Question : व्यक्ति न केवल एक घटक है, बल्कि वह राज्य के विकास में अंशदान करने वाला एक महत्वपूर्ण घटक है। स्पष्ट कीजिए और परीक्षा कीजिए।
(1994)
Answer : व्यक्ति और राज्य के बीच क्या संबंध होना चाहिए, यह राजनीति दर्शन का एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। एक ओर उदार व्यक्तिवादी विचारक, जिनके अनुसार राज्य में नागरिकों को अधिक से अधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, तो दूसरी ओर सर्वाधिकारवादी विचारक, जो व्यक्ति पर राज्य के पूर्ण नियंत्रण की वकालत करते हैं। राज्य एक सामाजिक संस्था है, इसलिए व्यक्ति और राज्य के बीच संबंध का प्रश्न व्यक्ति और समाज के बीच संबंध के व्यापक प्रश्न से जुड़ा है।
हीगेल, ग्रीन एवं बोसंके ने राज्य के प्रत्ययवादी सिद्धांत का समर्थन किया है। हीगेल के अुनसार राज्य मानव समाज का विकसित रूप है। राज्य और समाज में कोई अंतर नहीं है। राज्य एक अनन्य समुदाय है, जिससे बढ़कर कोई दूसरा मानव समुदाय नहीं है। राज्य का अपना एक अलग अस्तित्व है। राज्य एक सजीव आत्मा है, जिसका स्पष्टीकरण उसके अंतर्गत व्यक्तियों और छोटी-छोटी संस्थाओं में होता है। राज्य के प्रत्ययवादी सिद्धांत के अंतर्गत राज्य को व्यक्ति से अधिक महत्व दिया गया है। व्यक्ति की चेतना राज्य की चेतना की ही आंशित अभिव्यक्ति है। राज्य ही व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व का सृजन करता है और उसके अस्तित्व की गारंटी देता है। व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता राज्य द्वारा ही संभव बनायी जाती है। राज्य के अभाव में व्यक्ति के लिए स्वतंत्रताओं का उपयोग करना संभव नहीं हो पाता है।
राज्य के माध्यम से सामान्य संकल्प की अभिव्यक्ति होती है, जो समाज के सभी व्यक्तियों के संकल्प का प्रतिनिधित्व करता है और जो अलग-अलग व्यक्तियों के संकल्प से स्वतंत्र और ऊपर होता है। इस तरह व्यक्ति और राज्य के बीच संबंध के संदर्भ में प्रत्ययवादी सिद्धांत के अनुसार राज्य साध्य है और व्यक्ति साधन। राज्य के अधिकार व्यक्ति के तथाकथित अधिकारों से ऊपर है। व्यक्ति से सभी अधिकार राज्य द्वारा ही प्रदान किये जाते हैं। इसलिए, व्यक्ति के ऐसे कोई भी वास्तविक अधिकार नहीं हो सकते, जिनका राज्य के साथ संघर्ष हो क्योंकि राज्य द्वारा सामान्य संकल्प की अभिव्यक्ति होती है, जो अलग-अलग व्यक्तियों के संकल्पों से ऊपर होता है, इसलिए राज्य के नियंत्रण में ही या दूसरे शब्दों में राज्य द्वारा बनाये गए कानूनों का पालन करने में ही व्यक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता है।
हीगेल द्वारा दी गयी राज्य की प्रत्ययवादी अवधारणा एक निरंकुश राज्य की ओर ले जाती है। उसे लोकतांत्रिक दृष्टि से संतोषजनक नहीं माना जा सकता है। व्यक्तिवाद का संबंध अक्सर सामाजिक समझौता सिद्धांत से जोड़ा जाता है। हाब्स, लाक और रूसो इसके प्रमुख समर्थक हैं। इन विचारकों के विचारों में भी अंतर है। संक्षेप में, इस सिद्धांत के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में समाज और राज्य का अस्तित्व नहीं था। समाज की रचना व्यक्तियों द्वारा एक समझौते के माध्यम से अपनी सुविधा के लिए की गयी, क्योंकि समाज की रचना व्यक्तियों द्वारा अपनी सुविधा के लिए की गई है। इसलिए नैतिक दृष्टि से व्यक्ति साध्य है और समाज साधन। राज्य सहित सभी सामाजिक संस्थाओें का अस्तित्व व्यक्ति के हित साधन के लिए है। व्यक्तिवाद के अनुसार समाज के व्यक्तियों के हित से स्वतंत्र सामाजिक हित का कोई अस्तित्व नहीं है। व्यक्ति स्वयं अपने हित का सर्वोत्तम निर्णायक है, इसलिए समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अधिक से अधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। व्यक्ति की स्वतंत्रता और विकास ही सामाजिक विकास का मापदंड है।
वह सही है कि हाब्स, लाक और रूसो जैसे व्यक्तिवादी विचारकों ने अपने व्यक्तिवाद का समर्थन करने के लिए सामाजिक समझौता सिद्धांत का सहारा लिया है। लेकिन सामाजिक समझौता सिद्धांत और व्यक्तिवाद के बीच कोई अनिवार्य तार्किक या ऐतिहासिक संबंध नहीं है। व्यक्तिवाद का समर्थन स्वतंत्र रूप से भी किया जाता है। पश्चिम में जान स्टुअर्ट मिल और भारत में मानवेंद्र नाथ राय जैसे समर्थकों ने व्यक्तिवाद का समर्थन किया, लेकिन इन्होंने इसके लिए सामाजिक समझौता सिद्धांत की सहायता नहीं ली है।
जान स्टुअर्ट मिल उपयोगितावादी दार्शनिक हैं। मिल यह स्वीकार करते हैं कि समाज एक प्राकृतिक वस्तु है और राज्य में रहकर ही व्यक्ति उस सुख का पूरी तरह अनुभव कर सकता है जिसकी क्षमता मानव विभाग में है। लेकिन मिल के अनुसार, इस स्वीकारोक्ति का यह अर्थ नहीं है कि राज्य का अस्तित्व व्यक्ति के सुख के लिए नहीं है। मिल के अनुसार राज्य का उद्देश्य है, व्यक्ति के सुख में वृद्धि करना। यही उसके अस्तित्व का औचित्य है। मिल के विचार में राज्य व्यक्तियों के सुखों में वृद्धि करता है, अगर वह उनके निजी मामलों में कम से कम हस्तक्षेप करे। मिल ने अपनी पुस्तक 'On Liberty' में विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जबरदस्त समर्थन किया है। मिल के अनुसार आचरण की स्वतंत्रता मानव सुख और व्यक्ति एवं समाज के विकास का मुख्य तत्व है। मिल की राय में ऐसे मामलों में जहां व्यक्ति के आचरण का प्रभाव समुदाय पर नहीं पड़ा हो, व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। जबकि ऐसे मामलों में जहां व्यक्ति के आचरण का प्रभाव समुदाय पर पड़ता हो, वहां अगर व्यक्ति का आचरण समुदाय के कल्याण के विरुद्ध हो, तो समुदाय को व्यक्ति के आचरण को नियंत्रित करने का अधिकार है। मिल के अनुसार सिर्फ दूसरों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए ही किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगानी चाहिए।
इसी तरह मानवेंद्र नाथ राय के अनुसार राज्य समाज का राजनीतिक संगठन है। राय के विचार में समाज के मूल में है-व्यक्ति। यह सही है कि सहयोगात्मक सामाजिक संबंधों से व्यक्ति की क्षमताओं के विकास में सहायता मिलती है, लेकिन सामाजिक प्रगति का पैमाना व्यक्ति का विकास है। किसी समूह के अस्तित्व के लिए व्यक्ति का अस्तित्व आवश्यक है। व्यक्ति से स्वतंत्र खंड या वर्ग में सामूहिक अहं के अस्तित्व को मान लेना मूल है। व्यक्ति को प्राप्त स्वतंत्रता एवं सुख से अलग सामाजिक विकास एक काल्पनिक आदर्श है। सामाजिक कल्याण व्यक्ति के कल्याण द्वारा ही संभव है। किसी भी सामूहिक प्रयास या या सामाजिक संगठन की सफलता का मापदंड उससे समूह की इकाई व्यक्ति को मिलने वाले वास्तविक लाभ हैं। राय के अनुसार सामाजिक राजनीतिक दर्शन की शुरूआत इस बुनियादी विचार से होनी चाहिए कि व्यक्ति समाज से पहले और व्यक्ति स्वतंत्रता का अनुभव कर सकता है।
इस तरह व्यक्ति और राज्य के बीच संबंधों के बारे में दो परस्पर विरोधी सिद्धांत हैं। व्यक्तिवाद के अनुसार व्यक्ति साध्य है और समाज एवं राज्य साधन, जबकि राज्य के प्रत्ययवादी सिद्धांत के अनुसार समाज या राज्य साध्य है और व्यक्ति साधन। इसी तरह व्यक्तिवादी सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति को समाज और राज्य से अधिक से अधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, जबकि प्रत्ययवादी सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति को राज्य के नियंत्रण में रहना चाहिए।
इन दो परस्पर विरोधी सिद्धांतों में कौन-सा सिद्धांत संतोषजनक है, यह निर्धारित करने के लिए समाज और राज्य का अर्थ स्पष्ट करना जरूरी है, विशेषकर समाज का। राज्य एक सामाजिक संस्था है, जिसके चार तत्व हैं-(1) आबादी (2) क्षेत्र (3) सरकार (4) संप्रभुता। समाज का क्षेत्र में राज्य से व्यापक है। मैकाईवर एवं पेज के अनुसार समाज सामाजिक संबंधों का एक ऐसा ताना बाना है जो निरंतर परिवर्तनशील रहता है। सामाजिक संबंध ऐसे संबंध को कहते हैं, जिनमें एक दूसरे के अस्तित्व की चेतना रहती है और ये संबंध विभिन्न व्यक्तियों के बीच होते हैं। समाज की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि समाज कोई ठोस वस्तु नहीं है, बल्कि एक अमूर्त धारणा है। समाज की इकाई है व्यक्ति। समाज के व्यक्तियों से अलग और स्वतंत्र समाज का कोई अस्तित्व नहीं होता है। व्यक्ति ही मस्तिष्क और चेतना से संपन्न होता है और व्यक्ति ही सुख दुःख का अनुभव कर सकता है।
थोड़ी देर के लिए अगर यह मान भी लिया जाए कि सामाजिक हित साध्य है और व्यक्ति साधन, तो फिर यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि सामाजिक हित क्या है? समाज के ऊपर दिए गए विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि व्यक्ति के हित से स्वतंत्र सामाजिक हित की कल्पना नहीं की जा सकती है। समाज के अलग-अलग व्यक्तियों के हितों को मिलाकर ही सामाजिक हित बनता है। व्यक्ति का हित क्या है? यह निर्धारित किए बिना हम यह तय नहीं कर सकते हैं कि सामाजिक हित क्या है? इस तरह नैतिक दृष्टि से व्यक्ति समाज और राज्य से पहले आता है। उदाहरण के लिए जब हम एक सुखी समाज बनाने की बात करते हैं, तो उसका एक ऐसे समाज के सिवा और क्या अर्थ हो सकता है, जिसमें सभी या अधिकांश व्यक्ति सुखी हो? क्या जिस समाज में सभी व्यक्ति सुखी हो वह समाज सुखी हो सकता है? सुख और दुख का अनुभव व्यक्ति ही कर सकता है, समाज नहीं और व्यक्ति तभी सुखी हो सकता है, जब उसे अपने सुख की तलाश की अधिकतम स्वतंत्रता हो। काल्पनिक सामाजिक शुभ के नाम पर व्यक्ति के सुख और स्वतंत्रता का हनन एक बहुत भारी भूल है। इस तरह नैतिक दृष्टि से व्यक्तिवाद ही एक संतोषजनक सिद्धांत है।
Question : राज्य सत्ता के आधिपत्य को स्वीकार करना उस कर्त्तव्य से असंगत है जिसके अनुसार स्वतंत्रता का अनुकरण करना मनुष्य जाति का परम कर्त्तव्य है।
(2007)
Answer : स्वतंत्रता शब्द का अर्थ बहुत व्यापक स्तर पर लिया जाता है। स्वतंत्रता का सारभूत अर्थ यह है कि विवेकशील कर्ता को जो कुछ सर्वोत्तम प्रतीत हो, वही कुछ करने में वह समर्थ हो और उसके कार्य कलाप बाहर के किसी प्रतिबंध से न बंधे हों। स्वतंत्रता का औपचारिक अर्थ प्रतिबंधों का अभाव है। परंतु कानून और प्रभुसत्ता हमारी गतिविधियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाता है। क्या इस तरह की प्रभुसत्ता और उसका कानून हमारी स्वतंत्रता के सीमित कर देता है, या यह उसे अधिक सार्थक बनाने का साधन है। यह एक जटिल विषय है। लोकतंत्रीय और कल्याणकारी राज्यसत्ता के अंतर्गत कानून का ध्येय स्वतंत्रता की रक्षा करना और उसे बढ़ावा देना है। स्वतंत्रता सामाजिक जीवन की सीमाओं से बंधी होती है। किसी व्यक्ति को उसी सीमा तक स्वतंत्रता प्रदान की जा सकती है, जहां तक वह दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक न हो। जहां एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए खतरा पैदा कर सकती है, वहां उस पर प्रतिबंध लगाना जरूरी हो जाता है। ऐसा प्रतिबंध राजसत्ता के द्वारा ही लगाया जाता है। प्रकटतः राज्यसत्ता हमारी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाता है। इसके अधीन में ऐसे कार्य करने पड़ते हैं, जिन्हें हम अन्यथा नहीं करना चाहेंगे और ऐसे कार्यों से दूर रहना पड़ता है, जिन्हें हम अन्यथा करना चाहेंगें। परंतु राज्यसत्ता हमारी स्वतंत्रता पर जो प्रतिबंध लगाता है, उसके दो उद्देश्य हो सकते हैं- एक उद्देश्य दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा करना या कभी-कभी हमारी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना हो सकता है क्योंकि कानून जिस तरह के व्यवहार पर रोक लगाता है वह इस स्वतंत्रता में बाधक हो सकता है।
उदाहरण के लिए, कानून हमें मिलावट करने से रोकता है या चौराहा पर लाल बत्ती जल जाने पर कानून हमें आगे बढ़ने से रोकता है ताकि हम दूसरों की स्वतंत्रता में रूकावट न डाल सकें। इसी तरह कानून हमें नशा करने से रोकता है क्योंकि यह आदत आगे चलकर हमारी अपनी स्वतंत्रता के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है। राज्यसत्ता के प्रतिबंधों का दूसरा उद्देश्य सामाजिक मूल्यों या आदर्शों की रक्षा करना हो सकता है, जैसे कि कानून समानता या न्याय की रक्षा के लिए हमारी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकता है। उदाहरण के लिए कानून हमें पंक्ति तोड़ने के लिए रोकता है ताकि दूसरों के लिए समान अधिकार की रक्षा की जा सके। कानून हमें कर देने के लिए विवश करता है ताकि सामाजिक न्याय की सिद्धि की जा सके। कानून हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कहां तक रोक लगा सकता है या कानून के कौन-कौन से प्रतिबंध स्वतंत्रता के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं माने जा सकते, यह एक जटिल विषय है।
मुख्य रूप से ऐसे चार क्षेत्र देखे जा सकते हैं, जिसमें राज्यसत्ता का प्रतिबंध तर्कसंगत माने जा सकते हैं। व्यक्ति के जो कार्य समाज की स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरा समझे जाते हैं, उन्हें कानून के अंतर्गत अपराध घोषित कर के दंड की व्यवस्था की जाती है। उदाहरण के लिए हत्या या चोरी करना अपराध है और राज्यसत्ता इस पर कानून बनाकर रोक लगाती है। पुनः व्यक्तियों या निगमित समूहों के बीच पैदा होने वाली विवादों के बारे में भी कानून के अंतर्गत व्यवस्था की जाती है। व्यक्ति के जिन कार्यों से पूरे समाज को खतरा तो उन्हें तो अपराध माना जाता है, परंतु उनके जिन कार्यों से व्यक्ति विशेष या निगमित समूह को हानि पहुंचे, उसे भी कानून के अंदर निपटाया जाता है। पुनः आधुनिक राज्य व्यक्ति और समाज की बहुत सारी आर्थिक गतिविधियों को नियमित करता है और इसलिए व्यक्तियों या समूहों को अनेक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाए जाते हैं। राज्य का कानून सब तरह के मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी की दरें निश्चित करना है और निर्दिष्ट क्षेत्रों में मूल्य सूचकांक के अनुसार महंगाई भत्ते में संशोधन की व्यवस्था करता है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के साथ राज्य की भूमिका के अंतर्गत व्यक्ति की स्वतंत्रता अब सही मायने में मूर्त रूप लेने लगी है। संपन्न वर्गों पर कर लगाकर निर्धन वर्गों के लिए या संपूर्ण समाज के लिए उपयोगी सेवाओं की व्यवस्था की जाती है। उदाहरण के लिए उन करों से स्कूल, अस्पताल आदि बनवाए जाते हैं ताकि निर्धन वर्गों को निःशुल्क या बहुत मामूली शुल्क पर शिक्षा और चिकित्सा उपलबध कराई जा सके। इस तरह व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता के अवलम्बन में तथा राज्यसत्ता के आधिपत्य को स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है।
Question : राज्य मूर्त स्वतंत्रता की वास्तविकता है।
(2005)
Answer : राज्य ऐसे समाज का द्योतक है जो एक निश्चित क्षेत्र में बसा हुआ है और राजनीतिक दृष्टि से संगठित हो, अर्थात जिसमें मूल्यों का अधिकारिक आवंटन करने वाली सत्ता विकसित कर ली गई हो। दूसरे अर्थ में, राज्य समाज की उस संस्था या सत्ता का द्योतक है, जो मूल्यों का अधिकारिक आवंटन करती है और व्यक्तियों तथा समूहों की मांगों और मतभेदों का समाधान करती है। जब हम व्यक्ति और राज्य के संबंध की बात करते हैं, तब हम राज्य शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में कर रहे होते हैं। जब हम राज्य के ध्येय या परम साध्य की समस्या पर विचार करते हैं, तब राज्य का यही रूप हमारे सामने होता है। राज्य के संबंध में भिन्न-भिन्न धारणाएं-जैसे कि राज्य का जैव या आंगिक सिद्धांत, राज्य का क्षेत्रीय सिद्धांत तथा राज्य का वर्ग सिद्धांत राज्य के इसी रूप से संबंध रखते हैं। इसी तरह जब हम आदर्शवादी, उदारवादी या मार्क्सवादी धारणा के अनुसार राज्य की उत्पत्ति, प्रकृति या कार्यों पर विचार करते हैं तब भी हमारा सरोकार राज्य की इसी रूप से होता है। इसी दृष्टि से राज्य की स्थिति समाज में अन्य सभी साहचर्यों और संगठनों के ऊंची मानी जाती है। उसे विधि सम्मत बल प्रयोग का सर्वोपरि अधिकार प्राप्त होता है। राज्य के लिए स्वतंत्रता का अर्थ है- राज्य की ऐसी शक्ति जिससे बल पर वह अपने भू-भाग में अपनी आज्ञाओं और कानूनों का पालन करा सके और बाहर के राज्यों साथ एक इकाई के रूप में किसी तथ्य का लेन-देन, मैत्री या लड़ाई कर सके। राज्य अपनी स्वतंत्रता के कारण ही विधि सभा बल प्रयोग का अधिकार रखता है। अन्य साहचर्य रीति रिवाज या आवश्यकता पर आधारित होते हैं और उनकी सदस्यता स्वैच्छिक हो सकती है। परंतु राज्य की सदस्यता अनिवार्य होती है और राज्य की आज्ञाओं का उल्लंघन करने वाला दंड का भागी होता है। कोई राज्य प्रभुसत्ता के कारण न केवल अपने अधिकार क्षेत्र से सर्वोच्च शक्ति का प्रयोग करता है बल्कि अन्य राज्यों के साथ अपने संबंधों के मामले में भी वह अंतिम सत्ता का दावा करता है। राज्य अंतरराष्ट्रीय समझौतों या परिपाटियों का पालन अपनी इच्छा से करता है, किसी विधि सत्ता से बाध्य होकर नहीं करता। अतः प्रभुसत्ता राज्य का अनिवार्य लक्षण है, जो अन्य साहचर्यों से उसकी अलग-पहचान बनाता है। कोई राज्य तभी तक अपना अस्तित्व कायम रख सकता है, जब तक वह प्रभुसत्ता से संपन्न रहता है। यदि आंतरिक विद्रोह या बाह्य आक्रमण के कारण राज्य अपनी प्रभुसत्ता खो देता है तो उसका परिणाम अराजकता के रूप में सामने आता है और ऐसे में राज्य लुप्त हो जाता है। कुछ लेखक अंतरराष्ट्रीय मान्यता को राज्य का आवश्यक तत्व मानते हैं। इसका अर्थ यह है कि अन्य राज्य उसके भू-भाग और जनसंख्या पर उसकी प्रभुसत्ता की औपचारिक रूप से स्वीकार कर लें। परंतु यह बात महत्वपूर्ण है कि अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रभुसत्ता का परिणाम होती है, उसके अस्तित्व की शर्त नहीं होती। जब कोई नया राज्य अस्तित्व में आता है, विश्व के कुछ राज्य उसे तुरंत मान्यता देते हैं और कुछ उसे मान्यता देने में बहुत देर कर देते हैं। परंतु इस आधार पर उस राज्य के अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता। इस प्रकार राज्य की स्थिति और अन्य राज्यों के साथ उसके संबंधों से राज्य की स्वतंत्रता अष्टरूपी एवं बाह्य दोनों स्तरों पर प्रकट होती है। िनर्णय लेने में वह किस हद तक स्वतंत्र है अथवा उस पर ऐसी बाध्यता है जो उसकी संप्रभुता को खंडित करती है यह बताता है कि राज्य स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का मूर्त रूप है या नहीं।
Question : राज्य और व्यक्ति की मांगें क्या वास्तव में टकराती हैं? विवेचन करें।
(2000)
Answer : राजनीतिक दर्शन में जिस प्रश्न पर सबसे अधिक विवाद है, वह प्रश्न व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक संबंधों का है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि व्यक्ति का अस्तित्व समाज और राज्य पर आधारित है, अतः राज्य साध्य और व्यक्ति साधन है। कुछ विचारका का दृष्टिकोण यह है कि राज्य साध्य तो नहीं है, किंतु इतना महत्वपूर्ण अवश्य है कि उसकी तुलना एक व्यक्ति के महत्व से नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त कुछ दार्शनिकों की यह भी मान्यता है कि व्यक्ति के चिंतन और निश्चय से राज्य की उत्पत्ति होती है और इस रूप में व्यक्ति साध्य और राज्य साधन है। इन विभिन्न दृष्टिकोण की समीक्षा के माध्यम से संतुलित निर्णय तक पहुंचा जा सकता है।
कुछ दार्शनिकों ने राज्यों को साध्य तथा नैतिक संस्था के रूप में पारिभाषित किया है। ऐसे दार्शनिकों में एक महत्वपूर्ण पक्ष उनका है, जो दर्शन के इतिहास के प्रारंभिक काल में दार्शनिक रहे हैं। इसके पीछे मूल कारण यह है कि व्यक्ति और राज्य संबंधों के विचारों का इतिहास जिस बिंदु से शुरू होता है, वह समय व्यक्ति के जीवन की असुरक्षाओं का समय था। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से व्यक्ति अपने अस्तित्व मात्र के लिए समाज की सामूहिकता अथवा राज्य पर निर्भर था। इस प्रकार आरंभिक सिद्धांतों में प्रायः राज्य को साध्य मानने की आवश्यकता दिखाई पड़ती है। इस सिद्धांतों में व्यक्ति और राज्य के संबंध की व्याख्या शरीर सिद्धांत या सावयवी सिद्धांत के माध्यम से की गयी है। जिसके अनुसार व्यक्ति राज्य का वैसे ही हिस्सा है जैसे अंग शरीर का। जिस प्रकार शरीर के अंग शरीर से अलग होकर अस्तित्व में नहीं रह सकते तथा शरीर से स्वतंत्र उनका वैयक्तिक हित नहीं हो सकता, उसी प्रकार व्यक्ति का राज्य के अभाव में न तो अस्तित्व संभव है और न ही उसका कोई व्यक्तिगत हित हो सकता है। हम सिद्धांत को मानने वाले दार्शनिकों में प्लेटो, अरस्तु, मनु, कौटिल्य जैसे प्राचीन दार्शनिक तो है ही, कुछ आधुनिक विचारक जैसे रूसो तथा हीगेल भी शामिल हैं।
व्यक्ति और राज्य की दूसरी व्याख्या प्रायः उपयोगितावादी और तर्कवादी दार्शनिकों ने की है। ये चिंतन भी राज्य और व्यक्ति में से राज्य को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। किंतु इसका कारण प्रत्यक्षवादी ढांचे में निहित न होकर उपयोगिता या तार्किकता के ढांचे में अवस्थित है। इनकी मान्यता है कि राज्य साध्य नहीं है, साधन है, किंतु इसके बावजूद व्यक्ति के वैयक्तिक और सामूहिक अस्तित्व के लिए इतना आवश्यक है कि व्यक्ति के संकल्प स्वतंत्र्य से ज्यादा मात्र में निर्णय क्षमता से युक्त हो जाता है। ऐसे विचारकों में उपयोगितावादी और तर्कवादी दार्शनिकों के अतिरिक्त समाजवादी फासीवादी और नाजीवादी चिंतक भी शामिल हैं।
व्यक्ति और राज्य के संबंधों का तीसरा स्तर वह है जहां आधुनिक समाजों में व्यक्ति का महत्व बढ़ा तथा मानववादी दर्शन के आलोक में प्रत्येक व्यक्ति को साध्य मानने की मानसिकता निर्मित हुई। इस समय कई दार्शनिकों ने अलग-अलग चिंतन दृष्टियों के आधार पर यह व्यक्त किया कि व्यक्ति और राज्य में व्यक्ति साध्य है तथा राज्य साधन। इस दृष्टि से व्यक्तिवादी बहुलवादी तथा अराजकतावादी दार्शनिकों ने व्यक्त किया। व्यक्तिवादियों की स्पष्ट मान्यता है कि सारी सार्थकता का केंद्र व्यक्ति ही हो सकता है, इसलिए समाज और राज्य का महत्व वहीं तक है जहां तक वे व्यक्ति को गरिमापूर्ण जीवन को उपलब्ध कराने में सहायक हैं। बहुलवादी चिंतन जिसका विकास उत्तर दार्शनिक दर्शन में तेजी से हुआ है, यह मान्यता है कि किसी भी संदर्भ की व्याख्या एक अस्थायी दृष्टि से नहीं की जा सकती। व्यक्ति का संबंध न केवल राज्य से है, बल्कि अर्थव्यवस्था समाज धर्म संस्कृति आदि कई पक्षों से है और ऐसी स्थिति में राज्य कैसे साध्य हो सकता है? वास्तविकता तो यह है कि वर्तमान बहुलवादी विश्व में कोई भी एक ईकाई साध्य होने का दावा नहीं कर सकती, क्योंकि अलग-अलग इकाइयों में अलग-अलग मात्रएं सार्थकता विद्यमान हैं। अराजकतावादी दार्शनिक व्यक्ति को साध्य ही नहीं मानते, बल्कि व्यक्ति के स्वतंत्र विकास में लिए राज्य के अस्तित्व की समाप्ति भी चाहते हैं। उनकी मान्यता है कि व्यक्ति के विकास के लिए स्वतंत्रता चाहिए जबकि राज्य का अस्तित्व किसी न किसी मात्र में इसे परतंत्र बनाता है।
व्यक्ति को महत्व देने वाले ये सभी दार्शनिक व्यक्ति और राज्य के संबंधों की प्रणाली को यांत्रिक सिद्धांत के माध्यम से व्यक्त करते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति राज्य का वैसे ही अंग है, जैसे मशीन का हिस्सा मशीन का होता है। जिस प्रकार मशीन का हिस्सा किसी दूसरी मशीन में भी लग सकता है तथा खराब होने पर बदला भी जा सकता है उसी प्रकार समाज के बिना उसके अंग का भी अस्तित्व बना सकता है। जिस प्रकार सावयवी सिद्धांत समूह की तुलना में इकाई को गौण मानता है, उसके विपरीत यांत्रिक सिद्धांत समूह की इकाई के स्वतंत्र अस्तित्व पर अधिक बल देता है।
19वीं शताब्दी में कुछ राजनीतिक दार्शनिकों ने राज्य की व्याख्या वर्गीय शोषण के रूप में की। ऐसे विचारक प्रायः मार्क्सवादी आदर्शों से प्रेरित हैं। इनकी मान्यता है कि कोई भी राज्य वस्तुतः शोषक वर्ग की शोषण व्यवस्था को बनाए रखने का माध्यम है तथा राज्य शोषक वर्ग की प्रतिनिधि है। उदाहरण के लिए, पूंजीवादी समाज में पूंजी उत्पादन का प्रमुख माध्यम है तथा कुछ व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित है। राज्य संघ के मूल अधिकारी भी गारंटी देकर इस शोषणपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण व्यवस्था में बनाए रखने का माध्यम बन जाता है। ये विचारक इसलिए राज्य को समाप्त भी करना चाहते हैं। उनमें से कुछ दार्शनिक जैसे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन आदि खुली क्रांति के बाद सर्वहारा के राज्य की संक्रमणकालीन अवस्था को स्वीकार करते हैं, जबकि कुछ अन्य दार्शनिक जैसे बाकुनिन, क्रोपटकिन आदि खूनी क्रांति के कुछ बाद राज्य की समाप्ति चाहते हैं।
व्यक्ति और राज्य के संबंधों के इतिहास में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लोककल्याणकारी राज्य की धारणा के विकास से हुआ। इस धारणा के अंतर्गत समाजवाद के आदर्श, समानता तथा लोकतंत्र के आदर्श स्वतंत्रता का सुंदर मेल और समन्वय करने का प्रयास किया गया, जिससे व्यक्ति और समाज के बीच दिखाई देने वाले गतिरोध कमजोर होने लगे तथा समन्वयी संभावनाएं स्पष्टतः नजर आने लगीं। यह परंपरा लोकतांत्रिक समाजवाद या समाजवादी लोकतंत्र कहलायी। ऐसा नहीं है कि व्यक्ति और राज्य के समन्वय का प्रयास इससे पहले न हुआ हो। वस्तुतः इस समन्वय के मूलभूत प्रयास बेंथम, मिल, लास्की के दर्शन में भी दिखाई देते हैं। कुल मिलाकार यह धारणा स्वीकार करती है कि यद्यपि राज्य व्यक्ति की निर्बाध स्वतंत्रताओं में रूकावट पैदा करता है तथापि राज्य ही वह स्थितियां पैदा करता है, जिनमें व्यक्ति के जीवन की गरिमा सुनिश्चित हो सकती है।
समग्र विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि राज्य व्यक्ति के अस्तित्व की शर्त भी है और व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा भी। स्वतंत्रता, सार्थकता और प्रामाणिका के प्रश्न अस्तित्व के बाद उठने वाले प्रश्न हैं और अस्तित्व राज्य पर ही आधारित है। यह भी महत्वपूर्ण है कि समकालीन लोककल्याणकारी राज्य व्यक्ति का स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हैं तथा उसके जीवन को सार्थक बनाने के लिए यथासंभव प्रयास करते हैं। इसमें अतिरिक्त बहुलवादी दृष्टि से यह भी सही प्रतीत होता है कि राज्य व्यक्ति के जीवन की संपूर्ण परिधि नहीं है, बल्कि उसका मात्र एक पक्ष है। इन सब बातों का निचोड़ यह है कि व्यक्ति के अस्तित्व के बने रहने के लिए राज्य एक अनिवार्य शर्त है किंतु व्यक्ति के समक्ष व्यक्तित्व की उपलब्धि के लिए यह भी आवश्यक है कि राज्य कम से कम करे और जितना करे, लोकतांत्रिक आदर्शों तथा कल्याण की भावना से प्रेरित होकर करे।