Question : कर्म विधान के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। क्या यह सिद्धांत संकल्प स्वातंत्रय की अवधारणा के साथ संगतपूर्ण है? विचार कीजिए।
(2007)
Answer : कर्म सिद्धांत अथवा कर्मवाद के समर्थकों के अनुसार मनुष्य अपने शुभ या अशुभ कर्मों के कारण ही इस संसार में सुख अथवा दुख भोगता है। और वह स्वयं ही अपने कर्मो द्वारा अपने भाग्य का भी निर्माण करता है। इस कर्म सिद्धांत की कुछ आधारभूत मान्यताएं हैं, जो इस प्रकार हैं:
कर्म सिद्धांत, यद्रिच्छावाद तथा नियतिवाद या देववाद इन दोनों सिद्धांतों से भिन्न है। यद्रिच्छावाद के अनुसार इस जगत में घटित होने वाली समस्त घटनाएं केवल संयोग का परिणाम होती हैं, उनका कोई कारण नहीं होता। इसी प्रकार कर्म सिद्धांत नियतिवाद अथवा दैववाद से भी भिन्न है। नियतिवाद के अनुसार इस विश्व में घटित होने वाली प्रत्येक घटना पूर्वनिश्चित होती है। उसे घटित होने से रोकना अथवा उसमें कोई परिवर्तन करना मनुष्य के लिए संभव नहीं है। हम इस जगत में जो सुख या दुख प्राप्त करते हैं वह सब पूर्व निर्धारित है, हम इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकते। कर्म सिद्धांत को देखते हुए यह स्पष्ट है कि यह नियतिवाद की मान्य को पूर्णतः अस्वीकार करता है।
परंतु कर्मवाद अथवा कर्म सिद्धांत की मान्यताओं में कई तार्किक दोष हैं:
Question : आत्मा की अमरता की अवधारणा के अभाव में धर्म निरर्थक हैं।
(2007)
Answer : आत्मा की अमरता में विश्वास के लिए शरीर और मन से भिन्न एक स्वतंत्र द्रव्य के रूप में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना अनिवार्य है। विश्व के अनेक धर्मों में आत्मा के अस्तित्व और उसकी अमरता से संबंधित विश्वास को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया है। हिंदु धर्म, जैन धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, सभी शरीर से भिन्न आत्मा को सत्ता में विश्वास करते हैं और उसे अनश्वर मानते हैं। इन धर्मों के अनुसार प्राणी की मृत्यु के फलस्वरूप केवल उसके स्थूल शरीर का ही विनाश होता है, आत्मा का नहीं। शरीर के नष्ट हो जाने पर किसी न किसी रूप में आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। यह एक सामान्य प्रचलित विश्वास है।
आत्मा की अमरता का उद्गम कारण मृत्यु का भय है। मृत्यु मानव से उसके प्रियजनों को अलग कर देती है और उसका जीवन समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि मनुष्य मृत्यु से प्रायः अत्यधिक भयभीत रहता है।
मृत्यु के इसी भय ने मानव को अमरता की कल्पना करने के लिए प्रेरित किया जिससे वह इस दुखद भय से मुक्त होने का आश्वासन प्राप्त कर सके। यदि मनुष्य को यह विश्वास हो जाए कि मृत्यु के पश्चात भी किसी न किसी रूप में वह जीवित रहेगा तो निश्चय ही वह इस भय से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसके लिए किसी ऐसी सत्ता की कल्पना करना आवश्यक है जो शरीर के नष्ट हो जाने के पश्चात भी बनी रहे और इस प्रकार जो मनुष्य को अमर बना दे।
इसी कारण मानव शरीर से पृथक स्वतंत्र आत्मा की कल्पना की और इसीलिए आत्मा की अमरता की अवधारणा किसी न किसी रूप में विश्व के सभी आदिकालीन धर्मों में पाई जाती है। संसार में ऐसी कोई भी सभ्यता अथवा संस्कृति नहीं है, जिसमें यह अवधारणा किसी भी रूप में विद्यमान न हो। इसीलिए आत्मा की अवधारणा एक सार्वभौमिक
अवधारणा है। धर्म का एक महत्वपूर्ण कार्य है धार्मिक संवेगों की संतुष्टि। इस अर्थ में आत्मा की अमरता से धार्मिक व्यक्ति को यह चेतना रहती है कि धर्म के परम साध्य मोक्ष की अवस्था में भी उसकी आत्मा अक्षुण्ण रहेगी। परंतु इसका अपवाद भी है क्योंकि बौद्ध धर्म में आत्मा को उसके प्रचलित अर्थ में स्वीकार न कर विज्ञानों का प्रवाह माना गया है। इसके अलावे आत्मा की अमरता का प्रश्न मृत्यु से जुड़ा है परंतु कुछ धर्मों में जीवित रहते हुए ही परम साध्य मोक्ष की प्राप्ति संभव है। अतएव ऐसी अवस्था में आत्मा की अमरता का प्रश्न ही नहीं उठता। पुनः धर्म का अर्थ अगर लौकिकता से लिया जाए तो आत्मा की अमरता का अर्थ अप्रासंगिक हो जाता है क्योंकि सदाचरण के लिए आत्मा की अमरता कोई आवश्यक शर्त नहीं दिखाई देती।Question : क्या आत्मा के अमरत्व का ईसाई सिद्धांत गीता के आत्मन के सिद्धांत के साथ संगत है। चर्चा कीजिए।
(2005)
Answer : ईश्वर विषयक विश्वास के अतिरिक्त आत्मा की सत्ता और अमरता से संबंधित विश्वास भी बहुत महत्पूर्ण धार्मिक विश्वास है। विश्व के अनेक धर्मों में आत्मा के अस्तित्व और अमरता से संबंधित इस धार्मिक विश्वास को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ- हिंदु धर्म, जैन धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म आदि शरीर तथा मन से भिन्न आत्मा की अमरता में विश्वास करते हैं और उसे अनश्वर भी मानते हैं। इन धर्मों के अनुसार प्राणी की मृत्यु के फलस्वरूप केवल उसके स्थूल शरीर का ही विनाश होता है, आत्मा का नहीं। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी किसी न किसी रूप में आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। इसी धार्मिक विचार अथवा मान्यता को सामान्यतः आत्मा की अमरता की संज्ञा दी जाती है। यह स्पष्ट है कि आत्मा की अमरता में विश्वास करने के लिए शरीर और मन से भिन्न एवं स्वतंत्र द्रव्य के रूप में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करना अनिवार्य है। हिंदु धर्म के अधिकतर अनुयायी आत्मा की अमरता में दृढ़तापूर्वक विश्वास करते हैं क्योंकि चार्वाक और बौद्ध दर्शन को छोड़कर अन्य सभी दर्शनों उपनिषदों, भगवदगीता, स्मृतियों, पुराणों और धर्मशास्त्रें में आत्मा की अमरता को स्वीकार किया गया है।
आत्मा के स्वरूप तथा अमरत्व के विषय में उपनिषदों के इसी विचार की गीता में विस्तृत व्याख्या की गई है। महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन इस आशंका से भयभीत हो गया था कि इस युद्ध में उसे अपने ही संबंधियों की हत्या करनी पड़ेगी। उसकी इस आशंका का निराकरण करने के लिए भगवान कृष्ण ने उसे आत्मा के स्वरूप और उसकी अमरता का ज्ञान कराया था। गीता के अनेक अध्यायों में इसकी चर्चा की गई है। उदाहरणार्थ आत्मा के स्वरूप तथा अमरत्व का वर्णन करते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं कि यह अजन्मा, शाश्वत, नित्य तथा सनातन है, शरीर के नष्ट हो जाने के फलस्वरूप इसका विनाश नहीं होता। शास्त्र इसे काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रें को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार यह आत्मा भी जीर्ण शरीर का परित्याग करके नवीन शरीर को ग्रहण कर लेती है। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि गीता के अनुसार मृत्यु के फलस्वरूप केवल शरीर का ही अंत होता है, आत्मा का नहीं। संभवतः इसी कारण मृत्यु के लिए देहांत शब्द का प्रयोग किया जाता है, आत्मा का नहीं।
परंतु आत्मा की अमरता के सामान्य प्रचलित उपर्युक्त अर्थ के अतिरिक्त इसके कुछ अन्य विशेष अर्थ भी स्वीकार किए गए हैं। उदाहरणस्वरूप व्यापकता के दृष्टिाकोण से भी अमरता को दो वर्गों में विभाजित किया गया है- व्यापक अमरता और सीमित अमरता। व्यापक अमरता के समर्थकों का विचार है कि सभी मनुष्य तथा अन्य प्राणी अमर हैं, क्योंकि किसी भी प्राणी में विद्यमान आत्मा का विनाश संभव नहीं है। अमरता प्राप्त करने के लिए न तो शुभ करना अनिवार्य है और न ईश्वर की कृपा। इसका अर्थ यह है कि किसी मनुष्य ने चाहे जैसे कर्म किए हों, मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा अमर ही रहती है। उसकी अमरता पर उसके कर्मों का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके अतिरिक्त केवल मनुष्य ही अमरता का अधिकारी नहीं है, अन्य सभी प्राणियों की आत्मा भी अमर है। गीता में आत्मा की अमरता का यही अभिप्राय है।
इसके विपरीत ईसाई धर्म के कुछ विचारकों के मतानुसार केवल शुभ कर्म करने वाले व्यक्तियों को ही अमरता प्राप्त हो सकती है, सभी मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों को नहीं। ऐसी अमरता को अमरता कहा जाता है। इस अमरता के समर्थकों का कथन है कि मृत्यु के उपरांत केवल वे मनुष्य ही अमर रहते हैं, जो वर्तमान जीवन में शुभ कर्म करते हैं, पापियों की आत्मा को अंततः ईश्वर द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त इनके अनुसार केवल मनुष्य अर्थात् धर्मपरायण व्यक्ति ही अमरता के अधिकारी हैं, अन्य प्राणी नहीं। इसका अर्थ यही है कि अन्य प्राणियों की आत्मा मनुष्य की आत्मा से भिन्न प्रकार की है और उसका भिन्न होना अनिवार्य है। इस प्रकार ईसाई धर्म के सीमित अमरता का सिद्धांत कुछ थोड़े से व्यक्तियों के लिए ही अमरता की संभावना को स्वीकार करता है। परंतु इस सिद्धांत के विरूद्ध यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि यदि सभी प्राणियों की रचना ईश्वर ने की है और यदि उन सबमें एक ही प्रकार की आत्मा विद्यमान है तो किसी प्राणी को अमरता से वंचित कैसे किया जा सकता है? ईसाई विचारकों के पास इस प्रश्न का कोई संतोषजनक एवं युक्तिसंगत उत्तर नहीं है।
पुनः इससे यह भी स्पष्ट है कि आत्मा का जो अर्थ गीता में उल्लिखित है, वह व्यापक अमरता का उदाहरण है और इसलिए इसकी संगति ईसाई धर्म के सीमित अमरता के दृष्टिकोण से नहीं बिठाई जा सकती।
Question : धर्म एवं मुक्ति में संबंध।
(2004)
Answer : धर्म मानव जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करने वाली वह व्यापक अभिवृत्ति है, जो सर्वाधिक मूल्यवान, पवित्र, सर्वज्ञ तथा शक्तिशाली समझे जाने वाले आदर्श और अलौकिक उपास्य विषय के प्रति अखंड आस्था एवं प्रतिबद्धता के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। दूसरी तरफ मोक्ष अथवा मुक्ति मानव का अंतिम लक्ष्य या परम उद्देश्य है, जिसे प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति पाना चाहता है। लगभग सभी धर्मों में मुक्ति का आदर्श स्वीकार किया गया है। चाहे वह धर्म ईश्वरवादी हो या अनिश्वरवादी। इस रूप में धर्म एवं मुक्ति का संबंध अनिवार्य प्रतीत होता है। धर्म को अगर अपने प्रचलित अर्थ में लिया जाए तो प्रत्येक धर्म में मुक्ति एवं आत्मलाभ के लिए मानव प्रयास को आवश्यक बताया गया है। परंतु इस विभिन्न धर्मों में मुक्ति का स्वरूप एक समान नहीं है। स्वयं हिंदु धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में मुक्ति की अवधारणा एक समान नहीं है। हिंदु धर्म तथा संस्कृति में मुक्ति की अवधारणा का अत्यधिक महत्व है। भारतीय विचारकों ने जिन चार पुरूषार्थों को अनिवार्य माना है उनमें मोक्ष को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है। बौद्ध एवं जैन जैसे अनीश्वरवादी धर्मों में भी निर्वाण एवं कैवल्य अर्थात् मुक्ति को परम साध्य माना गया है।
वैष्णव धर्म में जहां मुक्ति का अर्थ है ब्रह्म का सायुज्ज लाभ अर्थात् ब्रह्म के निकटस्थ होना, वहीं अद्वैत वेदांत के अनुसार मुक्ति का अर्थ है, ब्रह्मभाव अर्थात् मुक्ति की अवस्था का अर्थ है, आत्मा एवं ब्रह्म का तादात्म्य अर्थात् सारूप्य लाभ। अद्वैत वेदांत में जहां मोक्ष नित्य प्राप्ति की प्राप्ति है, वहीं वैष्णव वेदांत में मुक्ति का अर्थ है- अपर्याप्त की प्राप्ति। इसाई धर्म में मुक्ति की अवस्थाएं आत्मा को अमरत्व की प्राप्ति होती है, वहीं इस्लाम धर्म में मुक्ति का अर्थ है- अल्लाह के यहां Day of Judgement के समय मृत व्यक्ति की आत्मा की अवस्थिति का निर्णय। पुनः सभी धर्मों में मुक्ति का अर्थ मृत्यु की प्राप्ति ही नहीं है, बल्कि जीवित रहते हुए ही मुक्ति की प्राप्ति संभव है जैसे बौद्ध धर्म एवं वैष्णव एवं वेदांत धर्म। इनमें जीवन मुक्त का सिद्धांत प्रस्तुत किया गया है, जिसका अर्थ है व्यक्ति इसी जीवन में सदकर्मों एवं निरंतर प्रयत्नशील होकर मुक्ति की अवस्था को प्राप्त कर सकता है।
Question : क्या किसी व्यक्ति के परिमित कार्य (कर्म) के परिणाम अमर आत्मन् की प्रकृति का निर्धारण करते हैं?
(2003)
Answer : आत्मा की अमरता को इसके प्रचलित अर्थों के अलावे अन्य दूसरे तरीके से भी परिभाषित किया गया है। कुछ विचारकों का मत है कि मनुष्य अपनी मृत्यु के उपरांत भी अपने क्रांतिकारी विचारों, महान सिद्धांतों तथा कर्मों के कारण समाज में सदा अमर रहता है। वह अपनी पुस्तकों अथवा कलाकृतियों के माध्यम से समाज को जो नवीन एवं अमूल्य विचार देता है, उनके कारण समाज उसे सदा याद रखता है। इस प्रकार कर्मों के द्वारा भी आत्मा की प्रकृति निर्धारित हो सकती है। व्यक्ति के देहांत के पश्चात भी लोग उसकी रचनाओं को पढ़ या देखकर मार्गदर्शन तथा आनंद प्राप्त करते हैं और यह उसे अमर बना देता है। मनुष्य की ऐसी अमरता को सामाजिक अमरता कहा जाता है। गौतम बुद्ध, महावीर, कालीदास, महात्मा गांधी, शेक्सपीयर, कार्ल मार्क्स आदि महान व्यक्तियों को इसी सामाजिक अमरता के अर्थ में अमर माना जाता है। सामाजिक अमरता के सिद्धांत के अनुसार मृत्यु केवल व्यक्ति की होती है, उसके विचार या सिद्धांत की नहीं। अपनी मृत्यु के पश्चात भी वह अपने महान विचारों अथवा सिद्धांतों के रूप में सदा जीवित रहता है। परंतु सामाजिक अमरता के सिद्धांत में भी कुछ कठिनाईयां हैं। इस सिद्धांत की प्रथम कठिनाई यह है कि इसके अनुसार कुछ थोड़े से व्यक्ति ही अमरता प्राप्त कर सकते हैं, सभी मनुष्य नहीं। इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत कम होती है, जो समाज को अमूल्य तथा क्रांतिकारी विचार और सिद्धांत प्रदान कर सकते हैं। सामान्य व्यक्तियों के लिए ऐसा करना संभव नहीं। स्पष्टतः इसका अर्थ यही है कि ये सामान्य व्यक्ति अमरता प्राप्त नहीं कर सकते। इस प्रकार सामाजिक अमरता का यह सिद्धांत भी अमरता के क्षेत्र को बहुत सीमित कर देता है। इस सिद्धांत को दूसरी कठिनाई यह है कि यह सिद्धांत भी मनुष्य में विद्यमान मृत्यु के भय को समाप्त नहीं कर पाता। साधारण व्यक्ति यह जानता है कि वह समाज को कोई नवीन विचार या सिद्धांत न दे सकने के कारण अमर नहीं हो सकता, अतः वह मृत्यु के पश्चात अपने पूर्ण विनाश के विचार से भयभीत रहता है। सामाजिक अमरता का सिद्धांत इस भय के निराकरण के संबंध में कोई आश्वासननहीं देता। ऐसी स्थिति में साधारण व्यक्ति के लिए सिद्धांत का कोई महत्व नहीं हो सकता। संभवतः इसीलिए किसी धर्म ने इस सिद्धांत को भी धार्मिक विश्वास के रूप में स्वीकार नहीं किया।
Question : अद्वैत वेदांत का जीवन मुक्त का सिद्धांत।
(2002)
Answer : मुक्ति अर्थात् मोक्ष के स्वरूप के विषय में अद्वैत वेदांत का मत भारतीय दर्शन के अन्य सभी संप्रदायों से कुछ भिन्न है। इस दर्शन के प्रणेता शंकर भी मोक्ष अथवा मुक्ति को ही मानव जीवन का अंतिम ध्येय मानते हैं। उनकी मोक्ष की अवधारणा कुछ भिन्न प्रकार की है, जो उनके अद्वैतवाद पर आधारित है। वे समस्त भेदों से रहित निर्गुण तथा निराकार ब्रह्म को ही एकमात्र अंतिम सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार यह समस्त जगत तथा उसमें विद्यमान सभी प्राणी केवल माया अथवा अविद्या के कारण ही ब्रह्म से पृथक प्रतीत होता है। पारमार्थिक दृष्टि से केवल ब्रह्म ही वास्तविक सत्ता है, जगत नहीं। अपने मूलरूप में आत्मा ही ब्रह्म है, किंतु अविद्या के कारण वह अपने आपको उससे भिन्न समझने लगता है और जन्म मरण के सांसारिक बंधनों से बंध जाता है। ब्रह्म ज्ञान के परिणामस्वरूप अविद्या के नष्ट हो जाने पर मोक्ष प्राप्ति के पश्चात जीव पुनः ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है और इस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूप को फिर से प्राप्त कर लेता है। ब्रह्म के साथ जीव का यह पूर्ण तादात्म्य ही मोक्ष है और यही उसका अंतिम ध्येय है। मुक्ति के पश्चात आत्मा के केवल दुःखों का ही आत्यांतिक विनाश नहीं होता, उसे आखंड आनंद की भी प्राप्ति होती है, क्योंकि ब्रह्म सच्चिदानंद स्वरूप है। सांख्य दर्शन की भांति अद्वैत वेदान्त दर्शन में युक्ति में दो सोपान हैं- जीवन मुक्ति एवं विदेह मुक्ति। जीवन-मुक्ति, मुक्ति का प्रथम सोपान है। निरंतर आध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप जब मनुष्य संसार में रहते हुए इसी जीवन में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करके समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है तो उसकी इसी मुक्तावस्था को शंकर ने जीवन मुक्ति की संज्ञा दी है। इस अवस्था में मनुष्य सांसारिक कार्य करते हुए भी उनमें आसक्त न होने के कारण उनके प्रभाव से पूर्णतया मुक्त रहता है। वह समस्त कार्य स्वार्थ सिद्धि के लिए करके केवल लोकसंग्रह अथवा लोक कल्याण के लिए ही करता है। ऐसे निष्काम कर्म उसके पुनर्जन्म का करण नहीं बनते। इसके अतिरिक्त ब्रह्म ज्ञान के फलस्वरूप जीवन मुक्त के पूर्व संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, अतः भविष्य में उसके पुनर्जन्म की संभावना समाप्त हो जाती है। इस प्रकार वह जीवित रहते हुए ही जन्म मरण के दुःखमय सांसारिक चक्र से मुक्त हो जाता है। इसी कारण उसे जीवन मुक्त की संज्ञा दी जाती है। ऐसा मनुष्य अपने पराए के भेद से ऊपर उठकर केवल लोकोपकार के लिए ही जीवित रहता है। वह इस संसार में रहते हुए भी सांसारिक विषयभोगों में लिप्त नहीं होता और सदैव निष्काम भाव से लोककल्याणार्थ समस्त कर्म करता है। शंकर के दर्शन में जीवन मुक्ति को काफी महत्व दिया गया है। यह सांख्य के जीवन मुक्त से श्रेष्ठ है, क्योंकि सांख्य दर्शन में जीवन मुक्ति की आस्था आनंद की अवस्था नहीं है परंतु अद्वैत वेदांत में जीवन मुक्त की अवस्था सत्चित् और आनंद की अवस्था है। वह बौद्ध दर्शन के निर्वाण के निकट है।
Question : आत्मा की अमरता से क्या तात्पर्य है? इस संबंध में भगवद् गीता के तर्कों का विश्लेषण कीजिए।
(2002)
Answer : ईश्वर विषयक विश्वास की तरह आत्मा की सत्ता और अमरता से संबंधित विश्वास भी बहुत महत्वपूर्ण धार्मिक विश्वास है। विश्व के अनेक धर्मों में आत्मा के अस्तित्व और उसकी अमरता से संबंधित धार्मिक विश्वास को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ, हिंदु धर्म, जैन धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म आदि शरीर तथा मन से भिन्न अत्मा की सत्ता में विश्वास करते हैं और उसे अनश्वर मानते हैं। इन धर्मों के अनुसार प्राणी की मृत्यु के फलस्वरूप केवल उसके स्थूल शरीर का ही विनाश होता है, आत्मा का नहीं। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी किसी न किसी रूप में आत्मा का अस्तित्व बना रहता है, अर्थात् ईश्वरवादी दृष्टिकोण से अमरता का अर्थ है- कालचक्र में अविछिन्न रूप से व्यक्तियों का स्थयित्व ऐसा बना रहे कि उनके व्यक्तित्व की परिपूर्णता या उन्हें निरंतर अवसर प्राप्त होता रहे। इसी धार्मिक विचार अथवा मान्यता को सामान्यतः आत्मा की अमरता की संज्ञा दी जाती है। यही कारणहै कि जो दार्शनिक और धर्म परायण व्यक्ति आत्मा की अमरताएं विश्वास करते हैं, वे शरीर तथा मन से पृथक द्रव्य के रूप में आत्मा की सत्ता को अवश्य स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत स्वतंत्र द्रव्य के रूप में आत्मा की सत्ता को स्वीकार न करने वाले दार्शनिकों के लिए आत्मा की अमरता का कोई अर्थ नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, नैरात्मवाद के समर्थक बौद्ध धर्म स्वतंत्र द्रव्य के रूप में आत्मा की अमरता में विश्वास नहीं करते और चार्वाक दर्शन के समर्थक भी शरीर से भिन्न आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते।
बौद्ध और चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शनों, उपनिषदों भगवतगीता, स्मृतियों, पुराणों और धर्मशास्त्रें में आत्मा की अमरता को स्वीकार किया गया है।
उपनिषदों में आत्मा को स्वभावतः अविनाशी और उच्छेदरहित कहा गया है। पुनः आत्मा को अजन्मा, अजर, अमर और अभय ब्रह्म कहा गया है।
आत्मा के स्वरूप तथा अमरत्व के विषय में उपनिषदों के इसी विचार की गीता में विस्तृत व्याख्या की गयी है। महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के स्वयं वर्णन कर अर्जुन को आत्मा की अमरता का ज्ञान कराया है। गीता में कहा गया है, जिस प्रकार मानव आत्मा शैशव, यौवन, प्रौढ़ एवं वृद्धावस्था जैसी विभिन्न शारीरिक अवस्थाओं में स्थित रहती है, उसी प्रकार मृत्यु के पश्चात यह विभिन्न शरीरों में निवास करती है।
आत्मा की अमरता के सामान्य प्रचलित अर्थ के अतिरिक्त इसके कुछ अन्य विशेष अर्थ भी स्वीकार किए गए हैं। इन अर्थों की मूल विशेषता यह है कि इनमें आत्मा को शरीर से भिन्न तथा स्वतंत्र द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। उदाहरणार्थ, मनुष्य की अमरता के विषय में कुछ विचारकों का कथन है कि वह अपनी संतान के रूप में सदा जीवित रहता है। माता-पिता ही मृत्यु हो जाती है, किंतु वे अपनी संतान की अविच्छिन्न परंपरा के रूप में सदा अमर रहते हैं। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों की अमरता के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। इस प्रकार की अमरता को जैविक अमरता की संज्ञा दी जाती है। परंतु उस जैविक अमरता की अवधारणा में अनेक कठिनाईयां हैं, जिनके कारण धर्मपरायण व्यक्ति हमें स्वीकार नहीं करते। इसकी पहली कठिनाई तो यह है कि इसका क्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित है, अर्थात् यह सबके लिए संभव नहीं है। अनेक कठित ऐसे हैं जो आजीवन अविवाहित रहते हैं अथवा विवाह करने पर भी संतान उत्पन्न नहीं करते। इसके अतिरिक्त समुचित उपचार करने पर भी कुछ विवाहित व्यक्तियों को संतान प्राप्त नहीं होता। स्पष्ट है कि ऐसे व्यक्तियों के लिए जैविक अमरता प्राप्त करना संभव नहीं है। जैविक अमरता की दूसरी कठिनाई यह है कि इसके अनुसार मनुष्य वास्तव में स्वयं अमरता प्राप्त नहीं करता, वह केवल संतान के रूप में ही जीवित रहता है, परंतु उससे मनुष्य को संतोष नहीं हो सकता क्योंकि वह जानता है कि मृत्यु के पश्चात उसका अपना व्यक्तित्व तो नष्ट हो जाएगा और उसकी संतान का व्यक्तित्व उसके व्यक्तित्व से भिन्न होगा। स्पष्ट है कि जैविक अमरता का यह सिद्धांत मनुष्य में विद्यमान मृत्यु के नैसर्गिक भय को समाप्त करने में असमर्थ है। संभवतः उन्हीं कठिनाईयों के कारण किसी भी धर्म में जैविक अमरता को धार्मिक विश्वास के रूप में स्वीकार नहीं किया गया।
कुछ विचारकों का मत है कि मनुष्य अपनी मृत्यु के उपरांत भी आने क्रांतिकारी विचारों महान सिद्धांतों तथा कर्मों के कारण समाज में सदा अमर रहता है। वह अपनी पुस्तकों अथवा कला कृतियों के माध्यम से समाज को जो नवीन एवं अमूल्य विचार देता है, उनके कारण समाज उसे सदा याद रखता है और इस प्रकार वह अमर हो जाता है। उसके देहांत के पश्चात भी लोग उसकी रचनाओं को पढ़ या देखकर मार्गदर्शन तथा आनंद प्राप्त करते हैं और यह तथ्य उसे अमर बना देता है। मनुष्य की ऐसी अमरता को सामाजिक अमरता कहा जाता है। गौतम बुद्ध, महावीर, कालीदास, महात्मागांधी, शेक्सपियर, कार्ल मार्क्स आदि महान व्यक्तियों को इसी सामाजिक अमरता के अर्थ में अमर माना जाता है। सामाजिक अमरता के सिद्धांत के अनुसार मृत्यु केवल व्यक्ति की होती है, उसके विचार या सिद्धांत की नहीं। अपनी मृत्यु के पश्चात भी यह अपने महान विचारों अथवा सिद्धांतों के रूप में सदा जीवित रहता है।
परंतु सामाजिक अमरता के सिद्धांत में भी कुछ कठिनाईयां हैं। इस सिद्धांत की प्रथम कठिनाई यह है कि इसके अनुसार कुछ थोड़े से व्यक्ति ही अमरता प्राप्त कर सकते हैं, सभी मनुष्य नहीं। इसका कारण यह है कि ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत कम होती है जो समाज को अमूल्य तथा क्रांतिकारी विचार और सिद्धांत प्रदान कर सकते हैं। सामान्य व्यक्तियों के लिए ऐसा करना संभव नहीं। स्पष्टतः उसका अर्थ यही है कि ये सामान्य व्यक्ति अमरता प्राप्त नहीं कर सकते। इस प्रकार सामाजिक अमरता का यह सिद्धांत भी अमरता के क्षेत्र को बहुत सीमित कर देता है। इस सिद्धांत की दूसरी कठिनाई यह है कि यह सिद्धांत भी मनुष्य में विद्यमान मृत्यु के भय को समाप्त नहीं कर पाता। साधारण व्यक्ति यह जानता है कि वह समाज को कोई नवीन विचार या सिद्धांत न दे सकने के कारण अमर नहीं हो सकता, अतः वह मृत्यु के पश्चात अपने पूर्ण विनाश के विचार से भयभीत रहता है। सामाजिक अमरता का सिद्धांत इस भय के निराकरण के संबंध में उसे कोई आश्वासन नहीं देता। ऐसी स्थिति में साधारण व्यक्ति के लिए इस सिद्धांत का कोई महत्व नहीं हो सकता। संभवतः इसीलिए किसी धर्म ने इस सिद्धांत को भी धार्मिक धर्म ने इस सिद्धांत को भी धार्मिक विश्वास के रूप में स्वीकार नहीं किया।
अमरता के अर्थ अथवा स्वरूप को उसके वर्गीकरण द्वारा भी समझा जा सकता है। व्यक्तित्व की दृष्टि से अमरता को दो वर्गों में विभाजित किया गया है-व्यक्तित्वपूर्ण अमरता और व्यक्तित्व रहित अमरता।
व्यक्तित्वपूर्ण अमरता वह है जिसमें मनुष्य की मृत्यु के पश्चात भी आत्मा चेतना से परिपूर्ण उसका वयक्तित्व बना रहता है। इसका अर्थ यह है कि मृत्यु के फलस्वरूप मनुष्य के आत्म चेतनापूर्ण व्यक्तित्व का नाश नहीं होता और मोक्ष प्राप्त करने तक वही मनुष्य बार-बार जन्म लेता है। अधिकतर भारतीय दर्शनों में इसी व्यक्तित्वपूर्ण अमरता को स्वीकार किया गया है। धार्मिक दृष्टि से इस प्रकार की अमरता का बहुत महत्व है, क्योंकि भक्त सदा ईश्वर के समीप रहने तथा उसकी उपासना करने के लिए अपना प्रथम व्यक्तित्व बनाए रखना चाहता है।
इस व्यक्तित्वपूर्ण अमरता के विपरीत व्यक्तित्व रहित अमरता में मनुष्य की मृत्यु के उपरांत उसका आत्मचेतनापूर्ण व्यक्तित्व परमसत्ता में उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जिस प्रकार बुंद सागर में गिरकर लुप्त हो जाती है। इस प्रकार की अमरता के समर्थकों का कहना है कि मृत्यु के पश्चात मोक्ष प्राप्त होने पर मनुष्य का परम सत्ता के साथ तादात्यमय हो जाता है और उसी कारण वह अमरता प्राप्त कर लेता है। अद्वैत वेदांत इसी प्रकार की व्यक्तित्वरहित अमरता को स्वीकार किया गया है। परंतु धार्मिक दृष्टि से इस प्रकार की अमरता का कोई महत्व नहीं, क्योंकि इसमें भक्त का अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऐसी अमरता को वास्तविक अर्थ में अमरता नहीं कहा जा सकता, जिसमें मनुष्य का अस्तित्व ही शेष नहीं रह जाता। इसी कारण किसी भी धर्म में इसे स्वीकार नहीं किया जाता। जहां तक गीता में आत्मा के उल्लेख का प्रश्न है, गीता में कहा गया है-
नासतो विद्यते भावो न भावो विद्यते सतः।
इसके अनुसार असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और जो सत् वस्तु है, उसका अभाव नहीं है।
(ii)ईश्वरीय अंश के आधार पर-गीता के अनुसार आत्मा ईश्वरीय अंश है और ईश्वरीय अंश होने के कारण वह नित्य और शाश्वत है। गीता में कहा गया हैः
(a) ममैवांशों जीव लोके
जीव भूतो सनातनः
अर्थात् मेरा ही अंश जीव लोक में जीवों के रूप में सनातन है।
(b) गीता के अनुसार आत्मा निरवयव है इसलिए इसे काटा नहीं जा सकता, जलाया नहीं जा सकता, गलाया या सुखाया नहीं जा सकता।
(c) यह आत्मा कभी जन्म ग्रहण नहीं करता, यह अमर्त्य भी है अथवा ऐसा भी नहीं है कि एक बार हो और फिर उसके पश्चात उसकी मृत्यु न हो। जन्मरहित, मृत्युरहित, नित्य तथा सनातन यह आत्मा देह के विनाश होने पर भी स्वयं नष्ट नहीं होता। शास्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इस आत्मा को भिगो नहीं सकता, वायु इसे सुखा नहीं सकती।
(iii)गीता के अनुसार जो आत्मा सर्वव्यापी सत्ता रूप में सर्वत्र विद्यमान है, वह अविनाशी और अव्यय ही होगा।
(iv)कर्म नियम पर आधारित-गीता में कर्म नियम की व्याख्या करने के निमित्त भी आत्मा की अमरता को स्वीकार किया गया है। कर्म नियम के अनुसार मनुष्य को उसके अच्छे या बुरे कर्मों के फल को भोगना पड़ता है, परंतु व्यावहारिक जीवन में हम इसकी विपरीत स्थिति देखते हैं। सांसारिक जीवन में हम प्रायः देखते हैं कि कर्म करने वाले दुखी है और दुष्कमों में संलग्न व्यक्ति सुखी हैं। धार्मिक व्यक्ति इसकी व्याख्या आत्मा की अमरता के आधार पर करता है। उसके अनुसार वही आत्मा जिसने पूर्व जन्म में अच्छा कर्म किया था, वर्तमान जीवन में बुरा कर्म करते हुए भी सुख को प्राप्त कर रहा है। यहां धार्मिक व्यक्ति यह भी कहता है कि वर्तमान में किये गये अच्छे बुरे कर्मों का फल भविष्य में अवश्य मिलेगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि आत्मा की अमरता का तात्पर्य केवल भविष्य में जीव बने रहना मात्र नहीं है, बल्कि उच्चतर एवं परम जीवन से है जो मोक्ष की स्थिति में साकारित होता है और जहां समस्त नैतिक व सामाजिक मूल्य अपनी पूर्णता में उपस्थित होते हैं।
परंतु आत्मा की अमरता को सिद्धांत की तीव्र आलोचना की गयी है। चार्वाक आत्मा नामक किसी स्वतंत्र द्रव्य में विश्वास ही नहीं करते। चार्वाक के अनुसार चेतन शरीर ही आत्मा है। दर्शन में आत्मा को स्थायी एवं नित्य द्रव्य के रूप में आत्मा का निषेध किया गया है। ह्यूम का कथन है कि आत्म प्रत्ययों का पूंज है एवं अनुभव जन्य नहीं है। तार्किक भाववादी आत्मा एवं अन्य अतीन्द्रिय तत्वों के बारे में किसी भी वाक्य को निरर्थक मानते हैं क्योंकि अनुभव से इसका सत्यापन संभव नहीं होता।
Question : अद्वैत वेदांत के अनुसार मोक्ष के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
(2002)
Answer : अन्य भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों की भांति शंकराचार्य भी मोक्ष अथवा मुक्ति को ही मानव जीवन का अंतिम ध्येय मानते हैं, किंतु उन्होंने मोक्ष की व्याख्या कुछ भिन्न प्रकार से की है, जो मूलतः उनके अद्वैतवाद पर आधारित है। वे समस्त भेदों से रहित निर्गुण तथा निराकार ब्रह्म को ही एकमात्र अंतिम सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं। आत्मा या जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है। अविद्या के कारण जीव देह, इन्द्रिय और अंतःकरण से तादात्म्य कर अहंकार ममकार युक्त होकर को शुभाशुभ कर्मों का कर्ता कर्मफल का भोक्ता मानकर जन्म मरण चक्र में संसरण करता है, यही उसका बंधन है। जब आत्मज्ञान द्वारा अविद्या निवृत हो जाती है तो जीव ब्रह्मभाव को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मोक्ष अविद्या निवृत्ति है।
पुनः शांकर वेदांत में मोक्ष आत्मा या ब्रह्म के स्वरूप की अनुभूति है। आत्मा ज्ञान स्वरूप है और मोक्ष आत्मा का स्वरूप ज्ञान है। जिस प्रकार भगवान बुद्ध के अनुसार अद्वैत परमतत्व है और निर्वाण एक ही है, उसी प्रकार शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म और मोक्ष एक ही है। जो ब्रह्म को जानता है वह ब्रह्म हो जाता है। इस श्रुतिवाक के अनुसार ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मभाव एक ही है। वस्तुतः जीव ब्रह्म होता नहीं है, ब्रह्मज्ञान में कोई क्रिया नहीं है, क्योंकि जीव सदैव ब्रह्म है। अतः मोक्ष ब्रह्म भाव है, ब्रह्म साक्षात्कार है।
पुनः बंधन और मोक्ष दोनों व्यावहारिक हैं तथा परमार्थतः मिथ्या है। ब्रह्मात्म्यैक्य के त्रिकालसिद्ध और नित्य होने के कारण जीव का न हो बंधन होता है और न मोक्ष। केवल अविद्या ही आती है और अविद्या ही जाती है और अविद्या भ्रांति है, अतः उसका आवागमन, उसकी प्रवृति और निवृति भ्रांतिरूप है। अतः बंधन और मोक्ष पारमार्थिक रूप से असत्य है और मिथ्या है, इसीलिए असत् है। इनकी केवल व्यावहारिक सत्ता है।
मोक्ष या अविद्या निवृत्ति काल सापेक्ष नहीं है। अपितु भ्रम की अवस्था या अविद्या से ब्रह्म भ्रमनिवारण की अवस्था में आने में समय का अंतर होता है तथापि भ्रम पदार्थ के त्रिकाल में असत् होने के कारण भ्रम और उसकी निवृति को कालसापेक्ष नहीं माना जा सकता।
पुनः शंकर वेदांत में मोक्ष नित्य प्राप्त की प्राप्ति है। तात्पर्य यह है कि मोक्ष या मुक्ति आत्मा को किसी नवीन अवस्था की प्राप्ति नहीं है। यह आत्मा के नित्यस्वरूप का ही साक्षात्कार है। यह न तो परमार्थतः उत्पन्न होती है और न पहले से अप्राप्त है। यह शाश्वत सत्य का अनुनाद है।
मोक्ष नित्य अशरीरत्व है। यहां अशरीरत्व से आचार्य का अर्थात् शरीर रहित नहीं बल्कि शरीर संबंध रहित है। आत्मा एवं शरीर का संबंध अविद्याजन्य है, देयध्या के कारण मिथ्याज्ञानिमित्र है, अविद्यानिवृत्ति होने पर देहाध्यान भी निवृत्त हो जाता है तथा शरीर के रहने पर भी शरीर संबंध की आत्यांतिक निवृत्ति के कारण अशरीरत्व सिद्ध होता है एवं जीवन मुक्ति सिद्ध होती है। इस अशरीर को सुख दुख स्पर्श नहीं करते। जिस प्रकार सर्प की अपनी केंचुल को उतार फेंकने पर उसमें कोई आसक्ति नहीं रहती, उसी प्रकार जीवनमुक्त की अपने शरीर में कोई आसक्ति नहीं रहती क्योंकि वह अशरीर अमृत ही ब्रह्म है।
इसी आधार पर आचार्य कहते हैं कि मोक्ष मृतकों के लिए आरक्षित नहीं है। उसे इसी जीवन में प्राप्त किया जा सकता है। पुनः आचार्य के अनुसार मोक्ष विदेहमुक्ति भी है। जीवन मुक्त का शरीर प्रारब्धकर्म के कारण कुछ समय तक बना रहता है, किंतु इस अवधि में नवीन कर्म संचय नहीं होता। प्रारब्धकर्म के नष्ट होने पर देहपात होकर विदेहमुक्ति होती है। इस प्रकार स्थूल सूक्ष्म एवं कारण शरीर नष्ट हो जाता है और विदेहमुक्ति की प्राप्ति होती है।
मोक्ष लौकिक एवं स्वर्गिक सुख से भिन्न है। लौकिक एवं स्वर्गिक सुख कर्मजन्य है। वे धर्म या सत्कर्म की पुण्य नामक शक्ति से उत्पन्न होते हैं तथा पुण्य समाप्त होते ही वे सुख भी समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः मोक्ष नित्य आनंद है। यह नित्य सच्चिदानंदस्वरूप है। इसका ज्ञान और आनंद से संबंध नहीं है। यह शुद्ध चैतन्य आनंद है। मोक्ष कार्य का उत्पाद नहीं है। इसे किसी कारण द्वारा उत्पन्न नहीं माना जा सकता। कर्म को कार्य या उपाधि मानने पर मोक्ष अनित्य होगा। पुनः यह ब्रह्मज्ञान द्वारा उत्पन्न फल नहीं है। ज्ञान प्रकाशक होता है, कारक नहीं। ब्रह्मज्ञान केवल मोक्ष प्रतिबंध अविद्या को निवृत करता है, मोक्ष को उत्पन्न नहीं करता।
ब्रह्मज्ञान मोक्ष अविद्यानिवृत्ति और प्रपंच विलय ये सब एक ही हैं और एक साथ होते हैं एवं उनमें कार्यान्तर नहीं होता। वे एकसाथ होते हैं, यह कथन भी उपचार मात्र क्योंकि वे वस्तुतः एक ही है।
शंकर कहते हैं जब श्रुति का तत्वमसि उपदेश वाक्य अहं ब्रह्मास्मि इस अनुभव वाक्य में परिणत हो जाए, तब साक्षात्कार होता है। ततत्वमसि में तत् पद परब्रह्म के सूचित करता है जो अधिष्ठानभूत तत्व है। तत्व पद जीव को सूचित करता है जो साक्षी और अविद्या का मिश्रण है। अति पद से दोनों के पूर्ण तादात्य का तादात्म्य होता है। यह महावाक्य जीव के आरोपित जीवत्व का निषेध करके उसके ब्रह्मस्वरूप का पुनर्विधान करता है-तुम ब्रह्म हो, जीव ब्रह्म ही है शंकर के अनुसार मोक्ष सद्यःमुक्ति है। उन्हें क्रममुक्तिज्ञान होतो ही मुक्ति है।
शंकर का मोक्ष सिद्धांत सकारात्मक भी है और निषेधात्मक भी। शंकर ने जीवन मुक्ति की अवस्था में आत्मा को विशुद्ध चैतन्य स्वरूप तथा अखंड आनंदस्वरूप माना है। इस दृष्टि से उनका मोक्ष विषयक सिद्धांत न्याय वैशेषिक तथा मीमांसा के मोक्ष संबंधी सिद्धांत से अधिक वांछनीय है जो युक्तावस्था में आत्मा को सभी प्रकार के अनुभव से रहित मानते हैं। इस युक्तावस्था में जीव सांसारिक कर्म करते हुए भी उसमें आसक्त न होने के कारण उनके प्रभाव से मुक्त होकर समस्त कर्म लोककल्याण के लिए करता है। यह अवस्था महा या सद्यः मुक्ति है। बौद्ध द्वारा प्रस्तुत बोधिसत्व तथा भगवदगीता के स्थितप्रज्ञ के समान है। इस रूप में यह सकारात्मक है और मानव जीवन के उच्चतम आदर्श तथा अंततम लक्ष्य की दृष्टि से संतोषप्रद है।
परंतु शंकर के मोक्ष का विदेह मुक्ति की अवस्था निषेधात्मक प्रतीत होता है। विदेह मुक्ति में स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के समाप्त होने से आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है और उसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह कहना निरर्थक है, मोक्ष की प्राप्ति के पश्चात आत्मा विशुद्ध चैतन्यस्वरूप और आखंड आनंद के परिपूर्ण हो जाती है। परंतु मोक्ष का यह निषेधात्मक अर्थ आत्मा को एक कार्य उत्पाद अनिावर्य या परिणामी मानने के समझ पर आधारित है जबकि शांकर वेदांत में आत्मा नित्य कुटस्थ अपरिणामी नित्य तृप्त निरवयव स्वयंज्योतिस्भाव एवं कालत्रयाती है। अतः यहां मोक्ष का निषेधाात्मक अर्थ वांछित प्रतीत नहीं होता।
Question : जीवन मुक्ति।
(1999)
Answer : हिंदु धर्म तथा संस्कृति में मोक्ष की या मुक्ति की अवधारणा का अत्यधिक महत्व है। भारतीय विचारकों ने मानव जीवन के लिए जिन चार पुरूषार्थों को अनिवार्य माना है, उनमें मोक्ष को ही सर्वोच्च स्थान दिया गया है। भौतिकवादी दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शन मुक्ति (मोक्ष) को ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य मानते हैं, परंतु मोक्ष के स्वरूप को लेकर इन विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों में एकमत नहीं है। परंतु कुछ मान्यताओं को ये सभी दर्शन समान रूप से स्वीकार करते हैं। उदाहरणार्थ, सभी दर्शन यह मानते हैं कि मोक्ष के फलस्वरूप जीव के समस्त दुःखों का आत्यांतिक विनाश हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के पश्चात उसे शारीरिक तथा मानसिक किसी प्रकार के दुःख का अनुभव नहीं होता। आत्यांतिक दुख निवृत्ति के अतिरिक्त सभी दर्शन यह भी स्वीकार करते हैं कि मोक्ष के परिणामस्वरूप जीव सांसारिक जन्म मरण के चक्र से पूर्णतः मुक्त हो जाता है। पुनः बौद्ध दर्शन को छोड़कर अन्य सभी दर्शन इस मान्यता में भी विश्वास करते हैं कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए आत्मा का शरीर और मन से पूर्ण संबंध विच्छेद अनिवार्य है। इस संदर्भ में अधिकतर भारतीय दर्शन विदेह मुक्ति में विश्वास करते हैं। इन दर्शनों का मत है कि मृत्यु के उपरांत शरीर एवं इन्द्रिय के नष्ट होने के फलस्वरूप ही आत्मा का उनसे पूर्ण संबंध विच्छेद संभव है। अतः विदेह मुक्ति ही मुक्ति के साथ-साथ जीवन मुक्ति में भी विश्वास करते हैं। जीवन मुक्ति का अर्थ है, इस संसार में जीवित रहते हुए भी मोक्ष अथवा मुक्ति प्राप्त किया जा सकता है। अतः जीवन मुक्ति के लिए मृत्यु अनिवार्य है। इस अर्थ में बौद्ध दर्शन का निर्वाण भी जीवन मुक्ति ही है और स्वयं बुद्ध इसके प्रबल उदाहरण है। निरंतर आध्यात्मिक ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करके समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाना ही शंकर वेदान्त में जीवन मुक्ति है। सांख्य दर्शन में पुरूष द्वारा अपने नित्य स्वरूप को पहचान ही जीवन मुक्ति है। बौद्ध दर्शन में चार्य आर्य सत्यों के निरंतर अनुशीलन से निर्वाण अर्थात् इसी जीवन में मुक्ति संभव है, परंतु जहां वेदांत एवं बौद्ध दर्शन में जीवन मुक्ति सतत् आनंद की अवस्था है, वही सांख्य दर्शन में जीवन मुक्ति आनंद की अवस्था है, वहीं सांख्य दर्शन में आत्मा का स्वरूप वेदांत एवं बौद्ध दर्शन के आत्म स्वरूप से भी भिन्न है। जीवन मुक्ति की अवस्था में मनुष्य सांसारिक कर्म करते हुए भी उनमें असक्त न होने के कारण उनके प्रभाव से पूर्णतया मुक्त रहता है। वह समस्त कर्म स्वार्थ सिद्धि के लिए न करके केवल लोकसंग्रह अथवा लोककल्याण के लिए ही करता है। ऐसे निष्काम कर्म उसके पुनर्जन्म का कारण नहीं बनते। इसके अतिरिक्त अद्वैत वेदांत के अनुसार ब्रह्मज्ञान के फलस्वरूप जीवन मुक्त के पूर्व संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। अतः भविष्य में उसके पुनर्जन्म की संभावना समाप्त हो जाती है। इस प्रकार वह जीवित रहते हुए ही जन्म मरण के दुःखमय सांसारिक चक्र से मुक्त हो जाता है। इसी कारण उसे जीवन मुक्त की संज्ञा दी जाती है। ऐसे मनुष्य अपने पराए के भेद से ऊपर उठकर केवल लोकोपकार के लिए ही जीवित रहता है। वह संसार में रहते हुए भी सांसारिक विषयभोगों से लिप्त नहीं होता और सदैव िनष्काम भाव से केवल लोक कल्याणार्थ समस्त कर्म करता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि जीवन मुक्त इस संसार में जीवन व्यतीत करते हुए भी उसमें आसक्ति न रखने के कारण उससे पृथक रहता है और उसकी इसी आसक्ति रहित अवस्था को जीवन मुक्ति कहा जाता है। शंकर के दर्शन में यह मोक्ष का प्रथम सोपान है। परंतु मुक्ति का यह आदर्श निश्चित रूप से व्यक्ति के लिए उपादेय है। बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व का आदर्श जीवनमुक्त पुरूष का श्रेष्ठ उदाहरण है। गीता में जीवनमुक्त पुरूष के लिए ‘स्थितप्रज्ञ’ विशेषण का प्रयोग किया गया है।
Question : भारतीय धार्मिक मतों में पुनर्जन्म के सिद्धांत की महत्ता को समझाइए। इस सिद्धांत के पक्ष में दिए गए मुख्य तर्कों का परीक्षण कीजिए।
(1998)
Answer : शाब्दिक दृष्टि से पुनर्जन्म का अर्थ है- फिर से जन्म लेना। परंतु भारतीय विचारक जब पुनर्जन्म की बात करते हैं तो इससे उनका तात्पर्य होता है किसी व्यक्ति का इस संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करना। इस प्रकार पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति इस जगत में बार-बार जन्म लेता है और उसके लिए जन्म-मरण का यह चक्र तब तक निरंतर चलता रहता है जब तक उसे मोक्ष प्राप्त हो नहीं जाता। भारतीय दार्शनिकों के विचार में आत्मा अमर है, अतः मृत्यु केवल शरीर की होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा एक शरीर का परित्याग करके दूसरा शरीर ग्रहण कर लेती है, और इसे ही पुनर्जन्म कहा जाता है। स्पष्ट है कि अधिकतर भारतीय विचारक पुनर्जन्म के सिद्धांत को आत्मा की अमरता के सिद्धांत पर ही आधारित मानते है। उनका विचार है कि प्रत्येक मनुष्य को आत्मा अपने कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करती है अतः पुनर्जनम के लिए वे आत्मा की अमरता के साथ-साथ कर्मवाद को भी आवश्यक मानते हैं। चार्वाक तथा बौद्ध दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शनों का यही मत है। इस प्रकार अधिकतर भारतीय दार्शनिक पुनर्जन्म का सिद्धांत, कर्मवाद तथा आत्मा की अमरता इन तीनों सिद्धांतों को एक ही साथ स्वीकार करते हैं। परंतु बौद्ध दर्शन आत्मा की अमरता को न स्वीकार करते हुए भी कर्मवाद तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत में विश्वास करता है। इस दर्शन के अनुसार मनुष्य के कर्मों द्वारा जो सूक्ष्म संस्कार उत्पन्न होते हैं उन्हीं के फलस्वरूप उसका पुनर्जन्म होता है, इस्लाम, ईसाई धर्म और यहूदी धर्म का मत इससे भिन्न है। ये तीनों धर्म किसी न किसी रूप में आत्मा की अमरता तथा कर्मवाद में तो विश्वास करते हैं, किंतु ये पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते।
पुनर्जन्म के सिद्धांत से यह स्पष्ट है कि आज संसार में जो प्राणी हैं, वे किसी न किसी रूप में पहले भी थे और भविष्य में भी सदा किसी न किसी रूप में विद्यमान रहेंगे। केवल उनके शरीरों में ही परिवर्तन होता रहता है और होता रहेगा। आत्मा के विपरीत शरीर नाशवान है, अतः जब किसी प्राणी का पुनर्जन्म होता है तो वह उसके पूर्व जन्म तथा वर्तमान जन्म में कोई शारीरिक निरंतरता या अविच्छिन्नता नहीं रहती। उसकी आत्मा प्रत्येक जन्म में नया शरीर ग्रहण करती है। इस प्रकार शारीरिक दृष्टि से प्रत्येक जन्म में प्राणी अपने पूर्व जन्म से पूर्णतः भिन्न होता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि कोई प्राणी प्रत्येक जन्म में वैसा ही शरीर ग्रहण करे जैसा उसके पूर्व जन्म में था। वह अपने कर्मानुसार मनुष्य, पशु, पक्षी या कीड़े का शरीर प्राप्त कर सकता है। किसी भी रूप में नया जन्म ग्रहण करने के पश्चात सामान्यतः प्राणी में अपने पूर्व जन्म की कोई स्मृति शेष नहीं रह जाती। परंतु पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार करनेवाले विचारक यह मानते हैं कि कभी-कभी किसी मनुष्य में अपने पूर्व जन्म की कुछ स्मृतियां शेष रह जाती हैं और यह तथ्य इस सिद्धांत की पुष्टि करता है। समय-समय पर पुस्तकों तथा समाचार पत्रें में ऐसे व्यक्तियों की जीवन कथाएं प्रकाशित होती रहती हैं, जो अपने पूर्व जन्म में घटित घटनाओं का सही विवरण देते हैं। पुनर्जन्म के सिद्धांत के समर्थकों का दावा है कि इन व्यक्तियों का यह विवरण इस सिद्धांत को सत्य प्रमाणित करता है। इस प्रकार अधिकतर भारतीय विचारक आत्मा की अमरता और कर्मवाद की भांति इनसे संबद्ध पुनर्जन्म के सिद्धांत में भी पूर्णतः विश्वास करते हैं।
परंतु जहां तक पुनर्जन्म के सिद्धांत को युक्तिसंगतता का प्रश्न है, इस सिद्धांत में कई दोष हैं। इस सिद्धांत के समर्थक बिना किसी प्रामाणिक तथा विश्वसनीय तर्क के सिर्फ आस्था के आधार पर इस सिद्धांत को स्वीकार कर लेते हैं। वे इसकी पुष्टि के लिए कोई निश्चित एवं असंदिग्ध प्रमाण प्रस्तुत नहीं करते। आत्मा की अमरता से संबंधित विश्वास इस सिद्धांत का प्रमुख आधार है जो अत्यंत दुर्बल तथा अप्रमाणिक है। इस विश्वास को तर्कों द्वारा सत्य प्रमाणित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके समर्थन में अभी तक युक्तियां दी गयी हैं, वे सभी दोषपूर्ण होने के कारण अविश्वसनीय हैं। ऐसी स्थिति में यदि आत्मा की अमरता के विचार को स्वीकार न किया जाए तो पुनर्जन्म के सिद्धांत का मुख्य आधार ही समाप्त हो जाता है। इस प्रकार यह सिद्धांत एक ऐसे विश्वास पर आधारित है जो अप्रमाणित होने के कारण स्वयं निराधार है, अतः दार्शनिक दृष्टि से इसका समर्थन करना संभव नहीं है।
यहां यह कहा जा सकता है कि बौद्ध दार्शनिक आत्मा की अमरता को स्वीकार किए बिना ही पुनर्जन्म के करने सिद्धांत में विश्वास करते हैं। परंतु उन्होंने इस सिद्धांत को स्वीकार करने के लिए मानवीय कर्मों से उत्पन्नशृंखला का जो आधार प्रस्तुत करते हैं, वह पूर्णतः संतोषप्रद तथा युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। वस्तुतः यह समझना अत्यंत कठिन है कि किसी शाश्वत द्रव्य के बिना ये संस्कार किस प्रकार नया शरीर ग्रहण करते हैं। यदि यह विश्व केवल सतत प्रवाह है और सब कुछ क्षणिक तथा निरंतर परिवर्तनशील है, जैसा कि बौद्ध दार्शनिक मानते हैं तो मूल प्रश्न यह है कि जन्म किसका होता है। बौद्ध दार्शनिक इस प्रश्न का कोई संतोषप्रद एवं मुक्तिसंगत उत्तर नहींदे सकते। संभवतः इसी कारण अधिकतर भारतीय दार्शनिक पुनर्जन्म के सिद्धांत के संबंध मेंउनकी इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि बौद्ध दार्शनिक भी पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार करने के लिए कोई तर्कसंगत आधार प्रस्तुत नहीं कर पाते।
पुनः पुनर्जन्म के सिद्धांत की यह आधारभूत मान्यता है कि प्रत्येक प्राणी इस संसार में बार-बार जन्म लेता रहता है। इसका अर्थ यह है कि हम किसी भी विशेष मनुष्य या अन्य प्राणी के विषय में यह कह सकते हैं कि उसका पुनर्जन्म हुआ है। परंतु यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि हमारे इस कथन का आधार क्या है? हम किस आधार पर यह कह सकते हैं कि आज हम किस विशेष व्यक्ति को देख रहे हैं उसका पुनर्जन्म हुआ है? यह एक ऐसा जटिल प्रश्न है जिसका कोई संतोषजनक उत्तर देना संभव प्रतीत नहीं होता। यह स्पष्ट है कि जिस विशेष व्यक्ति को हम आज देख सकते हैं, उसका शरीर वह नहीं है, जो इसके पूर्व जन्म में था। इस तथ्य को पुनर्जन्म के सिद्धांत के समर्थक भी स्वीकार करते हैं, जिसका अर्थ यह है कि शारीरिक निरंतरता या अविच्छिन्नता पुनर्जन्म के सिद्धांत का आधार नहीं है। फिर हम किस प्रकार यह कह सकते हैं कि वर्तमान काल में ‘ख’ वही व्यक्ति है जो पूर्व जन्म में ‘क’ था? क्या इन दोनों व्यक्तियों में कोई ऐसी समानता खोजी जा सकती है, जिसके आधार पर युक्तिसंगत रूप से यह कहा जा सके कि वस्तुतः ‘क’ का ही ‘ख’ के रूप में पुनर्जन्म हुआ है?
उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में पुनर्जन्म के सिद्धांत के समर्थक यह कहते हैं कि ‘क’ और ‘ख’ नामक इन दोनों व्यक्तियों में मानसिक तथा बौद्धिक गुणों की समानता पायी जाती है। उदाहरणार्थ यदि ‘क’ पूर्व जन्म में सहनशील, उदार, विचारक तथा विद्वान था तो ‘ख’ भी इस जन्म में सहनशील, उदार विचारक और विद्वान होगा। इसी प्रकार यदि क पूर्व जन्म में क्रोधी, लोभी तथा मंदबुद्धि था तो ‘ख’ भी इस जन्म में ‘ख’ का मानसिक व्यक्तित्व वैसा ही है जैसा ‘क’ का पूर्व जन्म में था। परंतु यह मान्यता अयुक्तिसंगत और निराधार है। सर्वप्रथम हम यह कभी नहीं जान सकते कि इस समय ‘ख’ नामक व्यक्ति में जो गुण हैं, वे सैकड़ों वर्ष पूर्व क नामक किसी अन्य व्यक्ति में थे। फिर हम यदि यह जान भी लेते हैं तो भी इससे यह प्रमाणित नहीं हेाता कि वास्तव में ‘ख’ वही व्यक्ति है जो सैकड़ों वर्ष पूर्व ‘क’ था। किन्हीं दो व्यक्तियों में विद्यमान कुछ मानसिक गुणों की समानता के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वे दोनों एक ही व्यक्ति हैं। संसार में समान मानसिक गुणों वाले व्यक्ति भी हो सकते हैं और होते भी हैं। पुनर्जन्म सिद्धांत के समर्थक स्मृतियों से संबंधित तर्क देते हैं परंतु यह तर्क भी विश्वसनीय नहीं है। ऐसा इसलिए कि अभी तक वस्तुपरक वैज्ञानिक विधियों द्वारा ऐसे विवरणों की निष्पक्ष परीक्षा नहीं की जा सकी है, जिन्हें पूर्वजन्म का विवरण बताया जाता है। सामान्य परीक्षा द्वारा ऐसे विवरण निराधार एवं मिथ्या प्रमाणित हुए हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म सिद्धांत किसी भी तर्क के द्वारा सामाजिक या व्यक्तिगत जीवन के लिए उपादेय प्रतीत नहीं होता और न ही यह सिद्धांत किसी अर्थ में प्रासंगिक प्रतीत होता है।
Question : अनासक्त कर्म की राह।
(1997)
Answer : कर्म मनुष्य की वह शारीरिक अथवा मानसिक क्रिया है, जो बाह्य या आंतरिक जगत में कोई परिवर्तन उत्पन्न करती है और जिसके फलस्वरूप स्वयं उसके लिए अथवा दूसरों के लिए कुछ दृश्य या अदृश्य परिणाम अनिवार्यतः उत्पन्न होते हैं। मनुष्य की यह क्रिया ऐच्छिक भी हो सकती है और अनैच्छिक भी। अतः मानवीय कर्मों को भी सामान्यतः अनैच्छिक कर्म तथा ऐच्छिक कर्म इन दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जाता है। अनैच्छिक कर्म वे हैं जिन्हें मनुष्य सोच समझकर अपनी इच्छानुसार किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए नहीं करता, और जिस पर उसका नियतंत्रण नहीं रहता। जैसे-पलक झपकना, छींक आना आदि। इसके लिए मनुष्य नैतिक दृष्टि से उत्तरदायी नहीं होता। कर्म सिद्धांत के अनुसार मनुष्य अपने कर्मों के लिए पूर्ण रूप से उत्तरदायी है, अतः इस सिद्धांत के अंतर्गत कर्म शब्द का प्रयोग अनैच्छिक कर्म के अर्थ में नहीं किया जाता। मनुष्य के ऐच्छिक कर्म वे हैं जिन पर उनका पूरा नियंत्रण होता है और जिन्हें वे करने या न करने के लिए स्वतंत्र होते हैं। ऐसे कर्मों के लिए व्यक्ति नैतिक दृष्टि से उत्तरदायी होते हैं। कर्म सिद्धांत के अनुसार ऐच्छिक कर्म ही शुभ या अशुभ होते हैं, और इन्हीं कर्मों से सुख या दुखद फल प्राप्त होता है। कर्म सिद्धांत की यह मान्यता है कि मनुष्य अपने शुभ या अशुभ कर्मों के कारण ही इस संसार में सुख या दुःख भोगता है और वह स्वयं ही अपने कर्मों द्वारा अपने भाग्य का भी निर्णय करता है। भारतीय धर्मशास्त्रें, स्मृतियों, पुराणों तथा दर्शनों के अनुसार फलाकांक्षा की दृष्टि से कर्मों को दो वर्गों में बांटा गया है- काम्य कर्म और निष्काम या अनासक्त कर्म। काम्य कर्म वे हैं जिन्हें मनुष्य किसी विशेष कामना या इच्छा से प्रेरित होकर ही करता है। इसके द्वारा मनुष्य अपनी व्यक्तिगत इच्छा या आकांक्षा की पूर्ति करता है। यह इच्छा। सांसारिक भी हो सकती है या फिर स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा। इसके विपरीत निष्काम या अनासक्त कर्म वे हैं जिन्हें फलासक्ति रहित होकर करता है अर्थात् जिन्हें करते हुए वह स्वयं अपने लिए किसी प्रकार के लाभ की इच्छा नहीं करता। केवल सामाजिक हित या लोक कल्याण की इच्छा से प्रेरित होकर किए गए कर्म ही निष्काम या अनासक्त कर्म हैं। इससे स्पष्ट है कि निष्काम कर्म का अर्थ ऐसे कर्म नहीं हैं, जिन्हें करने के लिए मनुष्य के मन में कोई इच्छा होती है ही नहीं। वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य के लिए ऐसे कर्म करना संभव ही नहीं है जिन्हें करने के लिए उसके मन में कोई इच्छा न हो। इसका कारण यह है कि प्रत्येक ऐच्छिक कर्म अनिवार्यतः किसी इच्छा द्वारा प्रेरित होता है और किसी विशेष लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही किया जाता है। ऐसी स्थिति में इच्छारहित ऐच्छिक कर्म की बात करना निश्चय ही स्वतोव्याघाती होगा। यह रूपष्ट है कि निष्काम कर्म ऐच्छिक कर्म ही होते हैं, अनैच्छिक कर्म नहीं। इसी कारण इन कर्मों को इच्छारहित कर्म न मानकर फलासक्ति रहित कर्म ही माना जाता है, जिसका अर्थ यह है कि इन्हें करते समय मनुष्य के मन में स्वयं अपने लिए कुछ प्राप्त करने की मामना नहीं होती। इन कर्मों का एकमात्र लक्ष्य लोकसंग्रह अथवा सामाजिक कल्याण ही होता है। इस प्रकार से निष्काम कर्म मनुष्य की अपनी स्वार्थसिद्धि से प्रेरित न होकर लोककल्याण की कामना से प्रेरित होते हैं। ये कर्म केवल अपने कर्तव्य का पालन करने की इच्छा से प्रेरित होकर कभी किए जाते हैं। भगवद्गीता तथा कुछ भारतीय दर्शनों में इन निष्काम अथवा अनासक्त कर्म को विशेष महत्व दिया गया है। कांट ने भी अपने नैतिक दर्शन में स्वकर्तव्य चेतना से प्रेरित इन कर्मों को सर्वाधिक महत्व दिया है और इन्हें वास्तविक अर्थ में नैतिक कर्म माना है। इस तरह कर्म सिद्धांत के अनुसार काम्य कर्मों की अपेक्षा अनासक्त कर्म की राह मनुष्य के लिए अधिक श्रेयस्कर है। गीता में ऐसे कर्म करने वालों को स्थितिप्रज्ञ तथा बौद्ध दर्शन में बेधिसत्व कहा गया है।