Question : समाजवाद से आप क्या समझते हैं, इसका उल्लेख कीजिए। क्या यह आवश्यक है कि समाजवाद को उन मूल्यों एवं आदर्शों के मानकीय पदों से पारिभाषित किया जाए, जिनकी प्राप्ति के लिए समाजवादी प्रयासरत हैं या कि उन वर्णनात्मक पदों से जो समाजवादी व्यवस्था के आर्थिक एवं राजनीतिक संस्थाओं के चारित्रिक लक्षणों का उल्लेख करते हैं? क्या इन दोनों के बीच तनाव का समुचित समाधान किया जा सकता है?
(2007)
Answer : समाजवाद की इतनी परिभाषाएं हैं और शाखाएं हैं कि उसकी कोई सही-सही या सर्वसम्मत परिभाषा देना कठिन है। समाजवाद के समर्थक इतने गुटों में बंटे हुए हैं और उनके उद्देश्यों और विधियों में कहीं-कहीं इतना स्पष्ट अंतर है कि समाजवाद के किसी सर्वमान्य सिद्धांत का निरूपण करना संभव नहीं। वैसे कई सारे समाजवादी सिद्धांत अपनी-अपनी जगह स्पष्ट हैं, परंतु यहां आकर वे समाजवादी नहीं रहते, बल्कि किसी को श्रमाधिपत्यवादी कहा जाता है, किसी को श्रेणी समाजवादी। इसलिए शुद्ध समाजवादी को ढूंढ निकालना मुश्किल है। उदाहरण के लिए एक अर्थ में समाजवाद को व्यक्तिवाद का विपरीत रूप कह सकते हैं। परंतु इसके भी इतने रूप रूपांतर हैं कि उन सबको समाजवाद कहना कहां तक युक्तिसंगत होगा, यह एक जटिल प्रश्न है। सीईएम जोड का कथन है समाजवाद एक ऐसे टीम की तरह है जिसे हर कोई पहन लेता है और इसलिए अब उसकी शक्ल पहचानने में नहीं आती।
समाजवाद राज्य के क्षेत्र में लोकतंत्रत्मक प्रणाली का धर्म के क्षेत्र में नास्तिकता का आध्यात्म के क्षेत्र में एक प्रकृतिवादी भौतिकवाद का औद्योगिक क्षेत्र में जनवादी समष्टिवाद का एवं नैतिकता के क्षेत्र में एक अनंतवाद आशावाद का सूचक है। स्पष्ट है कि समाजवाद एक प्रगतिशील एवं परिवर्तनशील दर्शन है, जो बदलती सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप अपना स्वरूप बदलता रहता है। समाजवादी विचारधारा के उदय का मुख्य कारण परंपरागत समाज एवं आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में निहित विसंगतियां हैं। यह समाज में रहने वाले सभी वर्गों को आर्थिक एवं सामाजिक शोषण का कड़ा विरोध करता है एवं भूमि एवं पूंजी पर समस्त समाज के स्वामित्व को लक्ष्य बनाता है, जिससे कि सभी वर्गों का आनुपातिक भाग सुनिश्चित किया जा सके। समाजवाद की कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जिन पर लगभग सभी समाजवादी एकमत हैं:
समाजवादी विचारधारा की पृष्ठभूमि में कुछ दार्शनिक मूल्य हैं, जिसे यह समाजवाद के सभी वर्गों के लिए सुनिश्चित कराना अपना लक्ष्य मानता हैः
मार्क्स के पूर्व के सभी समाजवादी चिंतक स्वप्नलोकी समाजवादी विचारधारा के अंतर्गत आते हैं, क्योंकि इनके द्वारा जिस आदर्श राज्य एवं समाज का वर्णन किया गया था, वह सामूहिक सहयोग पर आधारित जरूर था, किंतु यथार्थ से दूर कल्पना सदृश था। इसी कारण ये लोग स्वप्नलोकीय समाजवादी कहलाये। इनके कल्पित समाज में सम्पत्ति सबकी साझी थी एवं अन्याय का अस्तित्व नहीं था। इनके प्रणेताओं में प्लेटो मुख्य है, जो रिपब्लिक ग्रंथ में ऐसे आदर्श राज्य की कल्पना करता है, जिसमें वर्णित तीन वर्गों में सैनिक एवं शासक सम्पत्ति से दूर रहेंगे एवं उत्पादक या व्यवसायी वर्ग आर्थिक गतिविधियों को संचालित करेंगे।
आधुनिक समय में युटोपिया में महत्वपूर्ण विचारक टामस मूर ने आदर्श नगर की कल्पना की थी। अन्य विचारकों ने सेंट साइमन, चार्ल्स फुरियर, लुई ब्लांक एवं राबर्ट ओवन हैं। हिंसा को महत्ता न देने एवं आधुनिक लोकतांत्रिक प्रणाली के पूर्णतया अनुकूल दिखने के कारण सभी विकासवादी समाजवादी सिद्धांत आदर्श रूप में स्वप्नलोकीय समाजवाद को पाना अपना लक्ष्य मानते हैं।
इसके पश्चात सिडनीवेब के प्रयासों से इंगलैंड में फेबियन समाजवाद को प्रसिद्धि मिली। उस वक्त इंगलैंड में लोकतंत्र आ चुका था। अतः हिंसा से मार्क्सवाद आना सम्भव नहीं था। इंगलैंड में शासक वर्ग के रूप में भूमिपति ज्यादा थे। अतः फेबियनवाद ने पूंजीपतियों के साथ-साथ इन भूमिपतियों को भी निशाना बनाया। परंतु इसने क्रांति की जगह शांतिपूर्ण प्रयासों से क्रमिक रूप में समाज में बदलाव की बात की। फेबियनवादियों के अनुसार समाज के शोषित वर्ग उद्योगपतियों एवं भूमिपतियों दोनों के खिलाफ संघर्ष करेंगे एवं भूमि और उद्योग दोनों पर राज्य का स्वामित्व होगा। इनका लाभ व्यक्तिगत प्रयासों से कम एवं प्राकृतिक प्रयासों पर ज्यादा निर्भर करता है। अतः इनका लाभ पाने का हकदार पूरा समाज है, कोई एक निश्चित व्यक्ति नहीं। किंतु इसके साथ ही फेबियनवादी राज्य की स्थिति के अनुसार भूमिपतियों एवं पूंजीपतियों दोनों के लिए मुआवजा के संदर्भ में राज्य को निर्णय लेने की बात करता है।
परंतु इसके विपरीत समाजवाद की एक धारा, श्रेणी समाजवाद समाजवादी मूल्यों के समाज की स्थापना में राज्य को सक्षम नहीं मानता। अतः यह दायित्व वह श्रेणियों को देना चाहता है। स्पष्ट है कि ये राज्य के उन्मूलन की बात नहीं करते, बल्कि उसे बनाये रखने की बात करते हैं, किंतु राज्य को पूर्ण प्रभुसत्ता देने के हिमायती नहीं हैं। इसके साथ ही ये संसदीय प्रणाली की अवहेलना करते हैं। इसके विपरीत समष्टिवाद या राज्य समाजवाद अपनी सफलता के लिए जनतंत्रीकरण की बात करता है। इसलिए इसे जनतंत्रीय समाजवाद भी कहते हैं। यह भूमि एवं उद्योगों पर व्यक्तिगत की जगह राज्य के स्वामित्व की बात करता है एवं अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए राज्य को आवश्यक मानता है। यह समष्टिवाद है इसलिए क्योंकि यह मानता है कि समाज के सभी घटक अन्योन्याश्रित हैं और सामंजस्यपूर्ण ढंग से रह सकते हैं।
परंतु श्रमिक संघवाद में राज्य का उन्मूलन आवश्यक है, क्योंकि यह पूंजीपतियों का समर्थक है। यह सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसात्मक साधनों को महत्ता देता है और श्रमिक वर्ग के प्रभुत्व की बात करता है और जनतंत्र का विरोधी है। यह संसदीय शासन व्यवस्था के साथ-साथ साम्यवादी शासन व्यवस्था में भी अविश्वास करता है, क्योंकि बाद में इसमें भी प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली की तरह प्रतिनिधि चुनकर आते हैं। श्रमिकों के आधिपत्य की स्थापना के लिए धन के रूप में ये प्रत्यक्ष कार्यवाही, हड़ताल, क्रांतिकारी सिंडिकेटो, तोड़फोड़ एवं हिंसा को मान्यता देते हैं। दूसरी ओर मार्क्सवादी समाजवाद क्रांतिकारी और वैज्ञानिक समाजवाद है, क्योंकि वह सभ्यता के ऐतिहासिक विकास की व्याख्या वैज्ञानिक ढंग से करता है और अपने लक्ष्य को पाने के लिए क्रांति को आवश्यक मानता है। इससे बिल्कुल अलग लोकतांत्रिक समाजवाद लोकतंत्र के माध्यम से समाजवाद पाने का लक्ष्य रखता है। यह समाज का संचालन एवं व्यवस्था का कार्यान्वयन लोकतांत्रिक तरीके से करना चाहता था। लोकतांत्रिक समाजवाद आदर्शवाद एवं स्वप्नलोकीय समाजवाद के सिद्धांत को व्यावहारिक स्तर पर पाने का प्रयास है एवं यह भी विकासवादी समाजवाद के अंतर्गत आता है। इसका लक्ष्य वैधानिक, शांतिपूर्ण एवं लोकतांत्रिक तरीके से समाजवाद की स्थापना करना है। यह व्यक्तिवाद का विरोधी है एवं समाज को प्रधान मानता है। यह पूंजीवाद का विरोध करता है परंतु सीमित व्यक्तिगत संपति की रक्षा की बात करता है। यह लोकतंत्र के आधार को सामाजिक एवं आर्थिक बनाने की बात करता है। यह सकारात्मक स्वतंत्रता का पोषक है एवं समानता के सिद्धांत को सर्वोच्च मूल्य प्रदान करता है। यह अधिकारों को मान्यता देते हुए कर्त्तव्य निवर्हन एवं मानवीय मूल्यों को विकसित करने की बात करता है। यह राज्य द्वारा समाजविरोधी कार्यों के दमन का समर्थन करता है। परंतु यह केवल भौतिकवादी मूल्यों को प्रश्रय देने का हिमायती है अर्थात् आध्यात्मिक मूल्यों की अवहेलना करता है। यह व्यक्ति स्वतंत्रता में कमी लाता है, जो आत्म विकास के लिए आवश्यक है। इसके अंतर्गत प्रतियोगिता के विकास से उत्पादन में कमी होने की संभावना दिखाई देती है।
इस प्रकार समाजवादी अवधारणा का रूप निरंतर विकसित होता दिखाई पड़ता है। यह समानता, स्वतंत्रता एवं न्याय तथा बंधुत्व के आदर्श को लेकर चलता है, साथ ही भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा इन आदर्शों एवं मूल्यों को प्राप्त करने का पक्षधर है। यही कारण है कि एक समान आदर्श एवं मूल्यों को अपना लक्ष्य मानने के बावजूद भी साधन के चुनाव को लेकर इनमें कई गुट और मतांतर दिखाई देता है। परंतु समाजवादी अवधारणा को किसी एक दृष्टिकोण से परिभाषित करने पर इसकी अवधारणा स्पष्ट नहीं होती और जो वैचारिक स्तर पर आदर्श है। उसे व्यावहारिक स्तर पर लागू करने पर ही वास्तव में समाजवादी विचारधारा फलीभूत होगी। अतः समाजवाद को इन दोनों की कसौटी पर अलग-अलग परखना उचित नहीं है, क्योंकि वास्तव में इनमें कोई विरोध नहीं है। आदर्शों एवं मूल्यों को व्यावहारिक स्तर पर लाने के कारण ही यह विचार मात्र न रहकर आंदोलन का रूप ले चुका है। वर्तमान में विश्व के सभी देश किसी न किसी रूप में अपनाना चाहते हैं।
Question : समाजवाद साम्यवाद की सर्वाधिकारी विवक्षाओं से बचता है और उदार लोकतांत्रिक संविधानों के दायरे में कार्य करता है।
(2005)
Answer : व्यवहार के स्तर पर समाजवाद किस तरीके से लाया जाए, इस प्रश्न को लेकर समाजवाद की दो मुख्य धाराएं पहचानी जा सकती हैं। काल मार्क्स और उसके अनुयायियों ने समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांति के तरीके का समर्थन किया, अतः मार्क्सवादी समाजवादी को हम क्रांतिकारी समाजवाद या मार्क्सवाद के रूप में पहचानते हैं। जब मार्क्स ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में अपने विचार प्रस्तुत किए थे, तब यूरोप में लोकतंत्र के सिद्धांत को व्यापक रूप में स्वीकार नहीं किया गया था। क्या लोकतंत्र के माध्यम से मजदूर वर्ग अपने भाग्य को बदल सकेगा, इस बारे में मार्क्स ने कोई निश्चित दृष्टिकोण व्यक्त नहीं किया है। मार्क्स को यह आशा नहीं थी कि पूंजीवाद ही कभी अपने उग्र रूप को त्यागकर मजदूर वर्ग के उत्थान के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर सकेगा। अतः उसने यह स्पष्ट मत व्यक्त किया कि समाजवाद लाने के लिए सर्वहारा वर्ग की क्रांति अनिवार्य है। दूसरी ओर उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में तथा शताब्दी के आरंभिक दशकों में जब युरोप में लोकतंत्र के सिद्धांत को व्यापक रूप से स्वीकार किया गया, तब समाजवादियों के एक समूह ने यह आशा व्यक्त की कि लोकतंत्र जनसाधारण को अपनी इच्छा और आकांक्षा के अणुरूप सरकार बनाने और सार्वजनिक नीतियां बनवाने का अवसर प्रदान करता है, अतः इस तंत्र का प्रयोग करते हुए धीरे-धीरे या थोड़ा-थोड़ा करके समाजवाद लाया जा सकता है। इन समाजवादियों ने क्रांति के रास्ते को अनुचित बताया क्योंकि उससे खुनखराबा होता है और सामाजिक जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है। उन्होंने सर्वहारा के अधिनायक तंत्र के विचार की भी निंदा की क्योंकि उसमें नागरिक स्वतंत्रताओं का दमन किया जाता है और सरकार विरोधी मत रखने वालों को कुचल दिया जाता है। इस समाजवादियों ने क्रांति के बजाए क्रमिक विकास के द्वारा समाजवाद लाने के तरीके का समर्थन किया, अतः इनके दृष्टिकोण को हम मोटे तौर पर विकासात्मक समाजवाद की संज्ञा देते हैं। साधारणतः ये लोग पूंजीवाद और समाजवाद में समझौते का रास्ता अपनाना चाहते हैं। इनका विश्वास है कि पूंजीवाद को एक ही झटके में जड़ से उखाड़ने के बजाए उसके साथ जुड़ी हुई उदार लोकतंत्र की संस्थाओं को समाजवादी दिशा में परिवर्तन लाने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। विकासात्मक समाजवाद के अधिकांश समर्थक ऐसे हैं, जो मूलतः उदारवादी रहे हैं परंतु, पूंजीवाद के कारण बढ़ती हुई सामाजिक- आर्थिक विषमताओं के प्रति सजग होने पर, वे समाजवाद के लक्ष्य की ओर आकर्षित हुए हैं। उन्हें मार्क्सवादी समाजवादियों का तरीका पसंद नहीं आया। इसलिए दार्शनिक तथा व्यावहारिक स्तर पर उन्होंने मार्क्सवाद की आलोचना करते हुए उदार लोकतंत्र के माध्यम से सामाजिक न्याय स्थापित करने की आशा प्रकट की। विकासात्मक समाजवाद साधारणतः लोकतंत्रीय विधि, संसदीय सुधार और आर्थिक नियोजन तक का सहारा लेकर यह आशा व्यक्त करता है कि निर्धन और वंचित वर्गों तथा कामगारों के चुने हुए प्रतिनिधि और नेता सार्वजनिक नीति को उनके हितों के अनुरूप बनवाने में प्रभावशली भूमिका निभा सकते हैं। क्रांतिकारी समाजवाद या साम्यवाद तो कामगारों के हित को सर्वापरि रखना चाहता है, परंतु विकासात्मक समाजवाद कामगारों के हित को समुदाय के सामान्य हित का हिस्सा मानकर उनके अधिकार दिलाना चाहता है। अतः वह कामगारों के हितों और अन्य वर्गों के हितों में सामंजस्य स्थापित करना चाहता है। इस तरह वह आधुनिक उदारवादी बहुलवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है, जिसमें मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत वर्ग संघर्ष का कोई विशेष स्थान नहीं है।
Question : समाजवाद एवं मार्क्सवाद के सैद्धांतिक भेदों का उल्लेख कीजिए।
(2000)
Answer : समाजवाद की कोई निश्चित परिभाषा देना थोड़ा कठिन है। देश काल में परिवर्तन से उसका स्वरूप भी परिवर्तित होता रहता है। सामान्यतः इन स्वरूपों के मान के रूप में कहा जा सकता है कि समाजवाद वह व्यवस्था है जिसमें समानता को सर्वोच्च मूल्य के रूप में माना गया है, जिनके अंतर्गत निर्धन वर्ग के लिए न्याय की प्राप्ति की जा सके। यह व्यक्तिवाद की विरोधी अवधारणा है। इतिहास देखने से यह स्पष्ट है कि यह सिद्धांत की अपेक्षा आंदोलन अधिक है। समाजवादी चिंतन मुख्यतः कर्म के रूप में अभिव्यक्त होता है और जब विचार कर्म के द्वारा अभिव्यक्ति हो तो वही आंदोलन का रूप ले लेता है। मार्क्स के अनुसार दर्शन चिंतन नहीं वरन् कर्म है। मार्क्सवाद समाजवादियों का शीर्ष है। दर्शन का कार्य सृष्टि के उदभव की कहानी बताना नहीं, अपितु जगत का परिवर्तन करने वाला कर्म कहा गया है, इसलिए मार्क्सवाद को परिवर्तन का दर्शन कहा गया है। मार्क्स ने ब्रुनो की पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि दर्शन अबतक दोषपूर्ण रहा है।
समाजवाद के उद्भव को तीन युगों में विभक्त किया जा सकता है।
स्पष्ट है कि मार्क्स समाजवादी दर्शन का शीर्ष स्तंभ है। समाजवाद का एक वर्गीकरण ऐगेंल्स द्वारा भी किया गया है। एंगेल्स ने मार्क्सवाद पूर्व समाजवाद को स्वप्नलोकी समाजवाद कहा है, क्योंकि यह आदर्श मात्र विचार या कल्पना के स्तर तक रह गया। क्रिया के अभाव में इसे इस रूप में नामित किया गया। मार्क्स के समाजवाद को वैज्ञानिक समाजवाद कहा गया है। मार्क्स ने स्वयं अपने दर्शन में इस मूल्य को साम्यवाद कहा है। वस्तुतः समाजवाद, मार्क्सवाद तथा साम्यवाद सामाजिक विचार से प्रभावित है।
सर्वप्रथम प्लेटो ने साम्यवाद या समानता की स्थापना की बात की थी, किंतु इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। प्लेटो के अनुसार सम्पत्ति का अधिकार सार्वजनिक होना चाहिए। उसने व्यक्तिगत सम्पत्ति के समाजीकरण की बात की थी। मार्क्स की प्रारंभिक पुस्तक कम्युनिस्ट घोषणापत्र में परम्परागत सामाजिक चिंतन में संशोधन करके समाजवाद को नये संदर्भ में परिभाषित किया गया। एंगेल्स ने इसे वैज्ञानिक समाजवाद कहा है, क्योंकि (i) यह भौतिकवादी है। उस समय का विज्ञान भी भौतिकवादी था। (ii) मार्क्स के समाजवाद की स्थापना की विधि उतनी ही स्पष्ट व क्रमबद्ध है, जितना कि विज्ञान की विधि होती है। मार्क्स अपने चिंतन का आरंभ पूंजीवादी व्यवस्था के विश्लेषण से करता है। यह विश्लेषण वह हीगल के द्वंद्वात्मक पद्धति के द्वारा करता है। परंतु जहां हीगल विचारों के संघर्ष की बात करता है, वहीं मार्क्स वर्ग संघर्ष की बात करता है। मार्क्स के अनुसार यह संघर्ष उत्पादन प्रणाली की त्रुटियों के कारण पैदा होता है, जिसमें समाज प्रभुत्वशाली और पराधीन वर्गों में बंट जाती है। इन वर्गों का संघर्ष तब तक चलता रहता है, जब तक पूर्ण उत्पादन प्रणाली विकसित नहीं हो जाती। इसके बाद वर्ग भेद मिट जाता है और वर्गहीन समाज में मनुष्य सच्चे अर्थ में स्वतंत्र होकर स्वयं इतिहास का निर्माता बन जाता है। वस्तुतः मार्क्सवाद का उदय उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में तब हुआ, जब चिरसम्मत उदारवाद अपने चरमोत्कर्ष पर था और पूंजीवाद पूरी तरह स्थापित हो चुका था। औद्योगिक उन्नति के कारण समाज में जो नई सम्पत्ति पैदा हुई थी, वह इने-गिने पूंजीपतियों की बपौती बन गयी थी। अतः उदारवाद ने मानव कल्याण और मानव स्वतंत्रता की जो आशा बंधाई थी, उसे पूंजीवाद ने धूल में मिला दिया। मार्क्स ने पूरे मानव इतिहास का विश्लेषण करके इस समस्या को समझने और सुलझाने का प्रयत्न किया।
समाजवादी विचारधारा की जो शुरूआती दौर था, उस समय से लेकर मार्क्सवादी समाजवाद में कुछ विचार ऐसे हैं, जिस पर सभी समाजवादी एकमत हैं। इन विचारों के अनुसार समाज के कार्यों का संचालन इस ढंग से होना चाहिए कि उनसे जनसाधारण के सामान्य हितों को बढ़ावा मिले। इसके लिए प्रत्येक स्त्री-पुरुष को सुख संतोष का जीवन बिताने के लिए यथासंभव समान अवसर मिलने चाहिए। इसके साथ यह विश्वास भी जुड़ा है कि ऐसा अवसर तब तक संभव नहीं, जब तक उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व रहेगा और यह स्वामित्व मूलतः विषमतापूर्ण होगा। अतः इसकी मांग यह है कि इन साधनों का उपयोग सामूहिक नियंत्रण में रहना चाहिए, बल्कि उन पर समूहिक स्वामित्व भी स्थापित होना चाहिए और उनका संचालन तटस्थ भाव से सर्वहित को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। समाजवाद न केवल व्यापक से व्यापक अर्थ में उत्पादन के सारभूत साधनों के समाजीकरण की मांग करता है, बल्कि वह उन लोगों की निजी आय का भी अंत कर देना चाहता है, जो समाज की कोई उपयेगी सेवा नहीं करते या न कर चुके हों। समाजवाद शिक्षा के क्षेत्र में भी वरीयता और एकाधिकार जैसी, प्रथाओं को एकदम मिटा देना चाहता है, जो मनुष्यों को भिन्न-भिन्न सामाजिक वर्गों में बांटती है। परिणामतः वह ऐसा सब कुछ करना चाहता है, जो वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए आवश्यक हो। इस लक्ष्य भी सिद्धि के लिए समाजवाद के समर्थक मुख्यतः श्रमिक वर्ग का समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, क्योंकि वर्तमान समाज व्यवस्था के अंतर्गत अधिकांश दीनहीन लोग इसी वर्ग से संबंध रखते हैं। वैसे वे अन्य वर्गों का समर्थन पाने की भी कोशिश करते हैं। समाजवादी चिंतन भी मुख्य धारा में उत्पादन और वितरण के तंत्र के व्यापक राष्ट्रीयकरण की मांग करता है, ताकि उनका उपयोग सर्वहित में किया जा सके। परंतु मिश्रित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत जो आर्थिक गतिविधियां निजी स्वामित्व में रहने दी जाती हैं, उनके विनियमन की नीतियां भी सर्वहित की भावना से प्रेरित रहती है। इन नीतियों को भी समाजवादी नीतियां कहा जाता है। साम्यवाद और समाजवाद का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है किः
(i)समाजवाद और साम्यवाद में साध्य की एकता है लेकिन साधन की विभिन्नता। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न ये दोनों विचारधाराएं पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिकों की संपत्ति एवं श्रमिकों का कल्याण चाहती हैं, लेकिन समाजवाद विकासवादी और क्रांतिकारी दोनों प्रकार के हैं, जबकि साम्यवाद केवल क्रांतिकारी है। समाजवाद के लोकतंत्रीय समाजवाद और सामाजिक समाजवाद आदि अनेक सम्प्रदाय वैध, शान्तिमय और संसदीय उपायों में विश्वास करते हैं। साम्यवादियों का विश्वास है कि पूंजीवाद का अंत केवल क्रांति से ही हो सकता है।
(ii)समाजवाद में अनेक संप्रदाय जैसे राजकीय समाजवाद, राज्यसंस्था की उपयोगिता को स्वीकार करता है। वह चाहता है कि आर्थिक उत्पादन के सभी साधनों और भूमि पर राज्य का महत्व स्थापित किया जाए और राज्य के द्वारा ही कृषि और व्यवसायों का संचालन हो। इसके विपरीत साम्यवादी लोग राज्य संस्था की उपयोगिता नहीं स्वीकार करते हैं, किंतु अंततः वे अराजकतावादी है, क्योंकि वे इसे अपने साध्य की प्राप्ति के लिए साधन के रूप में अपनाते हैं। एंगेल्स के शब्दों में सर्वहारा वर्ग को राज्य को आवश्यकता स्वतंत्रता के लिए नहीं प्रयुक्त अपने विरोधियों के दमन के लिए होगी। उस समय राज्य के अस्तित्व का लोप हो जाएगा।
(iii)तीसरा महत्वपूर्ण अंतर यह है कि जहां अन्य समाजवादी सम्प्रदाय यह पर्याप्त समझते हैं कि आर्थिक उत्पादन के
साधनों पर व्यक्तियों का महत्व न रहे और उन्हें जनता के सामूहिक महत्व व नियंत्रण में ले आया जाये। सम्पत्ति के उपयोग के संबंध में सामूहिक के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते। किंतु साम्यवादियों का आदर्श यह है कि आर्थिक उत्पादन के साथ-साथ सम्पत्ति का उपयोग भी सामूहिक रूप से हो।
विलियम इवेस्टीन के अनुसार समाजवाद तथा साम्यवाद एक ही प्रकार की दो विचारधाराएं नहीं वरन् उदारवाद तथा सर्वसत्तावाद की तरह दो असंगत विचारधाराएं हैं। उदाहरणार्थ, साम्यवादी पूंजीवाद का अंत एक ही क्रांतिकारी महापरिवर्तन या नागरिक युद्ध से करना चाहते हैं जबकि समाजवादी संवैधानिक तरीके में विश्वास करते हैं। वे वैलेट से शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं और एक बार सत्ता में आने पर भी वे चाहते हैं कि वे सदियों के लिए नहीं आ गये हैं, बल्कि उनका चुनाव मतदान का विषय है।
Question : मार्क्सवाद और सर्वोदय के आदर्श के बीच समानताएं और विभिन्नताएं बताइए।
(1997)
Answer : मार्क्सवाद राजनीति का वह सिद्धांत है, जिसमें मानव समाज की समस्याओं को इतिहास के माध्यम से समझने का प्रयत्न किया जाता है और इतिहास को परस्पर विरोधी शक्तियों और वर्गों के संघर्ष की प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। यह संघर्ष उत्पादन प्रणाली की त्रुटियों के कारण पैदा होता है, जिसमें समाज प्रभुत्वशाली और पराधीन वर्गों में बंट जाता है। इन वर्गों का संघर्ष तब तक चलता रहता है, जब पूर्ण उत्पादन प्रणाली विकसित नहीं हो जाती। इसके बाद वर्ग-भेद गिर जाता है और वर्गहीन समाज में मनुष्य नये अर्थ में स्वतंत्र होकर स्वयं इतिहास का निर्माता बन जाता है। मार्क्सवाद का नाम इसके मुख्य प्रवर्तक काल मार्क्स के नाम के साथ जुड़ा हुआ है, परंतु मार्क्स के सहयोगी एंगेल्स तथा अन्य बहुत सारे विचारकों ने भी इसके विकास में महत्वपूर्ण योग दिया है। मार्क्सवाद का उदय उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हुआ जब चिरसम्मत उदारवाद अपने चरमोत्कर्ष पर था और पूंजीवाद पूरी तरह स्थापित हो चुका था। औद्योगिक उन्नति के कारण समाज में जो नई सम्पत्ति पैदा हुई थी, वह इने-गिने पूंजीपतियों की बपौती बन गई थी और मजदूर वर्ग घोर शोषण एवं दुदर्शा का शिकार हो रहा था। अतः उदारवाद ने मानव कल्याण और मानव स्वतंत्रता की जो आशा बंधाई थी, उसे पूंजीवाद ने धूल में मिला दिया था। मार्क्स ने पूरे मानव इतिहास का विश्लेषण करके इस समस्या को समझाने और सुलझाने का प्रयत्न किया और इसी से मार्क्सवाद का उदय हुआ।
सर्वोदय मूलतः एक भारतीय विचारधारा है, जिसका प्रतिपादन गांधीजी ने किया था। गांधी के पश्चात विनोबा भावे ने इसे बहुत स्पष्ट किया। विनोबा भावे के अतिरिक्त जय प्रकाश नारायण,धीरेन्द्र मजुमदार, शंकरदेव आदि ने इस विचारधारा को समय-समय पर स्पष्ट किया। मूलतः इस सिद्धांत को गांधीजी ने दिया था। सर्वोदय का अर्थ है- सभी प्रकार का एवं सभी प्रकार से उदय। यह विचारधारा समाज के हर न्याय का हर प्रकार से उदय करने की बात करती है। यह विचारधारा अपने समकालीन सिद्धांतों से मात्रत्मक, गुणात्मक एवं भावनात्मक आधारों पर व्यापक प्रतीत होती है। मात्रत्मक दृष्टि से देखें तो उपयोगितावाद अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख पर बल देती है, लोकतंत्र बहुमत के लोगों के कल्याण की बात करता है तथा मार्क्सवाद सर्वहारा वर्ग के हितों को ही मान्यता देता है। इसके विपरीत सर्वोदय सभी के उदय की बात करता है तथा अंतिम व्यक्ति को ही समाज की नैतिकता केनिर्धारण का प्रतिमान मानता है। गुणात्मक दृष्टि से देखें तो उपयोगितावाद मनुष्य के भौतिक सुखों पर ही बल देता है और मार्क्सवाद का बल मूलतः आर्थिक कल्याण पर है। इसके विपरीत सर्वोदय स्पष्टतः मानता है कि मानव का समग्र विकास के लिए भौतिक, मानसिक तथा नैतिक विकास आवश्यक है। भावनात्मक दृष्टि से भी सर्वोदय की धारणा आवश्यक है। यह दर्शन डार्विन की तरह मानवों के संघर्ष की स्वाभाविक नहीं मानता, न ही जुलियन हक्सले की तरह जिओ और जीने दो कहकर मानवों को परस्पर तटस्थ बनाता है। इसके विपरीत यह प्रत्येक मानव से क्रम की बात करता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि विचारधारा के रूप में सर्वोदय व्यापकतम अवधारणा है जो अपने पूर्व सभी अवधारणाओं व सिद्धांतों से अधिक व्यापक है।
सर्वोदय मूलतः एक प्रत्ययवादी एवं आध्यात्मिक दर्शन है। सर्वोदय के सिद्धांत में गांधीजी और विनोबा भावे पर वेदांत दर्शन का स्पष्ट प्रभाव है। वे मानते हैं कि प्रत्येक मानव में आत्मा समान रूप से निवास करती है। इसलिए सब मानव समान हैं और मनुष्यों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जा सकता। अतः समाज में आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्र में कोई विषमता या भेदभाव की स्थिति नहीं होनी चाहिए। विनोबा भावे के शब्दों में- जितना हक है जितना पानी है, जितनी रोशनी है, जितनी धरती है वह सारी की सारी सबकी है, यही व्यस्क दृष्टि है। गांधीजी के मूल विचार सत्य एवं अहिंसा को भी सर्वोदय में शामिल किया गया है। सर्वोदय का चरम लक्ष्य व्यक्ति का आत्मिक विकास है, जिसे सत्य एवं अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही प्राप्त किया जा सकता है। सर्वोदय आर्थिक रूप से ट्रस्टीशीप के सिद्धांत को सामाजिक रूप से गतिशील एवं कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था को राजनीतिक रूप से दार्शनिक अराजकतावाद को एवं धार्मिक रूप से सर्वधर्म समभाव को मानता है। सर्वोदय के आर्थिक क्षेत्र में कुछ मूलभूत विचार सम्मिलित हैं, जैसे प्रत्येक व्यक्ति को आजीविका चलाने का समान अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को काम करना चाहिए श्रमशील व्यक्ति के जीवन में ही गरिमा पैदा हो सकती है तथा बौद्धिक श्रम एवं शरीरिक श्रम में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
जहां तक सर्वोदय एवं मार्क्सवाद के बीच की बात है, दोनों में कुछ समानताएं एवं कुछ असमानताएं स्पष्ट हैं:
समानताः
असमानताः