Question : धार्मिक एवं धर्मनिरपेक्ष नैतिकता में भेद कीजिए। इस संदर्भ में उस मत का विवेचन कीजिए जिसके अनुसार धर्मनिरपेक्ष नैतिकता धार्मिक नैतिकता से श्रेष्ठ है क्योंकि धार्मिक नैतिकता सारतः नियम आधारित होती है जिसके अंतर्गत फल की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती। इसके विपरीत धर्मनिरपेक्ष नैतिकता अपने उत्कृष्ट रूप में सर्वश्रेष्ठ फल प्राप्ति का उद्देश्य रखती है।
(2006)
Answer : नैतिकता के संबंध में दो प्रचलित धारणाएं हैं- धार्मिक नैतिकता और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता। अधिकांश ईश्वरवादी दार्शनिकों का विचार है कि नैतिकता एक मात्र मूल आधार धर्म है, जिसके अभाव में हम उसके अस्तित्व और उसकी सार्थकता की कल्पना भी नहीं कर सकते। दूसरे शब्दों, में धर्म के कारण यदि कोई नैतिक मूल्यों, आदर्शों तथा नियमों को स्वीकार करता है तो इसे धर्म निरपेक्ष नैतिकता कहते हैं। दूसरी तरफ जब कोई व्यक्ति अपने व्यावहारिक जीवन में किसी अभिप्रेरणा को शुभ या अशुभ और किसी कर्म को उचित या अनुचित कहता है, जो उसके धार्मिक विश्वास द्वारा शासित नहीं होता (अर्थात् वह धर्म निरपेक्ष है) तो उसे धर्मनिरपेक्ष नैतिकता कहते हैं।
ईश्वरवादी विचारकों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति धर्म में विश्वास नहीं करता तो उसके लिए इन नैतिक मूल्यों का कोई महत्व नहीं होता, अर्थात् धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के जीवन में नैतिकता के लिए कोई स्थान होना संभव नहीं है। वह केवल स्वार्थ से प्रेरित होकर ही समस्त कर्म करता है और इसी कारण उसके लिए नैतिक दृष्टि से उचित अनुचित तथा शुभ-अशुभ या अच्छे-बुरे का कोई अर्थ नहीं हो सकता। केवल धर्म ही नैतिकता को उचित दिशा प्रदान करता है और उसे पथभ्रष्ट होने से बचाता है।
यदि नैतिकता को धर्म का सुदृढ़ आधार प्राप्त न हो तो वह निश्चय ही व्यक्तिगत स्वार्थ के दल-दल में फंसकर नष्ट हो जाएगा। उनका मन्तव्य यह कहने का है कि नैतिकता का नियम ईश्वरीय नियम है। व्यक्ति को इसे ईश्वर का अनुलंघनीय आदेश मानकर इसका पालन करना चाहिए। नैतिकता का मूल स्रोत ईश्वर ही है। मानव समाज को किसी लौकिक वस्तु का इससे कोई लेना देना नहीं है। जेई स्मिथ (एक दार्शनिक एवं विचारक) ने लिखा है धर्म पर आधारित न रहने वाली नैतिकता के पास आत्मालोचन का कोई सिद्धांत नहीं होता, क्योंकि इसके मूल में कोई विश्वातीत अर्थात् ईश्वरीय अथवा आध्यात्मिक संदर्भ नहीं होता, जिसके द्वारा यह शासित हो सके और जो इसके विषय में निर्णय दे सके।
धर्म नैतिक जीवन के लिए प्रेरणा देता है तथा इसके साथ ही इनसे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण वस्तु प्रदान करता है और वह है नैतिक प्रयास की सार्थकता एवं उसका उद्देश्य। पुनः ब्रेथवेट का कथन है वास्तव में नैतिक कथनों से मूलतः भिन्न नहीं है, क्योंकि दोनों का मूल उद्देश्य एक ही है और वह है आचरण नीति अथवा जीवन पद्धति के विषय में वक्ता की प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त करना। इससे स्पष्ट है कि उनके विचार में धर्म वस्तुतः नैतिकता से भिन्न तथा स्वतंत्र न होकर उसी का एक अपरिहार्य भाग मात्र है। नैतिकता से यहां तात्पर्य यह है कि नैतिकता से पृथक धर्म का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। परंतु इस कथन में संदेह है क्योंकि नैतिकता धर्म का अनिवार्य अंग अवश्य है परंतु अपने प्रचलित सामान्य अर्थ में धर्म नैतिकता के अलावे कुछ और भी है, जिसमें किसी लौकिक सत्ता के प्रति अखंड आस्था रहती है। पुनः यह कहना भी सही नहीं है कि धर्म के बिना नैतिकता का कोई अर्थ नहीं है। नैतिकता के समान आचरण करने वाला व्यक्ति किसी अतिप्राकृतिक सत्ता में आस्था रखे बिना भी नैतिक मूल्यों, आदर्शों एवं नियमों के अनुरूप भलीभांति आचरण कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति अथवा समुदाय धर्मपरयण नहीं है अर्थात् किसी दैवी सत्ता में आस्था नहीं रखता और उसकी उपासना नहीं करता तो भी वह नैतिक नियमों का पालन कर सकता है।
धार्मिक आस्था उसके इस कार्य में बाधक सिद्ध नहीं होता। वस्तुतः धर्म से प्रेरित नैतिकता में धर्म की बाध्यता होती है और उसका पालन न करने पर वह अपने सहधर्मियों का कोपभाजन बन सकता है। पुनः धर्म के प्रभाव में किया गया नैतिक कर्म धर्म में आस्था कम या खत्म होने पर (जो कभी-कभी होता भी है) व्यक्ति नैतिकता से मुंह भी मोड़ सकता है। उसके अलावे एक धर्मपरायण व्यक्ति द्वारा नैतिक नियमों का पालन इसलिए भी किया जाता है जिसका एकमात्र उद्देश्य अपने उपास्य देवता को प्रसन्न करना। इस तरह यहां नैतिकता के पालन करने का उद्देश्य अपेक्षाकृत संकीर्ण जान पड़ता है। परंतु धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के संबंध में ऐसी बात नहीं कही जा सकती। वस्तुतः नैतिकता का संबंध इसी संसार में मनुष्य के सामाजिक जीवन से है। वह समाज के सदस्य के रूप में मनुष्य को स्वयं अपने प्रति तथा अन्य व्यक्तियेां के प्रति कुछ मूल कर्तव्यों का स्वेच्छा या पालन करने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण हो सके। इसका तात्पर्य यह है कि नैतिकता का मूल दृष्टिकोण इहलोकवादी अथवा सांसारिक है-अर्थात् वह इसी जगत से मानव के वर्तमान वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन को सार्थक एवं सुखमय बनाना चाहती हैं परंतु अपने सामान्य प्रचलित अर्थ में धर्म नैतिकता के इस कार्य में प्रायः बाधा डालता है, क्योंकि वह मनुष्य को इस लोक के स्थान पर तथाकथित परलोक की चिंता करने की शिक्षा देता है। आज संसार में जो धर्म प्रचलित है, उनमें से अधिकतर इस जगत को नश्वर तथा मानव जीवन को क्षणिक मानते हैं, अतः वे मनुष्य को इस संसार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते हैं। यह धार्मिक दृष्टिकोण मनुष्य के पलायनवादी बना देता है। इसे स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति अपने और दूसरों के सुखदुख के प्रति उदासीन हो जाता है। वह अपनी समस्याओं के समाधान के बदले उसकी उपेक्षा करने लगता है। ऐसे में यह कहना ज्यादा उचित है कि धर्म नियंत्रित नैतिकता के बजाए धर्मनिरपेक्ष नैतिकता अधिक उपादेय है।
Question : ईश्वर वस्तुओं का आदि कारण है।
(2005)
Answer : कई धर्म दार्शनिकों ने ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिए यह तर्क प्रस्तुत किया है कि ईश्वर इस संपूर्ण जगत का आदि कारण है। यह तर्क मुख्यतः संत थामस एक्वाइनस और डेकार्ट ने तथा भारतीय दर्शन में नैयायिकों ने दिया है। इस तर्क के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु कारण कार्य नियम के अंतर्गत बंधी है, जिसमें पहली घटना दूसरी को, दूसरी घटना तीसरी को और तीसरी चौथी को जन्म देती है। उदाहरण के लिए मेरे कारण मेरे माता पिता हैं, उनके कारण उनके माता पिता हैं तथा उनके कारण उनके माता पिता हैं। यहशृंखला अनावस्था दोष को जन्म देती है, यदि हम इसके मूल में किसी आदि कारण को न मान लें जो खुद अकारण होते हुए भी सभी वस्तुओं का मूल कारण है। यह आदि कारण ही ईश्वर है। न्याय दर्शन ने निमित्त कारण के रूप में ईश्वर को सिद्ध किया। उसके अनुसार दिक काल और परमाणु इत्यादि छः शाश्वत द्रव्यों से सृष्टि के निर्माण के लिए ईश्वर को कारण रूप में स्वीकार करना आवश्यक है।
किंतु यह तर्क निरापद नहीं है। कांट ने स्पष्ट किया है कि कारणता एक बुद्धि विकल्प है, जिसका प्रयोग अनुभव जगत के संवेदन पर ही किया जा सकता है। ह्यूम ने तो यहां तक कहा है कि कारणता कोई अनिवार्य नियम है ही नहीं, वह सिर्फ मनोवैज्ञानिक विश्वास मात्र है। एक प्रश्न यह भी उठता है कि यदि कारणता नियम अनिवार्य है तो फिर ईश्वर कैसे अकारण हो सकता है? स्पष्ट है कि वस्तुओं के आदि कारणत्व के आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना अत्यंत कठिन है। तब भी यह तर्क सामान्य व्यक्ति की व्यावहारिक बुद्धि के सर्वाधिक अनुकूल हैं। ईश्वरवादी एक तरफ तो कारणता के नियम को लागू कर ईश्वर को जगत का आदि कारण बताते हैं, दूसरी ओर स्वयं ईश्वर को अकारण बताकर कार्यकारण नियम का खंडन करते हैं। यह स्वयं में विरोधाभास है जो उनके ईश्वर सिद्धि के लिए दिए गए प्रमाण को तार्किक दृष्टि से असंगत बनाता है।
Question : धर्म निरपेक्ष नैतिकता इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकती है कि मैं सदैव नैतिक क्यूं रहूं?
(2004)
Answer : ईश्वरवादी धर्मों के समर्थक नैतिकता को धर्म पर पूर्णतः आश्रित मानते हैं। अधिकतर ईश्वरवादी दार्शनिकों का विचार है कि नैतिकता का एकमात्र मूलाधार धर्म है, जिसके अभाव में नैतिकता के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। धर्म के कारण ही समस्त नैतिक मूल्यों, आदर्शों तथा नियमों को स्वीकार किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष है तो उसके लिए नैतिक मूल्यों, आदर्शों एवं नियमों का कोई महत्व नहीं हो सकता। धर्म निरपेक्ष व्यक्ति केवल स्वार्थ से प्रेरित होकर ही समस्त कर्म करता है। परंतु ईश्वरवादियों का यह विचार सत्य एवं अर्थपूर्ण प्रतीत नहीं होता। किसी प्रकार की अति प्राकृतिक सत्ता में आस्था रखे बिना भी नैतिक मूल्यों, आदर्शों एवं नियमों के अनुरूप भलीभांति आचरण किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति अथवा समुदाय धर्मपरायण नहीं है अर्थात यदि वह किसी दैवी सत्ता में आस्था नहीं रखता और उसकी उपासना नहीं करता तो भी वह नैतिक मूल्यों आदर्शों तथा नियमों के अनुरूप आचरण कर सकता है। धार्मिक आस्था या विश्वास का अभाव उसके इस कार्य में बाधक सिद्ध नहीं हो सकता। वस्तुतः जब कोई सामान्य व्यक्ति अपने व्यावहारिक जीवन में किसी अभिप्रेरणा को शुभ या अशुभ और किसी कर्म को उचित या अनुचित कहता है, तो उसका यह नैतिक निर्णय अनिवार्यतः उसके धार्मिक विश्वास द्वारा शासित नहीं होता। धर्मपरायण व्यक्ति की भांति धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति भी नैतिक नियमों का पालन करते हैं और एक दूसरे के आचरण का नैतिक दृष्टि से मूल्यांकन करते हैं। जब कोई धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति नैतिक दृष्टि से अनुचित कर्म करता है तो हम यह नहीं कह सकते हैं कि वह धर्मनिरपेक्ष होने के कारण इसके अतिरिक्त और कुछ कर ही नहीं सकता था। नैतिकता का उद्गम धर्म नहीं परिवार व सामाजिक परिवेश है। धर्म स्वयं नैतिकता से जुड़कर ही परिष्कृत एवं उपादेय बनता है। कई अर्थों में धर्म नैतिकता के बिना खोखला एवं अर्थहीन बन जाता है, जिसकी उपादेयता व्यक्ति के लिए संदिग्ध हो सकती है।
Question : क्या ईश्वर ओर धर्म नैतिकता की आवश्यकत पूर्वमान्यताएं हैं? आप कांट के अनुसार अपने उत्तर को सोदाहरण स्पष्ट कीजिए। इसी संदर्भ में निरीश्वरवादी के लिए नैतिकता के संभव कारणों पर समालोचनात्मक विचार कीजिए।
(2003)
Answer : धर्म एवं नैतिकता के संबंध का विश्लेषण पाश्चात्य दार्शनिकों द्वारा की गई है। भारतीय दर्शन में इस संदर्भ में विस्तृत विवेचन प्राप्त नहीं होता। भारतीय धर्मशास्त्रें में धर्म शब्द का प्रयोग इसके प्रचलित सामान्य अर्थ से भिन्न और बहुत व्यापक अर्थ में किया गया है। वेदों में धर्म को विश्व की व्यवस्था अथवा उसके मूल नियम के अर्थ में ग्रहण किया गया है। उपनिषदों में धर्म को सत्य और कर्तव्यों जोड़कर उसे अनिवार्यतः नैतिकता के साथ संबद्ध कर दिया गया है। भगवदगीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी अर्थ में स्वधर्म पालन की शिक्षा दी है। बौद्ध धर्म में इस तरह भारतीय मनीषियों ने धर्म को एक जीवन पद्धति के रूप में ग्रहण किया है जिसके अनुसार मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है और जिसमें स्वकर्तव्य पालन का सर्वाधिक महत्व है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में धर्म के स्वकर्तव्य पालन संबंधी इसी पक्ष को विशेष महत्व दिया है। उनके द्वारा बताया गया, धर्म का अर्थ महाभारत में की गयी धर्म की व्याख्या के अनुरूप ही है, जिसमें सदाचार तथा स्वकर्तव्य पालन को धर्म के अनिवार्य लक्षणों के रूप में स्वीकार किया गया है। वेदव्यास द्वारा रचित इस ग्रंथ में राजधर्म, मित्रधर्म, प्रजाधर्म आदि का जो उल्लेख मिलता है, उसमें धर्म का अर्थ अपने कर्तव्य का पालन ही है। मनु ने धर्म के दस अनिवार्य लक्षण बताए हैं, जैसे- घृति अथवा धैर्य, क्षमा, संयम इत्यादि। ये मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन तथा संपूर्ण मानव जीवन के सर्वांत्रीण विकास या कल्याण के लिए निश्चय ही अनिवार्य हैं।
परंतु धर्म की उपर्युक्त परिभाषाओं की कठिनाई यह है कि इसे स्वीकार कर लेने पर धर्म और नैतिकता में कोई भेद नहीं रह जाता।भारतीय दर्शन में मानव जीवन के जो चार पुरूषार्थ-अर्थ, काम,धर्म, मोक्ष बताए गए हैं, उनमें भी धर्म का अर्थ नैतिकता से मूलतः भिन्न नहीं है। स्पष्ट है कि इस दृष्टि से विचार करने पर धर्म नैतिकता का ही एक अंग बन जाता है और नैतिकता से पृथक उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रह जाता। वस्तुतः यदि धर्म को स्वकर्तव्य पालन के अर्थ में ही ग्रहण किया जाए तो धर्म और नैतिकता के संबंध के विषय में भारतीय मनीषियों का दृष्टिकोण निश्चय ही उचित एवं युक्तिसंगत है, परंतु अधिकतर विचारकधर्म को इस विशेष अर्थ में ग्रहण न करके प्रायः उसके सामान्य प्रचलित अर्थ में ही ग्रहण करते हैं और धर्म का यह अर्थ स्वकर्तव्य पालन के अर्थ से भिन्न है।
जिन पाश्चात्य दार्शनिकों ने धर्म एवं नैतिकता के संबंध की विवेचना की है, उनकी विवेचना का अंतिम आधार ईश्वर विषयक विश्व है। धर्म से उनका तात्पर्य केवल ऐसा धर्म ही है जो सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, शाश्वत, अत्यंत दयालु एवं न्यायशील ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है और जो उसे ही इस जगत का रचयिता पालनकर्ता तथा संरक्षक पात्रता है। ईश्वरवादी धर्मों के समर्थक ऐसे ही व्यक्तित्व संपन्न ईश्वर के अस्तित्व विषयक विश्वास को ध्यान में रखते हुए कुछ दार्शनिक नैतिकता को धर्म पर पूर्णतः निर्भर मानते हैं जबकि कुछ अन्य दार्शनिकों का यह मत है कि नैतिकता धर्म से भिन्न और स्वतंत्र है। कुछ दार्शनिक इन दोनों दृष्टिकोणों का समन्वय करते हुए यह भी कहते हैं कि धर्म तथा नैतिकता एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी वास्तव में परस्पर पूरक है।
अधिकतर ईश्वरवादी दार्शनिकों का विचार है कि नैतिकता का एकमात्र मूल आधार धर्म है, जिसके अभाव में हम उसके अस्तित्व और उसकी सार्थकता की कल्पना भी नहीं कर सकते। धर्म के कारण ही हम समस्त नैतिक मूल्यों, आदर्शों तथा नियमों को स्वीकार करते हैं। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति धर्म में विश्वास नहीं करता तो उसके लिए इन नैतिक मूल्यों, आदर्शों और नियमों का कोई महत्व नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि इन दार्शनिकों के मतानुसार ऐसे धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के जीवन में नैतिकता के लिए कोई स्थान होना संभव नहीं है। वह केवल स्वार्थ से प्रेरित होकर ही समस्त कर्म करता है और इसी कारण उसके लिए नैतिक दृष्टि से उचित-अनुचित तथा शुभ-अशुभ या अच्छे-बुरे का कोई अर्थ नहीं हो सकता।
जब ईश्वरवादी दार्शनिक यह कहते हैं कि नैतिकता पूर्णतः धर्म पर ही निर्भर है, तो इससे उनका तात्पर्य यह है कि समस्त नैतिक नियम अंततः ईश्वरीय नियम हैं और ईश्वर के अनुल्लंघनीय आदेश मानकर ही मनुष्य को सदैव इनका पालन करना चाहिए। नैतिकता का मूल स्रोत ईश्वर ही है, मानव समाज या अन्न कोई लौकिक वस्तु नहीं है। इस दृष्टि से इन दार्शनिकों के विचार में नैतिकता मानवीय वस्तु न होकर वास्तव में अतिप्राकृतिक या दैवी वस्तु है। धर्म और नैतिकता के संबंध में विषय में इसी ईश्वरवादी दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए जेई स्मिथ ने लिखा है-धर्म पर आधारित न रहनेवाली नैतिकता के पास आत्मालोचन का कोई सिद्धांत नहीं होता, क्योंकि इसके मूल में कोई विश्वातीत अर्थात् ईश्वरीय अथवा आध्यात्मिक संदर्भ नहीं होता, जिसके द्वारा यह शासित हो सके और जो इसके विषय में निर्णय दे सके। यह एक सच्चाई है कि नैतिकता की विषय वस्तु को निर्धारित करने के अतिरिक्त धर्म इसका अंतिम निर्णायक भी है। धर्म में ही नैतिक प्रयास की सार्थकता एवं उसका उद्देश्य निहित है। स्मिथ के अतिरिक्त कार्लबार्थ, एमिल ब्रुनर रोनाल्ड नीबुर आदि अन्य अनेक दार्शनिक भी इसी ईश्वरवादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।
जहां तक धर्म तथा नैतिकता के संबंध के विषय में ईश्वरवादी दार्शनिकों के दृष्टिकोण का प्रश्न है, यह सत्य है कि नैतिकता सदैव धर्म का अभिन्न अंग रही है क्योंकि प्रत्येक धर्म अपने अनुयायियों के आचरण का नियमन एवं मार्गदर्शन करता है। आचरण पद्धति धर्म का अत्यधिक महत्वपूर्ण तथा अनिवार्य पक्ष है। ऐसी स्थिति में यह कहना अनुचित न होगा कि नैतिकता धर्म का अनिवार्य मूल तत्व है, जिसके बिना वह मानव जीवन में अपनी सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकता। परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि धर्म नैतिकता का अनिवार्य आधार है जैसा कि ईश्वरवादी मानते हैं। इसके विपरीत वास्तविक स्थिति यह है कि प्रचलित सामान्य अर्थ में धर्म को स्वीकार किए बिना भी मनुष्य नैतिकता के अनुरूप भलीभांति आचरण कर सकता है। नैतिकता एक सामाजिक संख्या अथवा व्यवस्था है जिसका उद्देश्य मानवीय आचरण का मूल्यांकन तथा मार्गदर्शन करना और समाज के सदस्यों के रूप में मनुष्यों के पारस्परिक संबंध का नियमन करना ही है। नैतिकता के इस उद्देश्य से यह स्पष्ट है कि इसकी पूर्ति के लिए धर्म का आधार लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा व्यक्ति जो किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करता समाज के सदस्य के रूप में निश्चय ही नैतिकता के अनुरूप आचरण करता है क्योंकि इसके बिना उसके लिए सुखमय एवं सम्मानपूर्व सामाजिक जीवन व्यतीत करना संभव नहीं है। यदि वह किसी दैवी सत्ता की उपासना नहीं करता तो इससे उसके सफल सामाजिक जीवन में कोई बाधा नहीं पड़ती परंतु यदि वह आधारभूत नैतिक नियमों का पालन नहीं करता तो वह निश्चय ही समाज का सुखी और सम्मानित सदस्य नहीं हो सकता। उपर्युक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि नैतिकता अवश्य ही धर्म के लिए अनिवार्य है किंतु धर्म नैतिकता के लिए अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार ईश्वरवादी दार्शनिकों का मत उचित एवं युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता कि धर्म ही नैतिकता बिना मनुष्य का नैतिक जीवन संभव नहीं है।
पुनः धर्म को नैतिकता का अनिवार्य आधार मानने के कारण अनेक गंभीर दार्शनिक कठिनाइयों अथवा समस्याएं भी उत्पन्न होती है। सर्वप्रथम धर्म ईश्वर अथवा किसी अन्य दैवी सत्ता या शक्ति की अवधारणा पर ही अनिवार्यतः निर्भर है, जिसे स्वीकार किए बिना उसका अस्तित्व संभव नहीं है। परंतु ऐसी दैवी सत्ता की संभावना प्राचीन काल से ही दार्शनिकों के विवाद का विषय रही है। ईश्वर के अस्तित्व के लिए अभी तक जो युक्तियां दी गई हैं, उनके द्वारा उसके अस्तितव को निश्चित रूप से प्रमाणित नहीं किया जा सका क्योंकि ये सभी युक्तियां दोषपूर्ण हैं। ऐसी स्थिति में जो दार्शनिक नैतिकता को ईश्वर या किसी अन्य दैवी सत्ता पर ही अनिवार्यतः आश्रित मानते हैं, उनके मत का मूलाधार ही समान हो जाता है।
धर्म और नैतिकता के संबंध में ईश्वरवादियों के सिद्धांत की उपर्युक्त कठिनाईयों के कारण कुछ दार्शनिकों ने नैतिकता को धर्म पर आधारित न मानकर स्वयं धर्म को ही नैतिकता का अभिन्न अंग मान लिया है। इन दार्शनिकों में ब्रेथवेट का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ब्रेथवेट के मतानुसार धार्मिक कथन वास्तव में नैतिक कथनों से मूलतः भिन्न नहीं है, क्योंकि दोनों का मूल उद्देश्य एक ही है और वह है आचरण नीति अथवा जीवन पद्धति के विषय के वक्ता की प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त करना। इससे स्पष्ट है कि उनके विचार में धर्म वस्तुतः नैतिकता से भिन्न तथा स्वतंत्र न होकर उसी का एक अपरिहार्य भाग मात्र हैं। नैतिक मूल्यों, आदर्शों अथवा नियमों के बिना हम धर्म की कल्पना ही नहीं कर सकते। इसका तात्पर्य यही है कि नैतिकता से पृथक धर्म का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
परंतु ब्रेथवेट का मत अंशातः ही सत्य है। इसमें संदेह नहीं है कि नैतिकता धर्म का अनिवार्य अंग है और उसके अभाव में मानव जीवन के लिए धर्म का महत्व बहुत कम हो जाता है, किंतु इससे यह निष्कर्ष निकालना उचित नहीं होगा कि धर्म नैतिकता का ही एक भाग मात्र है। नैतिकता धर्म का एक अभिन्न अंग अवश्य है परंतु प्रचलित सामान्य अर्थ में धर्म केवल नैतिकता ही नहीं है वह नैतिकता के अतिरिक्त कुछ और भी है। किसी अलौकिक अतिप्राकृतिक या दैवी सत्ता में मनुष्य की अखंड आस्था धर्म के अनिवार्य मूल तत्व है, जिसका नैतिकता से कोई संबंध नहीं हैं। धर्म की उपासना करने वाला व्यक्ति किसी न किसी रूप में इस दैवी सत्ता की उपासना अवश्य करता है, किंतु नैतिकता के अनुसार आचरण करने वाले मनुष्य के लिए यह बात नहीं कहा जा सकती। वह किसी प्रकार की अतिप्राकृतिक सत्ता में आस्था रखे बिना भी नैतिक मूल्यों, आदर्शों एवं नियमों के अनुरूप भलीभांति आचरण कर सकता है। इस दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और नैतिकता निश्चय ही एक दूसरे से भिन्न हैं, अतः इन दोनों को एक ही मान लेना उचित एवं युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता।
धर्म तथा नैतिकता के वास्तविक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए हम यह नहीं कह सकते कि धर्म के बिना नैतिकता का अस्तित्व संभव नहीं है अथवा नैतिकता के बिना धर्म का अस्तित्व हो ही नहीं सकता परंतु लेविस आदि कुछ दार्शनिकों का मत है कि धर्म तथा नैतिकता एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के पूरक हैं। धर्म नैतिकता के लिए तथा नैतिकता धर्म के लिए समान रूप से अनिवार्य है।
उपर्युक्त मत के अतिरिक्त कुछ दार्शनिक का विचार है कि धर्म नैतिकता के लिए सहायक न होकर वास्तव में उसके लिए अत्यधिक हानिकारक तथा बाधक है क्योंकि वह परलोकवाद और पलायनवाद को प्रश्रय देता है।
Question : धर्म से आप क्या समझते हैं? क्या आपके अनुसार ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास धर्म का आवश्यक अंग है? विवेचना करें।
(2001)
Answer : साधारण व्यक्ति धर्म शब्द को कुछ विशेष बाह्य वस्तुओं, भवनों, वस्त्रें, पुस्तकों, व्यक्तियों तथा प्रार्थना या पूजा पाठ संबंधी कर्मकांड से ही जोड़ता है। परंतु धर्म को पारिभाषित करना कठिन है। धर्म की वही परिभाषा दार्शनिक दृष्टि से संतोषजनक तथा युक्तिसंगत मानी जा सकती है, जिसमें विश्व के सभी धर्मों की सामान्य विशेषताएं या उनके मूल तत्व सम्मिलित हों, ताकि धर्म को साहित्य, कला, विज्ञान, दर्शन आदि से पृथक किया जा सके। धर्म को इस प्रकार पारिभाषित किया जा सकता है-धर्म मानव जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करने वाली वह व्यापक अभिवृत्ति है जो सर्वाधिक मूल्यवान, पवित्र, सर्वत्र तथा शक्तिशाली समझे जाने वाले आदर्श और अलौकिक उपास्य विषय के प्रति अखंड आस्था एवं पूर्ण प्रतिबद्धता को फलस्वरूप उत्पन्न होती है और जो मनुष्य के दैनिक आचरण तथा प्रार्थना, पूजा पाठ, जप-तप आदि बाह्य कर्मकांड में अभिव्यक्त होती है।
धर्म की उपर्युक्त परिभाषा से यह स्पष्ट है कि धर्म मनुष्य की एक विशेष मनोदशा या अभिवृत्ति है जो अन्य अभिवृतियों से भिन्न है। इस अभिवृति की मूल विशेषता यह है कि यह मनुष्य के जीवन के किसी एक पक्ष तक सीमित न होकर उसके जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करती है। इस दृष्टि से इसे सर्वव्यापक अभिवृत्ति कहा जाता है।
धर्म मनुष्य की वह व्यापक मनोदशा या अभिवृत्ति है, जो किसी सामान्य वस्तु, विचार अथवा व्यक्ति के प्रति उन्मुख नहीं होती। इस अभिवृत्ति का आदर्श अलौकिक सत्ता है, जिसे धर्मपरायण व्यक्ति सर्वाधिक मूल्यवान तथा शक्तिशाली समझता है और इसी कारण वह उसकी पूजा और उपासना करता है।
वस्तुतः उपास्य के प्रति पूर्ण निर्भरता, पूर्ण समर्पण तथा पूजा की भावना धर्म के अनिवार्य तत्व हैं, जो उसे कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान आदि से पृथक करते हैं।
पुनः संवेग, भावना या अनुभूति धर्म का अनिवार्य तथा प्रमुख पक्ष है। इसका धर्म में बुद्धि एवं तर्क की उपेक्षा कहीं ज्यादा महत्व है। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति अपने जीवन में इस विशेष धार्मिक संवेग का अवश्य अनुभव करता है। अतः इसे धर्म का अनिवार्य तत्व माना जाता है। इसी दृष्टि से विज्ञान एवं दर्शन को तर्क प्रधान तथाधर्म को भावना प्रधान माना जाता है।
धर्म का एक अन्य अनिवार्य तत्व है- अपने उपास्य विषय में धर्मपरायण व्यक्ति की अखंड आस्था और उसके प्रति पूर्णप्रतिबद्धता। भक्त अथवा धर्मपरायण व्यक्ति बिना किसी संदेह या शंका के यह मानता है कि उसके अराध्य विषय का वास्तव में वस्तुगत अस्तित्व है और वही समस्त मूल्यों, सदगुणों, असीम शक्ति तथा ज्ञान का स्रोत है। इसी कारण वह अपने उपास्य विषय के प्रति सदैव पूर्ण प्रतिबद्धता का अनुभव करता है।
ये सभी धर्म के आंतरिक पक्ष माने जाते हैं। इन आंतरिक तत्वों के अतिरिक्त धर्म का का बाह्य तत्व भी है, जिसे कर्मकांड कहा जाता है। मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा, गिरजाघर आदि उपासना स्थलों में जाना, पूजापाठ, प्रार्थना सत्संग, कीर्तन आदि करना ये सभी कर्मकांड के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है किः
(i)मनुष्य के संपूर्ण जीवन को प्रभावित करने वाली सर्वव्यापक अभिवृत्ति
(ii)समस्त मूल्यों, सदगुणों, पवित्रता तथा असीम शक्ति एवं ज्ञान से परिपूर्ण अलौकिम उपास्य विषय
(iii)इस उपास्य विषय में अखंड आस्था और इसके प्रति पूर्ण समर्पण तथा पूजा की भावना
(iv)वाह्य कृत्यों अथवा अनुष्ठानों में इस आस्था, समर्पण एवं पूजा की भावना की अभिव्यक्ति ये सभी धर्म के अनिवार्य तत्व है और इन सभी तत्वों को ध्यान में रखकर ही धर्म के स्वरूप को भलीभांति समझा जा सकता है।
धर्म की यह परिभाषा विश्व के सभी धर्मों पर लागू होती है। इन जैन धर्म, बौद्ध धर्म आदि निरीश्वरवादी धर्म भी सम्मिलित है। धर्म के उपर्युक्त तत्व किसी न किसी रूप में विश्व के सभी धर्मों में पाये जाते हैं, इसी कारण इन सभी धर्मों के लिए एक ही शब्द धर्म का प्रयोग किया गया है। वे हिंदू धर्म, ईसाई धर्म, यहूदी धर्म, इस्लाम आदि ईश्वरवादी धर्मों तथा बौद्धधर्म, जैन धर्म, कनफ्रयुशियसवाद आदि निरीश्वरवादी धर्मों में किसी न किसी रूप में पाये जाते हैं।
भारतीय वांघमय में धर्म शब्द का प्रयोग उसके सामान्य प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थ में किया जाता है। यहां धर्म का बहुत व्यापक अर्थ है। भारतीय मनीषियों ने धर्म को एक जीवन पद्धति के रूप में ग्रहण किया है, जिसके अनुसार मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता है और जिसमें स्वकर्तव्य पालन का सर्वाधिक महत्व है। परंतु धर्म के इस अर्थ में कठिनाई यह है कि तब धर्म और नैतिकता में कोई भेद नहीं रह जाता है।
धर्म के लिए अंगरेजी भाषा में प्रचलित शब्द रिलिजन के अर्थ का विश्लेषण करके भी धर्म के स्वरूप को कुछ सीमा तक समझा जा सकता है। रिलिजन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के रिलिगेयर नामक शब्द से हुई है जिसका अर्थ है बांधना। इस शब्दार्थ की दृष्टि से रिलिजन वह है जो मनुष्य तथा ईश्वर में संबंध स्थापित करता है और मनुष्य को परस्पर बांधता या संगठित करता है। रिलिजन का यह अर्थ संस्कृत के धर्म शब्द के अर्थ से भिन्न नहीं है। दोनों शब्दों का मूल अर्थ मनुष्यों को परस्पर बांधना या संगठित रखना ही है। इस दृष्टि से धर्म या रिलीजन संपूर्ण मानव समाज में एकता अथवा संगठन स्थापित करने का साधन है। बौद्ध एवं जैन जैसे निरीश्वरवादी धर्म भी भौतिकता का यही संदेश देते हैं जो अन्य ईश्वरवादी धर्मों में भी मिलता है। इस दृष्टि से इन दोनों को निश्चित रूप से धर्म की कोटि में रखा जाना चाहिए।
Question : धर्म और नैतिकता।
(1999)
Answer : धर्म और स्वकर्तव्य पालन के अर्थ में ग्रहण किया जाए तो धर्म और नैतिकता के संबंध के विषय में यह दृष्टिकोण उचित ही होगा, परंतु यह भारतीय संदर्भ में ही समीचीन है। परंतु सामान्य प्रचलित अर्थ में धर्म का अर्थ स्वकर्तव्य पालन से भिन्न है। धर्म के प्रचलित अर्थ के अनुसार ईश्वरवादी धर्मों के समर्थक व्यक्तित्व संपन्न ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। यही विश्वास पाश्चात्य दार्शनिकों द्वारा किए गए धर्म और नैतिकता के विवेचन का मूल आधार है। इसी ईश्वर विषयक विश्वास को ध्यान में रखते हुए कुछ दार्शनिक नैतिकता को धर्म पर पूर्णतः निर्भर मानते हैं, जबकि कुछ अन्य दार्शनिकों का मत है कि नैतिकता धर्म से भिन्न और स्वतंत्र है। कुछ दार्शनिक इन दोनों दृष्टिकोणों का समन्वय करते हुए भी यह कहते हैं कि धर्म तथा नैतिकता एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी वास्तव में परस्पर पूरक हैं। अधिकतर ईश्वरवादी दार्शनिकों का विचार है कि नैतिकता एक मात्र मूल आधार धर्म है, जिसके अभाव में हम उसके अस्तित्व और उसकी सार्थकता की कल्पना भी नहीं कर सकते। धर्म के कारण ही समस्त नैतिक मूल्यों, आदर्शों तथा नियमों को स्वीकार करते हैं। इसका अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति धर्म में विश्वास नहीं करता तो उसके लिए इन नैतिक मूल्यों, आदर्शों और नियमों का कोई महत्व नहीं हो सकता। स्पष्ट है कि इन दार्शनिकों के अनुसार ऐसे धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के जीवन में नैतिकता के लिए कोई स्थान होना संभव नहीं है। वह केवल स्वार्थ से प्रेरित होकर ही समस्त कर्म करता है और इसी कारण उसके लिए नैतिक दृष्टि से उचित अनुचित तथा शुभ-अशुभ या अच्छे बुरे का कोई अर्थ नहीं हो सकता। धर्म के बिना नैतिकता उसी प्रकार निराधार है, जिस प्रकार पतवार के बिना नदी में चलती हुई नौका।
परंतु धर्म को नैतिकता का अनिवार्य आधार मानने के कारण अनेक दार्शनिक कठिनाइयां हैं। वस्तुतः धर्म ईश्वर अथवा किसी अन्य दैवी सत्ता या शक्ति की अवधारणा पर ही अनिवार्यतः निर्भर है, जिसे स्वीकारे बिना उसका अस्तित्व संभव नहीं है। परंतु ईश्वर के अस्तित्व के लिए दी गई उक्तियों में से कोई भी दोषरहित नहीं है। ऐसे ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना ही संभव नहीं हो पाता। अतः नैतिकता को धर्म पर आधारित मानने का मूल आधार ही समाप्त हो जाता है। पुनः ईश्वर के अस्तित्व को यदि स्वीकार भी कर लिया जाए तो ईश्वरादेश के भिन्न-भिन्न दावे किए जाते हैं। ऐसे में यह तय करना कठिन है कि ईश्वर का कौन-सा आदेश नैतिक दृष्टि से उचित है और कौन अनुचित। पुनः ईश्वर को आदेशों का वास्तविक आधार क्या है, इस संबंध में भी ईश्वरवादी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाते। अगर ईश्वरीय आदेश को शुभ माना जाए तो फिर यह प्रश्न उभरता है कि शुभ का कोई प्रत्यय विद्यमान है जो ईश्वर से स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। शुभ एक नैतिक अवधारणा है और उसकी अवधारणा को स्वीकार किए बिना हम किसी कार्य को नैतिक नहीं कह सकते। शुभ की स्वतंत्र अवधारणा स्वयं ईश्वरवाद का खंडन करता है इस रूप में कि इससे ईश्वर स्वयं शुभ के प्रत्यय के बिना नैतिक दृष्टि से अवांछनीय नहीं रह जाता है। पुनः यदि हम ईश्वर के भय से नैतिक आदेशों का पालन करते हैं तो वैसी स्थिति में यह नैतिकता बाह्य स्रोत पर निर्भर हो जाएगी और हमारा संकल्प स्वातंत्र्य का मतलब नहीं रह जाएगा। वस्तुतः नैतिकता का उद्गम सामाजिक संबंधों से होता है, साथ ही हमारे संस्कार में भी ये निगुढ़ हो जाते हैं। यह स्वयं अधिक ग्राह्य और अनुकरणीय इसलिए हो जाता है क्योंकि सभी धर्मों में नैतिकता को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। नैतिकता विहीन धर्म एक धर्मपरायण व्यक्ति के लिए उपादेय नहीं रह जाएगा, जिस रूप में एक धार्मिक व्यक्ति अपेक्षा करता है। अतः वास्तव में नैतिकता धर्म पर आश्रित नहीं बल्कि धर्म स्वयं नैतिकता से संबद्ध होकर अनुकरणीय बनता है।
Question : धर्म, धर्मशास्त्र एवं धर्म दर्शन।
(1999)
Answer : धर्म हम सबके लिए एक ऐसा प्रचलित शब्द है, जिसका हम अपने दैनिक जीवन में प्रायः प्रयेाग करते हैं। धर्म शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के Religari नामक शब्द से हुई है जिसका अर्थ है बांधना। इस दृष्टि से धर्म वह है जो मनुष्य तथा ईश्वर में संबंध स्थापित करता है और मनुष्य को परस्पर बांधना या संगठित करता हैं। धर्म की कोई सर्वसम्मत परिभाषा देना कठिन है। इसके तीन पक्ष है-सैद्धांतिक पक्ष, भावात्मक पक्ष एवं व्यावहारिक पक्ष। इस दृष्टि से धर्म मानव जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करने वाली वह व्यापक अभिवृत्ति है, जो सर्वाधिक मूल्यवान, पवित्र, सर्वज्ञ तथा शक्तिशाली समझे जाने वाले आदर्श और अलौकिक उपास्य विषय के प्रति अखंड आस्था एवं पूर्ण प्रतिबद्धता के फलस्वरूप उत्पन्न होती है, जो मनुष्य के दैनिक आचरण तथा प्रार्थना, पूजा, जप-तप आदि वाह्य कर्मकांड में अभिव्यक्त होती है। इस दृष्टि से धर्म के मूल्य तत्व के अंतर्गत अलौकिक शक्ति में विश्वास, पूजा, प्रार्थना, प्रतीकों की महत्ता एवं दुःखों से छुटकारा (मुक्ति) का आश्वासन आदि शामिल हैं। धर्मशास्त्र का धर्म से गहरा संबंध है। धर्मशास्त्र धार्मिक विश्वासों और सिद्धांतों से जुड़ी हुई वह व्यवस्था है, जो किसी ऐतिहासिक धर्म से विकसित होती हैं इसका उद्देश्य धर्म के सत्यों का प्रतिपादन करना है। विशिष्ट धर्म अपने धर्मशास्त्र से ही निर्देशित एवं क्रियाशील होते हैं। दूसरी ओर धर्म दर्शन, धर्म के अध्ययन की एक पद्धति है। धर्म का दार्शनिक पद्धति से विवेचन की धर्मशास्त्र कहा जाता हैं। धर्म दर्शन किसी विशिष्ट धर्म का अध्ययन नहीं करता बल्कि सामान्य रूप से धर्म के स्वरूप, कार्य, मूल्य एवं सत्यता का दार्शनिक विवेचन करता है। धर्म दर्शन एवं धर्मशास्त्र कुछ अर्थों में एक-दूसरे के पूरक हैं। धर्म दर्शन का बौद्धिक विवेचना करता है और धर्म मीमांसा धार्मिक मूल्यों के प्रति विश्वास रखकर चलता है। मूल्य की दृष्टि से यदि ईश्वरमीमांसा विश्वास को प्रमुख आधार मानता है तो इसमें किसी प्रकार की हानि नहीं होती है। धर्म दर्शन धर्म की कितनी भी बौद्धिक विवेचना करे परंतु मूल्यों में आस्था रखना अनिवार्य होता है। धर्म दर्शन अपनी विषय की सामग्री हेतु ईश्वरमीमांसा पर निर्भर है। धार्मिक अनुभवों एवं सत्यों की प्राप्ति ईश्वर मीमांसा से होती है। उसी का धर्मदर्शन बौद्धिक दृष्टि से विवेचन प्रस्तुत करता है। धर्म का महत्व इसलिए है कि वह ईश्वरमीमांसा के चिरंतन सत्य पर आधारित है। अतः दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। धर्म दर्शन एवं धर्मशास्त्र (ईश्वर मीमांसा) में संबंध का सबसे बड़ा आधार आध्यात्मिकता है। धर्म दर्शन आध्यात्मिकता से दूर नहीं है। परंतु इन दोंनों के बीच कुछ महत्वपूर्ण भिन्नताएं भी हैं। धर्मदर्शन का क्षेत्र व्यापक है परंतु धर्मशास्त्र का संकीर्ण। धर्मशास्त्र की अपेक्षा धर्मदर्शन का स्थान द्वितीय स्तर पर है। पुनः धर्मदर्शन ईश्वरविहीन धर्मों की भी दार्शनिक मीमांसा करता है। इस प्रकार धर्मदर्शन एवं धर्मशास्त्र के बीच स्थित है।
Question : धर्म में प्रार्थना का स्थान।
(1998)
Answer : विश्व के सभी धर्मों में चाहे वे अविकसित हो या विकसित, ईश्वरवादी हो या निरीश्वरवादी पूजा, उपासना अथवा प्रार्थना किसी न किसी रूप में अवश्य पाई जाती है। वैदिक धर्म के समान ही यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम आदि ईश्वरवादी धर्मों में भी मुख्यतः इसी प्रकार की प्रार्थनाएं पाई जाती हैं। परंतु यहां स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रार्थना केवल ईश्वरवादी धर्मों तक ही सीमित नहीं है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म, आदि निरीश्वरवादी धर्मों में भी प्रार्थना, पूजा या उपासना का बहुत महत्वपूर्ण स्थान हैं इन धर्मों के अनुयायी भी ईश्वर के स्थान पर कुछ अन्य अतिप्राकृतिक सत्ताओं में आस्था रखते हैं। वस्तुतः प्रार्थना आस्था पर आधारित वह धार्मिक कृत्य है जिसके माध्यम से उपासक किसी अतिप्राकृतिक उपास्य सत्ता के प्रति पूर्ण आत्मसर्मथन करता है, जिसके द्वारा वह स्वयं अपने लिए या दूसरों के लिए इस उपास्य सत्ता के सुख, समृद्धि तथा शांति की याचना करता है और आशा करता है कि उसकी यह याचना स्वीकार की जाएगी तथा जिसके माध्यम से उपास्य सत्ता के प्रति उसकी अपार श्रद्धा एवं विनम्रता की अभिव्यक्ति होती है। उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि प्रार्थना धर्म का एक अनिवार्य तत्व है और धर्म के प्रचलित अर्थ में इसके सभी अनिवार्य तत्वों को स्वीकार करने का ही फल है। प्रार्थना जिसके द्वारा धर्मपरायण व्यक्ति ईश्वर के प्रति अपनी आस्था एवं पूर्ण समर्पण को व्यक्त करता है। सर्वप्रथम किसी अलौकिक या अतिप्राकृतिक शक्ति के अस्तित्व में उपासक की आस्था प्रार्थना का आवश्यक आधारभूत तत्व है। यह शक्ति ईश्वर या कोई अन्य दैवी अथवा देवता हो सकता है, जिसमें उपासक आस्था रखता है। पुनः उपासक द्वारा देवता के प्रति इस आत्मसमर्पण के बिना वास्तविक अर्थ में प्रार्थना संभव नहीं है। अतः यह आत्मसमर्पण प्रार्थना का अनिवार्य तत्व है। इसी तत्व के कारण प्रार्थना में तर्कबुद्धि के स्थान पर श्रद्धा को ही महत्व दिया गया है। प्रार्थना द्वारा उपासक अपने अराध्य देवता से किसी ऐसी वस्तु की याचना करता है, जिसका उसके लिए बहुत महत्व है। इसका अर्थ यह हुआ कि धर्मपरायण व्यक्ति ईश्वर की सर्वज्ञता, दयालुता एवं सर्वशक्तिमतता में पूर्ण विश्वास रखता है जो ईश्वरवादी धारणा के बिल्कुल अनुकूल एवं संगत है। पुनः यह धर्मपरायण व्यक्ति की असमर्थता को भी प्रकट करता है, जिसके कारण वह ईश्वर या अलौकिक सत्ता के शरण में जाता है। पुनः प्रार्थना की प्रभावशीलता में भी उपासक की पूर्ण आस्था रहती है। वह यह आशा करता है कि उपास्य देवता उसकी प्रार्थना को स्वीकार करेगा और उसकी मनोवांछित वस्तु उपलब्ध कराएगा। वस्तुतः धर्म को इसका पूर्ण अर्थ प्रार्थना के द्वारा मिलता है। धर्म का विश्वव्यापी सतत प्रचार भी मानव जीवन में प्रार्थना को बनाए रखने और उसे प्रोत्साहित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। धर्म का एक कार्य है नैतिक शिक्षा देना। इस दृष्टि से प्रार्थना मनुष्य में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सदगुण तथा नैतिक गुणों को विकसित करने में सहायता प्रदान करता है और धर्म में व्यक्ति की आस्था को मजबूत करता है। प्रार्थना के कारण व्यक्ति के चरित्र के उत्थान में मदद मिलती है एवं धर्म का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य फलीभूत होता है।