Question : दैवी अनुभूति एवं रहस्यात्मक अनुभूति में भेद।
(2007)
Answer : आम धारणा यह है कि रहस्यात्मक अनुभूति और दैवी अनुभूति एक ही है अर्थात् रहस्यवाद धार्मिक मनोदशा है। इसे ही कुछ व्यक्ति रहस्यात्मक अनुभूति एवं कुछ व्यक्ति दैवी अनुभूति कहते हैं। अतः ये विचारक रहस्यवादियों को अनिवार्यतः धर्म परायण व्यक्ति मानते हैं। उनकी मान्यता का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि सभी देशों में अधिकतर रहस्यवादी किसी न किसी धर्म के अनुयायी अवश्य रहे हैं और उन्होंने अपने रहस्यात्मक अनुभव की व्याख्या अपने-अपने धर्म के रूप में की है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि रहस्यवाद के साथ दैवी अनुभूति का घनिष्ट संबंध है। परंतु कुछ विचारक इन दोनों में घनिष्ठ संबंध स्वीकार करते हुए भी रहस्यवाद को धार्मिक स्थिति नहीं मानते। उनका मत है कि अधिकतर रहस्यवादियों के धर्मपरायण होने का यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि रहस्यवाद और दैवी अनुभूति में कोई भेद नहीं है। वस्तुतः रहस्यात्मक अनुभव तथा धार्मिक अनुभव परस्पर घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हुए भी दोनों भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव हैं। धार्मिक अनुभव का रहस्यात्मक अनुभव होना और रहस्यात्मक अनुभव होना अनिवार्य नहीं है। सभी धर्म परायण व्यक्ति रहस्यवादी नहीं हेाते और न ही सभी रहस्यवादी धर्मपरायण होते हैं।
ऐसी स्थिति में रहस्यामक अनुभव को धार्मिक अनुभव मान लेना उचित नहीं हेाता। मूल रूप से रहस्यात्मक अनुभव का किसी विशेष धर्म के साथ केाई संबंध नहीं है। रहस्यवाद तथा धर्म का जो संबंध रहा है वह स्थायी एवं आंतरिक न होकर केवल अस्थायी और बाहरी ही है। रहस्यात्मक अनुभव समस्त भेदों से रहित एक ही परम सत्ता का अनुभव है। इस अनुभव में ऐसा कोई तत्व नहीं है जो इसे अनिवार्यतः धार्मिक अनुभव बना दे। हां विभिन धर्मों के अनुरूप इस अनुभव की भिन-भिन प्रकार से धार्मिक व्याख्या अवश्य की जा सकती है। उदाहरणार्थ ईश्वरवादी धर्मों के अनुयायी रहस्यात्मक अनुभव को ईश्वर के साथ एकता का अनुभव कहते हैं। कुछ अन्य धर्मपरायण व्यक्ति इसे परमतत्व का अनुभव कहते हैं। परंतु ऐसी व्याख्या से रहस्यात्मक अनुभव अपने मूल रूप में धार्मिक अनुभव नहीं हो जाता। बौद्ध धर्म के अनुयायी रहस्यात्मक अनुभव को किसी भी रूप में ईश्वर का अनुभव नहीं मानते क्योंकि वे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास ही नहीं करते। वस्तुतः रहस्यवादी अनुभव को दैवी अनुभूति कहने का कारण यह है कि रहस्यात्मक अनुभव में परमतत्व में विलीन होने की अनुभूति होती है, जो धर्मग्रंथों में भी वर्णित मिलता है। रहस्यवादी अपने अनुभव को दिक काल से परे का अनुभव मानते हैं और ईश्वरवादी भी धार्मिक अनुभव को दिककालातीत एवं शाश्वत मानते हैं। रहस्यवादी जिस अनुभव को शांति का अनुभव कहते हैं, उसे ईश्वरीय शांति मान लिया जाता है। वस्तुतः रहस्यवाद किसी विशेष धर्म का समर्थन नहीं करता। अपने आप में दैवी अनुभूति किसी व्यक्ति को ईसाई या बौद्ध नहीं बनाता। रहस्यवादी किस धार्मिक सिद्धांत के अनुसर अपने अनुभव की व्याख्या करेगा, यह मुख्यतः इस बात पर निर्भर है कि वह किस संस्कृति को स्वीकार करता है। अतः यह स्पष्ट है कि रहस्यवाद और धार्मिक अनुभूति में अनिवार्य संबंध नहीं है।
Question : ईश्वरीय उद्घाटन की अवधारणा की व्याख्या कीजिए। क्या ईश्वरीय उद्घाटन को संपुष्टि की आवश्यकता है? विचार कीजिए एवं साथ ही ईश्वरीय उद्घाटन एवं श्रुति के बीच भेद-अभेद की व्याख्या कीजिए।
(2006)
Answer : धार्मिक ज्ञान का संबंध धर्म और धर्मपरायण व्यक्ति से है। ईश्वर, आत्मा, मोक्ष, भक्ति, प्रार्थना, कर्मकांड इत्यादि से संबंधित ज्ञान की प्रायः धार्मिक ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। धार्मिक ज्ञान का स्रोत्र धार्मिक ग्रंथ, साधु संत, रहस्यानुभूति, दैवी प्रकाशना एवं तर्क बुद्धि है।
तर्कबुद्धि इच्छा, कल्पना, संवेग आदि से भिन्न मनुष्य के अंतः स्थित वह विवेक शक्ति या विचार शक्ति है, जिसके द्वारा वह जीवन और जगत को जानने का प्रयास करता है। धार्मिक ज्ञान की स्थापना विकास और उसे सबलता प्रदान करने में तर्कबुद्धि की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे इन निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं:
(i) प्रत्येक धर्म का आधार कोई न कोई धर्म ग्रंथ होता है। उदाहरणस्वरूप इस्लाम धर्म कुरान पर, ईसाई धर्म बाइबिल पर, हिंदू धर्म वेद, उपनिषद, गीता आदि पर आधारित है। इन धर्मशास्त्रों में संबंधित धर्मों के सिद्धांतों, नियमों एवं आदेशों का विवरण होता है। इन विभिन्न धर्मग्रंथों के शब्दों, वाक्यों एवं श्लोकों आदि के स्पष्टीकरण एवं व्याख्या करने के लिए तर्कबुद्धि की आवश्यकता होती है। यह तर्क बुद्धि का ही परिणाम है कि उपनिषदों एवं ब्रह्मसूत्रों पर टीका करते हुए जहां शंकराचार्य ने अद्वैतवाद की स्थापना की, वहीं रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत की स्थापना करते हैं और मध्वाचार्य ने द्वैतवाद की स्थापना की। इस प्रकार तर्कबुद्धि धार्मिक ज्ञान की स्थापना एवं प्रोत्साहन में सहायता प्रदान करती है।
(ii) धार्मिक अनुभूति क्षणिक एवं अस्थायी होती है। धार्मिक मनुष्य उसे स्थायी बनाना चाहता है तथा उसे दूसरों पर सम्प्रेषित करना चाहता है। इसके लिए भाषा की आवश्यकता होती है। भाषा प्रत्ययों विचारों एवं वाक्यों पर निर्भर करती है। इन विचारों एवं प्रत्ययों की उत्पत्ति में तर्कबुद्धि की महती भूमिका है। तर्कबुद्धि द्वारा मानव अपने धर्म के विविध पक्षों को सम्यकरूपेण जान लेता है। वह अपने धर्म का तार्किक रूप से अध्ययन कर उसे युग के अनुकूल बनाने का प्रयास करता है, विरोधियों द्वारा उठाए गए आक्षेपों का निराकरण करता है, अपने विश्वासों को अंधविश्वास से बचाने के लिए वह तर्क देता है। तर्क बुद्धि से धार्मिक क्षेत्र में विद्यमान रूढि़वादिता पूर्वग्रह आदि का निराकरण होता है और नये मानवीय मूल्यों को धर्म से जोड़ने का मार्ग प्रशस्त होता है। तर्क बुद्धि की सहायता लेकर ही धार्मिक क्षेत्र में सर्वधर्मसवमभाव धार्मिक सहिष्णुता आदि की स्थापना में मदद मिलती है।
भारतीय परम्परा में धार्मिक ज्ञान के क्षेत्र में तर्कबुद्धि की महत्ता महात्मा बुद्ध के इस कथन से स्पष्ट होती है कि तुम मेरी बात को इसलिए मत मानो कि मैं (बुद्ध) वह कह रहा हूं तुम इसे परखो, अपने तर्क की कसौटी पर कसो और यदि तुम्हें यह अच्छी लगे तो फिर मेरी बात मानो और तदनुरूप आचरण करो।
(iii) धार्मिक ज्ञान के संदर्भ में तर्कबुद्धि की एक नवीन भूमिका है। तर्कबुद्धि स्वयं ही धार्मिक कथनों और उससे संबंधित विषयवस्तु को अपनी सीमित परिधि से बाहर सिद्ध करके उसे हमारी आस्था एवं श्रद्धा का विषय बनने के लिए छोड़ देती है। तर्कबुद्धि यह बताती है कि वह न तो धार्मिक सत्यों को प्रमाणित कर सकती है और न अप्रमाणित कर सकती है। उदाहरणस्वरूप, ईश्वर का अस्तित्व, आत्मा की अमरता आदि के विषय में तर्कबुद्धि भावात्मक या नकारात्मक ढंग से कुछ भी निश्चित रूप से स्थापित नहीं कर पाती। इस प्रकार तर्कबुद्धि स्वयं धार्मिक विश्वास के मूल आधार के रूप में आस्था के लिए मार्ग प्रशस्त कर देती है। पाश्कल, कांट, किर्केगार्ड आदि इसका समर्थन करते हैं।
कांट यद्यपि शुद्ध बुद्धि के आधार पर ईश्वर का अस्तित्व, आत्मा की अमरता आदि धार्मिक ज्ञान पर सैद्धांतिक रूप से प्रश्न उठाते हैं, परंतु व्यावहारिक बुद्धि के आधार पर नैतिकता की पूर्वमान्यता के रूप में जीवन की सार्थकता के लिए आस्था के आधार पर ईश्वर, आत्मा आदि धार्मिक प्रत्ययों की सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं।
आलोचनाः
(i) धर्म का आधार आस्था है और तर्कबुद्धि आस्था का विरोधी है।
(ii) तर्कबुद्धि धर्म से प्राथमिक रूप से या साक्षात रूप से संबंधित नहीं है। यहां इस तर्कबुद्धि पर आधारित होकर धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति नहीं करते बल्कि आस्था और विश्वास के सहायक के रूप में तर्कबुद्धि की मदद ली जाती है। शंकराचार्य का कहना है कि धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति में तर्कबुद्धि एक सीमा तक ही सहायक है। उनके अनुसार ब्रह्म अपरोक्षानुभूति गम्य है या उसका आत्म साक्षात्कार होता है। हम उसे तर्क बुद्धि के माध्यम से नहीं जान सकते।
(iii) केवल अपर्याप्त प्रमाण के आधार पर किसी वस्तु में आस्था एवं विश्वास रखना अनुचित एवं असंगत है।
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि धार्मिक ज्ञान की स्थापना, विकास एवं उसका मार्ग प्रशस्त करने में तर्कबुद्धि की भूमिका द्वितीयक या गौण है। फिर भी इससे इसका महत्व खंडित नहीं होता। धार्मिक क्षेत्र से अंधविश्वासों को दूर करने में सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाने में और धर्मों के शोधक के रूप में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान काल में धार्मिक कट्टरपंथ एवं धार्मिक आतंकवाद को समाप्त करने में धर्म के साथ तर्क का बेहतर एवं क्रियाशील समावेश उपयोगी हो सकता है।
अब प्रश्न दैवी प्रकाशना की धार्मिक ज्ञान में भूमिका का है। दैवी प्रकाशना का वस्तुतः धार्मिक विश्वास एवं धार्मिक ज्ञान में अहम् एवं प्राथमिक भूमिका है। किसी प्रकाशित विषय को प्रकाशित करना ही प्रकाशना कहा जाता है। धार्मिक क्षेत्र में दैवी प्रकाशना का अर्थ है- ईश्वर या दैवी सत्ता द्वारा स्वयं प्रकाशित करना। Catholic Encyclopaedia के अनुसार दैवी प्रकाशना ईश्वर द्वारा बौद्धिक प्राणियों के बीच असाधारण साधन के द्वारा कुछ सत्यों का प्रकटीकरण है। Johan Hick के अनुसार दैवी प्रकाशना मानव के समक्ष दैव प्रमाणित सत्यों का प्रमाणीकरण है।
दैवी प्रकाशना में ईश्वर यह बताता है कि उसका स्वरूप क्या है? वह मनुष्य से क्या अपेक्षा करता है, इसका बोध केवल ईश्वरवादी व्यक्ति को ही हो सकता है। यहां ईश्वर या दैवी सत्ता निम्नलिखित साधनों द्वारा स्वयं को प्रकाशित करती हैः
दैवी प्रकाशना के कुछ मूलभूत कारण माने जाते हैं। ये निम्नांकित हैं-
जहां तक धार्मिक ज्ञान के संदर्भ में तर्क बुद्धि एवं दैवी प्रकाशना के बीच की संगति का प्रश्न है, तर्कबुद्धि दैवी प्रकाशना को सम्पुष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। तर्कबुद्धि दैवी प्रकाशना के अनिवार्य सहयोगी, मार्गदर्शक एवं शोधक की भूमिका में होती है। तर्कबुद्धि ज्ञान की प्राप्ति के द्वितीय स्तर पर आती है। यह दैव प्रकाशित सत्यों में उत्पन्न विरोधाभासों को शोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दैव प्रकाशित सत्य जो मुख्यतः आस्था एवं विश्वास पर आधारित है, के मार्गदर्शक के रूप में तर्कबुद्धि की महत्ता है। तर्कबुद्धि के आधार पर ही दैव प्रकाशित सत्यों को ग्रहण करने में मदद मिलती है। तर्क की कसौटी पर परखने के पश्चात कई बार दैवप्रकाशित सत्यों को स्थायित्व मिलता है और ईश्वरवादी उसे अधिक तत्परता के साथ ग्रहण करता है।
यह तर्क बुद्धि ही है जिसके माध्यम से दैवी प्रकाशना के तथ्यों एवं भावों को धार्मिक व्यक्तियों तक सम्प्रेषित करने में मदद मिलती है। तर्क बुद्धि की सहायता से दैव प्रकाशित तथ्यों के स्पष्टीकरण में मदद मिलती है और यह आम धार्मिक व्यक्तियों के लिए अधिक ग्राह्य बन पाता है। तर्कबुद्धि के अभाव में दैव प्रकाशना कई बार अंधविश्वास के रूप में उभर कर आती है और धार्मिक व्यक्ति के लिए दिग्भ्रमित होने की संभावना रहती है। एक धार्मिक व्यक्ति के लिए दैव प्रकाशित तथ्यों एवं तर्कबुद्धि के मेल से उत्पन्न तथ्य ही अधिक विश्वास योग्य बन पाता है। तर्क बुद्धि की बौद्धिकता दैव प्रकाशित तथ्यों को एक स्थायी आधार प्रदान करता है और ईश्वरवादियों के आध्यात्मिक मार्ग तक पहुंचने का मार्ग अपेक्षाकृत अधिक आसान हो जाता है। शंकराचार्य ने भी अपने अद्वैतवेदांत में ब्रह्म साक्षात्कार के लिए ज्ञान मार्ग की आवश्यकता पर विशेष बल दिया है, यद्यपि वे भक्ति और कर्म मार्ग की आवश्यकता और महत्व को स्वीकार करते हैं। गीता में भी भक्ति ज्ञान एवं कर्ममार्ग के समन्वय को ईश्वर की भ्रांति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि तर्कबुद्धि और दैवी प्रकाशना का आधार भिन्न होते हुए भी एक धार्मिक व्यक्ति के लिए दोनों की महत्ता है और इसलिए दोनों में संगति बिठाई जा सकती है।
Question : धार्मिक विश्वास तत्वतः अमिथ्यीकृत अभिग्रहों का संघटन है जो व्यक्ति की अन्य सभी मान्यताओं का संचालन करता है आरएम हेयर।
(2006)
Answer : आरएम हेयर तथ्यात्मक सार्थकता की कसौटी के रूप में मिथ्यापनीयता सिद्धांत का पूर्णतः समर्थन करते हैं, अर्थात् हेयर केवल उन्हीं कथनों को तथ्यात्मक दृष्टि से सार्थक मानते हैं जो मिथ्यापनीय हो। अपनी इसी मान्यता के आधार पर उन्होंने धार्मिक कथनों की सार्थकता की समस्या का समाधान करने का प्रयास किया है। हेयर ने इस उद्देश्य से एक नवीन सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, जिसे ब्लिक सिद्धांत कहा जाता है।
ब्लिक शब्द से तात्पर्य है जीवन तथा जगत के विषय में मनुष्य की एक ऐसी व्यापक एवं स्थायी अभिवृत्ति से है जो तथ्यों एवं तर्कों पर आधारित नहीं होती किंतु जिसका उसके विचारों तथा आचरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यह मनुष्य की एक ऐसी निबौद्धिक मनोवृत्ति है जो उसे जीवन और जगत की समस्यायों के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है। हेयर के विचार में धार्मिक विश्वास तथ्यात्मक न होने के कारण न तो सत्य हो सकता है और न मिथ्या। ऐसी स्थिति में उस कथन को सत्य अथवा मिथ्या सिद्ध करना व्यर्थ है, जिसमें इस धार्मिक विश्वास की अभिव्यक्ति होती है। ईश्वर विश्वास से संबंधित कथन को हेयर ऐसे ही कथन मानते हैं जिनके माध्यम से हम ब्लिक को अभिव्यक्त करते हैं। ये कथन तथ्यपरक या संज्ञानात्मक नहीं होते, अतः उन्हें सत्य अथवा मिथ्या प्रमाणित नहीं किया जा सकता। परंतु हेयर के विचार में संज्ञानात्मक न होते हुए भी ये कथन धर्मपरायण व्यक्तियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये जीवन और जगत के प्रति उनके मूल दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करते हैं। परंतु धार्मिक भाषा के अर्थ निरूपण के संबंध में हेयर का उपर्युक्त सिद्धांत संतोषप्रद प्रतीत नहीं होता।
इस सिद्धांत की मुख्य कठिनाई यह है कि इसके प्रणेता हेयर एक ओर तो धार्मिक विश्वास को निवैद्विक मानते हैं जिसके कारण वह सत्य अथवा मिथ्या नहीं हो सकता ओैर दूसरी ओर वे यह भी कहते हैं कि कुछ धार्मिक अभिवृत्ति और विश्वास उचित होते हैं और कुछ अनुचित। हेयर का यह वर्गीकरण उचित प्रतीत नहीं होता।
हम देखते हैं कि वे धार्मिक कथनों एवं विश्वासों को निवैद्धिक मानते हैं, जो न सत्य हो सकता है और न मिथ्या। अतः उनकी इस मान्यता को उचित या अनुचित सिद्ध करने का कोई तार्किक आधार नहीं रह जाता। दूसरी बात यह है कि कोई भी धार्मिक व्यक्ति इस सिद्धांत का समर्थन नहीं करना चाहेगा। उसका कारण यह है कि धर्मपरायण व्यक्ति अपने धार्मिक कथनों एवं विश्वासों को विशेष अतिप्राकृतिक तथ्यों का वर्णन करने वाले संज्ञानात्मक कथन ही मानते हैं। उदाहरणार्थ जब कोई धार्मिक व्यक्ति यह कहता है कि ईश्वर ने इस जगत की रचना की है तो वह निश्चित रूप से यह मानता है कि उसके ये कथन संवेगात्मक न होकर वास्तव में तथ्यपरक कथन है क्योंकि ये ईश्वर विषयक कुछ विशेष तथ्यों का वर्णन करते हैं। इस प्रकार धर्मपरायण व्यक्ति हेयर के इस दावे को स्वीकार करना नहीं चाहेगा कि उन्होंने अपने ब्लिक सिद्धांत द्वारा मिथ्यायनीयता के आक्रमण से धर्म की रक्षा की है।