Question : सामाजिक न्याय प्राप्ति का एकमात्र साधन मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था है।
(2007)
Answer : न्याय की मुख्य समस्या यह है कि सामाजिक जीवन के अंतर्गत विभिन्न व्यक्तियों या समूहों के प्रति वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों, कामों, शक्ति और सम्मान के आवंटन का उचित आधार क्या होना चाहिए? जब हम तात्विक न्याय की बात करते हैं, तब हम समाज की संपूर्ण व्यवस्था को इस दृष्टि से परखने लगते हैं कि वह न्याय के अनुरूप है या नहीं? चूंकि हम सुविधा की दृष्टि से सामाजिक जीवन के तीन क्षेत्रों- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं, इसलिए न्याय की बात करते समय भी हम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की चर्चा करते हैं, परंतु वास्तव में ये तीनों न्याय के एक ही सिद्धांत के प्रयोग क्षेत्र हैं। ये तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।
डेविड मिलर ने अपनी पुस्तक सोशल जस्टिस के अंतर्गत तीन कसौटियों का उल्लेख किया है, जिनके आधार पर विभिन्न विचारक न्याय की समस्या का समाधान ढूंढ़ते हैं। इन कसौटियों में एक नियम योग्यता के अनुरूप वितरण का है। यह मुक्त बाजार की व्यवस्था का पोषक है। इसके प्रमुख प्रवर्तक हर्बर्ट स्पेंसर हैं। परंतु यह व्यवस्था न्याय के संपूर्ण रूप को प्रस्तुत नहीं करती है। यदि स्वीकृत अधिकारों का संरक्षण ही न्याय है तो फिर समाज में वर्तमान सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर करने का कोई उपाय नहीं रह जाएगी। यदि योग्यता के अनुरूप वितरण को ही न्याय मान लें तो भी वर्तमान व्यवस्था में कोई आमूल परिवर्तन संभव नहीं, क्योंकि योग्यता अर्जित और विकसित करने के अवसर भी गिने-चुने लोगों के अधिकार में रहेंगे और जनसाधारण को इस बहाने सुख सम्पत्ति से वंचित रखा जाएगा कि उनमें योग्यता ही नहीं। फिर यदि आवश्यकता के अनुरूप वितरण को न्याय माने तो अनेक समस्याएं पैदा होंगी, आवश्यकताएं निर्धारित करने का आधार क्या होगा।
व्यापक अर्थ में, सामाजिक न्याय शब्दावली से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तीनों तरह के न्याय का बोध हो जाता है। सीमित अर्थ में सामाजिक न्याय का तात्पर्य यह है कि सामाजिक जीवन में सब मनुष्यों की गरिमा स्वीकार की जाए, स्त्री-पुरुष गोरे काले, या जाति धर्म क्षेत्र इत्यादि के आधार पर किसी व्यक्ति को बड़ा-छोटा या ऊंचा-नीचा न माना जाए, शिक्षा और उन्नति के अवसर सबको समान रूप से प्राप्त हों और सब लोग मनुष्य-मनुष्य के नाते मिल-जुलकर साहित्य, कला, संस्कृति और तकनीकी साधनों का उपभोग कर सकें। आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन की प्रक्रिया में कोई व्यक्ति दूसरों के जीवन को नियंत्रित करने और उनसे मनमानी शर्तों पर काम कराने की शक्ति प्राप्त न कर लें, बल्कि सब लोगों को अपनी-अपनी योग्यता और परिश्रम के अनुसार उचित लाभ या पुरस्कार प्राप्त करने का अवसर मिले, बाजार की स्थिति में कोई व्यहित मनमानी शर्तों पर दूसरों की वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करने की शक्ति प्राप्त न कर ले बल्कि सबको अपनी अपनी क्षमता और आवश्यकता के अनुसार उचित शर्तों पर अपेक्षित वस्तुएं और सेवाएं प्राप्त हो सके। मुक्त बाजार व्यवस्था के अंतर्गत बाजार पर वर्चस्व उन्हीं लोगों का होगा जो आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से अधिक सक्षम हैं। अतः उत्पादन उपभोग एवं वितरण पर उनका ही वर्चस्व स्थापित होगा। ऐसी परिस्थिति में धनी और धनी होगा तथा गरीब और गरीब। समाज के विभेदीकरण में और अधिक तीक्ष्णता होगी तथा निचले और कमजोर एवं कम सक्षम व्यक्ति मुक्त बाजार व्यवस्था की प्रतियोगिता में नहीं पायेंगे और अंततः शोषण का शिकार होंगे। ऐसी स्थिति में उनकी विकल्प चुनने की स्वतंत्रता भी जाती रहेगी। अतः मुक्त बाजार व्यवस्था के द्वारा सामाजिक न्याय की अवधारणा मूर्त रूप नहीं ले सकती है।
Question : कदाचित निषेधात्मक स्वतंत्रता चुनने की स्वतंत्रता को तो सुनिश्चित कर सकती है, परंतु बिना किसी विश्वसनीय भरोसे के कि ऐसी स्वतंत्रता का वास्तविक संपादन होगा।
(2007)
Answer : जब हम स्वतंत्रता की परिभाषा केवल प्रतिबंधों के अभाव के रूप में करते हैं तब हमारा ध्यान उसके नकारात्मक पक्ष पर केंद्रित होता है। दूसरे शब्दों में हमारा अभिप्राय यह होता है कि यदि कोई व्यक्ति कुछ करना चाहता है और कर भी सकता हो, तो उसे वैसा करने से रोका न जाए। इस तरह की स्वतंत्रता को औपचारिक स्वतंत्रता या नकारात्मक स्वतंत्रता कहते हैं। यह केवल अनुमति की सूचक है और इससे कतई कोई संकेत नहीं मिलता कि व्यक्ति जो कुछ करना चाहता है, उसे उसमें कोई सहायता भी दी जाएगी। व्यक्ति को नकारात्मक स्वतंत्रता प्रदान करते समय राज्य केवल अपने ऊपर संयम रखता है। सामाजिक व्यवस्था से कोई छेड़छाड़ नहीं करता। वह यह भी नहीं देखता कि इस अनुमतिमूलक स्वतंत्रता का लाभ तो वही लोग उठा पायेंगे जो साधन संपन्न हैं, यहां तक कि वे अपने धन की शक्ति से साधनहीन लोगों को अपना दास या खिलौना ही बना लेंगे। जब हमको स्वतंत्रता है तो राज्य उसमें हस्तक्षेप क्यों करे। जाहिर है कि इस तरह की स्वतंत्रता सर्वसाधारण के लिए कोई अर्थ नहीं रखती। जब समाज भारी आर्थिक विषमताओं से ग्रस्त हो तब नकारात्मक स्वतंत्रता सारे शोषणतंत्र पर रेशमी आवरण डाल देती है। जो स्वतंत्रता, बलवान और निर्बल, धनवान और निर्धन सबको खुला छोड़ देती है उसकी आड़ में बलवान निर्बल को और धनवान निर्धन को अवश्य सताएगा। निर्बल और निर्धन को सच्ची स्वतंत्रता दिलाने के लिए बलवान और धनवान पर प्रतिबंध लगाना होगा, निर्बल का सुरक्षा प्रदान करनी होगी, निर्धन की आर्थिक स्थिति सुधारनी होगी। यहां से सकारात्मक स्वतंत्रता की मांग शुरू होती है। सकारात्मक या तात्विक स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि कमजोर वर्गों की सामाजिक और आर्थिक असमर्थताओं को दूर करने के ठोस प्रयत्न किए जाए ताकि सबको अपने सुख की साधना का उपयुक्त अवसर मिल सके। इसके लिए सामाजिक आर्थिक जीवन के व्यापक विनियमन की आवश्यकता हो सकती है। ये सारे विनियम और प्रतिबंध एक वर्ग की स्वतंत्रता में भले ही कसौटी करते हों, इन्हें स्वतंत्रता के सिद्धांत के विरुद्ध इसलिए नहीं मान सकते कि ये स्वतंत्रता के आधार को व्यापक बनाने के प्रयत्न होंगे।
साधारणतः राजनीतिक, नागरिक या कानूनी स्वतंत्रता नकारात्मक स्वतंत्रता होती है। उदाहरण के लिए भाषण की स्वतंत्रता, पूजा भक्ति की स्वतंत्रता इत्यादि केवल यह सूचित करती है कि व्यक्ति के किन-किन कार्यों पर राज्य का प्रतिबंध नहीं होगा। परंतु सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता सकारात्मक स्वतंत्रता की मांग करती है। उदाहरण के लिए भूख प्यास या लाचारी से स्वतंत्रता सकारात्मक स्वतंत्रता की द्योतक है, क्योंकि इसकी स्थापना के लिए राज्य को ठोस प्रयत्न करने होंगे। स्वतंत्रता का सकारात्मक पक्ष ही उसे सामाजिक संकल्पना में परिणत कर देता है। पुनः समान स्वतंत्रता के सिद्धांत के साथ एक और अनिवार्य शर्त भी स्वभावतः जुड़ी रहती है।
वह यह कि संबद्ध पक्षों को एक दूसरे के संदर्भ में अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग करने की समान शक्ति भी प्राप्त होनी चाहिए या कम से कम उनकी शक्ति लगभग समान होनी चाहिए। जब कमजोर पक्ष को यह अधिकार दिया जाता है कि यदि उसके पास वैसे ही साधन मौजूद हों तो वह उनका प्रयोग कर सकता है, तो ऐसी स्वतंत्रता से उसका कुछ नहीं बनेगा क्योंकि इस तरह उसे यथार्थ और तात्कालिक संरक्षण तो प्राप्त होगा नहीं। यह बात जाहिर है कि कमजोर पक्ष को प्रतिशोध के अधिकार की जरूरत नहीं होती बल्कि उसे जो अधिकार प्राप्त है उनका प्रयोग करने के लिए सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिए। समान क्षमता की कसौटी बाहुबल तक सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि आर्थिक शक्ति को विषमता भी सच्ची स्वतंत्रता के लिए भारी खतरा साबित हो सकती है। कहना न होगा कि उदारवाद का पतन हुआ। उसने स्वतंत्रता का जो उदार सिद्धांत राजनीतिक क्षेत्र के लिए स्थापित किया था, उसे आंख मींजकर आर्थिक क्षेत्र पर लागू कर दिया। आर्थिक क्षमताओं की घोर विषमताओं ने अनुबंध की स्वतंत्रता को तमाशा बना दिया। सच्ची बात यह है कि आज के औद्योगिक युग में आर्थिक विषमताएं मनुष्य को जितना विवश और असमर्थ बना देती है उतना और कोई बाधा नहीं बनाती। कोरी कानूनी स्वतंत्रता के समर्थक राजनीति को दूसरे पक्ष की आर्थिक असमर्थता दूर करने के दायित्व से मुक्त रखना चाहते हैं ताकि धनवान वर्गों के स्वार्थ साधन में कोई रुकावट न आ पाए।
Question : कुछ उदारवादी राजनीतिक विचारों के अनुसार सामाजिक एवं आर्थिक असमानता केवल इस शर्त पर न्यायोचित है कि उनका लाभ समाज के निम्नतर स्तर के सदस्यों को मिलता है। क्या है विचार उदारवाद के व्यक्ति स्वतंत्रय की सैद्धांतिक हिमायत के साथ संगत है? विवेचन करें।
(2007)
Answer : स्वतंत्रता एवं समानता के आदर्श की प्राप्ति के साथ ही न्याय की अवधारणा साकार हो पाती है। उदारवाद भी स्वतंत्रता एवं समानता के द्वारा न्याय की समस्या पर विचार करती है। न्याय की समस्या मुख्यतः यह निर्णय करने की समस्या है कि समाज के विभिन्न व्यक्तियों और समूहों के बीच विभिन्न वस्तुओं, सेवाओं, अवसरों और लाभों इत्यादि के आवंटन का नैतिक आधार क्या होना चाहिए। अतः व्यवहार के धरातल पर यह स्वतंत्रता और समानता के परस्पर विरोधी दावों को सुलझाने की समस्या है। एक ओर आइजिया बर्लिन और एफए हयक जैसे उदारवादी विचारक हैं, जो स्वतंत्रता को प्रधान लक्ष्य मानते हुए समानता को गौण मानते हैं, दूसरी ओर मैकफर्सन और राल्स जैसे सिद्धांतकार हैं, जो स्वतंत्रता और समानता में सामंजस्य पर बल देते हैं।
बर्लिन ने अपने प्रसिद्ध निबंध टू-कांसेप्ट्स ऑफ लिबर्टी के अंतर्गत शुरू-शुरू में स्वतंत्रता और समानता को एक-दूसरे के स्वाधीन मूल्य मानते हुए यहां तक तर्क दिया कि भिन्न-भिन्न मूल्यों का विश्लेषण करते हुए उन्हें किसी एक में नहीं बदला जा सकता। परंतु आगे चलकर उसने स्वतंत्रता को केंद्रीय मूल्य के रूप में स्थापित क्रिया करते हुए समानता के दावे को बहुत पीछे धकेल दिया। स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक रूपों में अंतर करते हुए बर्लिन ने तर्क दिया कि राज्य केवल नकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है, सकारात्मक स्वतंत्रता व्यक्ति का निजी मामला है, जिसमें राज्य को कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए। इस तरह बर्लिन ने वर्तमान सामाजिक आर्थिक विषमताओ के निराकरण को राज्य के कार्यक्षेत्र से बाहर रखते हुए समानता के दावे को ठुकरा दिया। बर्लिन का तर्क कितना असंगत है, इस ओर संकेत करते हुए बी पारेख ने लिखा है यदि कोई व्यक्ति यह सोंचता हो कि उसके जीवन में साधनों का अभाव सामाजिक प्रबंध का परिणाम है, अतः यह उसकी स्वतंत्रता में अन्य लोगों के हस्तक्षेप के तुल्य है तो इस पर बर्लिन क्या करेगा? देखा जाए तो बर्लिन ने सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को प्राकृतिक और नैतिक विषमताओं के समकक्ष रखकर समानता के सिद्धांत का भ्रामक चित्र प्रस्तुत किया है और स्वतंत्रता के सिद्धांत को समानता के सिद्धांत से काटकर उसने स्वयं स्वतंत्रता के सिद्धांत को भारी क्षति पहुंचाई है।
पुनः हेयक ने स्वतंत्रता और समानता को परस्पर विरोधी सिद्धांत मानते हुए यह तर्क दिया कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न योग्यताएं और निपुणताएं पाई जाती हैं। कानून के समक्ष समानता का नियम लागू करने पर आय और संपदा की विषमता इस स्थिति का स्वाभाविक परिणाम होगी। इस विषमता को रोकने का उपाय यह होगा कि सत्तावादी शासन स्थापित करके व्यक्तिगत प्रतिभाओं और आकांक्षाओं का दमन कर दिया जाए। इस तरह बल पूर्वक समानता स्थापित करने का प्रस्ताव स्वतंत्र समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता। वस्तुतः हेयक ने समानता की तुलना में स्वतंत्रता को इतनी प्रधानता दी है कि वह सब व्यक्तियों के लिए समान स्वतंत्रता के दावे को भी स्वीकार नहीं करता। उसके विचार में वैयक्तिक स्वतंत्रता सामाजिक प्रगति की जरूरी शर्त है। हो सकता है, इने-गिने लोग ही कोई बड़ा काम करना चाहते हो, जो समाज की उन्नति में सहायक होगा। उन्हें ऐसी स्वतंत्रता से इस आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता कि इसका लाभ बहुत कम उठा पाएंगे। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति एक नया ताजमहल, लाल किला या दूरदर्शन केंद्र बनाना चाहता है तो उसे इसकी खुली छूट होनी चाहिए। हेयक के अनुसार किसी को भी स्वतंत्रता न देने से अच्छा यह है कि कुछ लोगों को ही स्वतंत्रता दे दी जाए और सब लोगों को थोड़ी-थोड़ी स्वतंत्रता देने से अच्छा यह है कि कुछ लोगों को पूरी स्वतंत्रता दे दी जाए चाहे बाकी लोगों के हिस्से में कुछ भी न आये। स्वतंत्रता की मीठी रोटी को बांटते समय सबको बराबर हिस्सा देना जरूरी नहीं है बल्कि हरेक का हिस्सा तय करते समय यह देखना चाहिए कि वह सामाजिक प्रगति में कितना योगदान कर सकता है।
पुनः हेयक ने यह तर्क दिया है कि सामाजिक न्याय का विचार ही निरर्थक है। न्याय वस्तुतः मनुष्य के आचरण की विशेषता है, कोई समाज न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण नहीं हो सकता। यदि समानता के हित में स्वतंत्रता में कटौती की जाती है तो जीवन सामग्री के अन्यायपूर्ण वितरण के प्रश्न पर तनाव, कलह और विवाद अवश्य पैदा होंगे। न्याय की तलाश केवल प्रक्रिया का विषय है, जिसका ध्येय स्वतंत्रता को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने ज्ञान और अपने-अपने हित की समझ के अनुसार अपने-अपने स्वार्थ साधन का अधिकतम अवसर मिलना चाहिए। समकालीन उदारवादी चिंतन के अंतर्गत प्रगति बनाम न्याय के विवाद में हेयक ने प्रगति का पक्ष लेते हुए न्याय की अवहेलना की है। इसके अंतर्गत यह तर्क दिया है कि उत्तम समाज में अनेक सद्गुण अपेक्षित होते हैं, उनमें न्याय का स्थान सर्वप्रथम है। न्याय उत्तम समाज की आवश्यक शर्त है, परंतु यह उसके लिए पर्याप्त नहीं है।
किसी समाज में न्याय के अलावा दूसरे नैतिक गुणों की प्रधानता हो सकती है, परंतु अन्यायपूर्ण समाज विशेष रूप से निंदनीय होगा। जो विचारक यह मांग करते हैं कि सामाकि उन्नति के कार्यक्रम में न्याय के विचार को आड़े नहीं आने देना चाहिए, वे समाज को नैतिक पतन की ओर ले जाने का खतरा मोल ले रहे होते हैं।
राल्स के अनुसार न्याय की समस्या प्राथमिक वस्तुओं के न्यायपूर्ण वितरण की समस्या है। ये प्राथमिक वस्तुएं हैं- अधिकार और स्वतंत्रताएं, शक्तियां और अवसर, आय और संपदा तथा आत्मसम्मान के साधन। राल्स ने अपने न्याय साधन को शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की संज्ञा दी है। इसका अर्थ यह है कि न्याय के जो सिद्धांत सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिए जायेंगे, उनके प्रयोग के फलस्वरूप जो भी वितरण व्यवस्था अस्तित्व में आएगी, वह अनिवार्यतः न्यायपूर्ण होगी। राल्स ने उन सिद्धांतों की कुछ आलोचना की है जो व्यक्ति की नैतिक मूल्यवत्ता की उपेक्षा करते हुए किसी पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की पूर्ति करना चाहते हैं। उपयोगितावाद का सिद्धांत अधिकतम लोगों के अधिकतम मुख का हिसाब लगाते समय यह नहीं देखता कि इसमें किसी व्यक्ति विशेष को कितनी क्षति हो सकती है, जैसे कि उसे दास बनाकर उसका जीवन बर्बाद किया जा सकता है।
राल्स के अनुसार सुखी लोगों के सुख को कितना ही क्यों न बढ़ा दिया जाए, उसे दुखी लोगों के दुःख का हिसाब बराबर नहीं किया जा सकता।
न्याय की सर्वसम्मत प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए राल्स ने एक विशेष तर्क प्रणाली का सहारा लिया है। सामाजिक अनुबंध की तर्क प्रणाली का अनुसरण करते हुए राल्स ने ऐसी मूल स्थिति की कल्पना की है, जिसमें पृथक-पृथक व्यक्ति विवेकशील कर्ता की हैसियत से अज्ञान के पर्दे के पीछे वैसे हैं अर्थात् वे अपनी-अपनी आवश्यकताओं, हितों, निपुणताओं योग्यताओं इत्यादि से बिल्कुल बेखबर है और यह भी नहीं जानते कि समाज में कौन-कौन सी बातें संघर्ष पैदा करती हैं। ये मनुष्य अपने-अपने लिए प्राथमिक वस्तुओं की अधिकतम वृद्धि का तरीका ढूंढ़ना चाहते हैं। परंतु इसके लिए जोखिम उठाने या जूआ खेलने को तैयार नहीं हैं। राल्स के अनुसार ऐसी अनिश्चितता की हालत में मनुष्य सबसे कम खतरनाक रास्ता चुनेंगे, अर्थात् प्रत्येक मनुष्य अपने आपको हीनतम स्थिति में मानते हुए यह मांग करेगा कि जो हीनतम स्थिति में हैं, उसके लिए अधिकतम लाभ की व्यवस्था होनी चाहिए। इस तर्क प्रणाली के अनुसार अंततः न्याय के तीन नियम इसी क्रम में स्वीकार किए जायेंगें:
(i) समान स्वतंत्रता का नियम, अर्थात् व्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी तरह के अन्य लाभ के लिए कुर्बान नहीं किया जा सकता। इसमें राजनीतिक सहभागिता का समान अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता इत्यादि सम्मिलित हैं।
(ii) अवसर की उचित समानता का नियम।
(iii) भेद मूलक नियम। इसके अनुसार प्रारंभिक वस्तुओं के समान वितरण से किसी भी तरह की छूट को तभी उचित ठहराया जा सकता है कि जब यह सिद्ध किया जा सके कि इससे हीनतम स्थिति वाले मनुष्यों को अधिकतम लाभ होगा। दूसरे शब्दों में किसी व्यक्ति की असाधारण योग्यता और परिश्रम के लिए विशेष पुरस्कार तभी न्यायसंगत होगा, जब उससे समाज के दीन-हीन लोगों को अधिकतम लाभ पहुंचे। ये शर्तें पूरी हो जाने के बाद प्रतिस्पर्द्धात्मक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत कार्यकुशलता के मानदंड को लागू किया जा सकता है। राल्स के आलोचक यह आरोप लगाते हैं कि उसने कुछ शर्तों के साथ पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखने का न्यायसंगत आधार ढूंढ़ लिया है।
Question : समता के आदर्श का तब तक कोई निश्चित कलेवर या अंतर्वस्तु निर्धारित नहीं किया जा सकता, जब तक इसे राजनीतिक एवं समाज के किसी व्यापक सिद्धांत के अंतर्गत समाहित न किया जाए।
(2004)
Answer : समानता के आदर्श का लक्ष्य है- असमानताओं में समानता ढूंढ़ना। इसी को इस रूप में कहा जा सकता है कि समानतावादी के रूप में सांचना मनुष्यों के सभी असमानताओं की मात्र के बारे में सोंचना है और उन्हें हराने या कम से कम न्यून करने के लिए तरीके ढूंढ़ना है या समानतावाद के अर्थ को इस प्रकार भी प्रकट किया जा सकता है- समान व्यक्तियों के साथ समानता पूर्वक और असमानों के साथ असमानता पूर्वक व्यवहार किया जाना चाहिए और उन्हें जिस लिहाज से असमान समझा जाता है वह उस भेद के साथ सार्थक होना चाहिए, जिस पर विशिष्ट रूप से विचार किया जा रहा है। यदि यह सिद्धांत है कि समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाए तो इस बात की भी आवश्यकता है कि कार्य भी समान रूप से अच्छा होना चाहिए। अतः समानता के सिद्धांत का यदि अमूर्त रूप में अध्ययन किया जाएगा तो वह खोखला विचार होगा। वास्तविक वस्तुओं के संदर्भ में ही इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। समानतावाद का एक सार्वभौमिक विचार यह हो सकता है कि ऐसी सभी सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर दिया जाना चाहिए जो आवश्यक या औचित्यपूर्ण नहीं हैं। वस्तुतः स्वतंत्रता की तरह समानता भी एक महान लोकतांत्रिक आदर्श है। समानता को राजनीतिक कानूनी रूप में भी आदर्श के रूप में माना गया है और वृहद अर्थ में इसे समानता के आदर्श के रूप में विभिन्न प्रकार की समानताओं (राजनीतिक, सामाजिक, नागरिक, आर्थिक) को समेटते हुए माना गया है। सामाजिक न्याय की दृष्टि से समानता का आदर्श आवश्यक माना गया है। स्वतंत्रता की तरह समानता को भी सामाजिक न्याय के लिए आवश्यक बताया गया है।
यहां राजनीतिक समानता का अर्थ है- जब सभी नागरिकों को एक समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो जाएं, जैसे वोट देने का अधिकार, चुनावों में खड़े होने का अधिकार, सरकार की आलोचना करने का अधिकार। यह ध्यान देने की बात है कि इस प्रकार के राजनीतिक अधिकार केवल लोकतंत्र में ही प्राप्त किये जाते हैं। भारत जो एक लोकतांत्रिक देश है, में संविधान के अनुसार राजनीतिक समानता दी गई है। सभी प्रौढ़ वोट देने का तथा अन्य अधिकार भी रखते हैं। ब्रिटिश राज्य में भारतीय प्रजा के रूप में थे, परंतु उन्हें राजनीतिक समानता नहीं मिली थी। मतदान का अधिकार अल्प लोगों के लिए नियंत्रित किया गया था। राजनीतिक समानता न होने पर देश में अस्थिरता तथा विद्रोह की भावना बनी रहती है, राजनीतिक समानता होती है। लास्की के अनुसार राज्य में ऐसे लोग नहीं होंगे जिनकी सत्ता की कोटि मेरी सत्ता से भिन्न हो। जो भी अधिकार एक नागरिक होने के नाते किसी दूसरे को मिलेंगे, वही और उसी सीमा तक मुझे भी प्राप्त होने चाहिए।
जहां तक सामाजिक समानता की बात है जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय, रंग का बिना भेदभाव किए जब समानता का अस्तित्व माना जाता है। छुआछूत, रंग भेद तथा अलगाव की प्रवृत्ति सामाजिक असमानता का कारण बनती है। सामाजिक समानता एक विचार मात्र नहीं व्यवहार है। समानता का वास्तविक अर्थ सामाजिक समानता में ही प्रकट होता है। सामाजिक समानता में सामाजिक सम्मान का भी भाव समाहित है। यदि समाज में किसी का सम्मान उसकी जाति, धर्म या संपत्ति के आधार पर किया जाता है, तो उसे सामाजिक समानता नहीं माना जा सकता। समाज में सबका गौरव उसके मनुष्य होने के नाते अभीष्ट है। मनुष्य की मानवता ही उसके सम्मान के लिए पर्याप्त है। जाति या रंग या धर्म इसके बीच नहीं आना चाहिए। लास्की का कहना है कि सिद्धांत के रूप में हमें समाज में किसी भेदभाव को स्वीकार नहीं करना चाहिए। जब तक व्यक्ति की प्रारंभिक आवश्यकताएं पूरी नहीं होती और कोई विशेष परिस्थिति नहीं आती तब तक भेदभाव का आना उचित नहीं है। न्यूनतम आवश्कताएं तो समाज में सबकी पूरी होनी चाहिए। उनका कहना है कि मुझे रोटी का कोई अधिकार नहीं है, जब तक कि मेरा पड़ोसी भूखा रहने के लिए लाचार है। कोई सामाजिक संगठन जिसमें यह आधार नहीं है, वहां वह सब समाप्त है जो मानव के व्यक्तित्व को अर्थ प्रदान करते हैं।
Question : वैयक्तिक स्वतंत्रता के आदर्श के प्रति समाजवाद एवं उदारवाद दोनों की स्वघोषित प्रतिबद्धता के बावजूद इन विचारधाराओं के बीच यह घोर विवाद का विषय है क्यों? विवेचन कीजिए।
(2004)
Answer : उदारवाद राजनीति का वह सिद्धांत है जो सामंतवाद के पतन के बाद राजनीति को बाजार अर्थव्यवस्था के अनुरूप मोड़ देनेके लिए अस्तित्व में आया। शुरू-शुरू में इसने व्यक्ति को राजनीति का केंद्र बिंदु मानते हुए व्यक्तिवाद को अपनाया, परंतु बाद में इसने राजनीति में समूहों की महत्पूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए बहुलवाद को अपना लिया। शुरू-शुरू में इसने मुक्त बाजार व्यवस्था को सर्वहित का उपयुक्त साधन मानते हुए राज्य के लिए अहस्तक्षेप का समर्थन किया। इसकी मुख्य मान्यताएं थीं:
(i) व्यक्ति के व्यक्तित्व की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति को महत्व दिया जाए।
(ii) मनुष्य अपनी इस अभिव्यक्ति को अपने लिए भी मूल्यवान सिद्ध कर सकते हैं, समाज के लिए भी।
(iii) उन संस्थाओें और नीतियों को बरकरार रखा जाए जो इस अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता में विश्वास को बढ़ावा देती है।
संक्षेप में उदारवादी चिंतन और व्यवहार में दो प्रमुख विषयों पर बल दिया जाता है- एक तो इसमें निरंकुश सत्ता को अस्वीकार करके उसकी जगह मनुष्यों की स्वतंत्रता पर आधारित व्यवस्था स्थापित करने का लक्ष्य सामने रखा जाता है, दूसरे इसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की मांग की जाती है। इनमें एक तो उसका व्यावहारिक पक्ष है, दूसरा उसका दार्शनिक पक्ष। अधिकांश चिंतक के अंतर्गत इन दोनों पक्षों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हैं। शुरू-शुरू में उदारवाद का जो रूप इंगलैंड में विकसित हुआ उसे चिरसम्मत उदारवाद की श्रेणी में रखा जाता है। यह वैयक्तिक अधिकारों की सांविधानित गारंटियों की मांग तक सीमित था। बाद में आर्थिक और राजनीतिक संगठन तथा राजनीतिक कार्यक्रम से संबंधित प्रश्न भी इसकी परिधि में आ गए।
1689 में जिस उदारवाद को मान्यतावादी जाती थी और उचित ठहराया जाता था, उसका स्वरूप मूलतः नकारात्मक था, जिसका ध्येय व्यक्तियों और समूहों को शासन की सत्ता से विशेषतः राजमुकुट के परमाधिकारों से मुक्ति दिलाना था। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि करना था, आर्थिक उद्देश्योें का नहीं। सांविधानिक समझौते और नागरिक शांति के फलस्वरूप चिरसम्मत उदारवाद के एक और पक्ष को बल मिला, आर्थिक स्वतंत्रता के सिद्धांत और व्यवहार को। इंगलैंड के चिरसम्मत अर्थशास्त्रियों ने अहस्तक्षेप के जिस सिद्धांत और व्यावहारिक संगठन की पैरवी की उससे उदारवाद की पुष्टि की। वे सी सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों को भी बढ़ावा देना चाहते थे, जो सरकारी विनियमन का स्थान ले सके।
चिरसम्मत उदारवाद के विकास में अंग्रेज उपयोगितावादियों और उनके राजनीतिक सहयोगियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जेरेमी बेंथम और जेम्स मिल ने बाजार अर्थव्यवस्था को मान्यता प्रदान की, विशेषतः उन आदर्शों को, जो बाजार अर्थव्यवस्था के साथ जुड़े थे। इस उदारवाद ने स्वतंत्रता के नकारात्मक पक्ष पर बल दिया। आइजिया बर्लिन ने यह तर्क दिया कि राज्य केवल व्यक्ति की नकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है, सकारात्मक स्वतंत्रता की रक्षा करना उसके कार्य क्षेत्र में नहीं आता है। बर्लिन के अनुसार नकारात्मक स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि व्यक्ति को अपने विवेक के अनुसार अपने क्रियाकलाप निर्धारित करने से न रोका जाए। कोई व्याप्ति कहां तक सकरात्मक स्वतंत्रता का प्रयोग कर सकता है। यह उसके अपने चरित्र, अपनी क्षमता या अपने साधनों पर निर्भर है, राज्य उसमें कुछ नहीं कर सकता। राज्य केवल यह कर सकता है कि व्यक्ति भी स्वयं निर्धारित गतिविधियों पर कोई प्रतिबंध न लगाए। बर्लिन ने सकारात्मक स्वतंत्रता को व्यक्ति की अपनी क्षमता का विषय बनाकर सत्तावाद का खंडन किया और उदारवादी व्यक्तिवादी सिद्धांत को आगे बढ़ाया।
फ्रीडमैन ने भी यह विचार व्यक्त किया कि राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को अपने साथ रहने वाले लोग विवश न करें। प्रतिस्पर्द्धात्मक पूंजीवाद जिसमें निजी उद्यम को स्वतंत्र विनिमय करने का पूरा अवसर हो, स्वतंत्रता की आवश्यक शर्त है। हेयक ने स्वतंत्रता के विविध आयामों की परिभाषा देकर राज्य की नकारात्मक भूमिका के पक्ष में एक नई तर्कशृंखला प्रस्तुत की। हेयक का कहना है कि स्वतंत्रता के मूल अर्थ, अर्थात् प्रतिबंध के अभाव को सुरक्षित रखना ही उपयुक्त है। इसके प्रयोग क्षेत्र को सीमित रखकर ही हम इसकी मूल्यवत्ता बढ़ा सकते हैं। हेयक ने अब अपने स्वतंत्रता सिद्धांत की पुष्टि के लिए यह तर्क दिया है कि आधुनिक युग में ज्ञान का बहुत अधिक विस्तार हो गया है, परंतु यह सारा ज्ञान किसी एक जगह केंद्रित नहीं है, बल्कि असंख्य मनुष्य में बिखरा हुआ है। अतः सर्वोत्तम व्यवस्था वह होगी जिसमें मानवीय गतिविधियों को सहज स्वभाविक रूप से समायोजित होने दिया जाए।
परंतु समाजवादी विचारक उदारवादियों के वैयक्ति स्वतंत्रता की संकल्पना से सहमत नहीं हैं, क्योंकि यह योग्यता पर आधारित न्याय तथा पूंजीवादी व्यवस्था तथा निषेधात्मक स्वतंत्रता का पोषक रहा है। परंतु समाजवाद वैचारिक क्रांति तथा कुछ ठोस उपलब्धियों के आधार यह सिद्ध करता है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का महत्व है। मनुष्य का सम्मान अमीर तथा गरीब के विभेद पर निर्भर है, उसका स्वयं में महत्व है। विशेषरूप से श्रमिक वर्ग में आत्मसम्मान की भावना का होना भी वैयक्तिक स्वतंत्रता के सही मायने को अपनाने में ही संभव है। वृहतरूप दृष्टिकोण से समाजवाद को एक सिद्धांत या एक आंदोलन और जीवन पद्धति के रूप में ग्रहण किया गया है, जो पूंजीवादी समाज और आर्थिक व्यवस्था का विरोध करता है। जहां उदारवाद व्यक्तिवाद का पोषक है, वहीं समाजवाद व्यक्तिवाद भी प्रतिक्रिया के रूप में प्रकट हुआ। यह अनियंत्रित रूप में व्यक्तिगत संपत्ति और स्वतंत्र प्रतियोगिता के सिद्धांत का विरोधी है। समाजवाद का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करता है। यह व्यक्ति की आर्थिक क्रियाओं को नियमित तथा नियंत्रित करके सामाजिक शुभ में वृद्धि करता है।
समाजवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता में विश्वास करता है। समाजवादी समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्तिवाद की स्वतंत्रता से भिन्न है। व्यक्तिवाद की स्वतंत्रता जहां नियंत्रित नहीं होती, वहां समाजवाद में व्यक्ति आत्म विकास करने के लिए स्वतंत्रत है, परंतु वह समाज के हित के लिए होती है। सामाजिक हित व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नियंत्रक है। समाजवाद जीवन संघर्ष के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता है और न ही जिसकी लाठी उसकी भैंस के सिद्धांत में ही विश्वास करता है। समाजवाद में व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर मिलता है। शोषण और दमन में व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता है, अतः समाजवाद में पूंजीपति के दमन चक्र नहीं चल सकता, जिसकी उदारवाद हिमायत करता है। इस प्रकार समाजवाद में आर्थिक स्वतंत्रता है। समाजवाद व्यक्ति को आर्थिक स्वतंत्रता देकर जीवन के अन्य क्षेत्रें में भी स्वतंत्रता प्रदान करता है। स्वतंत्रता की धारणा में ही निहित है कि समाजवाद आर्थिक समानता लाने के लिए आर्थिक व्यवस्था पर सामाजिक नियंत्रण चाहता है। पूंजीवाद आर्थिक विषमता का पोषण करता है। उदारवाद आर्थिक प्रतियोगिता की खुली छूट होता है, परंतु समाजवाद व्यक्ति के अधिक समाज का हित चाहता है। समाजवाद में व्यक्ति की इच्छा नहीं समाज की इच्छा सर्वोपरि है और सामाजिक हित के लिए समाज की उत्पादन प्रणाली पर समाज का नियंत्रण होना चाहिए। आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए राजनीतिक कार्यवाही द्वारा उत्पादन की प्रणालियों पर चाहे वह उद्योग हो और चाहे कृषि हो, उन पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। इस संबंध में दार्शनिक प्रो.सी.ई.एम. जोड ने तीन उपायों का उल्लेख अपनी पुस्तक आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत में कियाः
(i)उत्पत्ति के साधनों का व्यक्तिगत स्वामित्व समाप्त कर दिया जाए। महत्वपूर्ण उद्योग और सेवाएं सार्वजनिक स्वमित्व और नियंत्रण के अंतर्गत कर दी जाएं।
(ii) उद्योग का संचालन समुदाय की आवश्कताओं का पूर्ति के लिए किया जाए, न कि उनको चलाने का उद्देश्य व्यक्तियों के लिए लाभार्जन हो।
(iii)व्यक्तिगत लाभ के स्थान पर समाज सेवा का उद्देश्य होना चाहिए।
उदारवाद की एक मुख्य विशेषता है, उसके द्वारा पूंजीवाद को प्रोत्साहन परंतु समाजवाद का लक्ष्य पूंजीवाद को समाप्त करना है क्योंकि इससे समाजवाद के सिद्धांत वैयक्ति स्वतंत्रता एवं समानता का हनन होता है। पूंजीवादी व्यवस्था में असमानता का व्यवहार होता है। मानवता का विनाश होता है, शोषण को प्रोत्साहन मिलता है। वर्ग भेद बढ़ता है। धनी और गरीब के बीच खाई बढ़ती है। राजसत्ता पर पूंजीवाद का प्रभाव बढ़ता है। इस प्रभाव से भ्रष्टाचार, शोषण, असमानता, असंतुलित वितरण और अन्याय में वृद्धि होती है। फलस्वरूप श्रमिकों में निराश, कष्ट, बेरोजगारी, निरीहता, दैन्य की भावना, कुंठा और आक्रोश की भावना उत्पन्न होती है। यही भावना श्रमिकों को आक्रामक बनाती है। समाज में विद्रोह और आतंक को प्रश्रय मिलता है। इस प्रकार पूंजीवाद अनेक बुराइयों का जन्मदाता है।
उदारवादी चिंतक राज्य की भूमिका को वैयक्तिक स्वतंत्रता के संदर्भ में भूमिका तक सीमित करते हैं और नकारात्मक स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं, परंतु समाजवादी विचारधारा में राज्य को महत्वपूर्ण माना गया है। प्रो. जोड ने व्यक्ति और समाज की एकता पर जोर देते हुए कहा है कि समाजवाद में स्वतंत्र्ता पूर्वक व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास हो पाता है। यह तभी संभव है जब व्यक्ति भौतिक जीवन की चिंताओं से मुक्त हो। चिंता मुक्त होने पर ही वह अपने इच्छित ढंग से जीवनयापन कर सकता है। इस स्थिति में ही व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता हैै। परंतु व्यक्ति की स्वतंत्रता तब तक संभव नहीं है, जब तक व्यापक सामाजिक संगठन न होता। वस्तुतः समाजवाद व्यक्ति को भौतिक चिंताओं के भार से मुक्त कर देना चाहता है जिससे वह अपने इच्छित ढंग से जीवन व्यतीत कर सके और स्वतंत्रतापूर्वक अपने व्यक्तित्व का विकास कर सके। लेकिन समाजवादी यह मानता है कि राज्य है तथा इस दृष्टिकोण के फलस्वरूप वह राज्य को एक ऐसी जीवन शील वस्तु मानता है, जो बहुत सी अन्योयाश्रित इकाइयों से मिलकर बनी है। फलतः उसका विश्वास है कि ऐसी स्वतंत्रता एक व्यापक सामाजिक संगठन में ही प्रापत हो सकती है।
Question : ‘से स्वतंत्रता’ और ‘की स्वतंत्रता’ परस्पर अनन्य हैं।
(2003)
Answer : यहां ‘से स्वतंत्रता’ स्वतंत्रता की नकारात्मक अवधारणा को एवं ‘की स्वतंत्रता’ स्वतंत्रता की सकारात्मक अवधारणा को इंगित करता है। सकारात्मक रूप में समानता का यही अर्थ स्पष्ट किया जा सकता है कि समानता पर्याप्त अवसरों की उपलब्धता है। अर्थात् सबके लिए पर्याप्त अवसरों की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि पर्याप्त अवसर की बात की जा रही है, न कि समान अवसर की। इसका कारण यह है कि हर एक की आवश्यकताएं और क्षमताएं एक सी नहीं होती। हर एक को अपने विकास के लिए अलग-अलग अवसरों की जरूरत होती है। हर एक मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्तियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। लास्की के अनुसार जिन बच्चों का पालन-पोषण ऐसी परिस्थिति में होता है, जहां मानसिक वस्तुओं को अधिक महत्व दिया जाता है, उन्हें जीवन की दौड़ के आरंभ में जो लाभ प्राप्त हैं, उन्हें किसी प्रकार के कानून द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता है। यहां अवसर की समानता में यह निहित है कि अच्छा जीवन जीने और अपने व्यक्तित्व के विकास को पूर्णता प्रदान करने का अवसर मिलना चाहिए।
परंतु स्वतंत्रता की सकारात्मक परिभाषा से यह स्पष्ट है कि यह तभी संभव है, जब समानता का अर्थ विशेष अधिकारों की अनुपस्थिति किया जाए। अर्थात् लिंग, जाति, धर्म, वर्ग, धनवान या निर्धन का बिना भेदभाव किए सबको पर्याप्त अवसर मिले, जिससे अवसर के अभाव में किसी की न प्रतिभा कुंठित हो जाए और न ही उसको निराशा का सामना करना पड़े। इतना अवसर तो सबको मिलना ही चाहिए कि सब अपनी क्षमता और योग्यता से जिस पद के योग्य हों उसे प्राप्त कर सकें, प्रगति कर सके। किसी शक्ति या सत्ता के आधार पर किसी को वरीयता देना समानता के विपरीत है। समानता से लास्की का तात्पर्य विशेषाधिकारों का अभाव है। ऐसी समानता विधि के समक्ष समानता ओर समान अधिकारों के उपभोग की समानता है। लास्की का कथन है कि समाज में किसी भी व्यक्ति की ऐसी स्थिति में नहीं रखा जाएगा कि वह अपने पड़ोसी के ऊपर इस सीमा तक छा जाए कि पड़ोसी के लिए नागरिकता को ही अस्वीकारोक्ति सिद्ध हो। पुनः समानता का अर्थ व्यवहार की एकरूपता भी नहीं है। जब तक लोगों की आवश्यकताएं, क्षमताएं और अभाव असमान हैं, तब तक व्यवहार की अंतिम एकरूपता संभव नहीं है। समानता का अर्थ यह है कि किसी भी व्यक्ति को वह स्थान दिया जाए जिसके द्वारा वह अपने पड़ोसियों के कार्यों में हस्तक्षेप करके उसके नागरिक अधिकारों के उपयोग में बाधा बन जाए। इसी प्रकार समानता के सिद्धांत के साथ व्यक्ति की दक्षता और सामूहिक हित को ध्यान में रखते हुए यह कहा गया है कि समानता का यह अर्थ भी नहीं है कि कहीं भी कोई भेदभाव न किया जाए। इस प्रकार से स्वतंत्रता के अभाव में की स्वतंत्रता का होना मुश्किल है। ये दोनों एक दूसरे के पूरक होकर ही स्वतंत्रता की अवधारणा को सही अर्थ प्रदान कर सकते हैं।
Question : स्वतंत्रता संसार से मुक्ति के रूप में।
(2003)
Answer : संसार से मुक्ति के रूप में स्वतंत्रता, स्वतंत्रता को एक विशेष अर्थ प्रदान करता है। यह भारतीय समाज में मोक्ष की अवधारणा को इंगित करता है। भारतीय दर्शन में मोक्ष को मुक्ति के अर्थ में लिया गया है। यहां मुक्ति को कुछ दार्शनिक संप्रदायों में दो चरणों में स्वीकार किया गया है। प्रथम तो यह कि संदेह मुक्ति या मोक्ष अर्थात् जीवित रहते हुए रागद्वेष एवं सांसारिक बंधनों से छुटकारा, जो गीता के स्थितप्रज्ञ, शंकर के जीवन मुक्ति तथा बौद्ध दर्शन के बोधिसत्व की अवधारणा को इंगित करता है। मुक्ति की दूसरी अवधारणा का अर्थ है विदेह मुक्ति, जो सांख्य एवं शंकर दर्शन में स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ है मृत्यु के साथ ही मुक्ति की प्राप्ति, अर्थात् संसार के सभी बंधनों से मुक्ति जो काफी हद तक नकारात्मक स्वतंत्रता की ओर संकेत करता है। परंतु स्वतंत्रता की यह निषेधात्मक अवधारणा स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से परिभाषित करने में सक्षम नहीं है। मनुष्य के लिए स्वतंत्रता का यह आदर्श उपादेय नहीं हो सकता। हमारे समक्ष यह निर्विवाद तथ्य विद्यमान है कि मनुष्य अपने जीवन में पीड़ा अथवा दुख का अनुभव करता है। इस दुःख के दैनिक या भौतिक या फिर दोनों ही कारण हो सकते हैं। स्पष्ट है कि इस दुःख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए इसके कारणों पर नियंत्रित करना होगा। परंतु जीवन के चरम लक्ष्य अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को स्वयं प्राप्त करना होगा और इसके लिए उसे जीवित रहते हुए समाज में एक सामाजिक प्राणी की तरह सदाचरण के साथ स्वतंत्रता का उपभोग करते हुए प्रयासरत रहना होगा, अर्थात् स्वतंत्रता या मुक्ति का यह अर्थ नहीं कि इन चुनौतियों का सामना किए बगैर संसार से ही विदा हुआ जाए ताकि सारे बंधनों से आजादी मिले, स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ जीवित रहते हुए अपने अधिकारों का इस तरह उपभोग करना है ताकि दूसरों के अधिकारों का हनन किए बिना अपने व्यक्तित्व का विकास किया जाए। स्वतंत्रता या मुक्ति सही मायने में तब है जब अपने निकृष्ट संवेगों को नियंत्रित करके दूसरों के दुःख का निराकरण करने के सतत प्रयास में ही वास्तविक मुक्ति है। संसार से मुक्ति के अर्थ में स्वतंत्रता, इस शब्द की एकांगी प्रवृत्ति को घोषित करती है। यह वास्तविक जीवन में पलायनवादिता का संकेत है। स्वीकारात्मक स्वतंत्रता ही वास्तविक रूप में स्वतंत्रता की अवधारणा को पूर्ण बनाती है अर्थात दोनों का समन्वय ही वास्तविक अर्थ में स्वतंत्रता है और यह जीवित रहते हुए ही मानव को उपलब्ध हो सकती है। संसार से मुक्ति के अर्थ में स्वतंत्रता अपना वास्तविक मूल्य और पहचान खो देगी।
Question : राजनीतिक आदर्श के रूप में समता की संकल्पना।
(2002)
Answer : समानता का शब्दकोश के अनुसार अर्थ बताया जाता है-
(i)दूसरों के साथ समान गौरव, पद या विशेषाधिकार की एक अवस्था
(ii)शक्ति, योग्यता, उपलब्धि या उत्तमता की एक अवस्था
(iii)न्यायप्रियता, निष्पक्षता, उचित मान, समानुपातिकता। वैसे सामान्य रूप से समानता की परिभाषा अवसर की समानता के रूप में की जाती है। इस प्रकार समानता विषयक चिंतन से मानव और मानवता के विषय में जिस धारण का विकास हुआ है, वह एक आदर्श और मूल्य की स्थापना करता है। वस्तुतः समानता को राजनीतिक कानूनी रूप में भी आदर्श के रूप में माना गया है और वृहद अर्थ में इसे समानता के आदर्श के रूप में विभिन्न प्रकार की समानताओं को समेटते हुए माना गया है। राजनीतिक समानता का अर्थ है- जब सभी नागरिकों को एक समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो, जैसे- वोट देने का अधिकार, चुनावों में खड़े होने का अधिकार, सरकार की आलोचना करने का अधिकार। यह ध्यान देने की बात है कि इस प्रकार के राजनीतिक अधिकार केवल लोकतंत्र में ही प्राप्त किए जाते हैं। भारत जो एक लोकतांत्रिक देश है,संविधान के अनुसार राजनीतिक समानता दी गयी है। सभी प्रौढ़ वोट देने का तथा अन्य अधिकार भी रखते हैं। ब्रिटिश राज्य में भारतीय प्रजा के रूप में थे, परंतु उन्हें राजनीतिक समानता नहीं मिली थी। मतदान का अधिकार अन्य लोगों के लिए नियंत्रित किया गया था। राजनीतिक समानता न होने पर देश में अस्थिरता तथा विद्रोह की भावना बनी रहती है। लोकतंत्र में राजनीतिक सत्ता वंशानुगत नहीं होती, सत्ता का आधार राजनीतिक समानता होगी। लास्की के अनुसार राज्य में ऐसे लोग नहीं होंगे, जिनकी सत्ता की कोटि मेरी सत्ता से भिन्न हो। जो भी अधिकार एक नागरिक होने के नाते किसी दूसरे को मिलेंगे, वही और उसी सीमा तक मुझे भी प्राप्त होने चाहिए।
परंतु व्यवहार में राजनैतिक समानता के आदर्श की प्राप्ति में कई राजनीतिक बाधाएं भी देखने को मिलती हैं। राजनीतिक शक्ति वास्तव में कुछ लोगों के अधीन रहती है। यह स्थिति लोकतंत्र में देखी जा सकती है। जब राजनीतिक शक्ति दल व्यवस्था के द्वारा व्यावहारिक रूप में कुछ लोगों के हाथ में रहती हैं तो समानता कैसे रह सकती है। इस प्रकार जिनके हाथ में राजनीतिक शक्ति रहती है वही विशेषाधिकारों का उपभोग करते हैं और फिर यह समानता के सिद्धांत के विरोध में है। यही नहीं राजनीतिक समानता के आदर्श की प्राप्ति में बाधा के रूप में आर्थिक बाधाएं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। राजनीतिक समानता के लिए आर्थिक असमानताअत्यधिक बाधक है। जो व्यक्ति राजनीतिक शक्ति और आर्थिक लाभ प्राप्त कर रहे हैं वे निश्चित रूप से उनसे अच्छी स्थिति में हैं जो इन सुविधाओं को नहीं प्राप्त कर रहे हैं, अर्थात् आर्थिक असमानता के कारण समानता का सिद्धांत कार्यकारी सिद्ध नहीं हो पा रहा है। सारांश यह है कि पिछड़े हुए या विकासशील देशों में समानता के आदर्श और वास्तविकता के बीच जो अंतर है, उसे कम करने में लंबा समय लगेगा। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि लोकतंत्रीय देश समानता को मूल रूप से तथ्य कम और आदर्श अधिक मानते हैं, इसका अर्थ यह है कि इस लक्ष्य की तरफ चला जा सकता है, पूर्ण रूप से इसकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतः विडंबना यह है कि राजनीतिक समानता की आदर्श को कोरा आदर्श माना जा रहा है। आवश्यकता इसे चरितार्थ करने की है।
Question : न्याय से क्या तात्पर्य है? इसकी प्राप्यता की क्या आवश्यक एवं पर्याप्त दशाएं होती हैं? विवेचन करें।
(2002)
Answer : न्याय वह व्यवस्था है जिसके आधार पर प्रत्येक मनुष्य को वे सभी अधिकार दिये जाते हैं, जिनको समाज उचित ठहराता है। किंतु अधिकारों के निर्वहन हेतु यह जरूरी है कि हम कर्तव्यों का निर्वहन करे और ये कर्तव्य कानून के अनुपालन है। अतः स्पष्ट है कि न्याय हमारे लिए कानून के औचित्य को सिद्ध करता है।
परंपरागत अर्थों में न्याय का आशय न्याय परायण व्यक्ति से लिया जाता था। जिसमें सच्चरित व्यक्ति के गुणों पर विचार किया जाता था एवं प्रचलित मूल्यों एवं मान्यताओं के अनुपालन को न्यायपूर्ण समझा जाता था अर्थात् प्राचीन अर्थों में न्याय व्यक्ति के कर्तव्य के रूप में था एवं व्यक्ति से एक बनी बनायी व्यवस्था को सुरक्षित रखने की उम्मीद की जाती थी। किंतु आधुनिक अर्थों में न्याय व्यक्ति के गुणों तक सीमित न रहकर पूरे समाज या व्यवस्था के रूप में स्वीकारा जा रहा है। वर्तमान में न्यायपूर्ण समाज एवं न्यायपूर्ण व्यवस्था की बात की जा रही है। आज न्याय विचार में यह विचार किया जा रहा है कि समाज के वंचित वर्ग की दशा सुधारने के लिए साया परिवर्तन की दिशा कैसी होनी चाहिए।
न्याय विचार का ऐतिहासिक विकासः न्याय विचार को समझने के लिए प्लेटो एवं अरस्तु के न्याय के प्राचीन सिद्धांतों को समझना होगाः
प्लेटोः प्लेटो का मानना है कि न्याय का उद्देश्य नागरिकों के द्वारा कर्तव्यों का पालन है। न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए प्लेटो राज्य के अंदर नागरिकों के तीन वर्गों की चर्चा करते हैं, जिनके निष्ठापूर्वक कर्तव्य पालन से ही न्याय की प्राप्ति संभव होगी। प्लेटो के अनुसार राज्य में सैनिक उत्पादक एवं दार्शनिक शासक वर्ग होते हैं, इन तीनों का मानव व्यवहार क्रमशः भावना, तृष्णा एवं ज्ञान होता है। प्लेटो के अनुसार इन तीनों वर्गों को न्यायपूर्ण कर्तव्यपालन हेतु क्रमशः साहस, संयम एवं बुद्धिमत्ता रूपी सद्गुणों को आदर्श बताते हुए इन्हें पाने का प्रयास करना चाहिए। इन तीनों के सद्गुणों के संयोग होने पर न्याय रूपी सर्वोच्च सद्गुण की प्राप्ति संभव हो सकेगी। राज्य के संदर्भ में न्याय का अर्थ होगा संयमशील उत्पादक वर्ग को साहसी सैनिक वर्ग का संरक्षण प्राप्त हो और इन दोनों को बुद्धिमत्ता संपन्न दार्शनिक राजा से मार्ग प्रशस्त हो।
अरस्तुः अरस्तु न्याय को मानवीय संबंधों के नियामक के रूप में स्वीकारते हैं। अरस्तु ने न्याय के प्रयोग क्षेत्र के आधार पर न्याय के दो सिद्धांत दिये हैं:
(i) वितरण न्याय सिद्धांत
(ii) प्रतिवर्ती न्याय सिद्धांत
वितरण न्यायः अरस्तु वितरण न्याय के समर्थक थे, जिसका संबंध धन या संपदा आदि के वितरण से है। अरस्तु का मानना था कि राज्य की विधि बनाते समय विधि निर्माताओं को वितरण न्याय का पालन करना चाहिए। इसके अनुसार समान लोगों के साथ समान बरताव एवं असमान लोगों के साथ असमान व्यवहार होना चाहिए। समान एवं असमान के निर्धारण हेतु अरस्तु का मानना है कि प्रचलित कानूनों एवं प्रथाओं का सहारा लेना चाहिए। यह वितरण अंकगणितीय रूप में न हेाकर के ज्यामितीय या पिरामिड रूप में होना चाहिए, जिसमें सबको बराबर मात्र में आवंटित न करके योग्यता के अनुरूप आवंटन होगा। योग्यता के मापदंड के रूप में अरस्तु सकारात्मक सद गुणों को स्वीकारते हैं। इनका मानना था कि योग्य एवं सहाय व्यक्ति को यदि ज्यादा पाने से रोका जायेगा तो उसके अंदर उत्पन्न असंतोष राज्य में विद्रोह केा बढ़ावा देगा।
आलोचनाः
(i)योग्यता के मापन का पैमाना ठीक नहीं है और आसान भी नहीं है।
(ii)आज के समय उचित नहीं है।
प्रतिवर्ती न्यायः इसका संबंध लोगों के परस्पर लेन-देन को नियमित करके एवं अपराध हेतु दंड निर्धारण से है। यह न्याय प्रणाली से संबंधित है एवं न्यायधीश के निर्णय को इंगित करता है। न्यायधीश का यह देखना कर्तव्य होगा कि आपसी लेनदेन में किसी की व्यक्ति को हानि न पहुंचे और यदि हानि हो तो उतनी ही क्षतिपूर्ति कर देनी चाहिए। यहां अरस्तु अंकगणितीय रूप को स्वीकारते हैं एवं लेनदेन के बीच योग्यता को आड़े नहीं आने देते। इनका मानना था कि लेनदेन एवं अपराधिक गतिविधियों में व्यक्ति के कृत्यों को देखना चाहिए योग्यता को नहीं।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि अरस्तु का न्याय विचार यथा स्थिति बनाये रखने का समर्थक है। इनका वितरण न्याय पूरी तरह यथास्थिति या स्टेटस को स्वीकारता है जबकि प्रतिवर्ती न्याय सिद्धांत वर्तमान स्थिति में बदलाव की बात स्वीकारते हुए कुछ हद तक न्याय की आधुनिक अवधारणा (प्रगतिशील) के नजदीक दिखाई देता है।
न्याय की आधुनिक संकल्पना के संदर्भ में वह सिद्धांत स्वीकारा जा रहा है, जिसका निर्माण जीवन के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक यथार्थ को सामने रखकर किया गया हो एवं जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव को स्वीकारते हुए न्यायप्रिय व्यक्ति की जगह न्यायपूर्ण समाज की बात करता हो।
न्याय की समस्या पर अनेक दृष्टि से विचार करने पर निम्न पक्ष उभरते हैः
(i) कानूनी औपचारिक और प्राकृतिक न्यायः विवादों के निपटारे हेतु जब देश के एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित कानूनों का सहारा लिया जाये तो वह कानूनी न्याय का रूप होगा जिसे औपचारिक न्याय भी कहा जाता है। किंतु कानून जहां पर अस्पष्ट हो वहां पर प्राकृतिक न्याय का सहारा लिया जाता है जो प्राकृतिक विधियों पर आधारित है। ये प्राकृतिक कानून लिखित कानून के रूप में नहीं होते किंतु इनका स्रोत प्रकृति होती है इसीलिए इन्हें विधि के रूप में प्रमाणिकता दे दी जाती है इसीलिए इन्हें कानूनों के पीछे का कानून (Law behind Laws) भी कहा जाता है। प्राकृतिक न्याय के दो मूल तत्व हैं- कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने मामले के न्यायधीश नहीं हो सकता तथा दोनों पक्षों को सुनवायी का अवसर अवश्य मिलना चाहिए।
साथ ही न्याय होना ही नहीं अपितु दिखना भी चाहिए और देर से मिला न्याय अन्याय होता है। ये भी प्राकृतिक न्याय के तत्व के रूप में स्वीकारे जाते हैं।
(ii) सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्यायः सुविधानुसार समाज का अध्ययन हम सामाजिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में करते हैं, अतः न्याय को भी इन तीनों के अलग-अलग रूप में समझने का प्रयास किया जाता है, जिसमें सामाजिक न्याय से आशय है, समाज में जाति, धर्म, लिंग, वर्ग आदि का भेद किये बिना सभी मनुष्यों की गरिमा का सम्मान किया जाये।
आर्थिक न्याय से आशय सभी को अपनी क्षमता एवं आवश्यकता के अनुरूप उचित शर्तों पर वस्तुओं एवं सेवाओं की प्राप्ति हो सके। बाजार व्यवस्था व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हो (समानता)। राजनीतिक न्याय से आशय सार्वजनिक नीति बनाने में सभी को हिस्सा मिलने की स्वतंत्रता से है अर्थात सत्ता प्राप्ति का मार्ग सबके लिए खुला हो (स्वतंत्रता)।
(iii) प्रक्रियात्मक न्याय और तात्विक न्यायः सामाजिक जीवन में हम न्याय को किस रूप में स्थापित करें, इस प्रश्न के हल के क्रम में न्याय संबंधी आधुनिक चिंतन प्रक्रियात्मक एवं तात्विक न्याय सिद्धांतों के रूप में प्रकट होता है।
प्रक्रियात्मक न्याय आधुनिक उदारवादी विचारकों द्वारा दी गयी विचारधारा है, जो न्याय के परंपरावादी स्वरूप के (व्यक्ति प्रधानता) नजदीक दिखायी देती है। इन विचारकों का मानना है कि मूल्यवान वस्तुओं, सेवाओं, लाभों आदि के आवंटन की प्रक्रिया न्यायपूर्ण हो, किसको क्या मिला इस पर विवाद न हो। वहीं तात्विक न्याय के समर्थकों का मानना है कि केवल प्रक्रिया ही नहीं अपितु इन लाभ्ज्ञों का वितरण की न्यायपूर्ण होना चाहिए। स्पष्ट है कि प्रक्रियात्मक न्याय का स्वरूप कानूनी एवं औपचारिक न्याय से मिलता-जुलता है, वहीं तात्विक न्याय, सामाजिक न्याय को पाने के लिए प्रयासरत दिखता है।
प्रक्रियात्मक न्याय से संबंधित विचारकों का मानना है कि न्याय का कार्य केवल व्यक्तियों के परस्पर संबंधों को नियमित करना है, अर्थात् न्याय दौड़ की प्रतियोगिता की भांति है, जिसमें राज्य का कर्तव्य केवल यह देखता है कि कोई उत्तेजक दवा का प्रयोग तो नहीं कर रहा है। स्पष्ट है कि प्रक्रियात्मक न्याय बाजार अर्थव्यवस्था के नियमों को ही मानव व्यवहार का रूप समझ लेते हैं, क्योंकि ये राज्य से पूर्वाग्रह रूपी बंधनों को त्यागते हुए सभी को स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा हेतु छोड़ने की बात करते हैं एवं ऐसी से समाज के अधिकतम विकास को संभव मानते हैं।
प्रक्रियात्मक न्याय के विपरीत तात्विक न्याय सिद्धांत समाजवाद से जुड़ी हुयी आधुनिक अवधारणा है जो सामाजिक न्याय की धारणा के अनुरूप दिखती है। इनका मानना है कि जब तक समाज संपूर्ण सामाजिक संपदा एवं उत्पादन के साधनों तथा सामाजिक जीवन से प्राप्त होने वाले लाभों के वितरण पर अपना नियंत्रण स्थापित नहीं करता, तब तक यह वितरण न्यायपूर्ण नहीं हो सकता। इनके अनुसार न्याय का लक्ष्य कानूनी राजनैतिक सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रें में विषमता को दूर करना है, जिससे कि सामाजिक विकास का लाभ कुछ निश्चित लोगों के हाथों में सिमटकर न रह जाये जबकि हम देखते हैं कि प्रक्रियात्मक न्याय में वंचित समूह सक्षम लोगों के शर्त पर कार्य करने को विवश हेागा।
(i) न्याय की उदारवादी अवधारणाः (i) जॉन राल्स के विचारः रॉल्स अपने न्याय सिद्धांत को शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय की संज्ञा देते हैं, जिससे आशय है कि न्याय का जो भी सिद्धांत (प्रक्रिया) सर्वसम्मत से स्वीकार कर लिया जायेगा, उसके प्रयोग के उपरांत जो की वितरण व्यवस्था अस्तित्व में आयेगी, वह अनिवार्यतः न्यायपूर्ण होगी। रॉल्स के अनुसार न्याय की मुख्य समस्या प्राथमिक वस्तुओं के न्यायपूर्ण वितरण की है। प्राथमिक वस्तुओं से इनका आशय स्व, अधिकार, शक्ति, अवसर एवं संपत्ति से है। इनके वितरण को रॉल्स प्रक्रियात्मक न्याय सिद्धांत से संभव मानते हैं।
रॉल्स का न्याय सिद्धांत इनकी पुस्तक । A Theory of Justice (1971) में वैसे समय पर प्रतिपादित हुआ, जब यूएसए में अल्पसंख्यक अश्वेतों का आंदोलन अपनी पराकाष्ठा पर था एवं यह माना जाने लगा था कि पूंजीवादी एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था भले ही सफल रही हो, पर उसने आय, संपदा एवं शक्ति में ऐसी विषमताएं पैदा कर दी हैं, जिन्हें उचित नहीं माना जा सकता। आंदोलनकारी इन विषमताओं के उन्मूलन हेतु न्याय की मांग कर रहे थे। ऐसे समय में रॉल्स ने अपने न्याय सिद्धांत को आय एवं संपत्ति वितरण के ठोस सिद्धांत के रूप में प्रतिपादित किया।
रॉल्स कहते हैं कि यदि सभी व्यक्तियों को उनकी सामाजिक, आर्थिक हैसियत से पृथक करके एक काल्पनिक स्थिति में रख दिया जाए तो ऐसी स्थिति में सभी व्यक्ति खुद को हीनतम स्थिति में होने की आशंका से ग्रस्त हो जायेंगे। रॉल्स इस काल्पनिक स्थिति के मूल स्थिति का नाम देते हैं जिसमें सभी व्यक्ति अज्ञान के पर्दे के पीछे होता है, ऐसी दशा में सभी लोगों की एक ही मांग होगी, हीनतम स्थिति बालों के लिए अधिकतम लाभ की व्यवस्था होनी चाहिए। इस समय न्याय के निम्न सिद्धांत स्वीकार करेंगेः
(i)प्रत्येक व्यक्ति को बुनियादी स्वतंत्रता का समान अधिकार मिलना चाहिए और यही अधिकासर अन्य व्यक्तियों को भी प्राप्त होना चाहिए। रॉल्स इसे समान स्वतंत्रता का सिद्धांत कहते हैं।
(ii)सामाजिक एवं आर्थिक विषमताएं इस ढंग से व्यवस्थित की जाये कि
(i)इससे हीनतम स्थिति वाले लोगों को अधिकतम लाभ प्राप्त हो, इसे भेद मूलक सिद्धांत कहते हैं।
(ii)ये विषमताएं उन पदों और स्थितियों के साथ जुड़ी हों, जो अवसर की उचित समानता की शर्तों पर सबके लिए सुलभ हो। इसे अवसर की उचित समानता का सिद्धांत नाम देते हैं।
विवाद की स्थिति में सिद्धांत एक को सिद्धांत दो पर प्राथमिकता दी जायेगी एवं 2 (b) 2(i) पर प्राथमिकता पायेगा। जैसे सिद्धांत दो के किसी विषमता मूलक फायदे के लिए सिद्धांत एक की निहित स्व का बलिदान नहीं किया जा सकता।
रॉल्स के नाम सिद्धांत की मुख्य विशेषता यह है कि उसने सीधे बाजार व्यवस्था को प्रक्रियात्मक न्याय का प्रारंभ नहीं स्वीकारा जैसा कि हेयक नौजिक एवं फ्रीडमैन जैसे उदारवादी करते हैं अपितु रॉल्स प्रक्रियात्मक न्याय को सामाजिक न्याय का उपकरण बनाने का प्रयास करते हैं। भेदमूलक सिद्धांत के अनुसार कोई भी विशेष पुरस्कार पाने का हकदार होगा, जब वह अपनी प्रतिभा का प्रयोग हीनतम लोगों के कल्याण के लिए करने को तैयार हो।
प्रश्न है कि सक्षम लोग ऐसा क्यों करेंगे। रॉल्स का कहना है कि हमारा सामाजिक जीवन सहयोग पर चलता है, अतः अधिक प्रतिभाशाली लोग कम प्रतिभाशाली लोगों के साथ मिलकर ही अपनी प्रतिभा तथा अवसरों का लाभ उठा सकेंगे। रॉल्स के अनुसार समाजरूपी श्रंखला को मजबूत करने के लिए इसकी सबसे कमजोर कड़ी को मजबूत करना होगा, क्योंकि कोई भी जंजीर अपनी सबसे कमजोर कड़ी से ज्यादा मजबूत नहीं होती है। यह प्रक्रिया दोहराते रहने पर ही पूरा समाज सुदृढ़ हो सकेगा और यही न्याय की उचित एवं आदर्श अवस्था होगी।
आलोचनाः (i) रॉल्स पर पूंजीवादी व्यवस्था के औचित्य को सिद्ध करने का आरोप लगता है। ये धनवानों के विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखते दिखाई देते हैं। उनके लाभ से निर्धन के कल्याण की बात स्वीकारते हैं किंतु उनका लाभ बहुतायत निम्न वर्ग के कल्याणार्थ कैसे खर्च होगा, यह नहीं बताते।
(ii) सिद्धांत में विरोधाभास है, पहला सिद्धांत सभी के लिए समान स्व को बात करता है, वहीं दूसरा सिद्धांत असमानता को न्यायोचित ठहराता है।
(iii) यह सिद्धांत एक काल्पनिक पूर्व मान्यता पर टिका हुआ है, जिसके व्यवहार में मूर्त न होने से पूरा सिद्धांत काल्पनिक बन जाता है, फिर भी रॉल्स का न्याय सिद्धांत महत्ता रखता है, क्योंकि रॉल्स स्पष्ट कहते हैं कि न्याय की प्रक्रिया निर्धारित करते समय सामाजिक न्याय के लक्ष्य को ध्यान में रखना जरूरी है।
नॉजिक का न्याय विचार (योग्यतावादी न्याय सिद्धांत):
न्याय सिद्धांत के वर्णन के क्रम में नॉजिक न्याय के दो सिद्धांत प्रस्तुत करते हैंः
(i) न्याय का एतिहासिक सिद्धांत, जिसके अनुसार लोगों की अतीत की परिस्थितियां और कार्यों के आधार पर वर्तमान स्थिति भिन्न-भिन्न हो सकती है।
(ii) न्याय का साध्यमूलक सिद्धांतः यह भविष्य से संबंधित है, जिसके अनुसार लोगों के अधिकार किन्हीं विशेष लक्ष्यों की पूर्ति के उद्देश्य से निर्धारित करना चाहिए।
ऐतिहासिक सिद्धांत का समर्थन करते हुए नॉजिक समाज में भेद या विषमता को स्वीकारते हुए यदि अतीत में कोई गलत संपत्ति का हस्तांतरण हुआ है, तभी उसे बदला जाये। सही ढंग से हुए संपत्ति हस्तांतरण को राज्य द्वारा छेड़ना गलत होगा। नॉजिक का कहना है कि समाज में उत्पादन के स्तर पर जो असमानताएं पायी जाती हैं, उसे वितरण के स्तर पर बदलने का प्रयत्न विनाशकारी होगा। राज्य द्वारा संपदा अधिकारों में हस्तक्षेप का अर्थ होगा व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन करना। इस रूप में राज्य के समस्त कल्याणकारी कार्यक्रम अवैध है।
उदाहरणः रेगिस्तान या मरूथल में पानी का यदि एक ही स्रोत हो, उस पर किसी एक व्यक्ति का नियंत्रण गलत होगा, राज्य इसे मान्यता न दे, किंतु यदि कोई प्राणरक्षक दवा बनाकर मंहगें दाम पर बेचे तो यह उचित होगा। किंतु दूसरों को वैसी दवा न बनाने दे, यह पुनः अनुचित होगा।
स्पष्ट है कि नॉजिक अपने तर्कों से प्रतिस्पर्धात्मक समाज को न्यायपूर्ण समाज के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और आर्थिक असंतुलन पर ध्यान न देकर हीन वर्गों के लिए कोई भी व्यवस्था नहीं करते।
हेयक का न्याय विचारः उपरोक्त दोनों की तरह ये भी प्रक्रियात्मक न्याय के समर्थक हैं। इनके मत में सामाजिक न्याय का विचार निरर्थक है। न्याय मनुष्य के आचरण की विशेषता है। कोई समाज न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण नहीं होता। न्याय केवल प्रक्रिया का विषय है, जिसका लक्ष्य स्वतंत्रता को बढ़ावा देना होना चाहिए। इनके अनुसार सभी को योग्यतानुरूप हित पूर्ति के अवसर मिलने चाहिए।
हेयक के मत में संसाधन इतने सीमित हैं कि सबकी आवश्यकता पूर्ति रूपी सामाजिक न्याय की नीति अपनाने परअधिकारी तंत्र को इन संसाधनों के मनमाने वितरण की शक्ति प्राप्त हो जायेगी, जो स्वतंत्रता को क्षति पहुंचायेगी। जबकि हेयक स्वतंत्रता के संवर्धन (विकास) को ही न्याय के रूप में स्वीकारते हैं।
फ्रीडमैन का न्याय विचारः इनके अनुसार सरकार का कार्य बाजार व्यवस्था को केवल सहारा देना है एवं उससे बचे कार्यों को पूरा करना है, उस पर नियंत्रण रखना नहीं। जो राज्य अपनी शक्ति का प्रयोग करके अर्थव्यवस्था के केंद्रीय निर्देशन का प्रयास करता है, वह व्यक्ति की स्वतंत्रता को नष्ट कर देता है। इस रूप में समाजवादी व्यवस्था की आलोचना करते हुए फ्रीडमैन प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद को ही उचित सामाजिक व्यवस्था के रूप में स्वीकारते हैं, जिसमें निजी उद्यमी को स्वतंत्र विनियमन करने का पूरा अवसर होता है, यही न्याय की यथोचित व्यवस्था है।
न्याय की मार्क्सवादी अवधारणाः मार्क्स प्रत्येक को अपने योग्यता के आधार पर वितरण की जगह आवश्यकता के अनुरूप वितरण का समर्थन करते हैं। न्याय की मार्क्सवादी अवधारणा में समुदाय के प्रति प्रतिबद्धता दिखाकर सामान्य हित को पाने की बात की गयी है। मार्क्सवादी विचारकों के अनुसार न्याय का नियम बताते समय यह देखना चाहिए कि यह नियम किसके लिए है। सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक वस्तुओं के वितरण के लिएभिन्न-भिन्न मापदंड लागू करने होते हैं।
सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के लिए तदनुरूप भिन्न-भिन्न नियमों को स्वीकारना होगा। मार्क्सवादीअवधारणा को मानने वाले विचारक न्यायपूर्ण व्यवस्था को विकेंद्रीकृत लोकतांत्रिक समाजवाद व्यवस्था के प्रतिरूप में स्वीकारते हैं, जिसमें सभी क्षेत्रें के लिए जरूरत के अनुरूप छूट एवं आवश्यकता के अनुरूप वजन स्वीकार किये जायेंगे।
पूंजीवादी व्यवस्था के अन्याय को उभारने के कम में मार्क्स एवं एंजेल्स द्वारा न्याय प्रत्यय पर विचार किया गया है, जिसमें मार्क्स का मानना था कि अभाव एवं वर्गभेद को जन्म देने वाली परिस्थितियां जब पूर्णतया समाप्त हो जायेंगी तब राज्य स्वतः न्यायपूर्ण हो जायेगा, जो क्रांति के उपरांत स्थापित मार्क्सवादी राज्य में ही संभव होगा।
न्याय के मापदंडों का विकासः विभिन्न व्यक्तियों के बीच वस्तुओं, सेवाओं व लाभों का आवंटन उचित ठहराया जा सके, इस संदर्भ में न्याय का मापदंड क्या होना चाहिए। इसकी निम्नलिखित तीन मापदंड ही प्राचीन से लेकर आधुनिक न्याय सिद्धांतों का आदर्श रहे हैं (Social Justice 1976 डिविड मिलर) के अनुसारः
(i)स्वीकृत अधिकारों का संरक्षण, जिसे जिसे डेविड ह्यूम ने प्रतिपादित किया था। इस मापदंड को आदर्श मानने से श्रेणी तंत्री समाज अस्तित्व में आयेगा।
(ii)योग्यता के अनुरूप वितरण (by हरबर्ट स्पेंसर): इसके अनुपालन से प्रतिस्पर्धात्मक बाजार अस्तित्व में आयेगी एवं एक प्रतियोगी समाज कर निर्माण होगा।
(iii)आवश्यकता अनुरूप वितरण- (by पीटर क्रापरकिन): इस सिद्धांत के अनुपालन से समतावादी समुदाय अस्तित्व में आयेगा।
उपरोक्त मापदंड न्याय सिद्धांतों के क्रमिक विकास को परिलक्षित करते हैं, किंतु समस्या यह है कि प्रथम सिद्धांत को मानने पर सामाजिक विषमताओं को मान्यता मिलेगी एवं उन्हें दूर करना भी संभव नहीं हो। द्वितीय सिद्धांत को मानने पर नाममात्र के लोग ही लाभों को बांट लेंगे। अधिकांश लोग इन लाभों से वंचित रह जायेंगे तथा तीसरे सिद्धांत की समस्या यह है कि आवश्यकता का निर्धारण करना आसान नहीं होगा। साथ ही आवश्यकताओं की सुलभ उपलब्धता से समाज का विकास अवरूद्ध होगा। अतः सामाजिक न्याय की योजना इस रूप में बनायी जानी चाहिए किः
(i) सभी स्वस्थ्य व्यक्तियों के लिए न्यूनतम श्रम अनिवार्य हो।
(ii) जीवन निर्वहनीय आवश्कताएं सबकी पूरी होनी चाहिए।
(iii) अतिरिक्त श्रम के लिए अतिरिक्त पुरस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए।
उपरोक्त तीनों को ही संभावित रूप में न्याय के मापदंड के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, किंतु इसकी प्राप्ति भी तभी संभव होगी जब सर्वसाधारण में जाग्रति लायी जा सके, जिससे कि वे स्वार्थी तत्वों पर प्रभावी अंकुश लगा सके।
न्याय का स्वतंत्रता समानता से संबंधः जो समाज मनुष्य को नागरिक सामाजिक एवं आर्थिक स्वतंत्रताएं प्राप्त कराता है, उसे ही हम न्यायपूर्ण समाज कहते हैं, किंतु इन स्वतंत्रताओं का उपभोग करने वाले व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह कोई ऐसा कृत्य न करे जिससे दूसरे लोगों को स्वतंत्रता से वंचित होना पड़े।
ऐसी मान्यता है कि सरकार को व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित नहीं करनी चाहिए एवं इसे न्याससंगत माना जाता है, किंतु जिस प्रकार संकटकाल में, राष्ट्र की अखंडता पर कोई खतरा उत्पन्न होने की दशा में मौलिक अधिकार निलंबित किये जा सकते हैं एवं इसे उचित भी माना जाता है, इसी प्रकार कुछ विशेष वर्गों के लोगों की स्वतंत्रता को भी सीमित करके शोषित वर्ग को अधिकार प्रदान करने का राज्य का प्रयास सर्वथा न्यायसंगत माना जायेगा, क्योंकि वंचित वर्ग को भी स्वतंत्रता के उपभोग का वैसा ही अधिकार है, जितना समाज के अन्य वर्गों को है।
निष्कर्ष रूप में अन्यायपूर्ण स्थिति को समाप्त करने के लिए स्वतंत्रता को सीमित किया जा सकता है। यह विचार समतावादियों द्वारा दिया गया है जो तात्विक न्याय में विश्वास करने के कारण न्याय की प्राप्ति हेतु स्वतंत्रता को सीमित करना जायज ठहराते हैं, बशर्ते समाज में इससे समता स्थापित थे। समतावादियों का मानना है कि समता सदैव न्याय संगत होती है जबकि विषमता को न्याय संगत उसके लिए तर्क की जरूरत पड़ती है।
दूसरी तरफ वे स्वेच्छावादी विचारक हैं, जो अरस्तु से पीडि़त हैं, जिनका मानना है कि न्याय केवल प्रक्रिया तक सीमित होना चाहिए। इनके अनुसार समतारूपी न्याय पाने के क्रम में यदि स्वतंत्रता में कटौती की जायेगी तो वह तनाव एवं कला को बढ़ावा देगी जबकि न्याय का लक्ष्य स्वतंत्रता को बढ़ावा देना होना चाहिए। हेयक के मत में समर्थ एवं साधन संपन्न लोगों की उन्नति में राज्य को रूकावट नहीं डालनी चाहिए, सभी को स्वतंत्र रूप से प्रतिस्पर्धा हेतु छोड़ना ही न्याय है।
यदि न्याय का उद्देश्य व्यापक कल्याण स्वीकारा जाये तो स्वेच्छातंत्रवादियों की बात पूर्णतया नहीं स्वीकारी जा सकती, अतः राज्य द्वारा व्यापक हित में स्वतंत्रता पर अंकुश लगाना न्याय संगत स्वीकारा जा सकता है इस रूप में न्याय एवं स्वतंत्रता के साथ समानता के मूल्य की प्रापित भी संभव हो सकेगी, जो न्याय की आदर्श अवस्था होगी।
न्याय एवं समानता संबंधः अरस्तु ने कहा था कि न्याय का अर्थ है- समान लोगों के साथ समान व्यवहार .......। निष्कर्ष है कि राज्य में समानता के विचार को बढ़ावा न दिया जाये, अन्यथा क्रांति की संभावना बन सकती है, क्योंकि नागरिक के रूप में समान होना सोचकर व्यक्ति हर तरह से समान होने की बात सोचने लगता है एवं संपदा एवं शक्ति में भी विशेषाधिकार युक्त वर्ग के समान होने की बात सोच लेता है, किंतु ऐसा संभव न होने पर अन्याय की अनुभूति के साथ उसके अंदर घृणा एवं वैमनस्य का संचार होता है एवं वह विद्रोह की बात सोचने लगता है। न्याय समानता संबंध में एकल वर्ग अरस्तु प्रेरित है, जो मानता है कि न्याय की तलाश राज्य केवल प्रक्रिया के निर्माण तक करे। तात्विक स्तर पर समानता लाने का प्रयास न करे। वस्तुतः ये लोग स्वेच्छावादी हैं जो न्याय का अर्थ स्वतंत्रता को मानते हुए न्याय एवं समानता को एक साथ साकार होना संभव नहीं मानते। ये प्रक्रियात्मक न्याय को मान्यता देते हैं जिसमें सबको स्वतंत्र प्रतियोगिता हेतु छोड़ना ही न्याय है।
वहीं दूसरी तरफ तात्विक न्याय को मानने वाले समतावादी विचारक हैं जो न्याय से आशय समानता स्थापना का होना मानते हैं। इनका दावा है कि पूरे समाज में अमीर एवं गरीब सभी को समानता के स्तर पर लाने पर ही न्याय की तत्वतः प्राप्ति संभव हो सकेगी, जिसके लिए प्रक्रिया के साथ-साथ नियमों एवं सिद्धांतों के अनुपालन की जिम्मेदारी भी राज्य को स्वीकारनी होगी। ये विचारक कानूनी, राजनैतिक तथा समाजार्थिक क्षेत्रें में अनुचित विषमताओं को दूर करना ही न्याय मानते हैं, जिससे व्यापक समाज विकास एवं जनकल्याण के लक्ष्य को पाना संभव हो सकेगा और यही न्याय का आधुनिक आदर्श भी है।
Question : न्याय का अर्थ योग्यातानुसार प्रतिफल प्राप्त करना है, जो व्यक्ति समाज को जितना देता है उसी के अनुरूप प्रतिफल का वह सहभागी है। समाज को अधिक देने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति से अधिक प्रतिफल का भागी है जो समाज को उससे कम देता है। किसने समाज को कितना दिया, उसका निर्धारण करने का एकमात्र निष्पक्ष तरीका है कि लोग सामूहिक रूप से युक्त बाजार के माध्यम से इसे निश्चित करें। अतएव मुक्त बाजार न्याय प्राप्ति का एकमात्र तरीका है। क्या आप उपर्युक्त मत से सहमत हैं? अपने उत्तर को प्रतिपादित करें।
(2001)
Answer : जब हम तात्विक न्याय की बात करते हैं, तब हम समाज की संपूर्ण व्यवस्था को इस दृष्टि से परखने लगते हैं कि वह न्याय के अनुरूप है या नहीं? सामाजिक न्याय के अंतर्गत तीन ऐसी कसौटियों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर विभिन्न विचारक न्याय की समस्या का समाधान ढूंढते हैं। इनमें एक है योग्यता के अनुरूप वितरण। यह खुले बाजार व्यवस्था का पोषक है। यदि योग्यता के अनुरूप वितरण को ही न्याय मान लें तो भी वर्तमान व्यवस्था में कोई आमूल परिवर्तन संभव नहीं, क्योंकि योग्यता अर्जित और विकसित करने के अवसर भी गिने चुने लोगों के अधिकार में रहेंगे और जनसाधारण को इस बहाने सुख सम्पत्ति से वंचित रखा जाएगा कि उनमें योग्यता ही नहीं।
वस्तुतः सुविधा की दृष्टि से सामाजिक जीवन के तीन मुख्य क्षेत्रें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रें का उल्लेख करते हैं, इसलिए न्याय की बात करते समय भी हम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की चर्चा करते हैं। परंतु वास्तव में ये तीनों न्याय के एक ही सिद्धांत के प्रयोग क्षेत्र हैं। ये तीनों एक दूसरे के पुरक है, इसलिए एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। व्यापक अर्थ में सामाजिक न्याय से सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक तीनों तरह के न्याय का बोध होता है। सीमित अर्थ में सामाजिक न्याय का तात्पर्य यह है कि सामाजिक जीवन में सब मनुष्यों की गरिमा स्वीकार की जाए। स्त्री पुरुष, गोरे-काले या जाति, धर्म, क्षेत्र बुद्धि के आधार पर किसी व्यक्ति को बड़ा छोटा या ऊंचा-नीचा न माना जाए, शिक्षा और उन्नति के अवसर सबको समान रूप से प्राप्त हो और सब लोग मनुष्य के नाते मिलजुलकर साहित्य, कला, संस्कृति और तकनीकी साधनों का उपभोग और उपयोग कर सकें। अगर आर्थिक न्याय की बात करें तो इसका अर्थ यह है कि उत्पादन की प्रक्रिया में कोई व्यक्ति दूसरों के जीवन को नियंत्रित करने और उनसे मनमानी शर्तों पर काम कराने की शक्ति प्राप्त न कर ले बल्कि सब लोगों को अपनी-अपनी योग्यता और परिश्रम के अनुसार उचित लाभ या पुरस्कार प्राप्त करने का अवसर मिले। बाजार की स्थिति में कोई व्यक्ति मनमानी शर्तों पर दूसरों को वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करने की शक्ति प्राप्त न कर ले, बल्कि सबको अपनी-अपनी क्षमता और आवश्यकता के अनुसार उचित शर्तों पर अपेक्षित वस्तुएंऔर सेवाएं प्राप्त हो सके। राजनीतिक न्याय से अभिप्राय यह है कि सार्वजनिक नीतियां निर्धारित करने की प्रक्रिया में सबको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिस्सा लेने का अवसर और अधिकार प्राप्त हो सार्वजनिक शक्ति का प्रयोग सबके हित को ध्यान में रखकर किया जाए, सब व्यक्तियों को अपने अपने हितों की सिद्धि के लिए तथा अपनी-अपनी समझ से सार्वजनिक हित की सिद्धि के लिए अपने विचारों को व्यक्त करने, उपयुक्त संगठन बनाने, सभाएं करने, दूसरों को समझाने-बुझाने, इत्यादि की पूरी स्वतंत्रता हो और शांति, व्यवस्था तथा नैतिक भावना को कोई क्षति पहुंचाए बिना भिन्न-भिन्न और विरोधी विचारों के प्रति सहिष्णुता बरती जाए।
सामाजिक न्याय का मूल मंत्र यह है कि संगठित सामाजिक जीवन से जो भी लाभ प्राप्त होते हैं वे गिने लोगों के हाथों में सिमटकर न रह जाए बल्कि सर्वसाधारण को विशेषतः श्रमजीवी वर्ग को उनमें समुचित हिस्सा मिले ताकि वह सामान्यतः सुखी, सम्मानित और निश्चित जीवन जी सके। श्रमजीवी वर्ग में दैनिक श्रम करने वाले लोग तो आयेंगे ही, बौद्धिक श्रम करने वाले लोग भी इसी वर्ग में आएंगे। सामाजिक न्याय की मांग है कि श्रम और संपत्ति का सीधा संबंध श्रम और कर्तव्य पालन से होना चाहिए, विशेषाधिकार, परंपरा या उत्तराधिकार से बड़ा संपत्ति का अधिकार वहीं तक मान्य होना चाहिए जब संपत्ति भ्रम की हाथ में से बचत करके संचित की गयी हो और यह संपत्ति व्यक्ति के सामान्य सुख तथा उसकी कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए आवश्यक हो। जाहिर है जब श्रम के साथ संपत्ति का सीधा संबंध स्थापित हो जाएगा तब घोर आर्थिक विषमताएं अपने आप कम हो जाएंगी या शायद लुप्त हो जाएंगी, क्योंकि व्यक्ति में श्रम की क्षमता तो आखिर सीमित होती है। इसका दूसरा परिणाम यह भी होगा कि जो व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार श्रम नहीं करता, उसे संपत्ति का अधिकार तो क्या, जीने का अधिकार भी नहीं होगा। निर्बल, अपंग या असहाय लोगों की बात दूसरी है, जिन्हें मानववादी भावना की प्रेरणा से जीने का अधिकार अवश्य दिया जाएगा।
आर्थिक विषमताएं समाप्त हो जाने पर सामाजिक संपदा किसी वर्ग के हाथ की कठपुतली नहीं रह जाएगी बल्कि वह समाज की सेविका बन जाएगी। तभी सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो सकेगा, क्योंकि तब चुनाव जनता का सच्चा विश्वास प्राप्त करके जीते जायेंगे पैसे की ताकत से नहीं। तब शिक्षा और आत्मविकास के अवसर सबको समान रूप से उपलब्ध होंगे, पैसे बातों के लिए विशिष्ट संस्थाएं नहीं रहने दी जाएगी, तब न्यायालयों में मुकदमा वही लोग नहीं जीत सकेंगे, जो पैसे के बल पर सबसे प्रतिभाशाली वकील को अपनी वकालत के लिए खड़ा कर सकेंगे, बल्कि न्याय की तुला में कोई पासंग नहीं रहेगा।
अन्याय खुले बाजार के व्यापार में होता है, जहां पूंजीपति अपना मायाजाल फैलाकर निर्धन और बेबस मजदूर को मरने खपने के लिए मजबूर कर देता है, जहां मांग और पूर्ति के नियम को न्याय का मापदंड बना दिया जाता है और उसकी आड़ में इंसान भी आलू गोभी की तरह बेभाव बिक जाता है जहां एक विशिष्ट वर्ग बाजार भाव का हवाला देकर सीधे-सच्चे आदमी की नेक कमाई को हड़पकर गुलछर्रे उड़ाता है। इस प्रक्रिया में संपत्ति के स्वामी को बहुत कम श्रम करना पड़ता है, परंतु दूसरे के श्रम के बल पर उसकी संपत्ति दिन-दूनी और रात चौगुनी बढ़ती चली जाती है। जाहिर है कि इस व्यवस्था के अंतर्गत श्रम करने वाले को पूरा पारिश्रमिक नहीं दिया जाता बल्कि पूंजीपति उसका हिस्सा हड़प लेता है। निजी संपत्ति के स्वामियों को अपरिचित लाभ मिलने लगता है और संपन्न वर्ग और संपन्न होता चला जाता है।
Question : कुछ विचारक स्वतंत्रता को दो परस्पर अपरिवर्तनीय अर्थों निषेधात्मक एवं सकारात्मक में विभेदन करते हैं। इनकी व्याख्या एवं मूल्यांकन करें।
(2001)
Answer : स्वतंत्र शब्द दो शब्दों स्व तथा तंत्र के योग से बना है। स्व का अर्थ है स्वयं तथा तंत्र का अर्थ व्यवस्था से है, अतः स्वयं के लिए व्यवस्था बनाना ही स्वतंत्रता है।
स्वतंत्रता के आदर्श की संकल्पना का विकास विभिन्न कालों में विशिष्ट सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों से उठी समस्याओं के प्रत्युत्तर में विभिन्न विचारकों ने अपने अपने ढंग से किया है। स्वतंत्रता की अवधारणा वैसे तो आधुनिक काल में ही स्पष्ट हुई, लेकिन प्राचीन काल तथा मध्य युग में भी स्वतंत्रता की धारणा किसी न किसी रूप में मौजूद रही। जहां प्राचीन काल में ग्रीक विचार के अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ या समाज या राज्य की गतिविधियों में हिस्सा लेना वहीं मध्य युग में स्वतंत्रता को आत्मा की स्वतंत्रता तथा मुक्ति के संदर्भ में समझा गया, परंतु पुनर्जागरण के साथ आरंभ हुए आधुनिक युग में स्वतंत्रता का अर्थ बहुआयामी हो गया। अब स्वतंत्रता का अर्थ था- व्यक्तिगत स्वतंत्रता सामाजिक स्वतंत्रता, राजनीतिक स्वतंत्रता, आर्थिक एवं धार्मिक स्वतंत्रता आदि।
इस दिशा में पहल उदारवादी विचारधारा के साथ हुआ, जिनके अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ था- बंधनों का अकाल या बंधनों से मुक्ति। यह स्वतंत्रता का नकारात्मक प्रारूप था। इस समस्या उदारवादियों की स्वतंत्रता संबंधी अवधारणा के अंतर्गत मानवीय व्यवहार तथा गतिविधियों को क्षेत्रें में विभाजित कर दिया गया। व्यक्तिगत अथवा निजी क्षेत्र जिसमें मानवीय चेतना के आंतरिक पक्षों से संबंधित गतिविधियों को सम्मिलित किया गया। इसमें विचार, भावनाओं, रूचियों इत्यादि को प्रमुखता दी गयी। चेतना के आंतरिक क्षेत्र पर प्रतिबंध अनावश्यक समझे गए क्योंकि इनके अनुसार स्मृतियों, भावनाओं, विचारों इत्यादि का दूसरे के जीवन पर सीधा प्रभाव नहीं पड़ता है। समाज को सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र में आने वाले ऐसे व्यवहार को नियंत्रित करने का अधिकार दिया गया जिसका हानिकारक प्रभाव दूसरों पर पड़ता है। इस विभाजन में आत्मोन्मुखी व्यवहार तथा परोन्मुखी व्यवहार में स्पष्ट भेद स्वीकार किया गया, क्योंकि भावोन्मुखी व्यवहार पर समाज को प्रतिबंध लगाने का कोई अधिकार नहीं दिया गया।
इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग के पीछे यह दर्शन था कि स्वतंत्रता व्यक्ति के विकास के लिए अनिवार्य शर्त है। स्वतंत्रता के अभाव में व्यक्तियों की नैसर्गिक योग्यताओं के विकास नयी क्षमताओं के अर्जन तथा की पूर्ति में अनुचित बाधाएं आ सकती हैं। विशिष्ट मानवीय क्षमताएं जिनमें भावनाएं, बोध तथा ज्ञान मुख्य हैं-विकल्पों के मौलिक चयन में ही अभिव्यक्त होती है, जो व्यक्ति के मौलिक चिंतन पर निर्भर करता है। वैचारिक स्वतंत्रता के अभाव में न तो व्यक्ति का विकास संभव है और न ही समाज की प्रगति। वैचारिक मतभेद की स्वतंत्रता के लिए वैचारिक अभिव्यक्ति तथा व्यक्तिगत रूचियों दोनों की ही स्वतंत्रता आवश्यक है।
वस्तुतः व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग उभरते हुए पूंजीवाद की आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक आवश्यकता थी ताकि सामंतवाद और पोपशाही को चुनौती दी जा सके। बंधनों से मुक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ था संपत्तिशाली को स्वतंत्रता जिसके लिए राजनैतिक शक्ति के नियंत्रण को क्रम से क्रम करने की बात शामिल थी।
परंतु उदारवादी चिंतन परंपरा में परोन्मुखी तथा आत्मोन्मुखी कणों के भेद को उचित नहीं ठहराया जा सकता। हम अपने विशिष्ट समाज की परंपराओं रीति रिवाजों के परिवेश में पलते हैं और उसे परिवेश में निजी और सार्वजनिक व्यक्तिगत और सामाजिक में भेद करना सीखते हैं। ऐसी स्थिति में कई बार जो पहले सिर्फ आत्मोन्मुखी ही प्रतीत होता है बाद में उसका परोन्मुखी ही प्रतीत होता है बाद में उसका परोन्मुखी स्वरूप भी दृष्टिगोचर होता है। उदाहरणतया अपनी सुविधा के लिए एक कार रखना प्रारंभ में नितांत आत्योन्मुखी प्रतीत हो सकता है, परंतु यदि सभी लोग उसको निजी उद्देश्य मानकर पालन करे तो पर्यावरण के दूषण तथा प्राकृतिक साधनों को विलुप्ति के हानिकारक परिणाम सिर्फ आत्मोन्मुखी नहीं परोन्मुखी भी माने जाएंगे।
उदारवादी परंपरा के लिए आत्मोन्मुख तथा परोन्मुखी के भेद के अतिरिक्त स्वतंत्रता के अर्थ हित-अहित के निर्धारण से है। कई स्थितियों में हम अपने व्यवहार से अपना हित तो करते हैं यह समझकर कि दूसरे का अहित नहीं हो रहा है, परंतु उसका प्रत्यक्ष और तात्कालिक परिणाम न होते हुए भी अप्रत्यक्ष तथा दीर्घकालिक परिणाम दूसरे के अहित में जा सकता है। उदाहरणतया उपभोक्तावादी समाज की व्यवस्था के कई पक्ष ऐसे हैं जिनमेंसंशोधन न लाया जाए तो आनेवाली पीढ़ी के लिए गंभीर दुष्परिणाम पैदा हो सकते हैं।
अतः स्वतंत्रता के प्रश्न को व्यक्ति तथा समाज के अनिवार्य विरोधी स्वातंत्रय में न देखकर समुचित परिप्रेक्ष्य में देखा जाना उचित है। इसी संदर्भ में सकारात्मक, स्वतंत्रता की अवधारणा उभर कर सामने आयी। संपत्तिशालियों की नकारात्मक स्वतंत्रता समझौते की स्वतंत्रता थी, जिनमें स्वतंत्र बाजार व्यवस्था के द्वारा मजदूरों एवं गरीबों की स्थिति काफी दयनीय हो गयी। अतः मानववादियों काल्पनिक समाजवादियों तथा वैज्ञानिक समाजवादियों द्वारा सकारात्मक स्वतंत्रता की मांग की जाने लगी। सकारात्मक स्वतंत्रता को बंधनों का अभाव न समझकर वैसी सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के रूप में देखा गया, जिसमें हर व्यक्ति स्वतंत्रता का उपभोग कर सके तथा जहां समानता न्याय तथा अधिकार जैसे मूल्य एवं आदर्श को बनाए रखने के लिए राज्य की भूमिका को आवश्यक माना गया।
इस तरह स्वतंत्रता के दो पहलू दृष्टिगोचर होते हैं- नकारात्मक एवं सकारात्मक, जिनके बारे में विचारकों ने अलग-अलग दर्शन प्रस्तुत किया है।
मिल के विचारः मिल ने व्यक्ति के कार्यों को दो भागों में बांटा है-व्यक्तिगत कार्य एवं सामाजिक कार्य। व्यक्तिगत कार्य वे हैं, जिनका प्रभाव केवल समाज पर पड़ता है तथा हर व्यक्ति को वह कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। सामाजिक कार्य वे हैं जिनका प्रभाव समाज पर पड़ता है, परंतु मिल अधिकतर कार्यों को व्यक्तिगत बताकर राज्य द्वारा व्यक्ति पर प्रतिबंध को बुरा मानते हैं, क्योंकि इसमें तानाशाही बढ़ने का खतरा है। बार्कर ने इसे खोखली स्वतंत्रता कहा है।
फ्रायामैन के विचारः इसके अनुसार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को राजनैतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता है। अतः वे राज्य के जनकल्याण के तमाम कार्यों तथा समाज में अर्थव्यवस्था के नियमन भी तमाम गतिविधियों को अनुचित ठहराकर नकारात्मक राज्य की अवधारणा को स्वीकार करते हैं। दरअसल वे पूंजीवादी व्यवस्थाकी खामियों को नजरअंदाज कर देते हैं।
इसाह बर्लिन के विचारः स्वतंत्रता तथा स्वतंत्रता की परिस्थितियों (सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था) दोनों अलग चीजें हैं। यह दोषपूर्ण है।
नकारात्मक स्वतंत्रता
आलोचनाः
सकारात्मक स्वतंत्रताः लास्की- लास्की के अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ हैः
मैकफरसन के विचारः
सकारात्मक स्वतंत्रता
आलोचनाः
स्वतंत्रता का मार्क्सवादी विचारः
इसमें पहली धारणा निषेधात्मक, दूसरी रचनात्मक तथा तीसरी को स्वाधीनातात्मक कहा जा सकता है। भारतीय समाज में हवाई यात्र पर कोई प्रतिबंध नहीं है, इसलिए पहली धारणा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति हवाई यात्र के लिए स्वतंत्र है। परंतु स्वतंत्रता की दूसरी धारणा के अनुसार प्रत्येक भारतीय हवाई यात्र के लिए स्वतंत्र नहीं है। क्योंकि उनमें से अधिकांश के पास इसके लिए क्षमता अथवा योग्यता नहीं है। रूचिकर तथ्य यह है कि बहुत हैं। तीसरी धारणा के अनुसार स्वतंत्र नहीं है क्योंकि इन लक्ष्यों का चयन वे अपने विवेक से नहीं बल्कि सामाजिक विशेषताओं के कारण करते हैं।
मात्र प्राकृतिक परिस्थितियों पर नियंत्रण, बेहतर जीवन की सुविधाएं, आर्थिक संपन्नता तथा साक्षरता इत्यादि वास्तविक स्वतंत्रता की उपलब्धि के लिए पर्याप्त नहीं है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व तथा गति होती है तथा इनके सामूहिक परिणाम हमारे पूर्ण नियंत्रण में नहीं होते। सिर्फ न्याय के विकल्पों की संख्या बढ़ जाने से ही स्वतंत्रता की सीमा नहीं बढ़ती। चयनों का गुणात्मक पक्ष भी है। उदाहरणतया यदि किसी देश में पांच राजनैतिक दल हैं और सभी दल एक ही थाली के चट्टे बट्टेहैं तो इनमें से चयन करने का अवसर एक छलावा मात्र है। किसी समाज के स्वतंत्र समाज होने के दावे भी सार्थकता इस बात पर निर्भर करती है कि उस समाज के सदस्यों के लिए उपलक्ष्य विकल्प किस प्रकार के हैं और कौन-सी स्थितियों में उपलब्धा हैं। चयन करने की वास्तविक क्षमता के लिए प्रचलित धारणाओं तथा मान्यताओं पर विचार करके उनके मूल्यांकन को योग्यता के अभाव में विकल्पों की प्रचुरता में से चयन का भ्रम ही रहता है। यदि सामाजिक शक्तियों पर सक्रिय नियंत्रण नहीं रखा जाता तो तमाम सुविधाओं के रहते हुए भी वास्तविक स्वतंत्रता सामाजिक जीवन से कोसों दूर रहती है। व्यवहार में चयन के लिए अधिक विकल्पों की संख्या को व्यक्ति के साथ जोड़ना उपभोक्तावादी दृष्टिकोण का शिकार होना ही है।
पुनः जीवन की सुविधाओं का अर्थ स्वतंत्रता की उपलब्धि नहीं है। यदि ऐसा होता तो किसी भी तानाशाही व्यवस्था के नागरिक जिन पर अनेक प्रकार के राजनीतिक सांस्कृतिक प्रतिबंध लगे रहते हैं। जीवन की सभी भौतिक सुविधाओं के उपलब्ध होने पर तानाशाही व्यवस्था से सपने के लिए संघर्ष नहीं करता।
आर्थिक संपन्नता राजनैतिक सत्ता तथा सामाजिक स्वतंत्रता का आपसी संबंध तब स्पष्ट होता है। जब हम यह समझ पाते हैं कि किस प्रकार सामूहिक राजनैतिक गतिविधियों के माध्यम से संपत्ति तथा सत्ता के संबंधों में परिवर्तन आने से सामाजिक स्वतंत्रता की स्थिति में परिवर्तन आते हैं।
अतः प्रचलित सामाजिक व्यवहार का अंधानुकरण करने की अपेक्षा अपनी निष्ठाओं, रूचियों तथा भावनाओं के महत्व और सीमा को पहचानते हुए विवेक तथा चिंतन की क्षमता का उपयोग करते हुए अपनी गतिविधियों को स्वयं निर्धारित करना स्वतंत्रता अर्थात् स्वतंत्रता की अनिवार्य शर्त है।
मानवीय क्षमताओं, बोध, भावनाओं, विवेक का संपूर्ण विकास उन्हीं परिस्थितियों में संभव है जिनमें व्यक्तियों का अपना निर्णय स्वयं लेने की स्वतंत्रता के साथ-साथ उन निर्णयों, धर्मों, व्यवहार के लिए उत्तरदायत्व की भावना भी हो। ऐसी परिस्थितियां लोकतांत्रिक समाजों में ही संभव है।
Question : स्वतंत्रता पर जे.एस.मिल।
(2000)
Answer : जेएस मिल व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। मिल के अनुसार स्वतंत्रता कम से कम मानव गतिविधियों के आत्म संबंधी क्षेत्र में प्रतिबंधों से उन्मुक्तता का नाम है, अर्थात् मानव जीवन में प्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है। इन्होंने तो यहां तक कहा कि यदि सभी मनुष्य एक को छोड़कर एक राय तो और एक मनुष्य उनकी राय का विरोधी हो तो अन्य सभी मनुष्य उस अकेले मनुष्य को चुप कर देने के लिए न्यायतः उचित नहीं ठहराए जायेंगे, यदि वह अकेला व्यक्ति पूरी मानव जाति को चूप कर देने के लिए उचित आधार और शक्ति रखता हो। स्वतंत्रता मनुष्य के लिए उसी प्रकार प्राकृतिक या स्वाभाविक है, जिस प्रकार कि श्वांस लेना या भूख लगना अर्थात् स्वतंत्रता मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार है। जैसे प्रकृति की दृष्टि में सब समान हैं, सबकी समान आवश्यकताएं हैं, वायु जल आदि प्राकृतिक वस्तुओं पर सबका समान अधिकार है, उसी प्रकार सबको प्रकृतितः स्वतंत्रता का अधिकार मिलना चाहिए। समाज में सबको समान आवश्यक अधिकार मिलना चाहिए। इस प्रकार मिल द्वारा स्वतंत्रता की नकारात्मक परिभाषा में प्रतिबंधों के अभाव पर अत्यधिक बल दिया गया है, परंतु देखा यह जाता है कि प्रतिबंधों के अभाव तक स्वतंत्रता को सीमित कर देने से स्वतंत्रता की अवधारणा स्पष्ट नहीं होती है। मिल ने स्वतंत्रता की जो नकारात्मक परिभाषा की है, उसकी अत्यधिक आलोचनाएं अधिकार और स्वतंत्रता के संबंधों को लेकर की गयी हैं। एक आलोचक का तो यहां तक कहना है जो मिल के विचारों में देखने को मिलती है। बार्कर ने अपनी पुस्तक पालिटिकल थॉट इन इंगलैंड में स्पष्ट रूप से कहा कि मिल खोखली स्वतंत्रता व अमूर्त व्यक्तिवाद के अवतार थे। उनके पास अधिकारों का कोई स्पष्ट सिद्धांत नहीं था, जिसके आधार पर ही स्वतंत्रता अपना साकार अर्थ प्राप्त कर सकती है। उन्हें समाज की उस सामाजिक व्याप का ज्ञान नहीं था, जिसकी अनुभूति से राज्य और व्यक्ति के विरोध समाप्त हो जाते हैं। स्वतंत्रता के विचार में मानव जीवन के सामाजिक पहलू को दृष्टि से ओझल नहीं करना चाहिए।
Question : न्याय की अवधारणा को प्रायः वितरणात्मक एवं प्रतिकारी न्याय में विभाजित किया जाता है। इस भेद की व्याख्या कीजिए एवं जिस आधार पर यह भेद किया जाता है उसका आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
(1998)
Answer : सामाजिक न्याय की मांग आधुनिक युग की विशेषता है। राजनीतिक न्याय स्वतंत्रता के आदर्श को प्रमुखता देता है, आर्थिक न्याय समानता के आदर्श को महत्व देता है और सामाजिक न्याय बंधुता के आदर्श को साकार करना चाहता है। इन तीनों को मिलाकर ही सामाजिक जीवन में न्याय के व्यापक आदर्श की सिद्धि की जा सकती है। सभ्यता लंबे इतिहास में धन संपदा, पद-प्रतिष्ठा और शक्ति की विषमताएं प्रायः ऐसी स्थिति के रूप में स्वीकार की जाती रही जिसमें कोई हेर-फेर न किया जा सकता हो। अठारहवीं शताब्दी में जब अमरीकी और फ्रांसीसी क्रांतियों ने इस स्थिति पर प्रश्न-चिन्ह लगाने की प्रेरणा दी तब कहीं यह अनुभव किया गया कि सामाजिक वर्ग व्यवस्था विषमता की जीती जागती मिसाल है। अतः इस व्यापक विवाद हुआ और सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से इसे चुनौती दी गई।
सामाजिक जीवन में न्याय किस रूप में स्थापित किया जाए इस विषय पर प्रक्रियात्मक न्याय और वितरण न्याय के समर्थकों में मतभेद पाया जाता है। प्रक्रियात्मक न्याय ने समर्थक यह मानते हैं कि सामाजिक जीवन से प्राप्त होने वाले लाभों के वितरण के लिएसार्वजनिक निर्णयों तक पहुंचने की प्रक्रिया या विधि न्यायपूर्ण होनी चाहिए, फिर किसे क्या मिलता है, यह विवाद का विषय नहीं है। इसके विपरीत वितरण न्याय के समर्थक यह मानते हैं कि इन लाभों का वितरण न्यायपूर्ण होना चाहिए, इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए इसकी प्रक्रिया में आवश्यक समायोजन किया जा सकता है। देखा जाए तो प्रक्रियात्मक न्याय का स्वरूप कानूनी औपचारिक न्याय से मिलता जुलता है और वितरण न्याय का विचार तात्विक न्याय के निकट आता है। प्रक्रियात्मक न्याय की धारणा उदारवाद के साथ निकट से जुड़ी है। इसके अनुसार न्याय का काम व्यक्तियों या समूहों के परस्पर संबंधों को नियमित करना है। अतः इसके अंतर्गत व्यक्तियों की स्वतंत्रता और समानता के आधार पर नियम निर्धारित कर देने चाहिए, जो सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होते हों। दूसरे शब्दों में, व्यक्तियों के परस्पर संबंध अनुबध की स्वतंत्रता पर आधारित होने चाहिए। राज्य का कार्य यह देखना है कि कोई व्यक्ति या वर्ग छल से या बल से दूसरे व्यक्ति या वर्ग को दबा न जाए। इस विचारधारा के अंतर्गत मनुष्यों के परस्पर व्यवहार की तुलना दौड़ प्रतियोगिता से की जाती है। दौड़ में कौन आगे रहेगा कौन पीछे रह जाएगा, इस बारे में पहले से कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है। दौड़ प्रतियोगिता के निरीक्षक का काम केवल यह देखना है कि कोई प्रतियोगी दूसरे को धोखा न दे, दौड़ के नियमों का उल्लंघन न करे या कोई उत्तेजक दवा लेकर जबर्दस्ती दूसरों से आगे निकलने की कोशिश न करे।
इस तरह प्रक्रियात्मक न्याय बाजार अर्थव्यवस्था के नियमों को मानव व्यवहार का प्रमाण मानता है। इसके अनुसार बाजार तंत्र अपने अन्य उत्पादन के तत्वों को आकर्षित करके उनके सर्वोत्तम प्रयोग के हालात पैदा कर देता है। किसी कृत्रिम सामाजिक नीति के द्वारा क्रम प्रक्रिया में बाधा डालने से दुर्लभ संसाधनों का दुरूपयोग या अपव्यय होगा, जिससे हरेक को नुकसान होगा। प्रक्रियात्मक न्याय के प्रवर्तकों में हर्बर्ट स्पेंसर, राबर्ट नाजिक आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनके अलावा जान राल्स ने प्रक्रियात्मक न्याय और सामाजिक न्याय के सिद्धांत को मिलाकर न्याय के व्यापक सिद्धांत की स्थापना का प्रयत्न किया है।
प्रक्रियात्मक न्याय का सिद्धांत जाति, धर्म, क्षेत्र, त्वचा के रंग, लिंग, भाषा, संस्कृति इत्यादि के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में किसी तरह के भेद-भाव का विरोध करता है और समाज में सब मनुष्यों की समान गरिमा और समान महत्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टि से अब एक प्रगतिशील विचार है, परंतु यह विचार बाजार अर्थव्यवस्था को आदर्श व्यवहार का प्रमाण मानते हुए यह मानकर चलता है कि केवल सबके लिए समान नियम बना देने पर सब मनुष्य अपने परस्पर संबंधों को न्यायपूर्ण ढंग से समायोजित कर लेंगे और सरकार को इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की आवश्यक नहीं है। इस विचार का अनुमोदन करते हुए स्पेंसर ने तो यहां तक कहा कि सरकार को अपंग लोगों की भी कोई सहायता नहीं करना चाहिए, बल्कि जो कोई जीवन संघर्ष में अयोग्य सिद्ध हो उसे मर-खप जाने देना चाहिए। एफए हेयक ने तर्क दिया है कि सरकार को समाज कल्याण के उद्देश्य से बाजार अर्थव्यवस्था का नियंत्रण करने का विचार छोड़ देना चाहिए। मिल्टन फ्रीडमैन का दावा है कि प्रतिस्पर्द्धात्मक पूंजीवाद ही मुक्त विनिमय अर्थव्यवस्था को सहारा देता है, अतः सरकार को केवल वही मानक अपने हाथ में लेने चाहिए, जिन्हें बाजार अर्थव्यवस्था वहीं संभाल पाती। सरकार का कार्य बाजार अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखना नहीं है, उसे मानव कल्याण, सामाजिक सुरक्षा और बाजार के विनियमन से कोई सरोकार नहें रखना चाहिए। परंतु ये सारे तक शुद्ध पूंजीवादी व्यवस्था को स्वतंत्रता और न्याय का आधार मानते हुए ऐसी स्थिति का समर्थन करते हैं, जिसमें श्रमिक वर्ग पूंजीपतियों की दया पर आश्रित हो जाता है। जैसा कि सीवी मैडफर्सन ने स्पष्ट किया है कि पूंजीवादी व्यवस्था को सरल विनिमय अर्थव्यवस्था के साथ मिलना एक भूल है। पूंजीवादी व्यवस्था की विलक्षण बात यह है कि इसमें श्रम और पूंजी एक दूसरे से विमुक्त हो जाते हैं और ऐसी श्रमशक्ति अस्तित्व में आ जाती है, जिसके पास अपने श्रम को उत्पादन में लगाने के लिए अपनी पूंजी नहीं होती अतः उसके पास इस श्रम को बाजार में बेचने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता। इस तरह व्यक्ति का श्रम उसके व्यक्त्वि से अलग हो जाता है और बहुसंख्यक लोग अपनी शक्ति और निपुणता को मनचाहे ढंग से रचनात्मक दिशा में नहीं लगा पाते। इस तरह पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्य की प्रतिभा केा कुंठित कर देती है। इसमें मनुष्यों के परस्पर संबंधों के न्यायपूर्ण समायोजन की गुंजाईश कहां है?
प्रक्रियात्मक न्याय के विपरीत वितरण न्याय का विचार समाजवाद के निकट से जुड़ा है। वितरण न्याय के समर्थक यह मानते हैं कि जब तक समाज संपूर्ण सामाजिक संपदा, उत्पादन के साधनों तथा सामाजिक जीवन से प्राप्त होने वाले लाभों के विवरण पर अपना नियंत्रण स्थापित नहीं करता, तब तक इस वितरण को न्यायपूर्ण नहीं बनाया जा सकता। आर्थिक जीवन में खुली स्पर्द्धा ऐसी विषमताओं को जन्म देती है, जिसमें निर्धन वर्ग धनवान वर्ग द्वारा निर्धारित शर्तों पर काम करने को विवश हो जाता है। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में भी निर्धन वर्ग को हीन स्थिति का सामना करना पड़ता है। अतः न्याय का ध्येय कानूनी राजनीतिक तथा सामाजिक आर्थिक क्षेत्रें में अनुचित विषमताओं को दूर करना है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति या समूह इन विषमताओं या विश्वासों के कारण स्वतंत्रता या आत्मविश्वास के अवसरों से वंचित हो रहे हों, उनके हितों की रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की जाए। सामाजिक न्याय की मांग यह है कि सामाजिक विकास के लाभ इने गिने लोगों के हाथों में सिमट कर न रह जाए बल्कि उन्हें समाज के अभावग्रस्त दीन दलित वंचित और कमजोर वर्गों तक पहुंचाने की व्यवस्था की जाए। सर्वसाधारण को विशेषतः श्रमजीवी वर्ग को उनमें समुचित हिस्सा मिले ताकि वह सामान्यतः सुखी सम्मानित और निश्चित जीवन जी सके, तभी सामाजिक न्याय एक कोटा आदर्श या राजनीतिक नारा न रहकर सामाजिक यथार्थ के धरातल पर स्थापित हो सकेगा।
Question : स्वतंत्रता।
(1997)
Answer : स्वतंत्रता शब्द लिबर्टी के अर्थ में लिया गया है और लिबर्टी लैटिन के लिबर शब्द से व्युत्पन्न माना गया है। इसके विभिन्न अर्थों केा देखकर यही पता चलता है कि उसकी परिभाषा इस रूप में देना कठिन है कि सभी संतुष्ट हो जाएं। राजनीतिक दर्शन में स्वतंत्रता शब्द ही नहीं, ऐसे अनेक शब्द हैं, जैसे समानता, संप्रभुता, राष्ट्रीयता आदि जिनकी एक निश्चित परिभाषा देना सरल नहीं है। फिर भी यदि हम राजनीतिक क्षेत्र में स्वतंत्रता का अर्थ देखना चाहें तो इसका प्रयोग दो अर्थों में होता है-एक राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा दूसरा व्यक्तिगत स्वतंत्रता। पहले अर्थ में स्वतंत्रता का अर्थ एक राज्य का दूसरे राज्य के अधीन न होने से है अर्थात देश की स्वतंत्रता। निश्चित है कि यहां हमारा लक्ष्य देश की स्वतंत्रता नहीं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विषय में जानना है। यदि हम स्वतंत्रता को इसके पूर्ण अर्थ में लेना चाहें तो इसकी परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं-स्वतंत्रता इच्छा करने की क्षमता और कार्य करने की वह शक्ति है जिसके करने की इच्छा बिना किसी बाहरी दूसरे प्रमाण के हो चुकी है। अर्थात् अपनी इच्छा के अनुसार बिना किसी बंधन के कार्य करने की स्वतंत्रता। इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि पूर्ण और असीमित स्वतंत्रता की संभावना नहीं है। इस प्रकार की स्वतंत्रता न तो राज्य में और न राज्य के बाहर ही संभव कही जा सकती है।
इसमें संदेह नहीं है कि मनुष्य का अपना एक व्यक्तित्व होता है, वह अपने ही तरीके से रहना चाहता है, परंतु दूसरी ओर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य में एक सामाजिकता की भी मूल प्रवृत्ति होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य अधिकतम स्वतंत्रता का उपयोग कर सकता है परंतु उसकी स्वतंत्रता मानव अधिकार की घोषणा 1789 के अनुसार यही हो सकती है कि दूसरों को बिना नुकसान पहुंचाए कुछ भी करने की शक्ति। अतः व्यवहार में स्वतंत्रता की आधुनिक अवधारणा के विश्लेषण के आधार पर दो प्रमुख विचार सामने आते हैं-प्रथम यह कि अपने व्यक्तित्व को विचार शब्द तथा कार्य में अभिव्यक्त करना चाहता है। इसके लिए वह स्वतंत्रता की मांग करता है। अर्थात् वह अपने विचार, भाषण तथा कार्य पर किसी का नियंत्रण या बाधा नहीं चाहता। यह बाधा या नियंत्रण न सरकार की ओर से हो और न ही व्यक्ति या संघों की ओर से। दूसरा विचार जो सामने आता है, वह यह कि स्वतंत्रता में विरोधपूर्ण रूप में यह भी निहित है कि इस पर कुछ सीमाएं भी आरोपित हैं, अर्थात् सबको समान रूप से स्वतंत्रता प्राप्त हो और सबको अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए जीवन की सुविधाएं अथवा अवसर मिले। अतः इन्हीं दो बिुदुओं को ध्यान में रखते हुए स्वतंत्रता की परिभाषा निम्नलिखित शर्तों पर दी जा सकती हैः
(i) स्वतंत्रता पूर्ण और असीमित नहीं, सापेक्ष होती है।
(ii) स्वतंत्रता केवल नकारात्मक नहीं स्वीकारात्मक होती है।
(iii) स्वतंत्रता की अवधारणा स्वीकारात्मक-नकारात्मक दृष्टिकोणों के समन्वय पर आधारित है।
इन्हीं आधारों पर मिल ने स्वतंत्रता की परिभाषा इस प्रकार की है-स्वतंत्रता कम से कम मानव गतिविधियों के आत्म संबंधी क्षेत्र में प्रतिबंधों से उन्मुक्तता का नाम है, अर्थात् मानव जीवन मेंप्रतिबंधों का अभाव ही स्वतंत्रता है। सीले के अनुसार स्वतंत्रता अतिशासन के विपरीत है। लास्की ने एक बार नकारात्क रूप में स्वतंत्रता की परिभाषा करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता उन सामाजिक दशाओं के अस्तित्व के ऊपर प्रतिबंधों की अनुपस्थिति है जो कि आधुनिक सभ्यता में व्यक्ति के सुख के लिए आवश्यक प्रत्याभूति है। ग्रीन के अनुसार स्वतंत्रता वह करने की जो कि करणीय है अथवा वह उपभोग करने की जो उपभोग्य है, एक सकारात्मक शक्ति है।
लास्की ने स्वीकारात्मक ढंग से भी स्वतंत्रता की परिभाषा की है और कहा है कि स्वतंत्रता से मेरा तात्पर्य उस वातावरण को कायम रखना है, जिसमें लोगों को अपने पूर्णत्व का अवसर प्राप्त होता हो।
मैकियावली के अनुसार स्वतंत्रता सभी प्रकार के प्रतिबंधों की अनुपस्थिति नहीं बल्कि अविवेकपूर्ण के स्थान पर विवेकपूर्ण प्रतिबंध है।