Question : ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा एवं प्रकृतिवादी अवधारणा के बीच भेद।
(2006)
Answer : ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा ईश्वर के स्वरूप के संबंध में स्थूल स्थिति है और ईश्वर के अस्तित्व के प्रारंभिक चरण को इंगित करती है, वहीं ईश्वर की निर्वैयक्ति अवधारणा ईश्वर स्वरूप के निर्माण के तृतीय चरण या परिष्कृत चरण को इंगित करती है। प्रकृतिवादी धारणा के अनुसार ईश्वर की कल्पना प्राकृतिक शक्तियों के रूप में की गयी है। इसमें प्रकृति एवं उसके अवयवों को शक्तिसंपन्न माना जाता है और उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति, अराधना, प्रेम आदि अभिव्यक्त किया जाता है। ईश्वर के अवैयक्तिक स्वरूप का तात्पर्य है कि ईश्वर निर्गुण, निराकार और निर्वैयक्ति सत्ता है, जिसमें इच्छा, संकल्प, कल्पना, प्रयोजन, स्मृति आदि का पूर्णतः अभाव है। यहां निर्गुण का तात्पर्य गुणरहितता से नहीं, अपितु गुणातीत सत्ता से है।
ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा के साक्ष्य अतीत की लगभग सभी प्राचीन संस्कृतियों यथा, वैदिक संस्कृति, मेसोपोटामिया संस्कृति तथा आदिम जनजातीय संस्कृति में मिलता है, वहीं ईश्वर की निर्वैयक्ति अवधारणा प्राच्य एवं पाश्चात्य दार्शनिकों तथा प्रत्ययवादियों के चिंतन का परिणाम है। वैसे पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा के दर्शन में भी ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा के विचार दिखाई पड़ते हैं। ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा के मूल में प्राकृतिक घटनाओं को न समझ पाने के कारण उत्पन्न भय, श्रद्धा या कृतज्ञता ज्ञापन रहा है। ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा में दार्शनिक चिंतन की पराकाष्ठा है, जो ज्ञान मार्ग के मानने वालों के लिए अधिक उपादेय है। ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा विशेष रूप से भक्तिमार्ग के अनुयायियों के लिए कठिनाई उत्पन्न करता है क्योंकि यहां भक्त और भगवान का भेद समाप्त हो जाता है। यह अवधारणा धार्मिक भावना की जीवन्तता एवं क्रियाशीलता में बाधक है। ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा प्राकृतिक घटनाओं की भ्रामक व्याख्या करता है और यह हमारी वैाज्ञानिक प्रगति के विरोध में है। यह आस्था एवं विश्वास पर आधारित है एवं इसमें तार्किकता नहीं है। निर्वैयक्तिक अवधारणा तार्किकता पर आधारित है, लेकिन इसकी तार्किकता में कई दोष हैं। स्पिनोजा के निर्वैयक्तिक सर्वेश्वरवाद में परमसत्ता विश्व में पूर्णतः व्याप्त होती है। फलतः विश्व की घटनाओं एवं मानवीय क्रियाकलापों के लिए उत्तरदायी भी हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप नैतिकता की व्याख्या नहीं हो पाती। नैतिकता की व्याख्या के लिए अच्छे और बुरे मानक होना आवश्यक है और यह तभी संभव है जब व्यक्ति में संकल्प स्वातंत्रय हो। परंतु प्रकृतिवादी अवधारणा भी अज्ञेयवाद एवं भाग्यवाद को बढ़ावा देता है। यद्यपि यह अवधारणा अतार्किक एवं अविकसित है, किंतु फिर भी उसका महत्व है। यह प्रकृति प्रेम को बढ़ावा देता है। वर्तमान में जो पर्यावरण संबंधी संकट उत्पन्न होता है, उसके समाधान के लिए प्रकृति प्रेम एवं प्रकृतिवादी ईश्वर की अवधारणा के प्रति पुनः विशस जागृत किया जाना महत्वपूर्ण एवं उपयोगी हो सकता है। चूंकि यह अवधारणा बहुदेववादी है, इसलिए इसमें ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं हो सकता है।
Question : परम्परागत रूप में ईश्वर का एक गुण उसका सर्वशक्तिमान होना माना जाता है। परंतु कुछ आलोचकों के अनुसार सर्वशक्तिमान ईश्वर की अवधारणा विरोधाभासी है। प्रत्युत्तर में कुछ ईश्वरवादियों ने कथित विरोधाभास के समाधान का प्रयास किया है। विरोधाभास को वर्णित कीजिए एवं इसके समाधान के लिए किए गए प्रयासों का विवेचन कीजिए।
(2006)
Answer : ईश्वरवादियों के अनुसार ईश्वर शरीररहित, अभौतिक तथा विशुद्ध चैतन्य सत्ता है, जो अनादि अनंत, शाश्वत एवं स्वयंभू है और जो समस्त ब्रह्मांड के अस्तित्व का आदिकरण है। ईश्वर में तत्वमीमांसीय एवं नैतिक गुण असीमित मात्रा में अनिवार्य रूप से विद्यमान हैं। इस प्रकार आदिकाल से ही ईश्वरवादियों के उपास्य देवता को अत्यधिक शक्तिशाली माना जाता रहा है। कालांतर में बहुदेववाद के स्थान पर एकेश्वरवाद का विकास हुआ, तो मनुष्य एक ही ईश्वर को सर्वशक्तिमान समझने लगा। जो ईश्वरवादी एक ही ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते हैं वे उसे अनिवार्यतः सर्वशक्तिमान भी मानते हैं। ईश्वर को सर्वशक्मिान कहने का अर्थ है कि उसमें असीम शक्ति है और इसी कारण संपूर्ण ब्रह्मांड पर उसका पूर्ण नियंत्रण है। ईश्वर अपनी इच्छानुसार सब कुछ कर सकता है। ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे करना उसके लिए असंभव हो। वही प्रकृति को समस्त नियमों का विधायक है, अतः वह अपनी इच्छानुसार इन नियमों का उल्लंघन भी कर सकता है। इस प्रकार अपनी असीम शक्ति के कारण ईश्वर के लिए सब कुछ करना संभव है। ईश्वर के संबंध में अपनी इसी मान्यता के कारण भक्त उसकी पूजा या उपासना करता है और अपने आपको उस पर पूर्णतः निर्भर मानता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि जो कार्य वह स्वयं नहीं कर सकता, ईश्वर सर्वशक्तिमान होने के कारण वह कार्य उसके लिए अवश्य कर सकता है। ईश्वरोपासकों के जीवन में प्रार्थना की जो महत्वपूर्ण भूमिका है उसका आधार ईश्वर की सर्वशक्तिमतता से संबंधित उनका यही विश्वास है।
इस विश्वास के अभाव में ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता मानकर उसकी उपासना करना और उसके प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण करना उनके लिए संभव नहीं होगा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ईश्वर के भक्तों के लिए उसे सर्वशक्तिमान मानना अपरिहार्य है, इसी कारण सर्वशक्तिमतता को ईश्वर का बहुत महत्वपूर्ण तथा अनिवार्य गुण माना जाता है।
परंतु ईश्वर की इस सर्वशक्तिमतता के संबंध में अनेक गंभीर दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं, जिन पर विचार किया जा सकता है। यदि ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने का अर्थ यह है कि उसके लिए कुछ भी करना असंभव नहीं है, तो हमारे समक्ष अनेक जटिल प्रश्न उपस्थित हो जाते हैं, जिनका कोई संतोषप्रद या युक्तिसंगत उत्तर देना संभव प्रतीत नहीं होता। इनमें से कुछ प्रश्न निम्नलिखित हैं- क्या ईश्वर आत्महत्या कर सकता है? क्या वह झूठ को सत्य बना सकता है? क्या वह पाप कर सकता है?
क्या वह इतना भारी पत्थर बना सकता है जिसे वह स्वयं न उठा सके? इस प्रकार के प्रश्नों को दार्शनिकों ने सर्वशक्तिमतता का विरोधाभास कहा है। इनका तर्कसंगत समाधान देना संभव नहीं है। उदाहरणार्थ यदि ईश्वर आत्महत्या कर सकता है तो वह नित्य शाश्वत नहीं रह जाता, जैसा कि ईश्वरवादी दर्शनिक उसे मानते हैं। यदि वह आत्महत्या नहीं कर सकता तो उसे सर्वशक्तिमान नहीं माना जा सकता, क्योंकि कोई कार्य (आत्महत्या) ऐसा है जो उसके लिए असंभव है। अनेक ईश्वरवादियों के अनुसार ईश्वर ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता जो तार्किक दृष्टि से असंभव है। यदि यह माना जाए कि ईश्वर पाप कर सकता है तो उसकी नैतिक पूर्णता खंडित हो जाती है, किंतु यदि कहा जाए कि वह पाप नहीं कर सकता तो उसी सर्वशक्तिमतता का अंत हो जाता है। ऊपर के चार विरोधाभासों में से अंतिम विरोधाभास के संबंध में हमारे समक्ष जो कठिनाई उपस्थित होती है, वह विशुद्ध रूप से तार्किक है। यदि विरोधाभास के दोनों ही विकल्प ईश्वर की सर्वशक्मितता का खंड करते हैं। यदि ईश्वर इतना भारी पत्थर बना सकता है जिसे वह स्वयं नहीं उठा सकता तो उसे सर्वशकि्तमान नहीं माना जा सकता और यदि वह ऐसा पत्थर नहीं बना सकता तो भी उसे सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार उपर्युक्त अंतिम प्रश्न के ये दोनों ही उत्तर ईश्वर की सर्वशक्तिमतता के विरुद्ध हैं। कुछ ईश्वरवादी ने ईश्वर की सर्वशक्तिमतता से संबंधित इन सभी विरोधाभासों के अनेक समाधान प्रस्तुत किये हैं।
कुछ ईश्वरवादियों का कहना है कि ईश्वर की सर्वशक्तिमतता की एक सीमा है और इस अर्थ में वह ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकता, जो तार्किक दृष्टि से असंभव हैं। पुनः कुछ ईश्वरवादियों का मानना है कि ईश्वर मानव को शुभ के महत्व का ज्ञान कराने हेतु अशुभ उत्पन्न करता है। पुनः जगत में अशुभ और पाप की जो समस्या है, वह मनुष्य द्वारा अपने संकल्प स्वातंत्रय का दुरूपयोग करने के कारण उत्पन्न होता है। परंतु ईश्वरवादियों द्वारा दिये गए ये सभी तर्क ईश्वर की सशक्तिमतता के साथ संगत नहीं बढ़ते।
ईश्वर की सर्वशक्तिमतता के संकल्प स्वातंत्रय में परस्पर विरोध है जिसे तर्कसंगत रूप से समाप्त नहीं किया जा सकता। इन दोनों में विद्यमान इस विरोध की चिंता किए बिना ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानने के साथ-साथ मनुष्य के संकल्प स्वातंत्रय को भी स्वीकार करते हैं। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर की सर्वशक्तिमता के फलस्परूप ऐसी अनेक दार्शनिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं, जिनका तर्कसंगत और संतोष समाधान देना संभव नहीं है।
ईश्वरवादियों द्वारा दिए गए सभी समाधानों के साथ फिर अनेक तरह की तार्किक कठिनाईयां आती हैं, जिसका वे कोई संतोषप्रद समाधान नहीं दे पाते। इसीलिए रैशडल, ट्रस्लड आदि दार्शनिकों ने ईश्वर की सर्वशक्तिमतता की सीमा को स्वीकार कर लिया है, परंतु इससे ईश्वर के स्वरूप के विषय में उनकी परम्परागत मान्यता खंडित होती है।
Question : यदि ईश्वर सर्वज्ञ है तो मनुष्य स्वतंत्र नहीं है।
(2004)
Answer : ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक मानने के साथ-साथ सर्वज्ञ भी माना जाता है। ईश्वर की सर्वज्ञता का अर्थ यह है कि उसे जगत अर्थात् सभी भौतिक वस्तुओं, पेड़-पौधों तथा प्राणियों और भूत, वर्तमान एवं भविष्य की समस्त घटनाओं का पूर्ण ज्ञान है। इस जगत में ऐसी कोई वस्तु और घटना नहीं है, जिसे ईश्वर पूर्ण रूप से नहीं जानता। इस अर्थ में सर्वज्ञ होने के कारण ईश्वर का ज्ञान मनुष्य के ज्ञान से मूलतः भिन्न प्रकार का है। मनुष्य अपनी तर्क बुद्धि तथा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही इस जगत का ज्ञान प्राप्त करता है, जिनका क्षेत्र बहुत सीमित है। इसी कारण उसका ज्ञान भी अत्यंत सीमित और अपूर्ण होता है। वह यथासंभव अधिकतम प्रयास करने पर भी किसी वस्तु या घटना के एक विशेष पक्ष को ही कुछ सीमा तक जान पाता है। इसके अतिरिक्त दिक और काल भी मनुष्य के ज्ञान को सीमित करते हैं क्योंकि वह केवल इन्हीं के अंतर्गत रहकर किसी वस्तु अथवा घटना का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। परंतु ईश्वर के ज्ञान के संबंध में उपर्युक्त सभी मानवीय सीमाएं समाप्त हो जाती है। मनुष्य के ज्ञान के विपरीत ईश्वर का ज्ञान पूर्ण तथा असीम है, क्योंकि ईश्वर सभी दृष्टियों से पूर्ण है। वस्तुतः इसी अर्थ में ईश्वर को सर्वज्ञ माना जाता है। ईश्वर की सर्वज्ञता का कारण यह है कि उसी ने संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना की है और वह इसमें सर्वत्र व्याप्त है। ईश्वर का अनुभव किसी विशेष वस्तु या घटना का अनुभव न होकर संपूर्ण ब्रह्मांड का अनुभव है। मनुष्य की सीमित चेतना के विपरीत ईश्वर की चेतना विश्वव्यापी है, जिसकी परिधि में सब कुछ सम्मिलित है। ऐसी स्थिति में ईश्वर का सर्वज्ञ होना अनिवार्य है। परंतु ईश्वर का सर्वज्ञ होना भी कुछ दार्शनिक कठिनाईयां उत्पन्न करता है। मानव के संकल्प के साथ इसकी संगति नहीं बिठाई जा सकती। ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वर को सर्वज्ञ मानने के साथ-साथ मनुष्य के संकल्प स्वातंत्र्य को भी स्वीकार करते हैं, किंतु इन दोनों मान्यताओं को एक ही साथ स्वीकार करना तार्किक दृष्टि से संभव प्रतीत नहीं होता। ईश्वर के सर्वज्ञ होने का अर्थ यह है कि वह भूत और वर्तमान संबंधी घटनाओं के साथ-साथ भविष्य ने होने वाली घटनाओं को भी पूर्ण रूप से जानता है। स्पष्टतः इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य द्वारा भविष्य में किए जाने वाले कर्णों का भी ईश्वर को पूर्ण ज्ञान है। ऐसी स्थिति में मानव का संकल्प स्वातंत्र्य समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में मानव का संकल्प स्वातंत्र्य समाप्त हो जाता है। ईश्वर की सर्वज्ञता और मनुष्य के संकल्प स्वातंत्र्य में जो परस्पर व्याघात है, उसे निम्नलिखित तर्क द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।
वस्तुतः मानव के संकल्प स्वातंत्र्य का अर्थ यह है कि वह भविष्य में अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सकता है अतः किसी के लिए निश्चित रूप से यह जानना संभव नहीं है कि वह भविष्य में क्या करेगा। यदि मनुष्य को संकल्प स्वातंत्र्य प्राप्त है तो वह भविष्य में कोई भी विशेष कर्म करने के लिए बाध्य नहीं है। ऐसी स्थिति में ईश्वर भी यह नहीं जान सकता कि वह भविष्य में कौन-कौन से करेगा। यदि ईश्वर पहले से यह निश्चित रूप से जानता है कि मनुष्य भविष्य में कौन सा कर्म करेगा और मनुष्य अनिवार्यतः वही कर्म करता है, तो इसका अर्थ यही है कि उसे किसी प्रकार का संकल्प स्वातंत्र्य नहीं है। इस प्रकार यदि ईश्वर सर्वज्ञ है तो मनुष्य स्वतंत्र नहीं है।
Question : ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा।
(2002)
Answer : यदि धार्मिक दृष्टि से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाए तो सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? ईश्वर की निर्वैयक्तिक अवधारणा ईश्वरीय स्वरूप के निर्माण के तृतीय चरण को इंगित करती है। यह ईश्वर निर्माण का परिष्कृत चरण है। ईश्वर के अवैयक्तित्वपूर्ण स्वरूप का तात्पर्य है कि ईश्वर निर्गुण, निराकार और निर्वैयक्तिक सत्ता है, जिसमें इच्छा, संकल्प, कल्पना, प्रयोजन, स्मृति आदि का पूर्णतः अभाव है। यहां निर्गुण का तात्पर्य गुणरहितता से नहीं है अपितु गुणातीत सत्ता से है। पाश्चात्य दर्शन मेें इस अवधारणा के समर्थकों में स्पिनोजा, ब्रेडले, ग्रीन तथा अन्य प्रत्ययवादी विचारक आते हैं। भारतीय दर्शन में शंकराचार्य पारमार्थिक दृष्टिाकोण से निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करते हैं। यदि ईश्वर को निर्वैयक्तिक न माना जाए तो उसे व्यक्तित्वपूर्ण मानना पड़ेगा। ईश्वर केा व्यक्तित्वपूर्ण मानने से ईश्वर तार्किक रूप से सीमित हो जाता है और सीमित रूप में कभी उसे परम सत्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ईश्वर के व्यक्तित्वपूर्ण मानने पर उसे अशुभों से प्रभावित मानना पड़ेगा। परिणामस्वरूप उसे तात्विक एवं नैतिक गुणों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाएगा। आधुनिक पाश्चात्य बुद्धिवादी दर्शनिक स्पिनोजा के अनुसार ईश्वर या द्रव्य निर्गुण, असीम, स्वतंत्र तथा पूर्णतः व्यक्त्विरहित सत्ता है, क्योंकि यदि ईश्वर पर व्यक्तित्व का आरोपण किया जाए, तो ईश्वर सीमित हो जाएगा और सीमित होने पर उसका ईश्वरत्व खंडित हो जाएगा। हीगल के अनुसार निरपेक्ष प्रत्यय या ईश्वर व्यक्तित्व रहित सत्ता है। विश्व ईश्वर की अभिव्यक्ति है, किंतु विश्व में सीमित मात्र नहीं है। ईश्वर में अभिव्यक्तिकरण की असीम संभावना है। भारतीय दर्शन में शंकराचार्य पारमार्थिक दृष्टिकोण से निर्गुण, निराकार, निर्विशेष एकमात्र सत ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि शंकराचार्य व्यावहारिक दृष्टि से व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर (सगुण ब्रह्म) की सत्ता को स्वीकार करते हैं। शंकराचार्य के अनुसार सगुण बह्म उपासना का विषय है। इसकी उपासना से चित्र की शुद्धि होती है एवं व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता है, तत्पश्चात वह निगुर्ण निराकार ब्रम्ह का साक्षात्कार करने के योग्य हो जाता है। जहां व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की अराधना में भक्त और भगवान का भेद कायम रहता है, वहीं अव्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की अवधारणा में अंततः समस्त भेद मिथ्या हो जाते हैं। ईश्वर की निवैयक्तिक अवधारणा विशेष रूप से भक्तिमार्ग के अनुयायियों के लिए कठिनाई उत्पन्न करता है, क्योंकि यहां भक्त और भगवान का भेद समाप्त हो जाता है। यह धार्मिक भावना की जीवनता एवं क्रियाशीलता में बाधक है। यह अवधारणा अस्पष्ट एवं रहस्यमय है। स्पिनोजा के निर्वैयक्तिक सर्वेश्वरवाद में परमसत्ता विश्व में पूर्णतः व्याप्त होती है, फलतः विश्व की घटनाओं एवं मानवीय क्रियाकलापों के लिए वहीं उत्तरदायी भी हो जाता है। परिणामस्वरूप नैतिकता की व्याख्या नहीं हो पाती। नैतिकता भी व्याख्या के लिए अच्छे-बुरे का मानक होना आवश्यक है और यह तभी संभव हो सकता है जब व्यक्ति में संकल्प स्वातंत्र्य हो। ईश्वर की इस अवधारणा का ज्ञान मार्ग के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व है। इस अवधारणा में तार्किकता अधिक एवं धार्मिक कम है और इसी धार्मिक व्यक्तियों के बीच यह अवधारणा लोकप्रिय नहीं है।
Question : ईश्वर की अंतरवर्तिता और अनुभवातीतता के क्या अर्थ होते है? क्या ईश्वर वस्तुतः अंतर्वर्ती है या अनुभवातीत हैं?
(2002)
Answer : ईश्वर की अंतर्वर्तिता के अनुसार ईश्वर विश्व में व्याप्त है। ईश्वर संसार से अभिन्न है। ईश्वर संसार की प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है। यह मत एक विशुद्ध एकतत्ववादी विचार है, क्योंकि यह ईश्वर से स्वतंत्र किसी सत्ता को नहीं मानता अर्थात् केवल ईश्वर ही सत्य है। ईश्वर के अंतर्वर्तितता का यह भी अर्थ है कि ईश्वर व्यक्तित्व रहित है। विश्व की सृष्टि अनिवार्यतः अर्थात् ईश्वर की प्रकृति का आवश्क परिणाम और निरूदेश्य है। अतः ऐसी अवस्था संभव नहीं, जबकि केवल ईश्वर की ही सत्ता रहे और उस समय विश्व न बना हो, क्योंकि ईश्वर और विश्व को पृथक नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ यह भी है कि ईश्वर विश्व का केवल उपादन कारण है। उपादान कारण में पूर्णतः व्याप्त रहता है। अतः उपादान कारण होने के नाते ईश्वर विश्व के बाहर नहीं है और विश्व ईश्वर से स्वतंत्र या पृथक नहीं है। कभी भी विश्व ईश्वर से स्वतंत्र या पृथक नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह भी है कि ईश्वर और विश्व का संबंध काल निरपेक्ष या चिरंतन है। ईश्वर से विश्व की उत्पत्ति किसी विशेष काल से नहीं हुई है, प्रत्युत वह चिरन्तन घटना है क्योंकि दोनों में अवियोज्य संबंध है।
ईश्वर के अनुभवातीत होने का अर्थ है कि ईश्वर अनुभव से परे है। ईश्वर विश्व का रचयिता हो सकता है, किंतु विश्व से उसका कोई सरोकार नहीं। विश्व की सृष्टि ऐच्छिक और सोदेश्य है। अतः ऐसी अवस्था भी संभव है जबकि केवल ईश्वर की ही सत्ता रहे और उस समय विश्व की सृष्टि न हुई हो। ईश्वर विश्व का केवल निमित्त कारण है, अतः विश्व से बिल्कुल पृथक है। इसके अनुसार विश्व का कोई उपादान कारण है ही नहीं, केवल निमित्त कारण है, अतः ईश्वर पूर्णतः विश्वातीत या अनुभवातीत है। सृष्टि के उपरांत विश्व को ईश्वर की आवश्यकता नहीं रहती, उससे पृथक और स्वतंत्र होकर वह अपने आप चलता रहता है। ईश्वर और विश्व का संबंध कालिक है, अर्थात् किसी निश्चित काल में ईश्वर विश्व की रचना करता है। पुनः जहां तक ईश्वर के अनुभवातीत या अंतरवर्ती होने का प्रश्न है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि अगर ईश्वर को अनुभवातीत माना जाए तो यह तटस्थ ईश्वरवाद कहलाता है और इसमें ईश्वर को व्यक्तित्वपूर्ण माना जाता है। अगर ईश्वर को अंतरवर्ती माना जाए तो यह सर्वेश्वरवाद कहलाता है, जिसके अंतर्गत ईश्वर को व्यक्तित्वरहित माना जाता है, परंतु यदि ईश्वर को अंतर्वर्ती एवं विश्वतीत माना जाए तो ईश्वर एवं जगत के इस संबंध को आंतरातीत ईश्वरवाद कहा जाता है, जिसके अंतर्गत ईश्वर को निर्वैयक्तिक माना जाता है। भारतीय दर्शन में रामानुज जहां ईश्वर को अंतरवर्ती स्वीकार करते हैं और पाश्चात्य दर्शन में स्पिनोजा भी सर्वेश्वरवाद में विश्वास करते हैं, वहीं शंकराचार्य ईश्वर को जगत में अंतरवर्ती और अनुभवातीत भी मानते हैं। परन्तु शंकराचर्य व्यावहारिक स्तर पर ईश्वर को सगुण और वैयक्तिक मानते हैं तथा जगत में व्याप्त भी परंतु पारमार्थिक दृष्टि से निर्गुण ब्रह्म को वो अनुभवातीत अर्थात जगत एवं अनुभव से परे मानते हैं।
Question : ईश्वर का प्रकृतिवादी विचार।
(1999)
Answer : ईश्वर के संबंध में तीन प्रमुख धारणाएं हैं। इनमें ईश्वर की प्रकृतिवादी धारणा महत्वपूर्ण है। यदि धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाए तो ईश्वर के स्वरूप के संबंध में समस्या उत्पन्न होती है। ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा ईश्वर के अस्तित्व के प्रारंभिक चरण को इंगित करती है। यह ईश्वर के संबंध में स्थूल स्थिति है। इसमें ईश्वर की स्थिति स्थूल तत्व के रूप में है। प्रकृतिवादी ईश्वर की अवधारणा का तात्पर्य है ईश्वर की कल्पना प्राकृतिक शक्तियों के रूप में करना। इसमें प्रकृति या उसके अवयवों को शक्ति संपन्न माना जाता है और उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति, अराधना, प्रेम आदि को अभिव्यक्त किया जाता है। प्रकृतिवादी ईश्वर के साक्ष्य अतीत की लगभग सभी प्राचीन संस्कृतियों में देखे जा सकते हैं, यथा वैदिक संस्कृति, मेसोपोटामिया संस्कृति आदि। वर्तमान में उनके साक्ष्य आदिम जनजातीय संस्कृतियों में भी देखे जाते हैं। एक विशेष संदर्भ में स्पिनोजा के दर्शन में भी हमें ईश्वर की प्रकृतिवादी अवधारणा के विचार दिखाई देते हैं। जब स्पिनोजा कहता है- ईश्वर की प्रकृति है और प्रकृति ही ईश्वर है। प्रकृतिवादी ईश्वर की अवधारणा का संबंध प्रकृतिवाद से न होकर प्राकृतिक धर्म से है। प्रकृतिवाद तर्क एवं बुद्धि पर आधारित है और यह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है। दूसरी ओर प्राकृतिक धर्म धार्मिक विकास की आरंभिक अवस्था से संबंधित है, यह आस्था और विश्वास पर आधारित है और उसमें ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है। प्रकृतिवादी ईश्वर की अवधारणा की उत्पत्ति के मूल में प्राकृतिक घटनाओं को न समझ पाने के कारण उत्पन्न भय श्रद्धा या कृतज्ञता ज्ञापन रहा है। परंतु प्राकृतिक घटनाओं की भ्रामक व्याख्या करता है। यह हमारी वैज्ञानिक प्रगति के विरोध में है। यह अज्ञेयवाद एवं भाग्यवाद को बढ़ावा देता है। यह ईश्वर के स्वरूप निर्माण का अविकसित एवं अतार्किक चरण है। यद्यपि यह अवधारणा अतार्किक एवं अविकसित है, किंतु फिर भी इसका महत्व है। यह प्रकृति प्रेम को बढ़ावा देता है। वर्तमान में जो पर्यावरण संकट उत्पन्न होता रहा है, उसके समाधान के लिए प्रकृति प्रेम एवं प्रकृतिवादी ईश्वर की अवधारणा के प्रति पुनः विश्वास जागृत किया जाना महत्वपूर्ण एवं उपयोगी हो सकता है। चूंकि यह धारणा बहुदेववादी है, इसलिए इसमें ईश्वर सर्वशक्तिमान नहीं हो सकता।
Question : ईश्वर की व्यक्तिवादी अवधारणा।
(1997)
Answer : यदि धार्मिक दृष्टि से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाए तो प्रश्न उठता है कि ईश्वर का स्वरूप क्या है? इस संबंध में ईश्वर की अवधारणा का महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर की व्यक्तिवादी अवधारणा ईश्वरीय स्वरूप के निर्माण के द्वितीय चरण को इंगित करती है, जो धार्मिक दृष्टिकोण से सर्वाधिक लोकप्रिय है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का अर्थ भौतिक एवं मानसिक गुणों के गत्यात्मक संगठन से लिया जाता है, जो व्यक्ति को उसके वातावरण से समायोजन में सहायता प्रदान करता है। धार्मिक क्षेत्र में ईश्वर की व्यक्तित्वपूर्णता का अर्थ उपरोक्त मनोवैज्ञानिक अर्थ में भिन्न है। यहां व्यक्तित्वपूर्णता का अर्थ है कि ईश्वर आत्मचैतन्य सत्ता है और उसमें संकल्प स्वतंत्रता के साथ-साथ तात्विक एवं नैतिक गुण असीमित मात्र में विद्यमान हैं। यहां तात्विक गुण का आशय सर्वशतिमत्ता, सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, नित्यता आदि से है, जबकि नैतिक गुणों का आशय दयाशीलता, न्यायशीलता, शुभत्व, करूणा आदि से है। मैक्गार्ड के शब्दों में ईश्वर की व्यक्तिपूर्णता का अर्थ है कि जिस प्रकार हमें अपने व्यकित्व का ज्ञान है, उसी प्रकार ईश्वर को अपने अस्तित्व का ज्ञान है। ईश्वर की इस व्यक्त्विपूर्ण अवधारणा का समर्थन भारतीय दर्शन में भी न्याय वैशेषिक, रामानुज आदि करते हैं, जबकि पाश्चात्य दर्शन में इसके समर्थकों में प्लेटो, देकार्ट आदि हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि ईश्वर का व्यक्त्वि मानवीय व्यक्तित्व के साधारण अर्थ से भिन्न है। मानव पर व्यक्तित्व का आरोपण उसके सीमित एवं अपूर्ण रूप में होता है। मानव एक अपूर्ण जीव है। देश और काल में होने के कारण वह सीमित है तथा शरीरधारी होने के कारण वह अनित्य है। दूसरी ओर ईश्वर पर व्यक्तित्व का आरोपण हम उसकी पूर्णता में एवं एक विशेष संदर्भ में करते हैं। ईश्वर देश और काल से परे तथा शरीररहित होने पर भी व्यक्तित्वपूर्ण माना जाता है। प्रश्न है कि व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की आवश्यकता क्यों पड़ी? वस्तुतः भावना की जीवन्तता और धर्म के तीनों पक्षों-ज्ञान, कर्म एवं भावना में क्रियात्मक एवं भावनात्मक पक्ष की संतुष्टि के लिए ईश्वर के व्यक्तिपूर्ण अवधारणा की आवश्यकता पड़ती है। इसके समर्थन में कई तर्क दिए जाते हैं। प्रयोजनमूलक तर्क के अंतर्गत विश्व में व्यवस्था, सामंजस्य एवं प्रयोजन के आधार के रूप में व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। पुनः कर्म नियम की सम्यक व्याख्या करने के लिए व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर को मानना आवश्यक है। पाश्चात्य दार्शनिक कांट भी पूर्ण शुभ की स्थिति में सदगुण के साथ आनंद का समायोजन करने के लिए व्यक्त्विपूर्ण ईश्वर की व्यक्तित्वपूर्ण स्थिति को स्वीकार करते हैं। परंतु व्यक्तित्वपूर्ण ईश्वर की अवधारणा विरोधाभासी है। अगर हम ईश्वर को व्यक्तित्वपूर्ण मानते हैं तो हमें मानना पड़ेगा कि उसके अंदर सदगुण हैं और तदनुरूप उद्देश्यपूर्णता भी होगी। उद्देश्यपूर्णता का अर्थ है- उद्देश्य का अभाव। ईश्वर की पूर्णता और सर्वशक्तिमत्ता को खंडित करता है। पुनः ईश्वर पर कुछ गुणों का आरोपण करने से ही यह सीमित हो जाता है। स्पिनोजा का कथन है Every determination is a negation. यदि ईश्वर को सगुण माना जाए अर्थात ईश्वर पर किसी प्रकार के गुण आरोपित किये जाए तो फिर तार्किक रूप से ईश्वर सीमित हो जाता है। किसी भी गुण का आरेपण को अनेक गुणों से रहित कर देता है। ईश्वर को व्यक्तित्वपूर्ण मानने पर सीमितता आपादित होती है। ईश्वर की व्यक्त्विपूर्णता से सदसंकल्प, सदसंकल्प से उद्देश्यपूर्णता, उद्देश्यपूर्णता से उद्देश्य का अभाव और अभाव से अपूर्णता एवं सीमितता आपादित होती है और सीमित ईश्वर को कभी भी चरम सत्ता के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता है। विश्व विद्यमान अशुभ ईश्वर के तात्विक एवं नैतिक गुणों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। सर्वव्यापकता का समर्थन करने पर भक्त एवं भगवान का भेद स्थापित करना कठिन हो जाता है। इस स्थिति में धार्मिक गतिविधियों का औचित्य साबित करना कठिन हो जाता है। यहां उपास्य एवं उपासक का द्वैत समाप्त हो जाता है, परंतु फिर भी भक्ति मार्ग के अनुयायियों के लिए व्यक्त्विपूर्ण ईश्वर की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है।