Question : संप्रभुता की अवधारणा की व्याख्या करें। इस संदर्भ में इस कथन की आलोचनात्मक समीक्षा करें की संप्रभुता असीमित एवं तर्कतः अविभाज्य है।
(2006)
Answer : जनसंख्या, निश्चित भू-क्षेत्र, सरकार व संप्रभुता राज्य के इन चार तत्वों में से संप्रभुता ही वह तत्व है जो राज्य को अन्य सभी संगठनों से अलग करता है, साथ ही राज्य के आदेशों को सभी संगठनों पर बाध्यकारी बनाता है। इसी संप्रभुता से राज्य विधिक संस्था का रूप पाता है और समाज से राज्य के रूप में प्रतिष्ठित होता है।
संप्रभुता के संबंध में मुख्यतः दो सिद्धांत प्रतिपादित किये जाते हैं:
प्रथम का मानना है कि संप्रभुता राज्य में केंद्रित होती है। राज्य ही शक्तियों का धारक होता है, वही द्वितीय सिद्धांत मानता है कि समस्त शक्तियां राज्य में केंद्रित न होकर विभाजित होती है, जिस प्रकार राजनैतिक क्षेत्र में राज्य संप्रभु है, वैसे ही सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में कार्यरत संगठन की संप्रभु होते हैं।
यद्यपि अरस्तु एवं रोमन विचारकों ने राज्य सर्वोच्चता की बात की थी किंतु राज्य की सर्वोच्च शक्ति रूपी अवधारणा के रूप में संप्रभुता का विकास 16वीं सदी में बोंदा के विचारों में हुई, जो संप्रभुता के एकलवादी सिद्धांत का आधार बने। पश्चिमी देशों में पूरे मध्यकाल के दौरान राजतंत्र धर्मतंत्र के सम्मुख नतमस्तक हो चुका था एवं ईसाई धर्म तंत्र को इस्लाम धर्म तंत्र से संगठित चुनौती का सामना करना पड़ रहा था।
धर्म तंत्र राजसत्ता के साथ ही साथ समाज, साहित्य, कला एवं संस्कृति आदि पर प्रभुत्व अमोद हुआ था। इसी समय 16वीं सदी में शुरू पुनर्जागरणरूपी वैचारिक आंदोलन के परिणामस्वरूप मध्ययुगीन मान्यताएं एवं संस्थाएं लुप्त होना शुरू हुईं और यहीं से राष्ट्रीय राज्यों के उदय का क्रम शुरू हुआ। वस्तुतः प्रभुसत्ता का विचार उदित हो रहे इन्हीं नये राज्यों को मजबूती देने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि राष्ट्र का स्वामी पोप एवं सामंतों से बढ़कर है एवं निर्णय लेने में स्वतंत्र है।
संप्रभुता का एकलवादी सिद्धांतः वस्तुतः आज प्रभुसत्ता के इसी परंपरागत सिद्धांत को प्रभुसत्ता के पर्याय के रूप में जाना जाता है जिसे बोंदा, ग्रोसियस, हाब्स, रूसो एवं ऑस्टिन ने विकसित किया। इस सिद्धांत का आशय है कि राज्य एक मात्र ऐसी सत्ता है जो समाज के लिए कानून बावजूद भी राज्य के अधीन ही मिल जुलकर रहते हैं। इस विचारकों का कहना है कि कानून की दृष्टि से राज्य की सत्ता अनन्य सर्वोच्च एवं असीम है। यह सिद्धांत राज्य को निरंकुश एवं नैतिक दृष्टि से सर्वोच्च संगठन मानता है, जिसके पास शक्ति एवं सुरक्षा बनाये रखने के लिए दम कारी बल है। राज्य कानून के रूप में व्यक्त अपनी सत्ता के प्रति व्यक्ति के पूर्ण निष्ठा की वैध मांग कर सकता है, एवं अपने आदेश का उल्लंघन करने वालों को दंडित कर सकता है।
बोदा का संप्रभुता सिद्धांतः बोदा के अनुसार संप्रभुता एक राज्य में शासन करने की निरपेक्ष एवं स्थायी शक्ति है, जो सभी नागरिकों को कानून प्रदान करती है। इसी विचार के कारण बोंदा को वैधानिक प्रभुसत्ता का जनक माना जाता है।
प्रभुसत्ता को पारिभाषित करते हुए बोंदा कहते हैं कि संप्रभुता नागरिकों व प्रजाजनों के ऊपर विधि या कानून द्वारा अमर्यादित सर्वोच्च शक्ति है। बोंदा के संप्रभुता विचार में निम्न बातें स्पष्ट होती हैः
बोंदा के संप्रभु विचारों से स्पष्ट है कि संप्रभु कोई अमूर्त विचार न होकर एक मूर्तवान अवधारणा है, यह राज्य एवं समाज को शासित करने वाले कानूनों को बनाने की वैधानिक क्षमता है, जो राजतंत्रकालीन तंत्र या लोकतंत्र किसी भी व्यवस्था में पायी जाती है। यही प्रभुसत्ता उस राज्य के कानूनों का ड्डोत होती है, जो अविभाज्य एवं अदेय होती है।
बोंदा अपने संप्रभु पर निम्न तीन सीमाएं आरोपित करते हैं:
आलोचनाः बोंदा के संप्रभु विचार के निम्न विरोधाभासा दिखते हैं:
आस्टिन का संप्रभुता सिद्धांतः इनके सिद्धांत में एकलवादी संप्रभुता सिद्धांत का चरम विकास दिखता है। इंग्लैंड में उपयोगितावादी विचारक यह चाहते थे कि वहां की लोकविधियों में जहां-जहां की असंगति एवं अन्याय हो, वहां निराकरण के लिए नये कानून बनाये जाये, किंतु लोकविधियों को मनुष्य के प्राकृतिक विवेक की अभिव्यक्ति साबित करने वाले रूढि़वादियों ने उपका तीव्र विरोध करके उन्हें सफल नहीं होने दिया।
ऐसी दशा में रूढि़वादियों का व्यापक विरोध करते हुए आस्टिन ने सकारात्मक कानून का सिद्धांत प्रस्तुत किया और यही प्रभुसत्ता के कानून सिद्धांत का रूप लिया।
आस्टिन के अनुसार सामाजिक संबंधों के नियामक एवं न्याय तथा जनकल्याण से जुड़े कानून प्रभुसत्ताधारी की इच्छा की अभिव्यक्ति होते हैं। अतः विधानमंडलों को उनमें निरंतर संसोधन का अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार आस्टीन ने प्राकृतिक कानूनों का खंडन किया। जिन कानूनों ने पूरे मध्य युग में सत्ताधारियों की शक्ति पर अंकुश लगा रखा था। भारतीय कानून केवल ऐसे नियमों को मानते हैं, जिनमें निम्न विशेषताएं होः
इन शर्तों के आधार पर आस्टिन प्राकृतिक विधियों को कानून ही नहीं मानते एवं विधिशास्त्र एवं न्यायशास्त्र में प्राकृतिक कानूनों एवं ईश्वरीय कानूनों के वर्चस्व को समाप्त करके राज्य के सकारात्मक कानूनों को उनके ऊपर वरीयता प्रदान करते हैं। यदि ईश्वरीय कानूनों से राज्य के सकारात्मक कानून टकराते हैं, तो राज्य के सकारात्मक कानून ही मान्य होंगे।
सकारात्मक कानून की इसी नींव पर आस्टिन संप्रभुता की परिभाषा देते हैं:
‘यदि किसी समाज का बहुसंख्यक भाग किसी निश्चित प्रधान व्यक्ति की आज्ञाओं का आदतन पालन करता है और वह निश्चित प्रधान व्यक्ति किसी अथ प्रधान की आशा मानने का आदी न हो तो उस समाज में वह निश्चित प्रधान व्यक्ति संप्रभु है और वह राज्य एक स्वतंत्र राज्य होगा’
बहुसंख्यक भाग से आशय अधिकांश व्यक्तियों द्वारा आदेश पालन से है। निश्चित प्रधान व्यक्ति से आशय है कि संप्रभुता एक मानवीय शक्ति है, जो आस्टिन के पहले तक स्पष्ट नहीं थी। आदतन आदेश पालन से आशय स्थायी आज्ञापालन से है और संप्रभु अन्य की आज्ञा पालन का आदी न हो, इसका आशय है संप्रभुता असीमित एवं अमर्यादित हो।
आस्टिन के संप्रभु सिद्धांत में संप्रभु की निम्न विशेषताएं उभरती हैः
समीक्षाः सकारात्म बिंदुः
नकारात्मक बिंदु
उपरोक्त कमियों के बाद भी आस्टिन के संप्रभुता सिद्धांत में एकत्ववादी संप्रभुता का चरम रूप उभरता है, जो बोंदा के अधूरे प्रयासों का पूर्ण करने के साथ ही साथ आधुनिक राष्ट्र राज्यों के गठन प्रक्रिया को पूर्णता तक पहुंचाने में सफल हुआ है। 20वीं सदी के लोकतांत्रिक माहौल के बहुलवादी विचारकों द्वारा की गयी आलोचना निश्चित ही सही दिखती है, किंतु इसके बावजूद एकतावादी संप्रभुता के विचारक के रूप में आस्टिन का संप्रभुता विचार कहीं से कम नहीं दिखता।
रूसो का जनसंप्रभुता सिद्धांतः रूसो को लोकप्रिय संप्रभुता का जनक माना जाता है, जिसके संप्रभुता विचारों में एकलवाद के विकास के साथ ही उदारवादी लोकतंत्र के समर्थन में भी प्रेरक तत्व दिखते हैं। रूसो का मानना था कि सामाजिक समझौते के उपरांत उदित हुए राज्य द्वारा धारण की गयी सामान्य इच्छा में संप्रभुता निहित होती है। सामान्य इच्छा किसी समुदाय के सभी सदस्यों का सहमति रूपी इच्छा होती है, जिसमें तात्कालिक स्वार्थों को भूलकर लोग समुदाय के स्थायी हित की भावना से प्रेरित होते हैं। ऐसे राज्य के सभी कानून की सामान्य जन इच्छा को व्यक्त करते हैं।
चूंकि यह सामान्य इच्छा व्यक्तिगत स्वार्थों के मिटने पर ही उदित होती है, अतः यह स्वार्थ परक न होकर समुदाय के हितों के अनुरूप होती है।
रूसो दो कारणों से लोकप्रिय प्रभुसत्ता की सर्वोच्चता स्वीकारते हैं
कर्त्तव्य पक्ष को मानने पर लोकतंत्र सुनिश्चित होगा, किंतु अधिकार पक्ष को मानने पर सर्वाधिकारवादी शासन की स्थापना सुनिश्चित होगी।
दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि अधिकार पक्ष एवं कर्त्तव्य पक्ष के भ्रम के कारण सर्वाधिकारवादी शासन की आशंका इस सिद्धांत के लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रेरणा पर भारी रही, क्योंकि रूसो नहीं स्पष्ट कर सके कि सामान्य इच्छा के धारक संप्रभु को जनकल्याण रूपी कर्त्तव्य पक्ष हेतु कैसे उत्तरदायी किया जाये एवं यही कारण है कि इसे एकलवादी संप्रभुता सिद्धांत के रूप में मान्यता मिली एवं इनके संप्रभु को ‘सिर कटा लेवियाथन’ तक कहा गया।
प्रभुसत्ता का बहुलवादी सिद्धांत
19वीं सदी में संप्रभुता का एकलवादी सिद्धांत जहां अपने पूर्ण विकास पर पहुंच चुका था, वहीं प्रभुसत्ता संबंधी एक नयीविचारधारा भी उदित हो रही थी जिसने प्रभुसत्ता के परंपरागत एकलवादी सिद्धांत का खंडन करने के साथ ही घोषित किया कि राज्य एवं समाज एक ही न होकर अलग-अलग संस्था है। इनका आशय था कि समाज की विभिन्न संस्थाओं में से राज्य की एक संस्था है, जिसे आवश्यक संस्था माना जाता है। बहुलवादियों के अनुसार मनुष्य की सामाजिक प्रकृति में विविधता होती है, जो राज्य रूपी एक ही संगठन में व्यक्त नहीं हो सकती। साथ ही राज्य एवं सरकार भी एक न होकर अलग-अलग संगठन हैं।
हम राज्य को पूर्ण संप्रभु के रूप में विचार करते हैं, किंतु व्यवहार में उन शक्तियों का प्रयोग सरकार करती है, जो मनुष्यों से बनती है ओर मनुष्यों के निजी स्वार्थ भी होते है, ऐसी दशा में बहुलवादियों का मानना है कि राज्य की प्रभुसत्ता के नाम पर सरकार को असीम शक्ति सौंपने का अर्थ होगा, अत्याचारी एवं निरंकुश शासन को बढ़ावा देना।
बहुलवादियों के मत में राज्यसत्ता संप्रभु एवं निरंकुश नहीं है। समुदाय में विद्यमान अन्य संगठन जो अनुभव सिद्ध रूप में मानवोपयोगी होते हैं, राज्य सत्ता को सीमित करते हैं। चूंकि व्यक्ति राज्य के साथ इन संगठनों की सदस्यता ग्रहण करती है, अतः राज्य को ही संपूर्ण सत्ता नहीं प्रदान की जा सकती। इस प्रकार बहुलवादी राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना चाहते हैं, किंतु राज्य की प्रभुसत्ता का अंत कर देना उचित समझते हैं।
बहुलवाद के दो रूप दिखते हैं- नकारात्मक रूप में यह एकत्ववादियों के इस धारणा को नकारता है कि समाज के सभी मामलों को निपटाने में केवल राज्य ही सर्वशक्तिमान है। वहीं नकारात्मक अर्थों में बहुलवाद के अनुसार राज्य की सत्ता में दो कारणों से सामाजिक समूहों एवं संघों की भागीदारी होना चाहिएः
समीक्षाः कुछ विचारकों का मानना है कि संप्रभुता को अविभाज्य मानना या संप्रभुता के एकाकी स्वरूप की खोज कर सकना कठिन है। एक दृष्टिकोण से संप्रभुता को अविभाज्य मानना विवेचना की कसौटी पर टिक नहीं सकता। हर राजनीतिक समाज में कर्तव्यों का बंटवारा होता है और इस प्रकार के बंटवारे के बिना कोई भी सरकार सफलतापूर्वक नहीं चल सकती। संघ राज्यों में संप्रभुता, केंद्र तथा उसके घटकों में विभाजित रहती है। सरकार के विविध अंग (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) भी अपने क्षेत्र में संप्रभुता का स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करते हैं। अतः संप्रभुता को अविभाज्य नहीं कहा जा सकता। पुनः बहुलवादी एवं अन्य आलोचकों का कहना है कि संप्रभुता चाहे कानूनी दृष्टि से असीमित हो सकती है, परंतु राजनीतिक और ऐतिहासिक प्रतिबंधों से इसे असीमित नहीं कहा जा सकता। स्लुंशली ने तो स्पष्टतः यह कहा है कि राज्य सर्वशक्तिमान इसलिए नहीं कहा जा सकता कि वह बाहर तथा भीतर दोनों ओर से सीमित है। भीतर से इसलिए सीमित है कि विधायिका कुछ निश्चित सामाजिक परिस्थितियों से बंधी हुई है। बाहर से वह इसलिए सीमित है कि जिस शक्ति से वह कानून लागू करती है, वह लोगों की कानून मानने की प्रेरणा पर निर्भर है, जबकि प्रेरणा स्वतः सीमित है।
लास्की एक बहुलवादी और अंतरराष्ट्रीयतावादी के रूप में संप्रभुता को राज्य के भीतर के दूसरे संघों के हित में तथा अंतरराष्ट्रीयता के हित में सीमित रखना चाहते हैं। उनका कहना है कि कुछ अर्थोंमें दूसरे संघों की शक्ति भी उतनी ही मौलिक और पूर्ण है जितनी स्वयं राज्य की। अपने-अपने क्षेत्र में यह संघ संप्रभु राज्य से कम नहीं है, इसलिए यह विचार की अधिकार सत्ता न केवल सीमित है बल्कि उसे सीमित होना चाहिए, राजनीतिक की एक आधारभूत मान्यता है। विश्व शान्ति, मानव हित तथा एकता की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीयता के संदर्भ में भी संप्रभुता का असीमित क्षेत्र होना उचित नहीं है। संसार में एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर है। यदि सर्वशक्ति संपन्न स्वतंत्र राज्य आपस की होड़ में रहेंगे तो विश्व शांति कैसे रह सकता है? अतः आवश्यक है कि संसार के राष्ट्र एक दूसरे पर निर्भर रहें। इसके लिए आवश्यकता है राज्य की संप्रभुता सीमित हो। निश्चित तौर पर एक ऐसा स्वतंत्र और सर्वशक्तिमान राज्य की कल्पना मानवता के हितों के प्रतिकूल है, जो अपने सदस्यों से सरकार के प्रति पूर्ण वफादारी की मांग करता है और जो अपनी शक्ति से लोगों को वफादार बनाता है। हमारे सामने समस्या यह है कि हम मानवता के हितों और ब्रिटेन के हितों को एक दूसरे के अनुकूल बनाएं। समस्या यह है कि हम इस प्रकार से काम करें कि ब्रिटेन की नीति में मनुष्य का हित निहित रहे। आजकल के लोकतांत्रिक युग में इस प्रकार की वैधानिक निरंकुशता को कहीं स्थान नहीं है। कानून संप्रभु का आदेश नहीं होता, वरन् समाज प्रथा, परंपरा आदि भी कानून की संरचना में काम करते हैं। यदि इन तत्वों को महत्व न दिया गया तो निश्चित रूप से संप्रभुता का एकलवादी सिद्धांत वैधानिक निरंकुशता को जन्म देगा। निरंकुशता के लिए भय इसलिए भी उत्पन्न होता है कि एकलवादी संप्रभुता के सिद्धांत में शक्ति अथवा बल को निर्णायक माना है। विश्वशांति तथा विश्व तंत्र की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीयवादियों ने संप्रभुता के परंपरावादी दृष्टिकोण का विरोध करते हुए कहा है कि जब तक इसका त्याग नहीं कर दिया जाता, तब तक न विश्व शांति होगी और न एक शक्तिशाली विश्वतंत्र की ही स्थापना हो सकती है। इसी तरह बहुलवादियों का तर्क यह है कि जब तक संप्रभुता के उपयोग का अधिकार केवल राज्य तक सीमित रहेगा तब तक समाज में मनुष्य के हितों की पूर्ति बाधित होती रहेगी। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि समाज में पाए जाने वाले अनेक समुदायों को भी संप्रभुता का कुछ न कुछ अंश अवश्य मिलना चाहिए। समुदायों की स्वायत्तता आवश्यक है।
राज्य में समुदायों का अपना विशिष्ट स्थान है, यदि उनकी स्वतंत्रता में संप्रभुता बाधक रहेगी तो मनुष्य और समाज का पूर्णहित और विकास संभव नहीं होगा। दूसरी ओर, शासनतंत्र की दृष्टि से वर्तमान काल में लोकतंत्र कितना लोकप्रिय हों रहा है, यह सर्वविदित है। लोकतंत्र को लेकर संप्रभुता का सिद्धांत विवाद के घेरे में आ गया है। संप्रभुता का निरंकुशतावादी सिद्धांत लोकतंत्र में अपना स्थान खो चुका है और जनमत इसके लिए एक चुनौती है।
Question : शक्ति ही संप्रभुता का निर्धारक तत्व है-आस्टिन के इस मत का आलोचनात्मक विवेचन प्रस्तुत कीजिए।
(1999)
Answer : प्रभुसत्ता के कानूनी सिद्धांत का पूर्ण विकास जान आस्टिन के चिंतन में देखने को मिलता है। आस्टिन के चिंतन में तत्कालीन इंगलैंड की परिस्थितियों की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। शुरू-शुरू के उपयोगितावादी विचारक यह चाहते थे कि इंगलैंड की सार्वजनिक विधि में जहां-जहां अन्याय और असंगतियां पाई जाती हैं, उनके निराकरण के लिए नए कानून बनने चाहिए। परंतु रूढि़वादियों के तीव्र विरोध के कारण उपयोगितावादियों के प्रयत्न सफल नहीं हो पाए। उनकी मान्यता यह थी कि सार्वजनिक विधि नैसर्गिक विवेक के चिरंतन और सार्वजनिक आदेशों का एक हिस्सा है जो मानव व्यवहार का नियमन करता है और राज्य न तो उसकी उपेक्षा कर सकता है, न उसे समाप्त कर सकता है। इस आपत्ति का उत्तर देने के लिए ही आस्टिन ने सकारात्मक विधि का सिद्धांत प्रस्तुत किया जो राज्य की कानूनी प्रभुसत्ता के साथ निकट से जुड़ा है। उसका कहना था कि जो कानून सामाजिक संबंधों का नियमन करता है, जिसका ध्येय न्याय तथा जनकल्याण के साथ जुटाना है। वह प्रभुसत्ताकारी की इच्छा की अभिव्यक्ति होता है। राज्य केविधानांग को उसका निरंतर संशोधन करने का अधिकार होना चाहिए। आस्टिन ने नैसर्गिक कानून या नैसर्गिक विवेक के कानून का खंडन किया जो पूरे मध्य में सत्ताधारियों की शकि्त पर अंकुश रखने का साधन रहा था। उसने कहा कि सदाचार या विज्ञान और अर्थशास्त्र इत्यादि को भी कानून की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। कानून केवल ऐसे नियम को मान सकते हैं, जिसमें ये विशेषताएं पाई जाती हैं:
(i)इसका उद्भव किसी ऐसे स्रोत से होना चाहिए जो निर्णय करने में समर्थ हो।
(ii)इसमें किसी आदेश की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और
(iii)यह प्रामाणिक होना चाहिए अर्थात इसका उल्लंघन करने पर दंड का विधान होना चाहिए।
नैसर्गिक कानून या नैसर्गिक विवेक के कानून सही अर्थ में कानून नहीं होते, क्योंकि उनका उद्भव किसी ऐसे स्रोत से नहीं होता जो निर्णय करने में समर्थ हो उनका उल्लंघन होने पर दंड भी नहीं दिया जा सकता। सदाचार के कानून और नैसर्गिक कानून केवल लाक्षणिक अर्थ में कानून होते हैं, किसी सत्ताधारी के आदेश नहीं होते। ईश्वर के कानून ये शर्तें पूरी करते हैं, अतः इन्हें कानून मानना समीचीन होगा। परंतु वे सकारात्मक कानून नहीं होते, उनकी प्रामाणिकता धार्मिक होती है, कानूनी थी। अतः सकारात्मक कानून ऐसा कानून है, जिसे किसी प्रभुसत्तासंपन्न व्यक्ति या व्यक्तियों के समुदाय ने स्वाधीन राजनीतिक समाज के किसी सदस्य या सदस्यों के लिए निर्धारित किया हो, शर्त यह है कि कानून बनाने वाला व्यक्ति या व्यक्तियों का समुदाय उस समाज में सर्वसत्तासंपन्न या सर्वोच्च हो।
आस्टिन का कहना है कि राज्य जो सकारात्मक कानून लागू करता है, यदि ईश्वर के कानून या सामाजिक कानूनों के विरुद्ध हो तो ऐसी हालत में राज्य के कानून को ही मान्य ठहराना चाहिए। नैसर्गिक कानून या नैसर्गिक अधिकारों के समर्थक यह कहते थे कि यदि राज्य का कोई कानून इसके विरुद्ध हो तो उसका पालन अनिवार्य नहीं होगा। आस्टिन ने इस दावे को निरर्थक और निराधार कहा है। इस तरह उसने विधिशास्त्र और न्यायशास्त्र के क्षेत्र में नैसर्गिक अधिकारों और नैसर्गिक कानून के झाड़-झंखाड़ को साफ कर दिया जाए तो लंबे अर्से से उसे घेरे हुए था।
सकारात्मक विधि की इस नींव पर ही आस्टिन ने प्रभुसत्ता की संकल्पना का निर्माण किया है-यदि कोई निश्चित मानवीय सत्ता के सर्वसाधारण उसकी आज्ञा मानने में अभ्यस्त हो तो इस निश्चित मानवीय सत्ता को उस समाज में प्रभुसत्ताधारी कहेंगे और उस समाज को राजनीतिक और स्वाधीन समाज माना जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि किसी समाज को राजनीतिक और स्वाधीन समाज तभी माना जा सकता है, जब उसके भीतर कोई निश्चित मानवीय सत्ता विद्यमान हो कि सारे नागरिक उसी की आज्ञा मानने में अभ्यस्त हों और स्वयं यह सत्ता किसी अन्य मानवीय सत्ता के अधीन न हो। दूसरे शब्दों में, इस सिद्धांत के अनुसार प्रभुसत्ता राज्य का सारभूत और अनिवार्य लक्षण है। इसके बिना समाज राज्य में परिणत नहीं हो सकता। बहुलवादी इस दावे को स्वीकार नहीं करते। उनके विचार से राज्य की रचना के लिए प्रभुसत्ता अनिवार्य नहीं।
दूसरे, यह सिद्धांत राज्य को समाज के लिए कानून बनाने का अनन्य अधिकार देता है। वह राज्य को समाज की सारी संस्थाओं के ऊपर मानता है। अन्य सब व्यक्तियों और संस्थाओं को जो राजनीतिक शक्तियां प्राप्त होती है, वे राज्य की प्रभुसत्ता की तुलना में गौण हैं, क्योंकि उनका उद्भव यहीं से होता है। सारे कानून राज्य की छाप लग जाने पर ही मान्य होते हैं और राज्य ही यह निर्णय करता है कि उसकी शक्तियों का सीमा क्षेत्र क्या हो और किन-किन हितों का नियमन करना चाहिए, इसलिए राज्य की स्थिति सर्वोच्च है, उसकी शक्तियां निरपेक्ष और निस्सीम हैं। राज्य अपने कार्यों के लिए किसी अन्य व्यक्ति या संस्था के प्रति उत्तरदायी नहीं हो सकता। तीसरे, राज्य का स्थान चूंकि समाज की अन्य सब संस्थाओं से ऊंचा है और उसकी सत्ता शेष सारे समाज में सर्वोच्च है, इसलिए उसे नागरिकों की अनन्य निष्ठा प्राप्त होनी चाहिए। व्यक्ति के मन में परिवार, चर्च, राजनीति दल या किसी अन्य संगठन के प्रति निष्ठा सकती है, परंतु राज्य के प्रति उसकी निष्ठा का स्थान इन सबके ऊपर होगा। नागरिकों की निष्ठा पाने के लिए राज्य को अन्य संस्थाओं के साथ मुकाबला करने की जरूरत नहीं।
परंतु कुछ आलोचकों का कहना है कि आस्टिन का संप्रभुता का सिद्धांत वैधानिक निरंकुशता उत्पन्न करता है। आस्टिन ने संप्रभुता को इतना शक्तिशाली बना दिया है कि उसका आदेश ही कानून बनता है और वह आदेश लोगों को मानना ही है। परंतु आज के लोकतांत्रिक युग में इस प्रकार की वैधानिक निरंकुशता को कहीं स्थान नहीं है। कानून संप्रभु का आदेश नहीं होता, वरन समाज, प्रथा, परंपरा आदिभी कानून की संरचना में काम करते हैं। यदि इन तत्वों को महत्व न दिया जाए तो निश्चित रूप से आस्टिन का संप्रभुता सिद्धांत वैधानिक निरंकुशता को जन्म देगा। निरंकुशता के लिए भय इसलिए भी उत्पन्न होता है कि आस्टिन ने संप्रभुता के सिद्धांत में शक्ति अथवा बल को निर्णायक माना है। उनके विचार में कानून, न्याय अथवा औचित्य को स्थान कहां है। यहां रूसो की न सामान्य इच्छा है और न ग्रीन की सर्वकल्याण की सामान्य भावना को स्थान है। लार्ड का कहना है कि संप्रभुता को अविभाज्य मानना या संप्रभुता के एकाकी स्वरूप की खोज कर सकना कठिन है। एक दृष्टिकोण से संप्रभुता को अविभाज्य कानना विवेचना की कसौटी पर टिक नहीं सकता। हर राजनीतिक समाज में कर्तव्यों का बंटवारा होता है और इस प्रकार के बंटवारे के बिना कोई भी सरकार सफलता पूर्वक नहीं चल सकती। संघ राज्यों में संप्रभुता केंद्र तथा उसके घटकों में विभाजित रहती है। सरकार के विविध अंग (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) भी अपने क्षेत्र में संप्रभुता का स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करते हैं, अतः संप्रभुता को अविभाज्य कैसे कहा जा सकता है।
आस्टिन की मान्यता है कि संप्रभुता सर्वशक्तिमान और परमपूर्ण है, परंतु आलोचकों ने इसे स्वीकार नहीं किया है। बहुलवादी तथा अन्य भी यह कहते हैं कि संप्रभुता चाहे कानूनी दृष्टि से असीमित हो जाती है, परंतु राजनीतिक और ऐतिहासिक प्रतिबंधों से इसे असीमित नहीं कहा जा सकता। स्लुंशाली ने तो स्पष्टतः यही कहा है कि राज्य सर्वशक्तिमान इसलिए नहीं कहा जा सकता कि वह बाहर तथा भीतर दोनों ओर से सीमित है। बाहर तो वह राज्य के अधिकारों से तथा भीतर अपनी प्रकृति से सीमित है। यहां तक कि व्यक्तिगत सदस्यों के अधिकारों से भी वह सीमित है। स्टीफेन ने ब्रिटिश संसद का उदाहरण देते हुए कहा है कि वह बाहर और भीतर दोनों ओर से सीमित है। बाहर तो वह राज्यों के अधिकारों से तथा भीतर अपनी प्रकृति से सीमित है। स्टीफेन ने ब्रिटिश संसद का उदाहरण देते हुए कहा है कि वह बाहर और भीतर दोनों ओर से सीमित है। भीतर से इसलिए सीमित है कि विधायिका कुछ निश्चित सामाजिक परिस्थितियों से बंधी हुई है। बाहर से वह इसलिए सीमित है कि जिस शक्ति से वह कानून लागू करती है, वह लोगों की कानून मानने की प्रेरणा पर निर्भर है, जबकि प्रेरणा स्वतः सीमित है। उदाहरण के लिए यदि विधायिका यह निर्णय ले कि नीली आंखों वाले सभी बच्चों को मार डालना चाहिए तो ऐसे बच्चों का बचना गैर कानूनी हो जाएगा, पर ऐसा कानून बनाने वालीविधायिका पागल ही कही जाएगी और वह प्रजा जड़ और मूर्ख होगी जो ऐसे कानून के आगे सिर झुका दे। डुग्वी का भी कहना है कि संप्रभु ही एकमात्र कानून का निर्माता नहीं है। उसका आदेश ही कानून नहीं है। उनके अनुसार राज्य कानूनों को नहीं बनाता, बल्कि कानून ही राज्य को बनाता है। कानून तो सामाजिक आवश्यकता की अभिव्यक्ति है।
Question : बोदिन के निरपेक्ष प्रभुसत्ता के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। प्रजातांत्रिक प्रभुसत्ता की तुलना में राजतंत्रीय को वरीयता देने के लिए उनका क्या तर्क था? इस संदर्भ में विचार कीजिए कि क्या उनकी अविभाज्य प्रभुसत्ता की वकालत संविधानवाद पर उनके विश्वास के साथ संगतिपूर्ण थी।
(1998)
Answer : संप्रभुता का संबंध राज्य से है। राज्य के चार आवश्यक तत्व माने जाते हैं, जैसे प्रदेश, जनसंख्या, शासन और संप्रभुता। इनमें से संप्रभुता का स्थान सर्वोच्च है। इसके बिना राज्य की कल्पना नहीं हो सकती। संप्रभुता के कारण ही राज्य आंतरिक दृष्टि से सर्वोच्च माना जाता है एवं बाहरी दृष्टि से स्वतंत्र होता है। इतना ही नहीं, इसके द्वारा ही राज्य को कानून बनाने तथा उसके पालन कराने की शक्ति प्राप्त होती है। इसी से राज्य के पास दंडात्मक शक्ति आती है। राज्य में एकता की भावना संप्रभुता से ही उत्पन्न होती है। संप्रभुता के शाब्दिक अर्थ का निरूपण करने पर उपयुक्त सभी विशेषताएं स्पष्ट हो जाती हैं। इसका अर्थ है, राज्य की एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति और अंतिम सत्ता, जिसके आगे फिर कोई शक्ति नहीं।
संप्रभुता की अवधारणा का स्पष्ट परिचय राजनीतिक सिद्धांत के रूप में सर्वप्रथम फ्रांसीसी विचारक बोंदा द्वारा मिलता है। परंतु इसकी जड़ें राजनीतिक दर्शन के इतिहास में पुरानी हैं। अरस्तु ने जो राज्यों का वर्गीकरण किया है, उससे यही पता चलता है कि राज्य के अंतर्गत एक सर्वोच्च सत्ता की अवधारणा थी। रोमनकाल में भी जब यह कहा गया कि राजा की इच्छा सर्वोच्च है तो इससे संप्रभुता की अवधारणा के विकास में पर्याप्त सहायता मिली। जहां तक मध्ययुग की बात है, संप्रभुता के विषय में कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी। इसके संबंध में ने ठीक ही कहा है कि मध्य युग के बड़े भाग में राज्य कोई प्रमुख संगठन के रूप में नहीं था। वास्तव में प्राचीन ग्रीक तथा रोमन अवधारणा के समान राज्य का कोई अस्तित्व नहीं था। व्यक्तियों पर रोमन चर्च, रोमन सम्राट, राजा समानता आदि का नियंत्रण था। इन सत्ताओं में व्यक्तियों पर अधिकार रखने के लिए आपस में प्रतियोगिता थी। यह तो विदित है कि ग्यारहवीं से तेरहवीं शती तक युरोप में अराजकता का समय माना जाता है। इस समय चर्च का बोलबाला था। मध्य युग के बाद राज्य की शक्ति बढ़ती हुई पायी जाती है। तत्कालीन सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों ने विवश कर दिया कि समाज में राज्य की सत्ता सर्वोच्च रहे। इस युग में धीरे-धीरे सामंदवाद का हास होने लगा और उसके स्थान पर राष्ट्रीय राज्यों का उत्कर्ष होने लगा, फलतः राष्ट्रीय राजा अपने लिए राजनीतिक अधिकारों की मांग करने लगे। राजनीतिक अधिकार का दावा तभी सार्थक हो सकता था, जबकि राजाओं के ऊपर चर्च का अधिकार न रहता और सामंत, स्वशासी, शहर तथा औद्योगिक संगठन राज्य के नियंत्रण और अधिकार में आ जाता।
दो शताब्दी बाद ग्रीन बोंदा ने अपनी कृति ही रिपब्लिक में राज्य की परिभाषा की, कि राज्य परिवारों तथा उनके सामान्य मामलों का एक समुदाय है, जो एक सर्वोच्च सत्ता और विवेक द्वारा शासित होता है। उन्होंने इसके साथ ही संप्रभुता की भी परिभाषा की कि संप्रभुता नागरिकों और प्रजाजनों के ऊपर विधि द्वारा अमर्यादित सर्वोच्च शक्ति है। संप्रभुता की मुख्य विशेषता बताते हुए बोंदा ने कहा कि संप्रभुता वह शक्ति है जो सामान्य रूप से अकेले समस्त नागरिकों को कानून देती है। संप्रभुता की जो परिभाषा बोंदा द्वारा दी गई है और उसके विषय में जो आगे संप्रभुता के विशिष्ट गुणों के संबंध में विवेचन किया गया है, कोकर के शब्दों में उसके आधार पर बोंदा को वैधानिक संप्रभुता संस्थापक माना जाता हैै। बोंदा ने संप्रभुता की शक्ति को कानून द्वारा अमर्यादित था अनियंत्रित बताया है। इस संबंध में आलोचकों में मतभेद है कि क्या शासक की उचित सत्ता पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं है। इस संबंध में जार्ज सेवाईन ने अपना मत देते हुए कहा है कि तथापि बोंदा इस बात को मानता था कि प्रभु ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है और वह प्राकृतिक विधि के अधीन रहता है। प्रभु का आदेश ही देश की विधि होती है और इसलिए आदेश देने की शक्ति पर किसी प्रकार का अंकुश लगाना विधि से बाहर की चीज है। प्रभुसत्ता का प्राथमिक लक्षण नागरिकों को सामूहिक रीति से और अलग-अलग किसी बड़े बराबर अथवा छोटे का स्वीकृति के बिना विधियां देने की शक्ति है। बोदां की संप्रभुता की अवधारणा की सीमाओं का उल्लेख करते हुए सेवाईन ने कहा है कि लेकिन संप्रभु शक्ति के जिस प्रयोग को वह उचित समझता था वह ऐसा असीम नहीं था जैसा कि उनकी परिभाषा से ध्वनित होता है। परिणामस्वरूप उसकी प्रभुसत्ता के ऊपर कुछ प्रतिबंध लग जाते हैं, जो उसके सिद्धांत में अव्यवस्था उत्पन्न कर देते हैं। सेवाईन ने बोदों के संप्रभुता के सिद्धांत की तीन सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख किया हैः
(i)संप्रभु ईश्वर की विधि तथा प्रकृति की विधि से बंधा होता है। प्राकृतिक विधि, मानवीय विधि से ऊपर है और वह न्याय के कुछ अपरिवर्तनशील मानकों को निर्धारित कर देती है।
(ii)बोंदा की प्रभुसत्ता संबंधी सिद्धांत में दूसरी परेशानी फ्रांस की संवैधानिक विधि के प्रति उसकी निष्ठा के कारण उत्पन्न होती थी। वह देश की प्राचीन प्रथाओं और रीति रिवाजों का भी आदर करता था ऐसी स्थिति में प्रथा से चली आ रही विधियों को स्वयं प्रभु भी नहीं बदल सकता। ये साम्राज्यिक विधियां हैं। बोदां की दृष्टि में उन सामाजिक विधियों का अंतर कर देने से स्वयं प्रभुसत्ता का ही अंत हो जाएगा। अतः सेवाईन का कथन है कि प्रभु विधि का स्रोत है। इसके साथ ही वह ऐसी कुछ संवैधानिक विधियों के अधीन है, जिन्हें वह नहीं बदल सकता।
(iii)सेवाईन के अनुसार बोदां के प्रभु सिद्धांत में दो भ्रमों के अतिरिक्त तीसरा भ्रम भी था। बोंदा व्यक्तिगत संपत्ति को अनुलंघीय मानता था। यह अधिकार प्राकृतिक विधि द्वारा स्वीकृत है, लेकिन यह बोदां के लिए प्रभु की शक्ति पर बहुत बड़ा नैतिक प्रतिबंध लगा देता है? संपत्ति इतनी पवित्र होती है कि प्रभु उसे उसके स्थायी की स्वीकृति के बिना नहीं छू सकता। इसलिए उसने कहा कि कराधान के लिए कुलीनों की स्वीकृत की आवश्यकता होती है। इस अवस्था में बोदां के सिद्धांत का भ्रम अंतर्विरोध का रूप धारण कर लेता है। इसका कारण सिद्धांत का त्रुटिपूर्ण संगठन है। फिर भी बोदां को तो यह श्रेय दिया ही जा सकता है कि उन्होंने सर्वप्रथम इतना विस्तृत और स्पष्ट संप्रभुता का सिद्धांत राजनीति को प्रदान किया।
बोदां के निरपेक्ष प्रभुसत्ता की विशेषताएं कुछ इस प्रकार हैं:
(i)प्रभुसत्ता सभी व्यक्तियों और सभी समुदायों से ऊपर है। यह असीमित स्वतंत्र और पूर्ण है। राज्य में ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो इसके बराबर हो। यह वह शक्ति है जिसका उपभोग राज्य अनन्य रूप से करता है। संप्रभुता राज्य के अंतर्गत और बाहर भी सर्वोच्च है। आंतरिक मामलों में इस पूर्ण और असीमित संप्रभुता के लिए राज्य के अंतर्गत करने वाले सभी व्यक्ति और समुदाय उसकी प्रजा होते हैं।
(ii)संप्रभुता की विशेषता उसकी अविभाजता है। यह संप्रभुता परमपूर्णता है तो इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि वह अविभाज्य भी है। विभाज्य संप्रभुता जैसी कोई चीज नहीं है। इसका विभाजन इसे बिना नष्ट किए नहीं हो हो सकता। परंतु एल लावेल का विचार है कि एक ही क्षेत्र में ही संप्रभु हो सकते हैं। ब्रार्डस के अनुसार वैधानिक संप्रभुता का उपयोग दो सह सत्ताओं द्वारा किया जा सकता है। इन दोनों चिंतकों की धारणाएं उचित नहीं है, क्योंकि संप्रभुता अविभाज्य होती है। कोई जब संप्रभुता के विषय में कहता है तो इससे पूर्ण संप्रभुता का बोध होता है। विभाज्य संप्रभुता का अस्तित्व ही नहीं होता। अविभाज्यता इसकी प्रकृति में ही निहित है।अर्ध या टुकड़ों में संप्रभुता की बात करना मात्र मूर्खता है। संभवतः जो लोग एक ही राज्य में दो स्रपंभु सत्ता की बात करते हैं, उनके दिमाग में अमरीका, स्विट्जरलैंड तथा अन्य संघीय राज्य की व्यवस्था रहती है। यद्यपि यह सत्य है कि संघीय सरकार और राज्य सरकार के बीच विशिष्ट विषयों पर शक्ति का विभाजन सुविधा के लिए किया जाता है परंतु संप्रभुता तो इन दोनों सरकारों के पीछे अविभाज्य बनी रहती है।
Question : ‘प्रभुसत्ता’ पर कौटिल्य।
(1997)
Answer : कौटिल्य का संप्रभुता का सिद्धांत विधि के स्वरूप के साथ जुड़ा हुआ है। उन्होंने तर्कसंगत विधि को स्वीकार किया है। कौटिल्य ने धर्मनिरपेक्ष विधि को मान्यता देकर संप्रभुता के सिद्धांत को ऐसा आधार दिया, जो उस समय के लिए असाधारण कार्य कहा जा सकता है। कौटिल्य ने स्वामी (राजा) को गुण संपन्न, कर्तव्यनिष्ठ तथा अच्छे प्रशासन के लिए दर्शन, दया, वार्ता और दंड नीति का अध्ययन और ज्ञान आवश्यक माना। उनमें से विशेष रूप से दर्शन को सर्वश्रेष्ठ इसलिए बताया गया कि दर्शन से लोक का उपकार होता है। यह सब विधायों का प्रतीक है। यह सभी कार्यों का साधन और धर्मों का आश्रय मानी जाती है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के अनुसार संप्रभुता की धारणा के अंतर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं:
प्रथम, यह कि संप्रभुता सार्वभौमिक है। यह देश काल की सीमा से निर्धारित नहीं होती। द्वितीय, संप्रभुता का निवास राजा में निहित होता है। तृतीय यह एक लौकिक अवधारणा है। चतुर्थ, संप्रभुता तर्कसंगत विधि से पूर्ण होती है। कौटिल्य के अनुसार यद्यपि राजा को शक्तिशाली तथा सर्वाधिकार संपन्न माना जाता था, परंतु उसे निरंकुश नहीं कहा जा सकता। इस मत का पोषण इतिहासकार प्रो. अल्तेकर के कथनों से होता है। उनके अनुसार राजा ही सत्ता का केंद्र था, सत्ता की कुंजी सेनापति व कोषाधिपति में थी व वह राजा के हाथ में थी। वह मंत्रियों की सलाह लेता था किंतु मंत्रीमंडल का मत उस पर बंधनकारक नहीं था। प्राणिवध रोकने या नये सुधार जारी करने के आदेश वह निकाल सकता था। किंतु ऐसा होते हुए भी राजा निरंकुश शासक नहीं था। प्रजा कल्याण के लिए वह हमेशा प्रयत्नशील रहता था, प्रजासुख व प्रजाहित में अपना सुख व हित है, ऐसी उसकी भावना थी।
अर्थशास्त्र में कहा गया है कि प्रजा की सुख सुविधा का ध्यान रखने वाला प्रभुता संपन्न राजा के विषय में यह भी कहा गया है कि वह प्रत्यक्ष रूप से तो अवश्य संप्रभुता ज्ञात होता है, परंतु संप्रभुता का निवास कहां होता है? इस संबंध में यह भी उल्लेख मिलता है कि संप्रभुता का निवास अप्रत्यक्ष रूप में जनता में ही था। एक अध्ययन में इस पर प्रकाश डाला गया है-मौर्य युग का शासन राजतंत्रत्मक शासन प्रणाली पर आधारित था। चूंकि राजतंत्र प्रणाली में राजा सर्वोच्च पद पर होता है, इसलिए यह समझा जाना कि संप्रभुता राजा में ही निहित है, सामान्य बात है। यह निर्विवाद है कि मार्य काल में राजा की स्थिति कूट स्थानीय थी और इस कूटस्थानीय राजा को शासन कार्यों में सहयोग देने के लिए जो मंत्रिपरिषद् थी, वह भी उसकी स्वयं की कृति थी। राजा की यह स्थिति सहज ही यह अनुमान लगाने को प्रेरित करती है कि मौर्य सम्राट संप्रभु थे तथा जनता का शासन के कार्यों में कोई स्थान या महत्व नहीं था। यह भी सही है कि अपने व्यक्तिगत प्रताप और अपने प्रति अनुरक्त सेवा की सहायता से जिन मौर्य सम्राटों ने विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। उन पर अंकुश लगाने के लिए प्रत्यक्ष में कोई अन्य उच्चतर संस्था नहीं थी। परंतु मौर्य काल की स्थिति का संपूर्ण अवलोकन करने पर यह स्थिति स्पष्ट होती है कि तत्कालीन समय में संप्रभुता का वास राजा में न होकर जनता में निहित था। कौटिल्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र में संप्रभुता का वास अप्रत्यक्ष रूप से जनता में ही समाहित किया है। पुनः कौटिल्य ने संप्रभुता का वास दंड में माना है। उन्होंने दंड के सहारे शासन चलाने या आज्ञापालन कराने के लिए कहा है-यदि दंड को शक्ति का ठीक प्रकार से प्रयोग किया जाए तो वह प्रजा का धर्म, अर्थ काम से विनियोजन करता है। संप्रभुता का वास प्रजा में होता है, इसके लिए कौटिल्य ने कहा है कि वह प्रजा के सुख में सुख और प्रजा के हित में ही अपना हित समझे और अपने आप को प्रिय लगने वाला कार्य न करके प्रजा को प्रिय लगने वाला कार्य राजा को करना चाहिए। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि कौटिल्य के अनुसार राजा स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश न थे। संप्रभुता का निवास राजा में नहीं प्रजा में था।