Question : मानवतावाद क्या है? उसके विभिन्न प्रकार क्या हैं? एमएन राय का उग्र मानवतावाद मार्क्सवाद से किस प्रकार भिन्न है, चर्चा करें।
(2005)
Answer : मानवतावाद वह मत है जो मुनष्य तथा मुनष्य की महत्ता और उसे गुणों में अर्थात् मानवता में आस्था और विश्वास करता है। मानवतावाद जीवित मानवता से प्रेम है। मानवतावाद का केंद्र बिंदु मनुष्य है। यह मनुष्य के अस्तित्व, उसकी स्वतंत्रता तथा उसके कल्याण का पक्षपाती है। कालिस लेमाण्ट के अनुसार मानवतावाद, विश्वबंधुत्व, अंतरराष्ट्रीय मैत्री और मनुष्य के भातृत्व का समर्थक है। मानवतावाद की परिभाषा से स्पष्ट है कि मानव का स्थान ही सर्वोपरि है। मनुष्य चाहे जिस देश और स्तर का हो उसके प्रति श्रद्धा और उसका हित साधन ही सर्वोपरि होना चाहिए। विश्व धर्मों में मनुष्य के अतिरिक्त सर्वोपरि स्थान अतीन्द्रिय सत्ता को दिया जाता है तथा मोक्ष जैसी परिकल्पना में मनुष्य को उलझाए रखा जाता है, मनुष्य को पूर्णता ईश्वर जैसी सत्ता के हाथ में रहती है अतः मनुष्य गौण हो जाता है और उसके स्थान पर ईश्वर तथा अन्य देवी-देवता पूज्य माने जाते हैं। मनुष्य का गौरव नगण्य हो जाता है। ऐसी दशा में मनुष्य की गरिमा पुनः लौटानी है। मानवतावादी धारणा का यही मूलमंत्र है। मानवतावाद केा अंगरेजी में ह्यूमैनिज्म कहा जाता है। इसका अर्थ मनुष्य की शिक्षा से लिया जाता है, अर्थात् मनुष्य की ऐसी शिक्षा जो उसे बर्बर न रहने दे। उसका व्यवहार अनुशासनबद्ध हो ऐसा प्रशिक्षित और दीक्षित हो कि मनुष्य के अनुकूल व्यवहार कर सके। उसके व्यवहार से ही उसकी श्रेष्ठता प्रकट हो सके। अतः इससे यही सिद्ध होता है कि मानवतावाद मनुष्य को बर्बरता से मुक्त करने का आग्रह करता है।
अत्याचार, निर्दयता, साम्प्रदायिकता आदि सभी मानवता के विपरीत व्यवहार है। मनुष्य के प्रति असहिष्णु होना मानवतावाद को स्वीकार नहीं है। बर्बरता या असहिष्णु होना मानवता में नहीं होनी चाहिए। यदि धर्म में साम्प्रदायिकता और बर्बरता है तो वह मानवतावाद को स्वीकार नहीं है। परंतु विश्व धर्मों में जो संस्थागत भी है, साम्प्रदायिकता देखी जाती है। इसमें समन्वय की कोई गुंजाइश नहीं है। संस्थागत धर्म रक्त रंजित होते हैं। उनमें सहिष्णुता का उपदेश तो है, परंतु सम्प्रदाय विशेष होने के कारण उनका बर्बर और असहिष्णु होना निश्चित है। सहिष्णु मानववाद का पर्याय है। अच्छा यही है कि इन सम्प्रदाय विशेष वाले धर्मों के स्थान पर सहिष्णुता के पोषक और समर्थक मानवतावाद को ही धर्म का स्थान दिया जाए, यही विश्व धर्म का स्थान ले सकती है।
मानवतावाद की मुख्य विशेषताओं या सिद्धांतों के आलोक में भी इसकी अच्छी तरह समझा जा सकता है। यद्यपि मानवतावाद के समर्थकों में भी मतभेद है, फिर भी सबका उद्देश्य एक ही है। मानव जाति का गौरव और उसका हित इस उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए मानवतावाद के मूल मन्तव्यों को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता हैः
लेमांट के अनुसार मानवतावाद प्रकृतिवादी तत्वशास्त्र में आस्था रखता है। प्रकृतिवाद वह सिद्धांत है जो प्रकृति के नियमों में विश्वास रखता है। किसी महिम सत्ता को स्वीकार नहीं करता। अतः मानवतावाद में किसी अतीन्द्रिय सत्ता को महत्व नहीं दिया जाता, प्रकृति जड़ शक्तियों की समष्टि है और वह अपने ही नियमों से संचालित होती है। मानवतावाद यह मानता है कि मनुष्य प्रकृति की उपज है। मनुष्य इस विकासात्मक प्रकृति से उद्भूत हुआ है। देह और मस्तिष्क के विनष्ट होने पर अर्थात् मृत्यु के पश्चात चेतना का लोप हो जाता है। शरीर से भिन्न किसी आत्मा का अस्तित्व नहीं है। किसी मरणोत्तर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। मानवतावाद और जड़वाद में अंतर इसलिए है कि जड़वाद चेतना को स्वीकार नहीं करता, जबकि मानवतावाद मानता है कि जड़ और चेतन के बीच किसी प्रकार का अंतर नहीं है। इसमें चेतना को स्वीकार किया गया है। मानवतावाद मानव की सृजनात्मकता में विश्वास करता है। कला, साहित्य तथा सौंदर्य की चेतना का विकास होना चाहिए। मनुष्य का जीवन साहित्य तथा सौंदर्य की चेतना का विकास होना चाहिए। मनुष्य का जीवन पशु से भिन्न है। उसे सौंदर्य के अनुभव का वाहक होना चाहिए। उसका जीवन सौंदर्य से अभिभूत होना चाहिए।
पहले के मार्क्सवादी और बाद के जीवन में अपने को मानवतावादी विचारक के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले मानवेंद्र नाथ राय ने अपने मानवतावादी सिद्धांत को नव मानवतावाद अथवा वैज्ञानिक मानवतावाद या अविकल मानवतावाद कहा है। वैसे मानवतावाद प्राचीन परम्परा के अनुरूप में रहा है, परंतु आधुनिक युग में विज्ञान के आलोक में मनुष्य को देखना तथा प्राचीन मिथ्यावादी धारणाओं से मनुष्य को मुक्त करना आवश्यक है। इसी अर्थ में इनका मानवतावाद, नव मानवतावाद अथवा वैज्ञानिक मानवतावाद कहलाता है। उनके मानवतावादी विचार न्यु ह्यूमनिज्म तथा रीजन , रोमान्टिसिज्म ऐण्ड रिवोल्युशन में मिलते हैं।
अन्य मानवतावादी विचारकों की भांति राय भी परम्परावादी धर्म की आलोचना करते हैं और उनके स्थान पर मानव को सच्चे धर्म की ओर आकृष्ट करते हैं। उनके अनुसार धर्म का अधार कोई अलौकिक सत्ता नहीं है। धर्म का आधार मानवता है। पूजा, उपासना, कर्मकांड के स्थान पर सदभाव, सहयोग, मैत्री यही मनुष्य के स्वाभाविक गुण भी हैं और धर्म भी। मानवतावाद ही धर्म की वास्तविक रूप है। राय के मानवतावादी सिद्धांत को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता हैः
मानवतावादी परम्परा को देखते हुए हम इसके विविध रूपों पर दृष्टिपात कर सकते हैं। मानवतावाद सामान्यतः तो मानव हितों को प्रमुख मानता है, परंतु मानव हित दो तरीके से किया जा सकता है- एक तो ईश्वरीय सत्ता को आधार रूप में मानकर और दूसरे मनुष्य अपनी शक्ति और क्षमता के आधार पर अपना हित कर सकता है। इस आधार पर मानवतावाद के दो रूप देखे जाते हैं-प्रथम, धर्म से अनुप्रागित मानवतावाद, जिसमें विश्व के सभी धर्म आते हैं। पारलौकिक हित की चिंता इन धर्मों में अधिक की गई है, वैसे सामाजिक या लौकिक हित की पूर्णतया उपेक्षा नहीं की गयी है। इसके अंतर्गत ईश्वरवादी तथा अनीश्वरवादी धर्म जैसे जैन तथा बौद्ध धर्म भी आ जाते हैं। दूसरा भेद, धर्मविरोधी मानवतावाद है। इसे धर्म निरपेक्षतावाद भी कहा जाता है, क्योंकि यह धर्म से तटस्थ रहता है। ईश्वर और पारलौकिक जगत को इसमें कोई स्थान नहीं है। यह केवल मानव के ऐच्छिक सुख और हित का समर्थक है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह ईश्वर तथा धर्म विरोधी है। यह प्रकृतिवादी, जड़वादी तथा प्रजातांत्रिक मानवतावादी है। इसके समर्थक पाश्चात्य विचारकों में जान ड्यूबी, शिलर, रसेल, सार्त्र, लेमांट आदि हैं और भारतीय चिंतकों में एमएन राय तथा उनसे प्रभावित पं. जवाहरलाल नेहरू को माना जाता है।
सही अर्थों में हमारा संबंध मानवतावाद के इसी दूसरे भेद अर्थात धर्म विरोधी मानवतावाद से है। यही मानवतावादी धारणा नए रूप में हमारे सामने प्रस्तुत की गयी है। नए रूप में इसलिए कि सामान्यतया तो सभी धर्मों में मानव के हित की बात की गयी है परंतु धर्मों में मतैक्य नहीं है, संघर्ष और खुन-खराब है। दैवी सत्ता पर निर्भरता है, मनुष्य को सर्वोपरि स्थान नहीं दिया है। उसमें इहलौकिक जगत की उपेक्षा करके पारलौकिक जगत को अधिक महत्व दिया गया है। अतः विश्व में एक नए विश्व धर्म की कल्पना की गयी। प्राचीन धर्म जो दैवी सत्ता का सहारा लेते हैं या पारलौकिक जगत को महत्व देते हैं, विश्व धर्म का स्थान नहीं ले सकते। कहा जाता है कि इटली में चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी के लगभग मानवतावाद का प्रचार आरंभ हुआ है। यद्यपि उस समय धर्मों का विरोध नहीं किया गया था, परंतु शान्ति और सुरक्षा के लिए धार्मिक सहिष्णुता पर अधिक जोर दिया गया। उसी समय में प्रकृतिवादी विचारधारा ने भी जोर पकड़ा था। आगे चलकर यही मानवतावाद इतना प्रचलित हुआ कि बीसवीं सदी में इसे विश्व धर्म के रूप में स्वीकार कर लिए जाने पर दिया जाने लगा।
इस अर्थ में मानवतावाद नितांत रूप में पाश्चात्य अवधारणा है, जिसका प्रबल रूप 1933 में घोषणा पत्र के रूप में प्रकट होता है। मानवतावाद की आधुनिक धारणा के पीछे यूरोप और अमेरिकी की आर्थिक व्यवस्था का चरमरा जाना कहा जा सकता है, क्योंकि उस समय वहां की आर्थिक, व्यावसायिक तथा औद्योगिक व्यवस्था बिगड़ चुकी थी। ऐसी स्थिति में अमरीकी विचारकों ने जो विज्ञान की उपलब्धियों और अनुभववादी विचारधारा से अधिक प्रभावित थे, यह धारणा बना ली कि मनुष्य बिना किसी दैवी सत्ता के ही अपनी शक्ति और क्षमता के आधार पर अपनी सहायता कर सकता है, प्रगति तथा सुख सुविधा की वृद्धि कर सकता है। इसके संबंध में जो घोषणा पत्र जारी किया गया, उसको संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता हैः
इस घोषणा पत्र से प्रभावित होकर सन 1934 में जान ड्यूबी ने अपने मानवतावादी दृष्टिकोण को एकामन फेथ नामक पुस्तक में प्रतिपादित किया। इसके अनुसार मानवतावादी धर्म प्रकृतिवादी होता है। मानव आदर्शों मूल्यों पर निर्भर है। किसी पराशक्ति की आवश्यकता नहीं है। ऐहिक जीवन को सुधारना इनका लक्ष्य है। परम्परावादी धर्म दैवीसत्ता को महत्व देते हैं, परंतु ड्यूवी प्रकृति को ही अनुकरणीय मानते हैं और पारलौकिक जगत की सत्ता को स्वीकार करते हैं। मानव के सहयोग के द्वारा संपूर्ण मानव जाति के कल्याण की बात करनी चाहिए। इस अर्थ में मानवतावाद को सर्वोपरि मानकर ड्यूटी अनीश्वरवाद के स्वीकार करते हैं।
जान ड्यूबी से प्रभावित होकर कार्लिस लामेंट ने भी मानववाद को विश्व धर्म के रूप में स्वीकार किया। लामेंट मानवतावाद के प्रकृतिवादी और वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हैं। इनके अनुसार मानवतावाद किसी दैवी सत्ता को प्रश्रय नहीं देता। इनका मानवतावाद आशावादी है। इसमें दैववाद और नियतिवाद का कोई स्थान नहीं है। मनुष्य स्वतः अपने भाग्य का निर्माता है।Question : सर्वधर्म समभाव पर महात्मा गांधी के विचार।
(2002)
Answer : यदि व्यावहारिक दृष्टि से सर्वधर्म समन्वय तथा सार्वभौम धर्म की स्थापना संभव नहीं है और इस संसार में बहुत से अलग-अलग धर्मों का बना रहना अनिवार्य है तो धर्म के नाम पर संघर्ष की समस्या के समाधान के लिए गांधीजी ने एक नया समाधान प्रस्तुत किया था, जिसके अनुसार हम अपने धर्म के साथ-साथ दूसरों के धर्मों का भी समान रूप से आदर करना सीखें। स्वयं अपने धर्म के प्रति श्रद्धा रखते हुए हम सच्चे हृदय से यह स्वीकार करें कि जिस प्रकार हमें अपना धर्म उत्कृष्ट एवं प्रशंसनीय प्रतीत होता है, उसी प्रकार अन्य सभी धर्मावलंबियों के लिए भी उनके अपने अपने धर्म विशेष रूप से महत्वपूर्ण तथा सम्माननीय हैं। समस्त धर्मों के विषय में इस दृष्टि से विचार करने पर हम अपने धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों के प्रति भी आदर की भावना सीख सकते हैं। धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता पर आधारित इसीविचारधारा को गांधीजी ने सर्वधर्म समभाव की संज्ञा दी है, जिसे वे अपने एकादश व्रतों में से एक अनिवार्य व्रत के रूप में स्वीकार करते हैं। इसका निष्ठापूर्वक पालन करना वे सभी मनुष्यों के लिए बहुत आवश्यक मानते हैं। गांधीजी के पूर्व भी एक अन्य विचारक स्वामी विवेकानंद जी ने इसी सर्वधर्म समभाव का समर्थन किया था, किंतु इसकी विस्तृत विवेचना गांधीजी ने की थी। उनका निश्चित मत है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत के अनुसार ही सदा आचरण करना चाहिए। यह सिद्धांत सभी धर्मों को उत्कृष्ट तथा सम्मानीय मानता है और हमें इन सबका समान रूप से आदर करने की शिक्षा देता है। सर्वधर्म समभावसंबंधी अपने इसी सिद्धांत की व्याख्या करते हुए गांधीजी ने लिखा है कि अपने-अपने धर्म के सिद्धांतों के अनुसार आचरण करते हुए हमें एक-दूसरे के उत्तम सिद्धांतों को स्वीकार करना चाहिए और इस प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के मानव प्रयास में अपना योगदान देना चाहिए। मेरा विचार यह है कि सभी महान धर्म मूलतः समान हैं। हमें एक-दूसरे धर्मों का उसी प्रकार आदर करना चाहिए, जिस प्रकार हम अपने धर्म का सम्मान करते हैं। मेरे विचार में विभिन्न धर्म एक ही उद्यान के सुंदर फूल तथा एक ही महावृक्ष की शाखाएं हैं, अतः वे समान रूप से सत्य हैं। परंतु वे समान रूप से अपूर्ण भी है, क्योंकि मनुष्य ही उन्हें ग्रहण करते हैं और उनकी व्याख्या करते हैं।
सर्व-धर्म-सम्भाव के विषय में गांधीजी के उपर्युक्त विचारों से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि उनके अनुसार यह सिद्धांत न तो सभी धर्मों के समन्वय का आग्रह करता है और न किसी एक धर्म के सार्वभौम धर्म मान लेने का। यह इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि संसार में अनेक अलग-अलग धर्म है और बने रहेंगें। इसी कारण यह सिद्धांत हमें बताता है कि इन सभी धर्मों को समुचित महत्व देते हुए हमें इन सबका समान रूप से आदर करना सीखना चाहिए। गांधीजी का विचार है कि इस धार्मिक सहिष्णुता एवं उदार दृष्टिकोण द्वारा ही विभिन्न धर्मानुयायियों में विद्यमान वैमनस्य तथा उनमें होने वाले पारस्परिक कलह का निराकरण किया जा सकता है। यदि सभी मनुष्य अपने धर्म के साथ-साथ अन्य धर्मों का भी सम्मान करना सीख लें, तो संसार से वह धार्मिक कट्टरता दूर हो सकती है, जो विभिन्न धर्मावलंबियों में शत्रुता उत्पन्न करती है और जिसके कारण उनमें निरंतर रक्तरंजित संघर्ष होता रहता है। इस दृष्टि से गांधीजी के सर्वधर्म सम्भाव संबंधी सिद्धांत का संपूर्ण मानव जाति के लिए विशेष व्यावहारिक महत्व है। यह सिद्धांत विभिन धर्मावलम्बियों में परस्पर आवश्यक है कि इसे सच्चे हृदय से स्वीकार किया जाए और सदा इसके अनुरूप आचरण किया जाए। इस सिद्धांत को कार्यान्वित करने में वे सब व्यावहारिक तथा सैद्धांतिक कठिनाइयां भी नहीं हैं, जो सर्व धर्म सम्भाव एवं सार्वभौम की स्थापना में पाई जाती है। परंतु गांधीजी के सर्वधर्म सम्भाव को व्यावहारिक रूप से लागू करना मुश्किल है। हमें इस तथ्य को भली भांति समझना होगा कि स्वयं अपने धर्म के प्रति हममें जो विशेष संवेदनशीलता पाई जाती है। अन्य सभी धर्मावलंबी भी अपने-अपने धर्मों के प्रति वैसे ही संवेदनशीलता का अनुभव करते हैं। अतः उनकी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचना निंदनीय है। धर्म के प्रति यही उदार दृष्टिकोण हममे धार्मिक सहिष्णुता उत्पन्न कर सकता है जो सर्वधर्म सम्भाव को लागू करने के लिए आवश्यक है।
Question : धर्मविहीन राजनीति नितांत निंदनीय है जिससे हमेशा बचना चाहिए-महात्मा गांधी।
(2001)
Answer : गांधीजी की समस्त क्रियाओं का प्रधान प्रेरक तत्व धर्म था। उनका विश्वास था कि मानव जीवन का अंतिम ध्येय ईश्वर की प्राप्ति है और हमारी समस्त क्रियाएं प्रभुदर्शन के अंतिम उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही होनी चाहिए। गांधीजी ने मानव जीवन में धर्म को इतना प्रधान स्थान इसलिए दिया है, क्योंकि वह जीवन के लौकिक और धार्मिक पक्षों में कोई विभेद नहीं करते थे जैसा कि सामान्यतः किया जाता है, अतः उनके लिए धर्म का संबंध जीवन के किसी एक भाव या अंश विशेष से नहीं होता, हमारा सारा जीवन बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक धर्म से प्रेरित होना चाहिए। उनके शब्दों में, मनुष्य का समग्र कार्य व्यापार एक अविभाज्य इकाई है। हम सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक तथा विशुद्ध रूप से धार्मिक क्रियाओं को विभिन्न टुकड़ों में विभक्त नहीं कर सकते। मानव क्रिया से अलग में किसी धर्म को नहीं जानता। धर्म ही समस्त क्रियाएं को वह नैतिक आधार प्रदान करता है जो उनमें अन्यथा नहीं रहेगा, धर्म के अभाव में जीवन एक निरर्थक चीत्कार बन कर रह जाएगा। गांधी जी एक महान कर्मयोगी थे और इसलिए वह जीवन को एक अविभाज्य इकाई समझते थे, जिसकी विभिन्न क्रियाओं को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता। जीवन में एक अविभाज्य इकाई होने की इस धारणा को ध्यान में रखकर ही हम गांधीजी के इस कथन की सत्यता समझ सकते हैं कि मैंने अपने धार्मिक कर्तव्यों के एक अंग के रूप में ही राजनीति में भाग लिया। उनके शब्दों में, मैंने राजनीति में प्रवेश इसलिए किया क्योंकि आज राजनीति हमसे एक सर्पिणी की भांति लिपटी हुई है, जिससे हम अलग नहीं हो सकते, चाहे हम कितना ही प्रयत्न क्यों न करें। मैं उस सर्पिणी से लड़ना चाहता हूं। मैं राजनीति में धर्म को प्रविष्ट करने की चेष्टा कर रहा हूं। जीवन संबंधी इस धारणा ने उन्हें न केवल राजनीति का बल्कि जीवन की शैक्षणिक, व्यापारिक, औद्योगिक तथा सामाजिक क्रियाओं का भी आध्यात्मिकरण करने के लिए भी प्रेरित किया। उन्होंने कहा राजनीति राजनीति है और व्यापार व्यापार है। उनका विश्वास था कि यदि जीवन के एकीकरण के कारक के रूप में धर्म का परित्याग कर दिया गया और जीवन के लौकिक तथा धार्मिक पक्षों के पार्थक्य की एक दीवार खड़ी कर दी गई तो धर्म का प्रतिष्ठित स्थान जाता रहेगा और वह अपना वास्तविक कार्य करना बंद कर देगा, जिसके लिए उसका अस्तित्व है, इसलिए गांधीजी ने घोषणा की कि धर्म विहीन राजनीति एक मौत का फंदा है जो कि आत्मा ही हत्या कर देता है। यह विश्वास गांधीवाद का एक अभिन्न अंग है कि कोई भी लौकिक सभ्यता अधिक दिन तक जीवित नहीं रह सकती यदि जीवन के उच्चतर मूल्यों की जो कि मूलतः आध्यात्मिक है अपने आत्मसात नहीं कर लेती। जीवन को अनैतिक तत्वों से परिष्कृत करने और उच्चतर जीवन की ओर ले जाने वाली शक्तियों को जागृत करने का गांधीजी ने प्रयास किया। जिस बात ने गांधीजी को एक विश्वव्यापी ख्याति प्रदान की और उनके विचारों को विश्वव्यापी महत्व प्रदान किया वह है, उनका राजनीति के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण। यदि गांधीजी भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले केवल एक राजनीतिक नेता होते तो उनको मैत्रिनी, गौरीबाल्डी, हैम्पिडन, डीवैलरा, जगलुल पाशा तथा सन्यात सेन सरीखे संसार के राष्ट्र नायकों की श्रेणी में रखा जाता, उनकी तुलना जोराष्टर, ईसामसीह तथा बुद्ध सरीखे महान धर्म प्रवर्तकों तथा प्रभु भक्तों से न की जाती।
Question : भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता।
(2000)
Answer : धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र वह है, जिसमें शिक्षा, नैतिकता, कानून, राजनीति-आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन धर्म से पूर्णतः स्वतंत्र है अर्थात् ये सब धार्मिक विश्वासों तथा सिद्धांतों द्वारा शासित नहीं होते। यह सत्य है कि भारत का कोई राजकीय धर्म नहीं है और हमारा संविधान किसी विशेष धर्म को प्रश्रय देने तथा धर्म के आधार पर नागरिकों में भेदभाव करने का पूर्णतः निषेध करता है। इस दृष्टि से भारत में भी किसी विशेष धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, जैसा कि हमें नेपाल, पाकिस्तान में देखने को मिलता है। परंतु उन्हीं तथ्यों के आधार पर भारत को धर्मनिरपेक्ष नहीं कहा जा सकता। धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि हमारे देश में आज भी शिक्षा, कानून, राजनीति तथा सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर धर्म का पर्याप्त प्रभाव है। भारत में ऐसी बहुत सी धार्मिक संस्थाएं हैं जो नैतिक शिक्षा के नाम पर किसी विशेष धर्म के सिद्धांतों, विश्वासों तथा कर्मकांड को शिक्षा देती है। यही नहीं, स्वयं भारत सरकार संविधान के अनुसार धार्मिक दृष्टि से अल्पसंख्यक वर्गों द्वारा स्थापित धार्मिक शिक्षा संस्थाओं को आर्थिक सहायता भी प्रदान करती है। इस सहायता के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि इसके बिना ये धार्मिक शिक्षा संस्थाएं अपना कार्य नहीं कर सकतीं। यह सरकारी सहायता निश्चय ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा के विरूद्ध है, क्योंकि इसका अर्थ यही है कि स्वयं सरकार किसी विशेष धर्म को प्रश्रय तथा प्रोत्साहन देती है। इसके अलावे धार्मिक दृष्टि से अल्पसंख्यक वर्गों के नागरिकों पर विवाद, उत्तराधिकार आदि से संबंधित उनके प्राचीन परंपरागत धार्मिक कानून लागू होते हों, यहां आज भी देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून संहिता का निर्माण नहीं हो सका है। भारत में अनुसूचित जातियों के लिए संविधान द्वारा विशेष आरक्षण की व्यवस्था की गई है, वह भी मूलतः धर्म पर ही आधारित है। कुछ विशेष धर्मों के अनुयायियों को अनुसूचित जातियों के अंतर्गत मानकर उन्हें यह आरक्षण दिया जाता रहा है। यही नहीं यहां अल्पसंख्यक वर्ग भी धर्म के आधार पर आरक्षण की मांग करने लगे हैं। शिक्षा तथा कानूनों की भांति हमारे देश का राजनैतिक जीवन की मुख्यतः धर्म द्वारा ही शासित होता है। सभी राजनीतिक दल चुनावों में मत प्राप्त करने के लिए किसी न किसी रूप में धर्म का सहारा लेते हैं। राजनीतिक और मंत्रीगण खुलेआम धार्मिक समारोहों में भाग लेते हैं। कुछ राजनीतिक हल भी ऐसे हैं, जिनका निर्माण धर्म के आधार पर हुआ है। इसके अलावा यहां के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन पर भी धर्म का गहरा तथा व्यापक प्रभुत्व है। यहां की कला एवं संस्कृति भी धर्म से ओत-प्रोत है। चूंकि राष्ट्र समाज से अलग कोई भिन्न वस्तु नहीं होती, अतः राष्ट्र को समाज के अनुरूप ही चलना पड़ता है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। परंतु भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता की एक अलग परिभाषा भारत के धर्मनिष्ठ सांस्कृतिक विरासत और धर्म को सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न को देखते हुए संविधान में इसे एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया गया है- जिसका अर्थ यह है कि भारत किसी धर्म विशेष को प्रश्रय न देकर सभी धर्मों को समान भाव से देखता है और इस दृष्टि से यह सभी धर्मों के लिए समन्वय का भाव रखता है।
Question : मानववाद की व्याख्या कीजिए तथा उत्कट (उग्र) मानववाद के मूलभूत लक्षणों का विवेचन कीजिए।
(1999)
Answer : मानवतावाद वह मत है जो मनुष्य तथा मनुष्य की महत्ता और उसके गुणों में अर्थात् मानवता में आस्था और विश्वास करता है। मानवतावाद जीवित मानवता से प्रेम है। मानवतावाद का केंद्रबिंदु मनुष्य है। यह मनुष्य के अस्तित्व, उसकी स्वतंत्रता तथा उसके कल्याण का पक्षपाती है। कालिस लेमाण्ट के अनुसार मानवतावाद, विश्वबंधुत्व, अंतरराष्ट्रीय मैत्री और मनुष्य के भ्रातृत्व का समर्थक है। मानवतावाद की परिभाषा से स्पष्ट है कि मानव का स्थान ही सर्वोपरि है। मनुष्य चाहे जिस देश और स्तर का हो, उसके प्रति श्रद्धा और उसका हित साधन ही सर्वोपरि होना चाहिए। विश्व धर्मों में मनुष्य के अतिरिक्त सर्वोपरि स्थान अतीन्द्रिय सत्ता को दिया जाता है तथा मोक्ष जैसी परिकल्पना में मनुष्य को उलझाए रखा जाता है, मनुष्य की पूर्णता ईश्वर जैसी सत्ता के हाथ में रहती है, अतः मनुष्य गौण हो जाता है और उसके स्थान पर ईश्वर तथा अन्य देवी-देवता पूज्य माने जाते हैं। मनुष्य का गौरव नगण्य हो जाता है। ऐसी दशा में मनुष्य की गरिमा पुनः लौटानी है। मानवतावादी धारणा का यही मूल मंत्र है। मानवतावाद को अंगरेजी में ह्यूमैनिज्म कहा जाता है। इसका अर्थ मनुष्य की शिक्षा से लिया जाता है, अर्थात् मनुष्य की ऐसी शिक्षा जो उसे बर्बर न रहने दे। उसका व्यवहार अनुशासन दहन हो, ऐसा प्रशिक्षित और दीक्षित हो कि मनुष्य के अनुकूल व्यवहार कर सके। उसके व्यवहार से ही उसकी श्रेष्ठता प्रकट हो सके। अतः इससे यही सिद्ध होता है कि मानवतावाद मनुष्य को बर्बरता से मुक्त करने का आग्रह करता है।
अत्याचार, निर्दयता, साम्प्रदायिकता आदि सभी मानवता के विपरीत व्यवहार हैं। मनुष्य के प्रति असहिष्णु होना मानवतावाद को स्वीकार नहीं है। बर्बरता या असहिष्णुता किसी भी क्षेत्र में नहीं होनी चाहिए। यदि धर्म में साम्प्रदायिकता और बर्बरता है तो वह मानवतावाद को स्वीकार नहीं है। परंतु विश्व धर्मों में जो संस्थागत भी है, साम्प्रदायिकता देखी जाती है। इसमें समन्वय की कोई गुंजाइश नहीं है। संस्थागत धर्म रक्त रंजित होते हैं। उनमें सहिष्णुता का उपदेश तो है परंतु सम्प्रदाय विशेष होने के कारण उनका बर्बर और असहिष्णु होना निश्चित है, सहिष्णु मानवतावाद का पर्याय है। अच्छा यही है कि इन सम्प्रदाय विशेष वाले धर्मों के स्थान पर सहिष्णुता के पोषक और समर्थक मानवतावाद को ही धर्म का स्थान दिया जाए। यही विश्व धर्म का स्थान ले सकती है।
मानवतावाद की मुख्य विशेषताओं या सिद्धांतों के आलोक में भी इसको अच्छी तरह समझा जा सकता है। यद्यपि मानवतावाद के समर्थकों में भी मतभेद है, फिर भी सबका उद्देश्य एक ही है, मानव जाति का गौरव और उसका हित इस उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए मानवतावाद के मूल गन्तव्यों को निम्नलिखित रूपों में देखा जा सकता है-
लेमांट के अनुसार मानवतावाद प्रकृतिवादी तत्वशास्त्र में आस्था रखता है। प्रकृतिवाद वह सिद्धांत है जो प्रकृति के नियमों में विश्वास रखता है। किसी बाह्य सत्ता को स्वीकार नहीं करता। अतः मानवतावाद में किसी अतीन्द्रिय सत्ता को महत्व नहीं दिया जाता, प्रकृति जड़ शक्तियों की समष्टि है और वह अपने ही नियमों से संचालित होती है। मानवतावाद यह मानता है कि मनुष्य प्रकृति की उपज है। मनुष्य इस विकासात्मक प्रकृति से उद्भूत हुआ है। देह और मस्तिष्क के विनिष्ट होने पर अर्थात् मृत्यु के पश्चात् चेतना का लोप हो जाता है। शरीर से भिन्न किसी आत्मा का अस्तित्व नहीं है। किसी मरणोत्तर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। मानवतावाद और जड़वाद में अंतर इसलिए है कि जड़वाद चेतना को स्वीकार नहीं करता, जबकि मानवतावाद मानता है कि जड़ और चेतन के बीच किसी प्रकार का अंतर नहीं है। इसमें चेतना को स्वीकार किया गया है। मानवतावाद मानव की सृजनात्मकता में विश्वास करता है। कला, साहित्य तथा सौंदर्य की चेतना का विकास होना चाहिए। मनुष्य का जीवन पशु से भिन्न है। उसे सौंदर्य के अनुभव का वाहक होना चाहिए। उसका जीवन सौंदर्य से अभिभूत होना चाहिए।
पहले के मार्क्सवादी और बाद के जीवन में अपने को मानवतावादी विचारक के रूप में प्रतिष्ठित करने वाले मानवेंद्र नाथ राय ने अपने मानवतावादी सिद्धांत को नव मानवतावाद अथवा वैज्ञानिक मानवतावाद या अविकल मानवतावाद कहा है। वैसे मानवतावाद प्राचीन परम्परा के अनुरूप में रहा है, परंतु आधुनिक युग में विज्ञान के आलोक ने मनुष्य को देखना तथा प्राचीन मिथ्यावादी धारणाओं से मनुष्य को मुक्त करना आवश्यक है। इसी अर्थ में इनका मानवतावाद, नव मानवतावाद अथवा वैज्ञानिक मानवतावाद कहलाता है। इनके मानवतावादी विचार न्यू ह्यूमनिज्म तथा रीजन, रोमान्टिसिज्म ऐंड रिवोल्युशन में मिलते हैं।
अन्य मानवतावादी विचारकों की भांति राज्य की परम्परावादी धर्म की आलोचना करते हैं और उनके स्थान पर मानव को सच्चे धर्म की ओर आकृष्ट करते हैं। उनके अनुसार धर्म का आधार कोई आलौकिक सत्ता नहीं है। धर्म का आधार मानवता है। पूजा, उपासना, कर्मकांड के स्थान पर सद्भाव, सहयोग, मैत्री यही मनुष्य के स्वाभाविक गुण भी हैं और धर्म भी। मानवतावाद ही धर्म का वास्तविक रूप है। राय के मानवतावादी सिद्धांत को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता हैः
Question : समाजवादी मानवतावाद।
(1998)
Answer : मानवतावाद वह मत है जो मनुष्य तथा मनुष्य की महत्ता और उसके गुणों में अर्थात मानवता में आस्था और विश्वास करता है। मानवतावाद जीवित मानवता से प्रेम है। मानवतावाद का केंद्र बिंदु मनुष्य है। यह मनुष्य के अस्तित्व, उसकी स्वतंत्रता तथा उसके कल्याण का पक्षपाती है। इस दृष्टिकोण से समाजवाद को भी मानवतावादी दर्शन के रूप में माना जाता है। समाजवादी मानवतावाद का उद्देश्य घोर अन्याय को दूर करना है, जो कि उस पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम है, जिसमें भूमिपति तथा पूंजीपति उस अंतरात्मक लाभ को हड़प लेते हैं जो कि इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि समाज की आवश्यकता की पूर्ति के लिए हीनतर भूमि पर खेती करना है और कम लाभकारी स्थानों पर और कम लाभकारी स्थितियों में कारखाने चलाना आवश्यक हो जाता है। इसके अतिरिक्त खेती, व्यापार और उद्योग की उन्नति अनुसंधानकर्ताओं की गवेषणाओं तथा आविष्कारों और उनके प्रयत्नों के द्वारा होती है जो कि नई-नई मशीनें बनाते हैं तथा प्रबंध को अधिक कुशल बनाते हैं, इसलिए भूमिपतियों तथा पूंजीपतियों का लाभ वास्तव में सामाजिक प्रयत्न का फल है। अतः वह समाज का फल है। न्याय इस बात की मांग करता है कि श्रमिक को सामाजिक जीवन में अधिक ऊंचा और प्रतिष्ठित स्थान मिलना चाहिए और उसे अधिक कुशल बनाया जाना चाहिए, वस्तुतः समाजवाद प्राणिमात्र के कल्याण की बात करता है और इस दृष्टिकोण से वह समानता को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। समाजवादी मानवता में स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का लक्ष्य होता है। यह तभी संभव है, जब व्यक्ति भौतिक चिंताओं से मुक्त होगा इस स्थिति में ही व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है, परंतु व्यक्ति की स्वतंत्रता तब तक संभव नहीं है, जब तक व्यस्क सामाजिक संगठन न हो। पुनः समाजवादी मानवतावाद उत्कृष्ट जीवन को प्राथमिक मानता है। उत्कृष्ट जीवन का अर्थ है उच्चतम गुणों से संपन्न व्यक्ति। अतः समाजवाद का दर्शन मानव जीवन, सभ्यता तथा संस्कृति को उत्कृष्टता प्रदान करने का पक्षपाती है। जीवन की उत्कृष्टता तभी संभव है, जब जीवन संघर्षों से मुक्त हो। समाजवादी मानवतावाद का लक्ष्य जीवन को चिरस्थायी बनाने की अपेक्षा उत्कृष्ट जीवन जीना है, समाजवाद चाहता है कि मनुष्य अच्छा जीवन जीने के लिए संघर्षों और चिंताओं से मुक्त हो और उसके भीतर ऐसी क्षमता उत्पन्न हो कि वह जीने के लिए संघ्ार्षों और चिंताओं से मुक्त हो और वह उच्चतम गुणों से संपन्न जीवन जी सके। ऐसे जीवन के लिए मनुष्य को एक स्वस्थ जीवन दर्शन का निर्माण करना होगा और एक ऐसे जीवन मूल्य को निर्धारित करना होगा जो उत्कृष्ट जीवन का निर्माण कर सके, अर्थात् मनुष्य को यह निश्चित करना हेागा कि जीवन में कौन-सी वस्तु मूल्यवान है। समाजवादी मानवतावाद में व्यक्ति के श्रम को अत्यधिक महत्व प्रदान किया गया है। वह बिना श्रम किए किसी व्यक्ति के लिए सुखी जीवन व्यतीत करना उचित नहीं मानता, परंतु साथ ही इसके अंतर्गत व्यक्ति की योग्यता एवं सामर्थ्य को भी उचित महत्व प्रदान किया गया है।