Question : दंड के फलात्मक एवं प्रतिरोधात्मक सिद्धांतों के बीच परस्पर तनाव का वर्णन कीजिए। इस संदर्भ में उस मत का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए, जिसका तर्क है कि चूंकि किसी भी प्रचलित अपराध निरोधक कानूनी व्यवस्था का समुचित औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता, अतः राज्य सभा द्वारा संचालित दंड व्यवस्था को पूर्णतः समाप्त कर देना चाहिए।
(2006)
Answer : दंड के प्रतिरोधात्मक सिद्धांत को निवर्तनवादी सिद्धांत भी कहा जाता है। निरोध या प्रतिरोध का अर्थ है रोकना। दंड के फलात्मक सिद्धांत का लक्ष्य जहां अपराधी को उसके द्वारा किये गये अनैतिक कार्य का फल प्रदान करना है, वहीं प्रतिरोधात्मक सिद्धांत के अनुसार अपराधी को दंड इसलिए दिया जाता है कि अन्य व्यक्तियों को उसी तरह का अपराध करने से रोका जाए।
मैकेंजी ने इसे बड़े आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है। इसके अनुसार दंड का लक्ष्य है अन्य व्यक्तियों को उसी प्रकार का अपराध करने से रोकना। इस लक्ष्य को इस प्रसिद्ध उक्ति में व्यक्त किया गया है-दंड तुम्हें भेड़े चुराने के कारण नहीं दिया जा रहा है, बल्कि इसलिए दिया जा रहा है कि भेड़े चुराई न जाएं। मैकेन्जी के इन कथनों से यह स्पष्ट होता है कि निरोधात्मक दंड का लक्ष्य है- दूसरों को अपराध करने से रोकना। इसमें उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है कि ऐसा अपराध करने पर दूसरों को भी ऐसा ही दंड दिया जा सकता है। इससे दूसरों को भयभीत भी किया जाता है और चेतावनी भी दी जाती है। परंतु कई कारणों से यह सिद्धांत संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। सर्वप्रथम फलात्मक सिद्धांत में जहां अपराधी (व्यक्ति) को साधन मान लिया जाता है। दंड देकर दूसरों को चेतावनी देना कि वह ऐसा अपराध न करे, उचित नहीं है। इसमें दंड पानेवाला दूसरों के हित का साधन बनता है। किसी व्यक्ति को अन्य के लाभ के लिए साधन बनाना नैतिक नहीं कहा जा सकता।
कांट के इस कथन का कि मनुष्य साध्य है। इस सिद्धांत से विरोध होता है। दंड देने का एक लक्ष्य यह भी होता है कि अपराधी व्यक्ति का इससे सुधार भी हो तथा न्याय भी हो। फलात्मक सिद्धांत के अंतर्गत जहां दंड मिलने के द्वारा अपराधी में सुधार की संभावना रहती है, वहां प्रतिरोधात्मक सिद्धांत इस बात की उपेक्षा करते हुए केवल दूसरों को चेतावनी या भयभीत करने के लिए दंड का विधान करता है। अतः इसे न्यायपूर्ण और नैतिक नहीं कहा जा सकता। इसके कारण इस सिद्धांत के अनुसार कई बार अपराधी को अपराध के अनुपात से अधिक दंड मिल जाने की संभावना बन जाती है। फलात्मक सिद्धांत में अपेक्षाकृत इस समस्या की संभावना कम दिखती है। कहना न होगा कि अनुपात से अधिक दंड देना न्यायपूर्ण और नैतिक नहीं कहा जा सकता। आवश्यकता से अधिक दंड देना भी अनैतिक है। पुनः यदि प्रतिरोधात्मक सिद्धांत का लक्ष्य दूसरों को अपराध करने से रोकना है, तो इसके लिए निर्दोष व्यक्ति को भी दंड दिया जा सकता है। संभवतः आतंक के समय शासन द्वारा जब दंड दिया जाता है तो उसमें निर्दोष व्यक्ति भी दंडित इसलिए किए जाते हैं कि उन्हें दंडित देखकर अन्य लोग भाग खड़े हों और अपराध में संलग्न हों। यदि ऐसा है तो नैतिक दृष्टि से इसे उचित नहीं कहा जा सकता है।
दंड का विधान नैतिकता से जुड़ा हुआ है। इसलिए अनेक दार्शनिकों ने इसके संबंध में विचार किया है। इन दार्शनिकों ने नैतिक दृष्टि से ही दंड का समर्थन किया है। अरस्तु से लेकर आधुनिक नैतिक विचारकों ने जैसे कांट, हीगल, ब्रैडले आदि ने यह माना है कि अनैतिक कार्य करने वालों को अवश्य दंड मिलना चाहिए। नैतिक और न्याय की दृष्टि से आवश्यक है कि अपराध या अनैतिक कार्य करने वालों को दंड मिलना चाहिए। दंड में प्रमुख धारणा निहित है कि जानबूझकर अपराध या नियम के विपरीत अनैतिक कार्य करने वालों को नियमतः शारीरिक मानसिक दंड दिया जाता है। इस दृष्टि से फलात्मक या प्रतिकारात्मक सिद्धांत पर विचार करना समीचीन प्रतीत होता है।
इन दोनों सिद्धांतों में मूल तनाव दंड देने के उद्देश्य को लेकर है। जहां तक फलात्मक सिद्धांत की बात है। फलात्मक सिद्धांत के अनुसार दंड का लक्ष्य है- अपराधी को उसके द्वारा किये गये अनैतिक कार्यों का फल प्रदान करना। इस सिद्धांत को प्रतिकारवाद कहते हैं। प्रतिकार का अर्थ होता है, बदला लेना। अतः इस सिद्धांत के अनुसार अपराधी उतना ही दंड का पात्र है अथवा उतना ही कष्ट पाने का अधिकारी है, जितना कष्ट दूसरों को दिया है। इस सिद्धांत में जैसे को तैसा का विचार निहित है अर्थात् यदि किसी व्यक्ति ने किसी की हत्या की है तो उसको मृत्यु दंड मिलना चाहिए।
मैकेन्जी के शब्दों में, इस सिद्धांत के उद्देश्य को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है- इस सिद्धांत के अनुसार दंड का लक्ष्य यह है कि व्यक्ति के कर्मों का प्रतिफल उसी को मिलने दिया जाए अर्थात यह स्पष्ट प्रदर्शित कर दिया जाए कि व्यक्ति के कर्मों के बुरे परिणाम केवल दूसरों के लिए ही बुरे नहीं हैं। इस सिद्धांत की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
प्रतीकारात्मक दंड सिद्धांत के अंतर्गत दो प्रकार से दंड दिए जाते हैं, कठोर दंड एवं मृदुल दंड। कठोर दंड अपराध के अनुसार होता है। इसमें जैसे को तैसा के सूत्र का पालन होता है। अपराध की गंभीरता के अनुसार दंड भी गंभीर (उसी अनुपात में) दिया जाता है। मृदुल प्रकार के दंड के अंतर्गत अपराध का परिस्थितियों पर विचार किया जाता है। ऐसी परिस्थितियों जिनमें अपराध घटित होता है, अनेक प्रकार की हो सकती है, जैसे विवशता, अपराधी की आयु इत्यादि।
इस सिद्धांत के विरोध में कुछ लोगों को यह आपत्ति है कि इस सिद्धांत में प्रतिशोध (बदला) लेने की भावना निहित है। बदला लेने की भावना से दिया गया दंड धर्म के विपरीत है। परंतु यह आपत्ति उचित नहीं है। न्यायाधीश का अपराधी के प्रति कोई द्वेष नहीं रहता और न वह बदले की भावना से दंड देता है। पुनः इस सिद्धांत में यह कठिनाई है कि इसके आधार पर यह निश्चित करना कठिन है कि किस अपराध में अपराधी को किस अनुपात में दंड दिया जाए। दंड के समय परिस्थिति का ध्यान रखना आवश्यक है। यदि परिस्थितियां विषम है तो दंड का अनुपात निश्चित करना मुश्किल हो जाता है। प्रतीकरात्मक सिद्धांत में क्षमा का कोई स्थान नहीं है। इसके अनुसार किसी भी स्थिति में अपराधी को दंड देना अनिवार्य है। परंतु क्षमा और सहानुभूति का भी कम महत्व नहीं है। पुनः इस सिद्धांत में बहुत बड़ा दोष यह है कि इससे अपराधों के कारणों को दूर नहीं किया जा सकता। अपराध तब तक बंद नहीं हो सकते, जब तक मानसिक, सामाजिक या आर्थिक कारणों को दूर न कर दिया जाए।
उपर्युक्त कठिनाइयों के होते हुए भी यह सिद्धांत कुछ सीमा तक संतोषजनक माना जा सकता है, क्योंकि इसमें अपराधी को उसके कर्मों का फल देना अनिवार्य माना गया है। दंड अपराध सुधार में आवश्यक है। अधिकांश रूप में अनेक दार्शनिकों ने इसके मृदुल रूप को जिसमें परिस्थितियों का विचार करके दंड निर्धारित किया जाता है, समर्थन किया है। इसलिए इस सिद्धांत का औचित्य सिद्ध होता है। यहां नियम की सुरक्षा ही दंड का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की सिद्धि अपराधी में सुधार करके और उसके कार्यों का विरोध करके ही हो सकती है।
जहां तक दंड व्यवस्था को ही समाप्त कर देने की बात है, यह समस्या का अति सरलीकरण होगा एवं इसे समस्या का कोई हल संभव नहीं दिखता। कोई भी समाधान उसी स्थिति में औचित्यपूर्ण हो सकता है, जब वह समस्या के सभी कारणों एवं लक्ष्यों पर चोट करे। दंड का वास्तविक उद्देश्य अपराध का उन्मूलन करना है। चूंकि अपराध अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग स्थितियों में करते हैं, इसलिए किसी एक सिद्धांत को अंतिम सत्य मानकर चलना संभव नहीं है। कुछ व्यक्ति आनुवंशिक कारणों से अधिक उत्तेजित होते हैं। कुछ व्यक्ति मनोवैज्ञानिक समस्यायों के कारण उचित संकल्प नहीं ले पाते। ये दोनों ही प्रकार के सचेतन अपराध नहीं करते। इसलिए इन्हें घृणा या शारीरिक दंड के स्थान पर सहानुभूति और शारीरिक-मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता होती है। चूंकि समाज के अनुकूल मानव को चलाने के लिए किसी न किसी मात्रा में भय की आवश्यकता होती है, इसलिए एक सीमा तक प्रतिशोधात्मक सिद्धांत की भी आवश्यकता समाज को है ताकि सचेतन अपराध करने वाले व्यक्ति को लगातार व्यक्ति को यह लगातार महसूस हो कि उसके साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त समाज यह भी चाहता है कि किसी भी अपराध की पुनरावृत्ति न हो, इसलिए एक निश्चित सीमा तक निवर्तनवादी सिद्धांत भी आवश्यकता है।
मूल प्रश्न यह नहीं है कि कौन-सा सिद्धांत सर्वश्रेष्ठ है, बल्कि यह कि सिद्धांतों का आनुपातिक मिश्रण क्या हो? आधुनिक मानववादी दृष्टि से देखें तो हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि अपराधी की मानवीय विवेकशीलता में विश्वास रखते हुए तथा उसकी परिस्थितियों पर विचार करते हुए यथासंभव सुधरने का अवसर दिया जाए और न सुधरने की स्थिति में अगर वह लालच वश अपराध करता रहा, तो परिस्थितियों पर विचार करते हुए उसे उचित दंड मिलना चाहिए।
Question : दंड की अवधारणा का विवेचन कीजिए। इस संदर्भ में दंड की आनुपातिकता के सिद्धांत के महत्व एवं निहितार्थ पर विचार कीजिए, जिसके अनुसार दंड की तीव्रता अपराध की गंभीरता के अनुपात में होनी चाहिए।
(2004)
Answer : सामाजिक मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांतों को संरक्षित करने के लिए सामाजिक दंड की अवधारणा का प्रतिपादन किया गया है, जो सामाजिक अंकुश का कार्य करती है। समाज द्वारा स्थापित मूल्यों एवं आदर्शों का जो व्यक्ति स्वेच्छा से उल्लंघन करता है, उसे दंड का भागी होना पड़ता है। उसी प्रकार नीति दर्शन के क्षेत्र में दंड का संबंध संकल्प की स्वतंत्रता और नैतिक उत्तरदायित्व से है, तब वह अनुचित, अनैतिक और असंगत कार्य करता है, तो वह दंड का भागी होता है। अच्छे कार्यों के लिए पुरस्कार और बुरे कार्यों के लिए दंड पाना नैतिक उत्तरदायित्व से संबंधित है। राज दर्शन में राज्य का प्रमुख कर्तव्य कानून का संरक्षण और उसके उल्लंघन करने वाले को दंड देना है। दंड व्यवस्था का संचालन न्यायिक व्यवस्था के द्वारा होता है। दंड के संबंध में यह धारणा प्रचलित है कि जानबूझ कर अपराध करने वाले नियम का उल्लंघन करने वाले और कानून तोड़ने वाले को नियमतः जो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक कष्ट दिया जाता है, वह दंड है। अरस्तु और हीगल ने दंड को पारिभाषित करते हुए निषेधात्मक पुरस्कार या ट्टणात्मक पुरस्कार कहा है। ब्रैडल के शब्दों में हम दंड किसी दूसरे कारण से नहीं, बल्कि इसलिए भुगतते हैं कि हम उसके योग्य हैं और यदि किसी अशुभ कर्म के फल होने के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से दंड दिया जाता है तो वह विशुद्ध अनैतिकता है, एक स्पष्ट अन्याय है, दंड के लिए दिया जाता है। सर जेम्स स्टीफेन ने लिखा है, दंड विधान और प्रतिकार का वही संबंध है जो विवाह और प्रेम का है। हीगल की धारणा के अनुसार दंड मनुष्य के अपराध का स्वाभाविक प्रतिफल है। दंड का मूल स्वयं मनुष्य की आत्मग्लानि और प्रायश्चित के व्यवहार में है। उपयोगिता वादियों के अनुसार दंड का प्रमुख उद्देश्य अपराधियों व अनैतिक व्यक्तियों के चरित्र का उन्नयन करना है, उन्हें सत्चरित्र बनाना है। उसी प्रकार मानववादियों की धारणा है कि एक सामाजिक राज्य चिकित्सा है। राज्य दंड रूपी साधन से समाज में व्याप्त अपराध रूपी रोग का निवारण करता है, जिससे स्वस्थ समाज की स्थापना हो सके और समाज में शांति, सुरक्षा, एकता और संगठन की स्थापना की जा सके।
पुनः दंड का संबंध नैतिक उत्तरदायित्व से भी है। किसी व्यक्ति को दंड तभी दिया जाता है, जब वह कोई ऐसा अनुचित और अनैतिक कार्य करा बैठता है, जिसको वह चाहता तो न करता, परंतु नैतिक उत्तरदायित्व को जानबूझकर अवहेलना करना एक सामान्य व्यक्ति लिए उचित नहीं कहा जा सकता। नैतिक दृष्टि से उसको दंडित करना आवश्यक हो जाता है। व्यक्ति दंडित इसलिए किया जाता है कि उसने अपनी इच्छा से बिना किसी बाहरी दबाव के अनैतिक कार्य किया, अपने नैतिक उत्तरदायित्व को पूरा नहीं किया। दंड का संबंध नैतिक उत्तरदायित्व से है। अच्छे कार्यों को करने के लिए पुरस्कार और बुरे कार्यें के लिए दंड पाना नैतिक उत्तरदायित्व से संबंधित है। दंड देने के पहले यह देखा जाता है कि व्यक्ति उस कार्य के लिए उत्तरदायी है या नहीं। उत्तरदायी होने पर ही दंड का विधान किया जाता है। इस प्रकार स्वतंत्र संकल्प नैतिक उत्तरदायित्व और दंड में घनिष्ठ संबंध है।
दंड के संबंध में अनेक दार्शनिकों ने विचार किया है। उन दार्शनिकों ने नैतिक दृष्टि से दंड का समर्थन किया है। इनके अनुसार अनैतिक कार्य करने वालों को दंड अवश्य मिलना चाहिए। दंड के कई रूप हैं। दंड शारीरिक पीड़ा के रूप में भी दिया जाता है, सामाजिक तिरस्कार और निंदा के रूप में मानसिक पीड़ा पहुंचायी जाती है। कोई कार्य या जिम्मेदारी न देकर बैठे रहने के लिए बाध्य किया जाता है। एकांतवास कराया जाता है। सबसे बड़ा दंड मृत्युदंड होता है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि दंड के पीछे उद्देश्य क्या है? किसको कितना दंड दिया जाए जो नैतिक दृष्टि से उचित कहा जाए। इसके लिए दार्शनिकों ने कुछ सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, ये हैं, निरोधात्मक सिद्धांत, सुधारात्मक सिद्धांत एवं प्रतीकारात्मक सिद्धांत।
निरोधात्मक सिद्धांत में मूल उद्देश्य है, अपराध का निरोध या निवारण करना। इस सिद्धांत में मूल उद्देश्य है अपराध का निरोध या निवारण करना। इस सिद्धांत के अनुसार अपराधी को इसलिए दंड दिया जाता है कि व्यक्तियों को उसी तरह का अपराध करने से रोका जाए। परंतु इस सिद्धांत की कमी यह है कि दूसरों को अपराध से रोकने के लिए कभी-कभी अपराधी को जिस अनुपात में दंड मिलना चाहिए, उतना न देकर अधिक अनुपात में दंड दिया जाता है। अतः उसे न्यायपूर्ण और नैतिक नहीं कहा जा सकता। आवश्यकता से अधिक दंड देना नैतिक नहीं है।
पुनः प्रतीकारात्मक सिद्धांत के अनुसार दंड का लक्ष्य है, अपराधी को उसके द्वारा किये गये अनैतिक कार्य का फल प्रदान करना। इस प्रतिकारवाद भी कहा जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार भी अपराधी उतना ही दंड का पात्र है अथवा उतना ही कष्ट पाने का अधिकारी है जितना कष्ट दूसरों को दिया जाता है। अर्थात् किसी व्यक्ति ने हत्या की है तो उसे भी मृत्युदंड मिलना चाहिए। इस सिद्धांत की भी यही कठिनाई है कि इसके आधार पर यह निश्चित करना कठिन है कि किस अपराध में अपराधी को किस अनुपात में दंड दिया जाए। दंड के समय परिस्थितियों का ध्यान रखना आवश्यक है। यदि परिस्थितियां विषम हैं तो दंड का अनुपात निर्धारित करना भी कठिन हो जाता है। रेशडाल के अनुसार यदि अपराध के अनुपात में दंड अधिक देते हैं तो यह अनुचित और अन्याय होगा। यदि दंड कम दिया जाता है तो यह भी अनुचित है। इसने संदर्भ में वर्तमान में मृत्युदंड के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लग गए हैं। मृत्युदंड देने का अर्थ है जीवन की समाप्ति। परंतु इससे अपराधी के सुधरने को संभावना ही खत्म हो जाती है, साथ ही इस तरह का दंड आदिम संस्कृति का परिचायक है, जो वर्तमान युग के अनुकूल प्रतीत नहीं होता।
Question : दंड की प्रतीकारात्मक और निवारणात्मक थियोरियां परस्पर पूरक हैं।
(2003)
Answer : दंड के निवारणात्मक सिद्धांत को बदला लेने का सिद्धांत भी कहा जाता है। ओल्ड टेस्टामेंट में इसी सिद्धांत को आंख के लिए आंख और दांत के लिए दांत कहकर बतलाया गया है। यह सिद्धांत न्याय पर आधारित है। न्याय की मांग है जो जैसा करे उसे वैसा फल मिलना चाहिए। न्यायालय मनुष्य को केवल उसी का प्रतिदान देता है जो वह अर्जित कर चुका है। वह अशुभ, अनैतिक, असंगत कर्म कर चुका है, अतः यह युक्ति युक्त है कि उसके पाप का पुरस्कार उसके द्वारा अर्जित ध्वंसात्मक मूल्य अर्थात् अशुभ उसे वापस मिलना चाहिए। अपराधी को उसके अपराध के अनुपात में दंड मिलना चाहिए। दंड का प्रयोजन नैतिक नियम की उच्चता का समर्थन करना है। सेठ का मत है दंड का तत्व नैतिक प्रतिरोध है। इस सिद्धांत के अनुसारअपराधी को दंड इसलिए दिया जाता है कि अन्य व्यक्तियों को उसी तरह का अपराध करने से रोका जाए। परंतु दंड का यह सिद्धांत संतोषजनक नहीं है, क्योंकि यह प्रतिशोध की भावना पर आधारित है। बदला लेने की भावना से दिया गया दंड धर्म के विपरीत है। पुनः यहां यह भी निश्चित करना मुश्किल है कि किस अपराधी को किस मात्र में दंड मिलना चाहिए। पुनः न्याय और साम्य के जिन सिद्धांतों पर प्रतिशोध का सिद्धांत आधारित हैं, वे स्वयं अपूर्ण हैं तथा किसी विशेष समाज की देन हैं। उदाहरणार्थ व्यक्तिगत सम्पत्ति की संस्था को अनिवार्य मानने पर ही किसी की सम्पत्ति अपहरण अपराध है। यदि हम सम्पत्ति को ही अनैतिक मानें तो इसका अपहरण नैतिक एवं वैध होगा। जहां तक प्रतीकारात्मक सिद्धांत की बात है यह अपराधी को उसके द्वारा किये गये अनैतिक कार्य का फल प्रदान करने की वकालत करता है। अर्थात् दूसरों द्वारा अपराध की संभावना को खत्म करने में व्यक्ति (अपराधी) जहां साधन मात्र, बन कर रह जाता है, वहीं प्रतीकारात्मक सिद्धांत में व्यक्ति को उसके अनैतिक कार्य का फल प्रदान करने की मंशा होता है। इससे अपराधी के स्वयं सुधरने की गुंजाईश रहती है। इसमें यह स्पष्ट प्रदर्शित होता है कि बुरे कर्मों का फल बुरा होता है। इस सिद्धांत के अनुसार दंड का उद्देश्य समाज या राज्य का सुव्यवस्था बनाए रखना है। जहां निवारणात्मक सिद्धांत में नैतिकता की मान्यता की थोड़ी अनदेखी होती है, वहां प्रतीकारात्मक सिद्धांत में नैतिक नियम के गौरव और प्रभुता को बनाए रखने की संभावना रहती है क्योंकि व्यक्ति स्वयं साध्य के रूप में समझा जाता है। निवारणात्मक सिद्धांत में जैसे को तैसा के सिद्धांत के अनुसार मृदुल दंड की सम्भावना क्षींण पड़ जाती है, वहीं प्रतीकारात्मक सिद्धांत में मृदुल दंड देकर ही अपराधी को उसके अपराध का प्रतिदान दिये जाने की संभावना रहती है। वस्तुतः इन दोनों सिद्धांतों में ही सत्य का अंश है। दंड के औचित्य को सिद्ध करने के लिए ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। वास्तव में दंड का उद्देश्य है- अपराध करने से रोकना, अपराध में सुधार करना और उसके दुष्कर्मों को उसे न्यायपूर्ण परिणाम देना। इस उद्देश्य को ये दोनों ही सिद्धांत इन तीनों उद्देश्यों में से किसी न किसी को अथवा लक्ष्य मानते हैं, अतः दोनों एक दूसरे का पूरक बनकर दंड के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। दंड का औचित्य इन दोनों पर ही निर्भर है।
Question : दंड के निवारणात्मक सिद्धांत का कोई औचित्य नहीं है।
(2001)
Answer : दंड के निवारणात्मक सिद्धांत को बदला लेने का सिद्धांत भी कहा जाता है, ओल्ड टेस्टामेंट में इसी सिद्धांत को आंख के लिए आंख और दांत के लिए दांत कहकर बतलाया गया है। यह सिद्धांत न्याय पर आधारित है। न्याय की मांग है जो जैसा करे, उसे वैसा फल मिलना चाहिए। न्यायालय मनुष्य को केवल उसी का प्रतिदान देता है, जो वह अर्जित कर चुका है। वह अशुभ, अनैतिक, असंगत कर्म कर चुका है। अतः यह युक्ति युक्त है कि उसके पाप का पुरस्कार उसके द्वारा अर्जित ध्वंसात्मक मूल्य अर्थात अशुभ उसे वाप मिलना चाहिए। अपराधी को उसके अपराध के अनुपात में दंड मिलना चाहिए। दंड का प्रयोजन नैतिक नियम की उच्चता का समर्थन करना है। सेठ का मत है दंड का तत्व नैतिक प्रतिरोध है। इस सिद्धांत के अनुसार अपराधी को दंड इसलिए दिया जाता है कि अन्य व्यक्तियों को उसी तरह का अपराध करने से रोका जाए। परंतु दंड का यह सिद्धांत संतोषजनक नहीं है क्योंकि यह प्रतिशोध की भावना पर आधारित है। बदला लेने की भावना से दिया गया दंड धर्म के विपरीत है। पुनः यहां यह भी निश्चित करना मुश्किल है कि किस अपराधी को किस मात्र में दंड मिलना चाहिए। पुनः न्याय और साम्य के जिन सिद्धांतों पर प्रतिशोध का सिद्धांत आधारित है, वे स्वयं अपूर्ण हैं तथा उसी विशेष समाज की देन हैं। उदाहरणार्थ व्यक्तिगत सम्पत्ति की संस्था को अनिवार्य मानने पर ही किसी की सम्पत्ति अपहरण अपराध है। यदि हम व्यक्तिगत सम्पत्ति को ही अनैतिक मानें तो उस सम्पत्ति को लूटना भी अवैध नहीं माना जाएगा। दंड के इस सिद्ध के औचित्य पर कई प्रश्नचिन्ह हैं। जैसा कि मैकेन्जी ने कहा है, यदि दंड का यही एकमात्र लक्ष्य हो, तब तो इसकी संभावना है कि नैतिक चेतना का विकास होने के साथ-साथ तेजी से दंड व्यवस्था का उन्मूलन कर दिया जाए, क्योंकि केवल दूसरों के लाभ के लिए किसी व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाना न्याससंगत नहीं माना जा सकता। इसमें तो व्यक्ति को केवल एक पदार्थ मानना होगा, केवल एक साधन, न कि स्वतः एक साध्य। इस आलोचना में दो महत्वपूर्ण बातें हैं, प्रथम यह कि इस सिद्धांत में मनुष्य को साधन मान लिया गया है। दंड देकर दूसरों की चेतावनी देना कि वह ऐसा अपराध न करे, उचित नहीं है। दंड पानेवाला दूसरों के हित का साधन बनता है। किसी व्यक्ति को अन्य के लाभ के लिए साधन बनाना नैतिक नहीं कहा जा सकता। मैकेन्जी ने दूसरे तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है, जिसके कारण भी यह सिद्धांत व्यर्थ सिद्ध होता है। उसके अनुसार, नैतिक चेतना के विकास के साथ-साथ यह सिद्धांत समाप्त हो सकता है। जब नैतिक चेतना के विकास के साथ ही साथ यह बात दिमाग में बैठ जाएगी कि दूसरों के हित के लिए किसी को दंड नहीं देना चाहिए तो यह सिद्धांत व्यर्थ हो जाएगा। पुनः दंड देने का एक लक्ष्य यह भी होता है कि अपराधी व्यक्ति का इससे सुधार भी हो तथा उसके साथ न्याय भी हो परंतु यह सिद्धांत इस लक्ष्य की उपेक्षा करते हुए केवल दूसरों को चेतावनी या भयभीत करने के लिए दंड का विधान करता हैं, अतः इसे न्यायपूर्ण या नैतिक नहीं कहा जा सकता। इस सिद्धांत का लक्ष्य अपराधी को दंड देकर दूसरों को भयभीत भी करना है, जिससे दूसरे अपराध न करे परंतु नैतिकता में भय का स्थान नहीं होना चाहिए। भय पर आधारित आचरण को नैतिक नहीं कहा जा सकता।
Question : दंड का प्रतीकारात्मक सिद्धांत।
(2000)
Answer : इस सिद्धांत के अनुसार दंड का लक्ष्य है, अपराधी को उसके द्वारा किये गये अनैतिक कार्यों का फल प्रदान करना। इस सिद्धांत को प्रतिकारवाद कहते हैं। प्रतिकार का अर्थ होता है- बदला लेना। अतः इस िसद्धांत के अनुसार अपराधी उतना ही दंड का पात्र है अथवा उतना ही कष्ट पाने का अधिकारी है, जितना कष्ट दूसरों को दिया है। इस सिद्धांत में जैसे को तैसा का विचार निहित है अर्थात् यदि किसी व्यक्ति ने किसी की हत्या की है तो उसको मृत्यु दंड मिलना चाहिए। मैकेन्जी के शब्दों, में इस सिद्धांत के उद्वेश्य को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है- ‘‘इस सिद्धान्त के अनुसार दंड का लक्ष्य यह है कि व्यक्ति के कर्मों का प्रतिफल उसी को मिलने दिया जाए अर्थात् यह स्पष्ट प्रदर्शित कर दिया जाए कि व्यक्ति के कर्मो के बुरे परिणाम केवल दूसरे के लिए ही बुरे नहीं हैं। इस सिद्धांत की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
प्रतिकारवादी सिद्धांत का समर्थक उनके दार्शनिकों और चिंतकों ने किया है। मुख्य रूप से अरस्तु, कांट, हीगल तथा ब्रैडल ने इसका समर्थन किया है। प्रतिकारात्मक दण्ड सिद्धांत के अंतर्गत दो प्रकार से दंड दिए जाते हैं, कठोर दण्ड एवं मृदुल दण्ड। कठोर दंड अपराध के अनुसार होता है। इसमें जैसे को तैसा के सूत्र का पालन होता है। अपराध की गंभीरता के अनुसार दण्ड भी गंभीर (उसी अनुपात में) दिया जाता है। मृदुल प्रकार के दण्ड के अंतर्गत अपराध की परिस्थितियों पर विचार किया जाता है। ऐसी परिस्थितियां, जिनमें अपराध घटित होता है, अनेक प्रकार की हो सकती है जैसे विवशता, अपराधी की आयु इत्यादि।
इस सिद्धांत के विरोध में कुछ लोगों को यह आपत्ति है कि इस सिद्धांत में प्रतिरोध लेने की भावना निहित है। बदला लेने की भावना से दिया गया दंड धर्म के विपरीत है। परंतु यह आपत्ति उचित नहीं है। न्यायाधीश का अपराधी के प्रति कोई द्वेष नहीं रहता और न वह बदले की भावना से दंड देता है। पुनः इस सिद्धांत में यह कठिनाई है कि इसके आधार पर यह निश्चित करना कठिन है कि किस अपराध में अपराधी को किस अनुपात में दंड दिया जाए। दंड के समय परिस्थिति का ध्यान रखना आवश्यक है। यदि परिस्थितियां विषम हैं तो दंड का अनुपात निश्चित करना मुश्किल हो जाता है। प्रतीकारात्मक सिद्धांत में क्षमा का कोई स्थान नहीं है। इसके अनुसार किसी भी स्थिति में अपराधी को दंड देना अनिवार्य है। परंतु क्षमा और सहानुभूति का भी कम महत्व नहीं है। पुनः इस सिद्धांत में बहुत बड़ा दोष यह है कि इससे अपराधों के कारणों को दूर नहीं किया जा सकता। अपराध तब तक बन्द नहीं हो सकते, जब तक कि मानसिक, सामाजिक या आर्थिक कारणों को दूर न कर दिया जाए।
उपर्युक्त कठिनाइयों के होते हुए भी यह सिद्धांत कुछ सीमा तक संतोषजनक माना जा सकता है, क्योंकि इसमें अपराधी को उसके कर्मों का फल देना अनिवार्य माना गया है। दंड अपराध सुधार में आवश्यक है। अधिकांश रूप में अनेक दार्शनिकों ने इसके मृदुल रूप को जिसमें परिस्थितियों का विचार करके दंड निर्धारित किया जाता है, समर्थन किया है। इसलिए इस सिद्धांत का औचित्य सिद्ध होता है। यहां नियम की सुरक्षा ही दंड का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की सिद्धि अपराधी में सुधार करके और उसके कर्मों का विरोध करके ही हो सकती है।
Question : दंड का सुधारात्मक सिद्धांत।
(1999)
Answer : दंड का सुधारात्मक सिद्धांत दूसरों को अपराध से रोकने के स्थान पर व्यक्ति के सुधार के लिए दंड का विधान करता है। यदि निरोधात्मक सिद्धांत व्यक्ति को साधन मानता है तो
सुधारात्मक सिद्धांत व्यक्ति को साध्य मानकर उसका सुधार करता है। इस सिद्धांत के विषय में मैकेन्जी का कथन है कि-इस सिद्धांत के अनुसार दंड का लक्ष्य है- स्वयं अपराधी को शिक्षा देना, उसे सुधारना। वर्तमान समय में यही दृष्टिकोण सबसे ज्यादा प्रचलित दिखाई देता है, क्योंकि इस युग की मानवतावादी भावनाओं के साथ इसी सिद्धांत का मेल सबसे अधिक बैठता है। यह तो स्पष्ट ही है कि मृत्युदंड का औचित्य सिद्ध करने के लिए इस सिद्धांत का प्रयोग नहीं किया जा सकता, दंड को अन्य अनेक प्रकार भी इस सिद्धांत के अनुसार प्रभावहीन मानने पड़ेंगे। सच तो यह है कि अनेक मामलों में दंड की अपेक्षा दयापूर्ण व्यवहार का अच्छा प्रभाव पड़ने की संभावना है। इस दंड की निम्नलिखित विशेषताएं परिलक्षित होती हैं:
(i)इस सिद्धांत के अनुसार दंड का उद्देश्य अपराधी के चरित्र का सुधार करना है।
(ii)सुधार के लिए दंड देना चाहिए, जिससे व्यक्ति पुनः अपराध न करे।
(iii)इस सिद्धांत में मृत्युदंड को उचित नहीं माना जाता क्योंकि यदि व्यक्ति समाप्त ही हो जाएगा तो सुधार किसका होगा? अतः सुधार की संभावना बनी रहने के लिए मृत्युदंड उचित नहीं माना जाता।
(iv)आधुनिक युग में इस सिद्धांत को मानवतावादी दृष्टि से अधिक महत्व दिया गया है। इसलिए यह सिद्धांत सर्वाधिक प्रचलित और समर्थित है। अनेक क्षेत्रें में इसको समर्थन प्राप्त हुआ है। इसका सबसे प्रबल समर्थन अपराध मानव विज्ञान के क्षेत्र में किया गया है। इसके अनुसार अपराध एक बीमारी या रोग है। यह बीमारी मानसिक है जो वंश परंपरा से प्राप्त होती है। अतः अपराध के लिए अपराधी जिम्मेदार नहीं है, क्योंकि जानबूझकर नैतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करता। इस रोग में अपराधी में कुछ शारीरिक दोष भी उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे विवश होकर वह अपराध कर बैठता है, अपराध को रोकने में असमर्थ सिद्ध होता है। जैसे चोरी करने का उन्माद। इसमें रोगी उन्माद में विवश होकर किसी की छोटी वस्तु चुरा लेता है। वह नहीं जानता वह ऐसा क्यों कर रहा है।
पुनः इस सिद्धांत का समर्थन अपराध विज्ञान द्वारा भी किया जाता है। अपराध समाज विज्ञान का मत है कि अपराधों का कारण विषय और प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितियां हैं, इन्हीं के कारण मनुष्य अपराध करने को विवश होता है। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और समानता के कारण व्यक्ति को समुचित सुविधाएं नहीं मिल पातीं। वह अभावों से ग्रस्त होने के कारण दुखी और त्रस्त रहता है और अंततः अपराध कर बैठता है। आधुनिक मनोविज्ञान में फ्रायड तथा अन्य मनोविश्लेषणवादी इस सिद्धांत का समर्थन इसलिए करते हैं कि मनुष्य अपराध अपनी इच्छा से सोच विचार कर नहीं कर सकता, वरन् दबी हुई इच्छाओं, विकल यौन प्रवृत्तियों तथा मनोग्रंथियों के कारण करता है। ऐसी दशा में अपराधों को दूर करने का उपाय दंड नहीं है, बल्कि शिक्षा और चिकित्सा है।
दंड का सुधारात्मक सिद्धांत निश्चित रूप से अपनाने योग्य है और वर्तमान समय में मनोविज्ञान तथा सामाजिक अध्ययनों के फलस्वरूप विश्व के अधिकांश देशों का ध्यान इस ओर गया है और अपराध को एक बीमारी समझकर सुधारात्मक उपाए किए जा रहे हैं। परंतु अपराध का यह सिद्धांत मानसिक रोग और अपराध में अंतर नहीं करता। दोनों को एक मानना आपत्तिजनक है। पुनःनिर्धनता और असमानता ही अपराध का एकमात्र कारण नहीं है जैसा कि यह मानता है। पुनः क्षमा और मनोविश्लेषण भी कई बार अपराधी को सुधारने में असफल हो जाते हैं।