Question : ईश्वर की स्थापना हेतु जगत कारण युक्ति का उल्लेख एवं मूल्यांकन कीजिए। इस युक्ति के दो रूप क्या हैं? आश्रयजनित सत्ता एवं स्वजनित सत्ता में क्या भेद है? स्वजनित सत्ता ईशकेंद्रीय क्यों है? क्या प्रकृति को ही स्वजनित सत्ता के रूप में नहीं माना जा सकता? विचार कीजिए।
(2007)
Answer : ईश्वर की स्थापना हेतु जगत कारण युक्ति के अंतर्गत जगत के अस्तित्व के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है। इस युक्ति के अनुसार किसी कारण के अभाव में हम किसी वस्तु की उत्पत्ति की कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में अपने इसी सामान्य अनुभव के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इस विश्व का कोई कारण अवश्य है। उस कारण को ही ईश्वर की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार सृष्टि मूलक प्रमाण में विश्व के कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है। भारतीय दर्शन में वैयक्तिक तथा अद्वैत वेदांत के समर्थक और पाश्चात्य दर्शन में अरस्तु, देकार्त, ऐक्वाडनस आदि दार्शनिक इस मत के समर्थक हैं।
इस युक्ति के दो रूप हैं-कारणता संबंधी प्रमाण एवं आकस्मिकता संबंधी प्रमाण। कारणता संबंधी प्रमाण के अंतर्गत विश्व की सृष्टि के कारण के रूप में तथा विश्व में विद्यमान गति के कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता अनुमानित की जाती है। आकस्मिकता संबंधी प्रमाण में जगत की वस्तुओं के आकस्मिक एवं परतंत्र वस्तुओं के स्वतंत्र एवं अनिवार्य कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को अनुमानित किया जाता है। यह अनुभवसिद्ध तथ्य है कि कोई भी वस्तु स्वतः ही गतिशील नहीं हो सकती। उसे गति प्रदान करने वाला कोई कारण अवश्य होता है। यदि हम विश्व में विद्यमान गतिशील वस्तुओं की गति के कारणों की खोज करें तो इन कारणों की श्रृखला कभी समाप्त नहीं होगी, जिसके फलस्वरूप अनावस्था दोष उत्पन्न हो जाएगा। इस अनावस्था दोष से बचने के लिए ऐसी सत्ता को स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है। जो समस्त गतिशील वस्तुओं की गति का आदि कारण है। यह आदि गति प्रदानकर्ता ही ईश्वर है। परंतु इस प्रमाण के विरुद्ध मुख्य आपत्ति यह है कि इसमें एक गतिहीन सत्ता को विश्व में विद्यमान गति का आदि कारण मान लिया गया है। हम अनुभव द्वारा यह जानते हैं कि केवल कोई गतिशील वस्तु ही किसी गतिहीन वस्तु को गति प्रदान कर सकती है जो वस्तु स्वयं गतिहीन हो वह किसी अन्य वस्तु को कभी गति प्रदान नहीं कर सकती। पुनः ये दार्शनिक ईश्वर को गतिरहित मानते हैं क्योंकि ईश्वर को गतिशील मानने पर उसके गति के कारण की भी खोज करनी पडे़गी। पुनः विश्व में विद्यमान गति के आदि कारण की कल्पना कर भी ली जाए तो इससे भी आदि कारण के अस्तित्व का पता चलता है। परंतु यह कारण ईश्वर ही है यह सिद्ध नहीं होता।
आकस्मिकता संबंधी प्रमाण के अंतर्गत सांसारिक वस्तुओं के आकस्मिक अस्तित्व के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है। इस युक्ति का कथन है कि विश्व में प्रत्येक वस्तु या प्राणी का अस्तित्व केवल आकस्मिक है अर्थात् उसका होना अनिवार्य नहीं है। दूसरे शब्दों में, उसका अस्तित्व किसी अन्य प्राणी या वस्तु पर अनिवार्यतः निर्भर है। वस्तुओं एवं प्राणियों की यह परस्पर निर्भरता अनंत श्रृखला का निर्माण करती है। इस अनंत श्रृखला से बचने के लिए एक ऐसी सत्ता को स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है जो आकस्मिक न होकर अनिवार्य हो और जो अपने अस्तित्व के लिए किसी अन्य वस्तु के अस्तित्व पर निर्भर न हो। यह अनिवार्य सत्ता ही ईश्वर है, जिसके अस्तित्व की व्याख्या किसी अन्य सत्ता के अस्तित्व के आधार पर नहीं की जा सकती। परंतु यह युक्ति भी ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए तर्कसंगत नहीं है। अनिवार्य सत्ता की अवधारणा हमारी समझ से परे है। हम ऐसे किसी वस्तु के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते, जिसके स्वरूप में कभी भी कोई परिवर्तन न हो सके। भाषा के संदर्भ अनिवार्यता की अवधारणा का प्रयोग सार्थकता पूर्वक किया जा सकता है परंतु किसी वस्तु या घटना के लिए नहीं। पुनः आकस्मिकता संबंधी प्रमाण में दूसरा दोष यह है कि इसमें संहति दोष है। विश्व की किसी वस्तु की आकस्मिकता की अवधारणा का प्रयोग समस्त विश्व पर किया गया है जबकि विश्व अपने आप में कोई वस्तु नहीं, बल्कि विभिन्न वस्तुओं एवं घटनाओं का योगमात्र है। पुनः इस मत के समर्थक विश्व की वस्तुओं की आकस्मिकता के आदि कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को मानते हैं परंतु ईश्वर के स्वरूप को अनिवार्य बताते हैं जबकि विश्व के आदि कारण के रूप में ईश्वर का स्वरूप भी विश्व के स्वरूप जैसा ही होना चाहिए, परंतु ये ईश्वर को इसका अपवाद मानते हैं।
पुनः कार्य-कारण नियम के अंतर्गत विश्व के कारण के रूप में भी ईश्वर की सत्ता को अनुमानित किया गया है। विश्व एक कार्य है, अतः इसका एक कारण अवश्य होना चाहिए, क्योंकि विश्व या उसकी प्रत्येक घटना एवं वस्तु स्वयं एक कार्य है। इस कार्य का स्वयं कोई न कोई कारण है। इस क्रम में अनंत श्रृखला का निर्माण होता है और अनावस्था दोष की उत्पत्ति होती है। इस अनावस्था दोष से बचने के लिए आदि कारण के रूप में ईश्वर को अनुमानित किया गया है, जिसका कोई कारण नहीं है जो स्वयं अकारण है। भारतीय दर्शन में नैयायिक भी विश्व के निमित्त कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन करते हैं, जो उत्पादन कारण के लिए कुछ शाश्वत द्रव्यों पर निर्भर है। देकार्त ने भी पूर्ण ईश्वर के विचार के कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयास किया है, परंतु इस तर्क के विरुद्ध भी कई आपत्तियां बताई गयी हैं।
सर्वप्रथम इन दार्शनिकों ने यह मान लिया है कि अन्य वस्तुओं एवं घटनाओं की भांति यह विश्व भी एक वस्तु है जिसके अस्तित्व का कोई कारण होना आवश्यक है। परंतु विश्व कोई वस्तु नहीं है जिसके कारण की खोज करना आवश्यक है। यह एक समूह वाचक संज्ञा है, जिसमें समस्त भौतिक वस्तुएं हैं। इनको एक मान लेना और उसके कारण की खोज करना निरर्थक है। पुनः ईश्वरवादी दार्शनिक यह मानते हैं कि प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। इसी आधार पर वे विश्व के कारण की खोज के फलस्वरूप ईश्वर की सत्ता का अनुमान करते हैं। परंतु वे स्वयं ईश्वर के कारण की खोज न करके उसे स्वयंभू मानते हैं जो कार्य-कारण नियम का उल्लंघन है। यह स्वयं उनके तर्क के विरुद्ध है। पुनः ह्यूम का कथन है कि कार्य कारण के बीच अनिवार्य संबंध का ज्ञान अनुभवजन्य नहीं है। अतः इसके आधार पर किसी युक्ति को मानना निरर्थक है। ईश्वर अनुभवातीत सत्ता है, जिस कारण कार्य नियम लागू करना निरर्थक है। कांट ने भी कहा है कि ईश्वर अनुभवातीत सत्ता है और यह आस्था का विषय है, प्रमाण एवं तर्क का नहीं। पुनः ईश्वरवादी दार्शनिक यह नहीं बताते कि कारण कार्य की अनंत श्रृखला से बचना क्यों आवश्यक है। कारण कार्य की अनंत श्रृखला को मानने में कोई तार्किक दोष नहीं है। यह तर्क बुद्धि के विरुद्ध प्रतीत नहीं होती। हम तर्कसंगत रूप से यह मान सकते हैं कि विश्व में एक घटना दूसरी घटना का कारण है और इस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं है। पुनः अगर यह मान भी लिया जाए कि इस विश्व रूपी कार्य का कोई कारण अनिवार्य रूप से है तो भी इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वह आदि कारण ईश्वर ही है। इस आदि कारण को ईश्वर की संज्ञा देने का कोई तर्कसंगत कारण ईश्वरवादी प्रस्तुत नहीं कर पाते। कारणपरक प्रमाण को मानने के पश्चात यह मानने में कोई तार्किक दोष नहीं है कि विश्व की रचना करने के पश्चात उस आदि कारण का अंत हो गया है। आदि कारण का सदा विद्यमान रहना अनिवार्य नहीं है।
पुनः इस तर्क के अंतर्गत आश्रयजनित सत्ता एवं स्वजनित सत्ता में भेद किया गया है। आश्रय जनित सत्ता का अर्थ है वह सत्ता जो अपनी उत्पति, स्थिति एवं विनाश के लिए किसी अन्य सत्ता पर निर्भर है, अर्थात् उस सत्ता का अस्तित्व आकस्मिक है और वह स्वतंत्र नहीं है। उसके स्वरूप में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की कल्पना करने में कोई तार्किक विरोध नहीं है। स्वजनित सत्ता का अर्थ है, वैसी सत्ता जो सबका कारण है परंतु उसका कोई कारण नहीं है। अर्थात् वह स्वयंभू है और उसका अस्तित्व आकस्मिक न होकर अनिवार्य है। वह अपनी स्थिति एवं अस्तित्व के लिए किसी अन्य सत्ता पर निर्भर नहीं है। स्वजनित सत्ता ईश्वर केंद्रीय मानने का कारण यह है कि ईश्वर को ही सभी वस्तुओं एवं घटनाओं का आदि कारण माना गया है, परंतु ईश्वरवादी ईश्वर के अनिवार्य सत्ता की संतोषजनक व्याख्या नहीं कर पाते हैं। हां तार्किक रूप से स्वजनित सत्ता को मानना आवश्यक है जिसका अनिवार्य रूप से अस्तित्व हो और जिसे आदि कारण मानकर जगत एवं प्रकृति की व्याख्या की जा सके। प्रकृति को स्वजनित सत्ता नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रकृति विनाशशील है और यह अनुभव जन्य है, जो व्यवहार अर्थात् व्यावहारिक जीवन में उसका क्षय अनुभव से परे नहीं है। अतः इसके अनिवार्य अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना व्यावहारिक जीवन के अनुकूल नहीं है, यद्यपि इसके आदि कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को मानने में भी तार्किक दोष उपस्थित होता है परंतु धार्मिक व्यक्तियों के धार्मिक संवेदना की संतुष्टि के लिए इस सत्ता के अस्तित्व को मानने का महत्व है।
Question : ईश्वर तर्क विधान के अधीन नहीं है।
(2007)
Answer : कांट का प्रसिद्ध रचना है कि ईश्वर के अस्तित्व को तार्किक युक्तियों के आधार पर प्रमाणित नहीं किया जा सकता। आत्मा सृष्टि और ईश्वर प्रज्ञा का काल्पनिक सम्प्रत्यय मात्र है। उन्हें वास्तविक सत्ता अथवा ज्ञान के विषय नहीं कहा जा सकता है। हमें प्रामाणिक (वैध), यथार्थ, सार्वभौमिक अथवा ज्ञान का विषय नहीं कहा जा सकता। प्रज्ञा के सम्प्रत्यय (आत्मा, ईश्वर) आस्था के विषय हैं। यद्यपि वे ज्ञान के विषय नहीं हैं, तथापि उनकी उपयोगिता है क्योंकि इससे मानव को अपने ज्ञान की सीमा का ज्ञान होता है। कांट के अनुसार उन्हें तर्क के द्वारा न तो सिद्ध किया जा सकता है और न असिद्ध किया जा सकता है, जो बुद्धि से परे का विषय है, श्रद्धा का विषय हो सकता है। इस संदर्भ में कांट का कथन है मैंने आस्था अथवा श्रद्धा को स्थान देने के लिए शुद्ध बुद्धि की आलोचना की। यद्यपि ईश्वर को बुद्धि और अनुभव पर आश्रित ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता है, तथापि उसके अस्तित्व को स्वीकार करना नैतिक नियमों की रक्षा करने के लिए आवश्यक है।
कांट ईश्वर को शुद्ध प्रज्ञा के आधार पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक बुद्धि या अंतरात्मा के आधार पर मानता है। इस प्रकार ईश्वर की सत्ता नैतिक जीवन की आधारशिला है। वे तार्किक दृष्टि से अज्ञेयवादी एवं नैतिक दृष्टि से ईश्वरवादी है क्योंकि वह ईश्वर में आस्था रखता है। वस्तुतः ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए दिए गए तर्क मानव चिंतन के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को सूचित करते हैं।
यदि सृष्टि वैज्ञानिक एवं प्रयोजनमूलक युक्तियों को ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिए केवल औपचारिक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाए तो कांट के द्वारा उठायी गई सभी आपत्तियां इन तर्कों पर लागू होती हैं।
उल्लेखनीय है कि ये तर्क धार्मिक चेतना के अंतर्गत सीमा से भूमा की ओर मानव चिंतन के विकास की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। अतः इन तर्कों का धार्मिक चेतना के लिए महत्वपूर्ण स्थान है। यदि एक बार मानव बुद्धि सीमित से असीमित अथवा पूर्णता की ओर उन्मुख हो जाती हैं तो उसका ईश्वर में विश्वास दृढ़ होने लगता है।
कांट के द्वारा की गई यह आलोचना सच है कि असीम और पूर्ण होने के कारण ईश्वर को तर्कबुद्धि और साधारण अनुभव के आधार पर सिद्ध करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता है। किंतु सृष्टि वैज्ञानिक और प्रयोजनमूलक युक्तियां औपचारिक तर्क मात्र नहीं हैं। ये युक्तियां वस्तुनिष्ठ मूल्य से संबंधित हैं। ये मानव चिंतन के ऐसे सोपान हैं जिनके द्वारा मानव बुद्धि अनंतता और पूर्णता की ओर अग्रसर होती है। भाषा और तर्क की सीमाओं को एक बार पार कर लेने के बावजूद बुद्धि आध्यात्मिक उत्कर्ष की अन्य अवस्थाओं को भी प्राप्त कर सकती है। अतः धार्मिक व्यक्ति के जीवन में ये युक्तियां ईश्वर में विश्वास को सुदृढ़ करने के लिए ये उपयोगी सिद्ध हो जाती हैं। यद्यपि कांट का यह मत सत्य है कि ईश्वर श्रद्धा का विषय है तथापि इन तर्कों का आश्रय लेकर ईश्वर में श्रद्धा को दृढ़ किया जा सकता है। इनमें से कोई भी तर्क ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अंतिम नहीं है और समकालीन युग में इन तर्कों का महत्व विवादास्पद रहा है। अतः यह सिद्ध होता है कि ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में दिया गया और कोई भी तर्क अपने आप में पूर्ण नहीं है।
Question : यदि ईश्वर का अस्तित्व केवल किसी के मन के भीतर है तो ऐसे में महत्तम कल्पनीय सत्ता आखिरकार महत्तम कल्पनीय सत्ता नहीं है।
(2006)
Answer : वस्तुतः कई ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वर विचार (प्रत्यय) के विश्लेषण मात्र से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इन दार्शनिकों में ऐन्सेल्म एवं देकार्त प्रमुख हैं। ऐन्सेल्म का कथन है कि ईश्वर पूर्ण एवं महानतम सत्ता है। उसकी अपेक्षा किसी अन्य महान सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे सत्ता या तो मानसिक होगी या वास्तविक एवं मानसिक दोनों होगी। अर्थात् अगर ऐसी महानतम सत्ता सिर्फ मन में है अर्थात् मन का काल्पनिक प्रत्यय है, तो इसका अर्थ है कि यह महानतम सत्ता काल्पनिक है और विचार (मन) तक सीमित है, अर्थात् इस मानसिक (कल्पना) महत्तम सत्ता के मुकाबले वह सत्ता जो मानसिक प्रत्यय (काल्पनिक) न होकर वास्तविक भी है, वह ज्यादा महानतम है। दूसरे शब्दों में, ईश्वर यदि सिर्फ काल्पनिक रूप से महानतम सत्ता है तो वह पूर्ण एवं उच्चतम नहीं कहा जा सकता। इसका अर्थ यह भी है कि ईश्वर की वस्तुगत सत्ता है, जो पूर्ण एवं महानतम है। इसका एक अर्थ यह भी है कि ईश्वर चूंकि पूर्ण एवं महानतम सत्ता है, अतः ईश्वर का वस्तुगत अस्तित्व है। चूंकि हमारे अंदर पूर्ण एवं महानतम ईश्वर का विचार है, अतः उसका वस्तुगत अस्तित्व अनिवार्य है। ईश्वर को पूर्ण मानना परंतु उसका अस्तित्व स्वीकार न करना, इन दोनों में विरोधाभास है।
परंतु एन्सेल्म का यह वक्तव्य तार्किक दृष्टि से दोषपूर्ण है। मन में काल्पनिक प्रत्यय के आधार पर उसकी वास्तविक वस्तुगत सत्ता को सिद्ध करना चाहते हैं। गैनिलो ने इसका खंडन किया है। गैनिलो के अनुसार मन में ईश्वर के काल्पनिक प्रत्यय (चाहे वो कितना भी महत्तम एवं पूर्ण हो) से उसकी वास्तविक सत्ता को सिद्ध नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा माना जाए तो मन के किसी भी काल्पनिक प्रत्यय को आधार बनाकर उससे भी महत्तम सत्ता के वस्तुगत अस्तित्व को सिद्ध किया जा सकता है। गैनिलो के विचार से शैतान के विचार से विचार की सत्ता सिद्ध होती है, न कि वास्तविक रूप से शैतान की वस्तुगत सत्ता। कांट ने भी इन्हीं तर्कों के द्वारा इस प्रमाण का खंडन किया है। कांट के अनुसार अस्तित्व गुण नहीं है परंतु इस वक्तव्य में अस्तित्व को गुण के रूप में स्वीकार किया गया है। अस्तित्व को गुण मान लेने पर उस गुण के अधिष्ठान के रूप में एक अन्य अस्तित्व को स्वीकार करना पड़ेगा और इससे अनावस्था दोष उत्पन्न होगा।
Question : ईश्वर के अस्तित्व के रूप में सत्ता मीमांसीय तर्क किस प्रकार अमान्य है?
(2003)
Answer : ईश्वर के अस्तित्व संबंधी यह एक प्राग् अनुभविक प्रमाण है क्योंकि इसमें सत् के विचार के विचार के विश्लेषण मात्र से ईश्वर के अस्तित्व को निगमित किया जाता है।
दूसरे शब्दों में, यहां ईश्वर विचार के आधार पर उसके सार के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इसके समर्थकों में प्लेटो, आगस्टिन, एन्सेल्म, देकार्त, लार्डवनिज, हीगल आदि हैं। भारतीय दर्शन में इस अवधारणा का स्पष्ट साक्ष्य अवलोकित नहीं होता है। मध्यकालीन दार्शनिक एन्सेल्म ने सत्तामूलक प्रमाण को प्रबलता के साथ प्रतिष्ठित किया। इनके अनुसार ईश्वर पूर्ण एवं महानतम सत्ता है और उसकी अपेक्षा किसी अन्य महान सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसी सत्ता या तो केवल मानसिक हेागी या वास्तविक एवं मानसिक दोनों होगी। यदि ऐसी सत्ता केवल विचारमात्र तक सीमित होगी तो फिर इसकी तुलना में वह सत्ता जो विचार एवं यथार्थ दोनों में सत्, हो वह उच्चतम प्रमाणित की जा सकती है। यदि ईश्वर केवल मानसिक होता तो हम उसे पूर्ण एवं उच्चतम सत्ता स्वीकार नहीं करते। स्पष्ट है कि ईश्वर की वस्तुगत सत्ता है। एन्सेल्म के अनुसार ईश्वर पूर्ण है परंतु उसका अस्तित्व नहीं है, ऐसा मानना तार्किक आघात उत्पन्न करता है। चूंकि हमारे अंदर पूर्ण एवं महानतम ईश्वर का विचार है, इसलिए हमें मानसिक के साथ-साथ यथार्थ रूप में भी ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ेगा। ऐसा मानना स्वतोव्याघात उत्पन्न करता है।
देकार्त ने इस तर्क को दो रूपों में अभिव्यक्त किया है- ज्यामिति तथा पूर्ण एवं अनंत ईश्वर। जिस प्रकार त्रिभुज के प्रत्यय से यह निगमित होता है कि उसमें तीन भुजाएं हैं, उसी प्रकार पूर्ण ईश्वर के प्रत्यय से ईश्वर का अस्तित्व भी निगमित होता है। यहां उल्लेखनीय है कि जहां एंसेल्म ईश्वर को प्रत्यय से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं, वही देकार्त ईश्वर के अस्तित्व को ही ईश्वर के प्रत्यय का कारण मानते हैं। देकार्त के अनुसार मेरे मन में पूर्ण एवं अनंत ईश्वर का विचार है। मैं या कोई इन्य व्यक्ति इस विचार का कारण नहीं हो सकता क्योंकि हम सीमित एवं अपूर्ण हैं। पूर्ण एवं अनंत ईश्वर के विचार का कारण कोई पूर्ण एवं अनंत सत्ता ही हो सकती है, यह सत्ता ईश्वर है। अतः ईश्वर का अस्तित्व है। हीगल के अनुसार ईश्वर का प्रत्यय असाधारण एवं अनूठा प्रत्यय है और केवल ईश्वरीय प्रत्यय के संदर्भ में ही हम विचार से वास्तविकता को सिद्ध कर सकते हैं। परंतु ईश्वर की सत्ता मूलक तर्क की कई बिंदुओं पर आलोचना की गई है। अगर हम सत्तामूलक प्रमाण को स्वीकार करें तो फिर इसी आधार पर किसी काल्पनिक वस्तु को सत्ता को भी सिद्ध किया जा सकता है। गैलिलो के अनुसार यदि ईश्वर पूर्ण है तो उसका अस्तित्व आवश्यक है, परंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अपने आप में पूर्ण ईश्वर की कोई वास्तविक सत्ता है। उदाहरणस्वरूप यदि कोई पूर्ण प्रायद्वीप को कल्पना करे तो फिर इससे केवल पूर्ण प्रायद्वीप के विचार की सत्ता ही सिद्ध होती है, उसका वास्तविक अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है। शैतान के विचार से विचार भी सत्ता सिद्ध होती है, न कि वास्तविक स्तर पर शैतान की। कांट के अनुसार यदि कोई यह विचार करे कि उसके पाकेट में 100 डालर है तो फ्रिफ़र इससे वास्तव में पाकेट में उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। कान्ट के अनुसार सत्तामूलक प्रमाण में अनावस्था दोष है। इसमें अस्तित्व को गुण मानने की भूल की गई है। परंतु अस्तित्व सदैव गुण के पहले आता है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व पहले होता है और तब उसमें गुणों की स्थापना की जाती है। यदि अस्तित्व को गुण माना गया तो फिर उस अस्तित्व रूपी गुण के आश्रय के रूप में किसी अन्य अस्तित्व की कल्पना करनी होगी और इस प्रकार हम अनावस्था दोष में पहुंच जाते हैं। अतः इस तर्क में भ्रांति है। सत्तामूलक प्रमाण आत्माश्रय दोष से ग्रसित है। इसे हम एक युक्ति के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं:
जो पूर्ण है, वह सत् है।
ईश्वर पूर्ण है।
इसलिए ईश्वर सत्य है।
यहां निष्कर्ष को पहले ही तर्क के आधार वाक्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। पुनः ईश्वर को पारमार्थिक रूप में स्वीकार किया जाता है, इसे लौकिक विचारों के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता।
Question : क्या ईश्वर के अस्तित्व के लिए प्राप्त हुए साक्ष्यों में से कोई ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में सफल होता है? चर्चा कीजिए। इस संदर्भ में विशेषकर सृष्टिकारण युक्ति पर समालोचनात्मक रूप में विचार कीजिए।
(2003)
Answer : ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में दो प्रकार के तर्क दिए गए हैं-परंपरागत तर्क एवं गैर-परम्परागत तर्क। परम्परागत तर्क के अंतर्गत सत्तामूलक प्रमाण, विश्वमूलक प्रमाण एवं प्रयोजन मूलक प्रमाण आते हैं। गैर-परम्परागत तर्क के अंतर्गत नैतिक प्रमाण को शामिल किया जाता है। इसके अलावे अन्य प्रमाणों मेें रहस्यात्मक एवं सर्वसहमति मूलक प्रमाण भी आते हैं। इन प्रमाणों के सत्तामूलक प्रमाण के अलावे बाकी सभी प्रमाण अनुभवमूलक हैं। सत्तामूलक प्रमाण अनुभव निरपेक्ष प्रमाण हैं।
प्रयोजन मूलक प्रमाण के अंतर्गत विश्व में वर्तमान व्यस्था एवं प्रयोजन के आधार के रूप में ईश्वर के अस्तित्व का अनुमान किया गया है। इसके समर्थक एक्वासनास, प्लेटो, ब्राउन, टिनेट आदि पाश्चात्य दार्शनिक हैं। भारतीय संदर्भ में न्याय वैशेषिक एवं शंकराचार्य इस मत के समर्थक माने जाते हैं। परंतु विश्व के नियंता एवं प्रयोजक के रूप में ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास में कई दोष है। यह तर्क सादृश्यानुमान पर आधारित है तथा इससे विश्व में वर्तमान धार्मिकता एवं नैतिकता की व्याख्या नहीं हो पाती है। पुनः साम्यानुमान मनुष्य निर्मित वस्तुओं पर लागू किया जाता है परंतु विश्व पर इसे लागू नहीं किया जा सकता। ईश्वर को एक शिल्पकार यंत्रकार मानने पर ईश्वर का स्वरूप भी खंडित होता है। डार्विन के अनुसार विश्व का नियंता कोई ईश्वर नहीं, बल्कि यह प्राकृतिक चयन के सिद्धांत पर आधारित है।
पुनः सत्तामूलक युक्ति के अंदर ईश्वर के विचारमात्र से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इसके समर्थक प्लेटो, देकार्त, एन्सेल्म, लार्डवनिज आदि पाश्चात्य दार्शनिक हैं। एन्सेल्म के अनुसार हमारे मन में पूर्ण ईश्वर का विचार है। ऐसी स्थिति में ईश्वर के अस्तित्व को न मानने पर विरोधाभास उपस्थित होगा, क्योंकि ईश्वर की पूर्णता में ही उसका अस्तित्व निहित है। ईश्वर पूर्ण है परंतु उसका अस्तित्व नहीं है, ऐसा मानने में विरोध है। देकार्त की भी मान्यता है कि चूंकि हमारे मन में पूर्ण ईश्वर का प्रत्यय है, अतः यह प्रत्यय कोई पूर्ण एवं अनिवार्य सत्ता ही उत्पन्न कर सकती है, अपूर्ण और सीमित मानव नहीं। यह सत्ता ईश्वर है। परंतु इस तर्क में यह दोष है कि इसमें ईश्वर विचार को ईश्वर की वस्तुनिष्ठ सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया है। पुनः विचार मात्र से तो किसी भी प्रकार के सत्ता को सिद्ध किया जा सकता है।
सर्वसहमतिमूलक प्रमाण के अंतर्गत यह तर्क दिया जाता है कि सभी लोग सामान्यतः ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं, अतः ईश्वर का अस्तित्व है। परंतु केवल सभी लोगों के मानने से किसी वस्तु के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
गैरपरंपरागत प्रमाण के अंतर्गत कांट, रैसडल आदि दार्शनिक नैतिक मूल्यों एवं आदर्शों की व्याख्या के लिए ईश्वर के अस्तित्व का अनुमान करते हैं। कांट के अनुसार नैतिकता के निरपेक्ष आदेश को शुभ संकल्पों के द्वारा सम्पादित किया जा सकता है। शुभ संकल्प युक्त व्यक्ति को उसके आचरण के लिए आनंद एवं सुख मिलना नैतिकता के दृष्टिकोण से अनिवार्य है। अतः शुभ संकल्प में आनंद का समावेश कराने के लिए ईश्वर की सत्ता में विश्वास करना आवश्यक है। परंतु कांट का नैतिक तर्क वास्तविक अर्थ में प्रमाण नहीं है, क्योंकि यह आस्था पर आधारित है। धार्मिक अनुभव पर आधारित प्रमाण में धार्मिक अनुभव की समुचित व्याख्या संभव नहीं हो पाती, जिससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो।
सृष्टि मूलक प्रमाण को तीन रूपों में व्यक्त किया गया है-(i) गतिमूलक प्रमाण-इसके अंतर्गत विश्व में विद्यमान गति के आधार के रूप में ईश्वर की सत्ता केा अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। अनुभव हमें बतलाता है कि विश्व में सर्वत्र गति विद्यमान है। इस ब्रह्मांड के सभी ग्रह गतिशील हैं। पृथ्वी भी अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। यह अनुभवसिद्ध है कि किसी भी वस्तु में गति स्वभावतः नहीं हो सकती, बल्कि प्रत्येक गति का कारण कोई दूसरा तत्व है। उस दूसरे तत्व की भी गति का कारण कोई और स्रोत है। इस क्रम में आगे बढ़ने पर हम अनावस्था दोष में फंस जाते हैं। इस अनावस्था दोष से बचने के लिए एक ऐसी सत्ता को मानना आवश्यक है, जो स्वयंभू, शाश्वत एवं परिवर्तनशील होने के साथ-साथ समस्त वस्तुओं और विश्व की गति का आदि कारण हो। गति के इस मूल स्रोत को ही धार्मिक दृष्टि से ईश्वर माना जाता हैं अरस्तु ने इसी संदर्भ में ईश्वर को Unmoved Mover (अपरिवर्तित प्रवर्तक) कहा है।
भारतीय दर्शन में न्याय वैशेषिक दर्शन में आयोजनात पद के द्वारा इस तर्क का समर्थन किया गया है।
आलोचनाः (i) इस प्रमाण में गतिहीन ईश्वर को विश्व की समस्त गति का मूल कारण माना गया है, जो कि अनुभव के विपरीत है। अनुभव से प्रमाणित होता है कि वही वस्तु गति प्रदान कर सकती है, जो स्वयं गति से युक्त हो।
यदि विश्व की गति का कोई आदि कारण स्वीकार किया जाए तो भी इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि वह सत्ता ईश्वर ही है।
आकस्मिकता मूलक तर्कः इस प्रमाण में विश्व की वस्तुओं के आकस्मिक अस्तित्व के आधार के रूप में अनिवार्य एवं सवाधीन सत्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। यहां आकस्मिकता का तात्पर्य है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो, जो अपनी सत्ता के लिए दूसरों पर निर्भर हो तथा जो विनाशशील हो। आकस्मिकता मूलक प्रमाण के दो रूप दिखाई देते हैं:
विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है। प्रत्येक आकस्मिक वस्तु किसी अन्य वस्तु पर आश्रित है, वह अन्य वस्तु भी अस्तित्व के लिए किसी दूसरे वस्तु पर आश्रित है। इस क्रम में आगे बढ़ने पर अनावस्था दोष की उत्पत्ति हो जाती है। इससे बचने के लिए अनिवार्य एवं स्वतंत्र सत्ता के रूप में ईश्वर की सत्ता को अनुमानित किया जाता है।
यदि विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है तो अब तक सभी वस्तुओं का क्षय होकर शून्य की स्थिति पैदा हो जानी चाहिए थी और वर्तमान में कुछ नहीं रहना चाहिए था क्योंकि एक बार शून्य की स्थिति उत्पन्न होने के पश्चात फिर उस शून्य से कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती। परंतु वर्तमान में वस्तुओं का अस्तित्व है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सांसारिक वस्तुओं की उत्पन्न करने और कायम रखने के लिए अवश्य ही एक ऐसी सत्ता है जिसका अस्तित्व अनिवार्य स्वतंत्र एवं स्वनिर्भर है। यही सत्ता ईश्वर है। लार्डवनिज के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है। आकस्मिक वस्तुओं का पर्याप्त हेतु होना आवश्यक है। विश्व की आकस्मिक वस्तुओं का पर्याप्त हेतु ईश्वर है।
भारतीय दर्शन में न्याय एवं वैशेषिक दार्शनिक घृत्यादे पद के द्वारा इस मत का समर्थन करते हैं।
आलोचनाः (i) भाषा विश्लेषणवादी-दार्शनिकों के अनुसार ईश्वर को अनिवार्य सत्ता के रूप में सिद्ध करने का प्रयास अस्पष्ट एवं असंगत है। अनिवार्यता की अवधारणा विश्लेषणात्मक प्रतिज्ञप्तियों पर लागू होती है। इसे किसी वस्तु या घटना पर लागू नहीं किया जाता है।
(ii)यदि विश्व की सभी वस्तुएं आकस्मिक एवं नश्वर हैं तो फिर इनका कारण भी इनके समरूप ही होना चाहिए, परंतु यहां इसका उल्लंघन किया गया है।
(iii)कारणमूलक तर्कः इस तर्क में विश्वरूपी कार्य के कारण के रूप में ईश्वर को अस्तित्व को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। कारणता सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक घटना का कोई कारण अवश्य होता है। विश्व की जितनी घटनाएं हैं वे अपनी पूर्ववर्ती घटनाओं के कार्य हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती घटना किसी अन्य कारण पर निर्भर रहती है। इस प्रकार कारण और कार्य की एक अनंतशृंखला उत्पन्न हो जाती है और हम अनवस्था दोष में पहुंच जाते हैं। इससे बचने के लिए आदि कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जाती है, जो कार्य के समान ही व्यापक है। भारतीय दर्शन में न्याय वैशेषिक के अंतर्गत कार्यात पद के द्वारा विश्व के निमित्त कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व का समर्थन किया गया है।
देकार्त कारणता के सिद्धांत को दो रूपों में प्रस्तुत करते हैं:
(i)एक चेतन प्राणी के रूप में मेरा अिस्तत्व निर्विवाद है। यहां प्रश्न है कि मेरा सृष्टिकर्ता कौन है? मैं स्वयं अपना सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता क्योंकि तब स्वयं को स्वयं की सृष्टि से पूर्व मानना पड़ेगा, जो कि हास्यास्पद है। यदि मेरे माता-पिता को मेरी सृष्टि का कारण माना जाए तो फिर उनके सृष्टिकर्ता की समस्या पैदा हो जाती है। इस क्रम में आगे बढ़ने पर अनावस्था दोष से बचने के लिए सबों के आदि कारण के रूप में स्वयंभू ईश्वर को मानना आवश्यक हो जाता है।
(ii)देकार्त के अनुसार मेरे मन में पूर्ण एवं अनंत ईश्वर का विचार है। मैं स्वयं इस विचार का कारण नहीं हो सकता क्योंकि मैं अपूर्ण एवं शांत हूं। इस पूर्ण एवं अनंत ईश्वर का विचार का कारण पूर्ण एवं अनंत सत्ता ही हो सकती है। यही सत्ता ईश्वर है। अतः ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है।
आलोचनाः (i) ह्यूम के अनुसार कारण और कार्य के अनिवार्य संबंध का हमें अनुभव नहीं होता। अतः इस पर आधारित ईश्वर संबंधी तर्क दोषपूर्ण एवं असंगत है।
(ii) यदि प्रत्येक कार्य या वस्तु का कोई कारण होता है तो फिर ईश्वर का भी कारण होना चाहिए।
(iii) बर्टेंड रसेल के अनुसार केवल अनावस्था दोष से बचने के लिए ईश्वर को आदि कारण मान लेना युक्तिसंगत नहीं है। जब गणित में उत्पन्न अनंतशृंखला मानने में कोई कठिनाई नहीं है तो फिर इस संदर्भ में भी यह कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
(iv) कांट के अनुसार शुद्ध बुद्धि के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता। बुद्धि के प्रत्यय अनुभव सापेक्ष होने के कारण किसी अनुभव निरपेक्ष सत्ता पर लागू नहीं किए जा सकते। अतः इस आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। राइनेबाख के अनुसार विश्वमूलक प्रमाण दार्शनिक अर्थ न होकर निरर्थक शाब्दिकता मात्र है। विश्व की परिभाषा के अनुसार विश्व के बाहर कुछ भी नहीं है। वैसी स्थिति में विश्व का कारण ढूंढ़ने का प्रयास निरर्थक है।
Question : यदि ईश्वर की सत्ता नहीं है तो सब कुछ अनुमत है। दांस्तोवस्की।
(2001)
Answer : अधिकतर ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानने के साथ-साथ सर्वज्ञ मानते हैं। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर को इस जगत में होने वाली सभी घटनाओं का पूर्ण ज्ञान है। ऐसी घटना नहीं है जिसका ज्ञान ईश्वर को प्राप्त न हो। मनुष्य का ज्ञान सीमित है क्योंकि वह देश और काल से परे नहीं है। परंतु ईश्वर का ज्ञान मनुष्य से इस अर्थ में भिन्न है कि वह इस जगत का निर्माता है। अतः इस जगत में घटनेवाली सारी घटनाओं का उसे पूर्ण ज्ञान है। पुनः हमारा सामान्य अनुभव यह कहता है कि इस विश्व में व्यवस्था, समायोजन तथा प्रयोजन का कारण ईश्वर ही है। ये सारी व्यवस्थाएं इसलिए हैं क्योंकि ईश्वर का अस्तित्व है ओर उसके कारण ही इस संपूर्ण ब्रह्मांड में निश्चित व्यवस्था और प्रयोजन है। ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि को न मानने पर विश्व में इस व्यवस्था एवं प्रयोजन का होना संभव नहीं है। ब्रह्मांड में इस व्यवस्था के कारण ही वैज्ञानिक इसका संचालन करने वाले प्राकृतिक नियमों तथा कार्यप्रणालियों को कुछ सीमा तक समझने में समर्थ हो सकते हैं। ईश्वर की सत्ता को न मानने पर यह समायोजन जो विश्व में द्रष्टव्य है, संभव नहीं। यह अनुभव सिद्ध है कि किसी प्रकार की व्यवस्था के लिए व्यवस्थापक और किसी प्रकार के प्रयोजन के लिए प्रयोजनकर्ता की आवश्यकता पड़ती है। यह प्रयोजनकर्ता ईश्वर ही है। पुनः ईश्वर विषयक विश्वास को ध्यान में रखते हुए कुछ दार्शनिक नैतिकता को ईश्वर पर पूर्णतः निर्भर मानते हैं। इन ईश्वरवादी दार्शनिकों का विचार है कि नैतिकता का एकमात्र मूल आधार ईश्वर है, जिसके अभाव में हम उसके अस्तित्व और उसकी सार्थकता की कल्पना भी नहीं कर सकते। ईश्वर के कारण ही समस्त नैतिक मूल्यों, आदर्शों तथा नियमों को स्वीकार करते हैं। इसका अर्थ यही है कि यदि कोई व्यक्ति ईश्वर में विश्वास नहीं करता तो उसके लिए इन नैतिक मूल्यों आदर्शों और नियमों का कोई महत्व नहीं हो सकता। परंतु इस मत के अनुसार ऐसे धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के जीवन में नैतिकता के लिए कोई स्थान होना संभव नहीं है। वह केवल स्वार्थ से प्रेरित होकर ही समस्त कार्य करता है और इसी कारण उसके लिए नैतिक दृष्टि से उचित-अनुचित तथा शुभ-अशुभ या अच्छे-बुरे का कोई अर्थ नहीं हो सकता। ईश्वर के बिना नैतिकता उसी प्रकार निराधार है जिस प्रकार पतवार के बिना नदी में चलती हुई नौका। केवल ईश्वर ही नैतिकता को उचित दिशा प्रदान कर उसे पथभ्रष्ट होने से बचा सकता है। यदि नैतिकता को ईश्वर का सुदृढ़ आधार न हो तो वह निश्चय ही व्यक्तिगत स्वार्थ के दलदल में फंसकर नष्ट हो जाएगी। जब ईश्वरवादी ऐसा कहते हैं तो इसका अर्थ यही है कि नैतिक नियम ईश्वरीय नियम हैं और ईश्वर के उल्लंघनीय आदेश मानकर ही मनुष्य को सदैव इनका पालन करना चाहिए। नैतिकता का मूल स्रोत ईश्वर ही है मानव समाज, समाज या कोई अन्य लौकिक वस्तु नहीं। परंतु यह उल्लेखनीय है कि नैतिकता कुछ रीति रिवाजों, प्रथाओं, नियमों एवं आदर्शों द्वारा मानवीय आचरण का नियमन, मार्गदर्शन तथा मूल्यांकन करने वाली सामाजिक व्यवस्था है, जिसका लक्ष्य व्यक्ति और समाज दोनों का अधिकतम कल्याण है। इसका उद्गम तथा विकास समाज में ही होता है और जिसकी सार्थकता एवं महत्ता मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण ही है। समाज से पृथक तथा स्वतंत्र नैतिकता की न तो कोई संभावना है और न आवश्यकता। हम सार्थकतापूर्वक ऐसे किसी मनुष्य के आचरण के नैतिक या अनैतिक होने की कल्पना नहीं कर सकते, जो समाज से पूर्णतः पृथक जीवन व्यतीत कर रहा है। वस्तुतः नैतिक ही धर्म और ईश्वर को मानव के लिए अनुकरणीय बनाता है। यह ईश्वर और धर्म का महत्वपूर्ण तत्व है और इसीलिए ईश्वर को माननेवाला व्यक्ति का आचरण प्रभावित होता है।
Question : ईश्वर की सत्ता स्थापना हेतु प्रयोजन सापेक्ष युक्ति का उल्लेख एवं मूल्यांकन कीजिए। जगत उत्पत्ति के संबंध में इससे क्या निर्दिष्ट है? क्या जगत के रचनाकार की प्राक्कल्पना युक्तियुक्त है?
(2001)
Answer : प्रयोजनमूलक प्रमाण मूलतः अनुभवाश्रित प्रमाण है क्योंकि इसका आधार भी विश्व के संबंध में मनुष्य का अपना अनुभव ही है। अनेक भारतीय तथा पाश्चात्य दार्शनिकों ने ईश्वर के अस्तित्व के लिए प्रयोजनमूलक प्रमाण प्रस्तुत किया है। न्याय, वैशेषिक, योग और वेदांत में इस प्रमाण का उल्लेख मिलता है। पाश्चात्य दर्शन में सर्वप्रथम प्लेटो ने ईश्वर की सत्ता के लिए यह प्रयोजनमूलक प्रमाण पस्तुत किया था। इसके पश्चात मध्ययुग में ऐक्वार्डनस ने सृष्टिमूलक प्रमाण के साथ-साथ इस प्रमाण को भी ईश्वर के अस्तित्व के लिए एक महत्वपूर्ण प्रमाण के रूप में स्वीकार किया। आधुनिक पाश्चात्य दर्शन में भी विलियम पेले, हेनरी मोर, जेम्स मार्टिन्यु, एफ आर टैनेन्ट आदि अनेक दार्शनिकों ने इस प्रमाण द्वारा ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। ह्यूम और कांट ने इस प्रमाण की तीव्र आलोचना की है, किंतु वे भी इसे ईश्वर के अस्तित्व के समर्थन में दिया जाने वाला प्राचीनतम तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रमाण मानते हैं।
इस प्रमाण के द्वारा विश्व में विद्यमान व्यवस्था प्रयोजन तथा समायोजन के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। इस प्रमाण के समर्थक यह कहते हैं और हमारा सामान्य अनुभव भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि जब कोई व्यवस्था स्थापित की जाती है अथवा किसी वस्तु की रचना की जाती है तो उसके मूल में कोई उद्देश्य या प्रयोजन अवश्य होता है। इस संपूर्ण ब्रह्मांड में एक निश्चित व्यवस्था स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिसके अनुसार इसके समस्त ग्रह नक्षत्रें का संचालन होता है। इसकी सभी वस्तुएं तथा कार्यप्रणालियां कुछ विशेष प्राकृतिक नियमों द्वारा शासित होती है, जो सर्वत्र व्याप्त हैं। उदाहरणार्थ- समस्त ग्रह अपनी-अपनी निश्चित कक्षाओं में नियमित रूप से घूमते हैं जिसके फलस्वरूप उनमें सदा एक व्यवस्था बनी रहती है। हमारी पृथ्वी इस ब्रह्मांड का एक छोटा हिस्सा है, किंतु इसमें भी सर्वत्र नियमानुरूपता और व्यवस्था दिखाई देती है जैसे ऋतुओं का बदलना, दिन और रात का बदलना। विश्व में विद्यमान इस व्यवस्था के अतिरिक्त सभी प्राणियों के अंगों में समायोजन दिखाई देता है जिसके कारण वे जीवित रहते हैं और उनका विकास होता है। अब यह अनुभव सिद्ध तथ्य है कि किसी प्रकार की व्यवस्था के लिए व्यवस्थापक और किसी प्रकार के प्रयोजन के लिए प्रयोजनकर्ता का होना अनिवार्य है। ईश्वरवादी दार्शनिकों का कथन है कि ब्रह्मांड में विद्यमान इस व्यवस्था और प्रयोजन से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसका कोई बुद्धिमान रचयिता अवश्य है, जिसने एक विशेष प्रयोजन को ध्यान में रखकर इसमें यह व्यवस्था स्थापित की है। ब्रह्मांड का यह रचयिता और व्यवस्थापक ही ईश्वर है, जिसके बिना इसके अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि इस रचचिता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार न किया जाए तो इसमें विद्यमान व्यवस्था एवं प्रयोजन की संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती।
एक पाश्चात्य दार्शनिक विलियम पैले ने 1802 में प्रकाशित अपनी पुस्तक नेचुरल थियोलाजी में इसी प्रयोजनमूलक प्रमाण के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया है। अपने इस प्रयोजनमूलक प्रमाण की व्याख्या करने के लिए पैले ने घड़ी और घड़ीसाज का उदाहरण दिया है। वे कहते हैं कि वन में पड़ी हुई किसी घड़ी के विभिन्न भागों को देखकर हम निश्चय ही यह अनुमान लगाएंगे कि इसका निर्माता कोई अवश्य रहा होगा और उसने समय बताने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर इसका निर्माण किया होगा, परंतु यदि हमें उसी वन में पड़ा हुआ एक पत्थर मिलता है तो हम इसके विषय में इस प्रकार का अनुमान नहीं लगा सकते क्योंकि उसके भागों में इन कोई व्यवस्था है और न कोई प्रयोजन ठीक यही बात व्यवस्थित और उद्देश्यपूर्ण ब्रह्मांड के संबंध में भी कही जा सकती है। पैले का कथन है कि यदि घड़ी के कुछ भाग ठीक प्रकार से कार्य नहीं करते तो इसके उस पर आधारित हमारा घड़ीसाज संबंधी अनुमान युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता क्योंकि घड़ी की उपस्थिति मात्र उसके निर्माता को अनिवार्यतः प्रमाणित करती है। पैले यह भी कहते हैं कि यदि हमने पहले कभी घड़ी नहीं देखी और हम यह भी नहीं जानते कि वह मानव निर्मित वस्तु है तो भी हमारे इस अनुमान की प्रमाणिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि व्यवस्थित एवं उद्देश्यपूर्ण घड़ी की उपस्थिति ही उस के निर्माता को अनिवार्यतः प्रमाणित करती है। उनका मत है कि ये तीनों बाते ब्रह्मांड तथा उसके रचयिता ईश्वर से संबंधित हमारे अनुमान पर भी पूर्णरूप से लागू होती है।
वर्तमान शताब्दी के एक दार्शनिक एआई ब्राउन ने भी ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने के लिए प्रयोजन मूलक प्रमाण प्रस्तुत किया है। इस संबंध में उन्होंने हमारी पृथ्वी के ऊपर पर्यावरण में विद्यमान ओजोन नामक गैस की उस परत का उदाहरण दिया है, जो इस पृथ्वी पर समस्त प्राणियों तथा पेड़ पौधों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। ओजोन गैस की परत रचयिता द्वारा पहले से सोच-समझ कर किए गए कार्य का महान प्रमाण है। ओजोन परत कोई आकस्मिक प्रक्रिया का प्रमाण नहीं बल्कि ईश्वर द्वारा जानबूझकर तैयार किया गया आवरण है, जो पराबैगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करता है।
पाश्चात्य दार्शनिकों के अतिरिक्त कुछ भारतीय दार्शनिकों ने भी प्रयोजनमूलक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। इन दार्शनिकों में नैयायिक जयंत तथा अद्वैत वेदांत के प्रणेता शंकराचार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जयंत यह कहते हैं कि यह व्यवस्थित और प्रयोजनपूर्ण ब्रह्मांड किसी प्रकार के संयोग मात्र का परिणाम नहीं हो सकता। इस प्रयोजनपूर्ण ब्रह्मांड तथा इसके रचयिता ईश्वर में वही अनिवार्य संबंध हैं जो धुएं और अग्नि में पाया जाता है। पुनः शंकर भी भट्ट के इस प्रमाण का समर्थन करते हैं। यह सत्य है कि वे पारमार्थिक दृष्टि से निर्गुण, निराकार और निर्विशेष ब्रह्म को ही एकमात्र यथार्थ सत्ता मानते हैं, किंतु व्यावहारिक दृष्टि से उन्होंने इस जगत तथा उसके रचयिता ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार किया है। उनका कहना है कि जिस प्रकार कुम्भकार मिट्टी को एक व्यवस्थित एवं प्रायोजनपूर्ण घड़े में परिवर्तित कर देता है, उसी प्रकार ईश्वर भी अपनी माया से इस व्यवस्थित एवं प्रयोजनपूर्ण जगत की रचना करता है। इस रचईता अर्थात ईश्वर के अभाव में हम जगत में विद्यमान व्यवस्था और प्रयोजन की संतोषप्रद व्याख्या नहीं कर सकते। इसमें संदेह नहीं कि सामान्य व्यक्ति को यह प्रमाण बहुत विश्वसनीय प्रतीत होता है क्योंकि वह इस विश्व में स्पष्ट रूप से व्यवस्था और प्रयोजन का अनुभव करता है। परंतु दार्शनिक दृष्टि से विचार करने पर हम सामान्य व्यक्ति के इस का समर्थन नहीं कर सकते क्योंकि तार्किक दृष्टि से यह दोषपूर्ण होने के कारण अविश्वसनीय तथा असंतोषप्रद है। इस प्रमाण के विरूद्ध ह्यूम कांट आदि दार्शनिकों ने कई आपत्तियां प्रस्तुत की हैं।
Question : ईश्वर के अस्तित्व के लिए दिए गए परंपरागत प्रमाणों का विवेचन कीजिए और प्रत्येक पर अपनी आलोचना लिखिए।
(2000)
Answer : ईश्वर के अस्तित्व के लिए दिए गए परंपरागत प्रमाणों के अंतर्गत सत्तामूलक, विश्वमूलक एवं प्रयोजनमूलक प्रमाण आते हैं।
(i) विश्वमूलक प्रमाणः यह अनुभवमूलक प्रमाण हैं, जिसमें विश्व की व्याख्या करने के निमित्त ईश्वर की सत्ता को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। इसके तीन रूप महत्वपूर्ण हैं। इसका प्रथम रूप है गतिमूलक प्रमाण। इस प्रमाण में विश्व में विद्यमान गति के मूल आधार या आदि गति प्रदानकर्ता को रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। यह अनुभवजन्य है कि विश्व में सर्वत्र गति विद्यमान है। ब्रह्मांड के सभी ग्रह एवं पृथ्वी भी अपने अक्ष पर गतिशील हैं। यह उल्लेखनीय है कि किसी भी वस्तु में गति स्वभावतः नहीं हो सकती बल्कि प्रत्येक गति का कारण कोई दूसरा तत्व होता है। इस दूसरे तत्व की गति का कारण कोई और स्रोत है। परंतु इस क्रम में आगे बढ़ने पर अनावस्था दोष उत्पन्न होता है। इस अनावस्था दोष से बचने के लिए एक ऐसी सत्ता को मानना आवश्यक है, जो स्वयं अपरिवर्तनशील होने के साथ-साथ सभी वस्तुओं की गति का आदि कारण है। गति के इस मूल स्रोत को ही धार्मिक दृष्टिकोकण से ईश्वर कहा जाता है। भारतीय संदर्भ में न्याय वैशेषिक दर्शन में आयोजनात पद के द्वारा इस तर्क का समर्थन किया जाता है। परंतु इस प्रमाण में गतिहीन ईश्वर को विश्व की समस्त गति का कारण माना गया है। पुनः विश्व की गति का आदि कारण स्वीकार कर लेने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि वह कारण ईश्वर ही है।
इस प्रमाण का दूसरा रूप है-आकस्मिकतामूलक तर्क। इसे दो रूपों में व्यक्त किया जाता है। प्रथमतः विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है। प्रत्येक आकस्मिक वस्तु किसी अन्य वस्तु पर आश्रित है और वह वस्तु स्वयं भी किसी दूसरे पर आश्रित है। इस क्रम में आगे बढ़ने पर अनावस्था दोष उत्पन्न होता है। इससे बचने के लिए अनिवार्य एवं स्वतंत्र सत्ता के रूप में ईश्वर की सत्ता को अनुमानित किया जाता है। द्वितीयतः यदि विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है तो अबतक सभी वस्तुओं का क्षय हो जाना चाहिए था, परंतु वस्तुओं का अस्तित्व अनुभवजन्य है। इसका अर्थ है कि इन सांसारिक वस्तुओं को कायम रखने के लिए अवश्य ही एक ऐसी सत्ता है, जिसका अस्तित्व अनिवार्य एवं स्वतंत्र है। यह सत्ता ईश्वर है। परंतु भाषा विश्लेषणवादी दार्शनिकों के अनुसार ईश्वर को अनिवार्य सत्ता के रूप में सिद्ध करने का प्रयास असंगत है क्योंकि अनिवार्यता की अवधारणा विश्लेषणात्मक प्रतिज्ञप्तियों पर लागू होती है, किसी वस्तु या घटना पर नहीं। पुनः यदि विश्व की सभी वस्तुएं आकस्मिक एवं नश्वर है, तो फिर इनका कारण भी इनके समान ही होना चाहिए परंतु यहां इसका उल्लंघन किया जा रहा है।
पुनः इस प्रमाण का तीसरा रूप है- कारणतामूलक तर्क। इसके अंतर्गत विश्वरूपी कार्य के कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अनुमानित करने का प्रयत्न किया गया है। विश्व की प्रत्येक घटना सकारण है। परंतु ऐसा सोचने पर कार्य कारणशृंखला का अंत संभव नहीं है। इस अनंतशृंखला के दोष से बचने के लिए ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया जाता है। परंतु ह्यूम का कहना है कि हमें अनुभव में कार्य एवं कारण के अनिवार्य संबंध का ज्ञान नहीं होता है। अतः यह तर्क दोषपूर्ण है। पुनः यदि सभी एवं घटनाओं का कारण होता है तो ईश्वर का भी कारण होना चाहिए। रसेल का मानना है कि केवल अनावस्था दोष से बचने के लिए ईश्वर को आदि कारण मान लेना युक्तिसंगत नहीं है। पुनः कांट के अनुसार शुद्ध बुद्धि के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता। ईश्वर अनुभव निरपेक्ष है और बुद्धि अनुभव सापेक्ष, अतः बुद्धि पर आधारित तर्क से ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है।
ईश्वर के अस्तित्व के लिए दूसरा परंपरागत तर्क प्रयोजनमूलक युक्ति है। यह ईश्वर सिद्धि के लिए दिए गए प्रमाणों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस प्रमाण में विश्व में व्याप्त व्यवस्था, सामंजस्य, प्रयोजन, उद्देश्य समायोजन आदि के आधार पर इसके व्यवस्थापक एवं नियन्ता के रूप में ईश्वरकी सत्ता को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। इसके समर्थकों में प्लेटो, एक्विनास, पायली, माटिन्यु, टिनेंट एवं ब्राउन हैं। भारतीय दर्शन में न्याय, वैशेषिक तथा शंकराचार्य व्यावहारिक दृष्टिकोण से इसका समर्थन करते हैं। इस प्रमाण को मानने का आधार यह है कि यह विश्व अपने आप स्थापित या अचानक उत्पन्न रचना नहीं है क्योंकि उसके अंदर प्रत्येक स्थान पर योजना संबद्धता दिखाई देती है। यह अनुभव सिद्ध है कि व्यवस्था और प्रयोजन चेतन बुद्धि के बिना नहीं हो सकती। इस विश्व में विद्यमान व्यवस्था और प्रयोजन का आधार सीमित बुद्धि वाला व्यक्ति नहीं हो सकता है। इसका आधार कोई अपरिमित बुद्धिवाला ही हो सकता है। यही असीमित बुद्धि ईश्वर से ही संबंधित है। विलियम पायली घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से इस तर्क का समर्थन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार किसी निर्जन क्षेत्र में एक घड़ी को पाकर उसकी व्यवस्था, जटिलता एवं योजनाबद्धता को देखकर हम यंत्रकार की कल्पना कर लेते हैं, उसी प्रकार विश्व की व्यवस्था, उसकी विविधता उसमें विद्यमान सामंजस्य इत्यादि को देखकर इस विश्वरूपी यंत्र के व्यवस्थापक एवं संयोजक के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अनुमानित कर लेते हैं। जेम्स माटिन्यु के अनुसार जिस व्यवस्था में चयन, संचयन एवं अनुक्रम पाया जाता है, वहां बुद्धि एवं संकल्प की भूमिका अवश्य होती है। विश्व के विभिन्न जलवायु प्रदेशों में रहने वाले जीवों के अंग प्रत्यंगों की बनावट में तीनों चीजें दिखाई देती है, ये सिद्ध करते हैं कि विश्व की रचयिता कोई महान बुद्धिमान व्यक्ति है। यह सत्ता ईश्वर है। परंतु विलियम पाडली का तर्क सादृश्य अनुमान पर आधारित है जो एक दुर्बल तर्क है। यदि विश्व को विशाल यंत्र के रूप में माना जाए तो फिर इस यंत्र में नैतिकता, धार्मिकता और स्वतंत्रता की स्थिति की व्याख्या नहीं हो सकती है। पुनः साम्यानुमान वहीं वैध माना जाता है, जहां इसके असंख्य उदाहारण तो एवं पुनरावृत्ति संभव हो। हम मनुष्य निर्मित यंत्रें के संदर्भ में यह बात स्वीकार कर सकते हैं, परंतु विश्व के संदर्भ में ये दोनों शर्तें लागू नहीं होती। पुनः प्रयोजनवादी तर्क ईश्वर का मानवीयकरण करता है। परंतु इससे ईश्वर भी मानवीय विशिष्टताओं से युक्त हो जाएगा और ऐसी स्थिति में वह सीमित एवं अपूर्ण हो जाएगा। इस तर्क में ईश्वर को एक शिल्पाकार के रूप में स्वीकार किया गया है। शिल्पकार के लिए सामग्री पर निर्भर करता है। ऐसी स्थिति में उसकी सर्वशक्तिमतता, स्वतंत्रता एवं पूर्णता खंडित हो जाती है। विश्व में व्यवस्था एवं सामंजस्य व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
तीसरा महत्वपूर्ण परंपरागत प्रमाण सत्तामूलक प्रमाण है। ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में यह एक अनुभव निरपेक्ष प्रमाण है। इसमें पूर्ण सत् के विचार के विश्लेषण से ईश्वर की सत्ता सिद्ध की जाती है। दूसरे शब्दों में, यहां ईश्वर विचार के आधार पर उसके सार के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इसके समर्थकों में प्लेटो, आगस्टिन, एन्सेल्म, देकार्त, लार्डवनिज, हीगल आदि हैं। भारतीय दर्शन में इस अवधारणा का स्पष्ट साक्ष्य अवलोकित नहीं होता है। मध्यकालीन दार्शनिक एन्सेल्म ने सत्तामूलक प्रमाण को प्रबलता के साथ प्रतिष्ठित किया। इनके अनुसार ईश्वर पूर्ण एवं महानतम सत्ता है और उसकी अपेक्षा किसी अन्य महान सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसी सत्ता या तो केवल मानसिक होगी या वास्तविक एवं मानसिक दोनों होगी। यदि ऐसी सत्ता केवल विचारमात्र तक सीमित होगी, तो फिर इसकी तुलना में वह सत्ता जो विचार एवं यथार्थ दोनों में सत् हो। वह उच्चतम प्रमाणित की जा सकती है। यदि ईश्वर केवल मानसिक होता तो हम उसे पूर्ण एवं उच्चतम सत्ता स्वीकार नहीं करते। स्पष्ट है कि ईश्वर की वस्तुगत सत्ता है। एन्सेल्म के अनुसार ईश्वर पूर्ण है परंतु उसका अस्तित्व नहीं है, ऐसा मानना तार्किक व्याघात उत्पन्न करता है। चूंकि हमारे अंदर पूर्ण एवं महानतम ईश्वर का विचार है इसलिए हमें मानसिक के साथ-साथ यथार्थ रूप में भी ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ेगा। ऐसा मानना स्वतो व्याघात उत्पन्न करता है।
देकार्त ने इस तर्क को दो रूपों में अभिव्यक्त किया है- ज्यामिति तथा पूर्ण एवं अनंत ईश्वर। जिस प्रकार त्रिभुज के प्रत्यय से यह निगमित होता है कि उसमें तीन भुजाएं हैं, उसी प्रकार पूर्ण ईश्वर के प्रत्यय से ईश्वर का अस्तित्व भी निगमित होता है। यहां उल्लेखनीय है कि जहां एन्सेल्म ईश्वर के प्रत्यय से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं, वहीं देकार्त ईश्वर के अस्तित्व को ही ईश्वर के प्रत्यय का कारण मानते है। देकार्त के अनुसार मेरे मन में पूर्ण एवं अनंत ईश्वर का विचार है। मैं या कोई अन्य व्यक्ति इस विचार का कारण नहीं हो सकता क्योंकि हम सीमित एवं अपूर्ण हैं। पूर्ण एवं अनंत ईश्वर के विचार का कारण कोई पूर्ण एवं अनंत सत्ता ही हो सकती है, यह सत्ता ईश्वर है। अतः ईश्वर का अस्तित्व है। हीगल के अनुसार ईश्वर का प्रत्यय असाधारण एवं अनूठा प्रत्यय है और ईश्वरीय प्रत्यय के संदर्भ में ही हम विचार से वास्तविकता को सिद्ध कर सकते हैं। परंतु ईश्वर की सत्तामूलक तर्क की कई बिंदुओं पर आलोचना की गई है। अगर हम सत्तामूलक प्रमाण को स्वीकार करें, तो फिर इसी आधार पर किसी काल्पनिक वस्तु की सत्ता को भी सिद्ध किया जा सकता है, गैलिलो के अनुसार यदि ईश्वर पूर्ण है तो उसका अस्तित्व आवश्यक है। परंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अपने आप में पूर्ण ईश्वर की कोई वास्तविक सत्ता है। उदाहरणस्वरूप यदि कोई पूर्ण प्रायद्वीप की कल्पना करे तो फिर इससे केवल पूर्ण प्रायद्वीप के विचार की सत्ता ही सिद्ध होती है, उसका वास्तविक अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है। शैतान के विचार से विचार की सत्ता सिद्ध होती है न कि वास्तविक स्तर पर शैतान की। कांट के अनुसार सत्तामूलक प्रमाण में अनावस्था दोष है। इसमें अस्तित्व ने गुण मानने की मूल की गई है। परंतु अस्तित्व सदैव गुण के पहले नाता है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व पहल होता है और तब उसमें गुणें की स्थापना की जाती है। यदि अस्तित्व को गुण माना गया तो फिर इस अस्तित्व रूपी गुण के आश्रय के रूप में किसी अन्य अस्तित्व की कल्पना करनी होगी और इस प्रकार हम अनावस्था दोष में पहुंच जाते हैं, अतः इस तर्क में भ्रांति है। सत्तामूलक प्रमाण आत्माश्रय दोष से ग्रसित है, इसे हम एक युक्ति के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं:
जो पूर्ण है वह सत् हैं
ईश्वर पूर्ण है।
इसलिए ईश्वर सत्य है।
यहां निष्कर्ष को पहले ही तर्क के आधार वाक्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। पुनः ईश्वर को पारमार्थिक रूप में स्वीकार किया जाता है। इसे लौकिक विचारों के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता।
Question : ईश्वर के अस्तित्व हेतु प्रत्यय सत्तामूलक युक्ति की व्याख्या कीजिए तथा इस युक्ति में निहित तर्कदोषों की परीक्षा कीजिए।
(1999)
Answer : ईश्वर के अस्तित्व के लिए दिया गया प्रत्यय सत्तामूलक युक्ति अनुभव निरपेक्ष प्रमाण है, जिसमें ईश्वर विचार के विश्लेषण से ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। दूसरे शब्दों में यहां ईश्वर विचार के आधार पर उसके सार के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है। इसके समर्थकों में प्लेटो, आगस्टिन, एन्सेल्म, देकार्त, लार्डवनिज, हीगल आदि हैं। भारतीय दर्शन में इस अवधारणा का स्पष्ट साक्ष्य अवलोकित नहीं होता है। मध्यकालीन दार्शनिक एन्सेल्म ने सत्तामूलक प्रमाण को प्रबलता के साथ प्रतिष्ठित किया। इनके अनुसार ईश्वर पूर्ण एवं महानतम सत्ता है और उसकी अपेक्षा किसी अन्य महान सत्ता की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसी सत्ता या तो केवल मानसिक होगी या वास्तविक एवं मानसिक दोनों होगी। यदि ऐसी सत्ता केवल विचारमात्र तक सीमित होगी तो फिर इसकी तुलना में वह सत्ता जो विचार एवं यथार्थ दोनों में सत् ही वह उच्चतम प्रमाणित की जा सकती है। यदि ईश्वर केवल मानसिक होता तो हम उसे पूर्ण एवं उच्चतम सत्ता स्वीकार नहीं करते। स्पष्ट है कि ईश्वर की वस्तुगत सत्ता है। एन्सेल्म के अनुसार ईश्वर पूर्ण है परंतु उसका अस्तित्व नहीं है ऐसा मानना तार्किक व्याघात उत्पन्न करता है। चूंकि हमारे अंदर पूर्ण एवं महानतम ईश्वर का विचार है इसलिए हमें मानसिक के साथ-साथ यथार्थ रूप में भी ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ेगा। ऐसा मानना स्वतोव्याघात उत्पन्न करता है।
देकार्त ने इस तर्क को दो रूपों में अभिव्यक्त किया है-(1) ज्यामिति तथा (2) पूर्ण एवं अनंत ईश्वर। जिस प्रकार त्रिभुज के प्रत्यय से यह निगमित होता है कि उसमें तीन भुजाएं हैं, उसी प्रकार पूर्ण ईश्वर के प्रत्यय से ईश्वर का अस्तित्व भी निगमित होता है। यहां उल्लेखनीय है कि जहां एन्सेल्म ईश्वर के प्रत्यय से ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं, वहीं देकार्त ईश्वर के अस्तित्व को ही ईश्वर के प्रत्यय का कारण मानते हैं। देकार्त के अनुसार मेरे मन में पूर्ण अनंत ईश्वर का विचार है। मैं या कोई अन्य व्यक्ति इस विचार का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि हम सीमित एवं अपूर्ण हैं। पूर्ण एवं अनंत ईश्वर के विचार का कारण कोई पूर्ण एवं अनंत सत्ता ही हो सकती है, यह सत्ता ईश्वर है, अतः ईश्वर का अस्तित्व है। हीगल के अनुसार ईश्वर का प्रत्यय असाधारण एवं अनूठा प्रत्यय है और केवल ईश्वरीय प्रत्यय के संदर्भ में ही हम विचार से वास्तविकता को सिद्ध कर सकते हैं। परंतु ईश्वर की सत्तामूलक तर्क की कई बिंदुओं पर आलोचना की गई है। अगर हम सत्तामूलक प्रमाण को स्वीकार करें तो फिर इसी आधार पर किसी काल्पनिक वस्तु की सत्ता को भी सिद्ध किया जा सकता है। गैनिलो के अनुसार यदि ईश्वर पूर्ण है तो उसका अस्तित्व आवश्यक है। परंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अपने आप में पूर्ण ईश्वर की कोई वास्तविक सत्ता है। उदाहरणस्वरूप यदि कोई पूर्ण प्रायद्वीप की कल्पना करे तो इससे केवल पूर्ण प्रायद्वीप के विचार की सत्ता ही सिद्ध होती है। उसका वास्तविक अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है। शैतान के विचार से विचार की सत्ता सिद्ध होती है, न कि वास्तविक स्तर पर शैतान की। कांट के अनुसार यदि कोई यह विचार करे कि उसके पाकेट में 100 डालर है तो फिर इससे वास्तव में पाकेट में उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। कांट के अनुसार सत्तामूलक प्रमाण में अनावस्था दोष है, इसमें अस्तित्व के गुण मानने की भूल की गई है। परंतु अस्तित्व सदैव गुण के पहले आता है। किसी भी वस्तु का अस्तित्व पहले होता है और तब उसमें गुणों की स्थापना की जाती है। यदि अस्तित्व को गुण माना गया तो उस अस्तित्व रूपी गुण के आश्रय के रूप में किसी अन्य अस्तित्व की कल्पना करनी होगी और इस प्रकार हम अनावस्था दोष में पहुंच जाते हैं। अतः इस तर्क में भ्रांति है। सत्तामूलक प्रमाण आत्माश्रय दोष से ग्रसित है। इसे हम एक युक्ति के माध्यम से स्पष्ट कर सकते हैं:
जो पूर्ण है वह सत् है।
ईश्वर पूर्ण है।
इसलिए ईश्वर सत्य है।
यहां निष्कर्ष को पहले ही तर्क के आधार वाक्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। पुनः ईश्वर को पारमार्थिक रूप में स्वीकार किया जाता है। इसे लौकिक विचारों को आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता। अनेक दार्शनिकों ने प्रत्यय सत्ता युक्ति की तीव्र आलोचना की है। इस प्रमाण के विरूद्ध जो गंभीर आपत्तियां उठाई गई हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:
(i)सर्वप्रथम गैनिलो ने इस प्रमाण का खंडन किया है। गैनिलो ने यह कहा कि यदि इस प्रमाण को स्वीकार कर लिया जाए तो हम इसके आधार पर किसी भी कल्पित वस्तु की सत्ता सिद्ध कर सकते हैं। मान लीजिए हम ऐसे द्वीप की कल्पना करते हैं जो सभी दृष्टियों से पूर्ण है। अब हमारे मन में इस पूर्ण द्वीप का प्रत्यय विद्यमान है, अतः ऐन्सल्म की प्रत्यय सत्ता युक्ति के अनुसार इस द्वीप के अस्तित्व का होना अनिवार्य है। इसका कारण यह है कि इस द्वीप को सभी दृष्टियों से पूर्ण तभी कहा जा सकता है, जब हमारे मन में इसके प्रत्यय के साथ-साथ वास्तव में इसका अस्तित्व हो। इसके वस्तुपरक अस्तित्व का अभाव इसमें अपूर्णता उत्पन्न करता है। इसी प्रकार हम किसी भी कल्पित वस्तु की अनिवार्य सत्ता सिद्ध कर सकते हैं। परंतु वास्तविक स्थिति यह है कि हमारा इस प्रकार का प्रयास नितांत एवं निराधार है। गोनिलो की उपर्युक्त आपत्ति का उत्तर देते हुए ऐन्सेल्म ने कहा कि प्रत्यय सत्ता युक्ति केवल पूर्ण ईश्वर पर ही लागू होता है क्योंकि ईश्वर का प्रत्यय विश्व के अन्य सभी प्रत्ययों से पूर्णतः तथा अनन्य या अद्वितीय है। ईश्वर की सत्ता अनिवार्य सत्ता है। अतः उसके अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। परंतु अनिवार्यता की बात अनिवार्य प्रतिज्ञप्तियों पर ही लागू होता है। किसी वस्तु की सत्ता के संबंध में इसका प्रयोग तर्कसंगत नहीं है।
(ii)पुनः प्रत्यय सत्ता युक्ति के समर्थकों ऐन्सेल्म, देकार्त ने अस्तित्व को ईश्वर का अनिवार्य गुण माना है। परंतु अस्तित्व किसी वस्तु का कोई ऐसा गुण नहीं है, जो उसमें विद्यमान रहता है। जब हम वस्तु के किसी गुण की बात करते हैं तो हम अनिवार्यतः उसकी कोई विशेषता बतलाते हैं। परंतु अमुक वस्तु का अस्तित्व है, जब हम ऐसा कहते हैं तो हम उस वस्तु के बारे में कोई अतिरिक्त सूचना नहीं देते हैं। यह कहना कि ईश्वर का अस्तित्व है। उसके स्वरूप के विषय में कोई अतिरिक्त सूचना देना नहीं है।
(iii)यदि प्रत्यय सत्ता प्रमाण का समर्थन करने वाले दार्शनिकों की इस मान्यता को स्वीकार कर भी लिया जाए कि अस्तित्व एक गुण है, तो भी उनके इस प्रमाण द्वारा यह सिद्ध नहीं होता कि वास्तव में ईश्वर का वस्तुपरक अस्तित्व है। ईश्वरवादी दार्शनिक ईश्वर की परिभाषा इस प्रकार करते हैं कि उसका अस्तित्व उसके स्वरूप में ही अनिवार्यतः सम्मिलित हो जाता है। परंतु इससे सिर्फ यह सिद्ध होता है कि ईश्वर की परिभाषा क्या है? इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ईश्वर का वस्तुपरक अस्तित्व है। किसी वस्तु की परिभाषा करना और बाह्य जगत में उसका अस्तित्व सिद्ध करना दोनों अलग-अलग बातें हैं। त्रिकोण को पारिभाषित करते हुए यह कहा जाता है कि त्रिकोण में तीन कोण होते हैं परंतु इससे त्रिकोण की वास्तविक वस्तुपरक सत्ता सिद्ध नहीं होती है। कांट कहते हैं कि त्रिकोण को स्वीकार करना और उसके तीनों कोणों का निषेध करना स्वतोव्याघाती है, किंतु त्रिकोण को उसके तीनों कोणों के साथ ही अस्वीकार करने में कोई स्वतोव्याघात नहीं है। यही बात निरपेक्ष रूप से अनिवार्य ईश्वर की अवधारणा के विषय में भी कही जा सकती है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अस्तित्व को एक गुण के रूप में स्वीकार कर लेने पर भी विचार से भिन्न और स्वतंत्र ईश्वर की वस्तुपरक सत्ता को प्रत्यय सत्ता प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता।
(iv)प्रत्यय सत्ता प्रमाण के समर्थक पूर्ण ईश्वर के प्रत्यय या विचार के आधार पर ही ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं और इस प्रमाण की यही विशेषता इसे अन्य सभी प्रमाणों से पृथक करती है। परंतु ये दार्शनिक इस महत्वपूर्ण तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि केवल विचार के आधार पर वास्तव में किसी सत्ता को सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि मनुष्य के मन में किसी वस्तु का प्रत्यय या विचार है तो इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि बाह्य जगत में भी उसका अस्तित्व है। उदाहरणार्थ मैं अपने मन में यह विचार कर सकता हूं कि मेरे पास सौ रूपये हैं किंतु मेरे इस विचार मात्र से यह सिद्ध नहीं होता कि इस समय वास्तव में मेरे पास सौ रूपये हैं। मैं अपने मन में किसी भी वस्तु की कल्पना कर सकता हूं, किंतु इससे वास्तविक जगत में उस वस्तु का अस्तित्व प्रमाणित नहीं होता। ठीक यही बात ईश्वर के विषय में भी कही जा सकती है। किसी मनुष्य के मन में ऐसे ईश्वर का प्रत्यय अथवा विचार हो सकता है, जिसकी अपेक्षा अधिक महान या पूर्ण अन्य सत्ता नहीं है। परंतु इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि उसके मन में पूर्ण ईश्वर का प्रत्यय है। इससे वास्तव में ईश्वर का अस्तित्व प्रमाणित नहीं होता है। वस्तुतः प्रत्यय सत्ता प्रमाण के समर्थक ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के स्थान पर उसे केवल इसलिए मान लेते हैं कि उनके मन में पूर्ण ईश्वर का प्रत्यय है। ऐसी स्थिति में उनके इस तर्क को वास्तविक अर्थ में प्रमाण कहना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। धर्मपरायण व्यक्ति अपने उपास्थ ईश्वर को सभी दृष्टियों से पूर्ण देखना चाहते हैं, जिससे वे उसकी उपासना कर सकें। इसलिए वे ईश्वर को पूर्ण या महानतम कहते हैं। परंतु उनकी इस मान्यता से यह प्रमाणित नहीं होता कि वास्तव में ऐसे ईश्वर की सत्ता है। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि अन्य सभी प्रमाणों की भांति प्रत्यय सत्ता प्रमाण भी ईश्वर को अस्तित्व को तर्कसंगत रूप से प्रमाणित नहीं कर पाता।
Question : ईश्वर के होने के लिए सर्व सहमत तर्क।
(1998)
Answer : कई दार्शनिकों एवं ईश्वरवादियों ने ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिए सर्वसहमति तर्क प्रस्तुत किया है। इनमें रिचर्ड हुकर, सिसरो, सेनेका आदि उल्लेखनीय हैं। सर्वसहमति तर्क को दो रूपों में प्रस्तुत किया गया है। इसमें प्रथम है जैविक तर्क और संदेहवादी चिंतन से मुक्ति। जैविक तर्क के अंतर्गत सेनेका ने ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में मानव में पायी जाने वाली सहजवृत्ति का उल्लेख किया है। इस तर्क के अनुसार मानवीय संवेदना में ईश्वर के अस्तित्व संबंधी धारणा अनिवार्य रूप में होती है। यह प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में निगुढ़ होती है और किसी भी देश काल और सभ्यता में इसका अपवाद देखने को नहीं मिलता। पुनः जैविक तर्क को एक दूसरे तरीके से भी ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस तर्क के अनुसार मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क अपने अनुकूल वस्तुओं को पहचानने एवं समझने के अनुरूप बने होते हैं। उदाहरण के लिए मनुष्य की आंख इस बात की अभ्यस्त होती है कि रोशनी है और रोशनी तदनुरूप दिखाई भी पड़ती है। कान को ध्वनि की अपेक्षा होती है और तदनुरूप ध्वनि का अस्तित्व भी सिद्ध होता है। उसी प्रकार प्रत्येक में धार्मिक भावना विद्यमान होती है। इस धार्मिक भावना एवं धार्मिक संवेग के अनुरूप ईश्वर की सत्ता का होना अनिवार्य है। इसका अपवाद नहीं हो सकता। सहमति तर्क का दूसरा रूप है- संदेहवादी धारणा से मुक्ति। इस तर्क का समर्थन मुख्य रूप से ग्वार्डस करते हैं। इस तर्क को ग्वार्डस ने तीन चरणों में प्रस्तुत किया है। प्रथमतः ग्वार्डस का कहना है कि सभी व्यक्ति चाहे वे भूतकाल के हों या वर्तमान काल के, ईश्वर में बिना संदेह के विश्वास करते हैं। उन्हें इस तथ्य में संदेह नहीं कि उनका कोई न कोई सर्वोच्च सत्ता या अधिष्ठाता है और ऐसा सोचने के लिए उनकी अंतरात्मा उन्हें मजबूर करती है। द्वितीयतः अगर यह कहा जाए कि समस्त मानव जाति का ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में यह विश्वास गलत है, तो उन सबों की बुद्धि एवं तर्कशक्ति पर संदेह करना पड़ेगा, अर्थात् उनके पास संदेह के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता है। तृतीयतः हम सबको यह सोचना पड़ेगा कि समस्त मानव जाति की तर्कबुद्धि गलत नहीं हो सकती और ऐसा न सोचने पर संदेहवाद ही एक विकल्प रह जाएगा, तो वैसी परिस्थिति में संदेहवाद को विकल्प के रूप में चुनने से बेहतर है, इस तथ्य में विश्वास करना कि ईश्वर का अस्तित्व है।
सर्वसहमति तर्क के विरूद्ध कई आपत्तियां उठाई गई हैं। जिन दार्शनिकों ने इस तर्क के विरूद्ध आपत्तियां प्रकट की गई है, उनमें लॉक, कांट तथा मिल प्रमुख हैं। सर्वप्रथम इस तर्क के विरोध में यह कहा गया है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है। इसका स्पष्ट प्रमाण है कि निरीश्वरवादी की एक बड़ी संख्या मौजूद है, जो ईश्वर की नहीं मानते। पुनः किसी तथ्य पर आम सहमति इस बात का आधार नहीं बन सकता कि वास्तव में वह तथ्य सत्य है। सर्वसहमति से लिया गया निर्णय भी कई बार गलत साबित हो जाता है। पुनः अगर सर्वसहमति की बात मान भी लिया जाए तो किसी सत्ता के विषय में सर्वसहमति से वैचारिक स्तर पर उस तथ्य को मान लेना अलग बात है और उस सत्ता का वास्तव में अस्तित्व में होना दूसरी बात है। अतः सहमति संबंधी तर्क ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में सक्षम नहीं है। ईश्वर के अस्तित्व के लिए लिया यह प्रमाण तार्किक दृष्टि से असंतोषप्रद है।
Question : मान लें कि ईश्वर होने को प्रमाणित करने हेतु जो भी परम्परागत तर्क दिए जाते हैं वे सभी दोषपूर्ण हैं। क्या इससे ईश्वर का न होना सिद्ध होता है? यदि आपका उत्तर नकारात्मक है तो विचार कीजिए कि क्या ईश्वर के न होने का कोई प्रमाण हो सकता है।
(1998)
Answer : ईश्वरवादी दार्शनिक अपने ईश्वर के अस्तित्व संबंधी विश्वास को सत्य प्रमाणित करने के लिए कई तर्क प्रस्तुत करते हैं तथा यह सिद्ध करना चाहते हैं कि असीम शक्ति, ज्ञान, प्रेम, दया, नित्यता आदि गुणों से परिपूर्ण ईश्वर का वास्तविक वस्तुपरक अस्तित्व है। परंतु ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में दिए गए सभी प्रमाण तार्किक दृष्टि से दोषपूर्ण होने के कारण विश्वसनीय नहीं है। प्रत्यय सत्ता युक्ति को छोड़कर अन्य सभी प्रमाण किसी न किसी रूप में मनुष्य के अनुभव पर आधारित हैं। परंतु ईश्वर को अनुभवातीत माना जाता है, जिसका अर्थ यह है कि वह कभी भी मानवीय अनुभव का विषय नहीं हो सकता और इसी कारण किसी भी अनुभवाश्रित प्रमाण द्वारा अनुभवातीत ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया जाता है तो उस प्रमाण में तार्किक दोष आ जाना अनिवार्य है।
वस्तुतः इस कठिनाई से बचने के लिए ही कुछ दार्शनिकों ने ईश्वर के अस्तित्व के लिए प्रत्यय सत्ता युक्ति प्रस्तुत की है, जिसका एकमात्र आधार पूर्ण ईश्वर का प्रत्यय है और जिसका मानवीय अनुभव से कोई संबंध नहीं है। परंतु यह युक्ति भी ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने में पूर्णतः असमर्थ है क्योंकि केवल प्रत्यय को आधार पर किसी वस्तु के वास्तविक अस्तित्व को प्रमाणित करना संभव नहीं है। मुख्यतः इसी आधार पर अनेक महान दार्शनिकों ने इस युक्ति को भी तार्किक दृष्टि से दोषपूर्ण तथा अविश्वसनीय माना है। इस प्रकार केाई भी प्रमाण ईश्वर को अस्तित्व से संबंधित विश्वास को तर्कसंगत रूप से सत्य प्रमाणित नहीं कर पाता, जिससे हम अनिवार्यतः यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईश्वर वास्तव में प्रमाण या तर्क का विषय नहीं है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि केवल भक्त अथवा धर्मपरायण व्यक्ति ही नहीं, अपितु अनेक महान दार्शनिक भी ईश्वर के संबंध में इसी निष्कर्ष को स्वीकार करते हैं। मूलतः इसी निष्कर्ष को स्वीकार करके कांट ने यह कहा है कि ईश्वर ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, अतः तर्कों या प्रमाणों द्वारा उसके अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास व्यर्थ है। केवल आस्था के आधार पर ही उसके अस्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है। अपनी पुस्तक क्रिटीक ऑफ प्योर रीजन में इसी मान्यता को व्यक्त करते हुए कांट स्पष्ट कहते हैं कि आस्था के लिए स्थान बनाने के उद्देश्य से ही मैंने ईश्वर विषयक ज्ञान का खंडन किया है। परंतु यहां मूल प्रश्न यह है कि आस्था के आधार पर हम जिस ईश्वर में विश्वास करते हैं क्या उसका हमारे मन से स्वतंत्र कोई वस्तुपरक अस्तित्व है। कांट के नीतिपरक प्रमाण से संभवतः यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे ईश्वर के वस्तुपरक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। परंतु ईश्वर के विषय में उनके कुछ कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वे स्वयं भी ईश्वर के वस्तुपरक अस्तित्व को अत्यंत संदेहास्पद मानते हैं। उदाहरणार्थ ईश्वर को मनुष्य का मानसिक प्रत्यय मात्र मानते हुए वे कहते हैं कि ईश्वर मुझसे बाहर कोई सत्ता नहीं है अपितु वह मेरे भीतर एक विचारमात्र है।
ईश्वर आत्मारोपित नैतिक नियमेां से संबंधित व्यावहारिक तर्क बुद्धि है। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि कांट ईश्वर की वस्तुपरक सत्ता का निषेध करते हैं। वस्तुतः ईश्वर के अस्तित्व के विषय में कांट का यही निष्कर्ष प्रतीत होता है जो उनकी ज्ञान मीमांसा के अनुरूप है।
कांट की ज्ञान मीमांसा के अनुसार आत्मा, सृष्टि और ईश्वर प्रज्ञा के काल्पनिक सम्प्रत्यय मात्र हैं। उन्हें वास्तविक सत्ता अथवा ज्ञान का विषय नहीं कहा जा सकता। हमें प्रामाणिक (वैद्य), यथार्थ, सार्वभौमिक तथा अनिवार्य ज्ञान केवल व्यावहारिक जगत का ही हो सकता है। प्रज्ञा के सम्प्रत्यय (आत्मा, जगत और ईश्वर) आस्था के विषय हैं। यद्यपि वे ज्ञान के विषय नहीं हैं तथापि उनकी उपयोगिता है क्योंकि इससे मानव को अपने ज्ञान की सीमा का बोध होता है। कांट के अनुसार उन्हें तर्क के द्वारा न तो सिद्ध किया जा सकता है और न असिद्ध किया जा सकता है। जो बुद्धि से परे है वह श्रद्धा का विषय हो सकता है। यद्यपि ईश्वर को बुद्धि और अनुभव पर आश्रित ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता, तथापि उसके अस्तित्व को स्वीकार करना नैतिक नियमों की रक्षा के लिए आवश्यक है। कांट ईश्वर को शुद्ध बुद्धि (प्रज्ञा) के आधार पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक बुद्धि या अंतरात्मा के आधार पर मानता है।
वस्तुतः ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए दिए गए तर्क मानव चिंतन के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को सूचित करते हैं। यदि सृष्टि वैज्ञानिक और प्रयोजन मूलक युक्तियों को ईश्वर के अस्तित्व की सिद्ध के लिए केवल औपचारिक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाए तो कांट के द्वारा उठाई गई सभी आपत्तियां इन पर लागू होती हैं। उल्लेखनीय है कि ये तर्क धार्मिक चेतना के अंतर्गत सीमा से भूजा की ओर मानव चिंतन के विकास की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। अतः इन तर्कों का महत्वपूर्ण स्थान है। यदि एक बार मानव बुद्धि सीमित से असीमित अथवा पूर्णता की ओर उन्मुख हो जाती है, तो उसका ईश्वर में विश्वास दृढ़ होने लगता है। कांट के द्वारा की गयी यह आलोचना सच है कि असीम और पूर्ण होने के कारण ईश्वर की तर्क बुद्धि साधारण अनुभव के आधार पर सिद्ध करने का प्रयास सफल नहीं हो सकता है। परंतु सृष्टि वैज्ञानिक युक्तियां औपचारिक तर्क मात्र नहीं हैं। ये युक्तियां वस्तुनिष्ठ मूल्य से संबंधित हैं। ये मानव चिंतन के ऐसे सोपान हैं जिनके द्वारा मानव बुद्धि अनंता और पूर्णता की ओर अग्रसर होती है। भाषा और तर्क की सीमाओं को एक बार पार कर लेने के बाद बुद्धि आध्यात्मिक उत्कर्ष की अन्य अवस्थाओं को भी प्राप्त कर सकती है। अतः धार्मिक व्यक्ति के जीवन में ये युक्तियां ईश्वर विश्वास को सुदृढ़ करने के लिए उपयोगी सिद्ध हो जाती हैं। यद्यपि कांट का यह मत सत्य है कि ईश्वर श्रद्धा का विषय है तथापि इन तर्कों का आश्रय लेकर ईश्वर में श्रद्धा को दृढ़ किया जा सकता है। आधुनिक मानव ईश्वर के बारे में नवीन दृष्टिकोण से अनुशीलन करता है। यद्यपि कांट ने इन तर्कों का निराकरण किया है, तथापि उसने प्रयोजनमूलक तर्क का उल्लेख आदर के साथ किया है। कांट की आलोचना से यह सिद्ध होता है कि इनमें से कोई भी तर्क अपने आप में पूर्ण नहीं है। इन तर्कों के पक्ष में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। किंतु धार्मिक एवं नैतिक दृष्टि से इन तर्कों की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। अन्त में कांट ने भी नैतिकता की पूर्व मान्यता के रूप में ईश्वर को स्वीकार किया है। वस्तुतः तार्किक युक्तियों द्वारा मनुष्य की ईश्वर में आस्था दृढ़ होती है।
Question : ईश्वर के अस्तित्व की सृष्टि कारण युक्ति बताइए और उसकी समीक्षा कीजिए।
(1997)
Answer : सृष्टि कारण युक्ति या विश्वमूलक प्रमाण एक अनुभवमूलक प्रमाण है, जिसमें विश्व की व्याख्या करने के निमित्त ईश्वर की सत्ता को अनुमानित करने का प्रश्यास किया जाता है। इसके समर्थकों में प्लेटो, अरस्तु, एक्विनास, देकार्त आदि हैं। भारतीय दर्शन में न्याय एवं वैशेषिक आदि विश्वमूलक प्रमाण की चर्चा करते हैं। ग्रीक दार्शनिक एक्विनास ने अपनी पुस्तक में इस प्रमाण के विविध रूपों की विस्तार से विवेचना की है, जिसमें तीन रूप महत्वपूर्ण हैं:
(i)गतिमूलक प्रमाण इस प्रमाण में विश्व में विद्यमान गति के मूल आधार के या आदि गतिप्रदानकर्ता या मूल स्रोत के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। अनुभव हमें बतलाता है कि विश्व में सर्वत्र गति विद्यमान है। इस ब्रह्मांड के सभी ग्रह गतिशील हैं। पृथ्वी भी अपने अक्ष पर घूर्णन करती है। यह अनुभवसिद्ध है कि किसी भी वस्तु में गति स्वभावतः नहीं हो सकती बल्कि प्रत्येक गति का कारण कोई दूसरा तत्व है। उस दूसरे तत्व की भी गति का कारण कोई और स्रोत है। इस क्रम में आगे बढ़ने पर हम अनावस्था दोष में फंस जाते हैं। इस अनावस्था दोष से बचने के लिए एक ऐसी सत्ता को मानना आवश्यक है जो स्वयंभू, शाश्वत एवं परिवर्तनशील होने के साथ-साथ समस्त वस्तुओं और विश्व की गति का आदि कारण हो। गति के इस मूल स्रोत को ही धार्मिक दृष्टि से ईश्वर माना जाता है। अरस्तु ने इसी संदर्भ में ईश्वर को Unmoved mover (अपरिवर्तित प्रवर्तक) कहा है।
भारतीय दर्शन में न्याय वैशेषिक दर्शन में आयोजनात पद के द्वारा इस तर्क का समर्थन किया गया है।
आलोचनाः (i)इस प्रमाण में गतिहीन ईश्वर को विश्व की समस्त गति का मूल कारण माना गया है, जो कि अनुभव के विपरीत है। अनुभव से प्रमाणित होता है कि वही वस्तु गति प्रदान कर सकती है, जो स्वयं गति से युक्त हो।
(ii)यदि विश्व की गति का कोई आदि कारण स्वीकार किया जाए तो भी इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि वह सत्ता ईश्वर ही है।
(ii)आकस्मिकता मूलक तर्कः इस प्रमाण में विश्व की वस्तुओं के आकस्मिक अस्तित्व के आधार के रूप में अनिवार्य एवं स्वाधीन सत्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। यहां आकस्मिकता का तात्पर्य है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो, जो अपनी सत्ता के लिए दूसरों पर निर्भर हो तथा जो विनाशशील हो। आकस्मिकतामूलक प्रमाण के दो रूप दिखाई देते हैंः
(i)विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है। प्रत्येक आकस्मिक वस्तु किसी अन्य वस्तु पर आश्रित है। वह अन्य वस्तु भी अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरे वस्तु पर आश्रित है। इस क्रम में आगे बढ़ने पर अनावस्था दोष की उत्पत्ति हो जाती है। इससे बचने के लिए अनिवार्य एवं स्वतंत्र सत्ता के रूप में ईश्वर की सत्ता को अनुमानित किया जाता है।
(ii)यदि विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है तो अब तक सभी वस्तुओं का क्षय होकर शुन्य की स्थिति पैदा हो जानी चाहिए थी और वर्तमान में कुछ नहीं रहना चाहिए था क्योंकि एक बार शुन्य की स्थिति उत्पन्न होने के पश्चात फिर उस शुन्य से कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती। परंतु वर्तमान में वस्तुओं का अस्तित्व है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सांसारिक वस्तुओं को उत्पन्न करने और कायम रखने के लिए अवश्य ही एक ऐसी सत्ता है जिसका अस्तित्व अनिवार्य स्वतंत्र एवं स्वनिर्भर है। यही सत्ता ईश्वर है। लार्डवनिज के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु आकस्मिक है। आकस्मिक वस्तुओं का पर्याप्त हेतु होना आवश्यक है। विश्व की आकस्मिक वस्तुओं का पर्याप्त हेतु ईश्वर है।
भारतीय दर्शन में न्याय एवं वैशेषिक दार्शनिक घृत्यादे पद के द्वारा इस मत का समर्थन करते हैं।
आलोचनाः (i) भाषा विश्लेषणवादी-दार्शनिकों के अनुसार ईश्वर को अनिवार्य सत्ता के रूप में सिद्ध करने का प्रयास अस्पष्ट एवं असंगत है। अनिवार्यता की अवधारणा विश्लेषणात्मक प्रतिज्ञप्तियों पर लागू होती है। इसे किसी वस्तु या घटना पर लागू नहीं किया जाता है।
(ii) विश्व की वस्तुओं को आकस्मिक देखकर यह निष्कर्ष निकालना कि संपूर्ण विश्व अपने आप में आकस्मिक है, तर्कसंगत नहीं है। यहां संतति दोष है। इस दोष का अर्थ है कि यदि कोई बात किसी वस्तु के खास भाग पर लागू होती है, तो उसे संपूर्ण वस्तु पर लागू कर देना।
(iii)यदि विश्व की सभी वसतुएं आकस्मिक एवं नश्वर हैं तो फिर इनका कारण भी इनके समरूप ही होना चाहिए, परंतु यहां इसका उल्लंघन किया गया है।
(iii) कारणतामूलक तर्कः इस तर्क में विश्वरूपी कार्य के कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को अनुमानित करने का प्रयास किया जाता है। कारणता सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक घटना का कोई कारण अवश्य होता है। विश्व की जितनी घटनाएं हैं वे अपनी पूर्ववर्ती घटनाओं के कार्य हैं। प्रत्येक पूर्ववर्ती घटना भी किसी अन्य कारण पर निर्भर रहती है। इस प्रकार कारण और कार्य की एक अनंतशृंखला उत्पन्न हो जाती है और हम अनवस्था दोष में पहुंच जाते हैं। इससे बचने के लिए आदि कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जाती है जो कार्य के समान ही व्यापक है। भारतीय दर्शन में न्याय वैशेषिक के अंतर्गत कार्यात पद के द्वारा विश्व के निमित्त कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व का समर्थन किया गया है।
देकार्त कारणता के सिद्धांत को दो रूपों में प्रस्तुत करते हैं:
(i)एक चेतन प्राणी के रूप में मेरा अस्तित्व निर्विवाद है। यहां प्रश्न है कि मेरा सृष्टिकर्ता कौन है? मैं स्वयं अपना सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता क्योंकि तब स्वयं को स्वयं की सृष्टि से पूर्व मानना पड़ेगा जो कि हास्यास्पद है। यदि मेरे माता-पिता को मेरी सृष्टि का कारण माना जाए तो फिर उनके सृष्टिकर्ता की समस्या पैदा हो जाती है। इस क्रम में आगे बढ़ने पर अनवस्था दोष से बचने के लिए सबों के आदि कारण के रूप में स्वयंभू ईश्वर को मानना आवश्यक हो जाता है।
(ii)देकार्त के अनुसार मेरे मन में पूर्ण एवं अनंत ईश्वर का विचार है। मैं स्वयं इस विचार का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि मैं अपूर्ण एवं शांत हूं। इस पूर्ण एवं अनंत ईश्वर का विचार का कारण पूर्ण एवं अनंत सत्ता ही हो सकती है। यही सत्ता ईश्वर है। अतः ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है।
आलोचनाः (i) ह्यूम के अनुसार कारण और कार्य के अनिवार्य संबंध का हमें अनुभव नहीं होता, अतः इस पर आधारित ईश्वर संबंधी तर्क दोषपूर्ण एवं असंगत है।
(ii)यदि प्रत्येक कार्य या वस्तु का कोई कारण होता है, तो फिर ईश्वर का भी कारण होना चाहिए।
(iii)बर्टेंड रसेल के अनुसार केवल अनवस्था दोष से बचने के लिए ईश्वर को आदि कारण मान लेना युक्तिसंगत नहीं है। जब गणित में उत्पन्न अनंतशृंखला मानने में कोई कठिनाई नहीं है तो फिर इस संदर्भ में भी यह कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
(iv)कांट के अनुसार शुद्ध बुद्धि के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता। बुद्धि के प्रत्यय अनुभव सापेक्ष होने के कारण किसी अनुभव निरपेक्ष सत्ता पर लागू नहीं किए जा सकते। अतः इस आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। राडनेबास के अनुसार विश्वमूलक प्रणाम दार्शनिक अर्थ न होकर निरर्थक शाब्दिकता मात्त है। विश्व की परिभाषा के अनुसार विश्व के बाहर कुछ भी नहीं है। वैसी स्थिति में विश्व का कारण ढूंढने का प्रयास निरर्थक है।