मूल यह है कि शेष राजनीतिक व्यवस्था से मूलतः राजनीतिक माध्यम से समाज और व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करती है तथा जीवन के सीमित पक्षों को ही छू पाती है, जबकि लोकतंत्र मूलभूत मानवीय मूल्यों से यात्र आरंभ करके राजनीतिक जीवन को समेटते हुए व्यक्ति और समाज के संपूर्ण जीवन की आधार संहिता बन जाता है, इसीलिए कई सामाजिक राजनीतिक दार्शनिकों ने इस विचार से सहमति व्यक्त की है कि लोकतंत्र केवल राजनीतिक व्यवस्था ही नहीं वरन् एक समग्र जीवन प्रणाली है।
जीवन-प्रणाली का अर्थ एक ऐसी प्रणाली से होता है जो व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों को धारण करती है। इसमें न केवल यह महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति अपने वैयक्तिक जीवन की प्रमाणिकता और सार्थकता से जी सके, बल्कि यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति और व्यक्ति, व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और प्रकृति तथा विभिन्न समाजों के पारस्परिक संबंध भी ऐसे हों जिसमें सभी अपनी प्रामाणिकता के साथ अस्तित्व में रख सके। लोकतंत्र की जीवन दृष्टि मूलतः इसी बिंदु को सभी पक्षों में धारण करती है।
लोकतंत्र की सबसे पहली विशेषता यह है कि यह एक मानववादी दर्शन है, जिसका प्रत्यक्ष संबंध आधुनिक काल के उस चिंतन से है, जिसमें यह माना गया है कि मानव धर्म और राज्य के समक्ष साधन नहीं बल्कि साध्य है। आधुनिक दर्शनों में माना गया है कि नैतिकता का आरंभ ही इस बिंदु से होता है कि मानव अपने आप में साध्य है। यही विचार कांट जैसे विचारकों ने भी व्यक्त किया है। लोकतंत्र से पहले प्लेटो और अरस्तु के दर्शन में कहीं-कहीं राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में मानव के प्रति अदम्य विश्वास दिखाई देता है, किंतु वहां यह विश्वास सीमित संस्था में कुछ मानकों के प्रति चाहे हो, प्रत्येक मानव के प्रति नहीं हो सका है।
लोकतंत्र की मूल दृष्टि यही है कि न केवल प्रत्येक व्यक्ति को साध्य है, बल्कि वह समान भी है और इतना तर्कशील भी है कि अपने जीवन के निर्णय स्वयं ले सके। यह दृष्टिकोण मानव को स्वतंत्रता प्रदान करता है। सार्त्र के शब्दों में, निर्णय लेने की स्वाधीनता के माध्यम से प्रमाणिक होने की संभावना प्रदान करता है, जो व्यक्ति लोकतंत्र के इस मूल्य को आत्मसात करता है वह निश्चित रूप से सतत प्रयोगशील जीवन जीता है और इस प्रक्रिया में लोकतंत्र का मूल्य उसकी जीवन पद्धति की व्याख्या करता है।
लोकतंत्र की जीवन दृष्टि व्यक्ति के वैयक्तिक जीवन से आगे बढ़कर कई अन्य संबंधों में व्यक्त होती है। किसी भी समाज या राज्य का मूल्यांकन सबसे पहले इस बिंदु पर किया जा सकता है कि मानव और मानव या व्यक्ति और व्यक्ति के बीच परस्पर संबंध कैसा है? जिस समाज में लोकतांत्रिक परिपक्वता और गरिमा नहीं होगी, वह समाज अपने नियमों को पशुओं के उसी नियम से जोड़ेगा जिसे उत्तरजीविता (Surveil of the fittest) का सिद्धांत कहा जा सकता है। लोकतंत्र का दर्शन यह है कि मानव अपने अस्तित्व में अकेला नहीं है, बल्कि सभी मानवों के साथ है। केवल अपने प्रति केंद्रित होने के स्थान पर अपनी चेतना को सभी तक विस्तृत करने की क्षमता से लोकतंत्र वह मूल्य पैदा करता है, जिसे प्राचीन भारतीय संस्कृति में सर्वे भवन्ति सुखिनः कहा गया है तथा आधुनिक पश्चिमी संस्कृति में भातृत्व कहा गया है। इस प्रकार लोकतंत्र व्यक्तियों के मध्य एक समन्वयात्मक जीवन दृष्टि प्रस्तावित करता है, जिसमें केवल अपने सुख के स्थान पर व्यक्ति सभी के दुखों से जुड़ने की संवेदनशीलता का विकास कर पाता है।
लोकतंत्र का यही मूल्य (अहिंसा, सर्वोदय, सह अस्तित्व) व्यक्ति-व्याक्तिा संबंधों से आगे बढ़कर व्यक्ति-प्रकृति संबंधों पर भी लागू होता है। लोकतंत्र की मूल दृष्टि यह कहती है कि हमें साथ-साथ शेष सभी के अस्तित्व को भी प्रमाणिक मानना चाहिए और यदि इसी विचार को व्यक्ति और प्रकृति के संबंधों को आचार संहिता बना लिया जाय तो प्रकृति के शोषण की समस्या समाप्त हो जाती है और संयोग्य विकास मानवीय प्रकृति का एक स्वाभाविक हिस्सा बन जाता है। आधुनिक दर्शन की जिस मानसिकता पर रखी गयी है, वह मूल रूप से न्यूटन के वैज्ञानिक चिंतन तथा देकार्त के तत्वमीमांसीय चिंतन का निचोड़ है। इस दर्शन की मूल समस्या यह है कि यह न तो विभिन्न इकाइयों में संबंध देख पाता है और न ही परस्पर स्वतंत्र इकाइयों को समान मान पाता है। इस मूल सोच की वजह से पिछले तीन चार वर्षों में पश्चिमी विश्व में प्रकृति के प्रति लोकतांत्रिक चिंतन कर पाने में अक्षमता दिखायी है और प्रकृति को प्रायः भोग की वस्तु माना है। इसके विपरीत भारतीय दर्शन में कई ऐसे विचार मिलते हैं जो मानव और प्रकृति के बीच लोकतांत्रिक संबंधों को प्रस्तावित करते हैं तथा प्रकृति को शोषण नहीं, बल्कि त्यागपूर्वक भोग पर बल देते हैं। त्येन-त्यव्तेन भुञ्जी था। भारतीय संस्कृति के इसी मूल को चेतना को धारण करके महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रकृति विश्व के सभी मनुष्यों की सभी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, किंतु एक भी व्यक्ति के लाभ को नहीं।
लोकतंत्र का मूल्य इन संदर्भों से आगे बढ़कर संपूर्ण विश्व की आचार संहिता का निर्धारण भी करता है। अलग-अलग राष्ट्रों के बीच क्या संबंध होने चाहिए, इसका अंतिम और स्वस्थ्य समाधान लोकतांत्रिक दृष्टि से ही हो सकता है। यदि कोई एक किसी भी वैचारिक या नृजातीय विचारधारा के प्रति कट्टरता धारण करता है तो विश्व शांति युद्ध का अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद उसी समस्याओं का अखाड़ा बन जाता है। इसके विपरीत जब लोकतांत्रिक दृष्टि जब एक राष्ट्र में व्याप्त न होकर सभी राष्ट्रों की जीवन पद्धति बन जाता है तो वह राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय सद्भाव, बंधुता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा अहस्तक्षेप जैसे सिद्धांतों को स्वीकार करता है, जिसमें अपने अस्तित्व के साथ-साथ अन्य राष्ट्रों का अस्तित्व भी सुरक्षित और प्रमाणिक बना रहता है। यदि सभी राष्ट्रों का चिंतन और संवेदन प्रक्रिया लोकतांत्रिक हो जाय, तो स्वाभाविक रूप से विश्व में कोई युद्ध नहीं होगा। विश्व नाभिकीय और जैविक शक्तियों के खतरों के सामने कभी भी खत्म हो जाने के भय से मुक्त हो सकेगा। इसी लोकतांत्रिक दृष्टि का सर्वोच्च स्तर वह है जिसे भारतीय दर्शन में वसुधैव कुटुम्बकम कहा गया है।
लोकतंत्र की जीवन दृष्टि अन्य समकालीन राजनीतिक व्यवस्था से काफी अलग है। राजतंत्र की व्यवस्थाओं में न तो व्यक्ति के संकल्प स्वातंत्र्य हो व्यवस्था को पाती है और न ही व्यक्ति को राज्य की ओर से तार्किक और समान व्यवहार मिल पाता है। समाजवाद या साम्यवाद की व्यवस्था में व्यक्तियों को तो समानता तो मिलती है, पर स्वतंत्रता की अनुपस्थिति उस समानता को मनोवैज्ञानिक बोझ बना देती है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी यह समानता तार्किक विषमताओं को भी स्वीकार नहीं करती और एक कृत्रिम जीवन को पैदा करती है। इन व्यवस्थाओं की तुलना में लोकतंत्र एक ऐसी आदर्श व्यवस्था है, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय के आदर्श परस्पर द्वंद्व की स्थिति में नहीं रहते, बल्कि एक दूसरे के पूरक होकर होते हैं। इसके अतिरिक्त सहिष्णुता, भातृत्व तथा शांतिपूर्ण सह अस्तित्व जैसे मूल व्यक्ति और समाज के बीच बेहद परिपक्व और संतुलित संबंध पैदा करते हैं। व्यक्ति न तो समाज और राज्य के सामने साधन बन जाता है और न ही व्यक्ति स्वतंत्र होने के नाम पर उच्च शृंखल हो जाता है।
समग्र दृष्टि से देखें तो यह कहा जा सकता है कि लोकतंत्र एक व्यवस्था के रूप में तो श्रेष्ठ है, लेकिन जीवन प्रणाली के रूप से गुणात्मक रूप से और अधिक बेहतर है। व्यवस्था के स्तर पर इसमें कई विसंगतियां पैदा होने का खतरा बना रहता है, किंतु मूल्यों के स्तर पर यह हमारे नये भूमंडलीय विश्व की समग्र आचारसंहिता बन सकता है। यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि लोकतंत्र के मूल्य की प्रासंगिकता तभी है, जब इसे सभी व्यक्ति, धारण करें अन्यथा इस मूल्य को धारण न करने वाले व्यक्ति इस मूल्य को धारण करने वाले व्यक्तियों के शोषण की स्थितियां पैदा कर सकते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति विवेक, परिपक्वता और संवेदना के स्तर पर लोकतंत्र के मूल्यों को अर्जित कर सके तो यह मानव सभ्यता का सर्वोच्च विकास स्तर होगा। वाल्टर बेजहाट ने अपनी प्रसिद्ध कृति विज्ञान एवं राजनीति में मनोवैज्ञानिक आधार पर ऐतिहासिक प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए चर्चा की प्रवृत्ति को संपूर्ण सामाजिक प्रगति की कुंजी माना है। समाज की आरंभिक अवस्थाओं में अनुकरण की प्रवृत्ति का बोलबाला रहता है। अतः तब व्यवहार के तरीके स्थिर हो जाते हैं। वैसे यह स्थिरता समाज के अस्तित्व के लिए उपयोगी होती है, परंतु फिर भी वह प्रगति के मार्ग में बाधक होती है। अतः उसे तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यह कार्य एक नई वैज्ञानिक शक्ति के द्वारा संपन्न होता है वह है चर्चा की प्रवृति। क्या कारण है कि कुछ समाज प्रगतिशील होते हैं, कुछ नहीं? बेजहाट का विचार है कि जहां यह शक्ति विद्यमान होती है, वहीं प्रगति भी दिखाई देती है। उसी के शब्दों में अनुकरण की प्रवृत्ति सब जगह पाई जाती है, चर्चा का वरदान कुछ ही समुदायों को प्राप्त होता है। यही कारण है कि प्रगति विश्व के छोटे से क्षेत्र में ही सीमित रहती है। ऐसे समाज किसी बात को इसलिए सच नहीं मान लेते कि वह युगों से चली आ रही है अथवा उसका अस्तित्व बना हुआ है, बल्कि वहां किसी को भी नया मत प्रकट करने का अधिकार होता है और उस पर ध्यान दिया जाता है। अर्थात दूसरों के मत के प्रति सहिष्णुता लोकतंत्र का मूलमंत्र है। इस सिद्धांत से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सभ्यता का विकास लोकतंत्रीय जीवन पद्धति के साथ जुड़ा हुआ है।